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प्रकाश पड़ता है । कवि सन्तोषी था और स्वाभिमानी भी । यही कारण है कि उसने बाहुबलि - चरितकी रचना कर अपनेको मनस्वी घोषित किया है ।
कविके गुरु प्रभाचन्द्र थे, जो अनेक शिष्यों सहित विहार करते हुए पल्हूणपुरमें पधारे। धनपालने उन्हें प्रणाम किया और मुनिने आशीर्वाद दिया कि तुम मेरे प्रसादसे विचक्षण होगे । कविके मस्तक पर हाथ रखकर प्रभाचन्द्र कहने लगे कि मैं तुम्हें मन्त्र देता हूँ। तुम मेरे मुखसे निकले हुए अक्षरोंको याद करो । धनपालने प्रसन्नतापूर्वक गुरु द्वारा दिये गये मंत्र को ग्रहण किया और शास्त्राभ्यासद्वारा सुकवित्व प्राप्त किया। इसके पश्चात् प्रभाचन्द्र खंभात, धारानगर और देवगिरि होते हुए योगिनीपुर आये। दिल्ली - निवासियोंने यहाँ एक महोत्सव सम्पन्न किया और भट्टारक रत्नकीर्तिके पद पर उन्हें प्रतिष्ठित किया !
कवि धनपाल गुरुकी आज्ञासे सौरिपुर तीर्थ के प्रसिद्ध भगवान् नेमिनाथकी वन्दना करनेके लिये गये। मार्ग में वे चन्द्रवाडनगरको देखकर प्रभावित हुए और साहु वासाधर द्वारा निर्मित जिनालयको देखकर वहीं पर काव्य-रचना करने में प्रवृत्त हुए ।
स्थितिकाल
afaa स्थितिकालका निर्णय पूर्ववर्ती कवियों और राजाओंके निर्देशसे संभव है । इस ग्रन्थकी समाप्ति वि० सं० १४५४ वैशाख शुक्ला त्रयोदशी, स्वाति नक्षत्र, सिद्धियोग और सोमवारके दिन हुई है । कविने अपनी प्रशस्तिमें मुहम्मदशाह तुगलकका निर्देश किया है। मुहम्मदशाहने वि० सं० १३८१ से १४०८ तक राज्य किया है।
भट्टारक प्रभाचन्द्र भट्टारक रत्नकोर्त्तिके पदपर प्रतिष्ठित हुए थे, इस कथनका समर्थन भगवती आराधनाकी पंजिकाटीकाकी लेखक - प्रशस्ति से भी होता है । इस प्रशस्तिमें बताया गया है कि वि०सं० १४१६ में इन्हीं प्रभाचन्द्रके शिष्य ब्रह्म नाथूरामने अपने पढ़नेके लिए दिल्लीके बादशाह फिरोजशाह तुगलकके शासन कालमें लिखवाया था। फिरोजशाह तुगलकने वि० सं० १४०८
१. संवत् १४१६ वर्षे चैत्रसुदिपञ्चम्यां सोमवासरे सकलराजशिरो- मुकुटमाणिक्यमरोचिपिजीकृत चरण कमलपादपीठस्य श्रीपेरोजसाहेः सकलसाम्राज्यधुरीविभ्राणस्य समये श्रीदिल्या श्रीक्रुन्दकुन्दाचार्यान्वये सरस्वतीगच्छे बलात्कारगणे भट्टारकश्रीरत्नकी सिदेवपट्टीयाद्वि-लक्ष्णतरणित्वमुर्वीकुर्वाणरण: ( णः ) भट्टारकश्री प्रभाचन्द्रदेवशिष्याणां ब्रह्मनाथूराम । इत्याराधनापंजिका ग्रंथ आत्मपठनार्थ लिखापितम् ।
- बारा जैन सिद्धान्तभवन प्रति
आचार्य तुल्य काव्यकार एवं लेखक : २१३