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अकाल्य-दशिना निमित्तेन द्वादश-संवत्सर-काल-वैषम्यमुपलभ्य कथिते मर्चस्सङ्घ उत्तरापथाद्दक्षिणापथम्प्रस्थित: क्रमेणैव जनपदमनेक-ग्राम-शत-सङ्ख्यं मुदितजनधन-कनक-सस्य-गो-महिषा-जावि कुल-समाकोणम्प्राप्तवान्'[३] अत: आचार्यः प्रभाचन्द्रो नामानितल-ललामभूतेऽथास्मिन्कटवप्र - नामकोपलक्षिते विविधतरुवर-कुसुः... बलि- विरका अपललिपुल- गल. जलद निवह-नीलोपलतलेबराह द्वीपि-व्याघ्रान्तरक्षु-व्याल- मृगकुलोपचितोपत्यक- कन्दरदरी-महागुहागहनाभोगवत्ति समुत्तुङ्ग-शृङ्गे सिखरिणि जीवितशेषमल्पतर-कालमत्रबुध्यात्मनः सुचरित-तपस्समाधिमारापयितुमापृच्छय निरवसेषेण सधं विसृज्य शिष्येणेकेन पृथुलतरास्तीण-तलासु शिलासु शीतलासु स्वदेहं संन्यस्याराधितवान् क्रमेण सप्त-शतमृषीणामाराधितमिति जयतु जिन-शासनमिति । ___इस अभिलेखमें तीर्थङ्कर महावीरके निर्वाणके बाद गौतम गणधर, लोहाचार्य, जम्बुस्वामि ये तीन केवली और विष्णुदेव, अपराजित, गोवर्धन, भद्रबाहु ये श्रुतकेवली तथा विशाख, प्रोष्ठिल, कृत्तिकार्य, जय, नाग, सिद्धार्थ, धृतिपेण, बुद्धिल ये आठ आचार्य दश पूर्वके धारी हुए हैं। ध्रुतकेवली भद्रबाहुस्वामिने अपने अष्टाङ्गनिमित्तज्ञानसे उज्जयिनीमें यह अवगत कर लिया कि बारह वर्षका उत्तरापथमें दुष्काल होने वाला है । अतएव वे धन-धान्यसे सम्पन्न अपने संघके साथ दक्षिणापथको चले गये । इस परम्परामें प्रभाचन्द्र नामक एक बहुज्ञ आचार्य हुए। __ इस अभिलेखमें इन्द्रभूति, गौतम गणधर, सुधर्म या लोहाचार्य और जम्बुस्वामि इन तीन केलियोंका उल्लेख है। इन केवलियोंके पश्चात् विष्णु, अपराजित, नन्दिमित्र, गोवर्द्धन और भद्रबाहु धुत केवली हुए हैं। पर प्रस्तुत अभिलेखमें विष्णुदेव, अपराजित, गोवद्धन और भद्रबाहु इन चार ही श्रुतकेवलियोंके नाम आए हैं। अन्य अभिलेखों तथा हरिवंशपुराणादि ग्रन्थोंमें दशपूर्वी ग्यारह बतलाए हैं । पर इस अभिलेखमें आठ ही दशपुर्वियोंका उल्लेख आया है। हरिवंशपुराण में तृतीय दशपूर्वी का नाम क्षत्रिय लिखा हुआ है जबकि इस अभिलेखमें कृत्तिकार्य बताया है। विजय, गंगदेव और धर्मसेन इन तीन दशपूर्तियों के नाम छुटे हुए हैं। अतः स्पष्ट है कि इस अभिलेखको आचार्यपरम्परा अपूर्ण है । इसमें ख्यातिप्राप्त आचार्योंका ही उल्लेख किया गया है ।
गणधरादिपट्टावली इन्द्र भूतिरग्निभूतिर्वायुभूतिः सुधर्मक:
मौर्यमोड्यौ पुत्रमित्रावकम्पनसुनामधृक् ।।१।। १, जनशिलालेखसंग्रह, प्रथमभाग, अभिलेखसंख्या १ । ३५० : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा