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________________ पडावलीका भाषानुवाद श्री जिननाथको स्वस्ति हो, सिद्धाचार्योको स्वस्ति हो, पाठक और आचार्योको स्वस्ति हो तथा श्रीगुरुको स्वस्ति हो ॥१॥ अर्हन्तदेव मङ्गलस्वरूप हैं। सिद्धाचार्यगण मंगलस्वरूप हैं और उपाध्याय, साधु तथा जैनधर्म मंगलमय हैं ||२|| ___ मोगा मार्ग दिखने लिये मागावीप, भूगरोंते स्तुत्य, भूतलमें तिलकस्वरूप, श्रीमूलसंधके अति उज्ज्वल बलात्कारनामक गणके सरस्वतीगच्छामें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यकचारित्रसे समलंकृत प्रसिद्ध गौतम आदि गणधर इस भूतलमें जयवन्त हों ॥३॥ श्रीमहावीर स्वामीके मुखकमलसे निकली हुई दिव्यध्वनिको धारण और प्रकाशन करनेमें प्रवीण गौतम गणघरके वंशधर श्रुतकेवली श्री भद्रबाहु स्वामी हुए ॥४॥ इनके वंशाकाशके सूर्य श्रीसीमन्धरके वचनामृतके पानसे सन्तुष्ट चित्तवाले श्रीकुन्दकुन्दाचार्य हुए ।।५।। इनके आम्नायको धारण करनेमें अग्रगण्य, कविता, गमकता वादिता और वाग्मिता आदि चार प्रकारको पाण्डित्यकलामें निपुण, बौद्ध नैयायिक, सांख्य, वैशेषिक और चार्वाक मतको माननेवाले वादिगजके लिये सिंहके समान श्री पअनन्दि भट्टारक हुए ॥६॥ इनके शिष्योंमें अग्रगण्य और अनेक शास्त्रसमुद्र में पारंगत, एकावली, द्विकाबली, कनकावलि, रत्नावलि, मुक्तावलि, सर्वतोभद्र और सिंहविक्रमादि बड़ी-बड़ी तपस्यारूपी वनसे कर्मरूपी पर्वतोंको नष्ट करनेवाले, सिद्धान्तसार, तत्त्वसार और बनेक यत्याचारके सिद्धान्तग्रन्थोंको बनानेवाले, मिथ्यात्वरूपी अन्धकारको दूर करनेके लिये सूर्य, कुशलतापूर्वक मोक्षलक्ष्मीके सुखको प्रकटित करनेवाले, जिनधर्मरूपी समुद्रको बढ़ानेके लिये पूर्णचन्द्रमाके सदृश, यथोक्त चरित्रका आचरण और समर्थन करनेवाले दिगम्बराचार्य श्री सकलकोति भट्टारक हुए ॥७॥ ___ इनके पट्टके भूषणतुल्य सभी कलाओंमें कुशल, रत्न, सुवर्ण, रौप्य, पित्तल, तथा पाषाणकी प्रतिमा, यन्त्र और प्रासादकी प्रतिष्ठा और अर्चन-विधान जन्य कीर्ति-कर्पूरसे त्रिभुवन-विवरको पूरित करनेवाले, महातपस्वी श्रीभुवनकीतिदेव हुए ॥८॥ पट्टायली : ४०७
SR No.090510
Book TitleTirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherShantisagar Chhani Granthamala
Publication Year
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size10 MB
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