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या त्रिभुवनगिरि कहलाया है। इसका निर्देश कवि बुलाकीचन्दके वचनकोश में भी मिलता है ।"
लाखू तिहुणगढ़ से आकर बिलरामपुरमें बस गये थे । कविने स्वयं लिखा है
सो तिहूवणगिरिभग्गउजवेण, घित्तउ बलेण मिच्छाहिवेण । लक्खणु सव्वाड समाणु साउ विच्छोयउ विहिणा जयिण राउ । सो इत्त तस्य हिडंतु पत्तु पुरे विल्लरामे लक्खणु सुपत्तु । - प्रशस्तिका अंतिमभाग इससे स्पष्ट है कि लाखू तिहुनगढ़से चलकर बिलरामपुर में बस गये थे । ग्रन्थकी प्रशस्तिसे यह भी स्पष्ट होता है कि कोसवाल राजा थे और उनका यश चारों ओर व्याप्त था । कविकै पिता भी कहींके राजा थे। कविके पिताका नाम साहुल और माताका नाम जयता था । 'अणुव्रत रत्नप्रदीप' को प्रशस्तिसे भी यही सिद्ध होता है ।
कविका जन्म कब और कहाँ हुआ, यह निश्चितरूपसे नहीं कहा जा सकता है । पर त्रिभुवनगिरिके बसाये जाने और विध्वंस किये जाने वाली घटनाओं तथा दुबकुंडके अभिलेख और मदनसागर ( अहारक्षेत्र, टीकमगढ़, मध्यप्रदेश ) में प्राप्त मूर्तिलेखोंसे यह सिद्ध हो जाता है कि ११वीं शताब्दी में जयसवाल अपने मूलस्थानको छोड़ कर कई स्थानोंमें बस गये थे । संभवत: तभी कविके पूर्वज त्रिभुवनगिरिमें आकर बस गये होंगे ।
'अणुखत रत्नप्रदीप' में लिखा है कि यमुना नदीके तट पर रायवद्दिय नामकी महानगरी थी। वहाँ आहवमल्लदेव नामके राजा राज्य करते थे । वे चौहान वंशके भूषण थे । उन्होंने हम्मीरवीरके मनके शूलको नष्ट किया था । उनकी पट्टरानीका नाम ईसरदे था । इस नगरमें कविकुलमंडल प्रसिद्ध कवि लक्खण रहते थे । एक दिन रात्रिके समय उनके मन में विचार आया कि उत्तम कवित्व - शक्ति, विद्याविलास और पाण्डित्य ये सभी गुण व्यथं जा रहे हैं। इसी विचारमें मग्न कविको निद्रा आ गई और स्वप्नमें उसने शासन- देवताके दर्शन किये । शासन - देवताने स्वप्न में बताया कि अब कवित्वशक्ति प्रकाशित होगी ।
प्रातःकाल जागने पर कविने स्वप्नदर्शनके सम्बन्धमें विचार किया और उसने देवीकी प्रेरणा समझ कर काव्य रचना करनेका संकल्प किया। और फलतः कवि महामंत्री कण्हसे मिला। कहने कविले भक्तिभावसहित सागारधर्म१. अगरचंद नाहटा, कवि बुलाकीचन्दरचित वचनकोश और जयसवालजाति, जैन संदेश, शोघांक २, १८ दि० १९५७, ०७० ।
१७२ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य - परम्परा