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काया चित्रसारोमें करम-परजंक भारी, मायाकी संचारी सेज चादर कलपना। शेन करे चेतन अचेतनता नींद लिए, मोहकी मरोर यह लोचनको ढपना ।। उदे बल जोर यई श्वासको सबद घोर, विर्ष सुखकारी जाकी दौर यहै सपना । ऐसी मूढ-दशामें मगन रहे तिहुंकाल,
धावे भ्रम-जालमें न पावे रूप अपना । अज्ञानी व्यक्ति भ्रमके कारण अपने स्वरूपको विस्मत कर संसारमें जन्ममरणके कष्ट उठा रहा है। कवि कहता है कि कायाको चित्रशालामें कर्मका पलग बिछाया गया है । उसपर मायाकी सेज सजाकर मिथ्या-कल्पनाको चादर डाल रखी है। इस शय्यापर अचेतनको नोंदमें चेतन सोता है । मोहको मरोड़ नेत्रोंका बन्द करना-झपकी लेना है। कर्मके उदयका बल ही स्वासका घोर शब्द है । विषय-सुखको दौर ही स्वप्न है । इस प्रकार तीनों कालोंमें अज्ञानको निद्रामें मग्न यह आत्मा भ्रमजालमें दौड़ती है। अपने स्वरूपको कभी नहीं पाती। अज्ञानी जीवको यह निद्रा ही संसार-परिभ्रमणका कारण है । मिथ्यातत्त्वों की श्रद्धा होनेसे ही इस जीव को इस प्रकारको निद्रा अभिभूत करती है। आत्मा अपने शुद्ध निर्मल और शक्तिशाली स्वरूपको विस्मृत कर हो इस व्यापक असत्यको सत्य-रूपमें समझती है।
इस प्रकार कविने रूपक द्वारा अज्ञानी-जीवको स्थितिका मार्मिक चित्र उपस्थित किया है । आत्मा सुख-शान्तिका अक्षय भण्डार है। इसमें शान, सुख, वीर्य आदि गुण पूर्णरूपेण विद्यमान हैं । अतएव प्रत्येक व्यक्तिको इसी शुद्धात्माकी उपलब्धि करनेके लिए प्रयत्नशील होना चाहिए। कविने बताया है कि झानी व्यक्ति संसारको समस्त-क्रियाओंका करते हुए भी अपनेको भिन्न एवं निमल समझता है।
जैसे निशि-बासर कमल रहें पक ही में, पंकज कहावे पे न बाके बिंग पंक है। जैसे मन्त्रवादी विषधरसों गहावें गास, मन्त्रकी शकति वाके बिना विष डंक है। जैसे जीभ गहे चिकनाई रहे रूखे अग, पानीमें कनक जैसे काईसे अटक है । तैसे ज्ञानवान नाना भौति करतूत जनै, किरियातें भिन्न माने मोते निष्कलंक है ।।
आचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : २५३