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कि चतुर्मुख, स्वयंभू और पुष्पदन्तने जिस सरस्वतीकी रक्षा की थी उसी सरस्वतीरूपी गोके दुग्धका पान कर कविने अपनी इस कृतिको लिखा है-
चउमुह-सयंभु- मुहि रक्खिय दुहिय जा पुफ्फयंतेण । सरसइ - सुरहीए पयं पियं सिरिदेवसे ॥१०१॥
मंगल-स्तवनके अनन्तर कविने गुरु विमलसेनका स्तवन किया है। पूर्वकालीन कवियों का उल्लेख करनेके पश्चात् सज्जन दुर्जनका स्मरण किया गया हैं | काव्यमें मगव, राजगृह आदिके काव्यमय वर्णन उपलब्ध होते हैं । श्रृङ्गार, वीर और भयानक रसोंका सांगोपांग चित्रण हुआ है ।
युद्ध-वर्णन तो कविका अत्यन्त सजीव है । युद्धकी अनेक क्रियाओंको अभिव्यक्त करनेके लिए तदनुकूल शब्दोंकी योजना की गई है । झर-झर रुधिरका बहना, चर चर चर्मका फटना, कड़कड़ हड्डियों का टूटना या मुड़ना आदि वाक्य युद्धके दृश्यका सजीव चित्र उपस्थित करते हैं
असि हिसण उद्विय सिहि जालई, जोह मुक्क जालिय सर जालई । पहरि-परि आमिल्लिय सहई, अरि वर घड थक्कय सम्मई । झरझरंत पर्वाहय बहुस्तरं णं कुसंभ रय राएँ रत्तई । चरर्यरत फाडिय चल चम्मई, कसमसंत चरिय तणु वम्मई | कइयत मोडिय चण हहुई, मंस खण्ड पोसिय भेरुंडई | दडदड़ंत धात्रिय वरुडई, हुंकरंत धरणि वडिय मुंडई | ६ | ११
कविने जय और अर्केकीत्तिके युद्धवर्णन प्रसंग में भुजंगप्रयातछन्द द्वारा योद्धाओंकी गतिविधिका बहुत ही सुन्दर चित्रण किया है
भडो को विखण खगं खलंतो रणे सम्मुद्दे सम्मुह आणतो । भड़ो को विवागण वाणो दलंतो, समद्धाइउ दुद्धरां णं कयंतो । भडो को fair कोंतं सरंतो, करे गीढ चक्को अरी संपतो । भडो को विखंडेहि खंडी कथंगो, भड़ंत णमुक्को संगालो अभंगो । भडो को वि संगामभूमी घुलतो, विवण्योहु गिद्धावलो गोल अंती । भो को विधारण विट्ट सोसो, असी वावरेई अरो साण भोसो । भडो को वि रत्तपवाहे तरंतो, फुरंतपणं तडि सिग्धपत्तो । भडो को विहृत्थी विसाणे हि भिण्णे, मो को वि कंठद्ध छिण्णो णिसण्णो । ६।१२
कविते तीर्थंकर आदिनाथ के साथ देखादेखी दीक्षा ग्रहण करनेवाले राजाओके भ्रष्ट होनेपर उनके चरित्रका बहुत ही सुन्दर अंकन किया है । जो तपस्या
आचार्य तुल्य काव्यकार एवं लेखक १५३