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"तव-तेय-णियत्तण कियउ खीण, सिरिखेमकित्ति पट्टहि पवीण । सिरिहेमकित्ति जि य उ वामु, तहुं पट्टवि कुमर वि सेण णाम् ।। जिग्गथु दयाल उ जइ वरिट , जि कहिउ जिगागमभेउ सुटु । तह पट्टि विठिउ बुहपहाणु, सिगिहेमचंदु मय-तिमिर-भाणु । तं पट्टि धुरंधर वयपाणु, वर पोमणंदि जो तवह खीणु ।
तं पणविवि णियगुरुसोलखाणि, णिग्गंथु दयालउ अभियवाणि ।' अर्थात् क्षेमकीत्ति, हेमकीत्ति, कुमारसेन, हेमचन्द्र और पद्मनन्दि आचार्य हुए। प्रस्तुत पद्मनन्दि तपस्वी, शीलको खान, निथ, दयालु और अमृतवाणी थे। ये पचनन्दि ही माणिक्य राजके गुरु थे। ___ अमरसेनप्रन्थको अन्तिम प्रशस्तिमें पसनन्दिके एक और शिष्यका उल्लेख आया है, जिसका नाम देवनन्दि है। ये देवनन्दि श्रावकको एकादश प्रतिमाओंके पालन करनेवाले राग-द्वेष-मद-मोहके विनाशक, शुभध्यानमें अनुरक्त और उपशमभावी थे । इस ग्रन्थका प्रणयन रोहतकके पाश्वनाथ मन्दिर में हुआ है।
कवि माणिक्यराज अपभ्रंशके लब्धप्रतिष्ठ कवि हैं और इनका व्यक्तित्व सभी दृष्टियोंसे महनीय है। स्थितिकाल
कविने अमरसेनचरितकी रचना वि० सं० १५७६ चैत्र शुक्ला पंचमी शनिवार और कृत्तिका नक्षत्र में पूर्ण की है। ग्रन्थको प्रशस्तिमें उबत रचनाकालका विवरण अंकित मिलता है
"विक्कमरायहु ववगई कालई, लसु मुणीस विसर अंकालई । धरणि अंक सहु चइत विमाणे, सणिवारें सुय पंचमि-दिवसें । कित्तिय पक्खत्तै सुहाएँ, हुउ उप्पण्णउ सुत्तु सुहजोएँ ।"
अमरसेनचरितके लिखनेके एक वर्ष पश्चात् अर्थात् वि० सं० १५७७ को लिखी हुई प्रति उपलब्ध है। यह प्रति कात्तिक कृष्णा चतुर्थी रविवारके दिन कुरुजांगल देशके सुवर्णपथ (सुनपत) नगरमें काष्ठासंघ माथु गन्वय पुष्करगणके भट्टारक गुणभद्रको आम्भायमं उक्त नगरके निवासी अग्रवालवशोय भोयल गोत्री साहू छल्हूके पुत्र साहू घाटूके द्वारा लिखी गई।
दूसरी रचना नागकुमारचरितका प्रणयन विक्रम संवत् १५७९ में फाल्गुण शुक्ला नवमीके दिन हुआ है। इस ग्रन्थम साहू जगसीके पुत्र साहूटोडरमलकी बहुत प्रशंसा की गई है। उसे कर्ण के समान दानी, विद्वज्जनोंका
२३६ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा