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खाने लगे। समय काटनेके लिये मृगावती और मधुमालती नामक पुस्तकोंको बैठे पढ़ा करते थे। दो-चार रसिक श्रोता भी आकर सुनते थे । एक कचौड़ी वाला भी इन श्रोताओं में था, जिसके यहाँसे कई महीनों सक दोनों शाम उधार लेकर कचौड़ियाँ खाते रहे। फिर एक दिन एकान्तमें इन्होंने उससे कहा
तुम उधार कीनो बहुत, अब आगे जनि देउ ।
मेरे पास कछू नहीं, दाम कहाँ सौं लेहु । कचौड़ी वाला सज्जन था । उसने उत्तर दिया
कहे कचौड़ीवाला नर, बीस सर्वया खाह ।
तुमसों कोउ न कछु कहै, जहं भावे सह जाहु ।। कवि निश्चिन्त होकर छ: सात महीने तक भरपेट कचौड़ियां खाता रहा । और जब परसमें पैसे हए, तो १४ रुपयेका हिसाब साफ कर दिया। कुछ समय पश्चात् कवि अपनी ससुराल खैराबाद पहुंचा । उनकी पत्नीने वास्तविक स्थिति जानकर इनको स्वयंके अजित बीस रुपये तथा अपनी मातासे २०० रुपये व्यापार करनेके लिये दिलाए । कवि आगरा आकर पुनः व्यापार करने लगा, पर यहां भी दुर्भाग्यवश घाटा हो रहा । फलत: वह अपने मित्र नरोत्तमदासके यहां रहने लगा ! दुर्भाग्य जीवन-पर्यन्त साथमें लगा रहा । अतः आगरा लौटते समय कुरीनामक प्राममें झूठे सिक्के चलानेका भयंकर अपराध लगाया गया । और इन्हें मृत्यु-दण्ड दिया गया। किसी प्रकार बनारसीदास वहाँसे छूटे । इनकी दो पत्नियों और नौ बच्चोंका भी स्वर्गवास हुआ। सं० १६९८में अपनी तीसरी पत्लीके साथ बैठा हुआ कवि कहता है
नो बालक हुए मुए, रहे नारि-नर दोह।
ज्यों तरुवर पतझार हूं, रहें ढूंठसे होइ ।। कवि जन्मना श्वेताम्बर-सम्प्रदायका अनुयायी था । उसने खरतरगच्छी श्वेताम्बराचार्य भानुचन्द्रसे शिक्षा प्राप्त की थी। उसके सभी मित्र भी श्वेताम्बर सम्प्रदायके अनुयायी थे। पर सं० १६८०के पश्चात् कविका झुकाव दिगम्बर सम्प्रदायकी मान्यताओंकी ओर हुआ। इन्हें खैराबाद निवासी अर्थमलजीने समयसारको हिन्दी अर्थ सहित राजमलकी टोका सौंप दी । इस ग्रंथका अध्ययन करनेसे उन्हें दिगम्बर सम्प्रदायकी श्रद्धा हो गयो । सं० १६९.२में अध्यात्मके प्रकाण्ड पंडित रूपचन्द पाण्डेय आगरा आये । रूपचन्दने गोम्मटसार प्रन्यका प्रवचन आरंभ किया, जिसे सुनकर बनारसीदास दिगम्बर सम्प्रदायके अनुयायी बन गये। यही कारण है कि उनकी सभी रचनाओंमें दिगम्बरवकी मलक मिलती है।
प्राचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : २५१