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गुरुपरम्परासे नहीं होता । अथवा यह भी संभव है कि वृषभनन्दिके ८४ शिष्यों में कोई शिष्य अभयनन्दि रहा हो और उसका सम्बन्ध वासवचन्द्रके साथ रहा हो। ___ कवि देवचन्द्रका व्यक्तित्व गृहत्यागीका है। कविने बारंभमें पंचपरमेष्ठिकी वन्दना की है। तदन्तर आत्मलधुता प्रदर्शित करते हुए बताया है कि न मुझे व्याकरणका ज्ञान है, न छन्द-अलंकारका ज्ञान है, न कोशका ज्ञान है
और न सुकवित्व शक्ति ही प्राप्त है। इससे कविकी विनयशीलता प्रकट होती है।
पुष्पिकावाक्यमें कविकी मुनि कहा गया है। अतः उन्हें गृहत्यागी विरक्त साधुके रूपमें जानना चाहिये। प्रशस्तिकी पंक्तियों में उन्हें रत्नत्रयभूषण, गुणनिधान और अज्ञानतिमिरनाशक कहा गया है ।
रराणत्तय-भूसणसु गुण-निहाणु,
अण्णाण-तिमिर पसरत-भाणु । कविका पुष्पिकावाक्य निम्न प्रकार है
"सिरिपासणाहरिए चउबग्गफले वियजणमगाव भुमिदेवयंव-र महाकव्वे एयारसिया इमा संधी समत्ता।' स्थितिकाल ___कवि देवचन्द्रने कब अपने ग्रंथकी रचना की, यह नहीं कहा जा सकता । 'पासणाहचरिउ'की प्रशस्तिमें रचनाफालका अंकन नहीं किया गया है। और न ऐसी कोई सामग्री ही इस ग्रंथमें उपलब्ध है जिसके आधार पर कविका काल निर्धारित किया जा सके। इस ग्रन्थकी जो पाण्डुलिपि उपलब्ध है वह वि०सं० १४९८के दुर्मति नामक संवत्सरके पौष महीनेके कृष्णपक्षमें अल्लाउद्दीन के राज्यकालमें भट्टारक नरेन्द्रकीत्तिके पदाधिकारी भट्टारक प्रतापकीत्तिके समयमें देवगिरि महादुर्ग में अग्रवाल श्रावक पं० गांगदेवके पुत्र पासराजके द्वारा लिखाई गई है। अतएव वि० सं० १४९८ के पूर्व इस ग्रंथका रचनाकाल निश्चित है। यदि देवचन्द्रके गुरु वासवचन्द्रको देवेन्द्र सिद्धान्तदेवकी गुरुपरम्परामें मान लिया जाय, तो देवेचन्द्रका समय शक सं० १०२२ ( वि० सं० ११५७ ) के लगभग सिद्ध होता है। पासणाहरिउकी भाषाशैली और वर्ध्य विषयसे भी यह ग्रंथ १२वीं शताब्दीके लगभगका प्रतीत होता है। अतएव देवचन्द्रका समय १२वीं शताब्दीके लगभग है। रचना
महाकवि देवचन्द्रकी एक ही रचना पासणाहरिउ उपलब्ध है। इस १८२ : तीर्थकर महावीर और उनको आचार्य परम्परा