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करते थे। इसलिए इसका नाम पुन्नाट पड़ा । तदनन्तर इसका प्रमुख कार्यक्षेत्र लाउबागच-गुजरात और सागवाड़ाके आसपासका प्रदेश हुआ। इसीलिए इसका नाम लाडवागडगच्छ पड़ा। पुम्नाट संघके प्राचीनतम ज्ञात आचार्य जिनसेन प्रथम हैं जिन्होंने शक संवत०५ (वि० सं० ८४०) में वर्धमानपुरके पार्श्वनाथ तथा दोस्तटिकाके शान्तिनाथ जिनालयमें रहकर हरिवंशपुराणकी रचना की
धर्मरत्नाकर नामक ग्रंथके रचयिता आचार्य जयसेन लाहबागड संघके प्रथम व्यक्ति हैं जिन्होंने वि० सं० १०५५ में कर्नाटक-कराड (बम्बई) में निवास कर उक्त प्रथकी रचनाको पूर्ण किया था । इसी गणमें प्रद्युम्नचरित रचयिता महासेन, हरिषेण, विजयकीति आदि अनेक आचार्य हुए हैं । व्यक्तित्व
महाकवि वीर काव्य, व्याकरण, तर्क, कोष, छन्दशास्त्र, द्रव्यानुयोग, घरणानुयोग, करणानुयोग आदि विषयोंके ज्ञाता थे। 'जंबुसामिचरिउ'मैं' समाविष्ट पौराणिक घटनाओंके अध्ययनसे अवगत होता है कि महाकवि दोरके बल जैन पौराणिक परम्पराके ही साता नहीं थे अपितु बाल्मीकिरामायण, महाभारत, शिवपुराण, विष्णुपुराण, भरतनाट्यशास्त्र, सेतुबन्धकाव्य आदि ग्रंथोंके भी पंडित थे। इनके व्यक्तित्वमें नम्रता और राजनीति-दक्षताका विशेष रूपसे समावेश हुआ है। कविको अपने पूर्वजोंपर गर्व है। वह महाकाव्य रचयिताके रूपमें अपने पिताका आदरपूर्वक उल्लेख करता है ।
संस्कृत भाषाका प्रौढ़ कवि और काव्य अध्येता होने के कारण वीर कविकी रचनामें पर्याप्त प्रौढ़ता दृष्टिगोचर होती है । वोरके 'जंबुसामिचरिउ से यह भी स्पष्ट है कि वह धर्मका परम श्रद्धालु, भक्तवती और कर्मसंस्कारोंपर आस्था रखनेवाला था। उसकी प्रकृति अत्यन्त उदार और मिलनसार थो। यही कारण है कि उसने मित्रों की प्रेरणाको स्वीकारकर अपन शमें काव्यकी रचना की।
वोर कविको समाजके विभिन्न वर्गों एवं जीवन यापनके विविध साधनोंका साक्षात् अनुभव था । वह श्रद्धावान् सद् गृहस्थ था। उसने मेघवनपत्तनमें तीर्थंकर महावीरकी प्रतिमा स्थापित करवाई थी। कविके व्यक्तित्वको हम उनके निम्नकथनसे परख सकते हैं
देंत दरिछं परवसणदुम्मणं सरसकच्चसव्वस्स । कइवीरसरिसपुरिसं घरणिधरती कयत्यासि |
आषार्यतुल्य एवं काब्यकार लेखक : १२५