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________________ जसु तेय जलणि नक्षीवियंगु, जलनिहि सलिलठ्ठिउ सिरिचु वंगु । आइच्चु वि दिणि दिणि देइ झंप, तत्तेअ तत्तु जय जणिय कंप। ' सबकुवि निपाइउ पढमु तासु, अब्भास करणि पडिमहं पयास । रूवाहकारिउ काम वीरू, किउ तासु अंगु मलिनहु सरीरु । धत्ता–तिहयणि बहु-गुणणि तसु पडिछंदु न दीसइ : होसइ गुण लेसइ जसु वाई सरिसी सइ ।। १९ ।। नारी-चित्रणमें भी कविने अलंकारोंका प्रयोग नहीं किया है। कथाके प्रवाहमें वस्तुरूपात्मक ही चित्रण किया गया है । यद्यपि अंग-प्रत्यंगका चित्रण कविने किया है; पर भुक्त उपमानोंसे आगे नहीं बढ़ सका है सिरिकताणामें तास कता, बहुरूव लछि सोहगा वंता । जीयें मुहु इंदहलंण वाणउ, जे पुष्णिमचंदहु उवमाण । तास तरलु णिम्मिलु जुउ णित्तहं, णं अलि उरि ठिउ केइय पत्तह । जइ सवणू जुवलु सोहाविलासु, णं मयण विहंगम धरण पासु । वच्छच्छलु में पीऊस कुंभ, अह मयण-गंध-गय-पीण-चुभ 1 अइ क्खीणु मज्झु णं पिसुणजण, यण रमण गुरुत्तणि कुवियमणू। जह पिहुल णियंवज अप्पमाणु, ठिउ मयणराय पीढहु समाणु । पत्ता-हा इय मयणहु, जयजय जयणहु, उरु जुअल घर तोरणु । अइ कोमल स्तुप्पलु जिय पय कतिहिं चोरणु ॥ २११०।। इस ग्रंथमें छन्दोंका वैविध्य भी नहीं है और अलंकारोंका प्रयोग भी सामान्य रूपमें हुआ है । यह सत्य है कि रसमय स्थलोंकी कमी नहीं है। देवचन्द कवि देवचन्दने 'पासणाहरिज' की रचना गुदिज्ज नगरके पार्श्वनाथ मंदिरमें की है। गुंदिज्जनगर दक्षिण भारतमें कहीं अवस्थित है। कविने ग्रंथके अन्तमें अपना परिचय दिया है, जिससे ज्ञात होता है कि कवि मूलसंघ गच्छके विद्वान वासवचन्दका शिष्य था। अन्तिम प्रशस्तिसे गुरुपरम्परा निम्नप्रकार ज्ञात होती है श्रीकीर्ति देवकीति १८० : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
SR No.090510
Book TitleTirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherShantisagar Chhani Granthamala
Publication Year
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size10 MB
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