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आत्मामें अशुद्धि पर-द्रव्यके संयोगसे आई है । यद्यपि मूलद्रव्य अन्य प्रकार रूप परिणमन नहीं करता, तो भी परद्रव्यके निमित्तसे अवस्था मलिन हो जाती है। जब सम्यक्त्व के साथ ज्ञानमें भी सच्चाई उत्पन्न होती है तो शान-रूप आत्मा परद्रव्योंसे अपनेको भिन्न समझकर शुद्धात्म अवस्थाको प्राप्त होती है। कवि कहता है कि कमल रात-दिन कमें रहता है तथा पंकज कहा जाता है फिर भी कीचड़से ना मदा अलग रहना है। मन्त्रवादी सर्पको अपना गात्रपकड़ाता है परन्तु मन्त्र-शक्तिसे विषके रहते हुए भी सर्पका दंश निविष रहता है। पानी में पड़ा रहनेपर भी जैसे स्वर्ण में काई नहीं लगसी उसी प्रकार ज्ञानोव्यक्ति संसारको समस्त क्रियाओंको करते हुए भी अपनेको भिन्न एवं निर्मल समझता है।
इस नाटक-समयसारमें अज्ञानीकी विभिन्न अवस्थाएं, ज्ञानीकी अवस्थाए', ज्ञानीका हृदय, संसार और शरीरका स्वरूप-दर्शन, आत्म-जागृति, यात्माको अनेकता, मनको विचित्र दौड़ एवं सप्तव्यसनोंका सच्चा स्वरूप प्रतिपादित करनेके साथ जीव, अजीय, वासव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्त्वोंका काव्य-रूपमें चित्रण किया है।
बनारसो-विलास-इस ग्रन्थमें महाकवि बनारसीदासको ४८ रचनाओंका संकलन है । यह संग्रह आगरानिवासी दीवान जगजीवनजीने बनारसीदासके स्वर्गवासके कुछ समयके पश्चात् वि० सं० १७०१ चैत्र शुक्ला द्वितीयाको किया है। बनारसीदासने वि० सं० १७०० फाल्गुन शुक्ला सप्तमोको कर्म-प्रकृतिविषानकी रचना की थी। यह रचना भी इस संग्रहमें समाविष्ट है । संगृहीत रचनाओंके नाम निम्न प्रकार हैं
१. जिनसहस्रनाम, २. सूक्तिमुक्तावली, ३. शानबावनी, ४. वेदनिर्णयपंचाशिका, ५. शलाकापुरुषोंकी नामावली, ६. मार्गणाविधार, ७. कर्मप्रकृतिविधान, ८. कल्याणमन्दिरस्तोत्र, ९. साधुबन्दना, १०. मोसपैडो, ११. करमछत्तीसी, १२. ध्यानबत्तीसी, १३. अध्यारमबत्तीसी, १४. सानपच्चीसी, १५. शिवपच्चोसी १६. भवसिन्धुचतुर्दशी १७. अध्यारमफाग १८. सोलतिथि १९. तेरहकाठिया, २०. अध्यात्मगीत, २१. पंचपदविधान, २२. सुमतिदेवीके अष्टोत्तरशत नाम, २३. शारदाष्टक, २४. नवदुर्गाविधान, २५. नामनिर्णयविधान, २६. नवरत्नकवित्त, २७. अष्टप्रकारी जिनपूजा, २८. दशदानविधान, २९. दशबोल, ३०. पहेली, ३१. प्रश्नोत्तरदोहा, ३२. प्रश्नोत्तरमाला, ३३. अवस्थाष्टक, ३४. षट्दर्शनाष्टक, ३५. चातुर्वर्ण, ३६. अजितनाथके छन्द, ३७: शान्तिनाथस्तुति ३८, नवसेनाविधान, ३९. नाटकसमयसारके कवित्त, ४०. फुटकर कविता, २५४ : तोर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा