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राजभवन से बाहर हुई और अग्निदेवका आह्वान कर बोली - "यदि में यथार्थ में शोलवती हूं, तो मेरी प्रार्थना पूर्ण हो- स्त्रियों, बच्चों, धर्मात्माओं और
ण पुरुषोंको छोड़कर यह शैतान नगर भस्म हो जाये और सम्पूर्ण दुष्ट समाप्त हो जायें ।" इस प्रकार कहकर उसने अपना वाम स्तन झटका मारकर उखाड़ डाला और नगरकी ओर फेंक दिया। आश्चर्य ! नगर जल उठा और शीघ्र हो भस्म हो गया । मदुराकी देवी कण्णकी के सम्मुख प्रकट होकर बोली---तुम्हारे पतिकी मृत्यु और तुम्हारी ये यातनाएं पूर्वोपार्जित कमका फल हैं । तुम शीघ्र ही साधना द्वारा स्वर्ग में अपने पति से मिलोगी ।
नगरको जलता हुआ छोड़कर वह पश्चिम की ओर चेरदेशमें चली गयी और वहाँ एक पहाड़ीपर १५ दिनकी तपश्चर्या द्वारा उसने स्वर्गलाभ किया ।
काव्यसिद्धान्तोंकी दृष्टिसे भी यह ग्रन्थ महनीय है । कविने रुचिर कथानकके साथ प्रौढ़ शैलीका प्रयोग किया है। रस, अलंकार, गुण आदि सभी दृष्टियों से यह काव्य समृद्ध है । पात्रोंका चरित्र बहुत ही सुन्दररूपमें उपस्थित किया है ।
तोलामुलितेवर
तोलामुलितेवरने 'चूलामणि' लघुकाव्य लिखा है । ग्रन्थकार विजयनगर साम्राज्य में कारवेट एके राजा विजय दरजा राजकवि था । विका समय जोधक चिन्तामणिके रचयिता तिरुक्कतेवर से भी पूर्व है । इस काव्य में १२ सर्ग हैं २१३१ पद्म हैं । इस ग्रन्थ में भगवान् महावीरके पूर्वभवके जीव त्रिपिष्ठ वासुदेव के जीवन और उसके साहसपूर्ण कार्योंका निर्देश है। इसके वर्णन प्रसंग जीवक चिन्तामणिके समान हैं । काव्य अत्यन्त ही सरस और जीवन मूल्योंसे सम्पृक्त है ।
वामनमुनि
वामनमुनि समयके सम्बन्ध में निश्चित जानकारी नहीं है । रचनाशैली और भाषा की दृष्टिसे इनका समय ई० सन् १२ वीं १३ वीं शती अनुमानित होता है । इन्होंने मेमन्दरपुराण नामक ग्रन्थकी रचना की है। इस काव्य में विमलनाथ तीर्थंकरके दो गणधर मेरु और मन्दरके पूर्वभवोंका वर्णन है । इस ग्रन्थ में जैनदर्शन, आचार और लोकानुयोगका सुन्दर विवेचन आया है । पूर्वजन्मोंकी वर्णन पद्धति प्रभावक और शिक्षाप्रद है । इसमें संस्कृत और प्राकृतकी शब्दावली भी प्रचुर परिमाणमें प्राप्त हैं ।
३१६ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा