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जितेन्द्रियत्वं बिनयस्य कारणं, गुणप्रकर्षो विनयादवाप्यते । .
गुणप्रकर्षेण जनोऽनुरज्यते, जनानुरागप्रभवा हि सम्पदः । इस प्रकार यह काव्यानुशासन काव्यशास्त्रको शिक्षा देता है। इसमें अलकारोंके साथ गुणदोष और रीतियोंका भी कथन आया है।
'अष्टांगहृदय के कर्ता वाग्भट्ट जैनेतर मालूम पड़ते हैं ।
महाकवि आशाधर
आशाधरका अध्ययन बड़ा ही विशाल था । वे जनाचार, अध्यात्म, दर्शन, काव्य, साहित्य, कोष, राजनीति, कामशास्त्र, आयुर्वेद आदि सभी विषयोंके प्रकाण्ड पण्डित थे । दिगम्बर परम्परामें उन जैसा बहुश्रुत गृहस्थ-विद्वान् ग्रन्थकार दूसरा दिखलाई नहीं पड़ता ।
आशाघर माण्डलगढ़ (मेवाड़) के मूलनिवासी थे। किन्तु मेवाड़ पर मुसलमान बादशाह शहाबुद्दीन गोरीके आक्रमणोंके होनेसे अस्त होकर मालवाकी राजधानी धारा नगरी में अपने परिवार सहित आकर बस गये थे। पं० आशाघर बघेरवाल जातिके श्रावक थे। इनके पिताका नाम सल्लक्षण एवं माताका नाम श्रीरत्नी था । सरस्वती इनकी पत्नी थीं, जो बहुत सुशील और सुशिक्षिता थीं। इनके एक पुत्र भी था, जिसका नाम छाहड़ था। सागारधर्मामृत्तके अन्त में इन्होंने अपना परिचय देते हुए लिखा है
व्याघ्नेरवालवरवंशसरोजहंसः
काव्यामृतीघरसपानसुतृप्तगात्रः 1 सल्लक्षणस्य तनयो नयविश्वचक्षु
राशाधरो विजयतां कलिकालिदासः ।। आशाधरजीने अपने सुयोग्य पुत्रको स्वयं प्रशंसा की है । कहा जाता है कि उनके पिता अपनी योग्यताके कारण मालवानरेश अर्जुन वर्मदेवके सन्धिविग्रह मन्त्री थे। आशाधरजीने धार नगरीमें व्याकरण और न्यायशास्त्रका अध्ययन किया था । इनके विद्यागुरु प्रसिद्ध विद्वान पं० महावीर थे।
विन्ध्यवर्माका राज्य समाप्त होनेपर आशाधर नालछा-नलकच्छपुरमें रहने लगे थे। उस समय नलकच्छपुरके राजा अर्जुन वर्मदेव थे। उनके राज्यमें इन्होंने अपने जीवनके ३५ वर्ष व्यतीत किये और वहाँके अत्यन्त सुन्दर नेमिचैत्यालयमें ये जैन साहित्यको उपासना करते रहे।
लाचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : ४१