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वह मुक्ति कन्याका वर्णन सुनते हो उसपर मुग्ध हो गया और उसने विचार व्यक्त किया कि संग्रामभूमिमें जिनराजको परास्त कर वह स्वयं ही उसके साथ विवाह करेगा। मोहने नीतिकौशलसे उसे अकेले संग्रामभूमिमें उत्तरनेसे रोका। मकरध्वजने मोहकी बात मान ली। किन्तु उसने मोहको आज्ञा दी कि वह जिनराजपर चढ़ाई करने के लिए शीघ्र हो अपनो समस्त सेना तैयार करके ले आये ।
मकरध्वज की रति और प्रीति नामक दो पत्नियां थीं। उसने रतिको मुक्तिकन्याको मकरध्वजके साथ विवाह करानेके हेतु समझाने को भेजा । मार्ग में मोहकी रतिसे भेंट हुई। मोहने रतिको लोटा दिया और मकरध्वजको बुराभला कहा । मोहकी सम्पत्ति के अनुसार मकरध्वजने राग-द्वेष नामके दूलोको जिनराजके पास भेजा । दूतोंने जिनराजको सभामें जाकर मकरध्वज्ञका संदेश सुनाया। वे कहने लगे कि मकरध्वजका आदेश है कि आप मुक्ति कन्या के साथ विवाह न करें और आप अपने तीनों रत्न महाराज मकरध्वजको भेंट कर दें और उनको अधीनता स्वीकार कर लें। जिनराजने मकरध्वजके प्रस्तावको स्वीकार नहीं किया। जब राग-द्वेष बढ़-बढ़कर बातें करने लगे, ता संयमने उन्हें चांटा लगाकर उन्हें सभामं अलग कर दिया । संग्रमसे अपमानित होकर राग-द्वेष मकरध्वजके पास आ गये। मकरध्वज जिनेन्द्रके समाचारको सुन कर उत्तेजित हुआ । उसने अन्यायको बुलाकर अपनी सेनाको तैयार करनेका आदेश दिया। जिनराजको सेना संवेगकी अध्यक्षता में तैयार होने लगी । मकरध्वजने बहिरात्माको जिनराजके पास भेजा और क्रोध, द्वेष आदिने वीरतापूर्वक संवेग, निर्वेद के साथ युद्ध किया। जिनराजने शुक्लध्यानरूपी बीरके द्वारा कर्म धनुषको तोड़कर मुक्ति - कन्याको प्रसन्न किया। मकरध्वजको समस्त सेना छिन्न-भिन्न हो गई और मुक्तिश्रीने जिनराजका वरण किया ।
इस रूपक काव्य में कवि नागदेवने अपनी कल्पनाका सूक्ष्म प्रयोग किया है । इस संदर्भ में कविने मुक्ति कन्याका जैसा हृदयग्राही चित्रण किया है : अन्यत्र मिलना दुष्कर है ।
अलंकार, रम और भाव संयोजनकी दृष्टिसे भी यह काव्य कम महत् नहीं है।
पंडित वामदेव
पं० बामदेव मूलसंघके भट्टारक विनयचन्द्रके शिष्य त्रेलोक्यकीर्तिके प्रसि और मुनि लक्ष्मीचन्द्रके शिष्य थे। पं० वामदेवका कुल मैगम था। नंगम
आचार्यतुल्य काव्यन एवं लेखक
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