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तह य विसाखारिओ पोद्विल्ली खत्तिको यजामी। जागो सिद्धत्यो वि य धिदिसेणो विजियणामो य ॥७॥ बुद्धिल्ल गंगदेवो धम्मस्सेणो य होइ पच्छिमओ । पारंपरेण एदे दसपुठ्यधरा समक्खादा 110 णवत्तो जसपालो पंडू धुवसेण कंसआयरिओ। एयारसंगधारी पंच जणा होति णिद्दिट्ठा ॥९॥ णामेण सुभद्द जसभद्दो तह य होइ जसबाहू । आयारधरा या अपच्छिमो लोहणामो य ॥१०॥ आइरियपरंपरया सायर दीवाण तह य पण्णत्ती ।
संखेवेण समत्थं वोच्छामि जहाणुपुल्चीए ॥११।। सुर एवं असुरोंसे बंदित और मोहसे रहित वर्धमान जिनेन्द्रको नमस्कार करके उत्तम श्रुतके धारक गुरुओंकी परंपराको अनुक्रमसे कहता हूँ ॥१|
विपुलाचल पर्वतके उन्नत शिखरपर जिनेन्द्र भगवान् वर्धमान स्वामीने प्रमाण और नयसे संयुक्त अर्थका गौतममुनिको उपदेश दिया । उन्होंने ( गौतमगणधरने ) लोहार्यको, और लोहार्य अपरनाम सुधर्मगणधरने जम्बूस्वामीको उपदेश दिया ॥२-३॥
चार निर्मल बुद्धियों ( कोष्ठबुद्धि, बीजबुद्धि, संभिन्नश्रोत्रबुद्धि, और पदानुसारिणी बुद्धि ) से सहित, गुणोंसे परिपूर्ण, केवलज्ञानरूप उत्कृष्ट द्वीपकसे संयुक्त और सिद्धिको प्राप्त इन तीनों गणघरोंको नमस्कार करता हूँ ॥४||
नन्दि, नन्दिनित्र, महातेजस्वी अपराजित मुनीन्द्र, महात्मा गोवर्धन और महागुणोंसे युक्त भद्रबाहु, ये पाँच श्रेष्ठ पुरुष चौदह पूर्वोके धारक अर्थात् श्रुत केवली थे, ऐसा जानना चाहिये। धीर जिनेन्द्रके ( तीर्थ में ) इन्हें बारह अंगोंके धारक जानना चाहिये ।।५-६|| ___ तथा विशाखाचार्य, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जय, नाग, सिद्धार्थ, धुतिषेण, विजय, बुद्धिल्ल, रांगदेव और अन्तिग धर्मसेन ये परम्परासे दस पूर्वोके धारक कहे गये हैं 11७-८||
नक्षत्र, प्रशपाल, पाण्डु, ध्रुवषेण और कंसाचार्य ये पांच जन ग्यारह अंगोंके धारक निर्दिष्ट किये गये हैं ||९||
सुभद्र मुनी, यशोभद्र, यशोबाहु और अन्तिम लोहाचार्य ये चार आचार्य आचारांगके धारी जानना चाहिये ॥१०॥
आनुपूर्वीके अनुसार आचार्यपरम्परासे प्राप्त सागर-द्वीपोंकी समस्त प्रज्ञप्तिको संक्षेपमें कहता हूँ ॥११॥
पट्टावली : ३६७