SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 40
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कविने इस काव्यमें नगरी, पर्वत, स्त्री-पुरुष, देवमन्दिर, सरोवर आदिका सहज-ग्राह्य चित्रण किया है। रसभाव-योजनाकी दृष्टिसे भी यह काव्य सफल है । शृगार. रौद्र, वीर और शान्त रसोंका सुन्दर निरूपण आया है । विरहकी अवस्था में किये गये शीतलोपचार निरर्थक प्रतीत होते हैं। एकादश सर्गमें विरोग-शृंगारका अद्भुत चित्रण आया है। अलंकारोंमें २।४२ में अनुप्रास, २९ में यमक, ११११ में इलेष, ३।४० और ३१४१ में उपमा, ४/५ में रूपक, १११८ में विरोधाभास, १०१० में उदाहरण, ८१८० में सहोक्ति, १।४२ मे परिसंख्या और १४१ में समासोक्ति प्राप्त हैं । उपजाति, वसंततिलका, मालिनी, रुचिरा, हरिणी, पुष्पिताग्रा, शृगधरा, शार्दूलविक्रीड़ित, पृथ्वी, मोहता, अनुभम गरम रिलम्ति, ना, शशिवदना, बन्धूक, विद्युन्माला, शिखरिणी, प्रमाणिका, हँसरुत, रुक्मवती, मत्ता, माण रंग, इन्द्रवज्वा, भुजंगप्रयात, मन्दाक्रान्ता, प्रमिताक्षरा,कुसुविचित्रा, प्रियम्बदा, शालिनी, मौतिकदाम, तामरस, तोटक, चन्द्रिका, मंजुभाषिला, मत्तमयूर, नन्दिनी, अशोकमालिनी, ग्विणी, शरमाला, अच्युत, शशिकला, सोमराजि, चण्डवृष्टि, प्रहरणकलिका, नित्यभ्रमरविलासिता, ललिता और उपजाति छन्दोंका प्रयोग किया गया है। छन्दशास्त्रको दृष्टिसे इस काव्यका सप्तम सर्ग विशेष महत्वपूर्ण है । जिस छन्दका नामांकन किया है कविने उसी छन्दमें पद्यरचना भो प्रस्तुत को है । कवि कल्पनाका धनी है । सन्ध्याके समय दिशाएँ अन्धकारद्रव्यसे लिप्त हो गई थी और रात्रिमें ज्योत्स्नाने उसे चन्दनद्रव्यसे चचित कर दिया, पर अब नवान सूर्यकिरणोंसे संसार कुंकुम द्वारा लीपा जा रहा है। सन्ध्यागमे ततत्तमोमृगनाभिपङ्कनक्तं च चन्द्रधिचन्दनसंचयेन । यच्चचितं तदधुना भुक्न नवीनभास्वत्करोघघुसूर्णरुपलिप्यते स्म ।।३।१५।। मग्नां तमःप्रसरपंकनिकायमध्याद् गामुद्धरन्सपदि पर्वततुङ्गशृङ्गाम् । प्राप्योदयं नयति सार्थकता स्वकीयमहसां पतिः करसहस्रमसावखिन्नः ॥३।१६।। अन्धकाररूपी कीचड़में फंसी हुई पृथ्वीका पर्वतरूपी उन्नत शृंगोंसे उद्धार करते हुए उदयको प्राप्त सूर्यदेवने हजारों किरणोंको फैलाकर सार्थक नाम प्राप्त किया है। इस प्रकार काव्य-मूल्योंकी दृष्टि से यह काव्य महत्त्वपूर्ण है। इसका प्रकाशन काव्यमालासिरीजमें ५६ संख्यक ग्रंथके रूपमें हुआ है । चामुण्डराय चामुण्डराय 'वीरमार्तण्ड', 'रणरंगसिंह', 'समरघुरन्धर' और 'वैरिकुल श्रावार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : २५
SR No.090510
Book TitleTirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherShantisagar Chhani Granthamala
Publication Year
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy