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अत्रोदाहरणं पूर्वपुरागादिसुभाषितम् ।
पुण्यपूरुषसंस्तोत्रपर स्तोत्रमिदं ततः॥५॥ अपने मतकी पुष्टिके लिए 'वाग्भटालंकार'के लक्षण और उदाहरण भी प्रस्तुत किये हैं | इनका निरूपण 'उक्तंच' लिखकर किया है।
शब्दालंकारोंके वर्णनको दृष्टिसे यह ग्रंथ अद्वितीय है। विषयोंका विशद वर्णन प्रत्येक पाठकको यह अपनी लोर आकृष्ट करता है।
विजयवर्णी विजयवर्णीने 'शृंगारार्णवन्द्रिका' नामक ग्रंथको रचना कर अलंकारशास्त्रके विकासमें योगदान दिया है । इनके व्यक्तिगत जीवनके सम्बन्धमें कुछ भी जानकारी प्राप्त नहीं है। ग्रन्थप्रशस्ति और पुष्पिकासे यह ज्ञात होता है कि वे मुनीन्द्र विजयकीत्तिके शिष्य थे | एक दिन बातचीतके क्रममें वंगवाडोके कामरायने इनसे कविताके विभिन्न पहलुओंको व्याख्या प्रस्तुत करनेका आग्रहकिया । राजाको प्रार्थनापर इन्होंने 'अलंकारसंग्रह' अपरनाम 'शृंगारार्णवचन्द्रिका'की रचना की।
इस रचनामें बिजयवर्णीने विभिन्न विषयोंपर विचार करते हुए अलंकार, अलंकारोंके लक्षण और उदाहरण लिखे हैं। उदाहरणोंमें कामरायको प्रशंसा की गयी है। रचनाको प्रस्तावनामें विजयवर्णीने कर्णाटकके कवियोंकी कविताओंके संदर्भ दिये हैं। इन संदर्भोके अध्ययनसे इस तथ्यपर पहुँचते हैं कि विजयवर्णीने गुणवर्मन आदि कवियोंकी रचनाओंका अध्ययन किया था। वे राजा कामरायके व्यक्तिगत सम्पर्क में थे। ग्रन्थके आरम्भमें लिखा है
"श्रीमद्विजयकोन्दोः सूक्तिसंदोहकौमुदी। मदीचित्तसंतापं हत्वानन्दं दद्यात्परम् ।।१।४॥ श्रीमद्विजयकीाख्यगुरुराजपदाम्बुजम् । मदीयचित्तकासारे स्थेयात् संशुद्धधाजले ।।१५।। गणवर्मादिकर्नाटकवीनां सूक्तिसंचयः ।
वाणीविलासं देयात्ते रसिकानन्ददायिनम् ॥१७॥" विजयवर्णीने अपनी प्रशस्तिमें आश्रयदाता कामरायका निर्देश किया है। इन्हें स्याद्वादधर्म में चित्त लगानेवाला और सर्वजन-उपकारक बताया है।
ई. सन् १९५७में बंगवाडीपर वीर नरसिंह शासन करता था। उसका एक भाई पाण्ड्यराज था । चन्द्रशेखर वोर नरसिंहका पुत्र था और यह १२०८
आचार्यतुल्य एवं काव्यकार लेखक : ३३