SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 167
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समय-निर्णयके लिये जैन साहित्यमें हए समस्त देवसेनोंपर विचार कर लेना आवश्यक है। जैन-साहित्यमें कई देवसेन हुए हैं। एक देवसेन वह हैं, जिनका उल्लेख श्रवणबेलगोलके चन्द्रगिरिपर्वतपर अंकित शक संवत् ६२२ के शिलालेखमें आता है। दूसरे देवसेन धवलाटोकाके कर्ता आचार्य वीरसेनके शिष्य थे, जिनका उल्लेख आचार्य जिनसेनने जयधवलादीकाकी प्रशस्तिके ४४वें पचमें किया है। तीसरे देवसेन 'दर्शनसार के रचयिता हैं। चतुर्थ देवसेन वह हैं, जिनका उल्लेख सुभाषितरत्नसंदोह और धर्मपरीक्षादिके कर्ता आचार्यअमितगतिने अपनी गुरुपरम्परामें किया है । दूबकुण्डके वि० सं० ११४५ के अभिलेखमें उल्लिखित देवसेन पंचम हैं। ये लाडवागडसंघके आचार्य थे | छठे देवसेनका उल्लेख माथुरसंघके भट्टारक गुणकीर्तिके शिष्य यशःकोत्तिने वि० सं० १४९७ में अपने पाण्डवपुराणमें किया है। इन सभी देवसेनोंमें ऐसा एक भी देवसेन नहीं दिखलाई पड़ता है, जिसे विमलसेनका शिष्य माना जाय। भारसंग्रह के दिवसेन अपनेको विमलसेनका शिष्य लिखा है। अतः भावसंग्रह और सुलोचनाचरिसके कर्ता दोनों एक ही व्यक्ति जान पड़ते हैं । इस प्रकार कविका समय वि० की १२वीं शती मालूम पड़ता है। प्रथम बार राक्षस संवत्सर श्रावण शुक्ला चतुर्दशी और बुधबारका योग २९ जुलाई, सन् १०७५ में घटित होता है । अतएव सुलोचनाचरितके रचयिता कवि देवसेनका समय वि० सं० ११३२ ठीक प्रतीत होता है। कविने 'सुलोयणाचरिउ'को रचना, २८ सन्धियोंमें की है। काव्यको दृष्टिसे यह रचना उपादेय है। कथामें बताया गया है कि भरत चक्रवर्तीके प्रधान सेनापति जयकुमारकी पत्नीका नाम सुलोचना था । वह राजा अकम्पन और सुप्रभाकी पुत्री थी। सुलोचना अनुपम सुन्दरी थी। इसके स्वयंवरमें अनेक देशोंके बड़े-बड़े राजा सम्मिलित हुए। सुलोचनाको देखकर वे मुग्ध हो गये । उनका हृदय विक्षब्ध हो उठा और उसकी प्राप्तिकी इच्छा करने लगे। स्वयंघरमें सुलोचनाने जयको चुना | परिणामस्वरूप चक्रवर्ती भरतका पुत्र अर्ककोत्ति ऋद्ध हो उठा । और उसने इसमें अपना अपमान समझा | अपने अपमानका बदला लेने के लिये अकोत्ति और जयमें युद्ध हुआ और अन्तमें जय विजयी हुआ। __ कवि देवसेन निरभिमानी है । वह हृदय खोलकर यह स्वीकार करता है १५२ : तीर्थकर महावीर और उनकी प्राचार्य-परम्परा
SR No.090510
Book TitleTirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherShantisagar Chhani Granthamala
Publication Year
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy