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और विद्वद्गणोंके रक्षक उन महात्माको हे विवृद्वयं ! भजो।
३४. जिनके चरणकमलको राजाओंने शिरोभूषण बनाया, जिनके वचनामृतफा पानकर पण्डितगण अहनिश जीते थे, जिनकी कीर्तिरूपी समुद्रसे परिवेष्टित होकर यह पृथ्वीतल धवलित हुआ और जिनकी विद्याने भूतलमें शास्त्रोंको विशद् बना दिया।
३५. वे महात्मा योगिराज एक चित्त होकर बड़ी कठिन तपस्याको करके तथा बहुत पुण्य इकट्ठा करके उन्हीं पुण्योंको उपभोग करनेके लिए स्वर्गको चले गये।
३६. उनके स्वर्ग चले जानेपर अपनी शास्त्रमयी वाणीसे सिद्धशास्त्रोंको वलित करते हुए, शुद्धाकाशमें वर्तमान, शास्त्ररूपी पोंको विकसित करते हुए सूर्यले समातीने सम्मानों को प्रफुल्लित किया।
३७. इन्द्रका व जिस प्रकार पर्वतोंका भेदन करता है उसी प्रकार इन्होंने एकान्त अर्थसे युक्त दुर्वादियोंकी उक्तिको खण्ड-खण्ड कर दिया।
३८. उनके चरणोंपर गिरे हुए राजाओंकी मुकुट-मणिकी धुलियोंने जिस प्रकारसे इनको रागवान् बनाया था, उस तरह सांसारिक वस्तु, स्त्री, वस्त्र तथा यौवनादि उनको रामी नहीं कर सके।
३९. ये महात्मा शास्त्ररूपी समुद्र में प्रविष्ट होकर अनेक अर्थरूप रल निकाल लाये और उन रत्नोंको अपने शिष्योंको वितरित कर दिया। __४०, इन्होंने संसारको पवित्र करनेके लिए तथा धर्मका प्रचार होनेके लिए अपने शिष्योंको कुशाग्रबुद्धि बनाकर पढ़ाया।
४१. जिस प्रकार बछड़ा गायसे दूध ग्रहण करता है, उसी प्रकार गुरुमें असीम भक्तिकर उन सबोंने उनसे सब शास्त्रोंको ग्रहण कर संसारमें अपनी खूष कोत्ति फैलायी।
४२. जिस प्रकार समुन्नत पर्वतोंमें रत्नकूटोंसे मन्दराचल पर्वत शोभता है, उसी प्रकार उनके सकलशास्त्रवेत्ता शिष्योंमें अनेक गुणों द्वारा श्रुसमुनि शोभाको प्राप्त हुए।
४३. कुल, शील, गुण, मति, शास्त्र और रूप इन सबोंमें इन्हें योग्य समझकर सूरिपद दिया।
४४. इसके बाद सांसारिक स्थितिको सोचते हुए इन्होंने अपनी आयु थोड़ी जानकर यह विचारा कि अगर मेरा गण समर्थ हो जाचे, सो में समाधियोग्य तपस्या करूँगा।
पट्टावकी : ४२१