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जिस वाणीमें शब्दालंकार, अर्थालंकार, व्याकरणसम्मत कोमल पद, विविध प्रकारके हावभाव, छन्द, श्लेष, प्रसादादि रस-गुण, शृंगारादि नवरस, आचारांगादि द्वादश अंग, चौदह पूर्व, स्याद्वाद आदि सिद्धान्त समाहित रहते हैं, वही वाणी सुन्दर और सुशील विलासयुक्त नायिकके समान जनसामान्यका चित्तआकृष्ट करती है। इस प्रकार कवि पुष्पदन्तने काव्यतत्त्वोंका विवेचन बहुत सुन्दररूपमें किया है। कवि इतिवृत्त, वस्तूव्यापार-वर्णन और भावाभिव्यञ्जनमें भी सफल हुआ है। राजगृह नगरका चित्रण करते हुए उत्प्रेक्षाकी श्रेणी ही प्रस्तुत कर दी है । कवि कहता है कि वह नगर मानों कमलसरोवररूपी नेत्रोंसे देखता था, पवनद्वारा हिलाये हुए वनोंके रूपमें नृत्य कर रहा था तथा ललित लतागृहोंके द्वारा मानों लुकाछिपी खेलता था | अनेक जिनमन्दिरों द्वारा उल्लसित हो रहा था । कामदेवके विषम वाणोंसे घायल होकर मानों अनुरक परेवोंके स्वरसे चीख रहा था। परिखामै भरे हुए जलके द्वारा वह नगर परिधान धारण किये हुए था तथा अपने श्वेत प्रकाररूपी चीरको ओढ़े था । वह अपने ग्रहशिखरोंकी निगों द्वारा स्वर्ग को छु नताशा । और माह चन्द्रकी अमृतधाराको पो रहा था। कुंकुमको छटाओंसे जान पड़ता था, जैसे वह रतिकी रंगभूमि हो और वहाँके सुखप्रसंगोंको दिखला रहा हो । वहीं जो मोतियोंकी रंगावलियां रची गई थीं, उनसे प्रतीत होता था, जैसे मानों वह हार-पंक्तियोंसे विभूषित हो। वह अपनी उठी हुई ध्वजाओंसे पंचरंगा और और चारों वर्गों के लोगोंसे अत्यन्त रमणीक हो रहा था।
जोयइ व कमलसरलोयणेहि गच्च व पवणहल्लियवहिं । ल्हिक्कइ व ललियबल्लीहरेहि उल्लसइ व बहुजिणवरहरेहि । वणियउ व विसमवम्महसरेहिं कणइ व रयपारावयसरेहि। परिहद व सपरिहापरियणीरु पंगरइ व सियपायारचीरु । णं परसिहरागाह सग्गु छिवइ णं चंद-अमिय-धाराउ पियइ । कुंकुमछडएं ण रइहि रंग। णाधइ दपखालिय-सुहपसंगु । विरइयमोत्तियरंगावलहिं जं भूसिउ णं हारावलीहिं। चिधेहिं रिय णं पंचवष्णु चउवण्णजणेण वि अइखण्णु । इसप्रकार यह महाकाव्य रस, अलंकार, प्रकृतिचित्रण आदि सभी दृष्टियोंसे महत्त्वपूर्ण है।
असहरचरिउ-यह भी एक सुन्दर खण्डकाव्य है। इसमें पुण्यपुरुष यशोघरका चरित वर्णित है। इसमें ४ सन्धियाँ हैं। यह अन्य भरतके पुत्र और वल्लभ नरेन्द्रके गृहमंत्रीके लिए उन्होंके भवनमें निवास करते हुए लिखा गया
आचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : १११