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भो ताय ताय पढ़ें रुि अजुत्तु । जंपियउ ग मुणियउ जिणहु सुत्तु । वरकुलि उवण्ण जा कण्ण होइ । सा लज्ज ण मेल्लइ एच्छ लोय । वाद-विचाउ नउ जत्तु ताउ । तहें पुणु तुअ अक्खमि णिसुणि राय । बिलोयविरुद्ध एहु कम्मु । जं सु सईबरु हि सुछम्मु । जइ मण इच्छइ किज्जइ विवाह । तो लोयसुहिल्लउ इहू पवाहु ।
२।६।५ ।
अर्थात् है मिलाजी, आपने बिके ही मुझे अपने आप अपने पत्तिके चुनाव कर देनेका आदेश दिया है, किन्तु जो कन्याएं कुलीन होती हैं वे कभी भी ऐसी निर्लज्जताका कार्य नहीं कर सकतीं । हे पिताजी, मैं इस सम्बन्ध में वाद-विवाद भी नहीं करना चाहती। अतएव हे राजन, मेरी प्रार्थना ध्यानपूर्वक सुनें । आपका यह कार्य लोक-विरुद्ध होगा कि आपकी कन्या स्वयं अपने पतिका निर्वाचन करे । अतः मुझसे कहे बिना ही आपकी इच्छा जहाँ भी हो, वहीं पर मेरा विवाह कर दें ।
नयनासुन्दरीको भवितव्यता पर अपूर्व विश्वास है । वह स्वयंकृत कर्मों के फलभोगको अनिवार्य समझती है । कविने प्रसंगवश सिद्धचक्रमहात्म्य, नवकारमहात्म्य, पुण्यमहात्म्य, सम्यक्त्वमहात्म्य, उपकारमहिमा एवं धर्मानुष्ठानका महात्म्य बतलाया है । इस प्रकार यह रचना व्रतानुष्ठानकी दृष्टिसे भी महत्त्वपूर्ण है ।
बलह्द्दचरिउ
इस ग्रन्थ में रामकथा वर्णित है । बलभद्र रामका अगर नाम है । कविने परम्परागत रामकथाको ग्रहण किया है और काव्योचित बनानेके लिए जहाँ तहाँ कथामें संशोधन और परिवर्तन भी किये हैं ।
सुक्कोसलचरिच
यह लोकप्रिय आख्यान है । कवि रइधूने चार सन्धियों और ७४ कड़वकोंमें इस ग्रन्थको पूर्ण किया है। पुण्यपुरुष सुकोसलकी कथा वर्णित है ।
घण्णकुमारचरि
कविने धन्यकुमारके चरितको लेकर खण्डकाव्यकी रचना की है। इस काव्यग्रन्थमें बताया गया है कि पुण्यके उदयसे व्यक्तिको सभी प्रकारकी सामग्रियाँ प्राप्त होती हैं । कविने धर्म-महिमा, कर्म-महिमा, पुण्य-महिमा, उद्यम-महिमा, आदिका चित्रण किया है ।
२०४ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा