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वाणिज्य है। पक्षीमार और शिकारियोंको किसी प्रदेशविशेष में रहने वाले पशुपक्षियों की सूचना देना बधकोपदेश है। अधिक मिट्टी, जल, पवन, वनस्पति आदिके आरम्भका उपदेश देना आरम्भकोपदेश है । अनर्थदण्डव्रतका और भी अधिक विश्लेषण किया है तथा विष, शस्त्र आदिके व्यापारको अनर्थदण्डके अन्तर्गत माना है। इस प्रकार सात शीलोंका विस्तारपूर्वक निरूपण किया है। गृहस्थके इज्या, वार्त्ता, दत्ति, स्वाध्याय, संयम, तप इन छः षट्कर्मोका कथन भी आया है । इज्याका अर्थ अर्हत्पूजा से है। इसके नित्यमह, चतुर्मुख, कल्पवृक्ष, टाक और इन्द्रध्वज भेद हैं। वार्त्ताम अर्थ असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, शिल्प आदि आजीविका वृत्तियोंसे है । दत्तिका अर्थ दान है। इसके दयादत्ति, पात्रदन्ति, समदत्ति और सकलदत्ति ये चार भेद हैं। सात शीलोंके पश्चात् मारणान्तिक सल्लेखनाका कथन आया है ।
तृतीय प्रकरण में षोडशभावनाका निरूपण है। दर्शनविशुद्धता, विनयसम्पन्नता, शीलयतेष्वनतिचार, अभीक्ष्णज्ञानोपयोग, संवेग, शक्तितस्त्याग, शक्तितस्तप, साधुसमाधि, वैयावृत्तिकरण, अहंभक्ति, आचार्यभक्ति, बहुश्रुतभक्ति, प्रवचनभक्ति, आवश्यका परिहाणि मार्ग प्रभावना और प्रवचनवात्सल्य इन सोलह भावनाओंके स्वरूप हैं।
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चतुर्थ प्रकरणमें अनगारधर्मका वर्णन है । आरंभ में दश धर्मोकी व्याख्या की गयी है। अनन्तर तीन गुप्ति और पाँच समितियोंका कथन आया है । संयमी निग्रंथांके पांच भेद बतलाये हैं- पुलाक, वकुश, कुशील, निग्रंथ और स्नातक । इनके स्वरूप और भेद-प्रभेद भी वर्णित हैं । परीषहजयप्रकरण में २२ परिषहोंका उल्लेख करने के अनन्तर किस गुणस्थानवालेको किन परिषहोंको सहन करना चाहिए, इसका वर्णन आया है । अन्तिम प्रकरण तप-वर्णनका है । इसी संदर्भ में द्वादश अनुप्रेक्षाओं का वर्णन भी आया है। तपका लक्षण बतलाते हुए लिखा है
'रत्नत्रयाविर्भावार्थमिच्छानिरोधस्तपः । अथवा कर्मक्षयार्थं मार्गाविरोधेन तप्यत इतितः । तद्विजिवम्, बाह्यमाभ्यन्तरञ्च । अनशनादिबाह्यद्रव्यापेक्षत्वापरप्रत्ययलक्षणत्वाच्च बाह्यं तत् षविधं अनशनावमोदयं वृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्याग विविकशय्यासनकायक्लेशभेदात् । आभ्यन्तरमपि षड्विधं प्रायदिचत्तविनयव्यावृत्त्यस्वाध्यायव्युत्सर्गंध्यानभेदात् । "
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इस संदर्भ में उग्र तपश्चरण से प्राप्त ऋद्धियोंका कथन भी आया है । इस
१. चारित्रसार, माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, पृष्ठ ५९ ।
आचार्य तुल्य काव्यकार एवं लेखक : २९