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से भया तातें पुद्गलका कहिये बहुरि तिस बोलने का सामर्थ्य सहित आत्माकरि कंठ तालुवा जीभ आदि स्थाननिकरि प्रेरे जे पुद्गल, ते वचनरूप परिणये ते पुद्गल ही है । ते श्रोत्र इन्द्रियके विषय हैं, और इन्द्रियके ग्रहण योग्य नाहीं हैं। जैसे घ्राणइन्द्रियका विषय गंधद्रव्य है, तिस प्राण के रसादिक ग्रहण योग्य नहीं हैं तैसें ।" सर्वार्थसिद्धि ५-१९।
"जैसे इस लोकविर्षे सुवर्ण अर रूपा गालि एक किये एक पिंडका व्यवहार होता है, तैसें आत्माके अर शरीरके परस्पर एक क्षेत्रावगाहको अवस्था होते, एक पणाका व्यवहार है, ऐसे व्यवहार मात्र ही करि आत्मा अर शरीरका । एकपणा है। बहुरि निश्चयतें एकपणा नाहीं है, जात पोला अर पांडुर है स्वभाव जिनका ऐसा सुवर्ण अर रूपा है, तिनकै जैसें निश्चय विचारिये तब अत्यन्त भिन्नपंणा करि एक-एक पदार्थपणाकी अनुपपत्ति है, तातै नानापना ही है । तेसै ही आत्मा अर शरोर उपयोग स्वभाव है । तिनिकै अत्यन्त भिन्नपणात एक पदार्यपेणाकी प्राप्ति नाहीं तातै नानापणा ही है। ऐसा प्रगट नय विभाग है।"-समयसार २८
दीपचन्दशाह
दीपचन्दशाह विश्के १८वीं शताब्दीके प्रतिभावान विद्वान् और कवि हैं। ये सांगानेरके रहनेवाले थे और बादमें आकर आमेरमें रहने लगे। इन्होंने अपने ग्रन्थोंकी प्रशस्तिमें अपना जीवन परिचय, माता-पिता या गुरुपरम्परा आदिके सम्बन्ध में कुछ नहीं लिखा है । कविकी वेश-भषा अत्यन्त सादी थी। ये आत्मानुभूतिके पुजारी थे । तेरह पंथी सम्प्रदायके अनुयायी भी इन्हें बताया गया है। कवि दीपचन्दका गोत्र काशलीवाल था । इनको रचनाझोके अध्ययनसे यह स्पष्ट मालम होता है कि इनके पावन हृदयमें संसारी जीवोंकी विपरीताभिनवेशमय परिणतिको देखकर, इन्हें अत्यन्त दुःख होता था। ये चाहते थे कि संसारके सभी प्राणी स्त्री, पुत्र, मित्र, धन, धान्यादि बाह्य पदार्थोंमें आत्मद्धि न करे, उन्हें भ्रमवश अपने न माने । उन्हें कर्मोदयसे प्राप्त समझे तथा उनमें कर्तृत्व बुद्धिसे सम्पन्न अहंकार, ममकार रूप परिणतिको न होने दे ।
कवि दीपचन्द मेघावी कवि हैं, इन्होंने "चिद्विलास' नामक ग्रन्थ वि० सं० १७७९में समाप्त किया है। इनका गद्य अपरिमार्जित और आरम्भिक अवस्थामें है । इनकी भाषा ढहारी और व्रजमिश्रित है । रचनाएँ निम्नलिखित हैं
आचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : २९३