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जं चन्द्रकन्त-सलिलाहिसित्तु । अहिसेय-पणालुवफुसिय-चित्तु ॥ ३ ॥ जं विदुम-मरगय-कन्तिकाहिं । पि3 गयणुव सधण-पन्तियाहिं ॥ ४ ॥ जं इन्द्रणील-माला-मसीएं । आलिहइ दिस-भित्तीएं तोएं ॥५॥ जहि पोमराय-मणि-गणु विहाइ । विउ अहिणव-सञ्झा-राउ-गाई ।। ६॥
इसप्रकार यह ग्रन्थ अपभ्रंश-काव्यका मुकुटमणि है। रिद्वमिचरिउ ___यह हरिवंशपुराणके नामसे प्रसिद्ध है। अठारह हजार श्लोकप्रमाण है
और ११२ सन्धियाँ हैं । इसमें तीन काण्ड हैं—यादव, कुरु और युद्ध । यादवमें १३, कुरुमें १९, और युद्ध में ६० सन्धियाँ हैं । सन्धियोंकी यह गणना युद्धकाण्डके अन्तमें अंकित है । यहाँ यह भी बताया गया गया कि प्रत्येक काण्ड कब लिखा गया और उसकी रचनामें कितना समय लगा। इन सन्धियोंमें ९९ सन्धि स्वंभुदेवके द्वारा लिखी गयी हैं । २९वी सन्धिके अन्तमें एक पद आया है, जिसमें
बताया है कि पउमाचार उ या सुख्यधारउ बनाकर अब में हरिवंशी रचनामें '. प्रवृत्त होता हूँ।
'रिडणेमिचरिउ' अपभ्रंश-भाषाका प्रबन्धकाव्य है। रिटमिर्चारउकी रचना धवलइयाके आश्रयमें की गयी हैं । इस ग्रन्थमें २२खें तीर्थंकर नेमिनाथ, श्रीकृष्ण और यादवोंको कथा अंकित है। पंचमीचरिउ
यह ग्रन्थ पडियाबद्ध शैलीमें लिखा गया है। अभी तक यह अप्राप्त है। इसमें नागकुमारकी कथा वर्णित है । स्वयंभुछन्व
स्वयंभुदेवने एक छन्दप्रन्धकी रचना की है, जिसका प्रकाशन प्रो० एच० डो० वेलणकरने किया है। इस ग्रन्थके प्रारम्भके तीन अध्यायोंमें प्राकृतके वर्णवृत्तोंका और पांच शेष अध्यायोंमें अपभ्र शके छन्दोंका विवेचन किया है। साथ ही छन्दोंके उदाहरण भी पूर्वकवियोंके ग्रन्थोंसे चुनकर दिये गये हैं ।
इस ग्रन्थ के अन्तिम अध्यायमें दाहा, अडिल्ला, पड़िया आदि छन्दोंके स्वोपज्ञ उदाहरण दिये गये हैं । इस ग्रन्थमें पउमरिज, बम्मतिलय, रअणावली आदि ग्रन्थोंके भी उदाहरण दिये गये हैं। इसके अतिरिक्त प्राकृतके
१. पजमचरित, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, ७२।३।
आचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : १०१