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हा धरणिहि सगुणणिलयट्ठाह, वर सेज्जहि भरभवणेहि नाहि । पठ विणु सुण्णउं राउल असेसु, अण्णाहि हुवउ दिव्य देसु । हा गुणसायर, हा रूवजय हा बहरि महण सोहाध घरा । धत्ता — हा महुरालावण, सोहियसंदण, अम्हं सामिय करहिं । दुक्ख हि संतत्तउ, करुण रुवंतउ, उट्ठिवि परियणु संघवहि ॥५६, १
कविने संसार के यथार्थंरूपका भी चित्रण किया है। सबल राज्य तत्क्षण नष्ट हो जाते हैं। धनसे भी कुछ नहीं होता । सुख बन्धु बान्धव, पुत्र, कलत्र, मित्र, किसके रहते हैं ? वर्षाके जलबुलबुलोंके ममान संसारका वैभव क्षणभरमें नष्ट हो जाता है । जिस प्रकार वृक्षपर बहुतसे पक्षी आकर एकत्र हो जाते हैं और फिर प्रातःकाल होते ही अपने-अपने कार्योंसे विभिन्न स्थानोंपर चले जाते हैं, अथवा जिस प्रकार बहुतसे पथिक नदी पार करते समय नौका पर एकत्र हो जाते हैं, और फिर अपने-अपने घरोंको चले जाते हैं, उसी प्रकार क्षणिक प्रियजनोंका समागम होता है । कभी धन आता है, कभी नष्ट होता है, कभी दारिद्र्य प्राप्त होता है, भोग्य वस्तुएँ प्राप्त होती हैं और विलीन होती हैं, फिर भी अज्ञ मानव गर्व करता है। जिस यौवन के पीछे जरा लगी रहती है उससे कौन-सा सन्तोष हो सकता है ?" इस प्रकार ग्रन्थकर्त्ताने संसारकी वास्तविक स्थितिका उद्घाटन किया है।
रस और अलंकारके समान ही छन्द-योजनाको दृष्टिसे भी ग्रन्थ समृद्ध है । सामान्य छन्दों के अतिरिक्त नागिनी, ८९ १२, सोमराजी १९०१४, जाति ९०१५, विलासिनी ९०१८ आदि छन्दोंका प्रयोग मिलता है। कड़वकों के अन्तम प्रयुक्त पत्ता - छन्द के अनेक रूप हैं ।
हरिषेण
हरिषेण मेवाड़ में स्थित चित्रकूट (चित्तौड़) के निवासी थे । इनका वंश वक्कड़ या घरकट था, जो उस समय प्रसिद्ध और प्रतिष्ठित था । इस वंश में अनेक कवि हुए हैं । इनके पिताका नाम गोवर्द्धन और माताका नाम गुणवती था । ये किसी कारणवश चित्रकूट छोड़कर अचलपुरमें रहने लगे थे । प्रशस्तिमें बताया है
इह मेवाड़ देसि जण संकुलि, सिरिउजहर णिग्गय धक्कड - कुलि । पावकरिद कुम्भ-दारण हरि, जाउ कलाहि कुसल णामें हरि ।
१. हरिवंशपुराण ९१.७ ॥
१२० तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा