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________________ I वसन्तऋतु कामोत्पादक है। उसके आगमन के साथ प्रकृतिमें चारों ओर सुरभित मलयानिल प्रवाहित होने और प्रकृति नई वधूके समान इठ आह्लादक वातावरण व्याप्त हो जाता है। लगता है, कोयलकी क्रूज सुनाई पड़ती है लाती हुई दृष्टिगोचर होती है । इसी सुहावने समयमें तीर्थंकर ऋषभदेव ध्यानस्य थे । कामदेवने जब उन्हें शान्त मुद्रामें निमग्न देखा, तो वह कुपित होकर अपने सहायकों के साथ ऋषभदेवपर आक्रमण करने लगा । कामके साथ क्रोध, मद, माया, लोभ, मोह, राग-द्वेष और अविवेक आदि सेनानियोंने भी अपने-अपने पराक्रमको दिखलाया । पर ऋषभदेवपर उनका कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा। उनके संयम, त्याग, शील और ध्यानके समक्ष मदनको परास्त होना पड़ा। कविने युद्धका सजीव वर्णन निम्नलिखित पंक्तियों में किया है चदिउ कोपि कंद अप्पु बलि अदर न मन्नइ । कुंदै कुरले तसे हंसे सन्वह अवगन्नई | ताणि कुसुम कोवंडु भविय संघह दलु मिल्लिउ । मोहु वहिड तहगवि तासु ब्लु खिणमदि पिल्लि । कवि वल्लह जैनु जंगम अटलु सासु सरि अवरु न करें कुछ । असि झाणि णिउ श्री आदिजिण, गयो मयणु दहवजहोइ ॥ कविको दूसरी रचना संतोष तिलकजयमाल है । यह भी रूपक काव्य है । इसमें सन्तोषद्वारा लोभपर विजय प्राप्त करनेका वर्णन आया है । काव्यका नायक सन्तोष है और प्रतिनायक लाभ लोभ प्रवृत्तिमागका पथिक है और सन्तोष निवृत्तिमार्गका । लोभके सेनानी असत्य, मान, माया, क्रोध, मोह, कलह, व्यसन, कुशील, कुमति और मिथ्याचरित आदि हैं। सन्तोषके सहायक शील, सदाचार, सुधर्म, सम्यक्त्व, विवेक, सम्यक् चारित्र, वंशग्य, तप, करुणा, क्षमा और संयम आदि हैं। कविने यह काव्य १३१ पद्योंमें रचा है। लोभ और सन्तोषके परिकर का प्रस्तुत करते हुए लिखा है परिचय लोभ आपउ झूठु परधानु मंत-तंत खिणि कीयउ । मानु मोह अरु दोहु मोहु इकु युद्धउ कीयउ । माया कलह कलेषु थापु, संताप छद्म दुख कम्म मिथ्या आचरउ आइ अद्धम्म किउ पखु कुविसन कुसील कुमतु जुडिउ राग दोष आइरु लहिउ । अप्पणउ सयनु बल देखिकरि, लोहुराउ तब गह् गहिउ ॥ आचार्य तुल्य काव्यकार एवं लेखक : २३१
SR No.090510
Book TitleTirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherShantisagar Chhani Granthamala
Publication Year
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size10 MB
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