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हत्थे चाओ चरणपणमणं साहसीताण सोसे ।
सच्चावाणी वयणकमलए वच्छे सच्चापवित्ती ।। दरिद्रोंको दान, दूसरेके दुःखमें दुखी, सरसकाव्यको हो सर्वस्व मानने वाले पुरुषोंको धारण करनेसे ही पृथ्वी कृतार्थ होती है। हाथमें धनुष, साधुचरिस, महापुरुषों के चरणोंमें प्रणाम, मुखमें सच्ची वाणी, हृदयमें स्वच्छप्रवृत्ति, कानोंसे सुने हुए ध्रुतका ग्रहण एवं भुजलताओंमें विक्रम, वीर पुरुषका सहज परिकर होता है। ___ इस कथनसे स्पष्ट है कि कविके व्यक्तित्वमें उदारता थो, वह दरिद्रोंको दान देता था और दूसरोंके दुःखमें पूर्ण सहानुभूतिका व्यवहार करता था। कवि वीरताको भी जीवनके लिए आवश्यक मानता है। यही कारण है कि उसने युद्धोंका ऐसा सजीव चित्रण किया है जिससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि वह युद्धभूमिमें सम्मिलित हुआ होगा।
कवियोंके चरणोंमें नतमस्तक होना भी उसका कवित्वके प्रति सद्भाव व्यक्त करता है । सत्यवचन, पवित्र हृदय, अनवरत स्वाध्याय, भुजपराक्रम और दयाभाव उसके व्यक्तित्व के प्रमुख गुण हैं । स्थितिकाल
'जंबुसामिचरित'को प्रशस्तिमें कविन इस प्रन्यका रचनाकाल वि० सं० १०७६ माघ शुक्ला दशमी बताया है । लिखा है
"विक्कमनिवकालानो छाहात्तरदससएस परिसाणं ।
माहम्मि सुद्धपक्खे दसम्म दिवसम्मि संतम्मि ।। २ ।।" प्रस्तुत काव्यके अन्तःसाक्ष्य तथा अन्य बाह्यसाक्ष्योंसे मो प्रशस्तिमें उल्लिखित समय ठीक सिद्ध होता है। कवि योरने महाकवि स्वयंभू, पुष्पदन्त एवं अपने पिता देवदत्तका उल्लेख किया है। पूष्पदन्तके उल्लेखसे ऐसा ज्ञात होता है कि जब यह महाकवि अपने जीवनका उत्तराद्धकाल यापन कर रहा था और जिस समय राष्ट्रकूट राजा कृष्ण तृतीयको मृत्युके पाँच ही वर्ष हुए थे उस समय धारा नरेश परमारवंशीय राजा सीयक था श्री हर्षने कृष्ण तृतीयके उत्तराधिकारी और अनुज खोट्टिगदेवको आक्रमण करके मार डाला था एवं मान्यखेटपुरीको बुरी तरह लूटा तथा ध्वस्त किया था (वि० सं० १०२९) । इस समय पुष्पदन्तके महापुराणकी रचना पूर्ण हो चुकी थी और अभिमानमेरु महाकवि पुषदन्तको ख्याति मालवा प्रान्त में भी हो चुकी थी। इसी समय वीर कविने अपने बाल्यकालमें ही सरस्वतीके इस वरद् पुत्रकी ख्याति सुनी होगी
१२६ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा