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कताका समावेश हुआ है। श्रावक और श्रमणं दोनों के आचारतत्त्व भी वर्णित हैं। इस काव्यका प्रकाशन मराठी अनुवाद सहित सोलापुरसे हो चुका है।
महाकवि हरिचन्द्र महाकवि हरिचन्द्रका जन्म एक सम्पन्न परिवारमें हुआ था। इनके पित्ताका नाम आर्द्रदेव और माताका नाम रथ्यादेवी था । इनकी जाति कायस्थ थी, पर ये जैनधर्मावलम्बो थे । कविने स्वयं अपनेको अरहन्त भगवान्के चरणकमलोंका भ्रमर लिखा है । इनके छोटे भाईका नाम लक्ष्मण था, जो इनका अत्यन्त आज्ञाकारी और भक्त था । कविने अपने धर्मशर्माभ्युदयकी प्रशस्तिमें लिखा हैमुक्ताफलस्थितिरलंकृतिष प्रसिद्ध
स्तत्रादेव इति निर्मलमूतिरासीत् । कायस्थ एव निरवद्यगणग्रहः स
कोऽपि यः कुलमशेषमलंचकार ॥२॥ लावण्याम्बुनिधिः कलाकुलगृहं सौभाग्यसद्भाग्ययोः
क्रीडावेश्म विलासवासवलभीभूषास्पदं संपदाम् । शौचाचारविवेकविस्मयमही प्राणप्रिया शूलिनः
शर्वाणीव पतिव्रता प्रणयिनी रथ्येति तस्याभवत् ।।३।। अर्हत्पदाम्भोरुहवञ्चरीकस्तयोः सुतः श्रीहरिचन्द्र आसीत् । गुरुप्रसादादमला बभूवुः सारस्वते स्रोतसि यस्य वाचः ॥१॥ भक्तेन शक्तेन च लक्ष्मणेन निर्व्याकुलो राम इवानुजेन ।
यः पारमासावितबुद्धिसेतु: शास्त्राम्बुराशेः परमाससाद' ॥५॥ प्रसिद्ध नोमक वंशमें निर्मल मतिके धारक आर्द्रदेव हुए, जो अलंकारों में मुक्ताफलके समान सुशोभित थे। वह कायस्थ थे। निर्दोष गुणग्राही थे और एक होकर भी समस्त कुलको अलंकृत करते थे। शिवके लिए पार्वतीके समान रथ्या नामक उनकी प्राणप्रिया थी, जो सौन्दर्यका समुद्र, कलाओंका कुलभवन, सौभाग्य और उत्तम भाग्यका क्रीड़ाभवन, विलासके रहनेकी अट्टालिका एवं सम्पदाओंके आभूषणका स्थान थी। पवित्र आचार, विवेक एवं आश्चर्यकी भूमि थी। उन दोनोंके अरहन्त भगवान्के चरणकमलोंका भ्रमर हरिचन्द नामक पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसके वचन गुरुओंके प्रसादसे सरस्वतीके प्रवाहको १. ग्रन्थकर्तुः प्रशस्ति-धर्मशर्माम्युदय, निर्णय सागर प्रेस, बम्बई, सन् १९३३, पृ०१७९ । १४ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा