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स्वर्गवास हो गया और उनकी माता भी सती हो गई । माता-पिताके स्वर्गवासके अनन्तर भाई भवदत्त न्यायपूर्वक गृहस्थधर्मका पालन करने लगा। कुछ समय पश्चात् सुधर्म मुनिका उपदेश सुनकर भवदत्तको वैराग्य हो गया और छोटे भाई भय।। गृहस्थो मार सकार पद संभ हो गया। बारह वर्ष पश्चात् मुनि संघ विहार करता हुआ पुनः उसी गांवमें आया । छोटे भाई भवदेवको भो दीक्षित करनेको इच्छासे गुरुको अनुज्ञा लेकर भवदत्त मुनि भवदेवके घर आया। बड़े भाईका आगमन सुनकर वह बाहर आया उस समय भवदेवके विवाहको तैयारियां हो रही थीं । अतएव वह नववधूको अद्धमंडित ही छोड़कर भवदत्तके पास आया। भवदेवके आग्रहसे वहीं आहार लेकर जहाँ संघ ठहरा हुआ था वहाँ भवदत्त मुनि लौट आया। भवदेव भी भाईके साथ श्रद्धा और संकोचवश मुनि संघमें चला आया । यहाँ मुभिजनों की प्रेरणा तथा भाईको अन्तरंग इच्छाके सम्मानार्थ बेमनसे भवदेवने मुनिदीक्षा ग्रहण कर ली। सदनन्तर संघ वहाँसे विहार कर गया। भवदेव दिनरात नागवसुके ध्यानमें लीन रहता हुआ घर लौटकर पुनः उसके साथ काम भोग भोगनेके अवसरकी प्रतीक्षामें समय व्यतीत करने लगा। १२ वर्ष पश्चात् मुनि सघ पुनः उसी वधमान गाँवके निकट आकर ठहरा । भवदेव इससे बहुत उल्लसित हुआ और बहाना करके अपने घरको ओर चल पड़ा।
गाँव के बाहर ही एक जिन चैत्यालयमें उसकी नागवसुसे भेंट हो गई । व्रतोंके पालनेसे अति कृशगात्र अस्थिपंजर मात्र शेष रहनेसे भवदेव उसे पहचान नहीं सका । अपने कुल और पत्नीके सम्बन्धमें पूछने पर नागवसुने उसे पहचान लिया । नागवसुने उसे अपना परिचय दिया और तपः शुष्क शरीर दिखलाकर नाना प्रकारसे धर्मोपदेश दे भवदेवको प्रतिबद्ध किया । इस प्रकार बोध प्राप्त कर शवदेवने आचार्य के पास जाकर प्रायश्चित्त लिया और पुनः दीक्षा ग्रहण कर कठोर तपश्चरण किया । और मृत्युके अनन्तर तृतीय स्वर्ग प्राप्त किया ।
स्वर्गसे च्युत हो भवदत्त पूर्व विदेहमें राजा वज्रदन्त और उसकी रानी यशोधनाके मर्भसे सागरचन्द्र नामक पुत्र हुआ। और भवदेवका जीव वहाँके राजा महापद्म और वनमाला नामक पटरानीका शिबकुमार नामक पुत्र हुआ। कालान्तरमै सागरचन्द्र दीक्षित हो गया। उसने भवदेवके जीव युवराज शिवकुमारको प्रतियोधित करनेका प्रयास किया; पर माता-पिताको अनुज्ञा न मिलने से वह घरमें ही धर्म-साधन करने लगा। इस तपके प्रभावसे भवदेवने
१२८ : नीर्थ धर. महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा