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________________ इसकी ताड़पत्रसंख्या ४२ और श्लोकसंख्या ५४० हैं। इसपर स्वोपज्ञवृत्ति भी । पायी जाती है । मंगलपद्यमें कविने बताया है वि, नाभेयमानम्य छन्दसामनुशासनम् । श्रीमन्नेमिकुमारस्यात्मजोऽहं वच्मि वाग्भटः ।। यह छन्दग्रन्थ पांच अध्यायोंमें विभक्त है-१. संज्ञा, २. समवृत्ताख्य, ३. अर्द्धसमवृत्तास्य, ४. मात्रासमक और ५. मात्राछन्दक । काव्यानुशासनके समान इस ग्रंथमें दिये गये उदाहरणोंमें राहड और नेमिकुमारकी कोतिका खुला गान किया गया है । छन्दशास्त्रको दृष्टिसे यह ग्रन्य उपयोगी मालूम पड़ता है। काव्यानुशासन यह रचना निर्णयसागर प्रेस बम्बईसे छप चुकी है। रस, अलंकार, गुण, छन्द और दोष आदिका कथन आया है । उदाहरणोंमें कविने बहुत ही सुन्दरसुन्दर पद्योंको प्रस्तुत किया है। यथा कोऽयं नाथ जिनो भवेत्तब वशी हुं हुं प्रतापी प्रिये हुं हुं तहि विमुञ्च कातरमते शौर्यावलेपक्रियां । मोहोऽनेन विनिजितः प्रभुरसौ तकिङ्कराः के बयं इत्येवं रतिकामजल्पविषयः सोऽयं जिनः पातु वः ॥ अर्थात् एक समय कामदेव और रति जंगलमें विहार कर रहे थे कि अचानक उनको दृष्टि ध्यानस्थ जिनेन्द्रपर चड़ी। जिनेन्द्रके सुभग शरीरको देखकर उनमें जो मनोरंजक संवाद हुआ उसीका अंकन उपर्युक्त पद्य में किया गया है । जिनेन्द्रको मेरुवत् निश्चल ध्यानस्थ देखकर रति कामदेवसे पूछती है कि हे नाथ, यह कौन है ? कामदेव उत्तर देता है. यह जिन हैं-रागद्वेष आदि कर्मशत्रुओंको जीतने वाले । पुन: रति पूछती है कि ये तुम्हारे वशमें हुए हैं ? कामदेव उत्तर देता है-प्रिये वे मेरे वशमें नहीं हुए, क्योंकि प्रतापी हैं। पुन: रति कहती है कि यदि तुम्हारे वशमें ये नहीं हैं तब तुम्हारा लोक-विजयी होनेका अभिमान व्यर्थ है। कामदेव रतिसे पुनः कहता है कि इन जिनेन्द्रने हमारे प्रभु मोहराजको जीत लिया है। अतएव जिनेन्द्रको वश करनेकी मेरी शक्ति नहीं। इसी प्रकार कारणमालालंकारके उदाहरणमें दिया गया पध भी बहुत सुन्दर है४० : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
SR No.090510
Book TitleTirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherShantisagar Chhani Granthamala
Publication Year
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size10 MB
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