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काव्यप्रतिभा
कवि वादिचन्द्रने अपनी रचनाशैली द्वारा लोकरुचिको तो परिस्कृत किया हा है, कोमल पदावली एवं भाषाका व्यवहार कर नई उद्भावना प्रसूत को हैं । इनके साहित्यके प्रधान तीन गुण है-ललित पद, सुकुमार भाव एव अविकटाक्षर-बन्ध ।
कविकी एक अन्य विशेषता रूपकात्मकताकी भी है। भावात्मक पदार्थोंकाम, मोह, विवेक. सुमति, कुमति आदिका प्रयोग स्थूलपात्रके रूप में चिहित है । अतः प्रलोक काव्य लिखनेमें भो कवि किसीसे पीछे नहीं है। राजा पवनस प्रार्थना करता हुआ कहता है-- "क्षित्यां नोरे हुत भुजि परव्याम्नि कालं विशाले
त्व लोकानां प्रथममकथि प्राणसंत्राणतत्त्वम् । तस्माद्वातीघरचलगते तान्वियामे हि नार्याः,
स्यान वान्तविपुलकरुणः सत्त्वरक्षानपेक्षः ॥'-पवनदुत । पद्य ३ हे पवन ! हर समय प्राणकी रक्षा करनेवाले पञ्चभूतोंमें-पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और कालमें तुम्हारी गणना प्रधानरूपसे की जाती है | अतएव मेरे वियोगमं जो मेरी प्रियाके प्राण निकलनेकी तैयारी कर रहे हैं उन्हें तुम जाकर रोक दो। अतः जीवके हृदयमें दयाका भाव उमड़ा रहता है वे प्राणियोंकी रक्षासे कदापि विमुख नहीं होते । पबनका महत्त्व अत्तलाते हुए राजा पुनः कहता है"एते वृक्षाः सति नवघनेऽप्यत्र सर्वत्र भूमी
बोभूयन्ते न हि बहुफलास्त्वां विनेति प्रसिद्धिः । तस्मात्तांस्त्वं घनफलधनान्संप्रयच्छन्प्रकर्याः
प्रायः प्राप्ताः पवनमतुलां पुष्टितामानयन्ति ।।"-पवनदूत ४ देखो समस्त संसारमें तुम्हारे विषयमें यह प्रसिद्धि है कि नवीन वर्षाके होनेपर भी वृक्ष तुम्हारे बिना अधिक नहीं फलते 1 अतः तुम जाते समय इस बातकी याद रखना कि तुम्हें मार्ग में जो-जो वृक्ष मिलें उन्हें खूब फलयुक्त बनाते हुए जाना; क्योंकि पवनको प्राप्त कर प्रायः सभी पुष्ट हो जाते हैं ।
इस प्रकार कविने विरही नायक द्वारा पवनसे विभिन्न प्रकारकी बातें कराई हैं । संक्षेपमें कवि वादिचन्द्रको अपनी रचनाओंके प्रणयनमें पर्याप्त सफलता मिली है।
७४ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा