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कुछ दिनोके पश्चात् जिनदत्तको समाधिगुप्त मुनिके दर्शन होते हैं । उनसे अपने पूर्वभव सुनकर वह विरक्त हो जाता है और मुनिदीक्षा ग्रहण कर लेता . है तथा तपश्चरण द्वारा निर्वाण प्राप्त करता है।
कविने लोक-कथानकोंको धार्मिक रूप दिया है तथा घटनाओंका स्वाभाविक विकास दिखलाया है। इतना ही नहीं, कविने नगर-वर्णन, रूप-वर्णन, बाल-वर्णन, संयोग-वियोग-वर्णन, विवाह-वर्णन तथा नायकके साहसिक कार्योंका वर्णन कर कथाको रोचक बनाया है।
इस कथा-काव्यमें कई मार्मिक स्थल हैं, जिनमें मनुष्य-जीवनके विविध मार्मिक प्रसंगोंको सुन्दर योजना हुई है। बेटीको भावभीनी बिदाई, माताका नई बहूका स्वागत करना, बेटेकी आरती उतारना, जिनदत्तका समुद्र में उतरना, समुद्र-संतरण, वनिताओंका करुण-विलाप ऐसे सरस प्रसंग हैं, जिनके अध्ययनसे मानवीय संवेदनाओंकी अनुभूति द्वारा पाठकका हृदय द्रवित एवं दीप्त हो जाता है । लज्जा, सौम्य, मोड़, विवोध, आवेग, अलमता स्मृति चिन्ता, वितर्क, धृति, चपलता, विषाद, उग्रता आदि अनेक संचारी भाव उद्बुद्ध होकर स्थायी भावोंको उद्दीप्त किया है। संयोग-वियोगवर्णनमें कविने रतिभावकी सुन्दर अभिव्यंजना की है। श्लेष, यमक, रूपक, उपमा, उत्प्रेक्षा, स्वभावोक्ति, विशेषोक्ति, लोकोक्ति, विनोक्ति, सन्देह आदि अलंकारोंकी योजना की गयी है। छन्दोंमें विलासिनी, मौक्तिकदाम, मनोहरदाम, आरनाल, सोमराजी ललिता, अमरपुरसुन्दरी, मदनावतार, पधिनी, पंचचामर, पमाडिया, नाराच, भ्रमरपद, तोड़या, त्रिभंगिका, जम्भेटिया, समानिका और आवली आदि प्रयुक्त
कविने शृंगार और वीर-रसकी बहुत ही सुन्दर योजना की है । करुण रस भी कई सन्दर्भो में आया है। अनुवयरयणपईव
इस ग्रंथमें कविने श्रावकोंके पालन करने योग्य अणुव्रतोंका कथन किया है । विषय-प्रतिपादनके लिये कथाओंका भी आश्रय लिया गया है। कविने लिखा है
मिच्छत्त-जरहिव-ससण-मित्त णाणिय-रिंद महनियनिमित्त ॥२॥ अवराह-वलाय-विसम-वाय
वियसिय-जीवणरुह-वयण छाय १७६ : दीपंकर महावीर और उनको अाचार्य-परम्परा