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आनन्ददायक, गुरुभक्त और अर्हन्तके चरणोंका भ्रमर था । नट्टल साहू भी बड़ा ही धर्मात्मा और लोकप्रिय था। उसे कुलरूपी कमलोंका आकर, पापरूपी पांशुका नाशक, बन्दीजनोंको दान देनेवाला, तीर्थंकर मृत्तियोंका प्रति ष्ठापक, परदोषोंके प्रकाशनसे विरक्त और रत्नत्रयधारी था । साहित्यिक अभिरुचि के साथ सांस्कृतिक अभिरुचि भी उसमें विद्यमान थी। उसने दिल्लीमे एक विशाल जैन मन्दिर निर्माण कराकर उसकी प्रतिष्ठा भी की थी। पांचवी सन्धि के पश्चात् पासणाहचरिउमें एक संस्कृत-पद्य आया है, जिससे उपर्युक्त तथ्य निस्सृत होता है
"येनाराध्य विशुद्धवीरमतिना देवाधिदेवं जिनं । सत्पुण्यं समुपार्जितं निजगुणे : संतोषिता बांधवाः ॥ जैनं चैत्यमकारि सुन्दरतरं जैनी प्रतिष्ठां तथा । स श्रीमान्विदितः सदैव जयतात्पृथ्वीतले नट्टलः ||"
अतएव स्पष्ट है कि कवि श्रीधर प्रथमको पासणाहचरिउके रचनेकी प्रेरणा नट्टल साहू से प्राप्त हुई थी ।
कविके दिल्ली-वर्णन, यमुना-वर्णन, युद्ध-वर्णन, मन्दिर वर्णन आदिसे स्पष्ट होता है कि कवि स्वाभिमानी था। वह नाना - शास्त्रोंका ज्ञाता होनेपर भी चरित्रको महत्त्व देता था । अलंकारोंके प्रति कविको विशेष ममत्ता है । वह साधारण वर्णनको भी अलंकृत बनाता है । भाग्य और पुरुषार्थ इन दोनों पर कविको अपूर्व आस्था है। उसकी दृष्टिमें कर्मठ जीवन ही महत्त्वपूर्ण है ।
स्थितिकाल
पासणाहचरिउमें उसका रचनाकाल अंकित है । अतएव कविके स्थितिकालके सम्बन्ध में विवाद नहीं है ।
विक्कमर्णारद-सुपसिद्ध कालि, ढिल्ली-पट्टण घणकण-विसालि । सणवासी- एयारह सहि, परिवाडिए बरिस-परिगएहिं 1 कसमीहि आगणमासि, रविचारि समाणितं सिसिरभासि । सिरिपासणाह णिम्मलचरितु सबलामलरयणोह- दित्तु ।
अर्थात् वि० सं० १९८९ मार्गशीर्ष कृष्ण पूर्ण हुआ ।
अष्टमी रविवार के दिन यह ग्रंथ
कविकी एक अन्य रचना 'वड्ढमाणचरिउ' भी प्राप्त है। इस रचना में भी कविने रचनाकालका निर्देश किया है । 'वड्माणचरिउ में अंकित की गई
वाचायंतुल्य काव्यकार एवं लेखक : १३९