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देवेन्द्रकुमार शास्त्रीने धनपालका समय वि० को १४वीं शती बतलाया है । पर यह उनका भ्रम है । श्री पं० परमानन्दजी शास्त्रीने 'अनेकान्त' वर्ष २२, किरण १ में श्रीदेवेन्द्रकुमारजी के मतको समीक्षा की है। और उन्होंने प्राप्त प्रशस्तिको मूलग्रंथकर्ताकी न मानकर लिपिकर्ताकी बताया है। अतः प्रशस्तिके आधारपर धनपालका समय १४वीं शती सिद्ध नहीं किया जा सकता है ! जब तक पुष्ट प्रमाण प्राप्त नहीं होता है तब तक धनपालका समय १०वीं शती ही माना जाना चाहिए ।
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धनपालका व्यक्तित्त्व कई दृष्टियोंसे महत्त्वपूर्ण है। उन्हें जीवन में विभिन्न प्रकार के अनुभव प्राप्त थे । अतः उन्होंने समुद्रयात्राकर सफल वर्णन किया है। विमाता के कारण पारिवारिक कलहका चित्रण भी सुन्दर रूपमें हुआ है । कवि धनपालका मस्तिष्क उर्वर था । वे शृंगार-प्रसाधनको भी आवश्यक समझते थे । विवाह एवं मांगलिक अवसरों पर एक करना उनको दृषि उचित था ।
रचना
कविकी एक ही रचना 'भविसयत्तकहा' प्राप्त है । यह कथाकृति नगरवर्णन, समुद्र वर्णन, द्वीप-वर्णन, विवाह वर्णन, युद्धयात्रा, राज-द्वार, ऋतु-चित्रण, शकुनवर्णन, रूपवर्णन आदि वस्तु वर्णनोंकी दृष्टिसे अत्यन्त समृद्ध है । कविने प्रबन्ध में परिस्थितियों और घटनाओंके अनुकूल मार्मिक स्थलोंकी योजना की है । इन स्थलोंपर उसकी प्रतिभा और भावुकताका सच्चा परिचय मिलता है । भावोंके उतार-चढ़ाव में घटनाओंका बहुत कुछ योग रहता है । भविसत्तकहा में बन्धुदत्तका भविष्यदत्तको मेनाद्वीप में अकेला छोड़ना और साथके लोगोंका संतप्त होना, माता कमलश्रीको भविष्यदत्तके न लौटनेका समाचार मिलना, बन्धुदत्तका लौटकर आगमन, कमलश्रोका विलाप और भविष्यदत्तका मिलन आदि घटनाएँ मर्मस्पर्शी हैं ।
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कथावस्तु — हस्तिनापुरनगर में धनपति नामका एक व्यपारी था, जिसको पत्नीका नाम कमलश्री था । इनके भविष्यदत्त नामका एक पुत्र हुआ । धनपति सरूपानामक एक सुन्दरीसे अपना विवाह कर लेता है और परिणामस्वरूप अपनी पहली पत्नी और पुत्रकी उपेक्षा करने लगता है । धनपति और सरूपाके पुत्रका नाम बन्धुदत्त रखा जाता है। युवावस्थामें पदार्पण करने पर बन्धुदत्त व्यापारके हेतु कंचन द्वीपके लिये प्रस्थान करता है। उसके साथ ५०० व्यापारियोंको जाते हुए देखकर भविष्यदत्त भी अपनी माताकी अनुमतिसे उनके
११४ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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