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________________ इसी रूपकके माध्यम से संकेतों द्वारा जैन सिद्धान्तके तत्त्वोंको अभिव्यंजना की है । यह गीतिकाव्य कण्ठको तो विभूषित करता ही है, साथ ही भेदविज्ञानकी भी शिक्षा देता है । इस सरस, मनोरम और चित्ताकर्षक रचना पर कविकी एक स्वोपज्ञ टीका भी उपलब्ध है, जिसमें चूनड़ीरासमें दिये गये शब्दोंके रहस्यको उद्घाटित किया गया है । निर्झरपंचमीकहा में निर्झरपंचमी व्रतका फल बतलाया गया है। इस व्रतको विधिका निरूपण करते हुए कविनं स्वयं लिखा है " धवल पक्खि लासाहि पंचमि जागरण सुह उपवासइ किज्जइ कातिंग उज्जवणू । अह सावण आरंभिय पुज्जद आगहणो, इह मइ णिज्झर पंचमि अक्विय भय हरणे ॥" अर्थात् आषाढ़ शुक्ला पंचमीके दिन जागरणपूर्वक उपवास करे और कार्तिकके महीने में उसका उद्यापन करे। अथवा श्रावणमें आरंभ कर अगह्नके महीने में उद्यापन करे। उद्यापनमें पांच छत्र, पांच चमर, पाँच वर्तन, पाँच शास्त्र और पाँच चन्दोवे या अन्य उपकरण मंदिर में प्रदान करने चाहिए। यदि उद्या - पनको शक्ति न हो, तो दूने दिनों तक व्रत करना चाहिए । निर्झरपंचमीव्रत के उद्यापनमें पंच परमेष्ठीकी पृथक्-पृथक् पाँच पूजा, चौबीसीपूजन, विद्यमानविंशतितीर्थंकरपूजन, आदिनाथपूजन और महावीरस्वामीका पूजन, इस प्रकार नौ पूजन किये जाते हैं । कवि विनयचन्द्रने इस कथा में निर्झरपंचमीव्रत के फलको प्राप्त करनेवाले व्यक्तिकी कथा भी लिखी है। कल्याणकरासमें तीर्थंकरोंके पंचकल्याणकोंकी तिथियोंका निर्देश किया गया है । कविने लिखा है पढम पक्खि दुइर्जाह आसावहि, रिसइ गब्भज्जहि उत्तर सहि । अंधियारी हि संहिमि ( उ ) वंदमि वासुपूज्ज गम्भुत्थउ । विमल सुसिद्ध अट्ठमिहि दसमिहि, णामि जिण जम्मणु, सह तउ । सिद्ध सुहंकर सिद्धि पहु ॥ २ ॥ कविने अंतिम पद्यमें बताया है कि एक तिथिमें एक कल्याणक हो, तो एक भक्त करे, दो कल्याणक हों तो निविकृत्ति यह एक स्थानक करे, तीन हो तो आचाम्ल करे, चार हों तो उपवास करे अथवा सभी कल्याणकदिवसमें एक उपवास ही करे । १९२ श्रीयंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
SR No.090510
Book TitleTirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherShantisagar Chhani Granthamala
Publication Year
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size10 MB
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