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जो साधक अपनी मृत्युके समयको शान्तिपूर्वक सिद्ध कर लेता है वह सद्गति लाभ करता है। इस प्रकार मेधावीने धर्मसंग्रहश्रावकागरकी रचना कर श्रावकाचारको संक्षेपमें बतलानेका प्रयास किया है। इस ग्रन्थका प्रकाशन बाबू सूरजभान वकील देवबन्द द्वारा १९१० में हो चुका है।
रामचन्द्र मुसुक्षु रामचन्द्र मुमुक्षुने 'पुण्यासव-कथाकोश'को रचना की है। इस ग्रन्थकी पुष्पिकाओंमें बताया गया है कि वे दिव्य मुनि केशवनन्दिके शिष्य थे । प्रशस्तिमें लिखा है
"यो भव्याब्बदिवाकरो यमकरो मारेभपञ्चाननो नानादुःखविधायिकर्मकुभूतो वजायते दिव्यधीः । यो योगीन्द्रनरेन्द्रवन्दितपदो विद्यार्णवोत्तीर्णवान् ख्यातः केशवनन्दिदेवतिपः श्रीकुन्दकुन्दान्वयः ।।१।। शिष्योऽभूत्तस्य भव्यः सकलजनहितो रामचन्द्रो मुमुक्षु
त्विा शब्दापशब्दान् सुविशदयशसः पद्यनम्द्यालयाद्वे । वन्द्या वादीभसिंहात् परमयतिपते: सोऽव्यधाद्भव्यहेतो
ग्रन्थं पुण्यासवाख्यं गिरिसमितिमिते (५७) दिव्यपद्यैः कथार्थः ।।२।। अर्थात् आचार्य कुन्दकुन्दको वंशपरम्परामें दिव्यबुद्धिके धारक केशवनन्दि नामके प्रसिद्ध यतीन्द्र हुए । वे भव्यजीवरूप कमलोंको विकसित करनेके लिए सूर्यसमान, संघमके परिपालक, कामदेवरूप, हाथोके नष्ट करने में सिंहके समान पराक्रमी और अनेक दुःखोंको उत्पन्न करनेवाले कर्मरूपी पर्वतके भेदनेके लिए कठोर वनके समान थे । बड़े बड़े ऋषि और राजा महाराजा उनके चरणोंकी वन्दना करते थे। वे समस्त विद्याओं में निष्णात थे।
उनका भव्य शिष्य समस्त जनोंके हितका अभिलाषी रामचन्द्र मुमुक्षु हुआ। उसने यशस्वी पचनन्दि नामक मुनिके पासमें शब्द और अपशब्दोंको जानकर व्याकरणशास्त्रका अध्ययन करके कथाके अभिप्रायको प्रकट करने धाले ५७ पद्यों द्वारा भव्यजीवोंके निमित्त इस पुण्यास्रव कथा ग्रन्थको रचा है। वे पद्मनन्दि मुनीन्द्र फैली हुई अतिशय निर्मल कोतिसे विभूषित, वन्दनीय एवं वादीरूपी हाथियोंको परास्त करनेके लिए सिंहके समान थे । कुन्दकुन्दाचार्यको इस वंशपरम्परामें पद्मनन्दि विरात्रिक हुए । वे देशीयगणमें मुख्य और संघके स्वामी थे। इसके पश्चात् माधवनन्दि पंडित हुए, जो महादेवको उपमाको धारण करते थे। इनसे सिद्धान्तशास्त्रके पारंगत मासोपवासी गुणरत्नोंसे विभूषित, पंडितोंमें प्रधान वसुनन्दि सूरि हुए। वसुनन्दिके शिष्य मोलिनामक गणी हुए।
आचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : ६९