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नाक कहे प्रभु में बड़ी, और न बड़ो कहाय । नाक रहै पत लोक में, नाक गये पत जाय ॥ प्रथम वदनपर देखिए, नाक नवल आकार | सुन्दर महा सुहावनी, मोहित लोक अपार ॥ सुख विलसै संसारका, सो सब मुझ परसाद ।
नाना वृक्ष सुगन्धिको, नाक करें आस्वाद ॥ कानका उत्तर
का कहै, न कि न, मन करे गमान ! जो आकर आगे चलै, तो नहिं भूप समान ।। नाक सुरनि पानी झरे, बहे श्लेषम अपार । गंधान करि परित रहै, लाजे नहीं गंवार ।। तेरी छींक सुनै जिते, करे न उत्तम काज । मूदै तुह दुर्गन्ध में, तक न आवे लाज ।। वृषभ नारी निरख, और जीव जग माँहि । जित तित तोको छेदिये, तोऊ लजानो नाहि ॥
कानन कुण्डल झलकता, मणि मुक्ताफल सार । जगमग जगमग ह्र रहै, देखे सब संसार । सातों सुरको गाइबो, अद्भुत सुखमय स्वाद । इन कानन कर परखिये, मोठे-मीठे नाद ॥ कानन सरभर को करै, कान बड़े सरदार 1
छहों द्रव्य के गुण सुने, जाने सबद-विचार ।। मधुबिन्दुकचौपाई-भी कविका एक सरस आध्यात्मिक रूपक काव्य है। इस काव्य में बताया है कि एक पुरुष वनमें जाते हुए रास्ता भूलकर इधरउधर भटकने लगा। जिस अरण्यमें वह पहुँच गया था वह अरण्य अत्यन्त भयंकर था। उसमें सिंह और मवान्मत्त गजोंकी गर्जनाएं सुनाई पड़ रही थीं। वह भयाक्रान्त होकर इधर-उधर छिपनेका प्रयास करने लगा। इतने में एक पागल हाथी उसे पकड़नेके लिए दौड़ा। हाथीको अपनी ओर आते हए देखकर वह व्यक्ति भागा । वह जितनी तेजीसे भागता जाता था, हाथी भी उतनी ही तेजीसे उसका पीछा कर रहा था। जब उसने इस प्रकार जान बचते न देखी, तो वह एक वृक्षकी शाखासे लटक गया। उस वृक्षकी शाखाके नीचे एक बड़ा अन्धकूप था तथा उसके ऊपर एक मधममखीका छत्ता लगा हुआ था। हाथी २७० : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्म-परम्परा