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रचनाकाल १४वीं शती माना है और श्रीबालकृष्णमूत्तिने अमृतानन्दिका १३वीं शती निर्धारित किया है । पर सी० कुन्हनराजा अमृतानन्द योगोका समय १४वी शसीका प्रथम अद्धीश मानते हैं। इस प्रकार 'शृंगारार्णवचन्द्रिकाका रचनाकाल १३वीं शती माना जा सकता है।
बंगरायकी जैसी प्रशंशा कविने की है उससे भी यही ध्वनित होता है कि विजयवर्णी वंगनरेश कामरायका समकालीन है । कामरायके आश्रयमें रहकर उनकी प्रार्थनासे ही शृंगारार्णवचन्द्रिकाका प्रणयन किया गया है।
विजयवर्गीको शृंगाराणवचन्द्रिका नामक एक ही रचना प्राप्त होती है। विजयवर्णीने पूर्वशास्त्रोंका आश्रय ग्रहण कर हो इस अलंकारग्रन्थको लिखा है। उन्होंने व्याख्यात्मक एवं परिचयात्मक पद्यपंक्तियां मौलिकरूपमें लिखी हैं | विषयके अध्ययनसे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि कविने परम्परासे प्राप्त अलंकारसम्बन्धी विषयोंको ग्रहण कर इस शास्त्रकी रचना की है। कविकी काव्यप्रतिभा सामान्य प्रतीत होती है। वह स्थान-स्थानपर यतिभंग दोष करता चला गया है । यद्यपि विषयवस्तुकी अपेक्षा यह ग्रंथ साहित्यदर्पणादि प्रन्थों की अपेक्षा सरल और सरस है तो भी पूर्व कवियोंका ऋण इसपर स्पष्टतः झलाता
श्रृंगारार्णवचन्द्रिका दश परिच्छेदोंमें विभक्त है
१. वर्णगणफलनिर्णय, २. काव्यगतशब्दार्थनिर्णय, ३. रसभावनिर्णय४. नायकभेदनिर्णय, ५. दसगुणनिर्णय, ६. रीतिनिर्णय, ७, वृत्तिनिर्णय, ८. शय्याभागनिर्णय, ९. अलंकारनिर्णय और १०. दोषगुणनिर्णय ।
प्रथम परिच्छेदमें मंगलपद्यके पश्चात् कदम्बवंशका सामान्य परिचय दिया गया है और बताया गया है कि कामरायको प्रार्थनासे विजयवर्णीने अलंकारशास्त्रका निरूपण किया। काव्यको परिभाषाके पश्चात् पद्य, गद्य और मिश्र ये तीनों काव्यके भेद वर्णित हैं। इस अध्यायका नाम वर्णगणफलनिर्णय है। अतः नामानुसार वर्ण और गणका फल बतलाया गया है। किस वर्णसे काव्य आरम्भ होनेपर सुखप्रद होता है और किस वर्णसे काव्य आरम्भ होनेपर दुःखप्रद होता है, इसका कथन आया है । लिखा है
अकारादिक्षकारान्ता वर्णास्तेषु शुभावहाः। केचित् केचिदनिष्टाख्यं वितरन्ति फलं नृणाम् ।। ददात्यवर्णः संप्रीतिमिवों मुदमुद्वहेत् । कुर्यादुवर्णो द्रविणं ततः स्वरचतुष्टयम् ।।
आचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : ३५