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में भगवान् पार्श्वनाथका मन्दिर था । इसी मंदिर में आकर भगवसीदास निवास करते थे ।
स्थितिकाल
afar अपनी अधिकांश रचनाएं जगीरके राज्यकाल में लिखी है। जहांगीरका राज्य ई० सन् १६०५ - १६२८ ई० तक रहा है । अवशिष्ट रचनाएँ शाहजहांके राज्य में ई० सन् १६२८ - १६५८ में लिखी गई हैं।
कतिपय रचनाओं में कचिने उनके लेखनकालका उल्लेख किया है । 'चूनड़ी' रचना वि० सं० १६८० में समाप्त हुई है । अन्य १९ रचनाएँ भी संभवतः सं० १६८० या इसके पूर्व लिखी जा चुकी थीं। 'बृहत् सीता सतु' की रचना वि० सं० १६८४ और 'लघु सीतासतु' को रचना वि० सं० १६८७में की है । कविने अपभ्रंश भाषाका 'मृगांकलेखाचरित' वि० सं० १७०० मार्गशीर्ष शुक्ला पंचमी सोमवारके दिन पूरा किया है। लिखा है
सगदह संवदतीह तहा, विक्कमराय महप्पए । अगण - सिय पंचमि सोम-दिणे, पुण्ण ठियउ अवियप्पए ।
अतएव कवि भगवतीदासका समय १७वीं शतीका उत्तरार्द्ध और अठारहवीं शतीका पूर्वा सुनिश्चित है। कविको सभी रचनाएं १७वीं शतीमें सम्पन्न हुई हैं ।
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कवि पं० भगवतीदासने अप्रभ्रंश और हिंदी में प्रचुर परिमाणमें रचनाए लिखी है । उनकी उपलब्ध रचनाओंका उल्लेख निम्न प्रकार है
१. ढंडणारास — यह रूपक काव्य है। इसमें बसाया गया है कि एक चतुर प्राणी अपने-अपने दर्शन, ज्ञान, चारित्रादि गुणोंको छोड़कर अज्ञानी बन गया और मोह - मिथ्यात्वमें पड़कर निरन्तर परवश हुआ चतुर्गतिरूप संसार में भ्रमण करता है । अतः कवि सम्बोधन करता हुआ कहता है
धर्म- सुकल घरि ध्यानु अनूपम, लहि निजु केवलनाणा वे । जंम्पति दास भगवती पावहू, सासउ सुहू निव्वाणा दे ।। २. आदित्यरास — इसमें बीस पद्य हैं ।
३. पखवाडारास — २२ पद्य हैं । पन्द्रह तिथियोंमें विधेय कर्त्तव्यपर प्रकाश डाला गया है ।
४. दशलक्षणरास – ३४ पद्य हैं और उत्तमक्षमादि दश धर्मोका स्वरूप बतलाया गया है । दश धर्मीको अवगत करने के लिए यह रचना उपादेय है । ५. खिण्डी रास - ४० पद्य हैं। इसमें भावनाओंको उदात्त बनाने पर जोर दिया है।
आचार्य तुल्य काव्यकार एवं लेखक : २३९