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सदाप्यहिंसाजनितोऽस्ति धर्मः स जातु हिंसाजनितः कुतः स्यात् । न जायते तोयजकमग्नेर्न चामृतोत्थं विषतोऽमरत्वम् ॥८॥ अहिंसा के पालनार्थं मद्य, मांस, मधुके त्यागका और निर्मल आचरण पालन करनेका कथन किया है । कविने आसमें सर्वज्ञताकी सिद्धि करते हुए लिखा है—
यथैव ॥१२३||
'तत्सूक्ष्मद्रान्तरिता: पदार्थाः कस्यापि पुंसो विशदा भवन्ति । व्रजन्ति सर्वेप्यनुमेयतां यदेतेऽनलाद्या भुवने अर्थात् संसार में जो परमाणु इत्यादि सूक्ष्म पदार्थ हैं, राम-रावण आदि अन्तरित पदार्थ हैं और हिमवन आदि दूरवर्ती पदार्थ हैं वे किसीके प्रत्यक्ष अवश्य हैं क्योंकि इन सभी पदार्थोंको हम अनुमानसे जानते हैं । जो पदार्थं अनुमानसे जाना जाता है वह किसीके प्रत्यक्ष भी होता है । जैसे पर्वत में छिपी हुई अग्निको हम दूरसे उठता हुआ कुँआ देखकर अनुमानसे जानते हैं। पश्चात् उसका प्रत्यक्षीकरण होता है ।
इस ग्रन्थपर 'समन्तभद्र' के 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार का विशेष प्रभाव है । ग्रन्थकर्त्ताने ११६ पद्यों तक कुदेवोंकी समीक्षा की है। आपका स्वरूप बतलानेके अनन्तर जिनवाणीका माहात्म्य ७ पद्योंमें दिखलाया गया है । तत्पश्चात् सम्यग्दर्शनका वर्णन आया हैं । इस संदर्भ में ३ मूढ़ता, ८ मद और ८ अंगों का स्वरूप भी दर्शाया गया है। तत्पश्चात् सम्यक दर्शनका माहात्म्य बतलाकर सज्जाति आदि सप्त परमस्थानोंका स्वरूप भी एक एक पद्यमें अंकित किया गया है । २०६ पद्यसे २१२ पद्य तक परमस्थानोंका स्वरूप वर्णन है । २१३वें और २१४वें पद्य में सम्यक्ज्ञानका कथन आया है । कविने रत्नत्रय को ही वास्तविक धर्म कहा है और उसका महत्त्व २२४वें और २२५ पद्य में प्रदर्शित किया है । २२६वें पद्यसे २३३ पद्य तक पञ्चपरमेष्ठीका स्वरूप इस लघुकाय ग्रन्थ में जैन सिद्धान्तों का वर्णन आया है ।
वर्णित है। इस प्रकार
पद्मनाभ कायस्थ
राजा यशोधरकी कथा जैनकवियोंको विशेष प्रिय रही है । पद्मनाभने यशोधरचरितकी रचना कर इस श्रृंखला में एक और कड़ी जोड़ी है। पद्मनाभको जैनधर्मसे अत्यधिक स्नेह था और इस धर्म के सिद्धान्तोंके प्रति अपूर्व आस्था थी ।
पद्मनाभका संस्कृत भाषापर अपूर्व अधिकार था। उन्होंने भट्टारक गुणकीत्तिके सान्निध्य में रहकर जैनधर्मके आचार-विचारों और सिद्धान्तों का अध्ययन किया था । गुणकीर्ति के उपदेशसे हो इन्होंने यशोधरचरित या दया
५४ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा