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अनुसार जसिंहदेवका राज्यकाल ई० सन् १०९३-११४३ ई० सिद्ध होता है। आचार्य हेमचन्द्रके द्वधाश्रय-काव्यसे सिद्ध होता है कि वाग्भट्ट चालुक्यवंशीय कर्णदेवके पुत्र जयसिंहके अमात्य थे। अत्तएव 'नेमिनिर्वाण'की रचना ई० ११७९के पूर्व होनी चाहिए। ___'चन्द्रप्रभचरित', 'धर्मशर्माभ्युदय' और 'नेमिनिर्वाण' इन तीनों काव्योंके तुलनात्मक अध्ययनसे यह ज्ञात होता है कि 'चन्द्रप्रभचरित'का प्रभाव 'धर्मशर्माभ्युदय' पर है और 'नेमिनिर्वाण' इन दोनों काव्योंसे प्रभावित है। धर्मशर्माभ्युदयके "श्रीनाभिसुनौश्चिरमङ्घ्रियुग्मनखेन्दवः" (धर्म० १।१) का नेमिनिर्वाणके "श्रोनाभिसनो: पदपायुग्मनखाः" (नेमि० १११) पर स्पष्ट प्रभाव है । इसी प्रकार "चन्द्रप्रभं नौमि यदीयमाला नून" (धर्म० १२) से "चन्द्रप्रभाय प्रभवे त्रिसन्ध्यं तस्मै' (नेमि० १५८) पद्य भी प्रभावित है । अतएव नेमिनिर्वाणका रचनाकाल ई• सन् १०७५-११२५ होना चाहिए। रचनाएँ
बाग्भट्ट प्रथमका व्यक्तित्व श्रद्धाल और भक्त कविका है। उन्होंने अपने महनीय व्यक्तित्व द्वाराजनकाव्यको विशेषरूपसे प्रभावित किया है । इनके द्वारा लिखित एक ही रचना उपलब्ध है, वह है "नेमिनिर्वाणकाव्य" । यह महाकाव्य १५ सोंमें विभक्त है और तीर्थंकर नेमिनाथका जीवनचरित अंकित है । चतुर्विंशति तीर्थंकरोंके नमस्कारके पश्चात् मूलकथा प्रारम्भ की गई है। कविने नेमिनाथके गर्भ, जन्म, विवाह, तपस्या, मान और निर्वाण कल्याणकोंका निरूपण सीधे और सरलरूपमें किया है। कथावस्तुका आधार हरिवंशपुराण है। नेमिनाथके जीवनकी दो मर्मस्पर्शी घटनाएं इस काव्यमें अंकित हैं। एक घटना राजुल और नेमिका रैवतक पर पारस्परिक दर्शन और दर्शनके फलस्वरूप दोनोंके हृदय में प्रेमाकर्षणकी उत्पत्तिरूपमें है । दूसरी घटना पशुओंका करुण क्रन्दन सुन विलखती राजुल तथा आगनेत्र हाथजोड़े उग्रसेनको छोड़ मानवताको प्रतिष्ठार्थ वनमें तपश्चरणके लिए जाना है। इन दोनों घटनाओंकी कथावस्तुको पर्याप्त सरस और मार्मिक बनाया है। कविने वसन्तवर्णन, रैवतकवर्णन, जलक्रीड़ा, सूर्योदय, चन्द्रोदय, सुरत, मदिरापान प्रभृति काव्यविषयोंका समावेश कथाको सरस बनानेके लिए किया है। कथावस्तुके गठनमें एकान्वितिका सफल निर्वाह हुआ है । पूर्व भवावलिके कथानकको हटा देने पर भी कथावस्तुमें छिन्न-भिन्नता नहीं आती है। यों तो यह काव्य अलंकृत शैलीका उत्कृष्ट उदाहरण है; पर कथागठनकी अपेक्षा इसमें कुछ शैथिल्य भी पाया जाता है । २४ : तीर्थकर महावीर धौर जनकी आचार्य-परम्परा