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निज संपति रतनत्रय गहिकर मुनि जन नर मन सहज अनन्त चतुष्ट मंदिर जगजीवन
सुख
कुँचरपाल
कुंवरपाल बनारसीदासके अभिन्न मित्र थे। इन्होंने सूक्तिमुक्तावलीका पद्यानुवाद बनारसीदासके साथ मिलकर किया है। इस पद्यानुवादसे उनकी काव्यप्रतिभाका परिचय प्राप्त होता है । सोमप्रभने संस्कृत भाषामें सूक्तिमुक्तावली की रचना की थी। इसोका पद्यबद्ध हिन्दी अनुवाद इन्होंने किया है। यह समस्त काव्य मानवजीवनको परिष्कृत करने वाला है । कविने संस्कृतग्रन्थका आधार ग्रहणकर भी अपनी मौलिकताको अक्षुण्ण रखा है। वह समस्त दोषोंकी खानि अहंकारको मानता है। मनुष्य 'अहं' प्रवृत्तिके अधीन होकर दूसरोंकी अवहेलना करता है । अपनेको बड़ा और दूसरेको तुच्छ या लघु समलता है । समस्त दोष इस एक ही जनिमें विवास करते हैं। ऋषि कहता है कि इस अभिमानसे ही विपत्तिकी सरिता कल कल ध्वनि करती हुई चारों ओर प्रवाहित होती है । इस नदीकी धारा इतनी प्रखर है कि जिससे यह एक भी गुणग्रामको अपने पूरमें बहाये बिना नहीं छोड़ती । 'अहं' भाव विशाल पर्वतक तुल्य है । कुबुद्धि और माया उसकी गुफाएँ हैं। हिंसक बुद्धि धूम्ररेखाके समान है और कोष दावानलके तुल्य है । कवि कहता है
भाया ||
पाया || जगत०॥३॥
जातें निकस विपत्ति-सरिता सब, जगमें फेल रही चहुँ ओर । जाके ठिग गुण- ग्राम नाम नहि, माया कुमति गुफा अति घोर ॥ जहुँ बध-बुद्धि धूमरेखा सम, उदित कोप दावानल जोर । सो अभिमान-पहार पठतर, राजत ताहि सर्वज्ञ किशोर ॥
कवि सालिवाहन
कवि सालिवाहन भदावर प्रान्तके कञ्चनपुर नगरके निवासो थे । कविके पिताका नाम रावत खरगसेन और गुरुका नाम भट्टारक नगभूषण था | इन्होंने वि० सं० १६९५ में आगरा में रहकर जिनसेनाचारिकृत संस्कृत के हरिवंशपुराणका हिन्दी में पद्यानुवाद उपस्थित किया है। हरिवंशपुराणकी प्रशस्तिसे अव
२६२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा