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HINDU LAW. हिन्दू-लॉ
सर्वाङ्गपूर्ण-समग्र संशोधनों-हाल तककी नजीरों आर तत्सम्बन्धी समस्त व्याख्या सहित
नये कानूनोंसे अलङत.
लेखकपं० चन्द्रशेखर शुक्क
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प्राक्कथन
आज हम दूसरी बार यह कानून सर्वाङ्गपूर्ण छाप कर अपने भाइयों के सामने उपस्थित कर रहे हैं। प्रथमावृत्तिसे इस बार यह कानून बहुत बढ़ गयां । हाल तककी प्रायः सभी नज़ीरों और समग्र संशोधनों तथा तत्सम्बन्धी सब नये कानूनोंका यथा स्थान उल्लेख करना पड़ा और पूरा पूरा छापना पड़ा। पहलेकी अपेक्षा यह कानून बहुत ज्यादा फायदेमन्द और लाभदायक प्रमाणित होगा। यद्यपि इस बार कागज़, छपाई तथा बाइडिङ्ग और लेखन आदिमें अधिक खर्च कियागया है तिसपर भी हमने मूल्य कुछभी नहीं बढ़ाया।
_ 'हिन्दूला' दो शब्दोंके योगसे बना है। प्रथम शब्दका अर्थ व्यापक है और दूसरे शब्दका अर्थ है 'कानून' हिन्दुओंके प्राचीन आचार्योंके निर्धारित नियमों और बचनोंके अनुसार सामाजिक व्यवहारका जितना भाग अगरेज़ सरकारने स्वीकार कर लिया है और जिसके अनुसार अदालतोंमें हिन्दुओंके सामाजिक मुकद्दमे फैसल होते हैं उसे हिन्दूला कहते हैं। हिन्दूला से सम्ब न्ध रखने वाले सरकारके अन्य कानून भी हैं जिनका वर्णन यथास्थान इस प्रन्थमें किया गया है। हिन्दुओंके लिये एवं हिन्दू जातिके धर्माचार्योंके जैसे साधू, संन्यासी, महन्त, गद्दीधर, मठ या मन्दिरके अधिष्ठाता, शिवायत, पुजारी तथा सार्वजनिक लाभके लिये संस्था कायम करने वालोंके लिये मी यह कानून अत्यन्त उपयोगी है। हमें विश्वास है कि यदि इस कानूनकी मोटी मोटी बाते हमारे भाई याद रखें तो अदालती हानियों और बड़ी बड़ी परेशानियोंसे बहुत कुछ बच जावें। वे जान सकेंगे कि शामिल शरीक या बटे हुये परिवारमें मर्दो, स्त्रियों, लड़कों, गर्भमें बच्चोंका जायदादमें कितना हक़ है, किसके मरनेपर कौन वारिस कव होगा, विवाह कैसे वर कन्याके साथ किस उमर में कब करना उचित है, कैसे विवाहके लड़के वारिस होंगें, पति
पत्नीके परस्पर अधिकार व हक्क, क्या हैं, गोदका कानून क्या है नाबालिग - और वलीके अधिकार आदि क्या हैं, उत्तराधिकार अर्थात् वरासतमें किनको - कब, किसके पश्चात् या किससे पहले किस तरहकी जायदाद मिलती है। बिठलाई हुई स्त्रियों व उनकी सन्तानके हक व अधिकार क्या हैं, फर्जी मामलोंका कानून क्या है, स्त्रीधन व स्त्रियोंको मिली हुई जायदाद कब उनको पूर्ण अधिकारसे मिलती है, दान और वसीयतके कानूनी नियम क्या हैं एवं मन्दिरों, पाठशालाओं, धर्मशालाओं व साधुओंकी गद्दीमें लगी जायदादका पूरा कानून क्या है। दूस्ट, ट्रस्टी श्रादिके अधिकार व हक्र व ज़िम्मे.
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दारियां कहांपर कैसी हैं इत्यादि अनेकानेक क़ानूनी बातोंका पूर्ण ज्ञान इस कानूनके द्वारा हो सकता है । अदालतों में प्रायः आधे मुकद्दमे इस कानून सम्बन्धी फैसल होते हैं एवं हिन्दुओंके तो बहुत अन्शमें घरू झगड़े इसी कानून से सम्बन्ध रखते हैं।
मेरी उमरका एक बड़ा भाग कानूनी पेशेमें बीता तथा बड़े बड़े मशहूर वकीलोंके साथ काम किया। मेरे अनुभवमें यह बात बहुत खटकी कि इस हिन्दू लॉ के न जानने के कारण हिन्दू समाजकी बहुत बड़ी हानि हो रही है। अपने हकोंके न जानने के कारण वे बरबाद होगये तथा अनधिकारी मालामाल होगये । सन् १९१२ ई० में जब मुझे स्वर्गीय सेट खेमराज श्रीकृष्णदास (श्री वेङ्कटेश्वर प्रेस बम्बईके मालिक)के दत्तककामुक़द्दमा लड़ने के लिये बम्बई जाना पड़ा और सिर्फ इसी मुक़द्दमेके चलाने के लिये लग भग ११ साल वहांकी अदालतों व हाईकोर्ट में काम करना पड़ा उसी अवसरमें मैंने बड़े परिश्रम और प्रेमके साथ यह ग्रन्थ हिन्दीमें लिखा। बम्बई हाईकोर्ट की लाइब्रेरी द्वारा मुझे बहुत कुछ इस ग्रन्थमें हवाला देनेका मसाला प्राप्त हुआ था। जटिल प्रश्नोंके तय करने के लिये मुझे कानूनके धुरन्धर विद्वान्मेंसे पूर्ण सहायता मिली । मैं कह सकता हूं कि अगरेजीमें लिखे कई एक हिन्दू लॉ में मूल सिद्धांत विषयक भारी अशुद्धियां हैं। उनका नाम इसलिये नहीं बताना चाहता कि वृथाका वितण्डावाद खड़ा हो जायगा। यह ग्रन्थ अपने ढङ्गका हिन्दीमें पहला ग्रन्थ है हिन्दी जानने वालोंको हिन्दू धर्म शास्त्रीय कानून जाननेके लिये प्रधान तथा एकमात्र साधन है । कानून पेशा सजनोंको इसके द्वारा इसलिये बड़ी मदद मिलेगी कि वे अगरेजी क़ानूनके साथ साथ आर्य बचनोंकी तुलना कर सकेंगे। ग्रन्थ लिखने के समय मेरी यह दृष्टि रही है कि वह विषय पहले हमारे आचायोने कैसा माना है और उसमें से अब अगरेज़ी अदालतें कितना भाग किस रूपमें मानती हैं तथा उस सम्बन्धमें हाल तककी नज़ीरोंका क्या प्रभाव पड़ा है पूरा लिखा जाय । बहुत जगहोंपर जैसे वसीयत आदिमें मुझे आचार्योके बचन नहीं मिले वापर केवल अङ्गरेज़ी क़ानूनका ही उल्लेख किया है। भाषा मामूली बोलचालकी लिखी गई है ताकि हमारे भाइयोंको समझने में तकलीफ़ न हो। इस ग्रन्थमें क्या खूबियां हैं अथवा इसके द्वारा जनताको विशेष करके हिन्दुओंको कितनी सहायता मिल सकती है, या कितना परिश्रम इसके लिखने आदिमें हुआ है इन सब बातोंका निर्णय आपके हाथों छोड़ा गया है।
इस बार यह ग्रन्थ डेढ़ वर्षमें छपकर पूरा हुआ। असम्बली में हिन्दूला पर असर डालने वाले कानूनों के बिल पेश हुये, इसलिये हमें विवश होकर उसकी प्रतीक्षा करना पड़ी और ज्योंही वे कानून बन गये और सरकारने कृपा करके हमारे पास भेजे उसी समय व्याख्या और तत्सम्बन्धी कानूनी विषयों सहित अलंकृत करके इसमें यथा स्थान लगा दिये गये । 'अन्तमें बाल विवाह निषेधक ऐक्ट नं० १६ सन १६२६ ई० पास हुआ उसे भी सर्वाङ्गपूर्ण
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व्याख्या और उपयोगी नज़ीरों सहित छापकर लगा दिया गया। अन्य कानूनों के अलावा हिन्दूलॉ पर एक्ट नं०१२ सन् १६२८ ई० तथा एक्ट नं०२सन् १९२६ ई० ने बहुत बड़ा असर डाला है। जिसके द्वारा मिताक्षराला में भारी परि. घर्तन उसके उत्तराधिकारमें होगया नये ४ वारिस (लड़केकी लड़की, लड़की की लड़की, बहन और बहनका पुत्र ) अनिवार्य रूपसे मान लिये गये, इन सब व अन्य कानूनोंको विस्तृत व्याख्या सहित हमने इस ग्रन्थमें स्थान दिया है। हमें आपसे यह कहते हर्ष होता है कि हिन्दूलॉका यह एडीशन पहलेसे बहुत अधिक लाभकारी सिद्ध होगा।
मुझे एक बात अवश्य कहना है कि इसके तैय्यार होते समय तक आधे से अधिक मांगें आ चुकी हैं। अब हमारे पास आधेसे कम रह गया है इसलिये यदि आप अपना कुछ भी हित इसके द्वारा समझते हों तो अति शीघ्र मंगाले वरना आपको बहुत दिनों तक ठहरना होगा। जल्द न छप सकेगा क्योंकि इससे भी बड़े कानून छपना प्रारम्भ होगया है और बिना उनके पूरा किये दूसरे छप नहीं सकेंगे। - इस कानूनके तैय्यार होने में जिन सजनोंने मुझे बम्बई में सहायता दी थी, यद्यपि उनको प्रथमावृत्तिमें मैंने धन्यवाद दिया था किन्तु जब जब मुझे उन सज्जनोंका स्मरण आ जाता है तो मेरा हृदय प्रेमसे भर आता है। उन्होंने जो मेरे साथ प्रेमका बर्ताव किया है उसकी स्मृति ताज़ी हो जाती है। मैं सबसे पहले श्रीमान वै० धर्मरत्न सेठ खेमराज श्रीकृष्णदासजी को धन्यबाद देता हूं कि जिन्होंने इस ग्रन्थके लिखने के समय मेरे उत्साहको बढ़ाया, कठि. नताके समय प्रोत्साहन दिया, दूसरे मैं अपने परम मित्र निरभिमानी विद्वान वै० पं० चन्दूलाल जी महताका कृतज्ञ हूं जिनकी कृपासे मुझे प्रूफ देखने आदि में सहायता मिली और इसी प्रकार कानूनके सुविख्यात विद्वान और ग्रन्थकार श्रीयुत पं० पद्मनाभ भास्कर शिंगणे व हिन्दूला के सुप्रसिद्ध ग्रन्थकार श्रीयुत पं० जगन्नाथ रघुनाथ घारपुरे एडवोकेट महानुभावोंका मैं आभारी हूं जिन्होंने मुझे हिन्दूलॉ के जटिल प्रश्नोंको पढ़ाया और समझाया जिसके कारण हम इस ग्रन्थको लिखने में समर्थ हुये।
इस आवृत्तिमें प्रूफरीडर नये थे इसलिये अधिक सम्भव है कि अशुद्धियां रह गई हों उसके लिये पाठक यह जानकर क्षमा करें कि इतने बड़े ग्रन्थ में ऐसा हो जाना असम्भव नहीं है । अन्तमें हमें यही कहना है कि यदि हिन्दू समाजका कोई मी लाभ हमारे इस कामसे हुआ तो हम अपने परिश्रम को, सफल समझेंगे।
विनीतचन्द्रशेखर शुक्ल
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जिन संस्कृत ग्रन्थोंका आधार इस ग्रन्थके बनाने में लिया गया है निम्न लिखित हैं
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१ अत्रि स्मृति
? आपस्तम्ब स्मृति
३ आश्वलायन गृह्यसूत्र ४ श्रशनस स्मृति
५ कश्यप स्मृति
६ कात्यायन स्मृति
७ कालिका पुराण'
८ कल्लूकभट्ट - मनुस्मृतिपर टीका
६ गोभिल स्मृति
१० गौतम स्मृति ११ गौलाक्षि स्मृति १२ चतुर्वर्ग चिन्तामणि
१३ जातिभास्कर
१४ जावालि
१५ दक्ष स्मृति
१६ दत्तक चन्द्रिका
१७. दत्तक मीमांसा
६८ दायभाग जीमूतवाहनकृत टीका
१६ दानचन्द्रिका
२० दानमीमांसा
२१ दायक्रमसंग्रह - श्रीकृष्णतर्का लङ्कारकृत | २२ दायतत्व - पं० रघुनन्दनमिश्र कृत २३ देवल स्मृति २४ धर्मसिन्धु
२५ धर्मशास्त्र संग्रह
२६ नारदस्मृति
२७ निर्णयसिन्धु
२८ पराशरमाधक
२६ पराशरस्मृति
३० पाराशर धर्मशास्त्र
३१ बालंभट्टी - याज्ञवल्क्यपर टीका ३२ विश्व रूप-याज्ञवल्क्यपर टीका
३३ बिष्णु स्मृति ३४ बीर मित्रोदय ३५ बौधायन स्मृति
३६ व्यास स्मृति
३७ वृहस्पति स्मृति
३५ वृद्धशातातप स्मृति ३६ व्यवस्थादर्पण
४० मनुस्मृति
४१ मयूख व्यवहार प्रकरण ४२ मिताक्षरा याज्ञवल्क्यपर टीका ४३ मि० ए० ओ० धूम साहबकी सेन्सेज़ रिपोर्ट
४४ मानवगृह्यसूत्र
४५ मेधातिथि- मनुस्मृतिपर टीका ४६ यजुर्वेद
४७ यमस्मृति ४८ याज्ञवल्क्य स्मृति
४६ लघु आश्वलायन स्मृति
५० लिखित स्मृति
५१ वसिष्ठ स्मृति
५२ व्यवस्था निर्णय- वरदराजकृत
५३ विवाद चिन्तामणि
५४ विवाद रत्नाकर
५५ विवादार्णवसेतु
५६ सरस्वती विलास प्रताप रुद्रदेव कृत
५७ सिद्धांत कौमुदी
५८ सुबोधिनी - याज्ञवल्क्यपर टीका
५६ संवर्त स्मृति
६० संस्कार प्रकाश ६१ शातातप स्मृति ६२ शौनक स्मृति ६३ शंख स्मृति
६४ हारीत स्मृति
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सरकारके निर्मित कानून और रेगूलेशन जिनका
हवाला इस ग्रन्थमें दिया गया है + इस निशानके कानून सर्वाङ्ग पूर्ण दिये गये हैं।
नं० सन् एक्टनं० नाम कानून ।
विषय ११८३६ २३ इन्टरेस्ट एक्ट | सूदका कानून २१८४१२६ क्यूरेटर एक्ट
संरक्षक, महाफिज़, वलीसंबंधी कानून ३१८५० २१ फीडमआरेलीजन्एक्ट | धार्मिक स्वतन्त्रताका कानन ४१८५२ ११ रेन्ट फ्री स्टेट एक्ट माफी ज़मीदारियोंका कानून +५ ९८५६ १५ हिन्दू विडो रिमैरेज एक्ट | हिन्दू विधवा विवाह सम्बन्धी कानून ६१८५८४० माइनसे बगाल एक्ट बंगालका नाबालिग सम्बधी कानून ७१८५८ ३५ ल्यूनेसी एक्ट बिक्षिप्त या पागलके सम्बन्धका कानून ८१८५६ ११ रेविन्यू सेल्स एक्ट महकमे मालसम्बन्धी नीलामकाक़ानून ६. १८६०२७ सार्टिफिकटान् सक्सेशन एक्ट वरासतकी सार्टिफिकेटका कानून १० १८६०४५ पेनल् कोड
कानून ताज़ीरात हिन्द १११५६३२० रेलिजस एन्ड एन्डौमेन्ट एक्ट धार्मिक, खैराती संस्था सम्बन्धी कानन १२ १८६५ १० सक्सेशन् एक्ट उत्तराधिकार सम्बन्धी कानून १३ १८६५१५ पारसीमैरेजएन्डडाइवोर्स एक्ट | पारसियोंकेविवाह औरतलाकका कानून १४ १८६६ २१ नेटिवकनवरस्मैरेजाडिसोल्यूशन देशीईसाईयोंके विवाहविच्छेदका कानून १५१८६६ २८ ट्रस्टी एन्ड मारगेजीज़ एक्ट । ट्रस्टियों और रेहनरखनेवालोंका कानून १६ १८६९ १ अवध स्टेट एक्ट | अवधकी ताल्लुक्केदारियों का कानून १७ १८६६ ४ डाइवोर्स एक्ट
तलाकका कानून १८ १८७० २१ हिन्दू विल्ल एक्ट हिन्दू वसीयतनामोंका कानून १९ १८७१ २३ पेन्शन एक्ट
पेन्शनका कानून २० १८७२ ३ मैरेज एक्ट
विवाहका कानून २१ १८७२ ६ कंट्राक्ट एक्द कंट्राक्ट (मुआहिदे ) का कानून २२१८७२ ४ पंजाब लाज़
पंजाबके कानून २३ १८७२ १ इन्डियन एवीडेन्स एक्ट कानून शहादत हिन्द २४ १८७३ ३ मदरास सिविल कोर्टस मदरासकी दीवानी अदालतका कानून २५ १८७५ ६ इन्डियन् मेजारिटी एक्ट कानून बलागत हिन्द (बालिगोंकाक़ानून) २६ १८७५ २० सेन्ट्रल प्राविन्सेस लाज़ मध्यप्रदेशीय कानून २५१८७९ १९ बांबेरेविन्यूजुरिस्डिकशन कानूनइलाक्ने अख्तियारमहकमेमालबंबई
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म० सन् एक्टनं० नाम कानून ।
विषय २८ १८७६ १८ अवधलाज़
| अवधके कानून २६ १८७७ १ स्पेसिफिक् परफारमेन्स् कामकी खास तामीलका कानून ३० १८७७ ३ इन्डियन रजिस्ट्रेशन् रजिस्टरीका कानून ३११८७८ १२ पंजाब लाज़
पंजाबके कानून ३२ १८८१ ५ प्रोबेट एन्ड एडमिनिस्ट्रेशन् वसीयतकीतस्दीकौरवरासतकीमंजूरी ३३ १८८१ २६ निगाशिएबुलू इनस्ट्रमेन्ट एक्ट महाजनी हुण्डी पुरजोंका कानून ३४ १८८२ २ ट्रस्टीज़ एक्ट
ट्रस्टियोंका क़ानून ३५ १८८२ ४ ट्रान्सफ़रआव् प्रापर्टी एक्ट इन्तकाल जायदादका कानून ३६ १९८२ १५ प्रेसांडेन्सी स्मालकाज कोर्टस | कलकत्ता,बंबई मदरासकी खफीफाकोर्ट ३७ १८८७ १२ बङ्गाल सिबिल कोर्टस् बंगालकी दीवानी अदालतोंका कानून ३८१८८४ ७सक्सेशन्सर्टिफिकेट एक्ट उत्तराधिकारके सार्टिफिकेटका कानून ३६ १८६० ६ चेरीटेबल एन्डोमेन्टस | खैराती धर्मादोंका कानून .४० १८६० १ गार्जियन् एन्ड वार्डस्एक्ट वली और नाबालिगका कानून ४१ १८६२ ४ कोर्टस् आव् वार्डस् बंगाल बंगालकी कोर्टसू श्राव वार्डसूकाकानून ४२१८६३ ४ पार्टिशन् एक्ट
बटवारेका कानून ४३ १८६८ ५ कोर्ट आज क्रिमिनल प्रोसीजर | कानून जाबता फौजदारी ४४१८६८१३ बरमा लाज़
बर्मादेशका कानून ४५१८६१ २ इन्डियन स्टाम्प एक्ट स्टाम्पका कानून - ४६ १६०८ ५ कोड आव सिविल प्रोसीजर | कानून ज़ाबता दीवानी ४७ १६०८ ६ इन्डियन लिमिटेशन एक्ट | तमादीका कानून
गवर्नर मदरासके बनाये हुए कानून ४८ १८६६ ४ मलावार मैरेज एक्ट । मलावारका विवाहका कानून ४६ १६०२ १ कोर्टस आव वार्डस एक्ट कोर्टस् आव वार्डसका कानून ५० १६०२ २. इम्पार्टिबल स्टेट एक्ट । नबटसकनेवालीताल्लुफेदारियोंकाकानून
गवर्नर बम्बईके निमित्त कानून ५१ १८६६ ७एन् सेस्टर डेट्स् एक्ट पूर्वजोंके क़र्ज़का कानून ५२ १८७६ ५ लैन्ड रेविन्यू एक्ट क़ानून मालगुज़ारी ५३ १८८८ ६ गुजरात ताल्लुकदाराज एक्ट गुजरातके ताल्लुकेदागेका कानून ५४ १६०५ १ कोर्टस् प्राव वार्डस्एक्ट | कोर्टसू अावू वार्डसूका कानून
लफटेनेन्ट गवर्नर युक्त प्रदेशके निर्मित कानून ५५ १८६६ ३ कोर्ट आव वार्डस एक्ट कोर्टस् प्राव वार्डसूका कानून ५६ १६०० २. भवध सेटेल्ड स्टेट एक्ट अपथकी बन्दोबस्तकीताल्लुकेदारियोको
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७३
६५
७४
५७ १९०१ २ टेनेन्सी एक्ट यन्. डबल्यू.पी. | संयुक्त प्रांतका कानूनलगान ५८ ११०१ ३ लैन्ड रिविन्यू एक्ट मालगुजारीका कानून ५६ १९२६ २ आगरा टेनेन्सीएक्ट प्रागरा व अवधका कानून लगानं +६० १६२७ २१ बालविवाह निषेधक विल +६१ १६२८ १२ हिन्दू इन्हेरिटेन्स रिमूबल प्रात् डिसूएविलिटी एक्ट +६२ १९२६ २ उत्तराधिकार संशोधक एक्ट +६३ १९२६ १६ बालविवाह निषेधक एक्ट बंगालके रेगूलेशन्
बम्बई रेगूलेशन नं०शु० सन रेनं०
न शु० सन २०० ६४
१८२७ १७६३
१८२७४ १८१० १८१४
गवर्नर जनरलके रेगूलेशन १८२२
নয়
सन
रेनल मदरास रेगूलेशन
७५
१८७२ न०० सन
१८७७ १५०२
१८७७ १८०३
१८५६
१५ १८१७
| ८०. १८६० पार्लिमेन्टके निर्मित कानून
चैन्सरी रिपोट २१ (Geo) ३
उक्तं ३७ (Geo) ३ उक्तं
४० (Geo) ३ । उक्त
४(Geo) ४
३
७०
amonorm
१८०४
७२
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संकेताक्षरोंकी विवरण सूची
नं० संकेताक्षर १ A. या All. । इन्डियन लॉ रिपोर्टम् इलाहाबाद सीरीज़ २ Agr. या Agra. | आगरा हाईकोर्ट रिपोर्टम् ( पहले हाईकोर्ट था किन्तु
अब नहीं है) ३ A. L. J. इलाहाबाद ला जरनल ४ All. I. R. (Pri) | आल इन्डिया रिपोर्टर नागपुर (प्रिवी कौन्सिल सीरीज़) ५ All.I.R. (Cal) । आल इन्डिया रिपोर्टर नागपुर (कलकत्ता सीरीज़) ६ All.I.R. (Bom).| आल इन्डिया रिपोर्टर नागपुर ( बम्बई सीरीज़ ) ७ All.I.R.(Pat). | आल इन्डिया रिपोर्टर नागपुर ( पटना सीरीज़) EAll.I.R. (Lah).| आल इन्डिया रिपोर्टर नागपुर (लाहौर सीरीज़) & All.I.R.(Rang)./ आल इन्डिया रिपोर्टर नागपुर (रंगून सीरीज़) १० All.I.R.(Nag).| आल इन्डिया रिपोर्टर नागपुर ( नागपुर सीरीज़) ११ All.I.R. (Mad). आल इन्डिया रिपोर्टर नागपुर (मदरास सीरीज़) १२ All.I.R.(Sind).| पाल इन्डिया रिपोर्टर नागपुर (सिन्ध सीरीज़) १३ All.I.R (Oudh). आल इन्डिया रिपोर्टर नागपुर (अवध सीरीज़) १४ A. W. N. इलाहाबाद वीकली नोटस् १५B. या Bom. इन्डियन् लॉ रिपोर्टस् बम्बई सीरीज़ १६ Banerjee's. बनर्जी लॉ आव् मैरेज एन्ड स्त्रीधन १७B.L. R.
बङ्गाल लॉ रिपोर्टम्। १८B.LR. F B. | बङ्गाल रिपोर्टस् फुलबैच कलकत्ता १. Ben.S.D.A. बंगाल सदर दीवानी अदालत रिपोर्टम् कलकत्ता ।
सन १८४५-१८६२ ई० १० Ben. Sel.R. बङ्गाल सिलेक्ट रिपोर्टम् & Bellasis. बम्बई सदर दीवानी अदालत रिपोर्टस् १२B.H.C., Bom.H बम्बई हाईकोर्ट रिपोर्टस् ३ B.H.C. A.C.J. बम्बई हाईकोर्ट अपील सिविल जुरिस्डिक्शन् १४ B.H.. O.C.J. | बम्बई हाई कोर्ट ओशजिनल् सिविल जुरिस्डिक्शन् १५ Bom. I. L. R. | बम्बई इन्डियन लॉ रिपोर्टर २६ Bom. L. R.
बम्बई लॉ रिपोर्टर . २७ Bom. P.J. | बम्बई हाईकोर्ट प्रिंटेड् जमेन्ट
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नं०
RE Bom. Sel, R. २६ Borr.
३० C. या Cal.
संकेताक्षरर
३१०. L. R.
३२ C. L. J.
३३ C. W. N.
३४ C. P. L. R. ३५ Ch. D. ३६ Co!ल्याColePref
३७ Coop या Geo. ३८ Dig.
३६ Elb.
४० F. B.
४१ F.Mac.याMaen ४२ Fultonया Fult. ४३ GiberGibelin. ४४ Goldst.
% Hay.
४६ H. L. J.
४७IA.
४८ Ibid.aribid.
४& lnd Case Indian 2. Ind. Jur
( ६ )
बम्बई सिलेक्ट रिपोर्टस् बोरोडेल्स् रिपोर्टस्
इन्डियन्लॉ रिपोर्टस् कलकत्ता सीरीज़ कलकत्ता लॉ रिपोर्टम् कलकत्ता लॉ जरनल
५४ L. B. R. ५५ M. या Mad. ५६ Mad. Dec. ५७ Mad. S.D.A.या ५८ M.H.C. या Mad ५६ M.LJ. या Mad. ६० M. L. T.
६१ M. I. A.
६२ M. W. N. ६३ Marsh.
कलकत्ता वीकली नोठस् सेन्ट्रल प्राविन्सेस् लॉ रिपोर्टस् इंगलिश लॉ रिपोर्टस् चैन्सरी डिवीज़न कोलबूक डाइजेस्ट या प्रेफेस् दायभाग कूपर्स रिपोर्टस् चैन्सरी जगन्नाथ डाइजेस्ट
यल् बर्लिंग् आन इनहेरीटेन्स् फुलू बेंच
सर यफ मेक्नाटन्स् कन्सीडरेशन आन हिन्दूलॉ फुल्टन्स रिपोर्टस् सुप्रीमकोर्टस् कलकत्ता
गिबलिन् स्ट्यूडस्
गोल्डस्ट कर्स प्रेज़ेन्ट एडमिनिस्ट्रेशन आव हिन्दूलॉ हेज़ रिपोर्टस् - - कलकत्ता हाईकोर्टस् अपीलेट साइड हिन्दी - लॉ- जरनल, कानपुर इन्डियन् अपील लॉ रिपोर्टस्
जिसका अभी हवाला दिया गया है इन्डियन केसेज़ इन्डियन् जुरिस्ट जान्स् रिपोर्ट चैन्सरी
५१ John.
५२ Ken• या Knapp | नेप्स् प्रिवी कौन्सिल केसेज़
५३ L. B..
इङ्गलिश लॉ रिपोर्टस्
लोवर बरमा रूलिंग्स्
इन्डियन्लॉ रिपोर्टस् मदरास सीरीज़ मदरास डिसीशन्
Mad.S R. मदरास सदर दीवानी अदालत रिपोर्टस् H. C. मदरास हाईकोर्ट रिपोर्टस् I J मदरास लॉ जनरल रिपोर्टस् मदरास लॉ टाइम्स्
मदरास इन्डियन् अपील
मदरास वीक्ली नोटस् मारशल्स् रिपोर्टस्
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मै० संमेवाक्षर ६४ Myu.या Mysore. मैसूर लॉ रिपोर्टस् ६५ M. C. C. R. मैसूर सिविल कोर्टस् रिपोर्टस् ६६M.Dig याMorley| Dig. मोर्लेज़ डाइजेस्ट कलकत्ता ६७ Mort.
मोर्टन्स डिसीशन सुप्रीमकोर्ट कलकत्ता ६८Morris.
बम्बई सदर अदालत रिपोर्टस् ६. N. L. R.
नागपूर लॉ रिपोर्टस् ७०N.W.P.याH.C.R) नार्थ वेस्टर्न प्राविन्सेज़ हाईकोर्ट रिपोर्टस् (इलाहाबाद) ७१0. C.
अवध केसेज़ ७२ P.C.
प्रिबीकौन्सिल ७३ P. R.
पंजाब रिकर्ड ७४ P. L. R. पंजाबला रिपोर्टम् ७५P. W R. पंजाब वीक्ली रिपोर्टस् ७६ Regu.याRegul. रेगूलेशन् ७७ S. C.
सेम केस ( उसी प्रकारका दूसरा मुकद्दमा) ७८S. D.
बंगाल सदर कोर्टस् डिसीशन् ७६ Suth.
सदरलेन्डस् वीक्ली रिपोर्टस् कलकत्ता ८.S. L. R. सिंध लॉ रिपोर्टस् ८१ Sorg.H.L.,Sorg: पांडेचरीके चीफ जस्टिस मि.सार्गका हिन्दूलॉभारतकी
फ्रान्स भूमिके 52 Stokes. स्टोक्स हिन्दूला ८३'T. L. R. त्राविन्कोरलॉ रिपोर्टम् ८४U. B. R. अपर बरमा रूलिंगस् .८५ W. R.
सदरलेन्ड वीक्ली रिपोर्ट
ला रिपोटेस् 5€ W. Macn. डब्ल्यू मेक्नाटन्स हिन्दूलॉ ८७W. R. A. 0.J. | सदरलेन्ड वीक्ली रिपोर्टसू अपील साइड ओरी
जिनल जुरिस्डिकशन्। ८८W. R.C. R. | सदरलेन्ड वीक्ली रिपोर्टस् सिविल रूलिंगसू ८६ W. R. F. B. | सदरलेन्ड वीक्ली रिपोर्टस् फुल बेंच १. W. R. P. C. | सदरलेन्ड वीक्ली रिपोर्टसू प्रिवीकौन्सिल रूलिंगस
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हिन्दूलों की प्रकरण सूची
दफा
विषय
१- ३७ हिन्दूलॉ के स्कूलों का वर्णन, उत्पत्ति, अदालतों का सम्बन्ध, विस्तार, रवाज आदि
प्रकरण
प्रथम प्रकरण
दूसरा प्रकरण
तीसरा प्रकरण चौथा प्रकरण
३८ - ८० विवाहके भेद, वैवाहिक सम्बन्ध, बाल विवाह निषेधक बिल व क़ानून, विधवाओं के पुनर्विवाहका कानून
८१-६० पुत्र और पुत्रत्व, पुत्रों के दर्जे, आचारयों का मत ६१-३२१ दत्तक, कौन ले सकता है, शास्त्रियोंकी sयवस्थाएं, कौन दे सकता है, कौन दिया जा सकता है, आवश्यक धर्म कृत्य, शहादत फल, द्वायुष्यायन दत्तक आदि
पांचवां प्रकरण ३३२-३८३ नावालिगी और वलायत और कानून क्ली
छठवां प्रकरण
नवां प्रकरण
पेज
१-४८
५५८ ५६२ उत्तराधिकार ( वरासत ) मर्दों की वरासत सपिण्डों में वरासत मिलनेका क्रम, समानोदक बन्धुओंमें मिलने का क्रम, वारिस न होनेपर वरासत, औरतोंकी वरासत, बंचित वारिस उत्तराधिकार संशोधक ऐक्ट, अयोग्यता निवारक ऐक्ट
४६ - १२८
१२६-१४२
१४३-३४४
व नावालिगान और नायक कन्या संरक्षण एक्ट ३४५-४३० ३८४ - ४७५ मुश्तरका ख़ानदान के कोपार्सनरी, कोपार्सनर, जायदाद के, हक, अधिकार, अलहदाजायदाद,
इम्तकालात, मिताक्षरा लॉ और दायभागलॉ ४३१-५५७
सातवां प्रकरण ४७६ - ५०२ पैतृक ऋण मौरूसी कर्जा औलाद के हक़ व
पाबन्दी, इन्तक़ाल, मंसूखी, बाप आदिके हकूक ५५६-६०० आठवां प्रकरण ५०३-५५७ बटवारेके नियम, स्त्रियोंका अधिकार, हिस्सा निश्चित करनेका नियम, बटवारे की जायदाद अलहदगी और बटवारा, कानूनी बातें, फिर से शामिल शरीक होभा और बटवारा न हो सकने वाली जायदाद
६०१-६६०
६६१-८१२
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८१३-८५६
प्रकरण दफा विषय
फेज दसवां प्रकरण ६६३ ६२ रिवर्जनर ( भावी वारिस ), हक अधिकार,
इस्टापुल, ग्यारहवां प्रकरण ६८२-७२१ वरासतसे मिली हुई जायदादपर स्त्रियोंका अधिकार, हक और लाभ
८३७-८७६ बारहवां प्रकरण ७२२-७५१ भरण पोषण ( नानु नफ्रका वा गुजाल)
अयोग्य वारिसोंके हक़, इन्तकालात, अधि. कार व उसकी सीमाएं
८७७-६०३ तेरहवां प्रकरण ७५२-७७३ स्त्रीधन प्रकार, वरासत, अधिकार, हक,
इन्तकालात जायदादपर पूर्ण अधिकारको समस्याएं इत्यादि
६०४-६३६ चौदहवां प्रकरण ७७४-७७६ बेनामीका मामला (फर्जी मामले जात) १३७-६४६ पन्द्रहवां प्रकरण ७८०-७८८ दाम दुपट भर्भात एक वक्तमें मूलधनसे दूना न होना,
६४७-६५४ सोलहवां प्रकरण ७८६-८१६ दान और वसीयत, अधिकार, कर्तव्य,
कानूनकी बातें, जायदाद, मंसूखी,प्रोवेट आदि६५५-६६५ सत्रहवां प्रकरण ८१७-८६४ धार्मिक और खैराती धर्मादे, ट्रस्ट, टी,
साधू, गद्दीधर, महन्त, शिवायत आदिके. कर्तव्य, अधिकार, हक, इन्तकालात, जाय. कामूनकी बातें
१६६-१०६९
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हज़ारों नजीरों और सर्वाङ्गपूर्ण व्याख्या सहित
हिन्दीमें कानून
se-uaesa
- - -
हिन्दुस्थान भरमें लागू कानून दिवालिया कानून बटवारा जावता फौजदारी कानून नाबालिग और जाबता दीवानी
वलायत इनकमटैक्स एक्ट ३) कानून रजिस्ट्री म्यूनिसिपलटीज एक्ट ४) | कानून मियाद डिस्ट्रिक्ट बोर्ड एक्ट २) ग्राम पञ्चायत एक्ट ॥ कानून सूद
१॥ सवालात व जिरहका कानून।।) कानून मदाखिलत अवधरेन्ट एक्ट बेजा-मवेशियान १॥) वालिंटियर्स एक्ट ) कानून वरासत(उत्तराधिकार)२) पञ्चायत विधान कानून शामिलशरीक मरने के बादकी दुनिया )
खानदान १) | बालविवाह निषेधक कानून) हिन्दी-लॉ-जरनल सोनेकी चमकती हुई ६ मोटी जिल्दोंमें पेज ६५००, नजीरे २०००, पूरे कानून २५, मूल्य २५) रुपया। डाक खर्च सबका अलग।
कानून-प्रेस, कानपुर
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दफावार सविवरण सूची हिन्दूलाँके स्कूलोंका वर्णन (१) हिन्दूलॉकी उत्पत्ति
प्रथम प्रकरण
दफा
विषय १ हिम्दुलॉ की उत्पत्ति और हिन्दूजाति
-'हिन्दू' शब्दकी उत्पत्ति अरबी भाषासे -'हिन्दू' शब्द व्याकरणसे भी सिद्ध है --'हिन्दूला' क' अर्थ और प्रचार ... -हिन्दू जातिके भेद और वर्ण ... -अनुलोभज और प्रतिलोभज ...
जाति जन्मसे है, जातिका निश्चित करना -जाति की जानकारी-घरबारी गुसाई -ब्राह्मण वैरागी होनेपर भी ब्राह्मण है --मोहल राजपूत हैं -तंजौरके राजा और शिवाजीकी जाति --जातिकी जांच ... --जातिमें यज्ञोपवीत और मंत्र --जातिमें श्राद्ध ... --क्षत्री या शूद्रकी जांच --जातिमें गायत्री मंत्र --शूद्र जाति --अगरवाल जाति .. --हिन्दुलॉ की उत्पत्ति ईश्वरसे है ...
-हिन्दूलॉ की उत्पत्तिके मुख्य ग्रन्थ । २ श्रति
--आयौँका आदि निवासस्थानमें लोकमान्य तिलकका मत .. --मंत्र, सूक्त, संहिता, ब्रह्मा, भारण्य किसे कहते हैं ...
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हिन्दूला
दफा
विषय ३ स्मृति ... - सूत्र और स्मृति किसे कहते हैं ... ४ पुराण ५ स्मृतियों की टीकायें ... ६ दूसरी चाने, डाइजेस्ट और कानून ७ हिन्दूलॉका अदालतोंसे सम्बन्ध ८ हिन्दूलॉकी उत्पत्तिका नक्शा १ हिन्दू लॉकी उत्पत्तिके नक्शेका परिचय
-गौतम, वौधायन, आपस्तम्ब, वसिष्ठ और मनुका परिचय -याज्ञवल्क्य, नारद, मेधातिथि, कुल्लूक, विज्ञानेश्वर, अपरार्कका परिचय -विश्वरूप, पराशर, विवादार्णवसेतु, विवादभंगार्णव, विवादसारार्णव विवाद चिन्तामणि, मयूख,वीरमित्रोदय, बालभट्टी,सुबोधिनी,दायभागका परिचय
--दत्तक मीमांसाका परिचय ... १० स्मृति और प्राचारके विरोधमें आचारकी प्रवलता
(२) हिन्दूलॉका विस्तार ११ किसके लिये हिन्दूलॉ लागू होगा
--हिन्दू रीतियोंको न माननमें ... --सिख, जैन, खोजा मुसलमान
--अनौरस पुत्रोंमें लागू होता है ... १२ हिन्दूला किनसे लागू होता है
--सिख, जैन, कच्छी मेमन, जैनी अगरवाल -खोजा, यूरोपियनों के अनौरस पुत्र -पंजाबका कृषक समाज -दो धर्म मनाने वाले खानदान ... -मोलासेलम गिरासिया -सुजी, बहोरे मुसलमान .. -नामवुद्री ब्राह्मणों में -घरबारी गोसाई
--गोड और राजगोंड १३ हिन्दूला किन लोगोंसे लागू नहीं होगा
-जब कोई हिन्दू मुसलमान होगया हो। -मुसलमान होन पर जायदाद किसे मिगी -ईसाई होजाने वाले हिन्दू ...
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दफावार सविवरण सूची
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पेज
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दफा
विषय (३) हिन्दलॉके स्कूलोंका वर्णन १४ स्कूल्स श्राव लॉ का अर्थ और भेद पड़नेका कारण १५ हिन्दूलॉकी शाखाएं ... १६ मिताक्षरा और दायभागमें क्या फरक है ...
-मितक्षरा और दायभागका भेद १७ मुश्तरका जायदादमें बाप और बेटेका हक ... १८ उत्तराधिकार १६ शामिल शरीक हिस्सेदार २० मुश्तरका जायदादमें बापका हक २१ पतिकी जायदादमें विधवाका अधिकार २२ बटवारामें विधवाका अधिकार २३ स्कूलों में मान्य ग्रन्थ ...
- बनारस स्कूल -२ मिथिला स्कूल -३ बम्बई स्कूल या महाराष्ट्र स्कूल - द्रविड स्कूल - बंगाल स्कूल-दायभाग स्कूल
--६ बरार और नागपुर स्कूल... २४ कौन स्कूल कहांपर माना जाता है २५ बनारस स्कूल
-सीमाओंका वर्णन --सेठ खेमराज श्रीकृष्णदासका केस २६ मिथिला स्कूल २७ बम्बई स्कूल या महाराष्ट्र स्कूल २८ द्रविड स्कूल, मदरास स्कूल २६ पंजाब स्कूल . ... ३० कानून बनानेका आधार रवाज है
--रवाजकी प्रधानता ३१ रवाज तीन तरहकी होती है - ३२ रवाज कैसे साबित की जायगी
-प्राचीन, निश्चित और उचित होना चाहिये -रवाजकी प्राचीनताका सुबूत...
--पारिवारिक रवाज .. नवाजकी काहादत
३५
३७
४०
२
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दफा
३३ रवाज कब बन्द हो जायगी
३४ रवाजका सुबूत किसके लिये होगा
३५ नाजायज़ रवाज
३६ क़ानून साथ जाता है
| ३७ जाति सम्बन्धी मुक़द्दमे
...
-- स्थानीय कानून मिल जाती क़ानून के हो जाता
...
-- जाति सम्वन्धी मुकद्दमे नहीं सुने जायंगे
विवाह
३८ विवाह प्राचीन धर्म है
३६ हिन्दूलॉ के अनुसार विवाह --दश संस्कार व प्रमाण
४० आठ प्रकारके विवाह - १ ब्राह्म विवाह
- २ दैव विवाह
-३ आर्ष विवाह
-४ प्राजापत्य विवाह
दूसरा प्रकरण
( १ ) विवाहके भेद आदि
-विवाह, संस्कार माना गया है।
-५ आसुर विवाह ---६ गांधर्व विवाह
-- ७ राक्षस विवाह
हिन्दूलॉ
विषय
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११०
२९.
--८ पैशाच विवाह
४१ आठ प्रकारके विवाहोंमें उचित और अनुचित -ब्राह्मविवाहको कानून द्वारा स्वीकार किया जाना
- जाति सगोत्र विवाह
...
...
- आसुर संस्कार और पृथा - गांधर्वका माना जाना
४२ विवाह विषय में अदालतका निश्चित सिद्धांत
...
900
- अदालतका अनुमान और विचार
- कानून शहादतकी दफा ११२ का असर
- २८० दिन के अन्दर बच्चा पैदा होने में, पतिका माना जायगा
...
900
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४३
४३
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दफावार सविवरण सूची
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पेज
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५६
५६
दफा
विषय -जबकि लड़कोंको, बापने अपना लड़का माना हो ... -स्त्री पुरुषके साथ रहनेसे विवाहका समझा जाना ... -पति और पत्नीकी तरह रहनेमें -जातिमें जायज मानकर वर्ताव करनेमें -रखेली औरतकी परिस्थिति।
-तलवारके जोरसे विवाहकी स्थिति ४३ विवाहका विषय दो भागोंमें बटा है ४४ विवाहके जायज़ माने जानेकी शर्ते ४५ जायज़ विवाहके योग्यताकी शत
-कन्याकी जाति और रवाज --लिंगायतोंका रवाज विवाहका -पांचाल और कुरबार जातिमें -कैकोलर जुला हे ईसाई जातिकी लड़की विवाहमें हिन्दू मानी गई -पतिके जीवनमें स्वीका विवाह नाजायज है। -ताज़ीरात हिन्दकी दफा ४९४, १९७ के अनुसार सजा होगी -तलाक के बाद ख़र्च अदा करके विवाह होना -सगाईसे विवाह हो जाना नहीं माना जाता ... -बदलेका विवाह जायज़ माना गया है
(२) विवाहमें वर्जित सपिण्ड' । ४६ सपिण्डकी किस्में ४७ विवाहमें वर्जित सपिण्ड ...
-याज्ञवल्क्य और मिताक्षराका मत ४८ मिताक्षरामें पिंड दानके आधारपर सपिंड नहीं माना गया ... ४६ अपने गोत्र और प्रवरकी कन्याके साथ विवाह वर्जित है ... ५० शूद्रोंके विषयमें गोत्र और प्रवरका नियम नहीं है ५१ विवाहमें सपिण्ड सम्बन्ध कहांतक माना जाता है . ५२ सपिण्डोंमें विवाह करनेकी मनाही। ५३ बङ्गाल स्कूलमें सपिण्ड कन्या कौन है ५४ मिताक्षरा स्कूलके अनुसार विवाहमें सपिण्ड कन्या ५५ दत्तकसे विवाहका सपिण्ड नहीं हरता ... ५६ सपिण्डमें किये हुए विवाहका परिणाम ...
५७ मिन्न जातियोंके परस्पर विवाह .. -अनुलोमज विवाह
६१
६४
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________________
६
दफा
५८ विवाह कौन कर सकता है
५६ पतिके जीवनकालमें स्त्रीका दूसरा विवाह
६० विवाहमें उमरकी क़ैद ६१ तलाक़ ( डाइवोर्स ) ६२ पुरुषका पुनर्विवाह ६३ स्त्रीका पुनर्विवाह -- विधवा स्त्रीका पुनर्विवाह ६४ दो भिन्न जातियोंके परस्पर विवाह ६५ विवाहमें सौतेली माताका सम्बन्ध
६६ धर्मशात्रका वर और कन्याके सम्बन्धमें विचार ६७ विवाहकी रसम कब पूरी मानी जायगी ६८ सगाई या मंगनी
- सगाई के खर्च का दावा ६६ विवाह सम्बन्धी दूसरे कन्ट्राक्ट या इक़रार आदि ७० कन्यादान देनेके अधिकारी कौन हैं ७१ विवाह के खर्च
७२ कन्याकी वलायत
७३ विवाहमें 'फेक्टमवेलेट ७४ नियोग
...
...
...
...
हिन्दूलॉ
विषय
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...
०९९
19.
200
...
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...
...
बाल विवाह निषेधक बिल
- सेलेक्ट कमेटीके रिपोर्ट किये हुए बिलं सम्बन्धी कागजात
- श्री मुहम्मद रफीक की बदस
- श्री ठाकुरदासकी बहस
- श्री नीलकण्ठदासकी बहस
महामना श्री मदनमोहन मालवीय की बहस
...
...
800
- जातिच्युत, नामर्दी, बेवकूफ आदि
७८ पति पत्नीकी निजकी जायदाद पर विवाहका असर ७६ पति पत्नीका अधिकार आपसमें एक दूसरेकी जायदाद पर ८० विवाहका रवाज
...
...
७५ स्त्री किसके कब्ज़ेमें रहेगी
१०७
७६ पति-पत्नी के आपसके अधिकार और उनके प्राप्त करने के उपाय ७७ किन सूरतों में स्त्री वपने पति के साथ रहने से इनकार करसकती है १०७
- क्रूरता, व्यभिचार, दूसरे धर्म में जाना
१०८
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पेज
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११६
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दफावार सविवरण सूची
.
बहस
विषय -श्री मुहम्मदयूसुफकी बहस
११८ -श्री एच. ए. जे. गिडनीकी बहस - श्री गंगासिंहकी बहस ...
... ११६ सेलेक्ट कमेटीका पास किया हुआ बिल -दफा १ नाम विस्तार और आरम्भ
... १२१ -दफा २ परिभाषाएं ...
... १२१ - दफा ३ बमवेसे विवाह करने वाले उस पुरुषके लिये दण्ड जो २० वर्षसे न्यून
भायुका हो -दफा ४ बच्चेसे विवाह करने वाले उस पुरुषके लिये दण्ड जो २१ वर्षसे अधिक ___ भायुका हो
. .. १२२ -दफा ५ बाल विवाह करनेके लिये दण्ड ...
१२२ -दफा ६ बाल विवाहसे सम्बन्ध रखने वाले माता पिता या संरक्षकको दण्ड १२२ -दफा ७ दफा ३ के जुमाम कैदकी सजा न होगी
... १२३ -दफा ८ इस एक्ट के अनुसार भवत्यार
१२३ -दफा ९ जुर्मीकी सुनवाई करनेका तरीका
१२३ -दफा १. इस एक्टके अनुसार होने वाले जर्मों की जांच -दफा ११ अभियोक्त से जमानत लेनेका अखत्यार हिन्दू विधवाओंके पुनर्विवाहका कानून .
एक्ट नं. १५ सन् १८५६ ई. -दफा १ हिन्दू विधवाओं की शादीका कानूनी किया जाना ... १२६ -दफा २ विधवा वे अधिकार जो उसे मृत पतिकी जायदाद पर प्राप्त होते हैं,
पुनार्ववाहके बाद समाप्त हो जाते हैं -दफा ३ विधवाके पुनर्विवाह हो जाने पर मृत पतिकी सन्तानके लिये वली नियत किया जाना ..
... १२६ ---दफा ४ इस कानूनमें कोई ऐसी बात नहीं है जो किसी निस्संतान विधवाको उत्तराधिकारके योग्य बनाती हो
... १२७ --दफा ५ दफा २ और ४ में बताए हुए आदेशोंके अतिरिक्त पुनर्विवाह करने वाली विधवाके अधिकारोंकी रक्षा
१२७ -दफा ६ उन रसमोंका जिनकी बिना पर शादी जायज़ मानी जाती है विधवा
की शादी में भी वही असर होगा ... --दफा ७ नाबालिगके पुनर्विवाह के लिये स्वीकृति
१२८
१२३
मा
...
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हिन्दूला
पज
दफा
१२६ १३१ १३४
१३७ १३५ १४० १४०
विषय पुत्र और पुत्रत्व
तीसरा प्रकरण
पुत्र और पुत्रोंके दर्जे ८१ पुत्रकी आवश्यकता ... ८२ चौदह प्रकारके पुत्र और उनका तारीका ८३ पुत्रिका पुत्र ८४ कानीन पुत्र ८५ कृत्रिम पुत्र ८६ दत्तक पुत्र ८७ क्षेत्रजपुत्र और नियोगकी पैदाइश . ... ८८ नियोगकी चाल मनुके समयमें कमज़ोर हो चली थी ८८ आजकल औरस और दत्तक पुत्र माने जाते हैं ६० पुत्रोंके दर्जीका नक्शा ..
दत्तक या गोद
चौथा प्रकरण (१) कौन दत्तक ले सकता है
( क ) दत्तक लेनेके साधारण नियम ११ साधारण अर्थ दत्तकं और उद्देश्य ... १२ दत्तककी चाल किस कौममें कैसी है ... ६३ किन कौमों में दत्तककी चाल नहीं है ... १४ दत्तक विषय सात भागों में विभक्त है ... ६५ पुरुष खुद या उसकी विधवा दत्तक ले सकती है .६६ पुत्र या दत्तक पुत्रकी आज्ञासे दूसरा दत्तक लेना ६७ एक वक्त में केवल एकही लड़का गोद लिया जायगा १८ नाजायज़ दत्तक कभी जायज़ नहीं हो सकता EE पुत्रके जातिच्युत होनेपर दत्तक ... १०० लड़केका लापता हो जाना १०१ जैनियोंमें हिन्दूला माना जायगा १०२ कारा या रण्डुवा दत्तक ले सकता है ... ११३ अङ्गभङ्ग पुरुष दत्तक ले सकता है।
१४४
१४५
१४५ १४७ १४८
१४८
१४६ १४६ १५०
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दफावार सविवरण सूची
१५२ १५२
१५३ १५३
. १५८
१५६
दफा
विषय १०४ दत्तकके समय इन बातोंका ध्यान रखना चाहिये १०५ गोद लेनेके समय जिसकी स्त्री गर्भवती हो १०६ शूद्रोंमें बिना प्रायश्चित्तके दत्तक लेना जायज़ है १०७ उत्तराधिकारसे च्युत पुरुष दत्तक ले सकता है १०८ कोढ़ीका गोद लेना . १०९ पुत्रके अयोग्य होने पर दत्तक लेना ... ११० पुत्रके संसार त्याग देनेपर दत्तक १११ अज्ञान (नाबालिग ) का गोद लेना ११२ पतिकी जिन्दगीमें पत्नीका दत्तक लेना ... ११३ दत्तकके बदले में रुपया दिये जानेका असर ११४ विधूति विदा कृत्य करके गोद लेना ... ११५ चुदासामागमेटे गरासियोंमें दत्तक ११६ रंडियों और नाचने गाने वाली औरतोंका गोद लेना ११७ जब किसीकी जायदाद कोर्ट आफवार्डस्के ताबे हो
(ख) विधवा का गोद लेना ११८ विधवाके गोद लेने में स्कूलोंका मतभेद ...
--मिथिला स्कूल में गोदकी व्याख्या --बङ्गाल और बनारस स्कूल --पश्चिमी हिदुस्थानमें व्याख्या --महा महोपाध्याय श्रीशिवकुसार शास्त्रीकी व्यवस्था --मौज मन्दिर जैपुरकी व्यवस्था
--अलवर राज्यकी व्यवस्था ११६ नाबालिरा पतिके लिये विधवा गोद लेसकती है १२० दत्तक पुत्रका कबसे अधिकार होगा ... १२१ नाबालिरा विधवा दत्तक ले सकती है ... १२२ बम्बई में नाबालिरा विधवाका दत्तक ... १२३ अनेक विधवाओंका दत्तक १२४ विधवाके गोद लेनेकी मियाद १२५ व्यभिचारिणी विधवा दत्तक नहीं ले सकती १२६ सूतकमें दत्तक लेना ... १२७ धमकी देकर गोद लेने का असर १२८ पुनर्विवाहित विधवाका गोद लेना १२९ अनेक लड़कोंका गोद लेना १३० पतिके मनाही करने पर दतक
६० १६०
१६२ १६४
१६७ १६६ १७०
१७२ १७२ १७२ १७४ १७४ १७५ १७५ १७५ १७५ १७६
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हिन्दूला
दफा
१८५
विषय गोदका अधिकार देनेकी रीति और असर १३१ गोद लेने का अधिकार कैसे दिया जायगा .. ... १७६ १३२ गोद लेनेका अधिकार किसे दिया जा सकता है १३३ कई विधवाओंको गोद लेनेका अधिकार देना १३४ अधिकार गर्भवतीको ...
१७६ १३५ अधिकार ठीक तौरसे काममें लाया जायगा
१८० १३६ गोदका अनुचित अधिकार देना
१८१ १३७ विधवाका गोद लेने का अधिकार कब जाता रहेगा
१८४ (ग) पतिकी आज्ञासे विधवाका दत्तक लेना १३८ पति के लिये केवल विधवाही दत्तक ले सकती है १३६ विधवा मजबूर नहीं है ...
१८६ १४० विधवा और दत्तक पुत्रका इक़रारनामा ...
१८७ १४१ कुटुम्बका लड़का गोद लेना चाहिये।
१८८ १४२ पैदा होने वाले पुत्रके लिये गोदकी आज्ञा
१५८ (घ) बिना आज्ञा पतिके विधवाका दत्तक लेना १४३ बिना आज्ञा पतिके विधयाका दत्तक लेना ...
१८६ --बम्बई और मदरास प्रगाली
१६० --रामनाद केसका सारांश ...
१६० १४४ बटे हुए कुटुम्बमें बिना आज्ञा पतिके दत्तक लेना
१६२ १४५ ससुरके मरजानेपर रज़ामन्दी
१६४ १४६ मदरासमें सपिण्डोंकी मंजरी जरूरी है ...
१६४ १४७ बम्बई प्रांतमें सपिण्डोंकी मंजरी कब ली जायगी १४८ बम्बई और मदरासमें मनाही करनेपर विधवा गोद नहीं लेसकती १६६ १४६ जैनियों की विधवाको पति की आज्ञा आवश्यक नहीं है .. १६६ १५० पंजाबमें गोद लेने के लिये पतिकी अाज्ञा ज़रूरी है ... २००
(२) कौन दतक दे सकता है
( क ) दत्तक देनेके साधारण नियम १५१ धर्मशास्त्र और कानूनका विवेचन ...
२०१ १५२ सगा या सम्बन्धी दत्तक नहीं दे सकता ,..
२०३ १५३ बाप और मां गोद देने का अधिकार नहीं दे सकते
૨૦૪
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दफावार सविवरण सूची
दफा
विषय
१५४ अनाथ बालक गोद नहीं दिया जा सकता १५५ बाप या माकी शर्तोंकी पाबन्दी ज़रूरी है
( ख ) कौन लोग दत्तकके देनेका अधिकार रखते हैं
१५६ पिता
१५७ माता
...
१५८ भाई ( माया बापकी हैसियतसे ) १५६ चाचा ( बाप या मांकी हैसियत से ) १६० अज्ञान
१६१ ब्रह्मसमाजी
१६२ हिन्दू राजपूत १६३ पुनर्विवाहिता माता १६४ विधवा
१६५ कुष्टी
१६६ दादा
१७० पत्नी
...
...
--
...
...
...
( ग ) कौन लोग दत्तक देनेका अधिकार नहीं रखते
१६६ सौतेली माता १६७ भाई
१६८ दत्तक पिता या माता
800
( क ) साधारण नियम
१७१ दत्तक कौन हो सकता है.
१७२ शौनक और अन्य आचार्योंकीराय
--" पुत्रच्छायावः " --मंडलीककी राय
१७३ जहां तक हो दत्तक सगोत्र सपिण्डमें लिया जाय
- शौनकका वचन
-- दत्तक मीमांसा
१७४ अपनी जातिमें दत्तक लेना जायज़ है - 'सद्रशं' शब्दपर विचार
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( ३ ) दत्तक कौन दिया जासकता है और कौन लिया जासकता है
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१२
दफा
विषय
सपिण्ड और असपिण्ड
हिन्दू लॉ
१७५ सपिण्ड और श्रसपिण्ड -- आचायका मत व वचन
१७६ सहोदर भाईका लड़का मोद लेनेमें श्रेष्ठ है
१७७ दोहिता, भानजा आदिके गोद लेने में -- शूद्रोंमें गोद लिया जासकता
१७८ साला, सालाका बेटा आदि १७६ दत्तक पुत्रकी शारीरिक योग्यता १८० कितनी उमरका लड़का गोद लेना चाहिये -- शास्त्रकारोंका मत व बचन
...
१८१ दत्तक चन्द्रिकामें पांच वर्षकी क़ैद नहीं मानी गईं
१८२ बङ्गाल स्कूलमें उमरकी क़ैद
१८३ बनारस स्कूलमें उमरकी क़ैद
१८४ बम्बई स्कूल और गुजरातमें उमरकी क़ैद ..
१८५ मदरास स्कूल में उमरकी क़ैद १८६ पंजाब प्रान्त में उमरकी क़ैद १८७ जैनियोंमें उमरकी क़ैद
१८८ शूद्रों में उमरकी क़ैद
१८६ गोद लेने वालेसे दत्तक पुत्रकी उमर कम होना
१६० एकलौते लड़केका दत्तक
शास्त्रकारों का मत
१९२ सगोत्रसपिण्ड, असपिण्ड, भिन्न गोत्र सपिण्डका लड़का
१६३ सौतेला भाई
१६४ भाईका पुत्र १६५ भाईका पौत्र १६६ भाईकी लड़कीका लड़का १६७ लड़कीका लड़का (दोहिता) - दक्षिण हिन्दुस्थान में
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Gue
...
-- प्रिर्वाकौन्सिलकी राय
१६१ दो पुरुष एक ही लड़केकी गोद नहीं ले सकते
( ख ) कौन लड़के गोदहो सकते हैं या कौन गोद लिये जासकते हैं
०९९
१९९
...
...
...
...२२६-२२६
२२६
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२३१
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२१७
२१८-२२२
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२३७
२३७
२३७
२३७
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दफा
— पंजाब में रवाजके आधारपर
-
— जैनियों में
-- मारवाड़ में
दफावार सविवरण सूची
...
१६८ सौतेली लड़कीका लड़का
१६६ बहनका लड़का २०० बहनका पोता २०१ बहनकी लड़की का बेटा २०२ एकलौता लड़का
...
...
२२१ पालक पुत्र
...
...
-- इलाहाबाद हाईकोर्ट की राय -- पंजाब हाईकोर्ट की राय -- बंगाल हाईकोर्ट की राय -- बम्बई हाईकोर्ट की राय --मध्य भारत के फैसल
२०३ विवाहा हुआ लड़का २०४ सौतेला पुत्र २०५ चाचाका पुत्र और प्रपौत्र आदि २०६ जेठा पुत्र
000
...
809
...
२०७ भानजा ( बद्दनका लड़का ) २०८ माकी बहनका पुत्र २०६ साला ( पत्नीका भाई ) २१० सालेका पुत्र
२११ सालेका पोता
000
...
.20
...
२१२ सालीका बेटा
२१३ माकी बहनकी लड़की का लड़का २१४ बापकी बहनका पोता २१५ ब्राह्मोंका पुत्र ब्राह्मों
२१६ शूद्रों में ४० वर्षका बिन व्याहा आदमी २१७ अपरिचित पुत्र २१८ ऊंची जातियोंमें उपनयनके पहले २१६ शूद्रोंमें विवाहसे पहले २२० वेश्याका लड़की गोद लेना
....
विषय
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( ग ) कौन लड़के गोद नहीं लिये जासकते
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હૃદ
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१४
दफा
२२२ पुत्रिका पुत्र
२२३ अनाथ बालक
२२४ सौतेला भाई २२५ भाई
२२६ विवाहा हुआ लड़का २२७ स्वयंदत्त
२२८ मा की बहनका लड़का
२२६ जिस लड़के का उपनयन असली बापके घर हो जाय २३० दत्तकपुत्र जो रुपया देकर लिया गया हो
२३१ लड़कीका लड़का (दोहिता)
...
२३२ बहनका लड़का
२३३ सौतेली बहनकी बेटीका बेटा
२३४ चाचा और मामा
-- धर्म शास्त्रकारोंका मत -- मदरास के पंडितों का मत - ब्राह्मणों में ज़रूरी होना -- अगरवालों में धर्मकृत्य
हिन्दूलॉ
विषय
...
...
...
...
...
१११
...
...
२३५ दत्तकपुत्रका दत्तक पिताके वंशमें दत्तक २२६ दत्तकपुत्रका दुबारा गोद न लिया जाना
२३७ शारीरिक या मानसिक योग्यता वाले लड़के
( ४ ) दत्तक सम्बन्धी श्रावश्यक धर्म कृत्य क्या हैं ?
२३८ दत्तकमें श्रावश्यक कृत्य २३६ दत्तकमें कौनसी कृत्य सबसे ज़रूरी है २४० द्विजों में दत्तक हवन
...
...
...
२४१ शूद्रोंके लिये दत्तक हवन ज़रूरी नहीं है
२४२ मदरास प्रान्त में ब्राह्मणोंके दत्तकमें हवन ज़रूरी नहीं है।
२४३ सूतक या दूसरी अशुद्धतामें
२४४ दत्तक हवनके बारेमें फैसलोंपर विचार
२४५ जान बूझकर दत्तककी रसम त्यागनेका फल
२४६ वसीयत से गोद और दानपत्र
२४७ पंजाब और जैनी
२४८ लङ्का द्वीपमें केशरका पानी
...
4.
939
१९९
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...
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पेज
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२६०
२६०
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दफावार सविवरण सूची
-
२७४
दफा
विषय
दत्तक परिग्रह विधानम् २४६ दत्तक मुहूर्त और दत्तक लेने की विधि ... ... २६०
(५) दत्तक लेने की शहादत कैसी होना चाहिये २५० गोद लेना कैसे साबित किया जाय ... २५१ दत्तक होनेका अनुमान कब किया जायगा
२७३ २५२ मिताक्षरा स्कूलमें दत्तकका अनुमान ... २५३ कुटुम्बियोंके साथ दत्तक पुत्रके हिल मिल जानेका असर ... २७५ ---बहुत रोज या जमाना गजर जाने पर
२७६ --विरादरीमें स्वीकार किया जाना
२७६ --कब जायज माना जायगा
२७७ --विधवा द्वारा गोद लेना
२७७ २५४ दत्तक पुत्रको अपने असली खानदानमें लौटने की रुकावटें ...
२७८ २५५ दत्तक साबित हो जानेका फैसला सबको पाबन्द करेगा ... २७८
(६) दत्तक लेनेहा फल क्या है २५६ दत्तक पुत्र अपने असली कुटुम्बकी जायदादका वारिस नहीं होता २७६ २५७ असली कुटुम्बमें शादी नहीं कर सकता और न गोद ले सकता है २८० २५८ दत्तक पुत्र दादाके चचेरे भाई का तथा सपिण्डोंका वारिल होता है २८० २५६ दत्तक पुत्र दादाके चचेरे भाईका तथा सपिर डोंका वारिस है २८२ २६० दत्तक पुत्र नानाका वारिस होता है ....
२.२ २६१ दत्तक पुत्र मांके स्त्रीधन और सम्पत्तिका वारिस होता है ... २८२ २६२ दत्तक पुत्र सौतेली मा की जायदादका वारिस नहीं होता ... २६३ क्या दत्तक पुत्रकी निज की जायदाद उसके साथ जायगी ? ... २८३ २६४ गोद लेने वाली मा और सौतेली माके अधिकार
२८५ २६५ अनेकों स्त्रियोंमें गोद लेने का अधिकार एक स्त्रीको देना ... २८५ २६६ सौतेली मा सौतेले बेटेकी वारिस नहीं होती
२८६ २६७ सौतेली मा,कौन कहलायेगी सौतेला बेटा सौतेली माका वारिस न होगा
२८६ २६८ द्वामुष्यायन दत्तकमें असली माताका हक़ ... २६६ जायदादमें दत्तक पुत्रका कितना भाग होगा
२८८ २७० दत्तक लेने के बाद यदि एक असली लड़का पैदा होजाय तो दत्तक . . को कितना हिस्सा मिलेगा
२८८
२८३
२८७
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हिन्दूलो
दफा
पेज
०
०
U0ww
०
०
.
२६१
२६३
विषय --आचाय्योंका मत व व्याख्या --बंगाल स्कूल के अनुसार ... --बनारस स्कूल में कितना हिस्सा मिलेगा --मदरासमें कितना हिस्सा मिलेगा
२६० --बम्बई स्कूल में कितना हिस्सा मिलेगा २७१ दत्तकके बाद जब असली लड़के एकसे ज्यादा हों तब दत्तकको कितना हिस्सा मिलेगा।
१६१ --बंगाल स्कूलमें कितना हिस्सा मिलेगा
२६१ --बनारस स्कूल में कितना हिस्सा मिलेगा --मदरास स्कूल में कितना हिस्सा मिलेगा
२६१ --बम्बई स्कूल में कितना हिस्सा मिलेगा
२६१ २७२ शुद्धोंमें दत्तक पुत्र और असली लड़के हक़
२६२ २७३ अलली लड़की मौजूदगीमें दत्तक पुत्रके लड़केका हिस्सा ... २६३ २७४ शामिल शरीक कुटुम्बमें दत्तकका भाग २७५ मदरासमें दत्तक पुत्र अलली लड़केका वारिस होता है ... २६४ २७६ गोद देवेसे लड़का असली कुटम्बसे खारिज हो जाता है ... २६४ २७७ दत्तक पुत्रको असली कुबम्बकी जायदादमें कब हिस्सा मिलेगा २६५ १७८ जव व्याहा या संतान वाला लड़का गोद लिया गया हो तो उसके
लड़केके हक २७६ इकरारका असर जब बालिग पुत्रने गोद जानेसे पहले किया हो २६६ २८० गोद लेनेसे पहले इकरारका असर ...
... २६६ (७) दामुष्यायन दत्तक
(क) द्वामुष्यायन दत्तक २८१ द्वामुष्यायन दत्तक
२६८ २८२ द्वामुष्यायनकी रवाज नियोगसे चली ..
२६६ - --शास्त्रकारोंका मत
२६६से३०७ २८३ ऊपरके बचनोंका नतीजा
३०७ २८४ क़ानूनमें द्वामुष्यायन कब माना जाता है ...
३०८ २८५ द्वामुग्यापन और सादे दत्तकमें क्या फरक है
३०४ २८६ अनित्य द्वामुष्यायन ...
३०६ २८७ नम्बोदरी ब्राह्मणोंमें द्वामुष्यायन
३०६ २८८ द्वामुष्यायनको कितना हिस्सा मिलेगा जप औरस पुत्र पैदा हो
जाय...
...
३१०
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दफावार सविवरण सूची
दफा
विषय २८६ द्वामुष्यायनके भाग जाननेका नक्शा ...
३१० २६० विभागका नतीजा ...
३१२ २६१ पंजाबमें दत्तक पुत्र असली बापका धन पाता है
३१३ २६२ पांडेचरीमें दत्तक पुत्रको, बाप और भाईकी जायदाद मिलती है ३१३
(ख) दत्तक सम्बन्धी अन्य जरूरी बातें २६३ दत्तक नाजायज़ होनेपर दत्तक पुत्रका विचार
३१३ २६४ दत्तक पुत्रके बदलेमें रुपया लेनेका परिणाम
३१४ २६५ नाजायज़ दत्तक पुत्रके हक्रमें दानपत्र या मृत्यु पत्रका फल ... २६६ दत्तक पुत्र जायदाद वापिस ले सकता है
३१८ २६७ दत्तक लेनेसे विधवाका अधिकार घट जाता है २६८ अनेक विधवाओंमेंसे बड़ी विधवाका दत्तक लेना
३१६ २६६ पदोत्कर्ष वारिसका हक़ दत्तकसे नष्ट नहीं होता
३२० ३०० रामकिशोर बनाम भुवनमयीका मुकदमा
३२० ३०१ बद्रीदास बनाम सकमावाईका मुक़द्दमा ...
३२१ ३०२ विधवा अपने लिये लड़का गोद नहीं ले सकती
३२२ ३०३ वेश्या या नायकिनका लड़की दत्तक लेना
३२३ ३०४ पुरुष दत्तकमें लड़काही ले सकता है लड़की नहीं
कृत्रिम दत्तक ३०५ कृत्रिम पुत्रका दर्जा ...
३२४ ३०६ कृत्रिमके सम्बन्धमें धर्म शास्त्रोंका मत
३२४ ३०७ कृत्रिम दत्तक सब जगह नहीं माना जाता
३२५ ३०८ कृत्रिम दत्तक मिथिलामें माना जाता है
३२५ ३०६ कृत्रिम दत्तक और दत्तकमें क्या फरक है ३१० मिथिलामें कृत्रिम दत्तक जायज़ है ...
३२६ ३११ कृत्रिम दत्तकके सम्बन्धमें कानून और नज़ीरें
३२७ ३१२ जफना द्वीपमें कृत्रिमकी तरहका दत्तक
नालिशोंकी मियाद ३३ भावी हलके रक्षित रखने के लिये नालिश हो सकती है ... ३१४ दत्तक मंसूख करापानेका दावा कब किया जायगा
३२६ ३.५ दत्तक मंसूख करापाने का दावा ६ सालके अन्दर होना चाहिये - ३३० ३१६ लिमीटेशन एक्टकी दफा ११८
३२३
३२५
३२८
३३३
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हिन्दूला
३३५ ३३६
दफा
. विषय ३१७ अनधिकारीके दत्तक लेने में यह दफा लागू न होगी ... ३१८ गोद मंसूखीका दावा जब गोद लेने वालेकी ज़िन्दगीमें हो ३१६ दत्तक पुत्र अपनी दत्तक जायज़ करार दिये जानेकी नालिश कब
कर सकता है .... ३२० लिमीटेशन एक्टकी दफा ११६ ...
अग्रवाल वैश्योत्पत्ति ३२१ मि० ए० ओ० राम साहबकी राय ...
--दत्तकका परिशिष्ट
३४० ३४४
नाबालिगी और वलायत
३४५ ३४५
पांचवां प्रकरण ३२२ मियादमें मतभेद ... ३२३ नाबालिग्रीकी मियाद ३२४ वली होनेका अधिकारी कौन है ३२५ रिश्तेदारको वली होनेका पूर्ण अधिकार नहीं है ३२६ बापको वली होने का पूरा अधिकार है ३२७ बाप मृत्युपत्र द्वारा वली नियत कर सकता है ३२८ मा मृत्युपत्र द्वारा वली नियत नहीं कर सकती ३२६.मृत्युपत्र द्वारा नियत किये हुए वलीका अधिकार ३३० मिताक्षरा स्कूलके अन्दर वलायत ... ३३१ छोटे बच्चेका भी बापदी वली होगा ... ३३२ नाबालिरा भी नाबागका वली बन सकता है ३३३ शामिल शरीक परिवारमें जायदादकी वलायत ३३४ पत्नीका वली पति है । ३३५ मा शादी करनेसे, बाप दत्तक देनेसे वली नहीं रहते ३३६ मज़हब बदलनेपर वलीकी स्थिति ... ३३७ ईसाई बापका दावा लड़का दिला पानेका ३३८ जातिच्युत हो जानेसे वलायत नहीं जाती ३३६ मज़हब बदलने से धर्म शास्त्री हक़ चले जाते हैं ३४० अनौरस पुत्रका वली कोन होगा ३४१ दसक पुत्रका वली कौन होगा ३४२ कुदरती वलीका अधिकार
३४६ ३४७ ३४७ ३४८ ३४८ ३४८ ३४६ ३४६
३४६ ३५० ३५१
३५२ ३५३ ३५४
३५५
३५५
३५५
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दफावार सविवरण सूची
पेज
३५८ ३६१ ३६१ ३६१
३६१
३६१
दफा
विषय ३४३ कर्जाकी ज़रूरत साफ लिखी जाना चाहिये ३४४ ब्याजकी शरह ३४५ अदालतकी आज्ञानुसार जायदाद खरीदने में ३४६ मुश्तरका जायदादमें वलीके अधिकार ३४७ वली या मेनेजर जायदाद कब बेंच सकता है ३४८ खान्दानी ज़रूरतें क्या हैं
--सरकारी मालगुजारीके देने के लिये -क्रिया कर्मके लिये --फौजदारीके मुकदमेके खर्च के लिये --रेहनसे छुराने के लिये --कर्जा अदा करने के लिये --लड़कियोंके विवाह के लिये --खाने पीने के लिये
--शादी करने केलिये ३४६ मध्य भारत, राजपूताना, संयुक्त प्रांतका कायदा ३५० बम्बई और मदरासका कायदा ३५१ अदालत न्यायकी तरफ ध्यान देगी ३५२ गर्भावस्थामें बच्चेका हक ३५३ पीछेकी मंजूरीसे पाबन्दी . ३५४ साबित करना किस पक्षपर निर्भर है। ३५५ बापकी वसीयतसे जायदादका बेचा जाना ३५६ कुदरती वलीका मुआहिदा ३५७ वली या मेनेजरका मुआहिदा ३५८ जो काम वलीकी हैसियतसे वलीने किया हो ३५६ पलीकी तरफ़से किसी कर्जेका मान लिया जाना ३६० अक्षानने अपनी उमर जब झूठ बताई हो ३६१ अज्ञानके मुकदमे में सुलहनामा ३६२ कौन डिकरी नाबालिग्रको पाबन्द करेगी ३६३ वलीकी जिम्मेदारी ... ३६४ दौरान मुकदमेमें अदालत वली नियत कर सकती है ३६५ वली नियत करनेकी अर्जी में क्या लिखना चाहिये ३६६ दौरान मुकद्दमेमें अदालत वली नियत कर सकती है ३६७ वली अमानती सम्बन्ध रखता है। ३६८ वलीकी तनख्वाह
३६१ ३६२ ३६२ ३६२ ३६२ ३६४ ३६४ ३६४ ३६४ ३६५ ३६५ ३६६
३६७
३६८ ३६८ ३६६ ३७० ३७० ૩૭૨ ३७२ ३७४ ३७४
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हिन्दूलों ..
विषय
पेज
س
س
س
س له سم سم سم
दफा ३६६ जातके वलीका कर्तव्य
... ३७५ ३७० जायदादके वलीका कर्तव्य
३७५ ३७१ वली किन बातोंसे खारिज किया जायगा ३७२ अशानकी जायदाद क्रजोंकी कब जिम्मेदार होगी
३७६ ३७३ कानूनी ज़रूरतें यह भी हैं ।
३७७ ३७४ नाबालिग बैनामा या रेहननामाकी मंसूखीका दावा कब कर सकता है
... ३७५. जब किसी दूसरे आदभीने अज्ञानकी जायदाद उसके अधिकारसे
हटादी हो ३७६ अशानकी कानूनी अयोग्यता ३७७ अर्जी देना कहां तक लागू होगा ... ३७८ जिस कामकी मियाद तीन सालसे कम हो ३७६ प्रतिवादीके अज्ञान होनेसे दावा बन्द नहीं हो सकता। ३८० यह दफा कहांपर लागू नहीं होगी ... ३८१ अज्ञानको दो तरहकी मियाद ३८२ अगर अज्ञान मुद्दई (वादी ) दौरान मुकदमेमें मर जाय ... ३८३ ३८३ अगर अशान मुहाअलेह (प्रतिवादी) दौरान मुकदमे में मर जाय ३८१
गार्जियन एण्ड वार्डस् एक्ट नं० ९ सन् १८९० ई.
प्रथम प्रकरण --.नाम विस्तार तथा आरम्भ --२ रद व बदल
३८५ -३ कोर्ट भाफ वार्ड तथा हाईकोर्ट के अधिकारोंका संरक्षण
३८५ --४ परिभाषाएं ---४ (ए) मातहत अदालतोंको अधिकार प्रदान करने तथा अके पास कारवाइयोंके भेजनेका वर्णन
३८७ दूसरा प्रकरण --५ योरोपियन ब्रिटिश रिमायामें माता पिताके आधिकार -६ दूसरे लोगोंके मामलामें अधिकारोंका संरक्षण
३८८ --७ वलीकी नियुक्ति करने के लिये अदालतके अधिकार
३८८ --बह लोग जिनको दरख्वास्त देनेका अधिकार है
३८९
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________________
दफावार सविवरण सूची
३८६
...
विषय
पेज --६ वह अदालतें जो दरख्वास्तें ले सकती हैं --१० दरख्वास्तका तरीका ( फार्म )
३८६ --११ दरख्वास्त लेलेनेपर कारवाई
३६१ --१२ नाबालिगको बीचमें पेश करनेका हुक्म तथा नाशीलगकी जात व जायदाद बचाने का बीचमें हुक्म
३१२ --१३ हुक्म देने से पहिले शहादतका सुनना
३६२ -१४ एक साथ कई अदालतोंमें कार्रवाई का होना
३६३ -१५ एक साथ एक से अधिक वलियोंकी नियुक्ति पा घोषणा ... ३६३ --१६ अदालतकी अधिकार सीमासे बाहर जायदायके वलीकी नियुक्ति या घोषणा३६४ --१७ वह बातें जिन्हें अदालतको वली नियुक्त करते समय देखना चाहिये ३६४ --१८ कलक्टरका अपने पदके कारण वली नियुक्त या घोषित किया जाना ३६५ --१६ अदालतको कुछ मामलोंमें वली न नियुक्त करना चाहिये
३६५ --२० वलीका नाबालिगके साथ विश्वासनीय सम्बन्ध
। प्रकरण --२१ नावालिगोंका वली बनने के लिये आधिकार --२२ वलीका भत्ता
३६६ --२३ वलीकी हैसियतसे कलक्टरके अधिकार ...
... ३६७ --२४ जातके वलीके कर्तव्य
३६७ -२५ नाबालिगको देखरेखमें रखनके लिये वलीके अधिकार
३६७ --२६ नाबालिगका अधिकार, सीमासे हटा दिया जाना
३६७ --२७ जायदादके वलीके कर्तव्य
३६८ --२८ दस्तावेज़ी वलीके अधिकार
३६८ --२६ अदालत द्वारा नियुक्त या घोषित किये हुए जायदाद के क्लीके आधिकार ३१८ --३० दफा २८ या २९ के स्थित किये हुए इन्तकालका ग़लत होना ३६६ -३१ दफा २९ के अनुसार जायजादके इन्तकालकी आज्ञा देनेका तरीका
बनेका तरीका ३६६ ---३२ अदालत द्वारा नियुक्त या घोषित किये हुए जायदादके वलीके अधिकारोंमें परिवर्तन ...
... ४०० -३३ भदालत द्वारा नियुक्त या घोषित किये हुए वलीके लिये इन्तज़ाममें अदालतकी राय लनके भाधिकार
... ४०० -३४ भदालत द्वारा नियुक्त या घोषित किये हुए जायदावके वलीकी पाबन्दियां४०१ --३५ जब कि वकीसे दस्तावेज़ लिखाई गई हो उस समय उसके खिलाफ
मुकद्दमें --३६ जब कि वलीमे कोई दस्तावेज़ नहीं लिखाई गई हो उस समय उसके खिलाफ मुकद्दमें
. .... ४१२,
...
४०२
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________________
२२
ट्रफा
हिन्दूलॉ
विषय
-३७ स्वीकी हैसियतसे वर्लीका उत्तरदायित्व
- ३८ संयुक्तवलियों में एकक न रहनेपर दूसरे के अधिकार
-- ३६ वलीका हटाया जाना
- ४० वलीका बरी होना
- ४१ वलीके अधिकारीका अन्त
...
--४२ मरे हुए, हटाये हुए वलीके उत्तराधिकारी ( बारिस ) की नियुक्ति चौथा प्रकरण
--४६ कलक्टर तथा अन्य मातहत अदालतों की रिपोर्ट -- ४७ वह हुक्म जिनकी अपील हो सकती है
--४८ दूसरे हुक्मोंका अन्तिम हुक्म दोना --४६ खर्चा
-- ५० नियमोंको बनानेके लिए हाईकोर्ट के अधिकार
...
--५३ एक्ट नं० १४ सन् १९८२ ई०
-- आवश्यक दफा ऑपर उपयोगी हाळकी नज़ीरें
-- ४३ बली के ब्योहार तथा कार्य-क्रमके निर्धारण करनेकी आज्ञायें तथा उन
आज्ञाओं का प्रयोग
...
- ४४ नाबालिग को अधिकार सीमासे हटानेका दण्ड -- ४५ अवहेलना करनेपर दण्ड
नायक कन्या रक्षण एक्ट
• २ सन् १९२९ ई०
नं०
004
...
...
300
...
:
...
४०८
૪૦૨
૪૦૨
-
- ५१ अदालत द्वारा पहिलेहीसे नियुक्त किए हुए वलियोंके लिए इसका प्रयोग ४१०
-- ५२ इण्डियन मैजारिटी एक्टका संशोधन
४१०
४११ ४१३ से ४२६
...
080
-- १ नास व विस्तार
--२ हालात जानने के लिए जिलाधीश के अधिकार
-- ३ नायक जातिकी नाबालिग लड़कियों के हटानमें जिलाधीश द्वारा रुकावट डालने के अधिकार
-- ४ नायक जातिकी लड़कियोंके निरीक्षणका प्रबन्ध करनेके लिए जिलाधीश के अधिकार
GOD
--५ सूचना न देने वाले के लिये दण्ड --६ जिलाधीशकी आज्ञा के उल्लघन करने में --७ प्रातिक सरकार द्वारा नियम बनाये जानेके अधिकार
दण्ड
परिभाषाएं
...
...
...
...
...
पेज
४०२
४३
४०३
४०४
४०४
४०५
...
४०६
४०६
४०७
४०८
४०८
४२७
४२८
४२८
४२८
४२६
४२६
४२६
४३०
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________________
दफावार सविवरण सूची
AMA--
दफा
४३६
विषय मुश्तरका खान्दान
छठवां प्रकरण ३८४ हिन्दू खान्दान मुश्तरका होता है
४३१ ३८५ मुश्तरका खान्दानके मेम्बर
४३२ ३८६ अपनी पैदाइशसे कौन लोग जायदादमें हक रखते हैं
४३३ ३८७ मुश्तरका खान्दानमें कौन आदमी होते हैं ?
४३४ ३८८ मेम्बरोंके हक ... -
४३५ ३८६ मिताक्षरा स्कूलके अनुसार मुश्तरका खान्दान
४३६ ३६० मुश्तरका खान्दान बनानेसे नहीं बनता ... ३६१ मुश्तरका खान्दानकी शाखाएं ..
४३६ ३६२ मुश्तरका खान्दान कब टूट जाता है ...
४३६ ३६३ अलग रहनेसे मुश्तरका खान्दान नहीं टूट जाता
४३७ ३६४ कुल देवता
४३८ ३६५ मुश्तरका खानदानका सुबूत किसके जिम्मे होगा
४३८ कोपार्सनरी ३६६ कोपार्सनरी
४३८ ३६७ बार सबूत उसपर होगा जो बटा हुआ खान्दान बयान करे .. ४३६ ३६८ बटवाराके बाद मुश्तरका हो जाना ...
४४० ३६६ कोपार्सनरी तीन पीढ़ीमें रहती है ...
४४० ४०० आखीर मालिकसे तीन पीढ़ीमें कोपार्सनरी रहती है
कोपासनर ४०१ कौन लोग कोपार्सनर हैं और कौन नहीं तथा उनके हक ... ४०२ मिताक्षरा लॉके अनुसार कोपार्सनर ...
४४६ ४०३ अनौरस पुत्र
४४६ ४०४ मिताक्षरा लॉमें औरत कोपार्सनर नहीं होती
४४६ ४०५ कोपार्सनर होनेके अयोग्य पुरुष
४४४ ४०६ अयोग्यताके साबित करनेका भार किस पर होगा
४५० ४०७ मरा हुआ माना जायगा।
४५० ४०८ लड़केको हक़ कब नहीं मिलेगा ४०६ अपना हिस्सा छोड़ देना
४५१ ४१० कोपार्सनरके अधिकार ...
४५१से४५४ ४११ कोपार्सनरका मरना ...
४५५ ४१२ कोपार्सनरके मरनेसे मुश्तरका न्यापार नष्ट नहीं होता ... ४५५
४४१से४४४
४४४
४५१
Page #39
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________________
हिन्दूलॉ
विषय
कोपार्सनरी प्रापर्टी
४१३ अप्रतिबन्ध और सप्रतिबन्ध वरासत ४१४ प्रतिवन्ध जायदादमें सरवाईवरशिप होता है ४१५ बंगाल स्कूल ( अप्रतिबन्ध ) जायदाद नहीं होती ४१६ मुश्तरका जायदाद दो तरह की होती है ४१७ मुश्तरका जायदाद कौन २ होती है
२४
दफा
...
अलहदा या खुद हासिलकी हुई जायदाद
४१८ अलहदा या खुद कमाई हुई जायदाद
४१६ अलहदा कमाई
४२० विद्वत्ताकी कमाई
४२१ बीमाका रुपया
४२२ मुश्तरका जायदाद के मामलोंमें अदालतका अनुमान ४२३ अलहदा जायदाद पर अधिकार
...
800
...
..
0.0
...
800
४५६
४५७
४५८
४५६
४५६ ४७१
...
४२४ मुश्तरका कारबार ४२५ मेनेजर के अधिकार ४२६ मेनेजरको बटवाराके समय हिसाब देनेकी जिम्मेदारी ४२७ मेनेजरका अधिकार मुश्तरका खान्दान के लिये करज़ा लेनेका ४२८ मुश्तरका खान्दानके कारोबारके मेनेजरके अधिकार ४२६ मेनेजरके द्वारा मुश्तरका जायदादका इन्तकाल किया जाना ४३० मुश्तरका खानदानकी क़ानूनी ज़रूरतें
४३१ मुश्तकरा खानदान की ज़रूरतों का बारसुबूत और खरीदार की
ज़िम्मेदारी
४३२ पंचायत करने के बारेमें मेनेजरका अधिकार
४३३ मेनेजर द्वारा क़र्जेका स्वीकार किया जाना
४३४ अनेक कोपार्सनरोंमें किसी एकका अलहदा दावा करना
***
...
...
...
300
पेज
...
...
४७१
४७५
४७६
४७७
४७८
५०८
५१२
५१२
५१३
..
...
५१४
४३५ मेनेजरका अदालतमें दावा करना ४३६ दौरान मुक़द्दमे में कोपार्सनरोंका फ़रीक बनाया जाना और मियाद ५१६ ४३७ सब कोपार्सनरोंको मुद्दई बनाया जाना
५१८
४३८ सव कोपार्सनरोंको मुद्दालेह बनाया जाना
४३६ मेनेजरपर डिकरी
४४० बापके जाती क्रर्जेकी डिकरी
४४१ बापका किसी नाबालिके दावामें समझौता कर लेना
४८२
४८३
४८६
४६३
૪૬૩
४६६
४६८
५०४
५१६
५२०
५२१
५२२
Page #40
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________________
दफावार सेविवरण सूची
पेज
५२३
दफा
विषय मुश्तरका जायदादका इन्तकाल ४४२ मुश्तरका जायदादका इन्तकाल कौन कर सकता है ४४३ नाबालिग होनेपर मुश्तरका जायदाद कैसे खरीदी जाय ... ४४४ बापके द्वारा मुश्तरका जायदादका इन्तकाल
५२६ ४४५ बचे हुये (आखिरी) कोपार्सनरके द्वारा मुश्तरका जायदादका इन्तकाल
. ५२६ मुश्तरका ख़ानदानकी जायदादके लाभ अर्थात्
मुनाफेका इन्तकाल ४४६ मुश्तरका जायदादका दान करना या वसीयत द्वारा दान करना ५३० ४४७ मुश्तरका जायदादका बेचना या रेहन करना
... ५३१ ४४८ जब बापने अपना कर्जा चुकानेके लिये जायदादका इन्तकाल
किया हो ४४६ अदालतकी डिकरीसे मुश्तरका जायदादका कुर्क और नीलामहोना ५३४ ४५० मुश्तरका जायदादके खरीदारके हक ४५१ मुश्तरका जायदादका हिस्सा जिस आदमीका बिक गया हो उसकी स्थिति ...
५४० ४५२ अगर कोपार्सनर अपना हिस्सा छोड़ दे
५४० ४५३ दिवालिया कोपार्सनर ४५४ मुश्तरका खानदानके फर्मका दिवाला
५४२ मुश्तरका जायदादका इन्तकाल मंसूख करना ४५५ दानका मंसूख करना ४५६ बिक्री और रेहनका मंसूख करना
५४४ ४५७ मुश्तरका जायदादके इन्तकाल हो जानेपर कौन उज्रकर सकता है ५४७ ४५८ जायज़ इन्तकालके समय यदि गर्भमें भी पुत्र न हो तो हक्क नहीं है ५४६ ४.६ जायदादके इन्तकालके बाद यदि दत्तक लिया गया हो ... ५५१ ४६० माके गर्भ में रहते हुये पुत्रके अधिकार
... ५५१ दायभागलों दायभागलॉके अनुसार कोपार्सनर और कोपार्सनरी जायदाद ४६१ दायभागलॉके अनुसार मुश्तरका खान्दानकी खास पहिचान ५५२
Page #41
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________________
हिन्दूलॉ
दफा
विषय
४६२ लड़के अपनी पैदाइशसे कोई हक़ नहीं प्राप्त करते
४६३ पैतृक जायदाद के इन्तक़ाल करने में बापको पूरा अधिकार है
४६४ लड़के बापसे बटवारा नहीं करा सकते और न हिसाब मांग
सकते हैं
२६
४६५ दायभागलों के अनुसार पैतृक सम्पत्ति कौन है ?
४६६ दायभागलों के अनुसार कोपार्सनर
४६७ दायभागलों की कोपार्सनरी जायदाद
४६८ दायभागलॉ में हर एक कोपार्सनर अपना हिस्सा लेता है
४६६ दायभागलों में सरवाइवरशिप
४७० कोपार्सनरका पूरा अधिकार ४७१ अदालतकी डिकरीका असर ४७२ दायभागलों का मेनेजर ४७३ कोपार्सनरी जायदादका लाभ ४७४ बटवारा करानेका अधिकार ४७५ को पार्सनरी जायदादमें अदालतका ख़्याल
पैतृक ऋण - मौरूसी क़र्जा
सातवां प्रकरण
४७६ पुत्रका कर्तव्य और ज़िम्मेदारी ४७७ क़र्ज़ा देने वालेका कर्तव्य
पुत्र और पौत्रकी जिम्मेदारी
000
...
...
४७८ अनुचित कामोंके क़र्जेका पुत्र जिम्मेदार नहीं है
४७६ सूद दिया जायगा
...
...
४८० बापका अधिकार
...
४८१ पहिलेके क़जौंके लिये रेहन ४८२ जब लड़के फ़रीक न बनाये गये हों तो क्या पाबन्दी है ? ४८३ नीलाम से पुत्रके इतका चला जाना ४८४ रुपये की डिकरी ४८५ बेकायदा नीलामसे पुत्रोंका हक़ रक्षित रहता है ४:६ बापके मरनेके बाद इजराय डिकरी ४८७ क़ानूनी प्रतिनिधि
...
४८८ पुत्रोंका हक़ कब चला जाता है ? ४८१ बार सुबूत
...
GND
...
....
.
a
...
...
...
0.0
300
..
...
800
...
...
...
B
५६८
५७१ से ५७६
५७६
५७३
५८१
५८२
-५८२
५८३
५८४
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...
800
...
800
पेज
५५३
५५३
630
E
५५४
५५४
५५५
५५५
५.५६
५५६
५५६
५५७
५५७
५५७
५५७
५५८
५६३
५६५
५६७
Page #42
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________________
दफावार सविवरण सूची
२७
पेज
५८५
५८६ ५८७ ५८८ ५८८
५८६ ५६१ ५६२
५३३
दफा
विषय ४६० खरीदारका कर्तव्य ... ४६१ पुत्रोंपर डिकरी ४६२ पुत्रोंपर बापके कर्जेकी साधारण जिम्मेदारी ४६३ बापकी जिन्दगीमें पुत्र कहां तक जिम्मेदार है ४६४ जिन्दा है या मर गया ४६५ पुत्रोंपर नालिश करनेकी मियाद ४६६ कर्ज जिनका बोझ जायदादपर नहीं पड़ता ४६७ बापके कर्जेका बोझ पुत्रकी जायदादपर नहीं पड़ता ४६८ पैतृक ऋण देना जायदादही पर निर्भर नहीं है। ४६६ दूसरे हिस्सेदार जिम्मेदार नहीं होंगे ... ५०० कर्जा न चुकानेमें धर्मशास्त्रका मत ... बेकानूनी या बुरे कामोंके वास्ते बापके लिए हुए
कों के उदाहरण ५०१ बेकानूनी या बुरे कामोंके लिये बापके कर्जे
बापके लिए हुए कानूनी नोंके उदाहरण ५०२ वापके लिये हुये कानूनी कर्जे
बटवारा
भाठवां प्रकरण (१) बटवारके साधारण नियम ५०३ बटवारा ५०४ बटवारा करा पानेका कौन हक़दार है ५०५ बेटे पोते और परपोतेके बटवारेका हक ५०६ स्त्रियोंके परस्पर बटवारा ५०७ नाबालिग कोपार्सनर ५०८ बटवारेके बाद लड़केका पैदा होना ५०६ दत्तक पुत्र और उसका पुत्र और पौत्र ५१० अनौरस पुत्र ५११ गैरहाजिर कोपार्सनर ५१२ हिस्सेका खरीदार बटवारा करा सकता है
६०१ ६०२ ६०५
६०६
६०७ ६०६ ६१२ ६१२
Page #43
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________________
हिन्ठूला
पस
६२७
६२८ ६२६
दफा
विषय
(२) स्त्रियोंका अधिकार ५१३ बटवारेके समय पत्नीका अधिकार ... ५१४ बटवारेके समय माका हिस्सा
६१७ ५१५ बटवारेके समय दादीका हिस्सा
... ६१६ ५१६ बटवारे के समय परदादीका हिस्सा ५१७ बटवारेके हिस्से में स्त्रीधनका मुजरा होना
६२० ५१८ कौन स्त्री बटवारेमें हिस्सा नहीं पाती
६२१ ५१६ बिक्रीका असर हनपर
६२२ ५२० अधिकार कब काममें लाया जायगा
६२३ (३) कोपार्सनरोंके हिस्सोंके निश्चित करनेका कायदा ५२१ हिस्सोंके निश्चित करने के सिद्धान्त ... ६२३ से ६२७ ५२२ क्या बाप कमती ज्यादा बटवारा कर सकता है ?. ५२३ बटवारेके पहिले अपना हिस्सा रेहन करना ५२४ कुछ कोपार्सनर बटवारा करें और कुछ शरीक रहें ५२५ भिन्न गिन् माताओंके पुत्र ...
(४) बटवारेकी जायदाद ५२६ किस चीज़का बटवारा हो सकता है और किसका नहीं ...
६३० ५२७ जो जायदाद स्वाभाविक तरहपर नहीं बट सकती हो ... ६३२
(५) अलहदगी और बटवारा ५२८ अलहदगी कैसे होती है
६३५ ५२९ अलहदगीका सबूत ... ५३० अधूरा बटवारा
६३६ ५३१ बटवारेसे जो जायदाद छूट गई हो
६४० ५३२ बटवारेमें इरादेका प्रश्न ५३३ हिस्सेदारका खरीदार .
६४३ ५३४ धर्मच्युत हो जानेसे कोपार्सनर नहीं रहता ५३५ बटवारेकी डिकरी ...
६४४ ५३६ बटवारेका दावा ... ५३७ बटवारेकी जायदाद ..
६४६ ४३८ मिन मिन्न इलाकोंकी जायदाद
६४६
६४१
RAREETTE
Page #44
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दफावार सविवरण सूची
विषय
...
६४७
६४७
६४६ ६४६
६५०
६५१
६५१
६५१ ६५२ ६५२
दफा ५३६ मुनाफेके हिसाबका दावा ५४० मुश्तरका खान्दानका क़ज़ आदि ...
(६) बटवाराके कानूनकी कुछ जरूरी दफाएं ५४१ बटवारेके बजाय बिक्री ५४२ जब हिस्सेदार स्वरीदने को तैयार हो ... ५४३ रहने के मकानके हिस्सेके बटवारेका दावा ५४४ अयोग्य फरीकोंका स्थानापन्न ५४५ नीलाममें निश्चित मूल्य और हिस्सेदारकी बोली ५४६ बिक्रीका ज़ाबता .... ५४७डिकरी ५४८ श्राधा बटवारा आधी विक्री ५४६ इस कानूनसे पहिलेके मुक़द्दमे ५५० सरकारी मालगुजारी देने वाली जायदादका बटवारा ५५१ मालगुजारीके कानून (७) बटे हुए कुटुम्बियोंका फिर शामिल
शरीक हो जाना ५५२ फिर शामिल हो जाना (८) बटवारा न हो सकने वाली जायदादका
उत्तराधिकार ५५३ जेष्ठका हक़ सब जायदाद पानेका । ५५४ न बट सकने वाली जायदादके नियम ५५५ स्त्रियोंका वारिस होना ... ५५६ मिताक्षराकी ज्येष्ठ लाइन ५५७ 'प्राइमोजेनिचर' का नियम रिक्थाधिकार अर्थात् उत्तराधिकार
- नवां प्रकरण
(१) साधारण निमय -४५८ पारिभाषिक शब्दोंकी सूची
AL
६५६
६५६ ६५६
Page #45
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________________
हिन्दूला
विषय
दफा
५५६ उत्तराधिकार कैसी जायदाद में होता है ? ५६० वरासत दो तरह से निश्चित की जाती है ५६१ मिताक्षरा लॉके अनुसार जायदाद कैसे पहुंचती है
Bo
५६२ दायभाग लॉके अनुसार जायदाद कैसे पहुंचती है ५६३ वारिस किस तरह निश्चित करना चाहिये
५६४ मर्द जायदाद का पूरा मालिक होता है
५६५ बङ्गाल, बनारस और मिथिला स्कूलमें कितनी औरतें वारिस मानी गई हैं ?
५८४ सात दजके सपिण्डों का नक़शा ५८५ पिण्ड दान और जलदानके सपिण्ड ५८६ दोनों सपिण्डोंमें फरक नहीं है ५८७ सकुल्य किसे कहते हैं ५८८ समानोदक किसे कहते हैं ५८६ सपिण्ड और समानोदक
...
20
५६६ उत्तराधिकारकी जायदाद में औरतों का हक़ महदूद हैं ५६७ वरासतका हक़ फौरन पहुंच जाता है ५६८ बेटा, पोता, परपोताका इकट्ठा हक़दार होना ५६६ उत्तराधिकारका हक़ किसीको नहीं दिया जासकता ५७० मिताक्षरा स्कूलमें सरवाइवरशिप चार वारिसों में होता है ५७१ दायभाग स्कूलमें सरवाइवरशिप दो वारिसों में होता है ५७२ किन वारिसों में सरवाइवर शिपू नहीं लागू होता
( २ ) मर्दोंका उत्तराधिकार मिताक्षरा लॉ के अनुसार
५७३ स्कूलोंके सबब से उत्तराधिकार एकसां नहीं है ५७४ मिताक्षरा लॉके अनुसार जायदाद किसके पास जायगी ? ५७५ कौनसी जायदाद उत्तराधिकारके योग्य है ? ५७६ मिताक्षरा लॉके अनुसार उत्तराधिकारका सिद्धान्त
५७७ मिताक्षरा, मनुके बघनानुसार उत्तराधिकार क़ायम करता है ५७८ उत्तराधिकार किस क्रम से चलता है
५७६ सपिण्ड शब्दका अर्थ
B&G
...
...
GAD
foo
...
६७८
६७६
६७६
६८०
६८०
५८० दो तरह के सपिण्ड
६८०
...
५८१ मिताक्षराके अनुसार गोत्रज सपिण्ड और भिन्न गोत्रज सपिण्ड ६५० ५८२ सपिण्ड किसे कहते हैं
...
५८३ बापसे सातवीं, मासे पांचवीं पीढ़ीके बाद सपिण्ड नहीं रहता
...
पेज
६६४
६६५
...
६६५
६६६
६६७
६६८
000
६६६
६६६
६७०
६७०
६७३
६७३
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६८२
६८३
६८४
६-५
६८५
६८६
-६८८
६६०
Page #46
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________________
दफावार सविवरण सूखी
विषय
६०३ लड़के, पोते, पर पोतेकी करासत ६०४ विधवाकी वरासत
दफा
५६० बन्धु किसे कहते हैं ?
५६१ गोत्रज सपिण्ड और भिन्न गोत्रज सपिण्डमें क्या भेद है ? ५६२ उत्तराधिकारमें सपिण्ड शब्दका संकेत अर्थ माना गया है ५६३ तीन क़िस्मके वारिस जायदाद पाते हैं ५६४ सपिण्ड
६६५
६६६
५६५ सत्तावन दर्जेके सपिएडका नक्शा ५६६ समानोदकों की संख्या निश्चित नहीं है ५६७ बन्धुओं की संख्या निश्चित नहीं है ५६८ वरासत मिलने का क्रम मिताक्षराके अनुसार ५६६ बनारस, मिथिला, मदरास स्कूलमें वरासत मिलने का क्रम ६०० गुजरात, बम्बई द्वीप और उत्तरीय कोकनमें वरासत मिलनेका क्रम ६९८ ६०१ बम्बई प्रांतके दूसरे हिस्सों में वरासत मिलनेका क्रम ६०२ औरतोंकी क़ानूनी ज़रूरतें
६१७
६६६
७००
( ३ ) सपिण्डों में वरासत मिलनेका क्रम
...
6.
...
980
०००
६०५ लड़कीकी वरासत ६०६ लड़कीके लड़केकी वरासत (नेवासा - दोहिता-दौहित्र )
६०७ माताकी वरासत
800
...
...
...
...
98.
...
...
...
...
...
६०८ बापकी वरासत ६०६ भाईकी वरासत ६१० भाईके लड़के की वरासत ६११ भाईके पोते की वरासत ६१२ बापकी मा ( दादी ) की वरासत ६१३ बापके बापकी वरासत ( पितामह - दादा ) ६१४ नापका भाई (पितृव्य, काका, चाचा, ताऊ ) ६१५ बापके भाई के लड़के की वरासत (चाचाका लड़का ) ६१६ बापके भाईके पोते की वरासत ( चाचाका पोता ) ६१७ परदादीकी वरासत ( बापके बापकी मा पितामहकी मा ) ६१८ परदादाकी वरासत ( प्रपितामह )
६१६ दादा भाईकी वरासत (पितामहका भाई - बापके बापका भाई) ६२० दादाके भतीजे की वरासत ( पितामहके भाई लड़का ) ६२१दादा के भाई के पोतेकी वरासत ( पितामहके भाईका पौत्र )
..
...
...
...
800
...
www
900
000
...
...
..
३१
200
पेज
६६२.
६६२
६०३
६६३
६६३
६६४
६६५
७०४
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७२०
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७३४
७३६
७३६
७३८
७३८
७३६
G
७४०
७४० ७४१
७५१
૪૨
७४२
Page #47
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________________
३३
हिन्दूलाँ
विषयं
७४२
दफा
पेज ६२२ दूसरे सपिण्ड वारिस ६२३ सपिण्डोंकी वरासतका पहिला सिद्धान्त
७४३ ६२४ पहिलेके सिद्धान्तका नक्शा
७४५ ६२५ पहिलेके सिद्धान्त पर इलाहाबाद हाईकोर्टका मशहूर मुकदमा ७४७ ६२६ सपिण्डोंकी वरासतका दूसरा सिद्धान्त
७५१ ६२७ दूसरे सिद्धान्तका नक्शा
७५३ ६२८ सपिण्डों की वरासतका तीसरा सिद्धान्त
७५४ ६२६ तीसरे सिद्धान्तका नक़शा
७५५ ६३० तीनों सिद्धान्तोंका फरक
७५६ . (४) समानोदकोंमें वरासत मिलनका क्रम ६३१ समानोदकोंमें उत्तराधिकारका क्रम ...
७५७ ६३२ समानोदकोंका नक्शा देखो ...
७५८ (५) बन्धुओंको वरासत मिलनेका क्रम ६३३ बन्धु किसे कहते हैं
७५६ ६३४ मिताक्षराके बन्धु
७६० ६३५ बन्धुओंके क्रमका सिद्धान्त
७६१ ६३६ बन्धुओंका सामान्य सिद्धान्त बंगाल स्कूलके अनुसार
७६२ ६३७ बंगाल स्कूलके अनुसार कलकत्ता हाईकोर्टकी राय
७६२ ६३८ मिताक्षरा स्कूलके अनुसार बन्धु ...
७६६ ६३६ बन्धुओं के नक्शे मिताक्षरालॉ के अनुसार
७७३ ६३६ (अ) प्रिवी कौन्सिल द्वारा हालमें माने हुये बन्धु ६४० बम्बई में कौन कौन औरते बन्धु मानी गई हैं ?
૭૮૨ ६४१ मदरासमें कौन कौन औरते बन्धु मानी गई हैं ?
७८३ (६) कानूनी वारिस न होनेपर उत्तराधिकार ६४२ जब कोई वारिस न हो तो जायदाद कहां जायगी ?
७८४ (७) औरतोंकी वरासत ६४३ बङ्गाल, बनारस, मिथिला स्कूल में आठ औरतें वारिस मानी गई हैं ७६ ६४४ बम्बई और मदरास स्कूल में अधिक औरते वारिस मानी गई हैं ७६० ६४५ बम्बई प्रान्तमें कौन स्त्रियां वारिस होती हैं ?
७६१ ६४६ गोत्रज सपिण्ड और सगोत्र सपिण्डमें क्या फरक है ... ७६२
Page #48
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________________
दफावार सविवरण सूची
पेज
...
७६३
७६३
७६६
.
.
س
س
.
विषय ६४७ बम्बई प्रान्तमें गोत्रज सपिण्डोंकी विधवायें वारिस होती हैं. ७२ ६४८ विधवाओंका क्रम पतियों के अनुसार होगा ६४६ मदरास प्रान्तमें गोत्रज सपिण्डोंकी विधवायें वारिस नहीं मानी जाती
... ६४६ (ए) रंडी ( वेश्या) की वरासतं
७६३ ६५० विधवाकी अपवित्रता
(६) उत्तराधिकारसे वंचित वारिस ६५१ व्यभिचारिणी विधवा ६५२ विधवाका पुनर्विवाह ६५३ शारीरिक अयोग्यता ...
७६७ ६५४ अयोग्यताका असर ... ६५५ अयोग्यता चली जाने पर ६५६ स्त्रीधन ६५७ बम्बई में अयोग्य पुरुषकी स्त्री
८०३ ६५८ हत्यारा वारिस ६५६ धर्म या जातिसे च्युत
८०४ ६६० संसार त्याग
८०५ ६६१ बार सुबूत
८०६ ६६२ वारिस अपना हक छोड़ सकता है
८०६ हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधक )
एक्ट नं० २ सन् १९२९ ई. -दफा १ नाम विस्तार और प्रयोग
८०७ -दफा २. कुछ वारिसों के उत्तराधिकारका क्रम
८.७ -दफा ३ इस कानूनकी किसी बातका प्रभाव नीचे लिखी बातोंपर नहीं पड़ेगा ८०८ दि हिन्दू इनहेरिटेंस ( रिमूवल आफ डिस् एबिलटी)
अर्थात् हिन्द उत्तराधिकार ( अयोग्यता निवारक )
एक्ट नं० १२ सन १९२८ ई.
८०४
--चका ,
--दफा नाम विस्तार तथा प्रयोग
Page #49
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________________
हिन्दूलॉ
दफा
विषय
-- दफा २ वह व्यक्ति जो अविभक्त हिन्दू परिवारकी सम्पत्तिके उत्तराधिकार तथा उसके अधिकारोंसे वंचित नहीं रक्खे जावेंगे
- दफा ३ निषेध तथा बचत
३४
विर्ज़नर और उनके अधिकार
दसवां प्रकरण
६६३ जायदाद में रिवर्ज़नरका स्वार्थ
...
६६४ सीमा वद्ध स्त्रीके इन्तक़ालकी मंसूखीका दावा ६६५ जायदादको बरबादीसे रोकनेका दावा
६६६ विज़र्नरके दावा करने पर अदालत कब डिकरी कर देगी
६६७ विज़र्नरके दावा करनेकी मियाद
६६८ रिवर्ज़नरके दावा करनेका अधिकार
...
0.0
६६६ जायदाद के सम्बन्धमें ग्रफ़लत
६७० सीमा बद्ध मालिकको बेदखल करनेका हक़ ६७१ रिवर्ज़नरके पीछे वाले रिवर्जनर
६७२ रिवर्ज़नरके बाद वाले रिवर्ज़नरके दावाकी मियाद
६७३ रिवर्ज़नर कब आपत्ति कर सकता है ६७४ रिवर्ज़नरके अधिकार
...
..
...
...
...
...
10.
...
www
...
ROP
...
...
...
६७५ कब्जा पानेकी नालिशकी मियाद
६७६ इन्तक़ालके जायज़ और नाजायज़ होनेका सुबूत ६७७ जब क़ानूनी ज़रूरतका कुछ हिस्सा साबित किया जाय ६७८ इन्तक़ालके खारिज होनेपर क़र्ज़की अदायगी ६७६ सरकारका अधिकार
...
६८० सीमाबद्ध मालिकके कामपर कौन आपत्ति कर सकता है ? ६८१ विचाराधीन मुक़द्दमे
●0%
...
वरासतसे मिली हुई जायदादपर स्त्रियोंका अधिकार
पंज
...
८१२
વર
८१३
८१५
८१७
८१८५
८१६
८१६
८२१
८२२.
८२२
८२४
८२५.
८२५
८३१
८३२
८३४
८३५
८३५
८३६
८३६
म्यारहवां प्रकरण
६८२ वारिसकी हैसियतसे स्त्रियों का अधिकार महदूद है
८३७
६८३ बम्बई प्रान्तमें वरासतसे मिली हुई जायदादपर स्त्रियों का अधिकार ८३६ ६कारी लड़की
Cov
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________________
दफावार सविवरण सूची
विषय
दफा
६८५ जैन विधवा
...
६८६ मनकूला जायदादपर विधवाका कैसा अधिकार है ? ६८७ वसीयत ज़बानी जायज़ है लिखित नहीं ६८८ बटवारासे मिली हुई जायदाद
६८६ जायदाद पर स्त्रीके अधिकारकी समस्या ६६० विधवाका क़र्जा रिवर्ज़नरको पाबन्द नहीं करता
६६१ विधवाके कामोंमें दखल ६०२ एकसे अधिक विधवायें ६६३ जायदाद में इजाफ़ा ६६४ जायदाद की आमदनीपर अधिकार ६१५ भरण पोषण के खर्चसे बची हुई रक़म ६६६ विधवाकी खरीदी जायदाद
...
430
७०२ ज़रूरतका दबाव
...
७०३ सम्पूर्ण जायदाद के इन्तक़ालका अधिकार ७०४ खान्दानी कारोबार
७०५ एक पतिकी दो विधवायें
७१४ वह क़र्जे जो जायदादपर न लिये गये हों ७१५ अदालत के फैसलेसे जायदाद की पाबन्दी ७१६ जायदाद वापस लेनेका दावा ७१७ रिवर्ज़नर डिकरीके पाबन्द होंगे ७१८ समझौता
000
...
...
...
...
७०६ क़ानूनी ज़रूरतें कौन हैं ?
७०७ कहां तक अधिकार काममें लाये जा सकते हैं ? ७०८ इन्तक़ालके लिये रिवर्जनरोंकी मंजूरी
७०६ मंजूरी देनेका तरीका
७१० अगर कोई स्त्री जायदादका अपना हक़ रिवर्जनरको दे दे ७११ संसार त्यागने वाली स्त्रीका हक़ चला जाता है ७१२ वसीयतके अनुसार अधिकार
७१३ अदालतसे मिला हुआ अधिकार
८४५
Eve
८५१
८५१
८५१
...
६६७ पट्टे
Exa
...
६६८ सीमाबद्ध स्त्री मालिककी जिन्दगी भरके लिये जायदादका इन्तक़ाल ८५२ ६६६ डिकरी द्वारा कुर्ती ७०० विधवा आदि कब जायदादका इन्तक़ाल कर सकती हैं ७०१ खरीदार या रेहन रखने वालेके कर्तव्य तथा बार सुबूत
ર
८५४
८५५
८५५
८५६
८५७
८५७
८६४
८६५
८६७
८६८
590
590
...
⠀⠀⠀
...
960
...
...
...
...
...
...
...
...
...
600
...
800
...
...
...
***
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...
090
...
000
...
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...
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पंज
८४१
૬૪૨
८४३
८४४
८४५
८४७
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८७१
८७१
८७२
८७२
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________________
हिन्दूला
पेज
८७५ ८७५
८७५
८७६ ८८२ ८८३
s ८८५ ८५६
विषय ७१६ रिवर्जनरको फरीक बनाया जाना ७२० मुकद्दमेका खचे ७२१ डिकरीमें नीलाम
भरण-पोषण
बारहवां प्रकरण ७२२ कौन कौन लोग भरण पोषणका खर्च पानेके अधिकारी हैं ७२३ पत्नीके भरण पोषणका खर्च ७२४ पत्नीके भरण पोषणके खर्चकी रकम ७२५ विधवाके भरण पोषणका खर्च ७२६ विधवा माता और पुत्र वधू ७२७ विधवाका निवास स्थान ७२८ विधवाके हकका नष्ट होना ७२६ विधवाके भरण पोषणके खर्च की रकम ७३० अन्य लोगोंके भरण पोषणके खर्च की रकम ७३१ भूखे मरनेसे बचानेका खर्च ७३२ बार सुबूत ७३३ बिठलाई हुई स्त्रीका भरण पोषण ७३४ भरण पोषण मांगने वालेके पास जायदाद होना ७३५ विधवाकी अन्त्येष्ठीका खर्च ७३६ खर्चकी रकममें अदालतका कर्तव्य ... ७३७ खर्च घटाया और बढ़ाया जा सकता है ७३८ हनका इन्तकाल नहीं हो सकता ७३६ जायदादके इन्तकालसे हकका मारा जाना. ७४० आयदादपर भरण पोषणके खर्चका बोझ ७४१ मुश्तरका खान्दानपर भरण पोषणकी डिकरी. ७४२ विधवाकी घसीयतपर आपत्ति करना ७४३ जायदादका इन्तकाल ७४४ दौरान मुकदमेमें जायदादका इन्तकाल ७४५ विधवाके कम्ज़की जायदाद ७४६ जायदादकी बिक्रीके समय पर विधवाका हक ७४७ भरण पोषणके दावाका हत कब पैदा होता है
७४८ भरण पोषणका दावा THE Tीक मुक्तहमा ...
U 0/-.. FUN00000
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८६७ ८९७ ८१८ १०० ६०१
१०१
६०२
Page #52
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________________
दफावार सविवरण सूची
३५
.
१०७
K.G.G.
दफ्रा विषय
पेजः ७५० भरण पोषणके दावेमें तमादी
१०३ ७५१ फौजदारी अदालतमें भरण पोषणका दावा
स्त्री-धन तेरहवां प्रकरण
(१) स्त्री-धन ७५२ स्त्रीधन शब्दका अर्थ ... ७५३ स्त्री धन क्या है। ७५४ स्त्री धनका बार सुबूत ७५५ स्त्री धन कितने तरहका है
१०७ ७५६ स्त्री धनके खर्च करने का अधिकार
६१५ ७५७ स्थावर जायदादका दाम
६१६ ७५८ अदालत क्या मानेगी ७५६ पतिके अधीन कौन जायदाद है ७६० स्त्री धन पर पतिका अधिकार १६१ स्त्री धन पर विधवाका अधिकार
(२) स्त्री-धनकी वरासत ७६२ स्त्री धनकी वरासतका सिद्धान्त ७६३ क्वारी स्त्रीका स्त्री धन ७६४ भावी बरकी दी हुई भेटें
विवाहिता स्त्रीके स्त्री-धन की वरासतका क्रम ५६५ मिताक्षराके अनुसार स्त्री धनकी वरासत
स्कूलोंके अनुसार स्त्री-धनकी वरासत ७६६ बनारस स्कूल ७६७ मिथिला स्कूल ७६८ बम्बई स्कूल ७६६ मद्रास स्कूल ७७० बंगाल स्कूल . देवदासी,वेश्या,रण्डी और लावारिस स्त्री-धनकी वरासत देवदासी और वेश्या तथा रण्डीका श्री धन
..... १३५
Page #53
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________________
३८
दफा
७७२ अनौरस सम्मान ७७३ लावारिस स्त्री-धन
...
...
हिन्दूलॉ
विषय
बेनामीका मामला
चौदहवां प्रकरण
७०४ बेमामी किसे कहते हैं
७७५. असली मालिकके हक़ पर विचार
200
...
...
७७६ बार सुबूत
७७७ कितनी सूरतों में बेनामी मामला रद्द नहीं होगा ७७८ असली मालिक पावन्द रहेगा ७७६ बेनामीदार के दावा करने का हक़
0.6
दाम दुपटका क़ानून
पन्द्रहवां प्रकरण
७८० दाम दुपट किसे कहते हैं ७८१ कहां दर दाम दुपद माना जायगा ७८९ दाम दुपटमें मियादका क़ानून ७८३ जहां पर मूलधन का कोई भाग अदा किया गया हो ७८४ पीछे इक़रारसे व्याजका मूलधन होना
दान
७८ दाम शब्दकी उत्पत्ति और व्याख्या ७६० धर्म शास्त्रमें चार प्रकारके दान ७६१ लिखित नहीं बल्कि क़ब्ज़ा ज़रूरी है ७६२ दान देने के अधिकारी कौन हैं ७६३ दान देनेका अधिकारी कौन नहीं है ७४ दान देनेका अधिकारी कौन है
...
...
७८५ मुक़द्दमा दायर करने पर दाम दुपट लागू नहीं होता ७८६ दाम दुपट इफिकाक रेहनसे भी लागू होगा ७८७ कौन आदमी दाम दुपटका हक़ रखते हैं ७८८ कैसे क़ज़ैमें दाम दुपट लागू होगा
...
दान और मृत्यु पत्र (हिबा और वसीयत )
सोलहवां प्रकरण
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0.0.0
...
...
...
...
...
800
...
800
600
...
640
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...
पेज
६३६
१३६
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98
६५०
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६५१
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६५२
BL
६५८
६५६
६६०
૬૦
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दफावार सविवरण सूची
३६
पर
६६३
६६८
६७०
६७३ २७४ ६७४ १७८ १८०
विषय ७६५ कब्ज़ा होना अत्यावश्यक है ७६६ पतिका दान अपनी पत्नीको ७६७ दान मुश्तरका खानदानके मेम्बरोंको ... ७६८ मृत्युके समय दान ... ७६६ दानमें कौन चीज़ नहीं दी जा सकती ... ८०० दानका मंसूख होना ...
मृत्युपत्र-वसीयत ८०१ बसीयतकी व्याख्या ... ८०२ दान या वसीयत कौन कर सकता है और कौन नहीं ८०३ वसीयत लिखनेका कायदा ८०४ कैंसी लिखते वसीयत मानी जायंगी। ८०५ वसीयतनामेका अर्थ लगाना ८०६ उत्तराधिकारसे बंचित करना ८०७ वसीयत और दानके सिद्धान्तों पर टैगोर केस
-(१) मानलेना कि वसीयतके द्वारा सारा हक दिया गया -(२) कोई मादमी कानून नहीं बदल सकता -(३) अनुचित शर्त -(४) भावी सन्तानके लिये वसीयत -(५) उचित उद्देश के लिये ही ट्रस्ट जायज हैं।
-(६) समिावद्ध दान ९०८ जायदादकी अदायगी जमा होना ८०६ वसीयतके शब्द और वाक्यों पर विचार८१० हिन्दू वसीयतका कानूनी सम्बन्ध ८११ वसीयत मुश्तरका स्नान्दानके मेम्बरको ८१२ वसीयतकी मंसूखी ८१३ इण्डियन सक्सेशन ऐक्ट . ११४ मलावार लॉ
प्रोवेट ८१५ प्रोवेट ८१६ प्रोवेट मिलने की दरख्वास्तमें क्या लिखना चाहिये
धार्मिक और वैराती धर्मादे
______ सत्रहवां प्रकरण ८१७ धमादोंका उद्देश
MMMMMMMMpm
६६४
...
६६८
...
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________________
४०
हिन्दुला
पर बोझ
....
. . .
दफा विषय
पेंज ८१८ धर्मादा किस तरह कायम करना चाहिये
REE ८१६ मियाद नहीं हो सकती
१००८ ८२० धर्मादा कायम करने वाला
१००८ ८२१ सार्वजनिक आरामका हक
१००६ ८२२ किसी मुद्दतके बाद धर्मादा कायम करना
१००६ ८२३ सार्वजनिक और निजके धर्मादेका भेद ८२४ जायदादपर बोझ
१०११ ८२५ धर्मादेका निश्चित होना अत्यन्त आवश्यक है
१०१२ ८२६ निम्न हालतोंके दान निश्चित होनेसे नाजायज़ माने गये ... १०१२ ८२७ निम्न लिखित हालतोंके दान 'अनिश्चित होनेसे नाजायज़ मानेगये १०१५ २८ धर्मादा असली होना चाहिये
१०१७ ८२६ धर्मादेका सुबूत ...
१०१६ ८३० अदालत व्यवस्था निश्चित कर देगी
१०२० ८३१ धर्मादा कभी खारिज नहीं हो सकता
१०२० ८३२ मन्दिर और मठ ...
१०२० ८३३ देव पूजाका धर्मादा
१०२१ ८३४ देवताका मालिकाना हक्क
१०२२ ८३५ खण्डित या खोई हुई देवमूर्ति
१०२३ ८३६ घरेलू धर्मादा
१०२४ ८३७ मठ
१०२५ ८३८ महन्तके अधिकार
१०२५ ८३६ महन्तके अधिकार
१०२५ ८४० महन्तका पागल हो जाना
१०२६ ८४१ मठका मेनेजर साधु होना ज़रूरी है
१०२७ ८४२ निजकी जायदाद
१०२७ ८४३ महन्तकी नियुक्ति और घरासत
१०२७ ८४४ इन्तकाल
१०२६ ट्रस्टी, मेनेजर, शिवायत या पुजारी और महन्त
आदिके कर्तव्य और अधिकार ८४५ दूस्ट
१०३१ ८४६ स्त्रियां मेनेजर हो सकती हैं
१०३१ ८४७ धर्मादेके स्थापकका ट्रस्टी होना
१०३२
Page #56
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________________
दफावार लविवरण सूवी
दफा
विषय
८४८ खान्दानी देवमूर्तिको खर्च न मिलेगा
८४६ शिवायतं
८५० मूर्तिके चढ़ावेका हक़ ८५१ क़ब्ज़ा और प्रबन्धका अधिकारं ८५२ मेनेजरका खर्च और हैसियत ८५३ प्राचीन रवाज कायम रहना ज़रूरी है
८५४ बहुमत माना जायगा ८५५ आमदनीका खर्च
...
८६१ दावाका सुबूत
प६२ हक़ मुखालिफ़ाना
ट्रस्ट
.io
...
...
८५६ हिसाब
८५७ मन्दिरके सम्प्रदाय ८५८ मेनेजर, शिवायत और महन्त आदिके अधिकार
८५६ मुक़द्दमे के फ़ीक़ ८६० क़ानूनी कामकी पाबन्दी
...
⠀⠀⠀⠀
८६३ शर्ते
८६४ मेनेजर
८६५ धर्मादेके स्थापकका हक़
...
इन्तक़ाल
cob
...
old
...
...
...
...
edi
...
.ib
८६६ देवोत्तर जायदाद का इन्तक़ाल
८६७ बार सुबूत
८६८ इन्तक़ालके नियम
८६६ खानदानकी देवमूर्तिके धर्मादेका परिवर्तन
८७० कुक़ और नीलाम
८७१ मुश्तरका खानदानमें बटवारा
...
..6
...
ilo
...
...
और जायदाद के प्रबन्ध आदिका उत्तराधिकार
...
30
१०३६
१०३६
१०३६
१०३७
१०३७
१०३७ से १०४२
१०४२
१०४२
१०४३
...
6.0
030
840
66
...
...
...
060
...
दावा दायर करने का हक़ और ट्रम्ट तथा धर्मादे सम्बन्धी जरूरी क़ानूनी बातें
४१
पेज
१०३२
१०३२
१०३३
१०३४
१०३५
..
१०४३
१०४४
१०४६
२०४६
२०४८
२०४८
१०४६
१०५०
१०५१
८७२ अदालतोंका अधिकार
८७३ ट्रस्ट भङ्ग करनेके कारण अदालत में दावा
१०५२ १०५२
८७४ सार्वजनिक धर्मादेके दावेमें जानता दीवानी की दफा ६२ का असर १०५३
Page #57
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________________
हिन्दुला
ANA
१०५६
२०५७
१०५८ १०५८
१०६०
दफा
विषय २७५ दृस्टी श्रादिके हटानेका अधिकार ... ८७६ हटाये जानेका कारण ६७७ हटाये हुए मेनेजरकी जगहपर दूसरा आदमी ६७८ खैराती और धार्मिक धर्मादोंकी देखरेख तथा व्यवस्था
७६ धार्मिक धर्मादेका कानून ६८० सार्वजनिक धर्मादा
धर्मादोंका कानून रिलिजम् एन्डोमेन्ट एक्ट नं० २० सन १८६३ ई.
की
आवश्यक आज्ञायें ६८१ धार्मिक दूस्टकी जायदादका इन्तकाल ६८२ दूस्ट आदिका हक अधिकार और ज़िम्मेदारी ८८३ कमेटीकी नियुक्ति ... ८८४ कमेटीके मेम्बर कैसे होना चाहिये ८८५ मेम्बर स्थायी होगा ८८६ मेम्बरके खाली स्थानकी पूर्ति ८८७ कोई मेम्बर ट्रस्टी नहीं हो सकता ८८८ कमेटीके अधिकार ८८९ आमदनी और खर्चका हिसाब ८१० प्रत्येक आदमी कब दावा कर सकता है ८६१ कैसे लाभके लिये दावा किया जा सकता है ६१२ अदालत ट्रस्टका हिसाब मांग सकती है ८१३ सामाजिक या धार्मिक उद्देशोंके धर्मादे ६४ सरकार अपने हाथमें नहीं रक्खेगी
१०६१
१०६२ १०६२ २०६२ १०६२ १०६४ १०६४ १०६५ १०६५ १०६७ १०६७ १०६८ १०६८
॥ इति ॥
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________________
विषय
अनुलोमज
- उत्पत्ति और दरना
हिन्दू-लॉकी विषयवार सूची
- विवाह जायज़ माने गये
- विधवा विवाहमें जायज होना
परार्क
पेज
७५
८९
१३,१४
अज्ञान
- का गोद लेना
१५४
१५९
- गोदके सम्बन्ध में मियाद तथा कानून का फरक १५५ - कोर्ट आफ वार्डस्के ताबे होनेमें गोद - मृत पति के लिये विधवाका गोद लेना विधवाका गोद लेना
१७०
१७२
गोद लेनेका अधिकार दे सकता है
२०७
- नाबालगी और मलायत - मियाद नाबालिग रहने की
३४५ से ४२६ ૨૪મ - अदालतसे वली नियत होने पर मियाद ३४५ - वली होने के अधिकारी कौन लोग हैं - विवाहिता बहनका वली न होना
३४६
३४६
३४६
२४६
- माताका अधिकार वली होने का - रिश्तेदार कब वली बनाये जाते हैं। - वली, नाबालिग व अदालतका अधिकार ३४७ - बाप, अज्ञानका पूरे अधिकारोंसे वली है ३४७ - वसीयत के द्वारा कौन, बली नियत करेगा-३४७ - वसीयत द्वारा नियत हुए बल्ली के अधिकार ३४८ - माताको हक नहीं है कि वसीयत से बली नियत करे
૮
.-छोटे बच्चेका वली कौन है
३४९
- नाबालिग भी नाबालिका बली होगा३४९
- शामिल शरीक खानदानमें बहायत ३४९, ३५७
- पत्नीका वली पति है
३५०
- माता पिता बली कब नहीं रहते
.-३५१
विषय
पेज
- मजहब बदलने से वलीसे खारिज होगा ३५२ - ईसाई बापका दावा हिन्दू लड़का पानेका ३५३ -जातिच्युत होनेसे वलीका न रहना
૪
- मजहब बदलने से इक्रका चला जाना ३५४ ३५५ - अनौरस पुत्रका बली कौन होगा ३५५/३५६ ३५७/३५८ ३६१।३.६२
- वलीक अधिकार
- जब भाईने जायदाद बेंची दो R
- गर्भावस्था में बालकका हक्क न मारा जायगा ३६४ -कुदरती वलीका मुवाहिदा ३६५/३६६ - जो काम बलीकी हैसियतसे न किया गया हो उसकी पाबन्दी नहीं है
३६७ - वलीकी तरफ से कर्जेका मान लिया जाना ३६८ - नाबालिग के मुकदमे में सुलहनामा १६८ - कौन काम नाबालियको पाबन्द करेंगे ३७०
- वळीकी जिम्मेदारी व दौरान मुकदमे में वलीका नियत किया जाना
३७२
दाएं व कानून
- अर्जीका नमूना वलीके नियत करनेमें ३७२ - गार्जियन एण्ड वार्डस् एक्टकी जरूरी ३७२ से ४२६ - के दावेमें बापका समझौता करना ५२२ - होने पर मुश्तर का जायदाद कैसे खरीदी जाय ५१५ अनाथ बालक गोद नहीं लिया जासकता अनौरस पुत्र
- पुत्रका वली कौन है -कोपार्सनर होना
- शूद्र कौम में इक
- पैदा इससे इकका न माना जाना
- सरवाइवरशिपका हक
-जायदादका मिलना कब होगा
२०४
३५५
४४६
४४७
४४७
Tre
२४८
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________________
हिन्दू-लॉ
-
.
७०८
६६२
..
.
विषय
पेज | विषय
पेज यापके भाई के साथ अनौरस पुत्रका हक ४४९ | -जरूरतंका दबाव
८५५ -बटवारा करा पानेके अधिकार १२१७१. -भरण-पोषणके खर्च वाली जायदादका ८९५ का उत्तराधिकार
७०६ खरीदार जायदादका -शूद्रोंमें गैर कानूनी पुत्र ३०७ उत्तराधिकार -वैश्याके पुत्रोंका
-से च्युत पुरुष गोद ले सकता है -उसकी औरस औलादको ७०९ -पारिभाषिक शब्दोंकी सूची -कब न मिलेगा
-किस किस्म की जायदादमें होता है ६६४ -भरण पोषण पानेका हक
-कैसे वरासत निश्चित की जायगी
६६५ -स्त्री धनमें हक कब मिलता है
-वारिस जायदादका कैसे निश्चित होगा ६६७ भयौतक स्त्रीधन-देखो स्रोधन
-मर्द जायदादका पूरा मालिक होता है ६६८ आपस्तम्ब
१३।१४ का हक फौरन पहुँच जाता है ६७० आचार-देखो स्वाज
बेटा, पोता, परपोतेका इकट्ठा हकदार होना ६७. औरस पुत्र-देखो पुत्र
के हकका इन्तकाल नहीं हो सकता ६७३ भारतोंकी वरासत
७८९ । -सरवाइवरशिप कितने वारिसों में होता है ६७३ -बनारस, मिथिला' बंगाल स्कूलकी
-दाय भागमें
६७५ -बम्बई और मद्रास स्कूल में
-किनमें नहीं होता नम्बई प्रान्तमें वारिस होना
(स्त्रियोंका उत्तराधिकार ) गोत्रन सपिण्डकी विधवाएं
-कहां पर कितनी वारिस मानी गई है -रण्डी (वैश्या) की वासत
-इक्र महदूद है -विधवाका पुनर्विवाह
-कानूनी जरूरतें इस्टापुल
-विधवाकी वगसत -किसे कहते हैं ८२६ -प्राप्तकी हुई जायदाद
७.३ -मब वारिसने कुछ जायदाद लेली झे
-स्वयं पैदा कीहुई जायदाद -जब जायदाद हिबाके तौर पर दी गई
-बदचलनी लड़के, पोते आदिकी पाबन्दी
-सस्वाइवर शिपका हक न जावेगा ७१७ -भिन्न भिन्न मामले
६२८
-जायदादका इन्तकाल, इकरारनामा विधवा और भावीवारिसका ८२९ -लड़कीकी वरासत -भावीवारिसकी रजामन्दीके सहित इन्तकाल ८२९
-बदचलनी
७२३७२५ -नया मुकद्दमा प्रिवी कौन्सिलका
-माताकी वरासत
७३१ -सौतेली माता
७३३ -सीमावद्ध वारिसका जायदादमें करना
दादीकी वरासत
७३० इन्तकाल
-लड़केकी लड़की सीमावद्ध वारिसका जायदाद करना
लड़कीकी लड़की जीवन भरके लिये
६५५ . नहन
८२७
८०७
Page #60
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________________
विषयवार सूची
विषय
,
mrm
AAA
विषय पेन ।
पेज -स्त्रीधनका उत्तराधिकार
-भाईके लड़केकी वरासत (मदोका)
-भाईके पोतेकी वरासत -मौका मिताक्षरा-लॉके अनुसार
-दादाकी वरासत -वारिस कैसे निश्चित होगा
-चाचाकी वरासत -वरासतका सिद्धान्त
-चाचाके लड़के की वरासत -बनारस, मिथिला, मदरास स्कूलमें
६९७
-चाचाके पोतेकी वरासत -गुजरात, बम्बई, कोकन स्कूलमें कैसे मिलेगा ६९९
परदादाकी वरासत -बम्बई के दूसरे हिस्सोंमें कैसे मिलेगा ६९९ | -ददाके भाईकी वरासत -लड़के, पोते, परपोते की वरासत
-दादाके भतीजे की वरासत -बटवाराके बाद जब लड़का पैदाहो ७०५ -दादाके भाईके पोतेकी वरासत
७४२ -शामिलशरीक और बटे हुए लड़के ७०५ -समानोदकामें वरासत मिलने का क्रम ७५७ -विधवाके पुत्र
-कानूनी वारिस न होने पर उत्तराधिकार ७८४ -अनौरस पुत्र -बहनके लड़केकी वरासत
-साधूकी जायदाद
७८९
-सन्यासी या यति -सपिण्ड शब्दका अर्थ
१८०६९३
-वंचित वारिस नगोत्रन और मिन गोत्रन सपिण्ड६८.१९९२
-अयोग्यताका असर -किसे कहते है
-अयोग्यता चली जाने पर -सातवीं और पांचवीं पादीके बाद न होना ६८३
-अयोग्य पुरुषकी की -सात दर्जेके सपिण्डका नक्शा २८४
-धर्म त्याग देनेसे -पिण्डदान और जलदानके सपिण्ड ६८५
-संसार त्याग देनेसे
८.५ दोनोंमें फरक नहीं है
चार सुबूत किस पर है -सपिण्ड ५७ दर्जेके
-वसीयतके द्वारा बंचित किया जाना -सपिण्डोंकी वरासतका पहला सिद्धान्त ७४३
उमरका ग़लत बताना -दूसरा सिद्धान्त -तासरा सिद्धान्त
-जब नाबालिगने अपनी उमर गलत बताई हो ३६4 -सकुल्यका अर्थ और नक्शा १८१६८७
-नं. २१ सन् १८५. लेक्सलोकी एक्ट -समानादक और उसका विवरण १८८ -सपिण्ड और समानोदक
-नं. १५सन १८५५विडोरिमेज़एक्ट १०६०९१ -संख्या निश्चित नहीं है
६९५
-०२१ सन १८७० इन्डियन सक्शेसन एक्ट .. -तीन क्रिस्मके वारिस जायदाद पायेंगे
-नं. २९ सन १९२५ " , "
-नं. ९सन १८७५ इन्डियन मेजारिटी एक्ट १० -बन्धुओंकी संख्या निश्चित नहीं है ६९५ लड़कीके लडकेकी वरासत
-नं०२१ सन १८६६ नेटिव्कनवर्ट एक्ट १० -आचार्योंकी राय
७२/७२९
-नं. ४ सन १८८२ ट्रान्स्फर आफप्रापरटी एक्ट. बापकी वरासत
-नं. 4 सन १८९० गार्जियन एन्ड वार्डस एक्ट -भाईकी बरासत
१३५२ से १२१
.
.
.
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पेज
-
-
८५८
.४७
हिन्दू-लॉ
morror.ammhrrrrrrrrrrrrrrrrrrr विषय
पेज । विषय -चाइल्ड मेरेज रिस्ट्रेन्ड एक्ट सन १९२८ ई. -जन्म स्थानका कानून माना जायगा -नं० ४५ सन १८६० ताजीरात हिन्द । -अदालतका अनुमान
88188 -गवर्नमेन्ट आफ इन्डिया एक्ट सन १९१५ १२ -मूल निवास स्थान के नियम ले जानेका -नं. १५ सन १८८२
अधिकारका प्राप्त होना -नं० १२ सन 1८८७
| -पुरोहित के कार्यसे, कानूनके बदलावका प्रमाण ४६ रेगुलेशन नं. ४ सन १८२७
| कानूनी ज़रूरते -नं. ३ सन १८७३
-खानदानी कौन जरूरतों के लिये जायदाद -नं. ४ सन १८७२
१२ बेची जासकती है ३६१ से ३६३ नं. १२ सन १८७८
-औरतोंकी कानूनी ज़रूरतें
८५७ -नं. १८ सन १८७६
१२ -'आवश्यकता' शब्द का अर्थ ८५. -नं. ३ सन १८७७ रेगुलेशन
१२ -तीर्थ यात्रा, दान, आदि -नं. २. सन १८७५
-कर्जा अदा करना
८५९ -नं. १३ सन १८९८
-सरकारी मालगुजारी -नं०५सन १९०८ जाबता दीवानी
-ज़रूरी मुक़द्दमोंका खर्च -कानून शहादत
-मरम्मत आदिके खर्च
८६१ -सेलेक्ट कमेटीका पास किया हुआ विळ
-भरण-पोषणका खर्च नं. २. सन १९३७ ई. १९१।२४ -बेटी के विवाहका खर्च
८६२ -नायक गर्ल्स प्रोटेक्शन एक्ट नं. २
-व्याहके समय बेटीको दान
८६३ ___सन १९२९ ई. ४२७ से ४३. -पतिके भाई की लड़की की लड़की का ब्याह ८६३ -हिन्दू उत्तराधिकार संशोधक एक्ट नं. २
-अधिकार कहां तक काममें लाया जायगा ८६४ सन १९२९ ई.
.८०७ कानून-देखो एक्ट -दि हिन्दू इनहोरेटेन्स रिमूवल् आव डिस्- कुल्लूकभट्ट
एनिलिटी एक्ट नं० १२ सन १९२८ ८१ कुलदेवता-देखो धर्मादा इन्डियन सेकशेसन एक्ट नं. ३९ कोपार्सनरी-देखो पुश्तरका खानदान सन १९२५ई.
कोपार्सनर-देखो मुश्तरका खानदान क्रजें
खरीदार -सीके लिये हुए कर्ज जिनकी पानन्दी पति परहै ११० -सीमावद वारिससे जायदाद खरीदने में -जो जायदाद पर न लिये गये हों ८७॥ -रेहन रखने आदिमें
८५४ कब्ज़ा मुखालिफाना
-भरण पोषणके बोझ वाली जायदादका ८५८ -मुस्तरका खानदानमें नहीं होता ४३७ ख़ानदानी कानूनी जरूरते-देखो -स्त्रीधनके बन जानेमें
___कानूनी जरूरतें कानून साथ जाता है
| गर्भक बालकके हक एक जगहसे दूसरी जगह पर जा बसनेमें -मांके गर्भ में जर लड़का हो और बाप जाय
कौन कानून माना जायगा २५ .दाद वेंचदे तब वह रद्द करा सकता है ३६४
११४
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विषयवार सूची
गोतम
जातिघ्युत
३५४
१५३
१५४
परगदलना५४
विषय पेज | विषय
पेज -पुश्तरका खानदानमें हक ५४९६५५:- -जैनियोंमें गोद हिन्दू लॉके अनुसार होगा १५० गार्जियन एन्ड बार्डसू एक्ट-देखो एक्ट -कौन दत्तक ले सकता है
१५. १३।१४ -क्वारा या रडवा
१५. घरबारी गोसाई
२४|४
-अङ्गभङ्ग पुरुष, अंधा, छला, पागल, गूगा १५१ -होनेसे मां या बाप भी वली नाबालिगके
-गोदके समय किन बातोंका ध्यान रहे १५२ नहीं रह सकते
-जिसकी स्त्री गर्भवती हो
१५२ जाति सम्बन्धी मुकदमें
-शूद्रों में बिना प्रायश्चित्तके जायज -केवल जातिक प्रश्नका मुकद्दमान सुना जाना १६
-उत्तराधिकारसे च्युत पुरुष
२५३ -जातिसे निकाल देना
-कोदीका गोद लेना -सामाजिक इककी हानि
-पुत्रके अयाग्य होने पर लोद लेना
-पुत्रके संसार त्यागने पर गोद लेना १५४ -विधवाका अधिकार गोद लेनेका १८५/१९९ नाबालिगका गोद लेना
१५४ -गोद लेनेके लिये विधवाको पतिकी आज्ञा
-मियाद तथा प्रान्तोंका फरक
१५५ जरूरी नहीं मानी जाती है
-पति के जीतेजी, पत्नीका गोद लेना १५७ -दोहिताका गोद लेना
२३८
-गोदके बदले में रुपया दिये जानेका असर १५० -विवाहा हुआ लड़केकी गोद
२४८
-'विभूतिविदाकृत्य' करके गोद लेना १५० -गोदमें किसी रसमकी जरूरत नहीं है २६०
'-चुनासामागरासियोंमें गोद लेना १५८ -देव मदिरका प्रिवी कौन्सिल केस
-ण्डियों या नाचनेवाली औरतोंका गोद १५८
-कोर्ट आव वार्डसके ताने जायदाद होने -कोन कहलाता है
पर गोद लेना -पुत्र का माना जाना -साधारण अर्थ और उद्देश
-विधवा स्त्रीका गोद लेना
१४३ -अगरवालोंमें धार्मिक कृत्यों के लिये
-स्कूलोंका मतभेद और प्रमाण गोद नहीं होता
१४४
-शास्त्रियों की व्यवस्थायें -चाल किस कौममें केसी है
-महामहोपाध्याय श्रीशिवकुमार मिश्र -किन कौमोंमें चाल नहीं है १४५
बनारसकी व्यवस्था -पुरुष या उसकी विधवा ले सकती है १४५ -व्यवस्था मौजमन्दिर जैपुर -कैसी दशामें गोद लिया जायगा १४६ -व्यवस्था अलवर राज्यकी १६९ -पुत्र या दत्तक पुत्रकी आज्ञासे गोद लेना १४७ नाबालिग मतपतिके लिये गोद लेना 1.. -वेदका हवाला शुनः शफके इतिहासको १४७ दत्तक पुत्रका कबसे अधिकार होगा .१ -एक वक्तमें एक ही लड़केका गोद लेना १४८ नाबालिम विधाका गोद लेना १७२ -नाजायज गोद कभी जायज न होगा १४८ -सासुकी स्वीकृति, ध्येय. अधिकार १७१ -पुत्र, जातिच्युत होने पर गोद लेना १४९ -अनेक विधवाओं का दत्तक लेना १७२,३१९ -पुत्रके लापता होने पर कब गोद लिया । .-संयुक्त विधवाओंका विरोध १०३ जायगा
-जन्तीकी दशाम गोद-संयुक्त विधवायें १०४
१४०
१४४
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हिन्दू-ला
पेज
२००
विषय
विषय
पेज -विधवाके गोद लेनेकी मियाद १०४ -ससुरके मर जाने पर रजामंदी १९४ -व्यभिचारिणी विधवा गोद न लेसकेगी १०४ -कुटुम्बियों आदिकी मंजूरी १९४से १९८ -सूतको गोद लेना, धमकी देकर
-पतिके मना करने पर विधवा कहां गोद दिलवाना इत्यादि
पर गोद नहीं लेगी -पुनर्विवाहित विधवाका गोद लेना १७५ विधवा माताका गोद लेना १९८ -अनेक लड़कोका गोद लेना १७५ -जैनियोंकी विधवाको पतिकी आज्ञा -पतिके मना करने पर दत्तक
जरूरी नहीं है गोदका अधिकार देनेकी रीति
-पंजाबमें गोद लेनेके लिये पतिकी -यह अधिकार किसे दिया जासकता है १७७ आज्ञा जरूरी नहीं हैं -कई विधवाओंको गोद लेने का अधि
-कौन दत्तक दे सकता है __ कार देना कहां तक जायज है १७८ -दत्तक देने के साधारण नियम २०१ गर्भवती स्त्रीको देना
-देनेका अधिकार और मत अधिकार ठीक तौरसे काममें लाया जायगा1८० -चाचाका गोद देना कब जायज है २०३ -अनुचित अधिकार देना
-सगा या सम्बन्धी नहीं दे सकता २०३ -भुवनमयीका केस
-गोद देने का अधिकार बाप नहीं -अधिकार गोद लेनेका कब न रहेगा१८४
६ सकता
२०४ -जैन विधवाका अधिकार १८५/१९९ -अनाथ बालक नहीं दिया जासकता २०४ -पतिकी आज्ञास विधवाका गोद लेना १८५ -बाप या मांकी शौकी पाबन्दी -जब गोद लेने के बहुत दिनोंके बाद
जरूरी है
२८४ रसम की गई हो
-कौन लोग गोद देने का अधिकार रखते हैं २०५ -विधवा गोद लेने के लिये मजबूर नहींहै १८६ -पिता, माता -गोद लना जब दूमरेकी सलाहसे कहा
-माई, चाचा
२०६ गया हो
-अशान गोद लेनेका अधिकार देसकताहै २०७ -विधवा और दत्तक पुत्रका इकरारनामा १८७ -ब्रह्मसमाजी, राजपूत, पुनर्विवा-कुटुम्बका लड़का गोद लेना चाहिये १८८
हिता माता -पैदा होने वाले पुत्र के लिये गोदकी आज्ञा १८८ -विधवा माता, कुष्ठी,
२०० -अय्यापिल्ले का मशहूर केस १८८ -कौन लोग दत्तक देनका अधिकार -विना आज्ञा पतिक विधवाका गोद लेना १८९ नहीं रखते
२०८ -प्रान्तों के रवान व कानूनका मतभेद १९० -सौतेली माता, भाई
२०० -सपिण्डकी मंजूरी १९०११९२११९४
-दत्तकपिता, और दत्तकमाता २.९ १९६१९७ -दादा
२.९ नामनादकेस
-पत्नि, पतिकी आज्ञाके विग्द्ध २०९ -मुश्तरका स्नानदानमें गोदकी परिस्थिति १९१ | -कौन दिया जामता है और कौन लिया -रे हुए खानदानमें गोद लेना १९२ जासकता है
२०५
से कहा
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विषय
साधारण नियम
लड़का, लड़की नहीं
- हिन्दू या हिन्दू पैदा हुआ - शौनकका वाक्य व विवरण जिससे
गोदकी चाल प्रचलित हुई
गोद सगोत्र में लिया जायगा * संगोत्र और सपिण्डों जो दर्त्तक लिया जाता है उसमें पुत्र है
- जातिमें गोद लेना
- सपिण्ड और असपिण्ड
- पंजाब व शूद्रों में
गोद लेने वाले दत्तकपुत्रकी उमेरका कम होना
विषयवार सूची
- एकलौते लड़के की दत्तक कौन लड़के गोद हो सकते हैं या कौन
गोद लिये जासकते हैं
पेज
२१३
२१४
२१७
- दोहितायां भांजा गोदमें विवाद २२३
- हाई कोटों की राय
२२४
- साला और सालेका बेटा
२२५
२.५
२०९
२०९
२०९
- दत्तकपुत्रकी शारीरिक अयोग्यता
कितनी उमरका लड़का गोद लेना चाहिये
२२५
धर्मशास्त्रकारों का मत
२२५से२३०
- बंगाल स्कूलमें उमरकी कैद २३०
- बनारस स्कूल में
२३०
- बम्बई और गुजरात स्कूलमें
२३१
- मदरास स्कूल में
२३२
२३२
- दक्षिण भारतमें, पंजाब में,
२१०
२१३
૨૨૩
२३३
६३६
- सगोत्र, सपिण्ड, असपिण्डका लड़का २३६ = सौतेला भाई
२३६
२३६
भाईका पुत्र -भाईका पौत्र
-भाईकी लड़कीका लड़का
दोहिता
२३७
२३७
२३७
२३७
- मदरास, इलाहाबाद, पंजाब, बंगाल, बम्बई में
विषय
૨૧
- जैनियोंमें, तंजोरमें, मारवाड़में -सौतेली लड़कीका लड़का, बहनका लड़का २३९ - हनका पोता; बहनकी लड़कीका लड़का २४० —एकलौता लड़का
२४०
-विवाद हुआ लड़को - सौतेला पुत्र
- चाचा का पुत्र व पौत्र आदि 'जेठा पुत्रं, भानजा, मांकी बहनका पुत्र, साला, सालेका पुत्र - सालेको पोतो, सालीका बेटा, स्त्री
की बहनकी लड़कीका लड़का
४५
पेज
- पालक पुत्रं, पुत्रिका पुत्र
- अनाथ बालक, सौतेला भाई, भाई - विवाह हुआ लड़का
२४१
२४२
२४२
૨૪૨
१४४
- बापकी बहनका पोता
२४४
-ब्रह्मपुत्र ब्रह्म
२४५
- ४० वर्षका बिन ब्याहा आदमी होंमें २४५ - अपरिचित पुत्र
२४५
यज्ञोपवीत से पहले
२४५
विवाहसे पहले शूद्रोंमें
२४६
- त्रेश्याका लड़की गोद लेना
२४६
—कौन लड़के गोद नहीं लिये जासकते हैं।
૨૪૨
२४६
२४७
२४८
T
૨૧૮
- बंगाल, मदरास इलाहाबाद, मध्य भारत, बनारस तथा जैनियोंमें -स्वयं दत्तक पुत्रं, मांकी बहनका लडका २४९ - रुपया देकर खरीदा हुआ लड़का -लड़की का लड़का
२४९
२५०
- बद्दनका लड़का, सौतेली बहनकी बेटी
का बेटा, चाचा, मामा दत्तक पुत्र दत्तक पिताके वंश में गोद लेना - दत्तक पुत्रका दुबारा गोद न लिया जाना २५१
२५१
२५०
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________________
.........
विषय
पेच যাৰীৰিক ॥ মানসিক স্বীক
-दत्तक पुत्र दूसरे दत्तक पुत्रका वारिस है १०१ बाले लड़के
-गोद लेने वाले बापके भाईका वारिसहै २८१ -तिक सम्बन्धी आवश्यक धर्मकृत्य क्या है १५० -विधवा कोई ऐसी शर्त नहीं लगा :-आवश्यक कृत्य
२५१
सकती जिससे दत्तकको हकम मिले २८१ -कौनसी कृत्य सबमें जरूरी है ५५३ -कौन बातोंकी रुकावटें असली कुटुबमें हैं २८१ -द्विजोंमें दत्तक हवन २५२५७२५८ -अब पाप गोद गया हो तो लड़के का हक २८ -शूद्रोंके लिये हम जरूरी नहीं
-इत्तकपुत्र स्वाभाविक पुत्रके समान है २८५ माना गया
२५५ -सपिण्डों तथा दादाके चचेरे भाईका बारिस -सतक या दूसरी अशुद्धतामें गोद लेना २५७ -जान बूझकर दत्तककी रसम त्यागनेमें २५९
-नानाका वारिस होगा
२८२ -वसीयतसे गोद और दान पत्र
-माके स्त्री धन और सम्पत्तिका वारिस होगा २८२ -पंजाब व जैनियोंमें किसी रसमकी
-सौतेली मा की जायदादका वारिस नहीं होता २० खारूरत नहीं है
२६.
-दत्तक पुत्रकी निजी जायदाद उसके साथ -लका द्वीपमें गोदकी रसम २६०
जायगी
२८३ -दत्तक परिग्रह विधान
२६०
-जन मौरूसी जायदादका मालिक लड़का -दत्तक (गोद ) लेनेकी पूरीविधि
गोद लिया जाय
२८४ शास्त्रोक्त मुहूर्त सहितः २६० से २७२ -असली मा और गोद लेने वाली मा का -दत्तक लेनेकी शहादत कैसी होना चाहिये २७१
फरक व अधिकार क हक २८५ -गोद लेना कैसा सावित किया जाय २७३
अनेक स्त्रियोंमें से एक ही गोद लेगी, कौन है २८५ -गोदका अनुमान कम किया जायगा २७१ -सौतेली मा सौतेले बेटेकी वारिस नहीं होगी २८६
-मिताक्षरा स्कूल में दत्तकका अनुमान २७४ | -सौतेली मा कौन सौतेला बेय वारिस -कुटुम्बियोंके साथ हिल मिल
न होगा
२८६ जानेका असर
२७५ -दामुष्यायन दत्तकमें असली माताका हक २८७ --विरादरीमें स्वीकार किया हुआ २७६ । -दत्तकके बाद असली लड़का पैदा होने पर -दत्तक पुत्रको असली खानदानमें
जायदादमें भाग
२० __ लौटनेकी रुकावटें
२७८ -धर्मशास्त्रकारोंका मत
२८९ -गोद साबित हो जानेका फैसला
-बंगाल स्कूलमें भाग
२९. ___ सबको पावन्द करेगा
-बनारस स्कूलमें भाग
२९० -दत्तक लेनेका फल क्या है
-मदरास स्कूलमें भाम
२९. -दत्तक पुत्र असली कुटुम्बकी जाय
-बम्बई स्कूलमें भाग दादका वारिस नहीं होता
-जब एकसे ज्यादा लड़के असली -असली कुटुम्बमें शादी नहीं कर सकता २८. पदा हो तो भाग -दत्तक पुत्र दादाके चचेरे भाई तथा
-गाल स्कूलमें भाग सपिंडका वारिस होगा २८. -बनारस स्कूलमें भाग
२७८
२७९
२९०
२९१
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________________
विषयवार सूची
विषय
पेज -मदरास स्कूलमें भाग -बम्बई स्कूलमें भाग
२९१ -शूदा दत्तक और असली लड़केका हक २९२ -असली लड़के के होते दत्तकके लड़केका हिस्सा २९३ -शामिल शरीक परिवारमें दत्तकका हिस्सा २९३ -मदरासमें दत्तक पुत्र, असली लड़केका
मालिक होता है -गोद जानके बाद असली कुटुम्बसे खारिज
होना
-असली कुटुम्बकी जायदादमें कर हिस्सा मिलेगा?
२९५ -जब व्याहा या सन्तान वाला लड़का
गोद लिया गया हो तो उसके
लड़केका हक बालिगपुत्रका इकरार जब गोदसे पहिले
हो गया हो दामुष्यायन दत्तक
१९८ से नवाज नियोगसे चली
२९९ -धर्मशास्त्रकारोंका मत -कानूनमें कन माना जाता है
द्वामुष्यायन और सादे गोदका फरक ३.९ -अनित्य द्वामुयायन
नम्बोदरी ब्राह्मणोंमें जायज होगा। -जायदादमें भाग जा असली मात्र
पैदा हो जाय -भाग जाननेका नकशा -विभागका नतीजा -पंजाबमें असली बापका धन पाना ३१
-पांडेचरी में हक -पना सम्बन्धी अन्य जरूरी बातें से १२३
तक बाजायज होने पर दत्तकपुत्र
का विचार गोद लेने के बदले में रुपया देनेका परिणाम
३१५
विषय -नाजायज दत्तकके हकमें दान या
वसीयत -दत्तक नाजायज होने पर हिना
नाजायज न होगा -किस सूरतमें वसीयत जायज है ३१५ -उसके हक्रम वसीयत जिसे वह प्रेम करता हो
१५. -राजा साहबका मशहूर केस वसीयत पर -बसीयतनामा कब जायज होजायगा ३११ -जब अनेक स्त्रियोंने गोद लिया ३१ -हिना या वसीयत गोदसे पहिले हो ३१.
-हिवानामा कर जायज होगा ३.४ -दत्तकपुत्र जायदाद वापिस ले सकता है ११ -दत्तकसे विधवाका अधिकार घट जाता है। अनेक विधवाओंमें की विधवा दत्तक
ले सकती है -पदोस्कर्ष वारिसका हक दत्तकसे नए
नहीं होता -रामकिशोरका मुकदमा -बद्रीदास बाला मुकदमा -विधवा अपने लिये कपका गोद नहीं।
ले सकती वेश्या या नायकिनका सड़की गोद लेना १९५ -पुरुष दत्तकमें लड़का ही ले सकता है
लड़की मही -कृत्रिम पुत्र
१३४ से १२०
-धर्मशासकारोंका मा
१२५ -सक नया ऐसा दसक नहीं माना जाता १२५ -मिथिलामें कृतिम दचक जायज्ञ है ३२५ -कृत्रिम दत्तक और दत्तकका फरक ३२५
-अफना द्वीपमें इसी तरह का दूसरा दत्तक ३१. दत्तक सम्बन्धी नालिशोंकी मिपा १२५
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________________
९९२
हिन्दू-लों wwmummmmm विषय
, पेज विषय
पंज -भावी हकके रक्षित रखने के लिये नालिश ३२८ -देनेका अधिकारी कौन है -दत्तक मंसख करापानेका दावा कब होगा ३२९ । -लेनेका अधिकारी कान -दावा दत्तक मंसूखीका ६ सालके अन्दर -पतिका दान अपनी बा को होना
-अगर स्पष्ट अधिकार न दिया गया हो ९६३ -कानून मियादकी दफा ११५ की व्याख्या३३३ -पीढ़ी दर पीढ़ीका दान
९६४ -गोद मंसूखीका दावा जब गोद लेने -स्त्रीका सीमावद्ध अधिकार ९६४ वालेके जीवनमें हो
-स्त्रीके पूरे अधिकारोंका वर्णन -दत्तक जायज करार दिये जानेकी नालिश ३३७ -स्त्रियोंको पूरे हक़ मिल सकते हैं ९९६ -अगरवाल वैशोंकी उत्पत्ति ३३९ से ३४३ -स्त्रियोंका जिन्दगी भरके लिये अधिकार ९६६ -दत्तकका परिशिष्ट
-मुशरका खानदानके मम्बरोंको पटवारा करा पानेका हक
-मृत्युके समय दान
९६८ दामदुपट
में कौन चीज नहीं दी जासकती -किसे कहते हैं
९४८ -कब मसुख होगा? -कहां कहां पर यह माना जायया
वसीयत द्वारा सीमावद्ध दान में मियादका कानून
-दो व्यक्तियोंके लिये हिवा -अब मूलधनका कोई भाग अदा किया । देवता
९५० -मुश्तरका खानदानके कुल देवता -पीछेके इकरारसे व्याजका मूलधन होना ९५० देवदासी-देखो रण्डी -पुकदमा दायर करने के बाद लागू नहीं होगा ९५१ धमकी -इनफिकाक रहेनसे लागू होना
९५१ |-धमकी देकर विधवासे गोद लेवाना नाजायज है १७५ -कोन आदमी हक रखते हैं
९५२ धर्मच्युत कैसे करें में लागू होगा
९५३ -होलानेपर बटवाराके समयका प्रभाव
धार्मिक धर्मादे -विवाहमें कन्याशन
-उद्देश्य कायम करनेका -बिवाइमें विधवाका दान ८८१९. (३)]-किस तरह कायम करना चाहिये -मुस्तरका खानदानकी जायदाद ४६११४७२-कायम करने वालेके अधिकारोंका वर्णन १०.. -मुनाफेका या वसीयत
कैसी दशा होना चाहिये -भमुख कगना ५४४ -परपेच्युएटीका सिद्धांत
१०.२ -सी धनके स्थावर जायदादका
-जैनियोंका प्रिवीकौन्सिल केस -शब्द की उत्पत्ति और मूल अर्थ
-मियाद नहीं हो सकती -धर्मशास्त्रोंमें चार प्रकारके दान
-आर्वजनिक आराम का हक १००९ प्रिवी कौन्सिलका, लखनास्टेटका मशहूर केस ९५६ -किसी मुद्दतके बाद कायम करना
-नरसिंहराव बनाम बेटोमहालक्ष्मी ९५६ /-सार्वजनिक और निजके धर्मादे कम्मा होना दानकी जायदाद पर ९५८०९६१ /-जायदाद पर बोस
गया हो
९५५
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विपयवार सूची
५३
विषय
पेन
विषय -निश्चित होना परमावश्यक है
-चेलोंके हक के बारेमें कानून १०२८ -भिन्न भिन्न तरहके दान जो नायज हैं १०१२-इन्तकाल जायदादका १.२९१.४१ -खरातके कामके लिये दान मुश्तरका
-खानदानी देवमूर्तिको खर्च न मिलेया १०३२ मेम्बरोंको १०१२ -शिवायतके अधिकार
१०३२ -शिक्षाको संस्थाओंको
१०१२ -मूर्ति के चदावेका हक -गरीबांको भोजन
-कब्जा और प्रबन्धका अधिकार -चिकित्सालय व अस्पताल
-प्राचीन रवाज कायम रहना जरूरी है १०३६ नारीव रिश्तेदार
१.१३ बहुमत माना जायगा -सदावर्त
-ट्रस्टका कायम होना आदि -शिव व विष्णु मंदिर आदि
-नियां मेनेजर हो सकती है
१.३.. -कालीदेवीकी पूजा
१.१४ -मेनेजरका खर्च और हैसियत -शिवरात्रि व अनक्षेत्र
-मेनेजर, शिवायत, महन्तके आधिकार १०३७ अनिश्चित दान कौन कहलावेंगे १०१५-दृस्टी होना स्थापकका
०३२ -धर्मके लिये सिर्फ दान
-आमदनीका खर्च होना -सार्वजनिक खैरात के लिये
-हिसाबकी जिम्मेदारी -अच्छे काम या सराकम
-मंदिरके संप्रदाय
१.३७ -खास और उचित काम
-मुकद्दमेके फरीक
१०४२ -वसीयत करने वालेकी पसंद
-कानूनी कामकी पाबंदी
२०४२ -हमारे ठाकुर द्वाराके ठाकुरजीके नाम .... -दावाकी मुदत
२०१३ -धर्माद। असली होना चाहिये १०१७/-हक मुखालिफाना
१०४ -सुबूत अदालतका
१०१९।१०५८ -टूस व धर्मादकी मायनादमें प्रबन्धकी अदालत व्यवस्था निश्चित कर देयी १०२० वरासत
१.५३ -कभी खारिज नहीं हो सकता १०२. -शरायत
१०५ देव पूनाका धर्मादा
-मतेजाके अधिकार आदि -देवताका मालिकाना हक
-स्थापकका हक -खन्डित या खोई हुई मूर्ति
-सुबूतकी जिम्मेदारी
१०४८ -घरल् धर्मादा
दन्तकालके नियम
१०४८ मठ किसे कहते है त्यादि
१०२४-खानदानी देवमूर्तिके धर्मादेका परिवर्तन १०५ महन्तके आधिकार
की और नालाम
०५. -आमदनी पर आधिकार
१०१६ -पुस्तरका खानदानमें वटवार -मूलधन पर कैसा है
१०२६
-दावा करने के हकका वर्णन -निजकी नायदाद
-अदालतोंका अधिकार -महन्तका पागल हो जाना
२०१७ -सार्वजनिक धर्मादमें दावा महन्तकी नियुक्ति व वरासत ११२७ -रटी भादिके हटाने का अधिकार
१.२७
Page #69
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हिन्दूला
विषय
पेज । विषय -हटाये जाने का कारण
१.५५-कानूनी होना और जांच -बैराती और धार्मिक धर्मादोंकी देखरेख १०५८-१४ प्रकारके और उनकी व्याख्या -कानूनको दफाओंका वर्णन
-पुत्रिका पुत्र र विवाद व अर्थ -सार्वजनिक धर्मादा
-लड़कीका अपने नानाका वारिस होता है १३४ -टूट की जायदादका इन्तकाल
-कानीन पुत्रकी व्याख्या और वारिस होना १३५ -हक, अधिकार, जिम्मेदारी
-कृत्रिम पुत्रकी व्याख्या १३६,३२४से ३२७ -कमेयकी नियुक्ति
-दत्तक पुत्र
१३६ - कमेटीके मेम्बर कैसे होना चाहिये
-क्षेत्रज पुत्र और नियोगकी उत्पति -मेम्बरके खाली स्थान की पूर्ति
-नियोगकी चाल मनुके समयमें कोई मेम्बर दूरटी नहीं हो सकता १९६४-पंजाबका खाज
१३८ . -कमेटीके अधिकार
-कौन माने जाते हैं ? -भामदनी और खर्चका हिसाब १०६५ -औरस और दत्तकका माना जाना १४१ -प्रत्येक आदमी का दावा कर सकताह १०६५ -पुत्रोंके दर्जे और उनके दोंका विचार १११ -कैसे लाभके लिये दवा किया जा
वैवाहिक सम्बन्ध टूटनेके २८० दिन के अंदर । सकता है
लड़का पैदा होनेमें वह औरस माना जायगा ५६ -अदालत ट्रस्टका हिसाब मांग सकतीहै।०६७
-केजाति व्युत होनेपर गोद लिया जाना १४९ सार्वजनिक या धार्मिक उद्देशों के धमोद १९५८ के लापता हो जानेपर गोद लिया जाना सरकार अपने हाथ में नहीं रखेगी २०१८
-कृत्रिम पुत्रका दत्तक नारद
-मिथिलामें माना जाता है ३२५ नाबालिप-रेखो अशान
-बापके क्रोकी जिम्मेदारी ५५८से५९६ सायक कन्या संरक्षण ऐक्ट-देखो ऐक्ट
-वे कानूनी कर्जे नियोग
-कानूनी कर्जे -की पैदाइश और प्रमाण व इतिहास ११७ -अधिकार आर इन्तकाल ५६८से५७१ की चाल मनुके समयमें कमजोर होचली थी १३८ | -कर्तव्य और जिम्मेदारी
५५८ नावका बाजे पति के छोटे भाई के साथशादी १३९ पराशर
१३॥10-पुत्रका कर्तव्य और जिम्मेदारी पल्ला-देखो विवाह
-किस तरहके कर्जके लड़के पावन्द और। परपेच्युएटी
१.०२ किस कर्नके नहीं प्राइमोजेनिकर-देखो बटवारा
-अनुचित कामों के लिये कर्ज
-पुत्रों का हक कब चला जाता है -संख्या और दरमा
as-पुत्रेपर कब डिकरी होगी नाम और विस्तारका नकस
१-कर्ज देने वालेका कर्तव्य व जिम्मेदारी ५६५५५८५
-सूद कितना कब कैसे दिया जायगा ५६. की आवशकतार अब
१२९/-नापम अधिकार व जिम्मेदारी
पुराण
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विषयवार सूची
noram
पेर
विषय
पेज ।
विषय -जायदादके इन्तकालका
में पत्नीका अधिकार -पितामह द्वारा रेहन
५७०३५७१
-में माताका अधिकार -संयुक्त परिवारका पिता
५७० -में दादीका अधिकार -पहलेके कोंके लिये रेहन
-में परदादीका अधिकार -पिताकी जिन्दगीमें पुत्रोंकी जिम्मेदारी ५८७
-स्त्रीधनका मुजरा होना -जब लड़के फरीक न बनाये गये हों तो पाबंदी ५७६
-कौन स्त्री हिस्सा नहीं पाती नालामसे पुत्रोंके हकका चला जाना.
-वारिस होना -कानूनी प्रतिनिधि कौन है?
५०३ -बटवारेसे मिली जायदाद -बार सुबूत
-विक्रीका असर इक पर -मरनेका बार सुबूत
५८८ |-हिस्सा निश्चित करनेका कायदा १२३ -पुत्रोंपर नालिश करनेकी मियाद ૧૮૮
-सिद्धान्त हिस्सा मिश्चित करनेका -ऐसे कर्जे जिनकी जिम्मेदारी जायदादपर -अधूग बटवारा
५८९ -बटवारेमें बापके हक व अधिकार -नापके कर्जेका पार पुत्रकी निजी जायदाद । -कमती ज्यादा बटवारा करनेका हक १२७ पर नहीं है
५८९ -पहलेसे अगर हिस्सा रेहन हो तो -दूसरे हिस्सेदार जिम्मेदार नहीं है
५९२-कुछका कट जाना और कुछका शरीक राना २६ -बापके कर्जे बुरे कामोंके लिये ५९६/-भिन्न भिन माताओंके पुत्रीका हक -बापके कर्ने जो कानूनी माने गये हैं ९ -कौन जायदादका बटवारा होगा प्रोवेट
-किसका बटवारा होगा व किसका नहीं ६३० वसीयतका प्रीवेट लेना
-जो जायदाद बटन सकती हो -कैसे लिखना चाहिये
बटवारेकी जायदाद फैक्टमवेलेट
|-अलहदगी और बटवारा -फंक्ट मवेलेटका सिद्धान्त विवाहमें
-अलहदगीका सुबूत
६४७ बटवारा
जो जायदाद छूट गई हो
६४. -साधारण नियम
में इरादेका प्रश्न हकदार कौन हैं और कौन नहीं
-हिस्सेका खरीदार -बेटे, पोते, परपोतेका हक
धर्म च्युत हो जानेसे कोपसिनर नहीं रहता ६४५ नाबालिग कोपार्सनर
-डिकरी व उसका असर -दत्तक पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र
-दावा और बटवारेका विचार -अनौरस पुत्र
६१२ अभिन्न भिन्न इलाकोंकी जायदाद -हिस्सेका खरीदार
-मुनाफेके हिसानका दावा बटवारेके बाद लड़का पैदा होना
कलेका बटवारा मुश्तरका खानदानका ६४७ -जो लो। गैरहाजिर हो चटवारे के समय ६४ -बटवारेके बजाय विक्री
१४९ -बियों का अधिकार
६१५/-जब हिस्सेदार खरीदनेको तैय्यार हो
९९७
६०२
..
६४९
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हिन्दूली
पेम
सा
विषय
पेण
विषय -हनेके मकान के हिस्से के वरिका दावा १५०/-भरण पोषण के दावेमें -नीलाम, और बोली
-पुस्तरका खानदानका
saal४३९ -बेचने कायदा और डिकरी
-स्त्रीधनका के बाद फिर शामिल हो नामा
बेनामीके मामलों में न हो सकने वाली जायदादकी वरासत
-धर्मादे में कैसा होना चाहिये -जेष्ठ लाइनका निर्णय
-अदालतका मुबूत १.१९१०४८ -प्राइमणिनीचरका नियम
-जिम्मेदारी
१.४० बारसुबूत
बालों -उस पक्षपर है जो किसी के रिये जन्मभर -ब्राह्म समाजीका पुत्र दत्तक लिया जासकताहै २४५ स्थानका कानून छोड़ देनाचयान करता है२५३०) विभूति बिदाकृत्य
१५८ -रवाज कैसे सावितकी जायगी
बेनामी वाज की शहादत
-बेनामी किसे कहते हैं भवान साबित करनेका भार किसपर होगा ४३ /-असली मालिकके हकपर विचार ९३० -विवाहके विषयमें अदालत ग्राम विवाह
-बारसुबूत
९३० पहले मान लेगी
५३१५५/-कितनी सूरतोंमें मामला रद होगा -पहले की कोई रिश्तेदारी साबित होनेपर माल -नीलाममें खरीदने पर
९४२ लिया जायगा कि विवाह ठीक था,खिलाफ -बेनामीदारके बच देनेपर
९४१ बयान करने वालेपर सुबूतह ५६ -खरदारका फर्ज
९४२ -जब संतान माता के२८०दिनके अन्दर उस -लेहनदारोंसे दगाबाजी करनेमें ९४३ दशामें पैदा हो जब उसका पतिका सम्बन्ध -फरेवी डिकरीमें न हो तो वह जायज होगी इसके विरुद्ध -असली मालिककी पावन्दी कहने वालेपर सुबूतका भार है ५६-बेनामीदारक दावा करनेका हक ९४५ -अगर कोई कहे कि मैं अनौरस पुत्र हं तो बौधायन
१३।११ उसे साबित करना होगा -लिंगायतों में भिन्न उपजातियों के परस्पर विवाह
-बन्धुओंमें बरासत मिलनेका क्रम
૫૮ जायनहै जो इससे खिलाफ बयान करे उसे . -बन्धु किसे कहते हैं
७५९ साबित करना होगा मोगा
५९ -मिताक्षराके बन्धु
७६०७६६ -विवाहकी जब कुछ रसमें होना सावितहो -क्रमका सिद्धान्त तो विवाहका पूरा हो जाना माना जायगा।
-बङ्गाल स्कूल के अनुसार सुबूत उसपर है जो न होनाना बतावे ९०
-आत्म बन्धु -लड़का लापताहो गयाहो,तो गोद लेने वाले
-पितृ बन्धु पर सुबूतका भार है कि वह साबित करें १४९ | -मातृ बन्धु जबरंडीने,लड़की गोदली हो तो कैसी शहादत । नकशे मिताक्षराके अनुसार का भार किसपर है
१५८ -प्रिवी कौन्सिलके हालमें माने हुए बन्धु ७७७
९४४
૭૨
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विषयवार सूची
५७
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.१४
९.२
८७८
विषय
विषय
पेज -आत्म बन्धु
७७८ -जायदादके इन्तकालमें हकका मारा जाना ८९५ -पितृ बन्धु
७७९ -जायदाद पर खर्चका बोझ -मातृ बन्धु
-मुश्तरका स्नानदान पर डिकरी - -बम्बई में औरतोंका बन्धु माना जाना ७८२ -विधवाका वसीयत पर आपत्ति करना
मदरासमें औरतोंका बन्धु माना जाना ७८३ -खरीदार जायदादका हक भरण-पोषण
-दौरान मुकद्दमेमें जायदादका इन्तकाल । ९०० -हिस्सेदारकी स्त्रीका भरणपोषण
४३५
-विधवाके कब्जे की जायदाद -विधवाका जायदाद छोड़ना गुजारेके बदले ७१४ |
-जायदादकी बिक्रोके समय विधवाका हक ९.१ -रोटी कपड़ा पाने का हक विधवाका ७१८
-अदालतमें दावा दायर करना -के खर्चसे बची हुई रकम पर अधिकार ८५१
-कौन लोग फरीक बनाये जावेंगे -हक पानेका अधिकारी कौन है
८७७
-फौजदारी अदालतमें दावा करना -पुत्र और अनौरस पुत्र
भावी संन्तान -लड़की, पत्नी, बिठलाई हुई औरत
-वसीयत होने वाली सन्तानके लिये ९८३ -विधवा, माता, पुत्रवधू, सौतेलीमां
१३.१४
मनु -पत्नीके लिये खर्च
मज़हब -धर्मच्युत हो जानेसे
-बदलनेमें धर्मशास्त्रीय हक सब चले जाते हैं ३५४ -वरासतसे बंचित पति होनेमें
-ईसाई बापका दावा हिन्दू लड़का दिला पानेका ३५३ -अधिकार छोड़ना
मठ-देखो धर्मादा -हक नष्ट हो जाना
८८१ माता या मा -खर्चकी रकमका निश्चित करना ८८२ -सौतेली मां सौतेले बेटेकी वारिस नहीं होती २८१ -विधवाके लिये खर्च
८८३ -गोदकीमां और असली मका फरक व अधिकार २८५ -विधवा माता और पुत्रवधूके लिये
-सौतेलीमां कौन कहलावेगी
२८६ -विधवाका निवास स्थान
-द्वामुष्यायन दत्तकमें असली माताका हक २८७ -विधवाके हकका नष्ट हो जाना
मृत्यु -विधवाके भरणपोषणके खर्चकी रकम .
-मृत्युके समय दान -अन्य लोगों के खर्चकी रकम
मृत्युपत्र-देखो वसीयत -भूखे मरनेसे बचाने का खर्च
मुश्खरका खानदान -बार सुबूत
८९० / -हिन्दू खानदान हमेशा शामिल शरीक होता है ४३॥ -विठलाई हुई स्त्रीका
-कौन होते हैं व उनके हक क्या है ४३२१४३४ -मांगने वाले के पास जायदाद होना ८९२ |-पैदा होनेसे किन लोगोंका हक जायदादमें -विधवाकी क्रियाकर्मका खर्च
पैदा होता है
४३३ -खर्च की रक्रममें अदालतका अधिकार ८१३ -शामिल शरीक मेम्बरों के हक -खर्च घटाया और बढ़ाया जासकता है ८९४ -स्त्रियोंका भरण पोषण बतौर कर्जके होगा ४३५ -के हकका इन्तकाल नहीं हो सकता ८९४ -मेम्बरों के इक स्कूल भेदके हिसाबसे ४३५
९५०
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८९,
८९१
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हिन्दू-ला
४५९
४३८
»
४४४
विषय
पेज | विषय -हिस्सेदारकी स्त्रीका भरण पोषण बतौर -कोपार्सनरी जायदाद कर्जे के है
-बटवारेके बाद खरीदी जायदाद -मिताक्षरा लॉ के अनुसार
४३६
-मुश्तरका व्यापार या मेहनत की जायदाद ४६० -बनानेसे नहीं बनता बल्कि कानूनमें जैसा
-दान या वसीयतकी जायदाद माना है वही रहेगा
४६१ ४३६
बाबुआनाके तौर पर दी हुई जायदाद -शाखायें, फैलाव व जायदाद -टूट जाना, बटवारा होने के बाद
-समझौतेसे प्राप्त हुई जायदाद -अलग रहनेसे शामिलाती नहीं टूट सकती ४३७
-नानासे पायी हुई जायदाद ४६२
-शामिल शरीक पूंजीसे प्राप्त जायदाद ४६३ -कब्जा मुखालिफाना नहीं होता किसी. मेम्बरका ३७
-कोपार्सनरी जायदादकी बृद्धि और प्राप्ति ४६४ -खानदानके कुल देवता
४३०
-विद्वत्तासे पैदाकी हुई जायदाद -बारसुबूत किसके जिम्मे होगा
-देवोत्तर जायदाद -कोपासनरीका अर्थ और व्याख्या ४३८ से ४४२
-बटबारासे मिली जायदाद
४६६ -वार सुबूत किस पर होगा
४३९ -सुबूतकी जिम्मेदारी
४६९ -कोपार्सनर
-अलहदा या खुद पैदा की हुई जायदाद कौनहै ४७१ -दत्तकपुत्रका कोपार्सनर होना ४४५
-खुद कमाईकी जायदाद
४७१ -परपोतेके बेटेका होना
४४५
-दान या सरकारसे मिली हुई इनाम ४७२ -पोतका अपने बापके स्थानापन्न होना ४४५
-जो बिना सहायताके कमाई गई हो ૪૦૨ -मिताक्षरा लॉ के अनुसार
-बटवारेके हिस्से की जायदादके मुनाफेकी ४७२ -अनारसपुत्रका कोपार्सनर होना ४४६
-वेश्याकी कमाई जायदाद
४७३ -औरतें कोपार्सनर कहां नहीं होती
-अलहदा कमाई जायदाद
४७५ -कौन लोग अयोग्य माने जायंगे ४४९
-विद्याके जरियेसे जो जायदाद मिले ४७६ -अयोग्यताके सुबूतका भार
-बीमाका रुपया
४७७ -मरा हुआ माना जायगा
४५० -अदालतका अनुमान क्या होगा
४७८ -लड़केको हक कब न मिलेगा
-अलहदा जायदाद पर अधिकार ४८२ -अपना हिरसा छोड़ें देना ४५१-अधिकारोंका वर्णन
४८६ -अधिकार कोपार्सनरके ४५१/-मेनेजरके अधिकार
४८९ -मरनेसे कारबार टूट नहीं जाता ४५५-मेनेजरको हिसाब देनेकी जिम्मेदारी ४९३ -कारोबारका वर्णन ४४३ से ४८६ -कर्जा लेनेका अधिकार ४९४१४९६
-अधिकारका वर्णन ४८६ से ४८९ -द्वारा जायदादका इन्तकाल किया जाना ४९८ -कोपार्सनरी प्रापर्टी (जायदाद) ४५६ -कर्जका स्वीकार किया जाना५१२१५१४५२.
-अप्रातबन्ध और सप्रतिबन्ध जायदाद ४५६ -कानूनी ज़रूरतें -सरवाइवरशिप कौन जायदादमें होगा ४५७ -का बार सुब्रत किस पर होगा
५०० -जायदादकी किस्म
४५९ -किसी हिस्सेदारका अलहदा दावा करना ५१३ -कौन नायदाद शामिल शरीक मानी जाती है। -मुकद्दमें सब कोपार्सनरोंका फरीक बनना ५१६
तथा कौन नहीं मानी जाती ४५९ -राब कोपार्सनरोंका मुद्दई बनाया जाना ५१८
४४९
४५०
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विषयवार सूची
४९३
विषय पेन | विषय
पेज -सब कोपार्सनरोंका मुद्दालेह बनाया जाना ५१९ | मेधातिथि
१३।१६ -बाप के जाती कर्जे की डिकरी
मेनेजर -चापका नाबालिस के दावेमें समझौता करना ५२२ -मुश्तरका खानदानके अधिकार ४८९ से ४९२ -जायदाद का इन्तकाल
५२४
-हिसाब देने की जिम्मेदारी -नाबालिग होने पर जायदादकी खरीदारी ५२५ -क्री लेने का अधिकार
४९४ -बापके द्वारा इन्तकाल
५२६ -कारोबार चलानेका आधिकार ४९६ -आखिरी हिस्सेदार के द्वारा इन्तकाल
५२९
-जायदाद का इन्तकाल करनेका अधिकार ४९८ -जायदादके मुनाफेका इन्तकाल
-रेहननामा, बैनामा करना -दावा या वसीयत करना ५३० -कर्जमें सूदकी दर
५०१ -कर्जा चुकाने के लिये इन्तकाल
-दायभागलॉका मुश्तरका खानदानका ५५७ -अदालतकी डिकरीसे नीलाम
यज्ञोपवीत-देखो हिन्दू जाति -खरीदारके हक व जिम्मेदारियां ५३६ रवाज -जिसका हिस्सा बिक गया हो उसकी स्थिति ५४० -स्मृतिके विरोध वाजकी प्राधान्यता -हिस्सेदार जब अपना हिस्सा छोड़ दे ५४. -आचार और रवाज एकही है -दिवालिया हो जाना
५४१ |-कुटुम्बकी खाज साफतौरसे सानित की जाय १९ -फर्मका दिवाला जाना
५४२ -कानून बनानेका आधार है -बापका दिवालिया होना
५४३ -तीन तरह की होती है -जायदादका इन्तकाल मंसूख कराना ५४४ -कैसे साबित की जायगी -दान, विक्री रेहन, की मंसूखी ५४४
-शहादत -कौन मंसूख करा सकता है
-कन बंद समझी जायगी गर्भके बालकका हक्र
५४९।५५१
-सुबूत किसके जिम्मे होगा दायभाग लॉ के अनुसार
५५२ -नाजायज कौन है -लड़के पैदाइशसे हकदार नहीं होते ५५३ -विवाहमें नाजायज होना -बापको पूरे हक हैं जायदाद पर ५५३ | -नामबुद्री ब्राह्मणोंमें 'सर्वस्वाधनं' विवाहका ११२ -लड़के वापसे बटवारा नहीं करा सकते ५५४ | रखेली औरत -पैतृक सम्पत्ति कौन है
५५४ |-की अवस्था और दशा तथा अधिकार -कोपार्सनर कौन है
-शूद्र कौम की उसकी लड़कीका ब्याह वैश्यसे कोपार्सनरी जायदाद
५५५
जायज़ होना -सरवाइवरशिप
| रिवर्ज़नर -मेनेजरके अधिकार ५५७ -किसे कहते हैं
८१२ बटवारा करानेके इक
-जायदादमें स्वार्थ -डिकरी भरण पोषणकी खानदान पर ८९७ -सीमाबद्ध स्त्रीके इन्तकालका दावा
दान मिलना खानदानके मेम्बरोंको ९६६-जायदादको बरबादीसे रोकनेका दावा ८१७ -वसीयत मेम्बरोंको ९९४-अदालतका विचार दावा पर
०१०
५४७
५५४
५५६
८१५
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हिन्दू-लॉ
पेज
८२४
म
"Mr
सुबूत
विषय
विषय
पेज -दावा करनेकी मियाद
८१९ -वृद्ध वेश्या या अन्य वेश्यायोंका पर-दावा करनेका अधिकार
८१९/८२५ वरिश पाना -जायदादके सम्बन्धमें गफलत
८२१ |-मुश्तरका स्नानदानके मेनेजरको रण्डी रखना ५४३ -सीमाबद्ध मालिकको बेदखल करना ८२२ |-पुत्रोंका उत्तराधिकार -के पीछे वाले रिवर्जनरके हक ८२२
-औरस सन्तानको हकका मिलना -दावाकी मियाद
-वरासतका क्रम -कब आपत्ति कर सकता है ८२५/८३६ -नाचने वाली, गाने वाली -इस्टापुल
८२६ -स्त्रीधन के सम्बन्धमें
७९४ -कब्जा पानेकी नालिश ८३१ | -स्त्रीधनमें हक व अधिकार
९३५ -इन्तकालके जायज़ और नाजायज़ होनेका -देवदासी व वेश्याका भेद वरासतमें
८३२ -रण्डीके स्त्रीधनकी वरासत -परदानशीन औरत
८३३ लड़की -कानूनी जरूरतका कुछ हिस्सा साबित होनेपर ८३४ | -वरासत हक
०२० -सरकारका अधिकार ८३५ -बदचलनी
७२३१७२५ -की मंजूरी इन्तकालके लिये
-लड़कीके लड़केकी वरासत
७२८ -मंजूरी देनेका तरीका
८६७-स्त्रीधन पर अधिकार व हक -को हक दे देना किसी स्त्रीका ८६० -कारेपनका स्त्रीधन -दो लड़कियों में से एकका त्याग
-वरासत स्त्रीधनकी
९१९/९२२ -सीमाबद्ध वारिसकी डिकरीकी पाबंदी
-भावी वरकी दी हुई भेटें -समझौतेकी पाबंदी
-स्कूलोंके अनुसार वरासत -फरीक बनाया जाना ८७५ वसिष्ठ
१३।१४ रेगुलेशन-देखो एक्ट
| वली या वलायत-देखो अज्ञान रंडी या नाचने गाने वाली औरतें -कन्याका वली आर स्त्रीका वली
१०४ -का गोद लेना
-नाबालिगके कौन लोग वली हो सकतते हैं ३४६ -लड़कियां लानेकी चाल
१५८ -विवाहिता नहन, अविवाहिता बहनकी -अदालतको कैसी शहादत पर विश्वास __ वली नहीं होगी करना चाहिये
-माताका अधिकार वली होनेका ३४६ -लड़की गोद लेना
-रिश्तेदार लोग कन, व कैसे बली होंगे ३४७ वेश्या या नायकिनका लड़की गोद लेना ३२३ वसीयतके द्वारा वली नियत किया जाना ३४७ नायक जातिकी लड़कियोंको रण्डी बनाने -माताको हक नहीं है कि वसीयत, द्वारा की पृथा
वली नियत करे
३.८ -पूरा कानून ताकि रण्डियां न बन सकें -छोटे बच्चेका वली कौन होगा ३४९ वेश्याकी खुद कमाई जायदाद
४७३ -नाबालिग भी नाबालिगका वली होसकताहै ३४९ क्रमाने वाली वेश्याकी जायदाद ४७३ ] -वलायत जब परिवार शामिल शरीकहो३४९।३५५
९१.
९२०
३४६
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विषयवार सूची
विषय
- पत्नीका वली पति होता है
- शादी करने से माता और गोद देने से बाप
वली नहीं रहता
- इस बार मुलाकी राय विरुद्ध है
- मजहब बदलने पर वली नहीं रहता - ईसाई बापका दावा अपना लड़का हिन्दू
दिला पानेका
- जातिच्युत होनेसे वली खारिज़ नहीं होता - मजहब बदलने से धर्मशास्त्रीय इक चले जाते
- अनौरस पुत्रका वली कौन है
पेज
३५०
३५१
३५२
३५३
३५४
हैं ३५४
- कौन डिकरी नाबालिग को पाबन्द करेगी - वलीको जिम्मेदारी और दौरान मुकद्दमे में
नियत किया जाना
- वली नियत करनेकी अर्जीका नमूना
- गार्जियन एण्ड वार्डस एक्टकी दफा एवं पूरा
- लड़की का
वसीयत
३५१ - वसीयत से बाप अपने लड़कोंका वली नियत कर सकता है
३५५ |
- वली के अधिकार ( कुदरती वली के )
३५५
- मेनेजर सामान बेंच सकता है मगर कब ? ३५६ - ब्याज, सूदकी शरद -जायदाद कब बेंच सकता है
1- कौन खानदानी जरूरतोंके लिये जायदाद बेंची जासकेगी
- हिस्सा निकल जायगा जब भाई वलीने बेचा हो
गर्भावस्था में बालकका हक़
-कुदरती बलीका मुआहिदा
३६५/३६६
- जो काम वलीकी हैसियत से न किया गया हो ३६७ - बुली की तरफ से किसी कर्जे का मानलिया जाना ३६८ - जब नाबालिग ने अपनी उमर झूठ बताई हो ३६८
- नाबालिग के मुकद्दमे में सुलहनामा
३६९
३७०
३६४
३६४
३५६
३५८ | अर्थ लगाना कैसे चाहिये
३७२
३७२
विषय्
३६१।३६२/३६३ | -टगोर केसके सिद्धान्त
कानून व्यभिचार
- विधवा व्यभिचारिणी गोद नहीं ले सकती १७४
- पुनर्विवाहिता विधवाका गोद लेना
३७५
विधवाका
७१४
३७२ से ४२६
३४७ - वसीयत द्वारा नियत किये हुए वलीके अधिकार ३४८ - स्त्रियों के अधिक में जबानी वसीयत
८४२
की व्याख्या और दानका फरक
९७२
-जबानी वसीयत कब जायज मानी जायगी ९७३ - कौन कर सकता है और कौन नहीं लिखनेका कायदा
९७३
९०४
९ ७ १
-- पढ़े हुए आदमीका निशान बनाना - कैसी लिखतें वसीयत मानी जावेगी
९७६
- कौन और कैसी लिखतें जायज मानी गई ९७७
९७८/१५१
९८०
९८१
- द्वारा उत्तराधिकार से वंचित करना
पंज
७२३७२५
- मान लेना कि वसीयत के द्वारा सारा हक दिया गया
- कोई आदमी कानून नहीं बदल सकता - अनुचित शर्त
- भावी सन्तान के लिये वसीयत
९८३
- उचित उद्देशांके लिये ट्रस्ट जायज है ९८५ - सीमावद्ध दान
९८६
- जायदादकी आमदनी जमा होना
९८६
- वाक्यों और शब्द पर विचार
- "मालिक और मालिक बखुद अख्त्यार'
- "मालिक जायज मिस्ल मेरेके'
- 'पुत्र पौत्रादि क्रम : १
-'अगर मेरा लड़का मर जाय'
- - ' दखीलदार, और धर्मार्थ
- " परिवार पर खानदानको '
感
- 'नसलन दरनसलन'
६१
-
• विधवाके मुसलमान
- 'वसीयतकी इबारत'
जाने पर
९८१
९८२
९८२
९८९
९९९
९९०
९९०
९९९
९९०
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९९ १
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१२
हिन्दूला
विषय
पेन
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V
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विषय -दो व्यक्तियोंके हकमें हिबा और वसीयत ? ९९३ -इक का इन्तकाल नहीं हो सकता ८९४।८९५ -हिन्दु वसीयतका कानूनी सम्बन्ध
-वसीयत पर आपत्ति करना ८९७ -मुश्तरका खानदानके मेम्बरीको
-कब्जेकी जायदादका असर -मसूखी कब कैसे की जासकती है
९९५
-जायदादकी चिक्रीके समय हक व -इन्डियन सक्शेसन एक्टका लागू होना ९९६ अधिकार -प्रोवेट कैसे लिया जाय
-अदालत दीवानीमें दावा करना -प्रोवेट मिलनेकी दरख्वास्तमें क्या लिखना
-फौजदारीमें दावा करना चाहिए
-स्त्री धन पर अधिकार और हक विज्ञानेश्वर
१३.१६ विवाह विश्वरूप
१३।१७ -प्राचीन धर्म है और अनादि है विवादार्णवसेतु
१३।१७-धार्मिक कृत्य माना जाता है विधादसारार्णव
१३.१७/-दश संस्कारों के नाम विवादभंगार्णव
१३।१७-याज्ञवल्क्यने ऐसे खर्च खानदानपर डाले हैं ४९ विवादचिन्तामणि
१३/७/-आठ प्रकारके विवाह विधवा
-ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्रजापत्य
-आसुर, गांधर्व, राक्षस, पैशाच -की वरासत -आचार्यों की रायें
७११७१९
-ब्राह्म विवाहकी रीति
-जाति, सगोत्र विवाहकी पाबन्दी शूद्रोंमें नहींहै ५२ बदचलनीसे हकका चला जाना
-आसुरका अनार्य ढङ्गका होना ५२.५३ -जायदादका इन्तकाल
-अदालत ब्राह्म विवाह मान लेगी ५३.५५ - पुनर्विवाह
-'पल्ला' किसे कहते हैं -जैन विधवाका अधिकार
-का ढङ्ग कैसे निर्णय किया जायगा -वरासतकी जायदाद पर
८४१
-गांधर्व विवाह क्षत्रियोंमें भरण पोषणके बदले जायदाद छोड़ना
-ग्राम विवाहसे उत्पन्न सन्तान कितनी पीढ़ियों -रोटी कपड़ा पानेका हक
७१८
को उद्धार करतीहै -मुनाफे या बची हुई रकम पर अधिकार ८५१
-धर्मकृत्योंके कुछ होने पर पूरी हो जाना मान -हक पानेका अधिकार
८७०
लिया जायगा खर्च मिलना
८८३
-२८० दिनके अन्दर सन्तान पैदा होवा -माता विधवाको
जायज मान ली जायगी -निवासस्थान
-मुत पुरुषने अगर उन्हें अपना लड़का मानाहो ५७ हकका नष्ट होचा
८८६
-कौन हालतोंमें अदालत क्या मानेगी ५७ -के खर्चकी रकमका निश्चित करना। -तलवार द्वारा विवाह होना नहीं माना जायगा ५८ भूखे मरनेसे बचानका हक
८८९ -जाति वालेोंने अगर जायज, मान लिया हो ५८ मरनेके बाद क्रिया कर्मका खर्च ८९३ -रखेली औरतकी स्थिति, अधिकार
Com G
३
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विषय
- विवाह के जायज़ माने जाने की शर्ते - वर और कन्याका एकही जातिका होना - पांचाल और कुवार शूद्रों के परस्पर विवाह - किसी भी उमरकी कन्या के साथ विवाह होना ६० - कानून से बाल विवाहकी रुकावट ६०
५९
- कानूनसे विधवा स्त्रीका विवाह अधिकार होना ६० - पति के जीवन में विवाह नहीं होगा .- जिनमें तलाक जायज है तो कब दूसरा
६०
विवाह होगा
सगाई से विवाह नहीं हो जाता
- बदलेका विवाद
- वर्जित सपिण्ड
विषयवार सूची
- नाबालिग दुलहा, पागल, बेअकल - बहरा, गूंगा, स्त्रीके जीतेजी, रंडुवा
पति के जीवनकालमें स्त्रीका दूसरा व्याह - में उमर की कैद
पजे
५९
५९
६०
६०
६०
તે ૬૪
६५
- एकही गोत्र व प्रवरकी कन्या के साथ वर्जित है ६४ - शूद्रों में ऐसा नियम नहीं है —सपिण्ड सम्बन्ध कहां तक माना जाता है ६५ से ७२ - दत्तक पुत्रका अपने असली कुटुम्बसे सपिण्ड
नहीं टूटता -बुवा, भाई, चाची, सास आदिका दर्जा - सपिण्ड में किये हुए विवाहका परिणाम -भिन्न जातियों के परस्पर विवाह
७४/९२
- अनुलोमॅज विवाह, शूद्रा और वैश्य के साथ ७५
- विवाह कौन कर सकता है
८०
७३
७३
७४
८०
८१
८२
८२
८३
-तलाक
-मजहब बदलदेने या जातिच्युत होने से नहीं टूटता ८४ बम्बई में शूद्रों में तलाक और विधवा विवाह का होना
८५
- पुरुषका पुनर्विवाह
८६
- कैसी स्त्रियों के साथ विवाह न करना चाहिए ८६ - स्त्रीका पुनर्विवाह
८७
- मंत्रों से कार्य न हो जानेपर कुमारी रहना ८८
विषय
- विधवा स्त्रीका पुनर्विवाह
- १ सवर्ण व असवर्ण विधवाका
- श्री दयानन्दी विधवा
- खत्री विधत्राका पुनर्विकाह
- २ अनुलोमज और प्रतिलोमज - ३ विधवाका दान कौन कर सकता है। -४ विधवा विवाहकी विधि क्या हैं -५ विधवा विवाहका जोर कानून से आया ९९
९०
९१
९२
- में सौतेली मात्मका सम्बन्ध
- में वर और कन्या के सम्बन्ध में विचार
- विवाह न करनेसे हरजानेका दावा
- में ठहरांनी या दहेजका तय होना और उसका असर
९२
९५
९५
-छोटे भाई से पहले बड़ेभाई के विवाह होने में प्रमाण९७ - कैसी सूरतों में छोटे भाईका पहले होगा ९७ -की रसम कब पूरी समझी जायगी - सप्तपदी कृत्यका बिवरण
९८
९८
- गौना हा जानेसे विवाहका पूरा न माना जाना ९८ - कुछ कृत्यों के होने पर अदालतका अनुमान ९८ - सगाई या मंगनी या कंट्राक्ट
९९
१००
- कन्यादान के अधिकारी तथा क्रम - के खर्च, लड़कियों की शादी, विवाह आदि
- कन्याका वली
६३
पेज
८८
तथा बापका
८९
८९
१००११०१
१०१।१०२
-क्रूरता, रंडी रखना, व्यभिचार, धर्म बदलना, जातिच्युत होना, नामर्दी, बेवकूफी आदि
१०३|१०४
१०४
१०५.
१०५
-फेक्टगवेलेटका सिद्धान्त
- धोखा देने में शास्त्रों के बचन
- नियोग
१०५.
- पति-पत्नी साथ रहने से इनकार करनेपर दावा - नाबालिग स्त्री भी, पति के कब्जे में रहेगी १०६.
तथा कर्तव्य
- कब स्त्री, पति के साथ रहनेसे इनकार कर सकती
१०७
१०७
१०८/१०९
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हिन्दू-लों
पेज।
४५७
५५६
24
८४८
विषय
विषय -स्त्रीका मुआहिदा करना और पतिपर पाबन्दी १०९ -नम्बई स्कूल (महाराष्ट्र) की सीमाएं ३९ -कैसे कर्ज जो स्त्री ले, पति देनदार होगा ११० -द्रविड़ (मदरास) स्कूलकी सीमाएं -पति पत्नीकी जायदादपर परस्पर अधिकार १११ -पंजाब स्कूलकी सीमाएं -का रवाज, पुनर्विवाहमें शर्ते ११:११२ | सरवाइवरशिप -'सर्व स्वाधनं' नामका विवाह, बेटेको -अप्रतिबंध जायदादमें
नानाकी जायदाद मिलना ११२ -दायभाग लॉके अनुसार -बाल विवाह निषेधक बिल सन १९२८ ई० -इक नहीं मारा जायगा विधवाका
का सम्पूर्ण बहस सहित ११३से १२० स्त्रियोंका अधिकार -श्री महामना मदनमोहन मालवीय आदिकी -वारिसकी हैसियतसे महदूद है
८३७ बहस गवर्नमेन्ट रिपोर्ट
११३से १२०-बम्बई में वरासतसे पूरा हक -सेलेक्ट कमेटीका पास किया हुआ बिल -मदरासमें कारी लड़की - नं. २१ सन १९२७ ई. १२१से १२४ |-जैन विधवा
८४१ -हिन्दू-विडो-रिमेरेज ऐक्ट नं. १५ सन -अधिकारकी समस्या
८४३ १२५से १२८ |-जायदादमें इजाफा करना के समय प्राप्त धन स्त्रीधन होता
-विधवाका आधिकार
८४१ व्याहता स्त्रीके स्त्रीधनकी वरासत ९२१
-मनकूला जायदादपर
८४१ बिठलाई हुई स्त्री
-कर्जा भावी वारिसको पावंद नहीं करेगा८४४ -भरण पोषणके खर्च पानेका अधिकार ८९१ -के कामों में देखल कौन देगा ८४५ -यदि व्यभिचार किया हो तो
-एकसे अधिक विधवायें सुस्तकिल रखेल औरतका हक
-जायदादकी आमदनी पर आधिकार ८४९ स्कूल्स आफला
-जायदादका इन्तकाल
८५३ -इस शब्दका अर्थ
-दो विधवार तथा हिस्सा
८५७ -भेद पड़नेका कारण
२६२७ -कानूनी जरूरतें मान्य ग्रन्थ
-भरण पोषणके खर्चसे बची रकमपर ८५१ -बनारस स्कूलमें कौनग्रन्थ माने जाते है ३२१३३ -जायदाका इन्तकाल जीवन भरके लिये ८५२ -मिथिला स्कूलमें " "
-डिकरी द्वारा कुर्क होना ८५२।८७५ बम्बई स्कूलों " "
-जायदादका इन्तकाल कब हो सकता है ८५३ -द्रविड़ स्कूलमें " "
-खरीदार या रेहन रखने वाले कर्तव्य ५५४ -बंगाल स्कूलमें " "
३५३६ -अदालतका दबाव -वरार और नागपुर स्कूलमें " ३६ |-सब जायदादके इन्तकालका हक़ कब है ८५५ -कौन स्कूल कहां माना जाता है
-खानदानी कारोवार -बनारस स्कूलकी सीमाएं ३७१६३से १७० -कानूनी जरूरतें -सेठ खेमराजजीका केस
३८-भावी वारिसकी मंजूरी इन्तकालके लिये ८६५ -मिथिला स्कूलकी सीमाएं
३९J-संसार त्यागने वाली सीका हक चलाजायगा ८७.
८९१
८५५
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विषयवार सूची
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९२१
विषय
पेज ।
विषय वसीयत द्वारा मिला हुआ अधिकार
-अपने धनसे ली हुई जायदाद आदि -अदालतसे मिला हुआ आधिकार
-कब्जा मुखालिफाना -पाबंदी जो कर्जे जायदाद पर न लियेगयेहों ८७१ -सौदायिक स्त्रीधन -दानमें पतिसे पाई हुई जायदादपर ९६३।५६६
-खचे करने का अधिकार -सीमाबद्ध अधिकार
९६४ -गैरमनकूला जायदादका दान
९१६ -जिन्दगीभरके लिये आधिकार
-अदालतका ख्याल व मानना
९१६ -पूरे अधिकार कब कैसे मिलेगें
-पतिके अधीन कौन जायदाद है
९१७ -पतिका अधिकार स्त्रीधनपर
९१७ सुलहनामा
-विधवाका अधिकार
९१० -नाबालिग के मुकद्दमे में सुलहनामा
-उत्तराधिकार (वरासत) श्रुति
-वरासतका सिद्धांत -लोकमान्य तिलकका मत
-बिन व्याही लड़कीके स्त्रीधनकी बरासत ९१९ -ऊंचे दरजेके समाजका वर्णन होना -में क्या है तथा उद्भव
-कारी स्त्रीका स्त्रीधन
९१९ -
-भावी वरकी दी हुई भेटें -चार होती है नकशा देखो
1- विवाहिता स्त्रीके स्त्रीधन की वरासत 'शुनशेफ का अख्यान वेदका
-सन्तान वाली स्त्रीके स्त्रीधनकी वरासत ९२१ -दुर्भिक्षम नारदका मांसभक्षण
-मिताक्षरालोके अनुसार स्मृति
-शुल्ककी वरासत
९२२ -की उत्पत्ति और विकाश - 001 -कुमारी लड़की
९२२ -टीकायें
-विवाहिता लड़की जो गरीबहो ९२९ -केनाम और विस्तार तथा भाष्यों का नाम आदि१३
-विवाहिता लड़की जो अमीरो ९२२ संसार त्याग
-बेटीकी बेटी
९२३ -स्त्रीका हक चला जाता है
८७.
-लड़कीका लड़का, लड़का व पुत्र ९२३ स्त्रीधन
-पुत्रका पुत्र
९२४ -शब्दका अर्थ
९०४
-विना सन्तान वाली स्त्रीके स्त्रीधनकी वरासत ९२४ -कितने प्रकारका होताहै
९०५/९०७
-स्कूटोंके अनुसार स्त्रीधनकी वरासत ९२६ -बारसुबूत
-बनारस स्कूल व मिथिला स्कूल ९२६ -भेद और क्रिस्में
९०७
-बम्बई स्कूल और मयूखके अनुसार ९२७ -यौतक और अयौतक
-निस्सन्तान स्त्रीधनकी वगसत . ९२९ -विवाह के समय प्राप्त धन
-मदरास स्कूलके अनुसार वरासत -शुल्कपर विवाद व प्रमाण
-दूसरे प्रकारके स्त्रीधनकी वरासत -भरण-पोषषके खर्चके लिये
-बङ्गाल स्कूल के अनुसार वरासत ९३२ -कारेपनका धन
९११ -देवदासी,वेश्या,रंडी,व लावारिसकी वरासत ९३५ -प्रीतिदत्त व अन्य मार्गसे प्राप्त धन ___-देवदाप्ती, रंडीका स्त्रीधन
. ९३५ -वरासत आदिसे मिला धन ९१३ | -अनौरस सन्तानको माके स्त्रीधनका मिलना ९३६
९०७
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हिन्दूला
१/२
२०
२५
. विषय
पेज | विषय -लावारिस स्त्रीधन
-सुन्नी, बहोरे मुसलानोंसे हिन्दूलॉ
-नामबुद्री ब्राह्मणोंमें -की उत्पत्ति और इस वाक्यका अर्थ
-घरवारी गोसाइयों से -अदालतोंसे सम्बन्ध
११/१२ -गोंड़ और राजगोंदोंसे -उत्पति के ग्रन्थोंका नक्शा
-कुर्मी महतोंमें -किसके लिये हिन्दूला लागू होगा
-किनसे लागू नहीं होगा -ब्रह्म समाजी,सिख, जैन,खोजा आदि १९ -मुसलमान हो जानेपर -जो जन्म और धर्मसे हिन्दूहो
-ईसाई हो जानेपर -अनौरस पुत्रोंसे
-की शाखाएं -सिखोंकी गणना हिन्दूरों है
२०
-मिताक्षरा और दायभागका भेद -मैनियोंसे
-जैनियोंमें गोदके बारेमें माना जायगा -बौध जैन और सिखोंसे
हिन्दु जाति -कच्छी मेमन मुसलमानोंसे
-'हिन्दू' शब्दकी उत्पत्ति -जैनी अगरवालोंसे
-चार बड़े भागोंमें विभक्त है -खोजा मुसलमानोंसे
-अनुलोमज और प्रतिलोमज न्यूरोपियनोंके अनौरस पुत्रोंसे
-उपजातियों की उत्पत्ति और दर्ना -रे हिन्दू जिन्होंने खानपान व धर्म कृत्य
-गोसाई, वैरागी, राजपूत आदि
-जातिमें यज्ञोपवीत और श्राद्ध -पंजाबके कृषक समाजसे
-क्षत्री या शूद्रकी जांच -दो धर्म मानने वाले खानदानासे २३-जातिमें गायत्री मंत्र -मेलासेलम बिरासिया कौमसे
२३/-शूद्र तथा अगरवाल जाति
२८से ३२
१५०
२१ २१
१ार
२२
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अर्थात्
हिन्दू-लॉ हिन्दू धर्मशास्त्रका सर्वाङ्ग पूर्ण वर्तमान कानून श्रीखण्डभस्मार्चित चर्चिताङ्गौ मुक्ताऽलिगङ्गोल्लसदुत्तमाङ्गौ । शिवाशिवौनौमिसुमाल्यनागौ रत्नाग्निभाभूषित भालभागौ ।
जिनके शुभ अङ्ग चन्दन और भस्मसे पूजित हैं, जिनके मनोहर शिखर में मोतियोंकी अवलि और श्री गङ्गाजी विराजमान हैं, जिनके कण्ठमें सुन्दर मालाएं और भुजङ्ग शोभा दे रहे हैं तथा जिनका ललाटस्थल रत्न और वह्नि की शोभा से विभूषित है, ऐसी श्रीभगवती पार्वती और शिवको मैं नमस्कार करता हूं।
हिन्दूलॉ के स्कूलोंका वर्णन
प्रथम-प्रकरण यह प्रकरण निम्नलिखित तीन भागों में विभक्त है । इस कानून को यथार्थ समझने के लिये इस प्रकरण को खूब ध्यानसे पढ़नेपर भी सिद्धांत सदैव स्मरण रखना चाहिये । यदि इस प्रकरण में बताए हुए सिद्धांत याद न रहेंगे तो कोई मामला निश्चित करने में आप भूल कर सकते हैं ।(१) हिन्दूलों की उत्पति दफा १-१० (२) हिन्दूला का विस्तार दफा ११-१३ (३) हिन्दूलों के स्कूलोंका वर्णन दफा १४-३७
(१) हिन्दूला की उत्पत्ति
दफा १ हिन्दूलॉ की उत्पत्ति और हिन्दू जाति
"हिन्दू" अरबी भाषाके प्रयोगों में प्रायः 'स' की जगह पर 'ह' पाया जाता है जैसे शिरा--हिरा। सप्ताह--हफ्ता । सप्त--हफ्त । इसलिये मब
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हिन्दूलों के स्कूलोंका वर्णन
[प्रथम प्रकरण
मुसलमानोंकी लड़ाई सिन्ध नदी पर हुई तो वे सिन्ध समीप वासियों को 'हिन्दू' कहने लगे इस तरह पर 'हिन्दू' शब्दकी उत्पत्ति कही जाती है।
त्रिहि हिसि--हिंसायाम् । इस धातु से 'हिन्' शब्द क्विप् प्रत्यय से बनता है और दूङ्---परिताये धातुम क्विप् प्रत्यय द्वारा 'हिन्दू' शब्द सिद्ध होता है जिसका अर्थ यह है कि 'हिंसां दूयते यः स हिन्दू' अर्थात् हिंसा (दुःख ) को दूर करने वाला या दुःख से छुटाने वाला 'हिन्दू' कहलाता है।
'हिन्दुलॉ' इस वाक्यका अर्थ पाश्चात्य नैय्यायिकोंके मतमें यह माना जाता है कि हिन्दुओंके वे सब धर्म, रवाज, सामाजिक नियम, जो ब्रिटिश राज्यके प्रारम्भ कालमें प्रचलित थे हिन्दू समाजमें क़ानूनका प्रभाव रखते हैं । ब्रिटिश शासकोंने उनमें आवश्यक कानूनों द्वारा समयानुसार कुछ सुधार किया है । 'हिन्दू-लॉ' हिन्दुओंके उन नियमोंका संग्रह है जिनका धर्म के साथ बहुत कुछ सम्बन्ध है। प्रारम्भमें इसकी व्यवस्था अधिकतर भागोंमें अदालतों द्वारा की जाती थी। देशकी शासन व्यवस्था ब्रिटिश सरकारके हाथ आनेपर प्राचीन हिन्दू धार्मिक, सामाजिक और रसम-रवाजों के नियमोंपर, ब्रिटिश व्यवस्थापक सभाओं द्वारा निर्मित क़ानूनोंका बहुत कुछ प्रभाव पड़ा और अगरेज़ी कानूनके प्रधानत्वके साथ साथ हिन्दू-लों का प्रयोग होने लगा।
हिन्दू जाति-हिन्दू' जाति चार बड़े भागों में विभक्त है। १ ब्राह्मण २ क्षत्रिय ३ वैश्य ४ शूद्र । इन्हें 'वर्ण' कहते हैं । इन चारों वर्णों अर्थात् जातियों के अन्तर्गत अनेक उप-जातियां हैं । पूर्व की तीन जातियां (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ) 'द्विज' कहलाती हैं । 'द्विज' शब्दका अर्थ है कि "द्वाभ्यां जन्म संस्काराभ्यां जायतेऽति द्विजः" अर्थात् जो जाति जन्म और संस्कार दोनों से उत्पन्न हो वह 'द्विज' कहलाती है । जन्मसे मतलब सवर्ण माता-पिता एवं संस्कारसे मतलय उस जाति की धार्मिक कृत्ये हैं । 'हिन्दूला' के मतलबके लिये हिन्दू जाति वर्गीका जानना बहुत ज़रूरी है। उदाहरणार्थ--जैसे दत्तक सम्बन्धमें यह सिद्धांत माना गया है कि दत्तक पुत्र उसी जातिका होना चाहिये जिस जातिका दत्तक पिता है । विवाहमें बर और कन्या पक्षोंका एकही जातिका होना ज़रूरी बताया गया है, इत्यादि ।
वृन्दावन धनाम राधामनी (1889) 12 Mad. 72, 78, 79; ज्वालार्सह का मामला देखो (1919) 41 All. 629; 51 I. C. 216 में हिन्दू जाति तथा उप-जातियोंका विवेचन किया गया है। हिन्दू धर्म शास्त्रोंमें सजातीय और विजातीय स्त्री-पुरुषसे उत्पन्न संतानका विचार करनेके लिये कुछ विशेष पचन हैं। ऐसी उप-जातियां दो भागोंमें विभक्त हैं, अनुलोमज और प्रतिलोमज ।
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दफा १]
हिन्दूला की उत्पत्ति
॥अनुलोमज ॥ विप्रान्मूर्द्धावसिक्तोहि क्षत्रियायां विशः स्त्रियाम् । अम्बष्ठः शूद्रयां निषादो जातः पार शवोऽपिवा ॥ या० ६१ वैश्या शूद्रयोस्तु राजन्यान्माहिष्योग्रौ सुतौस्मृतौ । वैश्यात्त करणः शूद्रयां विन्नास्वेष विधिः स्मृतः॥ या०६२
॥प्रतिलोमज ॥ ब्राह्मण्यां क्षत्रियात्सूतो वैश्यादैदेहि कस्तथा । शूद्राज्जातस्तु चाण्डालः सर्व धर्म वहिष्कृतः॥ या० ६३ क्षत्रिया मागधं वैश्याच्छूद्राक्षत्तार मेवच । शूद्रादायोगवं वैश्या जनयामास वै सुतम् ॥ या०६४
भावार्थ यह कि-ब्राह्मण पु० क्षत्रिया स्त्री० से १ मूर्द्धावसिक्त, ब्राह्मण पु० वैश्या स्त्री० से २ अम्बष्ठ, ब्राह्मण पु० शूद्रास्त्री० से ३ निषाद और पारशव, क्षत्रिय पु० वैश्या स्त्री० से ४ माहिष्य, क्षत्रिय पु० शूद्रा स्त्री० से ५ उग्र, तथा वैश्य पु० शूद्रा स्त्री० से करण नामक उप-जातियां उत्पन्न होती हैं ये विवाहित स्त्रियों से यदि उत्पन्न हुयी हैं तो 'अनुलोमज' कहलाती हैं । इसी प्रकार क्षत्रिय पु० ब्राह्मण स्त्री० से १ सूत, वैश्य पु० ब्राह्मण स्त्री० से २ वैदेहिक, शूद्र पु० ब्राह्मण स्त्री० से ३ चाण्डाल, वैश्य पु० क्षत्रिय स्त्री० से ४ मागध, शूद्र पु० क्षत्रिय स्त्री० से ५ क्षत्तार, शूद्र पु० वैश्या स्त्री० से ६ आयोगव नामक उप-जातियां उत्पन्न होती हैं । ये विवाहित स्त्रियों से यदि उत्पन्न हुयी हैं तो 'प्रतिलोमज' कहलाती हैं। इसी तरह पर उपरोक्त उप-जातियों में असम उप-जातियों के परस्पर विवाहिता तथा अविवाहिता स्त्रियों से जो संतान उत्पन्न होती हैं संकीर्ण संकर' उप-जातियां कहलाती हैं। अनुलोमज में पुरुष की जाति या उप-जाति ऊंची रहती है और स्त्री की नीची तथा प्रतिलोमज में स्त्री की जाति या उप-जाति ऊंची रहती है और पुरुष की नीची। प्रतिलोमजकी अपेक्षा अनुलोमज अच्छे समझे जाते हैं। यह सिद्धांत समस्त हिन्दू जाति और उप-जातियों में माना जाता है । ये सब जाति और उप-जातियां चाहे कितनी भी दूरकी हों सब हिन्दू समाजके अन्तर्गत हैं और हिन्दू-लॉ के • प्रमुत्वको मानती हैं । अनुलोमज और प्रतिलोमज वैवाहिक स्त्रियों से उत्पन्न संतानका विवेचन विवाह प्रकरणमें सविस्तार किया गया है इस सम्बन्धमें देखो नया फैसला 1922 B. L. R. 5. देखो दफा ५७
मान
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हिन्दूलों के स्कूलोंका वर्णन
[प्रथम प्रकरण
आति जन्म से है, जातिका निश्चित करना-महाराजा कोल्हापुर बनाम सुन्दरम् ऐय्यर 48Mad.1; तथा 1925 A.I. R Mad. 497 में यह माना गया है कि जाति जन्मका परिणाम हैन कि अपनी खशी या इच्छाका । यद्यपि कोई व्यक्ति जातिसे पतित हो सकता है किन्तु वह किसी कार्यके करनेसे ऊंची जातियों में नहीं जा सकता । केवल उन रसूमों की अदाई जो द्विजातीय करते हैं किसी शूद्रको अपने शूद्रत्वसे या चौथे वर्णसे द्विजाति में नहीं ली जाती । यद्यपि जहांपर किसी खानदानकी जातिमें सन्देह होता है और उसकी असलियतका पता नहीं लगता वहांपर उसकी जातिके विचारके लिये, उसके वैदिक या पौराणिक विधानोंका स्वभावतः (बिना किसी अभिप्रायके ) बहुत दिनों तक करते रहनेसे उसके जाति सम्बन्धी शहादत होती है।
जातिकी जानकारी-जातिके सम्बन्धमें जानकारी, वर्णके सम्बन्धमें एक अच्छी जांच है। महाराजा कोल्हापुर बनाम सुन्दरम् अय्यर 48 Mad. 13 A. I. R. 1925 Mad 497.
घरबरी गोसांई--घरबरी गोसांई शूद्र जातिके अन्तर्गत एक विरादरी है। घरबरीका अर्थ गृहस्थ है और दोनों शब्दोंका शाब्दिक अर्थ 'गृहस्थ सन्यासी है' अर्थात् वे विवाहित सन्यासी हैं जिनमें, सन्यासियोंके कुछ रसूमों में और परिणामोंके कारण स्वाभावतः परिवर्तन हो गया है। हरिगिरि किशन गिरि गोसांई बनाम श्रानन्द भारती (1925) M. W. N. 414 ; 21 N. L. R. 127, 22 L. W. 355; 88 I.C. 343; A.I R. 1925 P C. 127(P,C.)
ब्राह्मण बैरागी-यदि कोई ब्राह्मण वैरागी हो जाय, तो यह आवश्यक नहीं है कि उसकी जाति चली जाय। जसवन्त राव बनाम काशीनाथ राव, L. R. 6 All. 14; 86 I. C. 208; A. I. R. 1925 All, 253 (1)
मोहल राजपूत हैं--राजपूत जातिकी एक उप-जातिका नाम मोहल है पञ्जाबमें और कोई जाति नहीं है जोकि मोहल नामका गोत्र रखती हो पञ्जाबमें और कोई मनुष्य नहीं हैं जिन्हें कि मोहल कहलाये जानेका ठीक अधिकार हो, सिवाय राजपूतोंके, और उन चन्द जाटोंके, जो सही या गलत तरीकेपर, अपनेको राजपूतोंका वंशज होनेका दावा करते हैं । मियां गुलाम रसूल बनाम सेक्रेटरी श्राफ स्टेट 6 Lah. 2693; 52 I. A. 201; 23 A.L. J. 639; 86 I.C. 654; 20 W. N. 646; 22 L. W. 299; 26 Punj L. R. 3903 800. W. N. 101, A. I. R. 1925 P. C. 170 ( P.0.)
तऔरके राजा--तऔरके भूतपूर्व राजा शिवाजी शूद्र थे-महाराजा कोल्हापुर बनाम सुन्दरम् अय्यर 48 Mad. 1, A. I. R. 1925 Mad. 497.
जातिकी जांच--शूद्र बावर्चियोंका पेशा, इस बातका प्रवल प्रमाण है कि वे द्विजाति नहीं हैं वक्ति शूद्र हैं। महाराजा कोल्हापुर बनाम एस सुन्द्रम् भय्यर 48 Mad. 1, A. I. R 1925 Mad. 497.
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दफा १]
हिन्दूलों की उत्पत्ति
जातिकी जांच--कुमार स्वामी शास्त्री जजने कहाकि महज़ गोत्रोंके रखने से, यह प्रश्न, आया कि अमुक व्यक्ति शूद्र है या द्विजाति, नहीं हल हो सकता, क्योंकि बहुतसे शूद्र खान्दानोंमें गोत्र हैं, और उनमें से कुछ ऋषि गोत्र और भ-ऋषि गोत्र हैं। गोत्रके सम्बन्धमें एक महत्त्व पूर्ण बात प्रवर है और गोत्र और प्रवर एक साथ होते हैं। जहां तक शूद्रोंका सम्बन्ध है उनके गोत्र तो हैं किन्तु प्रवर नहीं, देखो महाराजा कोल्हापुर बनाम एस० सुन्दरम् अय्यर 48 Mad, 1; A. I. R. 1925 Mad. 497.
जातिमें यज्ञोपवीत--उपनयन संस्कार एक ऐसा संस्कार है जो द्विजाति अर्थात् ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्यको शूद्रोंसे पृथक करता है। जब यह विरोध उठ खड़ा हो, कि आया अमुक मनुष्य द्विजाति है या शूद्र, तो यह प्रमाणित किया जाता है, कि यज्ञोपवीत संस्कार नहीं हुआ, और यह इस बातके लिये, कि वह मनुष्य शूद्र है, उच्च वर्णका नहीं, एक बड़ी शहादत है शूद्रोंके सम्बन्धमें; जिनके यहां उपनयन संस्कार नियत नहीं है, यह रघाज है कि वे शादी या सतक संस्कारके समय यज्ञोपवीत ग्रहण करते हैं. और इसे अलङ्कार या लौकिक यज्ञोपवीत कहते हैं, जिसे कि वे बड़ी जातियोंके अनुकरणमें पहिनते हैं यद्यपि किसी स्मृति में उनके लिये इस प्रकारके धार्मिक संस्कारकी श्राशा नहीं है। महाराजा कोल्हापुर बनाम एस सुन्दरम् अय्यर 48 Mad, 1; A. I. R. 1926 Mad 497.
जातिमें यज्ञोपवीत-न्यज्ञोपवीतका धारण करना, यद्यपि इस योग्य है कि उसपर ध्यान दिया जाय; किन्तु जाति सम्बन्धमै वह अन्तिम निर्णय नहीं है। महाराजा कोल्हापुर बनाम एस सुन्दरम् अय्यर 48 Mad. 1; A. I. R. 1925 Mad. 497.
द्विजाति और शूद्रोंमें मन्त्र--वैदिक मन्त्र केवल तीन ऊंची जातियों या द्विजातियोंके लिये निश्चित किये गये हैं शूद्रोंके लिये उनकी मनाही है। शूद्रोंके विषयमें, उनके रसूम उन मन्त्रों द्वारा किये जाते हैं जो पुराणोंसे लिये गये हैं। महाराज कोल्हापुर बनाम एस० सुन्दरम् अय्यर 48 Mad. 13 A. I. R. 1925 Mad. 497.
जातिमें श्राद्ध-द्विजातियोंकी श्राद्धसे होमका करना रा पवित्र अग्नि को, जोकि प्रज्वलितकी जाती है पिण्डोंका देना, एक प्रधान अङ्ग है। शूद्रकी श्राद्धमें होमकी आवश्यकता नहीं है।महाराजा कोल्हापुर बनाम एस सुन्दरम अय्यर 48 Mad 13 A. I. R. 1925 Mad. 497.
क्षत्रिय या शूद्रकी जांच-श्राद्धके सम्बन्धमें; पूर्वजोंको जो भेट दी जाती है उसको पिण्डा कहते हैं। क्षत्रियोंमें पके हुए चावलके पिण्डे दिये जाते हैं किन्तु शूद्रोंमें पके हुए चावलोंके नहीं बक्ति आटेके पिण्डे दिये जाते हैं।
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हिन्दूलॉ के स्कूलोंका वर्णन
[प्रथम प्रकरण
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महाराजा कोल्हापुर बनाम एस सुन्दरम् अय्यर 48 Mad.1; A. I. R. 1925 Mad. 497. - जातिमें गायत्री मन्त्र--कुमार स्वामी शास्त्री जज कहते हैं कि गायत्री उपदेशका उपनयन संस्कारसे घनिष्ठ सम्बन्ध है। उपनयन संस्कारके समय गायत्री मन्त्रका पवित्र उपदेश ही, ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्यमें द्विजत्व प्रदान करता है । शूद्रोंको जिस मन्त्रका अधिकार है वह देवी भागवतका प्रथम चरण है वह गायत्री नहीं है । महाराजा कोल्हापुर बनाम एस० सुन्दरम् अय्यर 48 Mad. 1; A. I. R. 1925 Mad 497.
शूद्र जाति--यह माना जाता है कि वे समस्त जाते जिनके सम्बन्ध में यह प्रमाण नहीं है कि वे द्विजातीय हैं और जिनका शुमार अछूतोंमें है वे शूद्र हैं । महाराजा कोल्हापुर बनाम सुन्दरम् अय्यर 48 Mad. 1; A. I. R. 1925 Mad. 497..
अग्रवाल जाति--अग्रवाल कितनीही उप-जातियोंमें विभक्त है। धनराज जोहरमल बनाम सोनी बाई 52 Cal. 482752 I. A. 231; ( 1925 ) M. W. N. 6927 23 A. L. J. 273; 20 W. N. 335, 21 N. L. R. 50%B A. I. R. 1925 P. C. 118; 49 M. L. J. 173 ( P.C.)
लॉ- यानी क़ानूनकी उत्पत्ति सदा राजा अथवा पार्लिमेण्ट (राजसभा) से हुआ करती है । परन्तु हिन्दूला अर्थात् हिन्दू धर्म शास्त्रकी उत्पत्ति किसी राजा या राज सभासे नहीं हुई । हिन्दू इसकी उत्पत्ति ईश्वर से मानते हैं। पाश्चात्य नैयायिकोंक। यह सिद्धान्त कि, कानून राजाका आक्षारूप है, हिन्दू सिद्धांतसे बिल्कुल भिन्न है:--
हिन्दूलॉ की उत्पत्ति मुख्यतः नीचे लिखे ग्रंथ आदिसे हुई है:--
(१) श्रति, (२) स्मृति, (३) पुराण, (४) स्मृतियोंकी टीकाएं, (५) तत्सम्बन्धी लिखे ग्रंथ, (६) अदालती फैसले, (७) सरकारके बनाये कानून (८) रवाज। दफा २ श्रति
लोकमान्य श्री बाल गंगाधर तिलकने, अपने 'श्रार्कीटेक्ट श्राफ् दि वेदाज़' नामक ग्रन्थमें आर्योंका आदि निवासस्थान ध्रवप्रदेश बताया है। वहांसे वे पश्चिम, दक्षिण और आग्नेय (पूर्व-दक्षिण ) दिशाओंकी ओर फैले। इस देशमें जब वे आये उस समय यहां के अशिक्षित निवासियों में शिक्षा प्रचार किया। उत्तर हिन्दुस्थानमें पार्योंकी बस्ती होजाने पर उन्होंने उसका नाम "आर्यावर्त" रखा । कुछ कालके बाद 'भरत' नामक एक राजा अति पराक्रमी और वैभवशाली हुआ उस समय इस देशका नाम भारतवर्ष पड़ा।
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दफा २-३]
हिन्दूलॉ की उत्पत्ति
आर्य लोग, तप, योग, यज्ञादि कर्म करते और ईश्वरकी स्तुति किया करते थे। स्तुतिमें जो वाक्य वे पढ़ते थे 'मन्त्र' कहलाते हैं और वेदोंमें वे पाये जाते हैं। वेद उस समयकी संस्कृत भाषामें हैं और उनमें प्राचीन श्रार्योंके प्राकृतिक विचार आदि भरे हैं । जिन मन्त्रों द्वारा वे प्रेम पूर्ण, और मधुर वाणीसे ईश्वरकी स्तुति करते थे उन मन्त्रों को 'सूक्त' कहते हैं । प्रारम्भ कालमें यह सूक्त लिखे हुए न थे। गुरुके मुखसे सुनकर याद किये जाते थे। सूक्तोंमें प्रत्येक विषयका प्राकृतिक गंभीर ज्ञान भरा था और भिन्न भिन्न ऋषि मुनि उनमेंसे किसी एक विषयका एक विशेषज्ञ था । ये सब सूक्त कुछ कालके पश्चात एकत्र किये गये । सब सूक्तोंके समूह का नाम 'संहिता' रखा गया वे सब सूक्त भिन्न भिन्न रूपसे वर्तमान वेदोंमें पाये जाते हैं।
यज्ञादि कर्मोमें जब कोई वाद उपस्थित होता था तो यज्ञमें नियत 'ब्रह्मा' उसका फैसला किया करता था । जब वाद-विवाद बहुत ज्यादा बढ़े ता इस विषयके अलग ग्रन्थ रचे गये उनका 'ब्राह्मण' नाम रखा गया। पीछे कुछ ऐसे विषयोंकी चर्चा एकांत स्थानमें जाकर करनेकी पडी तत्सम्बन्धी विज्ञानका नाम 'आरण्यक' पड़ा प्रायः उनमें, ऐसे विषय रहते थे जैसे ईश्वरका रूप क्या है, संसारकी उत्पति कैसे, किस प्रकार हुई और अन्त कैसे, किस प्रकार होता है। मानव धर्म, नीतिधर्म, राजधर्म अदिके क्या नियम हैं। 'आरण्यक' के पीछे उपनिषदोंका नाम पड़ा उपनिषदोंमें विज्ञान मानवधर्म, लोकधर्म आदिका बीज भरा है। ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद, वेदकी चारों संहिताएं इन सबको श्रुति अथवा वेद कहते हैं।
वेदोंको श्रति कहते हैं--हिन्दूलॉ का मुख्य आधार वेदेही हैं। वेदोंसे प्राचीन भार्योंकी सभ्यता विज्ञान तथा उनके रवाजका बहुत अच्छा परिचय मिलता है मिस्टर गोल्डस्टकर अपने लिटरेरी रिमेन्स नामक ग्रन्थके पेज २७१ में कहते हैं. "लोगेांका यह ख्याल गलत है, कि वेदोंमें जिस हिन्दू समाजका वर्णन है वह चरवाहों और कृषकोंकासा समाज मालूम होता है"। आप कहते हैं कि, ऐसा नहीं है, बल्लि ऋग्वेदकी ऋचाओंमें जिस समाजका वर्णन है, वह बहुतही ऊंचे दर्जेकी सभ्यता रखनेवाला समाज मालूम होता है, क्योंकि इसके वर्णनमें बड़े बड़े नगरों और महा शक्तिशाली नरेशोंका वर्णन है। वेदोंमें कानूनका कम वर्णन है, परन्तु बहुतसी ऐसी बातें उनमें हैं कि, जिनसे कानूनका आधार लिया जा सकता है। दफा ३ स्मृति
हिन्दुओंकी प्राचीन पढ़नेकी प्राणाली ज़वानी याद करके उपस्थित रखनेकी थी जब ग्रन्थ बहुत हो गये और विषय ज्ञान विस्तृत हुआ तब सब
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हिन्दूलॉ के स्कूलोका वर्णन
[प्रथम प्रकरण
ध्यानमें रखना कठिन मालूम होने लगा इसलिये सब विस्तार कम करके ध्यानमें रखनेके लिये ऐसे सुलभ वाक्य रचनेकी चाल पड़ी जो थोड़ेही अक्षरों में अगाध अर्थ और विषयका बोध कर सकें इन वाक्योंको 'सूत्र' कहते हैं। सूत्र' के मुख्य तीन भाग हैं १ श्रौत सूत्र अर्थात् यज्ञादिके नियम, २ गृह्यसूत्र अर्थात् घरमें विधि-विधान दिन चर्या आदिके नियम और ३ धर्म सूत्र अर्थात् सामाजिक एवं राजकीय नियम । हिन्दूलॉ का मुख्यतः सम्बन्ध धर्मसूत्रोंसे है इनमें हिन्दुओंके सामाजिक कायदों, नियमोंका समावेश किया गया है इन्हींके आधार पर पीछे स्मृति ग्रन्थ लिखे गये जैसे मनु, याज्ञवल्क्य, पराशर आदि ।
हिन्दूलॉ का विस्तार मुख्यतः स्मृतियोंसे हुआ है। धर्मशान और धर्मसूत्र स्मृतियोंमें मुख्य हैं। यही हिन्दूलॉ के स्वरूप हैं । धर्मसूत्र एक प्रकार वेदोंकी कुन्जी हैं। क्योंकि उनमें वेदोंकी सब बाते बड़े अच्छे क्रमसे एकत्र की हुई हैं । ऐसे सवाल, जैसे-घरके मालिकका क्या कर्तव्यहै ? राजाके कर्तव्यकर्म क्या हैं ? न्याय कैसे करना चाहिये ? उत्तराधिकारके क्या नियम हैं ?--और ऐसेही अन्य विषय धर्मसूत्रोंमें लिखे हैं। धर्मसूत्रोंमें सबसे प्रसिद्ध महर्षि मनुका धर्मसूत्र है, जिसे मनुस्मृति कहते हैं। यह उन्होंने भृगुसे कही थी। पीछे भृगुने उसका प्रचार कियाः--
मनुस्मृति अध्याय १२ श्लोक १२६ इत्येतन्मानवं शास्त्रं भृगुप्रोक्तं पठन्दिजः।
भवत्याचारवानित्यं यथेष्ठां प्राप्नुयादतिम् ॥ भृगुके कहे हुए इस मानवशास्त्रको जो द्विज पढ़ता है, वह हमेशा श्राचारवान होता है और मरनेपर यथेष्ठ गतिको प्राप्त होता है (देखो दफा ९--६)
ध्यान रहे कि हिन्दुओंकी तरह बौद्धभी मनुस्मृतिको मानते हैं । मनुस्मृतिके बाद, याज्ञवल्क्य, पाराशर, नारद आदि स्मृतियोंका दर्जा है । यह सब महर्षि मनुके बहुत समय पीछे बनी हैं। दफा ४ पुराण
श्रुति, स्मृतिके सिवा हिन्दूलॉ का अधार १८ पुराण हैं। हिन्दुओंके और बड़े बड़े राजवंशोंके इतिहास एवं राजधर्म, न्याय, नीतिका गंभीर विज्ञान और अदालतोंमें काम आनेवाली बातें भरी हैं। .. __महाभारत सहित अठारह पुराणोंसेभी हिन्दूलों की उत्पत्ति हुई है। जस्टिस् महमूदने 9 All. 253, 289 गंगासहाय बनाम लेखराज सिंहके मामले
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दफा ४-६ ]
हिन्दूलों की उत्पत्ति
मैं कहा कि “पुराणों का दर्जा या तो श्रुति और स्मृतिके बीचमें है, या इन दोनोंके ठीक बाद है"
दफा ५ स्मृतियोंकी टीकाएं
स्मृतिओं की टीकाओंसे भी हिन्दूलों की उत्पत्ति हुई है । टीकाओंमें सर्व प्रधान यज्ञेश्वर योगिन् कृत याज्ञवल्क्यस्मृति की टीका मिताक्षरा है । बंगालको छोड़कर यह समस्त भारतमें माना जाता है ( देखो हफा १५ )
हिन्दूधर्मशास्त्र ईश्वरदत्त है । इसलिये राजा स्मृतियों में कही हुई श्राज्ञाओंके अनुसार उनका पालन कराता है । हिन्दूलॉ के प्रयोगोंके सम्वन्धमें राजाका क्या कर्तव्य है, इस विषयमें मनु कहते हैं:
मनु अ० ८ श्लोक० ४१
जातिजानपदान्धर्मान् श्रेणीधर्मांश्चधर्मवित् समीक्ष्य कुलधर्मांश्च स्वधर्मं प्रतिपादयेत्
जो राजा धर्मशास्त्र जानता है, उसे चाहिये कि सब जातिवालों और सब प्रांतों तथा सब संघों के क़ानूनको जानकर उनके कुलधर्म के अनुसार उसका पालन कराये ।
सदाचारी लोग और धर्मशास्त्रों के जाननेवाले द्विज, जो श्राचार वर्तते हों वही राजाको क़ानून बनाना चाहिये । किन्तु वह प्रान्तों और परिवारों और जातियोंके रवाजोंके विरुद्ध न हो क्योंकि मनुजीने कहा है कि “प्रमाणानिकुर्वीत तेषां धर्म्यान् यथोदितान् ७-२०३ अर्थात् अपने राज्यके निवासियोंके जो उचित रवाज हों उनको भी राजा क़ानूनके समान बनाये.
हिन्दुस्थानकी अदालतों और प्रिवी कौंसिल के जज राजाकी तरफसे सब मुकदमोंका विचार ऊपर कही हुई मनुकी आज्ञाओं के अनुसार करते हैं और उनके फैसले हिंदुओं को वैसाही पाबंद करते हैं जैसे सरकार के दूसरे क़ानून । वे ऐसे मुक़द्दमे नहीं फैसल करते जो दफा ३७ में कहे गये हैं. दफा ६ दूसरी बातें, डाइजेस्ट और क़ानून
हिन्दूलॉकी उत्पत्तिके दूसरे ग्रन्थ भी हैं, जैसे डाइजेस्ट, सरकारी क्क़ानून और रवाज | भारत सरकारके कुछ खास क़ानून जिन्होंने हिन्दू को कुछ तब्दील कर दिया है, या उसमें कुछ बढ़ा घटा दिया है निम्नलिखित हैं:
--
१ -- ऐक्ट नम्बर २१ सन् १८५० ई० जिसे 'लेक्पलोकी ऐक्ट' या 'फ्रीडम् आबू रिलीजन ऐक्ट' कहते हैं । इस क़ानूनका सिद्धांत यह है कि,
2
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हिन्दूलों के स्कूलोंका वर्णन
[ प्रथम प्रकरण
अब तक कोई हिन्दू, हिन्दूजातिसे निकाल न दिया जाय, तब तक उसकी जायदाद और उत्तराधिकार सम्बन्धी अधिकार कदापि नष्ट नहीं हो सकता ।
१०
२-- ऐक्ट नम्बर १५ सन् १८५६ ई० जिसे 'विडो रिमैरेज ऐक्ट' ( Widow Rem、rriage Act ) विधवा विवाहका क़ानून कहते हैं इसका सिद्धांत यह है कि, विधवा पुनर्विवाह कर सकती है और उस विवाहसे उत्पन्न उसकी सन्तान औरस मानी जायगी और उसे क़ानूनी हक़ सब प्राप्त होंगे पूरा क़ानून देखो विवाह प्रकरण के अंत में और भी देखो दफा ६५२
३- हिन्दू विल्सपेक्ट नं २१ सन् १८७० ई० ( अव इन्डियन सक् सेशनऐक्ट नं ३९ सन् १९२५ ई० की दफा ५७ ) और प्रोवेट एन्ड एडमिनिस्ट्रेशन ऐक्ट नं ५ सन् १८८१ ई० ( अव इन्डियन सक् सेशनऐक्ट नं ३९ सन् १९२५ ई० की दफा ५८) ये ऐक्ट हिन्दू वसीयतों से सम्बन्ध रखते हैं तथा इनमें वसीयत लिखनेवालों और प्रवन्धक श्रादिके अधिकारों, कर्तव्यों का वर्णन किया गया है ।
४ - ऐक्ट नम्बर ९ सन् १८७५ ई जिसे 'इन्डियन मेजारिटी ऐक्ट * ( indian Majority Act) भारतीय बालिका क़ानून कहते हैं । इसमें यह निश्चित किया गया है कि, हिन्दू अठारह वर्षकी उमर में बालिग़ जायगा देखो प्रकरण ५ ( नावालिगी और वलायत )
५ - ऐक्ट नम्बर २१ सन् १८६६ ई० जिसे 'नेटिव कनवर्टस मैरेज डिस्सोल्युशन ऐक्ट' ( Native Converts Marriage dissolution Act ) ईसाई है।नेवाले हिन्दुओंके वैवाहिक सम्वन्ध भंगका क़ानून कहते हैं । इस क़ानूनका यह नियम है कि, किसी हिन्दूके ईसाई होजानेपर उसका हिन्दू वैवाहिक सम्बन्ध अपनी स्त्री या पतिसे टूट जाता है ( देखा प्रकरण २ दफा ६१, ६४ )
६ -- ट्रान्स्फर आव प्रापर्टी ऐक्ट नं० ४ सन् १८८२ ई० यह ऐक्ट हिन्दूलॉ की जायदादके इन्तक़ाल ( हस्तान्तरित ) में पूर्ण प्रभुत्व रखता है । कुछ मामलोंमें नहीं लागू होता जिनका वर्णन हिन्दू गिफ्ट ऐक्टकी दफा २ । १२६ में हैं ।
७ -- गार्जिन एन्ड वार्डस ऐक्ट नं० ८ सन् १८६० ई० यह ऐक्ट हिन्दुओं की वलायत अर्थात् नावालिग्रीमें अदालत द्वारा वलीका नियत होना आदि मामलों में लागू होता है । देखो प्रकरण ५
८ -- चाइल्ड मेरेज रिस्ट्रेंट ऐक्ट सन् १९२८ यह क़ानून बालविवाह निषेध करता है और कन्या तथा वरकी उमर निश्चित करता है । इस समय यह बिल रूपमें है । सेलेक्ट कमेटी की रिपोर्ट आगयी है ऐक्ट इस ग्रन्थके परिशिष्ट में देखे और बिल विवाह प्रकरणमें देखा ।
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दफा ७]
हिन्दूलॉ की उत्पत्ति
प्राचीन हिन्दू धर्मशास्त्रोंमें मुआहिदा, शहादत, वरासतका सार्टीफिकट और ताजीरात हिन्दके उद्देश्यों तथा नियमोंका वर्णन है किन्तु अंग्रेजी कानूनों की श्रेष्ठताके कारण वे ज्योंके त्यों अब नहीं मानेजाते । जहांपर अंग्रेजी कानून, प्राचीन हिन्दू धर्मशास्त्रके विरुद्ध कोई बात मानते हैं वहांपर प्राचीन हिन्दू धर्मशास्त्रके नहीं मानेजाते । जैसे इन्डियन कंन्ट्राक्ट ऐक्ट नं०६ सन् १८७२ ई० के नियम हिन्दूलॉ ( हिन्दू धर्मशास्त्र) के 'मुआहिदेसे श्रेष्ठ माने जाते हैं मगर दामदुपटके नियमोंमें उसका प्रभाव नहीं पड़ता। इन्डियन एवीडेन्स ऐक्ट नं०१ सन् १८७२ ई० के नियम हिन्दूलॉके साक्षि प्रकरणसे प्रधान माने जाते हैं। सक्सेशन सार्टीफिकट ऐक्ट नं० ३६ सन् १९२५ ई० किसी हिन्दूके कर्जेकी डिकरी हेोनेसे पहले लागू होता है और ताजीरातहिन्द नं०४५ सन् १८६० ई० के अपराधोंके दण्ड सम्बन्धी नियम हिन्दूलॉ के समग्र दण्ड विधान से प्रधान माने जाते हैं इस तरहपर अंग्रेज़ी कानूनोंकी प्रधानता हिन्दूला (हिन्दू-धर्मशास्त्र) के कुछ सिद्धान्तों पर हो गयी है। दफा ७ हिन्दूलॉ का अदालतोंसे सम्बन्ध
ब्रिटिश भारतकी अदालतोंका अधिकार, हिन्दुओंके मामलोंके साथ हिन्दूलॉके लागू करनेका,इम्पीरियल पार्लिमेन्ट और प्रान्तीय सरकारोंके बनाये हुए कानूनोंसे पैदा होता है । यही कारण है कि ज्योंका त्यों हिन्दूधर्मशास्त्र आजकल अदालतोंमें नहीं माना जाता । कानूनोंसे उसका रूपान्तर होगया है। किस प्रांतकी अदालतमें कौनसा कनून किस विषयमें इस समय माना जाता है इसका उल्लेख हम नीचे करते हैं:--देखो पेज १२ का नक्शा ।
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१२
हिन्दूलों के स्कूलोंका वर्णन [प्रथम प्रकरण हिन्दूलों का अदालतों से सम्बन्ध अदालतै कानूनका नाम | विषय १-कलकत्ता, मदरास, गवर्नमेन्ट आव इंडि| उत्तराधिकार, जमीन, किराया और मालकी बम्बई हाईकोर्टों के या ऐक्ट सन१६१५६० वरासत और पक्षकारोंके व्यापार सम्बन्धी ओरिजिनल सिविल की दफा ११२ ( 5, 6 | सब कंट्राक्ट । जुरिस्डेक्डन Geo bCh 1) २-प्रेसीडेन्सी खफी- ऐक्ट नं०१५सन१८८२ प्रत्येक प्रेसीडेन्सीमें, प्रेसीडेन्सीकी खफीका फाकी अदालतें ई०की दफा १६ की अदालतों द्वारा प्रयोगनीय कानून वही
कानून है जो उस प्रेसीडेन्सीके हाई कोर्ट द्वारा उसके साधारण ओरिजिनल सिविल
जुरिस्डेक्शन में प्रयोग किये जाते है। ३-लयुक्त,बङ्गाल और ऐक्ट नं०१२ सन१८८७/ बरासत, उत्तराधिकार, विवाह, जाति या
आसामुकी प्रांतीय | ईकी दफा ३७ | कोई धार्मिक रवाज या संस्था । अदालते ४-बम्बई प्रांत की रेगुलेशन नं०४ सन | यह रेगुलशन किसी खास विषयको नहीं अदालतें
१८२७ई०की दफा २६ / निर्दादित करता। ५-मदरास प्रान्त की ऐक्ट नं०३ सन१८७३ | वरासत, उत्तराधिकार, विवाह, जाति या अदालतें
ई०की दफा १६ धार्मिक रवान या संस्था। ६-पजाबकी अदालतें ऐक्ट नं०४ सन१८७२/ बरासत, स्त्रियोंकी खास सम्पति, मंगनी,
ई०की दफा ५ जो | विवाह, तलाक, दान, दत्तक, बलायत, ऐक्ट ने० १२ सन नावालिगी, पारिवारिक सम्बन्ध, वसीयत, १८७८ ई०सेसंशोधि- | धर्मादे, बटवारा या कोई धार्मिक रवान या त हुआ है
संस्था । ७-अवधकी अदालतें ऐक्ट नं० १८ सन ।
उक्तंच १८७६ई० की दफा ३ ८-अजमेर और मे- रेगुलेशन नं० ३ सन
उक्तंच वाड़की अदालतें १८७७ ई०की दफा ७ ६-मध्य प्रदेश की ऐक्ट नं१२० सन१८७५ उपरोक्त सब मामलों में तलाक छोड़कर
अदालतेई की दफा ५ १०-बरमाकी अदालतें ऐक्ट नं०१३सन१८१८ वरासत, उत्तराधिकार, विवाह, या धार्मिक
ई०की दफा १३ रवाज या संस्था। यद्यपि इस नशे के नं. १ में विवाह या धार्मिक संस्थाओंका वर्णन नहीं किया गया है परन्तु 5 Bom 154, 167, 170 में माना गया है कि हाईकोर्ट उन सब मामलोंमें हिन्दूला के अनुसार विचार करता है । उपरोक्त कानूनोंमें से कुछ अदालतें हिन्दूला को उन मामलों में लागू करती है जिनमें मुद्दालेह हिन्दू हो और कुछ में जब दानों हिन्दू हो ।
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दफा ८ हिन्दूलॉ की उत्पत्तिका नक्शा
हिन्दूला
स्मृति
पुराण
अनुवाद तथा अन्य
मान्यग्रन्थ
ऋग्वेद सामनेद यजुर्वेद अथर्ववेद उपनिषद् श्रौतसूत्र गृह्यसूत्र धर्मसत्र (गद्य) धर्मसूत्र (पत्र)
मनुस्मृतिकी टीकाएं
याज्ञवल्क्यकी यकाएं
पाराशरकी टीकाएं
१४ पाराशर माधव
गौतम बौधायन आपस्तम्ब वसिष्ट विष्णु हारीत हिण्यक्ष उशनस यम कश्यप शंख
(नोट-अहाके क्रमसे इनका संक्षिप्त विवरण आगे दफा ९ में देखो)
याज्ञवल्क्यस्मृति नारदस्मृति पाराशरस्मृति अपूर्ण धर्शशास्त्र दूसरदर्जेकीस्मृतियां
मनुस्मृति
विज्ञानेश्वर अपराक विश्वरूप देवबोध बालं मदनः दाय | (मिताक्षरा) १२ १३ भट्टी पारि भाग ११
२१ जात २३ सुवोधनी २२
हिन्दूलॉ की उत्पत्ति
वृहस्पति
कात्यायन
मेधातिथि धरणीधर गोविन्दराज कुल्लूकभट्ट वरूचि धारेश्वर श्रीकर
१.
अंगिरस आत्रेय दक्ष देवल प्रजापति यम लिखित व्यास शंख वृद्धशातातप
ब्रह्माण्ड गरुड मत्स्य कूर्म वामन स्कांद बाराह लिंग वैवर्तत भविश्य अग्नि मार्कण्डेय नास्द भागवत शिव विष्णु पन ब्रह्म
दसकचन्द्रिका दत्तकमीमांसा वीरमित्रोदय
मयूरव विवादचिन्तमणि
विवादार्णवसेतु विवाद भंगार्णव विवादसारार्णव
११
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१४ .
हिन्दूलों के स्कूलों का वर्णन
[प्रथम प्रकरण
दफा ९ हिन्दुलॉ की उत्पत्तिके नक़शेका परिचय
(१) गौतम--बहुत प्राचीन हैं । ईसाकी पैदाइशसे ३०० वर्ष पहले हुए थे। गौतम सामवेदानुयायी हैं डाक्टर बुलरने गौतम, बौधायन, आपस्तंब
और वसिष्ठकी स्मृतियों का अंग्रेजी भाषान्तर किया है। देखो-मि० बुलरकी 'सेक्रेडबुक आफ दि ईस्ट' वाल्यूम 2-7, 14 विष्णुस्मृतिका अंगरेजी भाषान्तर मि० जालीसाहेबने किया है।
(२) बौधायन--गौतमके पीछे और ईसवी सनके २०० वर्ष पहिले पैदा हुए, यह दक्षिण हिन्दुस्थानके रहनेवाले थे और शुक्लयजुर्वेदके अनुयायी थे।
(३) आपस्तंब--ईसवी सनके १०० वर्ष पहिले के हैं । यह कृष्णयजुर्वेदानुयायी थे तथा आंध्रप्रदेशके रहनेवाले थे । हिन्दू कनूनमें जो कुछ उस समय गर्हणीय (निन्दनीय) विचार थे उन सब विचारोंको बड़े कड़ेपनसे इन्होंने त्याग दिया था इसीसे इनकी ख्याति है जैसे कि नियोग, पैशाचिक विवाह, अनेक किस्मके पुत्र, इत्यादि।
(४) वसिष्ठ--इनका समय निश्चित नहीं है, यह भी कृष्णयजुर्वेदानुयायी थे तथा उत्तर हिन्दुस्थानके रहनेवाले थे।
(५) हारीत--मि० जालीके मतानुसार यही स्मृलिके प्रथम लेखक हैं.
(५) मनु--रामकृष्णके मतके अनुसार ईसवी सन्के २०० वर्ष पहिलेका समय मनुका है। सरविलियम जोन्स और डाक्टर बुलरने इनकी स्मृतिका अंगरेजी भाषान्तर किया है (देखो सेक्रेड बुक्स आफ दी ईस्ट Vol. 25 ) सर जोन्सके अनुसार मनु ईसवीसन के १२८० वर्ष पहिले हुए थे स्क्जे लसाहेबका मत है कि मनु ईसवीसनके १००० वर्ष पहिले हुए थे । मि० एल्फिस्टनका कहना है, कि ईसवी सनके ६०० वर्ष पहिले मनु हुए थे । मिक मोनियर विलियम कहते हैं कि वह ईसवी सनके ५०० वर्ष पहिले हुए थे। महर्षि मनुका समय उपनिषदके समयके पश्चातका होना मालम होता है। प्रोफेसर मेक्समूलरने कहा है कि वेदके पश्चात्का समय मनुका है जो ईसवी सन्के २०० वर्षसे पूर्वका हो सकता है।
___ मनुका काल निश्चित करते समय यह आवश्यक है कि, पहिले यह निश्चित करें कि वर्तमान धर्मशास्त्रके बनानेवाले मनु, आदिके मनु थे या अन्तके। क्योंकि मन निस्संदेह अनेक हो चुके हैं नारदकी भमिकामें कहा गया है कि मनुके आदि धर्मशास्त्रमे १००० अध्याय और १००००० श्लोक थे। नारदने उसको संक्षेपमें १२००० श्लोकोंमें लिखा और उनके बाद सुमतिने और भी संक्षेप करके ४००० श्लोकोंमें लिखा। इस समय जो धर्मशास्त्र मनुके नामसे प्रचलित है वह संभवतः तीसरी बार संक्षिप्त किया गया है.
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दफा
हिन्दूलाँ की उत्पत्ति
क्योंकि इसमें २६८५ ही इलोक हैं। कहीं कहीं वृद्धमनु और वृहद्मनुका हवाला भी दिया गया है। इस विषयमें डाक्टर जालीकी यह राय है कि ये दोनों मनु हालके ज़मानेके थे।
सिस्टर मेन, कहते हैं कि मनुने अपने ग्रन्थमें वसिष्ठका और वसिष्ठने अपने ग्रंथमें मनुका हवाला दिया है। इससे यह मालूम होता है कि दोनों मनुके बीवमें बहुत काल बीता बौधायनने अपने ग्रन्थमें मनुका बताकर ऐसा . एक श्लोक उद्धृत किया है कि जिससे एकदम विपरीत अर्थवाला श्लोक वर्तमान मनु धर्मशास्त्रमें पाया जाता है (मनु -८६६०) तेरह चौदह सौ वर्षके पूर्वके ग्रन्थोंमें मनुका हवाला देकर उनके जो श्लोक उद्धृत किये गये हैं वे वर्तमान मनु धर्मशास्त्रमें ज्योंके त्यों नहीं, बल्कि उनके कुछ खण्ड पायेजाते हैं। मनुके वर्तमान धर्मशास्त्रमें ही कई ऐसी बातें लिखी हैं जो परस्पर विपरीत हैं । उदाहरणके लिये देखो मनु ४-२५० और ५-१५८, १६०, १६५, इन दोनों मेसे परस्पर बहुतही भेद हैं। उन दोनों अध्यायों में मांस भक्षण और विधवाके पुनर्विवाह विषयमें जो कुछ कहा गया है उसमें विरुद्धता है इसी तरहसे एक जगह तो कहा गया कि पत्नीके जीवनकालमें पति दूसरा विवाह नहीं कर सकता और दूसरी जगह कहा गया कि कर सकता है तथा यह भी कहा गया है कि पुरुषको अपने भाईकी विधवासे भाईके लिये सन्तान पैदा करने का अधिकार है। इन सब बातोंसे ऐसा मालूम होता है कि इन दोनों विषयोंके श्लोक भिन्न भिन्न कालके हैं।
प्रसिद्ध जर्मन संस्कृतज्ञ डाक्टर बुलरकी पहिले तो यह राय थी कि मनुका वर्तमान धर्मशास्त्र बिल्कुलही नये ज़मानेका ग्रन्थ है परन्तु इस प्रश्नपर अधिक विचार करनेके बाद उनकी राय बदल गयी । पीछे उन्होंने ऐसा माना कि आजकल जो मनु धर्मशास्त्र है इसका कुछ भाग तो अति प्राचीन मानव धर्मसूत्रके आधारपर है और बाकी उन रसम रवाजोंके आधारपर है जो इस ग्रन्थके लिखे जाने के समय प्रचलित थीं मानवसूत्रका आश्रय मनुने और महाभारतके कर्ताने भी बहुत कुछ लिया है महाभारतके कर्ताने कहीं कहीं वर्तमान मनु धर्मशास्त्रका हवाला दिया है।
डाक्टर जालीने यह सिद्ध किया है कि वृहस्पतिका धर्मशास्त्र जो तेरह चौदहसौ वर्ष पहिले लिखा गया था और जिसके अब कुछ खण्डही मिलसकते हैं उसी मनुके आधारपर लिखा गया था जिसके आधारपर हमारा वर्तमान मनु धर्मशास्त्र लिखा गया है । डाक्टर बुलर भी इस रायको मानते हैं और सब कुछ विचार करके वे इस नतीजेपर पहुंचते हैं कि भृगुसंहिता अति प्राचीन और आदि ग्रंथ है जिसमें उससे भी प्राचीन मनु धर्मशास्त्र उद्धृत किया गया है वही प्राचीन मनुका धर्मशास्त्र वर्तमान मानव धर्मशास्त्र है। यह मानना होगा कि यह एकही पुरुषका लिखा हुआ है परन्तु साथही यह
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हिन्दूलों के स्कूलों का वर्णन
[ प्रथम प्रकरण
भी सम्भव है कि किसी समय दूसरोंने उसमें कुछ नये श्लोक जोड़ दिये हों । बुलर साहेबकी राय है कि वर्तमान मानव धर्मशास्त्र या तो २१०० वर्ष पूर्व लिखा गया था या १७०० वर्ष पूर्व या इन दोनों के बीचमें ।
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वास्तवमै मनुका काल अति प्राचीन है ऊपर अनेक प्रसिद्ध पुरुषोंकी सम्मतियां बता दी गयीं मेरी रायमें उपनिषदके निर्माण करने के समय के या तो पीछे या लगभग उसी कालमें मनुका समय हो सकता है उपनिषदका समय निश्चित करने के लिये बहुत प्रमाणोंकी आवश्यकता है, विस्तारके भयसे इस विषयको यहीं पर छोड़ता हूं ( देखो दफा ३ )
(७) याज्ञवल्क्य - इस समयसे १४०० वर्ष पहिले हुए थे इनकी स्मृति का अंगरेजी भाषांतर मिस्टर बी० एन० मांडलीकने और डाक्टर रोवरने तथा हाल मिस्टर सेटलौर और मिस्टर घारपुरेने किया है जर्मनीमें भी इस स्मृतिका भाषांतर प्रोफेसर स्टेजलेरने सन् १८४६ ई० में किया था । इस स्मृति फैले हुए विषयको इकट्ठा करके कहा गया है ।
(८) नारद - पांचवीं शताब्दीमें पैदा हुये थे डाक्टर जालीने इसका अंगरेजी भाषान्तर किया है नारद नेपालके रहनेवाले थे इन्होंने क़ानून किस तरह बर्ताव में लाया जाय इसके नियम अच्छे बनाये हैं इन्हीं के बनाये हुए नियमों के अनुसार प्रायः अंगरेजी क़ानूनके बर्तावके नियम हैं ।
( १ ) मेधातिधि - नवीं शताब्दी में पैदा हुए मनुस्मृतिपर सबसे पहिली टीका इन्हीं की है । मिताक्षराकारने मेधातिथिसे कुछ अवतरण लिया है इससे मेधातिथि प्रख्यात क्क़ानून बनानेवाले समझे गये थे । मेधातिथिकी टीका अब कम मिलती है दो चार प्रति मैंने देखीं उनके मूलमें परस्पर विरोध मिला हर्षकी बात यह है कि मिस्टर घारपुरे M. A, L. L. B. गिरगांव बम्बई ने इस टीकाको प्रकाशित कर दिया है ।
(१०) कुल्लूक - - चौदहवीं शताब्दी में पैदा हुए इनकी टीका मेधातिथिके टीकाका सारांश है ।
( ११ ) विज्ञानेश्वर -- ग्यारहवीं शताब्दीमें पैदा हुए यह दक्षिण प्रांतकी चालूक्य नामक राजकी राजधानी कल्याण ( बम्बई प्रांत ) में रहते थे इनकी टीकाको डाक्टर कोलब्रुक साहबने अंग्रेजी भाषांतर किया है, हालमें मिस्टर सेटलौर और मिस्टर घारपुरेने भी भाषांतर किया है। इनके टीकाका नाम मिताक्षरा है बंगाल छोड़कर तमाम भारतमें माना जाता है ।
( १२ ) पार्क- -- सन १९४० ई० में पैदा हुए और १९५६ में मरगये यह कोकन प्रांतके राजा थे और इनका ग्रन्थ काश्मीरमें अधिक माना गया इस ग्रन्थके भाग पूनाके आनन्दाश्रम सीरीज़में निकले हैं। मिस्टर राजकुमार सर्वाधिकारी इस ग्रन्थके दायभागका अङ्गरेज़ी भाषांतर किया है ।
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दफा ६ ]
हिन्दूलों की उत्पत्ति
(१३) विश्वरूप - इस ग्रन्थके कुछ भागका अंग्रेजी भाषांतर मदरास लॉ जरनल में निकल चुके हैं । पहिले ऐसा समझा जाता था कि इस ग्रन्थका नाश होगया परंतु मलावार में एक प्रति इस ग्रन्थकी मिलगयी तथा मदरासके सीताराम शास्त्री वकीलने भाषांतर करके छपवा दिया ।
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(१४) पाराशर - - चौदहवीं शताब्दी में हुए थे ( Bibliotheca Indica series ) इस ग्रन्थ में पाराशर माधव छपचुका है ।
(१५) विवादार्णव सेतु -- (-- यह ग्रन्थ फिजूल समझा जाता है इसे हिन्दुस्थानके प्रथम गवर्नर जनरल वार्न हैस्टिंगस्के कहने से हलेद साहेबने सन् १७७३ ई० में अंग्रेजी भाषांतर किया था ।
(१६) विवादभंगार्णव -- इसे सर विलियम जोन्सके कहने से पं० जगन्नाथ तर्कपंचाननने निर्माण किया तथा मि० कोलब्रुकने अंग्रेजी भाषांतर किया इसे जगन्नाथ डाइजेस्ट कहते हैं ।
( १७ ) विवाद सारार्णव-- मिथिलाके एक सुप्रसिद्ध वकील पं० सरवरी त्रिवेदीने बनाया है । कहते हैं कि यह ग्रन्थ सर विलियम जोन्सके कहने से बना था।
(१५) विवादचिंतामणि -- पंद्रहवीं शताब्दी में बाचस्पति मिश्रने मिथि में इसकी सृष्टि की ।
( ११ ) मयूख- - इसे नीलकण्ठ भट्टने सत्रहवीं शताब्दी के शुरूमै लिखा था यह ग्रंथ महाराष्ट्र देशमें मिताक्षरासे दूसरे दर्जेपर माना जाता है।
(२०) वीरमित्रोदय -- सोलहवीं शताब्दी में लिखा गया था यह मिता क्षराका अनुयायी है और उसके अर्थको स्पष्ट करता है । इसे महामहोपाध्याय श्री मित्रने निर्माण किया चौखम्भा संस्कृत सीरीज़ काशी में प्रकाशित हो चुका है ।
( २१ ) वालभट्टी - - इसे वैद्यनाथकी स्त्री लक्ष्मी देवीने सत्रहवीं शताब्दी अन्तमें निर्माण किया इसमें प्रायः नन्द पंडितका हवाला दिया गया है इस टीकासे मिताक्षराके अनेक कठिन एवं ज़रूरी स्थलोंका अर्थ स्पष्ट हो जाता है इसका बम्बई प्रांत में अधिक आदर किया गया ।
(२२) सुबोधिनी -- इसे विश्वेश्वर भट्टने तेरहवी शताब्दी में बनाया यह कुशी काश नामक वंशमें पैदा हुए थे ।
(२३) दायभाग -- यह ग्रंथ बंगालके सुप्रसिद्ध पंडित जीमूतवाहनका निर्माण किया हुआ है। इनका ठीक समय नहीं मालूम होता मगर इनके ग्रंथके प्रसिद्ध टीकाकार रघुनन्द श्रीकृष्ण तर्कालङ्कार हैं जो सोलहवीं शताब्दीके शुरू में थे तथा उनके ग्रन्थमें गोविंदराजकी टीकाका ज़िकर किया गया है जो
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हिन्दूलॉ के स्कूलोंका वर्णन
[ प्रथम प्रकरण
बारहवीं शताब्दी में लिखी गयीथी । इसलिये ऐसा अनुमान होता है, कि जीमू तवाहनका समय तेरहवीं और पंद्रहवीं शताब्दी के बीचमें है । यह ग्रन्थ बंगाल प्रांत में सर्वोपरि माना जाता है ।
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(२४) दत्तकमीमांसा, दत्तकचन्द्रिका - दत्तकमीमांसाके निर्माणकर्ता हैं नन्द पंडित जो इस समयसे २५० या ३०० वर्ष पहिले हुए थे । इनकी सन्तान अभी उत्तर भारतमें विद्यमान है । दत्तकचन्द्रिकाके कर्ता हैं महामहोपाध्याय कुबेर, इनका समय नन्दपंडितसे पहिलेका है । यह दोनों दत्तकविषयके प्रधान ग्रन्थ हैं। दोनों समस्त भारतमें बराबर माने जाते हैं और जिस जगहपर वे एक दूसरेसे विरुद्ध होते हैं तो मिथिला और बनारस स्कूल में दत्तमीमांसा माना जाता है, मगर बंगालमें ऐसा होनेपर दत्तकचन्द्रिकाकी प्रधानता मानी गयी है । देखो - 12 M. I A. 398,437, 21 All. 460; 22 Mad. 398; 21 All 412, 419; 26I. A. 153, 161; 14 Bom. 249; 17 All 294.
दफा १० स्मृति और आचार के विरोध में आचारकी प्रबलता
" तत्र श्रुत्योर्विरोधेऽगृह्यमाण विशेषत्वात् द्वयोरपि तुल्यबलवत्त्वम्" एवं स्मृत्योराचारयोरपि विरोधे द्रष्टव्यं तुल्यन्यायत्वात- श्रुतिस्मृत्योर्विरोधे तु श्रुतिर्बलीयसी निरपेक्षत्वात - स्मृत्याचारयोर्विरोधे स्मृतिर्बलीयसी" इति वीरमित्रोदये - चौखंभा संस्कृत सीरीज़ नम्बर १०३ पेज २५
भावार्थ - - यह नियम माना गया है कि, श्रुतियोंके परस्पर विरोध होने में एवं स्मृति और आचारमें विरोध होने में दोनों बराबरके बलवान् हैं । श्रुति और स्मृतिके विरोध होने में श्रुति बलवान् है । स्मृति और आचारके विरोध होने में स्मृति बलवान् है । याज्ञवल्क्यने इस विषयपर कहा है किः-
1
स्मृत्योर्विरोधे न्यायस्तु बलवान् व्यवहारतः अर्थशास्त्रात्तबलवद्धर्मशास्त्रमिति स्थितिः । या०२-२१
अन्तमें इस विवादका निर्णय यह किया गया कि, श्रुति और स्मृतिके विरोधमें तो श्रुति बलवान् है, मगर स्मृति और आचारके विरोधमें आचार । इसका मतलब यह है कि, दो स्मृतियोंके विरोध होनेपर आचार बलवान् होगा, क्योंकि कहा गया है कि 'शास्त्राद्रूढ़िबलीयसी' यानी शास्त्रसे रवाज बलवान् होता है ।
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दफा १०-११ ]
हिन्दूलॉ का विस्तार
।
आचार और रवाजमें यद्यपि सूक्ष्मदृष्टिसे देखने में फरक़ हो सकता है किन्तु मोटे तरीक़े में नहीं । रवाजको अङ्गरेज़ी में कस्टम ( Custom ) कहते हैं । जिस किसी खास कुटुम्ब या समुदाय ( Class ) या जिलेमें कोई रसम बहुत दिनोंसे माना जाता हो वह रसम ( रवाज ) क़ानूनका दर्जा रखता है देखो--26 W. R. 55; R. & J's No. 41; 3 I. A. 259; 14 MI.A. 570, 885, 17 W. R. 553; 12 B. L. R. 396.
हिन्दूलॉ में यह माना गया है कि, किसी खास कुटुम्बमें जो रवाज या रसम हो वह साफ तौरसे साबित की जाय देखो - 11 B. H. C. 249; 10 W. R. (P.C.) 17; 12 M.I. A. 397; 1 B. L. R. (P. C.) 1; 3 M. H. C. 50; और देखो दफा ३०-३५
( २ ) हिन्दू लॉ का विस्तार
किसके लिये हिन्दूलॉ लागू होगा ? कौन आदमी हिन्दूलों के अधिकार में रहेंगे ? कौन आदमी हिन्दूलों के अधिकारमें नहीं रहेंगे ?
दफा ११ किसके लिये हिन्दूलॉ लागू होगा ?
हिन्दूलॉ सिर्फ उन्हीं आदमियोंसे लागू नहीं होता जो हिन्दू मज़हब मानते हों, बल्कि उन आदमियोंसे भी लागू होता है जो हिन्दू मज़हब के बाहर नहीं हैं चाहे वह ज़ाहिरा तौरपर हिंदू मज़हबकी रीतियों का पालन न करते हों । 30 Cal. 999 में यह बात मानी गयी है कि, जो हिन्दू ब्रह्मसमाजी होजाता है वह हिन्दू बना रहता है, क्योंकि वह पहिले हिन्दूही पैदा हुआ है. और ब्रह्मसमाज में वह हिन्दूधर्म के मानने से रोका नहीं गया इसलिये वह हिन्दू बना रहता है ।
हिन्दूलॉ उस आदमी से भी लागू होगा, जिसने हिन्दू धर्मकी खुराक और हिन्दुओंकी रसम रवाज छोड़ दिया हो देखो - 31 Cal. 11; जहां यह नहीं मालूम हो सके कि कोई समाज या जाति हिंदू है या मुसलमान, तो उनके विवाह और उत्तराधिकार विषयमें न्याय और सद्विचारके अनुसार अथवा उनकी जातिके रसम रवाजके अनुसार फैसला किया जायगा देखो
20 M. L. J. 49.
सिख, जैन, खोजा आदि कई ऐसी जातियां भी हैं, जो हिन्दू धार्मिक रीति रसम न मानने पर भी हिन्दूलॉ के प्रभुत्वमें रहती हैं।
जो हिन्दू ईसाई होजाय उससे सन १८६५ ई० का इन्डियन सक्सेशन एक्ट नम्बर १० लागू होता है । इस क़ानूनके पास होनेके पहिले ईसाई होजानेवाले
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हिन्दूलॉ के स्कूलोंका वर्णन
[प्रथम प्रकरण
हिन्दूको अधिकार था कि चाहे वह अपना प्राचीन हिन्दूला मानता रहे या न रहे परन्तु अब ऐसा नहीं होता यानी ईसाई होजानेवाला कोई हिन्दू अब भी हिन्दू रसम रवाज मानता है, प्रमाणके तौरपर मानी नहीं जायगी 2 Mad. I. L. R. 209; 19 B. 783.
इन्डियन सक्सेशन एक्टका संबंध हिन्दूकी जायदादसे नहीं है, परन्तु फिर भी कोई हिन्दू, किसी ईसाईकी जायदादका वारिस हो सकता है देखोउक्त कानूनकी दफा ३३१, मुसलमान हो जानेवाले हिन्दूसे भी हिन्दूला लागू नहीं होता 20 B. 53; 10 B. 1.
हिन्दूला उन हिन्दुओंसे लागू होगा, जो जन्म और धर्मसे हिन्दू हों देखो-9 M. I. A. 199-243; 'जन्म' से मतलब यह है कि जो हिन्दूकी प्रधानतामें पैदा हुए हैं और हिन्दूधर्म प्रकाशित नहीं किया देखो-भगवान कुंवर बनाम बोस 31 Cal. 11, 33; 30 L. A. 249; 19. Bom. 783, 788; इन मुक़दमोंमें माना गया है कि हिन्दूला उन लोगोंसे लागू नहीं होगा जो पैदाइशी हिन्दू नहीं हैं लेकिन सिर्फ हिन्दूधर्म मानते हैं । हिन्दू अवश्य पैदाइशी हो, बनाहुआ नहीं। प्रिवीकौसिलके सामने हालमै एक मार्कका मुकदमा पेश हुआ। मामला यह था कि एक हिन्दू क्षत्रीके मुसलमान स्त्रीले एक अनौरस पुत्र पैदा हुआ, वह पुत्र हिन्दू मानकर परवरिश किया गया और वह अपने तमाम जीवनभर हिन्दूधर्म तथा हिन्दू प्रतिमायें मानता रहा, उसका विवाह एक हिन्दू क्षत्रियानीके साथ हुआ, उस क्षत्रियानीके गर्भसे एक लड़का पैदा हुआ। अब प्रश्न यह उठा कि लड़का हिन्दू नहीं माना जा सकता, क्योंकि उसका बाप केवल हिन्दूधर्म मानता था, हिन्दू पैदा नहीं हुआ था। माननीय जजोंने दोनोंतरफकी बहस सुनकर कहा कि मुकद्दमेकी स्थितिके अनुसार हमारी रायमें इस विषयपर कोई राय देना ज़रूरी नहीं मालूम होता । देखो शरबहादुर बनाम गंगाबकस (1.113) 36All 101 115, 116; 41 I. A.1, 14; 22,I.C.293.
हिन्दुओंके अनौरस पुत्रोंसे हिन्दूला लागू होता है। बाप और मां यदि हिन्दूहों, चाहे परस्पर भिन्न नौमके हों और चाहे बिठलाई हुई स्त्रीके हों या विवाहिताके उनसे हिन्दूला लागू होगा 18 Cal 264. दफा १२ हिन्दूला किनसे लागू होता है ?
(१) सिख--सिखोंमें हिन्दूला लागू होता है, इसी कानून के अनुसार अदालतें उनके मामलोंका फैसला भी करती हैं । क्योंकि सिखोंकी गणना हिन्दू शब्दसे होती है उनके मामलोंमें न्याय और सदविचारके द्वारा विचार करनेकी पृथा काममें लायी नहीं जाती 31 C. 11; 30 I. A. 249; 5 Bom, L.P. 845; 13 M. L.J. 38, 1; 7 C. W. N. 895,
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दफा १२]
हिन्दूलॉ का विस्तार
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(२)जैन--(क) जैनियोंका अगर कोई खास रवाज विरोधी न हो तो उनसे भी हिन्दूलॉ लागू होगा 31 C. 11; 30 I. A. 249; 7 C.W.N. देखो--6 Bom; 895; L. R. 1052;29 B. 316, 11 Bom. L. R7973 3 Indian Cases 809.
आम तौरपर जैन अग्रवाल, जैन पंथका आधार ग्रहण करते हैं-धनराज जौहरमल बनाम सोनी बाई 30 C. W. N. 601. (ख) जिन प्रांतोंमें जैनी रहते हों उस प्रांतके पक्के हिन्दू उत्तराधिकार
के बिषयमें जो हिन्दूला मानते हों वही जैनियोंसे भी लागू होगा।
23 B. 157. (ग) अगर कोई रवाज विरोधी न हो तो अग्रवाल जैनियोंसेभी साधा
रणतः हिन्दूला लागू होता है 1 ( 1910 ) M. W. N. 432433; 14 C. W.N. 545. (P.C.); 6 Indian Cases 272; 7
A. L. J. 349; 12 Bom L. R. 412; 11 C. L. J. 454. (घ) बौद्ध, जैन और सिख, जिस प्रांतमें रहते हों उस प्रांवमें माना जाने
वाला हिन्दूलों उनसे लागू होता है 8 W. R.116; 4 C. 744;1a B. H.C. R. 241, 258; 17C.618; 2 C. W. N. 154; 22 B.416; 23 B. 257; 16 M. 182; 16 B.347, 1 A. 68893
A. 55; 16 A. 379. (३) कच्छी मेमन मुसलमान--जब तक किसी विरोधी रवाजका साफ साफ सुबूत मज़बूत न दिया जाय तबतक दायभाग और उत्तराधिकार के मामलोंमें कच्छी मेमन मुसलमानों से हिन्दूला लागू होता है 14 B. 189; 30 B. 270; 7 Bom. L. R. 447; 5 B. L. R. 1010.
मेमन खान्दान--संयुक्त परिवारके सम्बन्धमें माना जाने वाला हिन्दूलों का अमल नहीं होता। यूसुफ मुहम्मद बनाम अबूबकर इबरा A.I.R. 1925 Sind. 26.
कच्छी मेमन मुश्तस्का खान्दानके अस्तित्व और उसके कायम रखनेके सम्बन्धमें हित्दूलॉ को नहीं मानते केवल इस वाकयेसे कि चन्द खान्दान साथ. साथ रहते और व्यवसाय करते हों, ग्रह नहीं साबित होता कि वे मुश्तरका खान्दान हैं। इस बातके सबूतकी ज़िम्मेदारी, कि उन्होंने हिन्दू मुश्तरका खान्दानके नियमोंको स्वीकार किया, उसपर होती है जो इसे पेश करता है। तुलसीदास केशवदास बनाम फ़क़ीर मोहम्मद 93 1. C. 321.
जैती अग्रवाल-बहुतसे अग्रवाल जैन सम्प्रदायका प्राधार लेते हैं। वे मृतकी आत्माकी मुक्तिके सम्बन्धमें पिण्डोंका देना या श्राद्ध करना या किया कर्म करने में ब्राह्मण प्रणालीके रिवाजोंको नहीं मानते। वे इस बातपर
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हिन्दूलॉ के स्कूलोंका वर्णन
[ प्रथम प्रकरण
विश्वास नहीं करते कि कोई पुत्र, चाहे वह कुदरती पुत्र हो या गोद लिया हो पिताको आत्मिक लाभ पहुँचाता है । धनराज जौहरमल बनाम सोनी बाई 52 Cal. 482; 52 I. A. 231; (1925) M. W. N. 692; 87 I. C. 357; 27 Bom. L. R. 837; L. R. 6 P. C. 357; 23 A. L. J. 273; 2 O. W. N. 335; 21 N. L. R. 50; A. I. R. 1925 P. C. 118; 49 M. L. J. 173 ( P. C. ).
२२
(४) खोजा मुसलमान - - ( क ) जब तक कोई विरोधी रवाजका मज़ बूत, साफ साफ प्रमाण न हो तब तक खोजा मुसलमानोंमें दाय भाग, उत्तराधिकार और जायदादके सम्बन्ध में हिन्दूलॉ लागू होगा देखो - 12 B. H. C. 281; 13 B 534; 9 B. 115; 9 B 158; 3 C. 694; 6 B. 452; 10 B. 1; 1 B. H. C. 71-73; 2 B. H. C. 292; 9 B. 133; 38 B. 449.
( ख ) दायभाग और उत्तराधिकारके सम्बन्धमें जो शर्तें हिन्दूलों में लागू हुई हैं वह सब खोजा मुसलमानोंको माननीय होती हैं । जब कोई खोजा मुसलमान किसी जायदादका वारिस होता है तो उस जायदाद सम्बन्धी सब अधिकार और उसके देन लेनका भी ज़िम्मेदार होता है 29 B 85; 6 Bom. L. R. 874.
( ग ) अगर ' यह कहा जाय कि हिन्दूलॉके विरुद्ध कोई रवाज खोजा मुसलमानोंमें जारी है तो इस बातका बारसुबूत रवाजके बयान करनेवालेपर है । रवाज साबित करनेके बारेमें जो यह शर्तें हैं कि रवाज प्राचीन हो, कभी उस रवाजमें तब्दीली न होती हो, और क़ानूनकी तरह माननीय हो, इन शर्तोंका सख्ती के साथ पा लन खोजा मुसलमानोंमें न किया जायगा । सिर्फ यह साबित करना काफी होगा कि खोजा मुसलमानोंमें वैसी रवाज अधिकांश आदमी मानते हैं 12 B. H C. 294.
(घ) परन्तु रवाजके माने जानेके विषय में खोजा मुसलमानोंके केवल वालोगों की राय ही काफी नहीं होगी बल्कि मिसालें देकर उन्हें यह साबित करना होगा कि ऐसा रवाज माना जाता है 3 B. 34. और भी आगे देखो.
(ङ) असल बात यह है कि अभीतक कोई यह निश्चय नहीं कर सका कि खोजा मुसलमानों का हिन्दूलों से कितना संबंध है और प्रेसी डेन्सी शहरोंमें (कलकत्ता, बम्बई और मदरासमें ) मुसलमान या अंगरेजीलॉ से कितना है ? खोजोंके मामलों में विचार करते समय यह नहीं देखना चाहिये कि खोजा मुसलमानोंने कितना हिन्दूलॉ
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दफा १२]
हिन्दूलॉ का विस्तार
२३
ग्रहण किया है बल्कि यह देखना चाहिये कि उन्होंने कितना
हिन्दूला छोड़ा है 3 Indian Cases 124, 157. 158. (५) यूरोपियनोंके अनौरस पुत्र--दो हिन्दू स्त्रियोंसे एक यूरोपियनके कई एक अनौरस पुत्र थे, और वे सब हिन्दू रसम, रवाज मानते थे तो यह माना गया कि सब बातोंमें उनसे हिन्दूलॉ लागू होगा । हिन्दूला में कहा हुआ मुश्तरका हिन्दू खानदान वे लड़के नहीं बना सकते थे, परन्तु वे कोपार्सनर थे 8 M. I. A. 420 ( P.C.) ; 2 M H. C. 196; 2 Sindh. ( P. C. ) 4; यह लड़के हिन्दू रसम रवाज मानते थे, इसलिये उनका उत्तराधिकार भी हिन्दूला के अनुसार हुआ।
(६) हिन्दू या सिख जिन्होंने हिन्दू खानपान और धर्मकृत्य छोड़ दिये हैं-हिन्दू खानपान और धर्मकृत्य जो कि पक्के हिन्दूके लिये परमावश्यक हैं छोड़ देनेपर भी हिन्दू या सिख हिन्दूही माना जायगा, क्योंकि वह हिन्दू पैदा हुआ था और उस धर्मसे अलग नहीं किया गया 31 C. 11, 33.
(७) ब्रह्मसमाजी होजानेवाले सिख और हिन्दू--यह ज़रूरी नहीं है कि ब्रह्मसमाजी होजानेवाले सिख और हिन्दू अपनी जातिसे अलग समझे जावे 31 C. 11, 33.
(८) पंजाबके कृषक समाज-पंजाबकी कृषक जातियां हिन्दूलॉ सख्ती से नहीं मानतीं, परंतु उसका असर अवश्य उनके कस्टमरीलॉ पर पड़ा हुआ है 11 P. R (1908); 92. P, L. R. 1901.
(६) दो धर्म माननेवाले खानदान--जो खानदान हिन्दू और मुसलमान दोनोंके रसम और रवाज मानते हों उनसे हिन्दूला लागू किया जायगा 4 A. 343; 25 B.F51.
(१०) मोलासेलमगिरासिया--मोलासेलमगिरासिया पहिले राजपूत हिन्दू थे, पीछे मुसलमान होगये । दायभाग उत्तराधिकारके मामलोंमें उनसे हिन्दूला लागू होता है 20 B. 181.
(११) सुन्नी बहोरे मुसलमान--गुजरातप्रांतके अंतर्गत ढंका तालुक्के के सुन्नी और बहोरोंसे उत्तराधिकार और दायभागमें हिन्दूला लागू होता है 20 B. 53.
(१२) एक प्रांतसे दूसरे प्रांतमें जा बसनेबाले खानदानोंसे कौनसा लॉ लागू होता है ? - (क) कोई हिन्दू खानदान जो एक ज़िलेसे दूसरे जिलेमें जाकर बसा हो,
या एक प्रांतसे दूसरे प्रांतमें जाकर बसा हो, उसके बिषयमें यही माना जायगा कि वह अपने खानदानका रसम रवाज अपने साथ
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२४
हिन्दूलों के स्कूलोंका वर्णन
[ प्रथम प्रकरण
ले गया है । बारसुबूत इस बातका उस पक्षपर है जो यह बयान करे कि उसने अपना क़ानून बदल दिया या उसने अपना रसम व रवाज छोड़ दिया देखो -- 27 A. 203; 2 ALJ 720; 29 C. 433; 29 I.A. 82;24M 650.
(ख) हिन्दू खानदानोंसे उनकी उत्पतिके स्थानोंका हिन्दूलॉ लागू होता है, न कि उनके रहने के स्थानका । जब तक ऐसा साबित न किया जायगा तबतक उत्पतिके स्थानका लॉ ही उनसे लागू समझा जायगा W. R. 1864-56; 8 W. R. 261; 21 W.. 89; 13 W. R. 47; 1 B. L. R. (P. C.) 26; 10 W. R. ( P. C ) 35; 12 M. I A. 81.
( ग ) जब कोई हिन्दू खानदान दायभाग स्कूल मानता हो, दूसरे प्रांत में चला गया हो जहां वह न माना जाता हो तो माना जायगा कि कि वह अपने साथ दायभाग ले गया है । बारसुबूत उस पक्षपर है जो बयान करे कि उसने दायभाग स्कूल छोड़ दिया 3 Indian Cases 563; 31 A. 477; 6 A. L. J. 591.
(घ) गुजरात से किसी दूसरी जगह जा बसनेवाले हिन्दू खानदान अपने साथ मयूख लॉ ले जा सकता है, जबतक कि इसके खिलाफ साबित न किया जाय 6 M. L. T. 18.
(ङ) अगर कोई कहे कि किसी खानदानने दूसरी जगह बसकर अपना लॉ छोड़ दिया है तो ऐसा कहने वालेको जायदाद के मामले में यह साबित करना होगा कि उस खान्दानने जायदादके मामलेमें उस दूसरे प्रांतका लॉ स्वीकार कर लिया है 5 M. L. T. 181. (च) दूसरी जगह में बसा हुआ कोई हिन्दू खानदान अपने पहिले के
स्थानका हिन्दूलॉ अब भी मानता है इसका खण्डन करनेके लिये यह कहा जा सकता है कि विवाहके सिवाय और सब कृत्य उस दूसरे स्थानके लॉके अनुसार होते हैं 6 W. R. 295 और देखो 29 I. A 70; 29 C. 483 और देखो दफा ३६
(१३) नाम बुद्धी ब्राह्मणों में हिन्दूला माना जाता है। यदि रवाज किसी बात में विरुद्ध हो तो रवाज मानी जाती है। देखो -- विष्णु बनाम अक्कापा 34 Mad. 496.
घरबारी गोसाई -- चन्द खास रवाजोंके अलावा घरबारी गोसाइयों में आमतौर से हिन्दूला माना जाता है । देखो -- हरीगिरि किशनगर बनाम आनन्द भारती 1925 M. W. N. 414; 88 I. C. 343; 1925 A. I. R. 127 P. C.
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दफा १३]
हिन्दूलों का विस्तार
गोंड़ और राजगोंड--न गोंड़ और न राजगोंड़ ही हिन्दू हैं और इसी घजह से हिन्दूला उनपर लागू नहीं होता । जब उनमें से कोई मर जाता है तो उसकी विधवा उसके पूरे अधिकारकी वारिस होती है और उसके द्वारा किये हुए इन्तकालपर यदि वह पूर्वजों की जायदाद से सम्बन्ध न रखता हो, कोई भावी वारिस एतराज नहीं कर सकता । देखो--जनकू बाई बनाम पारवती 87 1. C. 1036; A. I. R. 1925 Nag. 353.
नोट--मानभूमिके जिले के कुर्मी महतों जातिगत आदि निवासी हैं उनमें वरासत के मामलेमें हिन्दूलों के प्रभुत्व की पावन्दी नहीं हैं देखो-कृत्तिभाष महतों बनाम बुधन महतानी 6 Pat. L. J. 604: 89 I. C. 796: 1926 A. I. R. 733 Pat. दफा १३ हिन्दूलॉ किन लोगोंसे नहीं लागू होगा ?
(१) जब कोई हिन्दू मुसलमान होगया हो--साधारणतः मुसलमान लॉ ही उन लोगोंसे लागू होता है जो हिन्दूसे मुसलमान होते हैं । परन्तु जो लोग मुसलमान हो जानेपरभी हिन्दू रवाज मानते हैं उनसे केवल उत्तराधिकार
और दायभागके मामलों में हिन्दूला लागू होगा, बाकीमें नहीं । यदि कोई कहे कि उन लोगोंमें हिन्दूलॉ के रवाज के विरुद्ध कोई रवाज जारी है तो उसका बारसुबूत उस पक्षपर होगा जो इसे बयान करता हो 20 B. 53; 10 B. 1 जो हिन्दू मुसलमान हो गये और कई पुश्तों तक वही धर्म मानते रहे तो उनकी जायदादके उत्तराधिकारका फैसला मुसलमान लॉ के अनुसार होगा। देखो--.1 Agra. F. B. 39; 2 Agra 61; 2 Agra 82.
(२) जो हिन्दू मुसलमान हो गया हो उस की जायदाद किसको मिलेगी?--मुसलमान हो जाने के समय तक जितनी जायदाद किसी हिन्दूकी हो उसके हक़दार वही लोग होते हैं जिन्हें हिन्दूलों के अनुसार होना चाहिये। बापके मुसलमान होते ही बेटा सारी मुश्तरका जायदादका एक मात्र मालिक हो जाता है 29 A. 481 परन्तु मुसलमान होनेके बाद जो जायदाद वह प्राप्त करे उसका उत्तराधिकार मुसलमान लॉ के अनुसार होगा 10 M. I. A. 537.
(३) ईसाई हो जाने वाले हिन्द--(क) इण्डियन सक्सेशन ऐक्ट नं० १० सन १८६५ ई० के पास होनेसे पहिले ईसाई हो जाने वाले हिन्दुओंको अधिकार था कि उत्तराधिकारके विषयमें हिन्दूला माने या न माने देखो-- 1 W. R. ( P. C. ) 1; 9 M. I. A. 195 परन्तु इस एक्टका असर उसके पास होनेसे पहिलेके समय पर नहीं पड़ता अर्थात् उसके पास होनेके पहिले जो अधिकार किसीको प्राप्तहों उनपर इस एक्टका असर नहीं पड़ता 2M 209. (ख ) अब्रहाम बनाम अब्रहामके मामलेमें माने हुए सिद्धांत--प्रिवी.
कौंसिलने इस मामलेमें (9 M I. A. 195 ) यह माना कि किसी आदमीके ईसाईहो जानेपर उसके अधिकारों और सम्बन्धों
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२६
हिन्दूलॉ के स्कूलोंका वर्णन
[ प्रथम प्रकरण
पर जिनसे ईसाई मतका कुछ सम्बन्ध न हो उस आदमीके ईसाई हो जानेका कोई असर नहीं पड़ता। ऐसा आदमी आगे अपने चलनसे यह दिखला सकता है कि उन मामलों में वह कौनसा लॉ मानना चाहता है। चाहे वह अपना पुराना लॉ माने या छोड़ दे, ईसाई हो जाते ही उस आदमीका सम्बन्ध उसके खानदानसे छूट जाता है । यह मुक़द्दमा इण्डियन सक्सेशन ऐक्टके पास होने से पहिलेका है, आज कल ईसाई हो जाने वाले आदमियोंसे उक्त एक्ट लागू होता है अर्थात् उसके असर से अब ईसाई हो जाने वाले हिन्दू, हिन्दूला नहीं मान सकते हैं ।
(ग) दो भाई हिन्दू थे, पीछे वह दोनों ईसाई हुए । ईसाई होनेपर वे जैसा कि पहिले हिन्दू रहनेपर शामिल शरीक रहते थे उसी तरह पर शामिल शरीक रहते थे उसी तरहपर रहते रहे । कुछ दिन बाद एक भाई मर गया और उसने एक विधवा छोड़ी । मदरास हाईकोर्ट ने माना कि मृतकी जायदादका एक आधा हिस्सा उसके वारिसको मिलेगा, मगर बम्बई हाईकोर्टने यह माना कि सर वाइवरशिप ( दफा ५५८ ) के अनुसार दूसरे भाईको मिलेगा 10 Mad. 69; 31 Bom. 25; 40 Cal. 407, 417, 418.
( ३ ) हिन्दूलॉ के स्कूलों का वर्णन
दफा १४ 'स्कूल्स आफ् लॉ' का अर्थ और भेद पड़नेका कारण 'स्कूल' शब्द का अर्थ मदरसा या मकतब या पढ़ने की जगहका व्यापक हो गया है। यहांपर 'स्कूल' का अर्थ ऐसा कदापि न समझना चाहिये 'स्कूल' शब्दका यहां पर अर्थ है शाखा, संप्रदाय, ( देखो इंगलिश संस्कृत डिक्शनरी, पं० वामन शिवराम आप्टे सन १९१४ ई० पेज ३७८ ) 'स्कूल्स् आफ लॉ' यह अङ्गरेज़ी वाक्य है जिसका अर्थ है क़ानूनकी शाखाएं । यह क़ानूनकी शाखाएं हिन्दूलॉ की शाखाएं कहलाती हैं। आगे इस क़ानूनमें 'स्कूल' के नामसे या 'हिन्दूलॉ के स्कूल' के नामसे कही गयी हैं। जहांपर 'स्कूल' शब्दका प्रयोग किया गया हो वहां पर हिन्दूलों की उस शाखासे मतलब समझना चाहिये । स्कूलोंमें भेद पड़नेका कारण -- -- मिस्टर मेनने कहा है 'स्कूल्स् आफ् लॉ' ( Schools of Law) यह शब्द हिन्दुस्थानके प्रत्येक भागों में भिन्न भिन्न क़ानूनके अर्थ सबबसे बना है। स्कूलका अर्थ है 'शाखा,' अगर आप भिन्न भिन्न स्कूल बनने का पूरा पूरा इतिहास देखना चाहें तो देखो ( कलक्टर आफू मदुरा
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दफा १४-१५]
हिन्दलों के स्कूलोंका वर्णन
૨૭
बनाम मुटूरामलिंग 12 M. I.A 435.) इसमें कहा गया है कि जो किताब सब जगह मानी जाती थी उसपर सब स्थानोंमें अलग अलग टीकायें हुयीं, उनमें टीकाकारोंने अपना अपना मत प्रदर्शित किया, यानी एक टीकाकारका मत एक जगह माना गया मगर दूसरी जगह नहीं; इसी तरहपर दूसरे टीकाकारका मत दूसरी जगह माना गया मगर अन्य जगह नहीं, इन टीकाओंके अर्थोके फरक़से भिन्न भिन्न स्कूल बन गये। जैसे मिताक्षरा और दायभाग एकही याज्ञवल्क्यस्मृतिकी टीकायें हैं,परंतु मिताक्षरा बंगालको छोड़कर बाकी सब हिन्स्थानमें मानागया और दायभाग सिर्फ बंगालमें । इसी तरहपर मिताक्षराके ऊपर जितनी टीकायें हैं वह एक जगहपर एककी तथा दूसरी जगहपर दूसरे की टीका मानी जाती है। इसी सबबसे हिन्दुस्थानमें ६ प्रधान स्कूल होगये। दफा १५ हिन्दूलॉ की शाखाएं
मिस्टर कोलबुकने अपनी हिन्दूलॉ में हिन्दूलॉ के दो बड़े स्कूल माने हैं जिनका सिद्धांत एक दूसरेके विरुद्ध है । मिताक्षरा स्कूल और दायभाग स्कूल। मिताक्षरा स्कूलके अनुयायी थोड़े थोड़े फरक़के साथ भिन्न भिन्न होते हैं वास्तबमें उन सबका सिद्धांत एकही है, मगर दायभाग स्कूलका सिद्धांत बिल्कुल अलग है।
मिस्टर मोर्लेके मतसे मिताक्षराके मुख्य चार स्कूल हैं, बनारस, मिथिला, बम्बई, और द्रविड़ । तथा द्रविड़के अन्तर्गत तीन भाग किये गये हैं, द्रविड़, कर्नाटक, और श्रान्ध्र । इसी तरहपर मदरास हाईकोर्ट और जुडीशल् कमेटीने बनारस स्कूल और द्राविडस्कूलको कुछ फरक़के साथ माना है इसी तरहसे आंध्र और द्रविड़को भी माना है। डाक्टर बर्नल कहते हैं कि कर्नाटक स्कूल और आंध्रस्कूल यह दोनों बिना मतलबके हैं मगर आगे उन्होंने जैसा कि कोलबुक साहबने माना था कि हिन्दूलॉ के अंदर दो बड़े स्कूल हैं दायभाग और मिताक्षरा, इस रायसे सहमत होजाते हैं। स्कूलों के विषयमें जस्टिस महमूदकी राय देखो--गंगासहाय बनाम लेखराजसिंह 9 All. I.L. R. 290.
हिन्दूलॉ के स्कूल
मिताक्षरा स्कूल
दायभाग स्कूल (बङ्गाल स्कूल)
बनारस मिथिला
बम्बई द्रविड़ या मदरास
. महाराष्ट्र
गुजरात द्रविड़
कर्नाटक
आन्ध्र
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२८
हिन्दूलॉ के स्कूलोंका वर्णन
[प्रथम प्रकरण
दफा १६ मिताक्षरा और दायभागमें क्या फर्क है ?
अगर मिताक्षराके साथ दायभागका मुक़ाबिला किया जाय तो यह बात मालूम होजायगी कि दोनों धर्मशास्त्रोंमें सिद्धांत पक्षका ही विरोध है। समझनेके लिये कुछ सिद्धांत दोनों स्कूलोंके नीचे देखिये,अागेप्रकरण ६,८ और ६ में विस्तारसे वर्णन किया गया है।
मिताक्षरा और दायभागका भेद मिताक्षरा
दायभाग १-लड़केको जन्मसेही पैतृक जायदाद लड़केको जन्मसेही पैतृक जायदादमें में हक प्राप्त हो जाता है। बाप कोई हक़ नहीं प्राप्त होता। बाप अपनी अपनी जिंदगीमें मौरूसी जायदाद | जिंदगीमें मौरूसी जायदादका पूरा का पूरा अकेला मालिक नहीं है। अकेला मालिक है। लड़का बापले लड़का बापसे बटवारा करा सकता बटवारा नहीं कर सकता। देखो दफा है। देखो दफा ३८६, ४०२, ५०५ ४६२,४६३, ४६४ २-मुश्तरका खानदानमें हरएक आदमी मुश्तरका खानदानमें बापके मरनेके का हिस्सा अलहदा नहीं होता, वह बाद भाइयोंमें या दूसरे भिन्न शाखासब सरवाइवरशिपके साथ मुश्तर- वाले रिश्तेदारोंमे हरएक आदमी अपने का काबिज रहते हैं तथा मदरास | अपने हिम्सेकी जायदादका पूरा मालिऔर बंबई प्रांतके सिवाय कोई क है, और वह बिना मंजूरी दूसरे आदमी अपने मुश्तरका हिस्सेका शरीक कोपार्सनरोंके अपने हिस्सेका इन्तकाल नहीं कर सकता बिना इंतकाल कर सकता है, रेहन कर मंजूरी दूसरे कोपार्सनरोंके। सकता है, दान करा सकता है। ३-वरासतका क्रम करीबकी रिश्तेदारी | वरासतका क्रस धार्मिक प्रभावपर
या खानदानी संबंध हीसे निर्धारित निर्भर माना गया है। स्त्रीसंबंधी रिश्तेकिया जाता है। स्त्रीसंबंधी रिश्ते- दारोंके मुक़ाबिलेमें मर्दसंबंधी रिश्तेदारोंके मुक़ाबिलेमें मर्दसंबंधी रिश्ते- दारोंको प्रधानता नहीं दी गयी है। दारोंको प्रधान्ता दीगयी है। ४-मुश्तरका खानदानके किसीभीआद- मुश्तरका खानदानके किसी आदमीके मीके नाम जो जायदादखरीदी गयी नामसे अगर कोई जायदाद खरीद की हो उसे अदालत मुश्तरका जायदाद | गयी हो तो अदालत यह नहीं ख्याल ख्याल करती है और जो आदमी करेगी कि वह मुश्तरका है । जो यह उसे मुश्तरका न वयान करता हो | बयान करता हो कि जायदाद मुश्तरका पारसुबूत उसी पर होगा । देखो- है तो बारसुबूत उसीपर होगा । देखो
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दफा १६-१७]
हिन्दूलॉ के स्कूलोंका वर्णन
२३.
31 A. 477, 6 A. L. J. 591; | 31 A. 407; 31 C. 448.
3 Ind.Case 563; 31 Cal. 448. ५-कोपार्सनरोंके हक़की बुनियादपुत्रके | कोपार्सनरोंके हककी बुनियाद बापके जन्मसेही होती है । बापकी जिंद- मरने के बादसे होती है । बापकी जिंदगीमें पुत्र कोपार्सनर होता है। गीमें पुत्र कोपार्सनर नहीं होता। स्त्रिस्त्रियां कभी कोपार्सनर नहीं होती। यांभी वारिस बनकर कोपार्सनर हो
| जाती हैं। ६-जब किसी आदमीने मुश्तरका खान- | मुश्तरका खानदानके किसी आदमीपर दानकी जायदादका हिस्सा नीलाम- | जब अदालतसे कर्जेकी डीगरी हो और में खरीद किया हो तो वह कभी उसके नीलाममें जिसने जायदाद खरीकोपार्सनर नहीं होगा, बल्कि उसे दी हो वह खरीदार उस श्रादमीके बटवारा कराना होगा तब खरीदी | स्थानापन्न होकर कोपार्सनर हो जाता हुई जायदादपर वह क़ब्ज़ा पावेगा | है, इसी तरहपर पट्टेदार, ठेकेदार भी पट्टेदार, ठेकेदार, कभी कोपार्सनर | होजाता है। नहीं हो सकता, और न उनका स्थानापन्न हो सकता है। ७-मुश्तरका खामदानके सब लोग मुश्तरका खानदानके सब लोग जायजायदादको काबिज़मुश्तरक ( Joi- दादको कबिज शरीक ( Tenant in ntteuant ) रखते हैं यानी सर- common ) रखते हैं यानी सरवाइवाइवरशिपके हनके साथ कञ्जमें वरशिपका हक्न नहीं होता । तथा रखते हैं। तथा मुश्तरका खानदान मुश्तरका खानदानके मेनेजरके अधिके मेनेजर के अधिकार ट्रस्टीकी | कार बहुत कुछ टूस्टीकी तरह हैं 32
तरह नहीं होते। देखो 32M 271. M. 271, 19; M. L. J. 70. ८-जब कोई मुश्तरका खानदानका | जब कोई मेम्बर बटवारेका दावा करे मेम्वर बटवारेका दावा करे तो वह | तो वह पिछला हिसाब मुश्तरका खा. मेनेजरसे पिछला हिसाब नहीं मांग नदानका मेनेजरसे तलब कर सकता है। सकता, सिर्फ यह पूछ सकता है कि इस वक्तका हिसाब कितना है। दफा १७ मुश्तरका जायदादमें बाप और बेटेका हक़
दायभाग यानी बंगाल स्कूल और मिताक्षरा स्कूलमें बहुत बड़ा फरक है। बंगाल स्कूलका सिद्धांत है कि बाप अपनी जिंदगीमें अकेला तमाम जायदादका मालिक है यानी बेटे बापके जीतेजी जायदादके बटवारा करानेकी बातभी नहीं कहसकते और न ज़ोर दे सकते हैं क्योंकि बेटोंके लिये मिलकि
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३०
हिन्दूलॉ के स्कूलोंका वर्णन
[प्रथम प्रकरण
कियत उनके पैदा होनेसे नहीं पैदा होजाती बल्कि बापके मरनेके याद उस मिलकियत पर बेटोंका हक़ पैदा होता है इसलिये मौरूसी जायदादमें भी बाप की जिंदगीमें बिला रज़ामंदी वापके तक़सीम नहीं हो सकती । बापके मरनेपर बेटोंको सिर्फ वही जायदाद मिलेगी जो बापने छोड़ी हो । यह ज़रूर है कि बापचाहे असली मौतसे या कानूनी मौतसे मरा हो मगर पहिले लड़कोंको उसकी छोड़ी हुई सब जायदाद ज़रूर पहुंच जावेगी । सब लड़के उत्तराधिकारके अनुसार मालिक होंगे और बटवारा करानेका हन उस वक्त पैदा हो जावेगा देखो दफा ४६१ से ४७५
मिताक्षरा स्कूलमें ऐसा नहीं होता बापके जीतेजी बेटा मौरूसी जाय दादका बटवारा करा सकता है क्योंकि बेटा कोपार्सनर है, और अगर बापने बिला कानूनी ज़रूरतके जायदाद बेच दी हो या रेहन कर दी हो तो उसे वेटा मंसूख करा सकता है । देखो दफा ४५५ से ४५७ दफा १८ शामिल शरीक हिस्सेदार
दायभागमें सहोदर भाई या शामिल शरीक खानदानी, शामिल शरीक परिवारमें रहनेपर भी सब अपनेअपने हिस्सेके अलहदा अलहदा मालिक समझे गये हैं क्योंकि यहमाना गया है कि अविभक्त परिवारमें हरएक हिस्सेदार अपने हिस्सेके अनुसार जायदादको अपनी मरज़ीके मुताबिक दूसरेको बेच सकता है, रेहन कर सकता है, उसके कर्जेमें भी सिर्फ उसीका हिस्सा पाबंद होगा।
मिताक्षरा इसके विरुद्ध कहता है उसका कहना है कि कोई आदमी जो शामिल शरीक परिवारका हो बिना बटवारा के अपना कोई हिस्सा स्थिर नहीं कर सकता कि उसका कितना है, और न इन्तिकाल कर सकता है जब तक कि सब कोपार्सनरोंकी मंजूरी प्राप्त न हो। दफा १९ उत्तराधिकार
दायभागमें वरासत यानी उत्तराधिकारमें मज़हबी असर सबसे प्रधान माना गया है, धार्मिक फल उस वरासतका क्या होगा इस बातको ध्यानमें रखकर यह विषय निश्चित किया गया है, नज़दीकी और दूरके रिश्तेदारोंमें फरक़ नहीं माना गया, सबको समान समझा है तथा स्त्रीसम्बन्धी रिश्तेदारोंके मुक़ाबिलेमें मर्दसम्वन्धी रिश्तेदारों की प्रधानता नहीं दीगयी।
मिताक्षरा स्कूलमें समान नहीं माने गये धर्मकृत्यके अनुसार दरजे कायम किये गये हैं यद्यपि दायभागमें भी दर्जे कायम गये किये हैं परंतु दोनोंके दोंमें बहुत फरक है इसमें मर्दसम्बन्धी रिश्तेदारों की प्रधानता दी गयी है।
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दफा १८-२२]
हिन्दूलॉ के स्कूलोंका वर्णन
दफा २० मुश्तरका जायदादमें बापका हक .
दायभागके अनुसार अविभक्त परिवारमै बापको खानदानकी संपूर्ण जायदादका अकेला मालिक स्वीकार किया गया है। इस बातसे बिल्कुल इन्कार किया है कि मौरूसी जायदादने बेटे का हक्क उसकी पैदाइशसे पैदा हो जाता है, इसलिये बापको कुल पैतृकसंपत्तिको इंतिकाल कर देनेका अधिकार उसकी मरज़ीपर निर्भर है, लड़केका हक़ उसमें कुछ नहीं माना गया और न लड़का पैतृकसंपत्तिको बापकी मौजूदगीमें बटवारा करा सकता है क्योंकि वह कोपार्सनर नहीं माना गया।
उदाहरण--हिन्दू शामिल शरीक खानदानकी जायदादका मालिक रमाशङ्कर अपने बापके मरनेपर हुआ, रमाशङ्करके एक लड़का मुकुंद पैदा हुआ मुकुंद अपने पिता रमाशङ्करकी जिंदगीमें, पितामह (दादा) की जायदादमें कोई हक़ नहीं रखता और जब उसको पिताकी मौजूदगीमें मौरूसी जायदादमें कोई हक़ पैदा नहीं हुआ तो इसलिये वह अपने हिस्सेका बटवाराभी नहीं करा सकता क्योंकि उसकाही असलमें हक नहीं है। पिताको पूरा अधिकार है कि वह अपनी मरज़ीके अनुसार जिसे चाहे दे दे, या बेच दे या रेहन करदे ।
मिताक्षराके अनुसार ऐसा नहीं हो सकता लड़केकी पैदाइशसे उसका हक़ मौरूसी जायदादमें पैदा हो जाता है और पिता लड़केके हकको अपने अधिकारसे इन्तकाल नहीं करसकता,और लड़का पितासे मौरूसी जायदादका बटवारा करा सकता है। दफा २१ पतिकी जायदादमें विधवाका अधिकार
दायभागके अनुसार अविभक्त परिवारकी विधवा अपने पतिकी जायदादके हिस्सेपर मालिकाना अधिकार रखती है; और वह अपने पतिके हिस्सेकी वारिस होती है, अगर उसका पति लावल्द मरा हो तो अपने हिस्सेको तकसीम करा सकती है।
मिताक्षराके अनुसार कोई हिन्दू विधवा अविभक्त परिवारमें उसवक्त तक पतिकी जायदादकी मालकिन नहीं हो सकती जबतक कि उसका पति तनहा और जुदागाना मालिक होकर न मरा हो। अगर पति मुश्तरका खानदानमें मर जावे तो विधवा को अलाहिदा करनेवाला हक़ भी मर जाता है। दफा २२ बटवारामें विधवाका अधिकार
दायभागमें, कोई आदमी अपनी संतानमें अपनी खुद कमाई हुई जायदादका या पैतृकजायदाद या दोनोंका बटवारा करेगा तो उसे लाज़िम होगा कि पुत्रोंके साथ मांका हिस्सा बरावर देवे, और ऐसी सूरतमें जबकि कोई
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हिन्दूलॉ के स्कूलोंका वर्णन
[प्रथम प्रकरण
आदमी अपनी खास जायदाद किसी स्त्रीको दे दे तो दूसरी स्त्रियां अगर कोई हो चाहे वह संतानवाली हों या न हों उसी क़दर जायदाद पानेकी अधिकारिणी होंगी जिसकवर पहिली स्त्रीको दी गयीथी । और अगर उनको जायदाद न मिली हो तो लड़कों के बराबर हिस्सा पाने की अधिकारिणी होंगी देखोदायकर्म संग्रह ६ अ०२२-२६ दायभागमें विधवाका अधिकार ऐसा है कि चाहे उसका पति संतान छोड़कर या न छोड़कर मरा हो वह भाग पानेका दावा कर सकती है । अगर मरतेवक्त पतिने संतान नहीं छोड़ी और मुश्तरका खानदानमें मरा है तो भी विधवा उसकी वारिस होगी क्योंकि वह पतिकी हिस्सेदार मानी गयी है कारण यह बताया गया है कि विवाह होने के पश्चात् वह अपने पति की गोत्रवाली हो गयी और पति के शरीरमें आधा भाग उसे मिल गया इसलिये पति के मरने के बाद वह अपने हिस्सेका दावा करके मालिकाना क़ब्ज़ा रख सकती है।
- कलकत्ता हाईकोर्टने इस विषयका यों निश्चय किया है कि विधवाके दावाके मुवाफिक बटवाराकी डिकरी देनेके पहिले यह विचार करलेना चाहिये कि इस डिकरीसे भावी वारिसके ऊपर तो किसी किस्मका असर खिलाफ नहीं पड़ता और अदालतको देखलेना चाहिये कि दावा दर असल जायज़ ज़रूरतके होनेसे दायर किया गया है ? और उसके डिकरी करनेसे मुश्तरका खानदानमें तो कोई बाधा नहीं पड़ती, और विधवा सही तौरपर अपने हक़ अथवा उसके हक़ पर जो विधवाके मरनेपर वारिस होगा कायम मुकाम होगी देखो-महादे बनाम हरकनरायन 9 Cal. 244-250 यह भी माना गया है कि अगर बापके औलाद हो और वह एक ऐसी विधवा छोड़कर मरा हो जो उस औलादकी माता न हो ( सौतेली मां ) तो वह रोटी कपड़ासे अधिक पानेका हक़ नहीं रखती। और अगर बाप औलाद छोड़कर मराहो और उसकी विधवा जो औलादकी मां हो तो उसे भी सिवाय रोटी कपड़े मिलने के और ज्यादा अधिकार नहीं है मतलब यह है कि पुत्रके जीतेजी माको अधिकार नहीं है। ऐसी दशा में विधवा बटवारेका दावा स्वयं नहीं कर सकती मगर यदि दूसरोंकी तरफसे ऐसा दावा होगा तो वह अपना हिस्सा बटा लेगी। दफा २३ स्कूलोंमें मान्य ग्रन्थ
(१) बनारस स्कूल--(क) इस स्कूलमें याज्ञवल्क्यस्मृतिकी टीका मिताक्षरा सर्वोपरि मानी जाती है (देखो दफा ६ ) जहां कि, किसी काम करने की आज्ञा हो, और उस कामका न करना पाप हो तो विज्ञानेश्वरके अनुसार वह आज्ञा सर्वथा मान्य होगी और उस कामका करना लाज़िमी होगा 32 B. 2; 96 Bom. L. R. 1187. विज्ञानेश्वरका मत है कि जब सभी स्मृतियां एक समान मान्य हों और उनमेंसे दो या अधिक स्मृतियोंमें मतभेद हो तो अदालतको अधिकार है कि उनमेंसे चाहे जिसे माने 11 Bom.L.R.708.
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दफा २३ ]
हिन्दूलाँ के स्कूलोंका वर्णन
(ख ) सुबोधिनी-मिताक्षरापर टीका है ( देखो दफा ८ और दफा ६
पैरा २२) (ग) वीरमित्रोदय--गोपालचन्द्र शास्त्रीने अगरेजी भाषांतर किया है
सन् १८७६ ई० में (देखो दफा १ ) बनारसस्कूलका लॉ समझने के लिये और मिताक्षरामें जो संदेह पड़े उसके मिटानेके लिये यह
ग्रन्थ माना गया है 12 M. I. A. 448; 3 B. 369; 25C. 367. (घ) कल्पतरु - इसे तेरहवीं शताब्दीमें पं० लक्ष्मीधरने लिखा था। (ङ) दत्तकमीमांसा-सदरलेन्ड साहबने इसका अङ्गरेजी भाषांतर किया
है ( देखो दफा ६ पैरा २४) । (च) निर्णयसिंधु--सन् १६१२ ई० में इसे पं० कमलाकरने लिखा था। (२) सिथिलास्कूल--यह स्कूल, तिरहुत और उत्तरबिहारमें १५ वीं शताब्दीमें चन्द्रेश्वर और वाचस्पतिका जारी किया हुआ है।
( क ) मिताक्षरा--( देखो दफा १ पैरा ११) ( ख ) व्यवहारचिंतामणि और विवादचिंतामणि-इन दोनों ग्रन्थोंको
वाचस्पति मिश्रने मिथिलामें बनाया था ( देखो दफा ६) मिथिलास्कूलमें यह ग्रन्थ सबसे बढ़कर मान्य है विवाद चिंतामणिका
अनुवाद बाबू प्रसन्नकुमार ठाकुरने किया है। 11 M.I.A. 487. (ग) विवाद रत्नाकर-यह ग्रन्थ चन्द्रेश्वरका लिखा है वे सिथिला नरेश __ के मंत्री थे इसका अनुवाद बाबू गुलाबचन्द्र सरकार और बाबू
दिगंबर चटरजीने अगरेज़ीमें किया है। (घ) दत्तकमीमांसा--( देखो दफा ६ पैरा २४) (ङ) द्वैतनिर्णय -यह ग्रन्थ वाचस्पति मिश्रका बनाया है। (च) शुद्धिविवेक-इसके कर्ता रुद्रधर थे।
(छ) द्वैत परिशिष्ट- इसके कर्ता केशव मिश्र थे । (३) बम्बई स्कूल-महाराष्ट्र स्कूल--(क) मिताक्षरा-( देखो दफा ६) पश्चिम भारतमें यह ग्रन्थ उत्तराधिकारके मामलेमें सबसे अधिक मान्य है। मयूखका दरजा इससे नीचे है, नीचा होनेपर भी शास्त्रीय आशाओं के विषयमें यह भी अधिक मान्य ग्रन्थ है 12 B. H. C. R. 65; 2 B. 418. रत्नागिरी जिलेमें मिताक्षरा सर्व प्रधान ग्रन्थ है 14 B.605, 612 मयूखका दरजा दूसरा है। मिताक्षरा और मयूखका अर्थ एक दूसरेसे मिलाकर करना चाहिये। उत्तराधिकारके मामलेमें जहां मिताक्षरा और मयूखमें मतभेद हो वहांपर मयूखकी बात मानी जायगी साधारण नियम यही है; जहां तक सम्भव हो
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हिन्दूलॉ के स्कूलोंका वर्णन
[प्रथम प्रकरण
दोनों ग्रन्थोंके अनुसार अर्थ करना चाहिये 30 B. 431 (P.C.); 10 C. W. N. 802 ( P. C.); 16 M. L.J. 446; 8 B. L. R. 446.
बम्बई हाईकोर्टका यह पुराना नियम है कि जहां मिताक्षरा चुप हो या स्पष्ट आशा न हो वहांपर व्यवहार मयूखकी सहायतासे ही अर्थ किया जायगा 32 B. 300; 10 B. L. R. 389. वालंभट्टकृत मिताक्षराका टीका बम्बईके हिन्दूगण नहीं मानते । नन्दपण्डितके सम्बंधमें भी ऐसाही समझना चाहिये 32 B. 300; 10 B. L. R. 389. (ख ) व्यवहारमयूख--इस ग्रन्थके कर्ता नीलकंठ थे जो सन् १६०० ई०
में पैदा हुए इनके ग्रन्थका व्यवहार सन् १७०० से आरंभ हुआ। गुजरात और बम्बई द्वीपमें यह सर्वमान्य ग्रन्थ है, तथा उत्तर कोकणमें भी माना जाता है, अहमदनगर, पूना और खानदेशमें मिताक्षराके तुल्य माना जाता है पर मिताक्षराकी श्राशाको खण्डन नहीं करसकता इस ग्रन्थका अङ्गरेज़ी अनुवाद बोरोडेल और मिस्टर मण्डलीकने किया है 3 B. 353; 14 B. 624; 11 B. 285, 29 4. नीलकण्ठने स्मृतियोंके श्लोकोंके अर्थका जिस प्रकार व्यवहार किया है उसमें दोबातें ध्यान देनेयोग्य हैं एक तो यह कि जिन श्लोकोंमें मनुष्यों या बस्तुओंका क्रम या उनमेसे किलीका पहिले होने की बात कही गयी है वहांपर नीलकण्ठने वह क्रम साफ तौरसे कह दिया है परंतु ऐसे किसी श्लोकको, बिना किसी दूसरे श्लोकके प्रमाणके अर्थ नहीं करना चाहिये 7
B. L. R. 622, (ग) निर्णयसिंधु--इस ग्रन्थके कर्ता कमलाकर थे इनका ग्रन्थ दक्षिण
पश्चिम और उत्तरके स्कूलों में सर्व प्रधान मान्य है। (घ) दत्तकमीमांसा--( देखो दफा ६ ) दत्तक विधानमें यह ग्रन्थ अव
श्य मान्य है परंतु जहांपर नन्दपण्डित स्मृतियोंसे भिन्न होते हैं या उनमें कुछ बढ़ाते हैं या उनकी वात, अदालतके माने हुए किसी पुरानी रवाजके विरुद्ध हो तो वहांपर वह मान्य नहीं
हैं 10 B. L. R.948. (ङ) कौस्तुभ ठीक समयका पता नहीं लगा। (४) द्रविडस्कूल--दक्षिण भारतमें देवानन्द भट्टने तेरहवीं शताब्दीमें जारी किया। (क ) मिताक्षरा--दक्षिण भारतमें मिताक्षरा सर्वोपरि ग्रन्थ माना जाता
है यदि स्मृति चन्द्रिकासे भिन्न होनेका कोई साफ प्रमाण न हो तो स्मृतिचन्द्रिकाके ऊपर मिताक्षरा ही माना जायगा 29M.358
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दफा २३]
हिन्दूलॉ के स्कूलोंका वर्णन
( ख ) स्मृतिचन्द्रिका--जिस समप दक्षिण भारतमें बिजयनगर राज्य
था उस समय देवानन्द भट्टने इस ग्रन्थको लिखा था देवानन्द तेरहवीं शताब्दी में हुए उनके ग्रन्थका अङ्गरेज़ी अनुवाद श्रीयुत
कृष्णसामी ऐय्यर मदरास निवासीने सन १८६७ ई० में किया। (ग) दायभाग--यह बंगाल स्कूलका दायभाग नहीं है। इसके कर्ता
थे विजयनगर नरेशोंके प्रधान मंत्री माधवी । यह चौदहवीं शताब्दीके उत्तरार्द्ध में हुए, इनके ग्रन्थका अनुवाद डाक्टर बरनलसाहब
ने अङ्गरेजीमें किया है। (घ) सरस्वतीविलास--सोलहवीं शताब्दीके प्रारंभमें या चौदहवीं
शताब्दीमें उड़ीसाके एक राजा प्रतापरुद्रदेवने इसे लिखा और
पादरी मिस्टर फोलकेसनने अगरेजी अनुवाद किया। (ङ) वरदराज-वरदराजने इस ग्रन्थको लिखा था वे सोलहवीं या
सत्रहवीं शताब्दीमें हुए यह तामिल देशके रहनेवाले थे डॉक्टर
बरनलने इस ग्रन्थका अगरेजी अनुवाद किया है। (च) दत्तकचन्द्रिका--( देखो दफा ९) यह दत्तकविधानके दो खास
ग्रन्थों से एक है। ऐसा कहा जाता है कि इसग्रन्थका आदर द्रविड़ में किया गया है। इस ग्रन्थके कर्ता बंगालके कुबेर थे। भट्टाचार्य हिन्दूला जिल्द १ एडीशन तीसरा पेज ३२८ में कहा गया है कि साधारणतः ऐसा कहा जाता है कि इस ग्रन्थके कर्ता देवानन्दभट्ट थे । परन्तु इसी विषयमें ऐसे भी प्रमाण हैं कि बहिर्गाछी निवासी पं० रघुमणि इसके कर्ता थे जिनका देहान्त सन् १६८६
ई० में हुआ। (छ) पराशरमाधवीय--यह ग्रन्थ पराशरस्मृतिका माधवाचार्यकृत
टीका है । बनारस और दक्षिण तथा पश्चिमके स्कूलमें यह बड़ा मान्य है माधवाचार्य विजयनगर नरेशोंके प्रधान मन्त्री थे । सर विलियम मेक्नाटन, सर टामसस्ट्रेन्ज, मिस्टर कोलछुक आदि सभी बड़े मान्य यूरोपियन विद्वान इस बातमें सहमत हैं कि दक्षिणभारतमें मिताक्षरा, स्मृतिचन्द्रिका और माधवीय सर्व प्रधानमान्य ग्रन्थ हैं । स्मृतिचन्द्रिका और माधवीय यह दोनों
द्रविडस्कूलके खास ग्रन्थ हैं । देखो 12 M. I. A. 437. (ज) रघुनन्दन-यह दक्षिण हिन्दुस्तानमें नहीं माना जाता--31 M.
100; 18 M. L. J. 70; 2 M. L. T. 533. ___(५) बङ्गालस्कूल--दायभागस्कूल--पन्द्रहवीं शताब्दीमें जीमूतवाहन और रघुनन्दन मिश्रने जारी किया था--
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३६
हिन्दूलॉ के स्कूलोंका वर्णन
[प्रथम प्रकरण
(क ) दायभाग -( देखो दफा ६ ) यह ग्रन्थ बङ्गालमें सर्वमान्य है।
यह सारा ग्रन्थ मानों मिताक्षराके सिद्धान्तोंपर आक्रमण करनेके लिये लिखा गया था। इसका अनुवाद मिस्टर कोलबुकने अङ्गरेजीमें किया है। बङ्गालमें जब दायभाग और किली दूसरे ग्रन्थमें मतभेद हो तो दायभाग ही माना जायगा। दायभागकी सब बातें मानलेना लाज़िमी नहीं हैं उसके वचनोंमें इस बातका ध्यान रखना चाहिये कि जो कुछ कि वह कहता है वह धर्म शास्त्रका ठीक अर्थ है या नहीं और रवाजसे भी माना हुआ है या नहीं। इसके सिवाय इस वातका भी ध्यान रखना चाहिय कि उसका कोई श्लोक जाली या पीछेसे जोड़ा हुआ तो नहीं है 8 C. L. J. 369. दायभागके अध्याय ४ के तृतीय परिच्छेदमें ३२, ३३ का वचन और ३१ श्लोकमें 'स्वस्त्रीय' शब्द पीछेसे जोड़ा गया है
तथा जाली है देखो-8 C. L. J. 369 बचन यह है
" न तु सुतपदमोरसविशेषणं वैयर्थ्यात् सपत्नीपुत्र. सद्भावेऽपि स्वस्त्रीयाद्यधिकारापत्तेश्व ४-३-३२" "औरस पुत्र कन्ययोः सपत्नीपुत्रस्यचाभावदौहित्रस्याधिकारिता ४
३-३३”
(ख ) दायतत्व-इसे रघुनन्दनने लिखा था इसका अनुवाद अगरेज़ीमें
बाबू गुलाबचन्द्र सरकारने किया है। (ग) दायकर्मसंग्रह--इसके कर्ता थे श्रीकृष्णतर्कालंकार । इसका
अगरेज़ी भाषांतर मिस्टर विंचने किया है इसमें दायभागके अनु
सार उत्तराधिकारके विषयका वर्णन है। (घ) दायभागका टीका श्रीकृष्णकृत् ।।
(ङ) रघुमणिकृत दत्तकचन्द्रिका-इसे कोई देवानन्दकृत भी कहते हैं (६) बरार और नागपुर--(क) मिताक्षरा--बम्बई स्कूलमें जो मिताक्षराका अर्थ किया जाता है वही बरारमें किया जाता है (देखो बम्बई स्कूल ); नागपुरमें रहनेवाले महाराष्ट्र ब्राह्मणों के मामलेमें पश्चिम भारतके हिन्दुला का स्कूल जो मिताक्षरामें कहा गया है मान्य है। ( ख ) व्यवहार मयूख और वीरमित्रोदय- इस प्रांतमें दूसरे दरजेपर
माने जाते हैं । वे वहीं तक माने जाते हैं जहांतक उनका मिताक्षरासे मतभेद नहीं है। व्यवहारमयूख, वीरमित्रोदयसे ऊपर मानाजाता है।
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दफा २४-२५ ]
. हिन्दूलॉ के स्कूलों का वर्णन
दफा २४ कौन स्कूल कहां पर माना जाता है
दायभाग केवल बङ्गालही में मानाजाता है और कई एक मुक़द्दमों में मिताक्षरा के अनुसार भी वहां पर फैसले हुये हैं । बाक़ी हिन्दुस्तान के बड़े भाग में मिताक्षरा मानाजाता है, पंजाब में कस्टमरीलों का प्रचार मिताक्षराके साथ साथ होगया है । मिताक्षरास्कूल चार बड़े हिस्सों में बटा है ( देखो दफा १५) नीचे उक्त चारों स्कूलोंकी सीमायें देखो ।
दफा २५ बनारस स्कूल
यह स्कूल बिहार, जिला बनारस, मध्यवर्ती भारत और उत्तरपश्चिम भारत तथा तमाम उत्तर भारतमें प्रचलित है केवल पंजाबमें इसके साथ साथ कस्टमला भी लागू किया गया गया है । मिस्टर मोर्ले अपनी डाइजेस्टकी भूमिकामैं कहते हैं कि उड़ीसा में भी यही स्कूल प्रचलित है देखो -- विशुन प्रियामनी बनाम सुगंधरानी 1, Ben. Sel. R 37, 39. दूसरे एड़ीशनके पेज 49, 51 का नोट भी देख लीजिये ।
मिस्टर मेकानाटन कहते हैं कि, उड़ीसा में भी वही मान्य ग्रन्थ माने जाते हैं जो बङ्गाल में माने जाते हैं । मगर पण्डितों की राय इस मुकदमे बङ्गाल के प्रमाणोंके अनुसार नहीं रही, जैसा कि मिस्टर मेनने अपनी हिन्दूलॉ के सातवें एडीशनके पैरा ११ में बयान किया है । उड़ीसाके एक दूसरे मुक़द्दमेमें जिसका ज़िकर मेकनाटन के हिन्दूलॉ के पैराग्राफ ३०६ में किया गया है कहते हैं किउस मुक़द्दमे में पंडितों की राय मिताक्षराके अनुसार दीगयी थी देखो रघुनाथा बनाम व्रजकिशोर 3 I A. 154; 1 Mad 69; 25 W. R C. R. 291. जो कि गांजम प्रांतका एक मुकद्दमा था और वह प्रांत उड़ीसा के प्राचीन हिन्दू राज्य में शामिल था द्रविड़ स्कूलका लॉ बिना संकोचके लागू किया गया था इस विषय में मिस्टर मेनने सातवें एडीशन पैरा ११ में राय जाहिर की है कि उस मुक़द्दमे में अदालतने वही क़ानूनलागू किया जिससे अदालत बहुत वाक़िफ थी । रघुवानन्ददास बनाम साधुचरणदास 4 Cal. 425; 3 C. L. R.534 में जो कि, उड़ीसाका मुक़द्दमा था मिताक्षरा लॉ लागू किया गया था और भी देखो कालीपद बनरजी बनाम चैतन्य पराड़ा 22 W. R. CR. 214. जोगेन्द्र भूपति हरीचन्द्र महापात्र बनाम नित्यानन्दमानसिंह 17 I. A. 128, 18 Cal. 151. पार्वती कुमारी देवी बनाम जगदीश चन्द्रधवल 29 I. A. 82, 29 Cal 432; 6 C. W. N. 490; 4 Bom. L. R 365 में अदालत के फैसले में ज़ाहिर हुआ है कि उड़ीसा में मिताक्षरा लाँ प्रबलित है लेकिन जुडीशल कमेटीने इस प्रश्नका फैसला नहीं किया ।
जे० आर० घारपुरे हिन्दूलॉ दूसरा एडिशन पेज १६ देखो- --कहा गया है कि बनारस स्कूल वहांपर लागू होता है जहांपर मिताक्षराके अधिकार
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हिन्दूलॉ के स्कूलोंका वर्णन
[ प्रथम प्रकरण
को प्रधानताके साथ साथ सुबोधिनी, वीरमित्रोदय, कल्पतरु, दत्तक मीमांसा और निर्णयसिंधु उससे कम दरजेपर माने जाते हों ।
३८
संयुक्त प्रदेश -- मिताक्षराका प्रधान शासन है, यद्यपि जहां मिताक्षरा मौन होता है वहां पर दूसरे प्रमाणोंपर विचार किया जाता है कन्हैय्यालाल नाम मु० गौरा 83 I. C. 147; L. R. 6 A. 1. 147 All. 127; A. I. R.
1925 All. 17.
सिन्ध में मिताक्षका कुछ प्रभुत्व माना गया । देखो बोदोमल बनाम किरानी बाई 93 I. C. 844.
मगर कुछ मामलों में बम्बई स्कूलका प्रयोग बरारमें हुआ है । हरिगिरि किशन गरि गोस्वामी बनाम आनन्द भारती 1 ( 1925 ) M. W. N. 414; 21 N. L. R. 127; 22 L. W. 355; 88 I. C. 343; A. I. R. 1925 P. C. 127 ( P. C. )
बरार -- बरार में मिताक्षरा प्रधान है और इसके बाद मयूखकी गणना है इसका केवल उसी समय उपयोग किया जाता है मिताक्षरा मौन या जब सन्देहात्मक होता है । नारायन बनाम तुलसीराम 87 1. C. 979; A. I R. 1925 Nag 329 (F. B. ).
बरार -- बरारमें मिताक्षरा प्रधान और मयूख गौण है; किन्तु ऐसी श्रवस्था में, जहां कि मिताक्षरा मौन होता है और मयूखकी स्पष्ट अनुमति होती है वहां मयूखका प्रयोग होता है गनपति बनाम मु० सालू 89I. C. 345. श्रीखेमराज श्रीकृष्णदासका मुक़द्दमा -- बनारस स्कूलका अधिकार भारत के उत्तर पश्चिम देशमें माना गया है ( ट्रिबेलियन हिन्दूलॉ एडीशन पेज १० ) उत्तर पश्चिममें राजपूताना और मारवाड़ देश शामिल हैं प्रायः मारवाड़ देश मैं गोद लेने की चाल अधिक है और जब कभी उनके बीचमें गोदके मुक़दमे अथवा उत्तराधिकारके मुक़द्दमे अङ्गरेज़ी राज्यमें दायर होते हैं तो बड़ा ज़रूरी सवाल यह होता है कि मुक़दमा कौन स्कूलसे लागू किया जाय । अग्रवाल वैश्य जाति में बनारस धर्मशास्त्रका आदर करना प्राचीन कालसे चला आता है ( देखो दफा ३२१ ) इस ग्रन्थकर्ताको यद्यपि अनेक ऐसे मुक़द्दमों में काम करना पड़ा जिनमें रवाज और इसी क़िस्मके दूसरे विषय थे । इस क़ानूनके प्रथम संस्तरणके लिखने के समय एक गोदके मुक़द्दमे में यही बात पैदा हुई । मुक़द्दमा था हिन्दुस्तान के प्रसिद्ध श्रीवेङ्कटेश्वर प्रेस बम्बईके मालिक सेठ खेमराज श्रीकृष्णदासका । वाक़ियात यह थे - गङ्गाविष्णु और खेमराज भाई थे दोनों बटे हुए हिन्दू खानदान में रहते थे, गङ्गाविष्णुके मरने के बाद उनकी विधवा जानकी बाईने ता० ८ मार्च १६०६ ई० को एक दत्तक लिया, विधवा १६ अगस्त सन १९११ ई० में मर गयी। सेठ खेमराजने ता० २४ अगस्त सन १६९९ ई० में
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दफा २६-२७]
हिन्दूलों के स्कूलोंका वर्णन
फर्स्टक्लास सबजज कोर्ट ज़िला ठाणे (वम्बई प्रांत) में गोद मंसूखी और अपने भाईकी जायदाद उत्तराधिकारके अनुसार पानेका दावा किया । सेठ जी चूरू के रहने वाले थे उनकी तरफ से कहा गया था कि मारवाड़में बनारस स्कूल प्रचलित है, प्रतिवादी इससे इन्कार करता था मारवाड़के बहुतसे प्रसिद्ध स्थानों तथा काशीके शास्त्रियोंकी साक्षियां वादीकी तरफ से ग्रन्थ कर्ताके. द्वारा दिलाई गयीं। ता० ५ दिसम्बर सन १९१४ ई० को अदालतने फैसले में कहा कि मारवाड़में बनारस स्कूल लागू होता है। दावा डिकरी हुआ इस केसमें रवाज इसी स्कूलके अनुसार साबित हुई। बम्बई हाईकोर्ट से ता०२६ मार्च सन १६१६ ई० को फैसला बहाल रहा जजोंने कहा कि विधवा विना आज्ञा पतिके दत्तक नहीं ले सकती देखो--सेठ खेमराज श्रीकृष्णदास बनाम रमानिवास केस नं०४०३सन१६११ई० दावा २५५१४० रु० फर्स्ट अपील नं०२०६ सन१६१५६० फैसला चीफ जस्टिस बम्बई हाईकोर्ट । व्यवस्था देखो दफा ११८ दफा २६ मिथिला स्कूल
मिथिला स्कूल उस प्रांतमें प्रचलित माना गया है जिसे प्राचीन समय में मिथिला कहते थे अर्थात् तिरहुत । तिरहुत संस्कृतके "तीरभुक्ति" शब्द का अपभ्रंश है इसमें आसपास के ज़िले शामिल हैं, तीरभुक्तिके नामसे जैसा कि प्रकट होता है वैसाही उस ज़िलेके तीनों तरफ तीन नदियां हैं । पश्चिम में गण्डक, पूरबमें कोशी और दक्षिणमें गङ्गा देखो--ट्रिबेलियन हिन्दूलॉ पेज ११; तथा जी०सी०सरकारका लॉ श्राफ् इनहेरीटेन्सका पेज ४४६, और प्राचीन मिथिलाके उस नङ्गशेको जो पी० सी० टगोरके विवाद चिन्तामणिके अनुवाद के साथ लगा है। तिरहुत के आसपासके ज़िलोंमें इस स्कूलको सन १३१४ ई० में चन्द्रेश्वरने और पंद्रहवीं शताब्दीमें वाचस्पति मिश्रने स्थापित किया था देखो--भट्टाचार्य हिन्दूलॉ दूसरा एडीशन पेज ४६
मिथिला स्कूल-मिताक्षरासे सूक्ष्म अन्तर पर है सुरेन्द्र मोहनसिंह बनाम हरीप्रसादसिंह 24 A.LJ. 33; (1926) M.W.N. 49; 5 Pat. 136; 91 I. C. 1033; 7 Pat. L.J. 97; 30 C. W. N. 482; A. I. R. 1925 P.C. 280; 50 M. L. J. 1 ( P. C. ),
मिथिला स्कूल, मिताक्षराका स्कूल है सिवाय उन चन्द मामलोंके, जिनके सम्बन्ध इस सितक्षरा लॉ से पृथक हैं। सुरेन्द्र मोहनसिंह बनाम हरि प्रसादसिंह 52 I. A, 418; 42 C. L. J. 592; A. I. R. 1925 P. C. 280; 50 M. L.J. 1 ( P. C.). दफा २७ बम्बई स्कूल-महाराष्ट्र स्कूल
यह स्कूल उस देशमें प्रचलित है जिसकी भाषा मराठी है देखो--ट्रिबेलियन हिन्दुलॉ पेज ११; बम्बई स्कूलके अन्तर्गत महाराष्ट्र स्कूल है जिसमें,
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४०
हिन्दूलों के स्कूलोंका वर्णन
[प्रथम प्रकरण
मिताक्षरा, व्यवहार मयूख, निर्णयसिन्धु, दत्तक मीमांसा और कौस्तुभ माना जाता है। बम्बई स्कूलके अन्तर्गत गुजरात स्कूल भी है, गुजरात स्कूलके अन्दर अहमद नगर है जहांपर मिताक्षरा और व्यवहार मयूखका अधिकार माना गया है (दफा १५):
बम्बई स्कूल के भीतर महाराष्ट्र देश, उत्तर कनाडा और रत्नागिरिमें मिताक्षराका सबसे श्रेष्ठ और पहिला दरजा माना गया है यद्यपि इनमें मयूख आदरणीय माना जाता है परन्तु मयूखका दरजा दूसरा है । देखो--जानकी बाई बनाम सुन्दरा 14 Bom 612; बिथापा बनाम सावित्री Bom. H. C. S. A. 803 of ( 1909). .
गुजरातमें मयूखका सबसे पहिला दरजा माना जाता है बम्बई द्वीप जो पहले गजरातका हिस्सा समझा जाता था उसमें और उत्तरीय कनाडामें यही प्रधान समझा जाता है । देखो--सखाराम बनाम सीता बाई 3 Bom. 353; लल्लूभाई बनाम मानकुंवर बाई 2 Bom. 388, 418; विद्यारण्य बनाम लक्ष्मण 8 Bom. H. C. R. 244; कृष्णाजी बनाम पाण्डुरङ्ग 12 Bom. H. C. R.A. J. 65; और देखो--नरायन बनाम नाना मनोहर 7 Bon. H. C. R. A. C. J. 166.
अहमदनगर और पूना तथा खानदेशमें मयूखका अधिकार मिताक्षराके समान है। महाराष्ट्र देशमै मयूख, मिताक्षराका उल्लङ्घन नहीं कर सकता। भागीरथी बनाम कन्नौजीराव 11 Bom.285 294; जव मिताक्षराके किसी अर्थ में संशय पैदा हो जाता है तब व्यवहार मयून द्वारा उसका अर्थ लगाया जा सकता है। उत्तरीय कनाड़ाके मुक़द्दमोंमें बम्बईका कायदा माना जाता है मदरासका नहीं। दफा २८ द्रविड़ स्कूल-मदरास स्कूल
द्रविड़ स्कूल, मदरास प्रेसीडेन्सी अर्थात् भारतके प्रायद्वीपके दक्षिणी भागमें प्रचलित है इसे तेरहवीं शताब्दीमें देवानन्दभट्टने स्थापित किया था देखो-कलक्टर आफ मदुरा बनाम मिट्ठूरामलिङ्ग 12 M. I.A. 397; 1 B. L. R. ( P. C.) 1; 10 W. R. ( P. C. 17. 20.
मिस्टर मोर्ले कहते हैं कि, द्रविड़ स्कूल तीन जिलों में विभक्त किया जा सकता है उनमेंसे हर एकमे कोई खास कानूनी पुस्तक, दूसरी कानूनी पुस्तकोंकी अपेक्षा ज्यादा असर रखती है देखो डाइजेस्ट मोर्ले की भूमिका पेज 191 ( CXCI ) जिन तीन जिलोंमें द्रविड़ स्कूल विभक्त किया गया है यह हैं। ( देखो दफा १५)
(१) खास द्रविड़ (२) करनाटक (३) आन्ध्र ।
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। दफा २८-३०]
हिन्दूलों के स्कूलोंका वर्णन
मिस्टर मुल्ला, द्रविड़ स्कूलको मदरास स्कूलके सिर्फ नामभेद कहते हैं इस स्कूलमें स्मृतिचन्द्रिका, पराशरमाधव और बीरमित्रोदय प्रधानता से माने गये हैं। जहांपर इन तीनों ग्रन्थोंसे दूसरे ग्रन्थ विरुद्ध हों वहांपर इन्हीं प्रन्थों की बात मानी जायगी। खास द्रविड़ वह है जहां तामिल भाषा बोली जाती है, तथा कर्नाटक वह है जहां कानड़ी भाषा बोलो जाती है, और आंध्र वह है जहां तेजगू भाषा बोली जाती है; देखो-बरसम्मल बनाम बलराम चारलू ( 1863 ) I. M. H. C. 420, 425.
सिस्टर धारपुरे कहते हैं कि जहांपर मिताक्षराके आधार पर स्मृति चन्द्रिका,पराशर माधव,सरस्वती चिलास और दत्तक चन्द्रिकाका अर्थ लगाया जाता हो वह द्रविड़ स्कूल है देखो घारपुरे हिन्दूलॉ पेज १६ दफा २९ पञ्जाब स्कूल
शास्त्री गुलाबचन्द्र सरकार इन स्कूलोंके अतिरिक्त एक और स्कूल मानते हैं जिसे वह पञ्जाब स्कूल कहते हैं। इस स्कूलको दूसरे हिन्दूलों के लिखने वाले नहीं मानते । नज़ीरों में इस स्कूलके नामसे कोई हवाला भी नहीं दिया जाता देखो गुलाबचन्द्र सरकारका हिन्दूला पहिला एडीशन पेज २४; लॉ श्राफ्एडाप्शन पेज २२८-२५४
हिन्दूला जैसा कि पञ्जाबमें प्रचलित है उसमें और अन्य प्रांतोंमें माने जाने वाले हिन्दूलों में बहुतसे भेद हो सकते हैं, लेकिन यह भेद केवल स्थानीय रवाजसे जिनपर कि कानून निर्भर है पैदा होते हैं। देखो-टुप्परका पञ्जाब कस्टमरी लो जिल्द २ पेज ८२-८६
__ दूसरे स्कूलोंमें जैसा कि श्लोकोंका अर्थ करनेमें मतभेद होने के कारण हिन्दूलॉ में फरक पड़ता है वैसा पञ्जाबमें नहीं, दूसरे स्कूलोंकी भौगोलिक सीमा बिल्कुल ठीक ठीक नहीं बताई जा सकती परन्तु बहुत कुछ पञ्जावकी सीमा निर्धारित है। दफा ३० कानून बनानेका आधार रवाज भी है
हिन्दूला जिन आधारोंपर बना है उनमें से एक रवाज भी है जहांपर रवाज और स्मृति या क़ानूनमें भेद पड़ता है तो वहांपर रवाज प्रधान मानी जाती है। अगर व्यवहार या आचार पूरे तौरपर साबित हो जाय वह कानून से ज्यादा माना जाता है देखो-कलक्टर ऑफ् मदुरा बनाम मोटोरामलिङ्ग (1868) 12 M. I. A 397, 438.
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हिन्दूलॉ के स्कूलों का वर्णन
दफा ३१ रवाज तीन तरह की होती हैं
रवाजें तीन तरहकी होती हैं ( १ ) लोकल - स्थानीय ( २ ) क्लास-यानी जातीय (३) फेमिली कस्टम - यानी खानदानी रवाज । यही तीन क़िस्मकी वाजे अदालतमें साबित की जाती हैं। अगर क़ानून रवाजके खिलाफ़ हो तो रवाज साबित कर देनेसे क़ानूनका असर रद हो जाता है (देखो दफा १० )
કર
[ प्रथम प्रकरण
दफा ३२ रवाज कैसे साबित की जायगी ?
रवाज जो किसी खानदानमें या किसी खास ज़िले में बहुत दिनों से मानी जाती हो वह क़ानूनका दरजा रखती है । मगर उस रवाजको प्राचीन होना चाहिये, निश्चित होना चाहिये और उचित होना चाहिये तथा सर्वसाधारण नियमोंके अन्दर होना चाहिये और उसे ठीक तौर से माना जाना चाहिये मतलब यह है कि वह रवाज क़ानूनका दरजा रखेगी जो प्राचीन हो, निश्चित हो, उचित हो, तथा श्राम क़ायदेके विरुद्ध न हो देखो - हरप्रसाद बनाम शिवदयाल (1876 ) 3 I. A. 259, 285; और यह भी ज़रूरी बात है कि जब कोई रवाज साबित की जाय तो साफ तौरपर और विश्वास करने योग्य साक्षियोंके द्वारा साबित होना चाहिये; देखो - रामलक्ष्मी बनाम शिवनाथ 14 M. I. A. 570, 585; गोपाल एय्यान बनाम रघुपति एय्यन 7 Mad. H C. 250, हरनाम बनाम मांडिल 27 Cal.379; रूपचन्द बनाम जम्बू 37 1 A. 93. रवाजकी प्राचीनता का सुबूत मुद्दत या समयकी कोई अवधि नहीं नियतकी जा सकती। किसी रवाजके सम्बन्धमें यह शहादत होना कि उसका अस्तित्त्व शहादत देने वालेकी स्मृति से है, उसके प्राचीनताके लक्षण हैं । अदालती फैसले किसी रवाजके साबित करनेमें सहायक होते हैं । राजे दत्ताजीराव बनाम पूरनमल, 3M. H. C. R. 75; 17 A]]. 87; 20Mad. 387; 23 Bom 366; A.I R. 1925 P C. 217;1927 A. P.R. Nag. 89. पारिवारिक रवाज -- रवाज के सम्बन्ध में अत्यन्त श्रावश्यक शहादत यह नहीं है कि उसके अस्तित्त्वके सुबूतमें बहुतसी रायें ज़ाहिर की जांय बल्कि न मौकों की जांच की जानी चाहिये, जिनमें कि उस रवाजके अनुसार काम किया गया है और न्याय विभाग या माल विभागकी मिस्ले या खानगी कागज़ात या रसीदें जिनसे यह मालूम होता हो, कि उस रवाजसे काम लिया गया है, पेशकी जानी चाहिये । यद्यपि यह अनिवार्य नहीं है कि अदालती फैसले उस सम्बन्धमें हों हीं, किन्तु किसी रंवाजी क़ानूनके प्रमाणित करने के लिये, एक्टकी यह मन्शा है कि वह एकसां, समान और निरन्तर हो ।
यदि कोई उत्तराधिकार का विशेष नियम, किसी परिवार में कुछ वर्षो से चला आता हो, तो उसकी पावन्दी परिवार पर नहीं समझी जासकती,
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दफा ३१-३४]
हिन्दूलों के स्कूलों का वर्णन
जब तक कि वह इतना प्राचीन न होगया होकि वह परिवारका रवाज समझा जाता हो । यह साबित किया जाना चाहिये, कि वह रवाज अज्ञात समयसे चला पाता है और यदि निर्णय स्वाज किसी एक खास परिवारके लिये हो, तो यह नियम अन्य अवस्थाओंसे अधिक सस्तीके साथ पालन किया जाना जाहिये 1 All. 440; 3 M. H. C. 50; 17 W. R. 316&.45 Cal. 835 App; 1927 A. I. R. Cal. 177.
रवाजकी शहादत--जब कोई रवाज इस किस्मका बताया जाये जिससे साधारण कानूनका कोई असरही न रहता हो तो उसे मज़बूत शहादतसे साबित करना चाहिये । इस क्रिस्मकी शहादत अगर ऐसे लोग जिनका मुकदमेंसे सम्बन्ध है तो वह ज्यादा असर नहीं रखेगी। रवाजकी शहादत में सिर्फ बड़े आदमियोंकी गवाही काफी न होजायगी बल्कि उदाहरण पेश करना चाहिये जिनसे पूरा प्रमाण मिलता हो देखो-1926 A. I. R. 207 -,Sindh 1925 H. L J. 63. दफा ३३ रवाज कब बन्द हो जायगी
खानदानीरवाज मिस्ल स्थानीय रवाजके ऐसी साबित होना चाहिये कि वह बदल नहीं सकती, और हमेशासे चली पाती है तथा अब भी वही जारी है इस तरहपर साबितकी हुई रवाज मानी जायगी। अगर वह रवाज कभी किसी अचानक घटनासे या खानदान वालोंकी मरजीसे या और किसी तरहपर बंद होगयी हो या करदी गयी हो तो यह माना जायगा कि अब वह रवाज बाक़ी नहीं रही । मगर स्थानीय रवाजके बारेमें ऐसा नहीं होगा क्यों कि वह रवाज जिस स्थानमें मानी जाती है सब आदमियोंके बारेमें लागू पड़ती है जो उस स्थानमें रहते हैं; देखो-राजकिशुन बनाम रामजय 1 Cal. 186, 195 ( P. C. ); सर्बजीत बनाम इन्द्रजीत 27 All. 203. दफा ३४ रवाजका सुबूत किसके ज़िम्मे होगा
जहांपर कि हिन्दूलॉ से कोई ज़ात या खानदान शासन किया जाता हो और उसके अन्तर्गत कोई रवाज उठाई जाय तो उस रवाजको साबित करना उस पक्षकारपर निर्भर होगा जिसकी तरफसे वह रवाज बयान की गयी हो यानी जब कोई आदमी रवाजका प्रश्न खुद अदालतमें उठाये तो वह रवाज उसे साबितकरना होगा। देखो-भगवानसिंह बनाम भगवानसिंह 21All 412, 423. चंडिकाबकस बनाम मूना कुंवरि 24 All 273; 29 I. A. 70. रूपचंद बनाम जम्बा 37 I. A. 93. .. मगर उस हालतमें जबकि कोई ज़ात या खानदान जो पहिले हिन्दू नहीं थे और अब उन्होंने हिन्दू रवाजे असत्यार करलीं और इस आधारपर वह यह
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हिन्दूलों के स्कूलोंका वर्णन
[प्रथम प्रकरण
कहें कि अमुक रवाज उस ज़ात या खानदानकी है और वह लागू पड़ती है तो ऐसा साबित करनेके वही जिम्मेदार होंगे; फणीन्द्रदेव बनाम राजेश्वर 11 Cal. 463, 476; 12 I. A. 72, 81. दफा ३५ नाजायज़ रवाज
मोरवाज सव्यवहार,आम प्रजाकी नीति और व्यवस्थापक सभा द्वारा बनाये हुये किसी कानूनके विरुद्ध हो, वह रवाज नाजायज़ मानी जायगी जैसे नायकिनका लड़की दत्तक लेना नाजायज़ रवाज होगी अगर ऐसी वाज साबित भी की जाय जहांपर वह जायज़ मानी जाती हो तो भी वह नाजायज़ होगी; मथुरा बनाम यूशू 4 Bom. b45. हीरा बनाम बाघा 37 Bom. 117. दफा ३६ कानुन साथ जाता है
यह बात कही जाचुकी है ( देखो दफा १५, २४, २६ ) कि हिन्दुस्थान भरमें हिन्दूलॉ के माने जानेके साथही किस किस भागमें कौन कौन स्कूल माना जाता है यह बात याद रखना चाहिये कि, हर एक प्रांत अपने धर्म और रवाज के अनुसार किसी न किसी स्कूलके ताबे किये गये हैं और उनके निवासी उस धर्मशास्त्रके पाबन्द माने जाते हैं इसलिये जो हिन्दू हिन्दुस्थानके किसी प्रांतमें रहता हो, यह मानलिया जायगा कि वह उस कानूनका पाबन्द है जो कानून उसके प्रांतमें प्रचलित है। यह रहने वालेका प्रांतिक कानून नहीं है बल्कि उसका ज़ाती कानून है और वह उसके खानदानकी हैसियतका हो जाता है जैसे - कोई राजपूतानाका रहनेवाला मारवाड़ी अगरवाल जहां पर कि बनारस स्कूल लागू माना जाता है, कलकत्तेमें चला जाय जहांपर बङ्गाल स्कूल माना जाता है तो चाहे वह जितने दिनका रईस कलकत्तेका होगया हो यह माना जायगा कि वह अपना कानून ( बनारस स्कूल) अपने साथ लाया हैं जबतक कि इसके विरुद्ध साबित न किया जावे ऐसाही माना जायेगा।
हिन्दुस्थानके किसी हिस्सेमें रहनेवाले आदमीके बारेमें अदालत यह न्याल करेगी कि वह उसी कानूनको मानता है जिस कानूनके अस्त्यार में पहिले वह था देखो-रामदास बनाम चन्द्र 20 Cal. 409. पार्वती बनाम जगदीश 29 Chl 433; 29 I. A. 82 सुरेन्दोनाथ बनाम हीरामनी 12 M. J. A. 81. गोविन्द बनाम राधा 31 All 477. जगन्नाथ बनाम नारायण 84 Bom 553. मैलही बनाम सुव्वारैय्या 24 Mad. 650. कुलड़ बनाम हरीपद 40 Cal. 407 (1913 ) और देखो मेन हिन्दूला सातवां एडीशन पैरा ४८, तथा दफा १२-१२.
तजोरका शाही महाराष्ट्र खानदान बम्बई प्रान्तसे लगभग सन् १६७४ १० में प्रस्थानकर मदरास प्रान्समें गया था, और तयसे यह तजौरमें बसा
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बफा ३५-३६]
हिन्दूलों के स्कूलोंका वर्णने
हुआ है। प्रवास सन् १६७४ ई० में हुआ था। तजौरके अन्तिम राजाकी रानी ने बिना अपने पतिके अधिकारके ही, अपने लिये एक पुत्र गोद लिया। दस्तक के जायज़ होने में इस बिनापर एतराज़ किया गया कि शाही खान्दानने बम्बई प्रान्तसे प्रवासके पश्चात् उस हिन्दूलॉ को जो महाराष्ट्र देशमें प्रचलित था त्याग दिया था, और उस कानूनके अनुसार भी, जो उनके प्रवासके समय बम्बई प्रांतमें प्रचलित था कोई विधवा अपने पति या सपिण्डोंकी रज़ामन्दी के बिना दत्तक नहीं लेसकती थी। तय हुश्रा कि कानून उत्तराधिकार प्रत्येक मनुष्यके ज़ाती कानूनके अनुसार होता है और जबकि एक स्नानदान, एक जगह छोड़कर दूसरी जगह, जहां पर दूसरे प्रकारका कानून प्रचलित होता है, जाता है तब वह अपना ज़ाती कानून अपने साथ लेजाता है । और यह जाती कानून, उस खान्दानका वैसाही कानून होगा, जैसा कि वह प्रवास के समयमें था थौर मुकदमेकी शहादतसे भी यह स्पष्ट है कि खान्दान अपने ज़ाती कानूनके ही अधीन था । और यह कि बम्बई प्रान्तके महाराष्ट्र देशमें केवल विधवा को, जिसके पतिने खुलासा तरीके पर उसे गोद लेनेसे मना न किया हो, अधिकार है कि वह बिना अपने पतिके सम्बन्धियोंकी अनुमतिके ही गोद ले, चाहे उसके पतिकी जायदाद उसपर अर्पितकी गई हो या नहीं और चाहे उसका पति अलाहिदा मरा हो या न मरा हो; और किसी विरोधी शहादतके न होनेपर प्रवासके समयका कानून वही कानून माना जाना चाहिये जिसका निर्णय अदालत द्वारा हुआ हो; और यह कि इन कारणोंसे दत्तक जायज़ है । महाराजा कोल्हापुर बनाम सुन्दरम् अय्यर 48 Mad. I; A. I. R. ( 1925 ) 497.
जब एक हिन्दू किसी जगहसे दूसरी जगह जा बसता है तब उसे अधिकार रहता है कि वह अपने ज़ाती नियम यानी अपने मूलनिवासके नियम उस नयी जगहमें ले जाय । वह उन नियमोंका पालन कर सकता है या उन्हें त्याग सकता है; किन्तु जब किसी ऐसे कानूनकी यहस आ पड़ेगी जो समीप वर्ती जगहोंसे भिन्न होगी, तब उस कानूनके सुबूतकी ज़िम्मेदारी उस व्यक्ति पर होगी, जो उसे पेश करेगा। श्यामलाल शाह के मुकदमें में-L.R. 6 All. 186; A. I. R. 1925 All 648.
जब फरीकोने, जो बङ्गालके निवासी थे यह दावा किया कि वे मिताक्षरा के अधीन हैं और शहादतमें केवल यह पेश किया कि उनके पूर्वज किसी न किसी समय बङ्गालके बाहर प्रदेशसे आये होंगे, किन्तु यह प्रमाणित न हो सका कि वे कब आये थे या कहांसे आये थे और वे आमतौर पर बनाली पुरोहितोंकी नौकरियोंसे लाभ उठाते रहे और किसी एक खास समय पर एक उत्तरीय मिश्र ब्राह्मणकी नौकरी प्राप्त कर सके थे।
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हिन्दलों के स्कूलोंका वर्णन
[प्रथम प्रकरण
तय हुआ कि इस बात साबित करनेके लिये कि फरीक मिताक्षराके अधीन थे काफी शहादत नहीं है । नागेन्द्र नाथराय बनाम जुगुलकिशोर 29 C. W. N. 1652; 90 1. C. 281; A. I. R 1925 Cal. 1097.
खान्दानी पुरोहितके मातहत स्थानीय पुरोहितके कार्यसे यह नहीं प्रमाणित होता कि किसी प्रवासी खान्दानके लिये स्थानीय कानून प्रयोगनीय है। महाराजा कोल्हापुर बनाम एम० सुन्दरम् अय्यर 48 Mad. 1; A. I. R. 1925 Mad. 497.
प्रवासी खान्दानोंके सम्बन्धमें उनके नये निवासमें भी उनकी जातीय कानून उनपर लागू होगी, यदि वह उनके प्रवासके समय कानून रही होगी, और उन्होंने उस प्रांतकी कानून को, जिससे वह आये हैं, त्याग न दिया होगा महाराजा कोल्हापुर बनाम एस० सुन्दरम् अय्यर 48 Mad. 1; A. I. R. 1925 Mad 497. . उदाहरण--सेठ लक्ष्मीचन्द मारवाड़के रहनेवाले हैं जहां बनारस स्कूल प्रचलित है रोज़गारसे बम्बई में रहने लगे उन्होंने एक लड़का गोद लिया; पीछे एक असली लड़का पैदा होगया, उक्त सेठजी दोनों पुत्रोंको छोड़कर मरगये। अब प्रश्न यह उठा कि किस लड़केको कितनी जायदाद मिलना चाहिये। अगर विरुद्ध सावित न हुआ हो तो मानलिया जायगा कि सेठ लक्ष्मीचन्द अपने साथ बनारस स्कूल लाये थे उसके अनुसार एक चौथाई दत्तक पुत्रको और
तीन चौथाई औरस पुत्रको जायदाद मिलेगी। अगर यह सावित होगया हो कि उन्होंने बनारस स्कूल छोड़ दिया था तो बम्बई स्कूलके अनुसार । एक पांचवां हिस्सा दसक पुत्रको और चार हिस्से औरस पुत्रको मिलेगीदेखो दफा २७०-२७१
नोट-किसी खास कुटुम्ब, या परिवारकी, अगर कोई खास रखाज हो तो उसका भी यही असर होगा। दफा ३७ जातिसम्बन्धी मुकद्दमें
- कोई अङ्गरेज़ी अदालत ऐसा मुकदमा नहीं सुनेगी जिसमें केवल क़ौम या जाति-सम्बंधीप्रश्न हों और उसमें जायदादकी हक़दारीका प्रश्न न हो, देखो-जेठाभाई बनाम चपसी कुंवरजी ( 1909 ) 34 Bom. 467; 11 Bom L. R. 1011. ____अगर कोई अपनी कौम या जातिसे बाहर कर दिया गया हो, या उस से उसकी क़ौम या जाति वालोंने सम्बंध तोड़ लिया हो, अथवा वह किसी रवाज या धर्मशास्त्रके किसी वचनानुसार धार्मिक हक़ोंके पानेसे वंचित कर दिया गया हो तो ऐसे मामलोंमें अदालत कोई दखल नहीं देगी जबतक कि
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दफा ३७]
हिन्दूलों के स्कूलोंका वर्णन
प्राकृतिक न्यायसे वह मामले विरुद्ध न हों देखो अप्पा बनाम पादप्पा 23 Bom 1223 24 Bom. 13. अगन्नाथ चरण बनाम अकाली दासी 21 Cul. 463, 17 Mad. 222; 12 Mad 495; 10 Mad. 133.
. नीचेके मुकद्दमोंमें माना गया कि, केवल सामाजिक हक्रकी हानि अदालतके हस्तक्षेप करनेके लिये जायज़ करार नहीं दी जायगी देखो-15 Bom. 519; 10 Bom 661; 18 Bom. 115; 3 Ben. L. R. 91; 11 W. R C. R. 457; 1W. R. C. 351.
बम्बई प्रान्त--बम्बई द्वीपको छोड़कर सारे बम्बई प्रांतकी अदालतोंको हुक्म है कि वे क्रोम या जातिसम्बंधी किसी प्रश्नपर विचार न करें सिवाय उन मुक़दमोंके जिनमें जाति च्युत होने या दूसरे कारणसे क्षति पहुंची हो और उस क्षतिके पूरा करने के लिये हर जानेका मुकदमा दायर किया गया हो अथवा महईके आचरण (चालचलन) में किसीने अपने बे कानूनी कामोकं द्वारा या अपने अनुचित वर्तावसे नुकसान पहुंचाया हो और उसकी क्षति पूर्ण करने के लिये हानिपूर्तिका दावा किया गया हो, देखो-1 Bom. Reg. 2 of 1827, S. 21; 5 Bom. 83-84; 11 Bom. 534.
इस विषयमें ज़ायता दीवानी सन १६०८ की दफा भी देखो-कहा गया है कि "जिस दावेमें मिलिकियत या किसी हकका झगड़ा हो उसकी नालिश दीवानी अदालतमें होगी, चाहे वह हक पूर्णरूपसे किसी मज़हबी रसम या रवाजपर निर्भर हो"।
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विवाह
दूसरा-प्रकरण
यह प्रकरण तीन भागों में विभक्त है (.) विवाह के भेद आदि दफा ३८-४५ _ ( २ ) विवाहमें वर्णित सपिंड दफा ४६-५६ ( ३ ) वैवादिक संबंध दफा ५७-८०
(१) विवाहके भेद आदि
दफा ३८ विवाह प्राचीन धर्म है
विवाह अर्थात् पति-पत्नीका संयोग प्राकृतिक नियम है। प्रत्येक जगह पर एवं प्रत्येक जीवों में पाया जाता है। आधुनिक वैज्ञानिकों द्वारा जड़ वस्तुओं में भी यह सिद्ध करके दिखा दिया गया है कि. उनके परस्पर भी यह नियम लागू है । विधिका भेद शरीरकी बनावट और परिस्थितिके अनुसारअवश्य है किन्तु स्त्री-पुरुष का संयोग प्राकृतिक नियम है । समाजके विचारानुसार समय समय पर बदलता रहता है । नामोंमें भी भेद पड़ता रहता है। वर्तमान समाज में वह विवाह के नामसे व्यापक है।
__ सारे संसारमें सभ्य असभ्य प्राचीन अर्वाचीन सब समाजोंमें विवाहकी रसम मानी जाती है। अति प्राचीन कालमें विवाहकी रसम ऐसी नहीं थी जैसी कि इस समय प्रचलित है । विवाहकी रसम जारी होनेपर भी वह भिन्न मिन्न समयमे मित्र मिन्न रूपकी थी, उदाहरणके लिये जैसे महाभारतके समयमें द्रौपदीके पांच पतियोंका होना या अन्य किसी समयमें एक पतिकी कई पत्नियोंका होना । सारांश यह है कि विवाहकी रसम संसार भरमें हर जगहपर प्राचीन है। दफा ३९ हिन्दुला के अनुसार विवाह
हिन्दू धर्म शास्त्रानुसार विवाह एक धार्मिक कर्तव्य कर्म माना गया है याज्ञवल्क्य ने कहा है कि
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दका ३६ ]
विवाहके भेद आदि
४६
एवमेनःशमं याति बीजगर्भसमुद्भवम् तूष्णीमेताः क्रियाः स्त्रीणां विवाहस्तु समंत्रकः।१-१३
हिन्दुओंमें दश संस्कार होते हैं यथा गर्भाधान, पुंसवन, सीमंत, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूडाकर्म, यज्ञोपवीत और विवाह । इन दश कमौका फल यह भी है कि माता पिताके शरीरके द्वारा जो पाप गर्भ में आता है वह शांति पा जाता है और स्त्रियोंके जात कर्म आदि मन्त्रोंके बिना और विवाह वेदोक्त मन्त्रोंसे होता है। मतलब यह है कि विवाह एक धर्म कृत्य है। कोई खास क़िस्मका कन्ट्राक्ट (मुआहिदा) नहीं है । हिन्दूलों में विवाह अकाट्य सम्बन्ध माना गया है।
26 Mad. 505 और 27 Mad. 206 में मदरास हाईकोर्ट ने स्मृति चन्द्रिकाके अनुसार यह माना था कि विवाह कोई संस्कार नहीं है, इसलिये पिता या दूसरा कोई कोपार्सनर उस क़र्जेका ज़िम्मेदार नहीं है जो मुश्तरका खानदानकी किसी लड़की या लड़केके विवाहके लिये लिया गया हो। लेकिन ऐसा फैसला करने में मदरास हाईकोर्टने मिताक्षराके सिद्धांतका झ्याल नहीं किया, इसी सबबसे इस फैसलेको दूसरी हाईकोर्ट नहीं मानतीं और अब हालमें मदरास हाईकोर्टने भी अपनी उक्त राय बदलना शुरू कर दिया है, देखोरघुनाथ बनाम दामोदर (1910 ) M. W. N. 195. ..
हिन्दू धर्मशास्त्रोंका सिद्धांत है कि जिन लड़कियोंके विवाह या दूसरे संस्कार न हुए हों, उन लड़कियोंके बड़े भाई पैतृकसंपत्तिसे उन संस्कारोंको अवश्य पूरा करें। यही वात खानदानके लड़कोंके विवाहमें भी है ( देखो दफा ४३०); याज्ञवल्क्यने कहा है कि विवाहका खर्च खानदानके सब आदमियों के हिस्लेमें लिया जाय
असंस्कृतास्तुसंस्कार्या भ्रातृभिः पूर्वसंस्कृतैः भगिन्यश्च निजादंशाहत्त्वांशंतु तुरीयकम् । व्यव० १२४
जिन भाइयों का संस्कार पिता के जीवन कालमें न हुआ हो उनका संस्कार संस्कृत भाई करें; और जिन बहनोंका विवाह न हुआ हो उनका विवाह रूप संस्कार भी वे भाई अपने अपने हिस्सेकी चौथाई जायदाद देकर करें । हिन्दुओं में विवाह एक संस्कार है। प्राचीन रोमनोंमें भी विवाह कंटापट नहीं माना जाता था यह सिर्फ पिछले ज़मानेसे अङ्गरेज़, मुसलमान, पारसी आदि समाजों में विवाह कंट्राक्टके सदृश्य माना जाता है धर्मशास्त्रमें आठ प्रकारके विवाह बतलाये गये हैं और उनके विधान भी कहे गये हैं।
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५०
विवाह
[ दूसरा प्रकरण
दफा ४० आठ प्रकार के विवाह चतुर्णामपि वर्णानां प्रेत्य चेह हिताहितान् अष्टा विमान्समासेन स्त्रीविवाहान्निबोधत । मनु ३-२० ब्राह्मो दैवस्तथैवार्षः प्राजापत्यस्तथाऽसुरः
गांधर्वो राक्षसचैव पैशाचश्चाष्टमोऽधमः । मनु ३-२१
चारों वर्णोंके लिये इस लोक और परलोकमें हित तथा अहित करने वाले आठ प्रकारके विवाहोंको मैं संक्षेपसे कहता हूँ । १-ब्राह्म, २- दैव, ३ - आर्ष, ४ - प्राजापत्य, ५ - श्रासुर, ६ - गांधर्व, ७ - राक्षस और आठवां सब विवाहों में अधम पैशाच विवाह है ।
( १ ) ब्राह्म विवाह
श्राच्छाद्य चार्चयित्वा च श्रुतशीलवते स्वयम्
चाय दानं कन्याया ब्राह्मो धर्मः प्रकीर्तितः । मनु३ - २७
अर्थात् विद्वान्, शीलवान वरको बुलाकर उत्तम वस्त्र और भूषणों से अलंकृत करके कन्या, दानकी जाती है उसे ब्राह्म विवाह कहते हैं । आज कल यही विवाह माना जाता है (देखो दफा ४१, ४२ )
(२) दैव विवाह -
यज्ञे तु वितते सम्यगृत्विजे कर्म कुर्वते
अलंकृत्य सुतादानं देवं धर्मं प्रचक्षते । मनु ३ -२८
अर्थात् जब यज्ञके समय, यज्ञ कराने वाले ऋत्विजों को यजमान अलंकृत करके कन्यादान कर देता है तब वह दैव विवाह कहलाता है ।
(३) आर्ष विवाह-
एकं गो मिथुनं दे वा वरादादाय धर्मतः
कन्याप्रदानं विधिवद्दार्षोधर्मः स उच्यते । मनु ३ - २६
अर्थात् जब किसी धर्म कार्यके लिये वरसे एक अथवा दो जोड़े गौ बैल लेकर उसको विधि पूर्वक कन्या दी जाती है तब उसको आर्ष विवाह कहते हैं । ( ४ ) प्राजापत्य विवाह
सोभौ चरतां धर्म मितिवाचानुभाष्य च
कन्याप्रदानमभ्यर्च्य प्राजापत्यो विधिःस्मृतः । मनु३ - ३०
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दफा ४० ]
विवाहके भेद आदि
अर्थात् जब ऐसा कहकर कि तुम दोनों (वर, कन्या ) धर्माचरण करो, भूषण दिसे पूजित करके वरको कन्या दी जाती है तब वह प्राजापत्य नामका विवाह कहलाता है ।
५१
( ५ ) आसुर विवाह -
ज्ञातिभ्यो द्रविणं दत्वा कन्यायै चैव शक्तितः कन्याप्रदानं स्वाच्छन्द्यादा सुरो धर्मउच्यते । मनु३-३१
अर्थात् कन्याके पिता आदि सम्बन्धियोंको अथवा कन्याको यथा शक्ति धन देकर जब कोई इच्छा पूर्वक कन्या ग्रहण करता है तब उसे श्रासुर विवाह कहते हैं ( देखो दफा ४१ )
(६) गांधर्व विवाह-
इच्छयान्योन्यसंयोगः कन्यायाश्च वरस्य च
गांधर्वः स तु विज्ञेयो मैथुन्यः कामसंभवः । मनु३-३२
अर्थात् कन्या और वरका परस्पर प्रीतिसे जो मिलन हो जाता है उसको गांधर्व विवाह कहते हैं ( देखो दफा ४१ )
(७) राक्षस विवाह-
हत्वा छित्वा च भित्वा च क्रोशतीं रुदतीं गृहात् प्रसह्य कन्याहरणं राक्षसो विधिरुच्यते । मनु ३-३३
अर्थात् जब कन्या के पक्ष के लोगोंको मार, काट तथा गृहको भेद कर रोती और पुकारती हुई कन्याको हरण करके विवाह किया जाता है तब उस को राक्षस विवाह कहते हैं ।
( ८ ) पैशाच विवाह -
सुतां मत्तां प्रमत्तां वा रहोयत्रोपगच्छति
स पापिष्ठो विवाहानां पैशाचश्चाष्टमोऽधमः । मनु३-३४
जिस विवाह में सोती हुई अथवा मदपानसे मतवाली या उन्मत्त कन्या को एकांत मैथुन पूर्वक ग्रहण करता है उसे सब विवाहोंसे नीच आठवां पैशाच विवाह कहते हैं ।
प्रायः अनेक स्मृतियोंमें यही आठ प्रकारके विवाह मानेगये हैं । प्रमाण के लिये देखो - याज्ञवल्क्य स्मृति १ अध्याय ५८- ६१ : शंख स्मृति ४ अ०
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विवाह
५२
[दूसरा प्रकरण wwwim ४-६, गौतम स्मृति ४ अ० ३, वृहत् पाराशरीय धर्मशास्त्र ४ अ० ३-११, बौधायन स्मृति १ प्रश्न, ११ अ० २-९; नारद स्मृति १२ विवाद पद ४०-४४. दफा ४१ आठ प्रकारके विवाहों में उचित और अनुचित
ब्राह्मविवाह--ऊपर कहे हुए प्रथमके चार विवाह (ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्राजापत्य ) उचित माने जाते हैं और पिछले चार ( आसुर, गांधर्व, राक्षस, पैशाच ) अनुचित । ऊंची जातोंमें ब्राह्मविवाह ही प्रचलित है परंतु इसके सिवा और भी कई तरहके विवाह माने जाते हैं किंतु आजकल ब्राह्मविवाह ही कानूनी विवाह माना जाता है।
ब्राह्मीति-विज्ञानेश्वरकी आठ प्रकारकी शादियोंकी तक़सीम तर्कके अनुसार पूर्ण नहीं है । यह सम्भव है कि शादियोंकी किस्म उनकी मिश्रित प्रणालीके श्रनुसार होसके,किन्तु उनका उन ८ तक़सीमों के अनुसार होना सम्भव नहीं है। विवाहकी ऐसी प्रणालियां हो सकती हैं जो जायज़ हों। उसी प्रकार शादियों के कानूनी तरीकेभी हो सकते हैं, जैसा कि विधवाओंका पुनर्विवाह एक्ट है। यह नहीं कहा जा सकता, कि शादीके ब्राह्म तरीकेमें विधवाके पुनर्विवाहका स्याल नहीं किया जासकता। मु० किसनदेई बनाम शिवपल्टन 90 P. C. 358; L. R. G A. 557; 23 A. L. J. 981.
शास्त्रानुसार ८किस्मके विवाहोंमे से, यह कानून द्वारा स्वीकार कर लिया गया है कि ब्राह्म और आसुर क़िस्मको छोड़कर शेष सब अप्रचलित हैं। महाराजा कोल्हापुर बनाम एस० सुन्दरम अय्यर 48 M. 1; A. I. R. 1925 Mad. 497. किसी विरोधी शहादतके न होनेकी सूरतमें यह माना जाता है कि विवाह मान्य प्रणाली द्वारा हुआ है। उमराव कुंवर बनाम सर्वजीतसिंह 85 I. C. 6.8; A. I. B. 1925 Oudh 620.
जाति--सगोत्रविवाह--जहां तक कि द्विजातियोंका सम्बंध है बिल्कुल एक ही गोत्र और प्रवरकी मनाही है और यदि कोई ऐसी शादी की जाती है तो वह नाजायज़ होती है। किन्तु शूद्रोंके मध्य इस नियमकी पाबन्दी नहीं है महाराजा कोल्हापुर बनाम एस० सुन्दरम अय्यर 48 Mad. 1; A. I. R. 192:5 Mad. 497. . प्रासुर विवाह, अनार्य ढंगका विवाह है प्राचीन आर्योने इसे पसन्द नहीं किया पर बहुत समयसे अनायॊमें प्रचलित होनेके कारण जारी रखा गया दक्षिण हिन्दुस्तानके शूद्रोंमें प्रायः ऐसा विवाह हुआ करता है मदरासके ब्राह्मणों में भी ऐसा विवाह जायज़ माना गया है। देखो विश्वनाथन् बनाम स्वामीनाथन् 13 Mad. 83. - जब विवाह के समस्त व्यय, जो कि हिन्दू विवाह संस्कारके लिये श्रावश्यक होते हैं वरकी ओरसे किये जाय, तो यह समझा जाता है कि वह व्यय
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दफा ४१ ]
विवाहके भेद आदि
कन्याकी क़ीमत स्वरूपमें किये गये और इस प्रकारका विवाह संस्कार, श्रसुर संस्कार माना जाता है । अनाय्योंके मध्य इस प्रकार रुपया लेनेका खाज होने से उनके मध्यके संस्कार ब्राह्म संस्कार नहीं होते । सामू असारी बनाम अनाची अय्यर 22 L.W.462; AI.R. 1926 Mad 37; 49M.L.J. 554 श्रासुर संस्कार -- आसुर रीतिके विवाहका निचोड़, कन्या की क़ीमत लेना है और जहां पर कि एक खान्दानकी कन्या, दूसरे खान्दानके वरके साथ व्याही जाती है तथा इसके विपरीत कन्याके खान्दानका लड़का, वरके खान्दानकी कन्याके साथ व्याहा जाता है, तो विवाह नाजायज़ नहीं होता । पञ्जाबराव बनाम आत्माराम 87 1. C. 1018.
५३
आसुर प्रथा -- शादीके खर्वौका दिया जाना-रवाज उसका असर - सामू असारी वनाम अनाची अम्बल 91 I. C. 561; AIR 1926 Mad. 37. आसुर प्रथा -- उसकी जांच-पञ्जाबराव बनाम आत्माराम AIR 1926 Nag. 124.
विवाहके प्रत्येक मामलों में अदालतकी तरफसे हिन्दूलों के अनुसार पहिले यह मान लिया जायगा कि हरएक विवाह ब्राह्म विवाहके ढंगसे हुआ है; देखो - मुसम्मात ठाकुर देयी बनाम रायबालक 11 M. I. A. 139 गोजाबाई बनाम श्रीमंत साहाजीराव 17 Bom. 114.
बम्बई में यह माना गया है कि नीच जातियोंमें आसुर ढंगका विवाहही आमतौरसे प्रचलित है; देखो-विजयरंगम् बनाम लक्ष्मण 8 Bom. H. C. R. 144; लेकिन उनमें ऊंचे ढंगका विवाह भी वर्जित नहीं है देखो - जैकिशनदास बनाम हरीकिशन 2 Bom 9 और शूद्रोंमें भी अगर दोनों पक्षकार प्रतिष्ठित घरानेके हों तो अदालत यही निश्चित करेगी कि ऊंचे ढंगका विवाह हुआ है; जगन्नाथ बनाम नारायण 12 Bom. L. R. 545. आसुर विवाहका खास लक्षण यह है कि कन्याके पिता या उसके पक्षवालोंने धन लेकर कन्या दी हो, इसे बम्बईकी तरफ 'पल्ला" कहते हैं 'पल्ला' वह नक़द धन या माल है जो दुलहिन को भविष्य में काममें लानेके लिये दिया जाता है और सिर्फ इस कारण से कि वह नक़द या माल दुलहिनके बापने या दूसरे किसी रिश्तेदार ने दिया है, इस बातसे यह नहीं माना जायगा कि दुलहिनकी विक्री हुई जो आसुर विवाहका मुख्य लक्ष्ण है; देखो अमृतलाल बनाम बापूभाई Bom H. C. P. J. (1887) 207.
विवाह किस ढंगका हुआ यह निर्णय करनेके लिये यह नहीं देखना चाहिये कि विवाहके समय क्या क्या धर्मकृत्य हुएथे, बल्कि यह देखना चाहिये कि लड़की के कुटुम्बियोंने लड़कीके बदले में कुछ रक़म ली या नहीं क्योंकि आसुर विवाहका मुख्य लक्ष्ण यही है; देखो - बुम्नीलाल बनाम सूरजराय 11
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विवाह
'प्रकरण
Bom. L. R. 708; 22 Mad. 512. इस ऊप के मुक़द्दमे में यह माना गया कि जब लड़की वालोंने लड़कीके बदले में नकद धन ले लिया तो यद्यपि विवाहके सब कृत्य ब्राह्मविवाहके ढङ्गसे हुए थे परंतु फिर भी वह विवाह आलुर ढङ्गका माना गया । मदरासके मुकदमे में माना गया कि जो जातियां हवन और 'सप्तपदी' कृत्यको आवश्यक नहीं समझतीं वे यदि अपने विवाहमें ऐसे कृत्य न करें तो इस सबबसे उनका विवाह नाजायज नहीं हो सकता।
विवाहके ढङ्गमें कोई दोष है या नहीं, केवल यही देखकर यह निश्चित किया जाता है कि कोई विवाह उचित ढङ्गका है या अनुचित ढङ्गका अर्थात् ऐसे मामलों में विवाहका ढङ्ग नहीं बल्कि उस ढङ्गकी सिफत देखी जाती है; देखो-मूसाहाजी बनाम हाजीअब्दुल 7 Bom. L. R. 447.
गांधर्वविवाह-क्षत्रियोंमें गांधर्व विवाह सन् १८१७ ई० में बंगाल की सदर दीवानी अदालतने जायज़ माना था । सन १८२०. और सन १८५३ ई० में भी ऐसा ही माना गया परन्तु आजकल ऐसे विवाह बहुत ही कम होते हैं । इलाहाबाद हाईकोर्टने इस गांधर्व विवाहकी पृथाको अनुचित माना है वह इसे बिठलाई हुई औरतके समान मानते हैं देखो भवानी बनाम महाराज सिंह 3 All. 738. एक दूसरे मुकदमे में इलाहाबाद हाईकोर्टने कहा कि प्राचीन कालमें शास्त्रानुसार चाहे कुछ भी होता रहा हो परन्तु वर्तमानकालमें ब्राह्मण और क्षत्रियके परस्पर विवाह इन प्रान्तोंमें जायज़ नहीं माना जासकता और ऐसे विवाहसे उत्पन्न सन्तान औरस नहीं मानी जा सकती; देखो-बदाम कुमारी बनाम सूरजकुमारी 28 Ail 458. और पंजाबमें भी देखो-प्रेमन बनाम संतराम 77 P. L. R. ( 1906).
गांधर्व कब माना जाता है--हिन्दुओंमें शादीके जायज़ होनेके लिये यह आवश्यक है कि शादीकी रसमें अदाकी जांय; अन्यथा विवाह गांधर्व विवाह या युग्मके विषय के पूर्तिकी सामग्री समझा जायगा । महाराजा कोल्हापुर बनाम एस० सुन्दरम अय्यर 48 M.1; A.I.R 1923 Mad. 497.
मदरासमें यह माना गया कि विवाहका मुख्य कृत्य हवन यदि करलिया गया हो तो गांधर्व विवाह जायज़ होगा; देखो-बिन्दामन बनाम राधामनी 12 Mad. 72. बम्बई में एक राजपूत पुरुष और ब्राह्मण स्त्रीके परस्पर जो विवाह हुआ जायज़ नहीं माना जायगा और स्त्रीका दावा वैवाहिक हकके पाने के वास्ते जो हुआ था खारिज कर दिया गया; देखो-लक्ष्मी बनाम कल्याणसिंह 2 Bom. L. R. 128 पंजाब चीफकोर्टने हालके एक मुक़द्दमेके खास हालात परयह माना कि 'चादर अंदाज़ी' से किया हुअाराजपूत पुरुष और महाजन स्त्री का विवाह जायज़ है, यह भी कहा कि यदि वह महाजन, वैश्य माना जाय तो भी जायज़ होगा; देखो-खैरो बनाम फकीरचन्द 57 P. R. ( 1909 ) इस मुक़दमे की खास सूरतपर ऐसा फैसला किया गया है इसलिये यह फैसला
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दफा ४२]
विवाहके मेद आदि
www
आम नहीं हो सकता । यह ध्यान रहे कि पंजाबमें कस्टमरी लॉ लागू माना जाता है। दफा ४२ विवाहके विषयमें अदालतका निश्चित सिद्धान्त
(१) जबतक इसके विरुद्ध साबित न किया जाय, तबतक ऊंची जातों के विवाहोंके मामले में अदालत पहिले सेही यह मान लेगी कि विवाह उचित रीतिसे और उचित ढङ्गका हुआ था अर्थात् ब्राह्म विवाह हुआ था जो पक्षकार यह कहता हो कि बाल विवाह नहीं हुआ तो बारसुबूत उसी पक्षपर होगा; देखो-ठाकुर देयी बनाम रायबालकराम 11 M. I. A. 139. गोचाबाई बनाम शाहाजीराव मालोजी राजे भोसले 17 Bonu. 114. जगन्नाथ प्रसाद बनाम रंजीतसिंह 25 Bonu. 354-356.
(२) और देखो मनुजीने ब्राक्ष विवाह ही सबसे श्रेष्ठ माना है, तथा सभी स्मृतिकारोंने इसको श्रेष्ठता दी है। वर्तमान समयमें यही विवाह प्रचलित है इसलिये अदालतने निश्चित किया है कि पहिले हर एक मामलेमें यह मान लेना चाहिये कि वह ब्राह्मविवाह हुआ था; देखो मनु--
दशपूर्वान्परान्वंश्यानात्मानं चैकविंशकम् ब्राह्मीपुत्रः सुकृतकृन्मोचयेदेनसः पितृन् । ३-३७
ब्राह्मविवाहकी स्त्रीसे उत्पन्न पुत्र पहिलेकी १० पीढ़ियों और पीछेकी१० पीढ़ियों को, तथा अपनेको, इन २१ पीढ़ियों को पवित्र करता है और पितरों का उद्धार कर देता है। इसी विषयमें संवर्त और व्यासस्मृति भी देखो
अलंकृत्य तु यः कन्यां वराय सहशायवै ब्राह्मेण तु विवाहेन दद्यात्तां तु सुपूजिताम् । १०-६१ स कन्यायाः प्रदानेन श्रेयो विन्दति पुष्कलम् साधुवादं सवैसद्भिःकीर्तिप्राप्नोतिपुष्कलामासंवर्त१०-६२ ब्राह्मोदाह विधानेन तद्भावेऽपरो विधिः। व्यास१४-५
अर्थात् जो मनुष्य ब्राह्मविवाहके विधानसे कन्या को अलंकृत तथा पूजित करके उसके समान वरको कन्यादान करता है उसका बड़ा कल्याण होता है, सज्जन लोग उसकी प्रशंसा करते हैं और उसकी बड़ी कीर्ति फैलती है। व्यासजी कहते हैं कि ब्राह्मविवाहके विधानसे विवाह करना चाहिये, इसके अभावमें अन्य प्रकार के विवाहोंकी विधि कही गयी है। ब्राविह्मदाहकी
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विवाह
[ दूसरा प्रकरण
प्रथा ऊंची जातियोंमें प्रचलित है ऐसा हिन्दूलॉ का निश्चित सिद्धांत है । लेकिन नीच जातियोंके बारेमें ऐसा नहीं ।
५६
नीच जातोंके विवाह के मामलों में पूर्वोक्त अदालतका सिद्धांत समझ बूझकर काममें लाया जायगा, देखो -- श्रथी केशवलूचट्टी बनाम रामानुजंचट्टी 32 Mad. 512 विजयरंगम् बनाम लक्ष्मण 8 Bom. M. C. R.
( ३ ) जब विवाहका हो जाना एक दफा साबित होगया हो तो मान लिया जायगा कि वह विवाह क़ानूनन जायज है; देखो - ईदरम् बनाम रामसामी 13 M. 1. A. 141. महंताचा बनाम गंगावा 33 Bom. 692.
( ४ ) विवाह में जो धर्मकृत्य आमतौरसे हुआ करते हैं यदि उनका होना साबित कियागया हो तो यह मान लिया जायगा कि वह धर्म कृत्य सब पूर्णत किये गये थे । यदि इसके विरुद्ध साबित किया जावे तो दूसरी बात है; वृन्दावनचन्द्र बनाम चन्द्रकरमकर 12 Cal. 140; 13M.I.A. 141 बाई दिवाली बनाम मोतीकृष्ण 22 Bom. 509-512.
(५) जब कि यह साबित कर दिया जाय कि कोई खास रिश्तेदारी जैसे कोई वैवाहिक सम्बंध पहिले हो चुका है, तो यह मान लिया जायगा कि वह सम्बंध सदा उसी तरहपर जारी रहा है । अगर कोई कहे कि वैसा सम्बंध पीछे नहीं रहा या पहिलेसे नहीं रहा तो बारसुबूत उसी पर होगा; भीमा बनाम दुलप्पा 7 Bom. L. R 95.
(६) पत्नीने पुत्र अपने पतीसे पैदा किया है, यह बात अदालत क़ानून शहादतकी दफा ११२ के अनुार स्वयं मान लेगी । वह दफा इस प्रकार है " अपनी माता और किसी पुरुषके परस्पर जायज़ विवाहके जारी रहने के समय मैं कोई आदमी पैदा हुआ है या वैवाहिक सम्बंध टूटनेके २८० दिनके अन्दर पैदा हुआ और इस मुद्दतमें उसकी माता बिना पतिके रही तो माना जायगा कि वह (लड़का ) उस आदमीका अर्थात् माताके पतिका औरस पुत्र है । चाहे यह साबित किया जाता हो कि वह आदमी उसकी माताके पास उतने दिनों पहिले नहीं गया था कि जिससे उसका गर्भ समझा जा सके तो भी अदालतमें ऐसा नहीं माना जायगा" यानी ऐसा साबित होनेपर भी वह औरस माना जायगा । नरेन्दनाथ पहाड़ी बनाम रामगोविंद 29 Cal. 111; 29 I. A. 17 में साबित हुआ कि एक स्त्री जब अपने पतिके घर आई तो उसके आनेके थोड़ेही दिन बाद पति मर गया पीछे २८० दिनके अन्दर उसके बच्चा पैदा हुआ माना गया कि वह मरे हुये आदमीका औरस पुत्र है। ऐसे मामले
faraifeoने कहा जब तक यह साबित न कर दिया जाय कि पति इस योग्य था ही नहीं कि वह अपनी स्त्रीके पास जाय, तब तक वह पुत्र औरस माना जायगा । यह बात कि, पति ऐसी खराव बीमारी से पीड़ित था जिससे
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दफा ४२
विवाहके भेद आदि
गर्भ रही नहीं सकता था और अन्तमें उसी बीमारीमें मरगया, अदालतके पूर्वोक्त निश्चित सिद्धांत के काटने के लिये काफ़ी नहीं है ।
५७
हर एक पुत्र औरस पुत्र है, अदालतको यह बात स्वयं मानलेना सिर्फ यादे हुये स्त्री पुरुषों की संतान में होता है, मगर यदि कोई आदमी खुद यह कहता हो कि, मैं अमुक पुरुषका अनौरस पुत्र हूं तो उसको अपना यह सम्बंध अन्य रिश्तेदारियों की तरह स्वयं साबित करना होगा - गोपालसामी चट्टी बनाम अरुणाचलम् चट्टी 27. Mad. 32-34-35.
जहां पर एकबार (Defacto) यानी वास्तवमें (बाक्नई) विवाह क़रार दे दिया गया हो और मृत पुरुषने लड़कों को अपना लड़का मान लिया हो तो इस बात साबित करने के लिये बहुत ही मज़बूत शहादत अदालत में पेश करना होगी कि उन लड़कों की माता विवाह करनेका अधिकार नहीं रखती थी, इसलिये क़ानूनन् वे लड़के औरत नहीं हैं, देखो -- रामामनी अम्मल बनाम कुलंथाई नाडचियर 14 M. I. A. 346.
स्त्री, पुरुष के श्रादतन् साथ रहने से तथा इस बातकी शोहरतसे कि वे दोनों पति-पत्नी हैं, अदालत स्वयं पहिलेसे यह मानलेगी कि उनका विवाद क़ानूनन जायज़ था । अदालतके ऐसा मानलेने का खण्डन करने के लिये बहुत मज़बूत, स्पष्ट और संतोषप्रद तथा क़तई यक़ीन दिलानेवाली, अकाट्य शहादत पेश करने की ज़रूरत है । और उस सूरत में जबकि विवाहको बहुत समय बीत गया हो और पति या पत्नी दोनों में से एक मर गया हो तो ऐसी सूरत मैं वैसी शहादत पेश करना खास तौरसे मुशकिल होगा; देखो - शास्त्री वि. - लाइ दर अरोनगरी बनाम सिबेक ही बयगाली L. R. 6; A. C. 364; 20 Mad. L. J. 49.
बरमा एक हिन्दू पुरुष और एक स्त्री जिसका नाम बरमी स्त्रियों का सा था पचास वर्षले पति पत्नी के तौर पर इकट्ठे रहते थे, सवाल पैदा हुआ कि क्या उनका विवाह जायज़ माना जाय ? अदालतने फैसला किया कि उनका विवाह जायज़ था -- वानू गोपाल बनाम कृष्णस्वामी मुदलियार 3 Lower. Burma Reports 25.
स्त्री पुरुष के केवल एक साथ रहने से ही यह नहीं मानलिया जायगा कि विवाह जायज़ था- वारू बनाम कुंदन 3A L J 807.
हिन्दूलों के अनुसार जब दो व्यक्ति साथ साथ पति और पत्नी की भांति रहते हों, और उनके सन्तान हों, तो विवाहकी कल्पना होगी और सन्तान जायज़ समझी जायगी । साधारणतया उच्च वर्ण हिन्दूके सम्बन्धर्मे जायज़ शादी और सन्तानके क़ानूनी होने की कल्पनाके खण्डनमें यह प्रमाण पर्याप्त है कि पति और पत्नीके विभिन्न जाति होनेका सुबूत दिया जाय । सागरमल बनाम हरस्वरूप 7 L. R. 156 ( Rev. )
8
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विवाह
[दूसरा प्रकरण
mmmmmmm
विवाह केवल तलवार द्वारा रवाजसे शादी होनेके नामसे ही शादी होना नहीं समझा जाता । महाराजा कोल्हापुर बनाम पस० सुन्दरम् अय्यर 48 Mad. 1; A. I. P. 1925 Mad. 497.
शूद्रका प्रश्न-एकमुकद्दमेमें यह प्रश्नथा कि आया तंजौरका शाहीखान्दान क्षत्रिय है या शूद ? इस बातका दावा किया गया था कि मराठे क्षत्रिय हैं या उनमेंसे उच्चू शासक वंश क्षत्रिय हैं और राजा तंजौरका वंश क्षत्रिय वंशसे है
तय हुआकि ऐतिहासिक वंश परम्परा और सामाजिक रवाजाकीत शहादतों के अनुसार क्षत्रियत्वका प्रतिपादन नहीं होता। महाराजा कोल्हपुरा बनाम एस० सुदरम अय्यर 48 Mad. 15 A. I. R. 1925 Mad. 497. . अगर किली जातिने अपनी जातिवाले किसी स्त्री पुरुषका विवाह जायज़ मान लिया है और उन दोनोंको अपनी जातिमें रखा है तो अदालत को इस कहनेसे कुछ भी प्रयोजन नहीं है कि उस विवाहमें कोई दोष है इस लिये वह नाजायज़ है । नत्थूलामी बनाम मसलीमनीके मुक़द्दमे में अदालतने यह भी कहा कि जो विवाह हिन्दूलों के अनुसार जायज़ है वह किसी भी जातिके खास रस्मों के विरुद्ध होनेपर भी वह विवाह कानूनमें जायज़ माना जायगा।
रखेली औरत--हिन्दू गृहस्थीमें सदाके लिये रक्खी हुई रखेल, जो घस्तुतः हिन्दू गृहस्थीके साथ एकही मकानमें रहती हो,उसकी अवस्था बहुत कुछ विवाहिता पत्नीकी भांति ही होती है हिन्दू रवाजों और शास्त्रोंमें कोई एसी निषेधकारी श्राज्ञा नहीं है जिसके द्वारा निरन्तर रखेल को बहुतसी रस्मोंमें भाग लेनेसे रोका गया है, किन्तु कोई रखेल ऐसी रस्मोंमें भाग लेने के कारण, विवाहिता स्त्री नहीं मानी जा सकती, सतीके रस्मकी पूर्ति भी हर हालतमें विवाहिता होनेका प्रमाण नहीं है, इस रस्मके पालनसे निरन्तर रखेल का भी बोध हो सकता है। महाराजा कोल्हापुर बनाम एस० सुन्दरम् अय्यर 48 M. 1; A. I. R. 1925 Mad. 497. . बहुत दिनों तक एक साथ रहने से विवाह सम्बन्ध नहीं स्थापित हो सकता, जबकि विवाहके विरुद्ध कोई प्रमाण हो--तलवारके ज़रिये शादीकी हुई.स्त्री-महाराजा कोल्हापुर बनाम एस० सुन्दरम् अय्यर 48 M. 1; A. I. R. 1625 Mad. 497.
क्षत्रियोंमें तलवारकी शादीका रवांज है किन्तु वह मराठोंमें मान्य नहीं है-तजौरका शाही खान्दान -तलवारकी शादीमें स्त्रीकी हैसियत निरन्तर रखेलकी भांति होती है और उसकी सन्तान गैरकानूनी मानी जाती है। महाराजा कोल्हापुर बनाम एस० सुन्दरम् अय्यर 48 M. 1; A. I. R. 1925 Mad. 497.
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दफा ४३-४५ ]
विवाहके भेद आदि
दफा ४३ विवाहका विषय दो भागों में बटा है
विवाहका विषय दो भागों में विभक्त हो सकता है, एक तो यह कि, १ क़ानूनमें विवाहके जायज़ माने जानेके लिये विवाहमें किन बातोंका होना परमावश्यक है, ( देखो दफा ४४ ) २ दूसरे यह कि विवाह करने वाले स्त्री पुरुष जायज़ विवाह करने के योग्य हैं या नहीं ( देखो दफा ४५ )
५३
दफा ४४ विवाह जायज़ माने जानेकी शर्तें
विवाह विषयमें सदा दो बातें देखी जाती हैं एक यह कि घर और कन्या एकही जाति के हों; दूसरी यह कि, वर और कन्या एकही कुटुम्बके न हों । देखो - याज्ञवल्क्य विवाह प्र० ५२-
विप्लुतब्रह्मचर्यो लक्षण्यां स्त्रियमुदहेत्
अनन्य पूर्विकां कांता मसपिण्डां यवीयसीम् ।
घर जिसका ब्रह्मचर्य भंग न हुआ हो अच्छे गुणवाली स्त्रीको पत्नी बनाये मगर शर्त यह है कि वह किसी दूसरे पुरुषसे सम्बन्ध न रखती हो, रूपवती हो, सपिण्ड न हो और अपने से उमरमें और शरीरमें छोटी हो । ' सपिण्ड न हो ' इससे मतलब यह है कि, एकही पूर्वजोंसे न पैदा हुई हो और न एक ही कुटुम्बकी हो विस्तारसे देखो दफा ४७-५४.
दफा ४५ जायज़ विवाह के योग्यता की शर्तें
( १ ) जिस कन्या के साथ विवाह किया जाय वह उसी जातिकी हो, परंतु कोई स्थानीय रसमके अनुसार शूद्रों में भिन्न जातियोंके परस्पर विवाह हो सकता है; देखो मेलारमनू दियाल बनाम तानूराम बामन 9 W. R. 55212 P. C. R 267; 15 Cal. 708.
लिङ्गायतों में उनके खाजसे तथा हिन्दूलों के अनुसार भी भिन्न उपजातियों के परस्पर विवाह नाजायज़ नहीं है । जो कोई नाजायज़ बताये उसे साबित करना होगा कि किसी अतिप्राचीन रवाजसे ऐसा विवाह वर्जित है। देखो फक़ीर गौदा बनाम गंगी 22 Bom. 277.
'पांचाल' और 'कुरवार' शूद्रोंकी उपजातियां हैं इन दोनोंके परस्पर विवाह जायज़ हैं अगर कोई नाजायज़ बताये तो उसे साबित करना होगा कि किसी अतिप्राचीन रवाजसे वह वर्जित है; महंतावा बनाम गंगावा 33 Bom. 693; 11 Bom. L. R. 822.
हिन्दूलॉ के अनुसार जिन शर्तोंसे विवाह जायज़ माना जा सकता है उसके सिवाय यदि किसी जातिमें विवाहको जायज़ बनानेके लिये कोई और
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विवाह
[ दूसरा प्रकरण
रसम भी हो तो उस रसमके पूरा करनेहीसे विवाह जायज़ माना जायगा, 20 M. L. J. R. 49.
मदरास प्रांतके तिनेबली जिलेमें 'कैकोलर' ( जुलाहे ) जातिकी ईसाई मां-बापकी एक लड़की अपने विवाह के समय हिन्दू मानी गयी ३० । ४० वर्ष तक उसकी जातिवालोंने उसको और उसके पतिको अपनी जातिमें रखा और दोनों को परस्पर पति-पत्नी माना, यह माना गया कि उन दोनोंके विवाह जायज़ हैं क्योंकि वह उस जातिकी रसमके अनुसार हुआ था । यह भी माना गया कि हिन्दूला ऐसे विवाह को वर्जित नहीं करता क्योंकि वह एक जातिकी खास रसमके अनुसार हुआ था 20M. L J. R. 49.
( २ ) कन्या उमरमें छोटी हो यह आम बात है, मगर किसी भी उमर की लड़की से विवाह किया जासकता है । अब यह बात नहीं मानी जा सकती है चाइल्ड मेरेज रिस्ट्रेन्ड ऐक्ट सन १६२८ ई० देखो इस प्रकरणके अन्तमें ।
(३) एक्ट नम्बर १५ सन १८५६ के अनुसार अब विधवा स्त्रींसे भी विवाद किया जासकता है- देखो 'विडोरिमेरेज एक्ट' इस प्रकरणके अन्तमें ।
( ४ ) जिस स्त्रीका पति मौजूद हो उससे कदापि विवाह नहीं किया जा सकता, यदि कोई ऐसा करे तो क़ानून ताज़ीरात हिन्दकी दफा ४६४ के श्अनुसार दण्ड पायेगा । बम्बई के एक मुक़द्दमे में यह माना गया कि यद्यपि किसी जाति यह रसम हो कि एक पति के जीवनकालमें और उसकी मंजूरी लिये बिना कोई स्त्री दूसरा विवाह कर सकती है, फिर भी क़ानूनमें ऐसा विवाह नाजायज़ माना गया है और ऐसे मामलेमें स्त्री और दूसरे पुरुषको पूर्वोक्त दफा ४६४ और ४६७ के अनुसार दण्ड दिया जायगा -देखो कैसर हिन्द बनाम करसन गोजा 2 Bom H. C. R. 117. कुछ हालतों में स्त्री अपने पतिकी मंजूरी से दूसरा विवाह कर सकती है; देखो कैसर हिन्द बनाम उमी 6 Bom, 126 अपनी जातिवालों को कुछ रुपया देकर और बिना तलाक़ लिये 'नतरा'
का विवाह करने का रवाज सदाचारके विरुद्ध माना गया; देखो उजी बनाम हाथीलाल 7 Bom. H. C. R. 133.
जिनमें तलाक़ जायज़ है उनमें तलाक़ होजानेके बाद पति-पत्नी यदि एक दूसरेके विवाहका खर्च अदा करदें तो स्त्रीका दूसरा विवाह करलेना सदाचार के लिये विरुद्ध नहीं है; देखो शङ्कर लिङ्ग बनाम सुष्बन चड्डी 17 Mad 479; 15 Mad. 307.
(५) जिस किसी लड़कीकी सगाई किसी एक से हो गई हो, तो भी उसका विवाह दूसरे आदमीसे किया जा सकता है क्योंकि सगाई से विवाह करना निश्चित होता है मगर विवाह हो नहीं जाता; देखो दफा ६८.
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अफा ४६-४७]
विवाहमें वर्जित सपिण्ड
(६) बदलेका विवाह शास्त्रोंमें मना है परंतु जातिकी अगर ऐसी रसम हो तो जायज़ माना जायगा । उत्तर हिन्दुस्थानमें कान्यकुब्ज ब्राह्मणों
और क्षत्रियोंमें ऐसा रवाज है कि बराबरवाले कुलसे वह बदलेका विवाह कर लेते हैं । बदलेसे यह मतलब कि दोनों पक्षोंके लड़का और लड़की एकही समय या भिन्न भिन्न समयमें एक दूसरेके यहां विवाह कर दिये जाते हैं । बम्बईके 'फड़वाकुनबी' जातिमें भी ऐसा विवाह जायज़ माना गया है; देखो-बाई उगरी वनाम पटैल पुरुषोत्तम 17 Bom. 400.
(२) विवाहमें वर्जित सपिण्ड
दफा ४६ सपिण्डकी किसमें ____ सपिण्ड दो तरहके होते हैं एक वह जो विवाहमें काम भाते हैं दूसरे उत्तराधिकारमें । उत्तराधिकारके सपिण्डसे विवाहके सपिण्डमें मेद है । यहां पर विवाहके सपिण्ड नीचे बताये गये हैं । उत्तराधिकारके सपिण्डका विषय देखो-दफा ५७ से ६०१ दफा ४७ विवाहमें वर्जित सपिण्ड
हिन्दूलों में वर्जित सम्बन्धियोंमें विवाह नाजायज़ माना गया है । देखो पासषल्क्य स्मृतिका विवाह प्रकरण ५२
अविप्लुतब्रह्मचर्यो लक्षण्यां स्त्रियमुदहेत् अनन्यपूर्विकां कांतामसपिण्डां यवीयसीम् । जिस ब्रह्मचारीका ब्रह्मचर्य नष्ट नहीं हुआ वह अच्छे लक्षणों वाली और जिसका दूसरे पुरुषके साथ सङ्ग नहीं हुआ, रूपवती, अपने सपिण्डोंमे न हो,
और अवस्था तथा शरीरमे अपनेसे छोटी हो ऐसी कन्याके साथ विवाह करे। बिज्ञानेश्वर भट्टाचार्य ने इस श्लोकके "असपिण्डा" पदकी व्याख्या अपने मिताक्षरा नामक टीकामें निम्न लिखित की है
असपिण्डां समान एकः पिण्डो देहो यस्याः सा सपिण्डा । न सपिण्डा असपिण्डा ताम् । सपिण्डता च एकशरीरावयवान्वये भवति । तथा हि पुत्रस्य पित शरीरावयवान्वयेन पित्रा सह सापिण्ड्यम्
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विवाह
[ दूसरा प्रकरण
एवं पितामहादिभिरपि पितृद्रारेण तच्छरीरावयवान्वयात् । एवं मातृशरीरावयव न्वयेन मात्रा । तथा मातामहादिभिरपि मातृद्वारेण । तथा मातृष्वसृमातुलादिभिरपि एक शरीरावयवान्वयात् । तथा पितृव्य पितृष्वस्त्रादिभिरपि । तथा पत्यासह पत्न्या एकशरीरारम्भकतया । एवं भ्रातृभाय्र्याणा मपि परस्परमेकशरीराख्यैः सहेक शरीरारम्भकत्वेन । एवं यत्र यत्र सपिण्डशब्दस्तत्र तत्र साक्षात्परम्परया वा एकशररीरावयवान्वयो वेदितव्यः ।
यद्येवं मातामहादीनामपि 'दशाहं शावमाशौचं सपि - गडेषु विधीयते' इत्यविशेषेण प्राप्नोति स्यदेतत् । यदि 'तत्र प्रत्तानामितरे कुर्यः' इत्यादि विशेष वचनं न स्यात् । अतश्च सपिण्डेषु यत्र विशेषवचनं नास्ति तत्रदशाहमित्येतद्वचनमवतिष्ठते । अवश्यं चैकशरीरावयवान्वयेन सापिण्ड्यम् वर्णनीयम् | 'श्रात्माहि जज्ञे आत्मनः' इत्यादि श्रुतेः । तथा 'प्रजामनुप्रजायसे' इति च । स एवायं विरूढः प्रत्यक्षेणोपलभ्यते' इत्याद्यापस्तम्ब वचनाच्च । तथा गर्भोपनिषदि । 'एतत् पादकौशिकं शरीरं त्रीणि पितृतस्त्रीणि मातृतः । अस्थि स्नायुमज्जानः पितृतः त्वङ्मांसरुधिराणि मातृतः' इति । तत्र तत्रावयवान्वय प्रतिपादनात् । निर्वाप्य प ण्डान्वयेन तु सापिण्ड्ये मातृसन्ताने भ्रातृपुत्रादिषु च सापिण्ड्यं न स्यात् । समुदायशक्त्याऽङ्गीकारेण रूढिपरिग्रहे श्रवयवशक्तिस्तत्र तत्रावगम्यमाना परित्यक्ता स्यात् । परम्पश्यैक शरीरावयवान्वयेन सापिण्ड्ये यथा नाति प्रसङ्गस्तथा
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फा ४७]
विवाहमें वर्जित सपिण्ड
६१
वक्ष्यामः । यवीयसी वयसा प्रमाणतश्व न्यूनामुद्वहेत् परिणयेत् स्वगृह्योक्त विधिना । ५२
भावार्थ-असपिण्डका अर्थ है जो सपिण्ड न हो अर्थात् जिसका देह अपने देहके संग न हो । क्योंकि सपिण्डता तभी होती है जब शरीरके अवयव एक हों जैसे पुत्रका पिताके साथ सापिण्ड्य है क्योंकि पिताके अवयवों का सम्बन्ध वीर्य द्वारा पुत्रमें है। इसी तरहपर पिताके द्वारा पितामह आदिमें भी सपिण्डता होती है क्योंकि उनके शीरोंके अवयवोंका सम्बन्ध एक दूसरे से है । इसी प्रकार माताके शरीरके अवयवोंके सम्बन्धसे माताके द्वारा मातामह (नाना ) आदिके साथ सपिण्डता होती है। एवं परंपरासे एक शरीरका सम्बन्ध होनेसे मौसी और मामा, तथा चाचा और बुवाके साथ सपिण्डता होती है। इसी तरह पति के साथ पत्नीकी सपिण्डता है क्योंकि वह अापसमें मिलकर एक शरीर पैदा करते हैं । भ्राताओं की स्त्रियों के संग सपिण्डता होती है क्योंकि भ्राताओंके संग अपने शरीरकी एकता है और उनके (भ्राताओं) शरीरोंके संग उनकी स्त्रियोंके देहों की एकता है अर्थात् भाइयोंकी स्त्रियां भी एक दूसरेके सपिण्ड हैं क्योंकि वह मिलकर एक शरीर पैदा करती हैं या यों कहिये कि वह इकट्ठी उन लोगोंसे मिलकर जो एक शरीरसे पैदा हुये हैं पुत्र पैदा करती हैं । यानी वह स्त्रियां एक ही मनुष्यकी सन्तानसे युक्त होकर पुत्र उत्पन्न करती हैं और इसलिये उनके पतिका बाप ही सबका बंधन है जो सब को सपिण्डमें जोड़ता है। इसलिये जहां जहां सपिण्ड शब्द हो वहां वहां साक्षात् वा परंपरा सम्बन्धसे शरीरके अवयवोंका एकही सम्बंध जानना अर्थात् जहांपर सपिण्ड शब्द किसी दो मनुष्योंके बीच में व्यवहार किया जाता है तो उसका अर्थ यह है कि किसी एक शरीरले उन दोनोंका सम्बंध स्वयं ही या सन्तान होनेके कारण माना जाता है ।
यहां पर यह शंका होती है कि अगर मातामह ( नाना ) आदि भी मा के द्वारा सपिण्ड हैं तो उनका भी दश दिनका सूतक मानना चाहिये क्यों के यह कहा गया है कि--
'दशाहं शावमाशौच सपिण्डेषु विधीयते'
इस वचनके अनुसार उनके मरनेका दश दिनका सूतक मानना चाहिये इसका उत्तर यह दिया गया है कि हां ऐसा होता अगर कोई विशेष ववन इस सम्बंध नहीं होता “प्रत्तानामितरेकुर्युः" इस बचनमें यह विशेषआज्ञा दी गई है कि-विवाही हुई कन्याओं का अशौच वही माने जिनको वह विवाही गयी हों' इसलिये जिन सपिण्डोंके बारे में कोई विशेष वचन न हो वहांपर दश दिनके अशौचका बोधक समझना चाहिये इससे यह सिद्ध हुआ कि एक
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विवाह
[दूसरा प्रकरण
शरीरके अवयवों के अन्वयसे सपिण्डता अवश्य होती है। क्योंकि धुतिमें कहा गया है कि 'आत्माही आत्मासे पैदा हुआ है और प्रजाके पीछे तूही पैदा होता है तथा आपस्तंबने भी यह कहा है कि वही पिता आदि पैदा होकर प्रत्यक्ष देखा जाता है' । गर्भोपनिषद् में भी कहा है कि 'इस शरीर में छः कोश हैं यानी ६ बस्तु हैं तीन पितासे और तीन मातासे आती है अस्थि स्नायु, मज्जा पितासे, त्वचा मांस रुधिर माता से आते हैं, इस प्रकार वहां वहां पर शास्त्रोंमें अन्वय प्रतिपादन किया गया है यदि साक्षात् पिताके ही सम्बंध से सपिण्डता मानली जाय तो हानि यह होगी कि माताकी संतान तथा माताओंके लड़कोंके साथ सपिण्डता नहीं होगी। अगर समुदाय शक्ति से रूढ़ि मानोंगे तो पहिले मानी हुई अवयव शक्ति त्यागना पड़ेगा और अगर परंपरासे एक शरीरके अवयव सम्बंधसे सपिण्डता मानोंगे तो इसमें जो दोष आता है उसका वर्णन किसी दूसरे स्थलमें करेंगे। ऐसी सपिण्डता मानने में इसका अर्थ अत्यन्त विस्तृत हो जायगा जिससे अनन्त पैदाइशोंसे अनन्त सम्बंध किसी न किसी तरहसे मनुष्योंके बीच पैदा हो जायेंगे । जो कन्या अवस्था और देहके प्रमाणसे कम हो उसका विवाह गृह्य सूत्रमें कही हुई विधिके अनुसार करना चाहिये। दफा ४८ मिताक्षरामें पिण्डदानके आधारपर सपिण्ड नहीं
माना गया मिताक्षराकारने सपिण्डके निर्णय करनेमें पिण्डदानका आधार नहीं माना ( लल्लू भाई बनाम काशीबाई 6 Bom. 110, 118, 120 P. C.) इस प्रिवी कौन्सिलकी नज़ीरमें कहा गया है कि जहां कहीं भी सपिण्ड शब्द आवे यहां सीधी तरह पर या और तरह पर शारीरिक सम्बन्धका होना ही समझना चाहिये। यद्यपि त्रिवीकौन्सिल और हिन्दुस्थानकी दूसरी अदालतें दो दावा दारोंके हक़की छोटाई बड़ाई निश्चित करने में धार्मिक कृत्योंका विचार करती हैं परंतु मिताक्षराने रक्तके निकटका सम्बंध होनेसे जो सपिण्ड निर्णयके लिये सिद्धांत रक्खा है और स्मृतिचन्द्रिका,तथा सरस्वती विलासमें भी साफ साफ कहा गया है वही मानना चाहिये देखो-7 M L T. 203; 20 M L. J. 280; और देखो-निर्णयसिन्धु तृतीय परिच्छेद-विवाह,श्रीवेंकटेश्वर प्रेसका छपा पेज ३६७. दका ४९ अपने गोत्र और प्रवरकी कन्याके साथ विवाह वर्जित है
हिन्दूला के अनुसार द्विज (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य,) के विवाहने योग्य पह लड़की है जो न अपने गोत्रकी हो और न अपने 'प्रवर' की होः देखो
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दफा ४८-५१ ]
विवाह में वर्जित सपिण्ड
रामचन्द्र कृष्णजी जोशी बनाम गोपाल 10 Bom. L. R. 948. वह लड़की अपने पिता और नानाकी सपिण्ड भी न हो । महर्षि मनुने कहा है अ० ३-५ सपिण्डा च या मातुरसगोत्रा च या पितुः सा प्रशस्ताद्विजातीनां दारकर्मणि मैथुने ।
कुल्लूक भट्टने इस श्लोकका अर्थ ऐसा किया है कि जो लड़की अपनी माताकी सपिण्ड तथा गोत्रकी न हो और पिताके गोत्रकी न हो 'च' से मतलब यह है कि पिताके सपिण्डकी भी न हो ऐसी लड़कीके साथ द्विज विवाह करे । अर्थात् अपने और नानाके गोत्र तथा सपिण्डकी न हो वही लड़की द्विजों में विवाहने योग्य है ।
६५
दफा ५० शूद्रोंके विषय में
गोत्र और प्रवरका नियम नहा है
शूद्रोंके विषयमें कहा गया है कि वह सपिण्ड कन्याके साथ विवाह नहीं कर सकता; देखो भविष्य पुराण
समान गोत्रप्रवरं शूद्रामृङ्खान दोषभाक् शूद्रस्याच्छूद्रजातौ च सपिण्डे दोषभाग्भवेत् ।
यदि शूद्र एकही गोत्र और प्रवरकी कन्याके साथ विवाह करले तो दोष नहीं है परन्तु वह सपिण्ड कन्याके साथ विवाह नहीं कर सकता । दफा ५१ विवाह में सपिण्ड सम्बन्ध कहां तक माना जाता है १ याज्ञ०-- पंचमात्सप्तमादूर्ध्वं मातृतः पितृ तस्तथा ।
सब जातियों से यह नियम लागू होता है कि माताकी तरफसे पांचवीं और पिताकी तरफ से सातवीं पीढ़ीके बाद सपिण्डका सम्बन्ध टूट जाता है । विज्ञानेश्वरने इसकी व्याख्या साफ साफ नहीं की । वह कहते हैं कि एकही शरीरका अंश परस्पर मौजूद होनेसे सपिण्ड सम्बन्ध पैदा होता है यह कहा है कि सपिण्डता माता और पितासे पांचवीं और सातवीं पीढ़ीमें निवृत्त हो जाती है । गौतम, मनु, विश्वरूप, वसिष्ठ, स्मृतितत्व आदिमें भी यही बात मानी गयी है ।
२ मिताक्षरा -
0
-
मातृतोमातुः सन्तानेपञ्चामादूर्ध्वं पितृतःसन्ताने सप्तमादूर्ध्वं सापिण्ड्यं निवर्तत ।
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विवाह
[दूसरा प्रकरण
३ गौतम- ऊर्द्ध सप्तमात् पितृबन्धुभ्योर्वाजिनश्च
मातृबन्धुभ्यः पञ्चमादिति । ४ मत्स्यपुराण- पिण्डदःसप्तमस्तेषां सापिण्ड्यं साप्तपौरुषीम्। ५ स्मृति तत्व- बवा वरस्य वा तातःकूटस्थाद्यदि सप्तमः
पञ्चमीचेत्तयोर्माता तत्सापिण्डयं निवर्तते। ६ विश्वरूप निबन्ध-पितृवन्धुषु सप्तमात् पञ्चमान्मातृन्धुतः। ७ स्मृति चिन्तामणि-अासप्तमात्पञ्च बन्धुभ्यः पितृमातृतः ..
अविवाह्याः सगोत्राच समान प्रवरास्थता । ८ विष्णु पुराण-- पञ्चमी मातृपक्षाच्च पितृपक्षाच्च सप्तमी
गृहस्थ उद्हेत् कन्यां न्यायेन विधिना नृप । ६ अपरार्क-- पञ्चमे सप्तमे चैव एषां वैवाहिकी क्रिया
क्रियापराअपि हिते पतिताः शूद्रतां गताः। १० शुद्धि चिन्तामणि-सर्वेषामेववर्णानां विज्ञेयासातपोरुषी
सपिण्डता ततः पश्चात् समानोदकधर्मतः। ११ ब्राह्मे-- पञ्चमी मातृतः परिहरेत्सप्तमी पितृतः । १२ वसिष्ठ-- पञ्चमी सप्तमी चैव मातृतः पितृतस्तथा। १३ मनु-- सपिण्डता तु पुरुषे सप्तमे विनिवर्तते
समानोदकभावास्तु जन्मनाम्नोरवेदने । ऊपरके वचनोंका सारांश यह है कि माताकी तरफसे पांचवीं और पिताकी तरफसे सातवीं पीढ़ीके अन्दरवाली कन्याके साथ विवाह वर्जित है। माताकी ओर गिनती इस तरह होगी, माता, माताका पिता आदि; इसी तरहपर पिताकी ओर समझिये । सपिण्डमें विवाह वर्जित है यह बात सर्वमान्य है मगर सपिण्ड कौन होते हैं इस बातमें मिताक्षरा और दायभागमें मतभेद है नीचे यह बात समझाई गई है।
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दफा ५२-५३]
विवाहमे वर्जित सपिण्ड
दफा ५२ सपिण्डोंमें विवाह करनेकी मनाही
बनरजीके 'लॉ ऑफ मेरेज' के तीसरे एडीशनके पेज २४, २४७ में कहा गया है कि अगर कोई रवाज इसके विरुद्ध न हो तो धर्मशास्त्रमें मनाही किये हुए सपिण्डों और रिश्तेदारोंके दरमियान विवाह करना नाजायज़ है । द्विजोंमें कोई आदमी अपनेही गोत्र या अधिकांश प्रवर समान होनेपर किसी स्त्रीके साथ विवाह नहीं कर सकता; अर्थात् विवाह करनेवाले लड़केका बाप और लड़कीका बाप दोनों किसी ऐकही मूल पुरुषकी नीचेकी मर्दशाखामे हों तो विवाह नहीं हो सकता । यह सिद्धांत शूद्रोंसे नहीं लागू होगा क्योंकि उनमें । प्रायः कोई खास गोत्र नहीं कहे जाते ।
मिताक्षरा और बंगालस्कूल दोनोंमें यह सिद्धांत माना गया है कि कोई आदमी अपने सपिण्डकी स्त्रीसे विवाह नहीं कर सकता, मगर दोनों स्कूलोंमें विवाहके सपिण्ड कौन रिश्तेदार हैं इस बातके निर्णय करने में अधिक मतभेद है । यह ध्यान रहे कि उत्तराधिकारके सपिण्डों और विवाह के सपिण्डोंमें अन्तर है नीचे विवाहके सपिण्ड बताये गये हैं । पहिले बंगालस्कूलके सपिण्ड और पीछे मिताक्षराके सपिण्ड क्रमसे देखोदफा ५३ बंगालस्कूलमें सपिण्ड कन्या कौन है ?
बंगाल स्कूलमें जहांपर सर्वोपरि जीमूतवाहनका टीका दायभाग माना जाता है वहांपर नीचे लिखे कायदोंके अनुसार लड़कीका विवाह वर्जित है:--
(१) अगर लड़की अपने बापके पूर्वजोंकी सात पीढ़ीके अन्दर हो (२) अगर लड़की अपनी मांके पूर्वजोंकी पांच पीढ़ीके अन्दर हो (३) अगर लड़की अपने बापके तीन खास बन्धुओंकी सात पीढ़ीके
अन्दर हो। (४) अगर लड़की अपनी मांके तीन खास बन्धुओंकी पांच पीढ़ीके
अंदर हो। यह माना गया है कि ऊपरके चारों कायदोंके भीतर अगर लड़की हो और वह लड़केके गोत्रसे तीन गोत्र भिन्न हो तो विवाह हो सकता है। देखो-दफा ५४ का दूसरा उदाहरण-(बंगाल स्कूलके अनुसार नीचेका नक़शा देखो) देखा-बनर्जी लॉ आफ् मेरेज एण्ड स्त्री धन सन १६१३ ई० पेज ६३.
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विवाह
[दूसरा प्रकरण
पि७ पि १२
पि६ पि ११
पि ५ पि१०
पि
पि४ पि
पि १५ पि १४
पि १६.
। पि १८
पि३ पिच
पि२
मा२ बर
ल१ ब३ पि१३
मा३ ब४ लर
लं?
पि?
ल२
ल३ ल
मा१
ल५ ल६
ऊपरके नक़शेमें 'वर' पुरुष है जिसका विवाह होना है। पि १ वरका पिता है मा १ वरकी माता है, मा २ बापकी माता, और मा ३ वरकी माताकी माता (नानी) है। ब १ बापके बापकी बहन है, ब २ बापकी माकी बहन,ब ३ माताके बाप (नाना)की बहन, ब ४माताकी मांकी बहन है । ल, से मतलव लड़का है। ल १ पिताके पिताकी बहनका पुत्र, ल २ बापकी मांकी बहनका पुत्र है। पि १ से लेकर पि ७ तक वरके पितृपक्षके सात पूर्वज हैं। पिट से लेकर पि१२ तक वरके बापके मातृपक्ष ( वापका नाना) की सीधी शाखाके पांच पूर्वज हैं। पि १३ से लेकर पि १७ तक वरके मातृपक्षके पांच पूर्वज सीधी शाखामें हैं । पि १८ से लेकर पि २० तक वरकी माताके मातृपक्षके सीधी शाखा वाले तीन पूर्वज हैं । ल १, ल २, ल ३, तक वरके पितृबन्धु हैं (ल १, पिताके पिताकी बहनका लड़का, ल २, पिताकी माताकी बहनका लड़का, ल ३, पिताकी मांके भाईका लड़का है) तथा ल ४, ल ५, ल ६, यह वरके मातृबन्धु हैं (ल ४--माके बापकी बहनका लड़का, ल ५--माताकी माकी बहनका लड़का, ल ६ माताकी माके भाईका लड़का है ) ऊपर कहे हुए चारों सिद्धान्तोंके अलग अलग उदाहरण देखो--
(१) जैसा कि ऊपर बताया गया है कि अगर लड़की अपने बापके पूर्वजोंकी सात पीढ़ीके अन्दर हो तो विवाह नहीं हो सकता। ऊपरके नक़शेमें देखो पि १ से लेकर पि ७ तक वरके पितृपूर्वज हैं। इनमेंसे किसी एकके अगर सात पीढ़ीके अंदर लड़की होगी तो विवाह नहीं हो सकता।
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दफा ५४ ]
विवाह में वर्जित सपिण्ड
( २ ) जैसा कि ऊपर फदा ५३ के दूसरे सिद्धांतमें बताया गया है कि अगर लड़की अपनी मांके पूर्वजोंकी पांच पीढ़ीके अंदर हो तो विवाह नहीं हो सकता देखा पी १३ से लेकर पी १७ तक यह माताके पांच पितृपूर्वज हैं; इसकी गणनामें मातासे शुमार नहीं किया जायगा क्योंकि माता के पितृपूर्वज माता पिता (नाना ) से शुरू होते हैं ।
६६
(३) जैसा कि ऊपर दफा ५३ के तिसरे सिद्धांतमें कहा गया है कि अगर लड़की अपने बापके तीन खास बन्धुओंकी सात पीढ़ीके अंदर होतो विवाह नहीं हो सकता देखा ल १ ल २ और ल ३ यह पितृबंधु हैं अथात् ल १ पिताके बापकी बहनका लड़का, ल २ पिताकी माकी बहनका लड़का और ल ३ पिताकी माके भाईका लड़का है, वरके इन तीनों पितृबन्धुओकी सात पीढ़ीके अन्दर किसी कन्याका विवाह नहीं हो सकता ।
( ४ ) जैसा कि ऊपर दफा ५३ के चौथे सिद्धांत में कहा गया है कि अगर लड़की अपनी माताके तीन खास वन्धुओंकी पांच पीढ़के अन्दर हो तो विवाह नहीं हो सकता देखा ल ४, ल ५, ल ६, मातृबन्धु हैं अर्थात् ल ४ नानाकी बहनका लड़का, ल ५ माताकी माकी बहनका लड़का और ल ६ माताकी माके भाई का लड़का है इन तीनों मातृबन्धुओंमेंसे किसी एककी पांच पीढ़ीके अन्दर किसी लड़कीका विवाह नहीं हो सकता अर्थात् ल ४ के पूर्वज हैं पि १४ सेपि १७ और ल ५, ल ६ के पूर्वज हैं पि १८ से, पि २० इत्यादि । ल ६ का बाप है; ल २ | ल ६ के पूर्वज हैं ल २ और पि १८ से १६ तक तीन खास वन्धु ।
ऊपर विवाह सपिण्डों का क्रम बंगालस्कूलके अनुसार बताया गया । रघुनन्दन भट्टके बनाये उद्वाहत्तत्व नामक ग्रन्थके आधारपर और बंगाल प्रांत में माने हुए ग्रंथों के अनुसार ऊपरके सिद्धांत माने गये हैं । डाक्टर बनर्जी के लॉ आफू मेरेज, तीसरा एडीशन पेज ६५-७२ में कहा गया है कि जो लड़की ऊपरके दरजोंके अन्दर हो और वरके गोत्रसे तीन गोत्र दूर हो तो विवाह हो सकता है; - दफा ५४ का दूसरा उदाहरण |
दफा ५४ मिताक्षरास्कूलके अनुसार विवाह में सपिण्ड कन्या
( १ ) मिताक्षरा के अनुसार विवाहका सपिण्ड अधिक विस्तृत है, दफा ५१ में कहे गये वचनोंके अनुसार सपिण्ड पितासे सात और मातासे पांच पीढ़ीके समाप्त होनेपर समाप्त हो जाता है । कौस्तुभ, मदनपारिजातमें इसका पूरा विस्तार देखो, निर्णयसिंधु और धर्मसिंधुमें भी इसपर अच्छा विवेचन किया गया है । मिताक्षराके अनुसार विवाहके विषयमें सपिण्ड कन्या जिन ख़ास सिद्धांतों से विचारकी जाती है वह दफा ४७ से५१ तक ऊपर बताये जाचुके हैं उनका सारांश नीचे देते हैं जो विवाह में वर्जित माने गये हैं ।
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विवाह
[दूसरा प्रकरण
१- अगर वर और कन्या दोनोंका उनके पिताओंके द्वारा सात पीढ़ी
के अन्दर एक ही मूल पुरुष हो अर्थात् वर और कन्या अपने अपने पिता, पितामह, आदिके क्रमसे सात पीढ़ीके अन्दर या सात पीढ़ीमें एकही किसी मूलपुरुषसे संबंध रखते हों ( सात
पीढ़ीके बाहर न हों) या २- अगर वर और कन्या दोनों का माता की तरफसे एकही
मूलपुरुष हो और वह पांच पीढ़ीके अन्दर हो (पांच पीढ़ीके
बाहर न हो) यही सिद्धांत घोष हिंदू लॉ दूसरे एडीशनके पेज ६८०, भट्टाचार्य हिंदू लॉ के दूसरे एडीशनके पेज ६०; घारपुरे हिंदू लॉके दूसरे एडीशनके पेज ३०७, मुल्ला हिंदू लॉ दूसरे एडीशनके पेज ३६१ में, तथा दिवेलियन हिंदू लॉ दूसरे एडीशनके पेज ३६ में उद्धृत किये गये हैं।
इन सिद्धांतोंके उदाहरण देखो(धर्मसिंधौ तृतीय परिच्छेदे पूर्वार्द्ध तृतीय पादे )
इस नकशे में 'विष्णु' यह मूल पुरुष माना गया है नं०१ नं०२ नं०३
नं०४ विष्णु१ । विष्णु१ । विष्ण
विष्ण१
कांति
२ गौरी दत्त २ चैत्र दत्त २ चैत्र ३ हर | सोम ३ मैत्र | सोम ३ मैत्र ४ मैन सुधी ४ बुध सुधी ४ बुध ५ शिव श्यामा ५ रति श्यामा ५ नर्वदा
| शिव ६ गौरी शिव ६ काम ७अच्युत
रमा ७ कवि ८ काम
दत्त २ चैत्र सोम ३ मैत्र
घी ४ बुध श्यामा ५ शिव कांति ६ हर
पीढ़ी
पीढ़ी
नं०१-विष्णु मूलपुरुषके दो कन्यायें हुयीं जिनका नाम कांति और गौरी है. उन कन्याओंसे सुधी और हर दो पुत्र हुए फिर उन लड़कोंसे बुध और मैत्र, उनसे चैत्र और शिव, उनसे गण और भूप, उनसे मृड़ और अच्युत लड़के पैदा हुए मृड़के रति नामकी कन्या और अच्युतके काम नामक
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दफा ५४ ]
विवाहमें वर्जित सपिण्ड
लड़का उत्पन्न हुआ यहांपर रति (कन्या) और काम (वर) दोनोंका विवाह हो सकता है क्योंकि वर और कन्या दोनों अपने पिताओंके द्वारा सात पीढ़ीके अन्दर एकही मूलपुरुषसे सम्बंध नहीं रखते। वह दोनों आठवीं पीढ़ीमें हैं।
__नं० २-विष्णु मूलपुरुषसे दत्त और चैत्र दो लड़के हुए उनके सोम और मैत्र, उनके सुधी और बुध, उनके श्यामा और रति नामकी कन्यायें पैदा हुई । श्यामाके शिव नामका लड़का और रतिके गौरी नामकी कन्या पैदा हुई । पहांपर शिव और गौरीके साथ विवाह होने में दोष नहीं है क्योंकि मूलपुरुष विष्णुसे छठी पीढ़ीमें ये हैं इससे माताके द्वारा पांचवीं पीढ़ीमें सपिण्ड निवृत्त हो गया।
नं० ३--विष्णु मूल पुरुषसे दत्त और चैत्र दो लड़के पैदा हुए, उनके सोम और मैत्र, उनके सुधी और बुध, उनके श्यामा और नर्वदा दो कन्यायें हुयीं, उनके शिव और काम एवं शिवके रमा नामकी कन्या और कामके कवि नामक पुत्र उत्पन्न हुआ, यहांपर रमा और कविका विवाह नहीं हो सकता क्योंकि यद्यपि माताके द्वारा सपिण्ड निवृत्त हो चुका तथापि 'मण्डूक प्लुति न्याय' के अनुसार रमा और कवि पिताके सम्बन्धसे सात पीढ़ीके अन्दर होते हैं।
नं०४-विष्णु मूल पुरुषसे दत्त और चैत्र दो पुत्र पैदा हुए, उनके सोम और मैत्र, उनके सुधी और बुध, सुधीके श्यामा नामकी कन्या और बुधके शिव नामका लड़का जन्मा, श्यामाकी कांति कन्या और शिवका हर पुत्र उत्पन्न हुआ। यहांपर कांति और हरका विवाह नहीं हो सकता क्योंकि माता के द्वारा यद्यपि कांतिका सापिण्ड्य हरके साथसे निवृत्त हो गया तथापि हर की सपिण्ड कांति बनी रही क्योंकि हर अपने पिताके द्वारा मूल पुरुषसे छठी पीढ़ीपर है।
(२) विवाहके सपिण्डके विचार करते समय मनुके उस वचनका ध्यान रखना चाहिये कि
असपिण्डाच या मातुरसगोत्रा च या पितुः ३-५
अर्थात् माताका सपिण्ड न हो और पिताके गोत्रका दोष न लगता हो। बनरजी हिन्दूला तीसरे एडीशन पेज ६५-७२ में कहा गया है कि जो कन्या ऊपरके दरजोंके अन्दर हो मगर तीन गोत्र वरके गोत्रसे भिन्न हो तो विवाह हो सकता है यह सिद्धांत बहुत करके बङ्गाल स्कूलमें माना जायगा । दूसरा उदाहरण देखो
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विवाह
[दूसरा प्रकरण
ब्रह्मानन्द १
विजय
श्यामा जब
श्यामा
लक्ष्मी सावित्री मकरंद
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पीढ़ी GK
सरस्वती-सुभद्रा-लक्ष्मीधर-उमाकांत
कांता
बीरभद्र
चन्द्रावती
सुलोचना
कमला
इस उदाहरणमें पहेशका विवाह सुलोचनाके साथ होना है। क्या महेशके पिताकी ओरसे सुलोचना सात पीढ़ीके अन्दर है ? नहीं वह आठवीं पीढ़ीमें है इसलिये तो विवाह हो सकता है । देखो ब्रह्मानन्द मूल पुरुषके दो लड़के हैं अज और गणेश, अजकी सन्तानमें सुलोचना आठवीं पीढ़ीपर है और गणेशकी सन्तानमें महेश आठवीं पीढ़ीमें है दोनोंका मूलपुरुष ब्रह्मानन्द है यहांपर मनके ३-५ के वचनका खंडन होता है "रसगोत्राचयापितः" समानगोत्रकी कन्याके साथ विवाह वर्जित है इसलिये महेशसे यद्यपि सुलोचना आठवीं पीढ़ीमें है तो भी विवाह नहीं हो सकता, लोकमें यह बात सामान्यतः तथा दोनों स्कूलोंमें मानी जाती है।
उमाकांतके एक पुत्र वीरभद्र और एक कन्या कांता है कांताकी कन्या चन्द्रावती है चन्द्रावतीका गोत्र महेशके गोत्रसे भिन्न हो गया। कांता जिस गोत्रमें विवाही गयी थी वही गोत्र अभी चन्द्रावतीका है महेशके गोत्रसे एक दर्जा हटा हुअा चन्द्रावतीका गोत्र है अब अगर चन्द्रावतीका विवाह महेशके साथ हो जाय तो वह अपने नाना उमाकांतके गोत्रमें विवाही गयी
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दफा ५५]
विवाहमें वर्जित सपिण्ड
ऐसा भी नहीं हो सकता क्योंकि कन्याको अपने गोत्रसे तीन गोत्रके फरकमें होना चाहिये मगर कमलाके साथ महेशका विवाह हो सकेगा क्योंकि कमला तीन गोत्र हटी हुयी है।
इस उदाहरणमें विजयका पुत्र जय और लड़की श्यामा बताई गयी, इसी तरहपर जयकी दो लड़कियां लक्ष्मी-सावित्री और एक पुत्र मकरन्दके दो लडके और दो लडकियां दिखाई गयीं हैं यह सब बराबर दरजोंके समझने के लिये दिखाये गये हैं जैसे कांता अगर लक्ष्मीधरकी लड़की होती तो भी एकही मतलब होता।
(३) विवाहमें सपिण्ड कन्या वर्जित की गयी है ऊपर यह बता चुके हैं कि पितासे सात और मातासे पांचवीं पीढ़ीके समाप्त होनेपर सपिण्ड विवाहके मतलबके लिये नहीं रहता अब प्रश्न यह उठता है कि सपिण्डका हिसाब किससे लगाया जाय ? साधारण उत्तर यह है कि सपिण्ड हमेशा उस लड़केसे जिसका विवाह होना है देखा जायगा । यानी यह कि, कहीं वरके सपिण्डमें तो वह कन्या नहीं है जिसका उसके साथ विवाह होता है।
(४) संस्कृत धर्मशास्त्रकारोंका अन्तर्भाव यह मालूम होता है कि यदि वर्जित दरजोंकी कन्याके साथ (जो दरजे सन्देहित हैं ) विवाह हो गया हो तो कन्या धार्मिक कृत्योंके और वैवाहिक सम्बन्धके पानेकी अधिकारिणी नहीं रहती। ऐसा होनेपर भी वह स्त्री दूसरे पुरुषके साथ अपना विवाह नहीं कर सकती और वह अपने पहले पतिसे अपने भरण पोषणके पानेकी अधिकारिणी है। देखो-आपस्तम्ब २-५-११, गौतम ४-२-५, विष्णु १४-६-१०, नारद १२-७, मांडलीक ४११, वास्तवमें होता यह है कि एकही गोत्रकी लड़कीसे विवाह नहीं किया जाता परन्तु सपिण्ड सम्बन्ध माताकी ओर तीन और पिताकी ओर पांच पीढ़ी तक ज़रूर ही माना जाता है इस नियमका कभी उल्लङ्घन नहीं किया जाता। दफा ५५ दत्तकसे विवाहका सपिण्ड नहीं टूटता
दत्तक लिया हुआ लड़का अपने दत्तक लेने वाले माता पिता और अपने असली माता पिताके सपिण्ड सगोत्रसे विवाह नहीं कर सकता । दत्तक लिये जानेके कारण वैवाहिक कैदें नहीं टूट जातीं, इस विषयमें बृहस्पतिका वचन है कि
मातुःस्वसा मातुलानी पितृव्यस्त्री पितृष्वसा श्वभूः पूर्वजपत्त्ना च भातृतुल्याः प्रकीर्तिताः।
अर्थात् माताकी बहन, मामा या चाचाको स्त्री, बापकी बहन, सास, और बड़े भाईकी स्त्री यह सब माताके तुल्य हैं । दत्तक पुत्रके विवाहमें दोनों
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७४
-
विवाह
[दूसरा प्रकरण
माता पिताओंकी तरफसे सपिण्ड विचार किया जायगा अर्थात् वह दोनों परिवारोंकी सपिण्ड कन्याके साथ विवाह नहीं करसकता और देखो दफा २५७ दफा ५६ सपिण्डमें किये हुए विवाहका परिणाम
सपिण्डमें किये हुए विवाह नाजायज़ हैं लेकिन शर्त यह है कि अगर किसी जातिमें ऐसी रसम हो तो वह जायज़ माना जा सकता है; देखो-- लक्ष्मणकुंवर बनाम मरदानसिंह 8 All. 143.
बम्बईमें अकोला और सोलापुरकी तरफ मामाकी लड़कीके साथ विवाह जायज़ है ऐसे भी कई मामले हुए हैं जिनमें मामाकी लड़की और बुवा की लड़कीके साथ विवाह जायज़ माना गया । महाराष्ट्रोंमें ऐसा विवाह नाजायज़ नहीं माना गया।
(३) वैवाहिक सम्बन्ध
दफा ५७ भिन्न जातियोंके परस्पर विवाह
भिन्न जातियोंके परस्पर विवाह अब प्रायः नहीं होते पहलेके ज़मानेमें विवाहके सम्बन्धमे जातिका विचार नहीं किया जाता था मगर अब ऐसा होना बन्द हो गया है । याज्ञवल्क्य कहते हैं कियाश०- यदुच्यते दिजातीनां शूद्रादारोपसंग्रहः
नैतन्मममतं यस्मात्तत्रात्मा जायते स्वयम् । ५३ मनु०- न ब्राह्मणक्षत्रिययोरापद्यपिहि तिष्ठतोः
कस्मिंश्चिदपि वृत्तान्ते शूद्रभार्योपदिश्यते । ३-१४ हीनजाति स्त्रियं मोहादुदहन्तो दिजातयः कुलान्येवनयन्त्याशु ससन्तानानि शूद्रताम् । ३-१५ शूद्रांशयनमारोप्य ब्राह्मणो यात्यधोगतिम् । जनयित्वा सुतं तस्यां ब्राह्मण्यादेव हीयते । ३-१७
द्विज पुरुष और शूद्रास्त्रीके परस्पर विवाह मुझे मान्य नहीं हैं क्योंकि स्त्री अपनी श्रद्धागिनी होना चाहिये । मनुने इसे माना है, वह कहते हैं कि,
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दफा ५६-५७ ]
वैवाहिक सम्बन्ध
विवाहकी इच्छा करने वाला ब्राह्मण और क्षत्रीको आपत्तिकालमें भी शूद्रभा
के साथ विवाह न करना चाहिये। जो द्विज मोहसे अपने से हीन जातिकी भासे विवाह करता है वह उस भार्य्यासे उत्पन्न सन्तानके द्वारा अपने कुलको शूद्र बना देता है । शूद्राके साथ संभोग करनेसे ब्राह्मण नरकको जाता है और उस स्त्री पुत्र उत्पन्न करने से ब्राह्मणपनेको नष्ट कर देता है ।
७५
शास्त्रों में इस बातका नियम है कि किस जातिकी स्त्रीकी सन्तान पहले और किसकी पीछे मानी जायगी। इससे श्रेष्ठ और हीन बताया गया है इसलिये जब कोई हिन्दू अपनी जातिकी स्त्रीसे ही विवाह करे तो वह जायज़ माना जायगा । अगर उस हिन्दूने अपना निवासस्थान बदल दिया हो तो भी यही नियम लागू होगा। देखो - B. L. R. 244; और 9W R 552 सिविलमेरेज एक्ट ऐसे मामलेसे लागू नहीं होता। अगर विवाह करने वाले स्त्री पुरुष यह कहें कि उस क़ानून में कही हुई जातियों में से किसी जातिमें हम नहीं हैं तब वह क़ानून लागू होगा । और पति, पत्नीकी रजिस्ट्री उस क़ानून के अनुसार अदालत में हो जायगी । एकही जातिकी उप-जातियों के परस्पर विवाह वर्जित नहीं है इस विषय में अगर पहले की कोई नज़ीर, रसम वाजकी कैद लगाने वाली हो तो भी विवाह जायज़ माना जायगा यानी वैसी नज़ीर, नज़ीर नहीं मानी जायगी; देखो - मेलाराम बनामथा नूराम 9 W. R. 552; नारायण बनाम राखालगांई 1 Cal. 1.
यह माना गया है कि हिन्दूलॉ में कोई ऐसी बात नहीं है जो उप-जातियों के परस्पर विवाह वर्जित करे देखो -- उपोमाकुचाइन बनाम भोलाराम धोबी 15 Cal. 701 फकीर गौड़ बनाम गङ्गी 22 Bom. 277 वाले मुक़द्दमे में अदालतने यह माना कि लिङ्गायतों की उप-जातियोंके परस्पर विवाह नाजायज़ नहीं है जो कोई नाजायज़ बयान करे उसे साबित करना चाहिये देखो - 33 Bom. 693; 11 Bom. L. R. 822; 20 Mad. L. 49.
अनुलोम विवाह - हालके मुक़द्दमे (1922Bom.L.R.5 ) में अनुलोमज विवाह जायज़माना गया । वैश्य पुरुष और शूद्रास्त्री से उत्पन्न लड़ की थी तथा वह वैश्यको विवाही गयी थी। मामला यह था कि दुर्गा बाई शूद्र क्रोम म मराठा जातिकी थी वह जगजीवनदास वैश्यके पास रखेली औरतकी तरह बैठी थी । दुर्गा बाईके एक लड़की गुलाब बाई पैदा हुई । म्यूनिसिपल्टीके पैदाइशके रजिस्टर में गुलाब बाईकी जाति वैश्य लिखी गयी । गुलाब बाईके पैदा होने के २, ३ वर्ष बाद उसकी मां दुर्गा बाई मर गयी जगजीवनदासने गुलाब बाई की परवरिश अपनी लड़की की तरह की । जगजीवनदास के औरस पुत्र और पुत्री के साथ उसने भी परवरिश पाई । गुलाब बाईकी पोशाक वैश्य स्त्री की तरह थी । ता० १८ दिसम्बर सन १६१६ ई० को गुलाब बाईका विवाह जीवन 'वैश्य के साथ हो गया । जगजीवनदास और जीवनलाल दोनों विसा मोदी
लाल
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विवाह
[दूसरा प्रकरण
बनियां थे । विवाहमें बिरादरीके लोगोंने भोजन किया था। पति और पत्नीमें जल्द झगड़ा शुरू होगया वे दोनों अलहदा अलहदा रहने लगे । ता० २८ जुलाई सन १९२० ई० को मुद्दई गुलाब बाईने दावा दायर किया कि विवाह नाजायज़ करार दिया जाय और १०,०००) रु० बतौर हरजाना मुद्दालेह से दिलाया जाय । मुद्दालेह पति ने जवाब में कहा कि विवाह जायज़ है और क्रास सूट ( उलटा दावा ) यह किया कि पति-पत्नी के पारस्परिक अधिकारों के प्राप्त करने की डिकरी दी जाय । अदालत मातहतने दावा खारिज किया और उलटे दायाकी डिकरी दी।
__ मुद्दई गुलाब बाईने हाईकोर्ट बम्बईमें अपीलकी। विचार पति जस्टिस शाहने लम्बी तजवीज़ दी जिसका मर्माश यह है: - ____ यह दावा गुलाब बाई नावालिग की तरफसे उसकी वली नान्दू बाई ने, विवाह नाजायज़ करार दिये जाने और १०,०००) रु० हरजाना दिलाये जानेके लिये किया है। यह भी कहा गया है कि विवाह जालसाज़ी से हुआ। मुद्दालेहका कहना है कि लड़की गुलाब बाई जगजीवनदास वैश्यकी लड़की है और विवाह ठीक वैश्य जातिकी विधिसे हुआ तथा पति-पत्नीके पारस्परिक सम्बन्धकी डिकरी दी जाय। यह बात दोनों पक्षों को स्वीकार है कि विवाह हुआ और एक वक्त पति-पत्नीका सम्बन्ध हुआ। यह भी स्वीकार किया गया है कि गुलाब बाई, जगजीवनदास और दुर्गा बाई से पैदा हुई जो मराठा स्त्री थी तथा दुर्गा बाईका विवाह जगजीवनदास के साथ नहीं हुआ था। अदालत मातहतने गुलाब बाईकी ज़ात शूद्र मानी किन्तु वह विवाहके समय वैश्यकी तरह रहती थी।
अपीलांट गुलाव बाईकी तरफसे बहसकी जाती है कि विवाह नाजायज़ है क्योंकि लड़की दरअसल शूद्र जातिकी है यद्यपि वह वैश्य मान ली गयी थी तथा वैश्य विरादरीने भी मञ्जूर कर लिया था मगर इससे विवाह जायज़ नहीं हो सकता और हिन्दूलॉ के अनुसार वैश्य पुरुष तथा शूद्रा स्त्रीके साथ विवाह नाजायज़ माना गया गया है।
मुद्दालेहकी बहस है कि हिन्दूलॉ के अनुसार जैसाकि बृन्दावन बनाम राधामनी 1888 I. L. R. 12 Mad, 72 में तय किया गया है कि "लड़की की जाति उसकी मां की अपेक्षा ऊंची और बाप की अपेक्षा नीची होना चाहिये' इस सिद्धांतका प्रमाण देखो मनु अध्याय १० श्लोक ४१ और याज्ञवल्क्य आचार० श्लोक ६१, ६२, ६५ और ६६ इन वचनोंकी शक्ति यह है कि स्त्री अनुलोमज जातिकी विवाह कार्यमें मान्य है किन्तु प्रतिलोमज़ नहीं। (अनुलोमज और प्रतिलोमजकी व्याख्या देखो दफा १)
"द्विजोंमें अनौरस सन्तान, उत्तराधिकारसे वंचित रखी गयी है मगर उस सन्तानको केवल भरण-पोषण का हक माना गया है। उन स्त्रियों की जाति
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दफा ५७ ]
बैवाहिक सम्बन्ध
1
का सम्बन्ध इस मामले में नहीं माना जाता । यह बात अनिश्चित सी है जहांपर वास्तव में अनुलोमज विवाह हो गया हो” अब इस मुक़द्दमेमें प्रधान प्रश्न यह पैदा होता है कि हिन्दूलों के अनुसार वैश्य जातिके पुरुष और शुद्रा स्त्री से उत्पन्न अनौरस लड़की जो वैश्य मानकर व्याही गयी उन दोनोंके परस्पर विवाह जायज़ है या नहीं ? वह जायज़ है, यदि क़ानूनके अनुसार वैश्य और शूद्रा के परस्पर कोई मनाही न की गयी हो, अगर मनाही की गयी हो तो नाजायज़ है । प्रतिलोमज विवाह इस प्रेसीडेन्सी में नाजायज़ माने गये हैं देखो - बाई लक्ष्मी बनाम कल्यानसिंह ( 1900 ) 2 Bom. L. R 128 यह विवाह ब्राह्मण स्त्री और राजपूत पुरुषके साथ हुआ था जो नाजायज़ क़रार दिया गया । बाई काशी बनाम जमुनादास ( 1912 ) 14 Bom. L. R. 547 में तय पाया है कि ब्राह्मण स्त्री विवाहका कन्ट्राक्ट शूद्र पुरुष के साथ नहीं कर सकती इस केसका फैसला जस्टिस चंद्रावरकरने उस समय तक के सब प्रमाणों द्वारा करके इस वर्तमान मुक़द्दमेके निर्णयमें बड़ी सहायता दी है। इस अदालतकी कोई भी नज़ीर हमारे सामने ऐसी पेश नहीं की गयी कि जिसमें अनुलोम विवाह नाजायज़ बताया गया हो ।
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यह साफ है कि अगर वास्तवमें विवाह हो गया हो तो क़ानूनकी मंशा के अनुसार अनुमान यही होगा कि विवाह हुआ देखो इन्दरन वलिङ्गप्पैय्या बनाम रामसामी पंडियाटलावर 13 M. I. A. 141 अपीलांटकी बहस इस वर्तमान मुक़द्दमे में यह है कि मिश्रित जातिका विवाह हिन्दूलों के सिद्धांतानुसार नाजायज़ है चाहे वह अनुलोमज हो या न हो । यह प्रश्न बड़े महत्व का है यह बात स्मरण रखना चाहिये कि इस प्रकारका विवाह बहुत कालसे प्रचलित नहीं है किन्तु खास तौरसे मना नहीं किया गया है। अब आवश्यक है कि दोनों सूरतोंके बीचका फरक देखा जाय कुछ बचनोंका हवाला मैं नीचे देता । देखो मनु अध्याय ३ श्लोक १२, १३:
सवर्णा द्विजातीनां प्रशस्ता दार कर्मणि
काम तस्तु प्रवृत्ताना मिमाः स्युः क्रमशो वराः । १२ शूद्रैव भार्या शूद्रस्य सा च स्वा च विशः स्मृते तेच स्वा चैव राज्ञश्च ताश्वस्वा चाग्र जन्मनः । १३
अर्थात् -- ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्यको प्रथम विवाह करनेमें सवर्णकी कन्या श्रेष्ट है और कामसे जो विवाह करना चाहे उसके लिये अनुलोम क्रमसे कन्याएं श्रेष्ट हैं ॥ १२ ॥ शूद्रकी शूद्रा ही स्त्री होती है ऊपरके वर्णोंकी नहीं होतीं । वैश्यकी वैश्या और शूद्रा स्त्री होती है । क्षत्रियकी क्षत्रिया, वैश्या और शूद्रा स्त्री होती है एवं ब्राह्मणकी ब्राह्मणी, क्षत्रिया वैश्या और शूद्रा स्त्री
1
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विवाह
[ दूसरा प्रकरण
होती है। और भी देखो सेक्रेड बुक्स आफ दि ईस्ट Vol. 25 pp. 77, 78 उपरोक्त वचनोंका सारांश यह है कि अनुलोमज विवाह की आज्ञा नहीं दी गयी है वलि मञ्जूर कर लिया गया है।
याज्ञवल्क्य स्मृति प्राचारे० श्लोक ५६, ५७ से यह विषय बहुत साफ हो जाता है देखो--
यदुच्यते द्विजातीनां शूद्रा दारोप संग्रहः नैतन्मम मतं यस्मात्तत्रायं जायते स्वयम् । ५६ तिस्रो वर्णानु पूर्वेण द्वै तथैका यथाक्रमम् ब्राह्मण क्षत्रिय विशां भार्या स्वा शूद्रजन्मनः। ५७
भावार्थ--द्विजातियों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) को शूद्रकी स्त्रीसे विवाह करना मुझे ( याज्ञवल्क्यको ) पसन्द नहीं है क्योंकि स्त्री में पुरुष स्वयं पैदा होता है । अर्थात् पुरुष ही पुत्ररूपसे जन्मता है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य इनकी क्रमसे ३, २, १ वर्णों की स्त्रियां होती हैं और शूद्रकी सिर्फ १ यानी शूद्राही स्त्री होती है। विज्ञानेश्वःने अपने टीका मिताक्षरा में कहा है कि विवाह तीन प्रकारके होते हैं. (१) रतिके लिये. (२) पत्रके लिये (३) धर्मके लिये। इनमें दूसरा विवाह जो पुत्रके लिये होता है वह दो प्रकार का है एक 'नित्य' दूसरा 'काम्य' नित्य विवाह सवर्ण में होता है और 'काम्य' कामकी इच्छा होनेमें । नित्य और काम्य विवाहोंमें नित्य श्रेष्ट और काम्य गौण (दूसरा दरजा ) है।
यद्यपि उपरोक्त याज्ञवल्क्य के वचनसे द्विजोंको शूद्रा स्त्रीके साथ विवाह करनेका मत नहीं पाया जाता किन्तु दूसरा व तीसरा विवाह करना मजूर किया जाता है।
मनु और विष्णुने द्विजातियोंको शूद्रा स्त्रीके साथ विवाह करना मजूर किया है याज्ञवल्क्य कहते हैं कि "नैतन्मममतम्" यह मेरा मत नहीं हैं। आगे अन्य वाँकी स्त्रियों से उत्पन्न पुत्रोंके बटवारे में नियम किया गया है । इससे सिद्ध होता है कि अनुलोमज विवाह स्वीकार किये गये हैं । मैंने इन प्रमाणों को वर्तमान मुक़द्दमेके मतलबके लिये उद्धृत किया है न कि इस प्रकारके अन्य पुत्रोंके मामलोंके लिये ( तजवीज़ आर्ष प्रमाणोंसे भरी है बहुत अंश छोड़कर आगे जस्टिस शाह कहते हैं ) नीलकंठकी रायसे अनुलोमज और प्रतिलोमज विवाहका प्रश्न बहुत कुछ साफ हो जाता है। देखो-नीचे के प्रमाण
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दफा ५७ ]
वैवाहिक सम्बन्ध
ब्राह्मणस्य चत्वारो भायर्या क्षत्रियस्य तिस्त्रो वैश्यस्य दे शूद्रास्यैकेति स्थितम् । याज्ञवल्क्य आचारे० श्लोक ६० में कहते हैं किसवर्णेभ्यः सवर्णासु जायंतेहि सजातयः अनिन्द्येषु विवाहेषु पुत्राः सन्तान वर्द्धनः ।
नीलकण्ठका कहना है कि ब्राह्मण चार, क्षत्रिय तीन, वैश्य दो वर्णों की (अनुलोमज क्रमसे ) स्त्रियोंसे विवाह कर सकता है और शुद्ध सिर्फ शूद्रा से । याज्ञवल्क्य कहते हैं कि सवर्ण पुरुष और स्त्रीसे अनिन्द्य विवाह द्वारा उत्पन्न पुत्र सन्तानके बढाने वाले होते हैं । आगे कहते हैं कि--
विप्रान्मू‘वसिक्तोहि क्षत्रियायांविशः स्त्रियां अम्बष्ठः शूद्रयां निषादो जातः पारशवोपिवा । ६१ वैश्याशूद्रयोस्तु राजन्यान्माहिष्योग्रौ सुतौस्मृतौ वैश्यात्तु करणः शूद्रयां विनास्वेष विधिः स्मृतः । ६२
ब्राह्मण पुरुषसे विवाहित क्षत्रिया स्त्रीले 'मूर्द्धावसिक्त' और विवाही हुई वैश्य कन्यां से 'अम्बष्ठ' और विवाही हुई शूद्र कन्यासे 'पारसव' नामक पुत्र पैदा होते हैं। विवाही हुई वैश्य और शूद्रकी कम्यासे क्षत्रिय पुरुष द्वारा 'माहिष्य' और 'उग्र' क्रमसे पुत्र पैदा होते हैं। वैश्य पुरुषसे विवाहित शूद्रकी कन्यासे 'करण' नामक पुत्र पैदा होते हैं । यह विधि विवाही हुयी अन्य वर्ण की कन्याओं में मानी गयी है। इस जगह 'विन्ना' शब्द बहुत ही ज़रूरी है।
"विना" शब्दके सम्बन्धमें मिताक्षरामें कहा है विनासूढासु' और सुवोधिनीमें कहा है विन्नासु परिणीतासु स्मृतो मुनिभि" ( देखो-S. S. Settur B. A. LL. B; H. C. Bombay's Mit: kshara 1913 P. 66), विवाही हुई कन्या विन्ना कहलाती है। और भी देखो मांडलीक हिन्दूलॉ पेज ४६, ४७.
इसमें सन्देह नहीं कि इन प्राचार्योंने असवर्ण विवाहोंके सम्बन्धक प्रश्नपर विचार किया था। जहां तक मैं समझा हूं आचोंने अनुलोमज विवाह किसी न किसी प्रकार स्वीकार किया है और प्रतिलोमजके इकदम विरुद्ध रहे हैं । अब अपीलांटकी तरफसे सिर्फ यह बात कही जाती है कि रसमके अनुसार इस प्रकारके विवाहकी मुमानियत है मैं इस बातके स्वीकार करने में असमर्थ हूं कि इस प्रकारका विवाह गैर कानूनी है और कानून द्वारा ऐसे
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50
विवाह
[ दूसरा प्रकरण
विवाहकी मुमानियत है । इस मुक़द्दमे में ऐसा कोई रवाज भी साबित नहीं किया गया बक्लि शहादतसे साबित है कि विवाह बिरादरीकी रसमके अनुसार और कानूनी या नाजायज़ नहीं माना गया । मैंने इस प्रांतमें माने जाने वाले प्रमाणों पर विचार किया और इस अदालतके पिछले फैसलोंपर भी मगर कोई
आधार नहीं मिला कि इस प्रकारके विवाहको मंजूर न करूं । मेरी रायमें विवाह जायज़ है मैं पति-पत्नीके पारस्परिक सम्बन्धी डिकरीको मंजूर करता हूं और अपील मय खर्चेके खारिज करता हूं, देखो-1922 Bom L. R. 5 to 16 बाई गुलाब बनाम जीवनलाल हरीलाल और इसके साथही देखो दफा १. दफा ५८ विवाह कौन कर सकता है ?
(१) नाबालिगदुलहा-हिन्दू धर्म शास्त्रानुसार तो लड़के का विवाह २४ वर्षकी समाप्ति पर करना चाहिये परन्तु स्मृतियोमें यह बात साफ नहीं कही गई कि नाबालिग अपना विवाह कानूनन नहीं कर सकता । इन्डियन मेजारिटी एक्टका असर विवाह पर नहीं पड़ता परन्तु विवाह के मतलब के लिये बालिग होना सोलह वर्ष की उमर पूरी होने पर माना जाता है । १६ वर्ष से कम उमरवाले लड़के के विवाहके लिये उसके बली की मंजूरी आवश्यक है। देखो नन्दलाल बनाम तपीदास Mor. 287. प्रत्येक हिन्दू विवाह करनेके योग्य माना गया है और प्रत्येक हिन्दू कन्या विवाह में दान के योग्य मानी गयी है जब तक कि खास आज्ञा कोई इस विषय पर न हो-देखो बनरजी ला भाफ मेरेज दूसरा एडीशन पेज ३३.
(२) पागल और बेअकलका विवाह-बेअकल और पागल पुरुषका विवाह हो सकता है हालांकि ऐसे लोग उत्तराधिकारके मामलेमें दीवानी क़ानून के मतलबोंके लिये अयोग्य माने गये-देखो देवीचरण मित्र बनाम राधाचरण मित्र 2 Mor. 99; और देखो मनु ६-२०३, मिताक्षरा २-१०-६-११; विवादचिन्तामणि टैगोरका अनुवादित पेज २४४; व्यवहारमयूख ५-११-११, स्मृतिचन्द्रिका ५-३२.
पागल और बेअक़ल आदमी उत्तराधिकार पानेके तो अयोग्य माना गया है मगर उसकी सन्तान हिस्सा पायेगी यह निश्चित है इस लिये इनका विवाह जायज़ माना गया 2 Mor. 99.
पागल आदमी विवाह कर सकता है यह बात मानी जा चुकी है मगर किस दरजेका पागल विवाहके योग्य होगा यह बात उसके पागलपनकी तादादसे निर्णय की जायगी। देखो मौजीलाल बनाम चन्द्रावती कुमारी (1911) 38 I. A. 122-125; 38 Cal. 700; 13 Bom. L. R. 634.
बङ्गाल और बम्बईके पंडितोंने यह राय दी है कि पागल विवाह करने से रोका नहीं जा सकता देखो 14 Mad. 3163; 2 Morl. Dig. 29; West and Buhler's Hindu Law 2nd ed. P. 274,
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दफा ५८]
वैवाहिक सम्बन्ध
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बनरजी अपनी हिन्दूला के पेज ३७ में कहते हैं कि यह निश्चित करना कठिन है कि वह किस दरजेका पागल है यानी पागलने कन्यादान स्वीकार कर लिया या नहीं ? पागल या बेअकलके विवाहके बारेमें कोर्ट ख्याल करेगी कि वह विवाह जायज़ है, और उस स्त्रीसे उत्पन्न सन्तान औरस (असली) है 38 I. A. 122; 38 Cal. 700; 13 B. L. R. 534.
हिन्दू विवाह धार्मिक कृत्य माना गया है इस लिये उसमें किसी किस्मकी रज़ामन्दीकी ज़रूरत नहीं है और न बच्चपन या दूसरीशारीरिक या मानसिक अयोग्यता से विवाहकी हैसियत पर असर पड़ता है। मगर अब चाइल्ड मेरेज रिस्ट्रेण्ट एक्ट सन १६२८ ई० के अनुसार उमरकी कैद लगायी गयी है, देखो इस प्रकरणके अन्तमें यहां तक यह ग्रंथ छपनेके समय पास नहीं हुआ।
(३) बहरा, गूगा, या किसी घृणित रोगसे पीड़ित, जैसे कोढी आदमी विवाह नहीं कर सकता है परन्तु यदि विवाह हो गया हो तो नाजायज़ नहीं माना जायगा। ऐसे आदमी वैवाहिक हक़ प्राप्त करनेकी नालिश नहीं कर सकते अर्थात यदि ऐसे किसी आदमीकी स्त्री उसके साथ प्रथमही रहनेसे इनकार करे, तो पति उसपर ज़बरदस्ती नहीं कर सकता और न अपने कब्जे मैं ले सकता है देखो बाई प्रेममूकर बनाम भीखा कल्याणजी 5 Bom H. CE R. A. C. J_209.
(४) हिन्दू पुरुष, एक स्त्री के जीवनकालमें दूसरी स्त्रीसे भी विवाह कर सकता है। अपने आनन्दके लिये हिन्दू पति कितनी संख्यामें भी शादी कर सकता है चाहे वह सब स्त्रियां जीवित हों; देखो- विरसवामी चट्टी बनाम अप्पासामी चट्टी 1 Mad. H. C. 375; 7 Mad. 187; 17 Mad. 235; बनरजीला आफ मेरेज 2 ed. P. 39, 40, 128; दायभाग ६-६, व्यवस्थादर्पण पेज ६७२.
ब्रह्मसमाजमें एक स्त्रीके जीतेजी दूसरा विवाह नहीं किया जा सकता देखो-सोना लक्ष्मी बनाम विष्णु प्रसाद 6 Bom, L_R. 58; 28 Bom. 597.
___ अगर किसीने ऐसा कोई इक़रार किया हो कि दूसरी शादी करने पर पहली शादी रद्द समझी जायगी तो यह बात हिन्दूला के सिद्धांतके विरुद्ध है। ऐसा इक़रार रद्दी समझा जायगा और उसका कोई असर नहीं होगा देखो सीताराम बनाम अहीरी 11 B. L. R. 129; 20 W. R. C. 49; इन्डियन कान्ट्रेक्ट एक्टकी दफा २६ एक्ट नं०६ सन १८७२.
(५) रंडुवा विवाह कर सकता है और कई हालतोंमें शास्त्रकार उसको विवाह करना लाज़िमी बताते हैं जैसे सन्तानके लिये इत्यादि। किन्तु वृद्ध या अयोग्य पुरुषको नहीं करना चाहिये।
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विवाह
[ दूसरा प्रकरण
(६) किसी कुटुम्बीके मरने पर शोक मनानेके लिये जो मुद्दत नियत हो उसके अन्दर कोई हिन्दू विवाह न करे ऐसी शास्त्रकी आज्ञा है । (७) जिस हिन्दू लड़की का विवाह न हुआ हो वह विवाह कर सकती है ।
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(5) हिन्दूला में कुछ खास नियम ऐसे हैं जो सभ्य समाजकी सभ्यतापर निर्भर हैं । कुछ क़ायदोंमें हिन्दू विवाह वर्जित किये गये हैं जैसे सूतक होने पर विवाह करना वर्जित माना गया। चाहे वह सूतक जन्मका हो या मरणका - देखो - बनरजीला आफ मेरेज दूसरा एडीशन पेज ८६
दफा ५९ पति के जीवन काल में स्त्रीका दूसरा विवाह
हिन्दू जाति की कोई स्त्री अपने पतिके जीवनकाल में दूसरा विवाह नहीं कर सकती; देखो - स्थापित पितर बनाम स्थापित लक्ष्मी 17 Mad. 235; सिनाअम्मल बनाम एडमिनिस्ट्रेटर जनरल आफ मदरास 8 Mad. 169 - 173 ममुस्मृिति श्र० ६ श्लो० ४६-४७
अगर किसी आदमीने यह साबित किया हो कि उसकी जाति या प्रांत का राज है कि पति के जीतेजी विना मंजूरी उसके, स्त्री दूसरा विवाह अपने आनन्द के लिये कर सकती है तो भी अदालत ऐसा रवाज कभी मंजूर नहीं करेगी; देखो - 2 Bom 140; 1 Bom 347; 2 Bom H. C. 124, 7 Bom. H. C. A. J; 133; 7 C. L. R. 354.
जब किसी स्त्रीने पति की मौजूदगी में बिना उसकी मंजूरीके अपनी इच्छासे या दूसरोंके कहने से, दूसरा विवाह कर लिया हो या दूसरा पति कर लिया हो, तो ऐसा वह नहीं कर सकतीः खेमकर बनाम उमाशंकर 10 Bom. H. C. 381; 8Mad. 440; 8 Mad 169; अगर किसी पञ्चायतसे ऐसा करनेको स्त्रीके लिये अधिकार दिया गया हो या स्त्रीकी ऐसी इच्छा मंजूर की गयी हो, वह सब नाजायज़ मानी जायगी - देखो द्विवेलियन हिन्दूला दूसरा एडीशन पेज ३३.
दफा ६० विवाह में उमरकी कैद
ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य पुरुषका विवाह, यज्ञोपवीत संस्कार होने के पश्चात् होना माना गया है। यज्ञोपवीतके पहले विवाह नहीं हो सकता देखो दिवेलियन हिन्दू ला दूसरा एडीशन पेज ३१ इस विषय में मनुने कहा है कि गर्भाष्कुर्वीत ब्राह्मणस्योपनायनम्
गर्भादेकादशे राज्ञो गर्भा तु द्वादशे विशः २ - ३६
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दफा ५६-६१]
वैवाहिक सम्बन्ध
गर्भके समयसे आठवें वर्ष ब्राह्मणका और गर्भसे ग्यारहवे वर्ष क्षत्रियका और गभसे बारहवे वर्ष वैश्यका यज्ञोपवीत करना चाहिये।
पहले ऐसा कोई भी द्विज नहीं था जिसका यज्ञोपवीतसंस्कार न किया जाता हो परंतु आजकल कुछ क्षत्रियों और वैश्योंमें इसकी पृथा कमजोर हो गई है विवाह के पहले उनका यज्ञोपवीत नाममात्र करा दिया जाता है उसे 'दुर्गाजनेऊ' कहते हैं सो भी बहुतेरोंका नहीं होता। हिन्दूला में यह सिद्धान्त माना गया है कि द्विजोंमें यज्ञोपवीतके बिना विवाह नहीं हो सकता यह बात आसानीसे साबित हो सकती है मगर इसके विरुद्ध साबित करना उतनाही कठिन है। ब्राह्मणों की संख्या ऐसी बहुत है जिनका यह संस्कार पृथक होता है और यशोपवीत पहने रहते हैं। क्षत्रियों और वैश्योंको इस बात पर ध्यान देना चाहेये यज्ञोपवीत अलहदा करके तब विवाह करना चाहिये।
जिन हिन्दु जातियों में कोई कैद नहीं है उन हिन्दुओंको अधिकार है कि किसी भी उमरमें विवाह करें; देखो 14 Mad. 316-318 और द्विजोंके लिये सिर्फ इतनी कैद परमावश्यक मानी गई है कि यज्ञोपवीतके पहले विवाह नहीं कर सकते उमरकी कैद विवाह केलिये पहले नही थी पर अब हो गई है। देखो इस प्रकरणके अंन्तमें चाइल्ड मेरेज रिस्ट्रेण्ट एक्टका मसविदा । दफा ६१ तलाक (Divorce )
हिन्दूला में तलाक नहीं है क्योंकि हिन्दुओंमें विवाह एक संस्कार माना गया है। ( देखो दफा ३६) प्रत्येक मनुष्यका कर्तव्य कर्म है, खास कर द्विजोंमें विवाह संस्कार आवश्यक बताया गया है। विवाह आनन्द लिये नहीं बल्कि एक ज़रूरी कर्तव्यकर्म है, अपनी आत्मिक शांति और अपने पितरोंके लाभ के लिये यह संस्कार किया जाता है। हिन्दू विवाह का वन्धन पति और पत्नीमें जन्म भरका होता है।
___ धर्मशास्त्रकारोंने स्त्री और पुरुषका अविच्छिन्न संयोग बताया है, · स्त्री को अन्य पतिका निषेध ज़ोर देकर कहा है देखो मनु अ० ५
कामं तु क्षपयेद्देहं पुष्प मूल फलै शुभैः न तु नामापि गृह्णीयात्पत्यौ प्रेते परस्य तु । १५७
आसीता मरणाक्षांता नियता ब्रह्मचारिणी यो धर्मः एक पत्नीनां काङ्क्षन्तीतमनुत्तमम् । १५८ अनेकानि सहस्राणि कुमारं ब्रह्मचारिणाम् दिवं गतानि विप्राणामकृत्वा कुल संततिम् । १५६
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विवाह
[दूसरा प्रकरण
मृते भर्तरिसाध्वी स्त्री ब्रह्मचर्ये व्यवस्थिता स्वर्ग गच्छत्यपुत्रापि यथा ते ब्रह्मचारिणः । १६० अपत्य लोभाधातु स्त्री भर्तारमति वर्त्तते सेह निन्दामवाप्नोति पतिलोकाच्च हीयते । १६१ नान्योत्पन्ना प्रजास्तीह नचाप्यन्यपरिग्रहे न द्वितीयश्च साध्वीनाकचिद्भर्तोपदिश्यते। १६२
स्त्रीको उचित है कि पति के मरने पर पवित्र फूल, मूल और फलको खाकर जीवन बितावे व्यभिचारकी बुद्धिसे दूसरेपुरुषका नाम भी न लेवे । एक पतिवाली स्त्रीयोंके उत्तम धर्मकी इच्छा करनेवाली स्त्री अपने मरनेके समय तक क्षमायुक्त, नियमचारी, और ब्रह्मचारिणी होकर रहे । जिस प्रकार से हज़ार कुमार ब्रह्मचारी ब्राह्मणोंने बिना संतान उप्तन्न किये ही स्वर्ग पाया है उसी भांति पतिव्रता स्त्रियां अपुत्रा होने परभी पतिके मरने पर केवल ब्रह्मचय धारण करक स्वगेम जाती हैं। जो स्त्री पुत्रके लोभसे व्यभिचार करती है वह इस लोकमें निन्दित और पतिके लोकसे गिर जाती है। अन्य पुरुषसे उप्तन्न सन्तान से स्त्रीका तथा अन्य स्त्रीसे उप्तन्न सन्तानसे पुरुषका धर्मकार्य नहीं हो सकता । किसी शास्त्रमें पतिव्रता स्त्रीको दूसरा पति करने का उपदेश नहीं है । यही बात जो मनुजीने कही है ठीक पराशरने भी कही है देखो-पराशर स्मृति अ० ४ श्लोक ३०, ३१, ३२, ३३; व्यासस्मृति अ०२-५२, ५३: वसिष्ठ स्मृतिका अ० १७ श्लोक ६७, ६८, ६६, ७०, ७१; और नारदस्मृति १२-११ से १८
कुडोमी बनाम जोतीराम 3 Cal. 305 और शङ्करालिङ्गम् बनाम सुबन 17 Mad. 479 में माना गया कि यदि किसी जाति में तलाक़की रवाज आम हो तो मानी जा सकती है।
मज़हबके बदल देने या जातिच्युत हो जानेसे विवाहका सम्बन्ध नहीं टूट जाता और न स्त्री पुरुष दोनो इस सबब से बालिंग हो जाते हैं, और न वह स्त्री जिसका पति दूसरे मज़हबमें चला गया हो वेश्या बन जाती है। देखो--गवर्नमेण्ट आफ बम्बई बनाम गंगा 4 Bom. 330; 9 Mad. 466; 18 Cal. 264; 23 Mad. 171, 177; नरायन बनाम त्रिलोक 29 All. 4.
मिस्टर मेनका कहना है कि, हिन्दुओंका विवाह धार्मिक रसूम है, कन्ट्राक्ट नहीं है इस लिये पति और पत्नी दोनों समझदार हों इस बातकी ज़रूरत नहीं है देखो मेन हिन्दूलॉ 7 Ed. P. 108; 5 All. 513 दिवेलियन
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दफा ६१]
वैवाहिक सम्बन्ध
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हिन्दूलॉ 2 Ed. P. 29; मुल्ला हिन्दूलॉ 2 Ed. P. 365; सम्भुशिव ऐय्यर हिन्दूला 6 Ed. Chapter. 3.
हिन्दू विवाह कंट्राक्ट नहीं है क्योंकि हिन्दू विवाह और कन्ट्राक्टमें फरक यह है कि कन्ट्राक्ट अज्ञानावस्थामें नहीं हो सकता अगर किया जाय तो जायज नहीं होगा, मगर हिन्द विवाह धार्मिक कृत्य होनेसे जायज़ है। हिन्दू एक पत्नीके जीते दूसरा विवाह कर सकता है ईसाई नहीं कर सकता। इसी लिये हिन्दलॉ में डाइओर्स यानी तलाक़ नहीं हो सकती । ऐसे विवाहके सम्बन्धमें देखो--गोवर्धन बनाम जसोदामनी 18 Cal 252; इन्डियन डाई. वोर्स एक्ट ४ सन १८६६ ई० हिन्दू विवाह से लागू नहीं होता जब तक कि दोनों ईसाई नहीं हो जाते कलकत्ता और मदरास हाईकोर्टने माना है कि अब पति ईसाई हो जाय तो वह उक्त कानूनके अनुसार तलाक अपनी स्त्रीको दे सकता है 17 Mad 235; 18 Cal. 252.
द्विजोंमें तलाक नहीं हो सकता, शुद्रोंकी भी ऊंची जातियों में नहीं हो सकता क्योंकि हिन्दूलॉ का सामान्य सिद्धांत है कि पति और पत्नीका सम्बन्ध कभी टूट नहीं सकता दोनोंके जीवन काल तक रहता है। सभी ऊंची हिन्दू जातियोंमें विधवा विवाह और तलाक़ एक प्रकार होताही नहीं देखो 3 Cal. 35; 107 Mad. 479; हां आजकल सुधार के पक्षपाती ऐसा करने लगे हैं। हालमें बम्बई हाईकोर्टने एक मामलेमें यह राय प्रकटकी कि, इन्डियन डायओर्स एक्ट ४ सन १८६६ ई० की दफा ७ का ख्याल करते हुए उस कानूनमें जिस विवाहकी बात कही है वह ईसाई सिद्धांतका विवाह है। अर्थात् ऐसा विवाह जिसमें एक पत्नीके होते हुए दूसरा विवाह नहीं हो सकता यही ईसाई सिद्धांत है परन्तु हिन्दू सिद्धांत यह नहीं है, हिन्दू एक स्त्रीके होने पर भी दूसरा विवाह कर सकता है इस सबबसे वह कानून हिन्दू विवाहसे लागू नहीं हो सकता; पगनियां बनाम प्रेमसिंह 8 Bom. L. R. 856.
एक्ट नं० २१ सन १८६६ ई० के अनुसार मज़हब छोड़ने वाला हिन्दू (स्त्री या पुरुष ) जब ईसाई हो जाता है और ईसाई धर्म को मानने लगता है तब अदालत उस दूसरे मज़हब में गये हुए पुरुष या स्त्रीकी प्रार्थनापर उस विवाहको रदकर देती है जो हिन्दूपनमें हुआ था । उसके बाद दोनों फिर विवाह कर सकते हैं जैसा कि पतिके मरनेपर स्त्रीका और स्त्रीके मरनेपर पतिका देखो-गोवर्द्ध बनाम जसोदामनी 2 Bom. 140.
बम्बईमें यह माना गया है कि शूद्रोंमें तलाक़ और विधवा विवाहका अधिकार है 1 Bom. 97, और स्त्री अपनी इच्छासे पतिको छोड़ सकती है तथा बिना मंजूरी पहिले पतिके दूसरा विवाहकर सकती है यह सभ्य समाज के नियमोंके विरुद्ध माना जाता है देखो--नरायन बनाम लाविङ्ग 2 Bom. 140; 10 Bom. H. C. 381,
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विवाह
_ [दूसरा प्रकरण
मदरास हाईकोर्टने कहा कि अगर जातिकी रवाज हो और पति-पत्नी ने आपसमें एक दूसरेको तलाक दे दिया हो तो सभ्य समाजके व्यवहार के विरुद्ध नहीं है देखो-17 Mad. 479. दफा ६२ पुरुषका पुनर्विवाह
हिन्दूलॉ के अनुसार हिन्दू पुरुष पहिली स्त्रीके मरनेपर अथवा कई सूरतोंमें उसके जीते जी भी दूसरा विवाह कर सकता है मनु इस विषयमें यों कहते हैं--देखो मनु ० ५ श्लोक १६७, १६८, १६६.
एवं वृत्तां सवर्णां स्त्रीं द्विजातिः पूर्वमारिणीम् दाहयेदमिहोत्रेण यज्ञपात्रैश्च धर्मवित् । १६७ भायायै पूर्वमारिण्यै दत्त्वामीनन्त्यकर्मणि पुनरिक्रियां कुर्यात् पुनराधानमेव च । १६८ अनेन विधिना नित्यं पञ्चयज्ञानहापयेत् द्वितीयमायुषोभागं कृतदारो गृहे वसेत् । १६६
धर्मके जानने वाले द्विजातिको उचित है कि, यदि उसकी सबृत्तिशालिनी सवर्णा स्त्री उससे पहले मरजाय तो अग्निहोत्रकी श्राग और यज्ञ के पात्रोंसे उसका दाह करे । उसकी प्रेत क्रिया समाप्त होनेपर फिर अपना दूसरा विवाह करके अग्निहोत्र ग्रहण करे । पूर्वोक्त विधिसे सदा पञ्चमहायज्ञ करे इस प्रकारसे विवाह करके अपनी आयुका दूसरा भाग गृहस्थाश्रममें बितावे । यही बात याज्ञवल्क्यके १ अ५ प्रकरण ३ में है याज्ञवल्क्यने कई सूरतें ऐसी बतायीं हैं कि स्त्रीके जीवन कालमें पति दूसरा विवाह करे देखो-- याज्ञवल्क्य अ० १ श्लोक ७२, ७३, ७३.
गर्भभर्तृवधादौ च तथा महति पातके सुरापी, व्याधिता, धूर्ता, बन्ध्यार्थप्न्यप्रियंवदा । स्त्री प्रसूश्चाधिवेत्तव्या पुरुषदेषणी तथा अधिविना तु भर्तव्या महदेनोन्यथा भवेत् ।
पुरुषको उचित है कि, गर्भपात कराने वाली, भर्ताके बधका उद्योग करने वाली, महापातकी, मदिरा पीने वाली, सदा रोग ग्रस्त रहने वाली, धूर्ता, बन्ध्या बहुत खर्च करने वाली, अप्रिय बचन बोलने वाली, सदा
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दफा ६२-६३]
वैवाहिक सम्बन्ध
लड़की ही पैदा करने वाली, और पति से द्वेष रखने वाली स्त्रीके जीवित रहनेपर भी अपना दूसरा विवाह कर लेवे । दूसरा विवाह करनेपर उचित रीतिसे पहली स्त्रीका पालन करे क्योंकि उसका पालन नहीं करनेसे पति नरक गामी होगा । व्यास जी कहते हैं कि-व्यास स्मृति २ अ० ५०
धूर्ता च धर्मकामध्नींमपुत्रां दीर्घरोगिणीम् सुदुष्ट व्यसनासक्ता महिता मधिवासयेत् ।
धर्म तथा कामको नष्ट करने वाली, पुत्र हीना, सदा बीमार रहने वाली, अति दुष्टा, मदधान आदि व्यसनमें आसक्त रहने वाली, विरुद्ध काम करने वाली ऐसी स्त्रीके जीते रहनेपर भी दूसरा विवाह पुरुष कर लेवे । और देखो दिवेलियन हिन्दूला (दूसरा एडीशन पेज ३२ ) और इस किताब की दफा ५८ पैरा ५ दफा ६३ स्त्रीका पुनर्विवाह
__ धर्म शास्त्रोंमें कई स्त्रियोंसे एक साथ विवाह करना जायज़ बताया गया है, मगर एक साथ कई पतियोंसे विवाह करना वर्जित किया गया है। कुछ वचन ऐसे हैं जिनमें स्त्रीका पुनर्विवाह वर्जित किया गया है। देखो दफा ६१ मनु कहते हैं कि स्त्री पुनर्विवाह न करे । इसपर मिस्टर मेन कहते हैं कि मनुस्मृतिमें यह श्लोक किसीने जोड़ दिया है। जो हो साधारणतः सब शास्त्र विधवा विवाहके विरुद्ध हैं और जहां कहीं ऐसा मञ्जूर किया गया है वहां कोई खास प्रसङ्ग है; अाम क़ायदा नहीं माना गया। विधवा विवाहके सम्बन्ध में जहां कहीं जो वाक्य हैं उनमें विधवा विवाहकी आज्ञा नहीं दी गयी है बक्लि एक प्रकारसे स्वीकार कर लिया गया है अगर कोई रवाज विरुद्ध न हो सो पतिकी मञ्जूरी बिना कोई हिन्दू औरत अपना विवाह दूसरे पुरुषके साथ नहीं कर सकती।
जब स्त्री, पतिके त्याग देनेपर या विधवा हो जानेपर अपनी इच्छासे अन्य पुरुषकी भार्या बनकर पुत्र उत्पन्न करती है तब वह पुत्र 'पौनर्भव' कहलाता है; देखो दफा ८२।मनु कहते हैं कि यदि कोई स्त्री, पुरुषके सहवास से बचकर किसी दूसरे पुरुषके पास जावे तो वह विवाह संस्कार करके उसे ग्रहण करे अथवा यदि किसी स्त्रीको पतिने त्याग दिया हो और वह परपुरुष के समीप रहनेपर भी सहवाससे बची हो, पीछे अपने पहिले पतिके पास लौट आवे तो उस स्त्रीसे विवाह संस्कार फिर करना चाहिये । मगर वह स्त्री अब 'पुनर्भूपत्नी' कहलायेगी देखो मनु०अ०६-१७६। शातातप कहते हैं
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विवाह
उद्वा हिताच याकन्या न संप्राप्ताचमैथुनम् भर्तारं पुनरभ्येति यथाकन्या तथैवसा । ४४
जिस कन्याका विवाह हो चुका हो मगर पतिका सहवास न हुआ हो वह पति के मर जाने पर दूसरा पति प्राप्त करे क्योंकि वह अविवाहिता कन्याके समान है । और देखो वसिष्ठ स्मृति श्र० १७ श्लोक ६४
1
ટક
[ दूसरा प्रकरण
अद्भिर्वाचाच दत्तायां म्रियेतादौ वरो यदि नवमंत्रोपनीतास्यात्कुमारी पितुरेवसा ।
जल अथवा वाक्य द्वारा कन्यादान हो चुका हो किन्तु मन्त्रोंसे विवाह कार्य पूरा नहीं हुआ हो यदि उस समय वर मर जावे तो वह कन्या अपने पिताकी कुमारी कन्या समझी जावेगी । इन सब वचनोंका सारांश यही निकलता है कि जब पतिका सहवास हो जाय तो कदापि स्त्री दूसरा विवाह नहीं कर सकती। इस समय सुधारके पक्षपातीयोंने कुछ विधवा विवाह किये हैं मगर वह हिन्दूलॉ के सर्ब मान्य सिद्धांतपर असर नहीं रखते ।
पञ्जाबमें जहां कस्टमरी लॉ का प्रचार है, नाथू वनाम रामदास 4 Punjab. 1905 में माना गया कि एक खत्री और खतरानी के परस्पर विधवा विवाह जायज़ है ।
विधवा स्त्रीका विवाह - आज कल विधवा स्त्रीके विवाहपर सुधारकों का बड़ा ज़ोर लग रहा है । प्राचीन हिन्दू धर्मशास्त्र के मतानुसार विधवा विवाहकी स्पष्ट रूपसे आज्ञा नहीं दी गयी बक्लि किसी अवस्था में निन्द्य स्वीकार कर लिया गया है। क़ानून की दृष्टिसे विचार करनेपर इस विषय में निम्न लिखित प्रश्न उत्पन्न होते हैं:
१ सवर्ण विधवा के साथ विवाह संस्कार होनेपर उसके पुत्रोंमें पुत्रत्व रहता है ? वे औरस माने जायंगे ?
२ सवर्ण विधवा (अनुलोमज ) के साथ विवाह होनेपर उसके पुत्रों औरसत्व रहेगा ? एवं असवर्ण ( प्रतिलोमज ) विधवाके साथ विवाह होनेपर क्या परिस्थिति होगी ?
३ विधवाका दान कौन कर सकता है ?
४ विधवा विवाहकी विधि क्या है ?
५ विडो रिमेरेज एक्ट नं० १५ सन १८५६ ई० का असर क्या है ?
नीचे प्रत्येक प्रश्नका संक्षेपसे विचार किया गया है आप प्रत्येक प्रश्न के नम्बरके अनुसार देखें
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दफा ६३]
वैवाहिक सम्बन्ध
१-सवर्ण विधवा अर्थात् उसी वर्णकी विधवा जिसका पति है परस्पर विवाह हो जानेसे उसके पुत्रोंमें पुत्रत्व रहता है । पुत्रत्व (Sonship) दो तरहसे देखा जायगा । एकतो गोत्रके अनुसार दूसरा वरासत मिलनेके अनुसार । जब एकही वर्णका पति और विधवा है तो वे सवर्ण अवश्य हैं। सगोत्र सवर्ण विधवाका विवाह निषेध किया गया है। विधवाके विवाहमें भी गोत्रका वैसाही ध्यान रखा जायगा जैसाकि उसके विवाह न होनेकी दशा में होता है । भिन्न गोत्र सवर्ण विधवाके विवाहसे उत्पन्न पुत्रोंमें पुत्रत्व आता है। दोनों प्रकारका पुत्रत्व रहता है। गोत्रका और वरासतके मतलबका भी। अब प्रश्न यह रह जाता है कि विवाह कन्याका होता है, जिसका विवाह एक दफे हो चुका उसका विवाह कैसा ? अर्थात् विधवाकी हैसियतसे उस स्त्री का विवाह संस्कार नहीं होना चाहिये इस दोषको विडोरिमेरेज ऐक्ट नं०१५ सन १८५६ ई० दूर कर देता है। हां लन १८५६ ई० से, यानी इस कानून के पास होने से पहले यह दोष वरासतका दसरी तरह रफा नहीं हो सकता था। उस समय न तो विधवा विवाह ही होता था और न विधवाके पुत्रों को कोई हिस्सा जायदाद में अकेले अथवा औरस पुत्रोंके साथ मिलता था। जहां तक जायदाद या जायदादके बटवारेका सम्बन्ध है अब इस एक्टके असरसे विधवा के पुत्रोंको वैसाही हिस्सा मिलेगा जैसाकि उस पुरुषके अन्य औरस पुत्रोंको। यह काजून इसी प्रकरणके अन्तमें मुकम्मिल दिया गया है देखिये।
विधवाके विवाहसे उत्पन्न पुत्र, कुछ वचनोंके और रवाजके अनुसार जायदादमें हिस्सा नहीं पाते थे किन्तु उन पुत्रोंमें भिन्न गोत्र सवर्ण विधवासे उत्पन्न पुत्रोंमें पुत्रत्व रहता था। हिस्सा न पाने के सबब से विधवाओं का पुनर्विवाह नहीं होताथा। उक्त कानून पास होनेके समय इस विषयमें बड़ा वाद विवाद उत्पन्न हुआ। बारीक दृष्टिसे आर्ष वचनोंकी सङ्गति लगाई गयी कुछ समयपर भी विचार किया गया अस्तु कानून पास किया गया । आर्ष वचनों में दोनों पक्षोंके समर्थक वचन पाये जाते हैं या यों कहिये कि वचनोंका अर्थ दोनों पक्षों की ओर दरता है। स्पष्ट रूपसे चाहे विधवा विवाहके सम्बन्धमें कोई वचन नभी मिलता हो तो वह यदि किसी कारण हो जाय तो श्राचायौंने उसे मञ्जूर कर लिया है । विधवाके पुत्रों और उस पतिके अन्य औरस पुत्रोंके बीच उत्तराधिकार एवं बटवारामें समानता रहेगी।
२--अनुलोमज ( देखो दफा १) विवाही विधवासे उत्पन्न पुत्रोंमें घरासत सम्बन्धी पुत्रत्व नहीं प्राप्त होता। वे समानाधिकारी नहीं माने जा सकते । पहिले तो किसी ब्राह्मणका विवाह किसी शूद्रा या वैश्या या क्षत्रिया से होना ही जायज़ नहीं माना जाता। इसी तरह क्षत्रिय और वैश्य का उसके नीचेके वर्गों में मगर यह बात बाई गुलाब बनाम जीवनलाल हरीलाल 1922 Bom L. R.5 to 16 में तय हो गयी है कि शूद्रा स्त्रीके साथ वैश्य पुरुष
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विवाह
[दूसरा प्रकरण
का विवाह जायज़ हुआ । इस नज़ीरमें पूरे उस समय तक के पार्ष वचनों और नजीरोंका उल्लेख किया गया है देखो दफा ५७ अनुलोमज विवाह ।
अनुलोमज विवाहिता स्त्रीसे उत्पन्न पुत्रों और औरस पुत्रों के बीच जायदादके बटवारेका क्या नियम है यह बात देखो इसी ग्रन्थकी दफा ५१० बटवारा प्रकरण ।
प्रतिलोमज ( देखो दफा १ ) विवाहिता विधवाके सम्बन्धमें यह साफ तौर से तय हो चुका है कि वह विवाह हर तरह नाजायज़ है और उस से उत्पन्न पुत्रोंका कोई हक़ किसी तरहका नहीं रहेगा।
३--विधवा का दान कौन कर सकता है यह प्रश्न जटिल है। आप पहले सपिण्डकी बात समझले। एक जन्मसापिण्ड्य होता है दूसरा सापेक्ष्य सापिण्डय होता है । जन्मसापिण्ड्य जन्मसे पैदा होता है । बापके साथ कन्याका जन्मसापिड्य है । यह कभी टूट नहीं सकता । माताके साथ भी इसी तरह लड़की या लड़केका जन्मसापिण्ड्य है जो कभी टूट नहीं सकता यह सापिण्ड्यत्व दान नहीं दिया जा सकता । माता-पिता के शरीर के अंश जो पुत्र या पुत्रीमें आते हैं वे निकाले नहीं जा सकते न दिये जा सकते हैं यह जन्मसापिण्ड्य कहलाता है । सापेक्ष्यसापिण्ड्य स्त्रीका पतिके साथ होता है। सापेक्ष्यसापिण्ड्य, नैमित्तिक सम्बन्ध है । मिताक्षराका कहना है कि पति और पत्नी मिलकर एक पिण्ड बनाते हैं इसलिये उन दोनोंमें सापेक्ष्यसापिण्ड्य है। जब पति मर गया तब विधवाका पतिके घर वालों से सापिण्ड सम्बन्ध नहीं रह जाता।
पिता अपनी लड़कीके शरीरका दान पतिको करता है। वास्तवमें पिता ही का दूसरा रूप वह लड़की है ऐसा प्रमाण वेदके वचनसे मिलता है। दान शरीरका हुआ और जव पति मर गया तो दानकी वस्तु (विधवा ) पर पति के घर वालोंका विधवाके साथ सापिण्ड्य नहीं हो सकता । पति अपनी स्त्री को दान नहीं कर सकता कि उसका सापेक्ष्यसापिण्ड्य दूसरे को प्राप्त हो। पतिका आधा अङ्ग स्त्री बन जाती है। जबतक विधवा जीती है तब तक मानों पतिका श्रीश जीता रहता है। अझैश का मतलब शरीर से न समझिये वेद मन्त्रों द्वारा जो सापेक्ष्यसापिण्ड्य पति-पत्नीका विवाह कालमें बन जाता है उसका आधा भाग जीता रहता है। पिता और विधवाके पतिके घर वालों मेसे किसका नज़दीकी रिश्ता विधवामें रहता है यह बात विचारणीय है। जन्मसापिण्ड्यसे विधवाका रिश्ता पिताके साथ सन्निकट है । इसीलिये विधवा के विवाहमें उसके दानका अधिकार पिताको सबसे पहले होगा। पिताके न होनेपर उन लोगों को क्रमसे होगा जिन्हें उस विधवाके कन्या होनेकी दशामें होता।
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दफा ६३ ]
वैवाहिक सम्बन्ध
एक प्रश्न यह पैदा होता है कि यदि विधवाके पुत्र हो तो उस पुत्रमें जन्मसापिण्ड्य है जो बापका था तो पुत्र दान क्यों नहीं कर सकता ? प्रथम तो यह प्रश्न ही गलत है । पिताका जन्मसापिण्ड्य लड़कीमें आया इसी तरह विधवा (माता) से पुत्रमें आया । पिताका कन्यामें, माताका पुत्रमें जन्म सापिण्ड्य हुआ । जिससे जन्मसापिण्ड्य उत्पन्न होता है वही अधिकार रखता है तो पुत्रमें तो जन्मसापिण्ड्य है पुत्रसे मातामें आई नहीं सकता इससे वह दानका अधिकारी नहीं हो सकता। दूसरे दान वह कर सकता है जिसमें पिताका भाव आ सकता हो । पुत्रमें पिताका भाव आही नहीं सकता इससे पुत्र अपनी माताका दान नहीं कर सकता । जब कोई इस मतलबके लिये नहीं जीवित रहता तो और शख़्श धर्म पिता बनकर या कोई स्त्री धर्म माता बनकर दान करती है । भाव पिता या माताका होना अत्यावश्यक है ।
६१
कन्याके दान करनेपर भी बापका, कन्यामें जन्मसापिण्ड्य रहता है। इस लिये पति के मरनेपर विधवा दानके मतलब के लिये फिर पिताके पास वापिस आ गयी । पिताके दुबारा दान करते ही, विधवाकी हैसियत से प्राप्त समग्र अधिकार और हक़ उसके छूट जाते हैं । क़ानूनकी दृष्टिसे ऐसा माना जावेगा कि मानो विधवा मर गयी । अर्थात् विधवा के मरनेपर जिसके जो अधिकार या हक़ प्राप्त होते वह प्राप्त होंगे ।
पिता अपनी विधवा लड़की का दान पिताकी हैसियतसे करता है न कि सापिण्ड्य की हैसियत से ।
४ -- विधवा विवाहकी विधि प्रार्थना समाजने बनाई है। मंत्र व विधान सब एकही हैं । कन्या शब्द या कन्या वाचक वाक्योंके स्थानपर विधवा शब्द या तत्सम्बन्धी भाव वाचक वाक्योंका प्रयोग किया जाता है । कन्या शब्द की जगह विधवाका उच्चारण होगा और कन्याका भाव जहां स्वीकार किया गया है वह बदल दिया जायगा ।
५ - विधवा विवाहका ज़ोर असलमें इस क़ानूनसे आया है । विडोरि मेरेज एक्ट नं० १५ सन १८५६ ई० जो तारीख २५ जुलाई सन १८५६ ई० को पास हुआ। ज़रूरत यह बताई गयी कि इस समय ( सन १८५६ ई० में ) विधवाओं की संतानको अदालतों में घरासत आदिका हक़ नहीं मिलता एवं बहुतसे हिन्दू आवश्यक समझते हैं कि विधवा विवाहसे उत्पन्न संतान के हक़ उसी तौर पर माने जावें जैसाकि कन्याके साथ जायज़ विवाहकी संतानके माने जाते हैं । इसका असर ख़ास तौरसे विधवाकी संतानको क़ानूनी हक़ दिलाने का है और यही एक डर था जिससे विधवा विवाह न होते थे । हिन्दू धर्म शास्त्रों के वचन यदि विधवा की स्पष्ट बात नहीं कहते तो किसी दशामें स्वीकार करते हैं मगर उसके पुत्रोंको हक़ जायदादमें नहीं देते, इस क़ानूनने
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विवाह
[दूसरा प्रकरण
यह कमी पूरी कर दी इसी उद्देश्यसे इस कानूनका निर्माण हुआ। ब्रिटिश भारतमें इसका प्रभाव है और विधवा विवाहका यही कानून मूलाधार है। हमने इस क़ानूनको अविकल रूपसे इसी विवाह प्रकरणके अन्तमें जोड़ दिया है कि पाठकोंको पूरी जानकारी हो जाय ।
श्री दयानन्दी विधवा-माना गया है कि श्री स्वामी दयानन्दके मतका अपलम्धन करनेसे हिन्दू बना रहता है। उस मतका नाम 'आर्यसमाज' है वे हिन्दू होते हैं सूर्य ज्योति कुंवर विधवा होनेके बाद एक मुसलमान के पास बैठ गयी पीछे उसके साथ निकाह किया तय हुआ कि विधवाके सब हक जो पहले पतिसे मिले थे जाते रहे। विधवा दयानन्दीमतकी थी। जवाब में कहा गया था कि दयानन्दी मत हिन्दू नहीं है। यह भी तय हुआ कि जिन क़ौमों में विधवा विवाह जायज़ माना जाता है उनमें भी विधवा दूसरा विवाह करने पर पहले पतिकी जायदाद नहीं पा सकती देखो 1922 H. L. J. 77, 1922 P. (Sup.) 235.
खत्री विधवाका पुनर्विवाह--खत्री विधवाके पुनर्विवाहके जायज़ होने के लिये यह आवश्यक नहीं है कि वे तमाम रसमें अदाकी जांय जो कन्या के प्रथम विवाहमें करनी होती हैं। यदि दोनों पक्ष ऐसे रिवाजोंको अदा कर लेते हैं जिनका वे प्रवन्ध कर सकते हैं और पति-पत्नी हृदयसे विवाह करना चाहते हैं तथा पति-पत्नीकी भांति एक साथ रहते हैं, तो विवाह जायज़ होता है । मु० राम राखो बनाम दौलतराम 90 I. C. 1056; 26 Panp. L. R, 744. विधवा खत्रीका विवाह और रवाज--मु० राम रखनी बनाम दौलतराम A, I. R 1926 Lah, 31.
पुनर्विवाह विधवाका-जबकि एक भाईकी विधवाने अपनी जातिके रखाजके अनुसार दूसरे भाई के साथ शादीकर ली हो। तय हुआ कि वह दोनों भाइयों द्वारा छोड़ी हुई जायदादकी वारिस है। नागर बनाम खासे L R.6 All. 267; 86 I. C. 893; A. I. R. 1925 All. 440. दफा ६४ दो भिन्न जातियोंके परस्पर विवाह .. दो भिन्न जातियोंके परस्पर विवाह नाजायज़ हैं; अर्थात् ब्राह्मण और क्षत्रिय, या ब्राह्मण और वैश्य, या ब्राह्मण और शूद्र । इसी तरहपर क्षत्रिय
और ब्राह्मण, या क्षत्रिय और वैश्य, या क्षत्रिय और शूद्र । एवं वैश्य और ब्राह्मण, या पैश्य और शूद्र तथा शूद्र और ब्राह्मण, या शूद्र और क्षत्रिय, या शूद्र और वैश्य, के परस्पर विवाह नहीं हो सकते । देखो-पद्मकुमारी बनाम सूर्यकुमारी 28 All. 458; 2 Bom. L. R 128; भट्टाचार्य हिन्दूलॉ 2 Ed. P.58; व्यवस्था दर्पण ६५६; मिताक्षरा १-११ रामलाल शुक्ल बनाम अक्षयकुमार मित्र 7C. W. N. 619.
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दफा ६४]
वैवाहिक सम्बन्ध
६३
यह कायदा समग्र ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्णोंमें माना जायगा यानी अपने अपने वर्ण में विवाह जायज़ माने जायेंगे भिन्न वर्ण में नहीं। मगर जब एकही वर्णके अन्दर अनेक जातियां हों और उन भिन्न जातियोंमें
वाह हो गया हो तो हिन्दलों के अनुसार वह जायज माना जायगा-देखो 13 M. I. A. 141; 3 B L. R. ( P. C. ) 1-4; 12 W. R. ( P. C.) 41; 1 Mad. H. C. 478; 15 Cal. 708; 33 Bom. 693; 11 Bom. L. R. 822; 14 Mad. I. A. 346; अगर किसी खास परिवारमें ऐसा रवाज न हो तो जायज़ मान जायगा देखो; नगेन्द्रनरायन बनाम रघुनाथ नरायन W R. 1864; C. R. 20 at P. 23.
जब कोई विवाह हिन्दू पुरुष और ईसाई स्त्रीके साथ हुआ हो, जो स्त्री विवाह काल में हिन्दू हो गयी हो, तो जायज़ माना जायगा। देखो-33 Mal. 342 हालमें महाराजा श्री इन्दौर नरेश ने एक यूरोपियन महिला को हिन्दू बनाकर उसके साथ विवाह किया है। यहां यह प्रश्न है कि उसके लड़के गद्दीके अधिकारी होंगे या नहीं ? यह बात तो स्पष्ट है कि महाराज की निजी जायदादके वे अधिकारी अवश्य हो सकते हैं गद्दी के अधिकारी का प्रश्न सन्देहित है।
जब कि किसी हिन्दू और किसी गैर हिन्दूके दरमियान विवाह हो जाते हैं तो उनका निर्णय कठिन हो जाता है अगर इस किस्मके विवाह इङ्गलैण्ड में हों तो वह इङ्गलिश लॉ के अनुसार जायज़ माने जा सकते हैं मगर हिन्दुस्थानमें उनकी हालत भिन्न होगी। हिन्दूलें। ऐसे विवाह को नहीं मानता हिन्दुस्थान की को ऐसे विवाहको जायज़ नहीं मानेगी। देखो ट्रिवेलियन की राय 2 Ed. P. 35.
धर्मशास्त्रकारोंका भी यही मत है; देखो मनु कहते हैं किसवर्णाग्रे दिजातीनां प्रशस्तादारकर्मणि कामतस्तु प्रवृत्ताना मिमाः स्युःक्रमशो वराः। ३-१२ नब्राह्मणक्षत्रिययो रापद्यपिहि तिष्ठतोः कस्मिश्चिदपि वृत्तान्त शूद्राभार्योपदिश्यते । ३-१४ शूद्रांशयनमारोप्य ब्राह्मणोयात्यऽधोगतिम् जनयित्वा सुतं तस्यां ब्राह्मण्यादेवहाते । ३-१७
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विवाह
[ दूसरा प्रकरण
अर्थात द्विजातियोंके लिये विवाहमें अपने वर्णकी स्त्री ही श्रेष्ठ है । काम के वश होकर उनके पुनर्विवाह करने पर क्रमसे स्त्रियां श्रेष्ठ होती हैं। किसी वृत्तान्तमें नहीं देखा जाता कि विपदकालमें भी ब्राह्मण अथवा क्षत्रियने शूद्रा से विवाह किया था । शूद्रा स्त्रोसे संभोग करने वाला ब्राह्मण नरकमें जाता है और उससे पुत्र पैदा करने वाला ब्राह्मण ब्राह्मण ही नहीं रहता व्यास कहते हैं कि:
--
६४
ऊढ़ायां हि सवर्णीयामन्यां वा काममुदहेत् तस्यामुत्पादितः पुत्रो न सवत् प्रहीयते ।
धर्म कार्य के लिये प्रथम अपने वर्णकी कन्या से विवाह करके फिर यदि भोग की प्रबल इच्छा हो तो अन्य वर्ण की कन्या से विवाह करे। ऐसा करने से अपने वर्ण वाली स्त्री की सन्तान श्रसवर्ण नहीं होगी अर्थात अपने वर्ण की होगी और धर्म कार्य के लिये योग्य होगी । नारद - इस विषय स्पष्ट कहते हैं:
ब्राह्मण क्षत्रियविशां शूद्रानांच परिग्रहे
सजातिः श्रेयसी भार्या सजातिश्च पतिः स्त्रियः । १२-४
1
यानी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चारोंको अपनी जातिकी स्त्री श्रेष्ठ है और स्त्रियोंको अपनी जातिका पति श्रेष्ठ होता है। जहां कहीं ब्राह्मण को प्रबल संभोगकी इच्छासे दूसरे वर्ण की स्त्री लाना कहा गया है वहां वह उत्तम नहीं कहीं गयी; एवं दूसरे वर्णों के लिये भी देखो -- शङ्ख स्मृति अ० ४ श्लोक ६, ७, ५७; तथा याज्ञवल्क्य ०१ श्लोक में कहा है कि सजातीय स्त्री के विद्यमान होने पर अन्य वर्ण की स्त्री से धर्म सम्बन्धी कार्य्य न करावे और अनेक सवर्ण स्त्रियों के होनेपर ज्येष्ठा पत्नी से धर्म कार्य करना चाहिये ।
अगर विवाह एकही वर्ण में हुआ हो मगर भिन्न जातिमें हुआ है और साबित किया गया है कि उस प्रांतका ऐसाही रवाज है तो अदालत इसे मंजूर कर सकती है; देखो रामलाल शुक्ल बनाम अक्षयचरन मित्र 7 C.
W. N. 619.
हिन्दू और ईसाईके परस्पर विवाह तथा हिन्दू और गैर हिन्दूके साथ विवाहके सम्बन्धमै जो क़ानूनोंका असर होता है वह तलाक्नके संम्बन्धर्मे 'बताये गये हैं; देखो दफ़ा ६१ और देखो दफ़ा ५७
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दफा ६५-६६ ]
वैवाहिक सम्बन्ध
१५
दफा ६५ विवाहमें सौतेली माताका सम्बन्ध
कोई हिन्दू अपनी सौतेली माताके भाई की लड़कीके साथ तथा उस लड़कीकी लड़कीके साथ विवाह नहीं कर सकताः देखो उद्वाहत्तत्व पं० रघुनन्दन कृत Vol. II P. 66; बनर्जी हिन्दू लॉ 2 ed. 60. सौतेली मांका रिश्ता भी वैसाही माना जायगा जैसा कि असली माताका । दफा ६६ धर्म शास्त्रोंका वर और कन्याके सम्बन्ध में विचार
(१) हिन्दू धर्म शास्त्रानुसार विवाहमें वर कैसा होना चाहिये तथा कैसा नहीं होना चाहिये, किस नियमकी पाबन्दी करना चाहिये, एवं घरका क्या धर्म है इन विषयोंपर विचार, देखो-व्यास अ० २ श्लो० १२, १३:
पाटितोयं बिजाः पूर्वमेकदाहः स्वयंभुवा पतयोर्द्धन चार्द्धन पत्न्योऽभुवन्निति श्रुतिः । यावन विन्दते जाया तावद्दों भवेत्पुमान
ध्यास कहते हैं कि वेदमें लिखा है कि पूर्व कालमें ब्रह्मा ने एक शरीर के दो भाग करके आधे को पुरुष और आधे कोस्त्री बनाया, इसलिये पुरुष जबतक अपना विवाह नहीं करता है तब तक वह आधाही रहता है । मनु कहते हैं कि--
गुरुणानुमतःस्नात्वा समावृत्तो यथा विधि उदहेत दिजो भार्यां सवर्णा लक्षणान्विताम् । ३-४ महान्यपि समृद्धानि गोजाविधन धान्यतः स्त्री सम्बन्धे दशैतानि कुलानि परिवर्जयेत् । ३-६ हीनक्रियं निष्पुरुषं निश्छन्दो रोमशार्शसम्। क्षय्यामयाव्यपस्मारि वित्रि कुष्ठि कुलानि च । ३-७ नोव्हेत्कपिलां कन्यां नाधिकाङ्गी नरोगिणीम् ना लोमिकांनातिलोमांन वाचाटाम्न पिङ्गलाम् ।३-८
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विवाह
[ दूसरा प्रकरण
नर्म वृक्ष नदी नाम्नी नान्त्य पर्वत नामिकाम न पक्ष्यहि प्रेष्यन म्नी नच भीषणनामिकाम् । ३-६ अव्यङ्गाङ्गी सौम्बनाम्नी हंसवारण गामिनीम् तनुलोम केश दशनां मृदङ्गी मुदहेत् स्त्रियम् । ३-१० यस्यास्तु न भवेद्माता नविज्ञायेत वा पिता नोपयच्छेत तां प्राज्ञः पुत्रिका धर्म शङ्कया । ३-११
मनु कहते हैं कि, ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य को चाहिये कि गुरू की आशा ब्रह्मचर्य व्रत को ठीक रीतिसे पालन करते हुए समावर्तन स्नान पहले कर, पीछे शुभ लक्षणोंसे युक्त अपने वर्ण की स्त्री से विवाह करे । नीचे लिखे दश प्रकार के कुल यदि गौ, बकरी, भेड़, आदि धन और धान्यले युक्त भी हों तो उनका कन्यासे विवाह नहीं करना चाहिये । और जोकुल अर्थात खानदान (१) क्रिया हीन हो, (२) केवल कन्याही पैदा होती हो, (३) वेद विद्या न जानो हो, (४) सबके शरीर में रोम बड़े होते हैं, (५) बवासीर रोग होता हो, (६) क्षयी रोग से युक्त हो, (७) मंदाग्नि रोग होता हो, (८) मृगी रोगसे पीड़ित हो, (६) श्वेत कुष्ठ रोग होता हो या (१०) गलि त दुष्ठ होता हो, ऐसे स्नानदान की लड़की के साथ विवाह करना वर्जित है। भूरे बालों वाली, अधिक अङ्ग वाली, रोगिणी, गेमरहित शरीर वाली, बहुत रोम वाली बहुत बकने वाली, पीली आंख वाली, तथा नक्षत्र, वृक्ष, नदी, म्लेच्छ, पहाड़, पक्षी, सर्प, दासी आदि सेवा सूचक अथवा भयानक नाम वाली कन्या से विवाह नहीं करना चाहिये । शुद्ध अङ्गोंयुक्त और प्रिय नामवाली हंस और हाथी के समान चलने वाली, बहुत बारीक रोमवाली, मुलायम लम्बे केश वाली, छोटे दांत और कोमल शुभ अङ्ग वाली कन्या से विवाह करना चाहिये। और जिस कन्याका भाई न होने तथा जिस कन्याके पिताको न जानता हो ऐसी “पुत्रिका' नामक कन्या के साथ धर्मकी शङ्का से विवाह नहीं करना चाहिये 'पुत्रिका' किसे कहते हैं देखो मानघगृह्य सूत्र १ पुरुष, ७ खण्ड ८ अङ्क गौतम अ० २६ अङ्क ३; शातातपस्मृति श्लो० ३६; याज्ञवल्क्य स्मृत्ति १-५२, ५४ में कहा गया है कि द्विजको चाहिये कि ब्रह्मचर्य व्रत पूरा हो जानेपर शुभ लक्षणोंसे युक्त, विन व्याही हुई, असपिण्डा, अपनेसे कम उमरकी, रोग रहिता, भाई वाली, अपने गोत्र और प्रवर से बाहर वाली, मातासे ५ पीढ़ी और पिता से ७ पीढ़ी के अन्तर वाली, अर :दश पीढ़ियों से विख्यात, श्रोत्रियोंके कुलकी कन्या से विवाहकरे । कुष्ठ आदि संचारी रोग तथा दोषयुक्त अच्छे बड़े कुलकी
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दफा ६६ ]
वैवाहिक सम्बन्ध
कन्याको भी न विवाहे । व्यासस्मृति अ० २ श्लोक १-४ में कहा कि जिस कन्याका पिता मूल्य नहीं चाहता हो, जो अपनी जातिकी हो, जो नीचे लटकानेनाले कपड़े पहनती हो ( लहंगा आदि ) और सदाचार से युक्त होवे उस कन्याका शास्त्रकी विधिसे विवाह करे । ऐसाही गौतमस्मृति अ० ४ श्लोक १-२ वसिष्ठस्मृति अ० ८ श्लोक १-२ शेखस्मृति अ० ४ श्लोक १; और नारदस्मृति १२ विवाहपादका ७ श्लोकः शातातपस्मृति ३२, लघु आश्वलायनस्मृति, विवाह प्रकरण १५ श्लोक २ में कहा है कि विद्वान् मनुष्यको चाहिये कि अच्छे कुल में उत्पन्न, सुन्दर सुखवाली, सुन्दर अंगवाली, सुन्दर पवित्र वस्त्र पहननेबाली मनोहर, सुन्दर नेत्रवाली, और भाग्यवती कन्याके साथ विवाह करे । मानवगृह्यसूत्र पु० १ ० ७ अं० ८.
( २ ) छोटे भाई से पहिले बड़े भाई का विवाह उचित है । मनु कहते हैं किदाराग्निहोत्रसंयोगं कुरुतेयोग्रजे स्थिते परिवेत्तासविज्ञेयः परिवित्तिस्तु पूर्वजः । ३ - १७१ परिवित्तिः परिवेत्ताययाच परिविद्यते
सर्वेत नरकं यांति दातृयाजक पञ्चमाः । ३–१७२
जब बड़े भाईके क्वारे रहते हुए छोटा भाई विवाहमें अग्निहोत्र ग्रहण करता है तब छोटा भाई परिवेत्ता और बड़ा भाई परिवित्ति कहलाता है । ऐसा करनेसे परिवित्ति, परिवेत्ता, कन्या, कन्यादान करनेवाला, और पुरोहित ये पांचों नरकमें जाते हैं । यही बात कात्यायनस्मृति स्व० ६ श्लो०२ - ३ में कही गयी है । हां कुछ शर्तें इस विषयमें हैं जिनके होनेसे छोटा भाई बड़े भाई से पहले अपना विवाह कर सकता है; देखो अत्रिस्मृति लो० १०३-१०४ और २५५-२५६ में कहा है कि यदि बड़ा भाई कुबड़ा, बौना, लंगड़ा, तोतला, जड़, जन्मका अंधा, बहरा, गूंगा, क्लीव, परदेशमें बसाहुआ, पतित, सन्यासी या योगशास्त्र में रत हो, तो उसे छोड़कर छोटा भाई अपना विवाह कर सकता है ऐसी दशामें उसे दोष नहीं लगेगा; मगर जब बड्ड़ाभाई गुणहीन हो और छोटा गुणवान होनेसे अपना विवाह करले तो उसे प्रतिदिन ब्रह्महत्याका दोष लगेगा। यही बात पराशरस्भृति अ० ४ ० २७-२८- २६ में कही गयी है । और देखो बनरजी लॉ आफ मेरेज 2 ed. P. 41, 6354,- भट्टाचार्य हिन्दू लॉ 2 ed P. 83.
३७
नोट --जो दोष वर और कन्याके ऊपर बताये गये हैं उनमें से सब हिन्दूलों में माने नहीं गये जो माने गये है उनका ज़िक्र ऊपर उचित स्थान में कर दिया गया है ।
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विवाह
दफा ६७ विवाहकी रसम कब पूरी मानी जायगी
विवाहका कृत्य समाप्त होतेही पति, पत्नीका संबंध अरंभ हो जाता है और विवाहका कृत्य समाप्त तब समझा लाता है जब वर और कन्या 'सप्तपदी' करलें । सप्तपदी का मतलब सात भांवरोंके बाद जो कृत्य किया जाता है (लघु श्राश्वलायन स्मृति १५ विवाह प्रकरण तथा मानवगृह्यसूत्र पुरुष १ खण्ड ८ से १४ ) उससे है । एक बार आपसमें ऐसा संबंध क़ायम होतेही फिर वह कभी भंग नहीं हो सकता मगर शर्त यह है कि विवाहमें कोई जालसाज़ी या ज़बरदस्ती न की गयी हो या बापकी विना रजामन्दी विवाह हुआ हो तो देखो - मूलचन्द बनाम बुधिया 22 Bom 812.
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[ दूसरा प्रकरण
द्विजोंके विवाह में दो रसमोंके पूरा कर चुकनेपर विवाहकी कृत्य पूर्ण समझी जाती है ( १ ) हवन ( २ ) सप्तपदी ( यमस्मृति श्लोक ७८,८६) 'सप्तपदी, का मूल अर्थ है 'सातपद वाला कर्म' बिवाहमें अन्य कृत्यों अर्थात् सात भांवरोंके हो जानेपर, वर और वधू ग्रन्थिबंधनसहित अग्निके सन्मुख वैदिकविधि के अनुसार सात पद चलते हैं; देखो - चुन्नीलाल बनाम सूरजराम ( 1909 ) 33 Bom. 433, 437, 438; अथीकेसावालू बनाम रामानुजम् 32 Mad. 512, 519, 520; बृन्दावन बनाम चन्दरा 12 Cal. 140.
अगर किसी ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के विवाहमें हवन और सप्तदी की कृत्य कुछ बाक़ी रहगयी हो, तो महज़ गौना होजानेके सबब से विवाह की कृत्य पूरी नहीं समझी जायगी क्योंकि गौना विवाहकी कृत्य पूरी होनेके लिये ज़रूरी नहीं है; देखो - - अदनजिनमदरास बनाम अनन्दाचार्य 9 Mad. 466, 470; दादाजी बनाम सखमा बाई 10 Bom. 301, 311.
यदि किसी जाति में किसी रसमके पूरा करनेके पश्चात् विवाहकी कृत्य पूरी समझी जाती हो तो उस जातिके लिये उस रसमके हो चुकने पर विवाह की कृत्य पूरी मानी जायगी। देखो - कालीचरन बनाम दुःखी 5 Cal. 692; हरीचरण बनाम निमाई 10 Cal. 138.
जहां पर यह साबित किया गया हो कि विवाहकी सब कृत्यें हो चुकी थीं तो अदालत क़ानूनके अनुसार उस विवाहको जायज़ मान लेवेगी- देखो इन्दन बनाम रामासामी 13 M. I. A. 141, 158; फकीर गौदा बनाम गंगी 22 Bom. 277, 279; और अगर यह साबित किया गया हो कि ज़रूरी रसमें सब हो चुकीं थीं तो भी जायज़ मानलेगी देखो - मौजीराम बनाम चन्द्रावती 38 Cal. 700; 38 I.A. 122. वृंदावन बनाम चन्दरा 12 Cal. 140; बाई दिवाली बनाम मोती 22 Bom. 909; विधवा का विवाह - हिन्दू लॉ के अनुसार विधवा पुनर्विवाहमें किसी रसमकी ज़रूरत नहीं है । देखो - हिन्दू बिड़ो रि मेरेज एक्ट नं० १५ सन ८६५६ की दफा ६ ( इस प्रकरण के अन्तमें ।)
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• दफा ६७-६८]
वैवाहिक सम्बन्ध
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किन बातोंके होनेसे अदालत विवाहको जायज़ मानेगी ? जब यह साबित किया गया हो कि विवाह होनेके पश्चात् दोनों यानी पतिपत्नी एक साथ रहे, अपनी जातिमें शामिल रहे और जातिबालोंके ज़रूरी रस्मोंके मौक़ों पर वह दोनों शरीक किये गये, और जातिवाले तथा अन्य लोग उन्हें स्त्री, पुरुष मानते थे जातिवाले खानपानमें बराबर शरीक करते थे, ऐसा साबित होनेसे अदालत विवाहके जायज़ होनेका मज़बूत सुबूत मानेगी-देखो मौजीलाल बनाम चन्द्रवती 38 Cal. 700; 38 I. A. 122.
जब कोई औरत किसी पुरुषकी निगरानी और रक्षामें बहुत दिनोंसे रहती हो. और दोनों प्रायः एक साथ रहा करते हों और उस औरतके बच्चों को उस परुषने अपने बच्चे मानेहों तो अदालत यह मान लेगी कि वह दोनों स्त्री पुरुष थे और विवाह जायज़ था लेकिन अदालतका यह मानलेना इकदम रद्द कर दिया जा सकता है जब यह साबित कर दिया जाय कि दर असल उन दोनोंका जायज़ विवाह नहीं हुआ था, देखो-चिल्लामल बनाम रंगनाथम् 34 Mad. 277. दफा ६८ सगाई या मंगनी
(१) विवाह होनेकी बात पक्की हो जानेको सगाई कहते हैं । यह विवाह नहीं है विवाह तब कहा जाता है जब विवाहकी कृत्ये सब पूरी हो जायं तब विवाह टूट नहीं सकता । सगाई या मंगनी या फलदान तोड़ा जा सकना है देखो--उम्मैद बनाम नगीनदास 7 Bom. 122..
अगर सगाई तोड़ दी गयी हो तो अदालतमें विवाह करापाने का दावा दायर नहीं हो सकता देखो गनपतिसिंह का मामला I Cal. 174 इस मामले में अदालतने कहा कि सगाई तोड़ने पर हर्जेका दावा हो सकता है (अगर कुछ वास्तवमें हुआ हो) मगर ऐसे हर्जेका दावा उस सूरतमें होगा जब कि सगाई उचित और कानूनी हो और किसी उचित कारणके बिना तोड़ दी गयी हो देखो-मूलजी ठाकरसी बनाम गोमती । Bom. 412; 16 Bom. 673.
पुरुषोत्तमदास त्रिभुवनदास बनाम पुरुषोत्तमदास मंगलदास 21 Bom. 23 के मामले में यह सूरत थी कि सगाई मुद्दालेह की लड़कीसे हुई थी, मुद्दईका दावा यह था कि अमुक, मुद्दतके अंदर यदि मुद्दालेह अपनी लड़कीका विवाह मुद्दईसे न कर दे तो मुद्दई को सगाई तोड़ देनेका अधिकार होगा, यह कहा गया था कि सगाई नाजायज़ है। अदालतने मुद्दईका दावा डिकरी किया और कहा कि, हिन्दू लड़के और लड़कियोंका विवाह एक ऐसा कंट्राक्ट है जिसके दोनों पक्षोंके मातापिता आपसमें तय करते हैं । लड़के और लड़की की मंजूरी उसमें नहीं होती यही बात सगाईकी भी है और ऐसे कंट्राक्ट का पूरा किया जाना विवाहके समय लड़कीकी रज़ामंदीपर है।
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विवाह
[ दूसरा प्रकरण
(२) सगाईके बाद विवाह न करनेसे हर्जानेका दावा-सगाईके पश्चात् यदि विवाह किसी कारणसे न हो तो, जिसकी तरफसे वह इक़रार भङ्ग किया जाय उसपर दावा उचित सूरतोंमें हो सकता है । इसी तरहका सबसे हालका मुकद्दमा बंबई में हुआ, छोटालाल मुद्दालेह नं. १ ने अपनी लड़की 'कमला' का विवाह रनछोड़दास मुद्दईके साथ करनेका इकरार किया था, सगाई (फलदान ) हो गयी पीछे उसने जैकिशुनदास मुद्दालेह नं० २ के साथ विवाह कर दिया मुद्दईने ३०००) रु. के हरजानेका दावा इस बयानसे किया कि मुद्दालेह नं. १ ने इक़रार भंग किया और जैकिशुनदासने उस इक़रार के भंग करने में मदद दी। अदालतने दोनों मुद्दालेह पर ८००) रु. की डिकरी दी पहली अपीलमें फैसला बहाल रहा, दूसरी अपील मुद्दालेह नं. २ ने की हाईकोर्ट ने कहा किजैकिशुमदास नाबालिग है तथा वह हर्जानेका ज़िम्मेदार उस समयत नहीं माना जा सकता जबतक कि यह न साबित किया जाय कि उसने खुद इकरार भंग करा देने की कोशिशकी और अपना प्रभाव मुद्दालेह नं. १ पर डाला, शहादत स्पष्ट और सीधी होना ज़रूरी है, अपील डिकरी हुआ नीचेकी अदालतोंका फैसला मंसूख किया गया-देखो-जैकिशुनदास हरकिशुनदास बनाम रणछोड़दास भगवानदास ( 1916)19 Bom. L. R. 12. दफा ६९ विवाह सम्बन्धी दूसरे इकरार या कन्ट्राक्ट आदि
विवाहमें ठहरौनी यानी दहेज देनेका क़रार सार्वजनिक सिद्धांतके इकदम विरुद्ध है इसलिये ऐसा इकरार जो किसी विवाहमें हुआ हो नाजायज़ है। मदरास हाईकोर्ट की रायमें ऐसा मानना बहुत उचित नहीं है । मगर नीच जातियों में दलहिनका बाप दलहासे कुछ धन ले सकता है। यदि लड़कीका बाप ऐसा धन लेकर लड़कीका विवाह किसी दूसरेसे कर दे तो वह धन लड़कीके बापको पहले दुलहाको लौटा देना पड़ेगा-देखो रामचन्द्रसेन वनाम श्रादित्यसेन 10 Cal. 1054; 16 Bom 613. मदरास हाईकोर्टने एक मुक़द्दमे में यह याना, जिसमें बादी और प्रतिबादी दोनों ब्राह्मण थे, बादी अपनी लड़कीका विवाह प्रतिबादीके भतीजेके साथ करेगा इस इक़रारपर प्रतिबादी वे एक दस्तावेज़ बादीके नाम लिख दी माना गया कि उस दस्तावेज़की रक़मके लिये बादी, प्रतिबादीपर दावा कर सकता है देखो-बिश्वनाथम् बनाम स्वामीनाथम् 13 Mad 83; मगर यह मदरास ही में माना जायगा और हालके, मुकदमे में मदरास हाईकोर्टने इसके विरुद्ध फैसला किये।
हिन्दू सभ्य समाजमें दहेज यानी ठहरौनीके इक़रार बहुत ही नापसंद किये जाते हैं आजकल इस कुपृथाके उठानेके लिये समाजे बहुत कुछ प्रयत्न कर रही हैं इसी सबबसे इस क्रिस्मके इकरार छिपा कर किये जाते हैं ज़ाहि
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दफा ६१-७० ]
वैवाहिक सम्बन्ध
रा तौर से ऐसा इक़रार करानेवाले भी प्रायः इसे नापसन्द करते हैं। हिन्दू लॉ के अनुसार विवाह कर देने की शर्तपर जो लेन देनका इक़रार किया जाय या इस संबंध की दलाली, ऐसे मामले इन्डियन कंट्राक्ट एक्टके अनुसार नाजायज़ हैं
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एक आदमीने जो किसी दूसरे आदमीकी लड़कीका वली था उस लड़की का विवाह किसी आदमीसे कर देनेके इक़रार पर उस आदमी से कुछ रक़म पानेका बचन ले लिया था अदालतने माना कि लड़कीका वली उस रक़म पानेके लिये दावा नहीं कर सकता । देखो - दुलारी बनाम वल्लभः दास 14 Bom. 126; पीताम्बर रतनसी बनाम जगजीवन 13 Bom. 831.
fare लिये कोई सुंदर स्त्री ढूंढ देने की शर्तपर एक आदमीने दूसरे आदमी से कुछ रकम पानेका इक़रार कर लिया था अदालतने माना कि ऐसा इक़रार, इन्डियन कंट्राक्ट एक्ट की २३ दफाके अनुसार नाजायज़ है; देखोवैद्यनाथं बनाम गंगाराजू 17 Mad. 9; मदरास के इस मुक़द्दमेमें यह बात ध्यान देने योग्य है, कि इस मामलेमें हाईकोर्ट ने जो राय प्रकट की उससे इस हाईकोर्टकी उस रायका खण्डन होगया जो उसने ऊपर कहे हुए 13 Mad. 83 वाले मुक़द्दमे में प्रकट की थी । अगर किसीने अपने लड़के या लड़कीका विवाह कर देनेके इक़रार पर जो लेनदेन किसी दूसरी तरहपर किया हो वह नाजायज़ है यह बात हालमें बंबई हाईकोर्टने मानी है, ढोलीदास बनाम फूलचन्द 22 Bom 658.
दफा ७०
कन्यादान देनेके अधिकारी कौन हैं
हिन्दू विवाहमें दुलहिन का स्वयं कुछ अधिकार नहीं होता अर्थात् वह कन्या अपने पिता, या वली, किसी रिश्तेदारके द्वारा दान के तौरपर दी जाती है, कन्यादान के करने वालोंके अधिकार का क्रम याज्ञवल्क्य ने इस प्रकार कहा है-
पितापितामहो भ्राता सकुल्यो जननी तथा
कन्याप्रदः पूर्वनाशे प्रकृतिस्थः परः परः १- ६३ मिताक्षराकार विज्ञानेश्वर कहते हैं कि-
एतेषां पित्रादीनां पूर्व, पूर्वाभावे परपरः कन्याप्रदः ।
इत्यादि यानी पिता, पितामह, भाई सकुल्य ( देखो दफा ५८७ ) तथा माता इन सबमें क्रम यह है कि पूर्व कहे हुए अधिकारीकेन होनेपर पर अधिकारी कन्यादान योग्य हैं माताका दरजा अंतमें रखाभया है। यानी सबसे पढ़े पिता उसके न होनेपर पितामह, पीछे भाई, भाईके न होने पर पिता की
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विवाह
[ दूसरा प्रकरण
तरफके नज़दीकी रिश्तेदार, उसके बाद माता कन्यादानकी अधिकारिणी है । कन्यादानका कर्तव्य पालन, शास्त्रोंकी अनिवार्य श्राज्ञा है व्यासस्मृति श्र० २ श्लोक ६ में विशेष यह कहा गया है कि भाईके न रहनेपर चाचा और चाचा के न रहने पर कुलका कोई पुरुष कन्यादान करे। यदि कोई न रहा हो तो कन्या स्वयं अपना पति बनालेवे, तथा नारदस्मृति १२ विवाहपादके श्लोक २० २१ देखो; मनु अ० ६ श्लो० ६१ में कहते हैं कि पिता दिसे न दी हुई कन्या विवाहकालमें यदि पतिको स्वयं वर के तो उसका कोई पातक नहीं लगता ।
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चोरीके अपराधमें दण्ड पाये हुए पिताके कन्यादानका अधिकार क्या उक्त दण्ड पानेसे जाता रहता है ? बंबई हाईकोर्टने कहा कि केवल दण्ड पानेसे उसका ऐसा अधिकार नहीं जाता और यह नहीं माना जा सकता कि सिर्फ चोरीके अपराधमें दण्ड पानेके कारण कोई आदमी अपनी स्त्री, बच्चों से फिर गृहस्थाश्रमी नहीं बन सकता, अपनी कन्याके विवाहके लिये वर पसंद करने में पिताका अधिकार अवश्य रहेगा देखो - नानकभाई बनाम जनार्दन 12 Bom. 110, 119.
यह स्पष्ट है कि दूसरे मामलोंके वलीसे विवाहके वलीमें भेद है, जानकीप्रसाद अगरवाल 2 Boulnoi,s 114 के मुक़द्दमे में कन्यादानका अधिकार माताकी अपेक्षा भाईका अधिक माना गया है । अदालतने कहा कि पिताके बाद कन्याके लिये मुनासिब वर चुननेका अधिकार पितामह, भाई, और की तरफके रिश्तेदारोंका क्रमसे है और उनके पीछे माताका है । परन्तु मदरास दाईकोर्टने याज्ञवल्क्यके श्लो० १-६३ का अर्थ ऐसा किया है, कि जिससे माताका स्वाभाविक अधिकार कुछ दूर तक माना गया है अदालतने कहा कि दूसरे रिश्तेदारोंने कन्याके लिये जो वर पसंद किया हो और माताका पसंद किया हुआ वर उससे अच्छा हो तो माताकी बात मानी जायगी देखो- नमः शिवाय पिल्ले बनाम अन्नामी अम्मल 4 Mad. H, CR.344.
जब कोई बली कन्याका ऐसा विवाह करने लगा हो, जो कन्याके लिये हानिकारक हो तो अदालत को अधिकार है, उसमें हस्तक्षेप ज़रूरी समझकर करे । विशेषतः जब यह मालूम हो कि वली वह विवाह अनुचित नियतसे या स्वार्थ वशकर रहा है तब श्रवश्यही हस्तक्षेप करेगी श्रीधर बनाम हीरालाल 12 Bom. 480; 12 Bom. 110 हरेंद्रनाथ बनाम विंदारानी 2 Cal. W. N. 621; लेकिन जब वली कन्याका बाप हो, तो अदालत बहुतही खास सूरतमें हस्तक्षेप करेगी 12 Bom 480 धर्मशास्त्र में विवाह परम कर्तव्य माना गया है भाइयोंके लिये भी आज्ञा है कि वह बहनोंका विवाह करें देखो वैकुंठनाथ अम्मनगर बनाम कल्लीपीरं पैयनगर 23 Mad. 512; 26 Mad. 497.
कन्यादानमें माताका दरजा सबसे पीछे रखा गया है पिताके रिश्तेदारों जब कोई दोष पाया जाय तो उस वक्त माता कन्यादान करेगी । माता अपनी
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दफा ७१।
वैवाहिक सम्बन्ध
तरफसे किसी उचित पुरुषको कन्यादानके लिये नियुक्त कर सकती है, देखोबाई रामकुंवर बनाम जमुनादास ( 1913 ) 37 Bom. 18; 35 Mad. 728 सौतेली माताको कन्यादान देनेका अधिकार नहीं; 7. W. R. C. R. 321; और देखो 2 Ind. Gur. 193.
अगर किसी नाबालिग ( लड़की या लड़का) की ज़ात या आयदाद पर एक्ट नं०८ सन१८६०ई०के अनुसार हाईकोर्टने या किसी दीवानी कोर्टने वली नियत कर दिया हो तो नाबालिग के विवाहके लिये यह वली कोर्टकी मंजूरीसे खर्च करेगा और कोर्ट कुल ज़रूरी हिदायतें विवाह सम्बन्धमें वलीको देगी
और अगर वली हिन्दू ला का होगा उसे ऐसा अधिकार रहेगा कि वह बिना मंजूरी कोर्टके बिवाह करे ; देखो-एक्ट नं० ८ सन् १८१० की दफा ११-५० ट्रिवेलियन ला श्राव माइनर्स 3 ed. P. 176. 177, 291 (संदेहितकेस देखो22 Bom. 509, 518, बिलसन्स ऐंग्लो मोहमदन ला 3 ed P. 190)
बंगाल-जब कोई नाबालिग बंगाल हाईकोर्टके ताबे कोर्ट आफ वार्डस् एक्टके अनुसार हो तो उसके वलीको विवाहसे पहले विवाहके लिये अदालतसे इजाजत प्राप्त करना ज़रूरी है--कोर्ट आफ वार्डस् ( Rules. S. VIII (E) rule 5.
मदरास--जब नाबालिग मदरास हाईकोर्टके ताबे कोर्ट आफ वर्डस् एक्टके अनुसार हो और उसके वलीने बिना मंजूरी अदालतके नाबालिगका विवाह कर दिया हो तो उस वलीको अदालत दण्ड देती है. जो २०००) १० जुरमाना और ६ महीनेकी कैदसे अधिक नहीं होगा। या दोनों सज़ायें देगीAct I. (M. C.) of 1902 . 67. विधवाका दान--देखो दफा ६३ दफा ७१ विवाहके खर्च
मिताक्षरा स्कूलमें हिन्दू मुश्तरका खानदानके मर्द मेम्बरों की लड़कियोंकी शादीके खर्च मुश्तरका जायदाद पर पड़ते हैं ( देखो दफा ४३०) 26 Mad. 497; 23 Mad. b12 लड़कियोंकी शादीमें जो खर्च हो, जो लड़कीको बतौर नेगचार के दिया जाय, या जो दुरागमन यानी गौनेमें खर्च हो सब कानूती खर्च माना गया है। देखो-बुरामैन साहू बनाम गोपी साहू (1909) 13 C. W. N. 994 इसी तरहपर मुश्तरका खानदानके मर्द मेम्बरोंकी शादीके खर्च जायदादसे दिये जायेंगे--(1907) 32 Bom. 81; 9 Bom. L. R. 1366; (1910) 32 All. 575; 34 34 Mad. 422.
बंगाल स्कूलमें यह नियम नहीं मानाजाता-देखो सरकार हिन्दू ला 3. ed. 106. बंबई हाईकोर्टने माना कि मुम्तरका खानदानमें जो क़र्ज़ किसी कोपार्सनरके विवाहके लिये लिया गया हो उसके देनदार मुश्तरका खान
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विवाह
[दूसरा प्रकरण
दानके सब कोपार्सनर होंगे (कोपार्सनर देखो दफा ४३०) क्योंकि वह क़र्ज़ खानदानके मतलब और उसके लाभके लिये लिया गया है। देखो-सदराबाई बनाम शिवनारायण 32 Bom. 81; 9 Bom. L. R. 1366; इसी तरहपर जैराम नाथू बनाम नाथू श्यामजी 34 Bom 54 में यह माना गया कि छोटे भाई का विवाह करनाभी ज़रूरी कामों में दाखिल है। इलाहाबाद हाईकोर्टने बहनके व्याहके विषयमें भी वही बात मानी; देखो--नन्दनप्रसाद बनाम अजोध्याप्रसाद 7 Ail. L. J. 236 (फुलबेञ्च ) हालमें इलाहाबाद हाईकोर्ट ने यह माना कि बापके दूसरे विवाहके लिये दुलहिनके बापको रुपया देनेके उद्देशसे जो क़र्ज़ लिया गया, वह भी खानदानी ज़रूरी काम है और इस लिये लड़के उस क़र्ज़के देनदार हैं; देखो--भागीरथी बनाम जोखूराम 7 All. L. J. 667. इस भागीरथीवाले मुकदमेंमें अदालतने कहा कि प्रत्येक पुनर्विवाह कानूनी ज़रूरी कामोंमें दाखिल नहीं है लेकिन जबकि पिताकी उमर लगभग २८ वर्षके हो, पुत्र लगभग ६ वर्षका हो और स्त्री मर जाय तो पिताका फिर विवाह करना ज़रूरी कानूनी ज़रूरियातमें दाखिल है। मदरास हाईकोर्ट भी धीरे धीरे ऐसेही सिद्धांत मानने लगी है; देखो19 Mad.L.J.666 वाले मामले में हाईकोर्टने यह सिद्धांत माना कि 'हिन्दूके लिये बिवाह परम कर्तव्य है' ब्राह्मणोंके सिवा शूद्रों के लिये भी माना। इस मामलेमें सौतेली मा अपने पतिकी जायदादकी वारिस हुई थी, अदालतने माना कि उसकी सौतेली कन्याका विवाह करना उसका कर्तव्य है 9 Mad. L. T. 158 वाले मुकदमे में मदरास हाईकोर्टने यह भी माना कि, पतिकी जायदादका एक टुकड़ा जो विधवाने कन्याके विवाहके खर्च के लिये बेचा था ज़रूरी काम था।
जहां पर कोई हिन्दू खानदान मिताक्षरालाके अधिपत्यमें रहता हो तो खानदानकी जायदाद, खानदानके लड़कोंके विवाहके खर्चकी पाबंद है; यानी उस जायदादमेंसे विवाहका खर्च किया जाय; देखो-32 Bom. 81; 12 All 575; 37 Mad. 273; 27 Mad. 206; ( 1911) 34 Mad. 4223; लड़कियोंके विवाहके लिये भी पाबंद है 23 Mad. 612, 26 Mad. 497; ३5 Mad. 728. दफा ७२ कन्याकी वलायत
__ कन्याकी वलायतके दो भाग हैं। एक तो विवाहके पहले, दूसरा विवाहके पश्चात्। विवाहके पहले कन्याका वली ( देखो दफा ३२४ ; ३३४) विवाहके पश्चात् उसका वती पति है चाहे पति नाबालिग भी हो । नाबालिग दुलहन का वली नाबालिग दुलहा होता है. (दफा ३३२) अगर कहीं पर ऐसी खास रसम हो कि अपनी स्वीके बालन होनेपर पति उसका वली माना
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वैवाहिक सम्बन्ध
दफा ७२-७३ ]
जाय तो बात दूसरी है-- अरुमुगामुदाली बनाम बीरराघव मुदाली 24 Mad. 255
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दफा ७३ विवाह में 'फेक्टमवेलेट' (Factum Valet )
( फेक्टमवेलेट ) - जब कोई ऐसा नाजायज़ काम हो जाता है, जिसको रद करने से और भी ज्यादा हानि होती है, तो अदालत उस कामको नाजायज़ समझते हुए भी रद नहीं करती। इस सिद्धांतका नाम 'फेक्टमवेट' है । विवाहमें यह सिद्धांत इस सूरत में लागू होता है, कि जब वलीकी रज़ामंदी बिना, लड़कीका विवाह कर दिया जाय तो अदालत को वह विवाह ( यद्यपि नाजायज़ है ) जायज़ मानना पड़ता है, क्योंकि हिन्दुओ में विवाह तोड़ा नहीं जासकता । यदि अदालत तोड़दे तो उस लड़की को और भी अधिक हानि पहुंचेगी। इसलिये ऐसे मामलेमें 'फेक्टमवेलेट' लागू होता है । हिन्दूलॉके अनुसार विवाह केवल इस लिये रद नहीं किया जा सकता, कि वलीकी रजामन्दी नहीं ली गयी थी । हां अगर जाल, फरेब, हो तो दूसरी बात है; देखो - मूलचन्द बनाम भूदिया 22 Bom. 812; खुशालचन्द बनाम बाई मनी 11 Bom. 247; गाजी बनाम शकरू 16 All. 512; 4_Mad. 339, मधुसूदन मुकरजी बनाम यादवचन्द बनरजी 3 W. R. 194.
धोखा -- जब विवाह किसी अनुचित कन्याके साथ धोखा, फ़रेबसे हो गया हो तो पति उस स्त्रीको त्यागकर सकता है-मनु कहते हैं कि-
विधिवत्प्रतिगृह्यापि त्यजेत्कन्यां विगर्हिताम्
व्याधितां विप्रदुष्टां वा छद्मना चोपपादिताम् । ६ - ७२
वरको उचित है कि विशेष दोष वाली, रोगिणी, मैथुन संसर्ग वाली, जाल साजीसे, दी हुई कन्याको बिधि पूर्वक विवाहमें ग्रहण करनेपर भी त्याग देवे । और जिसने ऐसा धोखा दिया हो, या जाल साज़ी की हो, उसे राजा दण्ड दे; देखो - याज्ञवल्क्य अ० १ श्लोक ६६, नारद १२ विवादपद ३१-३२-३३; तथा मनु ८-२२४, ऐसा पुरुष क़ानून ताज़ीरात हिन्दसे भी दन्डित होगा बाई दिवाली बनाम मोतीकृष्ण 22 Bom. 509 वाले मामलेमें माता के खिलाफ़ और कन्याके चाचाके मौजूद रहते स्वयं अपनी लड़कीका विवाहकर दिया अदालत ने इस विवाहको भी जायज़ माना । जजोंने कहा कि देखना सिर्फ यह चाहिये कि विवाह क़ानूनी हुआ है ? फेक्टमवेलेटका सिद्धांत भी लागू हो सकता था परन्तु ध्यान रहे कि ऐसा विवाह भलेही जायज़ किसी खास सूरत में मान लिया जाय परन्तु ऐसा करनेमें जिन लोगोंने कन्याको उसके उचित वली की
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विवाह
[दूसरा प्रकरण
वलायत से बाहर निकालने आदि कामों में भाग लिया, वे कानून ताजीरात हिन्दके अनुसार अभियुक्त होंगे; देखो-महारानी विक्टोरिया बनाम गुरदास राजघंशी 4 W. B. 7 फौजदारी; संम्राट बनाम प्राणकृष्ण शर्मा 8 Cal. 969.
दफा ७४ नियोग
देखो इस किताबकी दफा ८७, ८८, २८२, २८३ और देखो धर्मशास्त्र संग्रह पेज २२० दफा ७५ स्त्री किसके कब्जे में रहेगी ?
ज़ाहिरा तौरसे माना गया है कि पति अपनी स्त्रीका वली है और वह विवाहके समय से ही अपनी स्त्रीको अपने घरमें रहने के लिये मजबूर करने का अधिकार रखता है । स्त्री चाहे कितनी भी छोटी उमर की हो उसको अपने पतिकेघरमें ही रहना होगा । अगर कोई रवाज इसके विरुद्ध हो तो दूसरी बात है। धरणीधर घोषका मामला देखो-17 Cal.298 असमुगामुदाली बनाम बीर राघव मुदाली 24 Mad. 225.
- मनु कहते हैं कि जब स्त्रीकी उमर नाबालिग हो तो भी पति बल प्रयोग करके उसे अपने पास रखे। अगर स्त्री बालिग हो और पतिके पास रहनेसे इनकार करे तो पतिकी प्रार्थना पर अदालत स्त्रीको सिर्फ यह हुक्म देगी कि वह पति के पास रहे, मगर उसे मजबूर नहीं कर सकती । अर्थात् पति ऐसा मुकद्दमा दायर नहीं कर सकता कि उसकी स्त्री ज़बरदस्ती अदालतसे उसके कब्जे में दिला दी जाय--जमुनाबाई बनाम नारायण मोरेश्वर पेंड से 1 Bom. 164.
नोट-पतिको जब अदालतसे ऐसा हुक्म मिल जायगा कि उसकी स्त्री उसके पास रहे, तो पति अपनी स्त्री को जबरदस्ती ले जा सकेगा मगर अदालत के किसी आफीसर के द्वारा अगर वह चाहे कि उसकी स्त्री पकड़कर उसके कब्जे में दी जावे ऐसा नहीं हो सकता । जो लोग पति के ऐसे काम में बाधा देंगे वह फौजदारी के कानून से अभियुक्त होंगे, मगर पति भी ऐसा कोई काम नहीं कर सकता जो सभ्य समाज के नियमों के अथवा कानून की सीमाके बाहर हो । पति नावालिग होने पर भी अपनी नावालिग स्त्री को अपन पास रहने के लिये मजबूर कर सकता है । क्यों नहीं अदाअत का अफर स्त्री को पकड़ कर पतिक हवाले करता ? इस सवाल का मुख्य उत्तर यह है कि हिन्दू कौमकी स्त्री, पुरुष का आधा शरीर माना गयी है और स्त्री को दूसरे किसी पुरुष का स्पर्श, दोष माना जाता है। देखो व्यास रमृति अ० २ श्लोक १२, १३ ऐसी दशा में यदि स्त्री पतिसे बलवान हो तो कठिनता होगी। पति स्वयं अपनी स्त्री को बलपूर्वक ससुराल या अन्य जगद से ला सकता है।
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दफा ७४-७७]
-७७॥
वैवाहिक सम्बन्ध
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दफा ७६ पति, पत्नीके आपसके अधिकार, और उनके प्राप्त
करनेके उपाय विवाहके पश्चात् यदि पति या पत्नी आपसमें एक दूसरेके साथ रहने से इनकार करें तो इनकार करने वाले पक्षपर वैवाहिक अधिकार प्राप्त करने का दावा किया जा सकता है । देखो टिकैत बनाम वसन्ता ( 1901 ) 28 Cal. 751; दादजी बनाम रुखमा वाई 10 Bom. 301.
स्त्रीका जो यह कर्तव्य माना गया है कि पति चाहे कहीं भी रहे मगर स्त्री उसके साथ रहे, यह हिन्दूलॉ का नियम है, जिसके माननेके लिये सब मजबूर हैं । अगर किसी स्त्रीका रक्षक या स्त्री इस कारण पतिके पास रहनेसे इनकार करती हो कि वह विदेश में उस को ले जायगा यह इनकार नहीं चलेगा । अगर व्याह के पहिले पतिने "यह लिखत लिख दी हो कि वह अपनी स्त्री को उसके बापके घरसे कहीं दूसरी जगह नहीं लेजायगा तो ऐसी लिखत सरासर हिन्दूलॉ के पूर्वोक्त नियम का उद्देश नष्ट करती है। एक तो इसी सबबसे और दूसरे इस सबबसे भी कि ऐसी लिखत सार्वजनिक नीतिके विरुद्ध है, नाजायज़ मानी जायगी; देखो-टिकैतमममोहिनी जमादायी बन म बसन्त कुमारसिंह 28 Cal. 751 अगर पति अपनी स्त्री के पास रहने से बिना योग्य कारण के इनकार करे तो वह मजबूर किया जा सकता है कि वह स्त्री के पास रहे। दफा ७७ किन सूरतोंमें स्त्री अपने पतिके साथ रहनेसे इन्कार
कर सकती है ? अगर कोई स्त्री अपने पतिसे अलग रहनेका दावा करे तो उसे यह साबित करनाहोगा कि पतिने कोई ऐसा काम किया है जिसके सबबसे वह उसके साथ नहीं रह सकती। पति अगर जातिच्युत कर दिया गया हो तो उसकी स्त्री उसके साथ रहनेसे इनकार नहीं कर सकती है, और न अदालत पतिको जातिमें शामिल करनेका हुक्म दे सकती है। सहादुर बनाम रजवंता 27 All.96.
(१) करता-जब स्त्री यह कहे कि पतिकी करताके कारण मैं उसके पास नहीं रह सकती तो स्त्रीको साबित करना होगा कि पति ऐसी मार पीट करता है जिससे जानके लिये भय है या ऐसा भय होनेका उचित कारण मौजूद है--जमुनाबाई बनाम नारायण 1 Bom 164; मतंगिनी दासी बनाम योगेन्द्रमल्लिक 19 Cal. 84.
घरमें रंडी रखना और अपनी स्त्री पुत्र आदिको निकाल बाहर करना तथा स्त्रीको मारना पीटना, और उसे जानकी धमकी देना पतिकी क्ररतामें
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विवाह
प्रकरण
दाखिल है। और माना गया है कि इन कारणोंसे स्त्री अपने पतिसे अलग रहने का अधिकार रखती है। हुलार कुंवरि बनाम द्वारिका नाथ मिश्र 34 Cal 971; सीताबाई बनाम रामचन्द्रराव 12 Bom. L. R. 373; यही सूरत उस समय होगी जब पतिने कोई स्त्री घरमें बिठलाली हो (उढरी स्त्री)
(२) व्यभिचार-पतिका किसी दूसरी स्त्रीका अपने घरमें डाल लेना (उढरी बिठाल लेना) व्यभिचार है। ऐसी सूरतमें स्त्री, पतिसे अलग रह सकती है-लालगोविंद बनाम दौलत 14 W. R. 451; अगर पति घरमें रखी हुई रंडी या वेश्या या उदरी स्त्रीको निकाल देवे तब वह अपनी स्त्रीको फिर साथ रखनेका दावा कर सकता है, देखो-पैगी बनाम शिवनारायण 8 All 78.
(३) दूसरे धर्ममें चला जाना-अगर पति अपना धर्म छोड़कर दूसरे धर्ममें चला जाय अर्थात् ईसाई या मुसलमान होजाय, तो स्त्री पतिके पास रहनेसे इनकार कर सकती है-देखो मंसादेवो बनाम जीवनमल 6 Al1.617.
(४) जातिच्युत होना-अगर पति जातिच्युत होगया तो स्त्री पति के साथ रहनेसे इनकार कर सकती और न अदालत इस शर्तकी डिकरी देसकती है कि जब पति जातिमें शरीक किया जाय तब स्त्री उसके साथ रहे। पति के साथ न रहनेके लिये स्त्रीको यह साबित करना चाहिये कि पतिने वैवा हेक संबंध के विरुद्य कोई काम ऐसा किया है जिसके कारण स्त्री उसके साथ नहीं रहलकती। बिंदा बनाम कौशिल्या 13 All 126; शहादर बनाम रजवंता 27 All 96.
अगर पति पत्नीमेंसे कोई एक मुसलमान होजाय तो वैवाहिक सम्बन्ध नहीं टूट जाता पत्नीके मुसलमान होजानेपर पतिका अधिकार नष्ट नहीं हो जाता। हिन्दु पतिको अधिकार है कि अपनी स्त्रीको जो इसलाम में चली गई हो अपने कब्जे में रखे । हिन्दूलॉमें भी पतिको अधिकार है स्त्रीको अपने साथ रखे; देखो-जमुनादेवी बनाम मूलराज 49. P. R. 1909. ईसाई होजानेकी सूरतमें यह बात नहीं होगीक्योंकि ईसाई कानून लागू हो जायगा.
(५) नामर्दी या घृणितरोग -जो पति नामर्द हो या गलितकष्ट आदि घृणित रोंगोसे पीड़ित हो उसके साथ उसकी स्त्री रहनेके लिये मजबूर नहीं है। एक आदमी कुष्टरोग और आतशकसे पीड़ित था। उसने अपनी स्त्री को अपने साथ रखनेका दावा बम्बई हाईकोर्टमें किया अदालत ने उसका दावा रद्द करदिया:--देखो प्रेमकुंवर बनाम भीका कल्याणजी 5 Bom. H. C. RCI 209.
कोई स्त्री यह कहकर पतिके साथ रहनेसे नहीं बच सकती कि मैं बीमार रहा करती हूं या मेरे शरीरमें कोई ऐसा दोष है कि जिसके कारण पति
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दफा ७८]
वैवाहिक सम्बन्ध
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उससे विवाहिक उद्देश पूरा नहीं कर सकता । परन्तु अगर यह ऊपर कहे हुए दोनों दोष पतिमें हों तो वह स्त्रीको अपने साथ रखने का दावा नहीं कर सकता-पुरुषोत्तमदास बनाम बाईमनी 31 Biom• 610
(६) बुद्धिकी कमज़ोरी--पति बुद्धिहीन है, बेबकूफ़ है, पागल है, ऐसा कह कर; स्त्री पतिके साथ रहनेसे इनकार नहीं कर सकती बिंदा बनाम कौशिल्या 13 All. 28; 10 Bom. 301.
(७) कानून के विरुद्ध विवाह--विवाह कानूनके विरुद्ध हुआ है, यह साबित करके या स्त्री पुरुष एक दूसरे के साथ रहने से इनकार नहीं कर सकते हैं। एक राजपुन पुरुष और ब्राह्मण स्त्रीके परस्पर गांधर्व विवाह हुआ था पतिने जब स्त्रीको अपने साथ रखने का दावा किया अदालतने रद्द कर किया 2 Bom. L. R. 128. यह विवाह एक जातिमें न थागांधर्व विवाह देखो--इस किताबकी दफा ४० पैरा ६. दफा ७८ पति-पत्नीकी निजकी जायदाद पर विवाहका असर
विवाहिता स्त्री और कंट्राक्ट--अगर किसी दूसरी तरह अयोग्य न हो तो हिन्दू विवाहिता स्त्री, इन्डियन कंट्राक्ट एक्टके अनुसार, कंट्राक्ट कर सकती है। देखरे नथ्थू बनाम जवादर 1 Bom. 131.
अगर स्त्री और पुरुष मिलकर कर्ज लेवे तो स्त्री केवल अपने स्त्री धनकी हद तक उस कर्ज की देनदार होगी वह एसी डिकरीमें गिरफ्तार नहीं कराई जा सकती, पुरुष कराया जायगा; देखो--नरत्तम बनाम ननका 6 Bom. 673; 12 Bom3. 28.
अगर हिन्दू विधवा ने अपने वैधव्य कालमें क़र्ज़ लियाहो और उसके बाद उसका पुनर्विवाह होगया हो तो भी वह अपने उस कर्जेकी देनदार होगी और ऐसी सूरतमें वह गिरफ्तार भी की जायगी-निहालचन्द बनाम as farar 6 Bom 470.
जबकि पतिपत्नी साथ रहते हों तो अदालतका पहला यह स्याल होगा कि पत्नीने जो कुछ काम किया है वह अपने पतिकी तरफसे एजेन्टके तौरपर किया है इसलिये पति और उसकी जायदाद पाबन्द है-वीरसामीचिट्टी बनाम अत्पासामी चिट्टी 1 Mad. 375; जो स्त्री अपनी इच्झासे और बिना उचित कारण अपने पतिसे अलग होकर रहती हो वह अपने कर्ज़की खुदही ज़िम्मेदार है चाहे वह क़र्ज़ उसकी ज़रूरियातके लियेही लिया गया हो । परन्तु वह एसे क़र्जको अपने स्त्रीधनकी हद तक ही देनदार होगी, एसे कर्जकी डिकरीमें वह गिरफ्तार नहीं होसकती 1 Bom. 121 और देखो जाब्ता दीवानी सन् १६०८ की दफा ५६.
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विवाह
[दूसरा प्रकरण
. (१) पति कब देनदार है ?--स्त्री, जो वज़ अपने पतिकी मंजूरी विना ले और जो किसी ऐसी ज़रूरतके लिये न हो कि जिसको ध्यान रखते हुए अदालत यह ख्याल करके कि पतिने वैसी मंजूरी दी होगी, ऐसे कर्जका देनदार पति नहीं है, देखो-पूसी बनाम महादेवप्रसाद 8 All 122; गिरधारी बनाम क्राफर्ड 9 All. 147; पतिने दूसरा विवाह कर लिया हो इस सबबसे पहली पत्नी यदि पतिसे अलग जा कर रहे उस सूरत में क़र्ज़ के तो पति उस कर्जका देनदार नहीं होगा, 1 Mad. 375.
स्त्रीने खानदानी कारबार चलानेके वास्ते जो कर्ज लिया हो उसका देनदार पति होगा, देखो -याज्ञवल्क्य व्यवहाराध्याय ४८
गोपशौन्डिक शैलूष रजकव्याधयोषितां ऋणंदद्यात् पतिस्तासां यस्माद् वृत्तिस्तदाश्रया।
अर्थात् गोप, शराब बेचनेवाला नाटककार, धोबी, शिकारी, यह सब अपनी स्त्रीके क़र्ज़के देनदार हैं।
(२) स्त्री कब देनदार है ?-निम्नलिखित कारणोंके सिवाय स्त्री अपने पतिके कर्जे की देनदार नहीं है। देखो-याज्ञवल्क्य व्य० अ० ४६;
प्रतिपन्नं स्त्रियादेयं पत्या वा सह यत्कृतम् स्वयं कृतं वा यदृणं नान्यत् स्त्री दातुमर्हति ।
अर्थात् जिस क़र्ज़के लेने की आज्ञा पतिने दी हो और जिसकी ज़िम्मेदारी स्त्रीने ली हो; या जो क़ज़ उस स्त्रीने अपने पतिके साथ मिलकर लिया हो, या स्त्रीने स्वयं लिया हो, उस क़र्ज़की देनदार स्त्री होगी। इनके सिवाय किसी तरहके क़ीकी देनदार स्त्री नहीं है । विज्ञाश्वरने कहा है कि, शराब, रंडीबाज़ी; जुवा इत्यादिके लिये पतिके कहनेसे भी यदि स्त्रीने क़र्ज़ लिया हो तो भी उस क़र्ज़ की देनदार स्त्री नहीं है
अन्यत् सुराकामादि वचनो पात्तम् प्रतिपन्नमयि
पत्यासह कृत्मपि नदेय मिति । दफा ७९ पति पत्नीका अधिकार आपस में एक दूसरे की
जायदाद पर __अपने पतिकी जायदादमें स्त्रीको कोई अधिकार नहीं प्राप्त होता। और न पतिको अपनी स्त्रीके स्त्रीधनमें कोई अधिकार प्राप्त होता है। किंतु
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वैवाहिक सम्बन्ध
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दफा ७६-८०] दफा ७६-८०]
११९ विपद् कालमें पति स्त्री धनको काममें लानेका अधिकारी है । लेकिन शर्त यह है कि ज्योंही पतिकी दशा सुधरे वह स्त्रीधन तुरन्त वापिसकर दे, देखो--
दुर्भिक्षे धर्म कार्येच व्याधी संप्रतिरोधके गृहीतं स्त्रीधनं भर्ता न स्त्रियै दातुमर्हति । या०११-१४७
और देखो दफा ७५६-७६० मदरासमें एक बेटी अपने जीवनपर्यन्त अपने बापकी जायदादके कब्जेका अधिकार रखती थी अर्थात् वह जायदादका इन्तक़ाल नहींकर सकतीथी; परन्तु जब उसने अपनी सौतेली बेटीके विवाहके लिये जायदादका इन्तनाल किया क्योंकि उसका पति दरिद्रताके कारण विवाह नहीं कर सकता था, अदालतने इस इन्तकालको जायज़ मानाः देखो-चुदम्मल नादामनी नायडू 6.Mad. L. T. 158,
पुत्रार्तिहरणेवापि स्त्रीधनं भोक्तु मर्हति (किन्तु) वृथादानेच भोगेच स्त्रियै दद्यात् सवृद्धिकम् । प्राप्तं शिल्पैस्तु यदित्तं प्रीत्या चैव यदन्यतः भर्तुःस्वाम्यं भवेत्तत्र शेषं तु स्त्रीधनं स्मृतम् । कात्यायन
सरांश यह कि-स्त्रीने कलाकौशलले जो धन प्राप्त किया हो, या प्रीति से या दूसरी तरहसे मिला हो, उसमें पतिका अधिकार है; बाकी स्त्रीधनमें नहीं है, ऐसा कहना कात्यायनका है। देखो एफा ७५६ और ७६०. दफा ८० विवाह का रवाज
विवाहके जो रवाज सदाचारके विरुद्ध हों, कानूनके विरुद्ध हों, या सार्बजनिक नीतिके विरुद्ध हों अदालत उन्हें नहीं मानेगी। उदाहरणके लिये देखो-जैसे पतिके जीवन कालमें बिना मंजूरी पतिके विवाह का रवाज आदि नहीं माना जायगा-खेमकुंवर बनाम उमिमाशंकर 10 Bom. H. C. R. 381.
जिन लोगोंमें तलाक और पुनर्विवाहका रवाज है, उनमें पति स्त्रीको या स्त्री अपने पतिको, प्रथम विवाहका खर्च लौटाकर दूसरा विवाह करसकती है। ऐसा रवाज सदाचारके विरुद्ध नहीं माना जायगा; शंकरलिंगं बनाम सुवनचिट्टी 17 Mad. 479; रजस्वला होनेतक स्त्री का अपने पिताके घर रहनेका रवाज है 24 Mad. 255.
___मदरासके मलावार प्रांतके नामबुद्री ब्राह्मणमें 'सर्वस्वाधनं, विवाहका रवाज अबतक जारी है । जब कोई नामबुद्री ब्राह्मण, पुत्रहीन हो तो वह
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विवाह
[दूसरा प्रकरण
अपनी बेटीका 'सर्वस्वाधनं, विवाह कर सकता है, एसे विवाहका फल यह होता है कि यदि बेटीके पुत्र उत्पन्न हो तो वह अपने नानाकी जायदादका वारिस होता है और धार्मिक मतलबों के लिये वह अपने नानाका पुत्र माना जाता है। अगर बेटीके पुत्र उत्पन्न न होतो बेटीके बापकी जायदादका वारिस बेटी का पति नहीं होता बक्लि वह जायदाद बेटी के बापके खान्दानमें चली जाती है.-देखो वसुदेव बनाम सेक्रेटरी आफस्टेट 11 Mad. 157; 9 Mad. 260 यदि विवाह के समय ही जायदाद का वारिस नियत कर दिया गया हो तो दूसरी बात है।
पंजाबके कस्टमरी लॉ के अनुसार अगर किसी आदमी ने दामाद को घर जमाई बना लिया हो और यह उद्देश्य हो कि वह अपनी ससुरालकी आयदाद का वारिस हो तो ससुराल का कोई पुत्र न होने की सूरतमें घर जमाई अपनी ससुरालकी जायदाद का वारिस होगा देखो राटिगन् का पंजाब कस्टमरी लॉ की दफा २१ पेज १५ मगर यह कायदा सिवाय पंजाबके और किसी स्थानमें नहीं माना जायगा । मिताक्षरा स्कूल या दाय भाग स्कूल के अंदर दामाद को उत्तराधिकारी हरगिज़ नहीं माना है।
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बाल विवाह निषेधक बिल
सेलेक्ट कमेटी की रिपोर्ट जो भारत सरकार द्वारा गवर्नमेन्ट गजट (सं० प्रा० ) ता २२ सितम्बर सन १६२८ ई० में प्रकाशित हुई है ।
नोट - नीचे जहां पर क्लाज़ या अन्य बातोंका हवाला दिया गया है वे क्लाज़ और अन्य बातें आप इस रिपोर्ट के पश्चात सेलेक्ट कमेटी के पास किये हुए एक्ट में देखें । यह केवल रिपोर्ट है एक्ट आगे दिया गया है ।
O
हिदुओं में बालविवाह को नियमबद्ध करने वाले बिलपर सिलेक्ट कमेटी की प्रकाशित की हुई निम्नलिखित रिपोर्ट बड़ी व्यवस्थापिका सभा ( Legislative assembly ) के समाने १३ सितम्बर १९२८ ई० को पेश की गई थी:
सेलेक्ट कमेटी के रिपोर्ट किये हुए बिल सम्बन्धी कागजात नं० १, २ व ३
( १ ) हिन्दुओं में बालविवाह को नियमबद्ध करनेवाले बिलपर सेलेक्ट कमेटी की प्रकाशित की हुई रिपोर्ट, कमेटी के मेम्बरों को दुबारा विचारार्थ सुपुर्द की गई थी। कमेटी के हम मेम्बरोंने जिनके हस्ताक्षर नीचे हैं अब उस बिलपर तथा दूसरे कागजातों पर जो हाशिये में दर्ज हैं विचार कर लिया है । हमलोगों ने दक्षिणी आर्केट जिले की बालविवाह विरोधनी सभा ( कान्फ्रेंस ) के एक प्रतिनिधि से भी बातचीत की है जो स्वयं हम लोगों के समक्ष उपस्थित हुआ था । अब हमलोग यह रिपोर्ट अपने संशोधित बिल के साथ सादर समर्पित करते हैं।
( २ ) हम लोगों ने बिल तथा दूसरी सम्मतियों पर पूर्णरूप से विचार कर लिया है । और भी बहुत से विषयोंपर वाद विवाद किया गया है जिनक
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विवाह
[दूसरा प्रकरण
उल्लेख इस रिपोर्ट में किया जाना उचित प्रतीत नहीं होता है क्योंकि उनपर हमारी कमेटी के मेम्बरों में कोई विशेष मतभेद नहीं रहा है । इसलिये हम केवल उन्हीं बातों का उल्लेख करते हैं जिनसे यातो बिल संशोधित होता है या जिसे कमेटी ने बहुमत से स्वीकार किया है।
क्लाज़ २--हम लोगों ने इन सम्मतियों पर विचार किया है कि इस क्लाज़ के सब क्लाज़ ए [Cl. 2 (a)] के अनुसार स्त्रियों को बच्चा समझने के लिये उनकी आयु घटा कर ११ वर्ष या १२ वर्ष की कर दी जावे अर्थात उनको ११ वर्ष या १२ वर्षकी आयु तकही बच्चा (Chield ) माना जावे । परन्तु कमेटी की यह ज़ोरदार राय है कि आयु में इस प्रकार की किसी भी न्यूनता का किया जाना, बिल के समस्त अभीष्ट को नष्ट कर देगा अर्थात् कमेटी की राय में स्त्रियां १४ वर्ष की आयु तक ही बच्चा (Chield) इस सबक्लाज़ के अनुसार मानी जावें।
क्लाज़ ५-हमलोगों ने विचार किया है कि इस क्लाज़ के अन्तर्गत, जैसाकि इसे सेलेक्ट कमेटी ने प्रारंभ में निर्धारित किया था; सगाई की रस्म (मँगनी की) भी सम्मिलित है । परन्तु यह रस्म बिला किसी अन्य रस्म की अदायगी के विवाह (Marriage ) न समझी जायगी जो यह रस्म विवाह की एक आवश्यकीय प्रारंभिक रस्म है।
हमलोगों की यह भी राय है कि बहुत अधिक व्यक्तियों को समेटने में इस क्लाज़ का विस्तार आवश्यकता से अधिक बढ़जावेगा। केवल उसी व्यक्ति का दण्डनीय किया जाना आवश्यक है जिसने वास्तव में विवाह की उस प्रथा को करवाया हो जिससे विवाह निर्विच्छेद हो जाता है।
__ हमारी समझ में उस व्यक्ति को निरपराध मान लेना आवश्यक है। जिसने बालविवाह में भाग तो लिया हो परन्तु जो न्यायालय में यह सिद्ध कर सकता हो कि उसने उचित सावधानी के साथ इस बात का संतोष कर लिया था कि विवाह करने वालों की अवस्था विवाहोचित आयु से न्यून नहीं है।
अन्त में हमलोगों ने इस प्रस्ताव को भी अस्वीकृत कर दिया है कि बिलके छठे क्लाज़ के अनुसार इस क्लाज़ के साथ भी एक नियम ( Proviso) इस प्रकार का और जोड़ दिया जावे जिसके अनुसार वली (सरक्षक ) को इस बिना पर बालविवाह करने के लिये सर्टीफिकेट मिल सके कि वह अंतःकरण से इस बात पर विश्वास करता है कि उसका धर्म उसको विवाह के लिये वाधित करता है।
क्लाज़ ६-हमने यह भी निश्चित किया है कि माता या संरक्षिका (Gaurdian) को कारावास का दण्ड न दिया जावे । हमने इस प्रस्तावको भी अस्वीकृत कर दिया है कि इस काज़ के दूसरे भाग में जिस कल्पना के किये
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बिल ]
वैवाहिक सम्बन्ध
जानेका उल्लेख किया गया है, वह न रक्खी जावे क्योंकि हमलोगों की राय में ऐसी कल्पना का किया जाना स्वयं उचित है तथा इस क्लाज़ को प्रभावावित करने के लिये भी इसकी आवश्यकता है ।
क्लाज़ ११ - - इस क्लाज़ के सम्बन्ध के दो प्रस्तावों को हम लोगों ने अस्वीकृत किया है । पहिला यह कि केवल व्यक्तिगत मुचलका ही लिया जाना चाहिये किसी दूसरे की ज़मानत उसके साथ न ली जाना चाहिये । दूसरा यह कि उस दशा में ज़मानत न ली जाना चाहिये जबकि अभियोग ऐसे मजिस्ट्रेट की स्वीकृति से चलाया गया है जिसे स्वयं उस अभियोग के न्याय करने का अधिकार है । हमारी समझ में दूसरे प्रस्ताव के अनुसार दो मिन २ जांचों तथा अनावश्यक शहादत के एकत्रित होनेकी सम्भावना है ।
३ -- हमने संस्करण ( Drafting ) में कुछ परिवर्तन किये हैं जिनका विस्तार पूर्वक दिया जाना अनावश्यक प्रतीत होता है । हमलोगों ने इस प्रस्ताव को अस्वीकृत कर दिया है कि इस एक्ट की घोषणा प्रान्तिक सरकार द्वारा होकर यह एक्ट प्रान्तों में अलहदा रूप से लागू किया जावे उक्त प्रस्ताव, बिलपर प्रकाशित की हुई सम्मतियों में मिलेगा । हमारे विचार में इस प्रकार का नियम क़ानून की अवहेलना करने में विशेष सहायक होगा क्योंकि बालविवाह उस प्रान्त में किये जासकेंगे जहां यह एक्ट लागू नहीं होगा गो विवाह करने वाले व्यक्ति चाहे उस प्रान्त के रहने वाले हों जहां कि यह एक्ट लागू है ।
५-- हमारे विचारमै बिलमेंकोई ऐसा परिवर्तन नहीं हुआ है कि जिसके कारण यह बिल दुबारा प्रकाशित किया जावे। और हम सिफारिश करते हैं कि बिल जैसा कि अब संशोधित होकर तैय्यार हुआ है पास किया जावे ।
जे० क्रेशर
एम० श्रार० जयकर * एम० एम० मालवीय रङ्गबिहारीलाल से०घनश्यामदास बिड़ला
F ११५
एम० यूसुफ इमाम
एच०बी०सारदा लाला लाजपतराय * एम०डी०याकूब * एच०ए०जी० गिडनी एच०एस० गौड़ एस० श्रीनिवास आयकर जे०सी०चटर्जी * नीलकंठदास गङ्गानन्दसिंह
* एम०डी० रफीन
ठाकुरदास भार्गव जे० ए० शिलडी
१३ वीं सितम्बर सन १६२८ ई०
* नोट- दिये हुये मतभेदों के साथ यानी इनका मत मेद था । ( कमेटी में बहस )
श्री मुहम्मद रफीक़
चूँकि बिल का उद्देश्य मुसलमानों के जाती क़ानून में बाधा उत्पन्न करता है इसलिये यह क़ानून मुसलमानों के लिये बिलकुल लागू न
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विवाह
[दूसरा प्रकरण
न होना चाहिये । इसलिये मेरी राय है कि मुसलमान इस बिल के प्रयोग से मुक्त किये जायं। श्री ठाकुरदास
मेरी समझ में ऐसा नियम बनाना न्याय सङ्गत नहीं है कि विवाह में भाग लेने वाले व्यक्ति के ऊपर इस बात के सिद्ध करने का भार डाल दिया जावे कि वह न जानता था कि यह विवाह बालविवाह है। इस बात को सिद्ध करने का भार अभियोग चलाने वाले पर होना चाहिये । मैं इस नियम से भी सहमत नहीं हूँ कि मातापिता या संरक्षक इस बात को सिद्ध करे कि उसने अपने पुत्र, पुत्री या वार्ड के बाल विवाह को रोकने में असावधानी नहीं की।
दूसरी बात यह है कि ज़मानत देने के नियम से भी मैं सहमत होने के लिये प्रस्तुत नहीं हूँ। . इसके अतिरिक्त मैं एक ऐसे नियम बनाये जाने के पक्ष में हूँ कि जिसके अनुसार विवाहों की रजिष्ट्री हो जाया करे। श्री नीलकण्ठ दास
मैं निम्न लिखित विचारों के साथ कमेटी की रिपोर्ट से सहमत हूँ दिल्ली सेलेक्ट कमेटी की रिपोर्ट आने के पश्चात् बिल दुबारा दूसरों वे विचार जानने के लिये प्रकाशित किया गया था। मैंने स्वयं प्रतिनिधि संस्थाओं से आई हुई सम्मतियों को ध्यान पूर्वक देखा है तथा कमेटी दक्षिणी भारत के कट्टर लोगों के विचारों को मी दूसरे ढंग से मालूम किया है। इस बात से इन्कार नहीं किया जासक्ता कि हम लोगों में कुछ ऐसे प्रभावशाली जनसमुदाय हैं जो इस एक्टको कार्यान्वित होने में बाधायें उपस्थित करेंगे जिनके कारण बहुतों को कठिन दुःख उठाना पड़ेगा। बहुतों को अपना धन्धा खो बैठने का भय है तथा बहुतों की जीविका द्वार बन्द हो जावेगा । उदाहरण स्वरूप पुजारियों को ही समझ लीजिये । इन बातों की इस कारण और मी अधिक सम्भावना है क्योंकि हमारी जाति के नेतागण विवाह व गृहस्थी से कोई सम्बन्ध नहीं रखते हैं।
मैं एक एसे नियम का बना दिया जाना भी उचित समझता हूँ जिस से कि वह व्यक्ति दोषी ठहराया जावे जो इस एक्ट के अनुसार विवाह करने पालों का किसी प्रकार से वहिष्कार किये जाने का प्रयत्न करे । खासकर वह व्यक्तिगत ऐसे मामलों में अवश्य दोषी ठहराया जावे जिसका गृहस्थ जीवन नहीं है। परन्तु सम्भव है कि वर्तमान अवस्था में इस प्रकार का नियम उचित न हो। ऐसे भी अवसर आवेगे,जबकि कोई निर्धन मनुष्य
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बिल
वैवाहिक सम्बन्ध
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एक साथ अपनी दो लड़कियों का विवाह करना चाहेगा या कोई मरणासन्न व्यक्ति अपनी मृत्यु से पहले अपने बच्चे का विवाह किन्हीं खास कारणों से करना चाहेगा। और इसी प्रकार के और भी अवसर आवेगे।
इसलिये मैं समझता हूँ कि ऐसे कठिन अवसरों के लिये कुछ गुन्जायश रक्खी जाना चाहिये । ऐसे उदाहरणों की पूरी सूची-शिडयूल के तौर पर देना बड़ा कठिन कार्य है । इसके पश्चात् यह प्रश्न भी उत्पन्न होता है कि ऐसे मामलों की सुनवाई किस प्रकार के न्यायाधीश के सामने होना चाहिये कि जिसमें वह इस गहन विषय को समझ सके तथा विवेकपूर्ण न्याय कर सके । मेरी अनुमति में इस प्रकार का अधिकार फौजदारी की अदालतों को न दिया जाना चाहिये क्योंकि बहुधा वह अनेकों प्रकार की संकटमय जीवन समस्याओं से अनभिन्न रहती हैं।
इस कारण मेरी राय है कि इस प्रकार के मामलों पर विचार करने का अधिकार जिले की प्रधान दीवानी अदालत को दिया जाना उचित है या राजधानी में नगर की प्रधान दीवानी अदालत को दिया जावे या प्रान्त की किसी और अदालत को दिया जावे जो इनके समान हों। मैं चाहता हूँ कि एक आम नियम इस प्रकार का बना दिया जाये।
यदि विवाह करने वाले व्यक्ति या उनके माता पिता या संरक्षक विवाह करने से पूर्व, जब कि कन्या की अवस्था १२ वर्ष से कम न हो, एक प्रार्थना पत्र प्रधान दीवानी अदालत के सम्मुख इस आशय का पेश करें, कि उनको इन विशेष कारणों से जिनका उल्लेख प्रार्थना पत्र में है परम आवश्यक प्रतीत होता है। यदि विवाह न किया जा सका तो उससे कन्या को या उसके घर वालों को बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा । और वह दीवानी अदालत इस प्रार्थना को स्वीकार करले तो ऐसी अवस्था में यह एक्ट लागू न होगा।
मेरी राय है कि दफा में मामला चलाये जाने का समय १ साल से कम होना चाहिये । अधिक से अधिक तीन मास तक (विवाह होने के पश्चात्) मामला चलाया जा सके।
श्री मदनमोहन मालवीय - मैं अपने साथी मेम्बरों के बहुमत से दो विशेष बातों में सहमत नहीं हूँ। इस प्रकार के प्रस्ताव से कि १४ वर्ष से कम आयु वाली कन्याओं का विवाह न होना चाहिये कट्टर हिन्दुओं में बड़ी हलचल मच गई है। मैंने इस घातपर जोर दिया था कि यह वायु बजाय १४ वर्षके घटाकर ११. वर्ष कर दी
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विवाह
[दूसरा प्रकरण
जावे जिससे प्रत्येक जाति के पूर्ण सहयोग के साथ बालविवाह को रोकने का प्रस्ताव पास किया जा सके परन्तु मेरी बात नहीं मानी गई।
कुमार गङ्गानन्दसिंह की राय थी कि विवाहोचित अवस्था बजाय १४ वर्ष के घटाकर १२ वर्ष कर दी जावे परन्तु यह बात भी बहुमत से अस्वीकृत की गई । यदि १२ वर्ष भी विवाहोचित आयु हो जावे अर्थात् उससे कम आयु में विवाह किया जाना दण्डनीय समझा जावे तो कट्टर हिन्दुओं में से कच्छ लोग साथ देने के लिये तैयार किये जा सकते हैं। विवाह हिन्दुओं में एक धार्मिक कृत्य माना गया है तथा अगणित वर्षों से एक विशेष धारणा विवाह के सम्बन्ध में हिन्दुओं के हृदयों में रही है इस कारण १२ वर्ष से अधिक तथा १४ वर्ष से कम आयु में विवाह करने पर दण्ड दिया जाना हिन्दुओं में बड़ी गड़बड़ी पैदा करदेगा । इन्हीं कारणों से मैं ऐसे प्रस्ताव का विरोध करना अपना कर्त्तव्य समझता हूँ।
हम लोगों को यह बात भी ध्यान में रखना चाहिये कि इंगलिस्तान देश में भी विवाहोचित आयु १२ वर्ष रक्खी गई है। .
मैं समझता हूँ कि कन्याओं के विवाहकी आयु १२ वर्ष से अधिक बढ़ाने की बात उस वक्त तक के लिये छोड़ देना चाहिये जब तक कि और अधिक विद्या प्रचार न हो लेवे और जब तक सामाजिक तथा शारीरिक उन्नति के विचार औरन बढ़ लेवें । उक्त बातों के प्रभाव सामने मौजूद ही हैं तथा उनका ध्यान अवश्य रखना चाहिये।
मैं इस बात से भी सहमत नहीं हूँ कि किसी भी व्यक्ति को इस कानून के भंग करने पर कारावास का दण्ड दिया जावे ।
मैं समझता हूँ कि यदि सरकार व जनता इस एक्ट के उद्देश्य का प्रचार भले प्रकार करने में सहयोग करेंगे तो लोग एक हज़ार रुपये तक किये जाने वाले जुर्माने के डर से तथा चालान किये जाने के भय से, कभी इस एक्ट के विरुद्ध वालविवाह करने का साहस न करेंगे । इस एक्ट के प्रचलित किये जाने के प्रारम्भिक कुछ वर्षों तक में किसी प्रकार भी कारावास का दण्ड दिया जाना उचित नहीं समझता हूँ। १३ सितम्बर सन १९२८ ई० श्री मोहम्मद यूसुफ - मैं इस विचार को प्रकट करते हुए इस रिपोर्ट पर हस्ताक्षर करता हूँ कि मुसलमानों की एक बहुत बड़ी संख्या जिसमें कि प्रसिद्ध उल्मा भी शामिल हैं इस बिल का प्रयोग मुसलमानों के लिये बिलकुल अनुचित समझते इक्योंकि उससे उनके धर्म में प्राघात पहुँचता है।
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बिल]
वैवाहिक सम्बन्ध
श्री एच. ए. जे. गिडनी
मेरी राय में उस बिल से, जो अब तैयार हुआ है लाभ की बातें खिच गई हैं और यह बिल एक सामाजिक सुधार के प्रस्ताव की भांति है। श्री गंगानन्द सिंह
मैं समझता हूँ कि लड़कियों के लिये विवाहोचित आयु का कम से कम १४ वर्ष कर दिया जाना बहुतेरे हिन्दू नापसन्द करेंगे। क्योंकि १४ वर्ष आयु को वे बहुत अधिक समझेंगे । मैं यह जानता हूँ कि मुसलमान, ईसाई, पारसी तथा बहुतेरे हिन्दू जिनसबके लिये यह लागू होगा, इसका उलटा ही अर्थ लगायेंगे । अर्थात् कानूनन विवाहोचित श्रायुके कम से कम १४ वर्ष कर दिये जाने के फलस्वरूप यह लोग अपने समुदाय में विवाह करने की आय घटा देंगे (अर्थात यदि पहले उन लोगों में बहुत बड़ी आयु में विवाह होता होगा तो अब बह १४ वर्ष के लग भग ही विवाह करने लगेंगे ) बहुतेरे हिन्दू कन्याओं का विवाह यौवन विकाश से पूर्व ही कर दिया जाना उचित समझते हैं। परन्तु मैं इस मत से सहमत नहीं हूं। हिन्दू लोग विवाह संस्कार को धार्मिक अङ्ग मानते हैं । और उन लोगों में विवाह हो जाने से यही अभिप्राय नहीं है कि, विवाहित व्यक्ति आपस में प्रसङ्ग ही करें।
हिन्दू महासभा, जिसमें भिन्न २ समुदायों के हिन्दू सम्मिलित हैं, लड़कियों के लिये विवाहोचित आयु १२ वर्ष निर्धारित करती है । तथा अखिल भारतीय सनातन धर्म महासभाभी जिसमें कट्टर हिन्दू ही सम्मिलित हैं इस आयुका १२ वर्ष ही होना निश्चित करती है। पंडित मदनमोहन मालवीयकी अध्यक्षता में इलाहाबाद में जनवरी सन १९२८ ई० में इस महासभा की जो बैठक हुई थी उसका प्रस्ताब नं० ७ इस प्रकार है:७- (ए) सनातन धर्म महासभाकी रायमें किसी हिन्दू बालकका विवाह
१८ वर्षसे कम आयु में न होना चाहिये। (बी) यह महासभा हिन्दू जाति को उपदेश देती है कि लड़कियोंकी
आयुका द्वादश बर्ष आरम्भ होने से पूर्व उनका विवाह कदापि
कदापि न होना चाहिये। किन्तु अन्तिम प्रस्ताव ( Resolution ) नं. ८ में यह ( महासभा) स्पष्ट रूपसे बताती है कि लड़की के १६ वीं वर्ष में प्रवेश करनेसे पूर्व (अर्थात् जबतक लड़की १६वीं वर्ष में न लग जाय) विवाह के परस्पर प्रसङ्ग आशयकी पूर्ति ( दाम्पत्य सम्बन्ध ) न होना चाहिये।
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विवाह
[दूसरा प्रकरण
प्रस्ताव का अनुवाद नीच दिया जाता है
८ - इस सनातन धर्म महासभा की राय में (हिन्दू) जाति को शरीर और धर्म से दृढ़ बनाने के लिये यह परमावश्यक है कि विवाह हो चुकने पर भी तब तक परस्पर प्रसङ्ग ( दाम्पत्य सम्बन्ध ) न होना चाहिये जब तक कि लड़की का १६वां वर्ष न लग जाय ।
___यह युक्ति इस प्रकारकी पहलीही चेष्टा है और मेरी राय यह है कि इस मामले में वह मार्ग, जिससे कि ज़रा भी रुकावट पड़ती हो, उन सब लोगों को इस्तयार करना चाहिये जो उसकी सफलता चाहते हैं । कम से कम आयु की कैद निर्धारित करने से ऊँची. आयु पर वाध्य करने वाला प्रस्ताव ( Binding effect ) किसी प्रकार नहीं पड़ता। उदाहरण के तौर पर हम देखते हैं कि कई पाश्चात्य देशोंमें सम्मत देने की आयु ( Aget f consent ) उस आयु से बहुत कम है जिसमें प्रायः विवाह हुआ करते हैं । अतः मेरी समझ में यही उचित है कि, इतने मनुष्यों के विचारोंको न भूलना चाहिये और लड़कियों की विवाहोचित अयु कमसे कम १२ वर्ष निर्धारित करनी चाहिये। यदि परस्पर प्रसङ्ग में किसी कानूनी सहायता ( रक्षा ) की आवश्यकता समझ पड़े तो सम्मति देने की आयु (Age of consent ) को और बढ़ा देने से लड़कियों को ऐसी सहायता मिल सकती है । हां, यह तर्कना उठ सक्ती है कि कानून ताज़ीरात हिन्दका सम्मति दे सकनेका क्लाज़ रद हो गया है। परन्तु यह भली भांति समझ लेना चाहिये कि यदि किसी सामाजिक कानून को सफल बनाना है तो वह ऐसा कड़ा न होना चाहिये कि जिससे अधिक संख्यक लोगों को वह अमाननीय हो जाय । अतः मैं आशा करता हूं कि वे लोग, जो कि लड़कियों की कम से कम विवाहोचित आयु को बढ़ाकर १२ सालसे अधिक कर दी जानेके पक्ष में हैं, इस ( बृद्धि ) की श्राड़ में छिपी हुई कठिनाइयों को समझ लेंगे और लड़कियों की कमसे कम विवाहोचित आयु को १२ वर्ष निर्धारित करके सन्तष्ट हो जायंगे। इस संशोधित रूप में काननके इस टुकड़ेकी सफलता का विस्तार (परिमाण ) देखनेके लिये हमको प्रतीक्षा करनी चाहिये।
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एक्ट सन १६२८ ई० ] बालविवाह निषेधक बिल
सेलेक्ट कमेटीका पास किया हुआ बिल बिल नं० २१ सन १९२७ ई०
बाल विवाह निषेधक बिल
चूंकि बालविवाह को रोकने की परमावश्यकता है अतः निम्नलिखित "कानून बनाया जाता है:
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-
दफा १ नाम, विस्तार और आरम्भ
( १ ) यह एक्ट सन १६२८ ई० का बालविवाह निषेधक एक्ट · ( The Child marriage restraint Act of 1928 ) कहलायेगा ।
( २ ) इसका प्रयोग सारे ब्रिटिश भारत में होगा जिसमें ब्रिटिश बिलोचिस्तान व सन्थाल परगने भी सम्मिलित हैं ।
( ३ ) यह एक्ट १ अप्रैल सन १६३० ई० से लागू होगा ।
दफा २ परिभाषाएं
यदि कोई बात विषय या प्रसंग के विपरीत न पड़े तो इस एक्ट में प्रयोग किये हुए निम्निलिखित शब्दों का अर्थ इस प्रकार होगा
( ए ) 'बच्चा' ( Child ) का अर्थ उस बालक से है जो १८ वर्ष की आयु से न्यून हो तथा उस कन्या से है जो १४ वर्ष की आयु हो ।
(बी) 'बालविवाह' (Child Marriage) से उस विवाहका अभिप्राय है जिसमें वर या कन्या में से कोई भी बच्चा हो ।
सी) 'विवाहमें सम्बन्ध करनेवाला पक्ष' ( Cantracting Party ) से अभिप्राय उन दोनों व्यक्तियों से है जिनका विवाह सम्बन्ध हुआ हो ।
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'डी) 'नाबालिग' (Minor) से अभिप्राय उस व्यक्ति का है जिसकी आयु १८ वर्ष से न्यून हो चाहे वह पुरुष हो या स्त्री ।
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विवाह
[दूसरा प्रकरण
दफा ३ बच्चे से विवाह करने वाले उस पुरुषके लिये दण्ड
जो २१ वर्ष से न्यून आयु का है पुरुष जातिका १८ वर्ष से अधिक किन्तु २१ वर्ष से न्यून आयु का जो व्यक्ति बालविवाह करेगा उसको एक हज़ार रुपये तक के जुर्मानेका दण्ड दिया जा सकेगा। दफा ४ बच्चे से विवाह करने वाले उस पुरुषके लिये दण्ड
जो २१ वर्ष से अधिक अयु का है ___ २१ वर्ष से अधिक आयुका जो पुरुष बाल विवाह करेगा उसको एक मास तकका साधारण काराबासका दण्ड दिया जासकेगा या एक हजार रुपये तक जुर्माना हो सकेगा या कारावास व जुर्माना दोनों हो सकेंगे। दफा ५ बाल विवाह करने के लिये दण्ड
जो व्यक्ति बाल विवाह करेगा या करावेगा या करने की आज्ञा ही देगा उसको एक मास तक की सादी कैद या एक हज़ार रुपये तक जुर्माना हो सकेगा या दोनों हो सकेंगे यदि वह ( व्यक्ति) यह सिद्ध न कर देगा कि उसके पास इस बातके विश्वास करनेका कारण था कि यह विवाह जिसमें वह भाग ले रहा है बालविवाह नहीं है। दफा ६ बाल विवाहसे सम्बन्ध रखने वाले माता-पिता या
संरक्षकको दण्ड
(१) उस दशामें जब कि कोई नावालिग बाल विवाह करेगा तो उस व्यक्तिको, जो उस नावालिरा की निगरानी, माता, पिता, संरक्षक या संरक्षिका की हैसियतसे या और किसी हैसियत से रखते हुए, चाहे यह निगरानी कानूनी हो या गैर कानूनी, विवाह करानेके लिये कोई काम करेगा या उसके किये जाने की इजाज़त देगा या उसके ( बाल विवाहके ) रोकने में अपनी असावधानीके कारण चूकेगा,एक मास तक का साधारण कारावास, या एक हजार रुपये तक जुर्माने, का दण्ड ( दिया जा सकेगा) या दोनों दण्ड दिये जा सकेंगे।
किन्तु किसी स्त्री को कारावासका दण्ड न दिया जायगा
(२) उस दशामें जबकि कोई नाबालिग बालविवाह कर लेगा तो इस दफाके मतलबके लिये यह मान लिया जायगा, जब तक कि इसके
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एक्ट सन १९२८ ई०]
बालविवाह निषेधक बिल
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विपरीत सिद्ध न कर दिया जाय, कि वह व्यक्ति जो ऐसे नावालिग की निगरानी रखता है बालविवाह को रोकने में अपनी असावधानीके कारण ही असमर्थ हुआ है। दफा ७ दफा ३ के जुर्मों में कैद की सज़ा न होगी
इस एक्टकी दफा ३ के अनुसार किसी अपराधी को दण्ड देते हुए किसी अदालत को इस बातका इख्तियार न होगा कि ऐसा दुक्म दे दे कि अपराधी के (लगाये हुए) जुर्माना न देनेपर उसे अमुक समय तक कारावास भोगना पड़ेगा । यद्यपि जनरल क्लाज़ेज़ एक्ट ( General Clauses Act ) सन १८९७ ई० (सन १८८७ ई० का दसवां एक्ट) की दफा २५ या संग्रह ताज़ीरात हिन्द ( Indian Penal Code) सन १८६०ई० की दफा ६४ में कुछ और लिखा है। दफा ८ इस एक्ट के अनुसार इख्तियार
जितने जुर्म इस एक्ट के अर्न्तगत होंगे उनकी सुनाई प्रेसीडेन्सी मजिस्ट्रेट या डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट के अतिरिक्त अन्य कोई मजिस्ट्रेट न कर सकेगा यद्यपि दफा १६०, संग्रह जाबता फौजदारी, सन १८५८ ई० में कुछ और लिखा हो। दफा ९ जुर्मों की सुनवाई करने का तरीका
कोई अदालत इस एक्टके अन्तर्गत जुर्मों की सुनवाई न कर सकेगी सिवाय ऐसी हालत में जब कि इस्तगासा दायर किया गया है और वह भी उस विवाहके होनेसे एक साल के अन्दर हुआ है जिसके बारे में जुर्म किया जाना कहा जाता है। दफा १० इस एक्टके अनुसार होने वाले जुर्मीकी जांच
यदि वह अदालत जो कि इस एक्ट के अनुसार होने वाले किसी जुर्म की सुनाईकर रही है उस इस्तगासेको दफा २०३ संग्रह जाबता फौजदारी सन १८१८ई० ( Criminal Procedure Code 1898 ) के अनुसार खारिज न करेगी तो उक्त संग्रह (Code) की दफा २०२ के अनुसार या तो स्वयं आंच करेगी या अपने अधीन अव्वल दर्जे के किसी मजिस्ट्रेट को ऐसी जांच करने के लिये आदेश देगी। दफा ११ अभियोक्ता (मुस्तगीस)से जमानत लेनेका इख्तियार
(१) अमियोक्ता (मुस्तग्रीस) का इज़हार लेने के पश्चात् और अभियुक्त (मुलज़िम) की हाज़िरी को वाध्य करने लिये आज्ञापत्र निकालने
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विवाह
[दूसरा प्रकरण
के पूर्व, किसी समय, अदालत, ऐसे कारणोंके अतिरिक्त जो लिखे जायंगे, अमियोक्ता को सौ रुपये तकका मुचलका, मय ज़मानत या बिला ज़मानत, लिख देने की आज्ञा देगी। यह मुचलका उस मुत्राबज़े के भुगतान के लिये ज़मानतके तौर पर होगा जिसके चुकानेकी आज्ञा अमियोक्ता को दफा २५५, संग्रह जाबता फौजदारी सन १८६८ ई० (Criminal Procedure Code 1898.) के अनुसार दी जा सकती है। और यदि ऐसी ज़मानत, ऐसे पर्याप्त समय के अन्दर, जिसे कि अदालत निर्धारित कर सकती है, दाखिल न कर दी जायगी, तो इस्तगासा खारिज कर दिया जायगा।
(२) इस दफाके अनुसार जो मुचलका लिया जायगा वह संग्रह जाबता फौजदारी सन १८६८ ई. के अनुसार लिया हुआ समझा जायगा।
और तदनुसार उक्त संग्रह (Code) का ४२ वां प्रकरण ( Chapter ) लागू होगा।
एल. ग्रेहम
सेक्रेटरी भारत सरकार नोट-इस हिन्दलों के यहां तक छप जाने के समय तक, यह कानून पास नहीं हुआ किन्तु पूर्ण आशा है कि कुछ परिवर्तनों के साथ अवश्य पास होगा । उमर की कैद में घटाव हो या न हो । इस लिये इस कानून के परिशिष्ट भाग में हम पास किया हुआ कानून अविकल देंगे । यदि न पास हुआ तो समझ लेना इस बिल का कोई असर नहीं होगा । देखो परिशिष्ठ भाग।
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Tho HINDU WIDOWS REMARRIAGE.
Aot xv of 1858.
D
.
"
हिन्दू विधवाओंके पुनर्विवाहका -- कानून नं० १५ सन १८५६ ई० ...
( २५ जौलाई सन१८५६ई० को पास हुआ)
हिन्दू विधवाओं की शादी के विरुद्ध समस्त कानूनी बाधाओं
को दूर करने वाला कानून चूकि यह विदित है कि उस कानून के द्वारा जिसका प्रचार उन दीवानी अदालतों में किया गया था जिनकी स्थापना उन प्रदेशों में, जो ईस्टइंडिया कम्पनी के अधिकार और शासन में थे की गई थी यह तय किया गया है कि कुछ अपवादों के अतिरिक्त, हिन्दू विधवायें, एक बार विवाहिता हो जाने के कारण, दूसरी जायज़ शादी करने के अयोग्य हैं और इस प्रकार की विधवाओं की, किसी दूसरी शादी द्वारा सन्साम; नाजायज़ और जायदाद के उत्तराधिकार के नाकाबिल करार दिये गये हैं।
और चूकि बहुत से हिन्दुओं की यह धारणा है कि यह निन्दनीय कानूनी अयोग्यता, यद्यपि प्रमाणित रवाज के अनुसार है, किन्तु फिर भी वह उन के धार्मिक सिद्धान्तों की सत्य मीमांसा के अनुसार नहीं है और यह चाहते हैं कि कोर्ट आव जस्टिस द्वारा काम में लाई जाने वाली सिविल लॉ उन हिन्दुओं को, जो अपने अन्तःकरण की आज्ञानुसार किसी भिन्न रवाज के ग्रहण करने का इरादा करें, अब और अधिक दिन बाधक न हो।
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१२६
विवाह
[ दूसरा प्रकरण
और चूंकि उन समस्त हिन्दुओंको, इस कानूनी अयोग्यता से जिसकी वे शिकायत करते हैं छुटकारा देना न्याय है और चूंकि हिन्दू विधवाओं की शादी की तमाम कानूनी अयोग्यताओं के हटा देने से, सदाचार और सार्वजनिक हित की वृद्धि में सहायता प्राप्त होगी: अतएव इसकी निम्न प्रकार व्यवस्था की जाती है:दफा १ हिन्दू विधवाओं की शादी का कानूनी किया जाना
हिन्दुओं के मध्य कोई शादी नाजायज़ न होगी और सी शादी से उत्त्पन्न सन्तान गैर कानूनी न होगी, इस कारण से कि उस औरत की शादी या सगाई किसी दूसरे व्यक्ति के साथ पहिले हो गई थी जोकि इस प्रकार की शादी के समय मर गया है, चाहे कोई रिवाज या किसी हिन्दू लॉ की व्याख्या इसके विरुद्ध भी हो। दफा २ विधवा के वे अधिकार जो उसे मृत पतिकी जायदाद
पर प्राप्त होते हैं, पुनर्विवाह के वाद समाप्त हो जाते हैं
वे समस्त अधिकार और लाभ, जो किसी विधवा को अपने मृत पति की जायदाद पर, परवरिश के रूप में या अपने पति के उत्तराधिकार स्वरूप या पतिके वंशजके वारिस की भांति, या किसी वसीयतनामे या शर्तनामे की हैसियत से जो उसके हक में किया गया हो, और जिसमें पुनर्विवाह की स्पष्ट आज्ञा न हो तथा जिसकी वह परिमिति अधिकारिणी हो और उसके इन्तकाल करने का उसे अधिकार न हो, उसके पुनर्विवाह होने पर इस प्रकार समाप्त हो जायगे, गोयाकि वह मर गई हो, और उसके पति के दूसरे वारिस या वे वारिस जो मृत्यु के पश्चात् अधिकारी होते, उन अधिकारों
और लाभों को प्राप्त करेंगे। दफा ३ विधवाके पुनर्विवाह हो जाने पर मृत पति की सन्तान
के लिये वली नियत किया जाना किसी हिन्दू विधवा के पुनर्विवाह हो जाने पर, यदि विधवा या कोई अन्य व्यक्ति मृत पति के वसीयतनामे द्वारा स्पष्ट रीति पर उसकी सन्तानका पली नहीं नियत किया गया, तो मृत पतिका पिता या पितामह या माता या आजी (पिता की माता) या मृत पति का कोई पुरुष सम्बन्धी, सब से बड़ी अदालत में जिसके दीवानी के न्यायाधिकार के अन्तर्गत वह स्थान हो, जहां मृत पति अपनी मृत्यु के समय पर रहता था, उसकी सन्तान के लिये वली नियत करने के निमित्त अर्जी दे सकता है। और अर्जी के देने पर उक्त अदा.
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एक्ट सन१८५६ई० 1 हिन्दू विधवाओंके पुनर्विवाहका कानून
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लत के लिये यह न्यायानुकूल होगा, कि यदि वह उचित समझे तो वली मुक़र्रर करे, जिसको कि नियुक्त हो जाने पर यह अधिकार होगा कि उक्त बच्चों या उनमें से किसी की, उनकी नाबालिगी के वक्त; उनकी माता के स्थान पर हिफ़ाज़त और रक्षा करे। इस प्रकार की नियुक्त करने में अदालत उन कानूनों और नियमों के अनुसार कार्यवाही करेगी, जो उन बच्चों के सम्बन्ध में हैं जिनके माता या पिता नहीं होते।
नियम यह है कि उस सूरत में जब कि उक्त बच्चों की खास कोई ऐसी जायदाद न होगी जो कि उनकी नाबालिग्री की अवस्था में उनकी जीविका और उचित शिक्षा के लिये काफ़ी हो, इस प्रकार की नियुक्ति बिना माता की रजामन्दी न की जायगी, जब तक कि नियुक्त किया जाने वाला वली, बच्चों की नाबालिग्री के मध्य, उनकी जीविका और उचित शिक्षा के प्रबन्ध करने की जमानत न दे। दफा ४ इस कानुनमें कोई बात ऐसी नहीं है जो किसी
निस्सन्तान विधवा को उत्तराधिकार के योग्य बनाती हो
इस कानून में व्यक्त, किसी आदेश से यह न समझा जायगा कि वह किसी विधवा को, जो किसी व्यक्ति के मरने पर जो कोई जायदाद छोड़ कर मरता है, निस्सन्तान विधवा है, उस जायदाद को समस्त या उस के किसी हिस्से को उत्तराधिकारी द्वारा प्राप्त करने के योग्य बनाता है, यदि इस कानून के पास होने के पूर्व वह उस जायदादके उत्तराधिकार से, निस्सन्तान होने के कारण नाबालिग रही हो। दफा ५ दफा २ और ४ में बताये हुए आदेशों के अतिरिक्त
पुनर्विवाह करने वाली विधवाके अधिकारों की रक्षा सिवाय उसके, जो उपरोक्त तीन दफाओं में बताया गया है किसी विधवा की, पुनर्विवाह के कारण, कोई जायदाद या कोई अधिकार जिस की वह अन्य रीति पर अधिकारिणी होती, ज़ब्त न होंगे, और प्रत्येक विधवा को जिसने पुनर्विवाह किया हो, उत्तराधिकार का वही अधिकार होगा, जो उस सूरत पर उसे प्राप्त होता, यदि उसकी वह शादी पहली शादी होती। दफा ६ उन रस्मों का, जिनकी बिना पर शादी जायज मानी
जाती है, विधवा की शादी में भी वही असर होगा
वे मंत्र जो पढ़े जाते हैं, रस्में या रिवाज, जो अदा की जाती हैं, उस हिन्दू स्त्री की शादी को जायज़ बनाने के लिये जिसका पहिले विवाह नहीं
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विवाह
[ दूसरा प्रकरण
हुआ है, उनका वही असर होगा, यदि वे पढ़े जांयगे या अदा की जांयगी, किसी हिन्दू विधवा के पुनर्विवाह में और कोई शादी इस वजह से नाजायज़ न ठहराई जायगी, कि वे मंत्र, रस्म या रिवाज विधवा की सूरत में प्रयोगनीय नहीं है ।
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दफा ७ नावालिन के पुनर्विवाह के लिये स्वीकृति
यदि कोई पुनर्विवाह करने वाली विधवा नाबालिग हो और उसका गौना न गया हो, तो वह अपने पिता की स्वीकृति विना पुनर्विवाह नहीं कर सकती, या यदि उसका पिता जीवित न हो तो अपने पितामह की, यदि पिता . मह न हो; तो माता की, यदि इन में कोई न हो, तो बड़े भाई की या भाई न तो अपने अन्य पुरुष सम्बन्धीकी स्वीकृति विना पुनर्विवाह नहीं कर सकती । इस दफा के ख़िलाफ शादी में सहायता देने की सज़ा
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वे व्यक्ति, जो जान बूझकर किसी ऐसी शादी में जो इस दफाके आदेशों के खिलाफ की गई हो, सहायता करेंगे, क़ैद के योग्य होंगे, जो किसी मुद्दत की जो एक साल से अधिक न होगी, होगी या जुर्माना होगा, या दोनों होंगे।
इस प्रकार की शादी का प्रभाव
और वे समस्त शादियां, जो इस दफ़ा के आदेशों के विरूद्ध की जांयगी क़ानूनी अदालत द्वारा नाजायज़ क़रार दी जा सकेंगी बशर्ते कि किसी प्रश्न में जो उस शादी के, जो इस दफा के आदेशों के विरुद्ध की गई हो, जायज़ होने के सम्बन्ध में किया जाय, इस प्रकार की रजामन्दी की, जिसका ऊपर वर्णन किया गया है, कल्पना की जाय, जब तक कि कोई विपरीत सुबूत न मौजूद हो, और यह कि इस प्रकार की शादी उस वक्त नाजायज़ न क़रार दी जायगी, जब कि गौना हो गया हो ।
नावालिरा विधवा की पुनर्विवाह की रजामन्दी
उस विधवा के सम्बन्ध में, जो पूरी उमर की हो और जिसका गौना हो गया हो, उसकी रजामन्दी ही उसके पुनर्विवाह को जायज़ बनाने के लिये काफ़ी होगी ।
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Son & Sonship.
पुत्र और पुत्रत्व
तीसरा प्रकरण पुत्र और पुत्रों के दरजों के जानने की जरूरत बहुत करके इस लिये है, कि प्राचीन काल में आठ प्रकार के विवाह ( देखो दफा ४० ) होते थे। मगर अब कानून के असर तथा प्रथा के बदल जाने से उतने नहीं होते फिर भी अनेक किस्म की स्त्रियों से जो पुत्रों की पैदाइश होती है, वह पुत्र कहां तक माने जायंगे तथा उनमें किससे किसको श्रेष्ठता. है, कानूनमें कितनी किस्म के पुत्र माने गये हैं। कौन जायज़ और कौन नाजायज है, उत्तराधिकार पानेके अधिकारी कौन है आपस में बटवारा उनके दों के अनुसार कैसा होगा, इत्यादि बातोंका वर्णन इस प्रकरण में किया गया है ।
पुत्र और पुत्रों के दरजे
दफा ८१ पुत्र की आवश्यकता
महर्षि मनुने कहाहै, कि नरकका नाम 'पु' है और जो नरकसे पिताको बचाता है इस लिये उसका नाम स्वयं ब्रह्माजीने पुत्र रखा है। मनुष्य पुत्र होनेसे सब लोकों को प्राप्त होता है, पौत्र होनेसे अनन्त समय तक स्वर्गका सुख भोगता है और प्रपौत्रसे सूर्यलोक को पाता है । धर्मशास्त्रका सिद्धांत है कि बिना पुत्रके सद्गति प्राप्त नहीं होती तथा पितरोंके ऋणसे छुटकारा नहीं पाता । अत्रिस्मृति में कहा है कि पिता, जीवित पुत्रका मुख देखते ही पितरों - (१) पुन्नाम्नो नरकाधस्मानायते पितरं सुतः । तस्मात्पुत्र इति प्रोक्तःस्वयमेव स्वयंभुवा । अ०६-१३८, (२) पुत्रेणलोकाञ्जयति पौत्रेणानन्त्य मश्नुते । अथ पुत्र स्य पौत्रेणबनस्याप्नोतिविष्ठपम् । अ०६-१३७. (३) पितापुत्रस्य जातस्य पश्येच्चेञ्जीवितोमुखम् ऋणमस्मिन्सं नयति अमृतत्वं चमच्छति । ५३.
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पुत्र और पुत्रत्व
[ तीसरा प्रकरण
के करज़ से छूट जाता है और मरने पर उसे स्वर्गमें स्थान मिलता है। बौधायनने भी इसकी पुष्टि की है-ब्राह्मणका बालक तीन कोंसे युक्त होकर जन्म लेता है ब्रह्मचर्य साधन करनेसे ऋषि ऋण, यज्ञ करनेसे देवऋण और पुत्र उत्पन्न करनेसे पितृऋणसे छूट जाता है। यह बात सभी स्मृतिकारोंको मान्य है कि पुत्र होनेसे पिताको स्वर्ग मिलता है और मुक्त हो जाता है। एवं जिस मनुष्यके पुत्र नहीं होता उसे स्वर्ग की प्राप्ति नहीं होती और पितरों का करज़दार बना रहता है। देवकर्म, और पितृकर्म. बिना पुत्रके नहीं कायम रह सकता । अतएव पुत्रकी कामना हिन्दूधर्मानुसार आवश्यक है। पुत्रसे पिताकी आत्माको शांति पहुंचती है तथा उसका वंश आगे चलता है और नाम संसारमें कायम रहता है, इसी कारण हरएक हिन्दूपुरुषको सन्तान पैदा होनेकी प्रबल इच्छा रहा करती है। इसी हेतुसे पुरुष विवाह करता है जब उसके सन्तान नहीं होती तब दसरा और तीसरा विवाह करता है। तोभी कभी कभी अभाग्यवश पुत्रोत्पत्तिसे निराश रहना पड़ता है। इसी आशा में वृद्धा वस्था आजाती है, इन्द्रियां शिथिल और मनोवेगकी प्रबलता हो जाती है तब पुरुष अपने को संतान उत्पन्न करनेके अयोग्य समझ विवश होकर अनेक प्रकारके उपाय सोचने लगता है, क्योंकि उसे भय होता है, कि कहीं उसके धर्मकृत्य और उसके वंश तथा नामके चलनेका मार्ग बन्द नहोजाय । वह उपाय एक ही है। वह यह कि दूसरे पुरुषके लड़के को अपना लड़का बनाले । इस चालको 'गोदलेना, कहते हैं, और इस चालके अनुसार जो लड़का गोदलिया जाता है, उसे दत्तकपुत्र (मुतबन्ना-खोला ) कहते हैं इस नकली लड़केको धर्मशास्त्रकारोंने बारह प्रकार के लड़कोंके भीतर माना है और संपत्ति में इस पुत्रका भाग कायम किया है। दत्तक पुत्रसे धर्मकृत्य वंश तथा नाम 'उसी प्रकार से चलना माना गया है, जैसे असली लड़केसे । दत्तकपुत्र होनेसे पुरुष पुत्रवान् कहलाता है और वह सगे लड़के की तरह पिता तथा पिता के पितरोंको पिण्डदान श्रादि से तृप्त करता है और पिता की संपत्ति का वारिस होता है।
पुत्रोंका कानूनी होना-सन्तान के कानूनी होने की एक जांच यह है कि उसे अन्तिम संस्कार और श्राद्ध करनेका अधिकार हो । श्राद्धकी रस्म का महत्व कानूनी नुक्ते निगाह से बहुत अधिक है। पिण्डों के देने की योग्यता का होना, वारिस होने की एक जांच है। महाराज कोल्हापुर बनाम सुन्दरम् अय्यर 48 M. I. A. I. R. 1925 Mad. 497. - (४) जायमानोवे ब्राह्मणस्त्रिभिर्ऋणी जायते ब्रह्मचर्येणर्षिभ्यो यज्ञेन देवेभ्यः प्रजयापितृभ्य इति । ६.
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दफा ८२]
पुत्र और पुत्रोंके दरजे
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दफा ८२ चौदह प्रकार के पुत्र और उनकी तारीफ
पहले ज़माने में स्मृतिकारोंने बारह प्रकारके पुत्र स्वीकार किये हैं। उनमें किसी २ के मतसे 'कुण्ड, और 'गोलक, मिलाकर चौदह क्रिस्मके पुत्र होते हैं। परन्तु विशेष रूपसे बारह प्रकारके पुत्रों का ही ज़िकर पाया जाता है। जैसे-औरस, क्षेत्रज, पुत्रिकापुत्र, कानीन, गूढज, पौनर्भव, सहोढज, निषाद, (पारशव ) दत्तक, क्रीत , अपविद्ध, स्वयंदत्त ।
(१)ौरस पुत्र-योग्य विवाह संस्कारसे युक्त भार्या में पतिके सम्बन्ध से जो लड़का पैदा होता है, उसे औरस कहते हैं । यही श्रेष्ट और मुख्य पुत्र है।
(२) क्षेत्रजपुत्र-मरे हुये पुरुषकी, नपुंसक अथवा असाध्य रोगी मनुष्य की स्त्री धर्मपूर्वक नियुक्त होकर दूसरे पुरुषके वीर्यसे जो लड़का पैदा होता है, उसे क्षेत्रज कहते हैं।
(३) पुत्रिकापुत्र--जब कोई पुरुष अपनी कन्याको, जिसके भाई न हो, आभूषणोंसे युक्त करके इस शर्तपर बर को देता है, कि इस कन्यासे जो पुत्र पैदा होगा, वह मेरा होगा, तब उस कन्याको "पुत्रिका, कहते हैं और उससे जो पुत्र पैदा होता है उसे 'पुत्रिकापुत्र, कहते हैं।
- (४) कानीन पुत्र-जब किसी लड़कीके विवाह होनेके पहले कुमारी अवस्थामें गुप्त सहवाससे पिताके घरमें पुत्र उत्पन्न होता है, उसे कानीनपुत्र कहते हैं और यह पुत्र उस लड़कीसे विवाह करनेवालेका होता है। और अगर विवाह न हो तो उसके बाप का होता है।
(१) स्वक्षेत्रे संस्कृतायांतु स्वयमुत्पादयेद्धियम् । तमोरसं विजानीया पुत्रं प्रथम कल्पितम् । मनु अ०६-१६६. (२) यस्तल्पजः प्रमीतस्य क्लीवस्य व्याधितस्यवा। स्वधर्मेण नियुक्तायां स पुत्रः क्षेत्रजः स्मृतः । मनु 8-१६७. (३) अभ्रातृकां प्रदास्यामि तुभ्यंकन्यामलंकृताम् । अस्यां यो जायते पुत्रः समेपुत्रोभवेदिति । वसिष्ठ १७०१८. (४) पितृवेश्यनि कन्यातु यं पुत्रं जनयद्रहः ।तंकानीनंवदेनाम्ना वोढः कन्या समुद्भवम् । मनु ६-१७२.
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१३३
पुत्र और पुत्रत्व
[तीसरा मकरण
(५) गूढंजपुत्र--विना जाने हुए पुरुषके सम्बन्ध से जब किसी स्त्री के गुप्तसहवास द्वारा पुत्र उत्पन्न होता है, उस पुत्र को गूढज कहते हैं और यह पुत्र उसके पतिका होता है।
(६) पौनर्भवपुत्र--जो स्त्री पतिके छोड़ देनेपर अथवा विधवा होनेके बाद अपनी इच्छासे दूसरे पुरुषकी स्त्री बनकर पुत्र उत्पन्न करती है उसे पौनर्भव कहते हैं।
(७) सहोदजपुत्र-अनजानसे अथवा जानबूझकर जो पुरुष गर्भवती कन्या से विवाह कर लेता है और उससे जो पुत्र पैदा होता है उसे सहोदज कहते हैं। यह पुत्र पति का होता है।
(B) निषाद--पारशव-जब ब्राह्मण काम वश होकर शूद्रकी स्त्रीसे सहवास करता है उससे उत्पन्न पुत्र को पारशव-निषाद कहते हैं। यह पुत्र 'पारशव, इसलिये कहा जाता है कि ऐसा लड़का धर्मशास्त्र की दृष्टिसे जीते रहने परभी मरे हुएके समान है।
(१) दत्तक पुत्र-जब माता पिता आपकालमें प्रीति पूर्वक किसी समान जातिके मनुष्य को विधिवत् अपना पुत्र दे देते हैं तब उस पुत्रको 'दत्तक पुत्र, कहते हैं ( देखो दफा १७४)।
(५) उत्पद्यतेगृहेयस्य नवज्ञायेत कस्यसः । सगृहे गूढ उत्पन्नस्तस्यस्याद्यस्य तल्पजः । मनु ६-१७०. (६) या पत्यावा परित्यक्ता विधवा वा स्वयेच्छया। उत्पादयेपुनर्भूत्वा सपौनर्भव उच्यते । मनु ९-१७५. (७) या गर्भिणी संस्क्रियते ज्ञाताऽज्ञाता पिवा सती । बोढः सगर्भोभवति सहोद इति चोच्यते । मनु ६-१७३. (८) यं ब्राह्मणस्तु शूद्रायां कामादुत्पादेयत्सुतम् । सपारयन्नेव शवस्तस्मात्यारशव स्मृतः । मनु ६-१७८. (६) मातापिता वा दद्यातां यमद्भिः पुत्रमापदि। सदृशंप्रीतिसंयुक्तं सज्ञेयोदत्रिमः सुतः। मनु ६-१६८.
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दफा ८२]
पुत्र और पुत्रोंके दरजे
१३३
(१०) क्रीत पुत्र-जो लड़का सअली मातापितासे, कीमत देकर खरीद लिया जाता है वह खरीदनेवालेका क्रीतपुत्र कहलाता है।
(११) अपविद्धपुत्र-किसी लड़के को जब माता पिता अथवा उसका रक्षक त्याग देता है और दूसरा पुरुष उसे रक्षा करके रखता है तो वह पुत्र रक्षा करने वाले का अपविद्ध पुत्र कहलाता है।
(१२) स्वयंदत्तपुत्र-जिस लड़के के मातापिता मर गये हों अथवा उन्होंने बिना कारण उसे त्याग दिया हो, और तब वह पुत्र खुद जाकर यदि किसी दूसरे पुरुष का लड़का बन जाय तो उसे स्वयंदत्तपुत्र कहते हैं।
(१३) कुण्ड पुत्र-जो लड़का पति के जीवित रहने पर जार कर्मसे पैदा हो, उसे कुण्ड पुत्र कहते हैं । यह पुत्र पतिका होता है।
(१४) गोलेक पुत्र-जो लड़का विधवा स्त्रीसे पैदा हो, उसे गोलक कहते हैं।
मनुस्मृतिमें 'पुत्रिका पुत्र, नहीं लिखा है । मगर याज्ञवल्क्य विष्णु, गौतम, वसिष्ठ,नारद, बौधायन आदि स्मृतियोंमें पुत्रिकापुत्र, बारह प्रकार के पुत्रों के अन्तर्गत है । बल्लि गौतमने कहा है कि बिना पुत्रवाला पुरुष जब अग्नि और प्रजापतिको आहुति देकर ऐसी प्रतिज्ञाके साथ कन्यादान करता है कि इस कन्या का पुत्र हमारे पुत्रके स्थानपर होकर हमारा श्राद्ध आदि कर्म करेगा तब वह कन्या 'पुत्रिका" कहलाती है और उसका पुत्र पुत्रिकापुत्र कहलाता है । वसिष्ठने पुत्रिकापुत्रको तीसरे दरजे पर माना है । जब ऊपर की शर्तके अनुसार कन्यादान किया जाय उससे जो पुत्र पैदा होगा उसे पुत्रिकापुत्र और अन्य कन्याके पुत्रको दौहित्र कहते हैं । यद्यपि मनुने कुण्ड और गोलक पुत्रों की भी व्याख्या नहीं की है परन्तु इन दोनोंका समावेश गूढज और पौनर्भवमें क्रमसे होजाता है।
(१०) क्रीणीयाधस्त्व पत्यार्थ मातापित्रोर्यमन्तिकात्। सक्रीतक सुतस्तस्यसदृशोऽसदृशोऽपिवा । मनुह-१७४.(११) माता पितृभ्या मुत्सृष्टं तयोरन्यतरेणवा । यं पुत्रं परि गृह्णीया दपविद्धः सउच्यते । मनु ६-१७१. (१२) माता पितृ विहीनो यस्त्यक्तो वास्याद कारणात्। आत्मानं स्पर्शये द्यस्मै स्वयं दत्तस्तु सस्मृतः । मनु ६-१७७. (१३) अमृते जारजः कुण्डः (१४) मृते भर्तरि गोलकः ।
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१३४
पुत्र और पुत्रत्व
[तीसरा प्रकरण
दफा ८३ पुत्रिका पुत्र
इन चौदह प्रकारके पुत्रोंमेंसे दो बड़े आवश्यक और समझने योग्य हैं, पुत्रिका और कानीन । पुत्रिका पुत्र-वह लड़का है जो उस लड़की के गर्भसे पैदा हो, कि जिसका विवाह वसिष्ठ के इस श्लोकके अनुसार किया गया हो
अभ्रतृकां प्रदास्यामितुभ्यंकन्या मलंकृतां यस्यां यो जायते पुत्रः समपुत्रो भवेदिति ।
अर्थात् भाईसे रहित अलंकार युक्त कन्या को तुझे देताहूँ, इसमें जो पहला पुत्र होगा वह मेरा पुत्र होगा।यह लड़का औरस पुत्रके समान वसिष्ठने माना है अगर ज्यादा गौर करके देखा जाय तो इसके दो अर्थ होते हैं। पहला, उपरोक्त क्रसरके साथ कन्या देनेके बाद जो लड़का पैदा होगा वह पुत्रिका पुत्र है । दूसरा, जिस पुरुषके लड़का नहीं है वह अपनी लड़की को पुत्रवत् माने तो वह लड़की ही उसका लड़का है। ऐसी लड़कीके लड़के को पुत्रिका पुत्र कहते हैं। इस पिछले मतमें कुछ विरोध है। परन्तु यही दो भेद वसिष्ठजीने पुत्रिकापुत्र के सम्बन्ध में दिखाये हैं । यह पुत्र नाना का होता है।
मिस्टर मेन ने अपने हिन्दूलॉ के दफा ७६ में कहा है कि--"लड़की जायज़ तौर पर अपने पति को विवाही गई, लेकिन फिर भी उसका बेटा उस लड़की के बापका बेटा होगया, बशर्ते कि, बापके कोईबेटा न हो। उक्त लड़की कालड़का कुछ इस सबबसे अपनी माताके बापका लड़का नहीं हो गया, कि कन्यादान करते समय लड़कीके पतिसे करार होगया थाः बक्लि इस सबबसे होगया, कि अपुत्रपिता का इरादा ऐसा था, । वसिष्ठने वेदका प्रमाण दिया है कि-'जो लड़की बिना भाई की हो, वह फिर अपने खान्दान में पुत्रकी हैसियतसे बाप और दूसरे आदमियों के पास वापिस आती है और वापिस आकर वह उनका बेटा' होजाती है।
इससे मालूम होता है कि पुत्रहीन पिताने लड़कीपर अपना कबज़ा उस हद्दतक कायम रखा है कि अगर चाहे तो उसके लड़के को अपना लड़का बना ले अथवा ऐसे करारके साथ अपने कब्जे को रक्षित रखकर किसी के साथ शादी कर दे कि फिर यही परिणाम हो। .. मदरासमें मलाबारके नम्बूदरी ब्राह्मणों में इस क्रिस्मका रवाज अब तक मौजूद है । कहते हैं कि ये लोग लगभग पन्द्रहसौ वर्ष पहले पूर्वीय हिन्दुस्थान से आये, और अपने साथ हिन्दुओंके कानून का त्यक्त भाग लेते आये, जो 'हिन्दुओं में नामुनासिब समझा जाता था। जब कोई नाम्बूद्री कौमका पुरुष बिना मर्द औलाद के हो तो, वह अपनी सड़की की शादी ऊपर के कायदे के
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पुत्र 'और पुत्रोंके दरजे
अनुसार कर सकता है और इस क़िस्मकी शादीका नतीजा यह होता है. कि अगर उसकी लडकीसेलड़का पैदा हो तो, वह हर क़िस्म के मज़हबी कामके लिये मा बाप का बेटा अर्थात् नानाका बेटा होता है और अगर कोई लड़का न पैदा हो या इस क़िस्म की औलाद पैदा होने में कामयाबी न हो, तो उस लड़की के खानदानकी जायदाद, जिसकी लड़की मालिक थी पति नहीं पाता, बक्लि वह लड़की के बापके खानदान को वापिस हो जाती हैं। विशेष कर उस सूरत में कि जब शादीके साथ ही दामाद उचित रीति से उस जायदाद का निश्चित वारिस मुक़र्रर किया गया हो। इस विषय पर मदरास हाईकोर्ट में कई फैसले हो चुके हैं; देखो - कुमारिन बनाम नारायण 9 Mad. I. L. R. 260; 11 Mad. I. L. R. 1625 25 Mad. I. L. R. 662, 664 और देखो दफा ६०६.
दफा ८३-८४ ]
3
१३५
दफा ८४ कानीनपुत्र
कानीन वह लड़का है जो किसी कन्यासे विवाह संस्कार के पहले सवर्ण पुरुषसे पैदा हुआ हो । विवाहसंस्कार से यह मतलब है कि जब किसी लड़कीके, सिर्फ विवाह संस्कार हो जानेके बाद और पति का संग होनेके पहले लड़का पैदा होगा, तो वह लड़का उससे विवाह करने वाले पतिका होगा और अगर विवाह संस्कार होने के पहले लड़का पैदा हो गाया हो तो वह लड़की के बापका लड़का होगा । मगर शर्त यह है कि जब ऐसा लड़का पैदा हो गया हो और उसके बाद लड़की की शादी हो जाय, तो वह लड़का फिर उसके पति का हो जाता है । विवाह संस्कार होने के बाद पिताके घरमें जब लड़का पैदा होगा तो वह लड़का उपरोक्त पौनर्भव पुत्रकी हद्द में पहुँचता है; इसीलिये पति का होता है और पतिके साथ भाग पाता है। इसपर वसिष्ठका मत है, कि कुमारी अवस्था में जब लड़की से पुत्र, पिताके घर में पैदा होजाय और लड़कीका विवाह न हो तो वह लड़का नानाकै पुत्रके स्थानमें होकर नाना का पिण्डदान करता है और उसका उत्तराधिकारी होता है; अर्थात् नानाके धनमें भाग पाता है ।
सरकार और घारपुरे हिन्दूलॉके अनुसार भी यही बात पुष्ट होती है, कि पिताके घर रहनेवाली बिना व्याही कुमारी लड़की से पैदा हुए लड़केको कानीन पुत्र कहते हैं। अगर उस लड़की की शादी हो जाय, तो वह लड़का लड़की के पतिका होजाता है और शादी न होने पर लड़का, लड़की के बाप का होता है । पतिका लड़का होनेपर पति की जायदाद का और नानाका लड़का होनेपर नानाकी जायदाद का वारिस होता है या उसका, जिस की हिफ़ाज़त में वह (लड़की) रही हो। इसी तरह अगर कीई गर्भवती कन्या ( जो विवाह संस्कारसे पहले गर्भवती हो गई हो ) चाहे उसका गर्भ किसी
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पुत्र और पुत्रत्व
[तीसरा प्रकरण
को मालूम हुआ हो या न हुआ हो, विवाह संस्कार के बाद पुत्र पैदा करे, तो वह पुत्र उसके पतिका सहोदज पुत्र होगा और अपनी माता के पतिकी जायदादका उत्ताधिकारी होगा। विष्णु, वसिष्ठ, नारद, वीर मित्रोदय, आदिने भी यही कहा है । नन्द पंडितने भी ऐसाही माना है। दफा ८५ कृत्रिमपत्र
पुत्रिकापुत्र और कानीन पुत्रोंके अलावा कृत्रिम, दत्तक; और क्षेत्रज पुत्रोंके ऊपर भी दृष्टि डालना आवश्यक जान पड़ता है। कृत्रिमपुत्र--वसिष्ठने नहीं माना, किन्तु याज्ञवल्क्य, विष्णु, बौधायनने माना है । कृत्रिमपुत्रका समावेश अपविद्ध पुत्रके अंतर्मत होजाता है । मर्नु ने कहा है-"गुण दोषके विचार करनेमें चतुर पुरुष गुणयुक्त अपनी जातिके बालकको जब अपना पुत्र बना लेता है तब उसको कृत्रिम पुत्र कहते हैं । याज्ञवल्क्यके टीका मिताक्षा में कहा है, कि जिसको पुत्रके अभिलाषी मनुष्यने धन और क्षेत्र प्रादिके लोभ को दिखाकर स्वयं पुत्र करलिया हो, वह कृत्रिम पुत्र है । बौधायनने कृत्रिम पुत्रका एकही जातिका होना स्वीकार किया है। और देखो इस किताब दफा ३०५-३.१२. दफा ८६ दत्तकपुत्र ...अपनी जाति में माता पिता का दिया हुआ पुत्र दत्तकपुत्र कहलाता है। हम इस विषयमें आगे प्रकरण चारमें विस्तार से कहेंगे। यहां पर केवल यह समझनेके योग्य है, कि कृत्रिम और दत्तकमें क्या अन्तर है । मातापिता द्वारा (१) कानीनः पंचमः । या पितृगृहेऽसंस्कृताकामात्दुत्पादयेत् मातामहस्य पुत्रोभवतीत्याहुः । अथाप्युदाहरंति-- अप्रत्ता दुहिता यस्य पुत्रं विन्दत तुल्यतः। पुत्रो माता महस्तेन दद्यापिण्ड हरेद्धनम् । वसिष्ठ अ० १७१२२ से २६ १२) सदृशं तु प्रकुर्य्याचं गुणदोष विचक्षणम् । पुत्रं पुत्रगुणौर्युक्त सविज्ञेयश्चकृत्रिमः।मनु१६६ ( ३ )क्रीतश्वताभ्यां विक्रीतः कृत्रिमः स्यात्स्वयं कृतः। याज्ञवल्क्य २ अ० १३५ (४) सदृशं यं सकामं स्वयं कुर्यात्स कृत्रिमः। बौधायन २प्रश्न २ अ०२५
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दफा ८५-८७]
पुत्र और पुत्रोंक दरले
दिये हुये लड़केको दत्तक और खरीदे हुए या पाले हुए लड़के को कृत्रिम कहते हैं यह साधारण अर्थ है। कानूनमें इसी तरहपर कहा गया है । जिस लड़केके माता पिताने या उसने जिसका कि हक अक्षानबालक पर था, उसे बेच डाला हो, या उन लोगोंने दे डाला हो जो उस पर काबिज़ थे, तब वह कृत्रिमपुत्र होता है। दफा ८७ क्षेत्रजपुत्र और नियोग की पैदाइश
क्षेत्रजपुत्रके बारेमें स्मृतिकारोंका बहुत बड़ा विवाद है। इस किस्मके पुत्र का रवाज बहुत दिनोंसे चला आता है। बौधायन ने कहा है कि-जो बालक किसी ऐसी स्त्रीसे पैदा हुआ हो जिसका पति, बालक पैदा होनेसे पहले मरगया हो, या हिजड़ा हो गया हो, या किसी ऐसे रोग से युक्त हो जो अच्छा नहींहो सकता यानी असाध्यहो, या पतिकी आज्ञासे किसी दूसरे पुरुष से उत्पन्न किया गया हो. उसे क्षेत्रज कहते हैं। ऐसे बालक के दो बाप और दो गोत्र होते हैं। यहां पर गोत्र का अर्थ 'घराना' है । उस पुत्र को दोनों पिताओं की सम्पत्ति मिलती है और दोनोंका मृतक संस्कार आदि करने का अधिकार है। ऐसा ही घारपुरे हिन्दूला के चैप्टर ४ में माना गया है । और देखिये, याज्ञवल्क्यने कहा है कि, अपनी भार्या सगोत्र अथवा दसरे पुरुषसे जो पुत्र उत्पन्न होता है. वह क्षेत्रज कहलाता है । बृहद्विष्णुस्मृतिमें यों कहा है, कि नियोग धर्मसे अपने सपिण्ड अथवा उत्तम वर्ण द्वारा जो पुत्र दूसरे पुरुषकी स्त्रीमें पैदा हो उसे क्षेत्रज कहते हैं और इसका दूसरा दरजा होता है । बौधायन, याज्ञवल्क्य,और बृहद्विष्णुने यह नहींसाफ किया, कि किस वक्त क्षेत्रज पुत्र उत्पन्न होनेसे वह जायज़ माना जायगा। अगर औरस पुत्रके होनेपर
(१) मृतस्य प्रसूतोयः क्लीव व्याधितयोर्वाऽन्येनानुमते स्वक्षेत्र सक्षेत्रजः स एष दिपिता दिगोत्रश्च दियोरपि स्वधारिक्थभाग्भवति । बौधायनसश्न २ अ०२०१२१ (२) क्षेत्रजः क्षेत्रजातस्तु सगोत्रणेतरेणवा । याज्ञवल्क्य २०१३२ (३) नियुक्तायां सपिण्डेनोत्तमवर्णोनोत्पादितः क्षेत्रजो द्वितीयः। वृहद्विष्णु १५ अ०३
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पुत्र और पुत्रत्व
[ तीसरा प्रकरण
'क्षेत्रज पैदा हो तो उसका क्या असर होगा ? यह बात महर्षि वर्तिष्ठने साफकर दी है कि - औरस पुत्रके न होने पर नियोग द्वारा जो दूसरेकी स्त्रीके गर्भसे पुत्र पैदा होगा वही क्षेत्रज होगा । अर्थात् यदि औरस पुत्र मौजूद हो तो फिर क्षेत्रज नहीं पैदा किया जासकता । क्योंकि औरस पुत्रके होनेपर पिताका अधिकार धर्म शास्त्रकी दृष्टिसे चला जाता है । कारण कि पुत्रोत्पादन, धर्मकृत्य के पूरा होने और वंशके क़ायम रखनेके लिये ज़रूरी होता है । इस विषय में सभी स्मृतिकारोंका मत एक है कि औरस पुत्र न होनेपर क्षेत्रज का विधान है और वह सगोत्र तथा नज़दीकी सपिण्डकी मौजूदगी में दूरके पुरुष द्वारा न उत्पन्न किया जाय; देखो दफा २८२, २८३
१३८
दफा ८८ नियोगकी चाल मनुके समय में कमज़ोर हो चली थी
मेन हिन्दूलॉ की दफा ७०/७१/७२/७३ में विस्तृत वर्णन पुत्रके सम्बन्धमें किया गया है सारांश यह है कि, जैसे २ ज़माना बदलता गया, वैसाही परिवर्तन होता गया । यही कारण मालूम होता है कि स्मृतियोंमें कुछ कुछ फ़रक़ देख पड़ता है मनुके समय में इसकी प्रथा कमज़ोर हो गई थी । मनुं कहते "हैं, कि स्त्रीके अलङ्कारयुक्त होनेसे कांति बढ़ती है और अगर पति के सिवाय दूसरे पुरुष का उसमें संसर्ग न हो तो वह कुल शोभित होता है, और दूसरे पुरुषका संसर्ग होनेसे वह कुल दूषित होजाता है । स्त्री और पतिको सदा ऐसा प्रयत्न करना चाहिये जिससे, धर्म, अर्थ और काममें, आपसमें वाधा न पड़े; ऐसा होनेपर कहीं व्यभिचारयुक्त न होजाय। इस बातका प्रमाण मिलता है कि पहले से बहुत कुछ परिवर्तन हो गया था जब साधारतः श्रविभक्त परिवारकी तकसीम होगई, तब नियोग भी नापसन्द होगया । मृत पतिके सहोदर
( ४ ) स्वयमुत्पादितः स्वक्षेत्रे संस्कृतायां प्रथमः । १३ । - तदलाभेनियुक्ताय क्षेत्रजो द्वितीयः । वसिष्ठ १७०१४ (५) स्त्रियां तु रोचमानायां सर्वं तद्रोचते कुलम् । तस्यां त्वचमानायां सर्वमेव न रोचते । मनु ३ ० ६२ तथामित्यं यतेतायां स्त्रीपुंसौ तु कृतक्रियौ । यथा नाभिचरतांती वियुक्तावितरेतरम् । मनु ६ ० १०२
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दफा ८८]
पुत्र और पुत्रोंके दरज
के साथ विधवासे नियोग द्वारा पुत्र उत्पन्न करनेकी आशा मनुने उस हालत में दी है, कि जब लड़की का केवल वाग्दान हो चुका हो और पति सङ्ग होने के पहिले उसका (कन्याका) होने वाला पति मर गया हो ऐसी हालतमें कन्याके साथ नियोग विधिसे मगर विवाह करनेसे पूर्व जो संतित होगी वह वाग्दत्ता पुरुषकी अर्थात् पहिले जिस पुरुष के लिये लड़की देनेका इरादा था. उसकी होगी । यह रवाज दक्षिणी हिन्दुस्थानमें एक जंगली क़ौम में अब भी पाया जाता है और हिन्दुस्थान के दक्षिणी कनारा प्रांतकी तरफ 'गोदा' आदि क़ौम में प्रचलित है तथा उड़ीसा और पञ्जाबके 'जाट, खानदानों में मी माना जाता है । पञ्जाब में कुछ ब्राह्मणों और राजपूतों दोनोंमें है, और भी हिन्दुस्थानके कई राजपूत खानदान इस रवाजको मानते हैं । किंतु इस क़िस्मकी शादियां बहुत ही नीचे दरजेमें शुमार की जाती हैं। इसीसे ऐसी औलादको पूरा हक्न देनेका रवाज नहीं है । यह रवाज क़ानूनकी दृष्टिसे नामुनासिब जान पड़ता है और इस सबबसे भी नामुनासिब है कि पति के मरनेपर विधवा उसी मकान में अपने देवर के साथ रहेगी और देवर अपने मृत भाई के सब अधिकारोंको अपने
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बज़े में करलेगा । प्रथम तो बारिस की हैसियत से दूसरे परिवार में सबसे बड़े मालिककी हैसियतसे तीसरे धर्म कृत्यके अनुसार मालिक होजानेके सबब से जब देवर मृत भाईका श्राद्ध आदि कर्म करेगा तब विरोध नज़र आता है ।
पञ्जाब का रवाज -- पञ्जाबकी किसी किसी क़ौममें यह रवाज होगया है कि विधवा अपने पति के बड़े भाईके साथ शादी नहीं करती बल्कि उसके छोटे भाई के साथ शादी करती है । देखो - " पञ्जाब कस्टमरीलॉ, जिल्द २, पेज ६४
ऐसे रवाजके होनेसे श्रविभक्त हिन्दू खानदान में उसके विरुद्ध परिणाम पैदा होता है । इस अंशका विशेष विवरण "जगन्नाथ डाइजेस्ट, पेज ३२१ से ३२३ तथा जिल्द २ के पेज ४७६ में दिया गया है। स्मृतिकारोंने ज़मानेके अनुसार कई क़िस्मकी रायें दी हैं, मगर इस वक्त सिवाय चन्द क़ौमोंके और किसी में ऐसा रवाज नहीं है । क्षेत्रज पुत्र को किसीने इस आधार पर पति का माना है, कि स्त्री को क्षेत्र कहते हैं । उस क्षेत्रमें जो पुत्र पैदा होगा,
(१) यस्यामृयेतकन्यायावाचा सत्येकृते पतिः । तामनेन विधानेन निजोविन्देतदेवरः । मनु० ६ ० ६९ ॥ यथा विध्यधिगम्यैनां शुक्लवस्त्रां शुचिव्रताम् । मिथोभजेता प्रसवात्सकृत्सकृद्दतानृतौ । मनु ६ । ७०
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पुत्र और पुत्रत्व
[तीसरा प्रकरण
चाहे किसी तरह से हो, क्षेत्रके स्वामी का होगा । जैसे खेतमें बोया हुआ अन्न खेतके स्वामी का होता है, देखो दफा २८२, २८३ दफा ८९ आजकल औरस और दत्तक पुत्र माने जाते हैं
अब इस ज़मानेमें केवल औरस, और दत्तक पुत्र यही दो प्रकारके प्रायः माने जाते हैं। अन्य प्रकार के पुत्रोंकी किस्में नहीं मानी जातीं । मिथिला और उसके अंतर्गत जिलोंमें कृत्रिम पुत्रकाप्रचार है । यही चाल लंकाद्वीपके जफना नगर के निवासियों में है। मनु और याज्ञवल्क्यने कृत्रिमपुत्र माना है, मगर कई आचार्य इस पुत्र को नहीं मानते । कृत्रिमपुत्र का विशेष विवरण कृत्रिमदत्तक दफा ३०५--३१२ में देखो । विडो रिमेरेज एक्ट नं० १५ सन् १८५६ ई० के अनुसार विधवा के पुत्रों को वही हक़ होते हैं जो औरस के होते हैं। दफा ९० पुत्रोंके द्रजौका नक्शा
पुत्रों के दरजे आचार्यों ने एक से नहीं कायम किये । दरजेसे मतलब श्रेणी या वर्ग है । अङ्गरेज़ी में क्लास (Class) कहते हैं । स्मृतियोंके अनुसार नीचेका मक़शा देखो । इस नकशेमें दरजे इस तरहपर कायम किये गये हैं। देखो बौधायनस्मृति २ प्रश्न २ अध्याय ३६।३७ श्लोक
औरसं पुत्रिकांपुत्र क्षेत्रे दर्तकृत्रिमो गूढजं चापविद्धंच रिक्थभाजं प्रचक्षते । ३६ कानीनं च सहोदेंच क्रीतपौनर्भवं तथा स्वयंदत्तं निषादं च गोत्रभाजः प्रचक्षते । ३७
दूसरे पेजमें इन तेरह प्रकारके पुत्रोंके दरजोंका नकशा देखो और एक दूसरे से उनके दरजोंका मिलान करो।
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दफा ८६-६० ]
नम्बर
पुत्रोंके नाम
१ चौरस
२
क्षेत्रज
३ पुत्रिका
४
कानीन
पुत्र और पुत्रोंके दर
आचार्यों के मतानुसार पुत्रों के दर्जे
५ गूढज ६ पौनर्भव
७ सहोज
६ | दत्तक १० | कृत्रिम
११ क्रीत
१२ अपविद्ध
१३ स्वयंदत्त
मनु ६५८, १६०
x s two याज्ञवल्क्य २।१२८, १३६
बौधायन २/२/३६,३७
वसिष्ठ १७३९, ४०
१
~ + 9 x
२
५
निषाद और पारशव १२
३
२
४
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WM + 9 √ is
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२
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५ ५
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नारद १३ ४४, ४६ विष्णु १५/१, २७
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२
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कालिका पुराण
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१
२
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स्वीकार नहीं किया । किन्तु बिडोरिमेरेज एक्ट नं० से उत्पन्न पुत्रों के हक़ वही होते हैं जो औरस पुत्र के होते हैं ।
१
२
३
७ ५ ४
Xux 948
+ १२ १२ ११
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हारीत
देवल
५ ६ ६
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१०४ ३
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नोट -- इस नक्शे में कुण्ड, और गोलक नहीं दिखाये गये, १५ सन १८५६ ई०
+ | १२
१२ १० ६ ६ १० ८
२ ३ २
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१० ७
ε ८ ३ & ७ & ε ३
५
११ १० ६
६
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६ १२ ७ ११ ६ ८ ११ ६ ७
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+ इस निशान से समझना कि आचार्य ने उस पुत्रका हक कुछ नहीं माना ।
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क्योंकि इनका हक किसीने के अनुसार विधवा विवाह
ऊपरके नक़शेसे पुत्रों के दरजे इस तरहपर देखिये - पहले यों देखिये कि मनुने औरसको प्रथम मानकर उसकी अपेक्षा दूसरे पुत्रोंके दरजे माने हैं । जैसे क्षेत्रजपुत्र को दूसरा दरजा, और दत्तकको तीसरा देते हैं । अर्थात् दत्तक से क्षेत्रज, श्रेष्ठ माना । इसी तरह पर दरजोंके हिसाब से श्रेष्ठता और न्यूनता
मानी जाती है । जैसे जैसे दरजे बढ़ते जाते हैं, वैसे वैसे उस पुत्रका
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पुत्र और पुत्रत्व
[ तीसरा प्रकरण
दरजा पहिले वालोंके मुक़ाबिलेमें कम होता जाता है। जैसे दोके मुक़ाबिलेमें तीन का दरजा कम है, और तीनकी अपेक्षा चारका कम है इत्यादि - दूसरी तरह से पुत्रोंका दरजा इस तरहपर देखिये कि, समुदाय शक्तिले कौन पुत्र किस पुत्र से श्रेष्ठ माना गया, जैसे औरस पुत्र को सभीने सबसे प्रधान माना । क्षेत्रजको देखिये १ आचार्यांने दूसरा दरजा माना, तीन आचार्यों ने तीसरा दरजा और एकने आठवां दरजा क़ायम किया। तो इससे नतीजा यह निकलता है कि आचार्य जिस बातको कहते हैं, वह बात तीन और एक आचार्य से श्रेष्ठ है । इस लिये क्षेत्रजपुत्रका दूसरा दरजा मानना चाहिये, क्योंकि कसरत राय दूसरे दरजे की है। दत्तक पुत्रको देखिये -चार आचार्योंने उसका तीसरा दरजा, चारने नवां दरजा, दो ने सातवां दरजा, दो ने आठवां दरजा, एक ने चौथा दरजा माना है । नवें और तीसरे दरजे में बराबर के आचार्य हैं। यहां पर मनुने जिस पक्ष को स्वीकार किया हो, वह समानता होने पर भी श्रेष्ठ मानना पड़ेगा । मनु, गौतम, बृहस्पति, कालिका पुराण, प्रसिद्ध एवं अधिक माननीय आचार्य हैं । ६ दरजेके मानने बालोंके बचनों को उतना मान नहीं दिया गया है । इसलिये दत्तक पुत्र को तीसरा दरजा देना ही योग्य होगा । अब दत्तक और क्षेत्रजके विषय में मिलान करें तो क्षेत्रज, दत्तकसे श्रेष्ठ है क्योंकि उसका दरजा समुदाय शक्तिसे दूसरा और दत्तकका तीसरा है । इसी तरहपर सब पुत्रोंका विचार कर लेना चाहिये ।
ऊपरके पुत्रों के बारेमें विज्ञानेश्वर का मत याज्ञवल्क्य और मनु से मिलता है और जीमूतवाहनका मत देवल के मतसे । स्मृति चन्द्रिकाका मत मनु के मतसे मिलता है । मनुंने पुत्रिकापुत्रको नहीं माना । मगर उसे औरस के बराबर भाग में अधिकारी बताया है । मिताक्षराने औरस से उसका नीचा दरजा माना है । देखो -- मनुस्मृति ६-१३४.
पुत्रिकायां कृतायां तु यदि पुत्रोऽनुजायते समस्तत्र विभागास्याज्ज्येष्ठतानास्ति हि स्त्रिया ।
१४२
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दत्तक या गोद
चौथा प्रकरण
यह दत्तक विधान अदालती हालके फैसलों के आधार पर बड़े झगड़े का हो गया है । प्रथम प्रकरण में कहे हुए स्कूलों के सिद्धान्तों और स्कूलों में मान्य ग्रन्थों तथा अदालती फैसलों को ध्यान में रखकर इस प्रकरण को पढ़ना चाहिये । कई एक अदालती फैसलों के कारण दत्तक विषय में गड़बड़ पड़ गयी है । इसलिये पाठक पूर्वी पर प्रत्यक्ष विरोध देख पड़ने की दशा में आगे पीछे के विषय को सावधानीसे विचारकर पढ़ें । यह प्रकरण सात भाग में विभक्त है ( १ ) कौन दत्तक ले सकता है ? दफा ९१ - १५० (२) कौन दत्तक दे सकता है ? दफा १५१ - १७० ( ३ ) कौन दिया जा सकता है और कौन लिया जा सकता है ? दफा १७१ - २३७ ( ४ ) दत्तक सम्बन्धी आवश्यक धर्म कृत्य क्या है ? दफा २३८ - २४९ ( ५ ) दत्तक की शहादत कैसी होना चाहिये १ दफा २५० - २५५ ( ६ ) दत्तक लेनेका फल क्या है ? दफा २५६ – २८० (७) द्वा मुष्यायन दत्त और अन्य जरूरी बातें दफा २८१ - ३२१
( १ ) कौन दत्तक ले सकता है ?
दत्तक विषय का प्रथम भाग, चार हिस्सों में बटा हुआ है ( क ) दत्तक लेने के साधारण नियम ९१ – ११७ (ख) विधवा का दत्तक लेना ११८ - १३७ (ग) पतिकी आज्ञा से विधवा का दत्तक लेना १३८ - १४२ (घ) बिना आज्ञा पतिके विधवाका दत्तक लेना १४३ – १५०
(क) दत्तक लेने के साधारण नियम
दफा ९१ साधारण अर्थ दत्तक और उद्देश
"दत्तक" का अर्थ है दिया हुआ लड़का, जिसे गोदका लड़का कहते हैं। दन्तक लेनेका उद्देश केवल यह है कि पिण्डदान और जलदानकी क्रिया चलती रहे तथा दत्तक लेने वालेका नाम क़ायम रहे। देखो --
अपुत्रेण सुतः कार्यो यादृक् तादृक् प्रयत्नतः पिण्डोदक क्रियाहेतोर्नाम संकीर्तनायच ।
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दत्तक या गोद
[ चौथा प्रकरण
दत्तक का क़ानून शौनक, मनु ६-१६८, वसिष्ठ १५-१-१० याज्ञवल्क्य, मिताक्षरा, मयूख, दत्तक चन्द्रिका, दत्तक मीमांसा और कांस्तुभ आदि स्मृतियों के आधार पर बना है । वास्तव में देखिये तो यह सम्पूर्ण क़ानून शौनक के केवल एक वाक्यपर निर्मित हुआ है । वह वाक्य यह है 'पुत्रच्छायामः ' दत्तक के क़ानून के प्रामाणिक ग्रन्थोंका विस्तार से वर्णन गङ्गासहाय बनाम लेखराज सिंह 9 All. 288 में किया गया है । “पुत्रच्छायावः " इस सूत्रका विवरण दफा १७२ में देखो दत्तककी रसम अति प्राधीन है देखो दफा ६६.
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अग्रवालों में दत्तक लेना केवल सांसारिक कार्य है धार्मिक नहीं - श्र वाले ब्राह्मण प्रणाली के हिन्दुओं से मृतक संस्कार के सम्बन्ध में भिन्न मत रखते हैं । उनका यह भी मत है कि सन्तान से पूर्वजों की भविष्य अवस्था में कोई प्रभाव नहीं पड़ता और इसी लिये, उनके विचार में दत्तक लेना केवल एक प्रकारका सांसारिक प्रबन्ध है और इसका कोई विशेष तात्पर्य नहीं है । धनराज जौहरमल बनाम सोनी बाई 52 Cal. 482; 52 I. A. 231; (1925) M. W. N. 692; 87 I. C. 357; 27 Bom. L. R. 837; L. R. 6 P. C. 97; 23 A. L. J. 273; 2 O. W. N. 335; 21 A. L. R. 50; A. I. R. 1925 P C. 118; 49 M. L. J. 173 (P. C.)
दफा ९२ दत्तककी चाल किसकौम में कैसी है ?
गोद लेने की चाल पारसियों और मुसलमानोंमें नहीं है । यहूदियोंमें गोद की चाल किसी समय जारी थी, मगर अब नहीं रही। किंतु उन मुसलमानों मैं जो बहुत वर्षों से हिन्दुओं के, बीच में रहते आये हैं, अधिकतर पञ्जावी मुसलमानों में गोदकी चाल पाई जाती है । हिन्दुओं में प्राचीन काल से गोदकी रसम जारी है । हिन्दुओंके सिवाय भी गोदकी रसम अन्य देशवासियों में पहले थी और अब भी कहीं २ पाई जाती है । मध्य अफ्रीका और मेडागास्कर मैं दत्तकपुत्र बड़ा श्रेष्ठ माना जाता है । दत्तकपुत्र और असली लड़के में कुछ फरक नहीं समझा जाता। इसीसे दोनों का हक़ बराबर माना जाता है । गोद की रस्म पहले यूनान और रोम में भी थी । वहां गोद लेनेकी ऐसी चाल थी कि गोद लेनेवाले लड़के के मातापिता पहलेसे ही गोद लेनेवाले को अपना पुत्र दे दिया करते थे और पीछेसे गोद लेनेवाली माता प्रसूति बनकर प्रकट करती थी कि उसके लड़का पैदा हुआ है। तभीसे वह लड़का मातापिताका दत्तकपुत्र समझा जाता था । रूस साम्राज्यके सरकेशिया प्रांतमें दत्तककी चाल ऐसी थी कि गोड़ लेने वाली माता लड़के को अपने स्तन पिला कर दत्तक कर लेती थी । इससे प्रमाणितकर लिया जाता था कि वह लड़का गोद लेने वाले माता पिता का हो गया । गोद लेनेकी रसम न केवल हिन्दुओं में जारी श्री, बक्ति अनेक देशों में यह प्रथा प्रचलित थी । अब उसमें बहुत कुछ फेर बदल हो गया है। हिन्दुस्थानके अधिक भागमै यद्यपि
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दफा ६२-६५] दत्तक लेनेके साधारण नियम
mmmmmmmmmmmmmmmmmm दत्तक की चाल प्रचलित है परन्तु राजपूताने में और उसके आसपासके ज़िलों में बहुतायतसे देखी जाती है। दफा ९३ किन कौमोंमें दत्तककी चाल नहींहै
___ अगरेज़ों तथा पारसियोंमें गोदकी चाल नहीं है । पारसियोंमें प्रायः इंगलिश लॉ आजकल माना जाता है । मुसलमानोंके कानूनमें भी दत्तक नहीं माना गया; देखो--मोहम्मद अल्लाहदाद बनाम मोहम्मद इसमाईल 10 All. 289-340%; दफा ९४ दत्तक विषय सात भागोंमें विभक्त है
- दत्तकका विषय इस कानून में निम्न लिखित ७ भागों में विभक्त किया गया है--किन्तु दत्तक मीमांसा में सिर्फ ६ भागों में विभक्त है--
केनकीहक्कदाकस्मैकस्मात्काक्रियतांसुतः 'विविच्यनोत्तं यत्पूर्वस्तदशेषमिहोच्यते ।
दत्तक मीमांसाके अनुसार ६ भागों में दत्तक विषय समाप्त हो जाता है। किन्तु इस किताब में उक्त विषय सात भागों में समाप्त किया गया है। वे सात भाग यह हैं
(१) कौन दत्तक ले सकता है ? देखो दफा ११-१५० (२) कौन दत्तक दे सकता है ? देखो दफा १५१-१७० (३) कौन दिया जासकता है और कौन लिया जासकता है ? देखो
दफा १७१-२३७ (४) दत्तक सम्बन्धी आवश्यक धर्मकृत्य क्या हैं ? देखो दफा २३८--२४६ (५) दत्तककी शहादत कैसी होना चाहिये ? देखो दफा २५०-२५५ (६) दत्तक लेनेका फल क्या है ? देखो दफा २५६--२८०
(७) द्वामुष्यायन दत्तक और अन्य ज़रूरी बातें, देखो दफा २८१--३२१ दफा ९५ पुरुष खुद या उसकी विधवा दत्तक ले सकती है
पुरुष स्वयं अपने लिये या उसकी विधवा अपने पति के लिये दत्तक ले सकती है । दत्तक लेनेका मुख्य काम पति पत्नी दोनों में से किसी एकके द्वारा होना परमावश्यक है, देखो-लक्ष्मीबाई बनाम रामचन्द्र 22 Bom 590; असलमें गोद लेने का अधिकार पति को है। पतिके जीतेजी उसकी स्त्री गोद नहीं ले सकती। यदि पति गोद लेनेकी आज्ञा दे गया हो तो विधवा स्त्री भी
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१४६
दत्तक या गोद
[चौथा प्रकरण
गोद ले सकती है देखो-नारायन बनाम नाना 7 Bom H. R. 153; परन्तु किसी स्कूलके अन्तर्गत विधवा पतिकी आज्ञाके बिना भी गोद ले सकती है, जिसका वर्णन आगे किया गया है; देखो दफा १४३ से १५० ।
गोद चाहे पुरुष ले या उसकी तरफसे उसकी विधवा, मगर दोनों ही सूरतों में यह शर्त निहायत ज़रूरी है कि गोद लेनेके समय वह अपुत्री ( लावल्द ) हो और गोद का कोई लड़का पहले न लिया गया हो जो मौजूद हो । इस जगह पर 'अपुत्री, का अर्थ यह है “पुत्रपदं पुत्रपौत्र प्रपौत्रयोरप्युपलक्षणम्,, यानी पुत्र, पोत्र और प्रपौत्र ( लड़का, पोता, परपोता) तीनोंके न होनेपर अपुत्री कहा जाता है। अर्थात् पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र, इन तीनोंमेंसे किसी एककी तथा पहले लिये हुए किसी योग्य दत्तक पुत्रकी मौजूदगीमें दत्तक नहीं लिया जासकता कारण यह है कि वे सब धार्मिककृत्य पूरा कर सकते हैं लेकिन अगर परपोतेका लड़का या लड़कीका लड़का मौजूद हो तो गोद लिया जासकता है। इस विषय में मि० मेकनाटन और मेनकी यही राय है, देखो--एफ० मेकनाटन जिल्द १ पेज १५६; डबल्यू० मेकनाटन पेज ६६ ।
__ जिस किसी हिन्दू पुरुषके लड़का, पोता, परपोता पैदा हुए हों और गोद लेनेसे पहले मर चुके हों वह गो ले सकता है-जैचन्दराय बनाम भैरव चन्द्रराय Ben S. D. A. 1849 P. 461; रंगलालजी बनाम मुदीअप्पा 23 Bon, 296-303; 25 Bom. 306-311; 2 Bon.L.R.1101; दत्तक मीमांसा
और दत्तक चन्द्रिकाका भी यही मत है। "अपुत्रणत्येव कार्येण पुत्रोवातेनधिकारोबोधितः,
लेकिन अगर लड़के, पोते, परपोते, अपनी मानसिक अयोग्यताके सबबसे या किसी ऐसे सबबसे जिससे कि वे साधारण कुदरती कामोंके और किसी धार्मिक कृत्यके करनेके अयोग्य हैं तो गोद लिया जा सकता है । देखो मेकनाटन हिन्दू लॉ जिल्द २ पेज २००; स्ट्रेन्ज हिन्दू लॉ जिल्द १ पेज ७८ कोलब्रक्स् डाईजेस्ट जिल्द ३ पेज २६५.
यह वात मानी गई है, कि अगर किसीने कोई अयोग्य (नाजायज़) दत्तक ले लिया हो तो वह उस दत्तककी मौजूदगी में दूसरा जायज़ दत्तक ले सकता है; देखो-सरकारका लॉ आफ एडापशन पेज १८६.
___ जहांपर यह जायज़ माना जाता हो कि इकलौता लड़का गोद दिया जा सकता है, वहां पर अगर किसी ने अपना इकलौता लड़का दूसरेको दत्तक दे दिया हो तो वह भी गोद ले सकता है । देखो-राधामोहन बनाम हरदाई बीबी 22 I. A 113-142; 22 Mad 398; 21 All. 460; 3 C. W. N. 427-447; 1 Bom. L. R. 226.
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दफा ६६]
दत्तक लेनेके साधारण नियम
१४७
दफा ९६ पुत्र या दत्तक पुत्रकी आज्ञासे दूसरा दत्तक लेना
ऊपर यह बताया गया कि, 'अपुत्री, पुरुष दत्तक ले सकता है। परन्तु इस बातके विरुद्ध नन्द पंडितने वेदकी एक घटनापर आधार मानकर विवाद किया है। वह कहते हैं कि दत्तक असली लड़के की मौजूदगीमें भी लिया जासकता है। मगर शर्त यह है कि दत्तक लेनेकी मंजूरी और आज्ञा उस पुत्र से ले ली गई हो। अगर पुत्र दत्तक की प्राज्ञा न दे तो नहीं लिया जासकता । देखो दत्तक मीमांसा--
यत्तुविश्वामित्रादीनां पुत्रवतामपि देवतामपि देवराता. दि पुत्रपरिग्रहः लिंगदर्शनं तदपुत्रणैवेत्यादि श्रुति विरोधात्, स्वजाघनी भक्षणादिवन्नश्रुत्यनुमापकः। नचस्माताश्रुतिः श्रौतस्य लिंगस्य नवाधिकेति वाच्यम् नापुत्रस्य लोकोऽस्ति, इत्यादि प्रत्यक्ष श्रुत्युपष्ठम्भन तस्या एव बलवत्वात् । अथापि स्मार्तश्रुतितः श्रीतलिंग बलवत्व एव । श्रीमतामाग्रहाति शयश्चेत् तर्हि (पुत्रानुज्ञाया पुत्रवतोप्युस्तु पुत्रान्तर परिग्रहाधिकारः ) यन्नः पिता सञ्जानीते तस्मिंस्तिष्ठामहेवयम् । पुरस्तात् सर्वे कुर्महेत्वामन्वञ्चोवयं स्मााति श्रीतलिंगात् ।
भावार्थ--वेदमें 'शुन शेफ, की एक बात लिखी है। विश्वामित्रादिकों के पुत्रवान् होनेपर भी उन्होंने देवरातसे पुत्र गोद लिया, यद्यपि विश्वामित्र के सौ पुत्र मौजूद थे। प्रश्न यह है कि वचन तो ऐसा है कि जिसके पुत्र न हो वह गोद ले इसलिये विरोध पड़ता है । उत्तरमें कहा गया है कि जैसे अन्नके दुर्भिक्ष में क्षुधात विश्वामित्रने कुत्तेकीटांगका मांस भक्षण किया तो इससे कोई नियम नहीं हो सकता एवं मन्वादि स्मृतियां श्रुतिकी बाधक नहीं हो सकतीं। अगर बहुतही आवश्यकता हो तो पुत्रकी मंजूरी और उसकी आज्ञासे पितागोद ले सकता है। यह बात इसलिये मानी गई कि वेदमें एक वाक्य यह है कि अपने पिताकी जो इच्छा हो उसीका अनुगामी पुत्रको होना चाहिये । और देखो-सरकार लॉ आव एडाप्शन पेज १८०-१८१, यही
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१४८
दत्तक या गोद
[चौथा प्रकरण
सूरत उस समयभी होगी जब कोई पहले जायज़ दत्तक लिया गयाहो, उसकी भी मंजूरी और आज्ञासे दत्तक हो सकता है। देखो-रंगम्मा बनाम श्राचम्मा 4 M. I. A. 1 at P. 97; 7W. R. P. C. 57 at P. 59, 62.
इस किस्मके दत्तकके रवाजको बंगाल में जायज़ स्वीकार किया गया है। देखो-सुलकना बनाम रामदुलाल, फैसला सदर अदालत बंगाल 1 Vol. P. 324: 434 गौरीप्रसाद बनाम जमाला फैसला सदर अदालत बङ्गाल 2 Vol. P. 136-174
औरसपुत्र या दत्तकपुत्र की मंजूरी और आज्ञा से दत्तक लेना बहुत करके अयोग्य है और जब वे धार्मिक कृत्त्यके करनेकी योग्यता रखते हों तो सभ्य समाजके नियमके एकदम विरुद्ध है। ऐसे दत्तकका मानना या न मानना अदालतपर निर्भर है। परन्तु अब यह प्रथा बन्द सी हो गई है। दफा ९७ एक वक्त में केवल एकही लड़का गोद लिया जायगा
यह तय हो गया है कि कोई एक ही वक्तमें दो दत्तकपुत्र गोद नहीं ले सकता, चाहे उसे अधिकार भी हो कि वह जितने और जितनी दफा चाहे गोद ले, परन्तु यह अधिकार माना नहीं जायगा । देखो रंगाम्मा बनाम आचम्मा 4 Mad. I. A. I. S. C. 7; Suth ( P.C), 57; महेशनरायन बनाम तारकनाथ 20 I. A. 30; S. C. 20 Cal. 457; अक्षयचन्द्र बनाम कलायारहाजी 12 I. A. 198; 12 Cal. 406; दुर्गासुन्दरी बनाम सुरेन्द्र केशव 12 Cal. 686; 19 I. A. 108, S. C. 19 Cal. 513. अर्थात् एक वक्त में एक ही गोद होगा। दफा ९८ नाजायज़ दत्तक कभी जायज़ नहीं हो सकता
जहां पर गोद असली लड़के या दत्तक पुत्रकी मौजूदगी में नाजायज़ बताया गया है, वहां पर पहलेके दत्तक पुत्र या असली लड़केके बादमें मर जाने पर वह गोद जायज़ नहीं हो जायगा । दत्तक लेनेके समय जो दत्तक नाजायज़ हो वह पीछे होने वाली उन घटनाओंसे जायज़ नहीं हो सकता, जो यदि दत्तक लेनेके समय होती तो वह दत्तक जायज़ होजाता । जैसे किसीने एक लड़केकी मौजूदगीमें नाजायज़ गोद लिया उसके बाद पहिले वाला लड़का मरगया तो अब भी वह दत्तक जायज़ नहीं होगा । देखो--बसू बनाम बसू Mad. Dec. 1856. P.20.
जायज़ दत्तक कभी नाजायज़ नहीं हो सकता-दत्तक लेने के सम्बन्ध में, आत्मिक उन्नति के लिये दत्तक लिये जानेके औचित्य या संसारिक या व्यवहारिक अभिप्राय के लिये यानी किसी एक तात्पर्य के लिये दत्तक लिये जाने के सम्बन्ध में दत्तकका जायज़ होना या
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दफा ६७-१००]
दत्तक लेनेके साधारण नियम
किसी अन्य अभिप्राय के सम्बन्ध में जायज़ होगा, इस प्रकार के दो प्रमिप्रायों में कोई अन्तर नहीं है। हिन्दूलॉ के अनुसार यदि कोई दत्तक जायज़ है तो वह हर प्रकार के तात्पर्यों के लिये जायज़ है, और कोई व्यक्ति जो जायज़ तरीके पर गोद लिया जाता है गोद लेने के लिये हर श्रमिप्राय, आत्मिक, व्यवहारिक के लिये स्वाभाविक पुत्र हो जाता है। बसवन्तराव बनाम देवराव A. I. R. 1927 Nag. 2. दफा ९९ पुत्रके जातिच्युत होनेपर दत्तक
असली लड़का या दत्तकपुत्र अपनी जातिसे बारह हो जाय और धर्म कृत्यके पूरा करनेके योग्य न रहे तो गोद लेना जायज़ होगा मि० सदरलैन्ड और मेकनाटनकी यही राय है। बम्बई प्रांतमें इस बातपर अमल किया जाता है। देखो--Mad. 2 Vol. P. 200; Steel. P. 42-181.
यह सवाल बड़े झगड़ेका है, क्योंकि एक्ट नं० २१ सन १८५० के अनुसार कोई लड़को जिसने अपने धर्म या जातिको छोड़ दिया हो अपने हक़से अलहदा नहीं होता । इसलिये अपनी जातिके छोड़ देनेसे उसके अधिकार पर कोई लड़का गोद नहीं लिया जासकता । यदि ऐसा प्रश्न किसी मुकदमे में पैदा हो जाय तो हो सकता है कि अदालत ऐसा दत्तक मंजूर करनेसे इनकार कर दे और उसे दीवानी कोर्टसे जो अधिकार मिलने वाले हो न मिलें । मगर यह प्रश्न उस समय मज़बूत हो जायगा जब असली लड़का बिना औलादके मरजाय । देखो-- स्टेज हिन्दूला जिल्द १ पेज ७७, दिवेलियन हिन्दू लॉ दूसरा एडीशन पेज १००
उदाहरण-सेठ पीरूमलका लड़का बेधर्म होगया और धार्मिक क्रिया करनेका अधिकारी न रहा । तो सेठजी दूसरा लड़का गोद ले सकते हैं। किन्तु मुश्किल यह है कि ऐक्ट नं०२१सन१८५०ई०के अनुसार लड़कैका हिस्सा बेधर्म होनेसे नहीं चलागया ऐसी दशामें निश्चय नहीं कहा जासकता कि उसका परिणाम क्या होगा । मगर बम्बई प्रांतमें शुद्रोंमें बेधर्म हो जानेपर गोद . लेनेकी रस्म है। दफा १०० लड़केका लापता होजाना
जब किसीका लड़का लापता होगया हो और बहुत वर्षों तक उसकी कोई खबर न मिली हो, ऐसी सूरतमै यदि कोई लड़का दत्तक लियाजाय, तो वह दत्तक उस समयतक जायज़ नहीं माना जायगा, जबतक कि अदालतमें यह न साबित करदिया जाय, कि गोद लेनेके समय उसका लड़का मर गया था। देखो--रंगूवालाजी बनाम मोदी अप्पा 23 Bom. 296-303. धरूपनाथ बनाम गोबिंदसरन 8 All. 614-620 जन्मेजय मजूमदार बनाम केशवलाल
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दत्तक या गोद
[चौथा प्रकरण
घोष 2 B. L. R. A. C. 134. गुरुदासनाग बनाम मतीलाल नाग 6 B. L. R. App. 163 14 W. R. C. 468; परमेश्वरराय बनाम विश्वश्वरसिंह I. All. 53; 8 All. 614; 11 Bom. 433; और देखो सरकारका लॉ आव एडाप्शन पेज १६४, १६५. दफा १०१ जैनियों में हिन्दू लॉ माना जायगा
___ दत्तक लेनेवाला हिन्दू हो या कमसे कम ऐसा हो जिसने ज़ाहिरा हिन्दू धमको न त्यागा हो । बम्बई प्रांतमें जैनियोंके दत्तक लेनेका विचार भी साधारण हिन्दू लॉ के अनुसार होता है । जैनियोंकी विरासतका ( उत्तराधिकारका ) विचार भी हिन्दुला से होता है। देखो--भगवानदास बनाम राजमल 10 Bom. 241 H. C. R. आमावा बनाम महादेवा बड़ा 22 Bom. 416.
जीवनलाल बनाम कल्लूमल A. W. N. ( 1905 ) P. 235; इलाहाबाद हाईकोर्टने कहा कि, और ऐसी दूसरी कैदें केवल द्विज जातिसे सम्बन्ध रखती हैं । द्विजसे अर्थ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य है। किन्तु पुरबिया कुनबी जो अपनेको पुरबियाक्षत्री कहते हैं द्विजोंमें नहीं हैं। इसलिये जबकि उनमेसे एकने अपने पिताकी बहनके पोतेको दत्तक लिया तो वह नाजायज़ नहीं है। देखो-घारपुरे हिन्दू लॉ दूसरा एडीशनपेज ६६. दफा १०२ कारा या रंडुवा दत्तक ले सकता है
जिसका विवाह न हुआ हो अर्थात् क्वारा हो, और जिसकी स्त्री मरचुकी हो, यानी रंडवा हो, ये दोनों गोद ले सकते हैं । वह दत्तक जायज़ होगा। Suth. Syn. 664-771; 3 Dig. 252; 1 W. Macn. 66; 2 W.
Macn. 175; Bum. Sel. Rep. 202; नागप्पा बनाम सुब्बा शास्त्री . 2 Mad. H.. C. 367; 4 Mad. H. E, 270; 12 Bom. 329; 12 All. 328-352,
रडंवा का लिया हुमा गोद-रंडुवा द्वारा लिया हुआ दत्तक, अपने गोद लेने वाले पिता की पूर्व मृत पत्नी का वारिस नहीं होता। वेंकट सुब्बायर बनाम सुन्दरम् 85 I. C. 318; A. I. R. 1925 Mad. 340; 48 M. L.J. 126.
मद्रास प्रान्तके शूद्रोंमें दत्तक देखो-वीलिंगप्पा चेटी बनाम चोंगलमल, 20 L. W. 959; ( 1925) M. W. S. 268; 48 Mad. 407; 89 I. C. 928; A. I. R. 1925 Mad. 272, 47 M L. J. 776.
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दफा १०१-१०३]
दत्तक लेने के साधारण नियम
१५१
दफा १०३ अंगभंग पुरुष दत्तक ले सकता है
उत्तराधिकारसेच्युत पुरुष दत्तक ले सकता है परन्तु उस दत्तकका अधिकार अपने दत्तकपितासे अधिक न होगा । वह दत्तकपुत्र केवल रोटी, कपड़ा पाने का अधिकारी होगा । जहांपर कोई आदमी अपनी शारीरिक अयोग्यताके कारण वारिस होने की योग्यता न रखता हो, जैसे, अंधा; लूला, लंगड़ा, पागल, गूंगा इत्यादि, और वह किसी लड़केको गोदले, तोले सकता है मगर उस दत्तकपुत्रका हक़ सिर्फ रोटी कपड़ा पानेका रहेगा। फ़ैसला अदालत मदरास 1857 P. 210 मि० सदर लैण्डकी यह राय है कि दत्तक तो जायज़ होगा, मगर उसे दत्तक पिताकी खुद कमाई जायदाद या जो अलहदा हो मिलेगी।
· मगर मि० मेकनाटनने इसमें एक फरक निकालकर दो मुक़द्दमोंका ज़िकर किया है, जिनमें कहा गया है कि बंगाल के पंडितों ने यह राय दी है कि व्यक्तिगत अयोग्यतावाले पुरुषके गोद लेने का आधार इस बात पर निर्भर था, कि वह पहिले प्रायश्चित्त करके अपनेको उस योग्य बनाले, पीछे गोदले तो वह गोद जायज़ समझा जायगा; यानी प्रायश्चित्तके बिना गोद नहीं लेसकता । देखो-मेकनाटन हिन्दुलॉ जिल्द २ पेज २०१: मिताक्षरा २-१०, ११ महन्त भगवानदास बनाम महन्त रघुनन्दन 22. I. A. 94; S. C. 22 Cal.843.
__ यह राय इस युक्तिपर निर्भर थी, कि जबतक प्रायश्चित्त उसने नहीं किया था तबतक वह इस योग्य नहीं था कि मज़हबी धार्मिक कृत्योंको पूरा करसके । बिल्कुल इसी उद्देश्यके अनुसार बङ्गाल हाईकोर्टने फैसला किया कि जब कोई विधवा अपने धर्म से च्युत रही हो और वह गोद ले, तो वह नाजायज़ होगा । क्योंकि जिस हैसियतमें उसने गोद लिया है वह हैसियत किसी धर्मकृत्यके पूरा करनेके योग्य न थी । देखो-श्यामलाल बनाम सौदामिनी 5 B. L. R. 362.
__यह बहस बम्बई हाईकोर्टमें भी एक मुक़द्दमेमें की गई कि विधवाका गोद लेना नाजायज़ है, जिसने अपना शिर न मुड़ाया हो। यह साबित किया गया था कि उसने वह ज़रूरी प्रायश्चित्त करदिये थे जो गोद लेने के समय होना चाहिये परन्तु अदालतने इस मामलेमें बहस करनेकी आशा नहीं दी। देखो-रावजी विनायक बनाम लक्ष्मीबाई 11 Bom. 381-392; लक्ष्मीबाई बनाम रामचन्द्र 22 Bom. 590; W. R. 998; यह दोनों केस एक दूसरेके विरुद्ध हैं -पहले केसमें माना गया कि शिर मुण्डन करानेके बाद दत्तक लेना जायज़ होगा। दूसरेमें यह भी नहीं माना गया । कहा गया कि प्रायश्चित्त, धार्मिक कृत्य नहीं है-दफा १०६ भी देखो।
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दत्तक या गोद
[चौथा प्रकरण
दफा १०४ दत्तकके समय इन बातोंका ध्यान रखना चाहिये
गोद लेने के समय प्रायः इन मोटी बातोंपर अवश्य ध्यान रखना चाहिये क्योंकि इनके न होनेपर दत्तक नाजायज़ हो सकता है:(१) गोद लेनेवालेके गोद लेते समय कोई बेटा, पोता, परपोता,
या दत्तकपुत्र मौजूद न हो, देखो दफा ६५ (२) होश हवास ठीक हो 10 M. I. A. 429. (३) विधिपूर्वक दत्तक लिया गया हो। द्विज होनेपर दत्तक-हवन
किया हो; देखो दफा २३८ से २४६ (४) जिसने गोद लिया हो हिन्दू हो. देखो दफा १२ (५) गोद लेने और देनेवाला गोद लेने और देनेका अधिकारी हो; देखो दफा ६५-१७०
. (६) गोद लिया जाने वाला लड़का अयोग्य न हो । देखो दफा
१७१-२३७ (७) एकही गोत्र में गोद लिया गया हो और एक ही जातिमें । देखो
दफा १७२-१७५ (८) एकसाथ दो लड़के गोद न लिये गये हों । देखो दफा ६७ (६) और दूसरी शर्ते जो विशेष कही गई हैं उनका पूरा ध्यान
रखा गया हो। दफा १०५ गोद लेनेके समय जिसकी स्त्री गर्भवती हो
जिस आदमीकी स्त्री गर्भवती हो उसे दत्तक लेनेका अधिकार है । एक पहिलेके मुक़द्दमे में सदर अदालत मदरासने यह माना था कि जो दत्तक गोद लेनेवाले पुरुषकी स्त्रीके गर्भावस्थामें लिया गया हो वह नाजायज़ होगा। वह इस सबबसे नहीं नाजायज़ होगा कि बादको उसके लड़का पैदा होजाय जिसकी बाबत अभी कुछ नहीं मालूम है, बक्लि इस सबबसे नाजायज़ हो जायगा कि गोद लेनेका अधिकार उस समय पैदा होता है, जब पुरुष असली औलादके पैदा होनेसे नाउम्मैद होगया हो; देखो-नारायण बनाम वेदाचल Mad. Dee. 1860 P. 97. Steel. 43.
अगर यह सिद्धात सदर अदालत मदरासका सही माना जाय तो अत्यन्त बृद्धपुरुष अथवा मृत्युके मुखमें जानेवाले पुरुषोंतकको गोद लेनेसे रोकेगा, क्योंकि कभी कभी उनके भी पुत्र होजाते हैं और यह सिद्धांत आगे चलकर बिल्कुल खिलाफ़ पड़ेगा जहांपर असली लड़का और गोदके लड़केके बीज जायदादका हिस्सा करार पाया है इत्यादि । इसलिये अब यह माना
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दफा १०४ - १०८ ]
दत्तक लेने के साधारण नियम
जाता है कि जिस आदमीकी स्त्री दत्तक लेने के समय गर्भवती हो वह दशक ले सकता है; नागभूषण बनाम शेशम्मा 3 Mad 180; हनुमन्त रामचन्द्र नाम भीमाचार्य 12 Bom. 105; दौलतराम बनाम रामलाल 29 All 310.
१५३
furatsieoमें एक मुक़द्दमे में यह बहस पैदा हुई और ज़ाहिरा स्वीकार भी की गई थी कि गोद लेनेवालेने अपवित्रताकी दशामें गोद लिया है तो वह गोद नाजायज़ होगा । मगर इस खास बिनापर कोई फ़ैसला नहीं किया गया । सबब यह था कि यह विद्यार्थ्य विषय जिन बातोंसे पैदा होता था अदालतने अनावश्यक समझा । अब यह ज़रूरी होगा कि जब कोई ऐसा मुक़दमा पैदा हो तो पहलेहीसे निश्चित करलेना योग्य होगा कि कौनसी रसम या कृत्य गोद लेने के समय करना चाहिये या होना चाहिये और कौन उसमें शरीक हो सकता है। रामलिंग बनाम सदाशिव 9 Mad. I. A. 506. S. c. 1 Suth; (P. C. ) 25 और देखो मेन हिन्दूलॉ, ७ वां एडीशन चैप्टर १६ ।
दफा १०६ शूद्रों में बिना प्रायश्चित्त के दत्तक लेना जायज़ है
एक मुकद्दमें में एक शूद्रने बिना प्रायश्चित्त के ( जो द्विजों के लिये ज़रूरी है ) गोद लिया अदालतने उसे इस आधारपर मंजूर किया कि शूद्रोंमें कोई मज़हबी रस्में गोद लेनेके लिये आवश्यक नहीं हैं-सुरेन्द्रमोहन बनाम शिरोमनी 28 Cal. I71; 21 Bom. L. R. 427. 434.
शूद्र जाति में गैर क़ानूनी पुत्रके होनेसे दत्तक लेने में कोई रुकावट नहीं पड़ती महाराजा कोल्हापुर बनाम सुन्दरम् अय्यर 48 Mad. 1; A. I. R. 1925 Mad. 497.
दफा १०७ उत्तराधिकार से च्युत पुरुष दत्तक ले सकता है
उत्तराधिकारसे च्युत हुआ आदमी दत्तक तो ले सकता है मगर दत्तक पुत्र को दत्तक पिताले ज्यादा अधिकार न होगा। देखो दफा ६५३.
दफा १०८ कोढ़ीका गोद लेना
कोढ़ीका उत्तराधिकारी होना अथवा न होना उसके पैतृक क्रियाओंके करनेकी योग्यता पर निर्भर है- देखो भगवान रामानुज बनाम रामप्रकरण 22 Cal. 843 (P. C ) इसके बादके एक मुक़द्दमेमें यह माना गया कि शूद्र कोढ़ी दत्तक ले सकता है । वह कोढ़ी दत्तक लेनेके योग्य नहीं था, अथवा उसका रोग असाध्य था, उससे घृणा की जाती थी, जबतक इन बातोंका प्रमाण न हो तो उस सूरत में कोढ़ी का दत्तक लेना जायज़ होगा; देखोशिबकुमारी बम्बा बनाम अनन्तमेलिया 28 Cal. 168.
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दत्तक या गोद
[चौथा प्रकरण
दफा १०९ पुत्रके अयोग्य होनेपर दनक लेना
जिस आदमीका पुत्र किसी कारणसे अयोग्य हो वह आदमी दत्तक ले सकता है या नहीं ? जब यह प्रश्न उपस्थित होगा तब यहभी प्रश्न हो सकता है कि अयोग्य पतिकी स्त्री पतिके जीवन काल में या पतिके मरने के बाद गोद ले सकती है या नहीं। यह प्रश्न और भी जटिल हो जाय, जब इस बात पर भी विचार किया जाय कि वह आदमी अयोग्य ही पैदा हुआ था या पैदा होने के बाद अयोग्य हो गया । इन सब प्रश्नोंका उत्तर संक्षेप से दफा १०३, १०७, १०८ और ६५३ में दिया गया है, कि अयोग्य पुरुष दत्तक ले सकता है मगर उस दत्तकका हक़ बापसे ज्यादा न होगा, सिर्फ रोटी कपड़ा पानेका अधिकारी होगा और जायदादका भीजो गोद लेनेवाले बापने अलहदा पैदाकी हो या प्राप्त की हो। यह विषय उत्तराधिकारका है इसलिये यहांपर छोड़कर आगे नवे प्रकरणमें 'उत्तराधिकारसे वंचित वारिस' के विषयमें कहा गया है।
अगर लड़का हमेशाके लिये धार्मिक कृत्योंके पूराकरनेके अयोग्य ही पैदा हुआ हो, यानी वह पैदाइशी अंधा, बहरा, गूंगा, नामर्द, लंगड़ा, घणितकुष्ठी, पागल, और दीवाना, विक्षिप्त हो या किसी दूसरे कारणोंसे जिनसे कि वह उत्तराधिकार पानेके अयोग्य हो तो ऐसी सूरतमें यह समझा जायगा कि वह पुत्र धार्मिक कामोंके मतलब के लिये जीवित नहीं है । स्ट्रेन्ज हिन्दूला जिल्द १ पेज ७७ सरकारका लॉ आव एडाप्शन पेज १६६, मेकनाटन हिन्दूलॉ जिल्द १ पेज ६६. दफा ११० पुत्रके संसार त्याग देनेपर दत्तक
जब कि पुत्र संसार और धन दोनोंको पूर्णरूपसे त्याग दे और संन्यासी या साधु या फकीर होजाय, तो उसके जीवनकालमें भी पिता दत्तक ले सकता है; देखो-पञ्जाब रिकर्ड 1875 S.S. 144; परन्तु आजकलके वैरागियों से यह लागू नहीं होगा, क्योंकि वे त्यागी साधु नहीं हैं-तिलकचन्द बनाम श्यामाचरण 1864; 1 W. R.C. R. 209; जगन्नाथपाल बनाम विद्यानन्द 1868,1 B. L. R. A. C..114; 10 W. R. C. R. 172, खुदी रामचरणजी बनाम रुक्मिणी वैष्णवी 1871; 15 W. R. C. R. 197. . इस प्रश्नपर एक्ट नं० २१ सन् १८५० का असर पड़ता है सही परन्तु यह प्रश्न जायदाद या हक्रकी ज़बती का या केवल 'संसार त्याग देने' या धर्म या जातिसे निकाल दिये जाने के कारण विरासत के हक के बिगड़ जानेका नहीं है। दफा १११ अज्ञान (नाबालिग ) का गोद लेना
राजेन्द्रनारायण बनाम शारदा 16 Suth W. R. 548 में मित्र जजने माना है कि नाबालिग दत्तक ले सकता है परन्तु नाबालिगका दत्तक लेना उस
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दफा १०६ - १११]
दत्तक लेने के साधारण नियम
समय जायज़ माना जायगा जब वह विवेक अवस्था को पहुँच गया हो - ( समझदार होगया हो ) 1 Cal 289; 15 Bom. 565; बंगालमें नाबालिग कीविधवा भी दत्तकले सकती है बशर्ते कि उसका पति अपने जीते जी श्राज्ञा दे गया हो ।
१५५
( १ ) बंगाल - यदि अज्ञान पुरुष बङ्गालमें कोर्ट आफ वाईसकी निगरानी में हो तो बिना लिखी हुई मंजूरी जनाब लेफ्टनेन्ट गवर्नरसाहब बहादुर के गोद नहीं ले सकता, देखो - एक्ट नं० ७ सन् १९०५ई की दफा ३; एक्ट नं० ६ सन १८८६ ई० की दफा ६१ ( B. C. )
इस विषयपर मि० मेनका कहना है कि दत्तककी हैसियतका आईन या अज्ञानको गोद लेनेका अधिकार देना साफ तौरसे तय नहीं हुआ है । बहुतसे एक्ट जो कोर्ट श्रफ़ वार्डससे सम्बन्ध रखते हैं उनमें बिना रज़ामंदी कोर्टके अयोग्य जिमीदार अज्ञान को गोद लेनेका अधिकार नहीं दिया गयादेखो बङ्गाल रेगुलेशन No 1 of 1893 S. S. 33; No. 42 of 1803. S. S. 37; Mad. Regu. No. 5 of 1804 S.S. 25; Act. 35 of 1858 S. S. 74. Act.No. 4 of 1870S.S.74; Act. 9 of 1889. S. S. 61 लेकिन यह शर्तें उस समय तक लागू नहीं पड़ेंगी जब तक कोर्ट आ वार्डसका पूरा क़ब्ज़ा न होजाय, और जब होजाता है तो गोद लेनेके अधिकारको मना करता है और अगर कोई इन शर्तोंको तोड़कर गोद लेलेवे तो वह दत्तक नाजायज़ होगा; देखो जमुना बनाम रामासुन्दरी 3 I A 72; 1 Cal. 289; नीलकंठ बनाम आनन्दमयी S. D. 1855; 218 आनन्द मयी बनाय शिवचन्द 9M. I. A. 287; S. C. 2 Suth. ( P. C ) 19; और देखो Pontifox. j वेनाप्रसाद बनाम मुन्शीसेद 25 Suth 192-193; यह स्वीकार किया गया है कि बम्बईके एक्ट नं० २ सन् १८६३ ई० की दफा ६ का सम्बन्ध सिर्फ़ गवर्नमेन्ट और उस आदमी बीच है जो गोद होनेका वादी हो, देखो - वासुदेवानन्द बनाम रामकृष्ण
2 Bom. 529.
(२) नाबालिग्रीकी मियाद - एक्ट नं० १ सन् १८७५ई० की दफा ३ के अनुसार अब हिन्दुओंमें नाबालिग्री (अज्ञानता ) पूरे अठारह वर्षतक रहती है: सिवाय उन सूरतोंके जहांपर कोर्ट श्राफ़ जस्टिस् से वली ( रक्षक) नियुक्त कियागया हो या अज्ञान कोर्ट श्राफ वार्डस्के ताबे हो। ऐसी दशामें अज्ञानता इक्कीस वर्षकी उमर समाप्त होनेतक रहती है । मगर बम्बई और बङ्गालमें यह क़ायदा नहीं मानाजाता । वहांपर अज्ञान को गोद लेने और गोद लेने के लिये अधिकार होनेकी बात जायज़ मानी जाती है, बशर्ते कि वह समझदार होगया हो । अर्थात अज्ञान को कोर्ट आफ् बार्डस् के ताबे में रहने पर भी गोद लेने का अधिकार दिया गया हो इस रायको जुडीशल कमेटी ने भी पसन्द किया ।
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दत्तक या गोद
[चौथा प्रकरण
(३) जस्टिस् मित्र अजकी राय-अशानके अधिकारके सम्बन्धमें जस्टिस मित्र जजने कहा कि--"अज्ञानका प्रत्येक काम बेकार नहीं है। केवल वह काम जो उसके फायदेको नुकसान पहुँचानेवाले हों सम्हालनेके योग्य हैं। क्योंकि अशान जब बालिग होजायगा तब उनपर आपत्ति कर सकता है लेकिन किसी बेऔलाद हिन्दुके गोदलेनेसे कोई नुकसान नहीं पहुँच सकता। कारणयह है कि हिन्दूधर्म शास्त्रानुसार धार्मिक और मज़हबी कृत्यके प्रचलित रहनेके लिये अज्ञान पाबंद कियागया है और जब वह बालिग होगा तब उसे अपनी धार्मिक और मज़हबी रीतियोंके पूरा करनेका ज़िम्मेदार होना पड़ेगा और उसपर फ़र्ज़ होगा कि उन्हें पूरा करे; ऐसी सूरतमें जब कोई गोद लिया गया हो उसे हम नाजायज़ नहीं मान सकते, चाहे गोद लेनेवाला बाप अदालतकी निगाहमें नाबालिरा हो" देखो--15 Suth. 548; 15 Bom.565; 3I. A. 83, S. C; 1 Cal. 289; मि० प्यारे बनाम मि० हरबंशी 19 Suth 127; और देखो भट्टाचार्य हिन्दूला दूसरा एडीशन पेज ३४६; रामकृष्ण हिन्दूला सन् १९११ पेज ८९; इनकी यह राय है कि जब अशान समझदार होगया हो तो गोद ले सकता है।
(४) मदरास-मदरासमें जब कोई अज्ञान कोर्ट आफ वार्डस्के ताबे हो उस सूरतमें वह बिना मञ्जूरी लिखी हुई या ज़बानी कोर्ट आफ्वार्डस्के गोद नहीं ले सकता-एक्ट नं० १ सन् १६०२ की दफा ३४. सीव ।
(५) मध्यप्रदेश-मध्यप्रदेशमें कोर्ट आफ पाईसका कोई नाबालिग्न बिना मंजूरी लिखी या ज़बानी जनाब चीफकमिश्नर साहबके गोद नहीं ले सकता-एक्ट नं १७ सन् १८८५ की दफा २४; यदि गोदकेबाद मंजूरी ली गई हो तो भी जायज़ है।
(६) संयुक्तप्रांत-संयुक्तप्रांतमें जब कोई नाबालिग कोर्ट आफ वार्ड्स के सायेमें हो तो वह कोर्ट आफ वार्ड्स की लिखी या ज़बानी मंजूरीके बिना गोद नहीं ले सकता । मगर यदि गोद लेना किसी ऐसे कानूनके विरुद्ध न हो को उस नावालिरासे लागू होता हो, और उस दत्तक लेनेसे जायदाद को या उस नाबालिसके कुटुम्बकी मर्यादाका नुकसान न होता हो, तो कोर्ट आफ पाई गोद लेने की मंजूरी देनेसे इनकार नहीं कर सकता।।
यह ध्यान रहे कि जिस नाबालिग ने (या उसकी तरफसे ) अपनी दरख्वास्तके द्वारा जायदाद कोर्ट आफ वाईसके हवाले की हो तो ऊपरकी क्रैदें कोईभी लागू नहीं होगी। Act. No. 3 N. W. P. of 1899. S. S.34
(७) पंजाब--पंजाबमें लिखी हुई कोर्ट आफ वाईसकी मंजूरी बिना दराक नहीं हो सकता Act. No. 2 P.C. 1903. S. S. 15.
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दफा ११२-११३]
दत्तक लेनेके साधारण नियम
१५७
(८) बम्बई और अजमेर - बम्बई और अजमेरके कोर्ट आफ वाईस के कानूनों में इस विषयकी कोई व्यवस्था नहीं रखी गई है, Bom Act 1 of 1905; अजमेर Regulation 1 of 1888. दफा ११२ पतिकी जिंदगी में पत्नीका दत्तक लेना
पतिके धार्मिक कृत्य पूरा करने और उसका नाम चलाने के लिये गोंद लेना कहा गया है--
अपुत्रेणसुतः कार्यों यादृक् तादृक् प्रयत्नतः पिण्डोदकक्रिया हेतो नाम संकीर्तनायच ।
पिण्डदानऔर तर्पणकी क्रिया करनेका अधिकार पुरुषको है और जो गोद इस मतलब से लिया जायगा वह पतिकी बिना मरज़ी नहीं लिया जा सकता, क्योंकि गोद पतिके लाभके लियेही लिया जाता है । इस लिये पतिको अधिकार है कि बिना मञ्जूरी स्त्रीके गोदले सकता है,चाहे उसकी स्त्री राजी भी न हो । इसी आधारपर स्त्री अपने पतिके सिवाय दूसरे के लिये गोद नहीं ले सकती है। देखो--रङ्गम्मा बनाम आचम्मा 4 M. I. A. 27 S. C.7 Suth. (P.C.) 57.
मिथिला स्कूलमें स्त्रीऋत्रिम दत्तकले सकती है। देखो दफा ३०५-३१२.
नरेन्द्रनाथ वैणी बनाम दीनानाथ दास 36 Cal.824; में माना गया कि कोई हिन्दू स्त्री किसी हालत में सिर्फ अपने लिये दत्तक नहीं ले सकती, यह राय वसिष्ठके इस वाक्यपर निर्भर है--
नस्त्रीपुत्रं दद्यात् प्रति गृह्णीयादा अन्यत्रनुज्ञानाद्भर्तुः
अपने पतिकी आज्ञा बिना स्त्री कोई पुत्रको दे या ले नहीं सकती, इस काक्यका अर्थ प्रत्येक स्कूलों में भिन्न भिन्न किया गया है। देखो दफा ११८. दफा ११३ दत्तकके बदले में रुपया दिये जानेका असर
दत्तक पुत्रके बदले में दत्तक पुत्रके असली पिता या माताको कोई रकम देने या देनेका वायदा करनेसे दत्तक नाजायज़ नहीं होगा, जो और सब तरह से योग्य हो; देखो-मुरू गप्पा चही बनाम नागप्पा ची 29 Mad. 161. बम्बई और मदरास प्रांत में यदि विधवाने उचित सपिण्डकी मजूरी, रुपया देकर प्राप्तकी हो तो इससे गोद नाजायज़ नहीं होगा। 36 Mad. 19; 30 Mad. 405 ( 1907)
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१५८
दत्तक या गोद
चौथा प्रकरण
दफा ११४ 'विभूतिबिदा' कृत्य करके गोद लेना
जिस वैश्यने विभूति बिदा नामक कृत्य किया हो वह दत्तक ले सकता है। अगर कोई रसम इसके विरुद्ध बताई जाती होतो उसे पूर्ण रूपसे साबित होना चाहिये; म्हलसा बाई बनाम विट्ठोबा 7 Bom. H. C. App. 26. दफा ११५ चुदा सामागमटे गरासियोंमें दत्तक
. चुदा सामागमेटे गरासिया क़ौमका कीई भी आदमी दत्तक ले सकता है; बीरा बाई बनाम बाई हीराबा 5 Bom. L. R 234; 30 I. A. 234; 27 Bom. 492. दफा ११६ रंडियों और नाचने गाने वाली औरतोंका गोद लेना
रंडियोंका यानाचने गानेका पेशा करनेवाली औरतोंका लड़की दत्तकलेना सर्वथा नाजायज़ है। कलकत्ता और बम्बई हाईकोर्टके अनुसार यह माना गया कि नायकिनका अथवा नाचने वाली औरतोंका लड़की गोद लेना नाजायज़ है, चाहे कोई ऐसा रवाज भी साबित किया जाता हो; क्योंकि सभ्यता और सादाचारके यह विरुद्ध है, यही बात इलाहाबाद हाईकोर्टने भी मानी है। मथुरा बनाम ईशू 4 Bom. 545; हीरा बनाम राधा ( 1913)37 Bom. 117; 4 Bom L. R. 116; हेमकुंवर बनाम हंसकुंवर 2 Morl. Dig. 133; मनजम्मा बनाम शेषगिरि राव 26 Bom. 491; इस आखिरीके मुकद्दमे में गोद एक रण्डी ने लिया था।
रंडियां आम तौर से अपने मिलने वालोंके द्वारा और स्वयं कोशिश करके लड़कियां भगा लाती हैं । कुछ दिन पीछे वे उस लड़कीको अपने किसी रिश्तेदार की लड़की जाहिर करतीं या इसी तरहकी दूसरी बातें कहती हैं। लड़कियोंको वे गोद लेने की गरज से नहीं लातीं बक्लि उनसे अपना पेशा करानेके मतलब से लाती हैं और यह स्पष्ट रहता है कि वे उस लड़की द्वारा आमदनीसे अपना ज़ाती लाभ उठाती हैं। जहांपर कि यह रवाज किसी भंशमें ऐसी स्वीकार की गयी हो वहांपर किसी रण्डीका इस तरह पर लड़कीके गोद लेनेकी बात कहने पर भागे पीछे की बहुत मज़बूत शहादत द्वारा जांच की जायगी। रंडियोंका स्वभाव ज्यादा तर रुपया कमाना माना जाता है। यदि वे धनवान हैं और अब वे अपना निन्दनीय पेशाभी नहीं करतीं तो भी ऐसे गोद की बाड़में धन कमाना उस लड़कीके द्वारा छिपा रहता है अगर किसी रण्डी ने अपना पेशा छोड़कर भगवत् भजन करना ही स्थिर किया हो, धनवान हो, सन्तान हीन हो और लड़की इसलिये गोद ली हो कि उसका नाम संसार में चलता रहे तथा उस लड़की की शिक्षा, रहन सहन आदि ऐसा हो कि जैसा ऊंचे दर्जे की समाजों की लड़कियों का होता है तथा किसी भी आगे पीछेकी
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दफा ११४-११७]
दत्तक लेनेके साधारण नियम
१५६
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किसी बातसे यह न पाया जाता हो कि उसका मतलब कुछ और भी हो सकता है एवं ऐसा व्यवहार बराबर बहुत समय तक उसने लड़कीके सम्बन्ध में कायम रखा हो, और वह समय इतना गुजर गया हो जिससे यह अनुमान करना आसान हो जाय कि अब उस लड़कीकी बुद्धि इतनी परिपक्व हो गयी है कि उसके चाल चलनपर कोई खराब असर यानी उसकी दत्तक मां के पेशे का असर नहीं पड़ेगा तो हो सकता है कि ऐसा गोद जायज़ माना जाय । मदरास हाईकोर्ट की दृष्टि से इतना होनेपर भी शहादत बहुत बारीक तौरसे विचार की जायगी।
मदरास हाईकोर्टके अनुसार ऐसा गोद जायज़ माना गया है मगर शर्त यह है कि वह गोद रण्डीके पेशेके लिये न लिया गया हो; देखो--बंकू बनाम महालिङ्ग 11 Mad. 393; 12 Mad. 214; वेकट चिल्लम बनाम वेंकटा सामी, फैसला मदरास, सन 1856 P. 65; 2 Mad. H. C. 66; 13 Mad. 133; अगर उसके कोई लड़की होवेतो वह क़तई तौरपर गोद नहीं ले सकती स्ट्रेञ्ज मैन्यूअल पैरा ६६.
26 Bom. 491, 4 Bom. L. R. 116 में हालके एक मुक़द्दमेमें रण्डी का लिया हुआ दत्तक इसलिये जायज़ माना गया कि उसकी अन्त्येष्ठी क्रिया करे और जायदाद ले।
जब किसी रण्डी या नाचने वाली औरत ने सोलह साल से कम उमर की किसी लड़कीको बेच दिया हो या अपना पेशा कराने के लिये लिया हो, यह दोनों सूरते कानूनन नाजायज़ हैं, वक्लि ऐसे अपराध Act. XLV. 1860. S. S. 372, 373 के अनुसार सज़ा दी जायगी; और देखो 12 Mad. 273.
सिर्फ मदरास में लड़की गोद ली जासकती है; देखो-दफा २२०, ३०३. दफा ११७ जब किसीकी जायदाद कोर्ट आफ वाईके ताबे हो
जिस आदमीकी जायदाद कोर्ट आफ वाईस के ताबे हो वह आदमी बिला मञ्जूरी रेविन्यू बोर्डके दत्तक नहींले सकता,अगरले तो नाजायज़ होगा। एक मरतबा इस बातपर ध्यान दियागया था कि ईनामदार,ज़िमीदार, जागीरदार
और खिदमती जागीरदार जिनके मरने के बाद सरकार उनकी जायदादकी लावारिसकी हैसियतसे पारिस होगी, बिना मञ्जूरी गवर्नन्टके दत्तक नहीं ले सकती यह मञ्जूरी हाकिम वक्त से ली जाना चाहिये । लार्ड डेलहाउसीके समय में इसके अनुसार कुछ काम भी किया गया । इसकी पाबन्दी में अनेक दिक्कतें पैदा हुई। यह शर्त प्रथम तो दत्तक विधान के जायज करने के लिये काफ़ी न थी और यह भी मुमकिन था कि ऐसी सूरतमें सरकारी हाकिम दत्तक लेनेकी इजाज़त न दे और सरकार इजाज़त देने के लिये मजबूर नहीं की जा सकती
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दत्तक या गोद
[ चौथा प्रकरण
इत्यादि, पीछे जब लार्ड कैनिङ्ग का ज़माना आया तब उन्होंने एक घोषणा पत्र निकाल कर गवर्नमेन्ट से इजाज़त लेने की ज़रूरत को रफा कर दिया; देखोरामचन्द्र बनाम नाना जी 7 Bom H. C. ( A. C. J ) 26; नरहरि गोबिंद बनाम नारायण 1 Born. 607; रंगू बाई बनाम भागीरथी बाई 2 Bom. 377; 'Bell's Empire in India 127; Bell's Indian Policy_10; Sir. C. Jackson's Vindication of Lord Dalhousie 9; बालाजी रामचन्द्र बनाम दत्तरामचन्द 27 Bom. 75.
१६०
जहां कहीं तलवार द्वारा विवाह हुआ हो, और इस प्रकारकी स्त्री से उत्पन्न पुत्र क़ानूनी हों किन्तु पूर्वजों की अन्त्येष्टि क्रिया आदि न कर सकते हैं । ऐसे पुत्रोंके होने से दत्तक लेने में कोई बाधा नहीं आती । महाराजा कोल्हापुर बनाम सुन्दरम् अय्यर 48 Mad. 1; AIR 1925 Mad. 497.
(ख) विधवा का गोद लेना
दफा ११८ विधवा के गोद लेने में स्कूलोंका मतभेद
विधवा स्त्रीके गोद लेनेका अधिकार प्रत्येक स्कूलमें भिन्न भिन्न माना गया है । यह भेद वसिष्ठ के वाक्यके अर्थ करने से पैदा होता है । हरएक स्कूलमें उस वाक्य का अर्थ जुदा जुदा किया गया है । वह वाक्य यह है :
नस्त्रीपुत्रं दद्यात् प्रतिगृह्वी यादा अन्यत्रानुज्ञानाद्भर्तुः
( १ ) मिथिला स्कूल -- मिथिला स्कूलमें उक्त वाक्यका अर्थ यह माना गया कि गोद लेने के समय पतिकी मजूरी होना चाहिये; इसलिये बिना पति की मौजूदगी के गोद नहीं लिया जा सकता । अतएव कोई विधवा गोद नहीं ले सकती; देखो -- दत्तक मीमांसा ९-१६, विवाद चिन्तामणि; मेक्नाटन हिन्दूला जिल्द १ पेज १५-१००; जैराम बनाम मुसंधर्मी 5 S. D. 3; और देखो ट्रिलियन हिन्दूलॉ दूसरा एडीशन पेज १२१; मुल्ला हिन्दूलॉ दूसरा एडीशन पेज १७२, इस किताब की दफा देखो -- २३ पैरा २,२६, ११२.
मिथिला स्कूल -- मिथिला स्कूल का क़ानून, मिताक्षरा का ही क़ानून है । केवल थोड़े ही ऐसे विषय हैं जिनमें मिथिलाका स्कूल मिताक्षरा से कुछ भिन्न है । A. I. R. 1925 P. C 280.
मिथिलाक़े किसी व्यक्ति द्वारा, दत्तक रीतिपर लिया हुआ गोद नाजायज़ नहीं होता और दत्तक पुत्रको अधिकार होता है कि वह वंशजका वारिस हो
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दफा ११८]
विधवाका गोद लेना
सके । चन्द्रेश्वर प्रसाद नारायणसिंह बनाम विश्वेश्वर प्रताप नारायणसिंह A. I. R 1927 All. 61.
मिथिला स्कूल--कर्ता पुत्र-बादको पिता की मृत्यु के पश्चात पुत्रका जन्म-परिणाम-कन्हैय्यालाल साहू बनाम मु० सुग्गाकुंवर A. I. R. 1926 Pat. 90.
कुदरती पिताकी मृत्यु - पुत्रका अधिकार कुदरती खान्दान से समाप्त हो जाता है । धर्मसिंह बनाम बक्जी 99 I C. 315.
(२) बंगाल स्कूल--बंगाल स्कूल में उपरोक्त वाक्यका अर्थ यह माना गया है कि पतिकी आज्ञा गोद लेने के लिये ज़रूरी है। अगर पति अपनी जिन्दगीमें गोद लेने की आज्ञादे गया हो और उस आशामें यह योग्यता हो कि उसके मरनेकेबाद काममें लाईजा सके तो विधवा उस आज्ञासे गोदले सकती है। यही अर्थ बनारस स्कूलमें माना गया है 1 W Macn 91; 100; 2 W. Macu 175; 1827 183; जानकी देवी बनाम सदाशिव I. S. D. 197; तारामनी बनाम देवनारायन 3 S. D. 387.
- जब पतिने दो या ज्यादा विधवाओंको एक दूसरे के बाद गोद लेनेकी आज्ञा दी हो तो दोनों स्कूलमें (बङ्गाल, बनारस) बड़ी विधवाको श्रेष्ठता दी जाती है। विजयकृष्ण करमाकर बनाम रज्जीतलाल करमाकर ( 1911) 38 Cal. 694.
. (३) बनारस स्कूल--बनारस स्कूल में उपरोक्त वाक्यका अर्थ वही लगाया गया है जो बङ्गाल स्कूल में माना गया है 'बिना आज्ञा पतिके विधवा स्त्री गोद नहीं ले सकती हेमन्चलसिंह बनाम धनश्याममसिंह कुमार 2 Knapp 203; 5 W. R. P. C. 69; इस केसमें इटावाके बारेमें फैसला सीमाबद्ध है। तुलसीराम बनाम विहारीलाल 12 All.328; परभूलाल बनाम मैलने 14 Cal. 401-419, 1 W. Macn. 91-100%; 2 W. Macn 1895 शमशेर बनाम दिलराज 2 S. D. 169; पद्मसिंह बनाम उदयसिंह 12 M. I. A. 350; 12 M. I. A. 440; 12 W. R. (P.C.) 1; 2 M. H. C. 216.
इस स्कूलमें अनेक विधवाओं को यदि एक दूसरेके बाद गोदकी आशा हो तो बड़ी विधवा गोद लेगी-31 Cal. 694.
. (४) महाराष्ट्र स्कूल ( बम्बई स्कूल.)- महाराष्ट्र स्कूल, मयूख और कौस्तुभ ग्रादि ग्रन्थोंके ताये हैं। इस स्कूलमें उपरोक्त वाक्य का अर्थ यह किया गया कि-"इस वाक्य का सम्बन्ध उस दत्तक से है जो पतिके जीते जी लिया जाय" इस से यह मतलब नहीं है कि विधवाकै अधिकारको बन्द करदे, जिसको सब हिन्दू धर्म शास्त्र कारोंने पतिकी आत्माके लिये लाभकारी बताया है; देखो - कलक्टर आफ मदुरा बनाम मोटोरामलिङ्ग 12 M I. A. 435;
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दत्तक या गोद
[चौथा प्रकरण
S. C. 1 B. L. R. (P. C. ) 1; 10 W. R. (P.C.) 17, V. N. Mandlik 463; 3 I. A. 154; 1 Mad. 693725 W. R..C. R. 291, 302; 4I. A. 1; 3 Mad. H.C. 283.
पश्चिमीय कनारा प्रांतके निवासी नामबुद्री ब्राह्मणोंने भी उक्त वाक्य का ऐसाही अर्थ किया है । हिन्दुस्थान के दक्षिणी भाग की तरफ यह माना गया है कि अगर पति गोदकी आज्ञा न दे गया हो, तो इस कमीको उसके सपिण्ड पूरा कर सकते हैं। अर्थात् पतिकी आज्ञा न होनेपर भी सपिण्डोंकी आज्ञा से विधषा गोद ले सकती है।
महाराष्ट्र स्कूलके अनुसार विधवा या तो पतिकी आज्ञासे या बिना आशा भी अगर वह जायदादकी खुद मालिक हो, गोद ले सकती है । देखो6 Bom. 6053; 12 M. I. A. 397, 436; 1 B. L. R. ( P.C.) 1; 10 W..R.P.C.17: 23 Bom. 250% 22 Bom. 558,566,5683; 22 Bom. 416; 15 Bcm. 565, 6 Bom. 498; 8 Bom. H. C. (A.C.) 11474 Bom. H. C. ( A.C.) 181. __अगर विधवाका पति मुश्तरका खानदानमें मरा हो और कोई आशा गोद की मदी हो तो विधवा बिना मंजूरी शरीक हिस्सेदारों के गोद नहीं ले सकती है--22 Bom. 416; 6 Bom. 498; 6 Bom. 505.
इस स्कृसमें यह भी मानागया है कि जहांपर विधवाके पास कोई स्पष्ट आशा पतिकी गोदलेनेकी न हो, तो यह माना जायगा कि पतिकी इच्छा गोद लेनेकी थी और जब कि पति नाबालिगी अवस्थामें मरा हो तो यह ख्याल मज़बूत होजायगा; देखो-16 Bom. 565; 25 Bom. 306; 2 Bom. L. R. 1101.
बटे हुए खानदानमें बड़ी विधवा बिना मंजूरी छोटी विधवाओंके गोदले सकती है मगर छोटी विधवा बिना मंजूरी बड़ीके गोद नहीं लेसकती जबतक कि कोई खास बात न हो, 6 Bom. H.C. 181-192; 6 Bom. 498-503 13 Bom. 160.
(५) पश्चिमी हिन्दुस्थान-पश्चिमी हिन्दुस्थानमें दक्षिणकी अपेक्षा विधवाका दत्तक अधिकार बढ़ा हुआ है । वसिष्ठके वाक्यका अर्थ करते समय मयूखने जो नतीजा निकालकर प्रधानता दी है, ऊपर कहागया है। नन्द पंडितके सिद्धांतके वह विरुद्ध है । उनका सिद्धांत है कि बिधवा कभी दत्तक नहीं ले सकती, क्योंकि गोदके समय पतिकी आशा होना ज़रूरी है ( इस दफाका मिथिला स्कूल देखो) मयूखमें कहा गया है कि विधवाही ऐसी
आज्ञा पानेकी अधिकारिणी है, दूसरा नहीं। बम्बई प्रांतके तमाम मुकद्दमोंके देखनेसे यह करार पाया है कि मराठा और गुजरात प्रांतमें जो विधवा
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दफा ११८]
विधवाका गोद लेना
विभक्त परिवारमें बिला शिरकत किसीके जायदादकी वारिस हो, वह अपने पतिके लिये बिना आज्ञा पतिके और बिला रज़ामन्दी सपिण्डोंके चाहे वह नज़दीकी भी हों, तथा हाकिमके, गोद ले सकती है विधवाके इस अधिकारमें प्रिवी कौंसिलकी उस तजवीज़ से ज्यादा मदद मिली है; जो रामनाद( दफा १४३ पैरा २) के मुक़द्दमे में की गई थी, यानी उसमें कहा गया था कि विधवाने मज़हबी रसूमात पूरा करनेके बाद योग्यरीतिसे दत्तक लिया, और किसी अनुचित स्वभावसे गोद नहीं लिया तथा रिश्वत देकर भी यह गोद नहीं लियागया; देखो -रुकमाबाई बनाम राधाबाई 5. Bom. H. C. (A.C. J.) 181; भगवानदास बनाम राजमल 10 Bom. H. C. 257; गिरीओबा बनाम घुमान 6 Boin.492; दिनकर सीताराम बनाम राजमल 10 Bom. HC 257; रामजी बनाम घुमान 6 Bom. 498; दिनकर सीताराम बनाम गनेशशिवराम । Bom. 505; गिरीओवा बनाम भीमाजी 9 Bom. 58; रिश्वत देनेका बार सुबूत उस पक्षपर निर्भर है जो दिया जाना बयान करता हो। देखो-पटैल बृंदावन जैकिशुन बनाम मनीलाल 15 Bom. 566.
शास्त्रियोंकी व्यवस्थाएं -बनारस स्कूल का विस्तार प्रथम प्रकरणमें बताया जाचुका है देखो दफा २५ मिताक्षरा का वह अर्थ जो बनारस स्कूलमें माना गया है उसके अनुसार विधवा बिना पतिकी आशाके गोद नहीं ले सकती। राजपूतानेमें यही स्कूल प्रचलित है । श्रीमान सेठ खेमराज श्रीकृष्णदास मालिक श्री वेङ्कटेश्वर प्रेस बम्बई का मुकदमा ( देखो दफा २५) बिल्कुल इसी आशय का था जिसमें साबित हुआ कि मारवाड़ देश में बनारस का धर्म शास्त्र मिताक्षरा प्रचलित है और इसलिये वहां पर बिना आशा पतिके विधवा गोद नहीं ले सकती। विरुद्धपक्ष कहताथा कि ऐसी रवाज नहीं है। उक्त सेठजी की तरफ़ से इस विषयमें प्रमुख साक्षियों के अतिरिक्त काशी के सुप्रख्यात महामहोपाध्याय श्री शिवकुमार शर्म मिश्र शास्त्री आदि की भी गवाहियां हुयीं सबने मारवाड़ देशमें बनारस स्कूल का माना जाना सिद्ध किया। माननीय श्रीशिवकुमार आदि शास्त्रियों की व्यवस्थाएं जो इस सम्बन्धमें उस समय दी गई थी हम ज्यों की त्यों नीचे देते हैं। व्यवस्था संस्कृत भाषामें हैं, तथा असली कापी सब शास्त्रियों के हस्ताक्षरित इस ग्रन्थके लेखक के पास मौजूद है। व्यवस्था की असली कापी अदालत में पेश करके साबित कराई जा सकती है । इस व्यवस्थापत्र पर हस्ताक्षर करने वाले शास्त्रियों में से बहुतेरों का स्वर्गवास हो गया है और कुछ उनमें से इस समय मौजूद हैं। स्वर्गबासी शास्त्रियों के हस्ताक्षर जीवित शास्त्रियों द्वारा प्रमाणित किये जासकते हैं यदि दैववशात्, आवश्यकता के समय सबका बैकुण्ठवास होगयाहो तो भी अन्य साक्षियों से साबित हो सकती है। इस व्यवस्था के देने का दूसरा मललब यह भी है कि विधवा के दत्तक सम्बन्धमें जितने आवश्यक
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दत्तक या गोद
[चौथा प्रकरण
प्रमाण हैं सब इसके द्वारा मालूम हो जायगे । धर्मशास्त्रकी मंशा काभी पता चलजायगा | तीसरे यह मालूम हो जायगा कि इस विषयमें काशी के महान विद्वानों का मत एक है। पाठक ! असली व्यवस्थाएं यदि आवश्यक हों तो आपको इस ग्रन्थ लेखक से प्राप्त हो सकेगी। (१) महामहोपाध्याय श्रीशिवकुमार शर्म मिश्र
शास्त्री की व्यवस्थाःअथ कयोश्चित्सोदरयोर्वैश्ययोःकनिष्ठे कतिपयापत्ययुक्ते वर्तमाने ज्येष्ठे चानपत्ये स्वपत्न्यै दत्तक गृहणायाज्ञामदत्तवत्येव परलोकं गतवति ज्येष्ठपत्त्या स्वदेवर पुत्रं विहाय यः कोपिबालकः दत्तकत्वेन प्रतिगृही तः सोय वालकः स्वप्रतिगृहीत्याः पत्युः दत्तकपुत्रो भवितुमर्हति नवेति संशये उच्यते।
कथमपि न भवितुमर्हति "न स्त्री पुत्र दद्यात् प्रतिगृह्णीयाद्वाअन्यत्रा नुज्ञानाद् भर्तुरिति' दत्तक मीमांसा धृतवशिष्ठवाक्येन भत्रनुज्ञारहित स्त्रिया दत्तक ग्रहणस्य निषेधेनाधिकारवाधात् अनधिकृतकृत कर्मणः फलानुत्पादकतया शूद्रकर्तृकवाजपेयस्य स्वर्गसाधकापूर्वानुत्पादकत्ववत् भत्रननुज्ञात स्त्रीकर्तृक बालक प्रतिग्रहस्य तस्मिन् वालके पिण्डोदक क्रियाहेतु भूत पुत्रत्वानुत्पादकत्वात् दत्तकेपिण्डोदकक्रिया योग्यता धायक पुत्रत्वस्य तादृशपुत्रत्व सम्पत्त्युद्देशेन शास्त्रविहित साङ्ग कर्म विशेष मात्र साध्यतयाधिकारिणोविरहे तादृशकर्मस्वरूपानुत्पत्त्या पुत्रत्वोत्पत्तेः सर्वथाऽसंभाव्यत्वात् दत्तक मीमांसाकारश्च "अपुत्रेणैव कर्तव्यः पुत्रः प्रतिनिधिः सदा । पिण्डोदकक्रियाहैतोर्यस्मात् तस्मात् प्रयत्नत'' इत्यत्रिवाक्ये "अपुत्रेणसुतः कार्योयादृक्तादृक् प्रयत्नतः । पिण्डोदक क्रियाहेतो र्नामसंकीर्तनायच" इतिमनुवाक्ये बापुत्रेणेति पुंस्त्वश्रणात् स्त्रियानाधिकार इति गम्यत इत्युक्त्वा "नस्त्रीपुत्रंदद्यादि" तिवशिष्ठवाक्यमुपष्टम्भकमुक्तवान् । वाचस्पति मिश्रस्तु दत्तकपरिग्र. हविधानवोधकवाक्ये व्याहृतिमिर्तुत्वा 'अदूरवान्धवं वन्धुसन्निकृष्ठमेवप्रतिगृह्णी यादि" तिसमान कर्तृकता बोधकत्वाप्रत्ययश्रवणात् होमकर्तु रेव प्रतिग्रहसिद्धः स्त्रीणां होमानधिकारित्वात् प्रतिग्रहानधिकार इति सहेतुकं स्त्रीणां प्रतिग्रहा नधिकारमाह । विचारितश्चायं वाचस्पत्यग्रन्थे नन्दन पाण्डिते न तद् यथा “न च शौनकीये आचार्यवरणस्यो क्तत्वात् तद्द्वाराहोमसिद्धि रितिवाच्यम् होमसिद्धावपि प्रतिग्रह मत्रानधिकारेण प्रतिग्रहासिद्धेः तदाह शौनकः “देवस्यत्वेति मन्त्रेण हस्ताम्यांपरिगृह्य च अङ्गादशैत्यूचं जप्त्वा आघ्रायशिशु मूर्धनी" तिनवै
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दफा ११८]
विधवाका गोद लेना
१६५
वं शूद्राणामनधिकारप्रसंङ्गः “शूद्राणां शूद्रजातिष्वि' तिव्यवस्थापक तदधिकारकल्पनात्' । इति नचैव भत्रनुज्ञानेपिस्त्रीणामनधिकारापत्ति रितिवाच्यम् “ अन्यत्रानुजानादिति प्रतिप्रसवेन प्रधान भूते प्रतिग्रहेधिकारसिद्धावधिकृताधिकारन्यायेन होममन्त्रेप्यधिकारप्राप्तौ "स्त्रीशूदाणाममन्त्रक मिति मन्त्र पर्युदासादमन्त्रक प्रतिग्रहसिद्धः वस्त्रादिप्रतिग्रहवत् न चैवं भत्रनुज्ञारहिताया विधवाया अपि "स्त्रीशूद्राणाममन्त्रक" मिति मंत्ररहित प्रतिग्रह सम्भवात् वाचस्पत्युक्त हेतोराभा सतापत्तिरितिवाच्यम् न स्त्री पुत्रं दद्यादिति वाक्येन सामान्येन स्त्रीणां पुत्रप्रतिग्रह निषेधे अन्यत्राऽनुज्ञानाद्भर्तु" रिति वाक्यशेषेण भत्रनुज्ञाननिमित्तक प्रतिग्रहप्रतिप्रसवेऽनुज्ञाचिरहे निमित्ताभावात् विधि प्रतिप्रसवाभावेन निषेधस्यैव व्यवस्थित्या अधिकृताधिकारन्यायाप्राप्तौ होममन्त्रप्रापत्यभावेनस्त्रीशूद्राणाममन्त्रक मितिपयुदासाप्रवृत्तिरित्याश यात् नच भर्तरिजीवत्येव तदनुज्ञानापेक्षा तदानीं भर्तृपरतन्त्रत्वात् स्त्री गाम्तन्मरणोत्तरन्तु दानव्रतचर्यादाविवपुत्रप्रतिग्रहेपिभत्रनुज्ञाना न पेक्षाधिकारे न किञ्चिद्वाधकमितिवाच्यम् भर्तरिजीवति तत्पारतन्त्र्यादेव तदनुज्ञां बिना पुत्रप्रतिग्रहाप्रसङ्गात् "न स्त्री पुत्रं दद्यात्प्रतिग्रही याति" निषेधस्य वैयापत्या तत्सामर्थ्यात तस्मि नजीवत्यपि तज्जीवन कालिका नुज्ञाया विरहे स्वातन्त्र्येण तत्र प्रतिग्रहाधिकार निषेधस्यैव कल्पनीयत्वात् किञ्च तत्पुत्रत्वं तद्व्यापारं बिना न भवतीति तावदनुभवसिद्ध सच व्यापारः दत्तकस्थले क्वचित्सा क्षात्प्रतिग्रहरूपः स्त्री कर्तृक प्रतिग्रह स्थलेच स्त्रियै पुत्र प्रतिग्रहाया नुशादानरूप एतयोर्मध्ये कस्याप्यभावेतु कथं तत्पुत्रत्वोपपत्तिः अतएव सत्याषाढ सूत्रे अथोढज क्षेत्रज कृत्रिम पुत्रिकापुत्र स्त्री द्वारजासुराद्यढज दक्षिणा जानां पित्रोश्चे” त्येतस्मिन् स्त्री द्वारा परिगृहीतस्य दत्तकस्य स्त्री द्वारजपदेन व्यवहारः कृतः अत्र द्वारपद स्वारस्यात् पत्युरेवानुशादान द्वारा प्रतिग्रहे स्वातन्त्र्यं लभ्यते स्त्री द्वारा प्रतिगृही तवान् इत्यर्थ स्वारस्यात् स्त्रिया द्वारत्वं च तदैवोपपद्यते पतिकर्तृका नुज्ञाया अप्यभावेतु स्त्रिया एव स्वातन्त्र्येण प्रतिग्रह कर्तृत्वात् द्वारत्वं सर्वथाऽनुपमन्नमेवस्यात् "रक्षेत् कन्यांपिता विन्नांपतिःपुत्रा स्तुवार्धके अभावे ज्ञातयस्त्वेषां न स्वातन्त्र्यं क्वचित् स्त्रिया' इत्यादि वाक्यैः सर्वावस्थासु स्त्रीणां तत्तन्नियन्तृ पारतन्त्र्य वोधनात् अन्यत्रानुशानाद्भतुरित्यंशस्य पारतन्त्र्याभिप्रायकत्वे विशिष्य केवल भर्तृ पदोपादानस्या नौचित्यापत्तेः भर्तृ पुत्रत्वरूपप्रयोजन सिद्धिरेव तदनुज्ञानापेक्षोक्तौ वीजमिति दत्तक मीमांसायां सिद्धान्तितम् किञ्च प्रत्यासन्ने देवरपुत्रे विद्यमानेऽप्रत्यासन्नस्य यस्यकस्यचित् वालकस्य प्रतिग्रहनिषेधा दप्ययं प्रतिग्रहो न पुत्रत्वं साधयितुमीष्टे तथाच वशिष्ठः “शुक्रशोणित सम्भवः
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दत्तक या गोद
[चौथा प्रकरण
पुरुषो मातापितृनिमित्तक” इति सूत्र शेषे आह “पुत्र प्रतिग्रहीष्यन् वन्धूनाहय राजनिचावेद्य निवेशनस्यमध्ये व्याहृतिभिर्दुत्वा अदूर वान्धवं वन्धुसन्निकृष्ठमेवप्रतिगृहणीयात्" ____ अत्र वन्धुसन्निकृष्टमेवेत्येवकारेण सति सन्निकृष्टेऽसन्निकृष्ट न प्रतिगृह्णीयादिति निषेधोलभ्यते लिङसहितनअपदं च धात्वर्थे नब्राह्मणं हन्यादित्यादाविववलववदनिष्टाननुवन्धित्वविशिष्टेष्टसाधनत्वा भावं वोधयतीति तावन्निर्विवादम् ततश्चप्रकृतेऽसन्निकृष्ट वालप्रतिग्रहरूपे धात्वर्थे बलवदनिष्टाननुवन्धित्व विशिष्ट पिण्डोदक दानौपयिक पुत्रत्व सम्पत्ति रूपेष्ट साधनत्वा भावे नत्राप्रत्यायिते धर्माधर्म योश्वशास्त्रैक समधिगम्यत्वात् कथमयं प्रतिग्रहः तादृशपुत्रत्वमसन्निकृष्टे साधयिष्य तीतिविभावनीयम् शाकलोप्याह "समान गोत्रजाभावे पालयेदन्यगोवजमि' ति यदा च वन्धुसन्निकृष्टमेवेत्यत्र वन्धुसन्निकृष्ट एवेति मिताक्षराधृतः प्रथमान्तः पाठः तदाप्यदरवान्धवमिति पूर्व भागेनैवोक्तार्थः सिद्धयति समान गोत्रजाभावे इति शाकलवाक्येनच। किञ्च “वहूनामेक जातानामेकश्चेत्पुत्रवान् भवेत् सर्वास्तांस्तेनपुत्रेण पुत्रिणो मनुरब्रवीत्" इति मानव वाक्यस्यापि तात्पर्य सोदरपुत्रे सति अन्योदत्तको न कार्य इत्यत्रैव सर्वएव ग्रन्थकाराः वर्णयन्तिनच भ्रात पुत्रेषु पुत्रत्वाति देशा भिप्रायकमेवेदं वाक्यं कस्मान्न मन्यते इतिशङ्कयम् तथासत्यपुत्रधनाधिकारि क्रमप्रस्तावे याज्ञवल्क्येन “पत्नी दुहितरश्चैव पितरो भ्रातरस्तथा तत्सुता गोत्रजा इति श्लोके पश्चमस्थाने भ्रातृ पुत्रनिवेशनस्या सङ्गत्यापत्तेः गौणपुत्रत्वेन दत्तक पुत्रादिवत् पत्नीतोपि प्रागेवतदधिकारस्योचितत्वात् तस्मात् सोदरपुत्रे विद्यमानेऽन्योदत्तको न कार्य इत्यत्रैवतद्वाक्यतात्यर्य मन्तव्यम् मिताक्षराकारोपि 'दद्यान्माता पिता वाय मितिश्लोक व्याख्यानावसरे माताभत्रनुज्ञायामित्युक्त्वा न स्त्री पुत्र दद्यात्प्रतिगृह्णीयाद्वेति वशिष्ठवाक्य मुपष्टम्भकमुक्तवान् तेन स्त्रिया बिना भत्रनुज्ञाम्पुत्रदानप्रतिग्रहौनकर्तव्यौ इत्वेवसूचितवान् अयंच सिद्धान्तः मिताक्षराकार दत्तक मीमांसाकारादीनांसर्वमान्य ग्रन्थ काराणाम् अभिप्रेतः अहंयावद्वेनि मरुदेशीयेषु (माडवार) मिताक्षरा ग्रन्थः सर्व प्रधानत्वेन व्यवहार विषये मन्यते तदनुसारेण विधवा स्त्री भत्रनुज्ञाम्बिना दत्तकम्पत्तिग्रहीतुन्नार्हति सर्वनिवन्धानुसारेणच प्रत्या सन्ने योग्ये वाले लभ्यमाने दूरवर्ती नग्राह्य इति सिद्धयति इत्यलम् ।
इति निर्धारयति म०म०पं० शिवकुमार शर्म मिश्रः हस्वयम् सम्मति रत्रार्थे नित्यानन्द शर्मणः कृत सम्मति कोत्र महाराश्या बडहराधीश्वर्या आश्रितः
पं० देवीप्रसाद शर्मा
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विधवाका गोद लेना
सम्मति रत्रार्थे श्रीप्रियनाथ भट्टाचार्य्य शर्मणः
सम्मति रत्रार्थे सारस्वतानन्तराम शर्मणो रणवीर संस्कृत पाठ शालीयस्य सम्मति रत्रोज्झोप नामक श्रीरामयन शर्म्मणो रणवीर पाठ शालाध्यापकस्य
सम्मति रत्रार्थे महाराइया बड़हराधीश्वर्य्या आश्रितस्य ज्यो० पं० रामफल शर्मणः
दफा ११८ ]
स्वीकरोत्यमुमर्थमयोध्यानाथशम्र्मापि चन्द्रभूषण चतुर्वेदस्यापि र० पा० प्रिंसपलोपधानस्य
१६७
इस व्यवस्थाका सारांश यह है कि नज़दीकी सपिण्डके होते दूरका लड़का गोद लेनेका निषेध है । भाईके लड़केके होते दूसरा लड़का गोद लेना उचित नहीं । मारवाड़ देशमें मिताक्षरा बनारसका माना जाता है । इसी विषय के प्रमाणों द्वारा यह बात सिद्ध की गयी है । समग्र व्यवस्था का हिन्दी अनुवाद अनावश्यक समझकर छोड़ दिया है ।
( २ ) व्यवस्था मौजमन्दिर जैपुर
( संमतमिदं मौजमन्दिरस्थविदुषाम् )
प्रश्नकर्ता पं० चन्द्रशेखर शुक्ल -
प्रश्न १ - राजपूताने में किस धर्मशास्त्र के अनुसार हिन्दूधर्म की आम रिवाज जारी है ?
उत्तर १ - मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति, मिताक्षरा प्रभृति धर्म शास्त्र के अनुसार यहां पर धर्मव्यवस्था दी जाती है । उसी के अनुलार यहां पर रिवाज भी जारी है । व्यवहारधर्म में यहां पर मिताक्षस का विशेष अनुरोध रक्खा जाता है। यानी उसके विरुद्ध कोई भी धर्मव्यवस्था यहां पर नहीं मानी जाती ।
प्रश्न २ - इस धर्मशास्त्र के अनुसार विधवा स्त्री बिना आशा पति के गोद ले सकती है या नहीं ?
उत्तर २--याज्ञवल्क्य, मिताक्षराके अनुसार पतिकी आज्ञा बिना विधवा स्त्रीको गोद लेनेका अधिकार नहीं पाया जाता । मिताक्षराके अतिरिक्त भी प्रायः सभी प्रचलित धर्मशास्त्र ग्रन्थोंके अनुसार पति ज्येष्ठ
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१६८
दत्तक या गोद
-
[चौथा प्रकरण
देवर, श्वशुर, आदि गुरुजनों की आज्ञा के बिना किसी भीव्यवहारिक विषय में स्त्री को स्वातन्त्र्य नहीं है । वचन ये हैं--
रक्षेत् कन्यां पिता विन्नां पतिः पुत्रास्तु वार्द्धके अभावे ज्ञातयस्तेषां न स्वातन्त्र्यं क्वचित् स्त्रियाः।
( याज्ञ० आचा० ८५ श्लो०) अर्थ--विवाह के पूर्व कन्या की दशा में पिता रक्षा करे । विवाह के उत्तर पति, तथा वृद्धावस्था में पुत्र, और इन सब के न रहने पर जाति वाले संरक्षण करें। तात्पर्य यह है कि स्त्रियों को इनही के संरक्षण में सदा रहना चाहिये । इनकी आज्ञा के बिना व्यवहार में स्त्रियों को किसी अवस्था में भी स्वातन्त्र्य नहीं है।
इसलिये पति वगैरह गुरुजनों की आज्ञा के बिना स्त्री अपनी इच्छा से किसी लड़के को गोद नहीं ले सकती है।
प्रश्न ३-संनिहित सपिण्ड के होते गैर खानदान का पुत्र जायज़ माना जाता है या नहीं?
उत्तर ३--याज्ञवल्क्यस्मृति व्यवहाराध्याय के १३० वे श्लोक की मिताक्षरा में वसिष्ठ स्मृति का बचन लिखा है कि___'पुत्रं प्रतिग्रहीष्यन् बन्धूनाहूय राजनिचावेद्य निवेशनमध्ये व्याहृतिभिहुत्वा अदूरबान्धवं बन्धु सनिकृष्ट एवं प्रतिगृह्णीयात् ।' __अर्थ-गोद लेते वक्त भाई बन्धों को इत्तला देकर उनको बुला कर उनकी राय से, और राज में इस बात को ज़ाहिर करके, मण्डपके भीतर व्याहृति होम करके, जो रिश्तेमें दूर न हो ऐसे लड़के को नज़दीक सपिण्ड वाले ही गोद लेवें ।
___ इस वचन के, अनुसार संनिहिति सपिण्ड के होते गैर खानदान के लड़के को गोद लेना जायज़ नहीं है।
मिताक्षराके अतिरिक्त औरमीसबहीधर्म ग्रन्थोंकी यहीसम्मति है। जैसाकि व्यवहारमयूखमें वही वसिष्ठका बचन इस प्रकार लिखा है--
'अदूरे बाधवं सनिकृष्ट मेव गृह्णीयात्' अर्थ--रिश्ते में दूर न हो; जहां तक नज़दीकी मिलै उस ही को . गोद लेवे । इस वचन के अनुसार मयूख स्पष्ट लिखा है कि--
'अदूरे बान्धवो यथायथं सनिहितः सपिडः'
संनिहितेष्वपि भ्रातृ पुत्रो मुख्यः' अर्थ--अदूर बान्धव वही है जो हर तरह से संनिहित सपिण्ड हो । संनिहित सपिण्डों में भी भाई का बेटा ही मुख्य है।
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दफा ११८]
विधवाका गोद लेना
इस प्रकार मयूख मिताक्षरा वगैरह सभी धर्मशास्त्र ग्रन्थों का खुलासा ये है कि--गुरुजनों की आज्ञा के बिना विधवा स्त्री को गोद लेने का अधिकार नहीं है ? और सपिण्ड के रहते हुए गैर खानदान से लड़का गोद लेना नाजायज़ है--और संनिहित सपिण्ड में भी भाई के बेटे के रहते दूसरे को गोद लेना नाजायज़ है।
मिति जेष्ठ शुक्ला चतुर्दशी १४ सम्वत् १६६६. (३) व्यवस्था श्री अलवर राजकीय धर्माशास्त्रानुसार
प्रश्न १-युष्माकं राजस्थानेषु वाराणसीय देश प्रचलितां याज्ञवल्क्य स्मृति टीकां मिताक्षराऽभिधा न्याय निर्णतारो व्यवहार विधौ सम्मानयन्ति नवा।
२-राजस्थानेषु पत्युराशाविरोधेन विधवा स्त्री दत्तकपुत्र परिग्रहं क शक्नोति नवा ।
३-भर्नुः सहोदर भ्रातृसुते विद्यमाने विधवायाऽन्य बालको दत्तकत्वे ना दातुं शक्यते नवा ।
उत्तर १-अस्माकं राजस्थानेषु काशी प्रान्त प्रचलितां याज्ञवल्क्य स्मृति टीकां मिताक्षरानाम्नी व्यवहार विनिर्णये न्याय सभासदः सादरं स्वीकुर्वन्ति ।
२--स्त्रीभिर्भर्तृवचः कार्य मेष धर्मः परः स्त्रिया इति योगीश्वर चचनमपरार्केऽपरादित्य देवेनेत्थं व्याख्यातम् ।भाऱ्यांभिर्भर्तृवचसोऽर्थः कार्य्यस्तत्करण दृष्टप्रयोजनायोपयोगितां साधयति स्वयं धर्मश्च भवति । नचाऽन्यैःस्त्री धम्मैस्तुल्योऽयं येन तैर्विकल्प्येत । किन्तु तत उत्कृष्टस्तेनैतदनुरोधेनैवाऽन्य धर्म करणम् । अतएव तदविरोधिनो धर्मान् नभिषेवेत, इति । दत्तपुत्र परिग्रहश्च नधर्मा द्वहिर्भूत स्तस्माद्राजस्थानेषु विधवा स्त्री भर्तृक्वोविरोधिनं दत्तसुत परिग्रह रूपं धर्म मनुष्ठातुं न प्रभवति, तथा न स्त्री पुत्रं दद्यात् प्रति गृह्णीयाद्वाऽन्यत्राऽनुज्ञानाद्भर्तुरिति वशिष्ठ स्मृति वीरमित्रोदयादि व्यरेवहार निवन्धेष्वित्थं व्याख्याता। भर्तरि जीवति स्त्रिया तदनभि मतो बालको न ग्रहीतव्यो मृतेतु यदधीना सदभिमतं वालं गृह्णीयादिति" नारदेनापि भर्तरि मृते स्त्रिया पति पक्षस्थपुरुष पुरस्कारेणैव सर्व कार्य करण मनुज्ञातं न स्वातन्त्र्येण, यथा ।
22
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१७०
दत्तक या गोद
[चौथा प्रकरण
मृते भर्तर्यपुत्रायाः पतिपक्षः प्रभुः स्त्रियाः
विनियोगार्थ रक्षासु भरणे च सईश्वरः ॥१॥ एवञ्च विधवा न स्वातन्त्र्येण पुत्र परिग्रहं विधातुं प्रभवति किन्तु यदधीना तदनुमत्यैवेति विदाङ्कद्धन्तु व्यवहार विदः ।
३-अदूर वान्धवं वन्धु सन्निकृष्टमेव गृह्णीयादिति भगवता वशिष्ठेनाऽदूर वान्धवमितिपदमुपादाय सन्निकृष्ट स गोत्र स पिण्ड सुतस्यैव दत्तकत्वेनादानमनुशिष्टम् सन्निकृष्ट स गोत्र स पिण्डेषु च भात पुत्र एव प्रथमं परिग्रहीतव्य इति भगवान् वृहस्पतिः प्रोवाव यथाः
यद्येकजातावहवो भ्रातरस्तु सहोदराः
एकस्यापि सुतेजाते सर्वेते पुत्रिणः स्मृताः॥ तथा सति, भर्तुः सोदर भ्रातृसुते विद्यमाने विधवानान्यं बालक प्रहीतुं समर्थाऽस्तीति विवोध्यमिति ।
स्वामी रामनिवास शर्मा, द्वितीयाषाढ़ १० भौमे सम्बत् १६६६ ता० २३-७-१२ ई० दफा ११९ नाबालिग पतिके लिये विधवा गोद ले सकती है
विधवा का लिया हुआ दत्तक यदि अन्य सब बातोंसे जायज़ है तो वह इस बातसे नाजायज़ नहीं होगा कि विधवाने जिसके लिये गोद लिया वह पति, मरने के समय नाबालिग था यानी नाबालिग पति के लिये दत्तक लिया जासकता है, पटैल बृन्दावन जैकिशुन बनाम मनीलाल 15 Bom. 565
पुत्रबधू द्वारा अपने पति के लिये दत्तक--जब कोई हिन्दू पिण्डदान करता है, तो वह उसके द्वारा अपने, पिता, पितामह और प्रपितामह की आत्मा को समान रीति पर उद्धार करता है और किसी अन्य सन्तान या घंशज द्वारा दिया हुआ कोई दान इतना महत्वपूर्ण नहीं होता । जब कोई पुत्र गोद लिया जाता है, तो गोद लिये हुए पुत्र का पिण्डदान अपने गोद लेने वाले पिता, गोद लेने वाले पितामह और प्रपितामह के लिये उसी प्रकार हित कर और प्रभावजनक होता है, जिस प्रकार कि स्वाभाविक पुत्र द्वारा दिया हुआ पिण्ड दान । और इस कारण से वह पारिवारिक जायदादमें उसी प्रकार हिस्सा पाने का अधिकारी होता है जिस प्रकार कि स्वाभाविक पुत्र होता है भतएव जब दत्तक पुत्र द्वारा जायदाद के अन्तिम अधिकारी की आत्मा को, इस प्रकार दिये हुए पिण्डदान से उन्नति पहुँचाई जाती है, जोकि किसी अन्य प्रकारअसम्भव है तो इस पवित्र कर्तव्य के उस के द्वारा पूर्ण किये
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दफा १९६-१२०]
विधवाका गोद लेना
जानेके साथही साथ उसे यह अधिकारभी प्राप्त हो जाता है कि वह जायदाद के अन्तिम अधिकारीका वारिस हो किन्तु यह सामान्य सिद्धान्त निम्न न्यायकी पावन्दियोंके अधीन है:
(१) कि जायदाद, पहिले ही से, गोद लेने वाली विधवा या उसकी संयुक्त विधवा के अतिरिक्त और किसी पर उत्तराधिकार से न प्राप्त हुई हो।
(२) यह कि जायदाद यदि उस जायदाद का जो हिस्सेदारों के कब्जे में है, कोई भाग है, तो हिस्सेदारों की रजामन्दी आवश्यक है।
जब कि किसी जायदाद का अन्तिम अधिकारी, अपनी जायदाद पर सम्पूर्ण तथा धिला शामिल शरीक अधिकार के मर जाता है और उसकी जायदाद सीधा उसकी पुत्रवधू को इस कारण प्राप्त होती है कि उसका पति (अन्तिम अधिकारी का पुत्र ) अपने पिता के सामने ही, जो कि उस जायदाद का अन्तिम अधिकारी था, मर गया था । अन्तिम अधिकारी को पुत्र बधू अपने पति के लिये गोद लेती है । वह दत्तक अन्तिम अधिकारी का वारिस होता है । बसन्तराव बनाम देवराव; 24 Bom. 463, 20 Bom. 250; 2l Bom. 319, 26 Bom. 526 A. I. R. 1922 Bom. 321; 29 Bom. 410; 31 Bom. 373; 32 Bom. 499 Dist; A. I. R. 1927 Nagpur 2. दफा १२० दत्तक पुत्रका कबसे अधिकार होगा
अब दत्तक किसी विधवाने लिया हो तो उस दत्तक पुत्रके हक़ उसी वक्तसे पैदा होंगे जिस वक्त कि वह गोद लिया गया हो, यानी गोद लेनेवाले बापके मरनेके वक्तसे नहीं पैदा होंगे, चाहे उसे विधवा ने पतिकी आज्ञासे लिया हो या न लिया हो; देखो लक्ष्यणराव बनाम लक्ष्मी अम्मल (1881) 4 Mad. 160; बामनदास मुकरजी बनाम मुसम्मात तारणी 7. M. 1. A. 169-184; गनपति ऐय्यन बनाम सावित्री अम्मल 21 Nad. 10-16; नारायनमल बनाम कुँवर नारायन मेरी 5 Cal. 261; मोरो नारायन जोशी बनाम बालाजी रघुनाथ 19 Bom. 809.
उदाहरण-महेशको एक जायदाद सरकारसे इस शर्तपर मिली कि जबतक उसके मर्द संतान रहे उसका मुनाफ़ा पाता रहे । महेशके मरनेके दूसरे दिन विधवाने गोद लिया ऐसी सूरतमें सरकारकी शर्त टूट गई, क्यों कि दत्तकपुत्रका अधिकार उसके गोद लेनेके समयसे हुआ। अगर महेशकी जिन्दगीमें गोद लियागया होता तो जायदाद मिलती।
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१७२
दत्तक या गोद
दफा १२१ नाबालिग्न विधवा दत्तक ले सकती है
जिस विधवा को पतिसे जायज़ अधिकार गोद लेनेका प्राप्त हो वह नाबालिग होनेपर भी गोद ले सकती है । माना गया है कि यह काम उसके पतिका है विधवा निमित्त मात्र है; देखो - मन्दाकिनी बनाम आदिनाथ 18 Cal. 69.
[ चौथा प्रकरण
दफा १२२ बम्बई में नाबालिग विधवाका दत्तक
बम्बई प्रांत में जब कि खानदान बटा हुआ हो, पति या कुटुम्बियों की रजामन्दी गोद लेनेके लिये ज़रूरी नहीं है । विधवा अपनी इच्छानुसार दत्तक ले सकती है । इसलिये इस प्रांतमें कोई नाबालिग़ विधवा दत्तक नहीं लेसकती जबतक कि उसे पतिकी ख़ास आज्ञा न हो लेकिन अगर कोई आदमी नाबालिग़ अवस्था में ही मर गया हो तो उसकी विधवा नाबालिग होने पर भी पति के लिये दत्तक ले सकती है; देखो - 15 Bom. 565; और देखो स्टडी आफ हिन्दूला शम्बाशिव पैय्यर 6 Ed. S. S. 164.
बम्बई प्रान्तमें विधवाका अधिकार -- बम्बई प्रान्तके महाराष्ट्र देशमें एक हिन्दू विधवा जिसके पतिने उसे स्पष्टतया दत्तक लेनेसे न वर्जित किया हो बिना अपने पति के अधिकारके ही या पतिके सम्बन्धियोंकी स्वीकृति के बिना ही गोद ले सकती है, चाहे उसके पतिकी जायदाद उस पर अर्पित की गई हो या नहीं या चाहे पति उसके साथही या अलाहिदा मरा हो । महाराजा कोल्हापुर बनाम सुन्दम् अय्यर 48 Mad 1; A. I. R. 1925 Mad. 497.
सासुकी स्वीकृति -- हिन्दू विधवाके गोद लेने में, उस दशामें जब सपिण्डकी उपस्थिति न हो, पतिकी माता ( विधवाकी सासु ) की स्वीकृतिसे दत्तक जायज़ होगा। महाराजा कोल्हापुर वनाम सुन्दरम् अय्यर 48 Mad. 1; A. I. R, 1925, Mad, 497.
विधवाका ध्येय - अदालतको यह अधिकार नहीं है कि उस विधवा के ध्येयके सम्बन्धमें, जो अपने पतिके लिये गोद लेती हो, प्रश्न करे । मु० चीबाई बनाम मु० कुन्दी बाई 88 I. C. 573, AIR 1925 Sind 223.
दफा १२३ अनेक विधवाओंका दत्तक
जब दो या दो से ज्यादा विधवाएं हों और दत्तक लेनेका अधिकार उन में किसी एकको दिया दिया गया हो तो बाक़ी विधवाओंकी मरज़ी न होनेपर भीकेवल वही विधवा दत्तक ले सकती है जिसे अधिकार मिला हो । अगर
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दफा १२१-१२३ ]
विधवाका गोद लेना
अधिकार एक से ज्यादा विधवाओं को दिया गया हो तो यदि बड़ी विधवा गोद लेने से इनकार करे तो छोटी दत्तकले सकती है; देखो - मन्दाकिनीदासी बनाम आदिनाथ 18 Cal. 69. छोटी विधवाको बिना बताये और बिना उसकी सलाहके यदि बड़ी विधवा अपने पति के सपिण्डों की मजूरी से कोई दत्तक ले ले तो वह नाजायज़ नहीं होगा। छोटी विधवासे सलाह नहीं लेना यद्यपि अनुचित है किन्तु उस दत्तकको जो और सब तरहसे जायज़ है, नाजायज़ बनाने की यह वजह काफी नहीं होगी, देखो --ठट्ठानायक बनाम मंजाम्मल 15 M. L. J. 143; नारायणसामी नायक बनाम मंजाम्मल 28 Mad. 315; इसका नतीजा यह है कि छोटी विधवा बिना मञ्जुरी बड़ी विधवाके गोद नहीं ले सकती और बड़ी विधवा ले सकती है । यह क़ायदा उसी सूरतसे सम्बन्ध रखता है जहां दोनों विधवाएं अपने पतिके बतौर वारिसके क़ाबिज़ हों । नीचे का मुकद्दमा देखो:
-
१ । लक्ष्मीबाई
जीवनराव
| २ काशीबाई
१७३
दत्तकपुत्र
लड़का ( मरगया)
जीवनराव दो विधवा और एक लड़का जो काशी बाईका था छोड़कर मर गया बड़ी विधवा लक्ष्मीबाई और छोटी काशीबाई है । लड़के के मरजाने के बाद काशीबाई बतौर मांके उसकी वारिस हुई और जायदाद पर क़ाबिज़ हुई । उसके बाद लक्ष्मीबाई ने एक लड़का पति के लिये गोद लिया । अदालत से यह तय हुआ कि गोद नाजायज़ है और यह कि अगर उसने काशीबाई की रजामन्दी भी प्राप्तकर ली हो तो भी यह दत्तक जायज़ नहीं होता; देखोआनन्दवाई बनाम काशीबाई 28 Bom 461.
यह अभीनक निश्चित नहीं हुआ कि जब अनेक विधवाऐं हों और सब - को गोद लेनेका अधिकार दियागया हो तो क्या वे दत्तक जायज़ माने जांगे ? देखो 37 Mad. 199-221; 41 I. A. 51; 29 Mad 437; 17 C. W. N. 319.
संयुक्त विधवाओंका विरोध - यदि दत्तकके रस्मके सम्बन्धमें ठीक धार्मिक अभिप्रायका हवाला मिलता है तो अदालतको उचित है कि वह यह समझे कि विधवाने धार्मिक अभिप्रायसे प्रभावान्वित होकर गोद लिया है न कि स्वेच्छाचारसे । संयुक्त विधवाओंके विरोध में गोदका लिया जाना या कोई अन्य सम्बन्धका समझना व्यर्थ है । महाराजा कोल्हापुर बनाम सुन्दरम् अय्यर 48 Mad, I AIR 1925 Mad 497,
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दत्तक या गोद
[ चौथा प्रकरण
जब्तीकी दशा में दत्तक - जब आखिरी मालिककी जायदाद सरकार में जब्त होगई हो, तो मी इस कारण से आखिरी मालिककी विधवाको दत्तक लेने में कोई बाधा नहीं पड़ती। महाराजा कोल्हापुर बनाम सुन्दरम् अय्यर 48 Mad. 1; A. I. R. 1925 Mad. 497.
१७४
संयुक्त विधवाएं -- जबकि कोई व्यक्ति कई विधवाओंको छोड़ कर मर गया है और उनको एक दत्तक लेनेका अधिकार दे गया है तथा एक लड़का भी गोद लेने के लिये चुन गया है । ऐसी सूरतमें यदि गोद लेनेके पहिलेही कोई विधवा मरे और उस पुत्रको गोद लिया हुआ समझ कर उसे अन्त्येष्ठि क्रिया आदिके लिये कह जाय तो गोद लेने की प्रथा होने के पूर्वही उसकी मृत्युके कारण दत्तक नाजायज न होगा। महाराजा कोल्हापुर बनाम सुन्दरम् अय्यर 48 Mad. 1; A. I. R. 1925 Mad. 497.
दफा १२४ विधवा के गोद लेनेकी मियाद
यदि पति स्पष्ट कोई मियाद नबता गयाहो तो इस बारे में कोई मियाद नहीं निश्चित है कि विधवाको पतिसे पाये हुए अधिकारके अनुसार कब दत्तक लेना चाहिये; यानी विधवा जब चाहे दत्तक ले सकती है; कोई मुद्दत उसको पाबन्द नहीं करती; देखो - F. Macn. 157; 1 N. C. 111; राम किशुन बनाम श्रीपति 3. S. D. 367; 489–494.
बङ्गालमें एक गोद, पति के मरनेके पन्द्रह १५ वर्ष के बाद लिया गया । इस मुक़द्दमे में इस बातपर बहसभी की गई थी । और बम्बई प्रांत के मुक़द्दमों में गोद लेने की हद बीसें पच्चीसें बोवन और इकहत्तर सालतक मानी गई । देखो -- Amon. 2 M. Dig 18; भास्कर बनाम नारो रघुनाथ Bom. Sel. 24; ब्रजभूषण जी बनाम गोकूलूट सावो जी 1 Bor. 181 ( 202 ) निम्बालकर बनाम जयावन्तराव 4 Bom. H. C, J. (A. C. J.) 191; गि
ओवा बनाम भीमाजी रघुनाथ 5 Bom. 581; दखिना बनाम रासबिहारी 6 Suth. 221; इस केस में साबित हुआ कि विधवा बारह साल के बाद गोद नहीं ले सकती और यह मियाद पतिके मरने से पैदा होगी ।
दफा १२५ व्यभिचारिणी विधवा दत्तक नहीं ले सकती
व्यभिचारिणी विधवा दत्तक नहीं ले सकती, यानी दत्तक लेनेके समय यदि वह व्यभिचारिणी हो तो उसका लिया हुआ दत्तक नाजायज़ होगा । मगर प्रायश्चित्त करलिया हो तो दूसरी बात है; देखो - कोरी कोली थानी बनाम मनीराय 13 Bom. L. R.14.
व्यभिचारिणी विधवा धार्मिक कृत्योंके करने योग्य नहीं रहती, इस कारणसे पतिके दिये हुए दत्तक लेनेके अधिकार प्राप्त होनेपर भी वह दत्तक
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दफा १२४-१२६]
विधवाका गोद लेना
१७५
नहीं ले सकतीः देखो-मेन हिन्दूला छठवां एडीशन पेज ११७ मुल्ला हिन्दूला दूसरा एडीशन पेज ३८० दफा ३८१ ___व्यभिचारिणी विधवा गर्भवती होनेपर दत्तक नहीं ले सकती चाहे उसे पतिकी आज्ञा मिल चुकी हो--थूकू बनाम रूमा 2 Bor. 446, 456; श्यामलाल बनाम सौदामिनी 5 B. L. R. 362; यदि दत्तक लेनेके बाद विधवा गर्भवती साबित हो और यह भी साबित हो कि गोदके समय वह व्यभिचारिणी थी तो दत्तक नाजायज़ होगा किन्तु दफा ४२ पैरा ६ का ध्यान ज़रूर रहना चाहिये। दफा १२६ सूतकमें दत्तक लेना
जो दत्तक सूतककी समाप्तिके पहले लिया गया हो वह नाजायज़ है अर्थात् मातमकी मियाद खतम होनेके पूर्व दत्तक नहीं लिया जासकता-रामलिङ्गपिल्ले बनाम सदाशिव 9 Mad. I. A. 506.
शूद्रोंमें दत्तक लेनेके समय किसी धार्मिक विधवाकी आवश्यकता नहीं है सिर्फ लेना और देना ही काफी है। इन्द्रामणी चौधरानी बनाम बिहारीलाल मलिक 5 Cal. 770; 7 I. A. 24 इसीलिये अगर कोई शूद्रानी सूतकके समय दत्तक ले लेवे तो वह नाजायज़ नहीं होगा । द्विजोंके लिये सूतकमें दत्तक लेना नाजायज़ है; देखो-थंगथन्ना बनाम राममुदाली 5 Mad. 358. दफा १२७ धमकी देकर मोद दिलानेका असर
एक मुक़द्दमेमें जब पतिकी लाश घरमें पड़ी थी. उसकी नाबालिग विधवाको यह धमकी देकर कि जबतक वह दत्तक नहीं लेगी तबतक लाश उठने नहीं पायेगी, गोद दिलाया गया, तो उस विधवाका यह दत्तक लेना इस बुनियादपर नाजायज़ मानागया कि बेजा असर और धमकी देकर दत्तक दिलाया गया था और एक यह बुनियाद भी मानी गई कि दत्तक लेते समय विधवा सूतकमें थी। देखो-रंगनायकम्मा बनाम अनवरसेटी 13 Mad. 2143; देखो दफा १३६. दफा १२८ पुनर्विवाहित विधवाका गोद लेना।
:: कोई विधवा जो अपना पुनर्विवाह करले उसके बाद पहले पतिके लिये गोद नहीं ले सकतीः देखो-पञ्चप्पा बनाम सनगमवसाबा 24 Bom. 8994; पुतलाबाई बनाम महादू 33 Bom. .107. दफा १२९ अनेक लड़कोका गोद लेना
जहांपर जायज़ माना गया है, विधवा एकके बाद दूसरेके क्रमसे अनेक लड़के गोद ले सकती है । मगर गोद लेनेके समय पहला लड़का जीवित न हो, .
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दत्तक या गोद
[चौथा प्रकरण
यदि पतिने स्पष्ट मनाही करदी हो तो नहीं ले सकती; देखो-29 Mad. 382, 23. I. A. 145.
उदाहरण-अजने अपनी स्त्रीको एक पुत्र गोद लेनेका अधिकार दिया और मरगया। विधवाने रामदासको गोदलिया। रामदास मरगया तव शिवदासको गोदलिया। अगर वह भी मर जाय तो विधवा तीसरा, चौथा गोद लेसकती है। मानागया है कि अधिकार एकही पुत्र पर नहीं समाप्त हो जाता
और अगर पतिने दूसरा लड़का गोद लेनेकी स्पष्ट मनाही करदी हो तो नहीं लेसकती क्योंकि उस सूरतमें अधिकार पहिला लड़का गोद लेते ही समाप्त हो जाता है । प्रिवीकौंसिल की राय कुछ इसके विरुद्ध है; देखो-19 I. A. 108;19 Cal. 513. इस फैसले से शास्त्री जी० सरकार असंतुष्ट हैं । दफा १३० पतिके मनाही करनेपर दत्तक
यह नियम प्रायः सब जगह पर माना जाता है कि जब पति स्पष्ट मनाही कर गया हो कि मेरे लिये दत्तक न लिय जाय तो विधवा गोद नहीं ले सकती।
गोदका अधिकार देनेकी रीति और असर
दफा १३१ गोद लेने का अधिकार कैसे दिया जायगा ?
__ प्रत्येक हिन्दू आदमी गोद लेनेका अधिकार अपनी स्त्रीको ज़बानी और लिखा हुआ दोनों तरहसे दे सकता है-( 1905 ) 28 All. 377; 33 J. A. 55. गोद लेनेका अधिकार वसीयतनामे के द्वारा भी दिया जा सकता हैसरोदा बनाम तिनकोरी 1 Cal. H. R. 223; 1 Mad. 174; 4 I. A. ].
किसी विशेष बातके होनेपर भी दत्तक विधान जायज़ समझा जायगा, बशर्ते कि उस बातके होनेपर दत्तक विधान हुआ हो; यानी अधिकार देनेके लिये कोई खास रीति आवश्यक नहीं है। अधिकार किसी शर्तके साथ भी दिया जासकता है जो किसी विशेष घटनाके होनेपर काममें लायाजाय । मगर यह ज़रूर है कि अधिकार देनेवालेके लिये उस समय कोई ऐसी बात न हो जिससे वह अधिकार देनेकी योग्यता न रखता हो 1 Beng. S.D. 324 जैसे पति अपने पुत्रके जीवनकालमें स्वयं कानूनन् दत्तक नहीं लेसकता इसलिये उसका दिया हुआ अधिकार नाजायज़ होगा। अगर मा और पुत्र में मतभेद रहता हो तो ऐसे पुत्रके मर जानेपर अधिकार जायज़ होगा । इसी तरह पर
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दफा १३०-१३२] गोदका अधिकार देनेकी रीति और असर
१७७.
उस समय भी ऐसा अधिकार जायज़ होगा जब एकके पश्चात् दूसरा लड़का गोद लेने का अधिकार दियागया हो, यानी पहिला लड़का मर जाय तब दूसरा गोद लियाजाय । लड़केकी मौजूदगीमें बापको स्वयं गोद लेनेका अधिकार नहीं है--सलूकना बनाम रामदुलार 1. S. D. 324; गापीलाल बनाम मु० चन्द्रावली 19 Suth. 12 ( P.C.) 1.
पहले लड़केके जीतेजी दूसरा गोद नहीं लिया जासकता-श्यामचन्द्र बनाम नारायणी 2 S. D. 209 (279); भुवनमयी बनाम रामकिशोर 10 M. I. A. 279, S. C. 8 Suth. ( P. C. ) 15; जमुना बनाम बामासुन्दरी 3 I. A. 725 SC. 1 Cal. 26. Suth. 21; 15 Bom. 565 में मानागया है. कि पति अज्ञान होनेपर भी गोद लेनेका अधिकार दे सकता है चाहे उस समय स्त्री भी नाबालिग हो।
किसीकी सलाहसे दत्तक लेनेका परिणाम-एक नवयुक हैज़ेक आक्रम से अचानक मर गया। वह एक अनुमति पत्र लिख गया जिस में, उसकी स्त्री को उसके पिताकी सलाहसे दत्तक पुत्र लेनेकी स्वीकृति थी। विधवा जायदाद सम्बन्धी कुछ अदालती झगड़ोंके कारण शीघ्र गोद न ले सकी, और इसी बीच में उसका स्वसुर, जिसकी स्वीकृति अनुमति पत्रके अनुसार आवश्यक थी मर गया । गोद बिना स्वीकृतिके ही लिया गया
तय हुआ कि पति ने स्त्री को गोद लेने की स्वीकृति दे दी थी, यदि परिस्थिति के कारण उसके पिता की स्वीकृति असम्भव हो गई, तो दत्तक नाजायज़ नहीं हो सकता। राजेन्द्रप्रसाद बोस बनाम गोपालप्रसाद बोस 4 Pat. 67; A. I. R. 1925 Patna. 442. दफा १३२ गोद लेनेका अधिकार किसे दिया जासकता है ?
लड़का गोद लेने का अधिकार पुरुष सिर्फ अपनी स्त्री को ही दे सकता है दूसरे किली पुरुष या स्त्री को नहीं दे सकता । कारण यह है कि पुरुषका आधा शरीर स्त्री मानी गई है, 'पुत्रत्व' दोनो हीसे पैदा होता है । इससे गोद या तो पति ले सकता है या उसकी आज्ञासे और उसके मरने के पश्चात् उस की विधवा । दूसरे किसी भी रिश्तेदार को ऐसा अधिकार नहीं दिया जा सकता और पति इस अधिकार देने में दूसरे किसी को शरीक भी नहीं कर सकता--अमृतलाल बनाम सरनमयी 27 Cal. 996, 27 I. A. 128. ___यद्यपि पति अपनी स्त्रीको गोद लेनेका अधिकार देते हुए किसी दूसरे को शामिल नहीं कर सकता, मगर पति ऐसी आशा दे सकता है कि अमक पुरुषसे सलाह लेकर वह गोद ले, या अमुक पुरुषसे बिना सलाह लिये हुए स्त्रीको गोद लेने का अधिकार नहीं होगा। परन्तु यदि किसी विधवाको इस तरह की आज्ञा मिली हो तो विधवा अगर चाहे तो सलाह लेवे और न चाहे
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दत्तक या गोद
[चौथा प्रकरण
तो यह इस बातकी पाबन्द नहीं है । बिमा उसकी सलाहके भी गोद लेसकती है। देखो-सुरेन्द्र बनाम सेलाजी 18 Cal. 385 लेकिन जब ऐसी आज्ञा होकि बिना अमुक की सलाह गोद लेनेका अधिकार नहीं है तो विधवा बिना उसकी सलाहके गोद नहीं ले सकती और अगर ले तो नाजायज़ होगा--रंगू बाई बनाम भागीरथी बाई 2 Bom. 377; 27 Cal. 996-1002, 27 I. A. 128-134.
उदाहरण--महेशने :वसीयतनामे के द्वारा अपनी विधवा और अपने बाचा उमाशङ्करको यह अधिकार दिया कि, मेरे लिये एक लड़का गोद लेना। अधिकार मिलने के बाद विधवा और उमाशङ्कर ने गोद लिया । माना गया कि गोद नाजायज़ है, और अगर अकेले विधवा गोद लेती तो भी नाजायज़ होता, क्योंकि गोद लेनेका अधिकार दूसरे आदमी के साथ विधवा को दिया गया था, न कि अकेली विधवाको।
दत्तककी आज्ञाका अनुमान--किसी जवान श्रादमी की मृत्यु पर, जिस की नयी शादी हुई हो उसकी पत्नी को दत्तक लेने की स्वीकृति देनेके सम्बन्ध में यह देखना आवश्यक है कि वह मृत्युके पूर्व कितने दिन तक बीमार रहा
जब कि यह दावा था कि एक ३० वर्षका जवान मनुष्य, जिसका व्याह केवल तीन वर्ष पहिले हुआ था, जिसने कि अपनी मृत्यु के तीन दिन पहिले अपनी दूसरी स्त्रीको दत्तक लेने का अधिकार दिया थाः--
तय हुआ कि जबतक कि उस मनुष्यपर किसी विषम रोगका आक्रमण नहुभा हो, यह सम्भव नहीं हो सकता कि उसको दत्तक लेने की आवश्यकता प्रतीत हुई हो, इस लिये यह प्रश्न कि वह अपनी मृत्युके पहिले कितने दिन बीमार रहा था एक महत्व पूर्ण प्रश्न है, जिसके द्वारा यह निश्चित किया जा सकता है कि आया उसने दत्तक लेने की स्वीकृति दी होगी या नहीं
यह भी तय हुआ कि विरुद्ध पक्ष इस बातको नहीं साबित कर सका, कि उन दिनों में जब कि यह बीमार बताया गया है, वह अपना काम करता था अतएव हाईकोर्ट के इस फैसले में कि दत्तक 'स्वीकृति' था बाधा डालने की आवश्यकता नहीं प्रतीत होती; रामदीनसिंह बनाम मु० चन्द्राम कुंवर 22 L. W.91; 89 I. C. 565; A. I. R. 1925 P. C. 54 ( P.C.) दफा १३३ कई विधवाओं को गोद लेने का अधिकार देना
जब दो या दो से ज्यादा विधवाओं में से किसी एक को गोद लेनेका अधिकार दिया गया हो तो वह विधवा बिना दूसरी विधवाओं की मञ्जुरी के गोद ले सकती है। यह निश्चित नहीं है कि जब अनेक विधवाओं को
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दफा १३३-१३४]
गोदका अधिकार देनेकी रीति और मसर
१६
मुश्तरका गोद लेनेका अधिकार दिया गया हो तो क्या वह अधिकार जायज़ होगा? माना गया है कि जहां मुश्तरकन् गोद लेने का अधिकार दिया गया हो वहांपर सब विधवाएं मुश्तरकन् गोद लेंगी। अगर उनमें से कोई मर जाय तो गोद नहीं हो सकता। इसपर प्रिवी कौंसिलका मुकदमा देखो-37 Mad. 199; 41 I. A. 51.
जहां पर अनेक विधवाओं को गोद लेनेका भधिकार पतिने दिया हो तो ऐसी सूरतमें बड़ी विधवाको अधिकार गोद लेनेका होता है, छोटी को नहीं। यदि बड़ी विधवा इनकार कर दे तो छोटी ले सकती है--विजय बनाम रञ्जीत 38 Cal. 694; 18 Cal 69, 39 Cal. 582.
उदाहरण-एक हिन्दने अपनी दो त्रियोंके नाम घसीयत की कि, जो लड़का उसका नज़दीकी हो गोद लिया जाय, और यह भी कहा गया कि दोनों मिलकर गोद लेवें । ऐसी सूरत में दोनों विधवाएं मिलकर गोद ले सकती हैं और अगर उनमेंसे कोई विधवा मर जावे, तो प्रिथी कौंसिल की राय है कि बाकी विधवाएं गोद नहीं ले सकतीं, क्योंकि अधिकार मुश्तरकन दिया गया था। एक विधवा के मरनेपर अधिकार टूट गया; देखो-नृसिंह बनाम पार्था सारथी 37 Mad. 199, 41 I. A. b1.
ऐसे अधिकारमें गोद लेते समय मुश्किल होगी, क्योकि सब विषषापं कैसे एक साथ गोद ले सकती हैं ? माना गया है कि एक तो गोद लेगी और बाकी सब किसी न किसी गोदकेकृत्यमें शरीक रहेंगी। इस तरहपर 'मुश्तरकर का अर्थ ठीक हो जायगा और वह गोद जायज़ माना जायगा।
जब कोई हिन्दू अपनी विधवा और एक पुत्र छोड़कर मर जाय, और तत्पश्चात् पुत्र भी निस्सन्तान मर जाय, तो प्रथम विधवा का दत्तक लेनेका अधिकार समाप्त हो जाता है और वह उस सूरत में भी कि उसकी विधवा बहू दूसरी शादी भी करले दत्तक महीं लेसकती, (Baker J C. and Prideaux A. J. C. ) गनपति बनाम मु० सालू 89 I. C 385. दफा १३४ अधिकार गर्भवती को
- जब किसी ने अपनी गर्भवती स्त्री को, गर्भवती मालूम होनेपर यह अधिकार दिया हो कि अगर उसके लड़का पैदा होकर मर जाय तो दूसरा लड़का गोद ले । पतिके मरने के बाद उस गर्भ से लड़की पैदा हो, तो यह तय हो गया है कि फिर वह विधवा दूसरा लड़का गोद नहीं ले सकती-महेन्द्र लाल बनाम रुकमनी 1 Cory ton 42, Cited V. Darp. 814.
यद्यपि उसे अधिकार था परन्तु वह लड़कीकी ज़िन्दगीमें दूसरा लड़का गोद नहीं ले सकती थी। इस बारे में एक राय यह भी मानी गयी कि अगर
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[ चौथा प्रकरण
१८०
दत्तक या गोद
लड़का पैदा होकर मर जाय तो भी विधवा गोद नहीं ले सकती थी । इस क़िस्मका एक केस देखो -- सदर अदालत बङ्गाल 1849 P. 41.
जब कोई पुरुष, सन्तान होनेसे नाउम्मैद हो गया हो और उसकी स्त्री गर्भवती हो तो यह बात उसे गोद लेनेसे नहीं रोक सकती । गोद लेनेके बाद • यदि असली लड़का पैदा हो जाय तो दत्तक नाजायज़ नहीं होगा- - दौलतराम बनाम रामलाल 29 All 310; 3 Mad. 180; 12 Bom 105 ऐसी सूरतमें दत्तक पुत्र और धौरस पुत्र अपने स्कूल के अनुसार हिस्सा पावेंगे । देखो -- दफा २७०, २७१.
जब गर्भ में बच्चा हो ऐसी दशा में विधवा बिना आज्ञा पतिके अगर. दत्तक ले तो नाजायज़ होगा । सन्तान का अस्तित्व उसी समय से माना जायगा जबसे वह गर्भ में आया; देखो -- 1927 H. L. J. 6.
दफा १३५ अधिकार ठीक तौर से काम में लाया जायगा
पतिने जो अधिकार दिया हो, ठीक उसी के अनुसार काम करना ' चाहिये । उसमें किसी तरहका परिवर्तन या विस्तार या संक्षेप नहीं किया जा सकता चाहे वह नाजायज़ हो जब कि वह किया जाय; जैसे दो विधवाओं को एक साथही दो लड़के गोद लेना; देखो -- सुरेन्द्र केशव बनाम दुर्गासुन्दरी 19 I. A. 108 P. 122; S C; 19 Cal. 513.
अगर विधवाको यह अधिकार दिया गया हो कि वह किसी खास मुद्दतके अन्दर गोद लेवे तो वह उस मुद्दतके बाहर गोद नहीं ले सकती-मुतसही बनाम कुन्दनलाल 28 All 377; 33 I. A. 55.
इसी तरहपर विधवाको जब किसी खास लड़के के गोद लेनेका अधिकार मिला हो तो वह उसको छोड़कर दूसरा गोद नहीं लेसकती चाहे वह लड़का गोद लेने योग्य न हो और चाहे उसके माता पिता भी उसे न देते हों; अर्थात् अगर वह लड़का न मिल सके या गोद के योग्य न हो तो भी वह दूसरा लड़का गोद नहीं ले सकती -- 14 Mad. 65, 26 Mad. 681,685.
बम्बई प्रांत में विधवा उस सूरत में दूसरा लड़का गोद ले सकती है जब पति के बताये हुए लड़के के माता पिता उसे देने से इनकार कर दें या वह लड़का ही गोद लेने के योग्य न हो। और अगर पतिने स्पष्ट रीतिसे यह कह • दिया हो कि सिर्फ वही लड़का गोद लिया जाय और दूसरा लड़का गोद न न लिया जाय तो विधवा फिर दूसरा लड़का गोद नहीं ले सकती; देखोलक्ष्मी बाई बनाम राजाजी 22 Bom. 996.
जब किसी मठ के अध्यक्ष द्वारा, उस के दो शिष्योंके पक्षमें लिखे हुए अङ्गीकार पत्र में लिखा हो, “यदि मेरे जीवन कालमें कोई पुत्र गोद न लिया
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दफा १३५-१३६]
गोदका अधिकार देनेकी रीति और असर
१८१
गया, तो मेरी पत्नी को अधिकार होगा, कि वह क्रमशः पांच पुत्र एक की मृत्युके पश्चात दूसरे को गोद ले। उक्त पत्नी को तुम्हारी स्वीकृति के साथ किसी गोस्वामी परिवारकी सन्तान या मेरे भतीजोंमें से किसी को दत्तक लेनेका अधिकार होगा। उसे तुम्हारी स्वीकृति के बिना दत्तक लेने का अधिकार न होगा' तय हुआ कि वाक्य "उसे तुम्हारी स्वीकृतिके बिना दत्तक लेनेका अधिकार न होगा' केवल हुक्म ही न समझा जाना चाहिये, किन्तु अङ्गीकार पत्रकी शर्तों को ध्यान में रखते हुए, यह आवश्यक है कि लगाये हुए प्रतिबन्धोंका पालन अत्यन्त आवश्यक है और दत्तक को जायज़ बनाने के लिये यह अत्यन्तावश्यक है कि लड़के का निर्वाचन और दत्तक की प्रथा शिष्यों की स्वीकृति के साथ की जाय ।
यह भी तय हुआ कि दत्तक लेने के अधिकार का सम्पूर्णतया पालन किया जाना चाहिये, उस अधिकार में न तो कोई परिर्वतन होना चाहिये और न वृद्धि ( देखो Mayne 8th Ed. P. 14) 19 C. 513. जब अधिकार में प्रतिबन्ध स्थापित करने के विशेष कारण उपस्थित हो जाते हैं और पत्नी की रहनुमाईके लिये विशेष हिदायतें की जाती हैं तथा अधिकार में प्रतिबन्ध लगा दिया जाता है, तब उनका पालन बहुत ही पूर्णताके साथ होना चाहिये। (चटर्जी और पियर्सन जज) प्रण गोपाल गोस्वामी बनाम चन्द्रमोहन चक्रवर्ती 41 C. L. J. 55; A. I. R. 1925 Cal. 619. दफा १३६ गोदका अनुचित अधिकार देना
(१) पतिका दिया हुआ दत्तक लेनेका अधिकार उस सूरतमें काममें नहीं लाया जायगा जबकि अधिकार देनेवाला अपने लड़के, पोते, परपोतेमें से किसी एकको छोड़कर मर गया हो, देखो-भुवनमयी बनाम राकिशोर आचारी 10 Mad. I. A. 279; पद्मकुमारी देवी बनाम कोर्ट श्राफ वार्ड्स 8 I.A. 229. इन मुक़द्दमों में कहा गया कि गुरुकिशोर अपना लड़का भवानी और एक विधवा चन्द्रावलीको छोड़कर मर गया। गुरुकिशोरने अपनी स्त्री चन्द्रावलीको खास तौरपर यह अधिकार दिया था कि अगर मेरा बेटा भवानी मरजाय तो वह गोद लेवे । बापके मरनेके बाद भवानीने विवाह किया और बालिग हुआ तथा एक विधवा अपनी छोड़कर मरगया मगर उसके कोई औलाद न थी उस वक्त चन्द्रायलीने पतिकी भाशानुसार रामकिशोरको गोद लिया । रामकिशोरने भवानीकी विधवा भुवनमयीपर जायदादके दिलापानेका दावा दायर किया । अन्तमें प्रिवीकौंसिलने फैसला किया कि पश्चात्के गोद लेनेकी वजहसे विधवा जायदादसे अलहदा नहीं की जासकती। इस विषयपर लार्ड किंगसडौनने कहा कि जिस समय चन्द्रावलीने अपने दत्तक लेनेके अधिकार को काममें लाना चाहा था उस समय उस अधिकारमें यह योग्यता न रही
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१२
दत्तक या गोद
[चौथा प्रकरण
थी कि उसकी तामील की जाय, क्योंकि भवानीके मरनेपर उसकी विधवा उत्तराधिकारिणी होगई थी, । इस बातपर यह वहस की गई कि गुरुकिशोरने कोई मियाद नियत नहीं की थी, कि अमुक समय तक विधवा इस अधिकार को अपने काममें लासकती है इसलिये उसका अधिकार बिला हहके था। इसके जवाबमें अदालसने कहा कि कोई हद ज़सर होना चाहिये। अगर भवानी कोई असली लड़का या दत्तकपुत्र छोड़कर मरता और वह लड़का दूसरा लड़का छोड़कर मर जाता और चन्द्रापलीकी ज़िन्दगीमें वह बालिग होजाता, तो चन्द्रावलीका गोद लेनेका इरादा इस तरहका होता कि, सिलसिलेवार कोई वारिसके मरने के बाद आखिरी गोद लेने वालेके परदादाके लिये गोद किया जाय । चाहे उसका कुछ भी इरादा हो मगर क्या कानून ऐसा करनेकी आज्ञा देता है ? हम ऐसा ख्याल करते हैं कि अदालत मातहतकी राय थी कि अगर भवानी कोई बेटा छोड़ जाता या, यह कि लड़का न छोड़ने की दशामें भवानीकी विधवा योग्य रीतिसे कानूनी अधिकारके अनुसार अपने पतिके लिये कोई लड़कागोद लेलेती तो जो चन्द्रावलीको गोद लेनेका अधिकार दिया गया था उसका नाश होजाता। परन्त यह जानना बहुत कठिन है कि कौनसी बातें इसके परिणामके लिये नियत की जासकती हैं जो हमारे सामनेके मुक्तइमेसे एकही तरहपर न हों। फिर यही प्रश्न भुवनमयी और चन्द्रावलीके मरनेपर पैदा हुआ । रामकिशोर उस जायदादपर काबिज़ होगया जो गुरुकिशोर और भवानीने छोड़ी थी। तब एक दूसरे नज़दीकी वारिस रिश्तेदारने रामकिशोरपर उस कुल जायदादके दिला पानेका दावा किया। इस मुकदमे में कहा गया कि रामकिशोरका दत्तक नाजायज़ है। हाईकोर्ट बङ्गालने दावा डिसमिस किया; देखो-पद्मकुमारी बनाम जगतकिशोर 5 Ch). 615. इस मुक़दमेके फैसलेमें प्रिथी कौंसिलकी तजवीज़के असरको जो पहिले हो चुकी श्री महदूद करदिया गया जिस तजवीज़में फैसला हो चुका था कि रामकिशोर मुद्दईको उस जायदादके पानेका कोई हक नहीं है जिसका दावा रामकिशोरने भुवनमयीपर किया था। मगर बङ्गाल हाईकोर्टका यह फैसला भी जुडीशल कमेटीने मन्सूख कर दिया, देखो-पद्मकुमारी बनाम कोर्ट आफ घाईस 8 I. A. 229. आखिरी नतीजा यह निकाला गया कि-भवानीको जायदादमें हक्क पैदा होनेसे अधिकारकी समाप्ति होगई जो चन्द्रावलीको मिला था, या यह कि दत्तकका अधिकार पुत्रकी मौजूदगीमें दिया ही नहीं जासकता था, इसलिये वह तामीलके योग्य नहीं रहा । ऊपरके दोनों मुकद्दमों का विचार फिर मदरास हाईकोर्ट के निम्नलिखित मुकदमों में करने की ज़रूरत हुई
थयामल बनाम घेकटराम 14 I. A. 67; S.C. 10 Mad. 205; तथा ताराचरण बनाम सुरेशचन्द्र 16 I. A. 166; S. C. 17 Cal. 122. इस मुक्त
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दफा १३६]
गोदका अधिकार देनेकी रीति और असर
१८३
इमेमें सभी बातें पहलेके दोनों मुकद्दमोंकी तरहपर थीं। फरक सिर्फ इतना था कि इस मुक़द्दमे में विधवाने अपने पतिके सपिण्डोंकी आज्ञासे गोद लिया था। यह दत्तक असली लड़केके मरनेके बाद और उस लड़केकी विधवाकी मौजूदगीमें सपिण्डोंकी मंजूरीसे लिया गया था। जब दत्तक लेनेवाली विधवा मरगई और असली लड़केकीविधवा भी मरगई तब नज़दीकी वारिस ने दत्तक पुत्रसे जायदाद दिलापानेका दावा किया। अदालतसे यह फैसला किया गया कि दत्तक बिल्कुल नाजायज़ था और यह दत्तक वारिसके हकको मिटा नहीं सकता । यही नतीजा बम्बईके मुकदमोंमें भी मानागया।
(२) पांच लड़कोंतक गोदकी इजाज़त-इसी सिद्धांतके अनुसार बंबई और बङ्गालमें अनेक मुकदमें फैसल हुए-रामसुन्दर बनाम सुरबनीदास 22, Suth. 21. के मुक़दमे में पतिने अपनी स्त्रीको अधिकार दिया था कि वह एक दूसरेके मरजानेके बाद पांच बेटे तक गोद ले। इस अधिकारके अनुसार विधवाने क्रस्टोचरणको दत्तक लिया। वह गोद लेनेके बाद बारह सालतक ज़िन्दा रहा; पीछे मरगया। फिर विधवाने एक और लड़केको गोद लिया। इस दूसरे लड़केके गोद लेनेपर उत्ताधिकारीने आपत्ति की, हाईकोर्टमें इस बातपर विचार किया गया कि उपरोक्त मुक़द्दमा ( भुवनमई बनाम राकिशोर आचारी 10 Mad. I. A. 279.) के अनुसार विधवाको दूसरा लड़का गोद लेनेका अधिकार नहीं है । कारण यह बताया गया कि कृस्टोचरण बारह वर्षतक ज़िन्दा रहकर समस्त आत्मिक धर्मकृत्य अपने गोद लेनेवाले मृतपिताके सम्बन्धमें पूरेकर चुका और यह समझमें आता है कि उसने सब मज़हबी काम पूरे कर दिये होंगे परन्तु हाईकोर्टने तजबीज़ किया कि बिधवाका दूसरा दत्तक लेना नाजयज़ नहीं है, क्योंकि चाहे लड़का बालिग होगया हो, और हिन्दू धर्म शास्त्रानुसार आवश्यक धर्मकृत्य पूरे कर चुका हो तो भी वह ऐसा नहीं माना जायगा कि लड़केने सब धार्मिक कृत्य समाप्त करदिये जो उसके मृत पिताके लिये शास्त्रमें बताये गये हैं। इसका उद्देश्य यह है हिन्दू धर्मकृत्य परम्परा वंशवृद्धिसे सम्बन्ध रखता है जैसे पिण्डदान या जलदान आदि क्रियाएं तीन पुश्ततक चलती हैं और उनसे मृत पुरुषकी आत्माको लाभ पहुँचता है। भुवनमयीके मुकदमे में हाईकोर्टने यह राय प्रकाशित की कि प्रिवीकौंसिल का यह मतलब था कि भवानीकिशोरकी विधवाको मालिकाना अधिकारसे च्युत रखें, मगर यह राय हालके मुकदमे में जुडीशल कमेटीके फैसलोंसे सन्देहजनक होगई । यह ज़रूर है कि हाईकोर्ट के सामने जो मुकद्दमा था वह उन तीनों मुकद्दमोंसे अलहदा था; गोकि पक्षकारकी तरफसे भुवनमयीके मुकदमेका हवाला दिया गया था मगर वह मुकदमा उससे नहीं मिलता था। पहलेके मुकद्दमेमें लड़केकी मौजूदगीमें गोद लेनेकी इजाज़त थी; दूसरेमें पतिके मरते समय कोई लड़का नहीं था; देखो-8 I. A. 229; 14 I. A. 67; 16 I. A. 166.
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दत्तक या गोद. -
[ चौथा प्रकरण
(३) दादीका गोद लेना - 27 Bom. 492 के मुक़द्दमेंमें जो बम्बई हाईकोर्ट के सामने था जिसमें एक हिन्दू पुरुष अपनी मां और स्त्री तथा एक नाबालिग लड़का छोड़कर मरगया । बाप के मरनेके बाद वह लड़का बिना व्याहा अपनी मां को छोड़कर मरगया । माने एक लड़का गोद लिया, और उसकी सास ( बापकी मां ) एक लड़का गोद लिया । सासका गोद लेना नाजायज़ क़रार दिया गया, क्योंकि उस गोदसे माके हक़ चले जाते थे । माका दत्तक इसलिये जायज़ माना गया कि उसकी गोदसे सिवाय मां और किसीके हक़ नहीं जासकते थे; 11 B. I. L. R 383, 19 B. 331.
९८४
इसी सिद्धांत पर जहां पर पहले जायदाद विवाहित लड़केके नाम, और उसके मरनेके बाद उसकी विधवा स्त्रीके नाम, और उस विधवा स्त्रीके मरने से बापकी विधवाके नाम श्रई हो, तो यह तय कर दिया गया है कि वह विधवा खुद अपने पति के वास्ते अगर कोई गोद लेगी तो नाजायज़ माना जायगा; देखो-17 B. I. L. R, 164.
दफा १३७ विधवाका गोदलेनेका अधिकार कब जाता रहेगा ?
अगर पतिने ऐसी आज्ञा दी हो कि अमुक लड़का गोद लेना, तो फिर विधवा उसे छोड़कर दूसरा गोद नहीं ले सकती, और चाहे वह लड़का लेनेके योग्य न हो और चाहे उसे उसके वारिस गोद भी न दे । जब विधवा उसे गोद ले लेगी तो अधिकार जाता रहेगा । फिर उस अधिकार के अनुसार दूसरा लड़का गोद नहीं लेसकती चाहे वह दत्तक पुत्र मर भी जाय; देखोचौधरी पद्म बनाम कुँवर उदय 12 M. I. A. 356.
मदरास प्रांत में यह माना गया है कि जब पतिने वसीयतनामे द्वारा गोद लेने की आज्ञा दी हो और तदनुसार विधवाने गोद लिया हो तथा गोदके बाद वह पुत्र मरगया, तो फिर विधवा सपिण्डोंकी इजाज़तसे दूसरा लड़का गोद ले सकती है; बशर्तेकि पतिने दूसरा लड़का गोद लेना मना न किया हो; 'देखो - पाराशरभट्ट बनाम रंगरोजा 2 Mad. 202.
सरकारद्वारा ज़ब्ती पर, गोद लेना -- किसी राजा की जायदाद सरकार ने उसकी मृत्युके पश्चात् जब्त कर लिया । आखिरकार सरकारने जायदादको राजाके वारिसोंके लिये छोड़ दिया और उसे राजाकी बड़ी विधवापर अर्पित किया । उसे प्रबन्ध करनेका अधिकार था और दूसरी विधवाओं को जो संयुक्त वारिस थीं, उससे उनके हिस्से के अनुसार लाभ पहुँचाना था। जीवित विधावाओं की मृत्युके पश्चात् राजाकी लड़की और उसके पश्चात राजाके अन्य वारिस जायदाद के वारिस होने को थे । इस ग्रांट की स्वीकृत के पश्चात् बड़ी विधवा ने गोद लिया ।
A
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एफा १३७-१३८]
पतिकी आज्ञासे विधनाका दत्तक लेना
१८५
.. तय हुआ कि मामले की सूरतमें सरकारी जन्ती न थी और यदि सरकारी ज़ब्ती होती तो भी उसके कारण, विधवा के दत्तक लेने के अधिकार में कोई बाधा न आसकती थी--
___ यह भी तय हुआ, कि ग्रांट में दत्तक लेने की मनाही नहीं है और उस म किती प्रकारकी ऐसीही बात नहीं है जो दत्तक पुत्रको वारिस होनेसे रोकती हो किन्तु गोद लेने के कारण ग्रांट में वर्णित शर्तों और प्रबन्ध के सम्बन्धमें कोई हस्तक्षेप नहीं किया जासकता । महाराजा कोल्हापुर बनाम एस०सुन्दरम् अय्यर, 48 Mad. 1. A. I. R. 1925 Mad. 497.
जब विधवा बिना अपने पति की स्पष्ट आज्ञा के या. शेष हिस्सेदारों की रजामन्दीके कोई दत्तक लेती है तो वह नाजायज़ होता है और उसे संयुक्त परिवार की जायदाद में हिस्सा पाने का अधिकार नहीं होता। बाबना संगप्पा बनाम परब निङ्ग बासप्पा A. I. R. 1927 Bom. 68.
जैन-विधवा विना अपने पति या सपिण्डों की रजामंदी के गोद नहीं ले सकती । गाटेप्पा बनाम इरम्मा A. I. R. 1927 Mad: 228.
(ग) पतिकी आज्ञासे विधवाका दत्तक लेना
दफा १३८ पति के लिये केवल विधवाही दत्तक ले सकती है।
बङ्गाल और बनारस स्कूलके अनुसार पतिकी प्राशासे विधवा दत्तक ले सकती है, यदि उस आशामें दत्तक लेने की योग्यता हो; देखो--दफा ११८ पैरा २ और ३ हिन्दू धर्मशास्त्रानुसार पतिके अङ्गका बायां भाग उसकी अर्द्धागिनी स्त्री मानी गई है। इसीसे यज्ञादि कर्मों में स्त्रीको शामिल किया है। दत्तकमें इसका नतीजा यह है कि पतिके मरजानेपर उसका बायां आधा अङ्ग (विधवा) जीवित रहता है । इसीलिये कानूनमें गोद लेनेका अधिकार केवल स्त्रीको पति दे सकता है, दूसरे किसीकोजहीं-देखो दफा १३१ । इसी उद्देश्यपर पतिके मर जानेपर भी उसकी विधवा उसके लिये दत्तक ले सकती है। विधवा को यह अधिकार नहीं है कि वह अपना अधिकार दूसरे को दे दे या उसमें किसी को शामिल करे । बम्बई और मद्रासमें विधवा सपिण्डों की मंजूरी से गोद ले सकती है चाहे, पतिकी श्राक्षा न हो। वहां पर भी दत्तक लेने का काम विधवाही पर निर्भर है। विधवा अपने अधिकार को खुद ही काम में ला सकती है-अमृतलाल बनाम सुरनमई 25 Cal. 622; 27 Cal. 996.
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दत्तक या गोद
[चौथा प्रकरण
विधवा द्वारा गोद-जब किसी व्यक्तिने, किसी लड़केके कुदरती पितासे भविष्य में उसे गोद लेनेके लिये लिया और उसका पालन पोषण अपने घरमें किया। लड़केका भविष्य में गोद के लिये लेना और देना तो हो गया किन्तु दत्तक का रस्म बाद को विधवा द्वारा किया गया। दत्तक, गोद लेने के मान्य अधिकारोंके अनुसार जायज़ है। महाराजा कोल्हापुर बनाम यस० सुन्दरम् अय्यर 48 Mud. 1; A. I, R. 1925 Mad. 497. . अधिकार की सीमायें-विधवा पुत्र का अपनी विधवा छोड़कर मरना गनपत बनाम लालू A. I. R. 1926 Nag. 15. दफा १३९ विधवा मजबूर नहीं है
. विधवाको जो अधिकार पतिसे मिले हैं उनके पूरा करनेकी मजबूरी विधवापर नहीं है। विधवा अपनी इच्छानुसार उस दत्तकके अधिकारको काममें ला सकती है और कोई दबाव उसपर इस बारेमें नहीं डाला जासकता मगर जो काम वह करे पतिकी हिदायत और कानूनके खिलाफ़ न होना चाहिये । अगर विधवाकी इच्छा न हो और वह धमकाई गई हो या कोई दबाव डाला गया हो कि वह गोद ले, तो ऐसा गोद नाजायज़ होगा; देखो-- रंगनापा कामा बनाम अलवरसेटी 13 Mad. 214-220 देखो दफा १२० यह माना गया है कि विधवा जबतक पतिसे मिले हुये अधिकारको काममें नहीं लाती तबतक वह उस हैसियतसे वारिस है जो उसको अधिकार न मिलने की सूरतमें होता। .
गोद लेना जब दूसरेकी सलाहसे कहा गया हो-अगर पति घसीयतनामेके द्वारा या और किसी तरहसे यह आशा दे गया हो कि उसकी विधवा लड़का गोद ले मगर वह अमुककी सलाहसे लिया जाय जिसको पतिने एजेन्ट के तौरपर नियत किया हो। ऐसी दशामें अगर विधवा बिना सलाह उसके गोद लेले तो जायज़ माना जायगा । क्योंकि यह माना गया है कि गोद लेनेका अधिकार सिर्फ स्त्रीको दिया जासकता है और इस तरहपर उस अधिकार के दो टुकड़ेहो जाते हैं और ऐसा अधिकार विधवाके अधिकारपर असर नहीं डालता-सुरेन्द्रनन्दन बनाम शैलजाकांत 18 Cal. 336.
इसी किस्मका एक फैसला हुआ कि वसीयत करनेवालेका मन्शा दूसरे आदमीके शरीक करनेसेयह था कि वह आदमी अच्छी तरहपर जांच करके बुद्धिमानीके साथ कामकी सहूलियतमें मदद देगा। मगर इस मतलब के लिये नहीं कि गोदकी किसी ज़रूरी शर्तका यह कहना कोई हिस्सा है, 24 I. L. R. Cal. 589.
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दफा १३६-१४० ]
पतिकी आज्ञासे विधवाका दत्तक लेना
दफा १४० विधवा और दत्तक पुत्रका इकरारनामा
जब पतिने विधवाको सामान्य गोद लेनेका अधिकार दिया और उसमें खास तौर से यह न बताया हो कि विधवा और दत्तकपुत्र जायदादका लाभ किस तरहपर उठावेंगे, ऐसी दशा में अगर विधवा और दत्तकपुत्रके कुदरती वली बाप या मांके दरमियान कोई इक़रारनामा इस बातका लिखाजाय कि 'दत्तकपुत्रका 'अधिकार विधवा के जीवन भर नहीं होगा, जायदादपर विधवा क्राबिज़ रहे और उसके मरनेपर दत्तकपुत्र को जायदाद मिले, यह इक़रारनामा उस दत्तकपुत्रके लिये माननीय होगा और जायज़ होगा ।
एक हिन्दू विधवाने अपने पतिके दिये हुये अधिकारके अनुसार पतिके मरनेके बाद नाबालिग लड़केको गोद लिया । विधवाने दत्तक लेनेके दिन एक दस्तावेज़ रजिस्ट्री कराया जिसमें दत्तक लेने की बातके सिवाय इस बातकी व्यवस्था लिखी गई कि दत्तक पिताकी जायदादका लाभ किस रीति से विधवा और दत्तकपुत्र श्रापसमें उठावें । उसमें एक शर्त यह थी कि अगर गोद लेनेवाली माता और दत्तक पुत्रके बीचमें परस्पर मतभेद हो तो माता अपनी उमर भर पति की जायदादकी मालिक रहेगीः उसके मरनेपर दत्तकपुत्र पावेगा दत्तक लेने का अधिकार विधवाको पतिने ज़बानी दिया था। सिर्फ़ यह कहा था कि "एक लड़का दत्तक लेना” वह लड़का और विधवा जायदादका किस तरहपर लाभ उठावें इस बातका पतिने कुछ भी ज़िकर न किया था । विधवाने दत्तक लेने के समय जो इक़रारनामा किया था उसका मतलब यह था कि दत्तक लेनेके बाद भी विधवा पतिकी जायदादका उमर भर लाभ उठावेगी । 'लाभ' से मतलब मुनाफा या अन्य फायदे की बातोंसे है । प्रबन्ध भी लाभ उठानेवाले के पास रहता है ।
इक़रार नामे जो शर्तें लिखी गयी थीं उनको दत्तक पुत्रके असली बापने मजूर किया था दत्तक लिये जाने से पहले । पीछे दत्तक पुत्र और विधवा में मतभेद हो गया । दत्तक पुत्रने अपने असली पिता के द्वारा विधबा पर नालिश की कि उसे दत्तक पिता की सब जायदाद दिला दी जाय। अदालतने फैसला किया कि विधवा और दत्तक पुत्रके बीचमें जो इक़रारनामा रजिस्ट्री हुआ है उसका पाबन्द दत्तक पुत्र है विधवा अपनी उमर भर जायदादपर क़ाबिज़ रहेगी; देखो - विशालाक्षी अम्मल बनाम शिवनारायन 27 Mad. 577.
दत्तक--आया विधवा किसी दत्तक पर कोई पावन्दी कर सकती है, उसकी पाबन्दी अवश्य होगी, मित्रसेन बनाम दाताराम 24 A. L. J. 185; A. I. R. 1926 All. 7.
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श.
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दत्तक या गोंद
चिौथा प्रकरण
जैन विधवा और दत्तकके मध्य इकरारनामा-आया दत्तकपर पाबन्दी है। मित्रसेन बनाम दाताराम 24 A. L. J. 185; A. I. R. 1926 Aii. 7. दफा १४१ कुटुम्बका लड़का गोद लेना चाहिये
जब किसी विधवा ने गोद लेनेका सामान्य अधिकार पतिसे पाया हो कि "हमारे लिये लड़का गोद लेना" तो ऐसा लड़का गोद लिया जाना चाहिये जिसका शरीक होना खानदान में जायज़ हो । जहां तक हो सके नज़दीकी सपिण्ड का लड़का गोद लेना चाहिये जो एक ही गोत्रका हो, यानी सगोत्र सपिण्डका नज़दीकी लड़का । दत्तक मीमांसा और दत्तक चन्द्रिकामें भी यही माना गया है। तथा देखो-फैसला सदर अदालत मदरास 1 Vol. 105 और देखो दफा १७३, १७६. दफा १४२ पैदा होने वाले पुत्रके लिये गोद की आज्ञा
(१) अय्यापिल्ले का केस--बीरपरमल बनाम नारायण पिलैय्यर 1 Str. N, C. 91 के मुकदमें इस किस्मके वाकियात थे--पतिने अपनी स्त्री को यह लिख दिया था कि "अगर अय्यापिल्लेके वर्तमान पुत्र के सिवाय एक और पुत्र हो तो उसको तुम मेरे बंशमें ले लेना" ऐसा लिखने वालेके मरने के बाद अय्यापिल्लेका कोई दूसरा पुत्र नहीं हुआ। तब विधवा ने काफ़ी इन्तज़ार करनेके बाद दूसरा पुत्र दत्तक लिया । अदालत में वारिस की तरफ से दावा 'करने पर जजों ने कहा कि ऐसी सूरत में विधवा अनन्त काल तक प्रतीक्षा करने के लिये बाध्य नहीं है और उसका किसी दूसरे लड़के को गोद लेना नाजायज़ नहीं है । उस लिखित का यह अर्थ माना गया कि लिखने वाले की प्रधान इच्छा यह थी कि उसके लिये कोई लड़का गोद लिया जाय; दूसरी इच्छा यह थी कि वह लड़का उस व्यक्ति का हो जिसका नाम उस लिखितमें बताया गया है।
इस मुकद्दमेके बाद बम्बईका दूसरा मुकद्दमा इसी तरहका है जिसमें अदालत ने कहा कि दत्तकका अधिकार देने वाले पतिके लिये यह आम बात है कि वह उस लड़केका नाम भी बता दे कि जिसे वह गोद लेना चाहता है। किन्तु यदि पीछे वह लड़का मर जाय, या उसके मां बाप देनेसे इन्कार करें तो कमसे कम बम्बई प्रांतमें उसी अधिकार से दूसरा लड़का दत्तक लिया जा सकता है, यदि पति यह न लिख गया हो या कह गया हो कि अमुक लड़का ही गोद लिया जाय और दूसरा नहीं। बम्बई प्रांतमें यह समझा जाता है कि पतिकी इच्छा गोद लेने की थी। किसी लड़केका नाम लिख देना केवल अपनी पसन्द प्रकट करना है-26 Mad. 681; 22 Bom 996.
(२) इलाहाबाद का फैसला-बनारस और बंगाल में यह बात नहीं मानी जायगी। वहांपर पतिके बताये हुए लड़केके सिवाय विधवा दूसरा लड़का
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दफा १४१-१४३ ]
बिना आशा पतिके विधवाका दत्तक लेना १८३
गोद नहीं ले सकती । यदि यह लड़का मर जाय या न मिल सके, तो उसका गोद लेनेका अधिकार समाप्त हो जाता है । यदि पतिने साधारण अधिकार दिया हो कि 'एक लड़का गोद लेना” तो विधवा सगोत्र सपिण्ड मेंसे नज़दीकी लड़केको जहांतक होगा गोद लेगी। मगर एक हालके मुक़द्दमे में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने फैसला किया, जिसमें एक हिन्दू पतिने विधवा को एक खास घराने का लड़का गोद लेने की आज्ञा दी थी; उस समय उस घराने में चार लड़के थे, लेकिन विधवाने पतिके मरने के बाद जो लड़का उस घराने में चारोंके अलावा पैदा हुआ उसे गोद लिया । इस मुक़द्दमे का फैसला प्रिवी कौंसिलने यह किया कि वह छोटा लड़का अपने भाइयों की अपेक्षा उमरके ख्यालसे गोद लेने के लिये अधिक योग्य था; उसे गोद लेकर विधवाने पतिकी आशाका अच्छा उपयोग किया, देखो - मुतसद्दीलाल बनाम कुन्दनलाल 33 I. A. 55; 28 All. 377.
(घ) बिना चाज्ञा पतिके विधवाका दत्तक लेना
दफा १४३ बिना आज्ञा पतिके विधवा का दशक
( १ ) मदरास और बम्बई प्रांतमें यह बात मानी गई है कि बिना श्राज्ञा पतिके विधवा दत्तक लेसकती है, मगर बङ्गाल और इलाहाबाद हाईकोर्ट मैं नहीं मानी गई देखो -- दफा ११८, जो दत्तक बिना आज्ञा पतिके सपिण्डों की मंजूरी के अनुसार होता है उसका क्या असर होगा ? शास्त्री जी० सरकारकी राय है कि हिन्दुस्थान के दक्षिण, और पश्चिम, तथा कुछ उत्तरमें इस विषय में सपिण्डोंकी रजामन्दी काफी समझी गई है। कितने सपिण्डों की रजामन्दी ज़रूरी होगी इस विषय में मद्ररास हाईकोर्ट में एक मशहूर मुक़द्दमे का फैसला हुआ है-
जब कोई व्यक्ति एक पुत्र और विधवा छोड़कर मर जाय और पुत्र भी उस के बाद एक लड़की और अपनी विधवा को छोड़ कर मर जाय; तथा इसके पश्चात् उस पुत्र की विधवा और लड़की भी मर जाय, तो प्रथम विधवा थामी लड़के की विधवा मां अपने पति के लिये गोद ले सकती है । महाराजा कोल्हापुर बनाम एस० सुदरम् अय्यर 48 Mad. 1, A. I. R. 1925 Mad. 497.
बम्बई में विधवाका गोद-जज स्पेंसर की राय है कि सन् १६७४ के लगभग, यह मौजूदा क़ानून कि विधवा बिना अपने पति की स्वीकृति के गोद
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दत्तक या गोद
[चौथा प्रकरण
ले सकती है मौजूद था जैसा कि बम्बई में ब्याख्या की गई है। यद्यपि व्यवहार मयूस्त्र लगभग सन् १७०० ई० से कार्यमें परिणत हुआ है किन्तु इसने किसी नये कानून को ईजाद नहीं किया बक्लि उस कानून की घोषणा किया है जो लिखे जानेके पूर्व प्रचलित था। महाराजा कोल्हापुर बनाम यस सुन्दरम् अय्यर 48 Mad. 1, A. 1. R. 1925 Mad. 497.
दत्तक विधवाद्वारा मद्रास प्रणाली-मद्रास प्रणाली के अनुसार विधवा को गोद लेने के लिये पुत्री के पुत्र से, जो कि बालिग हो और जो कि ठीक दूसरा पारिस होगा परामर्श लेने की आवश्यकता है। ए० ब्रह्मप्पा बनाम सी० रत्तप्पा 83 I. C. 59, A. I. R. 1925 Mad. 69.
दत्तक विधवाद्वारा--विधवा को गोद लेने के लिये दो सम्बन्धियोंमें से केवल पक की स्वीकृति की आवश्यकता है। एक ब्रह्मप्पा बनाम सी० रत्तप्पा 38 I. C. 59; A. I. R. 1925 Mad. 69.
(२) घटे हुए परिवार में एक सपिण्ड की मञ्जूरी काफी हैं। देखोकलक्टर आफ मदुरा बनाम मोटो रामलिङ्गम् 2 Mad. H. C. 206, 12. M. I. A. 897, 1 B. L. R. (P. C. ) 15 S. C. 10 Suth. ( P.C.) 17.
रामनाद केस-ऊपर के मुकदमे में विधवा ने अपने पतिकी अलहदा जमीदारीका वारिस बनाने के लिये पति के अधिक सपिण्डोंकी मञ्जूरीके अनुसार दत्तक लिया था जो सपिण्ड उस समय जीतेथे उनमें अधिकसपिण्डोंने मञ्जूरी दी थी। प्रश्न यह उठाथा कि “दक्षिण हिन्दूस्थानमें गोदकी मञ्जूरी देनेकेलिये सपिण्डोंकी संख्या कितनी होना चाहिये जो ऐसे गोदको जायज़ कर सकें जो बिना आशा पतिके गोद लिया गया हो" मदरास हाईकोर्ट ने इस प्रश्न पर अपनी राय दी। कहा कि दत्तक जायज़ है । उद्देश यह माना गया कि कानून की दृष्टि से दत्तक असलमें भाई या सपिण्ड से पुत्र पैदा कराने के प्राचीन नियोग नामक सिद्धांतके अनुसार मजूरीसे सम्बन्ध रखता है, और सपिण्डों की. रज़ामन्दी इस बारेमें केवल सभ्यता के लिहाज़से नहीं, बल्लि दूसरे तौरसे भी अधिक आवश्यक है, जो सपिण्ड योग्य रीतिसे और जिसे पतिके अन्य तमाम अधिकार दिये गये हों, और समझे जाते हों एक भी मञ्जूरी दे दे तो बह मञ्जूरी गोद लेनेके लिये उचित होगी। सभी मेम्बरों की मञ्जूरी होना ऐसे मामले में मुश्किल होगी। इस लिये एक मेम्बर--सपिण्ड की मजूरी काफी होगी जो योग्य हो और समाज के ज़ाहिरा उद्देश के विरुद्ध न हो तथा मजूरी किसी दूसरी गरज़से न दी गयी हो । यह फैसला जुडीशल कमेटीने बहाल रखा । यह रामनाद केसके नाम से मशहूर है 12 M. I. A. 397.
(३) मुश्तरका खानदान में-जहांपर कि खानदान शामिल शरीक हो वहां पर विधवा अपने पतिकी जायदाद के हिस्से से फायदा नहीं उठा सकती
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दफा १४३]
बिना आज्ञा पतिके विधवाका दत्तक लेना
१५१
उसे केवल रोटी कपड़े का अधिकार है । यह सिद्धांत उन स्कूलों से लागू नहीं होगा जिनमें कि इसके विरुद्ध बयान किया गया है । अगर किसी विधवाके पतिका बाप जिन्दा हो तो वही खानदानका मुखिया और विधवाका रक्षक होगा, तथा उसे तमाम खानदानी आवश्यकताओं के पूरा करने का अधिकार है। ऐसी सूरत में विधवा सिर्फ अपने ससुर की रजामन्दी से पतिके लिये दत्तक ले सकती है और वह दत्तक जायज़ होगा । यदि ससुर न जीता हो, तो उन भाइयोंकी रजामन्दीसे. जो गोद लेने की हालत में पतिकी जायदाद के हक़दार होंगे, गोद ले सकती है और वह गोद जायज़ होगा।
उदाहरण-(१) अज और शिव दोनों भाई मुश्तरका खानदान में रहते हैं और मिताक्षरा स्कूल मानते हैं । अज अपनी स्त्री को एक लड़का गोद लेनेका अधिकार देकर मर गया । अजके मरने पर उसका हिस्सा जो जायदाद में था सरवाइवरशिप (दफा ५५८) के हक के अनुसार शिवको पहुँच गया। शिवकी ज़िन्दगी में अजकी विधवा ने अपने पति के लिये एक लड़का गोद लिया । अब गोदका असर यह हुआ कि दत्तक पुत्र "कोपार्सनरी" (दफा ३६६) के अनुसार जायदादका वैसाही मालिक हो गया जैसा कि उसका दत्तक पिता था: देखो-सुरेन्द्र बनाम शैलजा 18 Cal. 385.
(२) अज और शिव दोनों भाई मिताक्षरा स्कूलके पाबन्द हैं और मुश्तरका खानदान में रहते हैं । अज अपनी स्त्री को गर्भवती छोड़कर मरा। उसके बाद शिव एक वसीयत के द्वारा अपनी स्त्रीको एक दत्तक पुत्र लेनका अधिकार देकर मर गया। शिव के मरनेके पश्चात दूसरे दिन अजकी विधवा के गर्भसे एक पुत्र पैदा हुआ । इसके तीन मास के बाद शिव की विधवा ने पतिके लिये एक लड़का गोद लिया। माना गया, कि वह दत्तक जायज़ है। अजका औरस पुत्र और शिवका दत्तक पुत्र दोनों "कोपार्सनर" तरीके रहेंगे और दोनों जायदादको मुश्तरका रखेंगे; देखो-बच्चू बनाम मनकूरी बाई 31 Bom. 373; 34 [ A. 107; 29 Bom. 51.
(३) बम्बई में एक केसका फैसला बड़ी बारीकी से किया गया । उसमें शकल यह थी-अज और शिव मुश्तरका रहते हैं। अज मरगया और उसकी जायदादका हिस्सा उसके भाईको सरवाइवरशिप (दफा ५५८ ) के द्वारा पहुँच गया। पीछे शिव मरा और विधवा छोड़ी। अब शिव को कुल जायदाद बहैसियत वारिस के मिली, जिसपर कि उसका पति मरने के वक्त हकदार था। पश्चात अजकी विधवा ने पतिके लिये एक लड़का गोद लिया । ऐसी सूरतमें दत्तक नाजायज़ माना गया यद्यपि दत्तक पतिकी आशानुसार लिया गया था। इसमें यह सिद्धांत लागू किया गया कि शिवके मरतेही जायदाद उत्तराधिकार के अनुसार उसकी विधवा को मिल गयी और मुश्तरका खानदान टूट गया। देखो--चन्द्र बनाम गूजरा बाई 14 Bom. 463. ....
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दत्तक या गोद
[ चौथा प्रकरण
बिना कारण बताये हुए ही रजामन्दी देने से इन्कार करने की अवस्था में यह आवश्यक नहीं है कि इस प्रकार की अस्वीकृति अनुचित ही हो, जब तक कि कारण न तलब किया जाय और उसके बताने की इन्कारी न प्रगट हो जाय । ए० ब्रह्मप्पा बनाम सी० रत्तप्पा 83 I. C. 59, AIR 1925 Nag. 1 ( F. B. )
दफा १४४ बटे हुए कुटुम्ब में बिना आज्ञा पतिके दत्तक लेना
बटे हुए खानदान में जब पति मरा हो और विधवा को पति की जायदाद बरासतमै अलहदा मिली हो वहांपर किसी क़ायदे के क़ायम करने के लिये बहुत ही कठिनता होगी । जब पतिने गोद लेनेका अधिकार न दिया हो तो बम्बई और मदरास स्कूलमें विधवा सपिण्डोंकी मञ्जुरीसे दत्तक ले सकती है, मगर नज़दीकी सपिण्डों की रजामन्दी आवश्यक होगी जिनका दत्तक से इक़ मारा जाता हो । अगर दूसरे सपिण्डों की रजामन्दी नहीं प्राप्त की गयी हो तो हर्ज़ नहीं होगा; यानी सिर्फ इस वजह से गोद नाजायज़ नहीं हो जायगा । नज़दीकी सपिण्डोंकी सब की रजामन्दी होना चाहिये । सपिण्डों की रजामन्दीका आधार यह माना गया है कि स्त्रियोंमें खुदमुखतारी की योग्यता नहीं होती । बम्बई के एक मुक़द्दमेमें यही निश्चित किया गया है; देखो - बिट्ठोबा बनाम बाबू 15 Bor. 110.
१६२
उदाहरण-- ( १ ) जय बटे हुए खानदानमें रहता है । एक लड़की छोड़ कर मर गया । उसकी विधवा लड़का गोद ले सकती है । लड़कीका कोई हक़ नहीं है जबतक विधवा जीती रहे । अगर विधवा बिना दत्तक लिये मर जाय तो लड़की का हक़ पैदा होगा ।
(२) जन एक विधवा लक्ष्मी बाई को छोड़ कर मर गया और यह अधिकार भी दे गया था कि वह दो लड़के एकके बाद दूसरा गोद लेवे । लक्ष्मीबाई ने पति के मरने पर प्रधुमन को गोद लिया । गोद लेने की तारीख से १२ वर्ष के बाद प्रद्युमन बिन ब्याहा मर गया । अब सब जायदादकी मालकिन बहैसियत दत्तक पुत्रकी माता के लक्ष्मी बाई फिर हुई । तब उसने दूसरा लड़का गोद लिया । माना गया कि दत्तक जायज़ है; देखो - रामसुन्दर बनाम सरबनी दासी ( 1874 ) 22 W. R. 121.
( ३ ) अज ने अपने मरने के समय एक लड़का और अपनी विधवा को छोड़ा तथा उसने विधवाको यह अधिकार दिया था कि अगर लड़का मर जाय तो गोद लेवे । अज के मरमेपर सब जायदाद उसके लड़के को पहुँच गयी । पीछे वह लड़का अपनी विधवा छोड़ कर मर गया जिसका नाम जमुना बाई था लड़के के मरनेपर सब जायदाद बहैसियत वारिसके उसकी विधवा जमुना बाईको पहुँची। पश्चात अजकी विधवा ने पति के लिये एक लड़का गोद लिया।
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दफा १४४]
बिना आज्ञा पतिके विधवाका दत्तक लेना
इस गोदके समय जमुना जीवित थी । माना गया कि दत्तक नाजायज़ है। क्योंकि यद्यपि अजकी विधवा को गोद लेनेका अधिकार था, परन्तु जायदाद जमुना के अधीन थी; देखो--भुवनमयी बनाम रामकिशोर आचारी 10 M. I. A. 279; पद्मकुमारी वनाम कोर्ट आफ वार्ड्स 8 Cal. 302, 8 I. A. 229.
नोट-इम उदाहरण में अंगर जमुना पहिले मर जाती तो सब जायदाद की वारिस बहैसियत माता के अजकी विधवा हाती उस समय भी दत्तक नाजायज़ हो सकता था। मदरास में अगर अजकी विधवा पतिके सपिण्डा की मंजूरी से पति के लिये दत्तक लेती. जहां ऐसा हो सकता है, तो वहांपर भी दत्तक नाजायज होता, क्योंकि दोनों में एकही सिद्धांत लागू होताहै; 10 Mad. 2057 44 I.A. 67 बम्बई में भी ऐसा दत्तक नाजायज़ माना गयाहै। देखो 9 Bom. 94.
(४) अज मर गया और उसने एक लड़का तथा अपनी विधवा छोड़ी। लड़के को सब जायदाद पहुँच गयी । उसकी शादी हुई । पीछे वह अपनी विधवा जमुना को छोड़कर मर गया। कुछ समय में जमुना मर गयी । अब सब जायदाद अजकी विधवाको बहैसियत लड़के की मांके पहुँची। तब उसने पतिके लिये एक लड़का गोद लिया। माना गया कि दत्तक नाजायज़ है, क्योंकि विधवाके गोद लेने के अधिकारका अन्त हो गया जब अजका पुत्र, विधवा छोड़कर मर गया क्योंकि सम्भव था कि वह कोई दूसरी औलाद छोड़ जाता; 17 Bom. 164; 33 Cal. 1306; 33 Mad. 228.
(५) अजं एक लड़का और विधवा 'सुन्दरी' को छोड़ कर मर गया। बापकी जायदादका लड़का वारिस हुआ। पीछे लड़का एक पुत्र शिवको छोड़ कर मर गया । शिव बापकी कुल जायदाद का वारिस हो गया। शिव बिन
नव सब जायदाद सन्दरी को बहैसियत दादीके पहँची। तब सुन्दरीने पतिके लिये लड़का गोद लिया माना गया कि दत्तक नाजायज़ है, क्योंकि अधिकार में ताक़त गोद लेने की नहीं रही थी; देखो-रामकृष्ण बनाम श्यामराव 26 Bom. 526.
(६) अज मर गया। उसने अपनी विधवा सुन्दरी को और अपने पोते (पौत्र ) शिवको छोड़ा । शिव सब जायदाद का बहैसियत दादा के पोते के पारिस हुआ। शिव बिल ब्याहा मर गया मरनेके सयम कोई विधवा या दत्तक नहीं छोड़ा। अब सब जायदाद सुन्दरी को बहैसियत दादीके मिली ।सुन्दरी ने एक लड़का पतिके लिये गोद लिया। माना गया कि दत्तक जायज़ है। यह ध्यान रखो कि अगर शिव विधवा छोड़ कर मर जाता तो सुन्दरी का गोद लेने का अधिकार समाप्त हो जाता, चाहे वह विधवा पीछे मर भी जाती।
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दत्तक या गोद
- [चौथा प्रकरण
दफा १४५ ससुर के मर जानेपर रजामन्दी
जब विधवाका ससुर ( पतिका बाप ) मर गया हो या मौजूद न हो, तो दत्तककी रजामन्दीके सम्बन्ध में कोई ठीक कायदा कायम करना कठिन है। जिस मुक़दमे में ससुरकी रजामन्दी न हो वह अपने खानदान की हालत पर निर्भर होगा। इस बारे में सिर्फ इतनाही कहा जा सकता है कि ऐसे मुकद्दमे में रिश्तेदारों की रजामन्दी की ऐसी शहादत होना चाहिये जिससे अदालतको ठीक तौर से मालूम और साबित हो जाय कि विधवा ने दत्तक विधान ठीक और योग्य रीति से किया है, तथा दत्तक धार्मिक कृत्य के पूरा करानेके लिये लिया गया है। वह किसी बुरे इरादे या क्रोधसे या किसी को नुकसान पहुँचानेकी गरज़से नहीं लिया गया है।
अगर सपिण्डोंकी रज़ामन्दियां मोल ली गयी हों और वह योग्य रीति की न हो तो वह गोदके जायज़ करनेके लिये काफ़ी नहीं हैं, चाहे वह दत्तक के लिये मज़बूत शहादत भी हों। अगर विधवा दत्तक के पूर्व कोई अयोग्य अलदहगी आदि अनुचित काम, काममें लावे तो उससे लड़के के हक़में बाधा नहीं पड़ेगी। यह माना गया है कि जब पतिने गोद लेनेकी आशा न दी हो तो इस शुभ कामके लिये सपिण्डोंकी मञ्जूरी है, मगर यह बात उस वक्त नहीं मानी जायगी जब पतिने मनाही करदी हो या मनाहीका अर्थ उसके कामोंसे निकलता हो या और अन्य बातें हों जो दत्तक की आवश्यकता को मिटा देने बाली हों। दफा १४६ मदरास में सपिण्डों की मञ्जूरी ज़रूरी है
यह बात अकसर मानी गयी है कि अगर प्रधान सपिण्डकी मञ्जूरीसे विधवा गोद ले, तो वह दत्तक जायज़ होगा। मगर इसके खिलाफ एक मुक़द्दमे में बहस की गयी कि सपिण्डोंकी मञ्जूरी गैर ज़रूरी है मगर कोर्टने नहीं माना; देखो- असदादी बनाम कुप्पामल 3 M. H. C. 283; पराशर बनाम रामगरज2 Mad. 206:23 Mad. 486.
(१)त्राकोर केस-इसी क्रिस्मका एक मुकद्दमा कुछ फरक्कके साथ पावंकोरमें पैदा हुआ। उसमें विधवा ने बिला रज़ामन्दी पति के भाई के जो शामिल शरीक रहता था दूसरे सपिण्डों की रज़ामन्दी से दत्तक लिया। अदालतने कहा कि दत्तक नाजायज़ है । चीफ़ जज साहब ने फैसलेमें कहा कि हिन्दू धर्मशास्त्रके अनुसार स्त्री स्वतन्त्र नहीं है। पहिले अपने बापकी निगरानी में रहकर पतिकी निगरानी में आती है, और पतिके मरनेपर विधवा अफसर खानदानकी निगरानी में रहती है । यह माना गया है कि ससुर के मौजूद न होनेपर बड़ा भाई अफसर खानदान होगा और कानूनकी दृष्टि से तथा यों भी
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दफा १४५-१४६]
बिना आज्ञा पतिके विधवाका दत्तक लेना
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वही विधवा की खबरदारी रखनेका पूरा अधिकार रखताहै । इसलिये उसकी रज़ामन्दी निहायत ज़रूरी इस मुक़द्दमे में है जो नहीं ली गयी, और जो इस योग्य था कि विधवाके लिये हुए दत्तक पुत्र की शादी आदि कामों में मदद दे और खर्व करे। अगर खानदान बटा हुआ होता तो इस मुक़द्दमे की शकल दूसरी होती, क्योंकि ज़ाहिरा फिर विधवापर निगरानी करनेका अधिकारी कोई खास आदमी नहीं हो सकता था और न उसको गुज़ारा देनेपर मजबूर हो सकता था। इसलिये हिन्दू धर्म शास्त्रानुसार अविभक्त परिवार में भाईकी ज़िन्दगी में वही अफसर खानदान है और जहां पर ऐसे ज्यादा भाई हो वहां पर बड़ा भाई अफ़सर खानदान होगा। आगे चीफ जज ने फ़रमाया कि मुझे यह ठीक नहीं मालूम होता, कि सबसे नज़दीकी और जो वास्तव में अफ़सर खानदान तथा विधवाका रक्षक था उसकी रजामन्दी न लेकर एक दूर के अजनबी आदमीकी मजूरी से जायदादका वारिस बनाया जाय इसलिये मैं दत्तक नाजायज़ करता हूं। इस मुक़द्दमेका अपील प्रिवी कौंसिल में हुआ और फैसला बहाल रहा; देखो--रामासामी बनाम भगाती अम्मल 8 Mad. Jur 58.
(२) ब्रह्मपुर केस--ब्रह्मपुरका मुक़द्दमा बिल्कुल त्रावन्कोर के मुकद्दमे की तरह था। वाकियात यह थे-मुश्तरका खानदान में चीना कमडीका रहने वाला एक ज़मीदार, अपने भाई और विधवाको छोड़कर मर गया, और एक बटे हुए खानदानके सपिण्ड को जो पिदाकमडीका ज़मीदार था छोड़ा सिवाय इसके दूसरे सपिण्ड न थे। मृतपुरुष और उसका भाई शामिल शरीकथे और वही भाई वारिस भी था । विधवा ने पिदाकमड़ी के ज़मीदार के बेटेको बिला रज़ामन्दी पतिके भाईके गोद लिया और दावा किया कि उसे पतिके लिये गोद लेने का अधिकार है और सपिण्डोंकी तरफ से काफी मञ्जरी भी है। अदालतने फैसला विधवा के विरुद्ध किया; रघुनाधा बनाम प्रजाकिशोर 3 I. A. 154:S. C.1 Mad. 69S. C. 25 Suth. 291. अदालत के इस फैसले अपील हाईकोर्ट में किया गया, अपीलमें फैसला मन्सून हो गया। अपीलमें कहा गया कि एक सपिण्डकी मजूरी गोद के लिये काफ़ी है और नज़दीकी वारिस के हकके सम्बन्धमें ख्याल न होना चाहिये। जब यह फैसला जडीशल कमेटी के सामने गया तो उसने हाईकोर्ट की राय रद करदी, कहा गया कि हाईकोर्ट ने गलत राय कायम की है। करीब करीब वही कारण दिखाये जो त्रावन्कोरके केसमें दिखलाये गयेथे; यानी गैरशरीक दूरके सपिण्डकी रजामन्दी काफी नहीं होगी। अर्थात् जब खानदान शामिल शरीक हो तो रज़ामन्दी उसी खानदानके प्रधान मेम्वर से ली जाना चाहिये, न कि दूरके सपिण्डोंकी, जो जुदा रहता है । क्योंकि हिन्दू सोसाइटी में मुश्तरका खानदानकी यह एक रसम है और वह सब बातोंमें शरीक रहता है। मज़हबी रसमों में और खान पान आदि में; हिन्दू स्त्री शादी होने के बाद उसी मुश्तरका खानदानकी मेम्बर
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दत्तक या गोद
[चौथा प्रकरण
हो जाती है और विधवा होनेकी हालत में अपनी परवरिश का दावा उसी खानदान पर रखती है और वही खानदान विधवाकी परवरिशका ज़िम्मेदार है। हर ऐसे खानदान में एक अफसर खानदान ज़रूरत के अनुसार होना आवश्यक है। इस मुकदमे में विधवा ने देवर की रजामन्दी न लेकर दूर के सपिण्डकी मञ्जुरी से दत्तक लिया है इस लिये नाजायज़ है।
अदालत मदरासमें यह स्वीकार किया गया है कि जहां पर पतिका परिवार हर एक दूसरेसे अलहदा हो तो फिर किसी एक मेम्बर की रजामन्दी काफी होगी मगर विधवा पर लाज़िम है, कि वह हर एक सपिण्ड के पास अपनी बातको निवेदन करे; देखो-पराशर बनाम रङ्गराज 2 Mad 2025 26 Mad. 627 आगे हाकिम ने यह भी फरमाया कि यह तो सभी मानते हैं कि मज़दीकी सपिण्डोंकी रज़ामन्दी दूरके सपिण्डों की रजामन्दी से ज़रूरी और योग्य है । इस मुकदमे में ऐसी रज़ामन्दी का पता नहीं लगता और जो कुछ अदालतके सामने है वह इतनाही है कि महादेवी ने यह कहकर कि उसके पास पतिकी आज्ञा है पिदाकमड़ीके ज़मीदारसे लड़का मांगा और उसे दत्तक लिया और कोई बात ऐसी ज़ाहिर नहीं होती कि पिदाकमड़ी के ज़मीदारने कभी यह झ्याल कियाहो कि विधवा को पतिने दत्तक लेने की आशा दी थी। विधवाको दत्तक लेने का अधिकार ऐसी सूरतमें नहीं रहा जबकि उसके देवर की रज़ामन्दी न थी देखो-करुणाब्धि बनाम रतनामैएर 7 I. A. 173; S. C. 2M ad. 270.
बेङ्कट लक्षिमण बनाम नारासाया 8 Mad. 545; इस मुकदमेमें विधवा ने झूठी बात कहकर कि उसे पतिकी आज्ञा गोद लेने की है सपिण्डोंकी मञ्जूरी प्राप्त कर ली थी जो शामिल शरीक रहते थे । जुडीशल कमेटी ने दत्तक नाजायज़ कर दिया; कहा कि विधवाने चालकीसे मञ्जूरी प्राप्त की थी।
(३) जब गोदकी मजूरी अपने लाभके लिये दी गयी हो - कुछ ऐसे मुकदमें भी हैं जिनमें वाजबी सपिण्डों की मजूरी होनेपर भी, इस बुनियाद पर नाजायज़ कर दिये गये कि सपिण्डोंने मजूरी अपने लाभके लिये दी थी, 7 I. A. 1737 2 Mad. 270; 2 Mad, 2017 इसके विरुद्ध लेखो--23 Mad. 486.
(४) ससुर या उत्तराधिकारियोंकी रज़ामदी दरकार है-जो विधवा जायदादमें अधिकार न रखती हो और जिसका पति मरने के समय अपने कुटुम्बियों से जुदा न रहता हो उस विधवाको ऐसा अधिकार नहीं होगा कि पतिकी प्राशा के बिना या ससुर या शरीक सपिण्डों की रजामन्दी के बिना दत्तक ले सके; देखो--6 Bom. 498; 15 Bom. 110; 29 Bom. 410; 31 •Bom 3733 34 I.A. 107. . . . .
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दफा १४७१
बिना आशा पतिके विधवाका दत्तक लेना
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(५) अगर पतिने स्पष्ट रीति से मनाही कर दी हो तो फिर विधवा किसी स्कूल के अनुसार गोद नहीं ले सकती। दफा १४७ बम्बई प्रांतमें सपिण्डों की मंजूरी कब ली जायगी ?
बम्बई प्रांतमें बटे हुए कुटुम्ब की प्रत्येक विधषा को अपने अधिकार से गोद लेने की स्वतन्त्रता है। मगर विधवा को ऐसी स्वतन्त्रता होनेपर भी उसे पोतेकी जिन्दगी में विधवा दादी को गोद लेने का अधिकार नहीं हैंरामजी बनाम घामव 6 Bom. 498; केशव बनाम गोबिन्द 9 Bon. 94.
जब जायदाद की मालिक केवल दत्तक लेनेवाली विधवा ही हो तो उस का दत्तक लेना जायज़ है क्योंकि,दत्तक लेनेसे वह केवल अपने को जायदाद से बेदखल करती है दूसरेको नहीं इस सिद्धांतके अनुसार जब जायदादकी वारिस विधवा बहू (लड़केकी विधवा ) हो तो उस सूरतमें सासका दत्तक लेना नाजायज़ माना गया है। -देखो गावडप्पा बनाम गिरिमल 13 Bom. 331; पायअप्पा बनाम अपना 23 Bom. 327, जमुनाबाई बनाम रामचन्द्र 7 Bom. 225; 11 Bom. 383, हालके मुकदमेमें माना गया कि हिन्दू दादी जो अपने बिना व्याहे पोतेकी वारिस हुई थी उसका दस्तक लेना नाजायज़ है-कृष्णाराव त्र्यंबक हसनबीस बनाम शङ्कराव बिनायक 17 Bom. I64; 26 Bem; 526.
लल्लूभाई बनाम मानकुंवरबाई वाली नज़ीरके अनुसार बम्बई हाईकोर्ट के जस्टिस मि० बेचलर और चौबल जजकी उपस्थितिमें दत्तक लेनेकी अयोग्यताके इस सिद्धांतको उस साधारण विधवासे भी लागू करदिया है जो गोआज सपिण्डकी विधवाकी हैसियतसे वारिस हो। इस मुकद्दमेमें यह माना गया कि ऐसी विधवा दत्तक नहीं लेसती; देखो-दत्तोगोबिन्द कुलकर्णी बनाम पाण्डुरंग 32 Bom 499; 10 Bom. L. R. 692.
इस फैसलेके सम्बन्धमें मि० घारपुरेने अपने हिन्दुलॉ में आपत्ति की है। वह कहते हैं कि फ़ैसलेपर कई प्रकारकी आत्तियां होसकती हैं। उनमेंसे सबसे साफ़ आपत्ति उन वजूहातके सम्बन्धमें है, जिनकी बुनियादपर यह फैसला कियागया। इस फैसलेमें कहा गया है कि 'यह बिल्कुल बेतुकी बात है कि जो अधिकार दादीको नहीं मिल सकता वह और भी दुरके रिश्तेकी औरतको दियाजाय ।" लेकिन यह स्पष्ट है कि दोनों विधवाओंके पतियोंका दर्जा भिन्न २ है और यह उचित नहीं है कि अन्य फैसलोंका सिद्धांत जिसके उचित या अनुचित होने के सम्बन्धमें हिन्दू समाजको सन्देह है उन मुक़द्दमों यानी गोत्रज सपिण्डकी विधवासे भी लागू किया जाय जिसका उस सिद्धांतसेकुछ भी लगाव नहीं है और न होनेका कहीं इशरा पाया जाता है, देखो घारपुरे हिन्दूला दूसरा एडीशन चेपटर है।
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१६
दत्तक या गोद
[चौथा प्रकरण
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(१) विधवा माताका गोद लेना--बम्बई हाईकोर्ट में यह माना गया है कि माता विधवा जो अपने ऐसे पुत्रकी वारिस हो जो पुत्र विधवा या सन्तान न छोड़ गया हो, दत्तक लेसकती है, चाहे उसका पुत्र मरनेसे पहिले विवाह होने या दूसरी तरहकी किसी रसमसे बालिरा समझे जानेकी योग्यता माप्तकर चुका हो-विधवा माताके अधिकारमें वाधा न पड़ेगी, देखो-19Bom. ३31; 25 Bom. 30; 2 Bom. I. R. 1101. ..मगर यह भी मालूम होता है कि यदि पुत्रने अपने मरनेसे पहिले रसमके कारण वालिरा होने की हैसियत प्राप्त कर ली हो, तो माताका अधिकार गोद लेनेका चलाजाता है-बीराबाई बनाम बाई हीराबा 30 I. A. 234; 27 Bom. 492, 33 Cal. 1305; और देखो 17 Cal. 578; मानिक बनाम जगत सेठानीवाले मुक़द्दमे में दोनो पक्ष जैन धर्मके थे । इसमें यह माना गया कि दादी जो अपने पोतेकी वारिस हो वह अपने पतिके लिये गोद लेसकतीहै
(२) नज़दीकी वारिससे इजाज़त लेना-बम्बई हाईकोर्टने यह माना है कि जहां पर विधवाके दत्तक लेनेसे किसी आदमीका हक़ जो विधवाके मरनेके बाद पैदा होगा चला जाता है तो विधवा बिला रज़ामन्दी उस आदमीके दत्तक नहीं लेसकती; देखो-रूपचन्द्र बनाम रुकमाबाई 8 Bom. H. C. 114; गोपाल बालकृष्ण बनाम विष्णु 23 Bom. 250; मुश्तरकामें यही माना जायगा।
दत्तक विधवा द्वारा-विधवा द्वारा गोद लेने में भावी वारिस का परामर्श-ए० ब्रह्मप्पा बनाम सी० रत्तप्पा 83 I.C. 59; A. I. R. 1925 Mad. 69 सपिण्डकी स्वीकृतिके सम्बन्धमें अदालतका कर्तव्य है कि स्वीकृति देने के अाधार की जांच करे । यदि स्वीकृति का अभिप्राय यह है कि विधवा द्वारा किए हुए किसी इन्तकाल की भावी वारिस के किसी आक्रमण से रक्षा की जाय, तो इस प्रकार की स्वीकृति नाजायज़ होगी । यदि स्वीकृति कुछ रुपया देकर प्राप्त की गई है तो वह अमान्य है। ए. ब्रह्मप्पा बनाम सी० रत्तप्पा 83 I C.593 A. I. R. 1925 Mad. 69. .. विधवाका गोद लेनेका अधिकार बम्बई प्रणाली-बम्बई प्रणालीके अनुसार ऐसी विधवा को, जिसे अपने पति से गोद लेनेका अधिकार नहीं प्राप्त इश्रा, गोद लेने के लिये पति के सम्बन्धियोंकी स्वीकृति लेनेकी आवश्यकता नहीं है। हरिगिरि किशन गिरि गोस्वामी बनाम आनन्द भारती। ( 1925) M. W. N. 414, 21 N. L. R. 127; 22 L. W. 355; 83 I. C. 343; A. I. R 1925 P. C. 127. ( P. C.)
__ सपिण्ड की स्वीकृति-जब किसी हिन्दू विधवा को अपने पति से गोद लेने का अधिकार न प्राप्त. हुश्रा हो, और वह सबसे नज़दीकी पांच सपिण्डों में से तीन की अनुमति ले कर गोद ले..ले.और दो से गोद लेने के
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दफा १४८ - १४६ ]
बिना आज्ञा पत्तिके विधवाका दत्तक लेना
विषय में परामर्श भी न करे, तो उन दो के परामर्श न लेने का उचित कारण उपस्थित न होने पर दत्तक नाजायज़ होगा । सुब्बम्मा बनाम आदमूर्थप्पा 21 L. W. 85; ( 1925) M. W N. 107; 86 I. C. 269; A. I. R. 1928 Mad. 635.
१६६
पति के अधिकार से सपिण्ड की स्वीकृति अन्य बात है सपिण्ड की स्वीकृति का युक्त समय पर प्रयोग किया जाना चाहिये और गोद लिये जाने वाले के निर्वाचन के सम्बन्ध में भी उसके परामर्श की आवश्यकता है । ए० ब्रह्मप्पा बनाम सी रत्तप्पा 83. I. C. 59; A. I. R. 1925 Mad 69.
दफा १४८ बम्बई और मदरासमें मनाही करनेपर विधवा गोद नहीं ले लकती
बम्बई और मद्रास प्रांत में जिस विधवाको पतिने गोद लेने से मनाही कर दी हो तो वह गोद नहीं लेसकती । अगर मनाही न हो और आशा भी न दी हो तो वह सपिण्डों की मंजूरीसे गोद लेसकती है 7 Bom H.C.R.App 1. बम्बई में यदि विधवा को पतिने दत्तक लेनेका अधिकार दिया हो मगर उसके हुक्मके अनुसार गोद न लिया गया हो तो दत्तक नाजायज़ होगा 2 Mad. 270; 30 Mad 50; 34 I. A. 22.
जब पतिने अपने मरनेके समय विधवाकी हैसियतही न रखी हो तब भी वह गोद नहीं ले सकती 24 Bom. 89.
दफा १४९ जैनियोंकी विधवाको पतिकी आज्ञा आवश्यक नहीं है.
जैनियों में बिना लड़केवाली विधवाको वही सब अधिकार प्राप्त हैं जो उसके पतिको थे । इसी लिये जब विधवा दत्तक लेना चाहे तो उसे पति की आज्ञाकी ज़रूरत नहीं है और न किसी दूसरे आदमीकी रजामन्दी दरकार है; अर्थात् वह जब चाहे अपने पतिके लिये गोद लेसकती है । देखो - गोबिन्द नाथराय बनाम गुलालचन्द 5 S. D. 276; शिवसिंह बनाम मु० दाखो 6 N. W. P. 382;5 I. A. 87; 1 Al1. 688; लखमीचन्द बनाम गाटोबाई 8 All. 319. मानिकचन्द बनाम जगत सेठानी 17 Cal 518. हरनाम बनाम मांडूदिल 27 Cal. 379.
जैनियोंके सम्बन्ध में अदालतकी यह राय है कि यह लोग दत्तकको वैसा नहीं मानते जैसा कि हिन्दुओमें धार्मिक रीतियोंके पूरा करनेके लिये माना गया है। जैनियोंमें दत्तक सिर्फ़ जायदादका वारिस बनानेके लिये लिया जाता है; देखो N. WP. 392.
( १ ) जगत सेठका केस --इस मुकेद्दमेके वाक़ियात यह थे- जगतसेठ सन १८६५ ई० में मर गये और उन्होंने गोपालचन्द्र दत्तक पुत्रको तथा प्राण.
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२००
दत्तक या गोद
[चौथा प्रकरण
कुमारी अपनी विडवाको छोड़ा। गोपालचन्द्र अपना लड़का गोपीचन्द्रको छोड़कर सन् १८६८ ई० में मर गया; उसके बाद गोपीचन्द्र भी बिना व्याहा तथा बिना औलादके मर गया । गोपीचन्द्रके मरनेके बाद उसकी वारिस प्राणकुमारी हुई तब उसने अपने पतिके लिये एकलड़के जीवनमलको गोद लिया। गोपीचन्द्रके एक दूरके कुटुम्बी रिश्तेदारने प्राणकुमारीपर दावा किया । अदालतसे वादीने प्रार्थना की कि क़रार दिया जाय कि प्राणकुमारी के मरने के बाद मैं जायदाद का वारिस हूँ और जो गोद प्राणकुमारीने लिया है नाजायज़ है, हाईकोर्टसे तय हुआ कि अगर जगतसेठने गोदलेने के लिये अपनी विधवा प्राणकुमारी को अधिकार दिया होता तो गोद नाजायज़ न होता मगर इस मुकद्दमेके पक्षकार जैन मज़हब के हैं और उनके क़ानूनके अनुसार विधवा बिना आझापतिके गोद ले सकती है, इस लिये प्राणकुमारीका गोद लेना जायज़ है। देखो-नानकचन्द बनाम जगतसेठानी 17 Cal 51 8-536 हाईकोर्टने इस मुकद्दमेमै लार्ड किंग्सडौनके मतानुसार फैसला किया । यह सन्देह होता है कि यद्यपि जैन कौमकी विधवाको बिना श्राशा पतिके गोद लेनेका अधिकार है ताहम यह कयास करना मुश्किल है कि विधवा वह काम भी कर सकती थी, जिसके लिये उसके पतिने उसको मजाज़ नहीं किया था, तय नहीं हुआ बाकी अन्य बातोमे साधारण नियम लागू होंगे।
जैन-किसी आम रिवाजके प्रमाणित करने वाला फैसला, किसी वैसे ही रवाज को प्रमाणित करने में पेश किया जा सकता है । गाहेप्पा बनाम इरम्मा A. I. R. 1927 Mad. 228. दफा १५० पञ्जाबमें गोद लेनेके लिये पतिकी आज्ञा ज़रूरी नहीं है __ पञ्जाब प्रांतमें इसी तरहपर रवाज प्रचलित है । पाबमें दत्तक पुत्रको धार्मिक कृत्योंके पूरा करने की दृष्टिसे नहीं देखते, बक्लि उसे जायदादका उत्तराधिकारी नियत होनेकी निगाहसे देखते हैं । वहांपर दत्तक लेनेका उद्देश यह है कि किसी को जायदादका हक़ पानेके लिये नियत कर देना । पञ्जाब में विधवा, पतिकी श्राशासे या आज्ञा न होनेपर सपिण्डों की रजामन्दी से गोद ले सकती है। मगर जब पतिने दत्तक लेने की मनाही कर दी हो, तो वह किसी हालतमे गोद नहीं ले सकती है। देखो--पञ्जाब कस्टमरी लॉ P. 83. . पञ्जाब में दत्तक की रसम कई प्रकारसे प्रचलित है। गुरगांवमें विधवा बिना मञ्जूरी पतिके कुटुम्बियोंके गोद नहीं ले सकती और जो गोद लेगी तो वह पतिके कुटुम्बका होगा। दूसरे जिलोंमें पतिकी आशा आवश्यक मानी गयी है। देखो--पञ्जाव कस्टमरी लॉ II 145, 178, 2053 III 87, 89, 90, 16 Mad. 182.
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दफा १५०-१५१
दत्तक देनेकै साधारण नियम
(२) कौन दत्तक दे सकता है ?
दत्तक विषय का दूसरा भाग तीन हिस्से में बटा हुआ है ( क ) दत्तक देने के साधारण नियम फा १५ -१५५ ( ख ) कौन लोग दत्तक देनेका अधिकार रखते है ? दफा १५५-१६५ (ग) कौन दत्तक देनेका अधिकार नहीं रखते ? १६६-१७..
(क) दत्तक देनेके साधारण नियम
दफा १५१ धर्मशास्त्र और कानूनका विवेचन
(१) प्रायः सभी धर्मशास्त्रकारोंका मत है कि दत्तक दिया जाने वाली पुत्र कम उमर का हो और कम उमर के संबब से उसे विवेक नहीं हो सकता इसलिये पुत्रको पिता अथवा पिताकी आमासे माता ही दत्तक में कसती है। इस विषय में महर्षि मनु कहते हैं कि
माता पिता वा दद्यातां यमद्भिः पुत्रमापदि सदृशं प्रीति संयुक्तं सज्ञेयो दत्रिमः सुतः। मनु-१६८
दत्तक पुत्र उस समय माना जायगा जब माता या पिता सङ्कल्प करके किसी को सजाति में उसे दे देवें । और देखो वसिष्ठ ने कहा है १५-१-२
शोणित शुक्रसंभवः पुरुषो माता पितृनिमित्तकः तस्य प्रदान विक्रय त्यागेषु मातापितरौ प्रभवतः। न स्त्री पुत्रं दद्यात् प्रति गृह्णीयादान्यत्रानुज्ञानाद्भर्तुः।
पुत्र, रुधिर और शुक्रसे पैदा होता है और उसके पैदा होनेके कारण माता और पिता ही हैं। इसलिये उसके देनेमे, त्याग करने में माता और पिताहीका अधिकार है:बिना पतिकी आशाके स्त्रीको पुत्रकेदेने और लेने का अधिकार नहीं है । वसिष्ठके उपरोक्तं वाक्यका अर्थ यह है कि पुत्रके दत्तक देनेका अधिकार पिता और माता दोनोंको प्राप्त है । मगर अन्तिम वाक्यसे स्पष्ट है कि उन दोनोंमें पिताका अधिकार प्रधान है। मतलब यह निकला कि पिता, बिना अनु
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दत्तक या गोद
[ चौथा प्रकरण
मति पुत्रकी माता अपने पुत्रको दत्तक दे सकता है, मगर माता, बिना आशा पुत्रके पिताके दत्तक नहीं दे सकती । यह बात उस समय विशेष लागू होगी जब पिता जीवित हो ।
२०२
(२) कुछ धर्मशास्त्रकार इस बातपर आपत्ति करते हुए यह कहते हैं कि, जब बिना पत्नीकी अनुमति लिये पति अपने अधिकारसे पुत्रको दत्तकदे दे तो माताका अधिकार जिस क़दर पुत्रपर था बाक़ी रह जाता है, और उसकी क्रियाकर्म तथा श्राद्ध आदि या अन्य धर्म कृत्योंके करनेका वह पुत्र अधिकारी रहता है जैसा कि वह उस दशा में होता जब कि दत्तक दिया गया था - नारद स्मृति देखो ।
(३) हिन्दूलॉके अनुसार पिता और माता दोनोंका अधिकार अपने पुत्रके दत्तक देनेका माना गया है; कोई दूसरा आदमी दत्तक नहीं दे सकता; देखो – 12 B. H. C. 362-376. लेकिन जब पुत्रके असली पिता या माताने अपने पुत्रको गोद देदिया हो और गोद लेनेबाले पिता या गोद लेनेवाली माता ने उसे स्वीकार कर लिया हो तो ऐसी सूरतमें पुत्रका बड़ा भाई अथवा दूसरे सम्बन्धी भी उसे दत्तकके कृत्य तथा दत्तकहवनको असली पिता या माताके स्थानमें होकर पूरा कर सकनेका अधिकार रखते हैं। देखो -7 Mad. 548-551
नारायणसामी बनाम कुप्पूसामी (1887) 11 Mad. 43 – 47 वाले केसमै जस्टिस आर्थर गालिस और मुत्तूसामी ऐय्यरने कहा कि "पिता और माताके दत्तक देनेके अधिकारमें पिताका अधिकार प्रधान है, मगर विधवा माताको भी पूरा अधिकार अपने पुत्रके दत्तक देनेका है, बशर्ते कि उसका पति अपने जीवनकालमें दत्तक देनेका क़ानूनन अधिकारी रहा हो और पतिने किसी तरह की मनाही न करदी हो;" यही बात जस्टिस् मेकलीनने 30 Cal. 964 में कही है।
मि० मेन अपने हिन्दूलॉ के सातवें एडीशन पेज १६६ में कहते हैं कि यह बात तय हो गई है कि बाप अपने पुत्रको बिना मञ्जुरी अपनी स्त्रीके दत्तक दे सकता है । यद्यपि स्त्रीकी मजूरी साधारणतः लेना चाहिये; नज़ीरें देखो - आलक मञ्जरी बनाम फकीरचन्द सरकार ( 1834 ) 5 Bom. Sel. R. 356; 11 Bom, H. C. 199.
शास्त्री जी० सी० सरकार अपने लॉ आफ् एडापशनके पेज २७४-२७५ में कहते हैं कि बापके दत्तक देनेके समय जब माता आपत्ति कर रही हो तो भी वह दत्तक जायज़ होगा, मगर जब कि माता दत्तक देती हो और बाप आपत्ति कर रहा हो, तो वह दत्तक अवश्य नाजायज़ होगा ।
( ४ ) मा, बाप जिसके मर गये हों ऐसे लड़केको 'यतीम' कहते हैं । यतीम लड़केको जब उसका बड़ा भाई उसे दत्तक दे दे तो यद्यपि यह गोद
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दफा १५२ ]
दत्तक देने के साधारण नियम
अनुचित अवश्य है परन्तु फेक्टमवेलेट ( Factum valet; दफा ७३ ) के सिद्धांतानुसार अदालत उसे नाजायज़ नहीं कर देती देखो 7 Indian
Cases 427.
२०३
(५) पुतलाबाई बनाम महादू 33 Bom 107 में यह बात थी कि माताने अपनी दूसरी शादी कर ली, पीछे पहले पतिके पुत्रको दत्तक दिया अब यह प्रश्न उठा कि उसका दत्तक देना जायज़ है या नहीं ? जस्टिस स्काट ने कहा कि पुनर्विवाहित माता अपने प्रथम पतिसे उत्पन्न पुत्रको दत्तक देनेका अधिकार रखती है । इस मामले में पहले के कई मुक़द्दमोंका तथा स्मृतियोंका और क़ानून के अर्थका विवेचन किया गया है; और देखो इसी तरहका केसरामकृष्ण हिन्दूलॉ पेज ११३.
सूरत
(६) बाप मुसलमान हो गया था और माता मर गयी थी; ऐसी में पुत्रके चाचा ने दत्तक दिया और दत्तक हवन किया । मुसलमान बाप ने अपना दत्तक देनेका अधिकार अपने भाई को दिया था । जस्टिस केनडीने एक्ट नं० २१ सन १८५० ई० का हवाला देकर कहा कि ऐसा अधिकार दिया जासकता है; देखो -- श्यामसिंह बनाम शांता बाई 25 Bom 551,553. दफा १५२ सगा या सम्वन्धी दत्तक नहीं दे सकता
बाप और माता के सिवाय और कोई आदमी दत्तक नहीं दे सकता चाहे वह कितनाही नज़दीकी हो । जैसे भाई अपने भाईका दत्तक नहीं दे सकता, किसी ख़ास सूरतमें भाईका दिया हुआ दत्तक 'फेक्टम वेलेट' ( दफा ७३ ) के सिद्धांत से जायज़ मान लिया गया है परन्तु आम क़ायदा नहीं है । बाप और माता से यहांपर असली बाप और माता से मतलब है । यदि किसी लड़की मां पिताकी ज़िन्दगी में मर गयी हो और पिताने दूसरा विवाह किया हो तो, वह सौतेली मां सौतेले पुत्रको दत्तक नहीं दे सकती । इसी तरह पर जिसके अनेक स्त्रियां हों तो जिसके गर्भ से जो पुत्र पैदा हुआ होगा उस पुत्र को उसकी माता ही गोद दे सकती है । धर्म शास्त्रकारोंका मत भी यही है । और देखो -- --लक्ष्मप्पा बनाम कामप्पा 12 Bom H. C. 364; सोमशेखर बनाम सुद्रामाजी 6 Bom. 524 ( P. C. ) 130; पापा अम्मा बनाम अप्पाराव 16 Mad. 384; भाई अपने भाईको नही दे सकता; देखो व्यवस्था दर्पण श्यामाचरण सरकार P. 825; तारामनी बनाम देवनरायन 3S D. 387 - 516 मुसामी बनाम लछमी Mad. 1882 P. 97, See F. Maon 223; विरायरमल बनाम नारायण पिले 1 N. C. 91; अगर दादा या अन्य रिश्तेदार ने दत्तक दिया हो तो नाजायज़ है; देखो -कलक्टर आफ सूरत बनाम धीरसिंह fr 10 Bom. H. C. 235.
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दत्तक या मोद
,
[चौथा प्रकरण
दफा १५३ बाप और मा गोद देनेका अधिकार नहीं दे सकते
ऊपर यह कहा जा चुका है कि सिवाय बाप और मांके दूसरा कोई भी आदमी या औरत दत्तक नहीं दे सकती । इसमें यह प्रश्न उठता है कि जब माता या पिता गोद देनेका अपना अधिकार किसी दूसरेको दे गये हों अथवा दिया हो तो वह दत्तक दे सकता है या नहीं ? हिन्दुलॉ में माना गया है कि बाप और मांको स्वयं यह अधिकार नहीं है कि वे अपने गोद देनेके अधिकार को किसी दूसरे को दे सकें, और उन्हें यहभी अधिकार नहीं है कि वे अपने किसी लड़के से अपने मरने से पहले कह जायें कि वह अपने भाई को गोद देवे; अर्थात् माता और पिता अपना गोद देनेका अधिकार किसी दूसरे को नहीं दे सकते देखो-वशीटी अप्पा बनाम शिवलिङ्ग गप्पा 10 Bom. H. C.268. दफा १५४ अनाथ बालक गोद नहीं दिया जा सकता
इसी सिद्धांतानुसार अनाथ बालक जिसके मा और बाप दोनों मर गये हैं गोद नहीं दिया जा सकता क्योंकि व तो वह स्वयं अपने आप को गोद दे सकता है और न कोई उसके देनेका अधिकारी जीवित है । अनाथ बालक चाहे वालिग भी हो तो भी गोद नहीं दिया जासकताः देखो-2 M. H. C. 129; बलवन्तराव बनाम बापा बाई 6 Bom. H. C. (O. C. J.) 83; 10 Bom. H. C. 268. जैनियों में भी यही बात मानी गयी है उनमें उमरका कोई प्रश्न नहीं है। देखो-10 Mysore. 384. दफा १५५ बाप या मा की शोंकी पावन्दी जरूरी है .
कानूक्की इष्टिसे बाप और ममं पुत्र के दत्तक देनेके अधिकारी माने गये हैं। वह मगर चाहें तो किसी शर्त के साथ दत्तक दे सकते है। यह माना गया है कि अगर उन शर्तोंकी पाबन्दी न की जाय तो दत्तक नाजायज़ होगा। जैसे किसीने एक लिखत कर दी कि ' मैं अपना लड़का उस समय दत्तक दूंगा जब लेने वाला गवर्नमेण्ट की इजाजत प्राप्त कर ले' अगर यह बिना इजाज़त प्राप्त किये दत्तक ले लेवे तो वह दत्तक नाजायज़ होगा चाहे वह अन्य सब तरह से ठीक हो और वह इजाजत प्राप्त करना भी ज़रूरी न होदेखो-रंगू बाई बनाम भागीरथी बाई 2 Bom. 377.
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दफा १५३-१५७ ] कौन लोग दशक देनेका अधिकार रखते हैं
(ख) कौन लोग दत्तक देनेका अधिकार रखते हैं ?
२०५.
दफा १५६ पिता
बापको अपने पुत्रके दत्तक देनेका पूरा अधिकार प्राप्त है । वह विना अपनी स्त्रीसे पूछे और उसकी मरज़ीके बिना भी दत्तक दे सकता है; देखोमेन हिन्दूला सातवां एडीशन पेज १५६. बिना मंजूरी स्त्रीके गोद देनेका अधिकार बाप को जो प्राप्त है वह वली की हैसियत से नहीं, बल्कि मालिक की हैसियतसे प्राप्त है; देखो - 11 B. H. C. 199; 5 S. D. 356, 418.
ट्रिवेलियन हिन्दू फैमिली लॉ पेज १३७ में कहा गया है कि हिन्दू बालिए बाप अपने पुत्रके गोद देनेका अधिकार अपनी नाबालिग पत्नीको दे सकता है । मगर जब ऐसा प्रश्न उठे कि नाबालिग बाप अपने नाबालिग पुत्र को गोद दे सकता है या नहीं ? इस विषयका हमें कोई फैसला नहीं मिला परन्तु सम्भवतः यही माना जायगा कि दे सकता है; नीचे देखो - दफा १६०.
दफा १५७ माता
जब बाप मरगया हो और माता जीवित हो तो सिर्फ मातादी अपने पुत्रको गोद दे सकती है । दादा या और कोई घरका आदमी गोद नहीं दे सकता; देखो 10 Bom H. C. 235.
यदि बाप मरगया हो, या किसी देशमें चले जानेके सबबसे अपना देश छोड़ गया हो-जहां से उसके लौटनेकी आशा न रही हो, या साधु सन्यासी फ़क़ीर होगयाहो, जिस पन्थसे वह लौट न सकताहो, या पागल होगया हो, या मज़हब बदल दियाहो, या मस्तिष्क इतना खराब हो गया होकि वह कोई बात निश्चित करनेके योग्य न रह गया हो, ऐसी सूरतोंमें पतिके जीवन कालमें भी उसकी स्त्री अपने पुत्रको दत्तक दे सकती है मगर ज़रूरी शर्त यह है कि पतिने पुत्र देनेकी मनाही न की हो; देखो - जोगेशचन्द्र बनर्जी बनाम नृत्य कालीदेवी ( 1903 ) 30 Cal. 965; 7 C. W. N. 871; 2 Bom. 377; 7 Bom. H. C. App. 26, 11 Mad. 43; 18 Mad. 53; 30 All. 197; 37 I. A. 93, 32. All. 247314 0. W.N. 545; 12 Bom L. R. 402 पुत्र देनेकी मनाही व की गई हो 2 Bom. 377; 11 A. C. 145; 11 W. R. C. R. 468; 26 I. A. C. W. N. 427; 18 Mad. 53; और देखो - जी०, दूसरा एडीशन पेज १६७ रामकृष्ण हिन्दूलॉ पेज ११५.
Mad; 43; 3 B. L. R. 113; 22 Mad. 398 3 डी० का लॉ आफू मेरेज
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दत्तक या गोद
[ चौथा प्रकरण
अपने पतिकी गैरहाज़िरीमें मगर उसकी श्राज्ञासे यदि स्त्री अपने पुत्रको दत्तक दे दे तो वह दत्तक उसी तरह पर जायज़ माना जायगा जैसाकि पतिने दिया होता; देखो -- 5 M. L. J. 66; 2 Bom. 377; 2 Bom. 388, 404. 405; 1 Mad. Dec. 154.
. २०६
दफा १५८ भाई ( माया बाप की हैसियत से )
यदि बापसे आशा दत्तक देनेकी मिल गई हो तो बड़ा भाई अपने छोटे भाईको गोद दे सकता है; देखो 7 Mad. 548; इसमें असली बापने पुत्रके दत्तक देनेका बचन दिया था और गोद लेनेवाले बापने स्वीकार कर लिया था यह ठहराव होगया था कि भविष्य में किसी समय गोदकी रसमें पूरी करके दत्तक दे दिया जायगा किन्तु दत्तक देने और रसमोंके पूरा करने से पूर्व असली बाप और मा मर गये थे। ऐसी सूरतमें बड़े भाईने बाप और माके स्थानपर होकर दत्तक दिया तथा रसमें कीं। माना गया कि वह दत्तक दे सकता है और दत्तककी रसमें भी पूरी कर सकता है। इसमें यह नहीं माना जायगा कि बड़े भाई ने दत्तक देने और रसमें करने का काम स्वयं किया, बलि दत्तक पुत्र के असली बाप और मा की तरफ से स्थानापन्न की हैसियत से किया ।
जब बापने दत्तक देने की मंजूरी दे दी हो और दत्तक देने के समय वह बीमारीके सबबसे स्वयं दत्तक सम्बन्धी कोई काम करनेके अयोग्य हो और दत्तक दिये जानेवाले पुत्रके भाईने पिताकी आशासे दत्तक हवन और सब कृत्ये की हों तो दत्तक जायज़ माना जायगा; देखो 7 Bom. 225.
यदि कोई अनाथ बालक ( जिसेके मा बाप मरगये हों ) अपने बड़े भाईके द्वारा गोद देदिया गया हो तो यद्यपि ऐसा दत्तक उचित नहीं है किन्तु अदालत ऐसी सूरत में 'फेक्टम वेलेट' ( दफा ७३ ) के सिद्धांतसे उसे जायज़ मान लेती है-7 Indian Cases 427; इसके विरुद्ध देखो दफा १६७.
दफा १५९ चाचा ( बाप या माकी हैसियत से )
पतिके मर जानेके बाद माताने पुत्र के चाचासे कहा कि 'तुम गोद देदों' क्योंकि माता बीमारीके कारण स्वयं उस समय उपस्थित नहीं हो सकती थी, चाचाने दत्तक दे दिया और सब कृत्य किये, माना गया कि चाचा के दत्तक देने से जो क़ानूनी हक़ दत्तक में पहुँचते वे चाचा के दत्तक देने से भी प्राप्त हो गये इससे दत्तक जायज़ है, देखो -- विजयरंगम बनाम लक्ष्मण 8 B. H. C. O. C. 244 - 257; इस नज़ीर को 7 Mad. 549; 22 Bom. 590; 21 Mad. 497 से मुक़ाबिला करो ।
नोट -- अगर ऐसी सूरत न होती तो चाचाका दिया हुआ दत्तक नाजायज होता ।
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दफा १५८-१६३ ]
कौन लोग दसक देनेका अधिकार रखते हैं
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दफा १६० अज्ञान
अज्ञान ( नाबालिरा) दत्तक लेनेका अधिकार दे सकता है; देखो--1 Cal. 289; 25 W. R 235; 3 I. A. 72.
1 Cal. 289 ( P C.) में कहा गया कि रेगूलेशन नं० १० सन् १७६३ ही दफा ३३ और रेगूलेशन नं० २६ सन् १७६३ की दफा २ के अनुसार कोई भी ज़िमींदार या ताल्लुकेदार जिसकी उमर १८ वर्षसे कम हो, और जो कोर्ट आव वार्डस्के ताबे हो, बिना इजाज़त कोर्ट श्राव् वार्डस्के दत्तक नहीं ले सकता; और जो ऋज्ञान कोर्ट आव वार्डस् के ताबे न हो और उसे समझदारी आगई हो वह दत्तक लेनेका अधिकार दे सकता है । द्विवेलियन हिन्दू फैमिली लॉ पेज १३७ में कहा गया है कि नाबालिग बाप अपने पुत्रका गोद नहीं दे सकता; क्योंकि वह वसीयत नहीं कर सकता है और वली भी मुकर्रर नहीं कर सकता। इसका मतलब यों समझिये कि जो आदमी दत्तक देता हो उसकी उमर ऐसी होना ज़रूरी है कि उसे समझदारी आ गई हो; यह ज़रूरी नहीं है कि वह बालिग ही हो, और जिस समय दत्तक दिया गया हो उस समय देने वाले का दिमाग दुरुस्त हो देखो-19 Cal. 452; 19 I. A. 101-106. दफा १६१ ब्रह्मसमाजी _जो हिन्दू ब्रह्मममाजी होगया हो वह अपने पुत्रको दत्तक दे सकता है। देखो-7 Cal. W. N. 784; कुसुमकुमारी बनाम सत्यरंजन 30 Cal. 999. दफा १६२ हिन्दू राजपूत
हिन्दू राजपूतोंसे साधारण हिन्दूला लागू होता है, मगर यदि कोई ईसाई या मुसलमान होगया हो, अर्थात् अपना मज़हब बदल दिया हो. तो इससे कानूनी मौत नहीं होजायगी, क्योंकि बापको वली होनेका अधिकार बना रहता है। इसलिये मज़हब बदलने पर भी बापको अपने पुत्रके दत्तक देनेका अधिकार बना रहता है--3 Bom. L. R. 89; 25 Bom. 561 इन नज़ीरोंमें यह भी कहा गया है कि जब बापने मज़हब बदल दिया हो तो वह अपनादत्तक देनेका अधिकार और दत्तक हवन करनेका अधिकार दूसरेको दे सकता है। दफा १६३ पुनर्विवाहिता माता
एक मुकद्दमेमें माताने अपनीदूसरी शादी करनेके पश्चात् पहले पतिसे पैदा हुए पुत्रको दत्तक दिया । बम्बई हाईकोर्टने माना कि माताको ऐसा अधिकार था; देखो-पुतलाबाई बनाम महादू 33 Bom. 107; 1 Indian Cases. 659.
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दत्तक या गोद
[ चौथा प्रकरण
नोट - ऐसा मालूम होता है कि जिन कौमों में पुनर्विवाह की रमम जायज मानी जाती है उन्हीं में यह फैसला लागू किया जा सकेगा, आम क़ायदा नहीं | इसपर देखो - 24 Bom. 39, 10 Bom. L. R. 1134.
२०८
दफा १६४ विधवा माता
विधवा माता अपने पुत्रको दत्तक दे सकती है चाहे ऐसा अधिकार पतिने न भी दियाहो; 7 Cal. W. N 871; 30 Cal. 965; 11 W. R. 468; 3. B. L. R. A. C. 145;;7 Bom. H C. App. 26.
विधवा माता अपने इकलौते पुत्रको दत्तकदे सकती है चाहे ऐसा अधि का पति उसे न भी मिला हो; 22 Mad. 398; 29 I. A. 113; 3 C. W. N. 427.
माना गया है कि जब पतिने गोद देनेकी मनाही न की हो तो विधवा गोद दे सकती हैं; यदि मनाही करदी हो तो नहीं दे ककती । गोद देनेके लिये पतिने यदि कोई बात न कही हो तो इससे कोई हर्ज नहीं पड़ता देखो
11 Mad. 43; 18 Mad. 53.
दफा १६५ कुष्ठी
कुष्ठ रोगी मनुष्य अपने पुत्रको दत्तक दे सकता है; देखो - W. R.
1864 P. 173.
( ग ) कौन लोग दत्तक देनेका अधिकार नहीं रखते ?
दफा १६६ सौतेली माता
सौतेली माता अपने सौतेले पुत्रको हिन्दूलॉके अनुसार दत्तक नहीं वे संकती; देखो -3 M. L. J 80; 16 Mad. 384.
विधवा पुनर्विवाह हो जाने के पश्चात् अपने उस पुत्र को जो पहिले पति द्वारा उत्पन्न हुआ है गोद में नहीं दे सकती । मु० सेवकाबाई बनाम गनA. I. R. 1925 Nag. 1 (F. B.)
दफा १६७ भाई
भाई अपने भाईको दत्तक नहीं दे सकता, 3 S. D. 387-516, Mad. Dec. 1862 P. 97. और देखो दफा १५८ ।
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दफा : ६४-१७१ ]
साधारण नियम
२०६
दफा १६८ दत्तक पिता या माता
जो पुरुष गोद लेता है वह दत्तक पिता, और जो स्त्री गोद लेती है वह दत्तक माता कहलाती है । दत्तक पिता, और दत्तक माता अपने दत्तक पुत्र को दत्तक नहीं दे सकते; क्योंकि दत्तक देनेका अधिकार केवल असली पिता और माता ही को है। दफा १६९ दादा
जब कि माता जिंदा हो, दादा दत्तक नहीं दे सकता, देखो--10 B. H.C. 236; 10 B. H. C. 265 का नोट । दफा १७० पत्नी . पतिकी आज्ञाके विरुद्ध या बिना मरज़ी पतिके पत्नी दत्तक नहीं दे सकती। बम्बई प्रांतमें मानाजाता है कि पत्नी, पतिकी वसीयतके विरुद्ध गोद नहीं दे सकती; 2 Bom. 877, 23 Bum. 250; 23 Bom. 789. . . . .
(३) दत्तक कौन दिया जासकता है और कौन लिया
जासकता है ? दत्तक विषयका तीसरा भाग तीन हिस्सोंमें बटा है । ( क ) साधारण नियम दफा १७११९१ ( ख ) कौन लड़के गोद हो सकते हैं या कौन गोद लिये जा सकते हैं ? दफा १९२-२२०, (ग) कौन लड़के गोद नहीं लिये जा सकते ? २२१-२३४.
(क) साधारण नियम
दफा १७१ दत्तक कौन हो सकता है ? . जो हिन्दू हो, या हिन्दू पैदा हुआ हो और उसके पूर्वज हिन्दू हों ऐसा लड़का गोद लिया जायेगा। दत्तकमै लड़का ही लिया जासकता है लड़की नहीं इस लिये कोई भी हिन्दू लड़के को गोदले सकता है मगर लड़कीको गोदन ही ले सकता; देखो-गंगाबाई बनाम अनन्त 13 Bom. 690 और देखो दफा ३०४.
यद्यपि दसक मीमांसाने लड़कीको भी दत्तक लेने योग्य बताया है, मगर यह बात अब मानी नहीं जाती सिर्फ मदरास प्रांतमें नायकिन, या नाको गानेका पेशा करनेवाली स्त्रियोंके बारेमें लड़कीका दत्तक लेना इस शर्त
27
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२१०
दत्तक या गोद
[चौथा प्रकरण
पर जायज़ मानागया कि जो वैश्याके कामके लिये न ली गई हो देखो-वंकू , बनाम महालिङ्ग 11 Mad 393; 26 Bom. 491; और देखो दफा ११६, २२० दफा १७२ शौनक और अन्य आचार्योंकी राय
दत्तकका आईन शौनकके एक वाक्यके आधारपर बना है उसीके अर्थ में मतभेद होनेसे भिन्न भिन्न तरीके गोद लेनेके होगये इस भेदके समझने के लिये शौनककी वाक्य और दूसरे आचार्यों की राय नीचे संक्षेपसे देखिये:
"पुत्रच्छायावः" ( पुत्रस्यच्छाया सादृश्यं ताम् अावहति प्राप्नोतीति पुत्रच्छायावः, अच् ) पुत्रसादृश्यं । तच्च नियोगादिना स्वयमुत्पादनयोग्यत्वम् यथा भ्रातृसपिण्डसगोत्रादि पुत्रस्य । ततश्च भातृ पितृव्य मातुल दौहित्र भागिनेयादीनां निरासः पुत्रसादृश्याऽभावात् । एतदेवाभिप्रेत्योक्त मग्रे तेनैव दौहित्रो भागिनेयश्व शूदाणां विहितः सुतः। ब्राह्मणादि त्रये नास्ति भागिनेयः सुतः कचित इति । अत्रापि भामिनयादि पदं पुत्राऽसदृशानां सर्वेषामुपलक्षणं विरुद्ध संबंधस्य समानत्वात् । विरुद्धसंबंधश्च नियोगादिना स्वयमुत्पादनायोग्यत्वम् । यथा विरुद्धसंबंधो विवाह गृह्यपरिशिष्टेच वर्जितः । दम्पत्योमिथः पितृ मातृ साम्ये विवाहो विरुद्ध सम्बन्धो यथा भार्यास्वसुर्दुहिता पितृव्य पत्नी स्वसा चेति । अस्यार्थः यत्र दम्पत्योर्बधवरयोः पितृमातृ सा. म्यं बवा वरः पितृस्थानीयो भवति वरस्य वा वधूर्मातृस्थानीया भवति तादृशो विवाहो विरुद्धसम्बन्धः । तत्र यथाक्रममुदाहरण द्वयम् 'भास्विसुर्दुहिता' श्यालिकापुत्री 'पितृव्यपत्नीस्वसा' पितृव्यपल्या भगिनी चेति । तथा प्रकृते विरुद्धसम्बन्ध पुत्रोवर्जनीयः । यतो रतिभोगःसम्भ
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दफा १७२]
साधारण नियम
२११
वति तादृशः कार्य इति यावत् । दत्तक मीमांसायां। सोयम् दत्तक चन्द्रिकायाम् 'पुत्रच्छायाव:' पुत्रसादृश्यं नियोगा. दिना स्वयमुत्पादन योग्यत्वमिति यावत् ।
भावार्थ -प्रायः शौनकके इस वाक्यपर दत्तकका कानून बना है प्रत्येक स्कूलोंमें इसका अर्थ भिन्नभिन्न प्रकारसे किया गया है वह वाक्य है 'पुत्रच्छायावः' पुत्रकी सादृश्यताको प्राप्त होनेवाला। यानी जो लड़का गोद लिया जाता हो उसकी माताके साथ गोद लेनेवाले पुरुषका विवाह हो सकता हो, जैसे सपिण्ड सगोत्र सहोदर भाई गोद नहीं हो सकता उसका पुत्र हो सकता है। क्योंकि सहोदर भाईकी मा अपनी मा होती है इसलिये भाई गोद नहीं लिया जासकता, सहोदर भाईका लड़का गोद लिया जासकता है क्योंकि उस की यानी उस लड़के की माके साथ शादी हो सकती थी अगर वह उसके भाई को न विवाही जाती, इसी सिद्धांतके अनुसार सहोदर भाई, चाचा, मामा, दोहिता ( लड़कीका लड़का) भांजा वगैरह गोद नहीं लिये जासकते कारण भाईकी मा अपनी मा होती है, चाचाकी मा दादी, मामाकी मा नानी, दोहिताकी मा लड़की, और भांजाकी मा बहन होती है, इनमेसे किसीके साथ शादी नहीं हो सकती थी इसलियेउनके पुत्रोंमें पुत्रकी सादृश्यता नहीं हो सकती। आगे चलकर यह बताया गया है, कि शूद्रों में इसका नियम नहीं है सिर्फ तीन वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ) में यह नियम लागू किया गया है। इसीलिये भांजा आदि गोद लेनेका जो निषेध किया गया है वह पुत्रकी सादृश्यताको न प्राप्त होनेके सबब से कियागया है । नियोग द्वारा भी उनकी माताओंके साथ पुत्रोत्पादन नहीं सम्भव हो सकता था।
इसी आधारपर गृह्य सूत्रके परिशिष्टमे विरुद्ध सम्बन्ध के कारण विवाह घर्जित किया गया है। अब दूसरा सिद्धांत यों माना गया है कि जिस विवाह में वर और कन्याका रिश्ता मा और बापके दर्जे में होताहो वह विवाह भी बर्जित है। इसे यों समझो जैसे अपनीस्त्रीकी बहनकी लड़की (सालीकी बेटी) और चाचाकी स्त्रीकी बहन (चाचीकी बहन ) के साथ विवाह नहीं हो सकता क्योंकि सम्बन्ध अयोग्य है । देखो अपनी स्त्रीकी बहनका दरजा घही है जो दर्जा अपनी स्त्री का है, अगर पहिले अपनी स्त्री की बहन के साथ विवाह होता तो हो सकता था मगर अब दोनों का दरजा बराबर हो गया इसलिये अपनी स्त्री की बहन की लड़की का दरजा अपनी लड़की के अर्जे के बराबर है अर्थात् उसके साथ लड़की का रिश्ता पैदा हो जाता है, तो जब उस लड़कीके साथ विवाह होगा तब वर और वधूका रिश्ता, बाप और लड़की का मौजूद रहेगा इसीलिये ऐसा विवाह नहीं हो
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दत्तक या गोद
[ चौथा प्रकरण
सकता । और जब ऐसा विवाह अनुचित रिश्तेके सबबसे अयोग्य बताया गया तो अर्थ यह निकला कि उसका लड़का गोद नहीं लिया जासकता । दूसरी मिसाल चाचीकी बहनकी लीजिये, इसमें भी वही बात है क्योंकि चाचीका दरजा माके बराबर है और चाचीकी बहनका दर्जा भी वही हुआ इस लिये चाची की बहनके साथ विवाह अयोग्य है कारण ऐसे विवाहमें वर और बधूका रिश्ता मा और पुत्रका पैदा होता है इसीलिये उसके लड़के को भी दत्तक में वर्जित होना उचित होगा । ऊपरकी मिसालोंसे अच्छीतरह से समझ में यह आजावेगा कि इसबारे में दो बड़े सिद्धांत लागू किये गये हैं पहला-सीधे रिश्तेका । तथा दूसरा जो रिश्तासे रिश्ता पैदा होकर दर्जे की समानताका होता है । शास्त्रकारोंने सब बातें समझाकर आखीरमें साफ कह दिया है कि जिस स्त्रीके साथ रति योग सम्भव हो सकता है अथवा ऐसा कार्य्य शास्त्रानुसार अनुचित नहीं है उस स्त्रीसे पैदा हुआ लड़का गोद लिया जासकता है अन्यथा नहीं। यही बात दत्तक चन्द्रिकामें भी कही गई है कि ऐसा पुत्र गोद लिया जाय जिसमें पुत्रकी सादृश्यता होसके और उसकी मा के साथ गोद लेनेवाले पुरुषका या जिसके लिये गोद लिया जाता हो विवाह होना सम्भव होसके । और देखो मेन हिन्दुलॉ सातवां एडीशन पैरा १३५ ; घारपुरे हिन्दूलॉ पेज ८४ मुल्ला हिन्दूलॉ पेज ३८८ दफा ३६५: ट्रिवेलियन हिन्दूलॉ पेज १३३; रामकृष्ण हिन्दूलॉ पेज १२०, माण्डलीककी रायके फैसले 'देखो: - मीनाक्षी बनाम रामनाद 11 Mad. 49; भगवानसिंह बनाम भगवान सिंह 26 I . A. 153; S C. 21 All. 412.
२१२
मण्डली कहते हैं कि, दत्तक चन्द्रिका, दत्तक मीमांसा, संस्कार कौस्तुभ, धर्म सिन्धु, और दत्तक निर्णयमें उपरोक्त सिद्धांत के अनुसार मनाही की गई है यह सब ग्रन्थ शौनक की उपरोक्त वाक्य का प्रतिपादन करते हैं ।
सन् १९१८ ई० में इसी क़िस्मका एक मामला बम्बई हाईकोर्टके सामने पेश हुआ। मामला यह था कि जायदाद भीमप्पा की थी जो सन् १६०३ ई० मैं अपनी विधवा इंड़ावाको छोड़कर मर गया । सन् १६०५ ई० में विधवाने गङ्गाप्पाको पति के लिये गोद लिया पीछे दत्तक पुत्रने स्थावर जायदाद मालप्पा के हाथ बेचदी, विधवाने अपने पतिके बापके भाईका लड़का गोद लिया था ( भाईका दरजा होता है ) सन् १९१३ ई० में भीम अप्पाके भाई की विधवाने दावा किया कि गोद नाजायज़ है और जायदाद मुझे मिले । प्रारंभिक अदालत ने गोद नाजायज़ माना और जायदाद विधवाको दिलाई. अपील में फैसला बहाल रहा दोनों अदालतोंने फैसलेमें शौनकके इस बचनका आधार माना 'पुत्रच्छायावः' कहा कि बापके भाईका पुत्र इस लिये गोद नहीं होसकता क्योंकि यह भाईके दरजे में है हाईकोर्ट में जब मामला पेश हुआ तो सब प्रमाणों के माननेपर जजोंने कहा कि यद्यपि शास्त्र विरुद्ध है किंतु
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दफा १७३ ]
साधारण नियम
क़ानूनमें मना नहीं किया गया इस लिये जायज़ माना जाय देखो -- मालप्पा पारप्पा हास्पी बनाम गङ्गाबा, गंगप्पा हास्पेटी 21 Bom. L. R. I7-27 ( 1918 ) इस विषय में और भी देखो दफा १७७.
दफा १७३ जहां तकहो दत्तक सगोत्र सपिण्ड में लिया जाय
शौनकने कहा है कि ब्राह्मणों को जहां तकहो सके अपने सपिण्डमें दत्तक लेवें और अगर सपिण्डमें न हो या नमिले तो असपिण्डमें लेवें अगर उसमें भी न हो या नमिले तो वह दत्तक नहीं ले सकता; शौनकका बचन यह है
ww
२१३
ब्राह्मणानां सपिण्डेषु कर्तव्यः पुत्र संग्रहः
तदभावे सपिण्डे वा अन्यत्र तु न कारयेत् । शौनक यहां पर 'सपिण्ड' शब्द के अर्थमें शाकलने दूसरी युक्ति लगाई है उनका कहना है कि
तथाच सपिण्डा भावे श्रसपिण्डः सगोत्रस्तदभावे भिन्न गोत्रोपि ग्राह्यः ।
सपिण्डके अभाव में असपिण्ड और सगोत्र के अभावमें दूसरा गोत्र भी ग्रहण किया जा सकता है इस विषयमें दत्तक चन्द्रिका तथा दत्तक मीमांसा का कहना यह हैः-
सपिण्डापत्यक चैव सगोत्रज मथापिवा अपुत्रको दिजो यस्मात्पुत्रत्वे परि कल्पयेत् । समान गोत्रजाभावे पालये दन्यगोत्रजम् दौहित्रं भागिनेयश्च मातृ स्वसृ सुतं बिना । अन्यत्रतु न कारयेोदिति, ब्राह्मणातिरिक्तः क्षत्रियादिरसमानजातीयो दत्तको व्यावर्तते -
सपिण्ड और सगोत्र से जो पुत्र दत्तक लिया जाता है उसे पुत्रत्व प्राप्त होता है यानी उसी पुत्रमें पुत्रका भाव रहता है इस कहने से यह मतलब है 'कि, सपिण्ड और सगोत्रके अतिरिक्त जो पुत्र गोद लिया जाय वह पुत्र चाहे नाम चलाने के वास्ते योग्य हो मगर उसमें पुत्रत्व भाव नहीं रहता, यह नियम द्विजों में लागू किया गया है शूद्रोंमें नहीं । जब दूसरे गोत्रसे गोद लियाजाय तो लड़की का लड़का, बहनका लड़का, माताकी बहन का लड़का नहीं लिया जा
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दत्तक या गोद
[ चौथा प्रकरण
सकता अर्थात् दोहिता, भानजा, मौसीका लड़का, गोद नहीं लिया जा सकता । ये लड़के गोद क्यों नहीं लिये जा सकते ? देखो - दफा १७२, १७७ और दफा १७२ क सिद्धांत पर विचार करो ।
२१४
दफा १७४ अपनी जातिमें दत्तक लेना जायज़ है
( १ ) महर्षि मनु दत्तक पुत्रकी तारीफ कहते हैं किमाता पिता वादद्यातां यमद्भिः पुत्रमापदि सदृशं प्रीतिसंयुक्तं सज्ञेयो दत्रिमः सुतः ।
-
पुत्रोंके सम्बन्धमें इसका वर्णन किया जा चुका है देखो दफा ८२, ८६, ८६ यहांपर 'सदृशं' शब्दका अर्थ प्रयोजनीय है दत्तक चन्द्रिका में इस शब्द की व्याख्या ऐसी है:
1
'सदृशं सजातीयम् । यत्त सदृशं न जातितः किंतुकुलानुरूपैर्गुणैस्तेन क्षत्रियादिरपि ब्राह्मणस्य पुत्रो युज्येते इति मेधातिथि व्याख्यानम् । तत्रायमभिसंधिः औरसासत्वे क्षत्रियादेरसमानजातीयतया पिण्डोदकाद्यन ईत्वेपि नामसंकीर्तनादि प्रयोजनकतया पुत्रत्वमुत्पाद्यत एव शास्त्रीयत्वात् परन्त्वल्पोपकारतया ग्रासाच्छादनमात्रभागित्वं तदाह कात्यायनः । असवर्णास्तु ग्रासाच्छादन भागिन इति ।
'सहरों' शब्द जो मनु के श्लोक में आया है वह सजाति का बोधक है मगर मेधातिथिका कहना है कि यह शब्द जातिका बोधक नहीं है बल्कि कुल के अनुरूपही गुणका बोधक है । क्षत्रियादि कहने से क्षत्री, वैश्य, शूद्रका अर्थ सम्भव हो सकता है परन्तु व्याख्याकी गति द्विजों की लाइन में है इसलिये यहां पर 'आदि' शब्द से द्विज मात्रका अर्थ ग्रहण करना प्रयोजनीय है । इस जगह आक्षेप किया गया है कि असमान जातियोंका पिण्डोदक कृत्य औरसके स्वत्वमें योग्य नहीं और ऐसा लड़का जो असमान जातिका गोद लिया गया हो वह सिर्फ कहने भरका लड़का होता है और उस लड़के से गोद लेने वाले का नाम चाहे भले ही चले मगर वह दूसरे मतलबका नहीं है ऐसे लड़केसे पिण्डोदक क्रिया नहीं हो सकती इसलिये उसको जायदाद में
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दफा १०४]
साधारण नियम
२१५.
उत्तराधिकार नहीं मिलता वह सिर्फ रोटी कपड़ा पानेका अधिकारी है यही बात कात्यायन कहते हैं शौनककी राय कात्यायनसे मिलती है देखो
यदि स्यादन्यजातीयो गृहीतोऽपि सुतः कचित् अंशभानतं कुर्याच्छौनकस्य मतं हि तत्। कात्यायनः सजातीयस्य पिण्डदातृत्वांश हरत्वेविहिते न तु विजातीयस्य पुत्रत्वं, निषिद्धम् ।
अगर कोई आदमी दूसरी जातिका पुत्र गोदले ले तो वह जायदाद नहीं पाता इसका कारण याज्ञवल्क्य बताते हैं कि सजातीय पुत्र पिण्डदान का अधिकारी होनेसे जायदाद पाने के योग्य है मगर विजातीय लड़केके गोद लेने की मनाही तो नहींकी गयी सिर्फ उसे उत्तराधिकारमें जायदाद नहीं मिलेगी, वृद्ध याज्ञवल्क्य इसे स्पष्ट करते हैं । देखो
सजातीयः सुतो ग्राह्यः पिण्डदाता सरिक्थभाक् तद्भावे विजातीयो वंशमात्रकरः स्मृतः।
प्रासाच्छादन मात्रन्तु स लभेत तहक्थिन इति ' अपनी जातिके पुत्रको गोद लेना चाहिये वही पिण्ड देनेका अधिकारी है. और उसे जायदाद उत्तराधिकार में मिलेगी । अगर सजातीय में लड़केका अभाव हो तो वंश चलाने के लिये विजातीय पुत्र लेना मगर वह पुत्र सिर्फ रोटी कपड़े का अधिकारी है, उसे जायदाद नहीं मिलेगी। इसलिये मनुने जो 'सदृशं' शब्दका प्रयोग किया है उसका स्पष्ट अर्थ सजातीय हो सकता है क्योंकि सजातीय पुत्र ही जायदादमें भाग पावेगा विजातीय नहीं आगे मनुने दत्तक पुत्रका भाग भी कायम किया है इन सब कारणों से 'सदृशं' शब्दका अर्थ सजातीय ही होना योग्य है । मनु इससे सहमत हैं कि विजातीय पुत्रको जायदादमें भाग नहीं मिलता, मेधातिथिका अर्थ दूसरी लाइनका है। सजातीय' का क्या मतलब है ? इसे शौनक स्पष्ट कर देते हैं।
क्षत्रियाणां सजातौ च गुरुगोत्रसमेऽपिवा वैश्यानां वैश्यजातेषु शूद्राणां शूद्रजातिषु सर्वेषामेव वर्णानां जातिष्वेव न चान्यथा ।
क्षत्रियोंको क्षत्री जातिमें, वैश्योंको वैश्य जातिमें, और शूद्रों को शूद्र जातिमें गोद लेना चाहिये दूसरी जातिमें नहीं । यहांपर यह शङ्का नहीं करना
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दत्तक या गोद
[ चौथा प्रकरण
कि ब्राह्मणों की बात क्यों नहीं कही गयी, उत्तर यह है कि ब्राह्मणोंके लिये विशेष वचन दफा १७३ में पहिले कह चुके हैं इससे यहां आवश्यकता नहीं रही। क्षत्रियोंके सम्बन्धमें 'गुरुगोत्रसमेऽपिवा जो पद दिया गया है इस से यह अभिप्राय है कि यदि क्षत्रियों को अपनी जातिमें लड़का न मिले तो अपने पूर्व वंशकर्ता गुरु ( आदि पुरुष ) के वंशके अन्तर्गत लेवें जैसे सूर्य वंशी क्षत्रियों के अन्तर्गत अनेक किस्म की क्षत्रियों की जातियां हैं, यदि अपनी जाति में न मिले तो सूर्य वंश में किसी भी जातिका लड़का गोद लिया जा सकता है । यह पद कुछ विवाद ग्रस्त है इसलिये स्पष्ट करने के लिये अन्य वचन देखो - दत्तक चन्द्रिका -
२१६
गुरु गोत्र समेऽपि वेति क्षत्रियाणां प्रातिस्त्रिक गोत्रा भावात् गुरुगोत्र निर्देशः पौरोहित्यान् राजन्यविशां प्रवृणीतेति सूत्रेण तस्य पुरोहितगोत्र भागित्वोक्ते ।
अर्थात् जब किसी क्षत्रीके वंश का पता न लगता हो तो गुरू के गोत्र सम होने से पता लगाया जा सकता है, दोनोंके गुरूका क्या गोत्र है उसमें एकता निर्देश करना यानी जिसका गोत्र गुरू के गोत्र से मिलता हो 'प्रातिस्विक गोत्राभावात्' कहने से यह अर्थ होता है कि-
'प्रतिस्वभवः प्रतिस्व' ठक् । साधारणः तत्पय्र्य्यायः अन्याऽसाधारणम् आवेशिकम् इति शब्द कल्पदुमे ।
इस व्याख्या से यह अर्थ हुआ कि जिस प्रकार ब्राह्मणोंके कुछ गोत्र ऐसे होते हैं जो और किसी वर्णके नहीं होते उन्हें असाधारण गोत्र कहते हैं और जो गोत्र सब वर्णों में एवं अनेक जातियोंमें पाया जाय वह साधारण गोत्र कहलाता है | क्षत्रियों में साधारण गोत्र होते हैं इसी लिये कहा गया है कि साधारण गोत्रके होनेसे गुरूके गोत्र से जिसका गोत्र मिलता हो उसका पुत्र गोद लेना चाहिये ।
( २ ) हिन्दूलों में भी यही बात मानी गयी है कि जिस जातिका गोद लेने वाला हो उसी जातिका लड़का गोद लिया जाय, देखो - कुसुम कुमारी बनाम सत्यरञ्जन 33 Cal. 999 ट्रिवेलियन हिन्दूलॉ पेज १३२; मुल्ला हिन्दूलॉ पेज ३८८ दफा ३६५: मेन हिन्दूलॉ पेज १७७-१७८, जी० सी० सरकारका लॉ आफू एडाप्शन पेज १६७, ३५७.
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दफा १७५]
साधारण नियम
२१७
सपिण्ड और असपिण्ड
दफा १७५ सपिण्ड और असपिण्ड . 'सपिण्डेषु' सप्तमपुरुषावधिकेषु सपिण्डेष्विति सामान्यश्रवणात समानाऽसमान गोत्रेष्विति गम्यते । तत्र सामानगोत्रतायां । सगोत्रेषु कृतायेस्युर्दत्तक्रीतादयः सुताः, विधिनागोत्रतां यांति न सपिण्डं विधीयते ; इति वृद्धगौतमीयं वचनं प्रमाणं । दत्तक मीमांसायाम् । 'सपिण्डेषु' सप्तम पुरुषावधिकेषु सपिण्डता तु पुरुषे सतमे विनिवर्तत इत्यायुक्तेषु इत्यर्थः । सामान्यश्रवणादिति सगोत्रत्वाविशेषादित्यर्थः 'समानगोत्राः' भ्रातृपुत्रादयः 'असमानगोत्राः दौहित मातृष्वस्रयादयः । सगोत्रेष्विति । न सापिण्ड्यं न साप्त पौरुष पिण्डलेपान्वयरूपं यावन्तः पितृवर्गाः स्युरित्यनेन तस्य पिण्डान्वयरूप त्रैयौरुषिक सापिण्ड्यस्य वक्षमानत्वात् । प्रमात्रमित्यस्य समानगोत्रतायामित्यनेवान्वयः । विधिनेति । वाक्य मात्रस्य सावसारणत्वात्-इतिबालसंबोधनी टीकायाम् ।
_ 'गोत्रतां' सन्ततित्वम् दत्ताद्या अपि तनया निज गोत्रेण संस्कृताः । प्रायान्ति पुत्रतां सम्यगन्यवीज समु. द्भवा । इति कालिका पुराणात् । संतति गोत्रजनन कुलान्यभिजनान्वयाविति त्रिकाण्डी स्मरणात् । न तु गोत्रतापदेन गोत्रसंबंधो विधीयते सगोत्रेष्वेव पुत्रीकरणेन तस्य साहजिकतया विधानायोगात् ।
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दत्तक या गोद
[ चौथा प्रकरण
न सापिण्ड्यं विधीयत इत्यसापिण्ड्यस्य पुत्रीकरणे सापिण्ड्यं च प्रतिग्रहीतुः पाञ्चपौरुषम् निषिध्यते असमानगोत्रस्य पुत्रीकरणे गोत्ररिक्थे जनयितुर्नभजेद्दत्रिमः सुत इतिमानवम् दत्तक्रीतादि पुत्राणाँ बीजबप्तुः सपिण्डता । पंचमी सहमी तद्वत्रं तत्पालकस्यचेति, बृहन्मानवं वचः प्रमाणम् । सोयं मुख्यः कल्पः तदसंभवैनुकल्पमाह तद्भावे ऽसपिण्डेवेति । तेषां सपिण्डा नाम भावेऽसपिण्डोऽपि पुत्री - कार्यः । 'असपिण्डाः' सप्तमपुरुष बहिर्भूताः प्रसवन्धिनश्च तेsपि द्विविधा समानगोत्रा समानगोश्चेति । तदयं निर्गलितोर्थः समानगोत्रः सपिण्डो मुख्यः तद्भावेऽसमाऩगोत्रः सपिण्डः । यद्यप्यऽसमान गोत्रः सपिण्डः समानगोत्रोऽसपिण्डश्चेत्युभावपि तुल्यकक्षौ एकैक विशेषण राहित्यादुभ योस्तथापि गोत्रप्रवर्तक पुरुषात् सपिण्ड प्रवर्तक पुरुषस्य सन्निहितत्वेनाभ्यर्हितत्वम् । तेन चासमानगोत्रोऽपि सपिण्ड एव ग्राह्यो मातामह कुलीनः सर्वथा सपिण्डाऽभावेऽसपिण्डस्तत्रापि सोदकः प्राचतुर्दशात् समानगोत्रः प्रत्यासन्नः । तस्याऽभावे असमानोदकः सगोत्रएकविंशात् । तस्याऽप्यभावे
समान गोत्रो सपिण्डश्वेति । अत्र च पूर्वपूर्वस्य प्रत्यासत्यतिशयेन निर्देश इति । तदेवाह वशिष्ठः - अदृर दूवान्धव बन्धुसन्निकृष्टमेव प्रतिगृन्हीया दिति श्रस्यार्थः - अदृरश्वासौ बान्धवश्चेत्यदृरबांधवः सन्निहितः सपिण्ड इत्यर्थः । सान्निध्यंच द्विधा सगोत्रतया स्वल्पपुरुषान्तरेण च भवति । तत्र सगोत्रः स्वल्पपुरुषान्तरः सपिण्डो मुख्यः तदभावे बहुपुरुषान्तरोपि
२१८
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साधारण नियम
२१६
दफा १७५ ]:
सगोत्रः सपिण्डः तद्भावे समान गोत्रः सपिण्डस्तस्याप्यभावे बन्धुसन्निकृष्टः सपिण्डः बन्धूनां सपिण्डानां सन्निकृष्टः सपिण्डः स्वस्यासपिण्डः सोदकः इत्यर्थः पर्यवस्यति । तत्रापि सन्निकर्षो द्विविधा सगोत्रतया स्वल्पपुरुषान्तरेण च स्वस्यासपिण्डोपि स्वसमानगोत्रः स्वल्पपुरुषान्तरः सपिण्डानां सपिण्डो मुख्यतस्तदभावे बहुपुरुषान्तरोऽपि सगोत्रः सपिण्ड, सपिण्डः सोदक इति यावत् ।
सपिण्ड सोदकाऽसम्भवे समानगोत्र एकविंशात् ग्राह्यः तद्भावे समान गोत्रोऽसांपिण्डोऽपि ग्राह्यः तद्भावेऽसपिण्डेवेति शौनकीयात् । सन्देहे चौपपने दूरवान्धवं शूद्रमिव स्थापयेदिति वशिष्ठलिङ्गाच्च । दूरे वान्धवा यस्यासौं दूरखान्धवः गोत्रसपिण्ड्याभ्यामसन्निहित इत्यर्थः । संदेहोत्र कुलशीलादिविषयः सचासपिण्डे सगोत्रे च भवतीति सोप्यनुज्ञायते । अन्यत्र तु न कारयेदिति यद्यपि सपिण्डासपिण्डेभ्योऽन्यो न सम्भवतीति तथापि वर्णानां जातिष्वेव नचान्यत इति वाक्यशेषेण सपिण्डाऽसपिण्डाना सजातीयत्वेन विशेषणादसमानजातीयाः सपिण्डा असपिण्डाश्च व्यावर्तन्ते । अप्रतिसिद्धमनुमतं भवतीति न्यायेनानुकल्पतया तत्प्राप्ति सम्भवात् । इति दत्तक मीमांसायाम् ।
इन वचनोंका सारांश यह है कि सामान्य रीति से सपिण्डता सातवीं पीढ़ी तक रहती है चाहे समान गोत्रहो और चाहे असमान गोत्र । वृद्ध गौतम कहते हैं कि समान गोत्र अर्थात् अपने गोत्रमै विधि पूर्वक लिये हुए दशक और क्रीत आदि लड़के गोद लेने वालेके गोत्र वाले हो जाते हैं मगर वह लड़के सपिंड नहीं होसकते । यज्ञेश्वर भट्टाचार्यने इसे और भी साफ कर दिया है वह कहते हैं सपिण्ड सातवीं पीढ़ी तक रहता है, सातवीं पीढ़ी के निवृत्त
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२२०
दत्तक या गोद
[चौथा प्रकरण
होमेपर सपिंडता चली जाती है भाई श्रादिके पुत्र समान गोत्र और लड़की का लड़का, तथा माताकी बहनके लड़के आदि असमान गोत्र कहलाते हैं क्योंकि विवाह होने बाद कन्याका गोत्र बदल जाता है । असपिंडसे सात पूर्वजोंके भीतरका मतलब नहीं समझना, सपिंडके बाद सगोत्र होता है और सपिंडकी दशामें वह सगोत्र-सपिंड कहलाता है सापिंडका दूसरा अर्थ यह भी है कि जहांतक शरीर सम्बन्धी पिंडहो वह सपिंड है । इस तरह पर पिता के वंशमें तीन पीढ़ी तक सपिंड कहाता है यानी बाप, दादा और परदादा । परदादाके वाद तीन पीढ़ीका शरीर सम्बन्धी सपिंड निवृत्त हो जाता है वाद वह समान सगोत्र सपिण्ड कहलाता है ।
गोत्रका अर्थ संतति (औलाद ) किया गया है कालिका पुराण में कहा गया है कि विधि पूर्वक और अपने गोत्रके लड़के जव दत्तक लिये जाते हैं तब वह लड़के पुत्र बन जाते हैं यद्यपि वह दूसरे पुरुषके वीर्यसे पैदा हुए हैं । गोत्र का अर्थ सन्तति इसलिये किया गया है कि अमर कोषमें सन्तति, गोत्र जनन, कुलानि, अभिजन और अन्वय, गोत्रके पर्याय वाचक शब्द हैं । गोत्रसे, गोत्र का सम्बन्ध नहीं लिया जायगा इसलिये अपने गोत्र से गोद लेना चाहिये, असपिण्डका लड़का गोद लेनेके बारेमें जो कहा गया है कि वह सपिण्ड नहीं हो सकता । इस कहने से यह मतलब नहीं है कि गोद लेने वाले की पांचवीं या सातवीं पीढ़ी के अन्दर ही गोद लिया जाय । मानव धर्मशास्त्रमें कहा गया है कि असमान गोत्रके लड़केके गोद लेने में असली बापके गोत्रका धन दत्तक पुत्रको नहीं मिलेगा इसी बातको बृहन्मानव यों कहते हैं कि दत्तक और क्रीत पुत्र आदि लड़कोंकी सपिण्डता उनके असली बापके साथ होती है जो पांचवीं और सातवीं पीढ़ी में समाप्त हो जाती है । दत्तक पुत्रकी सपिण्डता दत्तक लेने वालेके साथ ऐसी होती है जैसे किसी लड़केका गोत्र न मालूम हो तो उसका गोत्र वही समझो जो उसके पालने वालेका है। मुख्य बात यह है कि सपिण्ड में यदि गोद न मिले तो असपिण्ड से भी लड़का गोद लिया जा सकता है असपिण्डसे यह मतलब है कि सात पीढ़ीके बाहर । असपिण्ड, दो प्रकार के हैं एक समान गोत्र वाले दूसरे असमान गोत्र वाले । ऊपर कही हुई वाक्योंका स्पष्ट अर्थ यह है कि समान गोत्र सपिण्ड मुख्य है अर्थात् जहां तक हो सके अपने गोत्रमें और अपने सपिण्डमें लड़का गोद लिया जावे। अगर समानगोत्र सपिण्डमे लड़का न हो तो असमान गोत्र सपिण्डका लड़का गोद लिया जाय । देखो-असमान गोत्र सपिण्ड (गोत्र दूसरा हो और सपिण्ड हो) और समान गोत्र असपिण्ड ( अपने गोत्र का हो और सपिण्ड न हो) इन दोनों का दर्जा वराबर है एक एक बात दोनोंमें पायी जाती है इसलिये दोनों समान हैं परन्तु इन दोनोंमें भी गोत्र चलाने वाले पूर्व पुरुष के मुताबिले में सपिण्ड के चलाने वाले पुरुषकी श्रेष्ठता है और वह नज़दीकी है इसलिये यह कहा गया है कि
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दफा १७५]
साधारण नियम
२२१
असमान गोत्रके होने पर भी सपिण्डका लड़का गोद लेना चाहिये क्योंकि वह सपिण्ड के ख्याल से नज़दीकी है नानाके गोत्र में सपिण्डके लड़केके होनेपर भी, अपने गोत्रके सपिण्डमें गोद लेना चाहिये यदि उसमें न हो तो असपिण्ड में यदि उसमें भी न हो तो समानोदकमें गोद लेना चाहिये समानोदक चौदह पीढ़ी तक रहता है, यदि चौदह पीढ़ी तक भी कोई लड़का न हो तो असमानोदक यानी सगोत्रमें लेवे, सगोत्र इक्कीस पीढ़ी तक रहता है यदि इक्कीस पीढ़ीमें भी लड़का न होतो, असमान गोत्र और सपिण्डमें लेवे । इन वाक्योंका तात्पर्य यह है कि पहला दूसरेकी अपेक्षा कमसे नज़दीकी बताया गया है, वशिष्ठने भी कहा है कि पुत्र ऐसा गोद लिया जाय जिसके बांधव दूर न हों अर्थात् सन्निहित सपिण्डका लड़का गोद लिया जाय, सन्निहित सपिण्ड दो प्रकार का है एक गोत्र से दसरा गोत्रमें थोड़ी पीढ़ियों के अन्तर का, इनमें सगोत्रके मुक़ाबिलेमें थोड़ीपीढ़ियोंके अन्तरका लड़का लेना मुख्य है जब ऐसा पुत्र न हो तो बहुत पीढ़ियों के अन्तरका और सगोत्र सपिण्ड हो तो अच्छा होगा, अगर ऐसा भी लड़का न मिले तो असमान गोत्र सपिण्ड का लेना। ऐसा भी न हो तो बन्धु सन्निकृष्ट सपिण्ड हो अर्थात् भाइयोंके नज़दीकी सपिण्डका हो चाहे वह अपना सपिण्ड न हो, वह भी दो प्रकार का है एक सगोत्र से दूसरा सगोत्र और थोड़ी पीढ़ियों के अन्तर से, यद्यपि वह अपना असपिण्ड है परन्तु समानगोत्र होनेसे और भाइयों के सम्बन्धसे थोड़ी पीढ़ियों का अन्तर होनेसे योग्य कहा गया है यह लड़का सपिण्डों का सपिण्ड हुआ क्योंकि अपने सपिण्डमें सात पीढ़ी शामिल हैं और सात पीढ़ी के श्रास्त्रीर पुरुष यानी सातवें पुरुषसे जब उसका सपिण्ड और सात दर्जे ऊपर चलेगा तो वह अपने से चौदह दर्जे और उस पुरुषसे सात दर्जेपर रहेगा इस लिये ऐसा सपिण्ड सपिण्डोंका सपिण्ड कहलाता है। अगर सपिण्डों के सपिण्डमें भी लड़का न हो तो अनेक पीढ़ियों के अन्तर में और सगोत्रमें लड़का गोद लेना । सपिण्ड और समानोदकमें लड़केके न होने पर समान गोत्रमें इक्कीस पीढ़ीतक गोद लिया जाय, अगर ऐसा भी न हो तो असमान गोत्र असपिण्डमें भी लेवे ।
वसिष्ठके कथनानुसार जब किसी दूर वान्धवमें सन्देह हो जाय और यह न मालूमहो सके कि वह किस गोत्रका है तथा उसका सपिड्य कैसा है तो उसे शूद्रकी तरह माने यानी शामिल नकरे इस स्थानमें 'सन्देह' शब्दका यह अर्थ लिया गया है कि उसकी जाति तथा शीलादि गुणका जब पता न लगता हो । असपिण्ड और असमान गोत्रका सबसे हीन दर्जा दिया गया है।
मनुका यह मतलब है कि जब लड़का सपिण्ड में अथवा असपिण्ड में नहो हो तो फिर नहीं लेना चाहिये । सब लोगों को अपनी अपनी जाति में लड़का गोद लेना चाहिये दूसरी जातिका लड़का गोद न लेवे इससे यह बात मालूम होती है कि चाहे सपिण्डहो अथवा असपिण्डे परन्तु दोनों सूरतोंमें दत्तक
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दत्तक या मोद
[चौथा प्रकरण
पुत्र सजातीय होवे । सजातीय न होनेपर चाहे वह कितनाही. योग्य हो. गोद लेनेके अयोग्य है।
ऊपरके वचनोंसे यह नतीजा निकलता है कि पहले समान गोत्र सपिण्ड में लड़का गोद लेना चाहिये जैसे सहोदर भाईका लड़का समान गोत्र सपिंड होता है यदि ऐसा न हो तो अपने गोत्रके थोड़े पुरुषोंके अन्तरका लड़का । उसके न होने में अपने गोत्रका लड़का हो चाहे अधिक पुरुषोंके अन्तरका हो, ऐसा भी न होनेपर गोत्रका कोई भी लड़का हो । यदि गोत्रमें भी न हो तो, असमान गोत्र सपिण्डका हो यानी नानाके गोत्रका सपिण्ड हो यदि ऐसा सपिण्ड न हो तो अपने गोत्रज भाइयोंके नज़दीकी सपिण्डका कोई लड़का झे ऐसा लड़का पिण्डोंका सपिण्ड कहलाता है यदि ऐसा न हो तो भाइयों के दूरवर्ती सगोत्रीका हो, इन सबोंके न होनेपर असमान गोत्र असपिण्डका हो यानी नानाके गोत्रमें असपिण्डका हो ।
नोट-सपिण्ड के लिये देखो दफा५८२-५८७ और समानोंदक के लिये दफा ५.८५८९ अमालती फैसलों के अनुसार माना गया है कि लड़का अपनी जाति का हो देखो दफा १७४ तथा यह भी माना गया हैं कि किसी द्विजातियामें यदि कोई स्वाज खास तौरसे साबित नहीं की जाती हो तो अपने गोत्रहीमें लड़का गोद लेना उचित है वहीं जायज़ होगा। दफा १७६. सहोदर भाईका लङका गोद लेनमें श्रेष्ठ है
(१) धर्मशास्त्रों में माना गया है कि जहां तकहो सके लड़का नज़दीकी कुटुम्बीका गोद लेना चाहिये जो अन्य सव बातोंसे भी योग्य हो सगे भाईका बेटा सबसे नज़दीकी होता है।
दत्तक मीमांसा-सन्निहित सगोत्र सपिण्डेषु च भातृपुत्र एव पुत्री कार्यः। अभ्युपगतश्चतदिज्ञानेश्वराचार्यैरपि भातृपुत्रस्य श्रेष्ठत्वम् तस्मात् भातृ पुत्र एव पुत्री कार्यः अत्र सहोदरप्रातृपुत्रएव पुत्री कार्यः इत्याह मनुः-'भ्रातृणामेक जातानामेकश्वेत् पुत्रवान् भवेत् । सर्वेते तेन पुत्रेण पुत्रिणो मनुस्खवीत् । पुत्रवान् भवेत् । एक जातानामित्यनेनैकैन पित्रा एकस्यां मातरि जातानामेव ग्रहीतृत्वं न भिन्नोदरणां भिन्नपितृकाणां वेति । एक भातृ प्रभवत्वेन भ्रात पुत्र एव पुत्री कार्यः। यत्त बृहस्पतिना ययेक जाता बहवो भातरस्तु
SEE
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1001 दफा १७६-१७७ ]
साधारण नियम
२२३
सहोदरा, एकस्यापि सुते जाते सर्वे ते पुत्रिणः स्मृताः। बह्वी नामेक पत्नीनामेष एव विधिः स्मृतः, एकाचत्पुत्रिणी तासां सर्वासां दिण्डदस्तु सा।
भावार्थ- दत्तक मीमांसामें कहा है कि--नज़दीकी सगोत्रसमिएका लड़का गोद लेना । ऐसा लड़का सगे भाईका होता है । यही यात धिज्ञानेश्वर में कहा है कि भाईका पुत्र ही गोद लेने के योग्य है भाईसे मतलब सहोदर भाईसे है। मनुजीने कहा है कि एक मातासे पैदा हुए भाइयोमेंसे एकके पुत्र होनेपर सब पुत्रवान् कहे जाते है यहां 'भाई' शब्दसे एक माताके गर्भसे जन्म भाइयोंसे मतलब है इस लिये सबसे नज़दीकी वही है । वृहस्पति कहते हैं कि जब एक मा बापसे पैदा हुए अनेक भाई हों और उनमेंसे एक के लड़का हो तो बाकी के सब भाई पुत्रवान् कहलायेंगे इसी तरह हर जब किसीके भनेक स्त्रियांहों और और उनमेंसे एकके पुत्र हो तो बाकी सब स्त्रियां पुत्रवती कही जायेंगी क्योंकि सबका पिन्डदान अलदान का करनेवाला वही पुत्र होता है। सहोदर भाई के पुत्रके न होनेपर दूसरा लड़का गोदलेना उचित होगा।
(२) अाजकल हिन्दूलॉ में यह बात मानी जाती है कि करीबी रिश्तेबारकी मौजूदगी में अगर दूरका लड़का गोद लिया जाय जो और सब बातोंसे योग्य हो तो जायज़ माना जायगा देखो 1 W. Men. 68; 2 Stra. H L. .68-192; 3 Cal. "587; गोकुलानन्द बनाम उमादाई 15 B. L. R. .405 23 W..R• C. R340; 2 C.L.R.51;. I. A. 406 Bom. H. C. (A. C. J.)70; दारमादाऊ वनाम रामकृष्ण 10 Bom. 80; दिवेलियन हिन्दूलाँ पेज १३३ इस किताबकी दफ़ा देखो १६४. दफा १७७ दोहिता, भानजा आदिके गोद लेने में विवाद
मि० मांडलीकने माना है कि द्विजोंमें दोहिता; भानजा आदि गोद नहीं लिये जा सकते मगर शूद्रोंमें लिये जासकते हैं लड़कीका लड़का, बहनका लड़का आदि भी गोद लिये जा सकते हैं हां कहीं पर बहनका लड़का गोद 'नहीं लिया जाता । जिन वचनोंमें यह कहा गया है कि शूद्र दोहिता, भानजा
आदिको गोद ले सकता है उन वचनोंकी टीका करते हुए मांडलीक कहते हैं 'कि उनका यह अर्थ नहीं हैं कि शूद्रोंको, बहनका बेटा और बेटीका बेटा गोद लेना चाहिये और न इस क्रिस्मके दत्तकके लिये द्विजोंको मनाही है। क्योंकि वाक्यमें 'क्वचित् पद है।
दौहित्रो भागिनयश्च शूद्राणां विहितः सुतः ब्राह्मणादि ये नाति भागिने यः सुतः 'कचित्' ।
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दत्तक या गोद
[ चौथा प्रकरण
विस्तारसे देखो दफा १७२ इस विषयमें दत्तक निर्णय आदि ग्रन्थोंमें कहा है कि रवाजके वज़नके सामने यह राय असर नहीं रखती । रवाजके लिये देखो दफा ३०-३६.
२२४
( २ ) सदर लेन्ड और मेक्नाटनकी राय - नियोग वाले सिद्धांतको; सदर लैंड और मेक्नाटन तथा स्ट्रेन्ज साइबने स्वीकार किया है देखो:-Suth Syn. 664; F. Macn 150; 1 W. Macn 67, 1 StraH. L. 83-84 कहते "हैं कि द्विजन्मा क़ौमों में हिदुस्थान भरमें यह कायदा दृढ़तासे मानाजाता है कि बेटीका बेटा तथा चाचीका बेटा गोद नहीं लिया जासकता क्योंकि उन लड़कों की माताओंके साथ नियोग नहीं हो सकता था देखो -- बाई गङ्गा बनाम बाईशिवकुंर Bom. Sel. Rep. 73; नरासायल बनाम बाला रामाचरलू L.M. H. C. 420; जिवानी बनाम जीबू 2 MH.C. 462; गोपाल ऐयन बनाम रघुपति पैयन 7 Alad. H. C. 250; रामलिङ्ग बनाम सदाशिव 9 M. I. 4. 506 S. C. 1 Suth. ( P. C ) 25 इस प्रिवी कौंसिल के फैसलेमें 'वैश्य' ग़लत लिखा है सब पढ़ो तो मालूम होगा कि वह शूद्र है, 2 Mad. H. C. 467; Latest बनाम वीवी मुन्नी 2 Mad. Dig. 32, 3 Bom. 273, भागीरथ बनाम राधाबाई 3 Bom. 298, पार्वती बनाम सुन्दर 8 All 1; 16 1. A. 186; 12 All. 51.
( ३ ) इलाहाबाद हाईकोर्ट और प्रिवी कौंसिलकी राय -- इलाहाबाद हाईकोर्टने हालके एक मुक़द्दमेमें यह माना कि जहां पर बनारस स्कूल माना जाता है वहां दत्तक मीमांसा नहीं मानना चाहिये यानी जो सूबे बनारस स्कूल ता हैं. वहां पर दत्तक मीमांसाका असर नहीं होगा वह सिद्धांत जिन्हें दत्तक मीमांसाने क़ायम करके दत्तक की अयोग्यताका विचार किया है लागू नहीं होंगे । यद्यपि इलाहाबाद हाईकोर्टका फैसला इजलास कामिलसे हुआ था मगर प्रिवी कौंसिल में इसके खिलाफ एक मुक़द्दमेका फैसला हो गया जिसमें कहा गया कि जहां पर समस्त धर्मशास्त्र एक मत होकर किसी विषय का एक ही निर्णय करते हों और उसके विरुद्ध कोई रवाज साबित न कीगई हो तो उसको माननाही उचित है इस दलील परसे सहोदर भाई, चाचा, तथा मामा आदिका दत्तक लेना नाजायज़ है इन सबों में ऊपर कहा हुआ सिद्धांत लागू पड़ता है फैसले देखो -- भगवानसिंह बनाम भगवानसिंह 17 All. 234; 26 I. 4. 153; रंजीतसिंह बनाम अभयसिंह 2 S. D. 245-315 Mad. Dec. of 1852 P. 96; 3 Mad. 15; मीनाक्षी बनाम रामानंद 11 Bom. 49; मगर मद्रासमें चाचाके बेटेकी दत्तक रवाजके अनुसार मजूर की गई है 14 Mad. 459.
शूद्रों में दोहिता और भानजा गोद लिया जासकता है, मयूख भी इससे सहमत है; पञ्जाबके जाटोंमें चाचाका बेटा गोद लिया जा सकता है देखो -
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दफा १७८-१८०]
साधारण नियम
२२५
1 Mad. 62; पञ्जाब कस्टमरीलॉ P. 79-83; जैनियोंमें भी ऐसी दत्तकें जायज़ मानी गई हैं देखो शिवसिंह बनाम मु० दाखो फैसला सदर अदालत 6N. W. P. 882351. A. 873 S. C. 1 All. 688; हसनअली बनाम नागमल 1 All. 288; लक्ष्मीचन्द बनाम दत्तोबाई 8 All. 319; देखो दफा १६७-१९६-२०७.
कौन गोद लिया जा सकता है-जाट और शूद्रों में बहिन का लड़का, गोद लिया जासकता है। हीरा बनाम शिब्बू 6 Lah. 52; 26 Punj L. R. 225; A. I. R. 1925 Lah 16. दफा १७८ साला, सालेका बेटा आदि
साला, सालेका बेटा भी गोद लिया जा सकता है देखो---Mad. Dec. of 1856 P. 213; Mad. Dec. of 1857 P. 94; 22 Bom. 973; 3 Mad. 15 और देखो एय्यर हिन्दूलॉ की दफा २२६ इसी तरहपर सालीका बेटा भी गोद लिया जासकता है तथा माकी बहनकी लड़कीका लड़का, भी दत्तक हो सकता है; 7 Mad. 548; और देखो दफा २०६; २१०. दफा १७९ दत्तक पुत्रकी शारीरिक अयोग्यता
जब कोई ऐसा लड़का गोद लिया जाय जो अन्य सब बातोंमें योग्य होनेपर भी अपने शरीरमें कोई ऐसी अयोग्यता रखताहो जिसके सबबसे वह गोद लेनेवाले पुरुषके सम्बन्धमे या जिसके लिये वह गोद लिया गया हो उस की धार्मिक कृत्योंके करनेका अधिकारी न हो तो उस पुत्रको गोद लेनेवाले की जायदादमें कोई हक़ नहीं मिलता देखो--Suth Syn. 665; और देखो दफा २३७. दफा १८० कितनी उमर का लड़का गोद लेना चाहिये
गोद लेने के समय दत्तक पुत्रकी उमर कितनी होना चाहिये यह बात निश्चित करना कठिन है । धर्मशास्त्रकारोंका मत इस विषयमें एक नहीं है, मगर इस बातमें सब सहमत हैं कि छोटा लड़का गोद लेना चाहिये, कितनी उमरका लड़का छोटा कहलाता है इसमें मतभेद है । संक्षेपसे धर्मशास्त्रकारों का मत नीचे देखोः
(१) धर्मशास्त्रकारोंका मत-दत्तक मीमांसायाम् । ननु पञ्चमवर्षाभ्यन्तरीय एव पुत्रोग्राह्यः इति विधान मुखं प्रोभय पञ्चमवर्षानन्तरं पुत्रो न ग्राह्यः इति । कालिका . .. 29 ....
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२२६
दत्तक या गोद
[चौथा प्रकरण
पुराणे-दत्ताद्या अपि तनया निजगोत्रेण संस्कृताः । प्रायांति पुत्रतां सम्यगन्यवीजसमुद्भवाः । पितुर्गोत्रेण यः पुत्रः संस्कृतः पृथवीपते । श्राचूड़ान्तं न पुत्रः सः पुत्रतां यान्ति चान्यत इति । चाइया यदि संस्कारा निजगोत्रेण वैकृताः। दत्ताद्यास्तनयास्तस्युरन्यथा दास उच्यते । ऊर्ध्वन्तु पञ्चमादर्षात् न दत्ताधाःसुतानृप । गृहीत्वा पञ्चवर्षीयं पुत्रोष्ठी प्रथमं चरेत्। . अकृत जातकर्माद्यसम्भवे कथमित्यत आह । चूड़ाद्या यदीति यदि चूड़ायाः संस्कारा निजगोत्रेण प्रतिगृहीत गोत्रणं कृता वै शवोऽवधारणे तदेव दत्ताद्यास्तनयाः स्युरन्यवा ते दासाः उच्यते इति । चूड़ाद्या येषां ते तथेति ननुचूड़ाद्या प्राद्या इति पूर्वेण पौनरुक्त्यापातात्। अनेन जातकर्माद्यन्नप्राशनान्तानां जनकगोत्रेणानुष्ठानऽपि न विरोधः । तथाच अकृत जातकर्मादिमुख्यः अकृत चूड़ोनुकल्प इति सिध्यति । दत्ताद्या इत्यादि पदेन कृत्तिमादि गृहणमित्युक्तमेव तेषामपि संस्कारैरेव पुत्रत्वं न परिग्रहमात्रेण अन्यथा दास उच्यते इति विपक्ष वाधकात् । अन्यथा चूड़ायकरणे कृत चूड़ादि परिग्रहे वा दासता भवति ननु पुत्रत्वमित्यर्थः। अस्य पुत्रत्वस्य यूपत्वादिवत् संस्कार जनयत्वात् । असंस्कृतः पुत्री कार्य इति स्थितम् । असंस्कृतोऽपि पञ्चमादृवं न ग्राह्यः कालाभावेन पुत्रत्वानुपपत्तेः । अनेन पञ्चमवर्षाणि पुत्रपरिग्रह कालः इत्युक्तं भवति तदव्यतिरेकेणाभिधानन्तु पञ्चमाअन्ना गौणोऽपिकालो नास्तीति । प्रतिपादनाय अन्यथा स्वकालादुत्तरः कालो गौणः सर्वः प्रकातित इति । न्यापेन
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दफा १८० ]
. साधारण नियम
पञ्चमानन्तरस्य गौणकालत्वापत्तिः । ततश्च जननमारभ्या तृतीयवर्षं तत्रापि तृतीवर्षस्य मुख्यकालतया ऊर्ध्वन्तु पञ्चमादर्षादित्युपसंहारे वर्षश्रवणाच्च अत्रापि चूड़ाशब्दस्य तृती - यवर्ष परतै वाभिप्रेतेति गम्यते । अन्यथा उपनीति सहभावपक्षे अष्टवर्षमकृत चूड़स्य परिग्रहापत्तिः । नचेष्ठापत्तिः ऊर्ध्वन्तु पञ्चमादर्षादित्यनेन विरोधात् । तस्मादाचूड़ान्तमित्यत्र चूड़ाशब्द तृतीयवर्ष पर एव युक्तः तृतीयानन्तर मा पश्चमे गौणः ऊर्ध्वन्तु गौणोऽपिनेति स्थितम् तदाह यज्ञेश्वर भट्टेण - तथाचाकृत चूड़स्य तृतीय वर्ष गृहणमतिप्रशस्तम् चतुर्थे पञ्चमे चाप्रशस्तमित्यर्थः ।
भावार्थ-- दत्तक मीमांसाका मत है कि पांच वर्षके उमरके भीतर गोद लिया जाय पश्चात् न लिया जाय दोनों बातोंसे एकही अर्थ निकलता है कि पांच वर्ष की उमर तक लड़का गोद लिया जाय । कालिका पुराणमें कहा है कि दत्तक आदि लड़के जिनका संस्कार गोद लेनेवाले पुरुषके घरमें किया गया हो वह पुत्र दूसरेके वीर्यसे पैदा होनेपर भी पुत्राताको प्राप्त हो जाता है इसके विरुद्ध जिन लड़कोंका संस्कार असली बापके गोत्र ( घर ) में किया गया हो और चूड़ा कर्म ( मुन्डन ) भी वहीं पर हुआ हो तो फिर वह लड़का दूसरेका पुत्र नहीं बन सकता। जिन पुत्रका चूड़ा आदि संस्कार गोद लेने
पुरुष घर न हुए हों तो वे लड़के दास कहलाते हैं यानी उनमें पुत्रत्व भाव नहीं आता। पांच वर्षकी उमर के बादल ड़का गोद लेनेके योग्य नहीं रहता इसलिये पांच बर्षकी उमर तकका लड़का पुत्रेष्ठी संस्कार करके गोद लेना चाहिये ।
जिस लड़केका चूड़ा आदि संस्कार गोद लेनेवाले पुरुषके घरमें किया गया हो ऐसा लड़का दत्तकपुत्र होता है । और अगर ऐसा न हो तो वह दास कहलाता है 'चूड़ा - आदि' के कहने से यहांपर यह मतलब है कि मुन्डन संस्कारसे लेकर आगेके संस्कार गोद लेनेवाले पुरुषके घरमें किये गये हों मगर यह मतलब नहीं लिया जायगा कि चूड़ा संस्कारके पहले वाले संस्कार भी उसीके घर होना चाहिये । ऐसा अर्थ करनेसे दुबारा कहनेका दोष आवेगा इसलिये पहलेका अर्थ मानना चाहिये । अगर जातकर्म, अन्नप्राशन आदि संस्कार असली बापके घरमें लड़केके हो जाएं तो कुछ हर्ज नहीं है,
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दत्तक या गोद
[ चौथा प्रकरण
और अगर कोई ऐसा लड़का गोद लिया गया हो कि जिसका जातकर्म, अन्नप्राशन आदि संस्कार गोद लेनेवालेके घरमें ही किये गये हों तो बहुतही श्रेष्ठ है । इस कहने से यही नतीजा है कि चूड़ा संस्कारके पूर्व गोद लेना चाहिये । 'दत्तक आदि' पद जो ऊपर कहा गया है उससे दत्तक और कृत्रिम पुत्र आदि समझना चाहिये क्योंकि उनके भी संस्कार करनेसे पुत्रत्व प्राप्त होजाता है बिना संस्कार किये पुत्रत्व भाव किसी लड़के में नहीं होता यानी सिर्फ़ लड़का गोद लेने से पुत्रत्वभाव नहीं हो जाता बक्लि ऐसा लड़का दास कहलाता है । चूड़ा आदि संस्कार अगर असली बापके घरमें लड़केका हो चुका हो और ऐसा लड़का गोद लियाजाय तो उसमें पुत्रत्वभाव नहीं आता वक्लि उसे दास कहते हैं इसपर उदाहरण यह दिया गया है कि जैसे कोई लकड़ी बिना मिस्त्री के ठीक किये खम्भाके योग्य नहीं बन सकती उसी तरहपर बिना संस्कार के पुत्रत्वभाव नहीं आता ।
२२८
अगर यह कहा जाय कि जिस लड़केका चूड़ा आदि संस्कार असली 'बापके घर में अधिक उमरतक नहीं हुआ हो तो क्या वह पुत्र गोद्र लेनेके योग्य है ? इसका उत्तर यह है कि जिस लड़केका ऐसा संस्कार न भी किया गयाहो तो वह पांच वर्षकी उमरसे ज्यादाका गोद लेने योग्य नहीं है अब यह स्पष्ट हुआ कि दत्तक पुत्रकी उमर, दत्तक लेने के समय, पांच वर्षसे ज्यादा न होना चाहिये । पांच वर्षकी उमरके बादका समय 'गौण' कहलाता है और गौण कालमें दत्तक लेनेको मना किया गया है, गौण काल वह है कि जो निश्चित और योग्य कालके बाद हो. यहां पर पांच वर्ष तक लड़का गोद लेना चाहिये यह माना गया । मतलब यह हुआ कि लड़के के जन्मसे तीन वर्षतक उचित काल दत्तक लेनेका है और तीन वर्षकी उमरके पश्चात् पांच बर्षतक अर्थात् दो वर्ष गौण काल है। नतीजा यह है कि तीन वर्षकी उमर के अन्दर तो अत्युत्तम समय गोद लेनेका हुआ और आगे दो साल निकृष्ठ । कहीं ऐसा भी देखा जाता है कि चूड़ा संस्कार उपनयन के साथही कर लेते हैं और उपनयन आठवें वर्ष में होता है, इसका विरोध किया गया है । चूड़ा संस्कार तीसरे वर्ष होना योग्य है और तीन वर्षके बाद पांच वर्षका समय गौण है । यदि गौण समय भी निकल गया हो तो गोद नहीं लेना चाहिये क्योंकि उस
'पुत्रत्वभाव नहीं आता। इसी बात की पुष्टि यज्ञेश्वरने भी की है कि तीसरे वर्ष चूड़ा संस्कार श्रेष्ठ है मगर चौथे या पांचवें साल श्रेष्ठ नहीं है । ऊपरके सब बचनों से जो नतीजा निकलता है वह यह है कि दत्तक पुत्रकी उमर गोद लेने के समय पांच वर्षसे अधिक न होनी चाहिये, और लड़केका चूड़ा संस्कार न हुआ हो। चूड़ा संस्कार और उमरके बीच उमरका ज़्यादा ख्याल रखना उचित है ।
नीलकंठ और मिताक्षरा तथा पं० जगन्नाथ भट्टका मत--नीलकंठ और मिताक्षरा भी यही कहते हैं कि जिस लड़के की उमर पांच वर्ष से ज्यादा
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दफा १८१]
साधारण नियम
२२६
हो गई हो और उसका मुंडन असली बापके घर होगया हो वह पुत्र दत्तक लेनेके योग्य नहीं रहता बिल्कुल यहीबात पं० जगन्नाथ भट्टने मानी है।
जस्टिस् महमूद की राय--गङ्गासहाय बनाम लेखराज 9 All. I. L. 310 में जस्टिस महमूदने कहा कि जिस लड़केकी पांचवे वर्ष की सालगिरह असली बापके घर में न हुई हो वह गोदलेने के लिये मुनासिब होगा। देखो-- दफा २१६, २१८, २१६ २२६ । दफा १८१ दत्तक चन्द्रिकामें पांच वर्षकी कैद नहीं मानीगई
दत्तक चन्द्रिकाने दत्तक पुत्र की उमरके बारे में यह माना है कि अगर पांच वर्षसे अधिक उमरका पुत्र हो तो भी गोद लिया जासकता है कहा है कि--
यदि स्यात् कृत संस्कारो यदि वातीत शैशवः । ग्रहणे पञ्चामावर्षात् पुत्रेष्टिं प्रथमं चरेत् । जनक गोत्रेण कृत चूड़ान्त संस्कारस्य पुत्रत्वं निषिद्धयं प्रतिग्रहीत्रा पुनश्चड़ा कर्मादि करणे तत् प्रतिप्रसूतम् । ततश्च कृत संस्कारस्यातीत पञ्चवर्षस्य च ग्रहीत्रा चूड़ादि करणात् पूर्व दासत्वाक्षेपात् चूड़ादि करणानन्तरं पुत्रत्वं लब्धम् । एवञ्च चूड़ाद्या इत्य तद्गुणसम्बिज्ञान बहुव्रीहिण दिजातीनामुपनयन लाभः शूद्रस्यतु विवाहादि लाभः । दत्तक चन्द्रिकायाम् । - अगर असली बापके घरमें लड़केका संस्कार होगया हो और वाल्यावस्थाभी निकल गईहो तो पुत्रेष्ठि संस्कार करनेके बाद वह लड़का गोद लिया जा सकता है । गोद लेनेवाला दुबारा मुंडन आदि संस्कार अपने घरमें करलेवे संस्कार होनेके बाद पांच वर्षके बालकको गोद लेनेकी बात जो कही गई है वह सिर्फ आक्षेप है मुंडन होनेपर भी पुत्रत्व रहता है यहांपर 'बहुब्रीह समास' से उसके गुण सम्बन्धी ज्ञान से मतलब है। द्विजातियोंको उपनयन ( यज्ञोपवीत ) से और शूद्रोंको विवाहसे पूर्व गोद लेना सम्भव हो सकता।
दत्तक चन्द्रिकाका यह मत है कि अगर कोई दूसरा लड़का योग्य न मिले तो उस लड़के को भी दत्तक लिया जासकता है जिसका मुंडन असली बापके घर हो चुका हो । मगर यह शर्त लगाई गई है कि जब ऐसा लड़का गोद लिया जायतो गोद लेनेके पहले पुत्रेष्ठी कर्म करना आवश्यक है मगर
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दत्तक या गोद
[ चौथा प्रकरण
उपनयन संस्कारके पूर्व द्विजातियोंमें और विवाह संस्कारके पूर्व शूद्रों में गोद लेना चाहिये उमरकी कोई क़ैद नहीं है । इसी मतका पालन प्रायः सभी हाईकोटने किया है सिर्फ बम्बई में ब्याहा हुआ पुत्र गोद लिया जासकता है ।
२३०
योग्यताकी उमर - धनराज जौटरमल बनाम सोनीबाई 30 C. W, N. 601 ( P. C. ).
हिन्दूलॉ गोद लिये जाने वाले पुत्र के सम्बन्धमें उमर की कोई पाबन्दी नहीं करता । यदि लड़का द्विजाति का है तो उसका यज्ञोपवीत संस्कार के पूर्व, और यदि शूद्र का है तो विवाह संस्कार के पूर्व गोद लिया जाना सर्वथा जायज़ है । इस प्रकारकी कोई शर्त नहीं है कि गोद लिया जानेवाला लड़का ५ वर्ष से बड़ा न होना चाहिये । अतएव इस बिनापर कि कोई गोद उस समय लिया गया है जब कि गोद लियेजाने वाले लड़केकी उमर ५ वर्षसे बड़ी थी, वह दत्तक नाजायज नहीं होता चन्द्रेश्वर प्रसाद नारायणसिंह बनाम विश्वश्वर प्रताप नारायणसिंह A. I. B. 1927 Pat. 61.
दफा १८२ बंगाल स्कूलमें उमरकी क़ैद
बङ्गालमै पहिले एक मुक़द्दमे में पंडितोंकी रायसे यह माना गया कि ५ वर्ष की उमरकी क़ैद परमावश्यक नहीं है मगर मुंडन संस्कार यदि असली बापके घरहो चुकाहो तो दत्तक जायज़ नहीं होगा देखो; कीर्तिनारायण बनाम भुवनेश्वरी I. S. D. 161 (213 ) इसके बाद सन् १८३८ ई० में उमरके बारेमें पुनः प्रश्न उठा उसमें यह माना गया कि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्योंमें उमरकी हद उपनयन संस्कार तक और शूद्रोंमें विवाह संस्कार तक है अर्थात् द्विजोंमें यज्ञोपवीत और शूद्रोंमें विवाह के पूर्व गोद लिया जासकता है देखो; बल्लभकांत
नाम किशुनप्रिया 6S. D. 219 (270 ) जो राय इस मुक़दमे में मानी गई थी वही बहुतसे मुक़द्दमोंमें वहाल रखी गई, बक्लि अब यही निश्चित समझा जाता है देखो - नित्रादाई बनाम भोलानाथ S. D. of 1853; रामकिशोर बनाम भुवन S. D. of 1859, P. 229, 236; S. D. of 1860; 485, 490; 10 M. I A. 279; S. C. 3. Suth (P. C.) 15.
दफा १८३ बनारसस्कूल में उमरकी क़ैद
बनारसस्कूल के अनुसार इलाहाबाद हाईकोर्ट में फैसलेहो चुके हैं पहला फैसला सन् १८६८ ई० में हुआ जिसमें तय हुआ कि दत्तक मीमांसाके अनुसार ६ सालतक दत्तक जायज़ थी देखो; ठाकुर उमरावसिंह बनाम महताब कुंवर N. W. P. H. C. Rep. 1868 – 103 A; 9 All 312.
इसकेपश्चात् फिर नीचे के मुक़द्दमेमें यही प्रश्न उठा कि जो दत्तक पांच वर्षकी उमर अधिक लिया गया हो महज़ उमरकी बुनियादपर खारिज कर दियाजाय इलाहाबाद हाईकोर्टने उन प्रमाणका वैसा अर्थ मानने से इन्कार कर
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दफा १८२-१८४]
साधारण नियम
दिया जैसाकि दत्तकमीमांसा और कालिकापुराण आदि ग्रन्थोंसे ज़ाहिर होता था, अदालतने दत्तकमीमांसा के बचनोंका (दफा १८०). यह अथे लगाया कि जब युजारी बनानेके लिये दत्तक लिया गया हो तो पांचवर्षकी शर्त लगाई जासकती है। दत्तकमीमांसाका असर इस स्कूल में दत्तक चन्द्रिकासे पीछे है इसलिये जिनकौमोंमें उपनयन संस्कार होता है (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ) उनमें जनेऊसे पहले और शूद्रोंमें विवाहसे पहले गोदलेना जायज़ है देखो रूपचन्द बनाम जम्बूप्रसाद ( 1910 ) 37 I. A. 93; 32 All. 2473 14 C. W. N. 5 45%; 12 Bom. L. R. 402; स्टेज हिन्दूलॉ P. 91 बङ्गाल स्कूल और बनारसस्कूलकी एक ही राय है।
__ अग्रवालोंमें दत्तक लेने योग्य आयु ३२ वर्ष तक है-जोहरमल बनाम सोनीबाई 52 Cal. 482; 52 I. A. 231; ( 1925 ) M. W. N. 692; 87 I. C. 357; 27 Bom. L. R. 837; L. R. P. C. 97; 23 A. L.J. 273; 2 0. W.N. 335; 21 N. L R. 50; A:. I. R. 1925 P.C. 1185 49 M. L.J. 173 ( P.C.). दफा १८४ बम्बई स्कूल और गुजरातमें उमरकी कैद .
दक्षिणी और गुजरात के पंडितोंने सदर अदालतको रिपोर्ट किया कि जहांपर यह कायदा मानाजाता है कि पांचवर्षसे अधिकका लड़का गोद नलिया जाय, यह बात उस समय मानी जाती है कि जब गोद लेने वाले और उस लड़केके बीचमें कोई रिश्तेदारी न हो लेकिन जब किसी रिश्तेदारका लड़का गोद लिया जाय तो पांच वर्षकी उमर ज़रूरी नहीं है बक्लि अगर लड़केकी शादी भी हो गई हो और औलाद पैदा हो गई हो तो भी गोद लिया जासकता है यदि उसमें अन्य सब बातें जो दत्तकपुत्रके लिये आवश्यक हैं मौजूद हों और उसे दत्तक लेनेवाला चाहता हो देखो-ब्रजभूषण बनाम गोकुला साघोजी 1 Bor 195 (217)
पूनाके दक्षिणी शास्त्रियोंका मत है कि पांच वर्षसे ५० वर्षका लड़काभी गोदलिया जासकता है वे उमरकी कोई हद नहीं मानते, आजकल श्रादमी ५० बर्षमें बूढ़ा हो जाता है यानी मरनेके समयतक गोद लिया जासकता है चाहे उसके पुत्र, पौत्र,और प्रपौत्र मौजूद हों। वे यह शर्त लागू करते हैं कि गोद लेनेवालेसे, गोद लियाजानेवाला लड़का उमरमें ज्यादा न हो देखो-गोपालबालकृष्ण बनाम विष्णु रघुनाथ 23 Bom. 250-256.
मि० मेन कहते हैं कि बम्बई हाईकोर्टने जिन मुक़द्दमोंमें विवाहा हुश्रा लड़का गोदके योग्य माना है उनमें पक्षकार शूद्र थे देखो राजो निम्बालकर बनाम जयवन्तराव 4 Bom. H. C. (A.C. J.) 191; 3 Bom. H. C. ( A. C. J. ) 67 मगर नीचेके मुक़दमोंमें द्विजोंके अन्तर्गत व्याहे हुये लड़कों की दत्तक जायज़ मानी गई और यह भी माना गया कि भिन्न गोत्रका भी
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दत्तक या गोद
[ चौथा प्रकरण
लड़का गोद लिया जासकता है देखो -सदाशिव बनाम हरीमोनेश्वर 11 Bom. H C. 190; 12 Bom. H C. 364; 10 Bom. 80.
२३२
नामबुद्री ब्राह्मणों में विवाहित पुत्रके दत्तक लेनेका अधिकार उस सूरत में माना गया है जबकि लड़का कृत्रिमपुत्रानुसार लिया जाय 11 Mad. 176. दफा १८५ मदरास स्कूलमें उमरकी क़ैद
जो क़ायदा बङ्गालस्कूल ( दफा १८२ ) और बनारसस्कूल (दफा १८३) में प्रचलित है प्रायः वही इस स्कूलमें भी माना जाता है देखो - 1 Stra H. L. 87-91; 2 Stra. H. L. 87-10; 1 Mad. 106; 1 Mad. 406, Mad. Dec. of 1859 P. 118; 6 Mad. 43; 13 Mad. 128.
मि० यल्सका मत है कि यदि उपनयन संस्कार के पश्चात् गोद लिया तभी जायज़ है मगर दोनोंका गोत्र एकही हो । त्राविङ्कोर में एक मुक़द्दमा इस बिनापरं चला कि भाईका पुत्र उपनयनके पश्चात् गोद लिया गया था । अदालतने उसे इसीलिये स्वीकार किया कि वह भाईका बेटा था, उपनयनके आधारपर नहीं; देखो - 2 Stra H. L. 104; 8 Mad. 58 मदरास हाईकोर्ट मे इस फैसले के आधारपर मुक़ामी रवाज की शहादत लेनेके बाद यही बात मानी । देखो --3) Mad. 148; 3 Mad. H. C. 28
इसके बाद एक मुक़द्दमा ऐसा दायर हुआ जिसमें ४० वर्षका मर्द जो अपने बाप के मरने के बाद बापकी जायदादका वारिस हो चुका था और जिस की शादी नहीं हुई थी गोद लिया गया । अदालत ने यह दत्तक रद कर दिया देखो- पापाअम्मा बनाम अप्पाराव 16 Mad. 384, 396.
मि० गिवलिन साहबकी राय है कि पांडेचरी में ब्राह्मणोंके सिवाय यह रवाज है कि उपनयनके पश्चात् गोद लिया जा सकता है; 1 Giblin 94. दफा १८६ पञ्जाब प्रांत में उमरकी क़ैद
पञ्जाब प्रांत में उमरकी क़ैद नहीं है वहां पर किसी भी उमरका लड़का गोद लिया जा सकता है; देखो -पञ्जाब करटमरी लॉ P. 82.
दफा १८७ जैनियोंमें उमरकी क़ैद
जैनियोंमें ३२ सालकी उमर तक लड़का गोद लिया जा सकता है मगर जस्टिस हालवे साहबका कहना है कि जैनियोंमें गोद लेनेके सम्बन्धमें उमर की कोई क़ैद नहीं है 9 Mad Jur 24; 6N. W. P. 402;5 S. D. 276, दफा १८८ शूद्रों में उमरकी क़ैद
सभी स्कूलों में माना गया है कि बिन ब्याहा शूद्र क़ौमका लड़का चाहे जिस उमरका हो गोद लिया जा सकता है; देखो - 16 Mad 384, 397; और . देखो इस किताब की दफा २१६.
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दफा १६५ - ११०]
साधारण नियम
दफा १८९ गोद लेने वालेसे दत्तक पुत्रकी उमर कम होना चाहिये
सामान्यतः गोद लेने वाले बाप या मातासे दत्तक पुत्र की उमर कम होना चाहिये, मगर यदि अन्य सब बातोंसे दत्तक पुत्र उचित और योग्य हो तो उमरका ख्याल नहीं किया जायगा देखो - 10 Bom. 80; 12 Bom HC364.
२३३
दफा १९० एकलौता लडके की दत्तक
जिसके एकही लड़काहो वह एकलौता लड़का कहलाता है । और जिस के कई लड़के हों उनमें से जो उमर में सबसे बड़ा हो वह जेठा लड़का कहा जाता है । धर्मशास्त्रकारों की राय इन दोनोंके बारे में नीचे देखो
इदानीं कीदृशः पुत्री कार्यः इत्यतग्राह शौनकः --- नैकपुत्रेण कर्तव्यं पुत्रदानंकदाचन । बहुपुत्रेण कर्तव्यं पुत्रदानं प्रयत्नतः । दत्तक मीमांसायाम् - एकएव पुत्रो यस्येति एकपुत्रः तेन तत्पुत्रदानं न कार्यं । नत्वेकं पुत्रं दद्यात् प्रतिगृह्णीयाद्वा इति वसिष्ठस्मरणात् । अत्र स्वस्वत्व निवृत्तिपूर्व पर स्वत्वापादानस्य दानपदार्थत्वात् परस्वत्वापादानस्य च पर प्रतिग्रहं विनानुपपत्तेस्तमप्याक्षिपति तेन प्रतिग्रह निषेधोऽपि अनेनैव सिद्ध्यति । तत्र वसिष्ठः - नत्वेवैकं पुत्रंदद्यात् प्रतिगृह्णीयादेति तत्र हेतुमाह सहि सन्तानाय पूर्वेषामिति । सन्तानार्थत्वाभिधानेनैकस्य दाने सन्तान विच्छित्ति प्रत्यवायो बोधितः । सच दातृप्रतिग्रहीत्रो सभयोरपि उभयशेषत्वात् । यत्तु स्मृत्यन्तरम् सुतस्यापि च दाराणां वशित्वमनुशासने, विक्रये चैव दानेच वशित्वं न सुते पितुरिति । यच्च योगीश्वर स्मरणात् – 'देयं दारसुतादृत' इति तदेक पुत्र विषयम् 'कदाचन' आपदि तथाच नारदः -- निक्षेपः पुत्रदारश्च सर्वस्वञ्चान्वये सति श्रापत्स्वपि हि कष्टासु वर्तमानेन देहिना ।
30
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२३४
दत्तक या गोद
[चौथा प्रकरण
अदेयान्याहुराचा- यद्यत् साधारणधनमिति।इदम्प्येक पुत्र विषयमेव वशिष्ठ शौनकैकवाक्यत्वात् । तर्हि केन पुत्रोदेय इत्यतआह-बहुपुत्रेणीति। बहवः पुत्राः यस्येति 'बहुपुत्रः' नैकपुत्रेणेतिनिषेधात् द्विपुत्रस्यैव दानप्राप्तौ यद्वहुपुत्रेणेत्युच्यते तदिपुत्रस्यापि तत्प्रतिषेधाय । एकपुत्रो ह्यपुत्रोमे मतः कौर. वनन्दन । एकं चक्षुर्यथा चक्षुर्नाशे तस्यान्ध एव हीत्यादि भीष्मं प्रतिशान्तनूक्तेः इति ।
'भावार्थ- कैसा पुत्र गोद लेना चाहिये इस विषयपर शौनककी यह राय है कि जिस किसी आदमीके एकही लड़का हो उसे गोद लेना योग्य नहीं है जब एकसे ज्यादा लड़के हों तो छोटा गोद देवे । दत्तक मीमांसामें इस वाक्य का अर्थ यही लगाया गया है कि जिसके एक लड़का हो वह उसे गोद न दे । वसिष्ठ ने कहा कि, जिसके एकही पुत्र हो वह उसे गोद न देवे, और ऐस्। लड़का गोंद न लेना चाहिये। अब शङ्का यह है कि 'दान से यह मतलब है कि लड़के को अपने अधिकारसे दूसरेके अधिकारमें दे देना, तो यह उस समय तक सम्भव नहीं हो सकता कि जब तक दान देने वाला देवे नहीं और लेने वाला लेवे नहीं। इससे मालूम होता है कि दानका निषेध किया गया। वसिष्ठ ने जो यह कहा कि एक पुत्रको गोद न देवे इससे यह मतलब है कि, वह लड़का अपने वंशके चलानेके वास्ते रखा गया है जिसमें वह जन्मा है। इसीलिये एक लड़के वाले पिताका अधिकार उसके गोद देने में नहीं है क्योंकि जिसके एकही लड़का हो और वह उसे गोद दे देवे, पीछे दूसरा पुत्र पैदा न हो तो उसका वंश नहीं चल सकेगा इस भयसे एक लड़का होने की सूरतमें गोट देनेका निषेध किया गया है। एकलौता लडका देने और लेने में, देने वाले और लेने वालेपर एक प्रकारका अपराध माना गया है। अपराध से यह मतलब है कि पिताका अधिकार उसके गोद देने में नहीं है। स्मृतिकारों ने कहा है कि पिता के वशीभूत पुत्र और उसकी मां होती है मगर उसे यह अधिकार नहीं है कि उन्हें बेञ्च डाले अथवा दान कर दे । नारद और अन्य आचार्यों ने यद्यपि आपदकालमें कुछ इसके विरुद्ध कहा है मगर वह विषय दूसरे प्रकारका है। अब प्रश्न यह है कि कैसा पुत्र गोद दिया जा सकता है ? इसका उत्तर यह है कि जिस आदमीके एक से ज्यादा पुत्र हों वह छोटे पुत्र के गोद देनेका अधिकारी है और ऐसा ही पुत्र गोद लिया जा सकता है। महाभारतके इतिहासमें शांतनुने भीष्मसे कहा कि जिसके एकही पुत्र हो
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दफा १६०]
साधारण नियम
२३५
उसका दान इस प्रकार है कि जैसे किसी आदमीके एकही आंख हो और फूट जाय तो वह अन्धा हो जावेगा मतलब यह है कि एकलौते पुत्रका दान नहीं करना चाहिये।
दत्तक चन्द्रिका और विज्ञानेश्वरने भी यही माना है। अनेक पुत्रोंमें कौन पुत्र गोद दिया जाय और कौन लिया जाय ? मनु जी कहते हैं कि
जेष्ठेन जातमात्रेण पुत्री भवति मानवः पितृणामनृणश्चैव स तस्मात्सर्वमर्हति । ९-१०६
सिर्फ पैदा होनेहीसे संस्कार रहित भी जेठे पुत्रसे मनुष्य पुत्रवान् हो जाता है और पितरोंके कर्जेसे छूट जाता है इसलिये जेठापुत्रही सबधन पाने के योग्य है । इसीसे जेठे पुत्रको गोद न देवे यह वंश चलानेके लिये और धर्म कृत्य करने के लिये प्रधान पुत्र है।
पहलेके मुकदमों में यह दोनों बातें हिन्दूला में भी मानी गई थीं यानी एकलौता पुत्र और जेठा पुत्र न तो गोद दिया जासकता था और न लिया जा सकता था। देखो जानकी बनाम गोपाल 2 I. L. R. Cal. 366; काशीबाई बनाम तांतिया 7 Bom. I. L. R. 221; 7 Bom. I. L. R. 225; मि० माण्डलीक मयूखकी टीकामें कहते हैं कि एकलौते पुत्र और जेठे पुत्रके दत्तक देने या लेने के बारेमें वेदोंके समयसे लेकर आजतक कोई साफ मनाही नहीं पाई जाती हां ऐसा करने में देनेवाला और लेनेवाला पातकी होता है।
हैवतराव बनाम गोविंदराव 2 Bom. 75 वाले मामलेमें बापने अपने दोनों लड़कोंको गोद दे दिया था और दो ही पुत्र उसके थे । हाईकोर्टने कहा कि एकलौते बेटे और जेठे बेटेके दत्तक देनेका अपराध असली बापके ऊपर है लेनेवालेके ऊपर नहीं और जब ऐसा दत्तक हो चुका हो तो जायज़ है। इसी किस्मके अनेक मुकदमे बम्बई और मद्रास हाईकोर्टमें हुए तथा प्रिवी. कौंसिलतक गये सबोंमें मुख्यतः दो वचनोंपर विचार किया था।
नेक पुत्रेण कर्तव्यं पुत्रदान कदाचन । बहु पुत्रेण कर्तव्यं पुत्रदानं प्रयत्नतः । शौनक नत्वेकं पुत्रं दद्यात् प्रतिग्रहीयादा । वसिष्ठः
प्रिधीकौंसिलने 'कर्तव्य' और 'दद्यात्' इन पदोंपर बड़ा विचार किया अन्तमें कहा कि-शौनक यह कहते हैं कि एक पुत्र गोद न लेना चाहिये वसिष्ठ कहते हैं कि न देना चाहिये 'न देना चाहिये' कहनेसे यह मतलब नहीं है कि अगर ऐसा पुम दत्तक दे दिया गयाहो तो नाजायज़ है बक्ति यह मत
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दत्तक या गोद
[चौथा प्रकरण
लब है कि असली बाप को न देना चाहिये ऐसा करने में देनेवालेपर कसूर है न कि लेनेवालेपर और जबऐसा पुत्र दत्तक ले लिया गया हो तो फिर वह नाजायज़ नहीं है। धर्मशास्त्रकारोंने असली बापको सलाह दी है कि वह ऐसा न करे मगर देनेके बाद विरोध नहीं कियागया। और देखो दफा-२०२;२०६ दफा १९१ दो पुरुष एकही लडकेको गोद नहीं ले सकते
दो श्रादमी शामिल होकर एक पुत्रको गोद नहीं ले सकते चाहे वह सगे भाई क्यों न हों 10 Cal. 688; मेन हिन्दूला सातवां एडीशन पेज १६३ सरकार लॉ आफ एडाप्शन पेज ३०६. (ख) कौन लड़के गोदहो सकते हैं ? या कौन
गोद लिये जा सकते हैं ?
नोट-उदाहरणकी तरहपर कुछ लड़के नीचे बताये गये है जो गोद लिये जा सकते है। नीचे जिनका जिक्र किया गयाहै वह कहीं तो रवाजके अनुसार और कहीं पर विशेष कायदे से तथा कहीं पर दूसरे सिद्धांतस जायज मानेगये हैं मगर वह समस्त भारससे लागू न होंगे इसलिये इस विषयके समझने के लिये स्कूल, खाज, कौम और दूसरी बातोंको भी ध्यानमें रखना । दफा १९२ सगोत्र सपिण्ड,असपिण्ड भिन्न गोत्र सपिण्डका लड़का
___ जहांतक हो नज़दीकका लड़का गोद लियाजाय देखो दफा १७२; १७३; १७५ जैसे सगे भाईका पुत्र बहुतही उचित है यदि ऐसा पुत्र न हो या न मिल सकता हो तो, सगोत्रपिण्डमें कोई पुत्र दत्तक लियाजाय पीछे सगोत्र असपिण्ड में इनमें भी न हो या न मिलसके तो भिन्नगोत्र सपिण्डमें गोद लेना बताया गया है देखो इस किताबकी दफा १७३. दफा १९३ सौतेला भाई
शूद्रोंमें (जो द्विजन्मा नहीं है ) सौतेला भाई दत्तक लिया जासकता है देखो 15-All. 327 लेकिन द्विजोंमें हरगिज़ नहीं लिया जा सकता 3 Mad. 15; देखो दफा २२४. दफा १९४ भाईका पुत्र
मि मेन अपनी हिन्दूलॉ की दफा १३५ मैं कहते हैं कि भाईकापुत्र गोद लेनेके लिये बहुतही योग्य है । भट्टाचार्य कहते हैं कि भाईका पुत्र अपने पुत्रके बराबर है; देखो-भट्टाचार्य हिन्दूला तीसरा एडीशन पेज ४१४ और देखो दफा १७६.
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दफा १६१-१९७]
कौन लड़के गोद होसकते हैं
दफा १९५ भाईका पौत्र
भाईके बेटेका पुत्र, नीचेके मुकद्दमोंके फैसलोंमें, जायज़ माना गया है 6 Call, 41; 6 Cal. L. R. 393; पञ्जाबमें भी जायज़ माना गया है देखो 67 P. R. 1902. दफा १९६ भाईकी लड़कीका लड़का
दक्षिणी भारतमें रवाजके अनुसार हिन्दू पुरुष अपने भाईकी लड़कीके पुत्रको दत्तक ले सकता है यद्यपि ऐसा दत्तक हिन्दूलॉ के सिद्धांत से इक दम विरुद्ध है 15 M. L. J. 211.
पंजाबमें जब तक कि इसके विरुद्ध कोई रवाज साबित न हो भाईकी लड़की का बेटा दत्तक लिया जासकता है; देखो--No. 72 of 1878; 27 of 1884; 86 of 1885; 43 of 1886; 86 P. R. 1904.
पति के भाई का गोद लिया जाना । हिन्दूलॉ के अनुसार पति के भाई का गोद लिया जाना जायज़ है। श्रीपति दत्तात्रेय बनाम विट्ठल बासुदेव सेठ 27 Bom. L. R. 67 4, 49 Bom. 615; 89 I.C. 197; A. I. R. 1925. Bom. 399.
एक किसी प्रमुख जाति की उपजाति में से दत्तक लेना जायज़ हैशिवदेव बनाम रामप्रसाद 87 I. C 938; A. I. R. 1925 All. 79. दफा १९७ लड़कीका लड़का (दोहिता)
(१) हिन्दुस्थानके दक्षिणमें रवाजके अनुसार ब्राह्मणोंमें लड़कीका लड़का (दोहिता) दत्तक हो सकता है; देखो--9 Mad. 44 ( F. B.); 7
Mad. 3.'
(२) शूद्रोंमें लड़कीका लड़का आम तौरसे गोद लिया जा सकता है देखो; 1 M. 62; 10 Cal. 688; 12 All. 328-334.
(३) पंजाबमें लड़कीके लड़केको गोद लिया जाना रवाजके अनुसार जायज़ माना जाता है देखो-पंजाब No 13 of 1873; 60 of 1874; 26 of 1872; 72 of 1878; 50 of 1879; 86 of 1881; 129 of 18829 167 of 18833; 154 of 1884; 5 of 18853; 64 of 18833; 162 of 1883; 35 of 1885; 87 of 1886; 85 of 1886793 P. R. 18903; 169 P. R. 1890 86 P. R. 1904.
पंजाबमें प्रचलित हिन्दूलॉ के आधीन, कोई हिन्दू अपनी पुत्री के पुत्र को दत्तक ले सकता है, किन्तु इस का यह प्रभाव नहीं होता कि उस का परिवर्तन कुदरती खान्दान से गोद लिये जाने वाले खान्दान में हो जाय । भोलाराम बनाभ मालिकराम 93 I. C. 956...
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दत्तक या गोद
[चौथा प्रकरण
जी० सी० सरकार ने अपने लॉआफ एडाप्शन पेज ३४१--३४२ में कहा है कि पञ्जाबमें द्विजोंके अन्तर्गत लडकीका लड़का, बहनका बेटा. भाई की लड़कीका बेटा भाईकी बहनका बेटा, गोद लिया जासकता है वह जायज़ माना गया है। मगर पञ्जाबभरमें जबतक कोई खास रवाज साबित न हो तब तक लड़कीके लड़केकी दत्तकके बारेमें जो कुटुम्बियोंकी बिना मञ्जूगीके हुआ हो ज़ाहिरतौरसे नहीं कहा जासकता कि जायज़ है देखो---2 P. R. 1893 50 P, R. 1893 ( F. B. ); 3 P. R. 1884, 30 P. R. 1894; 34 P. R. 1894; 86 P. R, 1894; 19 P. R. 1895%; 47 P. R. 1895%3 58 P. R. 1895: 84 P. R. 1895%3; 33 P. R. 1895%; 103 P. R. 1896%; 18 P. R. 1899; 34 P. R. 1899; 33 P. R. 1900; 81 P. R. 1900; 67 P. R. 1901. इन नज़ीरोंमें जाट और राजपूतोंके मामले शामिल हैं।
(४) जैनियोंमें लड़कीका लड़का गोदलिया जासकता है देखो-8 All. 819;1All. 688, 5 I.A. 87; 2 Cal.L.R. 1933 [ All.288, 14 All.53, 4 B. H. C. A. C. 130; 17 All. 294, लेकिन 21 All. 412 में प्रिवी कौंसिलने माना कि लड़कीका लड़का, या बहनका बेटा ब्राह्मण, क्षत्रिय, और वैश्यों में उस समय तक दत्तक नहीं हो सकता जब तककि कोई खास रवाज इसके विरुद्ध न साबितकी जाय देखो-53 P. W. R. 1908; 28 All. 488 ( P. C.); 12 All. 51; 8 All. 1; 1 Mad. H. C. 420; 6 I. L. J. 567 ( P. C.); 10 Cal. L,j. 583 5M. L. T. 423; 11 Bom. L. R. 8333; 36 Cal. 780; 3 Indian Cases. 382; 93 P. R. 1909; 13 C, W.N. 920.
(५) तनजोर, ट्रिचनापोली, तिनिवेली ज़िलोंमें रवाजके अनुसार ब्राह्मणोंमें लड़कीके लड़केको गोद लेना जायज़ माना गया है देखो-वैद्यनाथ बनाम अप्पू 9 Mad. 44. यही, बात मलावारके नामबुद्री ब्राह्मणोंमें मानी गई है देखो 7 Mad. 3. किन्तु दक्षिणी महाराष्ट्र देशमें लड़कीके बेटेको गोद लेना यह श्राम कायदा नहीं माना गया 22 Bom. 973-976.
(६) ऊपर बताये हुए स्थानों और क़ौमोंके अतिरिक्त, लड़कीके बेटे का दत्तक सब जगह नाजायज़माना गया है इस विषयमें अनेक हाईकोटौँके फैसले देखो-भगवानसिंह बनाम भगवानसिंह 26 I. A. 153-160; 21 All. 412; 3 C. W. N. 454, 456; 1. Bom. L. R. 311; 8 Bom. 273; 3 Bom. 298; 2 Mad. H. C. 462-468.
(७) मारवाड़में द्विजोंमें कोई २ लोग लड़कीका लड़का ( दौहित्रदोहिता ) गोदलेलेते हैं। मगर अदालत ऐसे दत्तकको पहले जायज़ नहीं मानलेगी जब तक कि ऐसी रवाज न साबितकी जाय । रवाज कैसे साबितकी जाती है ? देखो दफा ३० से ३५ और देखो दफा-१७७; २३१.
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दफा १६८-१६६]
कौन लड़के गोद हो सकते हैं
दफा १९८ सौतेली लडकीका लडका
पञ्जाबमें होशियारपुर जिलेके, जाटोंके बीच में सौतेली बेटीके पुत्रकी दत्तक जायज़ मानी गई देखो--No 59 of 1874. दफा १९९ बहनका लडका
(१) दक्षिणी हिन्दुस्थानके ब्राह्मणोंमें बहनके बेटे और बेटीके बेटे को गोदलेनेका रवाज है और वहां जायज़ माना गया हैदे खो--9 Mad. 44 (F. B.); 1 M. H. C. 420.
(२) दक्षिणी कनारा(मदरास)प्रांतके सारस्वत ब्राह्मणोंमें बहनका बेटा रवाजके अनुसार जायज़ माना गया है देखो--4 Bom. L. R. 140; 4 Bom. H. C. ( A. C. ) 130; 22 Bom. 978-976.
(३) उत्तर पश्चिम प्रांतोंके बोहरा ब्राह्मण, बहनके बेटोंको गोद ले सकते हैं देखो 14 Al. 53; विरुद्व देखो 24 All. 194.
(४) शूद्र कौममें बहनके बेटे को गोद लेना सब जगह जायज़ है 1 Mad. 62; 10 Cal. 6887 2 All. 328.
(५) रवाजके अनुसार पञ्जाबमें बहनका बेटा गोद लिया जासकता है यदि कोई रवाज इसके विरुद्ध साबित न की जाय । पञ्जाब No 24 of 1867; 88 of 1857; 50 of 1874; 35 of 1874; 1 of 1875; 50 of 1875; 149 of 1883; 3 3 of 1886; 119 of 1882; 128 of 1886, 197 P. R. 1889; 24 P. R. 1900; 79 P. R. 1901.
अगर बहनका बेटा भिन्न शाखावाले कुटुम्बियोंकी मौजूदगीमें गोद लियागया हो और उनकी मञ्जूरीगोद लेनेमें न लीगई होतो वह नाजायज़ है यदि कोई खास रवाज होतो दूसरी बात है देखो 21 P. R. 1892, 102 P. R. 1893; 92 P. R. 1894. 35 P. R. 1896; 39 P. R. 1897; 29 P. R. 1904.
(६) जैनियोंमें बहनका बेटा गोद लिया जासकता है 1 All. 288; 1 All. 6887 5 I A. 87,
(७) मलाबारके नाम बुद्री ब्राह्मणोंमें बहनका बेटा दत्तक हो सकता है देखो-7 Mad. 3.
(८) तनजोर, विचनापोली, और तिनेवली ज़िलोंमें तथा बोहरा ब्राह्मणों में जो उत्तर पश्चिम भारतके उत्तरीय जिलोंमें रहते हैं, मलाबारके नाम बुद्रियोंमें और कनाराके सारस्वत ब्राह्मणोंमें, बहनका लड़का गोद लेना जायज़ माना गया है । जो नज़ीरें लड़कीका लड़का दफा १६७ के सम्बन्धमें ऊपर कही गई हैं वही बहनके लड़केसे भी लागू होती हैं क्योंकि सिद्धांत एकही है दफा १७७, २३२ भी देखो।
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दत्तक या गोद
[ चौथा प्रकरण
संयुक्तप्रांत के सारिन खत्रियों में एक रिवाज है जिसके द्वारा पुत्री या भगिनी के पुत्र को गोद लेने की श्राज्ञा है। इन सारिन खत्रियोंका मूल सम्बन्ध पञ्जाब से है जहांपर कि दत्तक सम्बन्धी हिन्दूलॉ के नियमोंमें रवाजों के कारण भारी परिवर्तन हुआ है । (Lind Say and Kanhaiya Lal J. J.) मक्खन लाल बनाम कन्हय्या लाल 86 1. C. 305; A. 1. R. 1925 All. 688.
२४०
दफा २०० बहनका पोता
- लाहौर ज़िले के अन्तर्गत 'अरोण' क़ौममें बहनके बेटेके पुत्रकी दत्तक नाजायज़ नहीं मानी गई देखो; No 77 of 1878; 120 of 1885; 129 P. R. 1894.
दफा २०१
बहनकी लड़की का बेटा
जहांपर तैलंगी और तामिल भाषा बोली जाती है ऐसे जिलोंमें बहन की लड़की का बेटा दत्तक लिया जासकता है 7 Mad. 548-549; अन्य जगह पर नहीं ।
दफा २०२ एकलौता लड़का
( १ ) एकलौता लड़का ( जिसके एकही पुत्र हो) और अनेक पुत्रों में से कोई भी लड़का चाहे वह जेठाहो या न हो दत्तक लिया जा सकता है देखो 23 1. A. 113; 22 Mad. 398; 21 All. 460; 3 C. W. N. 427; 1 Bom. L. R. 226; 24 Bom. 367; 2 Bon. L. R. 163.
अदालतों में बहुत दिनोंसे यह विवाद चला आता है कि जिसके एकही पुत्र हो वह दत्तक लिया जासकता है या नहीं ? इसविषयमें कुछ फैसले विरुद्ध और कुछ पक्षमें हुए हैं। लेकिन सन् १८६६ ई० से यह बात निश्चित सीमानी जाती है कि एकलौता लड़का गोद लिया जा सकता है इसके पहले भी कुछ केसों में यहीबात मानी जाचुकी थी देखो; 2 Cal 365; 7 Bom. 225. विधवा अपने एकलौते पुत्रको गोद देसकती है देखो 25 Bom. 537
3 Bom. L. R. 73; 6 Bom. 524; 12 Bom. H. C. 364; 26 I. A. 127, 22 Mad. 407; 21 All. 469.
( नीचे प्रत्येक हाईकोर्टकी राय और फैसले देखो )
( २ ) मदरास - मदरास हाईकोर्टने यह माना है कि जिस किसीके एक ही पुत्र हो उसका गोद देना हिन्दूलॉके अनुसार है मगर शर्त यह है कि पति ने गोद देने की मनाही न की हो । विधवा एकलौते लड़केको गोद दे सकती है वह जायज़ माना जायगा 22 Mad. 398 ( P. C ); 9 Mad. L. J. 6; &
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પા
दफा २०० - २०२ ]
कौन लड़के गोद हो सकते हैं
C. W. N. 427; 18 Mad. 53. 4 Mad. L. J. 237; 11 Mad. 43; 1 M. H. C. 54.
( ३ ) इलाहाबाद- इलाहाबाद हाईकोर्टने एकलौते लड़केके दत्तकको 'फेक्टमधे लेट' के सिद्धांतानुसार जायज़ माना । फेक्टमवेलेटका मतलब देखो दफा ७३ और देखो 2 All. 164 ( F. B. ); 14 All. 67, 21 All. 460; 22 Mad. 398 ( P. C. },
(४) पञ्जाब - - पञ्जाबकी चीफ कोर्टने एकलौते लड़केका दत्तक जायज़ माना है No. 18 of 1870; 50 of 1874; 33 of 1872.
फीरोज़पुर जिलेके 'गिल' नामक स्थानके रहनेवाले जाटों में एकलौते पुत्र की दत्तक नाजायज़ मानी गई है देखो No 33 of 1872.
( ५ ) बङ्गाल - बङ्गाल स्कूलके अनुसार एकलौते बेटेकी दत्तक नाजायज़ मानी गई है देखो 3 Cal. 443; 1 B. L. R. A. C. 221; 10 W. B. 347; 4 S. D. 70-89; 4 S. D. 320-407; 3 S. D. 232-310. 15 W. R. 458. बङ्गालमें दायभाग की प्रधानत्व माना जाता है ।
मगर यह भी माना गया कि ऐसा दत्तक 'फेक्टमवेलेट' (दफा ७३ ). के सिद्धांतानुसार जायज़ है देखो - फुलटन्स् रिपोर्ट 75 W. 1. 1864 P. 133; 1 Ind. Jur. O. S. 115.
(६) बम्बई - बम्बई हाईकोर्टने ऐसा मान है कि एकलौते लड़केका दत्तक हिन्दूलाँके सर्व सामान्य नियमके विरुद्ध है और जब कि किसीने एकलौता पुत्र दत्तक दे दिया हो पीछे उसके कोई दूसरा पुत्र पैदा हो जाय तो इस सबब से वह दत्तक जायज़ नहीं हो जायगा । देखो 19 Bom, 668 ( F. B.) 14 Bom. 249; 6 Bom. 524.
जब किसी विधवाने अपने पतिका एकलौता पुत्र दत्तक देदिया हो और ऐसी आज्ञा पति न देगया हो तो वह दत्तक शुरूसेही अनुचित और रद्द करने के योग्य है. 12 Bom H. C. 364; मगर 19 Bom. 428 में कहा कि लिङ्गायतों में ऐसा दत्तक रवाज के अनुसार जायज़ है |
गुजरातमें भी जहां पर मयूख प्रधानतासे मानाजाता हैं एकलौते पुत्रकी दत्तक जायज़ मानी गई है देखो -- 24 Bom. 473, 24 Bom. 367 ( F. B. ) हिन्दू विधवा अपने एकलौते पुत्रको दत्तक दे सकती है ऐसे दत्तक मैं यह प्रश्न नहीं उठ सकता कि सिर्फ एकलौतापुत्र होने के कारण नाजायज़ है 12 Bom. H. C. 364, की नज़ीर द्वामुष्यायन दत्तकसे लागू नहीं होती और हालकी नज़ीरें ऐसी हैं कि जिनमें असली बापने अपने एकलौते बेटेको दत्तक दिया था जायज़ माना गया, यही सिद्धांत जहां पर कि विधवाने ऐसे पुत्रको दत्तक दियाहो लागू होसकता है देखो- --25 Bom. 537 ÌAI AIGA
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२४२
दत्तक या गोद
[चौथा प्रकरण
होता है कि जहांपर एकलौते पुत्रकी दत्तक जायज़ मानी गई है वह फेक्टमवेलेट' दफा ७३ के सिद्धांतसे मानी गई है देखो-4 B. H. C. A. 191, 7 B. H. C. Appendix 26.
(७) मध्यभारत के फैसलोंमें मानागया कि एकलौते बेटेकी दत्तक बे. कानूनी है । सेलेक्ट केस सन् 1872 Part 8 No 46: b C. P. L. R. 26.
(८) एकलौते पुत्रकी दत्तक के विषयमें देखो दफा--१६० दफा २०३ विवाहा हुआ लड़का
(१) सिर्फ बम्बई और पञ्जाब प्रांतमें विवाहा हुआ लड़का गोदलिया जासकता है अन्यत्र नहीं । बम्बईमें विवाहा हुआ आदमी चाहे वह एकही गोत्रका हो या भिन्न गोत्रका हो ब्राह्मण और शूद्रोंमें दत्तक लिया जा सकता है 10 Bam. 80; 8 Bom.. H. C. ( A.C.) 67; 7 B. H. C. App. 26 12 B. H. C. 364; 11 B. O. 894.
23 Bom. 251 वाले मामलेमें गोद लेनेवालीमातासे दत्तक पुत्रकी उमर ज्यादा थी मगर इस सबसे वह नाजायज़ नहीं माना गया । नीलकण्ठ, मयूखमें कहते हैं कि मेरे पूज्य पिताजीकी यह राय थी कि विवाहा हुआ और जिसके सड़का पैदा हो गया हो ऐसा आदमी भी गोद लेने के योग्य है । इस लिये माना गया है कि जब किसी हिन्दू आदमी के विवाह के बाद पुत्र भी पैदा होगया हो और वह पीछे गोद दे दिया जाय तो उसके पुत्र अपने असली खानदान का गोत्र तथा हक़ नहीं खो देते, और न उन्हें अपने बापकी छोड़ी हुई जायदादका उत्तराधिकार मिलता है जिसमें उसका बाप दत्तक गया है 33 Bom. 669; 11 Bom. L. R. 797; 3 Indian Cases. 809.
(२) पञ्जाब--पञ्जाबमें दत्तक पुत्रके लिये उमरकी कैद नहीं है चाहे दत्तकपुत्रका उपनयन और विवाह असली पिताके घर हो गयाहो पीछेसे भी दत्तक दिया जासकता है देखो--No. 51 of 1867; 37 of 1868; 37 of 1872; पंजाब कस्टम 1876 P. 82.
(३) विवाहाहुआ लड़का गोद नहीं लिया जासकता देखो दफा २२६ दफा २०४ सौतेला पुत्र
होशियारपुर जिलेके जाटोंमें रवाजके अनुसार ऐसे लड़केकी दत्तक जायज़ मानीगई है जो लड़का किसी दूसरे पुरुषसे पैदा हुआ हो और उसकी मा ने पुनर्विवाह करनेके बाद पहले पतिके पुत्रको गोद दे दिया हो देखो-- No 98 of 1884; 45 of 1874 लेकिन 'मारा' और 'अलख' नामक जाटोंमें ऐसा दत्तक नाजायज़ माना गया है 98 P. R. 1892 48 P _R. 1394, 122 P.R. 1894.
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दफा २०३ - २१० ]
कौन लड़के गोद होसकते हैं
दफा २०५ चाचाका पुत्र और प्रपौत्र आदि
7 Mad. 548--में माना गया कि चाचाका पुत्र ( बापके भाईका पुत्र ) तथा प्रपत्र, मामाकी लड़कीका पुत्र और मामा के भाईकी लड़की की लड़की का पुत्र, रवाज साबित होनेपर दत्तक होसकता है ।
२४३
दफा २०६ जेठा पुत्र
सब लड़कोंमें जो लड़का उमरमें बड़ा हो उसकी दत्तक नीचेके मुक़द्द मोंमें जायज़ मानी गई है देखो - -2 Cal 365; 1 Hary 260; 7 Bom. 221; 7 Bom 225, 3 B. L. R. (P. C.) 27; 12 W. R. P. C. 29; 13 M. I. A. 85; 12 B. HC 3641 Bom. L. R.144 देखो दफा १६०.
दफा २०७ भानजा ( बहनका पुत्र )
पञ्जाब प्रातमें अम्बाला जिलेकी रूपार नामक तहसील के अन्तर्गत 'सेक्सस' क़ौमके संतानहीन मामाने अपनी बहनके पुत्रको दत्तक लिया था जायज़ माना गया देखो - No 85 P. R 1889; देखो दफा १७७.
दफा २०८ माकी बहनका पुत्र
सिर्फ शूद्रों में दत्तकहो सकता है देखो 1 Mad. 62; लेकिन विरुद्ध फैसले देखो 21 All. 412 ( P. C. ); 11 Bom. L. R. 1172 द्विजों में नाजायज़ है मद्रासमें दूसरा फैसला मुझे इस बारे में नहीं मिला । देखो
दफ़ा - २२८
दफा २०९
साला (पत्नीका भाई)
( १ ) श्रीरामलू बनाम रामाऐय्या 3 Mad 15 में मुसामी एय्यर जजने कहा कि स्त्रीका भाई गोद हो सकता है क्योंकि एक क़ायदा यह है कि वह लड़का गोद लियाजाय जिसकी मा गोद लेनेवालेकी स्त्री बन सकती हो लागू होता है । कुछ पुराने केस इस बारेमें हैं मगर अब ऐसा दत्तक बहुत कम होता है देखो Mad Dec. 1856 P. 213; Mad. Dec. 1857 P. 94. (२) पञ्जाबके कुछ मज़हबों में साला गोद लिया जासकता है 22 P. R. 1891; और देखो - इस किताबकी दफा -- १७८.
दफा २१०
सालेका
पुत्र
स्त्री, अपने भाईका पुत्र अपने पतिके लिये गोद ले सकती है देखो -- 22 Bom. 973; 9 Bom, 58; 3 Mad. 15; 27 All. 417.
मि० मेन, अपनी हिन्दूलॉके छठवें संस्तरणके पैरा १३५ में कहते हैं कि साला या सालेका पुत्र दत्तक लिया जासकता है इसी तरहपर स्त्रीकी बहन का
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दत्तक या गोद
[ चौथा प्रकरण
पुत्र भी दत्तकके योग्य हो सकता है । यही राय भट्टाचार्यकी भी है देखोभट्टाचार्य हिन्दूला तीसरा एडीशन पेज ४१४ सिरसा जिलाके 'डबवाली' सहसील में उन जाटोंमें जिनका गोत्र ढ़ांनढीवाल' है सालेका पुत्र दत्तक हो सकता है देखो --No 32 of 1882; 94 P. R.1898.
૨
-
गुजरातके 'आबांस' नामक क़ौममें रवाजके अनुसार सालेका पुत्र दत्तक लिया जासकता है No. 165 of 1884 सिबिल.
अम्बाला जिलेकी रूपार नामक तहसीलके 'रेहाला' जाटोंमें सालेका पुत्र गोद नहीं लिया जासकता जबतक कि कोई खास रवाज साबित न हो 166 P. R. 1890; 75 P. R. 1892.
नोट -- पहिलेके मामलों में ऐसा माना जाता था कि सालेका पुत्र उत्तम नहीं हो सकता जबतक कि पति की स्पष्ट आज्ञा न हो मगर बाद के एक मुकद्दमें ( 27 All 417 ) में जस्टिस स्टेनल ने पहले के सब मुक़द्दमों को विचार करके कहा कि, पहले के सब मामलों में प्रायः यही माना गया है कि साल का पुत्र दत्तक के लिये बिल्कुल योग्य है और इसमें नन्द पंडित का नियम लागू नहीं होगा । और देखो मैन हिन्दूला सातवां एडीशन पेज १७७ मि० ट्रिवेलियन अपनी हिन्दूलों के दूसरा एडीशन पेज १३८ में कहते हैं कि ऐसा दत्तक माना जा सकता है । और देखो 3 Md. 15-7; 22 Bon. 973. और देखो इस किसाबको दफा १७८५
दफा २११ सालेका पोता
जी क़ायदा ऊपर दफा २१० में सालेके पुत्र के संबंध में लागू किया गया है वही सालेके पुत्रके बेटेमें भी होगा । विधवा अपने भाई के पोतेको पतिकी आशासे गोद ले सकती है देखो -- जैसिंहपाल बनाम विजयपाल 2 All Le J 36; 27 All. 417.
दफा २१२ सालीका बेटा ( स्त्रीकी बहनका पुत्र )
सिर्फ फ़ीरोज़पुर जिलेके धावन खत्रियों में स्त्रीकी बहनका पुत्र गोद लिया जासकता है। इसके विरुद्ध रवाज साबित नहीं की गई 31, R. 1901 Bom. Sel, R. 78.
दफा २१३ स्त्रीकी बहनकी लड़कीका लड़का
मद्रासके दो मुक़द्दमोंमें मानागयाकि हिन्दू अपनी स्त्रीकी बहनकी बेटी का बेटा दत्तक ले सकता है देखो --7 Mad. L. J 134; 20Mad. 283. दफा २१४ बापकी बहनका पोता
•
एक मुक़द्दमे में 'पुरवियाकुरमी' जो अपनेको पुरविया क्षत्री कहते हैं उनमें, बापकी बहनके लड़केका पुत्र गोद लियागया और वह नाजायज़ नहीं माना गया। क्योंकि वह द्विजन्मा क़ौम में नहीं माने गये देखो - 28 All. 170
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दफा २११-२१८]
कौन लड़के गोद हो सकते हैं
२४५
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दफा २१५ ब्राह्मोका पुज्ञ ब्राह्मो
जो आदमी ब्रह्म समाजी हो गया हो उसके बाद उसके पुत्र पैदा होतो वह पुत्र ज़ाहिरा तौरसे ब्राह्मो पैदा हुआ मगर ऐसा पुत्र दत्तक लिया जासकता है कारण यह है कि 30 Cal. 999; 7 0. W. N. 734में साबित था कि असली बाप हिन्दू पैदा हुश्रा और उसके ब्रह्मसमाजी होनेपर पुत्र पैदा हुआ था। बाप जिस किसी क्षण चाहे प्रायश्चित्त करके ब्रह्म समाजसे हिन्दू समाजमें आ सकता है तो उसका पुत्र क्यों नहीं आसकता इसलिये ब्राह्मो पुत्रकी दत्तक जायज़ मानी गई देखो--कुसुम कुमारराय बनाम सत्यरञ्जनदास 30 Cal.999. दफा २१६ शूद्रोंमें ४० वर्षका बिनव्याहा आदमी
शूद्रोंमें ४० वर्षकी उमरका बिनव्याहा आदमी जब दत्तक लियागया तो वह नाजायज़ नहीं मानागया और उसके उत्तराधिकारका हक़ असली बापके घरानेसे भी नष्ट नहीं होगया यह बात प्रायः सब स्कूल मानते हैं देखो-3 Mad. L. J 80; 16 Mad. 384--386; देखो दफा १८०. दफा २१७ अपरचित पुत्र ____अपरचित लड़का (नज़दीकीको छोड़कर दूरका) दत्तक लिया जासकता है जो और सब बातों से उचित हो चाहें भाईके पुत्र भी मौजूद हो; दत्तक मीमांसा और दत्तकचन्द्रिका सहोदर भाईके लड़केका दत्तक; दूसरे सब लड़कोंसे अधिक श्रेष्ठ बताया गया है देखो दफा १७६ इस वाक्यका अर्थ जजोंने ऐसा किया कि गोद लेनेवालेके कर्तव्य कर्मको उक्त वचन पाबन्द करते हैं मगर वह बचन क़ानूका असर नहीं रखते इसलिये यह बात गोदलेनेवाले की इच्छा पर निर्भर है। माना गया कि यदि सहोदर भाईके पुत्रको छोड़कर दूसरा लड़का दत्तक यानी गोद लियागया हो जो अन्य सब बातोंसे उचितहो तो सिर्फ इस कारणसे कि भाई कापुत्र छोड़कर दूसरा पुत्र दत्तक लिया गया इस लिये दत्तक नाजायज़ है अदालतने यह बात नीचेके मुकदमोंमें नहीं मानी 3 Cal. 587.15 B. L. R. 405; 23 W. R. 340; 2 C. L. R.51; 6 B. H. C. A. C. J_70. 10 Bom. 80. देखो दफा १७६ पैरा २. ... पञ्जाबके धूसर कौमें जो हिन्दू हैं यतीम लड़का गोद लेनेका रवाज है यह बात अदालतने स्वीकार की है देखो 1922 H. L. J. 52. दफा २१८ ऊंची जातियों में उपनयनके पहले
(१) ब्राह्मण, और ऊंची जातियोंमें उपनयन संस्कार आवश्यक है, जनेऊ करनेसे पहले लड़का दत्तक लिया जासकता है यह नियम सामान्य है मगर जहांपर कोई विशेष, बात मालूम पड़ती है वहां नहीं, जैसे बम्बई स्कूल
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२४६
दत्तक या गोद
[चौथा प्रकरण
में व्याहा हुआ लड़का दत्तक लिया जासकता है दफा २०३ जनेऊसे पहले गोद लेना चाहिये देखो---9 Mad. 148; 13 Mad. 1283 Mad. H. C. 28; बम्बई में उपनयनके पश्चात् भी लिया जासकता है देखो 10 Bom. 8; 8 BH. C. A. C. 67; 12 B. I. C. 364; 11 B. H. C. 194; 28 Bom- 251.
(२) पंजाबमें भी उपनयनके पश्चात् जायज़ मानाजाता है--देखो दफा १८०. दफा २१९ शूद्रोंमें विवाहसे पहले
शूद्रोंमें विवाहसे पहले दत्तक लेना योग्य है देखो 22 Bom. 250, मगर यह कायदा व्यापक नहीं मानागया किसी भी उमरका लड़का गोद लिया जासकता है और बहुत जगहोंमें ऐसा दत्तक जो विवाहके बाद दिया गया हो जायज़ माना गया है देखो दफा १८० । दफा २२० वेश्याका लड़की गोद लेना
सिर्फ मदरासमें रंडी, या गाने बजानेका पेशा करनेवाली औरत लड़की गोद लेसकती है मगर रंडीके पेशेके लिये नहीं -देखो दफा ११६, ३०३.
(ग) कौन लड़के गोद नहीं लिये जासकते?
दफा २२१ पालक पुत्र
पालकपुत्र दत्तक नहीं हो सकता। बारह प्रकारके पुत्रोंके अन्तर्गत पालकपुत्रका नाम नहीं है मि० दिवेलियन अपने फेमिलीलोंके पेज १०० में कहते हैं कि-अाजकल कोई हिन्दू. पालक पुत्र और लड़की को गोद नहीं लेसकता यानी यदि कोई यूरोपियन किसी लड़केकी परवरिश करता रहे और जायदाद उसे दे दे और यह कहे कि वह गोद लियागया है, यहठीक न होगा क्योंकि वह लड़का उत्तराधिकारसे जायदाद नहीं पावेगा । और मज़हबी कृत्योंके पूरा करने योग्य भी नहीं माना जायगा । इसतरहका पुत्र निश्चित एक शर्तबन्द पुत्र है दत्तक नहीं देखो-13 M I. A. 85; 3 B. L. R. ( P. C.) 27; 12 W. R. (P. 0.) 29; 2 W. R.C. 281. दफा २२२ पुत्रिकापुत्र
पुत्रिकापुत्र किसे कहते हैं देखो दफा ८२-३; ८३ ऐसा पुत्र दत्तक नहीं लिया जासकता क्योंकि दत्तक लेनेका जो मतलब है यह ऐसे पुत्रसे सिद्ध
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दफा २१६-२२५]
कौन लड़के गोद नहीं लिये जा सकते
२४७
होजाता है फिर भी उसे दत्तक लियाजाय तो नाजायज़ हो जायगा W. R. 1864 P. 194. दफा २२३ अनाथ बालक
__ अनाथ बालक उसे कहते हैं जिसके बाप-मा मर गये हों। ऐसा बालक गोद नहीं लिया जासकता क्योंकि गोद देनेका काम सिर्फ़ बाप और माताही करसकती है स्वयंदत्त आजकल प्रचलित नहीं रहा देखो 6 Bom. H• C. 83; 2 Mad. H. C. 129; 10 Bom, H. C. 268; 10 Mysore. L. R. (1878-1896 ) 384.
मगर 7 Indian Cases427 में एक मामलेमें यह मानागया कि अनाथ बालक के बड़े भाईने उसे गोद दिया था जब कि मा-बाप दोनों मरचुके थे अदालतने इसे फेक्टमवेलेट ( दफा ८३) के सिद्धांतसे जायज़ माना।
दत्तककी सार्थकताके लिये यह आवश्यक है कि गोद लेनेके समय पुत्र, पिता द्वारा या. यदि पिता जीवित न हो तो माता द्वारा गोद लेनेवाले अर्पित किया जाय । किसी दूसरे को यह अधिकार नहीं है और न यह अधिकार किसी दूसरे को दिया ही जा सकता है। अतएव अनाथ, जिसके माता पिता न हो गोद नहीं लिया जा सकता । (Mr. Amir Ali.) धनराज जौहरमल बनाम सोनी 52. Cal. 482362 I. A. 2317 (1925) M. W. N. 692; 87 I. C. 357; L. R. 6 P.C.97; 27 Bom. L. R. 837.23 A. L.J. 273; 20 W. N. 335; 21 N. L. R. 50; A. I. R. 1925 P. C. 118; 49 M. L. J. 173 ( P.C. ). दफा २२४ सौतेला भाई
शूद्रोंको छोड़कर जैसा कि ऊपर दफा १६३ में बताया गया है दूसरी क़ौमोंमें या ऊंची जातियोंमें सौतेला भाई गोद नहीं होसकता देखो-3 Mad. 15-16.
दफा २२५ भाई
सगाभाई दत्तक नहीं लिया जासकता देखो नार्टनके प्रधानकेस Part. 1 P. 66 सिर्फ दक्षिणके कुछ मुक़दमों में छोटे भाईका दत्तक जायज़ मानागया था 2 Bor. 75-85 भाईका दत्तक लेना धर्मशास्त्रोंमें बड़ा निषेध कियागया है देखो दफा १७२; भाईका दत्तक नीचे के मुक़दमों में नाजायज़ माना गया । श्रीरामलू बनाम रामाप्पा 3 Mnd.15 रन्जीतसिंह बनाम अभयनारायणसिंह 2 Ben.Sel.R. 245; देखो भाईके दरजेका दत्तक एक मुकदमेमें जायज़ माना गया देखो 2I Bom. L. R. 17-27( 1918) दफा १७२.
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दत्तक या गोद
[ चौथा प्रकरण
दो भाइयों द्वारा एक ही लड़केका दत्तक लेना नाजायज़ है-धनराज जोहरमल बनाम सोनाबाई - 62 Cal 482. 52 I. A. 251; ( 1925 ) M. W. N. 692; 87 I. C. 357; 27 Bom.L.R, 6; 837P. C.57; 23; A. L. j. 273; 20 W. N. 335; 21 N. L. R. 50, A, I. R. 1925 P. C. 118, 49 M. L. J. 173 ( P. C. )
२४८
दफा २२६
विवाह हुआ लड़को
सिर्फ बम्बई और पंजाबको छोड़कर जैसा कि दफा २०३ में बताया गया है-- अन्यत्र कहीं भी विवाहा हुआ लड़का दत्तक नहीं लिया जासकता । ( १ ) बङ्गाल - बङ्गालकी द्विजातियोंमें दत्तक उपनयनसे पहिले जायज़ माना गया है और शूद्रों में विवाह से पहले देखो -- S. D. A. R. 1853
P. 593.
( २ ) मदरास -- गोद लेने वाले के गोत्रसे चाहे भिन्न गोत्रका पुत्र हो मगर ब्राह्मणोंमें उपनयनसे पहले दत्तक जायज़ माना जायगा 9 Mad. 148. यदि दत्तकपुत्र एकही गोत्रका हो तो उपनयनके पश्चात् भी गोद लिया जा सकता है किन्तु विवाहसे पहले 13 Mad. 128.
विवाहा हुआ लड़का दत्तक नहीं लिया जासकता देखो: 13 Mad. 128, 6 Mad. 43; 1 Mad. Dec. 106; 1 Mad. Dec. 406, 16 Mad. 384 में माना गया कि ४० वर्षका आदमी बिन ब्याहा गोद हो सकता है।
( ३ ) इलाहाबाद - इलाहाबाद हाईकोर्टम मानाजाता था कि पांच वर्षकी उमरके पश्चात् जो पुत्र दत्तक लियागया, जायज़ है । जस्टिस् महमूदने इस विषयके वचनों और फैसलों पर विचार करके माना कि द्विजों में उपनयन के पूर्व और शूद्रों में विवाहके पूर्व दत्तक लेना जायज़ है 9A11. 253-631-324 327–328; 7 All. L. J 927 में मानागया कि शूद्रों में एकलौता लड़का दत्तक लिया जासकता है मगर विवाहसे पहले ।
( ४ ) मध्यभारत-- मध्यभारत में माना जाता है कि पांच वर्षसे ऊपरका लड़का मध्यभारतमें दत्तक नहीं लिया जासकता है मगर विवाहसे पहले - देखो सेलेक्टकेस 1886 Part 8 No. 44.
( ५ ) बनारसस्कूल -- बनारस स्कूल के अन्तर्गत विवाहा हुआ लड़का गोद नहीं लिया जासकता 11 C. P. L. R. 56: 1 N. L. R. 1, और देखो ट्रिवेलियन हिन्दू फेमलीलॉ पेज १४७.
(६) जैन -- जैनियोंमें विवाहा हुआ लड़का दत्तक नहीं लिया जा सकता क्योंकिनिस्संदेह जैनियोंमें हिन्दुलॉ लागू होता है । अगरवाल जैन निस्सन्देह द्विज हैं। अगर कोई रवाज खास तौरसे साबितकी जाय तो दूसरी
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दफा २२६-२३०]
कौन लड़के गोद नहीं लिये जा सकते
हैं
बात है देखो 14 C. W. N. 545 (P. C.);12 Bom. L. R. 40236 Indian Cases 27237 A. L. J. 349; 11 C. L. I. 454.
जिस किसी जैनी खानदानमें खास तौरसे ऐसा रसम हो कि न्याहा हुअा लड़का दत्तक लिया जाता है तो वह जायज़ होगा, मगर रवाज साबित करना पड़ेगी 5 A. L. I. 200; 30 All. 197; 29 All: 49536 N. W, P. 402; 9M. L. J. 21 देखो दफा १३१.
. अब विवाहा हुआ लड़का गोद लिया जायगा तो उसकी स्त्री साथ आती है देखो--1922 H. L. J. 28. दफा २२७ स्वयंदत्त
__ एक मुकदमे में बम्बई हाईकोर्टने दत्तक खारिज करदिया जो साबित करता था कि मैंने अपनेको बालिरा होनेपर स्वयंदत्तक दे दिया था 10 Bom H.0.268. दफा २२८ माकी बहनका लड़का
माकी बहनका लड़का दत्तक नहीं लिया जासकता देखो--भगवानसिंह बनाम भगवानसिंह 26 I. A. 153; 21 Ail. 412, 3 C. W. N. 454 वालभाई बनाम हिरबाई 34 Bom. 491; 11 Bom. L. R. 1172 सिर्फ शूद्रोंमें दत्तक हो सकता है देखो दफा--२०८. दफा २२९ जिस लडकेका उपनयन असली बापके घरहोजाय
(१) बङ्गालमें-द्विज कहलाने वाली नौममें जिस लड़केका उपनयन असली बापके घर होजाय तो गोद नहीं लिया जायगा 6 S. D. 219-270.
(२) मदरास--इस प्रांतमें भी बङ्गालकी बात मानीगई है मेद इतना है कि यदि एकही गोत्र के दोनों हों तो जनेऊके पश्चात् भी गोद हो सकता है 9 Mad. 148.
(३) इलाहाबाद-इस हाईकोर्ट में यदि द्विजोंमें दत्तक पुत्रका उपनयन संस्कार असली बापके घर हुभा हो तो दत्तक नाजायज़ होगा 9 All. 253.
(४) बम्बईमैं-उपनयनके बाद भी लिया जाता है देखो दफा-२१८. दफा २३० दत्तकपुत्र जो रुपया देकर लियागया हो
कलियुगमें रुपया देकर दत्तकपुत्र लेना स्वीकार नहीं किया गया यह क्रीतपुत्रकी तरहपर है दत्तक नहीं। आजकल दत्तक पुत्र मानाजाता है, क्रीत नहीं, देखो-18 B. L. R. App. 423 21,W. R. 381; प्राचीन धर्मशास्त्रों में क्रीत पुत्र जायज़ मानागया था मगर अब उसे अदालतें नहीं मानतीं 29 Mad: 161; 8 Indian Cases 625:
82
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दत्तक या गोद
[ चौथा प्रकरण
यदि ऐसा साबित हो कि दत्तक पुत्रके पिता या माताने रुपया लेकर दत्तक, विधि पूर्वक दिया है और वह दत्तक अन्य सब बातोंसे जायज़ है तो अदालत सिर्फ रुपया लेनेकी बातपर दत्तक खारिज नहीं कर देगी ।
२५०
दफा २३१ लड़कीका लड़का (दोहिता)
श्रम क़ायदा यह है कि द्विजोंमें लड़कीका बेटा ( दौहित्र ) दत्तक नहीं लिया जा सकता जब तक कि कोई रवाज साबित न की जाय देखो; 21 All. 412; 53 P. W. R. 1908; 28 All. 488 (P. C.); 3 Bom. 273; 3 Bom. 298; 17 All. 294; 14 All. 53; 26 I . A. 153; 3 C. W. N. 454; 1 B. L. R. 311; 2 Mad, H. C. 462.
नोट -- सिवाय पंजाब के और जहां कहीं लड़कीका लड़का दत्तक लिया गया हो उस दस्तक के जायज साबित करनेके लिये जैसे और बातोंके साबित करने की जरूरत होती है खाज भी उसी तरहपर साबित की जायगा खाज कैसे साबित की जाती है देखो दफा ३० से ३५ कहां पर दोहिता का गोद जायज माना जाता है देखो दफा १९७.
दफा २३२ बहनका लड़का
हिन्दूलॉके सर्वमान्य सिद्धांतके अनुसार बहनका बेटा दत्तक नहीं लिया जासकता देखो; 3I L J 415 ( P. C. ); 21 All. 412 ( P. C. ); 3 C. W. N. 454; 28 All. 488; 9 Mad. 44; 4 Bom. L. R. 140; 14 All. 53; 17 All. 294; 4 B. H. C. A. C. 130; 26 I. A. 153; 1 Bom. L. R. 311; 33 I. A, 97; 28 All. 488; 10 C. W. N. 730; 25 I. A. 46; 20 All, 209; 16 I. A. 186; 12 All. 51; 10 Cal. 688; 7 Mad. H. C. 250; 1 Mad. 62.
बहनके पुत्रकी दत्तक कहां जायज़ है ? देखो दफा १७७; १६६.
दफा २३३ सौतेली बहनकी बेटीका बेटा
सौतेली बहनकी लड़कीका लड़का गोद नहीं लिया जासकता देखो; 2 Mad. 270-279; 7 I. A. 173.
दफा २३४ चाचा और मामा
बापका भाई और मांका भाई दत्तक नहीं लिया जा सकता देखो; 6 Cal. 41.–47; 6 C. L. R. 393; सरकारका लॉ आफ एडाप्शन पेज ३२७ : ट्रिवेलियन हिन्दूलॉ पेज १३७ मेकनाटन हिन्दूलॉ जिल्द १ पेज ६७.
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दफा २३१-२३८ ] दत्तक सम्बन्धी आवश्यक धर्म कृत्य क्या हैं ? २५१
दफा २३५ दत्तकपुत्रका दत्तक पिताके वंश में दत्तक लेना
जब कोई लड़का किसीके दत्तक चला जाता है तो फिर वह ऐसे किसी लड़केको दत्तक नहीं ले सकता जो यदि वह दत्तक पुत्र, दत्तक पिताका और स पुत्र होता उस हालत में वह वैसे लड़के को गोद न ले सकता था देखो, सरकार काल आफ एडाप्शन पेज ३८७.
दफा २३६ दत्तकपुत्र का दुवारा गोद न लिया जाना
जो लड़का एक दफा दत्तक ले लिया गया है वह दुबारा दत्तक नहीं लिया जासकता देखो सरकारका लॉ आफ एडाप्शन पेज २८१-२८२ ट्रिबेलियन, हिन्दू फैमिलीला पेज १४६.
यहांपर यह प्रश्न होसकता है कि जब कोई दत्तक अदालतसे नाजायज़ हो गया हो और वह दूसरी सब बातोंसे दुबारा दत्तक लेनेके योग्य भी हो तो वह पुत्र पुनः दत्तक लिया जासकता है या नहीं ? इसमें मतभेद है जहां तक मालूम हश्र है ऐसे प्रत्येक मामलेकी कारवाई परसे अदालत यह बात विचार करेगी क्योंकि प्रत्येक ऐसा मामला भिन्न भिन्न क़िस्मका होता है । दफा २३७ शारीरिक या मानसिक अयोग्यतावाले लड़के
जो अपने शारीरिक या मानसिक अयोग्यताके सबबसे धर्मशास्त्रानुसार 'अन्तेष्ठी क्रिया' करनेके अधिकारी नहीं है, दत्तक नहीं लिये जासकते, ऐसे पुरुषोंको उत्तराधिकारमें जायदाद नहीं मिलती इसलिये ऐसे लड़के यदि गोद लिये गये हों नाजायज़ हैं। देखो; मेन हिन्दूला सातवां एड़ीशन पैरा १३६ और देखो इस किताबकी दफा १७६.
( ४ ) दत्तक सम्बन्धी आवश्यक धर्मकृत्य क्या हैं ?
दफा २३८ दत्तक में आवश्यक कृत्य
जिस विधिसे लिया हुआ दत्तक प्राचीनकालमें जायज माना जाताथा उससे श्राजकलके क़ानूनमै बहुत भेद पड़ गया है । प्राचीनकालमें यह सिद्धांत माना जाता था कि जबतक शास्त्रोक्त रीतिद्वारा दत्तक न लिया जाय तब तक वह दत्तक पुत्र नहीं हो सकता था उस समय द्विजोंमें मंत्रोंकी प्रधानता और कर्म काण्डकी श्रेष्ठता मानी जाती थी अगर विधि के अनुसार गोद न लिया जाय तो वह गोद नहीं कहलाता था । क़ानून के अनुसार वह रीति इतनी ज़रूरी नहीं रही अब केवल पुत्रको गोद देना और लेना जायज़ होनेके लिये काफ़ी है ।
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दत्तक या गोद
[चौथा प्रकरण
दफा २३९ दत्तकमें कौनसी कृत्य सबमें ज़रूरी है
(१) कानून में माना गया है कि दसककी रसममें लड़केका देना और लेना निहायत ज़रूरी है यही कर्म दत्तककी रसमका प्रधान अङ्ग है, दत्तककी रसमका यह कर्म लड़केको एक खानदानसे दूसरे खानदानमें परिणत कर देता है। देखोः महाशय शशिनाथ बनाम श्रीमती कृष्णा 7 I. A. 250; S. C. 6 Cal. 381; रंगनाया कामा बनान अलवर सेटी 13 Mad. 214.
(२) कानूनके अनुसार 'दत्तक' अदालतमें जायज मानाजाय इस बात के साधनके लिये दत्तक सम्बन्धी कृत्योंमें पुत्रके देने और लेनेकी रसम होना सबसे जरूरी है--10 B. H. C. 835,10 B. H. C. 26 Note; 4 M. H, C. 165.
(३) यदि गोद देनेवाले पिता या माता, और लेनेवाले पिता या माता के बीचमें दत्तक सम्बन्धी कोई लिखत होगई हो जिससे दत्तक होना ज़ाहिर होता हो तो ऐसी लिखतसे दत्तक देने और लेने की अमानी कारवाई पूरी होगई ऐसा नहीं माना जायगा जबतक कि असली पिता या माता अपने पुत्र को, खुद गोद लेनेवाले पिता या माताके गोदमें न दे दे-देखो; 6 Cal. 381 7C. L. R. 313, L. R.7 A. I. 250; 2 C. W. N. 154; 25 W. R. 1923 13 Mad. 214, लेकिन इनके साथ 11 B. L. R. 171 भी देखो
(४) दत्तकके मामलेमें लेने और देनेकी रसम अवश्य साबित करना चाहिये सिर्फ किसी इकरार मामेसे यह बात नहीं मानी जायगी कि लेने और देनेकी रसम अमलमें आई थी चाहे इकरारनामा असली बाप या मा ने और गोद लेनेवाले बाप या मा, दोनोंने लिखा हो देखो Select Case 1886 Part VIII No 44; 10 B. H. C. 235,226; 19 Cal 452,9 All. 265, 6 W. R. ( P. C.) 69; 1 B. L. R. 842.
(५) दत्तक जायज़ है ऐसा साबित करनेके लिये देने और लेनेकी रसमके अतिरिक्त यदि किसी दूसरे कामों या रसमोसे ऐसा नतीजा निकाला जाता हो तो वह काफी नहीं है देखो; 2 B. L. R. A. C. J. 279; 11 Suth 1963 11 B. I. B. 171; 19 W. R 133; 7 I. A.. 250; 6 Cal. 381;1 C. L. R. 3133825 W. B. 1927 इकरार नामा वाला मुकदमा देखो-2C. W. N. 1549 10 B.H. C..368; 10 B. H. C. 265; 25 W.R. 1920
(६) दत्तकके प्रत्येक मुहमे में देने और लेने की अमली रसूम होना साबित होना ज़रूरी है तभी दत्तक जायज़ माना जायगा देखो धीरेश्वर मुकरजी बनाम अर्द्धचन्द्रराय चौधरी (1892) 19 I. A. 101; 19 Cal. 452; शशिनाथघोष बनाम कृष्ण सुन्दरी दासी 7 I. A. 250; 6 Cal. 381; 7
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दफा २३६ - २४० ] दत्तक सम्बन्धी आवश्यक धर्म कृत्य क्या हैं ? २५३
Cal. L. R. 313; 4 Mad. H. C. 165; 1 Mad, N. C. 78, 13 Mad. 214; 11 Mad. 5.
(७) दत्तक में लड़केके देने और लेनेकी रसम सबनामोंमें परमावश्यक मानी गई है चाहे वह द्विज हों या शूद्र देखो; मेन हिन्दुला सातवां एडीशन पैरा १५१; ट्रिवेलियन हिन्दूलॉ पेज १४४, रामकृष्ण हिन्दूलॉ पेज १८० (A ); घारपुरे हिन्दूलॉ पेज ८१, शम्भुशिवसैय्यर हिन्दूलॉ पेज ८ ( E ); मुल्लाहिन्दूलॉ पेज ३६२ दफा ४०३.
(८) एक मुक़द्दमा बम्बई प्रांतमें ऐसा हो चुका है कि एक पन्द्रह वर्ष की उभर वाली विधवा स्त्रीने एक लड़का गोद लिया और उसने अपनी तरफ़ से अपने एक रिश्तेदारको दत्तक हवन और अन्य कामोंके लिये नियत किया, विधवा एक कमरे के अन्दर बैठी रही । सब रस्मात उसके रिश्तेदार के द्वारा किये गये, यह बात दत्तकके इस मामलेमें आपत्तिजनक नहीं मानी गई देखो; लक्ष्मीबाई बनाम रामचन्द्र 22 Bom. 590. इसी तरह पर लड़का देने का काम भी उस आदमी की तरफ से पूरा किया जा सकता है जो करने का अधिकारी हो ।
(६) कुछ विद्वानोंका ऐसा सिद्धांत है कि दत्तकके सम्बन्धमें दूसरी रसम एसी श्रावश्यक नहीं है जितनी कि लड़केके देने और लेनेकी रसम । अगर यह रसम किसी दत्तक विधानमें न की गई हो तो वह दत्तक बिल्कुल नाजायज़ हो जायगा. बकि वह दत्तकही नहीं कहा जायगा । यद्यपि द्विजों में दत्तक हवनकी कृत्य गोद लेनेमें निहायत जरूरी है मगर अदालती फैसलोंसे यह तय हो गया है कि हवन एक मज़हबी जरूरी रसम है दत्तक विधानमें परमावश्यक नहीं है देखो; बीरपरमल बनाम नारायण पिल्ले 1 N. C. 91, 117; 1 Stra. H. L. 95; 3 Dig. 244, 248, सिंगमा बनामा वैकटाचालू 4 M.H.C. 165; सूत्रागुन बनाम सवित्रा 2 Ku. 290; 2 W. Maen. 199. इस बातकी पाबन्दी कहीं भी नहीं की गई कि कुदरती पिता अपने पुत्र को शरीर सहित उठाकर अर्पित करे । कुदरती पिताको गोद लेने के समय उपस्थित होना चाहिये, और उसे अपने पुत्रको गोद देने लेनेकी स्वीकृति प्रदान करनी चाहिये । उस समय पिता के चित्तमें अपने पुत्र के कुदरती अधिकारों के छोड़ने की इच्छा होनी चाहिये । यह आवश्यक नहीं है कि वह अपने पुत्र को हाथ पकड़ कर ही अर्पित करे । मुसस्मात चटिबाई बनाम श्रीमती कुन्दीबाई 88 I. C. 573; A. I. R. 1925 Sind. 223.
दफा २४० द्विजों में दत्तक हवन
(१) हमारे प्रचीन धर्मशास्त्रकारोंकी सम्मति इस विषय में एक दूसरे के विरुद्ध नहीं है दत्तक सम्बन्धी आबश्यक कृत्य तीन होते हैं पहला लड़के
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दत्तक या गोद
[ चौथा प्रकरण
का देना, दूसरा उसे लेना और स्वीकार करना तीसरा द्विजोंमें दत्तक हवन । द्विजोंके जिस किसी दत्तक विधानमें यह तीनों कृत्य न किये गये हों अथवा इनमें से कोई एक न किया गया हो तो वह दत्तक नहीं होसकता, दत्तककी रसमोंमें हवनको भी उतनाही प्रधान माना है जितना कि लड़केका देना और लेना माना गया है। इस बातकी पुष्टिमें यह कहा गया है कि दत्तक पुत्र गोद लेनेवाले पिताकी धार्मिक कृत्योंका पूरा करनेके लिये लिया जाता है इसलिये और अन्य कारणोंसे भी दत्तक विधानमें हवन आवश्यक कृत्य है । बौधायन और दत्तक चन्द्रिका श्रादिका यही कहना है कि अगर किसी दत्तक में हवनकी रसम न की गई हो तो दत्तक पुत्रको दत्तक लेनेवाले पिताकी सिर्फ उतनी जायदाद मिलेगी जितनी दत्तक पुत्रके विवाहके लिये काफी हो इससे अधिक जायदाद पानेका वह अधिकारी नहीं है।
२५४
(२) मदरासके पंडितोंका मत - इस बारेमें मदरासके पंडितोंने यह कहा कि दत्तकमें, दत्तक हवन सिर्फ ब्राह्मणोंके लिये परमावश्यक है दूसरी क़ौमों के लिये ऐसा ज़रूरी नहीं है इस बातको मिस्टर कोलब्रुक और मिस्टर एलिसूने माना है 2 Stra H. L. 87-89; यह बात प्राचीन कालसे मानी गई है। कि शूद्र ऐसी कोई रसम नहीं करसकते जिसमें वेद मंत्रोंकी आवश्कता हो इस रायको मि० स्टील ने माना देखो; Steele. 46 दत्तक हवन द्विजोंके लिये आवश्यक कहा गया है शूद्रोंके लिये नहीं ।
मि० कोलब्रुक और एलिस कहते हैं कि दत्तक हवन ब्राह्मणोंके लिये परमावश्यक है मगर क्षत्रियों और वैश्योंका ज़िकर नहीं करते, आगे यह भी कहते हैं कि शूद्रोंमें दत्तक हवनकी ज़रूरत नहीं है । श्रर्थापत्ति से यह अर्थ निकलता है कि क्षत्रियों और वैश्योंके लिये दत्तक हवन यद्यपि परमावश्यक नहीं तो आवश्यक अवश्य है । दत्तक पुत्रका गोद लेनेवाले पिताके खानदान और उसके धार्मिक कृत्योंके साथ सम्बन्ध होता है और यह सम्बन्ध परंपरा चलनेवाला होता है, द्विजोंके लिये नित्यकर्ममें हवन करना एक परमावश्यक कर्म माना गया है इसलिये जब दत्तक पुत्र गोद लिया जाय तो ज़रूरी है कि धार्मिक कृत्य जो गोद लेनेवाले पिताके लिये परमावश्यक हैं पूरे किये जावें । अभीतक जितने गोदके मुक़द्दमे हिन्दुस्थानकी हाईकोट के सामने पेश हुए हैं उनमें यह बात साफ तौरसे तय नहीं हुई कि द्विजोंमें दत्तकहवन ज़रूरी नहीं है इसलिये द्विजोंको दत्तक विधानमें दत्तक हवनकी कृत्य करना ज़रूर चाहिये देखो दफा २४६.
( ३ ) ब्राह्मणों में दत्तक हवन ज़रूरी हैं किंतु शूद्रोंमें नहीं देखो; 7 Mad. 548; 13 Mad. 214; 11 B. 381; 5 S. D. 356-418; 6. S. D.219-270; 16 Suth 179; W. N. P. H. C. 1868. P. 103.
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दफा २४०]
दत्तक सम्बन्धी आवश्यक धर्म कृत्य क्या है?
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(४) दक्षिणी ब्राह्मणोंमें लड़कीका बेटा, या भाई का बेटा गोद लेनेके समय दत्तक हवन ज़रूरी नहीं हैं देखो; 6 All. 276.
(५ ) जबकि गोद लेनेवाले बाप और दत्तक पुत्रका गोत्र एकही हो तो दत्तक हवन ज़रूरी नहीं हैं देखो; 11 Mad. b; 24 Bom. 218; b Mad.358.
(६) मदरास प्रांतमें रहने वाले खत्रियों में बिना किसी मज़हबी कृत्य किये दत्तक विधान जायज़ माना गया है देखो, 6 Mad. 20.
(७) नामबुद्री ब्राह्मणोंमें दत्तकहवन ज़रूरी नहीं है देखो 15Mad.7.
(८) दत्तक हवन क्या है ? 5 M. L. J. 66; 18 Mad. 3977 में माना गया कि दत्तक हवन लड़केके देने और लेनेकी रसमको दोहरा देता है।
(१) दत्तक हवन कहांपर होना चाहिये ? 3 Agra H. C. 103 A. में कहा गया है कि दत्तक हवन किसी भी जगहपर किया जासकता है यह ज़रूरी नहीं है कि गोद लेने वालेके घरही पर किया जाय ।
(१०) जब किसी ब्राह्मणने लड़का गोद ले लिया हो और गोद लेने की रसमें करनेसे पहले मरजाय तो उसकी विधवाका दत्तक हवन करना और दूसरे रसूमात करना जायज़ है । हवन और दूसरे रसूमात करनेके सबब से वह दत्तक नाजायज़ नहीं होगा देखो 21 Mad. 497.
(११) यदि दत्तक हवनके समय दत्तक पुत्रका असली बाप न मौजूद हो और दत्तक हवन आदि सब कृत्य उसकी स्त्रीने पतिकी आज्ञासे की हों तो वह दत्तक इस सबबसे नाजायज़ नहीं होगा 18 Mad. 3967 5:Mad. L. J. 66; 7 Mad. 549.
(१२) 8 All. 319 में कहा गया कि पंजाबमें कोई भी दत्तककी रसम दत्तक जायज़ करनेके लिये जरूरी नहीं हैं क्योंकि वहां दत्तक रवाजके अनुसार लिया जाता है।
(१३) अग्रवालोंमें दत्तक लेनेका केवल यह तरीका है कि विरादरीके खास खास आदमियोंके सामने, उस लड़केके सरमें, जिसे कि गोद लेना होता है दस्तार ( पगड़ी) बांधते हैं और विरादरी को भोजन कराते हैं। ( Mr. Ameer. Ali. J.) धनराज जौहरमल बनाम सोनीबाई 62 Cal. 482; 52 I. A. 23]. ( 1925); M. W. N. 6923 87 I. C. 367; 27 Bom.L. R. 837; L. R. 6 P. C. 97; 23 A. L.J. 273; 20 W. N. 335;21 N. L. R.50; A. I. R. 1925 P.C. 118; 49 M. L.J. 173 (P. C.)
यदि गोद लेने वाला पिता और पुत्र एकही गोत्र के न हों तो ब्राह्मणों में दत्तक को जायज़ होने के लिये यह आवश्वक है कि दत्तक ही न कियाजाय। (Macleod. J. C. and. Crump J. ) गोबिन्दप्रसाद ललिताप्रसाद बनाम
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दत्तक या गोद
[चौथा प्रकरण
रिन्दबाई ललिताप्रसाद 49 Bom. 515; 27 Bom. L. R. 365; 87 I. C. 472 A. I. R. 1925 Bom. 289.
अग्रवालों के मध्य दत्तक केवल एक सांसारिक प्रथा है-धमराज जौहरमल बनाम सोनीबाई 30 C. W. N. 601 ( P.C.)
अग्रवालों के मध्य केवल यह रसम है कि दत्तक के सिर में पगड़ी बांधी जाती है और पञ्चों को मोजन कराया जाता है । धनराज जौहरमल बनाम सोनीबाई । 30 C. W. N. 601 (P.C,).
नोट-हिन्दुस्थानकी हाईकोर्टोंमें पहले यही माना जाताथा कि द्विजोंके दत्तकमें यदि धार्मिक रसूम न किये गये हैं। तो वह दत्तक नाजायज्ञ है ( 16 W. R. 179) मगर प्रिवीकौंसिलने हालके मुकद्दमोंमें कहा कि मजहबी रसूमात दत्तकके जायज करनेके लिये जरूरी नहीं है किंतु दत्तक हवन जरूरी है 5 Cal.770, 7 I. A. 24; 6 Cal. 381; 7 Cal. L. R. 3133 71. A. 250. दुफा २४१ शूद्रोंके लिये दत्तक हवन जरूरी नहीं हैं
(१) तमाम फैसले इस बारेले होचुके हैं कि शूद्रोंमें किसी वक्तकिसी मज़हबी रसमकी ज़रूरत नहीं है देखो; नित्यानन्द बनाम कृष्णदयाल 7B.L. R. 1; S.C. 15 Suth. 300 इस मुकद्दमे में साबित हुआ है कि शूद्रोंमें गोदलेने के समय मज़हवीरसमकी ज़रूरतनहीं है मगर इस मुकद्दमे में भाईका लड़का गोद लिया गया था जो एकही परिवारके थे इसलिये कहा जासकता है कि भाई के लकड़केके गोद लेने में सिवाय देने और लेनेकी रसमके अन्य रसमें ज़रूरी न थी। इसके बाद दूसरा मुकद्दमा फैसला हुआ जिसमें यह बात न थी, माना गया कि, शूद्र दत्तककी कोई रसम अदा किये विना भी दत्तक ले सकता है और इस किस्मका दत्तक जायज़ होगा शूद्रोंमें विवाहकी रसमके सिवाय अन्य रसमें ज़रूरी नहीं है-देखो; बिहारीलाल बनाम इन्द्रमनी 13 B. L. B. 401; S. 0. 21 Suth 285, प्रिवी कौंसिलका फैसला देखो-सवनोमनी इन्द्रमनी बनाम बिहारीलाल 7 I. A. 24, S. C. 5 Cal. 770; दथामनी बनाम रासबिहारी S. D. 1852 P. 1001) प्रकाशचन्द्र बनाम धुनमनी S. D. 1853 P. 96. अलवर बनाम रामालीमी 2 Mad. Dec- 67; थंगाधनी बनाम रानमुदाली 5 Mad. 36837 B.L.R.15 15 W.R. 300; 11 B. L. R. 171; 19 W. R. 133,2 B.L. R. A.C. J. 279; 11: Suth 196; 8 C.L R.183;इन ऊपरके मुकदमों में स्पष्ट है किशूद्रोंको दत्तक लेनेमें सिवाय लड़के के देने और लेने की रसम के और कोई भी मज़हबी रसम की ज़रूरत नहीं है।
(२) शूद्रोंमें मज़हबी रसूमात दत्तक लेनेके लिये ज़रूरी नहीं हैं, और शूद्रकुष्ठी दत्तक ले सकता है द्विज कुष्ठी नहीं ले सकता देखो 28 Cal. 168, 6 Cal. 381; 7 I A. 150; 7 Cal. L. R. 313,
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दफा २४१-२४३ ] दत्तक सम्बन्धी आवश्यक धर्म कृत्य क्या है ?
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(३) S. C. 26 में कहा गया है कि बनियोंमें दत्तक हवन और पुत्रष्टी की ज़रूरत नहीं है।
(४) जैनियों में गोद लेने के लिये किसी रसम की ज़रूरत नहीं है 8 Cal. 319. दफा २४२ मदरास प्रांतमें ब्राह्मणोंके दत्तकमें हवन ज़रूरा नहीं है
(१) मदरासके एक मुक़द्दमे में यह बात साफ तय पाई है कि वहांपर ब्राह्मणोंके गोद लेने में दत्तक हवनकी ज़रूरत नहीं है सिर्फ पुत्रका देना और लेना ज़रूरी है। इस मुकदमे में स्पष्ट सिद्ध करदिया गया है कि मदरास प्रांत में अगर ब्राह्मणों के दत्तक लेने के समय हवनकी रसम न की गई हो तो वह दत्तक सिर्फ इस बात से नाजायज़ नहीं होगा देखो; सिनम्गा बनाम बेंकट चालू 4 Mad. H. C. 165; 1 Stra. H. L. 96; जगन्नाथ की भी राय है 3 Dig. 244-248.
(२) क्षत्रिय-नीचेके मुक़हमेसे यह मालूम होता है कि क्षत्रियोंमें भी उस प्रांतमें दत्तक हवनकी रसम ज़रूरी नहीं है इस मुक़द्दमेमें वही कायदा लागू किया गया जो ऊपरके ब्राह्मणोंसे लागू किया गया था देखो, चन्द्रमल बनाम मुक्कामल 6 Mad, 20 नम्बोदरी ब्राह्मणोंकी नज़ीर देखो, शङ्करन बनाम केशवान 15 Mad. 7.
(३) ब्राह्मणों के एक मुक़द्दमेमें यह माना गया कि दत्तककी सब रसमें (हवन आदि ) पहले हो चुकी थीं मगर लड़केके देने और लेनेकी रसम पांच वर्ष के पश्चात् की गई ऐसा मालूम होता है कि दत्तक देने और लेने वालेके दरमियान तय हुआ था कि बाज़ाब्ता दत्तक विधान आगे किया जायगा, इस दत्तकको अदालतने जायज़माना चेकट बनाम सुभद्रा 7 Mad. 548, सव्वार ऐय्यर बनाम सव्वामल 21 497.
दूसरा मुक़द्दमा ऐसा था कि जिसमें एक ब्राह्मण पुरुषने अपने गोत्रका लड़का गोद लिया था मगर दत्तक होमकी रसम नहीं की थी अदालतने गोदे को जायज़ माना देखो; गोबिन्द ऐय्यर बनाम दोरासामी 11 Mad. 5. दफा २४३ सूतक या दूसरी अशुद्धतामें दत्तक
जन्म या मरणके सूतकमें, अथवा दूसरी तरहकी अशुद्धताके अन्दर यदि कोई दत्तक लियागया हो तो वह महज़ इस वजेहसे नाजायज़ नहीं होगा मगर शर्त यह है कि दोनों पक्षोंका गोत्र एकही हो, एसी दशामें दत्तक हवन जरूरी नहीं है-देखो, 14 Mad. L. J. 340; 27 Mad. 538; 11 Mad. 5: 24 B. 218; 5 Mad. 358 परन्तु थोड़ा विरुद्ध भी देखो 15 W. R: 300;" B. L. R: 1.
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२५८
दत्तक या गोद
[चौथा प्रकरण
अगर दत्तक हवन करना आवश्यक होवे तो वह दत्तक लेनेके बाद और सूतक या अशुद्धता समाप्त होनेपर किया जासकता है देखो: 5 M.L.J. 66. 18 Mad. 397; 27 Mad. 538; 13 Mad. 214-222 में मदरास हाईकोर्टने कहा कि इस मुकदमेमें एक वैश्य विधवाने उस वक्त गोद लिया जब कि उसके पतिकी लाश घरमें पड़ी थी,और मृतक सूतक था, इसलिये दत्तक नाजायज़ है यही सिद्धांत 9 Mad. I. A 506 में माना गया ।
शूद्रोंमें अशुद्धताके भीतर गोद लिया जासकता है क्योंकि उनमें किसी रसमकी पाबन्दी नहीं मानी गई 5 Mad. 358. बम्बई प्रांतमें माना गया है कि बिना शिर मुंडी विधवा दत्तक ले सकती है 11 Bom. 381; 22 Bom. 590; और बङ्गाल प्रांतमें माना गया है कि विठलाई हुई विधवा दत्तक नहीं ले सकती क्योंकि उसे किसी धार्मिक कृत्यकरनेका अधिकार हिन्दू धर्मशास्त्र कारोंने कहाही नहीं 22 Cal. 347, 5 B. L. R. 362. दफा २४४ दत्तक हवनके बारेमें फैसलोपर विचार - एक दुसरे सिद्धांतके विपरीति अनेक फैसले होगये हैं जिनमेंसे किसीमें दत्तक हवन आवश्यक बताया गया और किसी में नहीं। दत्तक हवनका विवाद 'द्विजन्मा कौमोंके सम्बन्ध है । शूद्रोंके संबंधसब फैसले प्रायः एकही उद्देश के साथ मिलते हैं कि उनमें दत्तक हवन गैरज़रूरी है सिर्फ लड़केका देना और लेनाही दत्तककी रसमको पूराकर देता है। हम आगे कुछ ऐसे फैसले देते हैं जिनमें बहुत कुछ साफ किया गया है कि द्विजोंके लिये गोदके समय दत्तक हवन परमावश्यक कृत्य वैसा ही है जैसा कि लड़केके देने और लेनेकी कृत्य देखो, रंगनाया कामा बनाम अलवर सेटी 13 Mad.214-219; इस मुक़द्दमेमें जजोंने जुड़ीशल कमेटीके इस फैसलेपर भरोसा किया था कि जो महाशय शशिनाथ बनाम श्रीमती कृष्णा 7 I.A. 250-256 में फैसला हुआथा इसमें अदालतकी राय थी कि अभीतक जो कुछ तय हुआ है वह इतनाही है कि शूद्रोंमें दत्तक लेनेकी रसम सिर्फ लड़केका देना और लेना काफी है उनके लिये दत्तक हवन की कोई ज़रूरत नहीं है और न कोई दूसरी रसमकी, किन्तु द्विजन्मा क़ौमोंके लिये बिना दत्तक हवनके दत्तक नहीं हो सकता क्योंकि द्विजोंके लिये कुछ मज़हबी रसमें निहायत ज़रूरी हैं जैसे 'दत्तक हवन' यही सिद्धांत बङ्गाल के पंडितों ने भी दो मुक़द्दमों में कायम किया था, तीनों ऊंचे दर्जेकी क़ौमोंमें दत्तक हवनकी रसम आवश्यक है देखो, अलङ्कमंजरी बनाम फकीरचन्द b S. D. 356-418; 6 S. D. 219-270. यह सिद्धांत अन्य मुक़द्दमोंमें भी माना गया,जस्टिस मित्रनेभी यही माना कि द्विजोंकेलिये दत्तकहवन परमावश्यक है मगर शूद्रोंके लिये नहीं देखो लक्ष्मण बनाम मोहन 16 Suth 179 ठाकुर उमराव बनाम ठकुरानी N. W. P. H. C. 1868 P. 103; ठीक इसी सिद्धांत को बम्बई हाईकोर्टने मानकर कुछ मुकदमोंका फैलला किया है अब अधिकता
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दफा २४४-२४६] दसक सम्बन्धी आवश्यक धर्म कृत्य क्या हैं ?
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से यह माना जाता है कि द्विजोंमें दत्तक हवन ज़रूरी रसम है शूद्रोंमें नहीं मगर जहांपर सगे भाईका लड़का गोद लिया गया हो और दत्तक हवनकी रसम न की गई हो तो वह महज़ इस वजहसे नाजायज़ नहीं होगा कि उस लड़केके गोद लेनेके समय दत्तक हवन नहीं किया गया था। इससे यह मतलब नहीं समझना चाहिये कि सगे भाईके लड़केके गोद लेनेकी रसममें दत्तक हवन नहीं होना चाहिये बक्लि यह मतलब है कि अगर किसी भूलके सबबसे दत्तक हवन रह गया हो तो दत्तक पुत्र नाजायज़ नहीं हो जायगा। यदि जानबूझकर द्विजोंमें दत्तक हवन छोड़ दिया गया हो तो उसका फल दूसरा होगा देखो (दफा २४५ ); बम्बई हाईकोर्टके फैसले देखो-हैवतराव बनाम गोबिन्द राव 2 Bom. 72-87, रवजी विनायक राव बनाम लक्ष्मी बाई 11 Bom. 381-393 बल्लूबाई बनाम गोबिन्द 24 Bom. 218. . इलाहाबाद हाईकोर्ट में इसी किस्मका एक मुक़दमा फैसल हुश्रा है जिसमें फरीक्कैन दक्षिणी ब्राह्मण थे साबित हुआ था कि जब सगे भाईका लड़का गोद लिया गया हो तो दत्तक हवन जरूरी नहीं है बाकी दशाओं में है देखो, एमाराम बुनाम माधवराव 6 All. 276.
पांडेचरीमें साफ तय हो गया है कि द्विजोंमें दत्तक हवनकी रसम और अन्य रसमें जो ज़रूरी हैं, दत्तक जायज़ बनानेके लिये अवश्य होना चाहिये, इस विषयपर जो अनेक प्रकारके फैसले हो चुके हैं उन सबका फरक जहांतक मालूम होता है इस हृद्दतक जासकता है कि द्विजन्मा नौमों में अगर गोद लेने वाले और देनेवालेका समान गोत्र न हो, या इसके विरुद्ध कोई रवाज साबित की जाती हो तो दत्तक हवनकी रसम परमावश्यक है। दफा २४५ जानबूझकर दत्तककी रसम त्यागनेका फल
यह बात बिल्कुल स्पष्ट है कि अगर गोदकी रसम जान बूझकर इसलिये छोड़ दी गई हो कि दत्तक विधि पूरी न हो जाय अथवा किसीके मरनेसे या अन्य किसी दूसरे कारणसे जो चाही गई थी पूरी न की जाय तो ऐसी दशाओंमें दत्तक विधि पूरी नहीं समझी जायगी। जो रसम लड़का देने वाले और केनेवालेके बीच चाही गई थी वह दत्तक विधिने पूरा करनेके लिये आवश्यक है चाहे वह रसम कानूनन ज़रूरी नहो देखो 8 W. Macn 197; ईश्वरचन्द्र बनाम रासबिहारी S. D. 1852, P. 1001 बेनीप्रसाद बनाम मुन्शीसैय्यद 26 Suth. 1923 24 Bom. 226. दफा २४६ वसीयतसे गोद और दानपात्र
जबकोई दत्तक घसीयतनामा (मृत्युपत्र) के द्वारा लिया गया हो तो उस में भी ज़रूरी है कि दत्तक सम्बन्धी समन मज़हबी रसमें अवश्य की जायें
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दत्तक या गोद
[ चौथा प्रकरण
और अगर ज़रूरी रसमें किये बिना गोद लिया जाय तो वह गोद नाजायज होगा । अगर दत्तकपुत्रको वसीयत करनेके पश्चात् एक बनशीशनामा ( दानपत्र) किसी जायदाद का उसी लड़के के नाम कर दिया गया हो जो लड़का गोद लिया जाने वालाहो तो उस बनशीशनामा ( हेबानामा या दानपत्र ) की पाबन्दी इस प्रश्नपर निर्भर होगी कि क्या उस लड़के ने दत्तकपुत्रकी हैसियत गोदने वाले के दिलपर प्राप्त करली थी ? या वह दानपत्र दूसरे आदमी के नाम जैसा किया जाता है वैसा किया गया है ? Sorg. H. L. 135; Co. Con. 171 Post. 180, 182.
दफा २४७ पंजाब और जैनी
प्रांत में और जैनक़ौममें दत्तक जायज़ होनेके लिये किसी मज़हबी रसमकी ज़रूरत नहीं है. पञ्जाब कस्टमरीलॉ 3 P. 82 लखमीचन्द बनाम गाटोबाई 8 All 319.
दफा २४८ लंका द्वीपमें केशरका पानी
२६०
उत्तरीय सीलोन (लङ्काद्वीप ) के मदलियारों में गोद लेनेकी रसम यह है कि गोद लेने वाला केशर का पानी गोदलिये जानेवाले लड़केके हाथसे पी लेवे देखो, Thesawaleme II.
दत्तक परिग्रह विधान
दफा २४९ दत्तक मुहूर्त और दत्तक लेनेकी विधि
( १ ) दत्तक लेनेका मुहूर्त -- दत्तक विधान शुभ मुहूर्त में होना चाहिये इसलिये साधारणतः नीचे लिखे अनुसार पञ्चाङ्ग देखकर नक्षत्र, वार, तिथि: और लग्नको अवश्य विचार लो । ( दत्तक मुहूर्त )
हस्तादिपंचक भिषग्वसुपुण्यभेषु सूर्य्येच भौमगुरु भार्गव वासरेषु । रिक्ताविवर्जिततिथिष्वलिकुम्भलग्ने सिंहे बृषे भवतिदत्तपरिग्रहोऽयम् ।
दत्तक लेने के मुहूर्त में इन बातोंका बिचार करना चाहिये । नक्षत्र यह हों - हस्त, चित्रा स्वाती, बिशाखा, अनुराधा, अश्वनी और धनिष्ठा । दिन यह हों - रवि, मङ्गल, वृहस्पति और शुक्र । यह तिथियां न होवें -- ४, ६, १४ इन
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दफा २४७-२४६]
दत्तक परिग्रह विधान
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तिथियों को छोड़कर शेष तिथियां शुभ हैं । लग्न यह हों- वृष, सिंह, वृश्चिक और कुम्भ । इस तरह नक्षत्र, वार, तिथि और लग्न को देख कर गोद लेनेका मुहूर्त निश्चित करना।
(१) शौनकके अनुसार दत्तक लेनेकी विधि. विधि-राजानं ग्राम स्वामिनं च निवेद्य पुत्रग्रहणात्पूर्व दिने कृतोपवासः चन्द्रतारादिबलान्विते शुभमुहूर्ते ब्राह्मणान् बन्धून ज्ञातीन सपिण्डानचाहूय सुसत्कृत्य सपत्नीको यजमानःशुभासनेउपविश्य आचम्य प्राणानायम्य देशकालौ स्मृत्वा प्रतिज्ञां कुर्यात् ।
महर्षि शौनक कहते हैं कि गोद लेने वाला, गोद लेनेसे एक दिन पहले राजा या ग्राम स्वामी (ज़मीदार या प्रतिष्ठित पुरुष ) से दत्तक लेने की बात निवेदन करके ब्रत धारण करे । ज्योतिष शास्त्रके अनुसार जिस समय चद्रमा और तारा आदि बलवान मिले ऐसे शुभ मुहूर्त में ब्राह्मण, बन्धु और जाति भाइयों तथा वंशजों को मान पूर्वक निमंत्रित करे और सबका यथोचित पूजन तथा सत्कार करे । 'यजमान' गोद लेने वाला अपनी स्त्री सहित शुद्धता पूर्वक
पवित्र आसनपर बैठे, विधिके अनुसार आचमन और प्राणायाम करनेके पश्चात् - देश, कालका स्मरण करता हुआ नीचे लिखा संकल्प पढ़े(कुशकी पवित्री पहनकर हाथमें जल लेवे और नीचेका संकल्प पढ़े)
कृत्य-विष्णुर्विष्णुर्विष्णुरित्यादि.." मम अप्रजस्त्व प्रयुक्त पैतृक ऋणापाकरण पुनाम नरकत्राण द्वारा वंशाभिवृद्धयर्थं सन्तति विच्छेद जनित प्रत्यवाय परिहारार्थ सनातन कुलधर्माणामुत्पत्तयेच समस्त पितॄणां शाश्वत ब्रह्मलोक निवासार्थं स्वस्योद्धर्तुकामोऽहं स्वकुलोत्पन्न पुत्रवता समत्व सिद्धयर्थं श्रीपरमेश्वर प्रीत्यर्थ शौनकोक्त विधिना पुत्र प्रतिग्रहं करिष्ये तदङ्गत्वेन गणपत्यादिपूजन स्वस्ति पुण्याह वाचनमाचार्य वरणं विष्णु पूजनं च करिष्ये ।
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दत्तक या गोद
[ चौथा प्रकरण
विधि - ततः धर्म संयुक्तं वेदपारगं ब्राह्मणं आचार्य संपूज्य वाससी कुण्डले उष्णीपञ्चाङ्गुलीयकं दत्वा वृणुयात् ।
इसके पीछे, धर्मके जानने वाले और चारों वेदोंके पारङ्गत ऐसे ब्राह्मण आचार्यका विधिवत् पूजन करे और उसे धोती जोड़ा, दो कुण्डल, पगड़ी और मूठी आदि देकर आगे कहे हुए वाक्यसे उसका वरण करे ।
( वरण करनेका वाक्य )
સ્ફુર
कृत्य --- मम अजस्त्वप्रयुक्त पैतृकऋणापाकरण वंशाभिवृद्धिपूर्वक समस्तपितॄणां शाश्वत ब्रह्मलोक निवासार्थं पुत्रप्रतिग्रह कर्मणि अमुकगोत्रं श्रमुकशर्माणं ब्राह्मणं एभिर्द्रव्यैः श्राचार्यत्वेन त्वामहं वृणे ।
( श्राचार्य यह वाक्य कहे ) 'वृतोस्मि'
विधि - ततः आचार्यः स्वतिपुण्याहवाचनम् रक्षाविधानस्विधाय कलशप्रतिष्ठागणेशादीन्कु लिष्टदेवं श्री विष्णुंच यथोपचारैः विधिवत्संपूज्य स्थण्डिलेशुद्धायां भूमौ दर्भैः परिसमूहनम् गोमयोदकेनोपलेपनम् खादिरेण स्फेनेनोल्लेखनम् उदकेनाभ्युक्षणम् एतानि पञ्चभूसंस्काराणि कृत्वा कांस्य पात्रेणामिमानीय वक्ष्यमाण मन्त्रेणाग्नि संस्थापयत् ।
बरण हो जानेपर श्राचार्य 'स्वस्ति वाचन' और 'पुण्याह वाचन' के मंत्र पढ़े। रक्षाविधान (हाथमें सूत्रको रक्षा बांधना करके विधिवत् कलशस्थापन करे । गणेश, बरुण, गौरी आदि देवताओं तथा कुलके इष्ट देवता एवं विष्णु भगवान का विधि पूर्वक यथोचित पूजन करे । पवित्र स्थान में यज्ञकी एक सुन्दर वेदी बनावे और पंचभू संस्कार' से शुद्धकर क्रांस पात्र अनि मंगवाये चे के मन्त्र पढ़कर यज्ञ वेदी मैं अग्नि स्थापन करे ।
(थापन करनेका प्रेम )
ॐ अग्निं दृतं पुरोदधे हव्यवाह सुपलुवे देवांचासादयादिह ।
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दफा २४६]
दत्तक परिग्रह विधान
ततो यजमानः आचार्येणसहदातुःसमक्षंगच्छेत् प्राचार्यद्वारायाञ्चांकारयेत् । प्राचार्यो दातारंप्रत्येतस्मै पुत्रं देहीति याञ्चां कुर्यात् । 'ददामीति' दाता वदेत् । ततो दात्ता पाचम्य प्राणानायम्यदेशकालौ संकीर्त्य प्रतिज्ञां कुर्यात् ।
अग्नि स्थापन करके पश्चात् गोद लेने वाला अपने आचार्य को साथ लेकर पुत्र देने वाले के पास जाय और आचार्य द्वारा उससे पुत्र मांगे (गोद लेने वाला अपने आचार्य से कहे कि आप मेरे लिये अमुक से पुत्र मांगिये) प्राचार्य पुत्र देने वालेसे कहे कि 'आप मेरे यजमान की वंश बृद्धिके लिये अपना पुत्र दीजिये' पुत्र देने वाला कहे कि 'मुझे स्वीकार है मैं अपना पुत्र देता हूं, इसके बाद पुत्र देने वाला पवित्र होकर यज्ञवेदीके समीप आये और आचमन, प्राणायाम करके देश कालका स्मरण करता हुआ नीचे लिखी प्रतिज्ञा करे। (पवित्री आदि धारणकर पुत्र देने वाला यह संकल्प करे )
कुत्य-ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः ॐ तत्सब्रह्म श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य अद्य श्रीब्रह्मणो द्वितीयेपराद्धे विष्णुपदे श्रीश्वेत वाराहकल्पे वैवस्वत मन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगेतत्प्रथमचरणे अमुकदीपे अमुक ""खण्डे तत्रापि परमपवित्रे भारतवर्षे अमुकदेशे अमुक
"क्षेत्रे श्रीगङ्गायमुनयोर्महानद्यारमुक"दिग्भागे-देवब्राह्मणानां सन्निधौ श्रीमन्नृपतिविक्रमादित्यस्य राज्यादमुक संख्यापरिमिते श्रीशालिवाहन राज्यादमुक संख्या परिमिते वा प्रवर्तमानवत्सरे प्रभवादि षष्ठिसंवत्सराणां मध्येऽमुक 'नाम्नि संवत्सरे अमुक अक्ते असुक"ऋतौ अमुक "मासे अमुक पक्षे अमुक "तिथौ अमुक'वासरे अमुक नक्षत्रे अमुक "योगे:अमुक करणे अमुक
राशिस्थिते चन्द्रे अमुक राशिस्थे सूर्ये अमुक राशिस्थिते देवगुरौ शेषेषु ग्रहेषु यथायथारांशि स्थानस्थितषु सत्सु एवं
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दत्तक या गोद
[ चौथा प्रकरण
गुणविशेषेण विशिष्टायां शुभपुण्य फल प्राप्ति कामः अमुक ""गोत्रोत्पन्नः अमुक वर्णोंहं अमुकस्य वंशाभिवृद्धये मम च पुत्र फल प्राप्ति कामः श्रीपरमेश्वर प्रीत्यर्थं पुत्रदानं करिष्ये । तदङ्गत्वेन गणेशादीनां पूजनं च करिष्ये । इति सं० विधि - इति संकल्प्य गणपत्यादिपूजनान्ते प्रतिग्रहीतारं यथा शक्त्या संपूज्य दानं दद्यात् ।
।
२६४
गोद देने वाला उक्त प्रकार संकल्प करके गणेशादि देवताओं तथा गोद लेने वाले का भी पूजन करे और अपने पुत्रका दान देनेसे पहिले नीचे के पांच चेद मन्त्रों को पढ़े ( स्वयं न पढ़ सकने की दशामें आचार्य पढ़े ) ।
( वेद मन्त्राः )
कृत्य — ॐ येषज्ञेन दक्षिणया समक्ता इन्द्रस्य सख्य ममृतत्व मानश । तेभ्यो भद्रमंगिरसो वोऽस्तु प्रतिगृभ्णीत मानवं सुमेधसः । १ । यऽउदायन् पितरो गोमयं वस्वृते नाभिन्दन्परिवत्सरे वलम् । दीर्घायुख मंगिरसो वोऽस्तु प्रतिगृभ्णीत मानवं सुमेधसः । २ । य ऋतेन सूर्यमारोहयन्दिव्य थन्प्रयपृथिवीं मातरं वि। सु प्रास्त्वमंगिरसो वोऽयस्तु प्रतिगृभ्णीत मानवं सुमेधसः । ३ । प्रयन्नाभावदति वल्गुवो गृहे देवपुत्राऽऋषयस्तच्छृणोतन | सुब्रह्मण्य मंगिरसो वोऽस्तु प्रतिगृभ्णीत मानवं सुमेधसः । ४ । विरूपामऽइदृषयस्त इभीरवेपसः। तेऽअंगिरसः सूनवस्तेऽग्नेः परि जज्ञिरे । ५ ।
विधि - इतिपञ्चमन्त्रान्पठित्वा दक्षिणहस्ते जलादी न्यादाय देशकालस्मृत्वा प्रतिज्ञांकुर्य्यात् । संकल्पोदकं प्रतिगृहीतृहस्तेनिषिंचेत् ।
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दफा २४६ ]
दत्तक परिग्रह विधान
२६५
पुत्र देने वाला, ऊपर के पांच वेद मन्त्रोंको पढ़कर दाहिने हाथमें जल, अक्षत. सुपारी, द्रव्य आदि लेकर देश कालका स्मरण करे और नीचे लिखी प्रतिज्ञा (संकल्प) स्पट रीतिसे पढ़कर उस जल अक्षत आदिको गोद लेने वालेके हाथ में छोड़ देवे पीछे अपने पुत्र को अपनी गोद में लेकर गोद लेने वाले के दोनों हाथों में दे दे । ( पुत्र दान का संकल्प )
कृत्य — ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः ॐ तत्सद्ब्रह्म श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य अद्यश्रीब्रह्मणो द्वितीयेपराश्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे श्रष्टाविंशतितमे कलियुगे तत्प्रथमचरणे अमुक द्वीपे अमुक खण्डे तत्रापिपरमपवित्रेभारतेवर्षे अमुक देशैकदेशे अमुक " आरण्येवौद्धावतारे अमुक क्षेत्रे श्रीगङ्गायमुनयोर्महानद्यौ रमुक दिग्भागे देवब्राह्मणानां सन्निधौ श्रीमन्नृपतिविक्रमादित्यस्यराज्यादमुक संख्या परिमितेश्री शालिवाहन राज्यादमुक संख्यापरिमिते वा प्रवर्तमानवत्सरे प्रभवादिषष्टिसंवत्सराणांमध्ये अमुक नाम्नि संवत्सरे अमुक अयने अमुक ऋतौ अमुकमासे अमुकपक्षे अमुक.. तिथौ अमुक योगे अमुक करणे मुकराशिस्थितेचन्द्रे अमुकराशिस्थिते सूर्ये अमुक राशिस्थेदेव गुरौ शेषषुग्रहेषुयथायथाराशिस्थानस्थितेषु सत्सु एवं गुणविशेषेण विशिष्ठायां शुभपुण्यफलप्राप्ति कामः अमुक गोत्रोत्पन्नः अमुकनामाहं - इमं पुत्रं तव पैतृकऋणा पाकरणपुन्नामनरकोत्तारणार्थं - वंशाभिवृद्धयर्थं मात्मनश्च मुक्तयेश्री परमेश्वरप्रीतये तुभ्यमहं संप्रददे नमम |
०००
दत्तक लेने वाला - बालकको हाथोंमें लेकर आगे लिखी वाक्य पढ़े । और "ॐ देवस्यत्व" इस मन्त्र को पढ़कर अपनी गोद में बिठाले ।
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दत्तक या गोद
[चौथा प्रकरण wwwwwwwwwwwww.mmmmmmmmm
धर्मायत्वा गृह्णामि संतत्यैत्वा गृह्णामि
देवस्यत्वा सवितुः प्रस वे श्विनो र्बाहुभ्याम्पूष्णो हस्ताभ्यां प्रति प्रति गृह्णामि । (गोद लेने वाला, नीचे के मन्त्रको पढ़कर बालक का मस्तक सूंघे) ।
ॐ अङ्गा दङ्गात्सम्भवसि हृदयादधि जायसे। अात्मावै पुत्र नामासि सजीव शरदः शतम् । इति
विधि-ततोयुवासुवासेतिमन्त्रणवालकायवत्रंपरिघाय उष्णीषं बद्धाकुण्डलादिभिरलंकृत्यकुंकुंमादिनातिलकंकृत्वा प्रावरणेनसंष्टय धृतच्छत्रं गीतवाद्यनृत्यमङ्गलपुरःसरंब्राह्मणैः स्वस्तिनइन्द्रेति सुमङ्गलसूक्तं पठेत् । पुरंध्रीभिर्नीराजयेत् ।
__ युवासुवास' नीचे लिखा मन्त्र पढ़कर पुत्रको सुन्दर वक्त, पगड़ी, कुण्डल आदि आभूषण पहनाये केसरका तिलक लगाये उत्तरीय वस्त्र (उपरना -दुपट्टा ). छत्र धारण करे । नृत्य, गीत, वाद्य एवं मङ्गलमय अन्य कृत्य करे । ब्राह्मण लोग वेदके 'स्वस्ति वादन' आदि कल्याण प्रद मन्त्रोंका गान करें। स्त्रियां मङ्गल गान करती हुयी नीरांजन करें।
नोट-प्राचीन कालमें यह चालथी कि गोद लेने वाला, पुत्र देने वाले के घर जाकर पुत्र मांगता था और वहां से उक्त प्रकार अपने घर लौट कर यज्ञादि कर्म करता था किंतु अब प्रायः ऐसा नहीं होता । दोनों एकही जगह पर दत्तक विधि पूरा करते है इसलिये प्राचीन पृथाकी सब कृत्य उसी जगह पर पूरी कर दी जाती है। (आभूषण पहनाने का मन्त्र) कृत्य-ॐ युवा सुवासः परिवीत अागात् सुश्रेयान भवति
तंधीरासः कवय उन्नयन्ति स्वाध्यायो मनसा देवयन्तः। - विधि-ततोगृहीता हस्तौपादौप्रक्षाल्यअग्नःपश्चिमतः शुभासनेप्राङ्मुख उपविश्यस्वदक्षिणतःपत्नींचोपवेश्यपत्ल्युसंगेवालं चोपवेश्याचम्य प्राणानायम्यदेशकालौस्मृत्वा 'दत्तकविधानाहङ्गवनंकरिष्ये' इति संकल्प्य कुशकण्डिका कुर्यात् तत्र प्राचार्योऽग्नेर्दक्षिणतःपरिस्तरण भूमित्यक्त्वा ब्रह्मणेश्रासनंदत्वाब्रह्माणंवृणुयात् ।
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दफा २४१)
दत्तक परिग्रह विधान
पुत्र को आभूषणों से सुसजित करने के पश्चात् गोद लेने वाला स्वयं पवित्र होकर यज्ञवेदीके पश्चिम शुभआसनपर पूर्वकी तरफ मुख करके बैठे और अपने दाहिने तरफ अपनी पत्नीको सुन्दर आसन पर बिठाये । पत्नीकी गोदमें उस दत्तक पुत्रको दे देवे । पीछे आचमन प्राणायाम करके 'दत्तक-हवन करने का संकल्प करे । यज्ञवेदीके दक्षिण तरफ 'ब्रह्मा' बनानेके लिये किसी योग्य ब्राह्मणको अच्छे प्रासनपर बिठा एवं आचार्य को बिठाकर दोनों का विधिवत् पूजन करके नीचे लिखे वाक्य द्वारा 'ब्रह्मा' को वरण करे।
(ब्रह्माके वरण करनेका वचन) कृत्य-देशकालादिसंकीर्त्य"ॐ अद्यकर्तव्यदत्तक पुत्रविधानाङ्गहोमकर्मणि कृताऽकृतावेक्षणरूपब्रह्मकर्मकर्तुममुक"गोत्रं अमुक शर्माणं ब्राह्मणमेभिःपुष्पचन्दनताम्बूलद्रव्यादिभिब्रह्मत्वेनत्वामहंबृणे ।
(वरण को लेकर ब्रह्मा यह कहे) ॐ बृतोस्मि । (गोद लेने वाला यजमान कहे ) ॐ यथा विहित कर्म कुरु ।
(ब्रह्मा यह वचन बोले ) करवाणीति ( नीचे लिखी कृत्य प्राचार्य, ब्रह्मा, और गोद लेने वाला यथा योग्य करे )
(कुश कण्डिका) तद्यथा-प्रणीतापात्रंपुरतःकृत्वाजलेनापूर्य कुशत्रयेणाच्छाद्य ब्रह्मणोमुखमवलोक्य अग्नेरुत्तरतःकुशोपरिनिदध्यात्। ततः परिस्तरणम् । वहिषश्चतुर्थभागमादाय । चतुर्भिर्दर्भदलै रुत्तराप्रैराग्नेयादशिानान्तम् १ प्रागौर्नैऋत्यादाग्नेयान्तम् २ उदगप्रैनैऋत्यादायव्यान्तम् ३प्रागवायव्यादीशानान्तम्च परिस्तरेत् ४ एवंपरिस्तरणंकृत्वा अग्नेरुत्तरतः पश्चिमदिशि पवित्रछेदनार्थकुशत्रयंपवित्रकरणार्थं पवित्रेसाने अन्तर्गर्भेटेकुशपत्रे मोक्षणीपात्रम् १ आज्यस्थाली १ चरुस्थाली १ संमार्जनकुशाःपञ्च ५ उपयमनकुशाः सप्त ७ समिधस्तित्रः
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दत्तक या गोद
[ चौथा प्रकरण
:
पालाश्यः प्रादेशमात्राः ३ श्रुवः १ याज्यंगव्यम् । चर्वर्थास्तंडुलाः तण्डुलपूरितपूर्णपात्रम् दक्षिणा एतानि पवित्रच्छेदन कुशानां पूर्व पूर्व दिशि क्रमेणासादनीयानि ततः पवित्रच्छेदुनैः पवित्रकरणम् । द्वयोः पवित्रयोरुपरि कुशत्रयं निधाय अग्रतः प्रादेशमात्रं विहाय त्रिभिः कुशैर्दे कुश तरुणेप्रच्छिद्यद्वयोर्मूलं त्रीणिचोत्तत्तः क्षिपेत् । ततः सपवित्रहस्तेन प्रणीतोदक त्रिः प्रोक्षणी पात्रेनिक्षिप्य अनामिकाङ्गुष्ठाभ्यामुत्तराग्नेगृहीत्वात्रिरुत्पवनम् । प्रोक्षणीपात्रस्य सव्यहस्ते करणम् । अनामिकांगुष्ठाभ्यां पवित्रे गृहीत्वा त्रिरुद्दिगनम् । ततः प्रणीतोदकेन प्रोक्षणीप्रोक्षणम् । प्रोक्षणीजलेन आाज्यस्थाल्यादीनि पूर्णपात्रपर्यंतानि क्रमेणैकैकशः प्रोदय सञ्चरे प्रणीताग्न्योर्मध्ये प्रोक्षणी पात्रं निघायचासादितमाज्य स्थाल्यां प्रक्षिप्य । चरुस्थाल्यां प्रणीतोदकमा सिच्य । तत्र तण्डुलान्मक्षिप्याज्यं ब्रह्माधिश्रयति । तदुत्तरतः स्वयंचरुमेवयुगपदग्नावारोप्य । ईषच्कृतेच रोज्वलदुल्मुकं प्रदक्षिणमाज्यचर्वोः समन्तात् भ्रामयेत् । ततो दक्षिणपाणिना खवमादाय अधोमुखमग्नौतापयित्वासव्ये पाणौ कृत्वा दक्षिणेन संमार्जनायैर्मृलतो ग्रपर्यन्तं मूलैरमारभ्य अधरतान्मूलपर्यन्तंसंसृज्य प्रणीतोदकेनाभिषिच्य पुनः प्रताप्यदक्षिणतोनिदध्यात् । ततः प्राज्य मुत्थाप्यचरोः पूर्वेणनीत्वाग्नेरुत्तरतः स्थापयित्वा चरुमुत्थाप्य आाज्यस्यपश्चिमतोनीत्वाचाज्यस्योत्तरतः स्थापयित्वा याज्यमग्नेः पञ्चादानीयचरुंचानीय आज्यस्योत्तरतोनिदध्यात् । ततः पवित्रा : भ्यामाज्यमुत्पूय अवलोक्यतस्मादपद्रव्यनिरसनंपुनःप्रोक्षण्यु
3
२६८
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दफा २४६ ]
दत्तक परिग्रह विधान
त्पवनम् । ततः उपयमनकुशानादाय उत्तिष्ठनप्रजापतिमनसा ध्यात्वातूष्णीमग्नौघृताक्ताः समिधस्तिस्रःप्रक्षिपेत् । ततः उपविश्यप्रोक्षण्युदकेनसपवित्रणाग्निमीशानादिउदकपर्यतंपरिषि च्यदक्षिणंजान्वाच्यब्रह्मणान्वारब्धः समिद्धतमेऽग्नौश्रुवेणाज्याहुतीर्जुहुयात् (आहुत्यनन्तरं श्रुवावस्थित हुतशेषतस्य प्रोक्षणीपात्रेप्रक्षेपः) इति
(नीचेके मन्त्रोंसे घृतकी आहुति देवे) ( अथ होमः) ___ अग्नरुत्तरभागे-ॐ प्रजापतये स्वाहा । इदंप्रजाप'तये । अग्ने दक्षिण भागे-ॐ इन्द्राय स्वाहा । इदमिन्द्राय। ( इत्याधारौ ) मध्येसमिद्धतमे-ॐ अग्नये स्वाहा । इदमग्नये । ॐ सोमाय स्वाहा । इदंसोमाय । (इत्याज्य भागौ) ततश्चरु मवधार्य होमः
(नीचेके मन्त्रोंसे चरुकी आहुति देवे ) ॐ यस्त्वाहृदा कीरिणा मन्यमानोऽमर्यं मयो जोहवीगि । जातवेदो यशोऽअस्मासु धेहि प्रजामिरग्नेऽअमृतत्व मश्यां स्वाहा । १ । इदमग्नये नमम
.. ॐ यस्मैत्वं सुकृते जातवेदऽउलोकमग्ने कृणवः स्यो- . नम् । अश्विनं सपुत्रिणं वीरवंतं गोमंतं रयिनशते स्वति स्वाहा । २ । इदमग्नये नमम |
ॐ तुभ्यमग्ने पर्यबहन्त्सूर्यों बहतु नासह । पुनः पतिभ्यो जायांदाग्ने प्रजयासह स्वाहा । ३ । इदं सूर्यासावित्र्यैनमम
नम्
। इदमा पर्यबहस
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दत्तक या गोद
[ चौथा प्रकरण
ॐ सोमो ददद्वैधर्वाय गंधर्वो दददग्नये । रथिंच पुत्राँचादादग्निर्मह्यमथोऽइमां स्वाहा |४| इदं सूर्या सावित्र्यैनमम ॐ इहैवस्तं मावियष्टं विश्व मायुर्व्यश्नुतम् । क्रीलंतौ पुत्रैर्नप्तृभिमादमानौ स्वेगृहे स्वाहा । ५॥ इदंसूर्यासावित्र्यैनम
२७०
ॐ यानः प्रजां जनयतु प्रजापति राजरसाय समनक्त्वर्यमा । अदुमङ्गलीः पतिलोक माविश शनोभव द्विपदे शं चतुष्पदे स्वाहा । ६ । इर्दसूर्या सावित्र्यैनमम
ॐ अघोर चक्षु रपतिधन्येधि शिवापशुभ्यः सुमनाः सुवर्चाः । वीर सूर्हेव कामा स्योना शन्नो भव द्विपदे श चतुष्पदे स्वाहा । ७ । इदं सूर्यासाविन्यैनमम
ॐ इर्मात्वमिद मीढः सुपुत्रां सुभगां कृणु । दशास्यां पुत्राना हि पतिमेकादशं कृधि स्वाहा । ८ । इदंसूर्यासावित्र्यैनमम ( ततः प्राज्येन )
ॐ भूः स्वाहा इदंभूः । १ । ॐ भुवः स्वाहा इदंभुवः । २ । ॐ स्वः स्वाहा इंदंस्वः । ३ । ॐ भूर्भुवः स्वः स्वाहा इदं भूर्भुवः स्वः । ४ ।
( ततोऽन्वारब्धेन चरुघृताभ्याम् ) ॐ अग्नये स्विष्टकृते स्वाहा । इदमग्नये स्विष्टकृत नमम ( ततः श्राज्येन भूराद्या नवाहुतयः )
( नीचेके ६ मन्त्रोंको पढ़कर घीकी आहुति देवे )
ॐ भूः स्वाहा इदमग्ने । १ । ॐ भुवः स्वाहा इदंवायवे । २ । ॐ स्वः स्वाहा इदं सूर्याय । ३ । ॐ त्वन्नोऽग्ने वरुणस्य विद्वान्देवस्य हेडो अवयाष्ठ सिसीष्टाजोट । यी
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दफा २४६]
दत्तक परिग्रह विधान
२७१
वह्नितम शोशुचानो विश्वा देषा सिप्रमुग्ध्यस्मत्स्वाहा । ४ । इदमग्नी वरुणाभ्यां नमम । ॐ सत्वन्नोऽअग्नेवमो भवोती नेदिष्ठो अस्याऽउषसो व्युष्टौ । अवयव नो वरुण रराणो वीहि मृडीकसुहवा न एधि स्वाहा । ५ । इदमग्नी वरुणाभ्यांनमम । ॐ अयाश्चाग्नेस्य नभिशस्ति पाश्व सत्यमित्त्व मयाऽअसि । अयानो यज्ञं वहास्य यानो धेहि भेषज स्वाहा । ६ । इदमग्नये न मम । ॐ येते शतं वरुण षे सहस्रं यज्ञियार पाशा वितता महान्तः । तेभिन्नों अद्य सवितोत विष्णुर्विश्वे मुश्चन्तु मरुत: स्व: स्वाहा ।७। इदं वरुणाय सवित्रे विष्णवे विश्वेभ्यो देवेभ्यो मरु
यः स्वर्केभ्यश्च न मम । ॐ उदुत्तमं व्वरुण पाश मस्मद वाधमं विमद्ध्यम श्रथाय । अथा वयमा दित्य व्रते तवा नागसो अदितये स्याम स्वाहा।८। इदं वरुणायादित्यायादितये च नमम । ॐ प्रजापतये स्वाहा इदं प्रजापतये न मम । ९ । इति नवाहुतयः
विधि-ततः संश्रवप्राशनं आचमनं च । ब्रह्मणे पूर्णपात्र दानम्* गोद लेने वाला उपरोक्त मन्त्रोंसे हवन कर चुकने पर प्रोक्षणी पात्र के घृतका प्राशन करे । पीछे आचमन कर और नीचे के संकल्प को पढ़कर 'पूर्णपात्र ब्रह्मा को देवे। पूर्णपात्र में यथाशक्ति दक्षिणा भी रख लेवे।
(ब्रह्माके लिये पूर्णपात्र का संकल्प ) . कृत्य-ॐअद्यदत्तपुत्रविधानाङ्गहोमकर्मणिकृताऽकृता वेक्षणरूपब्रह्मकर्मप्रतिष्ठार्थमिदंपूर्णपात्रंप्रजापतिदेवंत सदनिणाकममुक गोत्रायामुक शर्मणे ब्राह्मणायब्रह्मणे दक्षि
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दत्तक या गोद
[ चौथा प्रकरण
त्वेन तुभ्यमहं सम्प्रददे । स्वस्तीति प्रति वचनम् । ततो ब्रह्मग्रंथि विमोकः
२७२
( आचार्य, गोद लेने वाले के शिर में प्रणीतापात्रसे जल लेकर मार्जन करें ) मन्त्र — ॐ सुमित्रिया नाप प्रोषधयः सन्तु ( नीचेका मन्त्र पढ़कर ईशान्य कोणमें प्रणीताको न्युब्ज (उलटा ) कर देवे ) ॐ दुभित्रियास्तस्मै सन्तु योऽस्मान्द्वेष्टि यंच वयं द्विष्मः विधि - ततस्त्र्यायुष्करणं कुर्यात् । एवंहोमशेषंसमाप्य श्राचार्यंवस्त्रालंकारादिभिर्यथाविभवंसंपूज्यधेनुदद्यात् । ब्राह्म-णेभ्यो दक्षिणांदत्व । तैराशिषो गृहीत्वास भोपविष्टान्गंधताम्बूल फलादिभिस्तोषयेत् ।
I
श्राचार्य यज्ञवेदी की भस्मधुवासे लेकर 'त्रायुषं यमदग्ने इस मन्त्र द्वारा गोद लेने वाले के अङ्गों में त्रायुष्करण करे । यज्ञाग्नि और देवताओं का विसर्ज करे । गोद लेने वाला हवनकृत्य समाप्त होने पर अपनी श्रद्धा और शक्ति के अनुसार उदारता पूर्वक अपने आचार्य को नये वस्त्र आभूषण, दक्षिणा देकर पूजन करे पीछे एक गोदान करे । जो ब्राह्मण उस स्थान में एकत्र हों सबको यथा योग्य सत्कार करके दक्षिणा देवे तथा ब्राह्मणों से आशीर्वाद ग्रहण करे, शक्त्यानुसार ब्राह्मण भोजन करावे । दत्तक विधान में आये हुए वंशज, जाति भाई, और वन्धुवर्ग तथा इष्टमित्र सबका यथोचित सत्कार करके सबको भोजन कराये, स्वयं भी उनके साथ भोजन करे । बिरादरी और अन्य लोगों में नारियल, गरी गोला, मिश्री के लड्डू, आदि अपनी पृथा के अनुसार वितरणकरे । पुत्र जन्मोत्सवकी तरहअनेक प्रकारके योग्य उत्सव करे ।
नोट - गोद लेने की विधि ऊपर साधारण रीतिते बताई गयी है अधिक देखना हो तो देखो, शौनक स्मृति, दत्तक मीमांसा दत्तक चन्द्रिका, संस्कार प्रकाश और चतुर्वर्ग चिन्तामणि । दत्तक विधिक पश्चात दत्तक पुत्र जात कर्म से लेकर संस्कार विधिवत् करना चाहिए तथा नान्दी मुख श्राद्ध करना चाहिये | अर्थ'त जो संस्सार औरस पुत्रके लिये धर्म शास्त्रानुसार आवश्यक बताये गये है वे संस्कार दत्तक पुत्र के लिये भी होना आवश्यक हैं। आजकल गोद लेने के उपलक्ष्य में सेठ साहूकार हजारों रुपया खर्च कर देते हैं किन्तु अपने पवित्र पूर्वजों की आर्ष विधि करनेसे हाथ मुंह सिकोड़ते हैं | हम आग्रह करते हैं कि द्विजोंकों और विशेषकर क्षत्रिय तथा वैश्यों को इस और अवश्य ध्यान देना चाहिये । ब्राह्मणों में प्रायः विधिके अनुकूल दत्तक लिया जाता है ।
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दफा २५०-२५१ ]
दत्तक लेनेकी शहादत कैसीहोना चाहिये
२७३
mornwr
(५) दत्तक लेनेकी शहादत कैसी होना चाहिये
दफा २५० गोदलेना कैसे साबित किया जाय
__ अदालतमें दत्तक साबित करने के लिये कोई विशेष बात नहीं है। जिसतरह पर कि अन्य मामले साबित किये जाते हैं उसी तरह पर दत्तक भी साबित किया जाता है चाहे वह मुद्दई हो और चाहे मुद्दालेह । ऊपर दत्तक विधि में कहा गया है कि अच्छे मुहूर्त में अपने कुटुम्बियों और भाई बन्दोंको तथा ब्राह्मणों और अन्य आदमियों को बुलवाये, राजाको निमन्त्रणदे और विधिपूर्वक मङ्गलाचार करके अपने खानदानकी रस्मातके अनुसार सबके समक्षमें गोद लेवे । यह सब शहादत गोद साबित करनेके लिये ज़रूरी होती है। यहभी ऊपर बताचुके हैं कि जिस गोदमें सब बातें साबित हो जायें मगर लड़केका देना और लेना साबित न हो तो गोद नाजायज़ हो जावेगा (देखो दफा २३६ इसलिये सब बातें ध्यानमें रखकर गोदकी रसम करना चाहिये और वही अदालतमें लेखबद्ध और ज़मानी साक्षियों से साबित करना चाहिये दत्तक चन्द्रिका,दत्तक मीमांसा, धीर मित्रोदय आदि ग्रन्थोंमें कहागया है कि
नृत्यगीतैश्च पाद्यैश्च स्वतिशदैश्च संयुतम् गृहमध्ये तमाधाय चरुं कृत्वा विधानतः ।
किसी समयपर इस किस्मकी शहादत भी दी जासकती है कि जो लोग उत्सवमें शरीक रहे हों, गाने बजाने या अन्य रसूमातके कामोंमें हाज़िर रहे हों, वह यह साबित करें कि अमुक बात हमारे सामने हुई है । शहादत में दत्तकपत्र लिखा जाता है, चाहे वह सादे काग़ज़ पर लिखा गया हो अथवा रजिस्ट्री कराया गया हो । अकसर आजकल दत्तक विधानके वक्त एक लिखत की जाती है जिसमें लड़का देने और लेनेका ज़िकर करके उपस्थित बिरादरीके दस्तखत होते हैं और लड़का देनेवाले तथा लेनेवालेके दस्तखत होते हैं। वह कागज़ दत्तक विधान साबित करने के लिये अदालतमें पेश किया जासकता है। इसी तरहपर जैसे और मामले साबित किये जाते हैं उसी तरहपर दस्तक भी साबित करना चाहिये इस पाखीर वाक्यके बारेमें नज़ीरें देखो, तारनी चरण बनाम सरोदरासुन्दरी 3 B. L. R. ( A. C. J.)1463 S. C. 11 Suth 468 हरदयाल बनाम रायक्रिस्टो 24 Suth. 107. दफा २५१ दत्तक होनेका अनुमान कब किया जायगा
महर्षि अत्रिने कहा है कि35
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२७४
[ चौथा प्रकरण
दत्तक या गोद
पुत्रेणैव कर्त्तव्यः पुत्र प्रतिनिधिः सदा पिण्डोदक क्रियाहेतोर्यस्मात्तस्मात्प्रयत्नतः ।
उपरोक्त श्लोक में अत्रिने बहुत ज़ोर देकर कहा है कि जिस पुरुषके औरस पुत्र न हो उसे दत्तक पुत्र लेनेके लिये कोशिश करना चाहिये ताकि उसकी पिण्डदान और तर्पण की क्रिया बन्द न हो जाय । इस बातकी पुष्टि वीर मित्रोदय, दत्तक मीमांसा दत्तकचन्द्रिका, कौस्तुभ आदि ग्रन्थोंसे होती है कि हिन्दू पुरुषको अपना कोई न कोई प्रतिनिधि ( लड़का ) अवश्य छोड़ जाना चाहिये जिसमें उस पुरुषके मरनेके बाद धार्मिक कृत्य बन्द न हो जायें । इसलिये इन सब बातों परसे ऐसा अनुमान किया जाना बहुत योग्य है, कि जब कोई हिन्दू पुरुष बिना औलादके मर गया हो तो उसने दत्तकके लिये ज़रूर ख़्याल किया होगा, और जब यह साबित हो कि वह बीमार बहुत दिन रहा था और जायदाद वाला था, ( जो जायदाद उसके मरनेके बाद दूसरे वारिसों को पहुँचती ) तब अधिक अनुमान किया जायगा कि उसने ज़रूर दत्तक पुत्र लेने के बारे में ख़्याल किया होगा । इससे भी अधिक ऐसा अनुमान तब किया जायगा जब घरेलू झगड़ों या अन्य किसी सबबसे उसको वह पसन्द न करता हो जो उसके मरनेके बाद उसकी जायदादका वारिस होनेवाला हो या उससे वैमन्य हो या शत्रुता हो या उससे वह दूसरेको ज्यादा चाहता हो ।
दत्तक लेने के समय मुतवफ़ी के ठीक होश व हवाश और मस्तिष्क की सेहत के सम्बन्ध में यह प्रमाणित होना आवश्यक है कि मृतक, दत्तक लेने के समय ठीक होश हवास में था और उसकी अवस्था इतनी अच्छी थी कि उसने अपनी शुद्ध बुद्धि और अन्तरात्मा द्वारा दत्तक की रसमको अदा किया था । महाराजा कोल्हापुर बनाम यस० सुन्दरम् अय्यर 48 Mad. 1; A. I. R. 1925 Mad. 497.
दफा २५२ मिताक्षरा स्कूलोंमें दत्तकका अनुमान
हिन्दुस्थानके जिन भागों में मिताक्षरा लॉ लागू किया गया है, उनमें यदि कोई हिन्दू पुरुष बिना औलादके मर जाय तो उसकी विधवा को सिर्फ रोटी कपड़ा मिलने का अधिकार है बशर्ते कि खानदान शामिल शरीक हो । ऐसी दशामें विधवाको पतिके उत्तराधिकारी, चाहे वह कितना भी दूरका हो उसके आधीन रहना पड़ेगा । इसलिये ऐसा अनुमान किया जासकता है कि पतिने अपने उत्तराधिकारी ( वारिस ) के ताबे अपनी स्त्रीको छोड़ना पसन्द नहीं किया होगा बलि यह पसन्द किया होगा कि विधवा माताकी हैसियत से रहे और दत्तक पुत्रकी माता कहलाती हुई उस पुत्रकी वली बनी रहे देखो 1 Hyde. 249; हराधन बनाम मथुरानाथ 4 M. I. A. 414; S. C. 7 Suth
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दफा २५२-२५३]
दत्तक लेनेकी शहादत कैसी होना चाहिये
२७५
(P.C.) 71; सुम्दाकुमारी बनाम गजाधर 7 M. I. A. 64; S. C. 4 Suth ( P. C. ) 116; राव हनाधा बनाम ब्रजकिशोर 3 I. A. 177; S.C. 1 Md. 69; S. C. 25 Suth. 291. जस्टिस मित्रकी राय देखो, राजेन्द्र नारायण बनाम सरोदा 15 Suth 548; हरमंचलसिंह बनाम कुंधर घनश्याम 2 Kn. P. 220.
___ यद्यपि यह कहा गया है कि जिस पुरुषकी स्त्री गर्भवती हो उस वक्त वह दत्तक ले सकता है ( देखो दफा १०५) मगर यहांपर यह अनुमान भी किया जासकता है कि जब अपनी जवानीमें अथवा यह समझकर कि मेरी स्त्री गर्भवती है ज़रूर इसके औलाद पैदा होगी, मर गया हो तो दत्तकके न लेनेका अनुमान हो सकता है । साबित्री बनाम शबंधन 2 S. D. 21 (26); मञ्जूर किया गया--2 Kn. 287. दफा २५३ कुटुम्बियोंके साथ दत्तक पुत्रके हिलमिल जानेकाअसर
जब किसी दत्तक पुत्रके बारे में कहाजाता हो कि नाजायज़ है और इसके साथही यह भी साबित होताहो कि उस दत्तक पुत्रको दत्तक हुए बहुत रोज़ गुज़र गये हैं, बिरादरी में उसके प्रतिकूल कोई झगड़ा नहीं उठा, सब भाई बन्दोंमें वह खान पान आदिमें मिस्ल दत्तक पुत्रके शामिल किया जाचुका है और होता रहता है, जो कुछ बर्ताव उसके साथ किया गया है वह दत्तक मानकर किया गया है, तथा अन्य सब लोग उसे दत्तक पुत्र समझकर उसके साथ बर्ताव करते हैं तो ऐसी हालतमें यह समझा जायगा किजो सुबूत दत्तक साबित करनेके लिये आवश्यक था वह पूरा हो चुका । या यों कहिये कि जब दत्तक पुत्रको दत्तक लेनेका एक ज़माना बीत गया हो, और खानदानमें तथा उस समाज में जिसमें खानदान वालोंका सम्बन्ध अथवा मेल मिलाप होता रहता है दत्तक पुत्रकी हैसियतसे वह शामिल होगया हो, उसके साथ वैसाही बीव किया गया हो जैसा कि दत्तक पुत्रके लिये होना चाहिये था। ऐसी हालतमें जिनलोगोंके साथ ऐसा बर्ताव हुआ है और जिन लोगोंको दत्तककी सही बातें जाननेका मौका मिला है उनकी शहादत मुक्नहमेमें ज़रूरी होगी-- देखो, प्रकाशचन्द्र बनाम धुनमनी S. D. 1853, 96; नित्यनन्द बनाम कृष्णदयाल 7 B. L. R. 1; S. C. 15 Suth. 300; राजेन्द्रनाथ बनाम जोगेन्द्रनाथ 14 M. I. A. 67; S. C. 15 Suth. (P.C.) 41; हरदयाल बनाम रायक्रिस्टो 24 Suth. 107; सुबो बेवा बनाम सुबोधन 11 Suth. 380; S. C.2 B. L. R. Appx. b1; वैश्य चिम्मनलाल बनाम वैश्य रामचन्द्र 24 Bom. 473. और देखो आखीर के सम्बन्ध की नज़ीरे-राजेन्द्रोनाथ बनाम जोगेन्द्रोनाथ 14 M. I. A. 67; S.C. 15 Suth. ( P. C.) 41; s. C. 7 B. L. R. 216; अनन्द्रो शिवाजी बनाम गणेश यशवंत 7 Bom. H. C. Appx. 33.
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२७
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दत्तक या गोद
[चौथा प्रकरण
"बहुतरोज़ या ज़माना" के बारेमें साफ तय नहीं हुआ कि कितना हो जाना चाहिये. यह बात हरएक मुकदमेके जैसे सम्बन्ध हों उसके अनुसार लागू होगी। जिसतरहपर कि ऊपर कहा हुआ ज़माना गुज़र जाने से और खानदानवालों केसाथ तथा अन्य लोगोंके साथ मिस्ल दत्तक पुत्रके बर्ताव हो जानेसे दत्तकके साबित होनेका अनुमान पैदाहोता है, उसीतरहपर अगर यह बातें अनुकूल नहों तोविरुद्ध अनुमान भी पैदा होजाता है । जैसे यदि दत्तक को बहुतरोज़ होगये हों मगर यह बात छिपाई गईहो, या किसी एकतरफसे दत्तक कहाजाता था मगर दूसरी तरफसे इसबात पर शककिया जाताथा या उसकी असलियत पर कभी जांच नहीं कीगई, अथवा उसके साथ विरादारी व खानदान वालोंने दत्तक पुत्रकी हैसियतसे बर्ताव नहीं किया ऐसी हालत में जितना समय दत्तकका व्यतीत होता जायगा उतनाही उस दत्तकके विरुद्ध अनुमान कियाजायगा मगर यह ध्यान रहे कि यदि कोई दत्तक बिना अधिकार के लिया गया हो या अन्य बाते जो दत्तकके लिये कानूनन होना ज़रूरी हैं न की गई हों तो ज़माना कितनाभी दत्तक का गुज़र जाय और चाहे खानदान वाले और अन्य लोगों ने स्वीकार भी कर लिया हो मगर वह जायज़ नहीं होसकेगा। इसी किस्म एक मुकदमा देखो जिसमें हिन्दू विधवाने बिला इजाज़त अपने पतिके दत्तक लिया था और उसे लोगोंने स्वीकार कर लिया था १८ मास वितीत होगये थे, नाजायज़ करार दिया गया 18 Mad. I. L. R.146.
(१) विरादरीमें स्वीकार किया हुआ भी दत्तक पुत्र नाजायज़ होगा यदि कोई दत्तक ऐसा हो जो और सबतरहसे ठीक हो तथा विधि पूर्वक लिया गया हो, और उसे दत्तक लिये बहुत रोज़ गुज़र गये हों तथा अपने खानदान व भाई बन्दोंमें वह दत्तक पुत्रकी भांति माना जाता हो; मगर यह साबित हो जाय कि वह दत्तक पुत्र दत्तकके योग्य नहीं था, तो नाजायज़ होगा। जैसे किसी पुरुषके योग्य औरसपुत्र मौजूद हो और उसने दत्तक लिया हो, या ब्राह्मणोंमें बहन का लड़का दत्तक लिया गया हो या लड़कीका लड़का या बुवा का लड़का लिया गया हो इत्यादि।
अब आप दो ऐसे मुकद्दमे देखें जिनमें गोदकी मंसूखीका दावा किया गया था और यह साबित हुआ था कि दावा करनेवालेनेहीषद गोद दिलाया है और हर तरहसे वह उस गोदसे राज़ी था मगर फिरभी अदालतसे नहीं माना गया । इतनाही नहीं बक्ति उसने दत्तक लेनेके बारेमें कोशिश की थी, समझाया था, स्वयं राजी हुआ था, और बिरादरी कोशिश की थी कि उस दत्तकपुत्रके साथ दत्तकपुत्रकी हैसियतले बर्ताव किया जावे । पहिला मुक्रइमा वह है जिसमें एक ब्राह्मणने अपने भांजेको दत्तक लिया और दूसरा जिसमें एक ब्राह्मणने यज्ञोपवीत, और विवाह होजानेपर दत्तक लिया था, दोनों नाजायज़ हुये। अदालतने यह मानाकि दावा करनेवाला अपने अमल
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दफा २५३]
दत्तक लेनेकी शहादत कैसी होना चाहिये
२७७
तरीक्नेसे दत्तकसे इनकार नहीं कर सकता मगर वह यदि ऐसी सूरत न होती तो दावा कर सकता था। देखो; गोपालयान बनाम रघुपति एय्यान 7 Mad. H. C. 250, सदाशिव बनाम हरिमोरेश्वर 11 Bom H. C. 190, रावजी विनायकराब बनाम लक्ष्मीबाई 11 Bom 381, 3963 कन्नामल बनाम बेरा सामी 15 Mad. 486; सानटप्पा एप्पा बनाम राम गप्पा यय्या 8 Mad. 397, 54 सुखबासी बनाम गुम्मान 2 All. 366; कुंवरजी बनाम बाबाई 19 Bom. 374; 18 Mad. I. L. R. 397; 15 Mad. I. L. R. 486.
(२) यह बात अयोग्य जान पड़ती है कि जिस पुरुषने दत्तकके बारे में इतनी पैरवी की हो, और वह उसके लिये किसी तरहसे भी कोई बाधा उसके लाभमें न डाल सके । मुमकिन है कि उसने बिना समझे, नेकनियतीसे या गलतीसे दत्तकके सम्बन्धमें कोशिश की हो और रज़ामन्दी ज़ाहिरकी हो मगर उस गलतीके सबबसे दूसरेको नुकसान, या तकलीफ पहुंचे तो ऐसी प्रलती चाहे कैसी भी हो स्वीकारके योग्य नहीं है। जिसकी तरफसे उपरोक्त काम किया गया हो उसे अपने बयानके बदलनेका अथवा उस बयानके असर के हटाने के उद्योग करने का मौका क्या देना चाहिये ? देखो; पारवती बनाम रामकृष्णा 8 Mad. I. L. R. 145 उपर की राय पलती से स्वीकार की गई थी।
(३) कब जायज़ माना जायगा-सन् १८६७ ई० में लिया हुआ दत्तक, यदि दत्तककी मृत्यु पर्यन्त किसीने गोद लेनेके सम्बन्ध में कोई एतराज़ नहीं किया. तो अदालत उसे जायज़ समझेगी। पी० सम्बा शिव सानियल बनाम रामासामी सास्त्रियल 86 I. C. 772; A. I. R. 1925 Mad. 803, 48 M. L. J. 353.
(४) यह उस व्यक्तिका कर्तध्य है जो यह स्वीकार करता हो कि गोत्र लिया गया है तो उसका प्रमाणदे । किन्तु यदि यह प्रमाणित होजाय कि गोद साधारणतया जायज़ है और उसकी तमाम रस्मे यथावत् की गई हैं तो उस मनुष्य का जो उसका विरोध करे, यह कर्तव्य होगा कि वह इस बाल का प्रमाण दे, कि किस विशेष रस्मकै न करने से वह नाजायज़ है। ( Knnedg T,J.C. and. Pereual. A.J. C.) मुष बन्दीबाई बनाम श्रीमती कुन्दी बाई 88 I.C. 57 37 A. I. R. 1925 Sind. 228.
(५) विधवा द्वारा गोद लेना--गोद लेने के लिये प्रति की आशा थीदत्तकको चालीस वर्ष तक फरीकैन मुतालिका मय मुद्दईके जायज़ समझा थागोद लेने वाली विधवा के ढङ्ग में किसी प्रकार की स्वेच्छाचारिता का अभियोग नहीं -दत्तक उस घरमें जहां कि वह गोद लिया गया था उसके एक सदस्य की भांति लगातार रहता रहा-मुद्दई और अन्य मनुष्य जायज़ दत्तक
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दत्तक या गोद
[ चौथा प्रकरण
की तरह बर्ताव करते रहे--४२ वर्ष के बाद यह अभियोग लगाया गया कि दत्तक की कार्यवाही पतिकी इच्छा के खिलाफ थी -: - प्रमाण का भार मुद्दई पर रहा-तय हुआ कि दत्तक जायज़ है - श्री कांचुमारथी वेकंट सीतारामचन्द्र cia anna sigarcat ; 89 I. C.817; A.. I. R. 1925 P. C. 201.
दफा २५४ दत्तक पुत्र को अपने असली ख़ानदानमें लौटने की रुकावटें
जबकि दत्तक पुत्र अपने असली खानदानसे दूसरे खानदान में चला गया हो अथवा ऐसा दत्तक हो जो क़ानूनन असली खानदानसे खारिज न किया गया हो, और किसी सबबसे उसे अपने असली खानदानमें लौटना पड़े, तो उसे क़ानूनी रुकावटें पैदा हो जाती हैं। मुमकिन है उसको क़ानून मियादसे रुकावट पड़ जाय जिसके सबबसे वह असली खानदानमें जानेसे रोकाजाय या उसकी हालत जो बदलचुकी है उसके सबबसे असली खानदानमें जानेकी रुकावट पैदा हो जाय जो हालत कि उसकी असली खानदानमें होने की दशामें होती वह नहीं रही । राजेन्द्रोनाथ बनाम जोगेन्द्रनाथ 14 M. I. A 77; S. C. 15 Suth (P. C.) 41; S. C. 7 Bom. L. R. 216.
दफा २५५ दत्तक साबित होजाने का फैसला सबको पाबंद करेगा
यह बात तय हो गई है कि जब कोई मुक़द्दमा दत्तकका अदालतमें चल रहा हो और उसका फैसला दत्तकके पक्षमें होजाय अर्थात् कोर्ट से दत्तक साबित होजाय तो वह फैसला न सिर्फ उन्हीं दोनों पक्षकारोंके साथ लागू होगा जो दत्तकके मुक़द्दमेमें वादी या प्रतिवादीकी हैसियत से सम्बन्ध रखते थे, बक्लि उन सब लोगोंसे लागू होगा जो उस मुक़द्दमेके पक्षकार नहीं थे, यानी उस फैसलेका असर उन सबको पाबन्द करेगा जो उस केसमे शामिल न थे । इस क़िस्मका फैसला खानदान व बिरादरी वग़ैरासे भी लागू किया जायगा । अदालतसे जब गोद साबित होने का फ़ैसला आखिरी होजाय तो खानदान या बिरादरी का कोई आदमी उस फैसलेकी पाबन्दी से इन्कार नहीं कर सकता, हमेशा के लिये वह फैसला इस बातका हो जायगा कि जो दत्तक ली गई थी जायज़ थी । और जब एक दफा ऐसा फैसला अदालतसे होजाय तो दुबारा दावा नहीं हो सकता देखो; सिविल प्रोसीजर एक्ट नं० ५ सन् १६०८ ई० की दफा ११ । नज़ीरें देखो; सीताराम बनाम जगबन्धू 2 Suth. 168 फैसला न मानने वालेपर बार सुबूत पड़ेगा - किस्टोमनी बनाम कलक्टर आफ मुरशिदाबाद S. D. 1859, 550; राजक्रिस्टो बनाम किशोरी 3 Suth 14 यरकल अम्मा बनाम अनाकला 2 Mad. H. C. 276; गोपालायान बनाम रघुपति एय्यन 3 Mad. H. C. 217.
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दत्तक लेनेका फल क्या है
( ६ ) दत्तक लेने का फल क्या है
दफा २५४ - २५६ ]
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दफा २५६ दत्तक पुत्र वारिस नहीं होता
दत्तक पुत्रका पहिले के कुटुम्ब से जिस में वह पैदा हुआ है नाता छूट जाता है, और उस कुटुम्ब से बिल्कुल सम्बन्ध टूट जाता है वह उस कुटुम्ब का लड़का कहलाता है जिस कुटुम्बमें गोद लिया गया है उसे पूर्व पिता का नाम बदलकर नये पिताका नाम उपयोग में लाना पड़ता है । और नये पिता की धार्मिक कृत्य सब करना पड़ती है उसे ऐसा समझना चाहिये कि जब दत्तकपुत्र नये कुटुम्ब में आता है तब उसका नामकरण संस्कार भी किया जाता है यानी दूसरा नाम रखा जाता है । दत्तकपुत्र जिसवक्त नये कुटुम्बमें प्रवेश करता है उसे सब वारिसाना अधिकार जहां तक उसके सम्बन्ध में पहुँचते हैं सब प्राप्त हो जाते हैं । जब कोई लड़का अपने असली कुटुम्बसे दूसरे नये कुटुम्ब में दत्तक चला जाता है तो असली कुटुम्बकी जायदादका वारिस नहीं होता नीचेके उदाहरण देखो-
अपने असली कुटुम्बिकी जायदादका
उदाहरण - ( १ ) माणिकचन्दके दो लड़के हैं हीरालाल और मोतीलाल, मोतीलाल को माणिकचन्द ने गोद दे दिया और पश्चात् वह मरा तो माणिकचन्द की जायदाद का वारिस हीरालाल होगा मोतीलाल नहीं होगा क्योंकि वह गोद चला गया था ( २ ) खानदान शामिलशरीकर्मे शिवराम, शिवलाल, और शिवदास तीनों सगे भाई हैं। शिवरामका शिवप्रसाद, शिवलाल का शिवचरण, शिवदासका शिवदत्त पुत्र है । शिवप्रसाद को शिवरामने गोद दे दिया तो खानदानी जायदाद के वारिस पांच आदमी रहेंगे । शिवप्रसादका कोई हक़ पिताकी जायदादमें बाक़ी नहीं रहा क्योंकि वह दत्तक चला गयाथा ।
दत्तक प्रथा के अनुसार गोद लिये जाने के पश्चात् गोद लिया हुआ व्यक्ति, सही अर्थ में, अपने कुदरती खान्दान से सब सम्बन्ध परिच्छेद कर देता है। उसके और उसके कुदरती पिता के खान्दान के मध्य के समस्त सम्बन्धोंका अन्त हो जाता है ।
इस अलाहिदगी में किसी प्रकार की कसर शेष नहीं रहती, वह सम्पूर्ण होती है । अलाहिदगी, रक्त सम्बन्धके कारण, जो किसी प्रकार भी नहीं त्यागा जा सकता, किसी प्रकार कमनहीं समझी जाती । वह अपने खान्दानी पिताके खानदान में मनाही की हद तक ब्याह करनेसे वर्जित है । वह अपने कुदरती पिता के खानदान से किसी प्रकार सम्बन्ध नहीं रखता, और उसका कुदरती
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२५०
दत्तक या गोद
[चौथा प्रकरण
पिता उसका पिता नहीं रहता। दत्तक और उसके कुदरती खानदान के मध्य सपिण्ड सम्बन्धके जारी रहनेके कारण, यह नहीं साबित होता कि एक गोद लिये हुये भाई और उसके कुदरती भाई के मध्य भ्रातृत्व का सम्बन्ध शेष रहता है ( 1883 ) L. R. 10 I. A. 138; ( 1902 ) 25 Mad. 394; ( 1916 ) 40 Bom. 429 and; ( 1879 ) 6 Cal. 256 (F. B. ) का आधार लिया गया है; और ( 1899 ) 21 All 412 P. 418 and. L. R. I. A. Sup. Vol 47 का हवाला दिया गया है। बृजस्वरूप चन्द्र बनाम सुभद्राकुँवर--30 W. N. (Sup.) 34. दफा २५७ असली कुटुम्ब में शादी नहीं कर सकता, और न
गोदले सकता है यद्यपि दत्तक पुत्रका सम्बन्ध उसके असली कुटुम्बसे टूट जाता है मगर खूनके सम्बन्धको वह नहीं मिटासकता । इसीलिये दत्तक पुत्र अपने असली कुटुम्बमें शादी नहीं कर सकता.और न वह अपने असली कुटुम्बसे किसी पुत्र को दत्तक ले सकता है, जिसे वह असली कुटुम्बमें रहने की हालत में दत्तक न ले सकता था । देखो दफा २७६. ।
उदाहरण--(१) रामनाथ के दो लड़के हैं रामरिख और रामप्रताप रामप्रताप के मामा रामसेवकके एक लड़की है जिसका नाम रामवती है। रामप्रतापको रामनाथने गोद देदिया। अब गोद चले जानेपर भी रामप्रताप, रामवतीके साथ शादी नहीं कर सकता है इसी तरह पर रामप्रताप उन सबके साथ शादी नहीं कर सकेगा जिन के साथ वह गोद न जाने की दशा में नहीं कर सकता था।
(२) गणेशप्रसादके तीनपुत्र हैं गणेशलाल, गणपति और गणेशदास गणपति की बुवाके लड़केकानाम शिवसागर और बहनके लड़केका नाम प्रताप तथा भाई गणेशदास की लड़की के लड़के का नाम मुकुन्द है। गणपपति को गणेशप्रसादने गोद देदिया तो अबगोद जानेकी दशाभीगणपति,शिवसागर, प्रताप और मुकुंद को दसक नहीं ले सकता क्योंकि गणपति इन लड़कोंको उस वक्त भी गोद नहीं ले सकता था जबकि वह असली खानदान में था। दफा २५८ दत्तक पुत्र दादाके चचेरे भाईका तथा सपिण्डोंका
वारिस होता है जब अकेला दत्तक पुत्र ही दत्तक लेनेवालेके बाद वारिस रहा हो, और एकही पुत्र दत्तक लिया गया हो तो दत्तक पुत्रको,गोद लेनेवाले बाप और उस के दादा परदादाकी सब जायदाद प्राप्त होती है बक्ति दूसरे रिश्तेदारों तकका
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૨૯૧
दफा २५७-२५८ ]
दत्तक लेनेका फैल क्या है
वह वारिस होजाता है । दत्तक पुत्र इस तरहपर सबका वारिस होता है जिस तरह पर कि गोद लेने वालेका औरस पुत्र होता । नज़ीरें देखो, गुरुबल्लभ बनाम जगन्नाथ 7 Macn. 159 मुकुन्दो बनाम विकण्ठ 6 Cal. 289; और देखो 26 I. A. 83; S. C. 22 Mad. 383
एक दत्तक पुत्र दूसरे दशक पुत्रका वारिस होता है और दशक पुत्र, गोद लेने वाले बापके भाईका भी वारिस होता है दोनों बातोंकी नज़ीरें देखो श्यामचन्द्र बनाम नरायनी 1 S. D. 209 ( 279 ); गुरहरी बनाम मिस्टर रत्नासुरी 6 S. D. 203 ( 250 ); जैचन्द्र बनाम भैरवचन्द्र S. D. of 1849. 461; गुरूगोबिन्द बनाम आनन्दलाल 5 B. L. R.15; S. C. 13 Suth. (F. B.) 49; लोकनाथ बनाम श्यामासुन्दरी S. D. of 1858; 1863. किशननाथ बनाम हरी गोबिन्द S. D. of 1859, 18, गुरुप्रसाद बनाम रासबिहारी S. D. of 1860, 1, 411.
दत्तक विधवा द्वारा - दत्तक पर शर्त - हिन्दू विधवा दत्तक पुत्र पर कोई ऐसी शर्त नहीं रख सकती, जिसके द्वारा उसके पति के जायदाद का कोई भाग उसके किसी खास नियोजित व्यक्ति को दिया जा सके । यदि वह बालिग़ है, तो उसे उसके विचार की पाबन्दी, अपने ऊपर लेने से कोई बात रोक न सकेगी। मित्र सेन बनाम दत्तराम 90 I. O. 1000 :
मिताक्षराका यह सिद्धांत पूरी तौर से माना जाचुका है कि दशकपुत्र, दत्तक के पीछे अपने पूर्व पिता के कुटुम्ब से दूसरे कुटुम्ब में चला जाता है और उसके सबअधिकार व हक्क़ नष्ट होजाते हैं जो पूर्व पिताके लड़के होने की हैसियत से थे । दत्तक पुत्र, अपने असली पिताके खानदान की जायदाद के किसी हिस्से के पाने का दावा पहले के सम्बन्ध से नहीं कर सकता। सिर्फ उसका सम्बन्ध इतना बना रहता है कि दत्तक पुत्र नतो विवाह मना किये हुये डिगरियोंमें अपने असली खानदान में कर सकता है और न इसी तरहपर गोद ले सकता है | देखो; धन्नामल बनाम परमेश्वरीदास 1928 A. I. R. Lah. 9.
यदि कोई पुत्र, अपने पिता के गोद लिये जाने के समय मौजूद हो, तो इसे जायदाद में अधिकार प्राप्त होगा, और पिता के गोद लिये जाने के कारण जिससे कि उसकी अधिकार सम्बन्धी मृत्यु समझी जायगी, उसका कोई प्रभाव अपने पुत्र या पुत्रों के अधिकार पर शेष न रहेगा । धनराजसिंह बनाम बख्शी 94 I. C. 4; A. I.R. 1926 Bom. 90.
दत्तक पुत्र प्रत्येक रीति से स्वाभाविक पुत्र के समान है - दशक पुत्र के अधिकार, यदि किसी स्पष्ट लेख द्वारा कम न कर दिये गये हों, तो हर प्रकार से स्वाभाविक पुत्र के समान ही है और उत्तराधिकार का क्रम, जहां तक कि सिलसिले उत्तराधिकार का सम्बन्ध है पूर्व काल से ही प्रभाव रखने
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दत्तक या गोद -
[चौथा प्रकरण
वाले हैं। किसी शूद्र के दत्तक पुत्र और गैर कानूनी पुत्र के मुताबिले में, इस बिना पर कि गैर कानूनी पुत्र के जन्म के बाद गोद लिया गया था यह फैसला करना कि दत्तक नाजायज़ है और इसी बिना पर यह तय करना कि नाजायज़ दत्तक पुत्रके मुक़ाबिलेमें गैरकानूनी पुत्र सम्पूर्ण सम्पत्तिका अधिकारी है और इस प्रकार जायदाद गैरकानूनी पुत्र और दत्तक पुत्र में इस प्रकार बांट देना कि दोनों को आधी २ मिल जाय, न्यायपूर्ण नहीं है। इस अवस्था में यह निश्चय किया जाना चाहिये कि दत्तक पुत्र के वही अधिकार हैं जो स्वाभाविक पुत्र के । फिर यह मानकर कि गैर कानूनी पुत्र कानूनी पुत्र है और वे स्वाभाविक पुत्रों के साथ रह सकते है। यह देखना चाहिये कि इस प्रकार उनको जायदाद में कौनसा हिस्सा मिलना चाहिये तब उस हिस्से का आधा उन्हें दिला देना चाहिये । महाराजा कोल्हापुर बनाम एस सुन्दरम् अय्यर 48 Mad. 1; A. I. R. 1925 Mad. 497. वफा २५९ दत्तक पुत्र दादाके चचेरे भाईका तथा सपिण्डोंका
वारिस होता है दत्तक पुत्र अपने गोद लेनेवाले बापके पिताके चचेरे भाईकी जायदाद का पारिस है । अर्थात् दत्तक सम्बन्धसे दादाके चचेरे भाईका वारिस होता है-तारामोहन बनाम कृपामई 9 Suth. 423; दत्तक पुत्र गोद लेनेवाले पुरुष का वारिस तो होताही है मगर नीचेके मुकदमेमें यह मानागया कि दत्तक पुत्र तमाम सपिण्डोंका वारिस होता है--पद्मकुमारी बनाम जगतकिशोरी 5 Cal. I. L. R. 615; यह फैसला प्रिवीकौंसिल में भी बहाल रहा देखो-सबनी. मनी पद्मकुमारी बनाम कोर्ट आफ वार्डस 8 I. A. 229; S. C. 8 Cal. 320. दफा २६० दत्तक पुत्र नानाका वारिस होता है
दत्तक पुत्र गोदलेनेवाली माता के खानदान का वारिस होगा यानी माना की सम्पत्ति का वारिस होगा इस विषय में अनेक लोगोंका मत कुछ मिन्न २ होने पर भी आखिरीमें एक ही है। मिस्टर मेकनाटन साहबकी राय है कि दत्तक पुत्र मा की बहनके भाई का वारिस हो सकता है देखो, मेकनाटन हिन्दूला जिल्द २ पेज ८८ इन्हीं सब बातोंसे प्रमाण मिलता है कि दत्तक पुत्र नाना पक्षका उतनाही अधिकारी होता है जितना असली लड़का। दफा २६१ दत्तक पुत्र माके स्त्रीधन और सम्पत्तिका वारिस
होता है दत्तक पुत्रके सबब से गोदलेनेवाली मा अथवा जिसके पतिने गोद लिया हो तो विधवा का अधिकार स्त्रीधनपर वैसाही बनारहता है जैसा कि
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२८३
दफा २५६-२६३ ]
दत्तक लेने का फल क्या है
पहिले था मगर दत्तक पुत्र मा के स्त्रीधन का वारिस होगा - तीन कौड़ी बनाम दीनानाथ 3 Suth 49 बम्बई के पंड़ितोंने भी यहीराय मानी है W. & B. 513.
दत्तक पुत्र उसका भी वारिस होगा जो गोद लेने वाली माने अपने बाप से उत्तराधिकार में पाई हो; दत्तक को औरस पुत्र के समान सब अधिकार प्राप्त होते हैं। इलाहाबाद हाईकोर्टने इस विषयमें तय किया है देखो; श्याम कुंवर बनाम गया 1 All. 256 और देखो उमाशङ्कर बनाम कालीकमल 6 Cal. 256; 10 I. A. 138; S. C. 10 Cal. 232; सरयूकंथ नन्दी बनाम महेशचन्द्र 9 Cal. 70.
सौतेली
मा की जायदादका वारिस
दफा २६२ दत्तक पुत्र नहीं होगा
दत्तक पुत्र सौतेली मा की जायदाद का वारिस नहीं होगा केवल उसी माकी संपत्ति पायेगा जिसने उसे गोद लिया है, और गोद लेनेवाली मा भी दत्तक पुत्रकी वारिस होगी यह बात आगे कहेंगे ।
अन्नपूर्णा बनाम फाब्
189, 23 Mad. I. L. R; 23 I, A: 246.
दफा २६३ क्या दत्तक पुत्रकी निजकी जायदाद उसके
साथ जायगी
दत्तक पुत्रको गोद लेनेसे पहिले अगर कोई जायदाद बतौर वारिस के अलहदा मिली हो तो वह जायदाद दत्तक पुत्रकी बनी रहेगी । बिहारीलाल बनाम कैलाशचन्द्र 1 Cal.W.N.12 (1896) और देखो; इस किताबकी दफा २७७ मगर बम्बई हाईकोर्टने एक मुक़द्दमे में इसके विरुद्ध माना देखो, दत्तात्रेय सखाराम देवली बनाम गोबिन्द शम्भा जी कुलकर्णी (1916) 18 Bom. L. R. 258. मामला यह था कि महादेव और शम्भाजी दोनों भाई अलहदा २ जायदाद के मालिक थे, महादेव मर गया और उसने अपनी विधवा पार्वतीबाई तथा एक पुत्र रामचन्द्र और तीन लड़कियोंको छोड़ा । महादेवके मरने के थोड़े ही दिनों बाद पार्वतीने रामचन्द्रको दत्तक दे दिया, दत्तक देनेके १२ वर्षके पश्चात् पार्वतीबाईने पतिकी जायदाद दत्तात्रेय मुद्दईके हाथ रेहनकर दी मुद्दईने शम्भाजीके दो पुत्रोंपर उस जायदाद पर क़ब्ज़ा पानेकी नालिश की, दोनों पुत्र मुद्दालेह नं० १ और २ हैं । मुद्दालेह ने जवाब में कहा कि पार्वती बाई को रेहन करने का अधिकार नहीं था, तीनों लड़कियोंकी तरफसे रेहन स्वीकार कर लिया गया था ।
अदालत मातहतने मुक़द्दमा डिस मिस किया और पहली अपील में फैसला बहाल रहा दूसरी अपील बम्बई हाईकोर्टके सामने जस्टिस बेचलर
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दत्तक या गोद
[ चौथा प्रकरण
और शाइके इजलासमें पेश हुई, दोनों पक्षों की मार्केकी बहस सुनकर जस्टिस शाहने जोकुछ कहा उसका सार यह था कि - इस मुक़द्दमेमें महादेव और उस का भाई शम्भाजी बटे हुये खानदान में थे, महादेवको मरे हुए२० वर्षसे ज्यादा होका, महादेव के मरने के बाद रामचन्द्र ग्वालियर में एक खानदान में चला गया इस मुक़द्दमेमें जो जायदाद विवादास्पद है वह महादेवकी छोड़ी हुई है और उसका वारिस सिर्फ रामचन्द्र था । दत्तक देने के बाद पार्वती बाईने सन् १९०६ ई० में पतिकी जायदाद दत्तात्रेयके पास रेहन कर दी । अब मुख्य प्रश्न यह है कि दत्तक पुत्र रामचन्द्र जब दूसरे खानदानमें गोद चला गया तो उसका हक़ उस जायदाद पर रहा या नहीं ? दत्तक देनेके बाद रामचन्द्रकी जायदादकी मालकिन उसकी माता पार्वतीबाई हुई क्योंकि हिन्दूलों का सिद्धांत है कि जब लड़का गोद दिया जाता है तो उसकी सिवि - लडेथ, यानी क़ानूनी मृत्यु असली पिताके स्नानदान में होजाती है और उसका पुनर्जन्म गोद लेने वाले के खानदानमें होता है यही बात मनु अध्याय ६ श्लोक १४२ में स्पष्ट की गई है तथा सेक्रेडवुक्स आफ दी ईस्ट पेज ३५५ देखो, जस्टिस शाहने कहा कि - इस मुक़द्दमेमें कोई कठिन बात नहीं है सब तरह से यही नतीजा निकलता है कि दत्तक देनेसे दत्तक पुत्रकी असली बापके खानदानमें क़ानूनी मृत्यु होगई इससे जायदाद भी असली खानदानके नज़arat वारिस को चली जायगी न कि वह जायदाद दत्तक पुत्रके साथ दूसरे खानदानमें जावे पार्वतीबाईको अधिकार प्राप्त था । अपील डिकरी हुआ अदालत मातहतका फैसला मन्सूख और मुक़द्दमा वापिस भेजा गया । यही मुक़द्दमा 40 I. L. R. Bom. P. 429 में भी दिया गया है ।
२६४
पैतृक सम्पत्ति के पूर्णधिकारी का गोद लिया जाना-कुदरती परिवार की जायदाद उसी के वारिसों को मिलती है पिताके वारिसों को नहीं ।
जब कोई ऐसा व्यक्ति जो अपनी पैतृक सम्पत्ति का सम्पूर्ण अधिकारी होता है, गोद लिया जाता है तो हिन्दूलॉ के अनुसार, कुदरती परिवार की सम्पत्ति उसके ही वारिसों को मिलती है उसके पिता के वारिसों को नहीं क्योंकि वह उस जायदाद का अस्तिम पुरुष उत्तराधिकारी होता है-मानिक भाई बनाम गोकुलदास 49 Bom. 520; 27 Bom. L. R. 414; 87 1. C. 816, A. I. R. 1925 Bom. 363.
नोट - इसके पहले जो मुकद्दमें हुये हैं उनमें यह सिद्धांत नहीं माना गया था मदरास लॉ जरनल में इसके बिरुद्ध नोट दिया गया है यह फैसला बम्बई का है दूसरे हाईकोटों में इसका पूरा असर नहीं पड़सकता दत्तक पुत्रकी क़ानूनी मृत्यु असली खानदान में पूर्ण रूप से नहीं होती क्योंकि वह उसमें बिबाह नहीं कर सकता इत्यादि । यह कैसा पूर्णरूप से ठीक नहीं समझा जाता ।
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फा २६४-२६५]
दत्तक लेनेका फल क्या है
२८L.
दफा २६४ गोद लेने वाली मा और सौतेली माके अधिकार
गोद लेने वाली मा वह कहलाली है जिसने खुद गोद लिया हो और सौतेलीमा वह कहलाती है जो दत्तक पुत्रके बापकी दूसरी विधवा हो । सौतेली माका प्रश्न विचारणीय है--जब किसी पुरुष के कई एक स्त्रियां हों और 'दत्तक' पुरुषने लियाहो तो उस पुरुषके मरके बाद बाकी सब विधवायें बराबर दरजे की माताये दत्तक पुत्रकी होती हैं यहांपर बड़ी विधवाके लिये कोई विशेष बात नहीं है। मगर जब पतिके मरजाने के बाद किसी एक विधवाने जिसे पति गोद लेनेका अधिकार दे गया हो अथवा वह विधवा ऐसा अधिकार किसी दूसरे तरीकेसे रखती हो और उसके अनुसार दत्तकपुत्र खुद गोद लिया हो, तो वह विधवा गोद लेनेवालीमा कहलायेगी और बाकी विधवायें सब सौतेलीमा कह लायेंगी। यह प्रश्न और भी जटिल हो जायगा जब कई एक विधवाओंको गोद लेने की इजाज़त हासिल हो और उसके अनुसार सबने गोद लिया हो। ऐसी श्राक्षा देनाही योग्य नहीं होगा जैसाकि ऊपर पहिलेभाग के अन्दर कहा जा चुका है। अनेक विधवाओं की मौजूदगी में एक विधवाके दत्तक लेनेसे बाकी सब विधवाओंका वह पुत्र एकसां लड़का हो जाता है। इस विषयपर महर्षि मनुने स्पष्ट कहा है
सर्बासामेक पत्नीनामेकाचेत्पुत्रिणी भवेत् । सर्वास्तास्तने पुत्रेण प्राह पुत्रवतीर्मनुः-मनुअ०१८३। एक पत्नीकानां सर्वासां स्त्रीणां मध्ये यद्येका पुत्रवतीस्यात्तदा तेन पुत्रेण सर्वास्ताः पुत्रयुक्ता मनुराह । ततश्च सपत्नीपुत्रे सति स्त्रिया न दत्तकादि पुत्राः कर्तव्या इत्येतदर्थमिदम्-कुल्लूकभट्ट ।
जिन सब स्त्रियोंका एक पति है उन सबोंमेंसे किसी एकके पुत्र होनेसे याकी सब स्त्रियां पुत्रवती कहलाती हैं । कुल्लूकभट्टने कहा है कि यह बचन इस लिये कहा है कि सौतिके पुत्र होनेपर स्त्रीको दत्तकपुत्र नहीं करना चाहिये।
___ मनुके बचनके अनुसार मि० मेकनाटन साहेबने कहा है कि जब गोद पतिने न लिया हो और उसकी अनेक विधवाओंमेंसे किसी एकके द्वारा लिया गया हो तो गोद लेनेवाली विधवाके सिवाय बाकी सब विधवायें सौतेलीमा कहलायेंगी देखो; F. Macn. 17I; W. &. B. 1181. दफा २६५ अनेक स्त्रियोंमें गोद लेनेका आधिकार एक स्त्रीकोदेना
मदरास हाईकोर्ट में एक मुकद्दमा इसी तरहका फैसला किया गया जो प्रिषीकौसिलसे बहाल रहा, पतिने दूसरे विवाहकी औरतके साथ एक दत्तक
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दत्तक या गोद
[चौथा प्रकरण
लिया, पहिली औरत उससे अलहदा रहती थी, पतिके मरने के बाद उसका दत्तकपुत्र उसकी छोड़ी हुई सब जायदादका वारिस हुआ, जायदाद तकसीम के योग्य नथी । बादको दत्तकपुत्र बिना औलादके मरा तब दोनों विधवाओंके बीच मुकदमा चला । एक विधवा बहैसियत बड़ी विधवाके दावीदार थी दूसरी बहैसियत दत्तक पुत्रकी माके । हाईकोर्ट मदरासने फैसला उस विधवा के पक्षमें दिया जो दत्तकपुत्रकी माकी हैसियतसे दावा करती थी। प्रिधीकौसिल में यह फैसला बहाल रहा प्रिवीकौंसिलमें यह भी साफ होगया है कि पुरुष अपनी अनेक स्त्रियोंमेंसे एकहीको गोद लेनेका अधिकार दे सकता है-देखो अन्नापुरनाई नचियर बनाम फोरवेस 18 Mad. 277; 26 I. A.. 246; S C. 23 Mad. 1. दफा २६६ सौतेलीमा सौतेले बेटेकी वारिस नहीं होती
सौतेले मा सौतेले बेटेकी वारिस नहीं हो सकती यह राय बङ्गाल और मिताक्षरा स्कूलोंमें मानी गई है उड़ीसा मिताक्षरा का अर्थ यह लगाया गया कि जो मिताक्षरामें सिर्फ मा का हिस्सा स्वीकार किया गया है सौतेली माका ज़िकर नहीं किया गया तो ऐसा मानना चाहिये कि मा शब्द सौतेली माके सम्बन्ध में भी उसी तरह पर लागू होता है। नीचेके मुकद्दमेसे मालूम होता है कि इसी किस्मका एक झगड़ा मिथिला प्रांतमें उठा जिसमें बङ्गाल हाई कोर्टने तजवीज़ कियाकि दायभाग और मिताक्षराके अनुसार सौतेलीमा सौतेले लड़केकी वारिस नहीं हो सकती-लाला जोती बनाम मिस्टर दुर्रानी B. L. R. Sup. 67; S. C. Suth Sp. No. 173. रामानन्द बनाम सरजियानी 16 All. 221. बम्बई प्रांतमें सौतेलीमा गोत्रज सपिण्ड की हैसियतसे समझी जाती है इस लिये उसका हक बड़ी दूर चलकर पहुँचता है देखो-केसरबाई बनाम बलाव 4 Bom. 188; रसूबाई बनाम जुलेकाबाई 19 Bom. 707, मदरासमें भी यही तय किया गया है कि सौतेलीमा पतिके सपिण्डके बराबर वारिस नहीं होती देखो कुमारवालू बनाम विरना 5 Mad. 29; मुदाअम्मल बनाम बिंगलक्ष्मी 32; मारी बनाम चिन्नाश्रमल 8 Mad 107. सिर्फ पांडीचेरी में यह सिद्धांत नहीं माना गया वहांपर मनुके बचनके अनुसार सौतेलीमाका हक्क दूसरी माताओंके बराबर रखा गया है । महर्षि मनुका बचन है कि जब कई एक स्त्रियोंके बीचमें एक लड़का पैदा हो तो शेष सब त्रियां पुत्रवती कहलायेंगी इसीसे सबका वह पुत्र माना जायेगा और सब स्त्रियां उस पुत्रकी माता कहलायेंगी। दफा २६७ सौतेलीमाकैौन कह लायेगी, सौतेला बेटा सौतेली
मा का वारिस न होगा . सौतेलीमा कौन कह लायेगी इस बातका एक अच्छा उदाहरण नीचे की नज़ीरमें दिया गया है। एक भादमीके अनेक त्रियां हैं और उस भादमी
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दफा २६६-२६८ ]
दत्तक लेनेका फल क्या है
मैं उनमें से किसी एक को लेकर लड़का गोद लिया तो जिस स्त्रीके साथ पुरुषने दत्तक लिया वह तो दत्तक पुत्रकी मा कहलायेगी और बाक़ी सब स्त्रियां सौतेली मा कहलायेंगी चाहे वह बड़ी अथवा छोटी स्त्री हो यह बात मालूम होती है कि सौतेली मा सौतेले लड़के की वारिस नहीं हो सकती इसी तरहपर सौतेला पुत्र सौतेली माका वारिस नहीं हो सकता ।
२८७
दफा २६८ द्वामुष्यायनदत्तकमें असली माताका हक
आगे समझाया गया है कि द्वामुष्यायनदत्तक कैसा होता है, देखो दफा २८१ से २९० यहांपर माताके अधिकारको कहते हैं । द्वामुष्यायन दत्तक दो सगे भाइयोंके बीच एकके एकही लड़का हो और दूसरेके कोई लड़का न हो, और वह लड़का इस शर्त के साथ गोद दे दिया जावे कि यह दोनों भाइयों का लड़का रहेगा वह लड़का द्वामुष्यायन है, ऐसे दत्तकको दोनों बापोंकी जायदाद मिलती है और वह दोनों बापोंकी धार्मिक कृत्य पूरा करता है । अब प्रश्न यह है कि द्वामुष्यायन दत्तककी असली माता तथा अन्य नज़दीकी वारिसों के बीच किस तरहपर हक़ माना जाता है ? इलाहाबाद हाईकोर्टने एक ऐसेही मुक़द्दमे का फैसला किया है जिसमें दत्तकपुत्र इस शर्त के अनुसार गोद दिया गया था कि यह पुत्र दोनों बापका लड़का रहेगा, दोनों दूरके रिश्तेदार थे सगे भाई न थे । दत्तक पुत्र, दत्तक लेने वाले बापके मरने के बाद उसकी जायदादका वारिस हुआ और पश्चात् अपनी एक विधवा छोड़कर मरगया, पुत्रके मरनेपर उसकी असली मा ने जायदाद पानेका दावा किया जो उसने छोड़ी थी । दत्तकलेने वाले बापके भतीजेने भी उसी जायदादके बारेमें दावा किया। हाईकोर्टने तजवीज़ किया कि - दत्तककी असली मा जायदाद पाने की अधिकारिणी है क्योंकि इक़रार नामेके अनुसार असली मा के सम्बन्ध में कोई फ़र्क दत्तक से नहीं पैदा हुआ; दूसरे अगर खुद वह जायदाद छोड़कर मर जाती तो दत्तक पुत्र उसका वारिस होता, तीसरे अगर दत्तक लेने वाली मा दोनों ज़िन्दा होतीं तो दोनों बराबर हिस्सेकी मालिक होतीं देखो; बिहारी लाल बनाम शिवलाल 26 All. 472.
उदाहरण - शिवकुमार और रामसेवक दूरके रिश्तेदार हैं। रामसेवक और रामभरोसे सगे भाई हैं। शिवकुमारकी स्त्रीका नाम पार्वतीबाई तथा लड़केका नाम जैदेव है और रामभरोसेके लड़केका, नाम रामचरन है । शिवकुमार ने जैदेवको इस शर्त के साथ रामसेवक को गोद दिया कि यह लड़का दोनोंका लड़का रहेगा तथा दोनोंके धार्मिक कृत्य पूरा करेगा । कुछ दिन बाद रामसेवक मर गये पश्चात् जैदेव सब जायदाद का वारिस बहैसियत दत्तक हुआ, जैदेव गोद लेनेवाली माता (रामसेवककी स्त्री) के मरने के बाद एक विधवा छोड़कर मर गया । तब पार्वतीबाईने जैदेवकी छोडी हुई जाय
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२६८
दत्तक या गोद -
[चौथा प्रकरण
दाद के पानेका दावा किया, यह दावा बहैसियत द्वामुष्यायन दत्तकके था, उधर रामचरणने उसी जायदादके पाने का दावा बहैसियत वारिसके किया। हाईकोर्ट इलाहाबादसे तजवीज़ हुआ कि जैदेवके दत्तक देनेसे पार्बती बाईके पुत्रत्व सम्बन्ध में कोई फ़रक नहीं पड़ा था क्योंकि इकरारनामा होचुका था कि वह दोनों का लड़का रहेगा। और अगर पार्वतीबाई पहिले मर जाती तो जयदेव वारिस होता तथा दोनों माताओंके जीतेजी अगर जैदेव मरजाता तो दोनों बराबरकीवारिस होती ऐसी हालतमें रामचरण के विरुद्ध फैसला किया। अर्थात् जैदेव की जायदाद पार्वतीबाई को मिलेगी नकि रामचरण को
शिवकुमार ___रामसेवक
रामभरोसे । । । पार्वती बाई जयदेव स्त्री जयदेव
रामचरण (स्त्री)
(दत्तकपुत्र ) नोट-स्मरण रहे कि पिताके पहिले माताका अधिकार पैदा होता है यानी माता और पिता के जीवनमें पहले जायदाद माताको मिलती है पीछे पिताको । पितरौ-माताचपिता व पितरौ ( द्वंद ) इस समाससे माताका हक पहले माना गया है । दफा २६९ जायदादमें दत्तक पुत्रका कितना भाग होगा
यह निश्चय करनेमें कि दत्तक पुत्रका जायदादमें कितना भाग मिलेगा पहिले यह जानलेना चाहिये कि दत्तक अपने दरजेके अनुसार भाग पानेका अधिकारी है। दत्तकका दर्जा उस वक्त बदल जाता है जब दसक लेनेके पश्चात् असली पुत्र पैदा होजावे । ऐसी दशामें दत्तक ( यदि सब तरहसे योग्य हो) का जायदादमें भाग, प्रत्येक स्कूलमें और शामिल शरीक अथवा गैर शामिल शरीक भाइयोंके साथ तथा द्वामुष्यायन दत्तकके होनेपर जब औरस पैदा हो जाय, एवं अनेक इसी तरह की घटनाओंके उपस्थित होनेपर बदलता रहता है संक्षपसे सबकी मीमांसा क्रमानुसार नीचे की गई है। दफा २७० दत्तक लेनेके बाद यदि एक असली लड़कॉपैदाहो
' जाय तो दत्तकको कितना हिस्सा मिलेगा ? । बङ्गाल स्कूल--बङ्गाल स्कूलके अनुसार तीसरा हिस्सा मिलेगा। बनारस स्कूल-बनारस स्कूलके अनुसार चौथाई हिस्सा मिलेगा। बम्बई स्कूल--बम्बई स्कूलके अनुसार पांचवा हिस्सा मिलेगा। मदरास स्कूल--मदरास स्कूलके अनुसार भी पांचवा हिस्सा मिलेगा
मगर शूद्रोंमें बराबर हिस्सा मिलना स्वीकार किया गया है।
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दफा २६६-२७० ]
दत्तक लेनेका फल क्या हैं
( १ ) दत्तक और औरस पुत्रके भागमें धर्मशास्त्रकारोंकामत -- धर्म - शास्त्रोंमें दत्तक पुत्रका भाग विवेचन करनेमें मतभेद हैं कोई दत्तक पुत्र का भाग औरस पुत्रके होने पर बराबर मानते हैं और कोई न्यूनमानते हैं । मनु दत्तक पुत्रके भागको दूर चलकर स्वीकर करते हैं, कात्यायन, बौधायन आदि ने दत्तक का भाग कहा हैं परन्तु दोनोंमें कुछ अन्तर है, नीचें स्पष्ट बचनों को उद्धृत करते हैं जिनसे दत्तक का भाग साफ जाना जाता है यह स्मरण रहे कि जिन ग्रन्थोंका हम नीचे प्रमाण देते हैं वह बनारस स्कूल के अन्तर्गत हैं बङ्गाल में दायभाग माना जाता है । दाय भाग में यानी तिहाई ን हिस्सा दत्तकका स्वीकार किया गया हैं । बम्बई और मदरास में मान्य ग्रन्थों का विषय स्कूल के सम्बन्धमें पहले वर्णन कर दिया गया है देखो; प्रथम प्रकरण दफा २३.
कात्यायन | उत्पन्ने त्वौरसे पुत्र तृतीयांशहराः स्मृताः । सवर्णा सर्वास्तु ग्रासाच्छादनभागिनः । " चतुर्थांशहराः स्मृता " इति - द्वितीय चरणे क्वचित्पाठः । वसिष्ठः - तस्मिश्चेत् प्रतिगृहीते औरस उत्पद्यते स चतुर्थ भागभागी | दत्तक मीमांसायाम् - तस्मिन् दत्तके प्रतिगृहीते यद्यौरस उत्पद्यत तदा दत्तकचतुर्थांशं लभेत न समांशमित्यर्थः । धर्मसिंधुदत्तकगृहणोत्तर मौरसेंजाते दत्तकचतुर्थांश भागी न समभागी । मिताक्षरायां तथोक्तेः ।
२८६
भावार्थ-- कात्यायनने कहा है कि जब दत्तक पुत्र लेनेके पश्चात् औरस पुत्र पैदा हो जावे तो दत्तक तीसरे हिस्सेका भागी होता है और औरस पुत्र दो हिस्सोंका । यह बात बंगाल स्कूलमें मानी गई है मगर इसी श्लोकके अन्तिम पदका पाठ ऐसा भी मिलता है, कि दत्तकपुत्र एक चौथाईका भागी होगा तथा औरस तीन हिस्सेका । यह पाठ बनारस स्कूल में माना गया है मंगर शर्त यह है कि वह दत्तकपुत्र सवर्ण होना चाहिये, और यदि असवर्ण होगा तो सिवाय रोटी कपड़ा के और उसे जायदाद में भाग नहीं मिलेगा । वसिष्ठी कहते हैं कि यदि दत्तकके पश्चात् औरस होजाय तो दत्तकको एक चौथाई भाग मिलेगा; एवं औरसको तीन चौथाई । दत्तक मीमांसाकारने भी यही कहा है कि दत्तकके बाद असली लड़का पैदा होनेपर दत्तकका भाग एक चौथाई और असली लड़केका भाग तीन चौथाई मिलेगा और यह साफ कहा
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२६०
दत्तक या गोद
[चौथा प्रकरण
है कि दोनोंका भाग बराबर नहीं होगा। इसी बातकी पुष्टी धर्मसिन्धु तथा मिताक्षरामें भी की गई है।
ऊपरके बचनोंपर विचार करनेसे यह मालूम होता है कि अगर पिताने जायदाद चार हज़ार की छोड़ी और दत्तकपुत्र तथा एक औरस पुत्र भी छोड़ा तो दत्तक को एक हज़ार की, और औरस पुत्रको तीन हज़ार की जायदाद मिलेगी ऐसा बनारस स्कूल के अन्तर्गत विभाग होगा यदि औरस पुत्र एकसे ज्यादा होतो विभाग कैसा होगा? यह प्रश्न आगे कहा गया है। परन्तु धर्मशास्त्रानुसार यह प्रतीत होता है कि जितना हिस्सा औरस पुत्रका नियत किया गया उसीके बराबर सभी औरस पुत्रोंका हिस्सा मिलेगा। दूसरी बात और यह उपस्थित होती है कि, अगर कुल जायदादमेंसे एक चौथाई भाग दत्तकको मिलजायगा, तो बाकी हिस्सेमें दूसरे हक़दार भी शामिल होंगे, या नहीं हो सकेंगे ! इन सब प्रश्नोंका उत्तर आगे क्रमसे देखियेः
(२) बङ्गाल स्कूलमें दत्तकका हिस्सा कितना माना गया है--दत्तकपुत्र के गोद लेनेके बाद जब असली लड़का पैदा हो जाये तो दोनों लड़कोंके बीच गोद लेनेवाले पिताके मरनेपर जायदाद इस तरहसे तकसीम होगी।
बङ्गाल स्कूलके अन्तर्गत जायदाद तीन बराबर हिस्सों में तकसीम करके दो हिस्से असली पुत्र पावेगा और एक हिस्सा दत्तकपुत्र । यानी दत्तक पुत्र का दुगुना असली लड़केको मिलेगा देखो; दायकर्म संग्रह ७-२३; डवलू मेकनाटन हिन्दूला जिल्द १ पेज ७० तथा जिल्द २ पेज १८४, और देखो एफ मेकमाटन कन्सीडरेशन आन हिन्दूला पेज १३७; तारामोहन बनाम कृपामई 9 Suth 423 जैनियों में भी यही माना गया है--रुखल बनाम चुन्नीलाल 16 Bom. 347.
(३) बनारस स्कूल में कितना मिलेगा--बनारस स्कूलके अन्तर्गत जायदाद चार बराबर हिस्सोंमें तक़सीम होकर तीन हिस्से असली पुत्रको और एक हिस्सा दत्तकपुत्रको मिलेगा; यानी दत्तकका तिगुना हिस्सा असली पुत्रको मिलेगा--बङ्गाल स्कूलकी नज़ीरें देखो।
(४) मदरास स्कूलमें कितना मिलेगा--मदरास स्कूलके अन्तर्गत जायदाद पांच बराबर हिस्सोंमें तक़सीम होकर दत्तकपुत्रको एक हिस्सा और असली पुत्रको चार हिस्सोमें मिलेगी यानी दत्तकका चौगुना हिस्सा असली लड़केको मिलेगा; देखो-एय्याव बनाम नीलादराची 1 Mad. H. C. 45 गिरिअप्पा बनाम निनगप्पा 17 Bom. 100.
(५) बम्बई स्कूलमें कितना मिलेगा--मदरास स्कूलके अनुसार बम्बई स्कूलके अन्तर्गत जायदाद पांच हिस्सोंमें बराबर तक़सीम होकर, उस मेंसे एक हिस्सा दत्तकपुत्रको और चार हिस्से, असली लड़केको मिलेगीनज़ीरें मदरासस्कूलकी देखो और देखो दफा २८९.
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दफा २७१ ]
दत्तक लेनेका फल क्या है
२६१
दफा २७१ दत्तकके बाद जब असली लड़के एकसे ज्यादा हों
तब दत्तकको कितना हिस्सा मिलेगा प्रश्न यह उपस्थित होता है कि, जब दत्तक लेनेके पश्चात् असली लड़के दो या तीन या अनेक पैदा होगये हों तो गोद लेने वाले पिताके मरनेपर उन पुत्रोंके बीच जायदाद किन हिस्सोंमें बॉटी जायगी?
(१) बङ्गाल स्कूल-बंगाल स्कूलके अनुसार हर एक असली लड़के को दत्तक पुत्रसे दूना हिस्सा मिलेगा यानी अगर दो लड़के और एक दत्तक पुत्र हो तो, कुल जायदाद पहिले पांच हिस्सों में बराबर विभाग करके दो, दो, हिस्से तो दोनों असली लड़कोंको,और एक हिस्सा दत्तक पुत्रको मिलेगा; एवं तीन असली लड़कोंके होनेपर जायदाद सात हिस्सों में विभाग करके तीनोंको दो, दो हिस्से तथा दत्तकको एक हिस्सा मिलेगा इसी तरह पर जितने असली लड़के होंगे उन सबको दो, दो, हिस्से मिलेंगे और दत्तक को एक हिस्सा । अर्थात् ३ हिस्सा मिलेगा।
(२) बनारस स्कूल--बनारस स्कूलके अनुसार हरएक असली लड़के को तीन हिस्से और दत्तकको एक हिस्सा मिलेगा यानी अगर दो असली लड़के होंगे तो जायदाद सात हिस्सोंमें बराबर तकसीम होकर दोनों पुत्रोंको तीन, तीन हिस्से और दसकको एक हिस्सा मिलेगा एवं तीन असली पुत्रोंकी मौजूदगीमें जायदाद दस बराबर हिस्सोंमें तकसीम होकर, असली तीनों पुत्रोंको, तीन तीन हिस्सोंमें और दत्तकको एक हिस्सेमें मिलेगी इसी तरहपर जितने असली लडके होंगे उन्हें हरएकको जायदाद तीन हिस्सों में मिलेगी तथा दत्तकको एक हिस्सेमें अर्थात् ! हिस्सा दत्तक को मिलेगा। .
(३) मदरास स्कूल --मदरास स्कूलके अनुसार हरएक असली लड़के को चार हिस्सा और दत्तक पुत्रको एक हिस्सा मिलेगा यानी अगर दो लड़के असली होंगे तो जायदाद नव हिस्सोंमें बराबर बांटी जायगी, उसमेंसे चार चार हिस्सा दोनों असली लड़कोंको मिलेगी और एक हिस्सा दत्तकको, अगर तीन असली लड़के होंगे, तो जायदाद तेरह हिस्सोंमें बराबर बांटी जायगी, फिर असली तीनों लड़कोंको चार चार, हिस्से और दत्तकको एक हिस्सा मिलेगा । अर्थात् ३ हिस्सा दत्तकको मिलेगा।
(४) बम्बई स्कूल--जैसा ऊपर मदरास स्कूल का हिस्सा बताया गया है उसीके अनुसार बम्बई स्कूलका हिस्सा माना गया है। यानी हरएक असली लड़केको जायदाद चार हिस्सोंमें मिलेगी तथा दत्तक पुत्र को एक हिस्सेमें।
हिन्दुस्थानके पश्चिमी हिस्सेमें कुछ कौमें ऐसी हैं जिनमें दत्तक पुत्रको हिस्सा पिताकी सम्पत्तिमें कभी एक तिहाई कभी एक चौथाई कभी आधा
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२६२
दत्तक या गोद
[चौथा प्रकरण
कभी कुछ नहीं मिलता है जबकि दत्तकके बाद असली लड़का पैदा हो जावे । उनमें पिताको अधिकार है कि असली पुत्र होनेपर दत्तकको निकाल दे या जो चाहे करे । और देखो दफा २८१.
दत्तक पुत्र और बादमें पैदा हुएपुत्र-बम्बई प्रांतमें दत्तक पुत्रको गोदके बाद पैदा हुए पुत्रके मुताबिले में एक चौथाई हिस्सा मिलता है । तुकराम बनाम रामचन्द्र 49 Bom. 612; 89 I. C. 984; 27 Bom. L R. 921. A. I. P. 1925 Bom. 425. दफा २७२ शूद्रोंमें दत्तकपुत्र और असली लड़केके हक़ - दत्तकचन्द्रिकायाम्-दत्तपुत्रे यथा जाते कदाचित्त्वौरसो भवेत् । पितुर्वित्तस्य सर्वस्य भवेतां सम भागिनौ । इत्यपि वचनं शूद्रविषये एव योजनीयम् । शूद्रस्य तु सवर्णैव नान्या भायापदिश्यते । तस्यां जाता समांशः स्युर्यदि पुत्र शतं भवेत् । इत्यत्र वचने शूद्राणां भार्योत्पन्नानां सर्वेषां समाशमभिधाय पुनयदि पुत्र शतभित्यनेन पुत्रान्तराणामपि समां शता प्रतिपादिता।
भावार्थ--दत्तकपुत्रके लेने के बाद यदि औरसपुत्र पैदा होजाय तो गोद लेनेवाले पिताका धन दोनों पुत्र वराबर में बांट लेवे, यह वचन सिर्फ शूद्रोंके विषयमें कहागया है औरसपुत्रसे तात्पर्य यह है कि जब वह पुत्र उस स्त्रीसे पैदा हआ हो जो सवर्ण की होः उस पत्रके बारेमें आधा भाग पाना कहागया है और अगर दत्तकके बाद एकसे अधिक पुत्र औरस पैदा होजावे तो सब पुत्र दत्तक सहित बराबर भाग पाने के अधिकारी हैं 'शतं' शब्दसे 'अनेक, का अर्थ होता है, मतलब यह है कि, कितनेभी औरस पुत्र, दत्तकके पश्चात् पैदा हो जायें सब पुत्र बराबर भाग पानेके अधिकारी हैं; दत्तकमीमांसाकार इसको और तरहपर कहते हैं कि जब औरस पुत्र में अच्छे गुण न हों तो आधा भाग मिलेगा।
(१) मद्रास हाईकोर्ट और बाबू श्यामाचरणकी राय-मदरास हाईकोर्ट में माना गया है कि, शूद्रोंमें दत्तक के पश्चात् पैदा हुए औरसपुत्रके दरमियान जायदाद दोनों बराबर पावेंगे; यही राय मिस्टर मेकनाटन साहेबकी है मि० थामससाहेब कहते हैं कि, दक्षिणी हिन्दुस्थानके शूद्रोंमें यही प्रचार है: मि. गिलबन साहेब कहते हैं कि, यही बात पांडीचरीमें भी मानी गई है; सीलोन
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दफा २७२-२७४ ]
दत्तक लेने का फल क्या है
के उत्तर भागमें यही माना जाता है । बाबू श्यामाचरण कहते हैं कि बङ्गाल में भी केवल शूद्रोंमें यह बात मानी जाती है ऊंचे दरजेकी क़ौमोंमें नहीं मानी जाती- देखो राजा बनाम सव राया 7 Mad. 253 हनूमानतम्मा वनाम राम रद्दी 4 Md. 272 मदरास हाईकोर्टने यहभी माना है कि जब जायदाद अगर कोई ऐसी हो जो तक़सीम नहीं हो सकती, तो वह औरस पुत्रहीके हक़ में आवेगी देखो -- रामासामी बनाम सुन्दरा लिङ्गसामी 17 Mad. 435.
२१३
(२) मि० घारपुरे कीराय -- घारपुरे हिन्दूला तथा मुल्ला हिन्दूलॉ का सिद्धांत भी यही है कि, शूद्रोंमें सब लड़के बराबर भाग पानेके अधिकारी हैं अगर और कोई बात इसके विरुद्ध न हो-- देखो घारपुरे हिन्दूलॉ पेज ६५. दफा २७३ असली लडके की मौजूदगी में दत्तक पुत्रके लड़के का हिस्सा
जब दत्तकके पश्चात् असली लड़के पैदा होगये हों और बापके मरनेके बाद तथा जायदाद में हिस्सा पानेके पहिले दत्तकपुत्र एक लड़का छोड़कर मरे गया हो तो, दत्तकके लड़केका जायदादमें भाग पानेका अधिकार उससे ज्यादा नहीं होगा जितना कि, उसके बापको था और अगर दत्तकपुत्र एकसे अधिक लड़के छोड़कर मरा हो तो सब लड़के बराबर के अधिकारी होंगे जितना कि हक़ उनके बापका रहा हो ।
उदाहरण -- शिवलालने अमृतको गोद लिया और पीछे उसके गणेशलाल, गणेशदत्त, गणनाथ तीन लड़के पैदा हुए। अमृत के दो लड़के पैदा हुए एक रामगोपाल, दूसरा रामानन्द । अमृत शिवलालके मरनेके बाद मरगया । अब जायदाद इसतरहपर तक़सीम होगी कि बंगाल स्कूलके अनुसार रामगोपाल और रामानन्दको कुल जायदादका सातवां भाग और बनारस स्कूल केअनुसार दसवां भाग तथा मदरास व बम्बई स्कूल के अनुसार तेरहवां भाग मिलेगा अर्थात् जो भाग उनके पिताको मिलता वही भाग इनको मिलेगा उस भागमें दोनों बराबर के हिस्सेदार होंगे। अगर अमृतने पहिले किसी लड़केको गोद लिया होता और पीछे उसके असली लड़काभी पैदा होगया होता तो जो भाग अमृत को मिलना चाहिये था उस भाग में स्कूलोंके अन्तर्गत उसी तरहपर भाग होंगे जैसा कि, ऊपर वर्णन किया जा चुका है ।
दफा २७४ शामिल शरीक कुटुम्बमें दत्तकका भाग
जब खानदान शामिल शरीक हो और गोद लेनेवाला पिता अपने भाइयों के शामिल शरीक रहता हो ( कोई भाई दत्तकके नहीं ) तो दत्तकपुत्र को जायदाद में उतना हिस्सा मिलेगा जितना कि, उसे औरसपुत्र होनेकी हालत में मिलता ।
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२४
उदाहरण-
दत्तक या गोद
२
१
शिवदुलारे लाल
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३
मनोहरलाल सूर्य्यप्रसाद रामचरण
६ I ७
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५.
[ चौथा प्रकरण
लक्ष्मीनारायण
११ ।
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सुखराम महादेव हरिशङ्कर रामदास बृजकिशोर परशुराम शिवराम
( दत्तक )
हरिशङ्कर दत्तकपुत्रने, नम्बर १, २. ३, ४, और ५ के मरनेपर बनारस स्कूलके अनुसार जायदाद बटा पाने का दावा व मुक़ाबिले नबम्बर ६, ७ ६, १०, ११ और १२ के दायर किया । खानदान शामिल शरीक है । अदालतसे नम्बर ८ मुद्दई का हिस्सा यानी कुल जायदादका चौथा हिस्सा मिलेगा क्योंकि सूर्यप्रसाद अगर बटवारा करता तो उसे चौथाई हिस्सा मिलता । इसी तरह पर प्रत्येक स्कूल के अनुसार समझ लेना ।
कलकत्ता हाईकोर्ट से इसी तरहका एक मुक़द्दमा फैसला हो चुका है, जिसमें दत्तक पुत्रने गोद लेनेवाले पिताके सगे और शामिल शरीक भतीजोंके मुक़ाबिलेमें बटवारेका दावा किया था जिसमें प्रारंभिक अदालतसे लेकर हाईकोर्टतक दत्तकका हक़ उसी क़दर स्वीकार किया गया जितना कि उसके बाप का होता देखो, रघुनन्दनदास बनाम साधूचरण 4 Cal. 425.
दफा २७५ मदरासमें दत्तकपुत्र असली लड़के का वारिस होता है
जब किसीने दत्तकपुत्र और असली लड़केभी मरने के बाद छोड़े हों और जायदादका बटवारा क़ानूनके अनुसार हो गया हो पीछे असली लड़का लावल्द मरगया हो, ऐसी सूरत में मदरास हाईकोर्ट ने तजवीज़ किया है कि दत्तकको उत्तराधिकार के अनुसार असली लड़केकी जायदाद सब मिलेगी देखो 1 Mad. H. C. 49 Note. मगर बङ्गाल और बनारस में ऐसा नहीं माना गया है, वहां पर उत्तराधिकार उसी तरहपर चलेगा जिस तरहपर कि मिताक्षराके अनुसार होना चाहिये अर्थात् वेटा, विधवा, वेटी वग़ैराके न होने पर दूसरी शकल होगी देखो, प्रकरण ६.
दफा २७६ गोद देने में लड़का असली कुटुम्बसे ख़ारिज हो जाता है
दत्तक पुत्रका अधिकार दत्तक होनेके कारण असली बापकी जायदाद में नहीं रहता, वह ऐसा माना जाता है कि मानो वह उस नामदानमें पैदाही
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दत्तक लेने का फल क्या है
दफा २७५ - २७७ ]
महीं हुआ था इसलिये जिसके वह गोद लिया जाता है यह माना जाता है कि वह असली लड़केका स्थानापन्न है । दत्तकका सम्बन्ध दत्तक लेनेवाले पिताकी हैसियत से, दत्तकके असली खानदान वालोंके साथ होता है मगर खूमका सम्बन्ध नहीं टूटता इसी सबब से दत्तकपुत्र न तो अपनी शादी उस खानदान से कर सकता है और न गोद ले सकता है जिस हालत में कि वह गोद दिये जानेके पहिलेभी नहीं कर सकता था । इस विषयको विस्तार के साथ पहिले कह चुके हैं देखो; दफा १३८; १३६.
२६५
दफा २७७ दत्तक पुत्रको असली कुटुम्बकी जायदाद में कब हिस्सा मिलेगा
दत्तकपुत्रको अपने असली खानदानमें उस जायदादका हिस्सा मिलेगा, जो गोद लेनेवाले पिताको किसी तरह से पहुँचती थी, मगर दत्तक सिर्फ उतना ही हिस्सा पायेगा ज्यादा नहीं जितना कि, उसके दत्तक पिताको मिलता। और देखो इस किताब की दफा २६३.
असली बाप का हक़, अधिकारों के परिवर्तनका -- सुद्दईने नालिश किया कि वह अमुक व्यक्ति का दत्तक पुत्र है जिसने अपनी स्त्री के हक़ में एक हिबा - मामा कर दिया है जोकि नाजायज़ है । मुद्दईकी नाबालिगी की अवस्था में, मुद्दई के कुदरती पिता ने बहैसियत नावालिग के वली के इसी प्रकार की नालिश की थी किन्तु अदालत की इजाज़त से समझौता हो गया, जिसके अनुसार मुद्दई को एक मकान और कुछ ज़मीनात मिली थी और बाक़ी जायदाद से उसने अपना अधिकार त्याग दिया था । मौजूदा नालिशमें मुद्दई ने वली पर असावधानी का दोष इस बिना पर आरोपित किया है कि वह हिवः नामे को नाजायज़ साबित करनेमें असफल रहा है जिसे कि वह इस कारणपर कि हिबानामे में धोखा दिया गया है क्योंकि रजिस्टरी में लिखी हुई जायदाद में, कुछ ज़मीन ऐसी भी शामिल कर दी गई है जोकि उसके गोद लेने वाले पिता की नहीं है । और बेईमानी से उसकी रजिस्ट्री करा ली गई है । उसने यह भी अभियोग लगाया है कि उसके गोद लिये जाने के पश्चात् उसके कुदरती पिता को पूर्व नालिश में बतौर वली के कार्यवाही करने और समझौता करने का अधिकार न था ।
तय हुआ कि (१) समझौते के समय अर्थात् सन् १९०८ई० में यह क़ानूनी समझा जाता था कि कोई रजिस्ट्री इस कारण से नाजायज़ न हो सकती थी कि उस में वर्णित जायदाद का कोई भाग रजिस्ट्री के न्यायाधिकार की सीमा के अन्दर न थी वली इस प्रकार की दलील न पेश करने या क़ानून के परिवर्तन को पहिले ही से न जान सकने के कारण असावधानी का अभियोगी नहीं हो
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२६६
दत्तक या गोंद
[चौथा प्रकरण
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संकता। (२) कुदरती पिता ही नाबालिग का उसके अधिकारों को उसके विरोधियों पर स्थापित करने के लिये सब से अच्छा वली हो सकता है। (Spencer & Odgers J J. ) गारीमेल्ला अन्नापुरनय्या बनाम वेंकटसुन ह्मण्यम् 22 L. W. 560; A. I. R. 1925 Mad. 1285; 49 M. L.J. 589. दफा २७८ जब ब्याहा या संतानवाला लड़का गोद लिया
गयाहो, तो उसके लड़केका हक़ जहांपर ब्याहा और सन्तानवाला लड़का गोद लेना जायज़ है अगर ऐसा लड़का गोद लिया गया हो, जिसके लड़का और स्त्री मौजूद हो । तो दत्तक पुत्र का लड़का अपने असली दादा के कुटुम्बमें रहेगा और अपने सगे दादाकी जायदाद पावेगा उसे नये कुटुम्बसे कुछ सम्बन्ध नहीं होगा । दत्तक पुत्र की स्त्री साथ जायेगी। अगर कोई ऐसा लड़का हो जो मातासे जुदा नहीं हो सकता हो तो उसकी दूसरी सूरत होगी, जैसा उस वक्त सहूलियत हो 33 Bom. 669. दफा २७९ इक़रारका असर जब बालिग पुत्रने गोद जानेसे
पहिले किया हो जब किसी विधवाने बालिग़ दत्तकपुत्र लिया हो और दत्तकके पेश्तर उससे यह इक़रार साफ और योग्य रीतिसे करलिया हो कि, उसे इतने हक से अधिक जायदादमें हक़ नहीं दिया जायगा जो विधवाके पास है, तो दत्तक पुत्र उसका पाबन्द रहेगा और इक़रारके अनुसार जायदाद पावेगा। यह कायदा वहांपर लागू होगा जहांपर बालिग पुत्र, दत्तक लेना जायज़ माना गया है । दफा २८० गोदलेनेसे पहिले इकरारका असर
___ यदि कोई विधवा, नाबालिग और योग्य दत्तकपुत्र लेवे और उस दत्तक पुत्रके असली बापके साथ इस क्रिस्मका कोई इक़रार करे कि, वह दत्तक पुत्र -इतनी जायदादसे अधिक पानेका अधिकारी नहीं होगा अथवा दूसरी कोई शर्त करे पीछे गोद लेवे, तो दत्तकपुत्र उस इकरारका सिर्फ उसी क़दर पाबन्द होगा जहांतक कि, यह साबित हो कि, वह अज्ञानके लाभके लिये लिखा गया था और किसी बदनीयती या चालाकी या और किसी खराब इरादे से नहीं लिखा गया था । देखो 19 Bom. 36, 41; 27 Mad. 577; 11 Bom. H. C. 199; 6 I. A. 1963 2 Mad. 91. अगर कोई ऐसा इक़रारनामा लिखा गया हो जैसा कि ऊपर बयान किया गया है तो दत्तकपुत्र बालिरा होनेपर उसे मन्सून करासकता है और अगर वह मन्सूखी का दावा न करे तो समझा जायगा कि, उसे भी मजूर है और फिर उसकी पावन्दी उसपर लाज़िम
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दफा २७८-२८०]
दत्तक लेनेका फल क्या है
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होगी ऐसे इकरारनामें की मन्सूखी की मियाद तीन सालकी होगी। और यह मियाद बालिग होनेके वक्तसे शुरू होगी। यह ध्यान रहे कि ऐसी नालिशके देर करने में अगर कोई योग्य कारण न हो तो ख्याल किया जासकता है कि देर होने की वजेह कोई दूसरी थी जिसका असर वादीके विरुद्ध होगा औरदेखो, इस किताबकी दफा ८६.
____ गोद लेने वाले पिता और स्वाभाविक पिता के मध्य का इकरारनामा, जिसके द्वारा गोद लेने वाले को इच्छानुकूल अपनी जायदाद को प्रबन्ध करने का अधिकार दिया गया हो, दत्तकपुत्र पर लाजिमी नहीं है। पारवतीबाई बनाम विश्वनाथ 27 Bom. L. R. 1509.
ऐसे गोद लेने वाले पिता जिसेकि अपनी रियासत के इन्तकाल का पूर्ण अधिकार है और स्वाभाविक पिता के मध्य का इकरारनामा-गोद लेने वाले पिता द्वारा किसी ऐसे इन्तकाल या वसीयत का, जो कि दत्तक पुत्र के हित के लिये किया गया हो दत्तक पुत्र पर लाज़िमी होगा । इस अवस्था में अदालत को महज़ यह देखना चाहिये, कि आया वह मामला दत्तक पुत्र के लिये लाभदायी है या नहीं। इस बातके लिये कोई कारण नहीं है कि अदालत इस बात पर विचार करे कि पाया दत्तक लेने के पश्चात् उसे इस प्रकार का मामला करने का अधिकार था या नहीं। हिन्दू पिता का अधिकार अपने पुत्र को गोद लेने के लिये, पुत्र, के किसी हित के मातहत नहीं है । कृश्नमूर्ति अय्यर बनाम कृष्णमूर्ति अय्यर (1925) M. W. N.632385 I. C. 8823 A. I. R. 1925 Mad. 9827 49 M. L. J. 252. .. कुदरती पिता-अपने पुत्र के वली की तरह काम करने का अधिकार गोद लेने वाले पिता द्वारा हिवः नामे के इस्तकरार की नालिश का नाजायज़ होना-समझौता-उसका परिणाम-यदि इससे बादकी नालिश पर असर पड़ता है-क़ानून रजिस्ट्रेशन में छल के साबित करने में असफलता-आया असावधानी है--गरीमेला अन्ना पुनय्या बनाम वेंकट सुह्मण्यम् 91 I. C. 7427 A. I. R. 1925 Mad. 1288.
असली पिता और गोद लेने वाले पिता के मध्य इस सम्बन्ध का इन रारनामा कि गोद लेनेवाले पिता को पूर्ण अधिकार होगा, कि खानदानी जायदाद का, बटवारा जिस प्रकार उचित समझे प्रबन्ध करे-पाया इकरारनामे की पाबन्दी दत्तक पर है ? पारतीबाई बनाम विश्वनाथ 92 I. C. 4, A. I. R. 1926 Bom. 90. .
एक जैन ने किसी व्यक्ति को गोद लिया । दत्तक ने एक इकरारनामा लिखा, जिसके द्वारा उसने विधवा के भाई को कुछ रकम देना मजूर किया विधबा के भाई ने इकरारनामे की बिना पर दत्तक पर नालिश किया तय
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२१८
दत्तक या गोष
[चौथा प्रकरण
हुआ ( Per Muker J. J.) कि जैनियों में गोद का लेना महज़ एक रिवाज है वह कोई आत्मिक आवश्यकता नहीं है और एक विवाहित मनुष्य भी दत्तक लिया जासकता है। इकरारनामा नाजायज़ नहीं है और कानूनी अदालत में काबिले तामील है। ___Sir Lindsay J. हिन्दू विधवा जो अपने पति के लिये दत्तक ले रही हो, अपने पति की जायदाद से, दत्तक द्वारा अपने किसी सम्बन्धी या दत्तक से अपरिचित व्यक्ति के लिये कोई शर्त नहीं करा सकती। इस प्रकार की शर्त की तामील का हुक्म देना विधवा द्वारा अन्य प्रकार से उस कार्य के करने इजाज़त देना है, जिसे कि हिन्दू लॉ उसे सीधे तरीके पर करने कीआज्ञा नहीं प्रदान करता; अतएव इस प्रकार का इकरारनामा तामील के योग्य नहीं है। मित्र सेन बनाम दत्तराम 87 1. C. 724; A. I. R. 1926 All. 7.
(७) दामुष्यायन दत्तक भार अन्य जरूरी बातें
दत्तक विषयका सातवां भाग दो हिस्सों में बटा है ( क ) द्वामुष्यायनदत्तक दफा २८१-२९२ (ख) दत्तक संबंधी अन्य जरूरत बातें दफा २९३-३२१.
(क) दामुष्यायन दत्तक
दफा २८१ हामुष्यायन दत्तक
ऊपर जितने प्रकार के गोद कहे गये हैं उन सबमें दत्तक पुत्र अपने . असली बापकेखानदानसे अलाहिदा होजाता है और नये खानदानमें चलाजाता है मगर एक किस्म गोदकी वह है जिसमें लड़केका सम्बन्ध दोनों खानदानों में बराबर बना रहता है और वह दोनों खानदानों का लड़का कहलाता है तथा दोनोंकी संपत्ति का वारिस होता है उस गोद को द्वामुष्यायन कहते हैं द्वामुष्यायन दत्तक आम दत्तक नहीं हैं । जब दो सगे भाइयों के बीचमें एक भाई के एक ही लड़का हो और दूसरेके कोई न हो, तथा उसे यह रञ्ज हो कि मेरा धार्मिककृत्य कौन पूरा करेगा, लड़के वाला भाई राज़ी होकर अपने दूसरे भाई को जिसके कोई नहीं है अपना लड़का इस शर्त के साथ गोद देवे, कि, यह लड़का दोनों भाइयोंकी धार्मिक कृत्य पूरा करेगा तथा दोनों की जायदाद पावेगा तो वह द्वामुष्यायन पुत्र है देखो, इस किताब की दफा १६८.
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दफा २८१-२८२]
हामुण्यायन इत्तक
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दफा २८२ द्वामुष्यायनकी रवाज नियोगसे चली है
द्वामुष्यायनकी रवाज नियोग परसे चली मालूम होती है। प्राचीन ग्रन्थोंके देखने से पता लगता है कि, पहिले जब किसी के लड़का न होता था तो दूसरे पुरुषद्वारा गर्भाधान कराया जाता था, नियोगकी विधि अनेक स्मृतिकारों ने वर्णन की है। महर्षि मनुने कहा है कि सन्तान के न होने से स्त्री अपने देवर अथवा अन्य सपिण्डसे एक पुत्र सन्तान के वास्ते पैदा करे। नियोगके विषयमें स्मृतियों के कुछ वचन नीचे देते हैं । इसके पहले दफा ८७--८८ भी देखो।
(१) मनु-देवरादा सपिण्डादा स्त्रिया सम्यङ् नियुक्तया । प्रजेप्सिताधिगन्तब्या संतानस्य परिक्षये ॥ विधवायां नियुक्तस्तु घृताक्तो वाग्यतो निशि । एकमुत्पादयेत्पुत्रं न द्वितीय कथंचन॥ द्वितीयमेके प्रजनं मन्यते स्त्रीषु तदिदः। अनिवृतं नियोगार्थं पश्यन्तो धर्म तस्तयोः ॥ विधवायां नियोगार्थे निवृत्तेतु यथाविधि । गुरुवच्च स्नुषावच्च वयातां परस्परम् ॥ मनुस्मृति अ०६ श्लोक ५६-६२ । देवरादिति। सन्तानाभावे स्त्रिया पत्यादिगुरु नियुक्तया देवरादन्यस्मादा सपिण्डादक्ष्यमाण घृताक्तादि नियमवत्पुरुषगमनेनेष्टाः प्रजा उत्पादयितव्याः। ईप्सितेत्यभिधानमर्थात्काऱ्यांक्षमपुत्रोत्पत्तो पुनर्गमनार्थम् । विधवायामिति विधवाया मित्यपत्योत्पादन योग्यपत्यभावपरमिदम् । जीवत्यपि पत्त्यौ अयोग्यपत्यादि गुरु नियुक्तो घृताक्त सर्व गात्रो मौनी रात्रावेकपुत्रं जनयेन्न कथंचिद्वितीयम् । द्वितीयमिति । अन्ये पुनराचार्या नियोगात्पुत्रोत्पादनविधिज्ञो अपुत्र एक पुत्र इति शिष्टप्रवादादनिष्यन्नं नियोग प्रयोजनं मन्यमानाः स्त्रीषु पुत्रोत्पादनं द्वितीयं धर्मतो मन्यन्ते । विधवायामिति । विधवादिकायां
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३००.
पत्तक या गोद
[चौथा प्रकरण
नियोग प्रयोजने गर्भधारणे यथाशास्त्रं सम्पन्ने सति जेष्ठो भ्राता कनिष्ठभ्रातृभार्या च परस्परं गुरुवत्स्नुषावच्च व्यवहरेताम् ॥ इति कुल्लूकभट्टः
(२) गौतमः-अपतिरपत्य लिप्सुर्देवराद् गुरुप्रसूतानतुमती यात् पिण्डगोत्रऋषिसम्बन्धिभ्यो योनिमात्रादा नादेवरादित्येके । गौतम स्मृति अ० १८.
(३) वसिष्ठः-प्रेतपत्नीषण्णमासान्बतचारिण्य क्षारलवणं भुञ्जानाधः शयीतोचं षड्भ्यो मासेभ्यःस्नात्वा श्राद्धं च पत्ये दत्वा विद्याकर्मगुरु योनिसम्बन्धान्सनिपात्य पिता भ्राता वा नियोगं कारयेत्तपसे । नसोन्मत्तामवशां व्याधितांमुद्दतँपाणिग्रहवदुपचरेत् । ज्यायसी मपिषोडशवर्षाणि नचेदामयावीस्यात् । प्रजापत्ये मुहूर्ते पाणिग्रहवदुपचरेत् । लोभानास्ति नियोगः । प्रायश्चित्तं वाप्युपनियुंज्यादित्येके । वसिष्ठ स्मृति-अ०१७ अङ्क ४६, ५०, १५, ५२, ५७,५८.
(४) बौधायनः--संवत्सरं प्रेतपत्नी मधु मांस मद्य लवणानि बर्जयेदधः शयीत । षण्मासानिति मौद्गल्यः । अत ऊर्ध्वं गुरुभिरनुमता देवराजनयेत्पुत्रमपुत्रा।प्रथाप्पुदाहरति । वशा चोत्पन्नपुत्रा च नीरजस्का गतप्रजा, नाकामा संनियो. ज्या स्यात्फलं यस्यां न विद्यते इति ।बौधायनस्मृति अ०प्र०२,
(५) याज्ञवल्क्यः -अपुत्रां गुर्वनुज्ञातो देवरः पुत्रकाम्यया । सपिण्डो वा सगोत्री वाघृताभ्यक्त ऋतावियात् ।। आगर्भसंभवाद्गच्छेत्पतितस्त्वन्यथा भवेत् । अनेन विधिना
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दफा २८२]
द्वामुष्यायन दत्तक
जातः क्षेत्रजोऽस्य भवेत्सुतः ॥ याज्ञवल्क्य स्मृति० अ० १ श्लो० ६८, ६६ ॥ विज्ञानेश्वर कृत मिताक्षरा व्याख्या. अपुत्रा मलब्धपुत्रां पित्रादिभिः पुत्रार्थमनुज्ञातो देवरो भर्तुः कनीयान भ्राता सपिण्डो वा उक्तलक्षणः सगोत्रो वा एतेषां पूर्वस्य पूर्वस्याभावे परः परः घृताभ्यक्त सङ्गिः । ऋतावेव वक्षमाण लक्षणे इयाद्गच्छेत् ागर्भोत्पत्तेः । ऊवं पुनर्गच्छन् अन्येन वा प्रकारेण पतितो भवति। अनेन विधिनोत्पन्नः पूर्व परिणेतुः क्षेत्रजः पुत्रो भवति । एतच्च वाद्गताविषयमित्याचार्याः यस्या प्रियेत कन्याया वाचा सत्ये कृते पतिः । तामनेन विधानेन निजो बिन्देत देवरः इति मनुस्मरणात् । .
(६) मिताक्षरा-अपुणेत्र परक्षेत्रेनियोगोत्पादितः सुतः। उभयोरप्यस्यौ रिक्थी पिण्ड दाताच धर्मतः॥ याज्ञबल्क्यस्मृति अ० २ श्लोक १२७. ___ अपुत्रतां गुर्वनुज्ञात इत्याद्यक्त विधिना अपुत्रेण देवरादिना परक्षेत्रे परभा-यां गुरु नियोगेनोत्पादितः पुत्र उभयो/जिक्षेत्रिणोरसौ, रिस्थी-रिव्यहारी पिण्डदाताच धर्मत इत्यस्यार्थः। यदासौ नियुक्तोदेवरादिः स्वयमप्यपुत्रोऽपुत्रस्य क्षेत्रे स्वपर पुत्रार्थं प्रवृत्तोयं जनयति, सद्विपितृकोदामुष्यायणो दयोरपि रिक्थहारी पिण्डदाताच । यदातु नियुक्तः पुत्रवान केवलं क्षेत्रिणः पुत्रार्थ प्रयतते तदा तदुत्पन्नः क्षेत्रिण एव पुत्रो भवतीत न बीजिनः । सच न नियमेन बीजिनो रिक्थहारी पिण्ड देवेति । यदुक्तं मनुना-क्रिया
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दत्तक या गोद
[चौथा प्रकरण
[चौथा
भ्युष गमात्क्षेत्रं बीजार्थयत्प्रदीयते । तस्येह भगिनौ दृष्टौ बीजीक्षेत्रक एवचेति । क्रियाभ्युपगमादिति अत्रोत्पन्नमपत्यमावयो रुभयो रपि भवत्विति संविदङ्गी करणाद्यत्क्षेत्रं क्षेत्रस्वामिना । बीजावपनार्थं बीजिने दीयते तत्र तस्मिन्क्षेत्रे उत्पन्नस्यापत्यस्य बीजि क्षेत्रिणी भागिनौ स्वामिनी दृष्टौ महर्षिभिः। तथा मनुः-फलं त्वनभिसन्धाय क्षेत्रिणां बीजिनां तथा । प्रत्यक्षं क्षेत्रिणामार्थे, बीजाद्योनिलीयसी । फलं त्वनभिसंधायेति-अत्रोत्पन्नमपत्यमावयो रुभया रस्त्वित्येवमनभिसंधाय परक्षेत्रे यदपत्यमुत्पाद्यते तदपत्यं क्षेत्रिण एव यतोवीजाद्योनिर्बलीयसीति । गवाश्वादिषु तथा दर्शनात् । अत्रापि नियोगो वाग्दत्ता विषय एव । इतरस्य नियोगस्य मनुना निषिद्धत्वात् । मनुः-देवरादा सपिण्डादा स्त्रिया सम्यङ् नियुक्तया। प्रजेप्सिताधिगंतव्या सन्तानस्य परिक्षये॥ विधवायां नियुक्तस्तु घृताक्तोवाग्यतेीिनीश । एकमुत्पादयेपुत्रंन द्वितीयं कथञ्चन ॥ इत्येवं नियोगमुपन्यस्य मनुः स्वय. मेव निषेधति । नान्यस्मिन्विधवा नारी नियोक्तव्या द्विजातिभिः॥अन्यस्मिन्हि नियुञ्जाना धर्म हन्युः सनातनम् । नोदाहिकेषु मन्त्रेषु नियोगः कीर्त्यते कचित् ॥ न विवाह विधावुक्तं विधवावेदनं पुनः।अयं दिहि विद्वद्भिः पशुधर्मों विगर्हितः ॥ मनुष्याणामापिप्रोक्तो बेनेराज्यं प्रशासति । समहीमखिलां भुञ्जन राजर्षि प्रवरः पुरा ॥ वर्णानां संकरं चक्रे, कामोपहतचेतनः । ततः प्रभृतियोमोहात् प्रमीतपतिका स्त्रियम् ॥ नियोजयत्यपत्यार्थे गर्हन्ते तं हि साधवः इति ।
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दफा २८२ ]
द्वामुष्यायन दत्तक
३०३
नचविहितप्रतिषिद्धत्वाद्विकल्प इति मन्तव्यम् । नियोक्तृणां निन्दाश्रवणात् । स्त्रीधर्मेषु व्यभिचारस्य बहुदोषश्रवणात् । संयमस्य प्रशस्तत्वाच्च । यथाह मनुरेव - कामं तु क्षेपयद्देहं पुष्प मूल फलैः शुभैः । नतुनामापि गृहीयात्पत्त्यौ प्रेते परस्य त्विति । जीवनार्थं पुरुषान्तराश्रयणं प्रतिषिद्धयते मनुः । आसीता मरणात् चान्ता नियता ब्रह्मचारिणीम् । योधर्म एक पत्नीनां कांतिसमनुत्तमम् । अनेकानि सहस्त्राणि कौमार ब्रह्मचारिणाम् । दिवं गतानि विप्राणामकृत्वा कुल सन्ततिम् ॥ मृते भर्तरि साध्वी स्त्री ब्रह्मचर्य व्यवस्थिता 1 स्वर्गं गच्छत्यपुत्रापि यथा ते ब्रह्मचारिणः || अपत्यलोभाद्यातुस्त्री भर्तारमति वर्तते । स्येहनिन्दामवाप्नोति परलोकाच्च हीयते । इति पुत्रार्थमपि पुरुषान्तराश्रयणं निषेधति । तस्माद्विहित प्रतिषिद्धत्वादिकल्प इति न युक्तम् । एवं विवाह संस्कृतानियोगे प्रतिषिद्धे कस्ता यों नियोग इत्याह-यस्यामृयेत कन्याया वाचा सत्ये कृते पतिः । तामनेन विधानेन निजो विन्देत देवरः ॥ यथाविध्यभिगम्यैनां शुक्रवस्त्रां शुचिव्रताम् । मिथोभजेताप्रसवा त्सकृत्सकृदृताव्रतौ इति । यस्मै वाग्दत्ता कन्या सप्रतिग्रहमन्तरेणैव तस्याः पतिरित्यस्मादेव वचनादवगम्यते तस्मिन्प्रेते देवरस्तस्य जेष्ठः कनिष्ठो वा निजः सोदरोविन्देत परिणयेत् । यथाविधि यथाशास्त्रमधिगम्य परिणीय नेन विधानेन घृताभ्यङ्ग वाङ् नियमादिना शुक्रवस्त्रां शुचिव्रतां मनोवाक्काय संयताम् । मिथो रहस्या गर्भग्रहणात् प्रत्यूत्वेकवारं
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दत्तक या गोद
[ चौथा प्रकरण
गच्छेत् अयञ्च विवाहोवाचनिको घृताभ्यङ्गादि नियमवन्नियुक्काभि गमनाङ्गमिति न देवरस्य भार्य्या त्वमापादयति । श्रतस्तदुत्पन्नमपत्यं क्षेत्रस्वामिन एव भवति । न देवरस्य संविदातूभयोरपि ।
३०४
( १ ) मनुके मतका भावार्थ- जब सन्तान न होवे तब पति आदि गुरुजनोंसे आज्ञा प्राप्त होनेपर स्त्री अपने देवर अथवा अन्य सपिण्डले शरीर में घृत लगानेकी विधान करनेवाले पुरुषसे जिसका वर्णन आगे किया गया है, गमनकर सन्तान पैदा करे । 'इप्सिते' इस पदसे दुबारा गमनका निषेध जान पड़ता है विधवामें सन्तानके लिये एक पुत्र उत्पन्न करनेसे यह अर्थ है कि अगर पति सन्तान उत्पन्न करने के योग्य न हो तो उसके जीतेभी, उसकी और गुरुकी प्रशासे पुरुष अपनी देहमें घृत लगाकर मौन होकर रात्रिमें एक पुत्र उत्पन्न करे दूसरा नहीं । नियोगसे पुत्र उत्पन्न करने की विधिके ज्ञाता जो आचार्य हैं वह नियोगकी आवश्यकताको मानते हुए दूसरा पुत्र उत्पन्न करना धर्मसे मानते हैं क्योंकि एक पुत्र अपुत्रके समान शिष्ट लोगोंने कहा है । विधवा घोंमें नियोगका प्रयोजन गर्भाधान करना है । वह भी शास्त्र की रीतिसे जेष्ठ भाई छोटे भाईकी स्त्री से आपसमें गुरूके समान और पुत्रबधूके समान व्यवहार करे अर्थात् छोटेभाईकी स्त्री अपने जेठे देवरको गुरुके समान और बड़ा भाई अपनी छोटी भौजाईको पुत्रवधूके समान समझे ।
( २ ) गौतमके मतका भावार्थ- पतिके न रहनेपर यदि स्त्रीको सन्तान की इच्छा हो तो देवर अथवा सपिण्ड, गोत्र या ऋषिके सम्बन्धी किसी पुरुष द्वारा ऋतुकालमें गमन करके सन्तान उत्पन्न करलेवे, इस विषय में किसी आचार्यका मत ऐसा है कि सिवाय देवरके और किसीसे पुत्र उत्पन्न नहीं करना चाहिये ।
(३) वसिष्ठके मतका भावार्थ - मरे हुये पुरुषकी स्त्री ६ मासतक नमक छोड़ कर केवल हविष्यान्न भोजन करे, व्रतकरे, भूमिपर शयन करे । ६ मासके पश्चात् स्नान करके पतिका श्राद्ध करे, पीछे विधवाका पिता अथवा भाई उसके पतिके विद्या गुरु, कर्म काण्ड कराने वाले गुरु, तथा बन्धु जनोंको जमा करे, उन सबकी अनुमति लेकर सन्तान उत्पन्न करनेके लिये उसका नियोग करा देवें । यदि वह स्त्री उन्मत्ता, स्वेच्छाचारिणी, रोगिणी, अथवा १६ वर्षसे कम अवस्थाकी होवे तो उसका नियोग नहीं कराना और स्त्रीसे कम अवस्था के पुरुषके साथ भी नियोग नहीं कराना चाहिये । जिस पुरुषके साथ नियोग कियाजाय वह विवाहित पतिके समान चार घड़ी रात रहनेपर नियुक्ता स्त्रीके
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दफा २८२]
द्वामुष्यायन दत्तक
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साथ गमन करे । काम अथवा भोगके लोभसे नियोग न करे । एक आचार्य कहते हैं कि लोभसे नियोग करने वालेको प्रायश्चित्त करना चाहिये।
(४) बौधायनके मतका भावार्थ-मरे हुये मनुष्यकी स्त्री एक वर्षतक, मधु, मांस, मद्य, और नमकको त्यागदेवे, भूमिपर नित्य सोवे । मौद्गल्य ऋषि का मत है कि ऊपर कहा हुआ नियम ६ मास तक करे । जिस स्त्रीके पुत्र नहीं वह ऐसा नियम धारण करनेके पश्चात् श्वसुर आदिबड़े लोगोंकी आज्ञानुसार देवर द्वारा पुत्र उत्पन्न करे। दूसरा उदाहरण देखो बन्ध्या, पुत्रवती, ऋतुहीन, मरेहुए पुत्रकी माता, और कामभोगसे रहित स्त्रीका नियोग करानेसे कुछ फल नहीं होता इस लिये नियोग न करे।
(५) याज्ञवल्क्य के मतका भावार्थ-जिस स्त्रीके पुत्र न पैदा हुआ हो उसके साथ पिता आदिकी आज्ञासे पुत्रकी कामनाके लिये अपने देहमें घृत लगाकर ऋतुके समयमें देवर सपिण्ड वा गोत्रका पुरुष गमन करे जब तक गर्भाधान नहो । गर्भाधानके पश्चात् पुत्र उत्पन्न होनेपर यदि गमन करेगा तो पतित हो जायगा; इस नियोगकी विधिसे जो पुत्र पैदा होता है वह प्रथमपति का क्षेत्रज पुत्र है। आचार्यने कहा है कि यह वचन उसी कन्याके विषयमें है जो वाग्दत्ता हो, क्योंकि मनुने कहा है कि जिस कन्याका वाग्दान किये पीछे पति मरजाय उस कन्याको इस विधिसे, सगा देवर विवाह करलेपरन्तु इस मनुके श्लोकमें 'श्रपुत्रा' पदसे वाग्दानके अनन्तर विवाहसे प्रथम, पुत्र न होने का निश्चय यद्यपि कठिन है, तथापि वरमें जो ऐसे दोष पहलेही मालूम होजायें कि जिनले पुत्र नहो, तो उस वाग्दत्ता कन्याको, देवर विवाहले।
(६) विज्ञानेश्वर कृत मिताक्षराके मतका भावार्थ-पुत्रहीन मनुष्य, दूसरेकी स्त्रीमें नियोगसे जो पुत्र उत्पन्न करेगा वह पुत्र दोनों पिताओंका धार्मिक कृत्य श्राद्ध आदि करेगा और दोनों पिताओंकी जायदादका वारिस होगा। इस श्लोकका भाष्य विज्ञानेश्वरने यों किया है
पहिले कही हुई विधिसे पुत्ररहित देवरआदिके सम्बन्धसे दूसरेकी स्त्री में गुरुकी श्राक्षासे जो पुत्र पैदा किया जाता है वह पुत्र बीज, और क्षेत्रवाले दोनों पिताओंकी जायदादके पानेका भागी होता है; और धर्मसे दोनों पिताओं को पिण्डका देनेवाला होता है। जहां पर गुरुकी आज्ञा लीगई हो, और नियुक्त होनेवाला पुरुष यानी देवर आदि स्वयं भी पुत्ररहितहों, तथा वह स्त्री जिसमें नियोग किया जानेवाला हो पुत्र रहितहो, ऐसी दशामें अपने या दूसरेके पुत्र के लिये नियोगमें दोनों (स्त्री और पुरुष ) प्रवृत्त होकर जो पुत्र उत्पन्न करेंगे वह 'द्वामुष्यायन' पुत्र कहलाता है यानी दो पितावाला पुत्र कहा जाता है, वह दोनों पिताओंके धनका पानेवाला और दोनों पिताओंको पिण्ड देनेवाला होता है। और जब देवर पुत्रवान् हो और केवल अपुत्रा स्त्रीमें पुत्र उत्पन्न करने के लिये नियोग करे तो उस दशामें वह पुत्र क्षेत्रके स्वामी यानी स्त्रीके पतिका
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दत्तक या गोद
[चौथा प्रकरण
ही होता है, नियुक्त पुरुषका नहीं; वह पुत्र नियमसे बीजवाले पुरुषको नतो पिण्ड दान कर सकता है और न उसका धन पा सकता है। मनुने कहा है कि जब पुरुष इस प्रतिज्ञाके साथ कि-इस स्त्रीमें पैदा हुआ पुत्र दोनोंकी सम्पत्ति पानेका अधिकारी होगा और दोनोंका पिण्ड देसकेगा; बीजवाले पुरुषद्वारा नियोग कराई गई हो; तो उससे जो पुत्र पैदा होगा वह दोनोंका मालिक होगा ऐसा महर्षियोंने देखा है पुनः मनुने यह कहा है कि अगर ऐसी प्रतिज्ञा न की गयी हो कि इस स्त्रीसे पैदा हुआ पुत्र दोनोंका होगा, तो वह पुत्र केवल क्षेत्र के स्वामीका ही होगा और उसीकी जायदाद पावेगा क्योंकि बीजसे योनिकी प्रधानता मानी है जैसे गौ, घोड़ा, आदिमें । यहांपर नियोग वाग्दत्ताके विषयमें यानी जिस कन्याकी सगाई होचुकी हो और विवाह न हुआ हो उसके विषय में कहा गया है क्योंकि अन्य स्त्रीमें नियोग मनुजीने निषेध किया है। कहा है कि-अच्छी तरहसे नियुक्त की हुई स्त्री देवर वा सपिण्डसे वांच्छित सन्तान को प्राप्त होवे जिसके पुत्र न हों-विधवामें नियुक्त पुरुष अपने शरीरभरमें घृतको लगाकर मौन होकर रात्रिमें एक पुत्र पैदा करे दूसरा कदापि न करे। इसतरह पर नियोगविधिको कहकर आगे उसका खण्डन करते हैं, मनुजी कहते हैं कि द्विजाति अन्यके साथ विधवा स्त्रीका नियोग न करें, क्योंकि अन्य पुरुषके संग नियोग करनेवाले सनातन धर्मको नष्ट करते हैं। विवाहके मंत्रोंमें कहीं भी नियोग नहीं कहागया,और न विवाहकी विधिमें विधवाका पुनः विवाह कहागया है,यह पशुओंका धर्म है इसीसे विद्वानोंने निंदित कहा है। यह नियोग की पृथा 'बेन' राजाकी राज्यमें प्रचलित हुई थी, उस 'बेन' राजाने इसकी प्रथा चालई थी, बेन राजा उस समय बड़ा प्रतापी था और पृथ्वीका एक मात्र स्वामी था परन्तु काम वश उसकी बुद्धि नष्ट हो गई थी । वर्णसंकर पैदा होनेका कारण वह बना । उसके पश्चात् जो पुरुष विधवा स्त्रीमें सन्तान पैदा करनेके निमित्ति नियोग करता है उसको अच्छे जन निन्दा करते हैं। यदि यह कहा जाय कि मनु जी ने नियोग विधि और निन्दा दोनों कही हैं इस लिये एक दूसरे के विरुद्ध होगा। यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि नियोग करने वालोंकी निन्दा शास्त्र में कही गई है, और स्त्रीको व्यभिचार कर्ममें अत्यन्त दोष हैं तथा जितेन्द्रिय होनेकी बहुत प्रशंसा सर्वत्र कही गई है। मनुजी ने कहा है कि कन्द, फल, फूल खाकर चाहै शरीरको नाश कर देवे मगर पति के मरनेके पीछे दूसरे पुरुषका नामतक न लेवे, इस वचनसे दूसरे पुरुषका निषेध स्पष्ट होता है फिर भी मनुजी कहते हैं किविधवा स्त्री जबतक जीती रहे तबतक पतिव्रताओंके सर्वोत्तम धर्मकी आकांक्षा करती रहे । हज़ारों आबाल ब्रह्मचारी रहकर बिना सन्तान पैदा किये हुए भी स्वर्ग को गये हैं, इसीतरह पर पतिके मरने के पीछे साध्वी स्त्री ब्रह्मचारिणी रहकर स्वर्ग में जाती हैं। जो विधवा स्त्री पुत्रके लोभ से पर पुरुष रत होती है वह इस लोकमें निन्दा को प्राप्त होती है और परलोकसे पतित हो
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दफा २८३]
द्वामुष्यायन दत्तक
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जाती है इन वचनोंसे पुत्रके लिये भी जो स्त्री नियोग करती है वह पतित हो जाती है इसलिये पुत्रकी कामना के लिये भी मियोग का निषेध किया गया है। नियोग किसका होना चाहिये इस विषयमें मनुने कहा है कि जिस कन्या का विवाह रूप संस्कार हो गया हो उसका नियोग निषिद्ध है मगर जब कन्याका सिर्फ वाग्दान हो गया हो और उसका पति मरजाय उस कन्याको इस विधिसे देवर विवाह करले। देवरके विवाह करलेनेपर वह स्त्री शुक्ल वस्त्र पहने और ब्रतों को धारण करे, तथा विधि के अनुसार जब उसका ऋतु समय आवे तब सिर्फ पुत्रकी कामनासे एक पुत्र उत्पन्न पर्यन्त ही गमन करे पीछे कभी नहीं। जिस कन्याके साथ वाग्दान होजाता है वह उसका पहिला पति होता है चाहे पाणिग्रहण नभी हुआ हो। देवरके विवाह लेनेपर भी यथाविधि संग करनेको जो कहा गया है इससे यह मतलब है कि समयके आनेपर देवर अपने शरीर में घृत लगाकर मौन व्रत धारण कियेहुये ऋतु समय में जब तक गर्भाधान न हो तबतक एक बार गमन करे । जब विवाह होनेपर देवरको घृत आदिका नियम किया गया है इससे सिद्ध है कि वह देवरकी भार्या नहीं हो गई सिर्फ पुत्रोत्पन्न करने के लिये नियोग किया गया है । इसलिये उस स्त्रीमें देवर द्वारा जोपुत्र पैदा किया गया है वह क्षेत्रके स्वामी का होता है यानी उसके वाग्दत्ता पतिका होता है देवरका नहीं। और अगर यह प्रतिज्ञा पहिले कर कर ली गई हो कि इससे जो पुत्र होगा वह दोनों का होगा तो वह पुत्र दोनों पिताओंका होता है-इसी अख़ीरवाले पुत्रको 'द्वामुष्यायन' कहते हैं। दफा २८३ ऊपरके वचनोंका नतीजा
गौतम, वसिष्ठ, बौधायन, याज्ञवल्क्य, और विज्ञानेश्वर कृत मिताक्षरा आदि ग्रन्थों में नियोग की विधि कही गयी है। महर्षि मनुने नियोग विधिको कह कर उसको निन्दित बताया है एवं विज्ञानेश्वर जी ने मिताक्षरा में यद्यपि नियोगकी विधि कही है परन्तु वह मनु की राय से सहमत ही नहीं है बक्लि वह नियोगको तथा द्वामुष्यायनको नहीं मानते। मिताक्षरामें द्वामुष्यायन नहीं माना गया और जहां २ पर मना गया है तो अनेक शत ज़रूरी उसके साथ लगाई गयी हैं। आज कल 'द्वामुष्यायन दत्तक' बहुत कमसुने जाते हैं भारत सरकारकी राज्यमें अदालतों में द्वामुष्यायन किस तरह पर माना जाता है इस विषयका उल्लेख नीचे किया गया है । अंग्रेज़ी कानून में यह बात स्वीकार की गई है कि द्वामुण्यायन का रवाज नियोगकी रवाज पर से चला है, नियोगकी रवाज पुरानी है इसका ज़िकर अनेक धर्मशास्त्र ग्रन्थोंमें पाया जाता है।
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२०८
[ चौथा प्रकरण
दत्तक या गोद
दफा २८४ कानुनमें द्वामुष्यायन कब माना जाता है
जब दो सगे भाइयोंके बीच में एक भाईके एक ही लड़का हो और दूसरे भाईके कोई न हो, तथा उसे इस बातका रंज हो कि मेरी धार्मिक कृत्य, ( अंतेष्ठिक्रिया और श्राद्ध तर्पण आदि ) कौन पूरा करेगा, तब वह लड़केवाला भाई खुशी से और राज़ी होकर अपने उस एकलैाते लड़केको अपने उस भाई को जिसके कोई नहीं है इस शर्त के साथ दत्तक दे देवे कि वह लड़का दोनों भाइयोंकी धार्मिक कृत्य पूरा करेगा और दोनों की जायदाद का वारिस होगा तो वह लड़का द्वामुष्यायन माना जाता है । द्वामुष्यायन दत्तकके लिये दोनों भाइयों की ज़िन्दगी, और इक़रार तथा दत्तक के बाद इसी तरह का बर्ताव जैसा कि इक़रार से ज़ाहिर होता हो ज़रूरी है इसलिये जब एक भाई के एक से अधिक पुत्र हों और उसने उनमेंसे एक को दूसरे भाईको गोद दे दिया हो तो उसे द्वामुष्यायन मानना बहुत ही कमज़ोर है । लेकिन यह बात उस इक़रारनामे परसे जो दत्तक के समय किया गया हो तथा दत्तक के बाद जैसा बतीव दोनों भाइयों का आगे रहा हो निश्चयकी जायगी देखो; 26 All. 472. धारपुरे मिताक्षरा पेज ८६ लाइन १४-३० मिताक्षरा द्वामुष्यायन को नहीं मानता । घारपुरे मयूख पेज ५१ लाइन २५-३५ दत्तक देने के समय अगर कोई इक़रारनामा लिखा गया हो, या कोई खास बात मानी गई हो तो उससे निश्चय किया जायगा कि वह दत्तक सादा था अथवा द्वामुष्यायन था - दत्तक मीमांसा अ० ६ श्लोक ४१; दत्तकचन्द्रिका अ० २ श्लोक २४; सरकार लॉ आव एडाप्शन पेज ३६-३७; मेन हिन्दूलॉ पैरा १७३ घारपुरे हिन्दूला पेज ८८ सम्बाशिव पैय्यर हिन्दूलॉ दफा २३१-२४०.
मुला हिन्दूलों में कहा गया है कि जब पुरुष अपना लड़का किसी दूसरे पुरुष को इस इक़रार के साथ गोद दे देवे कि वह दोनोंका लड़का माना जायगा, तो वह द्वामुष्यायन दत्तक कहलाता है, दत्तक देनेके समय इस क़िस्मका इक़रार ज़ाहिर किया गया हो या माना गया हो, दोनों तरह पर वह द्वामुष्यायन होगा । और जब कि एक भाई अपने एकलौते लड़के को दूसरे भाईको दत्तक दे देवे तो ऐसी सूरतमें क़ानूनके अनुसार ऐसा मानलिया जायगा, कि वह इक़रार द्वामुष्यायन का था नकि सादे दत्तकका देखो; प्रिन्सिपल आफू हिन्दूलाः दीनशाह फरडुनजी मुल्ला, यम० ए० एल० एल० बी०, सेकेन्ड एडीशन सन् १९१५ पेज ३१० दफा ४०१, द्वामुष्यायन दोनों बापकी जायदाद पायेगा देखो; मुल्ला हिन्दूलॉ दूसरा एडीशन पेज ४०१ नज़ीरें देखो; ऊमा बनाम गोकुलानन्द ( 1878 ) 3 Cal. 587, 598, 5. A. 1. 40, 50-51; कृष्णा बनाम परम श्री ( 1901 ) 25 Bom. 537; बिहारीलाल बनाम शिवलाल ( 1904 ) 26 All. 472 ( इस इलाहाबादकी नज़ीर का ज़िकर ऊपर भी है । )
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दफा २८४-२८७]
वामुष्यायन दत्तक
३०६.
जैसा कि ऊपर बयान किया गया है इसी प्रकारसे द्वामुष्यायन दत्तक को सरकार हिन्दूला, ट्वेिलियन हिन्दूलों में भी माना गया है द्वामुष्यायन दत्तकके लिये इकरार होना परमावश्यक है तथा उस इकरारके अनुसार दोनों के बीचमें वैसाही बर्ताव रहना चाहिये, जिससे उस इकरार के तोड़ दिये जानेकी कोई बात पैदा न हो जाय ।
हालके एक मुकद्दमे में माना गया कि गोद देते समय यदि स्पष्ट रूपसे द्वामुष्यायन प्रकाशित न कर दिया गया हो तो वह द्वामुष्यायन नहीं माना जायगा--देखो ( 1918 ) 20 Bom. L. R. 161. दफा २८५ डामुष्यायन और सादे दत्तकमें क्या फरक है
__ सादा दत्तक वह है, कि जब लड़का अपने असली खानदानसे रिश्ता तोड़कर दत्तक लेनेवाले के खानदान में जाता है और सिर्फ दत्तक लेनेवालेके धनमें भाग पाता है और उसीकी धार्मिक कृत्य पूरा करता है। द्वामुष्यायन दत्तकमें लड़केका रिश्ता असली खानदानसे नहीं टूटता, और वह दोनों पिताओं यानी अपने असली पिता और दत्तक लेने वाले पिता की जायदाद पाता है तथा दोनों, पिताओंकी धार्मिक कृत्य पूरा करता है सिवाय इसके और कोई फरक द्वामुष्यायनमें नहीं है -25 Bom. 537, 542. दफा २८६ अनित्य द्वामुष्यायन
'अनित्य' शब्दका अर्थ है क्षणिक या थोड़ा समय । जो लड़का दूसरे गोत्रसे मुण्डन संस्कारके बाद गोद लिया गया हो और यह इक़रार भी हो गया हो कि यह पुत्र दोनों बापों का होगा तथा क्रिया कर्म दोनोंका करेगा और दोनोंकी जायदाद पावेगा तो वह द्वामुष्यायन दत्तक अनित्य कहलाता है अर्थात् थोड़े समयके लिये ऐसा दत्तक होता है और दत्तक पुत्र जो इस तरीके का होगा वह दोनों पिताओंकी धार्मिक कृत्य करेगा और जायदाद पावेगा। मगर उस दत्तक पुत्रक, लड़का अपने असली गोत्रको लौट जायेगा गोद लेने वाले पिता के गोत्रमें नहीं रहेगा और न जायदाद पावेगा इसीसे इस गोद को अनित्य कहते हैं और आजकल इस निस्मका गोद कानूनन नाजायज़ माना गया है देखो-1W. Macn. '71; शमशेर बनाम दिलराज 2 S. D. 169 (216); 26 All. 472. दफा २८७ नम्बोदरी ब्राह्मणोंमें द्वामुष्यायन जायज़ है
हिन्दुस्थानके पश्चिमीय हिस्सेमें नम्बोदरी ब्राह्मणोंमें बिला किसी इकरारके द्वामुष्यायन दत्तक जायज़ माना जाता है, उन लोगोंमें इसी क्रिस्मकी हत्तककी रवाज आम है देखो, 11 Mad, 167. 178.
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दत्तक या गोद
[चौथा प्रकरण
दफा २८८ द्वामुष्यायनको कितना हिस्सा मिलेगा जब औरस
पुत्र पैदा होजायें द्वामुष्यायन को दोनों पिताओं की सम्पूर्ण जायदाद उस वक्त मिलेगी जब दोनों कुटुम्बों में यानी दोनों पिताओंके कोई औरस पुत्र दत्तकके बाद न पैदा हुआ हो। और जब दत्तक के बाद औरसपुत्र पैदा हो जाय तो उसे जायदाद इस प्रकारसे मिलेगी
द्वामुष्यायन के तरीकेसे दत्तक देनेके बाद जब असली बापके एक लड़का पैदा हो जाय तो दत्तकपुत्रको उस औरस पुत्रसे आधी जायदाद मिलेगी और औरस पुत्रको दत्तकसे दूनी । अर्थात् जब असली बापकी जायदाद के दो वारिस हों एक औरसपुत्र दूसरा द्वामुष्यायन दत्तक, तो पहिले कुल जायदाद के, बराबर तीन बाग करके एक भाग द्वामुष्यायन दत्तक पुत्र को तथा दो भाग औरस पुत्रको मिलेंगे। इसी तरहपर जब दो लड़के औरस होंगे तो जायदाद पांच भागोंमें बटकर एक भाग द्वामुष्यायन को व दो, दो भाग दोनों पुत्रोंको मिलेंगे एवं जितने औरस पुत्र होंगे उनको दो, दो भाग तथा द्वामुष्यायनको एक भाग मिलेगा; द्वामुष्यायनको जितना मिलेगा उसका दूना प्रत्येक औरस पुत्रको।
__ उदाहरण-सेठ लखपतिरामने, अपने एकलौते लड़केको द्वामुष्यायन तरीके से अपने भाईको गोद दे दिया, पीछे उनके तीन औरसपुत्र पैदा होगये; लखपतिरामने अपने मरनेपर सात लाख रुपया छोड़ा तो कानूनके अनुसार हरएक औरस पुत्रको दो, दो लाख और द्वामुष्यायन पुत्रको एक लाख रुपया मिलेगा। सिद्धांत यह है कि जितना द्वामुष्यायनदत्तकपुत्रको मिलेगा उसका दूना हरएक औरस पुत्र को मिलना चाहिये ।
जब दत्तकलेनेवाले पिताके द्वामुष्यायन दत्तक लेनेके बाद औरसपुत्र पैदा हो जाय तो द्वामुण्यायन को उस हिस्सेका आधा हिस्सा मिलेगा, जो साधाण दत्तक लेनेके बाद औरसपुत्र पैदा हो जानेकी सूरत में स्कूलके अन्तर्गत माना गया है देखो इस किताबकी दफा २७०-२७५ और २८६. दफा २८९ द्वामुण्यायनकेभाग जाननेका नक्शा
____ नीचेके नकशेसे दत्तक और द्वामुष्यायनदत्तक लेनेके बाद जब औरसपुत्र पैदा हो जायतो प्रत्येक स्कूलोंके अन्तर्गत कितना हिस्सा किसको मिलेगा साफ़ तौरसे मालूम हो जायगा इस किताब की दफा २७०-२७१ भी देखो--
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दफा २८८ - २६३ ]
द्वामुष्यानय दत्तक
३११
दत्तकपुत्र और द्वामुष्यायनदत्तक पुत्र के भाग जाननेका नक़शा
साधारण दत्तकमें
स्कूल
औरस पुत्र पैदा होनेकी संख्या
बङ्गाल - स्कूल
बनारस-स्कूल
बंबईस्कूल और मदरासस्कूल
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दत्तक पुत्र या द्वामुष्यायन
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गोद लेने वाले बापकी जायदाद कितने भागों में बटेगी
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द्वामुष्यायन दत्तकमें
द्वामुष्यायन को कितना हिस्सा मिलेगा ( साधारण दत्तक के
भाग का आधा )
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कितनी जायदाद वाकी रही जो आँसरपुत्रोंको बराबर बांटी जायगी
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३१२
दत्तक या गोद
[चौथा प्रकरण
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उदाहरण - द्वामुष्यायन गोद लेनेके बाद सेठ रामप्रतापके औरस दो पुत्र पैदा होगये अब उनकी जायदाद पहिले पांच भागोंमें बांटी जायगी और उसमेंसे एक भागका आधा द्वामुष्यायनको तथा सवा दो, दो, भाग प्रत्येक औरसपुत्रोंको मिलेंगे ऐसा विभाग बंगाल धर्मशास्त्र के अनुसार होगा, और जब बनारसधर्मशास्त्रके अनुसार उनकी जायदादका विभाग किया जायगा तो पहिले सेठ रामप्रतापकी जायदाद सात भागोंमें बांटी जायगी। उसमें से एक भागका आधा भाग द्वामुष्यायनको मिलेगा और सवा तीन, तीन, भाग प्रत्येक दोनों औरस पुत्रों को। इसी तरह पर जब बम्बई अथवा मदरासके धर्मशास्त्रानुसार बटवारा किया जायगा तो पहिले उनकी जायदाद नव भागोंमें बांट कर एक भाग का आधा भाग द्वामुष्यायन को मिलेगा तथा सवा चार चार भाग हरएक दोनों औरस लड़कोंको । एवं जितने लड़के होंगे उन सबका विभाग इसी क्रमसे होगा। ऊपर ननशेमें सात औरसपुत्रोंके पैदा होनेपर जो भाग द्वामुष्यायन को स्कूलोंके अन्तर्गत मिलना चाहिये दिखलाया गया है। अगर ज्यादा पुत्र हों तो इसी तरहपर समझ लेना। दफा २९० विभागका नतीजा
द्वामुण्यायन दत्तकको क्यों ऐसा भाग दियागया है ? इस विषयमें मुझे कोई प्रमाण नहीं मिला मुमकिन है कि कोई हो मगर मालूम ऐसा होता है कि जब उसे दोनों बापोंकी जायदाद पानेका अधिकार दिया गया था तो औरस पत्रों की मौजदगीमें कम अधिकार कर दिया गया अगर यह मानो कि दोनों खानदानों में द्वामुष्यायन के बाद एक औरस पुत्र पैदा होगया तो द्वामुव्यायन को असली बापकी जायदाद का तीसरा हिस्सा मिला तथा गोद लेनेवाले पिता की जायदाद का बङ्गाल स्कूल में पांच हिस्सोंमें एक हिस्सा मिला । असली पिताकी जायदाद पानेमें हमेशा द्वामुष्यायन को औरससे आधा मिलेगा गोद लेनेवाले पिताकी जायदादमें हर धर्मशास्त्रके अन्तर्गत भिन्नता होगी जैसाकि ऊपरके नक्शे में बताया गया है । देखो दफा २८६.
मयखने इस विषयका विवेचन करते हुये कहा है कि जब द्वामुप्यायन दत्तक देनेके बाद दोनों खानदानों में असली लड़के पैदा हो जाये तो दत्तक पुत्रको सिर्फ गोद लेनेवाले बापकी जायदादमें भाग मिलना चाहिये। वह भाग उसी तरहपर मिलना चाहिये जोसादे दत्तकमें जैसा दत्तकके बादौरस पुत्र पैदा होने की सूरतमें मिलता देखो दफा २७० -२७१ व्यवहार मयूख अ० ४-५-२५ द्वामुष्यायन दत्तक होनेके बाद जब एकही खानदानमें औरस पुत्र पैदा हों तो क्या सूरत होगी? मालूम होता है कि उसे एक बापकी सब और एककी उसी क़दर जायदाद मिलेगी जिस क़दर कि ऊपर कहा जाचुका है मगर इस बातपर मयूख ने कुछ नहीं राय दी है।
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दफा २६०-२६३]
दत्तक सम्बन्धी अन्य ज़रूरी बाते
३१३
दफा २९१ पंजाबमें दत्तकपुत्र असली बापका धन पाता है
पजाब प्रांतमें अगर दत्तक पुत्रका असली बाप बिला औलादके मर जावे तो वहां की रवाज के अनुसार दत्तकपुत्र अपने असली बापकी जायदाद पाता है और दत्तक लेनेवाले पिताकी भी-देखो, पञ्जाब कस्टम पेज ८१ तथा पंजाब कस्टमरीलॉ जिल्द ३ पेज ८३.
दत्तक लेनेका द्वामुष्ययन तरीक़ा पञ्जाब में अतीव अज्ञात है। केवल यह बात कि अमुक व्यक्ति गोद लिया गया था यह अर्थ रखता है कि उस का गोद लिया जाना दत्तक तरीके पर था पहिली अवस्था में यह खासतौर पर साबित किया जाना चाहिये कि कुदरती खानदान का सम्बन्ध शेष है और इस के साधित करने का भार उस व्यक्ति पर होगा, जो इस को स्थापित करेगा। मोहनलाल बनाम माला मल 89 I. C. 688 (2); A. I. B. 1925 Lah. 623. दफा २९२ पांडीचरी में दत्तकपुत्रको, बाप और भाईकी जायदाद
मिलती है पांडीचरीमें दत्तकपुत्रका असली बाप तथा भाई जब लावल्द मरजाय तो दत्तकपुत्र अपने बाप, और भाईकी जायदाद पाता है । यह बात फ्रान्सीसी कानूनके अनुसार तयकी गई है।
राजपूताना, मध्यभारत तथा संयुक्तप्रांत में द्वामुष्यायन दत्तक कभी कभी अब भी होते हैं मगर यह पृथा अब बहुत शिथिल होगई है । मदरास प्रांतमें कई एक क़ौमोंमें आम मानी जाती है।
(ख) दत्तक सम्बन्धी अन्य जरूरी बातें
दफा २९३ दत्तक नाजायज़ होनेपर, दत्तक पुत्रका बिचार
यह आम बात है कि, जब दत्तक असली कुटुम्बसे दे दिया जाता है तब उसका असली कुटुम्बमें कोई हिस्सा जायदादका बाकी नहीं रह जाता (सिवाय उस सूरतके जो पहिले-द्वामुष्यायन दत्तकमें बताया गया है) और जब अदालतसे दत्तक नाजायज़ क़रार पाजावे तो दत्तक पुत्रकाकोई अधिकार गोद लेनेवाले कुटुम्ब में नहीं रहताः ऐसी सूरतमें दत्तक पुत्र दोनों कुटुम्बोंसे. छूट जाता है; यह एक कठिन एवं जटिल प्रश्न है कि जब दत्तक नाजायज़ हो
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दत्तक या गोद
,[ चौथा प्रकरण
गया तब अपने असली खानदानमें उसका प्रवेश होसकता है या नहीं ? खास कर उस सूरतमें जबकि दत्तक विधानही साबित न होनेकी वजेसे उसकी दत्तक नाजायज़ मानी गई हो। इस विषय में मिस्टर सदर लेन्ड की राय यह है कि अगर अदालतमें दत्तक जायज़ न माना गया हो तो उसका ( दत्तक पुत्रका ) हक़ असली कुटुम्बमें रक्षित रहता है; 1 Stra. Hindu Law 82; भवानी बनाम अम्बाबाई 1 Mad. H. C. 363; लक्ष्मअप्पा बनाम रामावा 12 Bom. H. C. P. 397.
३१४
ऊपरके दोनों पुराने मुक़द्दमे हैं इनपर अमल बहुत रोज़से नहीं किया गया, इस विषय में मिस्टर मेनकी राय वहुतही योग्य समझी जाती है, उन का कहना है कि “मुमकिन है कि दत्तकपुत्र, जिसकी दत्तक नाजायज़ क़रार दी गई हो अपने असली खानदान में एक मेम्बरकी हैसियतको खोदे । मगर वह अपनी परवरिश पानेका उस खानदानसे अधिकारी है जिसमें वह गोद लिया गया हो” देखो मेन हिन्दूलॉ पैरा १७७. सबका नतीजा यह है कि दत्तकपुत्र, गोद लेनेवाले खानदानपर अपने परवरिश पानेका दावा कर सकता है जबकि दत्तक नाजायज़ क़रार पाया हो; मगर इस क़िस्मके दावा की खास सूरतें हैं जो प्रत्येक मुक़द्दमेके सुबूतपर निर्भर हैं ।
दफा २९४ दत्तक पुत्रके बदले में रुपया लेनेका परिणाम
जब कोई दत्तकपुत्र देने के बदलेमें, लेनेवालेसे रुपया वसूल कर लेवे, अथवा मासिक या सालाना किसी तौरपर रुपया मिलनेका ठहराव कर लेवे, तो यक़ीनन वह दत्तक मन्सूख हो जायगा यदि कोई ऐसा ठहराव किया गया हो कि इस क़दर रुपया दत्तक देनेवाले को सालाना मिला करेगा, तो इसका यह अर्थ होता है कि वह दत्तक बिला वास्ता नहीं है बक्लि वह दत्तक 'क्रीत" है 'क्रीत' क़िस्मकी दत्तक क़ानूनन् नाजायज़ होता है इस लिये वह भी नाजायज़ होगा; और जब यह साबित हो कि दत्तकपुत्र खरीदा गया है, तथा सिर्फ रुपया मिलने की गरज़से दिया गया है; तो दत्तक नाजायज़ हो जावेगा; देखो - एशान किशोर बनाम हरिश्चन्द्र 13 B. L. R. P. 42; S. C. 21 Suth. 381; क्रीत पुत्रके लिये देखो दफा ८२ पैरा १०.
दफा २९५ नाजायज़ दत्तकपुत्र केहक़में दानपत्र या मृत्युपत्रकाफल
(१) दत्तक नाजायज़ हो जानेसे हिबानामा नाजायज़ नहीं होगा-दान पत्र ( हिबानामा) करनेके बाद अगर दत्तकपुत्र नाजायज़ क़रार दिया जाय तो दान पत्र मन्सूख नहीं समझा जायगा ऐसा मानो कि भगवानदासने अपनी जायदाद हिबानामाके द्वारा मुरलीधर को दी और जिस वक्त हिबा लिखा गया था भगवानदास को यह मालूम था कि मुरलीधर गोदका लड़का है
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________________ दफा 264-365] दत्तक सम्बन्धी अन्य ज़रूरी बातें 315 पश्चात् हिबानामाके, मुरलीधरकी दत्तक नाजायज़ होगई तो अब सवाल यह उठता है कि हिबा ठीक रहा या वह भी नाजायज़ हो जायगा ? इसका उत्तर यह है कि दत्तक नाजायज़ होनेकी वजहसे हिबा नाजायज़ नहीं होगा हिबा ठीक माना जायगा / यह माना गया है कि दत्तक के विषयसे हिबाका झ्यादा सम्बन्ध नहीं है। (2) दत्तक पुत्रके हक़में किस सूरतमें वसीयत जायज़ होगा-जब कोई मृत्युपत्र ( वसीयतनामा) ऐसा लिखा गया हो कि "मैने अमुक लड़के को गोद लिया है और मैं अपनी जायदाद उसे देता हूँ, मेरी स्त्रियां मेरा धर्म कृत्य पूरा करेंगी और जब तक लड़का बालिग न हो जाय उसकी परवरिश करेंगी तथा इस लड़केकी ज़िदगीमें उनको गोद लेने का अधिकार नहीं रहेगा" प्रिवीकौन्सिल ने यह राय दी कि अगर उसकी विधवायें वसीयत की पाबंदी भी न करतीं तो भी वसीयती हिबा जायज़ था-देखो-निघोमनी देवी बनाम सरोदाप्रसाद 3 I. A. 253, S. C. 26, Suth 91. (3) उस लड़केके हनमें वसीयत,जिसे वसीयत करने वाला प्रेमकरता हो-नीचे के मुकद्दमें में एक पुरुष ने यह विचार किया था कि मैं जायदाद एक दूसरे लड़के को दे दूं जिसके साथ उसका प्रेम था। बाद में उसने उस लड़के को गोद ले लिया और वसीयत के ज़रिये से अपनी जायदाद उसे दे दी। पुरुष के मरने पर दत्तकनाजायज़ होगया मगर अदालत ने वसीयत नामा को बरकरार रखा-देखो-वीरेश्वर बनाम अर्द्धचन्द्र 19 I. A. 101. S. C. 19 Cal. 452. (4) वसीयत की बुनियाद पर राजा साहबके मुकदमेंका फैसला-एक खास किस्म का मुकदमा देखो, जिसमें एक राजा साहब ने बहुत रोज़ बिला औलाद रहने के कारण एक पुत्र दत्तक लिया, दत्तक लेने के बाद राजासाहब की स्त्रियों में से एक के, एक औरसपुत्र पैदा होगया, राजा साहब ने एक वसीयत की कि धर्मशास्त्रानुसार सब जायदाद औरसपुत्र को पहुंचती है इस लिये मेरी सब जायदाद का वारिस औरसपुत्र होगा, तथा दत्तक पुत्र को सिर्फ नान नाका (रोटी कपड़ा) मिलेगा। राजा साहब के मरने पर दत्तक पुत्र ने दावा दायर किया, कहा गया कि वसीयत नाजायज़ है और सब जायदाद बादी को मिलना चाहिये, अदालत मातहत ने दावा सभी बुनियादों पर डिकरी कर दिया। मदरास हाईकोर्ट के सामने सिर्फ अपील वसीयत की बुनियाद पर की गई, अपील में इस बात पर विचार किया गया कि वसीयत जायज़ है अथवा नाजायज़ / हाईकोर्ट ने वसीयत जायज़ करार दिया, जजों की राय थी कि वसीयत फरेबन नहीं किया गया, कानूनन् जायज़ था और औरसपुत्र उसका वारिसथा यह मदरास हाईकोर्ट का फैसला प्रिवीकौन्सिल ने स्वीकार किया -देखो, वेंकटा सुरैय्या महीपति बनाम दि कोर्ट आफ् वार्डस 20 Mad 167; 26 I. A. 83; S.C. 22 Mad 383,
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दत्तक या गोद
[ चौथा प्रकरण
( ५ ) उस लड़के के हक़ में दानपत्र ( हिबा ) जिसके साथ उसका प्रेम हो - यह बात पहिले भी बताई गई है कि जब कोई आदमी अगर किसी लड़के को ज़िंदगी भर परवरिश करे, उसकी शादी करे तथा अपने असली लड़के की तरह पर हमेशा मानता रहे और उसके साथ वैसाही वर्ताव करता रहे जैसा कि सगे लड़केके साथ होना चाहिये था, तो भी वह लड़का उस आदमीके मरने के बाद जायदादमें कुछ भी भाग नहीं पायेगा । लेकिन अगर ऐसे लड़के को पालने वाले आदमी की तरफ से हिबानामा ( दानपत्र ) कर दिया जाय तो उस बुनियाद पर लड़के को जायदाद मिल जायगी बशर्ते कि दानपत्र अन्यसब बातोंसे जायज़ क़रारदिया गया हो। देखो श्रब्याचारी बनाम रामचन्द्रया 1. Mad. H. C. 393, [ और देखो सोलहवां प्रकरण ]
(६) वसीयतनामा कब नाजायज़ हो जायगा - जब कोई आदमी या विधवा किसी लड़के को दत्तक लेलेवे और उस दत्तककी रसमें या जिन बातों से वह जायज़ हो सकता था उनको अपनी समझ से पूरा कर लेवे और बाद को उस दत्तक पुत्र के नाम एक बसीयत करे जिसका नतीजा यह हो कि मैंने तुमको दत्तक लिया था और दत्तककी हैसियत से तुम मेरी सब जायदाद के मालिक मेरे मरने के पश्चात् होगे, तथा मेरे लिये व मेरे पितरों के लिये पिण्डदान, आदि की धार्मिक कृत्य पूरी करना । इस मतलब की वसीयत लिखने के बाद उस आदमी या विधवा के मरने पर अगर दत्तक नाजायज़ क़रार दी जावेगी तो वसीयतनामा भी नाजायज़ क़रार पावेगा । जुड़ीशल कमेटी ने फरमाया कि दत्तक मय वसीयतनामा के नाजायज़ है सबब यह बताया गया कि ज़ाहिरा वसीयत करने वाले का यह इरादा था कि वह बहैसियत दत्तक पुत्र के जायदाद उसे देवे। देखो - फणेन्द्रदेव बनाम राजेश्वरदास 12 I. A. 72; S. C. 11 Cal. 463 दुर्गासुन्दरी बनाम सुरेन्द्र केशव 12 Cal. 686; कृष्णदास बनाम लादकाबाहू 12 Bom. 185; श्यामाबाहू बनाम द्वारिकादास 1 B. 202; पटेल वृन्दावन जैकिशुन बनाम मन्नीलाल 15 Bom, 673; अब्बा बनाम कुप्पामल 16 Mad. 355.
( ७ ) जब गोद लेने की आशा कई स्त्रियों को दी गई हो और सबने गोद लिया हो - मुल्ला हिन्दू लॉ में कहा गया है कि जब इकट्ठा एक या दो या अधिक दत्तक लेने की आशायें दी गयीं हों तो वह नाजायज़ हैं। देखो मुल्ला हिन्दू लॉ ऐड़ीशन दूसरा पेज ३६० दफा ४०० इस सिद्धांत पर एक नज़ीर देखो । जिस नज़ीर का परिणाम यह है । ऐसा मानों कि रामलाल
दो औरतें हैं उन दोनों औरतों के लड़के नहीं हैं, और रामलाल यह इच्छा. रखता है कि दोनों एक एक पुत्र दत्तक लेवें । रामलाल अपने मरने से पहिले यह आज्ञा दे गया था कि दोनों विधवायें अलग अलग एक एक लड़का गोद लेवें । इस आशा के अनुसार दोनों विधवाओं ने लड़के गोद लिये अदालत से
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दफा २६५]
दत्तक सम्बन्धी अन्य ज़रूरी बातें
करार दिया गया कि ऐसा दत्तक लेने का अधिकार देना ही नाजायज़ था इस लिये दोनों दत्तक पुत्र नाजायज़ हो गये । यद्यपि इस मुकदमे में अन्य बातों पर भी विचार किया गया है मगर यह साफ है कि ऐसा अधिकार जैसाकि रामलाल ने दिया अयोग्य था देखो-आखुचन्द्र बनाम कलाफर (1885 ) 12 Cal. 406; 12 I. A. 198; सुरेन्द्रो बनाम दुर्गासुन्दरी (1891) 19 Cal 513; 19 I. A. 108 और देखो दफा १३१ से १३७.
(८) जब वसीयत, या हिबा गोद लेने से पहिले, किया गया हो-जब कोई वसीयत या हिबा (मृत्यु पत्र अथवा दान पत्र ) किसी लड़के को इस इच्छा से किया गया हो कि वह लड़का दत्तक लिया जायगा और जायदाद उसको पहुंच जायगी । मगर लिखने के समय दत्तक न लिया गया हो उसके मरने के पीछे अगर वह गोद नाजायज़ हो जाय तो उसको वसीयत या हिबा के अनुसार भी जायदाद नहीं मिलेगी। क्योंकि उस लिखत और उसके सब सम्बन्धों से यह देखा जायगा कि देने वाले की खाहिश कैसी थी यदि यह साबित होकि देने बाले की इच्छा दत्तक के आधार पर, 'न थी, तो वसीयत या हिबा जायज़ होगा, अगर दत्तक के आधार पर साबित हो तो नाजायज़ होगा इसी तरह पर जब कोई ऐसे लड़केके हकमें वसीयत कर गया हो जिसे वह गोद लेना पसंद करता था और वह दत्तक न लिया गया हो तो वह वसीयत और हिबा ना जायज़ होगा-देखो-मुल्ला हिन्दूलॉ एड़ी, दूसरा पेज ४०६ दफा ४२६.
ऊपर के सिद्धांत के अनुसार प्रत्येक विषय की भिन्न भिन्न नज़ीरें देखो वसीयत करने वाले की इच्छा, वसीयत नामा की तहरीर और उस पुरुष के तमाम अन्य सम्बन्धों से विचार की जायगी और साबित हो सकेगी-फरीन्द्र देव बनाम राजेश्वर ( 1184 ) 11 Cal. 463; 12 I. A. 72, P. 893 अगर वसीयत इस आधार पर कीगई हो कि लड़का दत्तक लिया जायगा, और दत्तक पुत्र की हैसियत से जायदाद उसे दीगई हो तो दत्तक नाजायज़ होने की सूरत में वसीयत भी नाजायज़ होगी देखो-निधोमनी बनाम सरोदा ( 1876 ) 26 W. R. 91; 3 I. A. 253 वीरेश्वर बनाम अर्द्धचन्द्र ( 1892) 19 Cal: 452; 19 I. A. 101; सुब्बा रायर बनाम सुब्बामल (1900) 24 Mad. 214, 27 I. A. 162, मुरारीलाल बनाम कुन्दनलाल ( 1909 ) 31.All. 337, अगर वसीयत किसी पसंद किये हुये लड़के के हक में यह मानकर किया गया हो कि वह लड़का गोद लिया जावेगा। अगर किसी तरह से गोद न लिया गया तो वसीयत नाजायज़ होगी देखो-सुरेन्द्रो बनाम दुर्गा सुन्दरी ( 1892 ) 19 Cal. 523; 19 I. A. 108, लाली बनाम मुरलीधर (1906 ) 28 All. 488; 33 I. A. 97, बिल्कुल इसी तरह का केस देखो-करमसी बनाम कृष्णदास (1898 ) 23 Bom. 271.
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दसक या गोद
[चौथा प्रकरण
नोट-यहां पर वसीयत या हिवा से यह मतलब है कि जायदाद किसी शर्त के साथ और किसी आधार पर दूसरे को दीगई हो, हिबा से ऐसा अब नहीं समझना कि अपनी जिन्दगी ही में और उसी वक्त देदी गई हो ऐसी दिवा वसीयती हिवा कहलाती है देखो प्रकरण १६,
(8) किस सूरतमें विधवाको वसीयती जायदाद नहीं दिलाई जायगीजब आदमी कोई अपनी स्त्रीको ऐसी वसीयत करे कि “जबतक वह, मेरी विधवाकी हैसियतसे अपना धर्म पालन करे और शादी नकरे तो उसको सालाना इतना रुपया बराबर मिलता रहेगा" उस आदमीके मरनेसे पहिले अगर यह साबित हुआ कि उसका विवाह प्रारम्भसे ही नाजायज़ था तथा इस बुनियाद पर उसे छुटकारा दिया गया। तो ऐसी सूरतमें उसे सालाना रुपया नहीं मिल सकता देखो-इंगलिश लॉ, रिपोर्टस् चान्सरी डिवीज़न 22 P. 697; यही फैसला कबूल किया गया 25 Ch. D. 685.
(१०) किन सूरतोंमें हिबानामा जायज़ रहेगा-अगर कोई पुरुष किसी औरत या लड़केके नाम अपनी जायदादका हिबा करे जिसे वह गलत तौर पर अपनी औरत या लड़का समझता था, तो ऐसा हिबा किया जाना कुछ तो इस वजेहसे मालूम होता है कि वह अपने रिश्तेदारको परवरिश करनेकी गरज़ ज़ाहिर करता है, और कुछ इस सबबसे कि उसकी प्रीतिका प्रवाह उसकी तरफ होगया है। ऐसी दशामें यद्यपि रिश्तेदारीकी कोई बात न भी हो तो जायज़ रहेगा। इसीतरहपर हिबा उस वक्त भी जायज़ करार दियाजायगा जब कि रिश्तेदारी हिबा करनेके वक्त कायम हो और जब हिबाके सम्बन्धसे उसे जायदाद पहुंचने का मौका पावे रिश्तेदारी कायम न रही हो। देखो-इंगलिश रिपोर्ट चेन्सरी 22 P. 619.
नोट-जब किसी तहरीर ( लिखत ) के जरिये से किसी आदमी ने अपनी जायदाद दूसरे को दी हो तो जिस वक्त उस तहरीर से जायदाद पंहुचने का समय आवेगा तो विचार इस बात का किया जायगा कि उसने किस हैसियत से दी थी। और उसका मंशा क्या था । अगर उसकी मंशा से यह जाहिर होता हो कि किसी बातको मानकर दी थी तो उस बात के सिद्ध न होने पर उस तहरीर का असर भी नहीं होगा । और बादमें जायदाद जायज वारिस के पास पहुंचेगी ऐसा समझकर कि गोया उसने तहरीर की ही नहीं थी । लिखने वाले का मंशा उसकी तहरीर के शब्दों से और उसके आगे के बर्ताव से समझा जायगा। इसबात का सावित करना उस पक्षकार पर निर्भय है जिसके सावित न होने की वजह से उसका नुकसान पहुंचता हो । दफा २९६ दत्तकपुत्र जायदाद वापिस ले सकता है
विधवा दत्तक लेने के लिये मजबूर नहीं की जासकती, उसका जब जी चाहे गोद लेवे मगर हक वारिसाना पतिके मरतेही फौरन पहुंच जाता हैं इसे वह रोक नहीं सकती हकवारिसाना तमाम हनोंके साथ जाता हैं मानो दत्तक केनेके अधिकारकी पैदाइशही नहीं हुई थी। मगर यदि कोई ऐसा अधिकार
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दफा २६६ - २१८ ]
दत्तक सम्बन्धी अन्य जरूरी बातें
प्राप्त होने पर जायदादको अलाहदा करदे या अन्य किसी तरहपर नुक़सान पहुंचा हो तो जिस वक्त दत्तक लिया जायगा दत्तक पुत्रको उसी वक्तसे अधिकार प्राप्त होना शुमार किया जायगा जबसे उसका दत्तक पिता मरा था । और दत्तक पुत्र उस जायदादके वापिस पानेका तथा नुक़सान पूरा करा पानेका दावा करसकता है और वापिस लेसक्ता है जो दत्तक लेनेके पहिले वाक़ हुआ हो-देखो - बाबू अनोजी बनाम रतनोजी 21 Bom. 319.
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दफा २९७ दत्तक लेनेसे विधवाका अधिकार घट जाता है
दत्तक होतेही दत्तकपुत्रको गोद लेनेवाले बापकी जायदाद में पूरा अधिकार प्राप्त हो जाता है, और विधवाका अधिकार घट कर सिर्फ रोटी, कपड़ा पानेका रहजाता है मगर जब लड़का अज्ञान हो तो विधवा बहैसियत बलीके जायदादपर क़बज़ा रखती है । देखो - धरमदास पांडे बनाम मु० श्यामासुन्दरी 3 M. 1. A. 229; S. C. 6 Suth. ( P. C. ) 43; बिन्द्रावनदास बनाम जमुनाबाई 12. Bom. H. C. 229, जमुनाबाई बनाम रामचन्द्र 12 Bom. 225; निनगारेडी बनाम लक्षमावा ( 1901 ) 26 Bom 163; खेमकर बनाम उमाशंकर (1873 10 Bom. H. C. 381.
अविभक्त परिवारकी जब कईएक विधवायें हों तो जिस विधवाको दत्तक लेनेका अधिकार होगा, वह बिला रज़ामंदी दूसरी विधवाओंके दत्तक ले सकती है और उस दत्तकसे सब विधवाओंके अधिकार घटकर रोटी कपड़ा पर रह जायेंगे। कोई विधवा रज़ामंदी न देने की वजेहसे दत्तक के अधिकारको रोक नहीं सकती, देखो - मंदाकिनीदासी बनाम आदिनाथ 18 Cal. 69.
दत्तक लेने के पूर्व विधवा द्वारा इन्तकाल - क़ानून मियाद का आर्टिकिल ६१. हनमगोवदा शिदगोवदा बनाम हरगोबदा शिवगोवदा. 84 I. C. 374. A. I. R. 1925 Bom, 9.
दफा २९८ अनेक विधवाओं में बड़ी विधवा दत्तक लेसकती है
बम्बई स्कूलमें विधवा पतिकीआशा बिना भी दत्तक लेसकती है। वहां पर यह माना गया है कि जब पति किसी विधवाको दत्तक लेनेका अधिकार न दे गया हो तो सब विधवाओंमेंसे जो बड़ी विधवा होगी वह विला रज़ामंदी छोटी विधवाओंके दत्तक ले सकती है; देखो - रुकमाबाई बनाम राधाबाई 5 Bom H.C. (A. C. J.) 181, 192; 18 Cal. P. 74.
मिस्टर मुल्लाने कहा है कि-बड़ी विधवा, बिला रजामंदी छोटी विधवाओंके गोद लेसकती है मगर छोटी विधवा बिला रज़ामंदी बड़ी बिधवा के गोद नहीं ले सकती, देखो - मुल्ला हिन्दूलॉ दूसरा एडीसन पेज ३७६ दफा
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३२०
दत्तक या गोद
[चौथा प्रकरण
३७४ पैरा ४; नज़ीर देखो-5 Bom 181; पदाजीराव बनाम रामराव ( 1888 ) 13 Bom 160; अमावा बनाम महद गौड़ ( 1896 ) 22 Bom 416. दफा २९९ पदोत्कर्षवारिसका हक़ दत्तकसे नष्ट नहीं होता
अगर लड़का अपनी स्त्री या बच्चे या अन्य दूसरा नज़दीकी वारिस वमुक़ाबिले अपनी माके छोड़कर मरजाय, और उसकी माको पतिसे ऐसा अधिकार प्राप्त हो चुका हो कि “यदि लड़का मरजाय तो दत्तकपुत्र लेना" यद्यपि मा पतिके दिये हुए अधिकार द्वारा दत्तकपुत्र लेने की अधिकारिणी है परन्तु दत्तक नहीं ले सकती, यदि ले तो नाजायज़ होगा । इस तरहपर समझो कि
ब (विधवा)
ल (लड़का )
स (विधवा) जैसे-अ, मरगया और उसने अपनी विधवा ब, तथा एक पुत्र ल, को छोड़ा। अ, के मरनेपर ल, अपने बापकी छोड़ी हुई सब जायदादपर काबिज़ हो गया, ल, अपनी विधवा स, को छोड़कर मरगया, और ल, के मरनेपर उसकी विधवा स, पतिकी छोड़ीहुई जायदादपर काबिज होगयी बतौर उसके वारिसके । स, मरगयी और उसके मरनेपर ल, की मा ब, बहैसियत उत्तराधि कारके जायदादकी वारिस हुई और काविज़हुयी । ब, को पतिसे अधिकार मिलचुकाथाकि लड़केके मरनेपर दत्तक लेवे, मगर अब वह नहीं ले सकती
और अगर लेवे तो दत्तक नाजायज़ होगा। माना गया है कि जब उसका लड़का एक विधवा छोड़कर मरगया तो उसका अधिकार दत्तक लेनेका चला गया; देखो-कृष्णराव बनाम शंकरराव (1891 ) 17 Bom. 164; माणिक्यमल बनाम नन्दकुमार (1906 ) 33 Cal. 1306. दफा ३०० रामकिशोर बनाम भुवनमयी वाला मुकदमा
__इसी तरहका एक मशहूर मुकदमा देखो, जो बंगालमें पैदा हुआथा और प्रिवीकौन्सिल तक वहालरहा। पहिले नीचेके नक्शे को देखो
१ गौर किशोर
भवानी किशोर ( लड़का) भुबनमयी (विधवा-प्रतिवादी)
चन्द्रावली (विधवा ) रामकिशोर ( दत्तक पुत्र-वादी )
'.
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दफा २६६-३० ]
दत्तक सम्बन्धी अन्य ज़रूरी बातें
नं० एक, दो और तीनको छोड़कर मरगया । नं दो, चारको छोड़कर लावल्द मरगया; तब नं० तीनने, पांचको दत्तक लिया | नं० पांच मुद्दई है और नं ४ मुद्दालेह |
गौरकिशोरने एक वसीयत किया जिसमें लिबाकि "अगर मेरी स्त्री चन्द्रावलीका औरसपुत्र भवानी किशोर मरजाय, तो वह दत्तक लेवे” गौर केशोर मरगया और उसने भवानीकिशोर लड़का तथा चन्द्रावली विधवाको छोड़ा। अपने बाप के मरनेपर भवानी किशोर उसकी सब जायदादका वारिस जायज़ हुआ और काबिज होगया । भवानीकिशोर धीरे धीरे बड़ा हुआ, और उसकी शादी हुई तथा वह जवान हुआ । जवानी में वह लावल्द मरगया । उसने भुवनमयी अपनी विधवाको छोड़ा। तब चन्द्रावलीने पतिकी आशाके अनुसार रामकिशोरको दत्तक लिया । रामकिशोरने भुवनमयी विधवा पर जायदाद वापिस लेनेकी नालिश की। यहांपर यह याद रखना कि बंगालमें विधवा अपने पति के जायदादकी वारिस होती है चाहे उसका पति खानदान में शामिल शरीक अपने भाइयोंके रहता हो । जुड़ीशल कमेटी बंगालने दावा रामकिशोरका खारिज कर दिया । अन्य बातोंके साथ साथ यह तजवीज़ किया गया कि -- भवानीकिशोर इतने दिन ज़िन्दा रहा था कि वह सब धार्मिक कृत्यें जो उसके बाप गौरकिशोरके लिये होना आवश्यक थीं सब अदा करचुका होगा तथा वह मौरूसी जायदादका बतौर वारिस मालिक हुआ था जिसपर उसका पूरा अधिकार मिस्ल मालिकके था । अगर वह अपने समयमें जायदाद किसीको देदेता या अपने क़ब्ज़े से हटा देता अथवा एक लड़का दत्तक लेलेता, तो जिसे भवानीकिशोरने जायदादका मालिक बनाया होता, जायदाद ज़रूर उसे पहुंच जाती और वह इसतरह पर उसका मालिक बन जाता । यदि ऐसा होता तो गौरकिशोरका इरादा नष्ट होजासकता था । भवानी किशोरके मरने पर उसकी विधवा भुवनमयी जायदादकी वारिस हुई तो ऐसी सूरत में रामकिशोर जायदाद उससे नहीं ले सकता है। अदालत ने और भी ऐसी सूरतें बयान कीं हैं कि जिनसे भुवनमयीके क़ब्जेसे जायदाद नहीं अलहदा हो सकती थी । यह भी तजवीज़ किया गया है कि भुवनमयीके मरनेपर इस जायदाद का वारिस वह होगा जो भवानी किशोर के मरने पर होता, अर्थात् दत्तकपुत्र उस वक्त भी जायदाद नहीं पासकेगा जब भुवनमयी मरजाय । इस मुक़द्दमें में यह सिद्धान्त लागू किया गयाकि पदोत्कर्ष वारिसका अधिकार दत्तक से नष्ट नहीं हो सकता । इस केसमें विधवा चन्द्रावलीके मुक़ाबिलेमें भवानी किशोर लड़के का हक़ पदोत्कर्ष है । और अगर भवानी किशोर बिनव्याहा मर जाता तो जायदाद फिर चन्द्रावली उसकी माको पहुंच जाती, उस वक्त उसे दत्तक लेनेसे दूसरा असर पैदा होता। यानी यह कि, उस समय दत्तक लेने से चन्द्रावली सिर्फ अपने अधिकारको घटा देती नकि किसी दूसरे के अधिकारको । उस वक्त दत्तक लेना योग्य हो सकता और उसका फैसला मामूली दत्तक के
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३२१
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दत्तक या गोद
[चौथा प्रकरण
अनुसार हो जाता। देखोः-भुवनमयी बनाम रामकिशोर ( 1865 ) 10 M. I. A. 279, 310 S. C.3 Suth ( P. C.) 15 इसी तरहके और भी फैसले हैं देखो - पद्मकुमारी बनाम कोर्टस् आफ्वार्डस् ( 1881 ) 8 Cal. 3027S. 1. A. 229 थैय्यामल बनाम वेंकटराम ( 1887) 10 Md. 205.14 1. A. 67; ताराचरन बनाम सुरेशचन्द्र ( 1889 ) 17 Cal. 122; 16 I. A. 166; अम्मावा बनाम महदगौड़ ( 1896 ) 22 Bom. 416. दफा ३०१ बद्रीदास बनाम रुकमाबाईका मुकदमा
बम्बई में एक फैसला हुआ जिसमें वाकियात मुकदमेमें और तरहपर मे । बम्बईकी नज़ीरके वाक्रियात इस तरहपर थे
सोभाराम
रुकमाबाई (विधवा-प्रतिवादी) सुरजाबाई (विधवा)
बद्रीदास ( दत्तक पुत्र-वादी) खामदान शामिल शरीको सोभाराम और श्रानन्दराम दो सगे भाई है। आनन्दराम पहिले मरगया और सुरजाबाई विधवा को छोड़ा। पीछे सोभाराम मरा और रुकमाबाई विधवाको छोड़ा, सुरजाबाईने सोभारामके मग्नेपर बद्रीदासको अपने पतिके लिये गोद लिया जिसने रुकमाबाई के मुकाबिलेमें जायदाद पानेका दावा किया। यह स्मरण रहे कि बम्बई प्रान्तमें विधवा बिना पतिके सपिण्डों की आज्ञासे गोद ले सकती है। हाईकोर्टने फैसला किया कि दावा मुद्दई खारिज होवे। यह माना गया कि अविभक्त परिवारमें जब आनन्दराम पहिले मरा तो उसकी जायदाद उसके भाई सोभा रामको पहुंच गयी। सोभाराम दोनों की जायदादका अकेला वारिस हो गया, और जब सोभागम मरा तो उसकी जायदाद रुकमाबाईको प्राप्त हो चुकी थी, इस लिये दत्तकपुत्र जायदाद वापिस नहीं ले सकता है जो सिद्धान्त भुवनमई बनाम रामकिशोर 10 M. I. A. 279; के मुकदमे में माना गया था कि जब जायदाद किसी वारिसको पहुंच जावे तो दत्तकसे उसका अधिकार नष्ट नहीं होता वह सिद्धान्त भी इसमें लागू किया जा सकता है देखो--5 Bom H. C. (A. C. J.) 181. दफा ३०२ विधवा अपनेलिये लड़का गोद नहीं लेसकती
यह कहा जाचुका है कि हरएक पुरुष दत्तकले सकता है अगर वह दत्तक अन्य सब बातोंसे योग्य हो, उसकी विधवा भी पतीके लिये दत्तक लेसकती है
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दफा ३०१-३०४]
दत्तक सम्बन्धी अन्य जरूरी बातें
३२३
मगर कोई दूसरी औरत किसी लड़केको गोद नहीं ले सकती। जैसे मा अपने घेटेके लिये अथवा बहन अपने भाईके लिये गोद नहीं लेसकती। स्त्री भी अपने पतिकी ज़िन्दगीमें गोद नहीं ले सकती, मगर वह पतिसे पाये हुए अधिकार के द्वारा उसके मरनेपर गोद ले सकती है हिन्दुस्थानके कुछ भागोंमें माना गया है कि वह बिना अधिकार पाये हुए भी पतिके लिये दत्तक लेसकती है। अगर किसी विधवाने खास अपने लिये लड़का दत्तक लिया होतो उसे विधवा के पति की जायदादमें कोई हक नहीं मिलता और विधवाके मरनेपर भी उस दत्तक पुत्र को जायदादमें कुछ नहीं मिलेगा-देखो-चौधरी बनाम कोयर (809) 12 M. I. A. 300, 356; नरेन्द्र बनाम दीनानाथ ( 1909 ) 36 Cal. 824.
अब किसी विधवाने खास अपने लिये दत्तकपुत्र लियाहो, और वह उसे छोड़कर मरगई हो, तो विधवाका खास जायदादका भी मालिक इत्तक पुत्र नहीं होसकता। दफा ३०३. वेश्या या नायकिनका लड़की दत्तक लेना
कलकत्ता और बम्बई प्रान्तोंके फैसलोंसे तय हो चुका है कि, इन प्रान्तों के अन्तर्गत कोई वेश्या या नायकिन या नाचने गानेका पेशा करनेवाली औरत लड़की को दत्तक नहीं लेसकती अगर लेगीतो नाजायज़ होगा, क्योंकि वह कानूनन् नाजायज़ है । मुक्कामी रवाजसे भी साबित हो चुका है कि ऐसा इत्तक नाजायज़ है। मदरास हाईकोर्ट के अन्तर्गत फैसला किया गया है कि ऐसी दत्तक जायज़ है, यदि वह उसके पेशेके लिये न लिया गया हो, अर्थात् दत्सक, नाचने, गाने या वेश्याके कामके लिये न लिया गया हो। दोनों किस्मके फैसले देखो-नाथूराम बनाम ईसू ( 1880 ) 4 Bom. 545; हीरा बनाम बाधा ( 1913 ) 37 Bom. 117; हेनकोवर बनाम हंसकोवर ( 1818)2 Morl. Dig. 133; मनजामा बनाम शेषगिरिराब ( 1902 ) 26 Bom. 491, 495; मदरासकी नज़ीरें देखो - वेंकू बनाम महालिंग (1888 ) 11 Mad. 393; मुटूकानू बनाम पारामासामी ( 1888 ) 12 Mad. 214. देखो दफा २२०, ११६. दफा ३०४ पुरुष, दत्तकमें लड़काही लेसकता है लड़की नहीं
पुरुषको दत्तकमें लड़काही लेना चाहिये लड़की नहीं लेना चाहिये इस कायदेके अनुसार लड़का ही दत्तक लिया जासकता है लड़की नहीं । एक ब्राह्मणने एक लड़की, इस गरजसे दत्तक ली, कि वह उसे अपनी लड़कीकी जगह पर कायम करे; मगर धर्मशास्त्र के और रवाज के अनुसार वह आयज़ करार नहीं दी गयी देखो-गङ्गाबाई बनाम अनन्त ( 1888) 13 Bom. 690.
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३२४
दत्तक या गोद
कृत्रिम दत्तक
1-1
[ चौथा प्रकरण
दफा ३०५ कृत्रिम पुत्रका दरजा
यद्यपि कृत्रिम पुत्रको, वसिष्ठ, विष्णु, शंख लिखितने नहीं माना और ब्रह्मपुराणमें इस पुत्रका ज़िकर नहीं है । परन्तु मनु, बौधायन गौतम, याज्ञवल्क्य, नारद, हारीत, देवल, यम, और बृहस्पतिने माना है तथा इस पुत्रका ज़िक्र कालिका पुराणमें किया गया है। जिन स्मृतिकारोंने इस पुत्रको माना है उन्होंने अन्य पुत्रोंके साथ इसका दरजा क़ायम किया है । जैसे मनुने ४, बौधायनने ५, गौतमने ४, याज्ञवल्क्यने ६, नारदने ११, हारीतने १२. देवल ने ११, यमने १० बृहस्पतिने ६ और कालिका पुराण ने चौथा क़ायम किया है । गौतम, मनु और कालिका पुराण चौथे दरजे से सहमत हैं बाक़ी आचा
.
भिन्न भिन्न दरजे मानते हैं । दरजेका अर्थ श्रेणी या बर्ग होता है, दरजेसे यह मतलब कि किससे कौन श्रेष्ठ है और कौन कम है। इसे यों समझ लो कि औरस पुत्रको सब चाय्योंने पहिला दरजा कायम किया है इसलिये वह सबसे श्रेष्ठ है और बाक़ी पुत्रोंके बारेमें एक राय नहीं है। इस तरहपर कृत्रिम पुत्रको मनु, औरस पुत्रसे चौथा दरजा देते हैं यानी औरस पुत्रकी अपेक्षा वह चार दरजा हीन हैं -- देखो इस किताब की दफा ८६, ६०.
दफा ३०६ कृत्रिम के सम्बन्धमें धर्म शास्त्रकारों का मत
कृत्रिम पुत्रकी तारीफ़ समझने के लिये स्मृतियों के कुछ वचन नीचे उद्धृत करता हूँ -
मनु - सदृशंतु प्रकुर्याद्यं गुणदोष विचक्षणं । पुत्रं पुत्रगुणैर्युक्तं सविज्ञेयश्च कृत्रिमः । मनुः अ० ६ - १६६
सदृशमिति - यं पुनः समान जातीयं पित्रोः पारलौकिक - श्रादादिकरणाकरणाभ्यां गुणदोषौ भवत इत्येव मादिज्ञं, पुत्रगुणैश्च माता पित्रेणराधनादि युक्तं पुत्रं कुर्य्यात् स कृत्रि माख्यः पुत्रोवाच्यः । कुल्लूक भट्टः
याज्ञवल्क्य — क्रीतश्च ताम्यां विक्रीतः कृत्रिमः स्यात्स्व यंकृतः । अ० २ - १३१
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दफा ३०५ - ३०६ ]
कृत्रिम दत्तक
मिताक्षरा - कृत्रिमः स्यात्स्वयंकृतः । कृत्रिमस्तु पुत्रः स्वयं पुत्रार्थिना धन क्षेत्र प्रदर्शनादि प्रलोभनैव पुत्रीकृतो । मातापितृ विहीनस्तत्सद्भावे तत्परतन्त्रत्वात् ।
बौधायन - सदृशं यं सका स्वयंकुर्यात्सकृत्रिमः २२ २५
३२५
मनुका भावार्थ -- गुण और दोषके जानने में चतुर पुरुष जब गुण युक्त और अपनी जातिके बालक को लेकर अपना पुत्र बना लेता है उस पुत्र को कृत्रिम पुत्र कहते हैं । यही भाव कुल्लूक भट्टका है याज्ञवल्क्य कहते हैं किजिस पुत्रको किसी मनुष्य ने जिसे पुत्रकी अभिलाषा हो धन और क्षेत्र आदि के लोभ को दिखाकर स्वयं पुत्र कर लिया हो वह कृत्रिम पुत्र कहलाता है । यही मतलब मिताक्षराकार विज्ञानेश्वर का है । बौधायन कहते हैं कि - जब कोई समान जाति के बालकको अपनी इच्छासे पुत्र बना लेता है तब वह कृत्रिम पुत्र कहा जाता है । प्रायः अन्य श्राचाय्यौने भी ऐसीही व्याख्या कृत्रिम की की है। क़ानूनमें कृत्रिम पुत्र किस तरहपर माना जाता है तथा कहां माना जाता है और उसे क्या अधिकार हैं इत्यादि बातोंका उल्लेख नीचे देखो । दफा ३०७ कृत्रिम दत्तक सब जगह नहीं माना जाता
-
दत्तक मीमांसा में माना गया है कि अभी इस क़िस्म के दत्तकका रवाज प्रचलित है मगर आजकल सिर्फ दो क़िस्मके लड़के प्रायः सर्वत्र माने जाते हैं औरस और दत्तक । बाक़ी क़िस्मके लड़के नहीं माने जातें, बङ्गाल, संयुक्त प्रांत मध्य प्रदेश, बम्बई, और मदरास के एक बड़े भागमें कृत्रिम दत्तक नहीं माना जाता । परन्तु मिथिला और नामबुद्री ब्राह्मणों में अब भी इस दत्तक का रवाज प्रचलित है ।
दफा ३०८ कृत्रिम दत्तक मिथिलामें माना जाता है
मिथिला और उसके आस पास के जिलों में कृत्रिम दत्तक माना जाता है और अङ्गरेज़ी क़ानून भी वहांपर इसे मानता है। हर एक आदमी और औरत कृत्रिम पुत्र ले सकता है, मदरासमें नम्बोदरी ब्राह्मणों में भी इस की रवाज स्वीकार की गई है, पआबमें कोई क़ायदा ख़ास नहीं है ।
दफा ३०९ कृत्रिम दत्तक और दत्तक में क्या फरक है
दत्तक की सब बातें हम पहिले कह चुके हैं यहां पर उन बातों का वर्णन करते हैं जो दत्तक में नहीं होतीं और कृत्रिम दत्तकमें होती है । ( १ ) कृत्रिम दत्तक में गोद लिये जाने वाले लड़के की मंजूरी होनी चाहिये, और यह लड़का मंजूरी देने के योग्य हो ( २ ) गोद लिया जाने वाला लड़का उसी
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३२६
दत्तक या गोद
[ चौधा प्रकरण
दर्जे का होना चाहिये जिसका कि बाप है यानी एक ही जात का हो । ( ३ ) हर उमर का लड़का और कोई भी लड़का गोद लिया जा सकता है । ( ४ ) इस दत्तक के लिये किसी रसम की ज़रूरत नहीं है अर्थात् दत्तक हवन आदि की आवश्यकता नहीं है । (५) कृत्रिम दत्तक लिये जाने की प्रायः यह गति है, कि लेने वाला स्नान करके, स्नान किये हुये लड़के से कहे कि "तू मेरा लड़का होजा" और लड़का यों कहे कि “मैं आपका बेटा हो गया हूं" और कोई रीति नहीं है सिर्फ दोनों की रजामंदी दरकार है । (६) पति ने यदि एक लड़का गोद लिया हो तो उसकी ज़िन्दगी में स्त्री अपने लिये एक बेटा गोद ले सकती है । ( ७ ) सिधवा स्त्री ( जिसका पति ज़िन्दा हो ) को कृत्रिम दत्तक लेने के लिये, अपने पति अथवा किसी श्रादमी की आज्ञा लेना ज़रूरी नहीं है । ( ८ ) विधवा स्त्री अपने लिये कृत्रिम दत्तक ले सकती है मगर अपने पति के लिये नहीं ले सकती चाहे उसका पति गोद लेने की आज्ञा भी दे गया हो । ( ६ ) विधवा स्त्री को कृत्रिम पुत्र लेने का अधिकार बिना सपिण्डों की आज्ञा के भी है । (१०) कृत्रिम दत्तक पुत्र का हक़ अपने असली खानदान में नहीं मारा जाता और दत्तक लेने वाले खानदान में वह सिर्फ उसी आदमी की जायदादका वारिस होता है जिसने उसे गोद लिया है ।
कृत्रिम और क्रीत पुत्रका फरक -- क्रीत पुत्रका गोद लेना कृत्रिम पुत्र के तरीके के समान ही है । गोद लेने के इस तरीके में वह व्यक्ति जो गोद लिया जाता है । अपने कुदरती खानदान से लोप नहीं हो जाता और गोद लेने वाले पिता के खान्दान में भी स्थान प्राप्त करता है । इसके लिये सब से अधिक आवश्यकता गोद लिये जाने वाले की स्वीकृति है अतएव वह वालिग होना चाहिये । उसका अपने कुदरती खान्दान से उत्तराधिकार का अधिकार नहीं जाता और वह अपने गोद लेने वाले पिता का भी वारिस होता है किन्तु वह अपने पिता के पिता या दूसरे नज़दी की सम्बन्धियों का वारिस या अपने गोद लेने वाले पिता की स्त्री या उसके नज़दीकी सम्बन्धियों का वारिस नहीं रहता । दत्तक पुत्र का अधिकार उसके और उसके गोद लेने वाले पिता के मध्य इक़रार नामे पर निर्भर मालूम होता है हिन्दूलॉ में कोई ऐसा नियम नहीं जिसकी वजहसे गोद लेने वाला पिता क्रीत पुत्रके अधिकार को दत्तक पुत्र की भांति अपनी जिन्दगी में या मृत्यु के पश्चात के लिये हिबा या वसीयत न कर सकता हो । मिथिला तरीके से क्रीत पुत्रका उत्तराधिकार का अधिकार पीछे पैदा हुयेपुत्रके द्वारा बिल्कुल छिन जाता है । कन्हैय्यालाल साहू बनाम सुगा कोचर 4 Pat. 824; 901. C. 65; 6 Pat, L. J 593. दफा ३१० मिथिलामें कृत्रिम दत्तक जायज है
सिवाय मिथिला के और जगहों पर औरत अपने लिये दत्तक नहीं ले सकती। मिथिला में या जहां पर कृत्रिम की रीति बताई गई है स्त्री अपने
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दफा ३१०-३१२]
कृत्रिम दत्तक
पति की जिन्दगी में अपने लिये दत्तक ले सकती है। और पति के मरने पर भी ले सकती है। पति और पत्नी शामिल शरीक होकर तथा अलहदा अलहदा दराक ले सकते हैं । अगर कोई सधवा स्त्री अपने लिये लड़का ले लेवे तो वह लड़का उसका क्रियाकर्म करता है तथा उसके बेटे की तरह माना जाता है और सिर्फ उसकी जायदाद का वारिल होता है। लकिन वह उसके पति का पुत्र नहीं कहलाता और न उसकी जायदाद पाता है और न उसका क्रियाकर्म कर सकता है जब पति और पत्नी शामिल शरीक किसी लड़के को दत्तक लेते हैं तो वह लड़का दोनों का बेटा होता है और दोनों की क्रियाकर्म करता है तथा दोनों की जायदाद पाता है। जब पति ने अपने लिये किसी एक लड़के को लिया हो और पत्नी ने दूसरा लड़का अपने लिये लिया हो तो दोनों अपने अपने ( लेने वाले के ) लड़के कहलाते हैं तथा अलग अलग क्रियाकर्म करते हैं तथा अपने अपने गोद लेने वाले की जायदाद पाते हैं यानी पति की जायदाद पति का लड़का एवं स्त्री की जायदाद सीका लड़का पाता है।
कृत्रिम पुत्र लेने का तरीका बड़ा अद्भुत जान पड़ता है क्योंकि देखो दफा ३०६ का पैरा २,३ जब एक ज़ातका कोई भी लड़का किसी उमर का दत्तक लिया जा सकता है तो.बाप.को लड़का भी गोद ले सकता है, तथा ससुर को बहू भी गोद ले सकती है । इसी लिये यह दत्तक अद्भुत प्रतीत होता है जो हो कानून ने ऐसा ही माना है। दफा ३११ कृत्रिम दत्तकके सम्बन्धमें कानून और नज़ीरें देखो
मिस्टर मेन हिन्दुलॉ पैरा २००-२०६, घारपुरे हिन्दुलॉ पेज १० मुल्ला हिन्दूलॉ पेज ४११ ट्रिलियन्स हिन्दूलॉ पेज १५६-१६१ तथा पेज २०५ २०६ , सरकार का हिन्दूला चोथा' एडीशन पेज १८० -१८१ , नज़ीरें देखो कलक्टर आपतिरहुत बनाम हूरो प्रसाद 7 Juth W. R. 500; 11 M. I. L. R. 174, 176; लछिमन बनाम 16 Suth. 179. दफा ३१२ जफनाद्वीपमें कृत्रिम की तरह का दत्तक
जफना द्वीप, सीलोन यानी लङ्का द्वीप के उत्तर-पश्चिम किनारेपर है, जो मद्रास प्रांतके दक्षिणी किनारेके सामने पड़ता है। सन् १६०१ ई० को मर• दुमशुमारी के समय इस द्वीप में ४३०६२ जन संख्या थी । यह छोटा सा द्वीप है और सीलोन में शामिल है। इस द्वीप के निवासियों में कृत्रिम दत्तक की तरह की एक रवाज लड़का लेने की है, उस में भी मज़हबी रसूम नहीं है, और लड़के का हक लड़का लेने वाले की जादाद पर होता है। उसका वारिस वही होता है। देखो मेन हिन्दूला पैरा २०६.
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दत्तक या गोद
[चौथा प्रकरण
नोट-हिन्दुस्तान के अंदर कृत्रिम दत्तककी तरह कई जगहों पर लड़का और लड़कियां गोद ली जाती हैं जैसे ब्रह्मदेशमें लड़कियां भी गोद ली जाती हैं और उनमें कोई रसम दत्तक की नहीं होती तिर्फ वह अपनी बिरादरी में मशहूर करदी जाती हैं, मदरास में एक · रैडी' कौम है जिसमें दामाद को दत्तक पुत्र की तरहपर मान लेते हैं ।मालाबारमें · नायर ' लोगों में लड़कियां दत्तक ली माती हैं वह जायदाद की वारिस भी होती हैं । नाम बुद्री ब्राह्मणों में भी इसी किस्म की चाल है । मगर अप यह सब रवानें कम होती जाती हैं। कानून में इन खाजों का स्थान नहीं है।
इन्डियन लिमीटेशन एक्ट नं० ६ सन् १६०८ ई० के अनुसार दत्तक संबंधी नालिशों की मियादें
अर्थात् अपने भावी हककी रक्षाके लिये या दत्तक मसूख करापाने के लिये या दत्तक जायज़ करार दिये जाने के लिये या दत्तकके मुक़ाबिले अथवा उससे जायदाद पाने के
लिये नालिश करने का विषय
दफा ३१३ भावी हक़के रक्षित रखनेके लिये नालिशहो सकती है ___जब किसी को कोई हक़ किसी के मरने के बाद पैदा होता हो-और उसे यह आशङ्का होकि वह जिसके ताबेमें इस वक्त जायदादहै सिर्फ इसकारण कि वह जायदाद वारिस को न मिले बरवाद कर रहा हो, या बरबाद कर देने की कोशिश कर रहा हो, तो नालिश इस बात की अदालत में दायर की जा सकती है कि उसका हक़ भावी साफ़ कर दिया जाय और मुद्दालेह वैसा करने से रोका जाय । इस किस्म की नालिश अन्य सूरतों में भी दायर हो सकेगी, जबकि कई एक संदेह जनक वारिस पैदा होते हों, या कोई ऐसी बात हो जिसके कारण उस वक्त यदि नालिश नहीं दायर की जायतो नालिश में अथवा अन्य किसी काम में नुकसान पहुंचना संभव हो । इसी तरह पर एक मामला बंगाल में पहिले चला था जिसमें अन्य वातों के अलावा यह साफ है कि होने वाले एक वारिस ने विधवा पर दावा दायर किया कि उस का हक़ आगे के लिये निश्चित कर दिया जाय। अदालत ने तजवीज़ किया
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दफा ३१३-३१४ ]
दत्तक सम्बन्धी नालिशोंकी मियादै
३२५
कि विधवा का पति दत्तक लिया गया था इस वजेह से मुद्दई हक़दार है दावा डिकरी हुआ। इस मुक़द्दमे में अन्य बातें भी साबित हुई हैं जो दत्तक के किसी फैसले के होने से वह लोग जो शरीक नालिश नथे पावन्दं न थे; देखो 3Mad W. L. R. 14 full bench Case. और देखो--इस किताब की दफा ३१६. दफा ३१४ दत्तक मन्सूख करापानेका दावा कब किया जायगा ?
दत्तक मन्सूखीके दावेमें मियादका एक ज़रूरी सवाल है, जो दत्तक के नाजायज़ क़रार दिये जाने के दावा करने में आवश्यक होता है। यानी दत्तक से नुकसान कब पैदा हुआ (बिनाय मुखासमत) यह बात हर मुक़द्दमे में ज़रूरी होती है। इसीके आधारपर दावा, मियादके भीतर या मियादके बाहर निश्चय किया जाता है । जब गोदके मन्सून करनेका दावा किया जाय, अथवा गोदके लड़केके बजाय बादी अपने को उस जायदाद का अधिकारी कहता हो, जो जायदाद अगर बादी न होता तो उस गोद के लड़के को मिलती, या दत्तक पुत्रके कब्जे से जायदाद दिला पानेका दावा किया जाय, ऐसी सूरतोंमें कानून मियाद से कितनी रुकावटें पड़ती हैं इस बातका देखना निहायत ज़रूरी है। मियाद से मतलब यह है कि इस किस्म का दावा दत्तक लेनेके कितने दिनों बाद तक दायर किया जा सकेगा। और वह मियाद कबसे शुरू की जायगी। इस विषय में तय किया गया है कि- "मियाद उस वक्त से शुरू होगी जिस वक्त गोद मन्सूखीका दावा करने वाले मुद्दई को उससे नुकसान पहुँचे, उसी वक्तसे मियाद शुरू होगी। मगर जब कोई ऐसा वारिस हो जिसे दत्तक न होनेकी दशामें जायदादके पानेका हक़ पैदा होता हो तो मियाद उस वक्तसे शुरू होगी जब उसे ऐसा हक़ पैदा हुआ है”।
उदाहरण- (१) सेठ कस्तूरचन्दके मरने के बाद उनकी विधवा जानकी बाई ने ता०५ सितम्बर सन १९१५ ई० को एक पुत्र गोद लिया, इस पुत्र के गोद लेनेसे सेठ कस्तूरचन्द के वारिस जायज़ को अपने हक़ का नुकसान पहुँचा, तो उचित है कि गोद मन्सूखी के दावाकी मियाद उसी वक्त से शुरू की जाय जिस तारीख को जानकीबाई ने गोद लिया था। . .
(२) सेठ जवाहरमल और मूंगामल दोनों सगे भाई हैं दोनों के बटे हुए खानदान हैं, सेठ जवाहरमल के मरनेपर उनकी विधवा सरस्वती बाई ने तारीख १ जनवरी सन १६०० ई० में एक लड़का गोद लिया । सरस्वती बाई तारीख ५ सितम्बर सन १९१५ ई० में मरी । ऐसी सूरतमें गोद मन्सूखी के दावा की मियाद उस वक्त से शुरू होगी जब कि सेठ मूंगामल को भाई की जायदाद पाने और उसपर कब्ज़ा करने का अधिकार पैदा हुआ यानी विधवा के मरने के बाद जायदाद मुंगामलको पहुँची इससे तारीख ५ सितम्बर सम १६१५ ई० से मियाद शुरू होगी।
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दत्तक या गोद
[ चौथा प्रकरण
( १ ) दत्तक पुत्रका क़ब्ज़ा जायदाद परसे कब नहीं हटाया जायगा - जब कोई मियाद, जायदादपर क़ब्ज़ा करनेके हक़ पैदा होनेसे शुरूकी जायगी, तो उस वक्त दत्तक पुत्रका क़ब्ज़ा जायदाद परसे न हटाना योग्य होगा, देखो मलाया बनाम नरासामा 17 Mysore. 180 मगर जब कोई दावा दत्तक मन्सूखीका उस वक्त कियागया हो जब जायदादपर क़ब्ज़ा दत्तक पुत्रका हो तो उसका क़ब्ज़ा हटाना और भी अधिक कठिनहो जायगा । इस क़िस्मकी मियाद लेनेमें इस बातपर ध्यान रखना कि जब विधवा जायदाद पर, अपने पतिकी वारिस जायज़की सूरत में क़ब्ज़ा रखती हो और उसने दत्तक लिया हो अर्थात् जो विधवा योग्य रीति से पतिकी वारिस हो तो, उसके मरनेके दिनसे मियाद शुरू होगी: इस बारे में एक पुराना फैलसा देखो - भरवचन्द्र बनाम कालीकिशोर S. D. of 1850,369. बङ्गाल सदर लालतने इस फैसलेमें तय है किविधवाके मरनेके बादसे मियाद शुरूहुयी - इस मुक़द्दमेमें बादी कहता था कि- मैं विधवाके पतिकी लड़की का लड़का हूं (नेवासा); और विधवाने पति के मरने के बाद सन् १८२४ ई० में दत्तक लिया, तथा सन् १८६१ ई० तक जीती रही। विधवाके मरने के ५ वर्षके बाद यानी सन् १८६६ ई० में दावा दायर किया गया । वादीने यह स्वीकार किया था कि दत्तक पुत्र अपनी गोदकी हैसियत से सन् १८२४ ई० से जायदादपर क़ाबिज़ रहा है, और इस मुक़द्दमे में दत्तक पुत्र और उसका लड़का मुद्दालेह बनाया गया। दावामें दत्तक नाजायज़ होने का बयान किया गया था । अदालतने इस मुक़दमेमें क़ानून मियाद के अनुसार यह तय किया कि दावा में तमादी होगयी, इसलिये बादीके खिलाफ़ फैसला किया । बादमें फुलबेंच हाईकोर्ट बङ्गालमें यह मुक़द्दमा पेश हुआ और तय किया गया कि वादीको जायदादपर क़बज़ा पानेका हक़ विधवा के मरने के बाद पैदा हुआ और विधवा मरी सन् १८६९ ई० में । मियाद. नालिश मंसूखी दत्तक की १२ वारह सालकी है, इसलिये तमादी नहीं है उस वक्त जो क़ानून मियाद गवर्नमेण्टका जरी था वह एक्ट नं० ६ सं० १८७९ ई० था, जिसमें १२ सालकी मियाद दत्तक मंसूखीकी रखीगयी थी मगर अब वह क़ानून जारी नहीं है, देखो - श्रीनाथ गङ्गोपाध्याय बनाम महेशचन्द्र 4 BL. R. ( F. B. ) 3; S. C. 12 Sauth. ( F. B. ) 14.
३३०
दफा ३१५ दत्तक मंसूख़ करापानेका दावा ६ साल के अन्दर होना चाहिये
पहिले दत्तक नाजायज़ क़रार देनेके लिये अदालतमें दावा करनेकी मियाद बारह वर्षकी रक्खी गयी थी और यह मियाद अनेक प्रकार से शुरू होती थी देखो-क़ानून मियाद एक्ट नं० १४ सन् १८५६ ई० और एक्ट नं०६ सन् १८७१ ई० । आजकल बारह वर्षकी मियाद नहीं मानी जाती । ऊपरी एक्टों
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दफा ३१५ ]
दत्तक सम्बन्धी नालिशोंकी मियादें
का इस मियादके सम्बन्धवाला भाग, एक्ट नं० १५ सन् १८७७ ई० के अनुसार मंसूरन होगया है । और आजकल अन्त में कही हुई एक्ट मानी जाती है
३३१
एक्ट नं० १५ सन् १८७७ ई० की दफा ११८ में कहा गया है कि "बयानकी हुई दत्तक के नाजायज़ क़रार देनेके वास्ते या दरहक़ीक़त दत्तक लिया ही नहीं गया था, साबित करने के वास्ते, नालिशकी मियाद ६ छह सालकी है और यह मियाद उस वक्त से शुरू होगी जब कि बयान की हुई दत्तक का हाल मुद्दई को मालूम हो” बिल्कुल यही दफा एक्ट नं० ६ सं० १९०८ ई० में मानी गई है । इस दफा का साफ अर्थ इतना समझ लेना कि जब वादी को यह मालूम हो जाय कि गोद लिया गया है और उस गोद लेने से वादी के हक़ में नुक़सान पैदा हो गया है तो उसे चाहिये कि जब से गोद लेना मालूम हो तब से ६ वर्षके अन्दर गोद मंसूखी अथात् अपने ही साफ कर लेनेका दावा अदालत में दायर करदे नहीं तो बाद गुज़र जाने मियादके दावामें तमादी पैदा हो जायगी ।
इसी क़िस्मका एक मुक़द्दमा बङ्गाल में पैदा हुआ था जो प्रिवीकौन्सिल तक गया इसमें वादीने एक विधवाके मर जानेके बाद उस जायदाद के दिलापाने और क़बज़ा पाने की नालिश की जो उस विधवा के पास उसके पतिकी छोड़ी हुई थी और यह भी कहा गया था कि विधवा ने एक दत्तक पुत्र लिया है । बादी की तरफ से बहस का सारा दारमदार दफा ११८ एक्ट नं० १५ सन् १८७७ ई० क़ानून मियाद के आधार पर किया गया था । मगर यह बहस अयोग्य क़रार पायी थी अदालत ने दो कारण बताये, प्रथम तो विधवा ने दत्तक सिर्फ अपने वास्ते लिया था न कि अपने पतिके लिये; दूसरे यह नहीं साबित किया गया था कि बादी को ६ साल के अन्दर दत्तकका इल्म नालिश करने के पहिले हो गया था । ऐसा मालूम होता है कि इस मुक़द्दमे में बादी दावा में तमादी की बहस आन पड़ी थी । दावा दफा ११८ के अनुसार दायर था न कि १४१ क़ानून मियाद ऐक्ट नं० १५ सन १८७७ ई० के देखो - लछिमनलाल बनाम कन्हैय्यालाल 22. I. A. 51; S. C. 22 Cal. 609.
( १ ) बारह वर्षकी मियाद कब मिलेगी - क़ानून मियादकी दफा १४१ एक्ट १५ सन १८७७ई०का यह मतलब है कि “जब कोई औरत हिन्दू या मुसल मान क़ौमकी मर गयी हो, और उसकी छोड़ी हुई स्थावर सम्पत्ति के क़ब्ज़ा दिला पाने का दावा किसी हिन्दू या मुसलमानकी तरफसे दायर किया जाय तो ऐसे मुक़दमे में मियाद बारह सालकी होगी और यह मियाद उस वक्त शुरू की जायगी जब कि औरत मरी हो" । यह दफा १४१ एक्ट नं० ६ सन १६०८ ई० में ज्योंकी त्यों मानी गयी है अगर विशेष विवरण देखना हो तो
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दत्तक या गोद
[चौथा प्रकरण
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देखो-के. जे. रुस्तम जी का इण्यिन लिमीटेशन एक्ट ६ सन १९०८ ई० पेज ३६७ से ३७४ तक, एडीशन सन १९१५ ई.
इस दफा का साफ मतलब यह है कि जिस मुक़द्दमें में दत्तककी बहस ज़रूरी न हो और दावा उत्तराधिकारी की वरासत के अनुसार किया गया हो, जहां पर कि बादी बिना दत्तक की बात लाये हुये भी, अथवा उसके खिलाफ़ साबित किये हुये भी, अपने दावा में कामयाब हो सकता हो, यह दफा उन सूरतों से संबंध रखती है। देखो-एक्ट नं०१५ सन् १८७७ई०की दफा १४१ का इलाहाबाद हाई कोर्ट और बंगाल हाईकोर्ट ने यह अर्थ माना है कि दत्तक के पश्न से और इस धारा से कोई सम्बन्ध नहीं इस विषय के फैसले नीचे देखिये।
(२) छ साल की याद परमि फैसले --मदरासमें एक विधवा ने दावा दायर किया, दावा में कहा गया कि, विधवा मुहैय्या अपने पतिकी जायदाद पर क़बज़ी दिला पाने का अधिकार रखती है, यह दावा उसके मुक़ाबिले में दायर किया था जो अपने को कहता था कि मैं विधवा के पति का दत्तक पुत्र है। अर्जी नालिश में स्वीकार किया गया था कि विधवा का पति सन् १८८४ में मर गया, तथा दत्तक की खबर विधवा को सन् १८८५ ई० में हुई और मुकदमा दायर किया गया सन् १८६३ ई० में । प्रतिवादी की तरफ से जवाब मावा दाखिल किया गया जिस में कहा गया कि दावा में तमादी होगई है। यह बहस एक्ट नं० १५ सं० १८७७ ई० की दफा ११८ के अनुसार थी। इसमें अदालत हाईकोर्ट मदरास ने प्रिवीकौन्सिल की कई एक नज़ीरों का हवाला देकर यह सिद्ध किया कि दफा १२६ एक्ट नं०६ सन १८७१ ई० और दफा ११८ एक्ट नम्बर १५ सन् १८७७ ई. का मतलब एकही तौर से मालूम होता है । मुक़द्दमा तमादी पर फ़ैसल किया गया देखो-पारवथी बनाम सामी नाथ 20 Mad. 40 फोल्ड एय्या डोरायी बनाम सोलाई 24 Mad. 405. रतनामानासारी बनाम अकिलण्डअम्माल 26 Mad. 291.
उपरोक्त दफा ११८ और १४१ एक्ट नं० १५ स० १८७७ ई० तथा एक्ट नं०६ सन्१६०८ई० क़ानून मियादमें जो संदेह पैदा होता है, उसपर हाईकोर्ट इलाहाबाद और बंगाल ने यह राय दी है कि उक्त दफा ११८ का मतलब यह है कि जब कोई नालिश अपने हक के साफ कर लेने के बारे में दायर की जाय तो मियाद उसकी इस दफा के अनुसार लेनी चाहिये, मगर यह दफा उन नालिशों से संबंध नहीं रखती जो दफा १४१ या १४० के अनुसार हो। अर्थात् इस ११८ दफा के अनुसार सिर्फ अधिकार साफ कर लिया जा सकता है। इसकी मियाद छ साल की है किन्तु जब कोई दावा क़ब्ज़ा मांगे जाने का दायर हो तो उसकी मियाद १२ बारह साल की होगी जैसा कि दफा १४० व १४१ का मतलब है। देखो--वसुदेव बनाम गोपाल 8 All 644.
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दफा ३१६]
दत्तक सम्बन्धी नालिशोंकी मियाद
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नासिंह वनाम गुलाबसिंह 17 All. 167. प्रभूलाल बनाम मिलनी 14 Cal. 401 रामचन्द्र मुखरजी वनाम रणजीतसिंह 27 Cal. 242.
बंबई हाईकोर्ट ने इसके विरुद्ध कुछ फैसले किये हैं, देखो-फेनीअम्मा बनाम मन्जया 21 Bom. 159 दूसरा मुकद्दमा देखो 24 Bom. 260, 266 रामचन्द्र बनाम नारायण 27 Bom. 614, उपरोक्त 24 Bom. 260 में हाई कोर्टने यह माना है कि दफा ११८ क़ानून मियाद एक्ट नं० १५ सन् १८७७ ई० ऐसी नालिशों से सम्बन्ध रखती है जिनमें दत्तक का प्रश्न अत्यावश्यक हो और ऐसा प्रश्न बादी की तरफ से अथवा प्रतिबादी के जवाब दावा के आधार पर उठाहो । तथा दफा १४१ का मंशा यह है कि जिन मुकदमों में दत्तक की बहस ज़रूरी न हो और वादी अपना दावा, दत्तक नाजायज़ बयान न करके भी साबित कर सकता हो ।
ऊपर कही हुई ६ साल की मियाद के बारे में ठीक समझ लेनेके लिये हम दफा ११८ का जानने योग्य विवरण नीचे देते हैं। दफा ३१६ लिमीटेशन ऐक्ट नं. ९ सन १९०८ ई. की दफा
११८ का वर्णन इस बात के करार दिये जाने के वास्ते कि जो दत्तक ज़ाहिर की गई है नाजायज़ है, या दर असल वह दत्तक ही नहीं हुई थी ऐसी नालिश करने की मियाद ६ साल की है और यह मियाद उस वक्तसे शुरु होगी जब वयान की जाने वाली दत्तक का हाल बादी को मालूम हो । दफा का शब्दार्थ इतना है अब आप देखिये कि इन शब्दों का अर्थ कैसा लगाया गया है--
जहां पर नालिश जायदाद के क़बज़ा पाने के लिये कीगई है वहां पर अगर दावा के मज़बूत करने के लिये दत्तक का नाजायज़ करार दिया जाना ज़रूरी हो तो यह ११८ दफा लागू नहीं होगी।
(१) जस्टिस तैय्यवजी की राय-जस्टिस तैय्यब जी ने करार दिया है कि यह दफा उन सब नालिशों के लिये जरूरी होगी, जहां कि बहस का खास हिस्सा प्रतिवादी के दत्तक के जायज़ या नाजायज़ होने के बारे में हो । चाहे वह प्रश्न पहले पहल बादी की तरफ से उठाया गया हो, या प्रतिवादी ने अपने जवाबमें उठाया हो ।
(२) कलकत्ता हाईकोर्ट की राय-कलकत्ता हाईकोर्ट ने यह निश्चत किया है कि यह ११८ दफा गैर मनकूला (स्थावर सम्पत्ति) जायदाद के कब्ज़ा पाने की नालिश के लिये ज़रूरी नहीं होगी चाहे वादी को दत्तक नाजायज़ साबित करना ज़रूरी हो देखो-राम बनाम रंजीत 27 Cal 242.
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दत्तक या गोद
[चौथा प्रकरण
(३) रिवर्ज़नर वारिस इस दफा से मजबूर नहीं किया जा सकता अगर दत्तक होने के ६ साल तक रिवर्ज़नर वारिस (देखो दफा ५५८) दत्तक के नाजायज़ करार दिये जाने के वास्ते नालिश न करे, तो इस दफा की वजेह से इतना समय निकल जाने पर भी वह दत्तक यदि नाजायज़ है तो जायज़ नहीं माना जायगा । अर्थात् उसकी नालिशका हक न मारा जायगा।
रिवर्ज़नर-वारिस ( देखो दफा ५५८) दत्तक नाजायज़ करार दिये जाने का दावा करने के लिये उस सूरत में मजबूर नहीं किया जा सकता, जब किसी हिन्दू विधवा ने दत्तक लिया हो, और वह ( रिवर्ज़नर-वारिस) विधवा के मरने के बाद, विधवा के पति का उत्तराधिकारी हो नज़ीर देखोहरी बनाम बाई रेवा ( 1895 ) 21. B. 376.
उदाहरण-ठाकुर दिग्विजयसिंह और विजयसिंह दोनों सगे भाई हैं आपसमें बटेहुये खानदानमें रहते हैं। विजयसिंहके दो लड़के हैं और दिग्विजय सिंह के कोई लड़का नहीं है। दिग्विजयसिंह मर गये और उनकी सब जाय दाद उनकी विधवा को वरासतन् मिली जिसपर विधवा ने क़ब्ज़ा किया। विधवा ने एक लड़का गोद लिया, यह गोद सन् १६०० ई०में लिया गया। सन् १६०३ ई०में विजयासंहको गोदकी खबर मिली और विधवा मरी सन् १६१० ई० में ठाकुर विजयसिंह जायदाद पाने का दावा दत्तक पुत्र के मुक़ाविले में कर सकते हैं क्योंकि उन्हे विधवा के मरने पर जायदाद मिलने का हक़ पैदा हुआ।
ऊपर के उदाहरण से मालूम हो जायगा कि जब विजयसिंह को सन् १६०३ ई० में गोद की खबर मिली थी तो उन्हे ६ सालके अन्दर गोद मंसूखी का दावा करना चाहिये था, मगर यह मियाद विधवा की जिंदगी में वितीत होगई । अगर दफा ११८ मियाद क़ानून के अनुसार देखिये तो अब वह दावा नहीं कर सकते मगर यह दफा ऐसी सूरत में लागू नहीं की गई क्योंकि दिग्विजयसिंह का रिवर्जनरी वारिस विजयसिंह था। विजयसिंह को कानन मियाद की दफा १४१ के अनुसार नालिश करने का हक्न बाकी रहा है, देखो-इस किताब की दफा ३१५ पैरा १.
(४) कसी सूरत में इस दफा से तमादी हो जायगी-जहां पर कि प्रतिवादी ने अपना दत्तक साबित न किया हो मगर उसने अपना दत्तक ठीक मान रखा हो, और वादा को इस वात को मालूम हुये ६ साल बीत गये हों तो वह मुकद्दमा इस दफा ११८ के असरसे तमादी हो जायगा अर्थात् बादी दावा नहीं कर सकेगा, नज़ीर देखो-वेरट बनाम वेरट 25 Bom 26.
“वादी को इस बात का मालूम होना'' इन ऊपरके शब्दोंका ठीक ठीक अर्थ समझ लेना चाहिये । इस बारे में देखो-अधिलक्ष्मी बनाम वेंकट रामया
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दफा ३१७]
दत्तक सम्बन्धी नालिशोंकी मियादें
३३५
( 1902 ) 14 M. L. J. 359; इस नज़ीर में बताया गया है कि “ज्ञान होना चाहिये” उस कहे जाने वाले दत्तक का नहीं, बल्कि उन सच्ची बातों . का और सूरतों का जो दत्तक को जायज़ बना सकती थीं। सच्ची बात का कुछ न कुछ आधार होना चाहिये, और कहां तक यह शर्त डिकरी देने के सवाल में विश्वास की जा सकती है यह हर एक केस में उसके मामलों पर से ज़ाहिर होगी।
(५) सर मेरेडिथप्लाउड़न साहेब की राय-देखो ( 1903 ) 5 Bom. L. R. 584; में हाईकोर्टने यह निश्चय किया कि सिर्फ दत्तक होना तो कहा जाता हो और कुछ नहीं । तो यह दफा ११८ ऐसी सूरत में लागू करने के लिये काफी नहीं होगी। लेकिन यह दफा क्या उस वक्त भी लागू नहीं होगी जबकि कोर्टको शहादत में यह मालूम हो जाय कि दत्तक कभी नहीं हुआ या दत्तक होने का कोई ज़ाहिरा सुबूत नहीं है ?
(1894) P. R. 73 F. B. में सर मेरे डिथप्लाउ हुन् साहेब ने फरमाया कि एसी सूरत में यह दफा लागू नहीं होगी। दफा ११८ उन सूरतों के लिये है जहां कि एक आदमी जिसको कि दत्तक लेने का अधिकार है अपने उस अधिकार को ठीक तौर से काम में नहीं लाता, देखो--( 1905) P. R. 86 F. B. दफा ३१७ अनधिकारीके दत्तक लेनेमें यह दफा लागूनहीं होगी
जहां पर ऐसे आदमी ने या किसी विधवा ने दत्तक लिया हो जिसे दत्तक लेने का अधिकार ही नहीं था तो वहां पर यह दफा ११८ लागू नहीं होगी। क्योंकि वहां पर तो दत्तक के अधिकार ही का अभाव है। और न यह ११८ दफा वहां लागू पड़ेगी जहां पर दत्तक लेने वाला जिस क़ानून मुक्कामी से पाबंद किया गया है उस कानून में दत्तक लेने की कोई रसम है ही नहीं जैसे कि मिथिला में विधवा का दत्तक लेना । ( 1911) P. R. 44; में फुल बेचने उस फैसले का अर्थ स्पष्ट किया है जो सन् (1908 ) P. R. 71; और (1911) P. L. R. 196. में दोहराया गया था । फुलबेच की राय यह मालूम होती थी कि यह दफा बिल्कुल खराब और नाजायज़ दत्तकों में लागू नहीं होगी। यह दफा उस बक्त लागू होगी जबकि सिर्फ दत्तक के रद्द कर देने का दावा किया गया हो, और जायदाद पाने का दावा न किया गया हो, देखो-( 1903 ) 5 Bom. L. R. 584, (1903 ) 27 Bom. 614.
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३३६
दत्तक या गोद
दफा ३१८ गोद मंसूखीका दावा जब गोद लेने ज़िन्दगी में हो
वादी
प्रारम्भ में कहा गया है कि जब दसक होने की खबर मिले अथवा जब हक़ क़बज़ा पाने का पैदा हो उस समय से ६ वर्ष के अंदर नालिश दाखिल करना चाहिये । दोनों क़िस्म की नज़ीरें ऊपर दी जा चुकी हैं। जब दत्तक लेने से सियाद शुरू होती है, तो इस बात की होती है कि, जो पुरुष दत्तक न होने की दशा में उसका उत्तराधिकारी होगा जिसके क़ब्ज़े में जायदाद है तो नालिश ऐसी की जायगी कि दत्तक पुत्र अयोग्य है और का हक़ पश्चात् पैदा होता है, दत्तक लेने वाले की ज़िन्दगी में ऐसी नालिश नहीं हो सकेगी कि दत्तक पुत्र नाजायज़ क़रार दिया जाकर जायदाद मुद्दई को दिलाई जाय । क्योंकि जबतक दत्तक लेनेवाला ज़िन्दा है तबतक जायदाद उसके क़बज़े से नहीं अलहदा हो सकती इस बिनापर कि उसने अयोग्य दत्तक लिया था। दूसरी तरह से भी क़बज़ा पाने का दावा नहीं हो सकता क्योंकि अगर दत्तक पुत्र न लिया जाता तो उसके क़बज़े से जायदाद अलहदा नहीं हो सकती थी इसलिये क़ानून मियाद की दफा ११८ एक्ट ६ सन् १६०८ ई० के अनुसार सिर्फ क़रार दिये जाने अपने हक़ के और दत्तक पुत्र के नाजायज़ क़रार दिये जाने के लिये दावा दायर हो सकेगा । अगर मान लीजिये कि इस क़िस्म का दावा दायर किया गया और वह दत्तक जिसके विरुद्ध दावा है, अदालत से खारिज हो जाय तो उस वक्त वादी को जायदाद पर क़बजा नहीं मिल सकता क्योंकि जब दशक पुत्र अज्ञानावस्था की वजह से स्वत्वाधिकार को स्वयं नहीं प्राप्त हुआ था तो उसके खारिज होने पर वादी भी नहीं पा सकता । तथा दत्तक लेने वाले को, यदि अधिकार दूसरे दत्तक के भी लेने का हो तो वादी उसे रोक नहीं सकेगा । दत्तक होने की तारीख से अगर छ वर्ष से अधिक बीत गये हों, तथा उसके बाद असली वारिस के मरने की तारीख से छ वर्ष के अंदर गोद मंसूखी और जायदादपर क़ब्ज़ा दिला पाने का दावा किया गया हो तो हालत बिल्कुल दूसरी होगी। मगर बादी के खिलाफ़ सिर्फ यह ख़्याल किया जा सकेगा कि उसने दत्तककी खबर से अंदर मियाद अपने हक़ को क्यों नहीं साफ कर लिया। यानी वादी के विरुद्ध इस बात का ख़्याल होना ज़रूर है कि इतनी मुद्दत तक वह चुपके बैठा रहा और यह काम उसका एक प्रकार से यह नतीजा पैदा करता है कि वह दत्तक से नाराज़ नहीं था। मगर जब यह साबित न हों कि वादी कों यथार्थ में दत्तक का ज्ञान हो चुका था, जैसा कि कहा जाता हो तो कोई बात उसके विरुद्ध लागू नहीं पड़ेगी। हर हालत में यह ज़रूर है कि वारिस जायज़ को जहां तक हो सके अपना हक़ जल्द साफ करा लेना चाहिये और
[ चौथा प्रकरण
वालेकी
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दफा ३१८-३२०] दत्तक सम्बन्धी नालिशोंकी मियादें ३३७ जब उसको जायदाद पर क़बज़ा पाने का हक़ पैदा हो फौरन् दावीदार होना चाहिये। दफा ३१९ दत्तक पुत्र अपनी दत्तक जायज़ करार दिये जाने
की नालिश कब कर सकता है दत्तक पुत्र अपना हक़ साफ़ कर लेने की नालिश कर सकता है जब उसके अधिकारों में किसीके नाजायज़ दखल देनेकी वजहसे उसको नुकसान पैदा हो। उस वक्त दत्तक पुत्र अदालतमें अपने दत्तक पुत्रकी हैसियतसे दत्तक साबित करापानेका दावा दायरकर सकता है । यह दावा क़ानून मियाद की दफा ११६ एक्ट नम्बर ६ सन् १६०८ ई० के अनुसार दायर किया जायगा इस दफा का सारांश यह है कि " दत्तक जायज़ है इस बात के करार दिये जाने का दावा ६ सालकी मियादके अंदर होना चाहिये, और यह मियाद उस वक्त से शुरू की जायगी जबकि दत्तक पुत्र के हकों में जो उसके दत्तक लिये जाने से पैदा हुये हों नुकसान पहुंचा हो"
इलाहाबाद और कलकत्ता, हाईकोर्ट की राय-हाईकोर्ट इलाहाबाद और कलकत्ता ने इस दफा का यह अर्थ माना है कि इस दफा के अनस
नुसार कब्ज़ा पाने की नालिश नहीं दायर की जा सकती। वल्कि यह ज़रूर है कि ज़ाहिरा ऐसा दावा दत्तक क़रार देने का किया गया मगर अंदरसे उसे क़ब्ज़ा पाने का भी फैसला होगया, देखो-लाली बनाम मुरलीधर 24 All. 195 चंदनिया बनाम सालिगराम 26 All. 40. जगन्नाथ प्रसाद बनाम रञ्जीतसिंह 24 Cal 354. दफा ३२० लिमीटेशन एक्ट नं. ९ सन् १९०८ ई०को दफा
११९ का मतलब "इस बातके करार दिये जानेके वास्ते कि दत्तक जायज़ है, इस किस्म की नालिश की मियाद ६ साल की है और यह मियाद उस वक्त से शुरू होगी जब दत्तक पुत्र के दत्तक सम्बन्धी अधिकारों में दखल दिया गया हो" दफा ११६ का शब्दार्थ ऊपर बताया गया नीचे विस्तारसे देखो
यह दफा वहांपर लागू होगी जहां पर कि दत्तक जायज़ मानने से इनकार किया जाता हो या जिन रसमों के होने से दत्तक जायज़ होता है उन रसमों का न किया जाना बयान किया जाता हो।
यह ११६ दफा वहां पर लागू पड़ेगी जहां पर दो बातें कही जाती हों एक तो यह कि दशक हुआ और दूसरी यह कि जायज़ तौर से हुआ। जब यह दोनों बातें साथ साथ बयान की जायेंगी तब उस दत्तक जायज़ करार
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दत्तक या गोद
[चौथा प्रकरण
देने की मियाद इस दफा के अनुसार ६ साल की मिलेगी। और अगर जहां पर सिर्फ यह कहा जाता हो कि "दत्तक हुआ" और जायज़ तौर से हुआ है यह बात न कहीं जाती हो तो यह दफा लागू नहीं पड़ेगी।
(१) दफा ११६ और ११८ में क्या फरक है ?-दफा ११८ से दफा ११६ में यह फरक है कि, दफा ११८ में दोनों बातों में से एक ही के होनेपर मियाद उसके अनुसार मिलती है। यानी चाहे दत्तक हुआ ही नहो, या नाजायज़ तौरसे लिया गया हो, दोनों बातों में से अगर एक बात भी होगी तो मियाद दफा ११८ के अनुसार मिलेगी। मगर दफा ११६ के मतलब के लिये दोनों बातें होना ज़रूरी हैं यानी 'दत्तक हुआ है' और 'जायज़ तौर से हुआ है' देखो नज़ीर ( 1903 ) 20 M. 291. F. B.
(२) दखल देनेसे क्या मतलब है ! इस दफा ११६ की मियाद उस वक्त से शुरू होना मानी गयी है जब दत्तक सम्बन्धी अधिकारों में दखल दिया गया हो। दखल किसने दिया हो, और कैसे दिया गया हो; दोनों बाते संक्षेप से समझ लेना चाहिये । दखल देने वाला यातो प्रतिवादी हो या प्रतिवादी के पूर्व पुरुष यानी उसके बाप, दादा आदि हों जिनकी जायदाद का प्रतिवादी उत्तराधिकारी है। सिवाय इनके तीसरा आदमी न हो जिसका कि प्रतिवादीसे कुछ सम्बन्ध नहीं है तो ऐसे प्रतिवादी या उसके पूर्व पुरुषों के दखल देनेसे इस दफाकी मियाद शुरू होगी, देखो-( 1904 ) 26 All. 40.
दखल देने से यह मतलब है कि-प्रतिवादी ने ऐसा कोई काम किया हो जिसकी वजहसे दत्तक नाजायज़ माना जाना ज़रूरी हो, देखो-( 1903 ) 26 M. 291 F. B. दखल का मतलब उस कामसे भी है जिस काम के होने पर बादी के दत्तक की हैसियत नमानी जाती हो, या वादी को कोई हक़ जो दत्तक की हैसियत से प्राप्त हुआ हो उस हक के इस्तेमाल करने से वह हटा दिया गया हो । उदाहरण देखो
उदाहरण-जय और विजय दोनों सगे भाई हैं और बटे हुए खानदान में रहते हैं । जयने एक लड़का गोद लिया जिसका नाम है अजीत । जय मर गया और उसने अपने भाई विजय और दत्तक पुत्र अजीत वालिग को छोड़ा। जयकी जायदाद बहुत थी जैसे ज़िमींदारी, ज़मीन, बागात् और मकानात वगैरा । जयके मरते ही अजीत ने अपने दत्तक पिता की तमाम जायदाद पर कब्जा कर लिया, और विजय ने भी ज़बरदस्ती कुछ वागातों पर कब्ज़ा कर लिया जिसका इल्म (ज्ञान) अजीत को था। मगर अजीत ने कब्ज़ा कर लेने की तारीख से ६ साल के अन्दर दावा नहीं किया तो अब वह इस दफा ११६ के अनुसार दावा नहीं कर सकता।
(३) हलके टालनेसे मियाद नहीं शुरू होगी-जब किसी दत्तक पुत्र को दत्तक पिता की वरासत मिलती हो तो उस वरासत के मुताविक अपने
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दफा ३२० ]
अग्रवाल वैश्योंकी उत्पत्ति
बापकी जायदाद पर क़ब्ज़ा करने के हक़ को सिर्फ टालदेने से इस दफा की मियाद नहीं शुरू होगी - देखो - ( 1904 ) 28 B. 94.
उदाहरण - सेठ गोकरन और रामकरन दोनों सगे भाई हैं बटे हुए खानदान में रहते हैं । गोकरन ने एक लड़का गोद लिया और उसे बालिग छोड़ कर मर गया । पीछे राम करन ने दत्तक पुत्र को समझाया कि गोकरन की जायदाद का इन्तज़ाम मैं करता रहूंगा, दत्तक पुत्र इस बात पर राज़ी हो गया । कुछ दिनों बाद रामकरन ने उस जायदाद में से एक मकान अपने अधिकार से बेच डाला । तो दत्तक पुत्र को कुल जायदाद के वापिस लेनेका तथा उसे मंसूत्र कराने का दावा करने के लिये ६ सालकी मियाद उस वक्त से मिलेगी जिस वक्त उसे बदनीयती रामकरन की मालूम हुई ।
( ४ ) मियाद पहिले के क़ब्ज़े से शुरू होगी- जिस जायदाद के बारे में मुक़द्दमा दायर किया गया है सिर्फ उसी जायदाद में दखल देने के समय ही से मियाद शुरू नहीं होगी, बल्कि इसके पहिले किसी दूसरी जायदाद में जिसके क़ब्ज़े का हक़ बहैसियत दत्तक के बादी के पास हो अगर उसमें दखल दिया गया हो तो उस वक्त से शुरू होगी । अर्थात् दावाकी जायदाद में दखल देने से पहिले प्रतिवादीने अगर किसी दूसरी इसी तरह की जायदाद में भी दखल दिया हो तो सबसे पहिले जब दखल दिया गया होगा उस तारीख से इस दफा ११६ की मियाद शुरू होगी। देखो -- (1903) 13 M L. J. 145.
अग्रवाल वैश्यों की उत्पत्ति
अन्य लोगों की अपेक्षा अग्रवाल वैश्यों में गोदके मुकद्दमें अधिक होते हैं । जब कभी गोदके या उत्तराधिकारके मुकद्दमें में ऐसा प्रश्न उठे कि 'मुक़द्दमा कौन स्कूलसे लागू किया जाय ?" तो वनारस स्कूल ( दफा २५ ) मानने वाले पक्षकार की तरफसे निम्नलिखित मि० धमकी रिपोर्टका हवाला बहस ' में दिया जा सकता है । यह क्रम बतानेके लिये कि इनके पूर्वज बनारसेके धर्म शास्त्रका पहले से आदर करते रहे हैं और मानते रहे हैं किंतु पश्चकारको दफा ३०-३६ के अनुसार अपने मुकद्दमेंमें जैसी जरूरत हो नयी शहादत भी देना चाहिये । नयी शहादत और मि० ह्यमकी रिपोर्ट दोनों के एक ही तरह पर मिलने से पक्ष बहुत मजबूत हो जायगा यदि पक्षकार कोई दूसरा स्कूल बयान करें, तो उसे रिपोर्ट से कुछ सहायता नहीं मिलेगी । सेठ खेमराज श्रीकृष्णदास बनाम रमानिवास फर्स्ट अपील नं० २०९ सन १९१५ के मुकद्दमें में वादीकी तरफ से, बनारस स्कूल के समर्थन में, बम्बई हाईकोर्ट के सामने इस रिपोर्टका हवाला दिया गया था। चीफ जजने, यद्यपि मुकद्दमा दूसरी सूरतपर फैसल किया किंतु यह भी कहा कि मारवाड़ में कोई स्त्री बिना आज्ञा अपने पति के गोद नहीं ले सकती, यह बात बनारस स्कूलकी है ।
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दत्तक या गीद
दफा ३२९ मिस्टर, ए, ओ, ह्यूम साहेबकी राय
यह जाति हिन्दुस्थानकी जातियों में से एक अतीव वैभवशाली वैश्य वर्ण की जाति है, और उत्तर, उत्तरपश्चिम तथा मध्य भारतमें निवास करती है । यह जाति धन और प्रतिष्ठा से गौरवान्वित होकर अपनेको एकमात्र सच्ची वैश्य जाति मानती है । पण्डित लोग भी इसके विरुद्ध कोई बात नहीं उठाते इस जाति की उत्पत्तिकी कथा बहुत प्रसिद्ध है । काशीधाममें निवास करने वाले इस जातिके चौधरी अर्थात् अगुवाने मुझे इस सम्बन्ध में इस प्रकार लिखा है
[ चौथा प्रकरण
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अग्रवालोंकी जाति पहले पहल गोदावरी नदी के किनारों परसे आई, इनके आदि पूर्वजका नाम 'धनपाल' था उनके मुक्तानाम्नी एक कन्या भी थी, जिसका विवाह याज्ञवल्क्य के साथ हुआ । ईश्वरकी कृपासे मुक्काके आठ पुत्र हुये जिनके नाम यह हैं ( १ ) शिव, ( २ ) नल, (३) अनिल ( ४ ) नन्द, ( ५ ) कुन्द, ( ६ ) कुमुद्, (७) वल्लभ, (८) शेखर । इन्हीं पुत्रोंकी सन्तानोंके वंशज हिन्दुस्थानमें चारों ओर फैल गये, कुछ गुजरात तक भी चले गये, समय के हेर फेरसे इसने धीरे धीरे अपनी जातिके अचार विचार एवं रीति भूल कर शूद्रोंके साथ सम्बन्ध कर लिया। केवल इनके एक पुत्र अपने धर्मपर आरूढ़ रहे । उनका नाम उग्रसेन या अग्रसेन था । कोई कोई उनको उग्रनाथ या उग्र भी कहा करते थे । वर्तमान अग्रवाल जाति इन्हीं मनुष्य से पैदा हुई है । यह जाति उग्रसेनको अपना जन्मदाता और पूर्वज बतलाती है । उग्रसेन अपनी पत्नी माधवी के साथ श्राग्रोहे में निवास करने लगे। यह नगर अब तक छोटेसे कसबेके रूपमें हरियानेकी सीमामर विद्यमान है। यहां पर उनका परिवार बढ़ा और बड़ा धनशाली तथा प्रतापी हुआ। बौद्धों और हिन्दुओंके झगड़ोंके समय सहस्त्रों अग्रवाल मारे गये, बहुतोंने प्राण रक्षा की हेतु बौद्ध धर्म भी स्वीकार कर लिया, जब बौद्धों और हिन्दुओं का घोर युद्ध समाप्त हुआ । तब इन अग्रवालोंने जो भारत के कई प्रांतों में फैल गये थे अपना बहुत कुछ सुधार कर लिया। इस समय यह जाति एक बार फिर पूर्ववत् धन, धान्य, तथा बैभवशाली बन गयी ।
सर हेनरी इलियट ने इनके विषय में अपने शब्दसंग्रह के अधिक भाग में कुछ बिरुद्ध लिखा है । आपने बताया है कि सहाबुद्दीन द्वारा आनोहा लिये जाने पर अग्रवाल वहां से हिन्दुस्थान के समस्त भागों में फैल गये । काशी निवासी इस जाति के प्रधान नेता हैं। प्रसिद्ध इतिहास वेत्ता बाबू हरिश्चन्द्र जी ने लिखा है कि इस जाति के पूर्वजों पर उक्त शहाबुद्दीन गोरी अग्रोहा में भयंकर आक्रमण किया था, इसी कारण अग्रवालों ने वहां से भाग कर भारत के अन्याय सुरक्षित स्थानोंमें निवास किया । मुसलमानों के आक्रमण से इस जाति को बहुतक्षति पहुंची और बहुत सी स्त्रियां सती हो
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दफा ३२१ ]
अग्रवाल वैश्योंकी उत्पत्ति
गयीं । चुनार और मारवाड़ के अग्रवाल अपने अपने स्थानों में निवास करने का सम्बत् इसी समय से बताते हैं । वे अब इस वक्त इस जाति में बड़े प्रतिभाशाली तथा धनवान पुरुष गिने जाते हैं । मुसलमान पठान संम्राटों के शासन के सारे पूर्व काल में अग्रवालों की दशा बड़ी हीन थी । ब्रिटिश राज्य में जैसे सुख से अब वे निवास करते हैं वैसा ही इसके विपरीत वे पहिले दुःख भोग चुके हैं । निदान जब मुगुल संम्राटों का राज्य हुआ तब इन अग्रवालों की दशा सुधरने लगी इनके शासन काल में अग्रवालों को कई उच्चपद भी मिले थे ।
ग्रह निवासी इस जाति के जन्मदाता उग्रसेन के १७ पुत्र हुये थें जिन से अग्रवालों के सत्रह गोत्र चले हैं । गोत्रों के नाम यह हैं ( १ ) गर्ग, ( २ ) गोइल, ( ३ ) गावाल, (४) बात्सिल, (५) कासिल, ( ६ ) सिंहल, ( ७ ) मंगल, (८) भद्दल, ( ६ ) तिंगल, ( १० ) परण, (११) टैरण, (१२) टिंगल, ( १३ ) तित्तल, (१४) मित्त, (१५) तुन्दल, (१६), तायल, (१७) गोभिल, और गवन अर्थात् गोइनगोत्र आधा गोत्र है । आजकल गोत्रोंके नामों में कुछ अक्षर उलट पलट भी गये हैं। इस विषय में ईलियट साहेब की अधिक शब्द संग्रह पुस्तक देखो जिल्द १ तथा एलफिस्टेन कृत भारत का इतिहास देखो जिल्द २ पेज २४१.
" इस ग्रन्थकर्ता को, अग्रवालों के कई मुक़द्दमोंमें गोत्रोंके नाम साबित करने का काम पड़ा है । गोत्रों के नाम इस प्रकार बताये गये थे ( १ ) गरगोत्र, ( २ ) गोलगोत्र ( ३ ) कच्छलगोत्र ( ४ ) मंगलगोत्र, (५) विंदलगोत्र ( ६ ) ढ़ालनगोत्र, (७) सिंगलगोत्र, (८) चीतलगोत्र, ( ६ ) मीतलगोत्र, (१०) तुम्गलगोत्र, ( ११ ) तायलगोत्र, ( १२ ) कन्सलगोत्र, (१३) वांसल - गोत्र, ( १४ ) नागलगोत्र, (१५) ईदलगोत्र, (१६) डेहरनरगोत्र, ( १७ ) एरणगोत्र, (३) गवनगोत्र, या गोनगोत्र, पहिले के नामों से अबके नामों में अक्षरों का फरक होगया है और बोलते बोलते उच्चारण भी बदल गया है सिवाय पांच गोत्रों के नामों के बाक़ी का उच्चारण क़रीब क़रीब मिलता जुलता है देखिये - ( १ ) गर्ग - गर, (२) गोइल - गोइल ( ३ ) वात्सिल - वांसल, ( ४ ) कासिल - कन्सल, (५) सिंहल - सिंगल, (६) मंगल - मंगल, ( ७ ) तिंगल - तुन्गल, (८) परण-परन, (६) टैरण - डेहरण, (१०) टिंगल-ढालन ( ११ )मित्त - मीतल (१२) तायल - तायल ( १३ ) गवन या गोइन - गवन या गोन । मगर पहिले कहे हुये पांच गोत्रों का उच्चारण आज कलके उच्चारणों से अधिक फरक डालता है जैसे गावाल, मद्दल, तित्तल, तुन्दुल, गोभिल, यह नाम पहिले बोले जाते थे अब कच्छल, बिंदल, चीतल, नागल, ईदल, बोले जाते हैं यह एक दूसरे से बहुत कम मिलते हैं । यह निश्चय नहीं होता कि जो गोत्र मैंने आज कल के बोले जाने वाले बताये हैं सब जगहों पर एक
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दत्तक या गोद
[चौथा प्रकरण
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ही तरह का उच्चारण होता हो। लोगों को और तरह से उच्चारण करते हुये भी सुना है।"
इन सब गोत्रों के लोग काशी धाम में नहीं पाये जाते। कुछ गोत्र जैसे टैरण--(तरण ) कासिल का वहां पर पता नहीं लगता, काशीमें अधिक अग्रवाल गोइल गोत्र के मिलते हैं। इनके सिवाय अग्रवालों की और भी उपजातियां पाई जाती हैं, जिनके नाम उक्त गोत्रों में सम्मिलित नहीं किये गये हैं। इन उपजातियों के नाम " दास" और "विरादरी राजा” हैं। दास गोत्र वाले अग्रवाल, बसु से, उपपत्नी द्वारा उत्पन्न हुये हैं इस कारण अन्य अग्रवाल इनके साथ अपना सम्बन्ध नहीं रखते । “ विरादरी राजा" गोत्र वाले अग्रबालों की उत्पत्ति रत्नचन्द से हुई है। फरुनशेर बादशाह ने गत शताब्दी के पूर्व भाग में इनको राजा की उपाधि दी थी कुछ श्रादमी इस उपजाति को भी “दास" की तरह मानते हैं।
___ अग्रवाल जाति की दो शाखायें और है, पूर्वीया और पश्चिमीया । पूर्वीयों की संख्या पश्चिमीयों की अपेक्षा अधिक हैं काशीमें पूर्वीया अग्रवाल पश्चिमीयों से अधिक प्राचीन समझे जाते हैं। दोनों काशी के पंडितों की यात पर पूर्ण श्रास्था करते हैं वह दोनों उपजातियां आपस में खानपान करती हैं पर विवाह सम्बन्ध नहीं करतीं, पहिले यह दोनों परस्पर बिवाह सम्बन्ध भी करते थे, पर कुछ झगड़े हो जाने के कारण इन्होंने इस रीति को उठा दिया। हाल में फिर चेष्ठा की गई है कि यह दोनों उपजातियां आपस में मेल करलें, इसमें कुछ सफलता भी देखी गई है । अग्रवाल जाति धार्मिक रीति के विचार में बड़े पक्के होते हैं । वे मांस नहीं खाते और उनमें विधवाविवाह नहीं है, बनारस के धर्म शास्त्र को बड़े प्रेम से मानते हैं । अग्रवालों का एक ब्रहदभाग अर्थात् इस जाति के लग भग आधे लोग जैन धर्म के अनुयायी हैं ( इन प्रान्तोके पूर्वीय जिलों में वे सरावगी नामक जैनी ,अग्रवालों से शादी बिवाह करते हैं।)
बुलन्दशहर के प्रत्येक क़स्बे और गांव में अग्रवाल निवास करते हैं मैनपुरी वाले अग्रवाल जैनमत के हैं । सोलहवीं शताब्दी के अन्त समय में अग्रवालों का एक परिवार गोरखपुर से इटावे को गया और वहां पर निवास कर लिया। मिस्टर ए० ओ० हम कहते हैं कि इस घराने के आदि पुरुष का नाम लालविहारी था । वह बादशाह के खजांची थे उन्होंने कोड़ा जहानाबाद में कुछ समय व्यतीत किया किन्तु मरे इटावा में ही। इनके पुत्र बैजनाथ वहां घर बनवा कर अपना रहना स्थिर कर लिया, उनके पौत्र जैचन्द ने कटरा बनवाया जो अबतक उनके वंशजों के अधिकार में चला आता है जिनमें अधिकांश धन, धान्यशाली व्यवसायी और ज़िमीदार हैं । अग्रवालों में जो साधारण ब्योपारी और बनिये हैं वे अक्सर मिर्जापुर के ज़िलांतर्गत चुनार
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दफा ३२१ ]
अग्रवाल वैश्यों की उत्पत्ति
स्थान में पाये जाते हैं। ये लोग पहिले, पहल दिल्ली से आकर यहां बसे । इसी ज़िले के कर्वीत परगने में भी कुछ ऐसे अग्रवाल निवास करते हैं ।
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यह पहले ही कहा जा चुका है, कि काशी धाम में अग्रवालोंके चौधरी अथवा मुखिया बाबू हरिश्चन्द्र जी रहते हैं । आग्रह में शहाबुद्दीन गोरी द्वारा अनेक अग्रवालों के मारेजाने पर उनकी जो स्त्रियां सती हो गयीं थीं उनकी पूजा अब तक अग्रवाल काशी में करते हैं । इनमें से दो महिलाएं उक्त बाबू साहब के निकटवर्ती पूर्वजों की पत्नियां थीं। उनकी मूर्तियां बनाकर अग्रवाल अब पूजन करते हैं। अपना प्रथम निवास अग्रह छोड़ने पर इस परिवार ने बहुत समय तक दिल्ली के पास लखनौती नामक एक गांव में कई वर्ष तक किया। पर जब तक औरंगजेब के पुत्र बहादुर शाहका राज्य नहीं हुआ, तब तक इस घराने के कोई आदमी सरकारी कामों में अच्छे पदों पर आरूढ़ नहीं हो सके । बहादुर शाह ने अग्रवालों को बड़े आदर और नीति की दृष्टि से देखा तथा उनको अपनी राज्य में अच्छे २ स्थान दिये । कतिपय अग्रवालों को राजा की उपाधियां भी मिलीं । अग्रवालों की वर्तमान सन्तान से १३ पीढ़ियां यदि हम पीछे देखते हैं तब पता लगता है कि इनके पूर्वज “बालकृष्ण" थे उनके एक पुत्र मुरसिदावाद के नव्वाब की सेवामें राजदूत बनाकर भेजे गये थे । उक्त नव्वाब साहेब इनपर अन्त में ऐसे प्रसन्न हुये कि उन्हे पुरस्कार स्वरूप में राजमहल के अंतगर्त एक बड़ी मिलकियत दी। जिसके कुछ अंश पर इस घराने का अधिकार चला आता है । एकसौ वर्ष बीते कि काशी के राजा श्रीमान् बलवन्तसिंह के समय में उक्त घराने के एक आदमी ने बनारस के महान प्रतिष्ठित महाजन साहु रामचन्द्र की कन्यासे विवाह कर लिया । मरते वक्त साहु रामचन्द्र अपनी सम्पत्ति अपने जामाता अनुचन्द के नाम लिख गये जिनके अनेक कन्याओं के सिवाय दो भाई और १० पुत्र थे एक भाई ने तो फक़ीर या योगी होकर भागलपुर में मठ बना लिया जो अभी तक मौजूद है । उस समय से इस परिवार की सन्तानों के भाग्य में समय की गति से हेर फेर होता ही चला गया अब इस घराने में बाबू हरिश्चन्द्र और उनके भाई बच गये हैं। देखो --
मि० ए० ह्यूम साहेब की सेन्ससेज़ रिपोर्ट सन् १८६५ ई० तथा एपेन्डिक्स बी० पी० सन् १८८६ ई० । यह पुस्तक मुझे बम्बई हाईकोर्ट की लाइब्रेरी में मिली थी ।
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दत्तक या गोद
दत्तकका परिशिष्ट
[ चौथा प्रकरण
यह प्रकरण सात बड़े भागों में समाप्त किया गया। पाठक, इसके पढ़नें या किसी मामले का विचार करते समय, प्रथम प्रकरणमें कहा हुआ 'हिन्दूलॉ के स्कूलों का वर्णन' खूब ध्यानमें रखें । क्योंकि स्कूल भेदसे अर्थात् स्थान भेदसे दत्तकमें फ़रक़ पड़ जाता है जैसे यदि किसीने गोद लिया और पीछे असली लड़का पैदा होगया तो दोनों के परस्पर बटवारामें यह फ़रक पड़ेगा कि बम्बई में गोदके लड़केको पांचवां हिस्सा, बङ्गालमें तीसरा हिस्सा बनारस में चौथाई हिस्सा मिलता है । इसी तरह पर वर्ण भेदको भी न भूल जाइये। जैसे द्विजों में और शूद्रोंमें गोद लेनेका विधान एक नहीं माना गया । गोद वास्तवमें हुआ या नहीं हुआ यह प्रश्न, गोदके विधानकी क्रिया पर निर्भर है, दोनों में एकही प्रकारकी गोदकी क्रिया नहीं है ।
कैसा लड़का गोद लिया जा सकता है और कौन लड़का जायज़ माना जाता है अथवा कौन लड़के गोद नहीं लिये जा सकते और अगर वे लिये गये हों तो नाजायज़ क़रार पावेंगे । इत्यादि प्रश्नोंके विचार करने में सपिण्ड, असपिण्ड, दत्तक पुत्रकी असली माताका विवाह सम्भव होना, इत्यादि नियम अनेक ऊपर बताये गये हैं उनका ध्यान तत्सम्बन्धी प्रश्नमें कदापि न छोड़ जाइये | आज कल दीवानी अदालतों की गति विधिसे यह मालूम होता है कि वे प्राचीन हिन्दू धर्म शास्त्रोंकी अवहेलना करती जा रही हैं। अङ्गरेजी क़ानूनके उद्देश्योंके भाव पैदा करती जा रही हैं जैसे प्राचीन हिन्दू धर्म शास्त्र में गोद लेने के सपय दत्तक हवन, विशेषकर द्विजोंके लिए अत्यावश्यक था । पहले दीवानी अदालतोंका रुखभी बहुतसे तत्सम्बन्धी फैसलोंसे यही प्रतीत होता है कि वे आवश्यक समझती थीं, अनेक गोद इसी आधारपर खारिज होगये कि उनमें दत्तक हवन न किया गया था मगर अब नये फैसलोंका रुख बदल गया है वे एक प्रकारसे कन्ट्राक्टके रूपमें उसे मानने लगे हैं ।
अब सिर्फ लड़केको देना और लेना साबित हो जाने से दत्तक जायज़ मान लिया जाता है । द्विज और शूद्रमें इस विषय में कोई फ़रक विशेष रूप से नहीं समझा जाता हां भारतकी किसी विशेष प्रांतकी विशेष कौमके रवाज की बात पृथक् है । इसलिये आप सचेत और सतर्क भावसे किसी विषयका अन्तिम निर्णय करनेके लिये पूर्वापर विचार करके पढ़ें ।
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नाबालिगी और वलायत
पांचवां प्रकरण
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दफा ३२२ मियादमें मत भेद है।
नाबालिग्री अर्थात् अज्ञानता कब समाप्त हो जाती हैं, इस विषय में हिन्दू लॉ के लिखने वालों की राय में भेंद पड़ गया है। किसी की राय यह है कि अज्ञानता पन्द्रह साल के समाप्त होने पर ख़तम हो जाती है, और किसी की राय सोलह साल समाप्त होनेपर है । बङ्गालमें अज्ञानताकी मियाद सोलह साल समाप्त होने पर ख़तम हो जाती है देखो माथुर मोहन बनाम सुरन्द्रो (1875 ) 1 Cal. 108
बङ्गाल प्रांत को छोड़ कर तमाम भारत में अज्ञानता की मियाद की समाप्ती पन्द्रह साल की उमर खतम होने पर मानी जाती है देखो शिवजी नाम दत्तू ( 1874 ) 12 Bom H. C. 281, 209, रिद्धी बनाम कृष्णा ( 1886 ) 9 Mad. 391,397, 398
इन्डियन मेजारिटी एक्ट ६ सन् १८७५ ई० के पास होजानेसे अज्ञानता की अवधि के विषय में जो झगड़े थे सब मिट गये क्योंकि यह क़ानून तमाम हिन्दुस्तान में लागू किया गया तथा सब आदमियों और सब कामों के लिये एकसां पाबन्द कर दिया गया।
दफा ३२३ नाबालिग्री की मियाद
एक्ट नं० है सन १८७५ ई० के अनुसार आज कल यह माना जाता है कि जिस नाबालिग की जात ( शरीर ) या जायदाद के लिये अदालतसे वली नियत किया गया हो, या आइन्दा नियत किया जाय या जो नाबालिग कोर्ट आफ वार्ड के ताबे में हो तो नाबालिगी की मुद्दत इक्कीस वर्ष समाप्त होने पर खतम हो जायगी । बाक़ी और तमाम सूरतों में अट्ठारह साल समाप्त होने पर खतम हो जायगी देखो ख़्वाहिश बनाम सुरजू 3 All 698; रड़ी बनाम कृष्णा 9 Mad. 391.
जब कोई वली अदालत से नियत हो चुका हो तो अज्ञानता की मियाद इक्कीस वर्ष समाप्त होने तकही रहेगी, चाहे वली अपना काम करता हो या न करता हो और चाहे उसने साटीफिकेट वलायत हासिल की हो यान कीहो देखो -- रुद्रप्रकाश बनाम भोलानाथ मुकुरजी 12Cal.612; गिरीशचन्द्र
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नाबालिगी और वलायत
[पांचवां प्रकरण
बनाम अब्दुलसालेम 12Cal 55; गोरधनदास बनाम हरिबल्लभदास 21 Bom. 281; ज्वालादेबी बनाम पराभुव 14 All. 35.
जब किसी अज्ञान की जायदाद पर क़ब्ज़ा कोर्ट आफ् वार्डस् का हो गया हो तो उसकी अज्ञानता उस वक्त तक रहतीहै जब तक उसकी जायदाद पर दखल कोर्ट आफ् वार्डस् का बना रहता है पश्चात् नहीं रहती। मगर अज्ञान को कोर्ट आफ्वार्डसू के ताबे रहने पर भी उसे यह कानून विवाह दहेज, उत्तराधिकार और दत्तक के लिये पाबन्द नहीं करताः देखो-ब्रजमोहन लाल बनाम रुद्रप्रकाश 17 Cal. 244. दफा ३२४ बली होनेका अधिकारी कौन है
(१) बाप। (२) मा । कुदरता चला है।
५} कुदरती वली हैं। (३) बापने जिसको अपनी वसीयतके द्वारा नियत किया हो। (४) बापकी तरफ के रिश्तेदार । (५) माकी तरफ के रिश्तेदार। (६) जिसे कोर्ट ने एक्ट नम्बर ८ सन् १८६० ई० के अनुसार नियत
किया हो, या हाईकोर्ट ने । अज्ञान के शरीर और उसकी जायदाद की रक्षा के अधिकारी ऊपर के लोग अपने पदाधिकार के क्रम से होते हैं। यानी नं० १ के बाद २ और नं० २ के बाद ३ एवं ।
विवाहिता बहन-हिन्दूला के अनुसार विवाहिता बहन, अपनी अविवाहिता बहन की वली नहीं हो सकती । पञ्जाबराव बनाम आत्माराम, 87 L. C. 1018. विवाहिता बहन, अपनी बहन की वली नहीं होगी A. I.. R. 1926 Nag. 179.
__माता का अधिकार-हिन्दू माता अपने नाबालिग पुत्रों की कानूनी वली है जब कि वे अपनी जायदाद के पूर्ण अधिकारी हों-शाम पुरी बनाम रामचन्द्र, 88 I.C. 2683; A. I. R. 1925 Nag. 385. किसी हिन्द की मृत्यु पर, जो.नाबालिग पुत्र और पृथक जायदाद छोड़ कर मरा हो, तो जायदाद के सम्बन्ध में नाबालिगों की माता उनकी प्राकृतिक वली है। स्वार्थ राम बनाम राम बल्लभ 47 All. 784; 23 A. L. J. 625; L. R. 6 All. 465 (C. W.); 89 I. C. 27; A. I. R. 1925 All. 595. दफा ३२५ रिश्तेदारको वली होनेका पूर्ण अधिकार नहीं है
सिवाय बाप और माके, किसी रिश्तेदारको अज्ञानका वली बननेके लिये पूरा अधिकार नहीं है। यानी जब बाप और मा नहीं हैं, और बापकी तरफ
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दफा ३२४-३२७]
नाबालिगी और वलायत
से कोई वली नियत भी नहीं किया गया, तो किसी रिश्तेदार को अज्ञान का वली बनने का पूरा अधिकार नहीं है। ऐसी दशा में कोर्ट की तरफ से गार्जियन ( वली) नियत किया जायगा। कोर्ट वली नियत करने के वक्त मज़दीकी रिश्तेदारी का ख्याल रखेगी और अगर अशान, राय देने के योग्य हो तो उसकी राय लेगी और सब से ज्यादा इस बात पर ध्यान देगी कि जिस से अज्ञान का सब तरह का लाभ हो । इसी तरह पर कोर्ट किसी खास मुकदमे में अज्ञान के लाभ के लिये बाप की तरफ के रिश्तेदारों को छोड़ कर माकी तरफ के रिश्तेदार को गार्जियन (वली) नियत कर देगी; देखोक्रिष्टोकिशोर बनाम कदरमयी ( 1878 ) 2 Cal. L. R. 583; भिकनू कुंवर बनाम चमेला कुंवर ( 1897 ) 2 Cal. W. N. 191. और देखो गार्जियन्स एन्ड वार्ड्स एक्टं सन् १८६० ई०.
वली और नाबालिग्न तथा अदालत का अख्तियार-नाबालिरा की शरीर रक्षा और जायदाद रक्षा के लिये, हाईकोर्ट का अधिकार बहुत विस्तृत है, और हाईकोर्ट को अधिकार है कि नाबालिग के हित के लिये, जो हुक्म मनासिब समझे पास करे। मुरारी लाल बनाम सरस्वती-7 Lah. L.J. 30; 86. . C. 226; A. I. R. 1925 Lah. 358; 88 I. C.,576. दफा ३२६ बापको वली होनेका पूरा अधिकार है
अज्ञान का वली होने के लिये बाप को पूरा अधिकार है क्यों कि जब तक बाप जिन्दा है कोर्ट को अज्ञान के शरीर का कोई वली नियत करने का अधिकार नहीं है। मगर जब बाप अज्ञान के शरीर की रक्षा करने में असमर्थ हो या अयोग्य हो तो अदालत दूसरा वली नियत कर देगी; देखो-गार्जियन एन्ड वाई एक्ट नं. ८ सन् १८६० ई० की दफा १७ बापके वसीयत मामा के द्वारा जब कोई पुरुष अज्ञान का वली नियत किया गया हो उसका हक माके मुताबिले से अधिक माना जाता है।
_ हिन्दूलॉ का यह नियम है कि माता पिता को छोड़ कर और किसी को नाबालिग्न का वली बनने का अधिकार नहीं है। माता पिता के अतिरिक्त और किसी को वली बनने की सूरत में अदालत की इज़ाजत की ज़रूरत है। चन्दूलाल बनाम मुकुन्दी 26 Punj. L. R. 120; 87 I. C. 40; A. I. R. 1925 Lah. 503. दफा ३२७ बाप मृत्यु पत्र द्वारा वली नियत कर सकता है ___ हिन्दू क़ौम में बाप अपने अज्ञान लड़के के लाभ के लिये अपने मरने से पहिले ज़बानी अथवा मृत्यु पत्र लिख कर किसी पुरुष को वली नियत कर सकता है। और बाप को यह भी अधिकार है कि लड़के की माके जीते जी
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नाबालिगी और बलायत
[ पचावां प्रकरण
उसे वलायत से हटा कर किसी दूसरे आदमी को वली नियत करदे; देखोसुभमिथीलाल बनाम दुर्गालाल 7 W. R. 73, 75; बूधीलाल बनाम मुरारजी
31 Bom. 413.
૪૮
हाल के एक मामले में तय हुआ है कि पिता द्वारा अज़रूप वसीयत वली नहीं मुक़र्रर किया जा सकता । के० सुब्वा रायदू बनाम के सुब्बम्मा 85 I. C. 457; A. I. R. 1925 Mad. 371; 47 M. L. J. 765.
दफा ३२८ मा मृत्यु पत्र द्वारा वली नहीं नियत कर सकती
मा अपने अज्ञान बालक के लिये मृत्यु पत्र द्वारा वली नियत नहीं कर सकती । मगर यदि किसी माने मृत्यु पत्र में अपने अज्ञान बालक का वली नियत किया हो तो कोर्ट माकी मरजी पर पूरा ध्यान देगी; देखो - बेकाया बनाम बैंकट ( 1897 ) 21 Mad. 401.
दफा ३२९ मृत्यु पत्र द्वारा नियत किये हुए वलीका अधिकार
जो वली बाप की वसीयत के ज़रिये से किसी अज्ञान का रक्षक नियत हुआ हो उसे वह सबशर्तें पूरी तौर पर पालन करना होंगी जो वसीयत नामा मैं इस बारे में लिखी गई हों, या जैसी कि मंशा वसीयत करने वाले की ज़ाहिर होती हो। वह उन सब बातों के पालन करने का पाबंद है; देखोगार्जियन् एण्ड वार्डस् एक्ट सन् १८२० ई० की दफा २७.
दफा ३३० मिताक्षरा स्कूल के अन्दर वलायत
इस किताब की दफा १५ में कहा जा चुका है कि तमाम हिन्दुस्थान में दो बड़े स्कूल हैं। दाय भाग और मिताक्षरा । दाय भाग सिर्फ बङ्गाल में और बाकी सब जगह मिताक्षरा स्कूल माना जाता है। मगर दोनों स्कूलों में बाप और मा अज्ञान के कुदरती वली हैं । पहिले बाप और उसके बाद मा ! अगर मा न हो, या इस योग्य न हो कि अज्ञान की परवरिश का काम करे, तो कोई मर्द रिश्तेदार नियत किया जायगा । मर्द रिश्तेदार के नियत करते समय बाप की तरफ के रिश्तेदार पहिले और माकी तरफ के रिश्तेदार बाद को नियत किये जायेंगे ।
अविभक्त परिवार में, जो मिताक्षरा धर्म शास्त्र से लागू किया गया हो जायदाद का तमाम इन्तज़ाम और अज्ञान के हिस्से की जायदाद का इन्तज़ाम भी नज़दीकी मर्द कुटुम्बी को होगा नकि माको । और जहां परिवार बटा हुआ हो वहां पर ऐसी सूरत न होगी; देखो - गौरा कुंवर बनाम गजाधर 5 Cal, 219 लेकिन अज्ञान के शरीर रक्षा का जो अधिकार माको प्राप्त होता है उसमें कोई पुरुष आपत्ति नहीं कर सकता है ।
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दफा ३२८-३३३ ]
नाबालिगी और बलायत
दफा ३३१ छोटे बच्चे का भी बाप ही वली होगा
जब तक बाप जीता रहेगा तो उसके चाहे कितना भी छोटा बच्चा हो बाप वली होगा, मा नहीं हो सकती; देखो - इम्प्रेस बनाम प्राण कृष्ण 8 Cal. 969.
दफा ३३२ नाबालिग भी नाबालिक। वली बन सकता है।
एक नाबालिग अपने अज्ञान लड़कों तथा अज्ञान औरत का वली बन सकता है, मगर वह किसी दूसरे अज्ञान का वली नहीं बन सकता; देखोगार्जियन् एण्ड वार्डस् एक्ट ८ सन् १८६० ई० की दफा २१.
UC
हिन्दूलॉ में कोई ऐसा क़ायदा नहीं मालूम होता कि शामिल शरीक खानदान में इन्तज़ाम करने वाला पुरुष बालिग ही होना चाहिये; तो ऐसी सूरत में इन्तज़ाम अज्ञान भी कर सकता है । और वह सिर्फ अपनी स्त्री तथा लड़कों का ही वली नहीं होगा बल्कि खानदान के दूसरे अज्ञान लड़कों का भी वली हो सकता है ।
दफा ३३३ शामिल शरीक परिवार में जायदादकी वलायत
अगर अज्ञान किसी शामिल शरीक खानदान में है तो उसकी जायदाद का वली बतौर कर्ता के उसका बाप है । यदि बाप मर गया हो तो अज्ञान के हिस्से की जायदाद के सहित तमाम जायदाद के देख भाल और इन्तज़ाम का बली बतौर कर्ता के बड़ा लड़का होगा । मा अपने लड़के की उस जायदाद का देख भाल और इन्तज़ाम करने की अधिकारिणी नहीं है जो शामिल शरीक है, मगर अपने लड़के के शरीर की तथा उस जायदाद की जो उसके लड़के की अलहदा, यदि कुछ हो, देख भाल करने और इन्तज़ाम करने का अधिकार रखती है, देखो - घरीव औला बनाम खलक सिंद (1903) 25 All. 4071 30 I. A. 165; गौरा बनाम गजाधर 5Cal. 219, विरूपाक्षय्या बनाम नीलगङ्गोबा 19 Bom. 309; श्याम कुंवर बनाम महानन्द 19 Cal. 301.
अगर सब लड़के अज्ञान हैं तो अदालत कुल शामिल शरीक जायदाद के लिये एक वली नियत कर देगी, और वह वली जब तक बड़ा लड़का बालिग न होगा, रहेगा। बड़े लड़के के बालिग होते ही उस बली की अवधि समाप्त हो जायगी; देखो - विन्दा जी बनाम मथुरा बाई ( 1905 ) 30 Bom. 152. अनेक अज्ञान लड़कों में जब एक लड़का बालिग्र हो जायगा तो कोर्ट पहिले नियत किये हुए वली को खारिज कर देगी, और बाक़ी सब अज्ञान लड़कों का वली उस बालिग लड़के को बना कर सब शिरकत की जायदाद उसके ताबे कर देगी देखो रामचन्द्र बनाम कृष्णराव ( 1908 ) 32 Bom. 259.
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३५०
उदाहरण-
१
नाबालिग्री और वलायत
[ पांचवां प्रकरण
शिवसिंह = पार्वतीबाई ( विधवा )
२
रामसिंह
जीतसिंह
( १ ) ऐसा मानो कि शिवसिंह एक पुरुष है जो मिताक्षराका पाबन्द है उसने अपने मरनेपर एक विधवा पार्वती जो जीतसिंहकी माता है, और दो लड़के रामसिंह, तथा जीतसिंह छोड़े । रामसिंहकी माता नहीं है तथा वह बालिग है और जीतसिंह अज्ञान है । अगर दोनों लड़के शामिल शरीक रहेंगे तो, रामसिंह आफ़िसर खानदान बनकर सब शिरकतकी जायदादका इन्तज़ाम करेगा, और वही जीतसिंहका वली होगा । विधवा पार्वतीबाई जो जीतसिंहकी माता है, उसे यह अधिकार नहीं होगा कि अपने लड़के के मुश्तरका जायदादके हिस्सेमें कोई दूसरा वली नियत करदे। मगर वह जीतसिंहके शरीरकी, तथा लड़केकी उस जायदादकी जो अलहदा, यदि कोई हो, वली हो सकती है ।
( २ ) अगर रामसिंह और जीतसिंह अपनी जायदादका बटवारा करा लेंगे तो जीतसिंहको जो हिस्सा मिलेगा उस हिस्सा की जायदादकी, मा वली होगी क्योंकि उसका हिस्सा अलहदा हो गया; इसी क़िस्मका एक फैसला देखो - गौरा बनाम गजाधर 5Cal. 219.
(३) अगर रामसिंह और जीतसिंह दोनों ही नाबालिग हों तो दूसरी सूरत होती । उस दशा में अदालत, शामिल शरीक जायदादकी रक्षा के • लिए दूसरा कोई वली नियत कर सकती है । और अगर अदालत चाहे तो जीतसिंह की मां पार्वती बाई को भी वली नियत कर सकती है, 30 Bom. 159.
1
( ४ ) दोनों की नाबालिग्रीमें जब कोई वली अदालतसे नियत किया गया हो तो दोनों लड़कोंमे से जो पहिले बालिग़ होगा; अदालत उसे वली बनाकर सब मुश्तरका जायदाद के इन्तज़ामका भार देगी और अज्ञानोंका वली उसे नियत करेगी। यानी यदि रामसिंह भी अज्ञान होता तो दूसरा वली नियत किया जाता, और अगर पहले जीतसिंह बालिग हो जाता तो उसे सब अधिकार ऊपरके मिल जाते: 32 Bom. 259.
( ५ ) अगर शिवसिंह एक अज्ञान पुत्र छोड़छर मर जाता, और अदालतसे उसकी जायदादपर कोई वली नियत किया जाता, तो जिस वक्त वह लड़का बालिग होता, वली मंसूत्र हो जाता ।
दफा ३३४ पत्नीका वली पति है
17 Cal. 298; की नज़ीरमें तय किया गया कि, पत्नीका वली उसका पति है । घारपुरे हिन्दू -लॉ दूसरा एडीशन् पेज १०५ में कहा गया है कि पति
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दफा ३३४-३३५ ]
नाबालिगी और बलायत
अपनी पत्नीका कुदरती बली है । स्त्री चाहे कितनी भी कम उमर की हो, पति अपने पास रखने के लिए मजबूर कर सकता है, यदि कोई रवाज इसके विरुद्ध न हो । पति यदि स्वयं अज्ञान हो तो भी वह अपनी स्त्रीका वली है; देखो - अरुमुगा मुदाली बनाम वीरराधन ( 1900 ) 24 Mad. 225.
३५१
अगर पति अपनी अज्ञान स्त्रीको छोड़कर मर जाय तो उस नाबालिग विधवाका वली पति के सम्बंधियों में कोई होगा, जो सपिण्डका दर्जा रखता हो । विधवाका बाप और उसके रिश्तेदार सपिण्ड पुरुषकी मौजूदगीमें वली नहीं बन सकेंगे; देखो - खुदीराम बनाम बनवारीलाल 16 Cal. 584.
नाबालिग स्त्रीकी संरक्षा - पतिको अधिकार है कि अपनी पत्नीको अपनी संरक्षामें रक्खे, जब तक कि उसके विरुद्ध कोई मान्य कारण न हो पत्नीका नाबालिग होना, अदालतके लिये उसे पतिकी संरक्षा में न देने का पर्याप्त कारण है, यदि उसके माता पिता न मर गये हों और पतिकी ओरसे यह विश्वास न दिलाया गया हो, कि पत्नीके बालिग होने तक पति उसके साथ सहवास न करेगा। आमतौर से हिन्दू समाजका यह रवाज है कि पत्नी ब्याहके पश्चात् रजस्वला होने तक पिताके घर रक्खी जाती है ।
जज कोया जी - गार्जियन और वार्डस् एक्ट द्वारा पतिके अधिकार का प्रतिपादन होता है जिसको नाबालिग़की शारीरिक रक्षाके क़ानूनके अनुसार अपनी नाबालिग : पत्नीका वली बननेका अधिकार है । नवनीतलाल बनाम पुरुषोत्तम 50 Bom. 268; 28 Bom. L. R.143; 94 I. C. 11; A. I. R. 1926 Bom. 228.
दफा ३३५ मा शादी करनेसे, बाप दत्तक देनेसे वली नहीं
रहते हैं
अगर किसी लड़के की मां वली हो और माने अपनी शादी करली हो तो, वह अज्ञानकी वलायतसे खारिज करदी जायगी । इसी तरहपर जब किसी अज्ञान लड़केका बली बाप हो और बापने उस लड़केको दत्तक दे दिया हो तो, वह वलायतसे खारिज कर दिया जायगा । इस बातमें कोई सन्देह नहीं है कि हर एक वली चाहे जिस तरहपर नियत किया गया हो काफी वजेह पर वलायत से अलहदा किया जा सकता है; देखो - वाईशिवा बनाम रतन जी 24 Bom. 89; पंचप्पा बनाम संगंबासबा 1 Bom. L. R. 543.
मिस्टर मुल्लाकी राय इस बारेमें विरुद्ध है, उनका कहना है कि हिन्दू विधवा जो लड़कोंकी वली हो दूसरी शादी करने की वजहसे अपने वलीके अधिकारको नहीं खोदेगी; देखो - मुल्ला हिन्दूलॉ सेकण्ड एडीशन पेज ४१५ दफा ४३५, नजीर देखो - गङ्गा बनाम झालो (1911) 34 Cal. 862; पुतला
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नाबालिग्री और वलायत
( पांचवां प्रकरणं
बाई बनाम महादू ( 1908 ) 33 Bom. 107 114, पंचप्पा बनाम संग वासवा 24 Bom. 89, 91. इस बातको मि० घारपुरे और मि० ट्रिवेलियन नहीं मानते, उनका कहना है कि मा वली नहीं रहेगी, जैसा कि ऊपर कहा गया है मि० मेन भी इस आखीर राय से सहमत है, देखो -- घारपुरे हिन्दूलॉ दूसरा एडीशन पेज १०५: मेनका हिन्दूलॉ पैरा २११.
३५२
अगर अदालत को वली हटाने के लिये काफी वजेह नहीं दिखाई जायगी तो वली नहीं अलहदा किया जासकता, और अगर वली बाप अथवा मा हो तो यह ख़्याल किया जायगा कि अज्ञान की ज़ात ( शरीर ) और जायदाद की रक्षा का प्रेम उन्हें सब से बढ़ कर है ।
दफा ३३६ मज़हब बदलने पर वलीकी स्थिति
1
( १ ) जब बाप किसी लड़के का वली हो, और उसने अपना मज़हब बदल दिया हो, और अब उसका मकान लड़के के रहने योग्य न रह गया हो तो, लड़का बाप की वलायत से हटा कर दूसरे वली के सिपुर्द किया जायगा जिसे अदालत सब बातों पर निगाह कर के उचित समझे । और अगर बाप दूसरे मज़हब में जाकर अदालत से यह प्रार्थना करता हो कि उसका लड़का उसके क़ब्ज़े में दिला दिया जाय तो अदालत सब बातों का विचार कर के ऐसा हुक्म देगी जिससे अज्ञान का लाभ हो; देखो - मुकुन्दलाल बनाम नवदीपचन्द्र 25 Cal. 881. ऐसा बाप क़ब्ज़ा पाने की नालिश क़ानूनन कर सकता है देखो - गार्जियन ऐण्डवार्डस् एक्ट नं० ८ सन् १८६० ई०; शरीफ बनाम मुन्नेत्रां 25 Bom. 574. श्याम लाल बनाम बिन्दू 26 All 594.
( २ ) अगर माने वली की हैसियत में अपना मज़हब बदल दिया हो और यह सम्भव हो कि उसके असर से दूसरों का भी मज़हब बदल जायगा तो अदालत उस माकी वलायत खारिज़ कर देगी, देखो - स्किनर बनाम आरड़े 14M. I. A. 309; S. C. 10 B. L. R. 125; S. C. 17 Suth. 77.
(३) वह सुरत बिल्कुल अलग होगी जब कि अज्ञान लड़के ने अपना मज़हब बदल दिया हो, तो उसका वली कौन होगा ? इस विषय पर ज्यादा विचार किया गया है। पहले ऐसे फैसले जात किये गये हैं जिन से ज़ाहिर होता है कि जब दूसरे मज़हब में अज्ञान लड़का चला गया हो, तो वह अदालत से बाप को वापिस दिला मिलता था, मगर आजकल जो नये फैसले हुये उनमें वाक़ियात के लिहाज़ से यह माना गया कि जहां पर लड़के को एक अर्से तक रक्खा गया, या वह रहा, तो उससे हटाने में लड़के का लाभ नहीं है; नये फैसलों की एक दो नज़ीरें देखो-
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दफा ३३६-३३७ ]
नाबालिसी और बलायत
( अ ) एक हिन्दू खानदान में पैदा हुई लड़की अपने मा बाप की तरफ से आठ वर्ष तक बम्बई के अमेरिकन कालेज में शिक्षा पा रही थी जहां पर es ईसाई होगई, अब उस की उमर पन्द्रह वर्ष की थी, फैसला हुआ कि वह हैसियत ईसाई के अपनी वृत्ति रखे 16 Bom. 307.
શ
(क) कलकत्ते का मुक़द्दमा देखो - जिसमें एक हिन्दू बाप ने ईसाई मज़हब स्वीकार कर लिया था। अब बापने ईसाई मज़हब स्वीकार किया था उसके पहले उसने अपने लड़के को चाचा के सिपुर्द कर दिया था कि उसका लड़का हिन्दू मज़हब में परवरिश पाये । ईसाई हो जाने पर उसने अपने लड़के के क़ब्ज़ा पाने के लिये अदालत से प्रार्थना की तब लड़के की उमर बारह वर्ष की थी और वह लड़का पांच वर्ष चाचा के पास रह चुका था अदालत ' ने प्रार्थना नामंजूर की और यह सिद्धान्त केस में लागू किया कि या काफी समय तक नये घर में नई आदत के साथ रहा है जिसे बचा अखत्यार कर चुका था और अगर दुनियावी मामलों के लिये उसे बाप के हवाले किया जाता तो उसे तकलीफ़ होती, देखो - मकुन्दलाल बनाम नवदीपचन्द 25 Cal. 881.
दफा ३३७ ईसाई बापका दावा लड़का दिला पानेका
एक आदमी ने ईसाई मत स्वीकार कर लिया था, उसके एक दूध पीने बाला बच्चा और एक दो वर्ष की लड़की थी, उस आदमी की औरत ईसाई मत स्वीकार करने से इनकार करके अपने दोनों बच्चों को लेकर चली गई थी, बाप ने उन बच्चों के दिला पाने और अपने क़ब्ज़े में रखनेके लिये दावा किया यह मुक़द्दमा मैसूर में दायर हुआ, जजों की राय में भेद पड़ गया और कसरतराय के अनुसार इसका फैसला किया गया। फैसला बादी के विरुद्ध हुआ यानी, अदालत ने लड़के दिलानेसे इनकार किया इस फैसले में जस्टिस कृष्ण मूर्ति साहेब ने फरमाया कि - यह मुक़द्दमा हिन्दू क़ायदे के अनुसार फैसल किया जाना चाहिये, यह सच है कि बच्चे अपने बाप के यहां परवरिश पायें और वह एक प्रकार से बाप की मिलकियत है बाप के मजहब में परवरिश पाना तथा शिक्षा पाना ज़रूरी और योग्य है, मगर जब बाप ने कोई ऐसा काम किया हो जिससे बाप क़ानूनन तमाम उन बातों के लाभ से अलहदा हो गया हो जिनसे वह उस काम के न करने से नहीं होता, तो बाप लड़के की परवरिश व शिक्षा देने के योग्य नहीं रहा। एक हिन्दू लड़का अपने दादा और परदादा के धार्मिक कृत्य करने का उतना ही ज़िम्मेदार है जितना कि वह बाप के लिये है । बेटे के खयाल से बाप तीन पुश्तों में से एक है, और तीनों पुश्ते बेटे के ऊपर बराबर अधिकार रखतीं हैं बेटे का मज़हब होना चाहिये जो बाप का मज़हब दो क्योंकि उसमें तीन पुश्त के पितरों का हक़ शामिल
1
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३५४
नाबालिग्री और पलायत
[पांचवां प्रकरण
है इस लिये बाप का कोई अधिकार नहीं है कि अपनी तब्दीली मज़हब के सबब से कोई ऐसा काम करे जिससे लड़केको अपने दादा और परदादा के लाभ पहुंचाने में कोई हर्ज पैदा हो । और किसी बाप को हक़ हासिल नहीं है, कि अपने किसी अयोग्य काम से अपने अज्ञान बालक को कोई नुकसान पहुंचाये, इस फैसले का अच्छा विस्तृत वर्णन मिस्टर मेन साहेब ने किया है देखो मेन हिन्दूला पैरा २१५-२१६, मुकद्दमा देखो-दासप्पा बनाम चिकामा 17 Mysore. 324. दफा ३३८ जातिच्युत होजाने से वलायत नहीं जाती
अगर कोई जाति से बाहर कर दिया गया हो ( मगर हिन्दू रहा हो) तो र्सिफ इस सबब से, अज्ञान की जायदाद, और उसके शरीर का वलीपन नहीं खो जायगा। मगर पहिले यह माना जाता था कि खो जायगा इस विषय की नज़ीरें देखो-स्ट्रेनजर्स हिन्दूला जिल्द १ पेज १६० परन्तु जबसे एक्ट नं० २१ सन् १८५०ई०पास हुआ तबसे इस कानून के असर से अब वल्ली पन नहीं जाता, देखो-कन्हैराम बनाम विद्याराम ( 1878) 1 All. 649, कौलेसर बनाम जोराय (1305 ) 28 All. 233.
एक्ट नम्बर २१ सन १८५० ई० का मतलब यह है-"किसी रवाज का या कानून का इतना हिस्सा, जो ब्रिटिश इन्डिया में जारी है, कि जिसकी वजह से कोई आदमी अपने धर्म से निकाले जाने पर, या उसे छोड़ देने पर या जातिच्युत हो जाने पर अपने किसी हक्क या माल को खो देता है। अब से उस रवाज या क़ानून का उतना हिस्सा, बतौर कानून क़तई के नहीं माना जायगा।"
नोट-१७ मैसूर ३२४ के केस में रियासत होने की वजहसे ऐक्ट नम्बर २१ सन १८५. ६. लागू नहीं किया गया था अंगरेजी राज्य में अवश्य लागू होता । दफा ३३९ मज़हब बदलनेसे धर्मशास्त्री हक़ चले जातेहैं
जब कोई हिन्दू मज़हब छोड़कर ईसाई मज़हव में चला जाय तो हिन्दू समाज उसे बिलकुल अलहदा कर देती है और उसके वह तमाम अधिकार नाश हो जाते हैं, जो उसे धर्मशास्त्रानुसार प्राप्त थे । वह पुरुष जो ईसाई हो गया हो वरासत या बटवारा का दावा नहीं कर सकता और अगर कोई जायदाद उसके पास शामिल शरीक खानदानमें हो तो उसका हिस्सा बेदखल हो जायगा जो हिस्सा उसे हिन्दू धर्मशास्त्रानुसार नियत था । मुसलमान होने से भी ऐसा ही होगा।
उदाहरण--अविभक्त हिन्दू परिवार में बाबू कालीदत्त रहते हैं, उनके चार भाई हैं और पांचो भाई मिलकर पैतृक सम्पत्तिमें बराबर हिस्सा रखते
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दफा ३३८-३४२ ]
नाबालिग्री और वलायत
हैं। बाबू कालीदत्त ईसाई होगये तो अब वह न तो वरासत अपने भाइयों की, या अन्य किसी की पा सकते हैं, और न अपने हिस्से के बटा पाने का दावा कर सकते हैं, नतीजा यह हुआ कि उनका जो पैतृक सम्पत्ति में हिस्सा था उससे वह बेदखल होगये ।
दफा ३४० अनौरस पुत्रका वली कौन होगा
अनौरस पुत्र का अर्थ है जो असली लड़का न हो। ऐसे लड़के की मा उसकी कुदरती वली है । मगर जब माने श्राज्ञादी होकि लड़का उसके पाससे अलहदा कर लिया आय, तथा बाप या उसके नियत किये हुए किसी आदमी के ज़रिये से उस लड़के की परवरिश कराई जाय तो उसके (मा) अधिकार के बारे में अदालत यह मानेगी कि अब मा का हक़ उस लड़के पर बाक़ी नहीं रहा, देखो - लालदास बनाम निकुन्ज 4 Cal 374; 19 Mad. 461; मा के नियत किये हुये वली के बारे में प्रायः कोई आपति नहीं की जायगी, ऐसे पुत्रकी कुदरती वली मा होती है, 12 Mad. 67, 68, 16 Bom. 307, 317. दफा ३४१ दत्तकपुत्रका वली कौन होगा
३५५
जब दत्तक उसके असली मा बाप ने दे दिया हो तो असली मा बाप फिर दत्तक पुत्र के वली नहीं रहते । दत्तक पुत्र का वली गोद लेने वाला पिता या माता होती है, श्रीनरायन बनाम कृष्ण 11 Beng. L. R. 171; 191 I. A. Sup. Vol. 149, 163; लक्ष्मी बाई बनाम श्रीधर 3 Bom. 1. निर्विनय बनाम निर्विनय 9 Bom. 365,
दफा ३४२ कुदरती वलीका अधिकार
कुदरती वली बाप या मा कुल जायदाद का इन्तज़ाम करते समय जायदाद के लाभ के लिये अथवा अन्य किसी खास ज़रूरत के लिये जायदाद का कोई हिस्सा बेच सकते हैं और रेहन ( गिरौं ) कर सकते हैं; नज़ीरें देखो हनुमान प्रसाद बनाम मुसम्मात बबुई ( 1856 ) 6 Mad 1 A 393 देखो माने रेहन करदिया था - महानन्द बनाम नाफुर ( 1899 ) 26 Cal. 820 दादीने बेंच डाला था - सुन्दर नरायन बनाम बिनन्दराम 4 Cal. 76. माने बॅच डाला था - बेशीधर बनाम बिन्देश्वरी 10M. I. A. 454, वलीने बिला किसी ज़रूरत के - - मुरारी बनाम व्याना 20 Bom. 286; माने बेंच डाला था ।
क़रज़ा देने वाले और खरीदने वाले पर फ़र्ज़ - ऊपर की सब नज़ोरों में हनुमान प्रसाद बनाम बबुई 6 Mad. I. A. 393; का केस उल्लेख योग्य है । इस केस में अदालत हाईकोर्ट ने फरमाया कि हिन्दूलों में एक अज्ञान बालक की जायदाद में मेनेजर का अधिकार महदूद है, वह अपने अधिकार को
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नाबालिग्री और वलायत
[पांचवां प्रकरण
किसी खास ज़रूरत के अचानक पापड़ने से ही काम ला सकता है। अगर जायदाद पर कोई खास दबाव पड़ा हो या कोई खतरा पैदा हुआ हो या जायदाद को कोई खास लाभ पहुंचता हो, और उस समय मेनेजर ने अपने अधिकार से काम लेकर पूरा किया हो, तो ऐसे हर मुकदमे में इन वातों का विचार किया जायगा । अदालत ने यह भी कहा कि जब कोई ऐसी सूरत में करज़ा देवे, तो करज़ा देने वाले को करज़ा लेने की ज़रूरत अच्छी तरह दरियाफ्त कर लेना चाहिये-और उसे अपने आपको पूरा इतमीनान कर लेना चाहिये कि मैनेजर जायदाद के फायदे के लिये क्या अच्छा काम कर रहा है? विशेष कर उस खास बात में जिस में कि वह नर्जा दे रहा है। अगर कर्जा देने वाला इतनी काफी पूंछ पांछ कर लेगा और ईमानदारी से बर्ताव करेगा तो उसे अपने कर्जे का बार साबित करने के लिये यह जरूरी नहीं होगा, कि वह रुपया जो उसने दिया था दरअसल किस काम में खर्च किया गया, तथा कोई विश्वास करने योग्य ज़रूरत श्री या नहीं। इसी तरह पर वह आदमी जो मनेजर से कोई चीज़ मोल लेवे तो उसे सिर्फ इतना साबित कर देना काफी होगा कि उसने इस बात की पूरी पूंछ .पांछ कर के अपने इतमामान करने योग्य बातें हासिल करली थीं कि वहां कोई जरूरत रुपया की है देखो-सुरेन्द्रो बनाम नन्दन ( 1874) 21 W. R. 196,
वलायत--माता द्वारा वलीकी हैसियतसे बयनामा कानूनी प्रावश्यकता-खरीदारका उज-शेख मुहम्मद बनाम रामचन्द्र 00 I. C. 74 (2). दफा ३४३ कर्जाकी ज़रूरत साफ लिखी जाना चाहिये
जब मनेजर किसी खास मतलब के लिये कोई कर्जा ले या रुपया के पाने की गरज़ से कोई चीज़ बेंचे, हर सूरत में जो दस्तावेज़ लिखी जाय उस में ज़रूरी है कि कर्जा या रुपया लेने की गरज़ साफ तौर पर लिखी जाय । केवल इतना लिखा जाना कि "जरूरत के लिये लिया गया" काफी नहीं माना जायगा, देखो-राजलक्ष्मी देवी बनाम गोकुलचन्द : Beng. L. R. (P. C. ) 57; 13 M. I. A. 209. . ज़रूरत कानूनी साबित करनेके लिये दूसरी शहादतकी ज़रूरत होगी, खाला प्रजलाल बनाम इन्द कुंवर ( 1914 ) 16 Bom. L. R 352.
अगर दस्तावेज़ बैनामा या तमस्सुक में ज़रूरत रुपया लेने की साफ तौर पर न लिखी गई हो तो, महज़ इस सबब से वह नाजायज़ नहीं हो जायगी क्यों कि दूसरी शहादत से उसे साबित कर सकते हैं। बमेश चन्द्र बनाम दिगम्बर 3 W. R. 154. ___नाबालिग का दीवालिया करार दिया जामा-यह फर्म जो किसी नाबालिरा और बालिगों के लाभ के लिये व्यवसाय करता हो कर्ज न चुकाने
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दफा ३४३-३४६ ]
नाबालिग्री और वलायत
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पर दिवालिया करार दिया जा सकता है। क़ानून मुआहिदा की दफा ११ और २४७ - प्रेसीडेंसी टौन इनसालवेन्सी एक्ट की दफा ६६ शावैलैस एण्ड को० का मामला A. I. 1. 1927 Sind. 18.
दफा ३४४
ब्याजका शरह
अगर किसी महाजन ने मनेजर को अधिक सूद पर क़र्ज़ा दिया होगा और यह साबित हो जाय कि मनेजर को उस सूद से कम भाव पर क़र्ज़ा मिल सकता था। तो महाजन को अदालत उतना ही सूद दिलायेगी जितना कम से कम उसे मिल सकता था; देखो -- 18 Cal 311.
दफा ३४५ अदालतकी आज्ञानुसार जायदाद ख़रीद करने में
अज्ञान की अलहदा जायदाद का वली जब कोर्ट आफ् वार्डस् एक्ट सन् १८६० की दफा २८-२१ के अनुसार कोर्ट की आज्ञा से नाबालिग की किसी जायदाद को बेंचे या रेहन करे तो खरीदने वाले अथवा रेहन करने वाले को पूंछ पांड वग़ैरा करने की ज़रूरत नहीं होगी सिर्फ कोर्ट पर विश्वास करलेनाही योग्य है, गङ्गा प्रसाद बनाम महारानी बीबी 11 Cal 379, 883-384; 12 I. A. 47, 50.
दफा ३४६ मुश्तरका जायदाद में वलीके
अधिकार
( १ ) शामिल शरीक खानदान में मुश्तरका जायदाद पर जब कोई चली नियत हो जिसमें बालिग़ मेम्बर मौजूद हों, तो किसी खानदानी ज़रूरत से वह जायदाद बेच सकता है और रेहन कर सकता है, अगर उसने बेचने और रेहन करने से पहले बालिग मेम्बरों की मंजूरी हासिल करली हो, मिलर बनाम रङ्गनाथ 12 Cal. 389.
( २ ) जहां पर कोई वली, जो मुश्तरका खानदान का हो खानदान की ज़रूरत के लिये अगर कोई जायदाद बिला मंजूरी बालिग मेम्बरों के बेचे या रेहन करे तो यह मान लिया जायगा कि उनकी मंजूरी थी ( यद्यपि उन्होने नहीं दी ) मगर शर्त यह है कि वह ज़रूरत बहुत ही तेज़ हो और बेचते या रेहन करते समय उनकी रजामंदी न मिल सकती हो; देखो--छोटी राम बनाम नरानय दास 11 Bom. 605. मुदित बनाम रङ्गलाला 19 Cal. 797.
(३) जिस मुश्तरका खानदान में नाबालिग हों, उसके वली को अधिकार है कि खानदान की किसी खास ज़रूरत के लिये जायदाद को बेच सकता है, और रेहन कर सकता है, एसी सूरत में नाबालिग उसके पाबंद होंगे; देखो गरीब उल्ला बनाम खलन सिंह 25 All 407, 415; 30 I.A.
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२५८
नाबालिगी और वलायत
[पांचवां प्रकरण
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165, 169; हनूमान प्रसाद बनाम मुसम्मात बघुई 6 M. I. A 393; सुरेन्द्र बनाम नन्दन 21 W. R. 196.
(४) जिस मुश्तरका खानदान में बालिग्न और नाबालिग दोनों मौजूद हों, ऐसी सूरत में ऊपर कहे हुए नियमों के अनुसार अगर जायदाद बैंची गई हो या रेहन की गई हो तो उसके पाबंद बालिग और नाबालिग्न दोनों होंगे; देखो--श्याम सुंदर बनाम अचन कुंवर 21 All. 71.
उदाहरण--जय और विजय दोनों भाई हैं दोनों खानदान मुश्तर का के मेम्बर हैं, जय शिक्षा पाने के लिये वलायत चला गया, विजय को खानदान के लाभ के लिये कारोबार करने की ज़रूरत पड़ी और बहन की शादी आवश्यक हुई, उसने दोनों कामों के लिये बिला मंजूरी जय के जायदाद बेच दी या रेहन करदी। जय उस का पाबंद है। दफा ३४७ बली या मैनेजर जायदाद कब बेंच सकता है
शामिल शरीक हिन्दू परिवार के लाभ के लिये, अगर किसी रोज़गार करने की ज़रूरत हो, या लड़की की शादी करना हो, या चलते हुए कारोबार का कर्जा अदा करना हो, या अन्य कोई मज़हबी काम, जिसे करना परिवार पर फर्ज हो करना हो, तो ऐसी खास सूरतों में, बली या मैनेजर जायदाद को बैंच या रेहन कर सकता है जिसकी पाबंदी बालिग और नाबालिग्न मेम्बरों पर एकसां होगी और यह साबित हो कि किसी दूसरी गरज़ से, अथवा दूसरे के लाभ पहुंचाने के लिये, या ऐसा करने से, करने वाले का उद्देश कुछ और था जिसका असर खानदान के विरुद्ध पड़ता है या पड़ सकता है तो दूसरी सूरत होगी। अगर परिवार के लाभ के लिये रोज़गार करने की गरज़ से कोई कर्जा लिया गया हो उसका अदा करना खानदानी ज़रूरत है। देखो-राम लाल बनाम लक्ष्मी चन्द 1 Bom. H. C. app. श्याम सुन्दर बनाम अचन कुंवर 21 All, 71, 83; 25 I. A. 183.
जहां पर खानदान के कारोबार के कर्जा देने के लिये जायदाद बेची गई हो या रेहन की गई हो वहां पर यह मान लिया जायगा कि उनकी मंजूरी है, जो भी उन्हों ने नहीं दी। देखो--ऊपर की नज़ीर-श्याम सुन्दर बनाम अचन कुंवर 21 All. 71, 83; 25 I. A. 183. माना गया है कि यदि मुश्तरका खानदानका कोई कारोबार चल रहा है और उस के मैनेजर ने लाभ के लिये कोई जायदाद बेच दी हो या रेहन कर दी हो, चाहे वह बिला मंजूरी बालिरा मेम्बरों के की गई हो, और उस खानदान में अज्ञान बालक भी हों दोनों सूरतों में दस्तावेज़ के जायज़ करने के लियेअदालत में यह साबित करना ज़रूरी होगा कि वह जायदाद जो बेची गई भी या रेहन की गई थी कारोबार के कर्जा देने के लिये की गई थी जिसकी
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दफा ३४७]
नाबालिगी और वलायत
३५१
की ज़रूरत उस वक्त बहुत थी। ऐसी सूरत में बालिग और नाबालिग दोनों मेम्बर उस के पाबंद होंगे।
___ काबिज़ वली-हिन्दूलॉ के अधीन किसी क्राबिज़ वली द्वारा किया हुआ इन्तकाल, कानूनी आवश्यकता के अतिरिक्त और किसी कारण नाजायज़. नहीं है। यदि वह नाबालिग्न की आवश्यकता या लाभ के अनुसार है तो उसकी पाबन्दी नाबालिग पर होगी । यदि इन्तकाल आवश्यकता या लाभ के लिये नहीं है, तो भी वह नाजायज़ नहीं है किन्तु नाजायज किये जाने के योग्य है अतएव नाबालिरा द्वारा उसके बालिरा होने पर, स्वीकार किये जाने योग्य है। विमुल पल्ली सीतारामम्मा बनाम अप्पम्मा 123 L. W. 2851 ( 1926) M. W. N. 238; 92 I. C. 827; A. I. R. 1926 Mad. 4573 50M. L. J. 689.
सौतेला पुत्र-एक हिन्दू विधवा द्वारा, जो अपने नाबालिरा पुत्र और भाबालिग्न सौतेले पुत्रके जायदाद की प्रबन्धक है, उस जायदादके एक भागके गैरमनकूला जायदादका इन्तकाल ज़रूती तात्पर्यके लिये,जायज़ है और सौतेले पुत्र पर उसकी पाबन्दी है । बयनामा इस लिये जायज़ है कि वह एक काबिज मैनेजर द्वारा किया गया है। किन्तु किसी काबिज़ मैनेजर द्वारा, जो कानूनी रीति पर वली नहीं है और काबिज़ मैनेजर नहीं है, किया हुआ इन्तकाल नाजायज़ है । केशव भारती बनाम जगन्नाथ 22. N. L. R.5; 92 I. C. 121; A. I. R. 1926 Nag. 81.
इन्तकाल का अधिकार--इन्तकाल के न्यायानुकूल साबित करने के लिये, सबूत की ज़िम्मेदारी । बैकुण्ठ नाथ कार बनाम अधार चन्द्र पैन 92 I. C. 7279 A. I. R. 1926 Cal. 653.
माता द्वारा बहैसियत वली के इन्तकाल-कानूनी आवश्यकता-- खरीदार के लिये दलील-शेख मुहम्मद बनाम राम चन्द्र A. I. R. 1928 Nag. 179.
वली द्वारा इन्तकाल-नाबालिग की ओर से उन नौका अदा करना, जिन की मियाद बीत गई है, नाबालिगके लिये लाभ जनक नहीं समझा जाता; अतएव इस प्रकार के कज़ों की अदाईके लिये किया हुआ इन्तकाल न्यायानुकूल इन्तकाल नहीं माना जाता । करंमन बनाम फ़जल हुसेन A. I. R. 1927 Lah. 33.
वली द्वारा पिता का कर्ज चुकाने का इक़रार नामा--एक नाबालिग के वली ने, नाबालिग्न के पिता का क़र्ज़ अदा करने के लिये, जिस की अदाई के लिये नाबालिग्न पर पाबन्दी थी, कर्ज लिया। तय हुआ कि नाबालिग की जायदाद पर उस की पाबन्दी है । लाला चन्द बनाम नरहर 89 I. C. 896.
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नाबालिग्री और वलायत
[ पांचवां प्रकरण
जब किसी दस्तावेज़ इस्तराराक़ (गिरवी) में किसी वली द्वारा यह लिखा गयाहो, कि मैं इक़रार करता हूं कि मैं अदा करूंगा, तो इस प्रकार के इक़रार नामे की पाबन्दी यद्यपि वली की जात पर न होगी, ताहम यह जरूरी है कि वली इस बात को बताये कि उक्त रक्कम नाबालिग के फ़ायदे के लिये खर्च की जायगी और यदि उस तरीक़े पर रक़म न हासिलकी जायगी तो नाबालिग के कारोबार को नुक़सान पहुंचेगा। पी० नगलिन गप्पा बनाम for 83 I. C. 39; A I. R. 1925; Mad 425.
३६०
किसी नाबालिग की कोई जायदाद उसके वली द्वारा मुनासिब क्रीमत पर बेची गई । क़ीमत फरोख्त की आधी रक़म के लिये क़ानूनी ज़रूरत थी, यानी नाबालिग के पिता द्वारा लिये हुये क़र्ज़ को अदा करना था | आधी रक़म से वह क़र्ज़ अदा किया गया; और शेष आधी रक़म पर खरीदार से एक प्रामिसरी नोट इस शर्त का कि वह रक्कम मय सूद दर ६ फ़ीसदी सालाना, नाबालिग्नको उसके बालिग होने पर दी जाय, लिखा लिया गया । खरीदार ने प्रामिसरी नोट का रुपया ठीक वक्त पर चुका दिया, तब हुआ कि वनामा जायज था । के० - मुन्नय्या बनाम एम० कृष्णप्पा 20 L W. 693, 84 I. C. 949; A. I. R. 1925; Mad. 215; 47 ML. J.737.
वली द्वारा इन्तक़ाल क़ानून या रिवाज के अनुसार किसी वेश्या पर अपने भाई की शादी करने की जिम्मेदारी नहीं है अतएव उसके वली द्वारा उसके भाई की शादी के लिये रेहननामे द्वारा लिये हुये क़र्जे की जिम्मेदारी उस पर नहीं है। तंजोर कन्ना अम्मल बनाम तंजोर रामतिक अम्मल A. I. R. 1927 Mad. 38.
वली द्वारा जायदादका इन्तक़ाल तथा लाभ या आवश्यकता-सुरेन सिंह बनाम बाबू 91 I. C. 1054; A. I. R. 1926 Lah. 197.
कुदरती वली -- किसी हिन्दू नाबालिग़के कुदरती वलीको उसकी जायदाद के प्रबन्ध में, यह अधिकार है कि आवश्यकता या जायदाद के फ़ायदे के लिये, उसके किसी भागको रेहन करे या बेचे । सुरेन सिंह बनाम बाबू 26 Punj. L. R.781.
नोट- यान रखना चाहिये कि जितने वालिगं उससमय मौजूद हों सबकी मंजूरी जरूरी हैं एक बात यह पैदा हो सकती हैं कि अगर चार वालिग मौजूद है और उनमें से दो कहीं बाहर चले गये हैं । मौजूदा दो वालिग की मंजूरी लीगई और रन कर दिया गया । जब रहेनकी नालिश हुई तो उसवक्त वह दोनों वालिग मरगये थे जिनकी मंजूरी न ली गई थी । अब सवाल यह पैदा होता है कि क्या रहननामा लिखने के वक्त जायज था ? नालिश केवल सम्भवतः यह विचार किया जायगा कि दोनों के मरने पर उनके वारिस वही दोनों थे जिन्होंने लिखा । तथा उस दस्तावेज के मजमून पर से बहुत कुछ तय होगा ।
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दफा ३४८]
नाबालिगी और वलायत
दफा ३४८ ख़ानदानी ज़रूरतें क्या क्या हैं
हिन्दू खानदान मुश्तरका की शामिल शरीक जायदाद को, वली, या मेनेजर नीचे लिखी ज़रूरतों में बिला मंजूरी खानदान के बालिग मेम्बरों के बेंच सकता है और रेहन कर सकता है। चाहे उस खानदान में नाबालिग मेम्बर भी हों, सब मेम्बर पाबन्द होंगे । नीचे लिखी ज़रूरतें उसी खानदान से सम्बन्ध रखेगी जिसमें मिताक्षरा स्कूल लागू किया गया है। दफा ३७३ भी देखोः
(१) अगर जायदाद सरकारी मालगुज़ारी याकिसी सरकारी रुपयाके देने के लिये बेची गई हो जिसका बार जायदाद पर हो तो नाबालिरा और बालिग दोनों भेम्बर उसके पाबन्द हैं ।
(२) अगर जायदाद क्रिया कर्म करने के लिये, अथवा खानदानी रस्में पूरी करने के लिये बेची गई हो तो अज्ञान और बालिग मेम्बर दोनों पाबन्द हैं, देखो-नाथूराम बनाम सोमाछगन 14 Bom. 562; लल्लागनपति बनाम तूरन 16 W. R. 52..
(३) अगर जायदाद, मुश्तरका खानदान के प्रधान मुखिया को फौजदारी के किसी संगीनचार्ज से बचाने के लिये जो खर्च पड़ा हो, इस गरज़ से बेची गई हो तो बालिरा और नाबालिग दोनों मेम्बर पावन्द हैं, देखो बेनीराम बनाम मानसिंह ( 1912 ) 34 All. 4.
(४) अगर जायदाद; जायदाद के छुटाने के लिये, या उसके. बचाये रखने के लिये बेची गई हो तो नाबालिग और बालिग्न मेम्बर दोनों पाबन्द हैं, देखो-मिलर बनाम रून्गोनाथ 12 Cal. 389.
( ५ ) अगर जायदाद, किसी मुश्तरका कर्जे के अदा करने के लिये बेची गई हो जो क़र्जाजायदाद से देने योग्य हो उसके नावालिग और बालिग दोनों मेम्बर पाबन्द हैं देखो नाथूराम बनाम कुंदन ( 1910 ) 33 All. 242. जैसे बाप का क़ानूनन् देने योग्य कर्जा । ___ (६) अगर जायदाद,जायदादके हिस्सेदारोंकी लड़कियोंकीशादीके लिये बेची गई हो तो उसके नाबालिग और बालिग मेम्बर दोनों पाबन्द हैं देखो छोटीराम बनाम नारायणदास 11 Bom. 605; वेकुन्ट बनाम कल्लापिरं 23 Mad. 512; वेकुन्टं बनाम कल्लापिरं 26 Mad. 497, रंगनेकी बनाम रामानुज ( 1912 ) 35 Mad. 728; रामचरन बनाम महीन लाल ( 1914 ) 36 All. 158.
नोट-जायदाद के हिस्सेदारों की लड़कियों से मतलब यह है कि उनकी लड़कियों की शादीका खर्चा जायज शुमार किया जायगा जिनका कि हिस्सा जामदादमें शामिल है। दूसरी लड़ाकयोंका नहीं ।
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वै६२
नाबालिगी और वलायत
[पांच प्रकरण
(७) अगर जायदाद, मुश्तरका हिस्सेदारों के और घर के अन्य आदमियों के खाने पीने के लिये बेची गई हो तो उसके पाबन्द नाबालिरा और बालिग दोनों मेम्बर हैं, देखो-मुकुन्दी बनाम सर्वसुख 6 All. 417; 421.
(८) अगर जायदाद, हिस्सेदारों की शादी के खर्च के लिये बेंची गई हो तो उसके पाबन्द नावालिरा और बालिग दोनों मेम्बर हैं, देखो-सुन्दर बाई बनाम शिवनरायण 32 Bom 81. भागीरथी बनाम जुक्कू 32 All.575. गोपाल कृष्ण बनाम वेंकटरास ( 1914) 37 Mad. 273.
नोट-और देखो ! इन्डियन कांट्रेक्ट ऐक्ट ९ सं० १८७२ को दफा ६८ तथा दफा ३७३. दफा ३४९ मध्यभारत, राजपूताना, संयुक्तप्रांतका कायदा
बम्बई और मदरास को छोड़ कर, तथा उस हिस्से हिन्दुस्थान को छोड़कर जहां कस्टमरी लॉ माना जाताहै। मध्यभारत, राजपूताना, संयुक्तप्रांत आदि हिस्सों में जो मिताक्षरास्कूल के ताबे हैं कोई आदमी मुश्तरका खामदान का, शामिल शरीक जायदाद का अपना हिस्सा अलहदा नहीं बेच सकता जब तक कि दूसरे हिस्सेदारों की मंजूरी न हो। इसी लिये यह माना गया है कि मध्यभारत, राजपूताना, संयुक्तप्रांत जहां पर मिताक्षरा स्कूल माना जाता है अगर वहां पर कोई आदमी जो अविभक्त परिवार का हिस्से दार हो, अपना हिस्सा बिला मंजूरी दूसरे हिस्सेदारों के किसी को बेच दे या रेहन करदे तो दूसरे हिस्सेदार उस बैनामा या रेहननामा को रद्द करा सकते हैं । ऐसी सूरत में कुल दस्तावेज़ मंसूख हो जायगी मानों उस दस्तावेज़ की कोई बातही नहीं पैदा हुई थी। मगर शर्त यह है कि अगर उस दस्तावेज़को बाप, या दादा ने लिखी हो तो सब पर पाबन्दी होगी किन्तु बाप या दादा ने उस करजे के बारे में न लिखी हो जो क़रज़ा गैर कानूनी है।
उदाहरण-जय, विजय, अजय तीन भाई हैं कानपुर में रहते हैं, और मिताक्षरा स्कूल के पाबन्द हैं। तीनों मुश्तरका खानदान की जायदाद के हिस्सेदार हैं । जयने बिला मंजूरी बिजय और अजय के कुछ जायदाद बेचदी जो गैर कानूनी ज़रूरत के लिये बेची गई विजय अथवा जय चाहे शामिल होकर या उनमें से एक ही बैनामा मंसूख करा सकता है अगर मियाद के के अन्दर नालिश की गई हो। ऐसी सूरत में खरीदार जय को भी नहीं पाबन्द कर सकता। दफा ३५० बंबई और मदरास का कायदा
बम्बई और मदरास में भी मिताक्षरा लागू किया गया है, मगर हाईजैसलों के आधार पर कुछ फरक पड़ गया है। देखिये बम्बई और
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दफा ३४६-३५० ]
नाबालिगी और वलायत
मदरास प्रांतों के अन्तर गत मुश्तरका जायदाद का हर एक हिस्सेदार अपना हिस्सा बिला मंजूरी दूसरे हिस्सेदारों के, बेंच सकता है और रेहनकर सकता है ( मध्यभारत राजपूताना, संयुक्तप्रांत में नहीं कर सकता ) इसी आधार पर बम्बई और मदरास में यह माना जा चुका है कि--अविभक्त परिवार का अगर कोई आदमी शामिल शरीक जायदाद में अपना हिस्सा बेंच दें या रेहन करदे तो जायज़ है और अगर वह आदमी अपने हिस्सेसे ज्यादा हिस्सा बिला किसी क़ानूनी अधिकार के रेहन करदे या बेंचदे तो दूसरे मेम्बर उसे उतना ही मंसू करा देंगे जितना कि उसने अपने हिस्से से ज्यादा बेचा या रेहन किया है । अगर कोई बच्चा मा के पेट में हो तो उसे भी अपने हक़ के मंसूरन करा लेने का अधिकार है। ऐसी सूरत में कुल दस्तावेज़ मंसूख नहीं होगी इस विषय पर केस देखो -- श्रीपति चीना बनाम श्रीपति सुरैय्या 5 Mad. 196; मरूया बनाम रंगसामी 23 Mad. 89. जब किसी ने अपने हिस्से में शामिल दूसरे का हिस्सा बेच दिया हो या रेहन कर दिया हो तो दस्तावेज़ बैनामा या रेहननामा बिल्कुल खारिज अर्थात् रद्द नहीं हो जायगा अदालत रुपया देने वाले के पक्ष में विचार करेगी और ऐसा फैसला देगी जहां तक कि अन्य क़ानूनी सब बातों के पूरा होते हुये रुपया वसूल होजाय नीचे हम दो फैसले उदाहरण के साथ देते हैं ।
३६३
उदाहरण - ( १ ) अमृत, कुन्द और मुकुन्द तीन भाई हैं, बम्बई में रहते हैं तथा मिताक्षरा के पाबंद हैं। अमृत खानदान का मेम्बर और मेनेजर है, उसने राम से एक हज़ार रुपया करज़ा लिया जो क़ानूनन जायज़ न था, क़रज़ा लेने के पहिले कुंद और मुकुन्द की मंजूरी न ली गई थी । कुन्द ने अमृत और राम पर बैनामा मंसूखी की नालिश की । साबित हुआ कि अमृत ने क़रज़ा खानदान की ज़रूरत बता कर लिया था तथा राम ने इस बात को ठीक समझ कर रुपया दिया था । अदालत ने फैसला किया कि रेहन नामा रद्द कर दिया जा सकता है इस शर्त पर कि जायदाद का मुनाफा तीन हिस्सों मैं बाट कर अमृत के हिस्से में जितना रुपया आवे उस में से राम को रेहन का रुपया दिया जावे और जब तक रुपया अदा न हो जाय सूद दिया जाय मगर जायदाद तीनों के क़ब्ज़े में रहेगी । देखो -- तेजपाल बनाम गङ्गा (1902) 25 All. 59.
(२) विचार करो कि अगर अमृत मर जाय तो अमृतकी सब जायदाद बाक़ी दोनों भाइयों में वरासतके अनुसार चली जायगी उस समय अदालतकी डिकरी पाबन्द नहीं हो सकेगी । और रामका रुपया डूब जायगा ऐसाही केस यह है; देखो - माधोप्रसाद बनाम मेहरबानसिंह 18 Cal. 157;
17 I. A. 193.
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नाबालिगी और वलायत
[पांचवां प्रकरण
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दफा ३५१ अदालत न्यायकी तरफ ध्यान देगी
___ जहां पर मिताक्षरा माना जाता है वहां पर मुश्तरका खानदानकी जायदादको किसी हिस्सेदारके रेहन करने या बेंच देनेसे दूसरे हिस्सेदारोंकी प्रार्थनापर, यद्यपि वह दस्तावेज़ क़ानूनन् रद्द करदी जायगी मगर अदालत हमेशा न्यायकी तरफ ध्यान देगी । ऐसा मानोकि अगर एक मुश्तरका खानदानमें जो मिताक्षरासे लागू किया गया है, आठ भाई बरावरके शामिल शरीक हिस्सेदार हैं। उनमें से एकने बिला मंजूी दूसरे भाइयोंके मुश्तरका जायदादका कुछ हिस्सा बेच दिया और उस रुपसेये जायदादपर जो करज़ा था अदा कर दिया। दूसरे भाईकी तरफ से अदालतमें नालिश की गयी जिसमें प्रार्थना थी कि बैनामा रद्द किया जावे। अदालतने न्याय दृष्टिसे फैसला किया कि बैनामा कानूनन् रद्द कर दिया जावे और खरीदारको वह अधिकार हासिल हों, जो उस आदमीको जायदादसे रुपया वसूल करने के हासिल थे जिसको रुपया दिया गया था। खरीदार उसकी जगह लेकर रु०. वसूल कर सकता है। इस किस्मके फैसलेको (इक्युटी) कहते । अगर भाईने जायदाद न बेंची होती, बापने बेंची होती, तो सब भाई पाबन्द होते । दफा ३५२ गर्भावस्थामें बच्चेका हक़
अगर बाप कोई मौरूसी जायदाद उस वक्त बैंच दे या रेहन करदे जबकि उसकी स्त्रीके गर्भ में एक मर्द बच्चा है तो वह लड़का जब बालिग होगा दस्तावेज़ रद्द करा सकता है मगर शर्त यह है कि बापने यदि किसी कानूनी जायज़ कामके लिये बेची हो या रेहनकी हो तो रद्द नहीं करा सकता। हर हालमें मिताक्षरा स्कूलाके ताबे होना चाहिये तब यह शकल होगी, देखो, सभापति बनाम सोमसुन्दरं 16 Mad. 76. दफा ३५३ पीछेकी मंजूरीसे पाबन्दी
मुश्तरका जायदादमें अगर पहिले किसी बालिग़ मेम्बरकी मंजूरी जो कानूनन् ज़रूरी है, न लेकर कोई शिरकतकी जायदाद बेच दी गयी हो, या रेहन करदी गयी हो, और उसके बाद वह मेम्बर उसे मंजूर करले जिसकी मंजूरी पहिले नहीं ली गयी थी तो वह मेम्बर उस दस्तावेज़ के असरका पाबन्द है। देखो-कंडासामी बनाम खमासकंड़ा ( 19 12 ) 35 Mad. 177.
नोट -बैनामा या रेहननामा कहनेस यह मतलब है कि चाहे किसी तरहपर भी जायदाद दूसरेके अधिकामें देदी गयीही या किसी जमानत आदिमें लगादी गई हो । दफा ३५४ साबित करना किस पक्षपर निर्भर है
दस्तावेज़के जायज़ करनेके लिये जो सुबूत दरकार हो वह उस पक्ष पर निर्भर है, जिसने बैनामा या रेहननामा या अन्य कोई दस्तावेज़ लिखा
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दफा ३५१-३५६]
नाबालिगी और वलायत
३६५
कर रुपया दिया हो। रुपया देने वाले पक्षपर यह आवश्यक है कि वह अपनी दस्तावेज़ जिसकी बुनियाद पर वह अदालतसे प्रार्थना करता है दस्तावेज़ साबित करे र्सिफ इतनाही साबित कर देना काफी नहीं है कि उसने रुपया देदिया बल्कि रुपया देने वालेको साबित करना चाहिये कि दरअसल खानदान मुश्तरका में रुपयाकी जायज़ ज़रूरत थी।- या उसने स्नानदानी ज़रूरतके दरियाफ्त करने में इतनी ज्यादा कोशिश की थी जो सब तरहसे मुमकिन थी जिसकी वजहसे रुपया देने वालेके दिलमें पूरा निश्चय होगया था कि वहां पर वास्तवमें रुपयाकी ज़रूरत है जैसीकि रुपया लेने वालेने बयान की है। ऊपरकी दोनों सूरते दस्तावेज़के जायज़ करनेके लिये काफी होंगी, अन्त में कही हुई सुबूतकी सूरतका साफ अर्थ यह है कि जब रुपया देने वालेके दिलमें उपरोक्त तरहपर निश्चय हो जायकि वहांपर ज़रूरत थी चाहे वहां पर ज़रूरत न भी हो तो वह ज़िम्मेदार नहीं है। अगर उसने ईमानदारीके साथ सब बर्ताव अन्त तक किया है और किसी फ़रेब या नुकसान पहुंचाने की गरज़से नहीं किया है; ऐसी सूरत में उसके रुपया देने के ज़िम्मेदार मुश्तरका मेम्बर होंगे। दफा ३५५ बापकी वसीयतसे जायदादका बेंचा जाना
अगर बाप मृत्यु पत्र ( वसीयत ) द्वारा किसीको यह अधिकार दे गया हो कि वह आदमी जायदादका इन्तज़ाम करे और किसी खास कामके लिये [ जो क़ानूनन् जायज़ हो ] कुछ जायदाद बेच दे तो अगर वह आदमी मृत्यु पत्र में लिखी हुई कुल शौकी पाबन्दी करता हुआ जायदादको बेंचकर वह काम पूरा कर दे जिसे हिदायत कीगई थी तब उसके पाबन्द अज्ञान मेम्बर होंगे। मगर जब कोई बालिग होगया हो तो ऐसी काररवाई नाजायज़ होगी, क्योंकि उस आदमीका अधिकार जाता रहेगादेखो-महाबलेश्वर बनाम रामचन्द्र ( 1914 ) 33 Bom. 94. दफा ३५६ कुदरती वलीका मुआहिदा
कुदरती वली (बाप या मां) अज्ञानके ज़ाती लाभके लिये या जायदादके लाभके लिये या उसकी जाती रक्षा या जायदादकी रक्षा के लिये मुआहिदा ( कन्ट्राक्ट) कर सकता है, देखो-सुवरामनि बनाम असमुगा 29 Mad, 330 सूनू बनाम दुन्डू ( 1904 ) 28 Bom. 330 मगर किसी तरह भी कोई वली अज्ञानको ज़ाती तौरपर नहीं पाबन्द कर सकता, देखो-बनमाल सिंहजी बनाम वादीलाल 20 Bom. 61; 70, सुरेन्द्रोनाथ बनाम अतुल चन्द्र 34 Cal. 892; नरायनदास बनाम रामानुज 20 All. 209; 25 I. A. 46.
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३६६
नाबालिगी और वलायत
[पांचवां प्रकरण
वह फरीक़ जो नाबालिराकी अमानती अवस्थामें हो, वलीकी भांति कोई काम जो नाबालिग़की जायदादके लिए साफ तौरपर फायदेमन्द हो कर सकता है । लक्ष्मीचन्द बनाम खुशालदास 18 S. L. R. 230. A. I. R. 1925 Sind 330. दफा ३५७ वली या मेनेजरका मुआहिदा
कोई वली या मेनेजर अज्ञानको ज़ाती तौरसे नहीं पाबन्द कर सकता क्योंकि उसका अधिकार सिर्फ उसी जायदाद तक महदूद है जो जज्ञानके लाभके लिये उसकी हिफाज़तमें दीगई है; वली या मेनेजर कोई स्थावर सम्पत्ति मोल लेनेके लिये अज्ञानको ज़ाती तौरपर नहीं पाबन्द कर सकता, और न अज्ञानकी जायदादको पाबन्द कर सकता है। मीरसरं वारजन बनाम फखरुद्दीन 39 Cal. 232; 39 I. A. 1; बघेलराज सानजी बनाम शेख मसल उहीन 14 I. A.89; S. C. 11Bom. 551 बनमाल सिंहजी बनाम वादीलाल 20 Bom. 61 और देखो-लाला नरायन बनाम लाला रामानुज 25 I. A. 46; S. C. 20 All. 209.
ऊपर कहे हुए बघेलराज सानजी बनाम शेख मसलउद्दीनके मुकहमें के वाकियातका खुलासा देखिये-एक वलीने जायज़ कामके लिये अशान की जायदादका एक भाग बेच डाला जो जायदाद बेची गई थी, वह धीरे धीरे उस जायदादकी कीमत बढ़ती गई, बैनामामें एक शर्त यह लिखी थी कि अगर किसी वक्त सरकार मालगुजारीका दावा करे और खरीदारका नुकसान हो जाय तो उस नुकसानको नाबालिग और उसके वारिस पूरा कर देंगे। बैनामामें यह भी लिखा था कि मालगुज़ारीका कुल बोझा उस जायदाद पर रहेगा जो बंची नहीं गई थी। खरीदारके नुकसान अदा करनेके जिम्मेटार जाती तौरपर अज्ञान और उसके वारिस होंगे। लड़केको बालिग होने पर सरकारने उस ज़मीनपर अपनी मालगुज़ारी चार्ज किया, तब बैनामाकी शर्तके अनुसार खरीदारने बालिरा लड़केपर दावा किया । प्रिवी कौन्सिलने यह फैसला किया कि कोई ज़ाती शर्त नाबालिगपर उसे बालिरा होने पर भी पाबन्द नहीं कर सकती अतएव दावा खारिज किया गया, देखो-14 I. A. 89.
ऊपर कहा हुआ मुफ़हमा मीर सरवारजन बनाम फखरुहीन का आधार इस उदाहरण पर है कि-मानो-अज, अज्ञान है और उसका वली विजय है। विजय ने, जय के साथ अजकी तरफ से मुशाहिदा (कंट्राक्ट) किया कि वह जयकी ज़िमीदारी मोल लेगा, ले नहीं सका था कि अज वालिग हो गया। अज, ने जय पर नालिश की कि वह अपनी जिमीदारी बेच दे अर्थात् उसका बैनामा अजय के हक में लिख दे। अदालत से फैसला हुआ कि दावा
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दफा ३५७-३५८]
नाबालिगी और वलायत
३६७
खारिज हो । सबब यह कहा गया कि ऐसा मुआहिदा पूर्व से नाजायज़ था इस लिये न तो अजय, जय की जिमीदारी पाने का दावा कर सकता है और न जय इस बात का दावा कर सकता है कि उसकी जिमीदारी अजय को दिला दी जाय।
पिता के ऋण की अदाई के लिये वलीद्वारा मुआहिदा देखो, लालचन्द बनाम नरहर A. I. R. 1926 Nag. 31 (1)
नाबालिग़ पर, उसके सम्बन्ध के फैसले की उसी प्रकार पाबन्दी होगी जैसी कि उसपर बालिग होने की हालत में होना चाहिये, यदि वली की बेईमानी सम्पूर्ण असावधानी या साजिश न साबित हो। रामेश्वर बक्ससिंह बनाम मुसम्मात रिधा कुंवर 87 I. C. 238; A. I.R. 1925;Oudh. 633. .. दफा ३५८ जो काम वलीकी हैसियतसे वलीने न किया हो
जब किसी अज्ञान के वली ने कोई काम अज्ञान के लिये वली की हैसियत से नहीं किया हो तो वह अज्ञान को पाबन्द नहीं करेगा और अगर वली ने अपने अधिकार के साथ वली की हैसियत से किया हो तो अज्ञान को पाबन्द करेगा। अगर कंट्राक्ट करने के वक्त या दस्तावेज़ लिखने के वक्त अज्ञान का नाम नहीं लिया गया हो या नहीं लिखा गया हो तो इस बात से पूरा सुबूत यह नहीं मान लिया जायगा कि वह काम अज्ञान के लिये नहीं किया गया था । यह बात किवह काम अज्ञानके लिये किया गयाथा कि नहीं प्रत्येक मुकदमे में अलहदा अलहदा देखा जायगा , कुछ तो दस्तावेज़ के शब्दोंसे और बाकी उस वक्तके स्थिति और इरादेके सुबूतसे, देखो इन्दचन्द्र बनाम राधेकिशोर 19 Cal. 507; 19 I. A. 90; नाथू बनाम बलवंतराव 27 Bom. 390.
- उदाहरण-कृष्ण, नामका एक आदमी मरा उसने अपनी विधवा राधा और अपने तीन पुत्र अशान छोड़े जिनके नाम थे जय, अजय, विजय । कृष्ण के मरने पर राधा विधवा ने पति की कुल जायदाद बहैसियत तीनों लड़कों के वलीके कब्ज़ा किया। और इन्तज़ाम करने लगी। कुछ अरसे बाद किसी सबब से एक पुरुष कुमुद ने अदालत से प्रार्थना की कि मा को रद्द करके वह लड़कों का वली बनाया जावे । अदालत ने सब बातें सुनकर कुमुद को वली नियत कर दिया। राधा विधवा ने कुमुद को जायदाद का चार्ज देने से पहिले अज्ञान की कुछ जायदाद एक हज़ार रुपया पर बेच दी थी, श्री हर्ष ने जायदाद खरीद की थी। माने जो जायदाद बेची थी वह बतौर अपने माल के कहकर बेची थी, नकि अज्ञान के माल के । राधा विधवा के पति कृष्ण के क्ररजे की एक डिकरी उस जायदाद पर थी। राधा विधवा ने एक हज़ार रुपयों में से आधे तो उस डिकरी में अदा किये जो जायदाद पर थी और
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३६८
नाबालिगी और वलायत
[पांचवा प्रकरण
आधे रुपया अपने खाने पीने वगैरा में खर्च किये थे तीनों लड़कों में से एक बालिग्न हुआ और उसने श्रीहर्ष पर नालिश की, इस बात की कि उसकी जायदाद जो माने बेची थी दिला मिले। अदालत ने श्रीहर्ष का बैनामा रद्द कर दिया अर्थात् दावा डिकरी हुआ श्रीहर्ष को कुछ भी रुपया नहीं दिलाया गया। पांच सौ रु० वह भी नहीं दिला मिले जो माने लड़कों के बाप के करजे की डिकरी में दिये थे जो क़रज़ा कि पति यानी कृष्ण की छोड़ी हुई जायदाद को पावन्द करता था, और इस लिये लड़के भी पावन्द थे देखो नाथू बनाम बलवंतराव 27 Bom. 390. दफा ३५९ वलीकी तरफसे किसी करजेका मान लियाजाना ___मद्रास हाईकोर्टने यह तय कियाहै कि अज्ञानका कुदरती वलीऔर वह गार्जियनपन्ड वार्ड्सऐक्ट नम्बर ८सन्१८६०के अनुसार नियत किया गया हो, अज्ञान की जायदाद के लिये या रक्षा के लिये किसी क़रज़े को मंजूर कर सकता है या उसका ब्याज दे सकता है इस वास्ते कि क़ानूनी मियाद का समय और बढ़ जाय । लेकिन जो क़रज़ा क़ानूनी मियाद से बाहर हो चुका है उस को वह फिर से ताज़ा नहीं कर सकता; देखो- अन्नापगावदा बनाम सङ्गादिग अप्पा 26 Bom. 221; 234; सोमानन्द्री बनाम श्रीरामुलूम 17Mad 221; सुबामनिया बनाम असमुगा 26 Mad. 330.
विधवा अपने पति का क़रज़ा अदा करने की मजाज़ मानी गयी है क्योंकि विधवा का धार्मिक फर्ज़है कि अपने पति का क़रज़ा अदा करे। मगर यह करार दिया गया है कि अगर कोई मेनेजर हिन्दू परिवार का अपनी इसी हैसियत से बिला किसी खास अधिकार के उस करजे को स्वीकार करके ताज़ा नहीं बना सकता जो पहिले कानूनी मियाद से बाहर हो चुका हो, देखो-चिनाया बनाम गुरुनाथन 5 Mad. F. B. 169; भास्कर तांतिया बनाम विजलाल नाथ 7 Bom. 512.
कलकत्ता हाईकोर्टके अनुसार कुदरती वली या वह वली जो गार्जियन ऐन्ड वाईस एक्ट नम्वर ८सन १८६० के मुताबिक नियत कियागया हो,किसी क़रज़ का सूद नहीं दे सकता जिससे कानूनी मियाद बढ़ जाती हो और न वह कोई क़रज़ा मंजूर कर सकता है और नकिसी क़रज़े को अपनी मंजूरी से ताज़ा बना सकता है; देखो-बाजिवन बनाम कादिरबख्श 13 Cal. 2929 295; चत्तूराम बनाम बिल्टूअली 26 Cal.51,52. दफा ३६० अज्ञानने अपनी उमर जब झूठ बताई हो
किसी आज्ञान ने दूसरे आदमी को यह धोका दिया हो कि मैं बालिग हूं या मेरी उमर बालिरा होने तक पहुंच चुकी है, और ऐसा मानकर कोई
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दफा ३५६-३६१]
नाबालिगी और वलायत
३६६
इक़रार किया हो या कोई लिखत की हो। ऐसी सूरत में अज्ञान अपनी नाबालिग्री का उज्र कोर्ट में पेश कर सकता है कि जब वह इकरार किया गया था या लिखत कीगई थी मैं नाबालिग था जब उस पर नालिश की आय । अज्ञान भी अपने उस इक़रार या लिखत को मन्सून करा देने का दावा कर सकता है जो नाबालिगी की अवस्था में लिखी गई थी, देखोधनमल बनाम रामचन्द्र 24 Cal.265 इस मुकदमे में एक नाबालिगने अपनी उमर बालिरा बताकर एक रेहन नामा लिख दिया था और रुपया पा लिया था। रेहननामा लिखने वाले ने नालिश की, वादी के वकील ने यह स्वीकार कर लिया था कि वह नाबालिग़ के झूठ उमर बताने के सबब से रेहन की डिकरी हासिल नहीं कर सकता इसी से योग्य वकील ने रेहन के दावा को छोड़कर सादी डिकरी अदालत से मांगी। हाई कोर्ट से यह फैसला हुआ कि अज्ञान उस रूपया के देने के लिये मजबूर किया जा सकता है जब यह साबित हो कि उसने फरेब देकर रुपया हासिल किया, दावा डिकरी हुआ। दूसरा मुक़दमा बिल्कुल इसी किस्म का था मगर वकील ने रेहन की डिकरी मांगी थी इस लिये दावा खारिजहो गया, देखो-सरलचन्द मित्र बनाम मोहन बी बी 25 Cal. 371 तीसरा मुकदमा इसी तरह का और पैदा हुआ इसमें एक आदमी ने एक लड़के से जायदाद का बैनामा लिखाया था, लड़के ने अपनी उमर २२ वर्ष बताई थी, जब उस बैनामा की नालिश अदालत में दायर हुई तो यह उज्र पेश किया गया कि उस वक्त लिखने वाला अज्ञान था। हाईकोर्ट बम्बई ने दावा खारिज कर दिया और कहा कि खरीदार को यह मालूम था कि वह झूठ बोल रहा है और उसने उसे झूठ बोलने दिया तथा उस बात को मानकर उसने बैनामा लिखाया इस लिये अब वादी एबीडेन्स एक्ट नं० ६ सन् १८७२ ई० की दफा ११५ के अनुसार अपनी बात से हट नहीं सकता । देखो स्टापुल । दफा ३६१ अज्ञानके मुकदमे में सुलहनामा
___ अज्ञानकी तरफसे वली सुलहनामा (कम्प्रोमाइज़) कर सकता है देखो निर्विनय बनाम निर्विनय 9Bom365; जब किसी अज्ञानके मुक़द्दमें में आपसमें सुलह यानी राजीनामा हो जायतो अदालत उस सुलहनामाको उस वक्त तक मञ्जूर नहीं करेगीजबतककि उसे इस बातका पूरा यकीन न होजायकिसुलहनामा से अज्ञान को फायदा पहुंचता है और नाबालिग के फायदे के लिये किया गया है, और अगर ऐसी मंजूरी अदालत से न ली गई हो तो उस सुलहनामा का पाबन्द अज्ञान नहीं होगा बल्कि जो डिकरी ऐसे सुलहनामा की बुनियाद पर की गई हो वह अज्ञान के प्रार्थना करने पर मंसूख कर दी जायगी, देखो राजा गोपाल बनाम मुहुपालम 3 Mad, 103 करमअली बनाम रहीम भाई
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६७०
नाबालिगी और वलायत
[पांच प्रकरण
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13 Bom 137; कलावती बनाम छेदीलाल 17 All. 531 रंगराव बनाम राज गोल 22 Mad. 378; 26 Bom. 109 राखल बमाम अद्वैत 36 Cal. 613.
__ अगर बिला मंजूरी अदालत के सुलहनामा के आधार पर कोई डिकरी की गई हो तो पक्षकार को साबित करना निहायत ज़रूरी है। कि सुलह नामा की रज़ामंदी ऐसे आदमी ने दी थी जो कानूनन नाबालिग्न के पाबन्द करने का अधिकार रखता था। मगर ऐसी रजामन्दी उस सूरत में पाबन्दी के काबिल नहीं होगी अगर वह ऐसे आदमी के गलत बयान करनेके आधार पर निर्भर हो जिसे अज्ञानके विरुद्ध कुछ लाभ प्राप्त होता हो; देखोमोहम्मद मुमताज़ बनाम शिवरतन गिर 23 I. A. 75. S. C. 23 Cal. ५34; राम अटर बनाम राजा मोहम्मद मुमताज़ 24 I. A. 107; S. C. 24 Cal.853.
अब किसी नाबालिग्न की ओर से कोई मामला किया जाय, तब उसके जायज़ होने के सम्बन्ध में यह देखना चाहिये कि आया कोई साधारण आदमी, अपनी खास जायदाद के सम्बन्ध में वैसा मामला करता या नहीं, और यदि वह वली सरकार की ओर से नियत किया गया होता और उसने उस मामले की मञ्जूरी के लिये अदालत से प्रार्थना की होती तो अदालत ने उसकी मन्जूरी दी होती या नहीं-के० मुनय्या बनाम एम० कृष्णय्या 20 L. W.693; 84 I. C. 949; A I. R. 1925 Mad. 215; 47 M. L.J.737.
दफा ३६२ कौन डिकरी नाबालिगको पाबन्द करेगी
जिस नाबालिग की तरफ से किसी मुक़द्दमे में उसका (प्रापरली, रिप्रेज़न्टेटिव ) वकील या जिसे कानूनी पैरवी करने का अधिकार हो अदालतमें हाजिर होकर अज्ञान की तरफ से उसके लाभ के लिये योग्य पैरवी की हो। उस मुक़द्दमे के नतीजे का नाबालिग पाबन्द होगा चाहे उस मुक्तइमे का नतीजा अज्ञान के लाभ के विरुद्ध हो या तस्फीया हो जाय, या दस्तबरदारी कर ली जाय, देखो इस विषय पर नजीरें बहुत हैं दो एक यहां पर देते हैं--विरूपाछय्या बनाम शिदाया 23 Bom. 620; गोपीनाथ बनाम रामजीवन S. D. of 1859, 913; गोपालराव बनाम नरसिंह 22 Mad. 3083 श्राशुनचन्द्र बनाम नन्दमनी 10 Cal. 367; जब कोई ऐसी डिकरी अदालत से प्राप्त कर ले जो ज्ञानको पाबन्द करती हो, और वह भूल से उस डिकरी को अज्ञानके वलीपर जारी करादे तो महज़ इस वजेहसे डिकरीका यह हक़ नहीं मारा जायगा कि वह अपनी उसी डिकरीको दुबारा अज्ञानपर जारी न करा सके अर्थात् करा सकता है 12 Bom. 427.
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दफा ३६२-३६३]
नाबालिगी और वलायत
यदि किसी नाबालिरा मुद्दालेह के खिलाफ़ डिकरी इसलिये होगई हो कि वकील, वली की अनुपस्थिति के कारण गवाहोंकी गैर हाज़िरीका सबब बताने में असमर्थ रहा हो और इस वजह से तारीख न बढ़वा सका हो, तो वह डिकरी मंसूख करदी जानी चाहिये । दादा साहब बनाम के० गजराजसिंह 85 I. C. 258; A. I. R. 1925, Mad. 204;47 M. L. J 928.
नाबालिग और डिकरी-जब किसी नाबालिग के खिलाफ डिकरी की कार्यवाही में उसकी माता ने भाग लिया और नाबालिग के हक़ में कुछ भी हानि नहीं होने दिया। तय हुआ कि यद्यपि माता अदालत द्वारा नाबालिग की वली न नियत कीगई थी किन्तु फिर भी नाबालिग का उसके द्वारा प्रति. निधित्व बिल्कुल ठीक था । रनमापा गोरञ्जनी बनाम बेटी महवेर्ट A. I. R 1927 Cal. 2073 दफा ३६३ वलीकी ज़िम्मेदारी
चाहे जिस तरहपर वली नियत किया गयाहो मगर वह उस नुकसानके पूरा करदेनेके लिये ज़ाती तौरपर ज़िम्मेदार है जो उसकी दगाबाज़ी, चालाकी, या गैरकानूनी तरीकेसे हुआ हो । मगर वली अज्ञानके करजेका उतनेसे ज्यादा ज़िम्मेहार नहीं है जितनी कि जायदाद उसने अज्ञानसे पाई हो।
जब अज्ञानका वली कोई अपराध करे तो अज्ञान. उसकी गलतीका पाबन्द नहीं होगा। वली अपनी गलती का ज़ाती तौरपर ज़िम्मेदार होगा। इसी तरहपर जब अविभक्त परिवारके अज्ञानकी जायदाद में वलीने कुछ अपराध किया हो तो अज्ञानकी जायदाद ज़िम्मेदार नहीं होगी; देखो--सोनू विश्राम बनाम ढुं, 6 Bom. L. R. 122; 28 Rom. 330.
पंचायत--यदि नाबालिग पर पाबन्दी हो--वली द्वारा दिये हुये किसी पंचायतके हवालेकी पाबन्दी नाबालिगपर उस सूरतमें जबकि वह प्रमाण युक्त और युक्त पूर्ण हो लाज़िमी होगी। नाबालिग उस्ट हवालेको इस बातका सबूत देकर कि वह उसके फायदे के लिये न किया गया था मंसून करा सकता है। देखो--पुन्नूस्वामी बनाम वीरामुथ 3 Rang. 452..
यदि वली किसी कानूनी मुकदमे को, बिना उसके कानूनी पहलूपर विचार किये हुये ही दायर करे तो यह उसकी गफलत सरीह विशेष असावधानी नहीं है। देखो-सुबय्या पण्डारम बनाम अरुन चला पण्डारम A. I. R. 1925. Mad. 379.
नोट-अपराधसे मतलब है ( खियानत ) और वह कसूर जो उसकी गलतीसे या वदनीयती आदिसे पैदा हुये हो । वली किन किन बातोंका जिम्मेदार है इस विषयका पूरा विवरण गार्जियन एन्ड वार्ड्स ऐक्ट नम्बर ८ सन १८९० ई . की दफा २०, २४, २७ में देखो । यह दफाय इस किताव की दफा ३६७, ३६९, ३७० में देखो और पूरा कानून इस प्रकरण के अंतमें देखा ।
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३७२
नाबालिगी और वलायत
[पांचवां प्रकरण
दफा ३६४ दौरान मुकदमामें अदालत वली नियत कर सकती है
जब अदालतके सामने वली नियत करने की प्रार्थना कीगई हो और उसपर कोई क़तई फैसला न हुआ हो और ऐसा अन्देशा फरीक की तरफ़ से अदालत में जाहिर किया गया हो कि वली नियत करनेके फैसलेके पहिले या फैसले तक अज्ञानकी जायदाद में कोई आदमी नुकसान पहुंचानेकी कोशिश कर रहा है, तथा ज्यादा मुमकिन हैं कि जायदादमें नुकसान पहुंच जावे तो अदालत सब मामलेको सुनकर बीचके समय के लिये किसी वलीको नियत करेगी। देखो--गार्जियन एण्ड वार्ड्स एक्ट ८ सन् १८८०, ई. की दफा १२.
गार्जियन एण्ड वार्ड ऐक्ट (कानून वली और नाबालिग़ ) के अनुसार अदालत को यह अधिकार नही है कि किसी आदमी को नाबालिग़ का वेली मुकर्रर करते हुये, किसी तीसरे आदमीको नाबालिग़की परवरिशके लिये कुछ देने का हुक्म दे। मन्साराम बनाम मु० नारीती 87 I.C. 650 26 Punj. L. R. 21357 Lah. L.J. 193; A. I. R. 1925 Lah. 427.
अनेक कानूनोंकी कुछ दफाओंका खुलासा गार्जियन एण्ड वार्ड्स एक्ट नम्बर ८ सन् १८६० ई० इस प्रकरणमें पूरा दिया गया है यहांपर उसकी कुछ खास दफाओंका उल्लेख इसलिये करते
हैं कि पाठकोंका ध्यान विशेष रूपसे आकर्षित हो ।
दफा ३६५ वलीनियत करनेकी अर्जी में क्या लिखना चाहिये
गार्जियन एन्ड वाईस ऐक्ट की दफा १०-अगर कलक्टर साहब अर्ज न करें, तो सबको लिखी हुई अर्जी द्वारा जैसा कि सिविल प्रोसीजरमें बताया गया है उसके अनुसार करना चाहिये। जहां तक हो सके अर्जी में नीचे लिखी बातें बताना चाहिये:(१) अज्ञान का नाम, जाति, धर्म, पैदा होनेकी तारीख और रहने
की जगह। (२) अगर अज्ञान लड़की है, तो बताना चाहिये कि वह व्याही है या
क्वांरी, अगर ब्याही है तो उसके पतिका नाम और उमर । (३) अज्ञानकी अगर कोई जायदाद हो, सब बताना चाहिये। और
उस जायदादकी हालत कैसी है किस जगह है और उसकी अन्दाज़न कीमत कितनी है।
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दफा ३६४-३६५ ]
नाबालिगी और वलायत
( ४ ) अज्ञान की जात या जायदादकी निगरानी रखने वाले आदमीका नाम और रहने की जगह ।
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(५) अज्ञानके नज़दीकी रिश्तेदार कौन कौन हैं और वह कहां रहते हैं ( ६ ) अगर किसी आदमी ने जो मजाज़ वली नियत करनेका हो, किसी आदमी को वली नियत कर दिया हो तो बताना चाहिये कि वह वली जातका है या जायदादका या दोनोंका और उसका पता क्या है ।
(७) क्या कभी अज्ञान के वली नियत करने के बारे में कोई अर्जी किसी अदालत में की गई है ? और अगर की गई हो तो उसका परिणाम क्या हुआ ।
( ८ ) यह अर्ज़ किस लिये कीगई है ? अज्ञानकी जात के लिये, या जायदाद के लिये, या जात और जायदाद दोनोंके वली नियत करने के बारेमें है; या कि सिर्फ घोषणा कर देनेके बारेमें है ।
( 8 ) क्या यह अर्ज़ी किसी वली नियत करनेके बारेमें है ? या किसी तजवीज़ किये हुए वलीकी योग्यताके बताने के बारेमें ।
(१०) क्या अर्ज़ी किसी आदमीको वली ज़ाहिर करदेने बारेमें है ? जो खास शर्तोंपर अपने को वली बनाना चाहता है ।
( ११ ) किस सबबसे अर्ज़ी दी गई है ( अर्जी देनेके कारण लिखना चाहिये )
( १२ ) अगर कोई दूसरी बातें हों तो वह भी सब ज़ाहिर कर देना चाहिये ।
अगर कोई वली तजवीज़ किया गया हो तो, अर्ज़ी के साथ उस तजवीज़ किये हुए वलीकी रज़ामंदी और उस रज़ामंदीपर वलीके दस्तखत तथा कमसे कम दो गवाहोंके दस्तखत होना चाहिये। अगर कलक्टर साहेब ने वली के नियत किये जाने की अर्ज़की है तो वह चिट्ठीकी शकल में पोस्ट के द्वारा या किसी आदमी के द्वारा अदालतमें भेजी जायगी। उसमें भी सब बातें होंगी जो ऊपर बताई गई हैं ।
गार्जियन एण्ड वाईस ऐक्टके अनुसार तज़वीजपर उन त्रुटियों तथा कमियोंके कारण, जो मध्य प्रदेशके कोर्डके अनुसार हों, एतराज नहीं किया जासकता। यदि किसी डिस्ट्रिक जज द्वारा, वली सम्बन्धी मामले में पैतृक अधिकारके अनुसार अमल किया गया हो, और उसकी तजवीज़ प्रमाणयुक्त और मान्य हो, तो उसमें अपील करनेपर तब्दीली नहीं हो सकती । देखोमु० खुन्दी देवी बनाम छोटेलाल 83 I. C. 288; A. I. R. 1925 All 338.
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नाबालिग्री और वलायत
[ पांचवां प्रकरण
दफा ३६६ दौरान, मुक़द्दमे में अदालत वली नियत कर सकती है
गार्जियन एण्डवार्ड्स एक्टकी दफा १२ - अदालत जबतक वली नियत करने का फैसला करे, और उस मामलेका सुबूत सुने, इतने बीचमें अज्ञानकी जायदाद के लाभको नष्ट न होने देनेके लिये कोई वली चन्दरोज़ा नियत - करदेगी । जब कोर्ट, किसी आदमीको बीचमें वली नियत करनेका इरादा करेगी तो उसे हुक्म देगी कि वह अज्ञानको लेकर किसी तारीखपर हाज़िर हो । अगर अज्ञान लड़की है और वह किसी रवाजसे हाज़िर नहीं हो सकती है तो जिस तरह मुनासिब मालूम होगा हुक्म देगी ।
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दफा ३६७ वली अमानती सम्बन्ध रखता है
गार्जियन एण्ड वार्डस ऐक्टकी दफा २० - वली अज्ञानसे अमानती सम्बन्ध रखता है । वलीको ज्ञानके काममें लाभ किसी तरहका नहीं उठाना चाहिये । मगर वली वह लाभ उठा सकता है जो वसीयतनामा या दूसरे किसी लेखमें जिससे कि वह नियत किया गया है या इस क़ानून के ज़रिये से उसे अपना लाभ उठानेका अधिकार दिया गया है ।
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वलीका, अमानती सम्बन्ध इन कामोंमें लागू पड़ता है -- जैसे - वलीको, अज्ञानकी जायदादका मोल लेना । अज्ञानकी तरफसे, वलीकी जायदादका मोल लेना | फौरन उसी वक्त, या उसके थोड़े दिनतक जबकि अज्ञान बालिग हो गया है और सब दूसरे सौदे जो उन दोनों के बीचमें हुए हैं या ऐसे समय में जबकि बालिग होनेके बाद लड़केपर वलीका दबाव रहा हो । दबाव की हालत में अगर वलीने अपने लाभ के लिये कुछ किया हो तो वली जाती तौरपर अज्ञानके नुक़सानका ज़िम्मेदार है ।
वली जो वाक़ई काबिज़ हो ( खिलाफ मुस्तहक़ वलीके ) जायदाद के हक़ीकी फ़ायदेके लिये जायदादपर उसी प्रकार ज़िम्मेदारी कर सकता है जिस प्रकार मुस्तहक़ वली कर सकता है । नारायन बनाम धर्म A. I. R. 1925 Nag. 134.
नोट-अमानती सम्बन्धको अंगरेजी भाषामें फीडिव सियरी रिलेशन् शिपु (Fiduciaryrelationship) इस शब्द की परिभाषा यह है कि - वमूजिव ऐक्ट अमानतके जब कोई अमीन या जिसके हक्क्रमें वसीयतहै, या शरीकदार, या एजेंट या इक्जीक्यूटर कम्पनीका, या मशीर कानूनी, या और आदमी जो दूसरे आदमीका विश्वास पात्र हो और इस वजेहसे उसके अधिकारों को सुरक्षित रखनेका पाबन्द हो, विश्वासकी हैसियत या दबावको दखल देकर अपनी जात खासके लिये कोई मुनाफा नकदी या दूसरी तरहका हासिल करे । या जब कोई पुरुष जो इस क्रिस्मका पाचन्द हो, इस सूरत में कुछ अपना लेन देन करे जिसमें खुद उसका हक विश्वास करने वाले के विरुद्धहो या हो जाय, और उस लेन देनसे अपनी जात खास के लिये कुछ मुनाफा हासिल करे तो जरूर है कि उसने अपने लाभ के लिये वह काम किये थे, ऐसे सम्बन्धको अमानती सम्बन्ध कहते हैं ।
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दफा ३६६-३७१]
नाबालिगी और वलायत
३७५
दफा ३६८ वलीकी तनख्वाह
गार्जियन एण्ड वार्ड्स ऐक्टकी दफा २२--जो वली अदालतसे नियत कियागया हो, या जाहिर किया गया हो वह सिर्फ उतना रुपया पानेका हक़दार है जिसे अदालतने, अज्ञानके कामके लिये हुक्म दिया हो अगर कोई गवर्नमेन्ट का आफिसर अपनी आफिसरी की हैसियत से वली नियत कियागया हो, या जाहिर कियागया हो तो अज्ञानकी जायदादमेंसे गवर्नमेन्टको ऐसी फीसें देना होंगी जिन्हें लोकल गवर्नमेन्ट श्राम या खास तौरपर तजवीज़ करेगी। दफा ३६९ जातके वलीका कर्तव्य
गार्जियन एण्ड वार्ड्स ऐक्टकी दफा २४-अज्ञानके ज़ाती वलीको, अज्ञानके शरीरकी देखभाल और रक्षा सिपुर्दकी गई है। उसके शरीर सम्बन्धी सब आवश्यकताओंको पूरा करना, तथा उसकी तन्दुरुस्ती, और शिक्षाके विषयमें पूरा ध्यान रखना ज़रूरी है और उन बातोंपर ध्यान दियाजायगा जिनको कि वह कानून, जिसके आधीनमें अज्ञान है, अज्ञानके लिये चाहता है। दफा ३७० जायदादके वलीका कर्तव्य
गार्जियन एण्ड वाई एक्टकी दफा २७-अज्ञानके जायदादके वलीको उसकी जायदादके सम्बन्धमें उसी तरहपर बर्तना पड़ेगा जैसाकि प्रत्येक दूरदर्शी पुरुष अपनी जायदादके सम्बन्धमें बर्ते, और इस एक्टपर ध्यान रखते हुये वह जायदादके लेलेने, रक्षा करने, और उसके लाभके लिये सब काम जो योग्य और मुनासिब हो, करेगा। दफा ३७१ वली किन बातोंसे ख़ारिज किया जायगा
गार्जियन एण्ड वार्ड्स ऐक्टकी दफा ३६-नीचे लिखी हुई बातोंपर लाभ रखनेवाले, किसी आदमीके दरख्वास्त परसे प्रत्येक वलीको, अदालत वलायतसे हटा सकती है, चाहे वह कोर्टसे नियत कियागया हो, या ज़ाहिर कियागया हो, या किसी वसीयतके द्वारा या अन्य किसीके द्वारा नियत कियागया हो।
(१) अमानतका खराब इस्तेमाल करता हो। (२) अमानत के बारे में जो कर्तव्य है उस से वह सदैव चूकता ___ रहता हो। (३) अमानतके बारेमें कर्तव्य काम करनेकी हैसियत न हो।
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३७६
नाबालिगी और वलायत
[पांचवां प्रकरण
(४) अज्ञानकी उचित फिकर न रखता हो, या बुरा वर्ताव करता हो। (५) इस ऐक्टकी बातोंको या कोर्टके हुक्मको बराबर न मानता हो । (६) किसी ऐसे अपराधके प्रमाणित होजानेपर, जिससे कोर्टकी
रायमें उसका चालचलन खराब मालूम हो, और अज्ञानके बली
रहनेके अयोग्य हो। (७) अगर वली अपने कर्तव्य काम, ईमानदारीसे पूरा करनेके
विरुद्ध निजी लाभ रखता हो। (८) कोर्ट के अधिकारी इलाकेके अन्दर रहना बन्द कर दिया हो । (6) जायदादके वली होनेकी सूरतमें, वलीका दिवाला निकल गया
हो या इन्साल्वेन्ट होगया हो यानी 'लाह' लेलिया हो। (१०) जिस कानूनके अज्ञान अधीन है, उस कानून की वजेहसे वली
की वलायत खतम होजाने पर या खतम की जा सकने पर । - नोट-जो वली वसीयत नामाके द्वारा या अन्य किसी लेख के द्वारा नियत किया गण है तो वह इन बातों से नहीं हटाबा जायगा । १-ऊपरके सातवें पैरे से-बशर्तेकि यह सावित न होजाय कि ऐसा विरुद्ध लाभ जिस आदमी ने उसे नियत किया था उसके मरने के बाद पैदा हो गया है, अथवा नियत करने वाले आदमी ने ऐसा विरुद्ध लाभ करनेकी आज्ञनतामें वली नियत किया है । २-ऊपरके आठवें पैरेसे-लेकिन अगर वलीने अपनी मकूनत ऐमी जगह रखी है जिससे कोर्ट की रायमें वलीको अपना कर्तव्य काम करने की असुविधा पैदा होगई है तो ऐसी सूरतोंमें हटा दिया जायगा । पहिली बात इसतरह पर समझो कि जैसे रामने वली नियत किया और रामके मरनेपर उसने विरुद्ध लाभ उठाया या रामके समयम वह वली होनेसे पहिले अज्ञानके विरुद्ध लाभ उठाता था मगर राम इसबातको जानता नहीं था,और रामने चिनाजाने कि वह अज्ञान के विरुद्ध लाभ उठा रहाहै, इसबात की अज्ञानतामें,उरो वली नियत करदिया अगर ऐमा साबित होजाय तो वली हटाया जायगा । वली हटाये जानेके बारेमें साबित करना उस पक्षपर निर्भर होगा जो वली हटाये जानेकी अर्ज करता हो ।
(इन्डियन कांट्रेक्ट एक्ट : सन १८७२ ई० के अनुसार)
दफा ३७२ अज्ञानकी जायदाद करजेकी कब ज़िम्मेदार होगा
इन्डियन कांट्रेक्ट एक्टकी दफा ६८-वह श्रादमी जो मुआहिदा करने की योग्यता नरखता हो, या वह आदमी जो उसे कानूनन् पालन करनेके लिये वाध्य हो, इन दोनोंको अगर कोई उस लड़के की हैसियतके अनुसार जो मुाहिदा नहीं कर सकताथा, कानूनी ज़रूरतों के लिये करज़ा दे या कोई
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दफा ३७२-३७३]
नाबालिग्री और वलायत
चीज़ देवे, तो वह आदमी अपना रुपया अज्ञानकी जायदादमें से ले सकता है। मगर अज्ञानकी ज़ात पाबन्द नहीं होगी।
अगर किसी श्रादसीने अज्ञानको या अज्ञानके वलीको या मेनेजरको, अज्ञानकी हैसियत के मुताबिक, उसकी कानूनी ज़रूरतों के लिये कुछ करज़ा दियाहो, या दूसरी कोई चीजे दीहों तो वह आदमी अक्षान की जायदाद मेंसे अपना रुपया वसूल कर सकता है। दफा ३७३ कानुनी ज़रूरतें यहभी होंगी
(१) जब कोई मुकद्दमा ऐसा दायर हुआ हो जिससे अज्ञानकी जाय. दादमें नुकसान पहुंचने वालाहो, तो उस सूरतमें जो खर्च उसकी जायदाद के बचानेके लिये किया जायगा-कानूनी ज़रूरत है देखो-वट किंगस पनाम धरनू बाबू ( 1881 ) 7 Cal. 140.
(२) अगर कोई मुक़हमा डाकेज़नी का ( या इसी किस्मका कोईसन्गीन केस ) श्रज्ञानपर लगाया गयाहो, तो उस केससे छुटाने के लिये जो खर्च पड़ेगा, कानूनी ज़रूरत है, देखो-श्यामचरनमल बनाम चौधरी देबिया सिंह ( 1894) 21 Cal. 872.
(३) जब अज्ञानकी जायदाद किसी डिकरीमें नीलाम हो रहीहो, या बिक रहीहो, तो जो रुपया उसकी जायदाद बचानेके लिये दिया जायगा। कानूनी ज़रूरत है। देखो--आत्माराम बनाम हुनर (1888 ) Punjab Rec 96.
४) अविभक्त परिवारके मेनेजरको, अशान लड़कोंकी बहनकी शादी करनेके लिये अगर कोई क़रज़ा दे तो वह अज्ञानकी जायदादसे वसूल हो सकता है यह कानूनी ज़रूरतहै देखो-नूरदान प्रसाद बनाम अयोध्याप्रसाद ( 1910) 32 All. 325; और देखो खानदानी ज़रूरतें क्या क्या हैं । दफा ३४८.
नोट-अगर अज्ञानकी कानूनी जरूरतके लिये रुपया दिया गया हो, या कोई चीजें दीगयी हो, जो उस अज्ञानकी हैसियत के खिलाफहों, तब वह कानूनी ज़रूरत ठीक नहीं रहेगी, और नहीं मानी जायगी । जैसे किसी अज्ञानकी हैसियत ५०) रु. मासिक खर्च करनेके अन्दाजकी है अज्ञान स्कूलमें पढ़ताहै, उसे रातमें पढ़ने के लिये एक लेम्पकी जरूरतहै, जो कानूनी जरूरत मानी गयी है किसीने ६०) रु. की एक लेम्प उसे देदी तो वह कानूनी जरूरत नहीं रही । कानूनी जरूरतसे यह मतलबहै कि जो फिजूल खर्च, या सुखोपभोग, या देखावाके लिये नहो । साधारण तरहसे बसर होने योग्यहो, इस बातकी जांच रुपया देने वालेको या चीजें देने वाले को अच्छी तरह पर कर लेना चाहिये । क्योंकि जब वह अपना रुपया दिलापानेकी या चीजोंकी कीमत दिलापानेकी नालिश अज्ञानके विरुद्ध करेगा तो उसे साबित करना पड़ेगा कि उसने अज्ञानके लाभके लिये कानूनी जरूरतोंके रफा करनेकी सरजसे अज्ञानकी हौसयतके अनुसार रुपया दिया था या चीजें दीथीं । अगर ऐसा सुबूत वह नहीं दे सकेगा तो अदालत उसके दावापर विश्वास नहीं करेगी । ऐसी सूरत में रुपया मिलना मुशकिल हो जायगा ।
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३७८
नायालिगी और वलायत
[पांचों प्रकरण
[इन्डियन लिमीटेशन एक्ट ६ सन १९०८ ई० के अनुसार
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दफा ३७४ नाबालिग बैनामा या रेहननामा मंसूखीका दावा कब
कर सकता है ? इन्डियन लिमीटेशन ऐक्टकी दफा ४४-अज्ञान बालिग होनेपर अपनी उस जायदाद के वापिस पानेका दावा कर सकताहै, जिसे उसके वलीने बेच दीहो या रेहन कर दीहो, या और किसी सूरतसे अज्ञानके स्वामित्वसे हटा दीहो । ऐसी नालिश दायर करनेकी मियाद तीन सालकी है और यह मियाद अज्ञानके बालिग होनेकी तारीखसे शुरू होगी। . नोट-इसदफामे यह मतलबहै कि अगर वह अज्ञानका कानूनी वली या असली वली न हो और उसने जायदादकोच दिगा हो या रेहनकर दियाहा अथवा और किसी तरहसे अज्ञानके स्वामित्व से हटा दियारो, तो उस सूरतगे यह दफा लागू नहीं पड़ेगी । यह दफा सिर्फ असली वली भौर कानूनी बलीकी हैसियत पर लागू पड़ेगी।
उदाहरण-बाप अपने अज्ञान लड़कोंका घली था, उसने बलीकी हैसियतमें अज्ञानोंकी जायदाद रेहन कर दी। और जिसने रेहन कराया था उसने रेहननामा के आधारपर नालिश अदालतमें दायरकी, जिसमें अज्ञान लड़कोंको फरीक बनाया। अदालतने दावा मुद्दई डिकरी किया। जब उनमें से एक लड़का बालिग़ हुआ तो उसने बालिग़ होनेकी तारीखसे तीन सालके अन्दर रेहननामा मंसूख करापानेकी नालिश अदालतमें दायर नहीं की। अर्थात् तीन सालके बाद नालिशकी। अर्जीदावामें वादीने कहाकि रेहननामा जाली है; और दोनोंने मिलावट करके लिखा है। यद्यपि अदालत ने यहबात स्वीकार नहीं की, मगर यहांपर देखना यहहै कि ऐसी बुनियाद पर मियाद बढ़ जाती है जबकि यह कहा जाता हो कि दस्तावेज़ जाली है और मिलकर लिखी गई है , नज़ीर देखो-रघुबर बनाम भिरिवया (1889) 12 C. 69.
(१) बारह वर्षकी मियाद-इस बातका ध्यान रखना कि अगर अशान की किसी जायदादको कीमतमें एवज़ लेकर उसके वलीने अज्ञानके स्वत्वाधिकारसे हटादी हो तो उस सूरतमें दफा १३३ और १३४ लिमीटेशन ऐक्ट की लागू पड़ेगी। जिसके अनुसार १२ वर्षकी मियाद दावा करने के लिये कायमकी गई है ; और यह बारह वर्ष की मियाद उस तारीखसे शुरू होती है जिस तारीख में वह हटाई गई हो; यानी खरीदने की तारीखसे, और अगर यह मियाद अज्ञान की अज्ञानतामें ही समाप्त होजाय तो अज्ञानको बालिग
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दफा ३७४]
माबालिग्री और वलायत
होनेके बाद सिर्फ तीन वर्षकी मियाद अधिक मिलेगी, जो उसे दफा ४४ के के अनुसार मिलती है। अगर बारह वर्ष वाली मियादका कुछ हिस्सा अज्ञान की अज्ञानतामें समाप्त होजाय और उसके बालिग होने के बाद तीन वर्षसे ज्यादा बानी रहे, तो उस सूरतमें जितनी मियाद बाक़ी रहेगी बालिग को मिलेगी।
उदाहरण-धरमदास नाबालिग़ है और उसका कानूनी वली मत्यदेव ने अज्ञानकी जायदादका कुछ हिस्सा १ जनवरी सन् १६०० ई० में बेच डाला उसके बाद ता० ३१ दिसम्बर सन् १९०५ ई० में धरमदास बालिग होगया। अब धरमदासको अपनी जायदाद वापिस लेनेके लिये दो मियादें मिलती हैं, एक तो दफा ४४ के अनुसार दूसरी दफा १३३, १३४ के अनुसार । धरमदास को अधिकार है कि वह १ जनवरी सन् १९१२ ई० तक नालिश करे क्योंकि उसे बालिग होनेके बाद ७ वर्षकी मिमाद नाबालिग्रीमें खतम हो जाती तो उसे दफा ४४ के अनुसार बालिग़ होनेकी तारीखसे तीन सालकी और मिलती। यह ध्यान रहे कि कानूनमें जिसकी मियाद तीन सालसे कम रखी गई है वह मियाद बालिग होनेके तारीखसे शुरू हो जायगी और अपनी अवधिपर खतम होजायगी अर्थात् दफा ४४ के अनुसार तीन सालकी मियाद नहीं मिलेगी। ..
(२) दफा ४४ का नतीजा-इस दफा ४४ में सबसे ज़रूरी बात यह है कि अज्ञान की जायदाद चाहे जिसतरहसे बेंच दीगईहो या रेहनकर कर दीगई हो या अज्ञानके स्वामित्व से हटा दीगई हो, उसके वापिस पाने का दावा वह बालिग़ होनेकी तारीखसे तीन वर्षके अन्दर करसकताहै। इस दफामें ट्रान्फर ( इन्तकाल) शब्दके साथ कोई बिशेषण नहीं लगाया गया। जैसाकि दफा १३३ और १३४ में लगाया गया है। इसी कारण से इस दफा ४४ के अनुसार हर किस्मके टासफर ( इन्तकाल)का दावा तीन सालके अन्दर हो सकता है चाहे वह ट्रांसफर बिला किसी एवज़के हो या चाहे बह ज़बानी या किसी दस्तावेज़के द्वारा किया गया हो, देखो-( 1905 ) 28 Mad. 423; (1908) 2 Iud Cas 229; ( Nagpur ).
(३) कानूनी वली और असली वली--कानूनी वली और असली वलीका भेद ऐसा है कि जो वली अदालत की तरफसे नियत किया गया हो या किसी लेख द्वारा नियत किया गया हो. वह कानूनी वलीहै। और जो वली कुदरती हो जैसे बाप या मा अथवा मुश्तरका जायदादका मेनेजर (मोहतमिम ) यह असली वली कहलाते हैं । और वह आदमी भी असली वली कहलायेगा जो किसी अधिकारके साथ अज्ञानका वली हो सकता हो अगर यह लोग वलीकी दशामें अक्षानकी जायदाद बेंचदे या रेहन करदें, या
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नाबालिग्री और वलायत
[पांचवां प्रकरण
अज्ञानके स्वामित्वसे किसी तरहपर हटादे तो अज्ञान बालिग होनेकी तारीखसे तीनसालके अन्दर उस जायदादके वापिस पानेका दावा दफा ४४ के अनुसार कर सकता है।।
(४) जायदादसे क्या मतलब है-दफा ४४ में जायदाद, शब्द दोनों क्रिस्मकी जायदादोंके लिये काम में लाया गया है। जायदादमें स्थावर और अङ्गम सम्पत्ति शामिल हैं यानी जायदाद मनकूला और गैर मनकूला। लिमीटेशन् एक्टके अनेक लेखकोंने जायदाद, शब्दका ऐसाही मतलब माना है क्योंकि कानूनमें प्रापरटी (Property ) शब्दके साथ और कोई शब्द नहीं जोड़ा गया ।
नोट-विशेष विवरण देखो-इन्डियन लिमीटेशन ऐक्ट नं. ९ सन् १९०४६०-के, जे, रुस्तमजी बेरिस्टर एट, लॉ, सन, १९१५६० का छपा । और यच, टी, रिवाजका छदवां एडीशन सन् १९१२ ई. का छपा। दफा ३७५ जब किसी दूसरे आदमीने, अज्ञानकी जायदाद
उसके स्वत्वाधिकारसे हटा दी हो अब सवाल यह पैदा होता है कि अगर किसी ऐसे वलीने जो कानूनी या असली वलीकी हैसियत न रखता हो अथवा किसी दूसरे आदमीने अज्ञानकी जायदादको उसके स्वत्वाधिकारसे हटा दिया हो तो कौनसी दफा उस केसमें लागू पड़ेगी तथा उसकी कितनी मियाद होगी और वह मियाद कबसे शुरू होगी ? नीचे देखो-- दफा ३७६ अज्ञानकी कानूनी अयोग्यता
(१) इण्डियन लीमीटेशन ऐक्ट नं0 ६ सन १९०८ ई. की दफा ६ का यह अर्थ है कि “अगर वह आदमी जो नालिश करने या डिकरी जारी करानेकी दरखास्त देनेका अधिकारी है, उस समयमें जबसे मियाद शुरूकी जाना चाहिये, अशान या पागल या विक्षिप्त हो, तो उसे अधिकार है कि, जब उसकी अयोग्यता चली जाय उसी मियादके अन्दर नालिश दायर करे या डिकरी जारी कराने की दरखास्तदे जो उस कामके लिये कानून लिमीटेशन में मियाद मुकररकी गई है" (देखो उदाहरण नं११).
(२) जिस समयसै मियाद शुरू होना चाहिये, अगर किसी आदमी को उसवक्त दो किस्मकी अयोग्यतायें हों, चाहे वह दोनों अयोग्यतायें साथ ही शुरू हुई हों या जब एक अयोग्यता खतम न होने पाई हो और बीचहीमें दूसरी शुरू होगई हो, तो जब दोनों किस्मकी अयोग्यतायें उसकी नष्ट हो
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दफा ३७५-३७७ ]
नाबालिग्री और वलायत
जायेंगी, उस वक्त से मियाद शुरू होगी । अर्थात् क़ानूनमें जिस कामके लिये जो मियाद क़ायम कीगई है वह मियाद उस वक्तसे शुरू होगी जब दोनों क़िस्म की अयोग्यतायें नष्ट होजायें । ( देखो उदाहरण नं० २ ).
३८१
(३) जब किसी आदमीकी अयोग्यता उसके मरनेतक रही हो तो उसका क़ायम मुक़ाम जायज़ उसके मरनेके बाद नालिश उसी मियादके अंदर दायर कर सकता है या दरख्वास्त दे सकता है, जो मियाद उस मरे हुये आदमीकी अयोग्यता न होमेकी सूरतमें होती । अर्थात् मियाद उसके मरनेकी तारीख से शुरू होगी ।
( ४ ) अब किसी आदमीकी अयोग्यता उसके मरनेतक रही हो, और उसका कायममुकाम जायज़ भी उसवक्त अयोग्य हो जबकि वह आदमी मरा है तो मियाद उसवक्त से शुरू होगी जब क़ायममुकाम जायज़की अयोग्यता नष्ट होजाय । जैसा कि ऊपर न० १ और न० २ में कहा गया ( देखो उदाहरण नं० ३ ).
उदाहरण - ( १ ) मथुरादास, एक महाजनका लड़का है जो अज्ञान ( नाबालिग़ ) है । मथुरादासको किसी नालिशका हक़ उसकी अज्ञानता में पैदा होगया जिसकी मियाद ६ सालकी है । और नालिशका हक़ पैदा होनेके १० वर्षके बाद मथुरादास बालिग हुआ तो वह बालिग होनेकी तारीखसे तीन सालके अन्दर वही दावा दायर कर सकता है ।
(२) सुरेन्द्रको अपनी अज्ञानता ( नाबालिगी ) में नालिश करनेका एक हक़ प्राप्त हुआ यह हक़ प्राप्त होनेके बाद मगर अज्ञानताहीमें सुरेन्द्र पागल होगया, तो क़ानून मियादकी मुद्दत सुरेन्द्रकी अज्ञानता और पागलपन दोनों के ख़तम होजानेपर शुरू होगी ।
(३) ब्रजेन्द्रको अपनी अज्ञानता में नालिश करनेका बैंक हक्क पैदा हुआ लेकिन वह बालिग होनेके पहिलेही मरगया और ब्रजेन्द्रना लड़का सुरेन्द्र वारिस हुआ । सुरेन्द्र उसवक्त अज्ञान है जब उसका बाप ब्रजेन्द्र मरा तो कानून मियादकी मुद्दत उस वक्त शुरू होगी जब सुरेन्द्र बालिग होजाय ।दफा ३७७ अर्जी देना कहांतक लागू होगा
ऐक्ट सन् १८७७ ई० की दफा ७ के अनुसार अज्ञान बालिग होनेपर हर क़िस्म की दरख्वास्त दे सकताथा, अदालतों को इस बातसे बहुत तकलीफ हुई क्योंकि अज्ञानके लिये यह मुमकिनथा कि बीस वर्ष बादभी जब कि वह बालिग्रहो और उसकी जायदाद अदालतकी डिकरीके जारी होनेसे नीलाम होगई हो, तो उस नीलामंके मन्सून करा देनेके लिये दरवास्तवे
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माबालिगी और वलायत
[ पांच प्रकरण
सकता था। चाहे उस नीलाम होनेके वक्त अज्ञानका वली मुक़द्दमा हाज़िर भी हो । अब इस ऐक्ट नं० ६ स० १६०८ ई० की दफा ६ के अनुसार अर्ज़ी देना सिर्फ डिकरी जारी कराने तक महदूद किया गया है, और दूसरी अर्जियों के बारेमें अज्ञान अपने वलो या जिसे उसने ऐसा अधिकार दियाहो उसके कामोंसे बंध जायगा और पाबंद हो जायगा ।
दफा ३७८ जिस कामकी मियाद तीन साल से कम हो
BER
जहां पर मियाद तीन सालसे कमहो तो वादीको अयोग्यताके ख़तम होजाने के बाद उतनी ही मियाद मिलेगी, अर्थात् वह तीन सालतक बढ़ाई नहीं सकेगी। जैसे-एक अज्ञानको जायदादके नीलामको रद्द करा देने की नालिश करने का अधिकार उसकी नाबालिग्री में पैदा हुआ, और इस हक़ प्राप्त होने के पन्द्रह साल बाद वह बालिग हुआ तो बालिग होनेके पीछे जितनी कि मियाद नीलाम रद्द कराने की क़ायमकी गई है उतनेही मिलेगी यानी एक साल मियाद मिलेगी न कि तीन साल । नज़ीर देखो - ( 1894 )
17 Mad. 316.
दफा ३७९ प्रतिवादीके अज्ञान होनेसे दात्रा बंद नहीं हो सकेगा
जिस सूरतमें कि किसी आदमीको नालिशका हक़ पैदा होगया हो, तो वह इस वजेह से अपने दावाको रोक नहीं सकता कि प्रतिवादी अज्ञान है या अयोग्य है । वादीका दावा तमादी होजायगा अगर उसने उस मियाद के अन्दर नालिश नहीं की जो मियाद उसे क़ानूनन मिली थी । दफा ३८० यह दफा कहांपर लागू नहीं होगी
दफा ६ सिर्फ उन्ही मामलोंसे लागू पड़ेगी जिन मामलोंकी मियाद लिमीटेशन ऐक्ट ६ सन् १६०८ ई० के अनुसार क़ायमकी गई है । और जिन 'मामलोंकी मियाद किसी दूसरे क़ानूनके द्वारा नियतकी गई है.. उनके लिये यह दफा लागू नहीं होगी ।
अगर कोई मियाद प्रान्तीय क़ानूनमें क़ायमकी गई हो तो यह दफा लागू नहीं पड़ेगी देखो – ( 1874 ) 13 Ben. L. R. 445; ( 1894 ) P. K. 128; C. F. 94. P. R. 64; (1890) 17 Cal. 263; (18.)2) 16 Bom. 536; (1890) P. R. 74 F. B.; ( 1897 ) P. R. 69; ( 1902) 29 Cal. 813.
मोट - हक शिफाकी नालिशमें भी दफा ६ लागू नहीं मानी जायगी ।
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दफा ३७८-३८३ ]
नाबालिग्री और वलायत
दफा ३८१ अज्ञानको दो तरह की मियाद
( १ ) जब किसी अयोग्यता के अन्दर हक़ नालिशका पैदा होगया हो और उसकी मियाद क़ानूनी अयोग्यता खतम होनेके बाद तीन सालसे ज्यादाकी बाक़ी रहगई हो, तो वह उस मियाद के अन्दर दावा कर सकता है जो तीन वर्ष से ज्यादाकी उसे मिली है ।
१८३
( २ ) जब किसी अयोग्यतामें नालिशका हक़ पैदा हुआ और उस raat मियाद अयोग्यता खतम होनेसे पहिले चली गई हो तो उसे अयोग्यता ख़तम होने की तारीख से तीन सालकी मुद्दत और मिलेगी अगर वह मियादजो चली गई है तीन वर्ष की या तीन वर्षसे ज्यादाकी हो ।
( ३ ) जब किसी अयोग्यता के बीचमें किसी नालिशका हक़ पैदा होगया हो और उसकी मियाद तीन वर्षसे कम, क़ानूनमें रखी गई हो तो अयोग्यता ख़तम होने की तारीख से उसे उतनीही मियाद मिलेगी जो उस कामके लिये क़ानूनमें नियत की गई थी। यानी उसे तीन वर्षकी मियाद नहीं मिलेगी ।
दफा ३८२ . अगर अज्ञानमुद्दई (वादी ) दौरान मुक़द्दमें में मरजाय
I
इण्डियन लीमीटेशन एक्ट नं० ६ सन् १६०८ ई० की दफा १७६ के अनुसार ६ महीने के अन्दर मुद्दई या अपीलांटके स्थान में किसीको फरीक बनजाना चाहिये | देखो दफाका शब्दार्थ –“जब दौरान मुक़द्दमे में, मुद्दई या अपीलांट (जिसने अपीलकी है ) मरजाय तो उसकी जगहपर दूसरा क़ानूनी अधिकार रखनेवाला आदमी जो उस मरे हुए की जगहपर अदालत में हाज़िर होकर मुकद्दमे की पैरवी कर सके, उसे ६ महीने के अन्दर फरीक़ बन जाना चाहिये और यह मियाद उस तारीख से शुरू होगी जब वह आदमी मरा है." दफा ३८३ अगर अज्ञान मुद्दालेह ( प्रतिवादी ) दौरान मुक़द्दमें में
मरजाय
इण्डियन लिमीटेशन ऐक्ट नं० ६ सन् १९०८ ई० की दफा १७७ के अनुसार ६ मासके अन्दर मुद्दालेह या रिस्पान्डेन्ट बन जाना चाहिये । दफाका शब्दार्थ देखो -
"जब दौरान मुक़द्दमेमें प्रतिवादी या रिस्पान्डेन्ट ( जिसके विरुद्ध अपील किया गया हो ) मरजाय तो उसकी जगहपर दूसरा क़ानूनी अधिकार रखनेवाला आदमी जो अदालतमें हाज़िर होकर पैरवी करसके उसे ६ महीने के अन्दर फरीक़ बन जाना चाहिये और यह मियाद उस आदमी के मरने के दिन से शुरू होगी" ।
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Gardian and Wards
Kot No. BOR1800. कानून वली व नाबालिगान
ऐक्ट नम्बर ९सन १८९० ई०
गर्वनरजनरल हिन्द तथा उनकी कोंसिलद्वारापास कियाहुआ (ता०२१ मार्च सन१८९०ई०को गवर्नरजनरल महोदय द्वारा स्वीकृत)
यह ऐक्ट वली तथा नाबालिग सम्बन्धी कानूनको एकत्रित तथा संशोपित करने के लिये बनाया गया है।
चूंकि वली और नाबालिग सम्बन्धी कानूनको संग्रहीत तथा संशोधित करनेकी परम आवश्यकता है अतः नीचे लिखा हुआ कानून बनाया जाताहै।
पहला प्रकरण
प्रारम्भिक
दफा १ नाम, विस्तार तथा प्रारम्भ .
(१) यह ऐक्ट (The Guardian and wards act 1890 ) कानून वली व नाबालिग्रान १८६० कहलायेगा।
(२) यह ऐक्ट समस्त ब्रिटिश भारतमें लागू होगा जिसमें ब्रिटिश बलोचिस्तान भी शामिल है। और
(३) यह ऐक्ट पहिली जुलाई सन् १८६० ई० से कार्यान्वित होगा।
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गा०दफा १-४] गार्जियन एण्ड वाईस
३८५ -दफा २ रद्दोबदल
(१) उसदिन तथा उसके पश्चात् अर्थात् पहिली जुलाई सन् १८६०ई० . को तथा उसके बादसे वह सब कानून जिनका उल्लेख सूची ( Schedule) में है उस हद्दतक रद्द होजावेंगे जिस हद्द तक कि उसी सूचीके तीसरे कालम में दिया हुआ है।
(२) लेकिन उन कानूनोंके अनुसार जिनका ज़िक्र ऊपर दफा २(१) में है जो कार्रवाइयां हो चुकी हैं या जो सार्टीफिकेट दिये जाचुके हैं या जो गुज़ारे बंध चुके हैं या जो बार पैदा किये जा चुके हैं तथा जो प्रार्थना पत्र दिये जा चके हैं या जो नियक्तियां की जा चकी हैं या जो अज्ञायें दी जा चुकी हैं या जो नियम बन चुके हैं वह सब जहांतक होगा जैसे के तैसे बने रहेंगे अर्थात् वह सब बातें इस नये एक्टके अनुसार की हुई समझी जायेगी।
(३) जिस क़ानून या दस्तावेज़में इस एक्ट द्वारा रद्द किये हुये कानूनों का हवाला है उसके लिये जहांतक होगा यह समझा जावेगा कि उस कानून या दस्तावेज़ में इस एक्ट या इस एक्टके उस भागका हवाला है जोकि उससे मिलता जुलता होगा। -दफा ३ कोर्ट आफ वार्ड्स तथा हाईकोर्ट के अधिकारों
का संरक्षण भारत सरकार अथवा प्रान्तिक सरकार द्वारा जो कानून कोर्ट आफवाईके विषय में इस एक्ट के बननेसे पहिले या उसके बाद बनाये गये हैं उनका ध्यान रखते हुये यह एक्ट समझना चाहिये और इस एक्ट का कोई प्रभाव कोर्ट श्राफ वाईके अधिकारोंमें न पड़ेगा और न यह एक्ट उनके अधिकारों में किसी प्रकारका रद्दोबदल कर सकेगा । यह एक्ट ( The Statute 24, 25, Victoria Chapter 104 ) विक्टोरिया स्टैच्यूट द्वारा स्थापित हाईकोर्टी को उनके अधिकारों से बञ्चित न कर सकेगा। -दफा ४ परिभाषाएं
___ इस एक्टमें जबतक कि कोई बात विषय या प्रसंगके विपरीति नपड़ती हो, निम्नलिखित शब्दोंका अर्थ इस प्रकार समझना चाहिये--
(१) नाबालिग़ ( Minor ) से अभिप्राय उस व्यक्तिका है जो इन्डियन मजोरिटी एक्ट ( Indian Majority Act ) के अनुसार बालिग ( Major ) न हुआ हो।
(२) वली (Guardian) से अभिप्राय उस व्यक्तिका है जो नाबालिग ( Minor ) की ज़ात या जायदाद या दोनोंकी देखभाल करता हो।
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नाबालिगी और वलायत
[ feat प्रकरण
(३) वार्ड (Ward ) से अभिप्राय उस नाबालिग़का है जिसकी जात या जायदाद या दोनोंका कोई वली (Guardian ) हो ।
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( ४ ) अदालत जिला ( District Court ) का अभिप्राय उसी अदालत जिला से है जिसकी परिभाषा जाबता दीवानीमें दी हुई है । और यह शब्द ( अदालत ज़िला ) हाईकोर्ट के लिये भी उस समय लागू है जिस समय वह अपने दीवान के साधारण मूल अधिकारों का प्रयोग करे ।
( ५ ) अदालत (The Court) का अर्थ इन दोनों अदालतोंसे है:(ए) वह जिला अदालत जिसे इस एक्टके अनुसार दी हुई दरवस्त को लेने व सुनने का अधिकार हो तथा उसके अनुसार वली नियुक्त या घोषित करने का अधिकार हो । (बी) जबकि किसी दरख्वास्तके अनुसार वली नियुक्त या घोषित कर दिया गया हो तो :
१ -- वह अदालत या उस हाकिमकी अदालत जिसने वली नियुक्त या घोषित किया हो या जिसके द्वारा वली का नियुक्त होना या घोषित किया जाना इस एक्टके अनुसार समझा जावे,
२ -- वह अदालत ज़िला जिसकी अधिकार सीमामें नाबालिग अधिकार रहता हो जब कि नाबालिग़की ज़ात ( Person) सम्बन्धी कोई कार्य हो ।
(सी) वह अदालत जिसके पास दफा ४ (ए) कार्रवाई भेज दी गई हो ।
अनुसार कोई
(६) कलक्टर ( Collector ) से अभिप्राय जिलेके उस आला अफसरसे है जिसके प्रबन्धमें जिलेके सब माल का काम हो और कलक्टर का अभिप्राय उस व्यक्तिसेभी है जिसे प्रान्तिक सरकार इस एक्टके अनुसार काम करनेके लिये किसी खास जगह या किसी खास क़िस्मके लोगोंके लिये सरकारी गज़ट द्वारा कलक्टर नियुक्त करदे ।
(७) योरोपियन ब्रिटिश रिआया ( European British Subject ) से अभिप्राय उस योरोपियन ब्रिटिश रिश्रायासे है जिसकी परिभाषा सन् १८८२ ई०के जाबता फौजदारीमें दी हुई है और वह ईसाई (Christian ) भी जो किसी योरोपियनसे पैदा हो योरोपियन ब्रिटिश रिआया समझा जावेगा ।
( ८ ) ( Prescribed ) निर्धारित का अभिप्राय उन बातोंसे है जो उन नियमों द्वारा निर्धारितकी गई हों जिन्हें हाईकोर्टने इस एक्टके अनुसार बनाया है ।
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गा०दफा ४ ए-५]
गार्जियन एण्ड वाईस
-दफा ४ (ए) मातहत अदालतोंको अधिकार प्रदान करने
तथा उनके पास कार्रवाइयोंके भेजनेका वर्णन (१) हाईकोर्ट को अधिकार है कि वह अदालत ज़िलाकी मातहत किसीभी दीवानी अदालतको जिसे दीवानीके मूल अधिकार प्राप्त हों इस दफाके अनुसार भेजी हुई इस एक्टकी कार्रवाइयां करनेका अख्तियारदे सकता है या वह अदालत ज़िलाको इस प्रकारका अख्तियार देसकता है कि वह अदालत ज़िला अपने मातहत दीवानी अदालतको ऐसी कार्रवाइयां कर सकनेका हक देसके।
(२) अदालत ज़िलाके जजको अधिकार है कि वह अपनी अदालत से इस ऐक्ट के अनुसार होने वाली कार्रवाईको हर समय अपनी उस मातहत अदालतके पास भेज सकता है जिसे इस दफाकी पहिली उप दफा [४ ए (१)] के अनुसार अधिकार अधिकार प्राप्त हों।
(३) अगर इस ऐक्टके अनुसार कोई कार्रवाई ज़िलेकी किसी मातहत अदालतमें होरही हो तो अदालत ज़िलाको अधिकार है कि वह उस कार्रवाईको अपनी अदालतमें लेसके या उसे किसी दूसरी मातहत अदालत में मेजसके जिसे दफा [४५ (१)] के अनुसार प्राप्त हो।
(४) जब कि वली नियुक्त या घोषित कर दिये जानेके पश्चात् इस ऐक्टकी कोई कार्रवाई किसी दूसरी अदालतमें भेजी गई हो तो अदालत ज़िलाको अधिकार होगा कि वह अपनी लिखित आशा द्वारा उस दूसरी अदालत को वही अधिकार देदेवे जो वली नियुक्त करने वाली अदालतको प्राप्त थे अर्थात् वली सब कामोंके लिये इस दूसरी अदालत द्वारा नियुक्त या घोषित किया हुआ समझा जावेगा।
दूसरा प्रकरण वलीकी नियुक्ति तथा उनकी घोषणा
-दफा ५ योरोपियन ब्रिटिश रिआयामें माता पिताके अधिकार
(१) अगर नाबालिग योरोपियन ब्रिटिश रिआया है तो-- _(प) उसके पिताको, या
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३८८
नाबालिगी और वलायत
[ पांचवां प्रकरण
(बी) उसकी माताको, जबकि उसका पिता मरचुका हो या काम करनेके योग्य न हो-
अधिकार होगा कि वह वसीयतनामा द्वारा या किसी दूसरी दस्तावेज़ द्वारा नाबालिग़की जात व जायदादका एकही वली या दोनोंके लिये अलग अलग वली नियुक्तकर सके परन्तु यह अधिकार नियुक्त करने वाले पिता या माताकी मृत्यु के पश्चातूही कार्यरूपमें परिणत किया जासकेगा ।
(२) यदि इस दफा के पहिलेभाग अर्थात् दफा ५ ( १ ) के आधार पर माता व पिता दोनोंने वली नियुक्त कर दिये हों तो इस प्रकार नियुक्त किये हुए दोनों वली साथ साथ काम करेंगे ।
- दफा ६ दूसरे लोगों के मामलोंमें अधिकारोंका संरक्षण
जो नाबालिग योरोपियन ब्रिटिश रिश्राया नहीं हैं और उनकी जाति संज्ञा के अनुसार क़ानूनन् उनकी जात व जायदादके वली नियुक्त किये जा सकते हैं तो यह ऐक्ट वली नियुक्त करने वाले इस प्रकारके अधिकारमें किसी प्रकार बाधक नहीं होगा ।
- दफा ७ वलीकी नियुक्ति करनेके लिये अदालत के अधिकार ( १ ) जबकि अदालतको विश्वास होजावेकि नाबालिएकी भलाई के लिये-
(ए) उसकी जात या जायदाद या दोनोंके लिये वली नियुक्त किया
जाना; या
(बी) किसी व्यक्तिका वली घोषितकर दिया जाना उचित है तो अदालत इसी के अनुसार हुक्म देसकती है अर्थात् नाबालिग की जात या जायदाद या दोनोंके लिये वली नियुक्त या घोषितकर सकती है ।
( २ ) यदि कोई व्यक्ति वसीयतनामा या किसी दस्तावेज़के द्वारा वली नियुक्त नहीं हुआ है अथवा किसी अदालतने उसको वली नियुक्त या घोषित नहीं किया है तो ऐसा वली इस दफाके हुक्मके अनुसार वलायतसे हटाया हुआ समझा जावेगा ।
(३) यदि वसीयतनामा या किसी दूसरी दस्तावेज़ द्वारा कोई वली नियुक्त हुआ है अथवा अदालतने उसे वली नियुक्त या घोषित किया है तो ऐसे वलीके स्थानपर कोई दूसरा व्यक्ति उस समय तक वली नियुक्त या घोषित नहीं किया जावेगा जबतक कि वह वली इस ऐक्टके अनुसार अपने अधिकारोंसे वंचित नहींहो जावेगा ।
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गा०दफा ६-१० ]
गार्जियन एण्ड वाईस
- दफा ८ वह लोग जिनको दरख्वास्त देनेका अधिकार है
पिछली दफा अर्थात् दफा ७ के अनुसार उस समय तक हुक्म न दिया जावेगा जब तक कि नीचे दिये हुए लोगों में से किसी का निवेदन पत्र न आजावे:---
(ए) वह व्यक्ति जो नाबालिग़का वली बनना चाहता है या जो अपनेको उसका वली घोषित कराना चाहता है;
(बी) नाबालिग़का कोई सम्बन्धी या मित्रः
(सी) उस जिले या उस जगहका कलक्टर जहां नाबालिग अधिकतर रहता हो या जहां उसकी जायदाद हो;
(डी) वह कलक्टर जिसे नाबालिग के सम्बन्धियोंके लोगों पर अधिकारहो ।
- दफा ९ वह अदालतें जो दरख्वास्तें लेंसकती हैं
(१) नाबालिग़की जातका वली बननेके लिये दरख्वास्त उस अदालत ज़िला (District Court) में दी जावेगी जिसके अधिकार सीमामें नाबालिग अधिकतर रहता हो ।
(२) नाबालिग्रकी जायदादका वली बननेके लिये दरख्वास्त या तो उस अदालत ज़िला ( District Court) में दीजासकती है जिसके अधिकार सीमा नाबालिग अधिकार रहता हो या जिसके अधिकार सीमामें उस नाबालिग की जायदाद हो ।
( ३ ) यदि नाबालिग़की जायदादका वली बननेके लिये किसी ऐसी अदालत ज़िला (District Court) में दरख्वास्त दीजावे जिसके अधिकार सीमा नाबालिग अधिकतर न रहता हो और उस अदालतकी रायमें वह दरख्वास्त उस ज़िला अदालत द्वारा जिसकी सीमामें नाबालिग अधिकतर निवास करता हो भलीभांति सुनी जासकती हो तो उस अदालतको अख्तियार है कि ऐसी दरख्वास्तको लौटा देवे ।
- दफा १० दरख्वास्त का तरीका ( फार्म )
( १ ) कलक्टर द्वारादी जाने वाली दरख्वास्तोंको छोड़कर और जो दरख्वास्तें वली बननेके लिये दीजावें वह प्रार्थना पत्रके रूपमें होना चाहिये तथा उनपर दस्तखत व तस्दीक ठीक उसी प्रकार होना चाहिये जिस प्रकार जाबता दीवानेके अनुसार अर्जीदावे पर दस्तखत व तस्दीक होती है तथा उन दरख्वास्तों में जहांतक ठीक ठीक मालूम होसके नीचे दीहुई बातोंका उल्लेख होना चाहिये:
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नाबालिगी और घलायत
[पांचा प्रकरण
(ए) नाबालिराका नाम, जाति, धर्म, जन्मतिथि तथा वह स्थान
जहां नाबालिग अधिकतर निवास करता हो (बी) नाबालिगा ( Female Minor ) की दरख्वास्तमें यह
लिखना चाहिये कि वह विवाहिता है या नहीं। अगर वह विवाहिता है तो उसके पतिका नाम और उसकी अवस्थादी
जाना चाहिये। (सी) नाबालिगके पास अगर कोई जायदाद है तो वह किस किस्म
की है कहांपर है और उसकी कीमतका क्या अन्दाज़ा है। (डी) नाबालिग जिसके पास रहताहो या नाबालिगकी जायदाद
जिसके कब्जे में हो उसका नाम व पता; (ई) नाबालिग के समीपी सम्बन्धियोंके नाम व पते; (एफ़) आया किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा जिसे कानूनन् वली नियुक्त
करनेका हक है या जो अपनेको वली नियुक्त करनेका कानूनन् हक़दार समझता है कोई वली ज़ात या जायदाद या
दोनोंका नियुक्त किया गया है या नहीं, (जी) यह कि कभी कोई दरख्वास्त नाबालिराकी ज़ात या जायदाद
या दोनोंका वली नियुक्त करनेके लिये इस अदालतमें या किसी दूसरी अदालतमें दीगई है या नहीं अगर दीगई है तो
कब व किस अदालतमें तथा उसका क्या परिणाम हुआ था। (एच) यह कि दरख्वास्त नाबालिगकी ज़ात या जायदाद या दोनों
का वली बनाये जाने या घोषित किये जानेके लिये है । (आई) यदि वली बनाये जानेकी दरख्वास्त है तो वली बनने वाले
व्यक्तिकी योग्यता: (जे) यदि वली घोषित किये जानेकी दरख्वास्त है तो यह लिखना
चाहिये कि वली किस आधार पर इस प्रकारकी घोषणा
चाहता है। (के) दरख्वास्त दिये जानेका कारण अर्थात् दरख्वास्त क्यों
दीगई है। (एल) यदि अन्य कोई बातें आवश्यक समझी जावे तो उनका
ब्योरा तथा वह बाते जिनका उल्लेख किया जाना दरख्वास्तके
लिये आवश्यक है। (२) यदि वली बनने की दरख्वास्त कलक्टर द्वारा दीजावे तो यह परश्वास्त अदालतके नामसे बतौर चिट्ठीके भेजी जावेगी या किसी अन्य ढंग
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गादफा ११]
. गार्जियन एण्ड वाईस
से भेजी जावेगी जिसमें कि सुविधाहो और उस दरख्वास्तमें जहांतक होसके उनसब बातोंका उल्लेख होना चाहिये जो इस दफाकी पहिली उप दफा १
में दीगई है।
(३) दरख्वास्तके साथमें यह घोषणा अनिवार्य है कि वली नियुक्त किये जाने वाला व्यक्ति सहर्ष काम करनेको प्रस्तुत है और उक्त घोषणा या उस वलीके हस्ताक्षर तथा कमसे कम दो व्यक्तियोंकी साक्षी भी होना अनिवार्य है। -दफा ११ दरख्वास्त लेलेने पर कार्रवाई
(१) अगर अदालतको विश्वास होजावे कि दरख्वास्त सुनी जाना चाहिये तो वह उस दरख्वास्तको सुननेके लिये कोई तारीख निश्चित् करेगी और नीचे दिये हुए ढंगपर दरख्वास्त तथा निश्चितकी हुई तारीखकी सूचना प्रकाशित करेगीः-- (ए) नीचे लिखे हुए व्यक्तियोंपर ज़ाबतादीवानीके अनुसार नोटिस
तामील किये जावेंगे:१--नाबालिग्रके माता व पिता यदि वह ब्रिटिश भारत में
रहते हों। २--वह व्यक्ति जिसके साथ नाबालिगका रहना या जिसके
अधिकारमें नाबालिगकी जायदादका होना दरख्वास्त या चिट्ठीमें दिखलाया गया हो। ३-अगर वली बनने वाले व्यकिने स्वयं दरख्वास्त नहीं दी है
तो वह व्यक्ति जिसके वली बनाये जानेके लिये दरख्वास्त
या चिट्ठी दी गई हो। ४--अन्य कोई व्यक्ति जिसको अदालतकी रायमें दरवास्तकी
सूचना विशेषरूपसे दी जाना आवश्यक है। (बी) नोटिस न्यायालय तथा नाबालिग़के रहनेके स्थानमें लगाये
जाना चाहिये और हाईकोर्ट के इस एक्ट सम्बन्धी बनाये हुये नियमों के अनुसार अदालत जिसे और ढङ्गसे सूचना
प्रकाशित किया चाहे कर सकती है। (२) अगर दफा १० उपदफा (१) के अनुसार दी हुई दरख्वास्त में नाबालिग़ की जायदादमें कोई ऐसी भूमि दिखलाई गईहो जिसकी देख रेख का भार कोर्ट आफ वाईस ले सकता है तो प्रान्तिक सरकारको अधिकार है कि वह कोई इस प्रकारकी खास या श्राम श्राज्ञा निकाल सकती है कि ऐसे अवसरों पर अदालतको चाहिये कि वह नोटिस उस कलक्टर के नाम
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३१२
नाबालिगी और वलायत
[पांचवां प्रकरण
निकाले जिसके जिलेमें नाबालिग अधिकतर रहता हो और उन कलक्टरों के नाम भी निकाले जिनके ज़िलोंमें नाबालिग की जायदादका कोई भी हिस्सा पड़ता हो । और फिर वह कलक्टर भी जिस प्रकार चाहे सूचना प्रकाशितकर सकता है।
(३) दफा ११की उपदफा (२.) के अनुसार सूचना प्रकाशित करनेके लिये अदालत या कलक्टर कोई खर्च नहीं लेवेंगे। -दफा १२ नाबालिगको बीचमें पेश करनेका हुक्म तथा नाबा
लिगकी जात व जायदाद बचानेका बीचमें हुक्म (१) अदालत को अधिकारहै किवह ऐसे व्यक्तिको जिसके अधिकार में नाबालिग्न हो इस प्रकारका हुक्म दे सकती है कि वह व्यक्ति नाबालिग को किसी खास व्यक्तिके सामने किसी नियत समय व स्थान पर पेश करे और अदालतको यहभी अधिकार है कि वह अस्थाई रूपसे नाबालिग की जात व जायदादकी सुपुर्दगी किसी भी व्यक्ति को जिसे वह उपयुक्त समझे कर सकती है।
(२) जो नाबालिगा ( Female Minor ) सर्व साधरणमें निकलनेके लिये वाधित नहीं की जा सकती है वह देशके रीति व रिवाजके अनुसार पेशकी जावेगी और उनके लिये पहिली उपदफा अर्थात् दफा १२ (१) इसी प्रकार बर्ती जावेगी।
(३) इस दफाके अनुसार-- (ए) अदालतको यह अधिकार न होगा कि वह नाबालिराको
किसी ऐसे व्यक्तिकी देख रेखमें दे देवे जिसने नाबालिग़ा का पति होनेकी हैसियतसे वली बनाये जानेकी दरख्वास्त दी है नाबालिगा ऐसे व्यक्ति की देख रेखमें केवल ऐसेही दशामें रक्खी जासकेगी जबकि वह अपने माता पिता की
अनुमति से उसकी देख रेखमें पहिलेसे ही बनी होवे, या (बी) न किसी ऐसे व्यक्तिको जिसकी देख रेखमें अस्थाई रूपसे
नाबालिराकी जायदाद रक्खी गई है यह अधिकार होगा कि वह गैरकानूनी तरीकेसे जायदादका क़बज़ा उस व्यक्तिसे ले
सके जिसके क़ब्ज़ेमें जायदाद पहिलेसे बनी है। --दफा १३ हुक्म देनेसे पहिले शहादतका सुनना . नियत तिथि पर या उसके पश्चात् जितनी जल्दी हो सके अदालत उस दरख्वास्त के पक्ष विपक्षकी साक्षी को सुनेगी।
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गाइफा १२-१५]
गार्जियन एण्ड वाई
---दफा १४ एकसाथ कई अदालतोंमें कार्रवाईका होना
(१) यदि वली नियुक्त या घोषित किये जानेकी कार्रवाई एक से भधिक अदालतोंमें कीगई हो और किसी अदालत को विदित होजावे कि कार्रवाई दूसरी अदालत में भी कीगई है तो वह अदालत अपने सामने की कार्रवाई को रोक देगी।
(२) यदि ऐसी दोनों या सब अदालतें जिनमें वली बननेकी कारवई एक साथ चल रही है एकही हाईकोर्ट की मातहत हों तो वह अदालतें ऐसे मामलेकी रिपोर्ट उस हाईकोर्टको भेज देंगी और उस सूरतमें हाईकोर्ट यह निश्चित करेगा कि क्ली नियुक्त या घोषित किये जानेकी कार्रवाई किस अदालतमें की जावेगी।
(३) यदि दफाकी उपदफा (१) के अनुसार कार्रवाई किसी दूसरी सूरतमें रोकी गईहो अर्थात् वह अदालते जिनमें कार्रवाई एक साथ चल रही है एकही हाईकोर्टकी मातहत नहीं हैं तो वह अदालतें प्रान्तिक सरकार द्वारा भारत सरकार के पास ऐसे मामलेकी रिपोर्ट मेजेंगी और भारत सरकार (Governor General in Council) अर्थात् गवर्नरजनरल सपरिषद यह निश्चित करेगा कि नाबालिग़के वली नियुक्त या घोषित किये जानेकी कारीपाई किस अदालत में की जावेगी। -दफा १५ एकसाथ एकसे अधिक वलियोंकोनियुक्त या घोषणा
(१) यदि जातिगत कानूनके अनुसार कानूनन् नाबालिग़की ज़ात व जायदाद के दो या दो से अधिक संयुक्तवली नियुक्त किये जा सकते हैं तो अदालत जबकि वह उचित समझे दो या दोसे अधिक ऐसे वली नियुक्त या घोषित कर सकती है।
(२) यदि नावालिग़ यूरोपियन ब्रिटिश रिआया है और उसके पिता ने अपनी मृत्युके पश्चात् वसीयतनामा या किसी दूसरी दस्तावेज़ द्वारा कोई चली अपने नाबालिग बच्चे के लिये नियुक्त कर दिया है तो ऐसी सूरतमें अदालत को अधिकार है कि वह नाबालिग की माता कोभी संयुक्त वली नियुक्त कर सके अर्थात् पिता द्वारा नियुक्त किये हुये बली के साथ माताको भी वली नियुक्त कर देवे।
(३) यदि नाबालिग यूरोपियन ब्रिटिश रिश्राया है और उसकी माता ने जीवत पिताके अयोग्य होने के कारण अपनी मृत्युके पश्चात् वसीयतनामा या किसी दूसरी दस्तावेज़ द्वारा नाबालिग का कोई वली नियुक्त कर दियाहै तो ऐसी दशा में अदालतको अधिकार है कि वह पिताको यदि वह योग्य हो
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नाबालिंगी और वलायत
[पांचवां प्रकरण
गया हो अकेले ही नाबालिग़ का वली बना सके या उसको माता द्वारा नियुक्त किये हुये वलीके साथ संयुक्त वली बनासके ।
(४) नाबालिग़ की ज़ात व जायदाद के लिये भिन्न २ वली बनाये या घोषित किये जा सकते हैं ।
(५) यदि नाबालिग की भिन्न २ जायदादें हों और अदालत यदि मुनासिब समझे तो उन जायदादोंके लिये भिन्न २ वली नियुक्त या घोषित कर सकती है। -दफा १६ अदालतकी आधिकार सीमासे बाहर जायदादके
क्लीकी नियुक्ति या घोषणा यदि अदालत अपने अधिकार सीमासे बाहर की जायदाद के लिये वली नियुक्त या घोषित करे तो वह अदालत भी जिसके अधिकार सीमा में जायदाद होगी उस वलीको स्वीकार करेगी तथा नियुक्त करने वाली अदालत के हुक्म को मानेगी जबकि उस अदालतको पहिली अदालतके हुक्मकी ज़ाबतेसे ली हुई नकल दिखलाई जावेगी। -दफा १७ वहबातें जिन्हें अदालतको वली नियुक्त करते
समय देखना चाहिये (१) नाबालिराका वली नियुक्त या घोषित करते समय यदि अदालत को उसकी भलाई के लिये उस अवसर पर कोई बात उचित प्रतीत हो तो वह उसको उस हद तक कर सकेगी जिस हद तक इस दफामें दिया हुआ है परन्तु उसको ऐसा करते समय उस कानूनका ध्यान रखना चाहिये जो कि नाबालिग की जाति के लोगोंके लिये लागू है।
(२) अदालतको नाबालिग की भलाई के लिये नाबालिगकी अवस्था संज्ञा तथा धर्म का ध्यान रखना चाहिये। वली बनने वाले व्यक्तिका आचरण व योग्यता तथा नाबालिरासे निकट सम्बन्धका भी ध्यान अदालतको रखना उचित है। मृत माता पिताकी इच्छाका भी ध्यान रखना चाहिये यदि कुछ रही हो और यदि वलीका नाबालिरा या उसकी जायदादसे कोई सम्बन्ध पहिले रहा हो या अब हो तो उसका भी ध्यान अदालत रक्खे।।
(३) अदालतको भी अधिकार है कि यदि नाबालिरा काफ़ी सयाना हो तो उसकी भी इच्छाका ध्यान वली चुनने में रख सकती है।
(४) अगर नाबालिग यूरोपियन ब्रिटिश रिाया है और उसके माता पिता दोनों उसकी जातके वली बनना चाहते हैं तो ऐसी सूरतमें उन दोनोंमें से किसीको विशेष रूपसे चली बननेका अधिकार नहीं है।
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मा०दफा १६-१६]
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३१५
___ उस सूरतमें जबकि और सब बातें एक सी हो परन्तु नाबालिग छोटा हो या नाबालिगा ( Female minor ) के वली बननेका प्रश्न हो तो माता को वली बनाना चाहिये और जबकि नाबालिगकी अवस्था विद्याध्ययनके योग्य होगई हो या उसके लिये व्यवसायमें लगने व काम सीखनेका समय हो तो पिताको वली बनाना चाहिये।
(५) अदालत किसी भी व्यक्तिको उसकी इच्छाके विरुद्ध न वली बनायेगी न घोषित ही करेगी। --दफा १८ कलक्टरका अपने पदके कारण वली नियुक्त या
घोषित किया जाना जबकि कोई कलक्टर अपने पद ही के कारण किसी नाबालिगकी ज़ात या जायदाद या दोनोंका वली नियुक्त अथवा घोषित किया जावे तो इस प्रकारकी नियुक्ति या घोषणासे उस व्यक्तिका नाबालिराकी ज़ात या जायदाद या दोनोंका वली होना समझा जावेगा जो कि उस समय कलक्टरीके पद पर होगा। -दफा १९ अदालतको कुछ मामलोंमें वली न नियुक्त
करना चाहिये इस प्रकरणके अनुसार नाबालिगकी जायदादका वली नियुक्त या घोषित करनेका अधिकार अदालतको उस दशामें न होगा जबकि नाबालिगकी जायदाद कोर्ट आफ़ वार्ड्सकी देख रेख में होगी अथवा अदालतको नीचे लिखी हुई दशामें नाबालिगकी ज़ातका वली नियुक्त या घोषित करनेका अधिकार न होगाः-- (ए) जबकि नाबालिगा एक विवाहिता स्त्री है और उसका पति
अदालत की रायमें उसकी जातका वली बनाये जानेके लिये
अयोग्य नहीं है, या (बी) जबकि नाबालिगका पिता जीवित है और वह अदालतकी
रायमें नाबालिगकी जातका वली बननेके लिये अयोग्य नहीं है परन्तु ऐसी दशामें इस एक्टमें दिये हुये यूरोपियन
ब्रिटिश रिआया सम्बन्धी नियमोंका ध्यान रखना चाहिये, या (सी) जबकि नाबालिगकी जायदाद कोर्ट आफ वाईसकी देख रेख
में है और वह कोर्ट आफ वार्ड्स नाबालिग्न की जातका वली नियुक्त कर सकता है।
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३६६
नाबालिगी और वलायत
[पांचवां प्रकरण
तीसरा प्रकरण वलीक कर्त्तव्य, उसके अधिकार तथा उसकी जिम्मेदारियां
-दफा २० वलीका नाबालिगके साथ विश्वासनीय सम्बन्ध
(१) वलीका सम्बन्ध अपने नाबालिगके साथ एक विश्वासनीय सम्बन्ध है इस लिये उसको अपने वलीके पदसे कोई लाभ न उठाना चाहिये वह उतना लाभ अवश्य उठा सकता है जो उसे वसीयतनामे या किसी दूसरी दस्तावेज़के ज़रिये जिसके द्वारा वह वली नियुक्त किया गया है प्राप्त हों।
(२) यदि वली अपने नाबालिगकी जायदादको मोल लेवे या नाबालिरा अपनी नाबालिगी समाप्त करनेपर या उसके बाद शीघ्र ही अपने वलीकी जायदाद खरीद करे तो ऐसी दशाओंमें वलीका नाबालिग़के साथ विश्वासनीय सम्बन्ध समझा जावेगा और ऊपर कहे हुए खरीद फरोख्तका होना भी इसी सम्बन्धके कारण माना जावेगा और अधिकतर वह सब सौदे इसी सम्बन्धके कारण समझे जायेंगे जो नाबालिग़की अवधिमें या उसके समीप वली और नाबालिग़के बीचमें होंगे। -दफा २१ नाबालिगोंका वली बननेके लिये अधिकार
नाबालिग़को केवल अपनी ही स्त्री या बच्चेका घली बननेका अधिकार है वह किसी दूसरे नाबालिग़का वली नहीं बन सकता है। यदि कोई नाबा. लिग़ अविभक्त हिन्दू परिवारका प्रवन्धकर्ता है तो उसे अपने परिवारके किसी नाबालिग व्यक्तिकी स्त्री तथा बच्चेके वली बननेका अधिकार होगा। -दफा २२ वलीका भत्ता
(१) यदि वली अदालत द्वारा नियुक्त या घोषित किया गया हो तो वह उस भत्तेके पानेका अधिकारी होगा जो अदालत उसके कामके लिये दिलाना उचित समझे।
, (२) जबकि कोई सरकारी अफसर अपने ओहदेके कारण वली . नियुक्त या घोषित किया जावे तो यह भत्ता नाबालिराकी जायदादसे सरकार
को अदा किया जावेगा, जैसाकि प्रान्तिक सरकार साधारण या विशेष साक्षा द्वारा निर्धारित करेगी।
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गादफा २०-२६]
गार्जियन एण्ड वाईस
३६७
-दफा २३ वलीकी हैसियतसे कलक्टरके अधिकार
यदि कोई कलक्टर अदालत द्वारा किसी नाबालिग़की ज़ात या जायदाद या दोनोंका वली नियुक्त या घोषित किया जावे तो वह कलक्टर नाबालिरा की वलायत सम्बन्धी सभी बातोंमें प्रांतिक सरकार या उस व्यक्तिकी अधीनता में रहेगा जिसे सरकार सरकारी गज़ट द्वारा उस सम्बन्धमें नियुक्त करे। -दफा २४ जातके वलीके कर्त्तव्य
नाबालिग़की देख रेखका भार नावालिराकी ज़ातके वलीपर है और उसको चाहिये कि वह नाबालिग़की परवरिश तन्दुरुती और तालीम का ध्यान रक्खे जो और उन बातोंका ध्यान रक्खे जो नाबालिग़के जातीय कानूनके अनुसार उचित हों। -दफा २५ नाबालिग्रको देखरेखमें रखनेके लिये वलीके
अधिकार (१) अगर नाबालिग अपनी ज़ातके वलीको छोड़ दे या उसकी देख रेखसेहटा दिया जावे और अगर अदालतकी रायमें नाबालिग़की भलाई के लिये उसका वलीकी देख रेखमें रहना उचित प्रतीत हो तो अदालत उसके वापिस जाने के लिये आज्ञा निकाल सकती है और ऐसी आज्ञाको कार्य रूपमें परिणित करने के लिये नाबालिग़ को गिरफ्तार करा कर वली की सुपुर्दगी में दे सकती है।
(२) नाबालिगको गिरफ्तार करनेके लिये भदालत उस अधिकारका प्रयोग कर सकती है जो सन १८९८ ई० के जाबता फौजदारीकी दफा १०० के अनुसार मजिस्ट्रेट दजा अव्वल को प्राप्त है।
(३) यदि नाबालिग़ अपने वलीकी इच्छाके विरुद्ध किसी ऐसे व्यक्ति के साथ रहे जो उसका वली नहीं है तो इतनी ही बातसे उसका सम्बन्ध बलीसे नहीं टूटेगा। -दफा २६ नाबालिग्रका अधिकार, सीमासे हटा दिया जाना
(१) यदि वलीकी नियुक्त या घोषणा अदालत द्वारा हुई हो तो वह चली नाबालिग को अदालतकी बिला आशाके अदालतकी अधिकार सीमासे नहीं हटा सकेगा। केवल उनहीं कामोंके लिये हटा सकता है जोकि निर्धारित हों परन्तु यह बात कलक्टर या उस वलीके लिये लागू नहीं है जो वसीयत नामा या किसी दूसरी दस्तावेज़ द्वारा नियुक्त किया गया हो।
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नाबालिग्री और वलायत
[ पांचवां प्रकरण
( २ ) इस दफा की पहिली उप दफा अर्थात् २६ ( १ ) में दी हुई श्राशा का अभिप्राय उस अदालतकी साधारण या विशेष आज्ञासे होगा और यह बात उस आशामें लिख दी जावेगी ।
नाबालिग की जायदाद के वली
३६८
- दफा २७ जायदादके वलीके कर्तव्य
नाबालिग़की जायदादके वलीको नाबालिग़की जायदादकी देखरेख उस योग्यताके साथ करना चाहिये जिस योग्यताके साथ एक साधारण योग्यता का व्यक्ति अपनी निजी जायदादकी देखरेखकर सकता है और इस प्रकरणके नियमों का ध्यान रखते हुए वह वली उन सब बातोंको भी करसकता है जो ठीक हों और जो नाबालिएकी जायदादको लेने बचाने या लाभ पहुँचाने के लिये उचित हों ।
- दफा २८ दस्तावेज़ी वलीके अधिकार
अगर कोई वली वसीयतनामा या किसी दूसरी दस्तावेज़ द्वारा नियुक्त किया गया हो तो उसके अधिकार नाबालिग की गैरमनकूला ( स्थाई सम्पत्ति ) को रेहन करने, बयकरने हिबाकरने या बदलने या और किसी प्रकारसे अलहदा करने में उननेही होंगे जितने उसे वसीयतनामा या दस्तावेज़ में दिये गये हैं । परन्तु यदि वह वली इस एक्ट द्वारा भी घोषितकर दिया गया है और घोषित करने वाली अदालतने उसको गैरमनकूला जायदादके लिये वह अधिकार भी दे दिये हैं जो वसीयतनामा या दस्तावेज़में नहीं हैं तो वली ऐसे तहरीरी हुक्म द्वारा नाबालिग की गैरमनकूला जायदादको भी अलहदा करने का अधिकारी होगा ।
-- दफा २६ अदालत द्वारा नियुक्त या घोषित किये हुए जायदाद के बली के अधिकार
कलक्टर या उस वलीको छोड़कर जो वसीयतनामा या किसी दूसरी दस्तावेज़ द्वारा वली नियुक्त किया गया है कोई भी जायदादका वलीजो अदालत द्वारा नियुक्त या घोषित किया गया है बिना अदालतकी आज्ञाके:(ए) अपने नाबालिग़की गैरमनकूला जायदाद का कोई हिस्सा रेहन, बय, या हिबाया और किसी तरहसे अलहदा नहीं करेगा;
-
(बी) नाबालिग़ की जायदादके किसी हिस्सेके लिये पांच साल से ज़्यादाका पट्टा नहीं लिख सकेगा और न नाबालिग़की
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गार्जियन एण्ड वाईस
नाबालिगी ख़तम होनेके बाद एक सालसे अधिक के लिये कोई पट्टा लिख सकेगा;
गा दफा २७ - ३१]
३६८
- दफा ३० दफा २८ या २९ के स्थिति कियेहुए इन्तक़ालात का ग्रलत होना
अगर वली ऊपर लिखी हुई दोनों दफाओं में से किसीके विरुद्ध नाबालिग़की ग़ैरमनकूला जायदाद अलहदा करे तो कोई भी व्यक्ति जिसको इस सौदासे हानि पहुँचतीहो सौदाको अस्वीकृतकर सकता है ।
दफा ३१ दफा २९ के अनुसार जायदादके इन्तक़ालकी आज्ञा देने का तरीका
( १ ) वलीको केवल श्रावश्यकता पड़ने पर या नाबालिग़का प्रत्यक्ष लाभ देखकरही अदालत द्वारा उन कार्योंके करनेकी स्वीकृति मिल सकेगी जिनका उल्लेख दफा २६ में है अर्थात् और किसी दशा में अदालत स्वीकृत न देगी।
(२) अदालत इस प्रकारकी स्वीकृत देते समय अपने हुक्ममें श्राव श्यकता अथवा नाबालिगको होनेवाले प्रत्यक्ष लाभका भी हवाला देवेगी और उसमें उस जायदाद का भी उल्लेख होगा जिसकेलिये स्वीकृतिदी जारही है और अगर अदालत उस स्वीकृति के साथ कोई शर्तें लगाना मुनासिब समझे तो उन शर्तों का भी उल्लेख हुक्ममें होगा। जज अदालत इस हुक्मको अपनेही हाथ से लिखेगा व तारीख डालकर अपने हस्ताक्षर भी उस हुक्मपर करेगा या यदि किसी कारणवस वह जज स्वयं हुक्मको न लिख सके तो बोलकर दूसरेसे लिखवा देगा और उसपर तारीख व हस्ताक्षर स्वयं करेगा ।
( ३ ) अदालत अपने हुक्ममें समझके अनुसार अन्य शर्तोंके साथ उन शर्तोंको भी रख सकती है:
(ए) कि बिना अदालतकी स्वीकृतिके कोई बयनामा पूरा न समझा जावेगा;
(बी) कि बयकी जानेवाली जायदादका ऐलान हाईकोर्टके बनाये हुए उन नियमों के अनुसार किया जावेगा जिन्हें अदालत मुनासिब समझे और ऐलानके बाद आमतौरपर अदालत के सामने या अदालत द्वारा इस काम के लिए नियुक्त किये हुए व्यक्ति के सामने बयकी जाने वाली जायदादका नीलाम किया जावेगा और बोली सबसे अधिक दाम लगाने वाले व्यक्तिके हक़ में समाप्त की जावेगी ।
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४००
नाबालिगी और वलायत
[ पांचवां प्रकरण
(सी) यह कि कोई पट्टा ज़र पेशगी लेकर नहीं किया जावेगा और केवल उतनेही वर्षोंके लिये व उसी किराया तथा नियमोंके अनुसार किया जावेगा जिसे अदालत निर्धारित करे । (डी) और अदालतकी इच्छाके अनुसार इस प्रकारके कार्यसे प्राप्त
हुआ कुल या जुज़ रुपया अदालतमें जमाकर दिया जावेगा जिससे अदालत उसे उचित रूपमें बय कर सके या और जिस प्रकार से चाहे काममें लगा सके ।
( ४ ) अदालतको अधिकार है कि वह दफा २६ में दिये हुए कार्योंके करनेकी आज्ञा वलीको देनेसे पहिले नाबालिके किसी सम्बन्धी या मित्रको भी जिसे वह मुनासिब समझे वलीकी दीहुई दरख्वास्तकी इत्तला देदेवे और ऐसी दशामें यदि कोई व्यक्ति दरख्वास्तके खिलाफ कुछ कहा चाहे तो उसे सुनकर हुक्म लिखेगी ।
- दफा ३२ अदालत द्वारा नियुक्त या घोषित किये हुए जायदाद के वलोके अधिकारोंमें परिवर्तन
जबकि वली अदालत द्वारा नियुक्त या घोषित किया गया हो और वह वली कलक्टर न हो तो अदालतको अधिकार है कि वह समय समय पर अपनी आज्ञायों द्वारा नाबालिग़की जायदादका प्रबन्ध करनेके हेतु वलीके अधिकारों को उस हद तक निर्धारित करता रहे या कम करता रहे या बढ़ाता रहे जिस हद तक कि नाबालिग़की भलाई के लिये उचित हो व वह उस क़ानून के विपरीत न पड़े जो नाबालिग़के लिये लागू है:
- दफा ३३ अदालत द्वारा नियुक्त या घोषित किये हुये वली के लिये इन्तजाम में अदालतकी राय लेने के अधिकार
(१) अदालत द्वारा नियुक्त या घोषित किया हुआ वली यदि चाहे तो अदालतको दरख्वास्त देकर नाबालिग्रकी जायदाद के प्रबन्धके लिये किसी उपस्थित प्रश्नपर अदालतकी राय, सलाह या आज्ञा लेसकता है ।
(२) यदि अदालत किसी प्रश्नको संक्षेपमें समाप्त किया चाहे तो वह दरख्वास्त से सम्बन्ध रखने वाले उन व्यक्तियोंके पास जिसे वह उचित समझे दरख्वास्तकी नक़ल भेजवा देगी और दरख्वास्तकी सुनवाई भी अगर चाहे तो ऐसे लोगों के सामने करेंगी ।
( ३ ) वह वली जो नेक नियतीके साथ दरख्वास्तमें सब बातें दिखला देगा और अदालतकी राय सलाह व हुक्मके अनुसार काम करेगा तो उसके
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गादफा ३२-३४]
गार्जियन एण्ड वाईस
लिये यह मान लिया जावेगाकि उसने दरख्वास्तमें दिये हुए कामके लिये अपनी ज़िम्मेदारी अदा करदी है। -दफा ३४ अदालत द्वारा नियुक्ति या घोषित किये हुए
जायदादके वलीकी पाबन्दियां कलक्टरको छोड़कर उन वलियोंको जो अदालत द्वारा नियुक्ति यो घोषित किये गये हैं नीचे लिखे अनुसार करना होगाः(ए) यदि जज चाहे तो वलीको नियत रूपमें व जहांतक होसके
नियत ढंगपर जजके हकमें एक दस्तावेज़ ज़मानती या बिला ज़मानती इस बातके लिये लिखना पड़ेगीकि वह नाबालिरा
की जायदादका ठीक हिसाब देता रहेगा; (बी) अगर अदालत चाहे तो वली नियुक्ति या घोषित किये जाने
के छः माहके अन्दर या उस समयके अन्दर जो अदालत नियत करे नाबालिगकी जायदाद और मनकूलाका हाल तथा उस समय तकके उन कुल रूपयों व मनकूला जायदादको हाल जो उसने नाबालिग्रके नामसे पाई हो तथा उन सब कोंका हाल जो नाबालिगको लेना या देना हो अदालतमें
दाखिल करना पड़ेगा; (सी) अगर अदालत चाहे तो वली समय समयपर, अदालतसे
नियत किये हुए समयमें व उसके निर्धारित किये हुए ढंगपर
हिसाब अदालतमें पेश करता रहे; (डी) अगर अदालत चाहे तो वली अदालत द्वारा नियत किये हुए
समयपर नाबालिगका वह रुपया जो उसके पास हिसाबके अनुसार बचाहो संब या उसका कोई नियतं हिस्सा अदालत में दाखिल करता रहे। नाबालिग़की जायदादकी आमदनीका वह हिस्साजो अदालत समय समय पर नियतकरे या अगर अदालत चाहे तो नाबालिगकी कुल जायदाद या उसका कुछ हिस्सा वली, नाबालिग या उसके आश्रित लोगोंके गुज़ारे तालीम या तरक्कीमें लगा सकता है।
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४०२
नाबालिगी और वलायत
[पांचवां प्रकरण
--दफा ३५ जबकि वलीसे दस्तावेज़ लिखाई गई हो उस
__ समय उसके खिलाफ मुकद्दमें
जब अदालत द्वारा नियुक्त या घोषित किये हुए वलीसे इस बातके लिये कोई दस्तावेज़ लिखाई गई हो कि वह नाबालिराकी जायदादकी श्रामदनी का हिसाब ठीक ठीक देगा और कोई दूसरा आदमी इस बातकी दरख्वास्त देवे कि हिसाब ठीक नहीं रक्खा गया है और अदालतको इस बातका विश्वास होजावे कि दस्तावेजमें दीई शौकी पाबन्दी नहीं की गई है तो अदालतको अधिकार है कि वह उस दस्तावेजको किसी योग्य पुरुषके नाम करदेगी जिसको अधिकार होगाकि वह दस्तावेज़के ज़रिये नालिश उसी प्रकार दायर कर सके जैसेकि दस्तावेज़ शुरू हीमें बजाय जजके उसीके हक़में लिखी गई हो और वह व्यक्ति नाबालिगके टूस्टीकी हैसियतसे उस दस्तावेज़ द्वारा वलीके किये हुए नुक़सानकी बाबत नालिश कर सकेगा। अदालत किसी परुषके नाम दस्तावेज करते समय उससे जमानत मांग सकती है या यह हुक्म देसकती है कि रुपया वसूल होनेपर अदालतमें जमा किया जावेगाः-दफा ३६ जबकि वलीसे कोई दस्तावेज़ नहीं लिखाई गई
हो उस समय उसके खिलाफ मुक़द्दमें (१) जबकि अदालत द्वारा नियुक्त या घोषित कियेहुए वलीसे कोई दस्तावेज़ न लिखाई गई हो उस सूरतमें भी कोई भी व्यक्ति नाबालिगका समीपी मित्र होने की हैसियतसे अदालतकी आज्ञा लेने के पश्चात् हर समय उस बीचमें जब कि नाबालिगी समाप्त न हुई हो उन शर्तों के साथ जैसीकि ऊपर दीजाचुकी हैं वली या उसके उत्तराधिकारियोंके विरुद्ध हिसाबका दावा उस जायदादके निस्वत दायरकर सकता है जो उस वलीने नाबालिगके लिये उसकी नाबालिग्रीमें बहैसियत वलीके पाईहो और वह व्यक्ति नाबालिग के ट्रस्टीकी हैसियतसे वली या उसके उत्तराधिकारीसे नाबालिगका जो रुपया निकलताहो बज़ीरये नालिश वसूल करसकता है।
(२) इस दफाकी पहिली उप दफा ३६ (१) में दिये हुए उन नियमों का प्रयोग जो वलीके विरुद्ध दावा दायर करने के सम्बन्धमें है ज़ाबतादीवानी की दफा ४४० के अनुसार किया जावेगा जैसाकि वह इस एक्ट द्वारा संशोधित हुआ है। -दफा ३७ ट्रस्टीकी हैसियतसे वलीका उत्तर दायित्व
नाबालिग या उसके उत्तराधिकारीको वली या उसके उत्तराधिकारीके विरुद्ध वही अधिकार रहेंगे जो ट्रस्टी या ट्रस्टीके उत्तराधिकारीसे दूस्टसे
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गा०दफा ३५-३६]
गार्जियन एण्ड वाईस
४०३
लाभ उठाने वाले ( Beneficialy ) को होते हैं यदि किसी ऐसे अधिकारका उल्लेख ऊपर दीहुई दोनों दफाओंमें न भी हो और ऊपरकी दोनों दफायें नाबालिग़को ऐसे अधिकारोंसे बञ्चित नहीं रख सकेंगी:- ... --दफा ३८ संयुक्त वलियोंमें एकके न रहनेपर दूसरे
के अधिकार जहां दो या दोसे अधिक संयुक्त वली हों और उनमें से एक मर जावे तो उसकी मृत्यु के पश्चात् शेष वलीको वही अधिकार उस समयतक बने रहेंगे जबतककि अदालत द्वारा किसी नये वलीकी नियुक्ति न होजावेः--दफा ३९ वलीका हटाया जाना
अदालत स्वयंही या किसी सम्बन्धीकी दरख्वास्त श्रानेपर नीचे दिये हुए किसी भी कारणसे उस वलीको हटा सकती है जो अदालत द्वारा वली नियुक्त या घोषित किया गया है या जो वसीयतनामा या किसी दूसरी दस्तावेज़ द्वारा नियुक्त किया गया होः
(ए) अपने ट्रस्टका दुरपयोग करनेपर; . (बी) अपने ट्रस्टका कार्य लगातार न करसकनेपर; (सी) अपने दूस्टका कार्य करने में अयोग्य होनेपर; (डी) अपने नाबालिग़के साथ अनुचितव्यवहार करनेपर या उसकी
उचित देखरेख न करनेपर; (ई) इस एक्टके किसी नियमकी या अदालतकी किसी प्राक्षाको
जानते हुए अवहेलना करनेपर: (एफ)किसी ऐसे अपराधमें दोषित निर्धारित किये जानेपर जिससे
अदालतकी रायमें उसका चालचलन वली रहने योग्य न
समझा जासके; (जी) यदि वलीका निजी लाभ नाबालिग़का कार्य ठीक ठीक करने
में विपरीत पड़ता हो; (एच) यदि वली अदालतकी अधिकार सीमामें रहना छोड़दे: (आई) अगर वली नाबालिग़की जायदादका वली है उस वलीके
दिवालिया होजाने पर (जे) यदि वलीके वलायतकी अवधि समाप्त होजावे या समाप्त
होनेके योग्य हो;
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नाबालिगी और वलायत
पांचवां प्रकरण
परन्तु जब वली वसीयतनामा या किसी दूसरी दस्तावेज़के द्वारा नियुक्त हुआ हो और चाहे वह इस एक्ट द्वारा वली निर्धारित या घोषित त किया गया हो तो वह नीचे दिये हुए कारणों से हटाया नहीं जावेगा ।
४०४
(ए) जबकि उप दफा ( जी ) [ ३६ ( जी ) ] में दिया हुआ वली
का विपरीत लाभ वली नियुक्त करने वालेकी मृत्युके पश्चात् न पैदा हुआ हो या वली नियुक्त करने वाले व्यक्तिने वलीके विपरीत लाभके होते हुए भी उसकी अनभिज्ञताके कारण बली नियुक्त किया हो तथा उस नियुक्तिको क़ायम रक्खा हो;
(बी) जबकि उस दफा (एच) [ ३१ (एच) ] में दिये हुए स्थान परिवर्तनमें वली ऐसे स्थानमें चला जावे जहांसे कि अदालत की राय में वह अपने वली के कार्यको न कर सकता हो;
- दफा ४०
वलीका बरी होना
( १ ) यदि अदालत द्वारा नियुक्त या घोषित किया हुआ वली अपने पद से इस्तीफा दिया चाहे तो वह अदालतको अपने पद से हटाने की दरख्वास्त देसकता है।
( २ ) यदि अदालतकी रायमें ऐसी दरख्वास्त पर्याप्त कारणसे दीगई हो तो वह उसको उस पदसे हटा देगी और यदि कलक्टरने ऐसी दरख्वास्त दी हो और प्रातिक सरकारने इसकी स्वीकृत कलक्टरको देदीहो तो अदालत हर हालत में कलक्टरको उस पदसे बरी कर देगी ।
- दफा ४१ वलीके अधिकारोंका अन्त
नाबालिकी ज्ञातके वलीके अधिकार निम्न प्रकारले समाप्त होजाते हैं:
-
( प ) वली की मृत्युसे या उसके हटाये जानेसे या उसके बरी कर दिये जानेसे;
(बी) नाबालिग़की जातके देखरेखका भार कोग्राफ वार्डस द्वारा लेलिये जानेपर;
(सी) नाबालिग़ के बालिग़ होजाने दर;
(डी) नाबालिगाका ( Femile minor) विवाह ऐसे व्यक्ति के साथ होजाने पर जो उस नाबालिग़का वली बननेके लिये अयोग्य नहीं है या यदि वली अदालत द्वारा नियुक्त या घोषित किया गया है तो नाबालिगा ( Female minor ) का विवाह ऐसे
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गा दफा ४०-४२]
गार्जियन एण्ड वाई
४०५
व्यक्निके साथ होजानेपर जो अदालतकी रायमें उसका वली
बननेके लिये अयोग्य नहीं है। (ई) यदि नाबालिग़का पिता वली बननेके अयोग्य रहाहो तो
उसकी अयोग्यता दूर होनेपर या अगर अदालतने पिताको वली बननेके अयोग्य समझा है तो अदालतकी रायमें उसकी
अयोग्यता न रहनेपर; (२) नाबालिग़की जायदादके वलीके अधिकार निम्न प्रकारसे समाप्त होते हैं:(ए) उसकी मृत्युपर या उसके हटाये जाने या बरीकर दिये
जाने पर; (बी) नाबालिग़की जायदादके देखरेखका भार कोर्ट आफवाइस
द्वारा लेलिया जाने पर; (सी) नाबालिग़के बालिग़हो जाने पर,
(३) जब ऊपर दिये हुए किसी भी कारणसे वलीके अधिकारोंका अन्त होजावे तो अदालतको अधिकार है कि वह उससे या उसकी मृत्युके पश्चात् उसके उत्तराधिकारीसे नाबालिग़की जायदादका कब्ज़ा लेसके या नाबालिग़की पिछली या मौजूदा जायदादका हिसाब जो उसके कब्ज़ेमें रहाहो
मांग सके:
(४) जबकि अदालतकी आज्ञानुसार वलीने जायदाद या उसका हिसाबदे दियाहो तो अदालत वलीको उसकी ज़िम्मेदारीसे बरीकर देगी परन्तु यदि भविष्यमें कोई धोखादेही निकलेगी तो ऐसी धोखा देहीसे वली बरी नहीं समझा जावेगा। -दफा ४२ मरे हुए, हटाये हुये वलीके उत्तराधिकारी
(वारिस ) कीनियुक्ति . जबकि अदालतसे नियुक्त या घोषित किया हुआ पली बरी कर दिया जावे या वलीको उस कानून द्वारा जो नाबालिग पर लागू है बली रहने का अधिकार न रह जावे, या कोई ऊपर दिया हुआ वली अथवा वसीयतनामा या दस्तावेज़ द्वारा नियुक्त किया हुआ वली मर जावे या हटा दिया जावे तो अदालत स्वयं ही या दरख्वास्त दिये जाने पर दूसरे प्रकरणके अनुसार किसी दूसरे व्यक्तिको नाबालिगकी ज़ात या जायदाद या दोनोंका वली उस सूरतमें नियुक्त कर सकती है जबकि नाबालिग उस समय नाबालिग्रही होवे।
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४०६
नावालिग्री और वलायत
चौथा प्रकरण
[ पांचवां प्रकरण
दफा ४३ वलीके व्यवहार तथा कार्यक्रमके निर्धारण करनेकी आज्ञायें तथा उन आज्ञायोंका प्रयोग
(१) अदालत स्वयं ही या नाबालिग के किसी सम्बन्धीके दरख्वास्त देने पर ऐसे वलीके बर्ताव व कार्यक्रमको निर्धारित कर सकती है जिसे उसने स्वयं नियुक्त या घोषित किया हो ।
(२) जबकि किसी नाबालिग्र के एक से अधिक वली हों और वह सब नाबालिकी भलाई के किसी प्रश्न पर सहमत न होते हों तो उनमें से कोई भी अदालत की राय मांग सकता है और अदालत जैसा उचित समझे उस विवादास्यद प्रश्नपर अपनी आज्ञा दे सकती है ।
(३) इस दफा की पहली उपदफा अर्थात् ४३ ( १ ) में अदालत हुक्म देने से पहिले दरख्वास्तकी इत्तला या अपने हुक्मकी इत्तला वलीको देगी । इस नियमकी पाबन्दी उस समय न की जावेगी जबकि हुक्ममें देर होने से हुक्मका प्रभावही जाता रहे ।
(४) अगर इस दफाकी पहिली या दूसरी उपदफा अर्थात् ४३ ( १ ) या ४३ ( २ ) में दिये हुये हुक्मोंकी तामील न की जावे तो उस हुक्मकी तामील जाबता दीवानी की दफा ४६२ व ४९३ में दिये हुये हुक्म इम्तनाईकी तरह कराई जा सकेगी। उपदफा ( १ ) में नाबालिग मिस्ल मुद्दई समझा जावेगा व वली बतौर मुद्दालेहके तथा उपदफा (२) में दरख्वास्त देने वाला वली मुद्दई व न देने वाला मुद्दालेह माना जावेगा ।
(५) कलक्टर के लिये जो अपने पद ही के कारण वली बनाया गया हो केवल उपदफा (२) में दी हुई कार्रवाई ही काममें लाई जा सकेगी और कोई कार्रवाई ऐसे कलक्टरके लिये लागू न होगी ।
दफा ४४ नाबालिग्रको अधिकार सीमासे हटानेका दण्ड
अगर अदालत द्वारा नियुक्त या घोषित किया हुआ वली अपने नाबा लिएको दफा २६ में दिये हुये नियमोंके विरुद्ध अदालतके अधिकार सीमासे बाहर इस उद्देश्य से ले जावे कि अदालत उसपर अपने अधिकारका प्रयोग न कर सके तो ऐसे वलीको अदालतकी आज्ञानुसार १०००) एक हज़ार रुपये तक जुर्माना या छः मास तककी क़ैद दीवानी हो सकेगी।
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गादफा ४३-४५]
गार्जियन एण्ड वार्डसः
४०७
दफा ४५ अवहेलना करने पर दण्ड (१)(ए) अगर दफा १२ (१) के अनुसार कोई व्यक्ति जिसकी देख
रेखमें नाबालिरा हो, नाबालिगको पेश न करे या पेश न होने दे या दफा २५ (१) के अनुसार अपनी पूरी शक्ति नाबालिगको अपने वलीके देख रेखमे वापिस जाने के लिये न लगावे तो उस व्यक्ति पर अदालतकी आशानुसार १००) एक सौ रुपये तक जुर्माना होगा या उस वक्त तक, जब तक कि आशा न पालन की जावे १०) दस रुपया प्रति दिनके हिसाब से जुर्माना ५००) पांच सौ रुपये तक किया
जा सकेगा और वह व्यक्ति जेल दीवानीमें उस वक्त तक बन्द किया जा सकेगा जब तककि वह नाबालिराको पेश न करे या पेश न होने दे या नाबालिगको वापिस जाने
जानेके वाध्य न करे। (बी) अगर अदालत द्वारा नियुक्त या घोषित किया हुआ वली
दफा ३४ (बी) के अनुसार दिये हुये समयमें अपना बयान न पेश करे या दफा ३४ (सी) के अनुसार हिसाब न दिखलाये या दफा ३४ (डी) के अनुसार हिसाबमें दिखलाया हुआ बचतका रुपया अदालतमें न दाखिल करे तो उस वलीपर १००) सौ रुपये तक जुर्माना होगा या जबतक ऊपर कहा हुआ बयान हिसाब या रुपया न दाखिल किया जावे १०) दस रुपये प्रति दिनके हिसाबसे ५००) पांच सौ रुपये तक जुर्माना अदालत करेगी या उसको तब तक दीवानी जेल में बन्द कर सकेगी जब तक कि बयान हिसाब या रुपया
दाखिल न किया जावे। (सी) अगर कोई व्यक्ति जो वली नहीं रहा है या उसका उत्तरा
धिकारी दफा ४१ (३) के अनुसार जायदाद नहीं देता है या हिसाब नहीं दाखिल करता है तो अदालत उसपर १००) तक जुर्माना कर सकेगी या जब तक जायदाद न दी जावे १०) दस रुपया प्रति दिनके हिसाबसे जुर्माना ५००) पांच सौ रुपये तक कर सकेगी व उसे दीवानी जेलमें भी उस समय तकके लिये बन्द कर सकेगी जब तक कि वह जाय
दाद या हिसाब न दिया जावे। (२) अगर ऊपर कही हुई उपदफा (१) के अनुसार कोई व्यक्ति वादा करनेपर जेलसे मुक्त कर दिया जावे या वह फिर भी अदालत द्वारा
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नाबालिग्री और वलांयत
[ पांचवां प्रकरणं
दिये हुये समयमें अपना वादा पूरा न कर सके तो अदालत उसे फिर पकड़वा सकती है व दीवानी जेलमें बन्द कर सकती है
४०
दफा ४६
कलक्टर तथा अन्य मातहत अदालतों की रिपोर्ट ( १ ) अदालतको अधिकार है कि वह कलक्टर से या अपने किसी दूसरी मातहत अदालतसे इस एक्टके किसी मामलेके लिये रिपोर्ट मांग सकती है और वह रिपोर्ट बतौर साक्षी के प्रयोग कर सकती है ।
(२) ऊपर कही हुई रिपोर्ट देनेके लिये कलक्टर या दूसरी मातहत अदालत जिससे कि रिपोर्ट मांगी गई हो जैसाकि उचित मालूम हो तहकीनात करेगी और उस तहकीक़ातमें जाबता दीवानी में दिये हुये नियमों के अनुसार गवाह व कागजातको तलब कर सकेगी ।
दफा ४७ वह हुक्म जिनकी अपील हो सकती है
अदालतके नीचे दिये हुये हुक्मोंकी अपील हाईकोर्ट में होगी:
(ए) दफा ७ के अनुसार वली नियुक्त या घोषित करने या नं करने में ।
(बी) दफा ६ ( ३ ) के अनुसार दरख्वास्त वापिस देने में । (सी) दफा २५ के अनुसार नाबालिग़को अपने वलीकी देख रेख में वापिस जाने या न जानेके हुक्म में ।
(डी) दफा २६ के अनुसार नाबालिएको अपने अधिकार सीमाले बाहर ले जानेकी स्वीकृत न देनेपर या उस स्वीकृतके साथ कुछ शर्तें के लगा देने पर ।
(ई) दफा २८ या २६ के अनुसार वलीको किसी काम करनेकीं आज्ञा न देने पर ।
(एफ) दफा ३८ के अनुसार वलीके अधिकार बतलाने, घटाने यां बढ़ाने में ।
( जी ) दफा ३१ के अनुसार वलीको हटानेमें ।
(एच) दफा ४० के अनुसार वलीको बरी न करने पर ।
( आई ) दफा ४३ के अनुसार वलीका वर्ताव या कार्यक्रम निर्धारित करने पर या संयुक्त वलियोंके आपस के झगड़े निपटानेपर (जे) दफा ४४ या ४५ के अनुसार दन्ड देने पर ।
दफा ४८ दूसरे हुक्मोंका अन्तिम हुक्म होना
ऊपर दी हुई दफा ४० में दिये हुये हुक्मोंको छोड़कर व जाबता दीवानी की पुरानी दफा ६२२ (अर्थात् दफा ११५ मौजूदा जाबता दीवानी) को मानते
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पादफा ४६-५०]
गार्जियम एण्ड वार्ड्स
हुए अदालतके और जो हुक्म इस एक्टके अनुसार दिये जागे वह अन्तिम हुक्म होंगे तथा उन हुक्मोंका फैसला मुक्तहमों द्वारा या और किसी तरहपर न हो सकेगा। -दफा ४९ खर्चा
__इस एक्टके अनुसार की हुई कार्रवाइयोंका खर्च तथा वली या किसी दूसरे व्यक्तिको दीवानी जेल में रखनेका खर्च उस अदालतकी इच्छाके अनुसार होगा जिसके सामने कार्रवाईहो रही हो । परन्तु इस सम्बन्धमें इस एक्ट के लिये बनाये हुए हाईकोर्टके नियमोंका ध्यान रक्खा जावेगा। -दफा ५० नियमोंको बनानेके लिये हाईकोर्ट के अधिकार
(१) हाईकोर्टको अधिकार है कि वह उन नियमोंके अतिरिक्त जिनके बतानेका अधिकार उसको इस एक्टके लिये प्राप्त है और भी नीचे दिये हुए नियम समय समय पर इस एक्टके अनुसार बना सकता है:(ए) यहकि कलक्टर या दूसरी मातहत अदालतसे किन किन बातों
की व कब कब रिपोर्ट आना चाहिये। (बी) वलीको क्या शुल्क (खर्च) मिलना चाहिये या उससे कैसी
ज़मानत लीजामा चाहिये अथवा कैसे अवसरोंपर उसे शुल्क
(खर्च) मिलना चाहिये। (सी) दफा २८ व २६ में दिये हुए कार्योंकी आज्ञा देते समय किन
किन नियमोंका पालन करना चाहिये। (डी) दफा ३४ (ए), (बी), (सी), व (डी) में दी हुई आज्ञायें
किन अवसरोंपर देना चाहिये ( ई ) क्लीसे दाखिल कराये हुए बयान व हिसाब किस प्रकार
सुरक्षित रखना चाहिये । (एफ) सम्बन्धियों द्वारा उन हिसाबों व बयानोंकी जांच किस
प्रकार होना चाहिये। (जी) नाबालिराका रुपया तथा उसकी ज़मानते किस प्रकार रखना
चाहिये . (एच) कैसी ज़मानतोंमें नाबालिगका रुपया लगाया जाना चाहिये (आई) ऐसे नाबालिराकी शिक्षाका प्रबन्ध किस प्रकार होना चाहिये
जिसका वली कलक्टरके अलावा और कोई व्यक्ति अदालत द्वारा नियुक्त या घोषित किया गया है। 52
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नाबालिग्री और वलायत
[पांचवां प्रकरण
(जे) अदालतोंको इस एक्ट के अनुसार कार्य करनेमें किन किन
बातोंका ध्यान अधिकतर रखना चाहिये। (२) इस दफा की पहिली उपदफा अर्थात् दफा ५० (१) में दिये हुए क्लाज़ (ए) व (बी) में बनाये हुए नियमोंका प्रयोग उस वक्ततक न होगा जबतककि प्रान्तिक सरकार स्वीकृति न दे देवे तथा जबतककि पहिली उपदफा के अनुसार बनाये हुए उपनियम सरकारी गज़टमें प्रकाशित न किये जा चुके। -दफा ५१ अदालत द्वारा पहिलेहीसे नियुक्त किये हुए
वलियोंके लिये इस एक्टका प्रयोग यदि कोई व्यक्ति किसी दीवानी अदालत द्वारा उन कानूनोंके अनुसार जो इस एक्टके ज़रिये रदकर दिये गये हैं वली या प्रबन्धक नियुक्त किया गया हो तो वह व्यक्ति इस एक्टमें दिये हुए नियमोंका पाबन्द उसी प्रकार होगा जैसे कि वह इस एक्टके दूसरे प्रकरणके अनुसार वली नियुक्त या घोषित किया गया हो। -दफा ५२ इण्डियन मैजरिटी एक्टका संशोधन
सन् १८७५ ई. के इण्डियन मैजारिटी एक्टकी दफा ३ में इन शब्दोंके बजायः
"हरएक नाबालिग जिसकी ज़ात या जायदादका कोई वली अदालत द्वारा नियुक्त किया गया है या किया जावेगा और हरएक नाबालिग्न जो कोर्ट आफ वाड्सकी देखरेखमें हो"
नीचे दिये हुए शब्द माने जावेंगेः
"हरएक नाबालिग जिसकी ज़ात या जायदाद या दोनोंका वली उसके १८ सालकी उम्र पूरी करनेसे पहिले अदालत द्वारा नियुक्त या घोषित किया जाचुका है या किया जावेगा या वह नाबालिग जिसकी जायदादका प्रबन्ध उसी उम्रतक कोर्ट श्राफ वार्ड्समें आगया हो परन्तु इनमें वह नाबालिग शामिल नहीं हैं जिनका वली दौरान मुकद्दमेंके लिये अदालत दीवानी द्वारा जाबता दीवानीके ३१ वे प्रकरणके अनुसार किया गया हो"
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गा०दफा ५१-५३ ]
गार्जियन एण्ड वाईस
- दफा ५३
एक्ट नं० १४ सन् १८८२ ई०
पुराने जाबता दीवानीका प्रकरण ३१, नये जाबता दीवानी ऐक्ट नं० ५ सन १६०८ ई० के द्वारा रद होगया है । ( अब नये जाबता दीवानीके अनुसार विचार किया जायगा )
नीचे
संख्या व वर्ष
सन् १८०४ ई० का
एक्ट नं० ५
सन् १८३९ ई० का
एक्ट नं० १० सन् १८५८ ई० का
एक्ट नं० १४
सन् १८५८ ई० का
एक्ट नं० ४०
सन् १८६१ ई० का
एक्ट नं० ६
सन् १८६४ ई० का
एक्ट नं० २०
सन् १८६६ ई० का
एक्ट नं० १४
सन् १८७० ई० का
एक्ट नं० ७
सन् १८७२ ई० का
-एक्ट नं० ४
सन् १८७३ ई० का एक्ट नं० १९
सूची ( Schedule )
क़ानून मंसूख किये गये देखो दफा २
नाम - विषय
कोर्ट आव वार्ड्स
माइनर इस्टेट्स
नाबालिग (मद्रास )
(Minors )
नाबालिग (बङ्गाल ).
सन् १८७० ई० का कोर्ट फीस एक्ट सन् १८७२ ई० का लाज़ एक्ट
उत्तरी, पञ्चमीय प्रदेश का सन् १८७३ ई०
का क़ानून लगान
किस हद तक रद किया गया है
दफा २०, २१ और २२
दफा ३
सबका सब
नाबालिग ( Minors ) | सबका सब
नाबालिग़ (बम्बई )
सन् १८६६ ई० का बाम्बे सिविल कोर्ट एक्ट
४११
उतने भागको छोड़कर जो रद नहीं किया गया है वाक़ी सब एक्ट
सबका सब
दफा १६ के पिछले हिस्से को छोड़कर जो रद नहीं किया गया है वाक़ी सब दफा ११ (एच) व पहिली सूचीका १०वां आर्टिकल उस हद तक जितना कि | सन् १८५८ई ० के ४०वे एक्ट से सम्बन्ध रखता है दफा २५८
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४१२
नाबालिगी और वलायत
[पांचवां प्रकरण
सन् १८७४ ई. का सन् १८७४ ई० का सबका सब
एक्ट नं०१३ | ब्रिटिश मायनस एक्ट सन् १८७४ ई० का सन् १८७४ ई०का लाज़ | उस हद तक जिस हद तक एक्ट नं०१५ | लोकल एक्ट, स्टेट एक्ट कि उसका सम्बन्ध रद
किये हुए कानूनोंसे है सन् १८७४ ई० का अराकान हिल डिस्ट्रि- | जहां तक कि एक्ट नं०४० एक्ट नं०६ .क्ट लाज़ सन १८५८ और एक्ट नं०६
सन १८६१ई०का सम्बन्ध है सन् १८७५ ई० का सन् १८७५ ई० सेन्ट्रल जहांतक कि उसका सम्बएक्ट नं०२० प्राविन्सेज लाज़ एक्ट |न्ध सन् १८५८ ई० के
एक्ट नं०४० से है सन् १८७६ ई० का सन् १८७६ ई० का जहांतक कि उसका सम्बपक्ट नं०१८ अवध लाज़ एक्ट न्ध सन् १८५८ ई० के
एक्ट नं० ४० से है सन् १८७६ ई०का सन्१८७६ई०का अवध | सन् १८५८ ई० का एक्ट एक्ट नं०१३ | सिविल कोर्ट्स एक्ट नं०४० व सन् १८६१ई०का
एक्ट नं० ६ से सम्बन्ध रखने वाला दफा २५ का
क्लाज़ (१) सन् १८८२ ई० का | जाबता दीवानी दफा ४४३ का दूसरा पैरा एक्ट नं०१४
ग्राफ सन् १८८४ ई० का सन् १८८४ ई० का दफा २६ का वह हिस्सा
एक्ट नं०१८ | पञ्जाब कोर्टसू एक्ट | जो रद नहीं किया गया है सन् १८८५ ई० का सन् १८८५ई०का सेंट्रल दफा ५ एक्ट नं०१७ प्रोविंसेज़ गवर्नमेण्ट
वार्ड्स एक्ट सन् १८८७ ई० का सन् १८८७ ई० का । दफा २,३क्ल
एक्ट नं०१२/ सिविल कोर्ट एक्ट सन् १८८६ ई. का सन् १८८६ ई० का दफा ६९ (१)
एक्ट नं०६ | लोअर वर्मा कोर्ट एक्ट
नोट-ऊपर सन १८०४ और सन १८३१ ई०, मदरास रेगुलेसन्स है और सन १८७४ ई. का एक्ट नं० ९, स्टेट्यूट विक्टूरिया चेप्टर ३ का रेगुलेशन है और बाकी सब सनोंके सब ऐक्ट सपरिषद गवर्नर जनरलके एक्ट है। यह भी ध्यान रहे कि सन १९२६ ई के संशोधक गार्जियन एण्ड बार्डस् एक्टकी दफा ५ के द्वारा उपरोक्त एक्ट मंसूख किये गये हैं।
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हालकी नजीरें]
गार्जियन एण्ड वार्डस
४१३
गार्जियन एण्ड वार्डस् एक्ट
नं० ९ सन् १८९० ई० की
आवश्यक दफाओंपर उपयोगी हालकी नजीरें
..
.
सूचना-उपरोक्त मूल कानून इस ग्रन्थके पेज ३८४ से प्रारम्भ होकर पेज ४१२ में समाप्त हुआ है नीचे उसी कानूनकी दफाओंके क्रमानुसार नई नज़ीरें दीगई हैं। नीचे -गा० दफा' इस तरहपर लिखी हुई दफाओंके संकेतसे, आप उपरोक्त कानूनकी दफा समझना, हिन्दू-लॉ की दफा न समझना। नीचेकी दफाओंमें जिस दफाका हवाला आप देखेतो इस मतलबके लिये उपरोक गार्जियन एण्ड वार्ड्स एक्टकी मूल दफासे अर्थ समझना और तत्सम्बन्धी मूल दफा निकालकरदेख लेना और उसी विषयमें पहले कहे हुए विषयपर भी ध्यान रखना:--
-गा० दफा ३-किसी नाबालिग़को, किसी दूसरे मित्रद्वारा उस जायदाद के कब्जेके लिये दावा करनेका अधिकार नहीं है, जिसपर कि मुद्दालेह, बिल इस्तहनाक वली नाबालिग़के कब्ज़ा रखता हो । इस सूरतमें, मुनासिब तरीका यह है कि गार्जियन एण्ड वार्ड एक्टके अनुसार जायदादका वली मुकर्रर करने के लिये दरख्वास्तकी जाय, -मु० भागी बनाम काशीगराम. 21 Nag. L. R.75; 89. I. C. 55; A. I. R. 1925 Nag. 328. .. -गा० दफा ३-जब कोई व्यक्ति गार्जियन एण्ड वार्ड्स एक्टके अनुसार किसी नाबालिग़की जायदाद और व्यक्तित्त्वका वली, ज़मानत देनेकी शर्तपर नियत किया जाता है और उस शर्तके अनुसार ज़मानत नहीं देसकता, तो उसकी नियुक्ति मेजारिटी एक्टकी दफा ३ के अनुसार नहीं समझी जाती, और ऐसा नाबालिग़ १८ वर्षकी अवस्था प्राप्त होनेपर बालिरा होजाता है। इस प्रकारका शर्तिया (Conditional ) हुक्म एक्टके अनुसार नाजायज़ है। नाथा वेंकटेश पेरूमलका मामला A. I. R. 1927 Mad. 36.
गार्जियन एण्ड वाईस एक्ट-वली द्वारा क़र्ज़ जब किसी वली द्वारा, किसी नाबालिगकी ओरसे, किसी कानूनी आवश्यकता या उसकी जायदाद के फ़ायदेके लिये कर्ज लिया जाता है, तो उसकी पाबन्दी नाबालिग़की जायदादपर होती है। फालराम बनाम रोयूब खां । A. I. R. All. 55. 1927.
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४१४
नाबालिग्री और वलायत
[पांचवां प्रकरण
-गा० दफा ७-औ १६ (ब)--पिता नाबालिग़की ज़ातपर वली नहीं मुकर्रर किया जासकता। --मु० ताज़ बेगम बनाम गुलाम रसूल. 6 L. L. J. 579; 83 I. C. 3087 26 Puj. L. 1. 123 A. I. R. 1925 Lah. 250. यह नियम यूरोपियन वृटिश प्रजाके लिये है
-गा० दफा ११-किसी नाबालिग़के वली मुकर्रर करनेकी अर्जीपर, अदालत प्रार्थीको अपने अभियोगोंके सबूतमें शहादतपेश करनेकी इजाज़त देगी--युसुफ़ अली मामूजी बनाम अली भाई 29 Punj. L. R. 255; A.I. R. 1923 Lah. 8.
-गा० दफा १२-किसी जजको, जिसके सन्मुख किसी नाबालिग़के चली नियत करनेकी अर्जी विचाराधीन होती है, यह अधिकार होता है कि वह कोई रिसीवर नियुक्त करदे, किन्तु इस प्रकारका अधिकार ज़ाबता दीवानीके अनुसार होता है नकि गार्जियन एण्ड वार्ड एक्टके अनुसार। अतएव इस प्रकारका हुक्म गार्जियन एण्ड वार्ड एक्टकी दफा १२ के अनुसार नहीं बल्कि जाबता दीवानीके आर्डर ४० रूल १ के अनुसार होता है अतएव आर्डर ४३ रूल १ क्लाज़ (स) के अनुसार काबिले अपील है । मु० चन्द्रवती "बमाम जगन्नाथ सिंह 7 L. L. J. 281; 90 I. C. 611; 26 Punj. L. R. 576; A. I. B. 1925 Lah. 489.
-गादफा १२-किसी नाबालिगके जिस्म और जायदादकी रक्षाके लिये हाईकोर्टको बहुत विस्तृत अधिकार प्राप्त हैं । अदालत नाबालिग़के हितकी रक्षाके लिये, तमाम ऐसे हुक्म, जो वह वाजिब समझे देसकती है। अदालत को यह भी अधिकार हासिल है कि वह नाबालिग़की शादी उसकी हालत नाबालिग्रीमें होनेसे रोकदे । मुरारीलाल बनाम सरस्वती 7 Lah. L. J. 30; 86. I. C. 226; 88. I. C. 576; A. I. R. 1925 Lah. 358.
-गादफा १३-तहकीकातकी किस्म-मुसलमान माताकी तलाकयदि वलायतकी नामजूरीका कोई कारण है-मु० जैनम बी बी बनाम अब्दुल करीम A. I. R. 1926 Lah. 117.
-गा० दफा १३-नाबालिग़के वली मुकर्रर करनेकी अर्जी, कितनीही खुलासा क्यों न हो बाद तहकीकात फैसलकी जानी चाहिये।
अपीलान्टने नाबालिग़के वली मुकर्रर किये जानेकी अर्जी दी। वजह यह बताई कि, नाबालिग़की मा जिसकी संरक्षामें वह रहती है बहुत फिजूल खर्च करती है। अदालतने बिला तहकीकात अर्जी ना मञ्जूर कर दी। तय हुआ कि अर्जीकी तहकीकात दफा १३ के अनुसार होना चाहिये थी-- सजनसिंह बनाम मु० गुजरी 26 Punj. L. R. 164.
-गा० दफा १३-दफा १३ की कार्यवाहीका यह अभिप्राय नहीं है कि जांच सरसरी हो--किसी नाबालिग़ मुसलमानकी मा इसलिये वली होनेसे
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हालकी नजीरें ]
'गार्जियन एण्ड बाईस
नामजूर नहींकी जासकती कि उसे तलाक़ दे दीगई है यदि वह सच्चरित्रवान हो -- मु० जैनम बी बी बनाम अब्दुल करीम 89 I. C. 865.
ધ
- गा० दफा १३ - उस दशामें जब मिसलसे यह साबित नहो कि प्रार्थी की कामिल सुनवाई हुई है और उसे विवादग्रस्त वसीयतनामेके झूठा साबित करनेके लिये काफ़ी शहादतको पेश करनेका मौका दिया गया है--तय हुआ कि मामला दुबारा तहकीकात के लिये वापस भेजा जाय-- यूसूफ़ अली मामूजी बनाम अली भाई 126 Punj. L. R. 255; 87 I. C. 646; A. I. R. 1925 Lah. 567.
- गा० दफा १३ –वलीके नियुक्त करनेकी कार्यवाही सरसरी तौरपर न होना चाहिये । क़ानून शहादतके नियमों और कार्यवाहीपर ध्यान दिया जाना चाहिये अदालतको तहक़ीकात करना और शहादत लेना चाहिये - शिवशंकर बनाम खूबचन्द्र; 83 I. C; 320; A. I. R. 1925 Nag. 233.
- गा० दफा १३ - एक्टके अनुसार किसी व्यक्तिको किसी नाबालिग्रके वली नियत करनेकी आरम्भिक कार्यवाहीके लिये यह आवश्यक नहीं है कि यह साबित किया जाय, कि नाबालिग़के अधिकारमें कोई जायदाद है; और यह भी आवश्यक नहीं है कि प्रार्थी, पहिले वतौर नाबालिग़के वलीके, नाबालिग्र का अधिकार उस जायदादपर, जिसके सम्बन्धमें झगड़ा है स्थापित करे । रामनारायन बनाम मुसम्मात गौरा A. I. R. 1927 Oudh. 69.
-गा० दफा १७-एक नियत डिपाजिट ( जमा ) की रसीद नाबालिग़ (ए) और उसके नाना (बी) के नाम थी और उसका रुपया किसी भी जीवित रहने वालेको प्राप्यनीय था । नाना ( बी) की मृत्युपर, नाबालिग़ (ए) के पिता ने स्वयं अपनेको वली नियत करने की प्रार्थनाकी, किन्तु नाबा - लिग़के मामाने इस बातका इस बिनापर विरोध किया, कि जमा शुदा रुपया का वह अधिकारी है। तय हुआ कि नाबालिग़का पिता उसका वली नियत किया जाना चाहिये - भिरी मल बनाम काशी प्रसाद 93 I. C. 328; 27 Punj L. R.158.
- गा० दफा १७ - किसी नाबालिग़ लड़कीके वली नियत करने में अदालत का कर्तव्य है कि वह उसकी भलाई और लाभपर भली भांति विचार करे-एक नाबालिग शिया लड़कीका सुनीके साथ व्याहा जाना-- बालिग़ होनेपर लड़की का शादी से इन्कार करना-- ऐसी अवस्था में आया पति उचित व्यक्ति है जो वली नियत किया जासकता है ? श्रमातुल फतीमा बनाम अली अक़बर 30. W. N. 195.
- गा० दफा १७ - जब इस बातके जाहिर करने के लिये, मिसल में कुछ न हो, कि प्रार्थी नाबालिगोंका वली होनेके लिये अज़हद ख्वाहां है और उनके
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नाबालिगी और वलायत
[पांचवां प्रकरण
हितोंमें किसी प्रकारका अपना हित समझता है, तब केवल इस कारणसे कि वह बड़ा मुक़द्दमे बाज़ है उसकी वली मुकर्रर करनेकी अर्जी नहीं नामजूर की जासकती--सरवारूल मुल्क सरवारजंग बनाम मिरज़ा वजीर अली 12 0.L. J. 2813 20 W. N. 2463; 87 I.C.902 (2), A. I. R. 1925 Oudh. 398.
-गा० दफा १७-किसी नाबालिगकी जाती कानूनका उस वक्त कोई स्याल न किया जायगा, जिस वक्त कि उसकी भलाईका और कोई मार्ग बाकी न रह जायगा--गुन्ना बनाम दरगाही 28. 0. C. 172; 85 I. C. 6243 A. I. R. 1925 Oudh. 623.
-गा० दफा १७-(२)--हिन्दूला-दत्तक--गोद लेनेवाले पिताकी मृत्युके पश्चात्, नाबालिग़का असली पिता उसका वली नहीं मुकर्रर किया जासकता । असली पिताके वली मुकर्रर किये जानेपर इस बातका भय रहता है कि गोद लेने वाले पिताकी मंशा नाबालिग्न द्वारा न पूरी होसकेगी। यथा सम्भव उसी खान्दानका कोई आदमी, जिसमें कि वह गोद लिया गया है नियत किया जाना चाहिये, --इस प्रकारके मुक़द्दमे में गोदलेने वालेकी दादी नाबालिराकी वली मुकर्ररकी गई ।--मनमोहनी दासी बनाम हरि प्रसाद बोस, 4 Pat, 109; A. I. B. 1925 Patna. 444. . -गा० दफा १६-गार्जियन और वार्ड्स ऐक्टकी दफा १६ के अनुसार मनाही उन्हीं व्यक्तियोंके लिये नहीं है, जो पिता और पतिके अतिरिक्त हों-- परिणाम स्वरूप पिता भी अपने नाबालिग पुत्रका वली नहीं नियत किया जा सकता--लक्ष्मण रेड्डी बनाम वीरा रेड्डी 23 L. W. 213; A. I. R. 1925 Mad.1086.
-गा० दफा १६-बिना इस बातके विदित हुए कि पिता, नाबालिगका वली होनेके अयोग्य है, कानून आशा नहीं देती, कि कोई अन्य व्यक्ति वली नियत किया जाय ऐसी दशामें नाबालिग़की भलाईपर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिये । फखरुद्दीनखां बनाम मुसलमान बीरो--27 Punj. L. R. 330.
-गा० दफा १६-एक्टके अनुसार किसी नाबालिगका पिता उसका वली नहीं मुकर्रर किया जासकता । वह अपने पुत्रका कुदरती वली होता है--मु० चन्द्र कुंवर बनाम छोटेलाल; A. I, R. 1925. Oudh 282. ( यह नियम केवल यूरोपियन वृटिश प्रजाके लिये है)
--गा० दफा १६--और २५--नाबालिराका पिता गार्जियन एण्ड वार्ड एक्ट के अनुसार उसका वली नहीं मुकर्रर होसकताः किन्तु बहैसियत कुदरती वलीके वह कार्यवाहीकर सकता है देखो एक्टकी दफा २५, 1925 Oudh.
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हलकी नजीर
गार्जियन एण्ड वाईस
૨૦
282; 40 Bom. 600; 1925 Oudh. 257 नज़ीर अहमद आग्रा बनाम g; 12 O. L. J. 441; 20. W. N. 282; 87. I. C. 1024; A. I. R. 1925 Oadh. 421.
--गा० दफा १६-- किसी हिन्दू नाबालिग्रका पिता या पति, उसका वली नहीं मुक़र्रर किया जासकता जब उसकी जायदाद कोर्ट आफ वार्डमें हो -- 86 I. C. 957 (2); A. 1 R. 1925 Mad. 1085.
- गा० दफा १६ - माताका पुनर्विवाह, उसके नाबालिग़को उसकी सरंक्षतासे लेलेने का काफ़ी कारण नहीं है-- मु० मेड़ो बनाम टेक चन्द्र, 26 Punj. L. R. 251.
- गा० दफा १६ और २५ - नाबालिग लड़का जिसकी मातामर, गई हो, का वली उसका पिता मुकर्रर किया जासकता है और वह उसकी रक्षामें दीजा सकती है--कुधाची राघवघा बनाम मचावालू लक्ष्मय्या 86 I C. 640; 21 L.W. 244; A I.R. 1925 Mad. 398; 48M. L. J. 179.
- गा० दफा १६--अदालतको नाबालिग़के पिताको, उसका दली बनाने का अधिकार नहीं है।--मु० ताज बेगम बनाम गुलाम रसूल 26P. L. R. 12; 6 Lah L. J. 597; 83 I. C. 308; A. I. R. 1925 Lah, 250.
- गा० दफा १६--और २५-- जबकि नाबालिग अपने पिताकी खास संरक्षामें हो; उस सूरतमें वह संरक्षा जो दफ़ा २५ के अनुसार पिताको दीगई है बज़रिये अपील नहीं हटाई जासकती । मु० चन्द्रा कुंवर बनाम छोटे लाल A. I. R. 1925 Oudh, 282.
---गॉ० दफा २२-अलाहिदा किये हुए वलीके भत्तेकी मञ्जुरीकी अपील नहीं हो सकती-सूरज नारायण सिंह बनाम विश्वम्भर नाथ भान AI R. 1925 Oudh. 260.
- गा० दफा २३ और २६ - अदालत द्वारा, जब कोई कलेक्टर, किसी नाबालिग्रका वली नियत किया जाता है तब उसे दफा २३ के अनुसार बिशेष अधिकार प्राप्त होते हैं । दफा २६ जो वलीके अधिकारको परिमिति करती है कलेक्टरकी दशामें लागू नहीं होती देखो अभयराज बनाम दौलत सिंहजी 28 Bombay, L. R. 6.28.
--गा० दफा २५- दफा २५ के अनुसार एक इकतरफ़ा डिकरी पाल हुई, जिसमें एक व्यक्तिको अदालत में पेश करने का हुक्म दिया गया। उसने हुक्मका पालन न किया, किन्तु अदालतमै एक अर्जी दी, कि इकतरफ़ा हुक्म रद्द करदिया जाय । अर्जी नामजूर करदी गई -तय हुआ कि हुक्म अपीलके योग्य न था । फरीनको केवल इकतरफ़ा हुक्मके रद करनेके लिये अर्जी देने
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नाबालिग्री और वलायत
[पांचवां प्रकरण
का अधिकार था । अकाबाई बनाम नारायन 92 I. C. 36; A. I. R. 1926 Nag. 251.
- गा० दफा २५ - नाबालिग़को अपनी संरक्षामें लेनेके लिये यहश्रावश्यक है कि पहिले वली होनेकी सनद हासिलकी जाय - मु० चन्द्रा कुंवर बनाम छोटे लाल A. I. R. 1925 Oudh. 282.
४१८
-- गा० दफा २५-- गार्जियन एण्ड वार्ड एक्टकी दफा २५ के नियमोंके अनुसार पिता अपने नाबालिग्रकी संरक्षाके लिये अर्ज़ी नहीं देसकता । वह इस प्रकारकी कार्यवाही के लिये मुक़द्दमा चला सकता है - मुं० चन्द्रा कुंवर बनाम छोटे लाल A. I. R. 1925 Oudh. 282.
- गा० दफा २५ – एक्टकी दफा २५ के अनुसार पिता उस सूरतमें भी अपने नाबालिका वली नहीं बनाया जासकता; जबकि नाबालिग उसकी संरक्षामें भी न हो --छोटे लाल बनाम चन्द्रा कुंवर AIR 1925 Oudh. 257 (1)
-- गा० दफा २५ - यद्यपि एक्टकी दफा १९ के नियमोंके अनुसार पिता अपने नाबालिका वली नहीं मुक़र्रर हो सकता, और इस बिनापर एक्टकी दफा १० के आधीन उसकी वलायतकी अर्जी क़ाबिले मंजूर नहीं होती,
हम बहैसियत कुदरती वलीके वह दफा २५ के अनुसार नाबालिग की संरक्षा की कार्यवाही कर सकता है - श्रहमद आगा बनाम मु० जोहरा बेगम 12 O. L. J. 441; 2 O. W. N. 242; 87 I. C. 1024; A. I. R. 1925 Oudh. 421.
- गा० दफा २५और १६ - दफा १६ की मनाही क्लाज़ ( अ ) में पति और (ब) में पिता अतिरिक्त और किसीकी नहीं है । अतएव कोई पिता अपने नाबालिराकी वलायत के लिये अर्ज़ी नहीं देसकता । किन्तु ऐसी अवस्था मैं, जब कि मुक़दमेके लिहाज़ से, नाबालिग़के लिये उसे पिताको वापस देना वाजिव समझा जाय, तो नाबालिग्रको, पिताको वापस देनेके हुक्म में कोई एतराज़ नहीं हो सकता - लक्ष्मन्ना रेड्डी बनाम अल्ला वरोरेड्डी 86 I. C. 957;
A. I. R. 1925 Mad. 1085.
- गा० दफा २५ - कोई भी नाबालिग अपने पिताकी संरक्षासे नहीं हटाया जासकता, या स्वयं अलाहिदा होसकता है । मातृपक्ष के सम्बन्धियोंकी संरक्षामें नाबालिग़के होनेकी सूरतमें, पिता अर्जी देसकता है - कुप्पाची राघवय्या बनाम एम० लक्ष्मय्या 48 M. L. J 179; 2 L. W. 244; 86I. C. 640; A. I, R. 1295 Mad. 398.
- गा० दफा २७ - नाबालिग़की बलायत- पिताका अधिकार - दूसरे वली की तबदीली - उठा देने योग्य अधिकार - अदालतका कर्तव्य - नाबालिग़की
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हालकी नजीरें]
गार्जियन एण्ड वाईस
४१६
खैरियत-शुकदेव राय बनाम राम चन्द्र 83 I. O. 24, A. I. R. 1924 All. 622.
-गा० दफा २६- अदालतसे इजाजत प्राप्त करनेकी सूरतमें बयनामे और रेहननामेके मूलधनमें कोई अन्तर नहीं है। पार० एम० रमन चेट्टीयर बनाम त्रिगुण्य सम्बन्धम् A. 1. R. 1927 Mad. 233.
-गा० दफा २६-जब किसी नाबालिग़के वली द्वारा अदालतकी इज़ाजत से किये हुए रेहननामे में मावजेकी रकमकी कुछ मदें ऐसीहों, जो वली द्वारा अपनी जिम्मेदारीपर रेहननामेके पहिले तो लीगई हों, और रेहननामेमें, बतौर कर्ज पेशगी बताई गई हों; यदि अदालत इस प्रकारके रेहननामेको, वाक्यातों की पूर्ण आगाहीके साथ इज़ाजत देती है तो वह रेहननामे मय उन मदोंके जायज़ है । आर० एम० रमन बनाम त्रिगुण्य सम्बन्धम् A. I. R. 1927 Mad. 233.
-गा० दफा २६-जब अदालतकी इजाज़त किसी नाबालिग़के वलीको नाबालिगकी जायदादपर क़र्ज़ लेनेकी होगई हो, तब कर्ज देने वालेको उस हुक्मपर विश्वास करनेका अधिकार है और उसके लिये यह आवश्यक नहीं है कि वह कर्ज़के लिये कानूनी आवश्यकता या नाबालिग़को जायदादके फायदे आदि मुनासिबतकी ओर विचार करे; और जब अदालतकी इजाज़त से कोई इन्तकाल हुआ हो, तो मुन्तकिल अलेह उस हुक्मपर निर्भर रह सकता है और वह इन्तकाल बहाल रक्खा जायगा, यदि मुन्तकिल अलेहने किसी प्रकारकी धोखेबाजी या बेईमानीके कार्य में भाग नहीं लिया है। आर० एम० रमन बनाम त्रिगुण्य सम्बन्धम् A. I. R. 1927 Mad. 233.
-गा. दफा २६-और ३०-हुक्म नाकाबिल अपील--लक्ष्मी प्रसाद बनाम बल्देव दुबे 87 I. C. 251 (1); A. I. R. 1923 All. 14.
-गा० दफा ३० -बिना इज़ाजत अदालतके नाबालिराकी जायदाद बेचना -आया अमान्य है-मुकद्दमा सम्बन्धी जायदाद( अ )की है, जोकि एक पुत्री छोड़कर मरगया था। (ब) अदालत द्वारा नाबालिगकी जायदाद और जिस्म का वली नियत किया गया। (ब) ने बिला इज़ाजत अदालत जायदाद (स) को बेच दिया। (अ) के खिलाफ एक परवरिशकी डिक्री पाये हुए डिक्रीदार ने, उस जायदादको कुर्क कराया, जोकि अदालत द्वारा बेचने पर खरीदी गई। उस व्यक्तिने, जिसने उस जायदादको वलीसे खरीदा था, नीलाममें खरीदने वालेके खिलाफ कब्जेका दावा किया-तय हुआ (१) कि बिला इजाज़त अदालत वलीका बयनामा, किसी व्यक्तिकी तहरीकपर, जिसपरकि उसका असर पड़ता हो, अमान्य है। (२)नाबालिग़का अधिकार, जिसके द्वारा वह अनधिकार बयनामेको मंसूख करनेके लिये मुकदमा चला सकता था, किसी
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नाबालिग्री और वलायत
[पांवयां प्रकरण
डिक्रीकी तामील में न कुर्क किया जासकता था और म बेचा जासकता था (३) अतएव नीलाममें खरीदने वाला वली द्वारा खरीदने वालेको, उस सूरत में भी अब कि बयनामेकी स्वीकृति अदालतसे न प्राप्तकी गई थी. बेदखल नहीं कर सकता था-नरसिंहाचार्य बनाम तुलसा बाई 27 Bom. L. R. 483; 87 I. C. 712; A. I. R. 1925 Bom. 320..
-गा०.दफा २८और ३१-घलीका कर्तव्य-कोई भी व्यक्ति, चाहे वह कुदरती वली हो या, कोई अन्य व्यक्ति हो, यदि अदालत द्वारा दफा २८ से ३१ तक बर्णित एफ्टके नियमों के अनुसार किसी नाबालिग़का वली मुक़र्रर किया गया है, तो उसपर नाबालिगकी जायदादके इन्तज़ामके मुताल्लिक एक्ट के अनुसार नियमोंकी पाबन्दी होगी। उस अवस्थामें उसे यदि वह कुदरती घली हो तो भी, उन नियमोंका उल्लङ्घन करने और अपने कुदरती वलीके अधिकारोंके अमल करनेका हक नहेगा। उस अवस्थामें, बिना. अदालतकी मजूरी, यदि कोई भी जायदाद मुन्तकिलकी जायगी, तो वह इस बिनापर भी कि वह उसके कुदरती वलीकी, हैसियतसे नाबालिगके फायदेके लियेकी गई. है. जायज़ न होगी-रामेश्वर बक्स बनाम मु२. रिधाकुंवर 87 I. C. 2383, A. I. R. 1925 Oudh. 6333.
-गा०.दफा २६ और ३१-नाबालिग़की जायदादका बय-अदालत, द्वारा नियत किया हुआ वली, किसी नाबालिग्रकी जायदादको, बिना डिस्ट्रिक्ट जज़की इजाज़तके नहीं बेच सकता। इजाज़त देने या न देनेके सम्बन्धों अदालत इस बातपर विचार करेगी, कि आया जायदादके बेचनेकी ज़रूरत. है और बयनामेकी शर्ते नाबालिग़के हकमें फायदेमन्द है। वली द्वारा ठीक किये हुए मामलेकी इजाज़त होजानेपर भी, यदि डिस्ट्रिक्ट जजको उससे बेहतर मामला नज़र आवे तो वह पहिलेके हुक्मको मंसूख कर सकता है और किसी आफ़िसर द्वारा उसे नीलाम कराकर सबसे ऊंची कीमत वसूल कर सकता है-तरनीकुमार दत्त, बनाम श्रीशचन्द्रदास. 85 I. C. 667,,A. I. B. 1925 Cal. 1160.
-गा. दफा ३०-कोर्ट आफ वाईसकी जायदादकी ओर से नियत बली; द्वारा बयनामा-नाबालिग. ने. अदालत, की आशा नहीं प्राप्त की-आया, नाजायज़ है।
(एन) के पास एक विवादग्रस्त जायदाद थी वह एक पुत्री (टी), छोड़ कर मर गया। अदालतने (पार ) को नाबालिग और उसकी जायदाद की रक्षोके लिये वली नियत किया। (आर) ने जायदाद बिना अदालतकी इजाज़त (के )को बेच दिया। (के) ने उसी जायदादको मुद्दईके हाथ बेचा। (ए). (एन) के खिलाफ़ परवरिशका डिक़रीदार था। उसने उसी जायदादको कुर्क कराया जो कि अदालतकी नीलाममें खरीदी गई। उस व्यक्तिने
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हालकी नज़ीरें]
गार्जियन एण्ड वाइस
जिसने अदालतके वलीसे उस जायदादको खरीदा था जायदादपर कब्ज़ा पानेके लिये नीलाममें खरीदने वालेके खिलाफ नालिश किया। . .
तय हुआ कि (१) वली का बयनामा, बिना अदालतकी इजाज़तके, किसी आदमीकी तहरीक पर, जिसपर कि उसका असर पड़ता हो नाजायज़ है (२) नाबालिराका अधिकार. उस अनधिकार पूर्ण बयनामेके मंसूख करने की नालिशका किसी डिक्रीके कारण न कुर्क किया जा सकता है और न बेचा जा सकता है (३) अतएव नीलाममें खरीदने वाला, वली द्वारा खरीदने घालेको, इस सूरतमें भी कि बयनामेकी इजाज़त अदालतसे न प्राप्त कीगई श्री बेदखल नहीं कर सकता। नरसिंहाचार्य बनाम तुलसा बाई 27 Bom. L. R. 483; 87 I. C.712, A. I R. 1925 Bom. 320.
-गा. दफा ३१-बयनामा-अदालतकी इजाज़त-बयनामेपर जिला जज की स्वीकृति-आया बयनामेके लिये काफी है ?.- नाबालिग्रकी तहरीक पर बयनामेका नाजायज़ होनेके योग्य होना-इन्तकालकी शर्ते, आया नाबा. लिगके मुवाफिक हैं उसके सम्बन्धमें जांच, यदि आवश्यक हो-खरीदारको गुप्त कार्यवाई, उसका परिणाम-कानूनी इजाज़त आया काफ़ी है?-बयनामेंकी इजाजतके सम्बन्धका न्यायाधिकार-बयनामेकी आवश्यकता और लाभके सम्बन्धमें जांच आवश्यक है--डिस्ट्रिक्ट जज,उसका कर्तव्य नाबालिग की जायदाद--सनद प्राप्त वली द्वारा बयनामा, प्राया जायज़ है-अदालतमें छल और धोखेबाजीकी कार्यवाई, उसका परिणाम-मोहनलाल बनाम मोहम्मद आदिल A. I. R. 1926 Oudh 88, . -गा. दफा ३१ (३) (डी)-डिस्ट्रिक्ट जज द्वारा, किसी नाबालिग की शादी के लिये खर्च नियत करने वाला हुक्म, अपीलके योग्य नहीं है और न दफा ४८ के अनुसार उसकी निगरानी ही होसकती है। देखो मु० दुर्गाबाईका मामला-48 A. 300; 92 I. C. 4823 A. I. R. 1926 All. 301.
-गा० दफा ३१-नाबालिगकी जायदादका डिस्ट्रिक्ट जजकी इजाज़तसे बेचना-नाबालिगकी तहरीकपर बयनामेका नाजायज़ होना--नाबालिग्रकी जायदादके प्रति डिस्ट्रिक्ट जजकी स्वीकृति।
दफा ३१ के अनुसार बयनामेकी पुश्तपर जिला जजकी केवल कानूनी स्वीकृत पर्याप्त नहीं मानी जाती। दफा ३० के अनुसार बिना अदालतकी इजाज़त सनदयाफ्ता वली द्वारा किया हुआ बयनामा नाबालिग़की तहरीक पर बिना इस बातका ज्याल किये हुये ही कि आया बयमामा नाबालिग्रके मुवाफिक था या नहीं नाजायज़ होता है। जब कभी किसी ऐसी बातका पता चलता है जिसके द्वारा खरीदार डिस्ट्रिक्ट जज द्वारा उसपर किये हुये विश्वाससे लाभ उठाया हुआ प्रमाणित होता है उस दशामें नाबालिग़की
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नाबालिगी और पलायत
[पांचवां प्रकरण
जायदादके बयनामेके लिये डिस्ट्रिक्ट जज द्वारा दी हुई कानूनी स्वीकृति गार्जियन एन्ड वार्ड्स एक्टकी दफा ३१ के अनुसार उस बयनामेको जायज़ नहीं बना सकती। दफा ३१ में डिस्ट्रिक्ट जजको यह अधिकार है कि वह बयनामेकी केवल उस दशामें स्वीकृति दे जबकि वह उस बयनामेकी श्रावश्यकता और लाभपर मुनासिब जांच करले । अतएव इस प्रकारकी जांचकी कमीका अर्थ जजके उस मामले में न्याय करनेके अधिकारका अभाव है और परिणाम स्वरूप उसका इस प्रकारका आदेश निरर्थक है। किसी व्यक्ति विशेष की किसी विशेष परिस्थितिके अतिरिक्त भी यह एक श्राम सिद्धान्त है कि कोई व्यक्ति जब वह किसी अमानती अवस्थामें हो तो उसे अपनी उस अवस्थासे लाभ उठानेका अवसर न मिलना चाहिये और अदालत किसी मनुज्यको ऐसी अवस्थामें न होने देगी जहां परकि उसका स्वार्थ उसे एक ओर खीं वे और उसका कर्तव्य उसे दूसरी ओर। जबकि नाबालिग़की जायदादका खरीदार नाबालिग्रका विश्वासपात्र होता है और वह विश्वासका दुरुपयोग करता है और उसके द्वारा धोखे और बेईमानीसे स्वयं लाभ उठाता है तथा अपने मित्रोंको लाभ पहुंचाता है उस अवस्थामें वह बयनामा माजायज़ समक्षा जाता है बिना इस बात पर ध्यान दिये हुये कि उसके सम्बन्धमें दफा ३१ के अनुसार डिस्ट्रिक्ट जजकी स्वीकृति प्राप्त करली गई है, क्योंकि इस दशामें जजकी स्वीकृति धोखेबाजी द्वारा प्राप्त की हुई समझी जाती है और धोखेबाजी एक ऐसी हरकत है जिसके कारण कोर्ट, अाफ़ जस्टिसकी कार्यवाइयां नाजा. यज़ हो जाती हैं । जब दफा ३१. द्वारा दी हुई जजकी स्वीकृति निरर्थक साबित हो जाती है, तो नाबालिग्रको अधिकार हो जाता है कि वह दफा ३० के अनुसार बयनामेको नाजायज़ करार दे। मोहनलाल बनाम मोहम्मद आदिल 120. L. J. 453; 89 I. C. 69, 20W.N. 601.
--गा० दफा ३१ और ४८--नाबालिग़की जायदादके बेचने के लिये डिस्ट्रिफ्ट जजकी स्वीकृति पर न केवल धोखेबाजीके बिना परही एतराज़ किया जा सकता है बल्कि दफा ४१ (२) के आदेशोंमें से किसीके भी पालन न करने पर किया जा सकता है। रामदीनसिंह बनाम रामसुमेरसिंह 27 0. C. 2847 A. I. R. 1925 Oudh 237,
-गा० दफा ३२--जायदादसे किसी अन्य मनुष्यके कब्जेको उठानेके न्यायाधिकार वलीके अधिकार और अवस्था--
___ एक संयुक्त परिवारके सभी सदस्योंने अपनी जायदादकी संरक्षा और उसकी आमदनीसे कुछ चढ़ा हुआ ऋण चुकाने के लिये तीन ट्रस्टी नियत किये,
और उनमेंसे एककी मृत्युके पश्चात् उसकी विधवा नाबालिग पुत्रकी धारिस नियत कीगई और प्रस्तुत दूस्टियोंके साथ जायदादके प्रबन्धके लिये एक अतिरिक्त दूस्टी बनाई गई वह दूसरे ट्रस्टियोंसे असन्तुष्ट हुई और डिस्दूिक्ट
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हालकी नज़ीरें ]
गार्जियन एण्ड वाईस
जजने गार्जियन एन्ड वार्ड्स एक्टकी दफा ३२ के अनुसार कुछ हिदायतें देकर ट्रस्टको मंसूख कर दिया ।
६२३
निगरानी में यह तय हुआ - - (१) कि डिस्ट्रिक्ट जजका प्रस्तुत ट्रस्टियों के खिलाफ़ ट्रस्टके मंसूख करनेका हुक्म न्यायाधिकारके बाहर है (२) गार्जियन एण्ड वार्ड्स ऐक्ट के अनुसार दिया हुआ हुक्म किसी तीसरे फ़रीक्रको जायदाद के क़ब्ज़े में पाबन्द नहीं कर सकता । डिस्ट्रिक्ट जज किसी तीसरे फ़रीक़को, जो किसी गलत या सही तरीक़े पर जायदादपर क़ाबिज़ है क़ब्ज़े से नहीं हटा सकता, किन्तु वलीको जायदादके हासिल करनेकी कार्यवाही करनेके लिये हिदायत कर सकता है । हरवंशसिंह बनाम राजेन्द्र 47 All. 313; 23 A. L. J. 28; 85 I. C. 1087; L. R. 6 A. 162; A. I. R. 1925 All. 277.
- गा० दफा ३४ ( डी ) -- इस दफाके आधीन हुक्म - उसकी सीमा - रामाजुलू रेड्डी बनाम रंगप्पा रेड्डीया 94I. C. 79.
-- गा० दफा ३४ (डी) ४३ (१) और ४७ -- गार्जियन एण्ड वार्डस ऐक्ट की दफा ३४ द्वारा अदालतको यह अधिकार नहीं प्राप्त होता, कि वह किसी वलीको, उस रकमसे अधिक अदा करनेके लिये, जो उसके द्वारा पेश किये हुये हिसाब में बतायी गई है, हुक्म दे । दफा ३४ (डी) के यह शब्द 'उन हिसाबों' में केवल अतिरिक्त शब्द न समझे जाने चाहिये। किसी नाबालिग के सम्बन्धीकी अर्जीपर डिस्ट्रिक्ट जजने अदालत द्वारा नियत किये हुये वली को, हिसाब पेश करनेका हुक्म दिया। इसके पश्चात् जजने उस हिसाबकी जांचकी, और यह तय किया कि वली द्वारा दये धन, उस रकमसे अधिक है जो उसने हिसाब में बताया है । इसपर अदालतने उसे हुक्म दिया कि वह उस रकमको जो इस प्रकार वाज़िबुल अदा पाई गई है जमा करे ।
तय हुआ कि वह हुक्म ऐसा हुक्म था, जो दफा ४३ (१) के आधीन दिया गया था न कि दफा ३४ (डी) के अनुसार, अतएव अपील के योग्य है । पेशकी हुई नज़ीरों में से 67 I. C. 309 की नजीर 25 O. L. I. 149 और 46. All. 458. से विरुद्ध है ।
तज़वीज़ जिमनी - जब वली द्वारा हिसाब पेश किये जानेके कारण, वलीपर पाबन्दी की कार्यवाही निर्णय बिषय बनादी जाती है तब मुनासिब मार्ग मह है कि दफ़ा ३५ या दफ़ा ३६ के आधीन अदालतमें अर्जी दी जाय और इसके पश्चात् वलीके विरुद्ध एक नियमपूर्ण नालिशकी जाय । हरीकृष्ण चेटीयर बनाम गोबिंद राजलू नैकियर 23 L. W. 420 : ( 1926 ) M.W N. 359; A. I. R. 1926 Mad. 478; 50 M. L. J. 273.
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नाबालिगी और वलायत
[पांचवां प्रकरण
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-गा. दफा ३६ और ३१ (२) (ए)-नाबालिग्रकी जायदाद बेचनेकी इजाज़त-नाबालिग के लाभका बयनामा किन्तु बिना अदालत की आज्ञा, यदि जायज़है ? अदालतका आज्ञा दिया जाना किन्तु बयनामेके ड्राफ्ठको अदालतके सामने पेश किये जाने के हुक्म के साथ-ड्राफ्टको अदालत के सामने न पेश करनेसे आया बयनामा नाजायज़ है । वलीका उससे कम मूल्य पर, जिसपर उसे बचनेका अधिकार था, बैंचना-उसका परिणाम-रघुनाथसिंह बनाम घोंघे सिंह A. I. R. 1926 Oudh. 169
--दफा ३६--यह वाकया,कि नाबालिग्रका चचा, जिसका हित नाबालिग के हितों के विरुद्ध था और जोकि वली बनाये जानेके लिये उपयुक्त न पाया गया था, तथा उसका और नाबालिग की मा और आजी जो नाबालिग की वली थी का झगड़ा था और वह झगड़ा इतना बढ़ा कि नाबालिग की माता और आजीके ओरके दो आदमी काम आये, यह माता और आजीको वलायत से हटाये जानेके लिये काफी कारण है-बीबी अत्तार कुवंर बनाम सोधीलाल सिंह 8. L. L. J. 201.
-गादफा ३६-३१ (२)(ए)-यदि जज किसी नाबालिग्रकी जायदाद के बयनामेकी स्वीकृत इस शर्त पर देदे कि दस्तावेज़ बयनामा उसके सामने स्वीकृत के लिये पेश किया जाना चाहियेतो उस सूरतमें जबकि वह दस्तावेज़ जजके सामने न पेश किया जाय तो वह बयनामा नाजायज़ होगा । (इस फैसलेमें आशवर्थ और सिम्यसन ए० जी० सी० सहमत थे और वजीर हसन ए० जी० सी० असहमत थे) रघुनाथसिंह बमाम धोंधेसिंह 2 0 W. N. 7963 (F. B.).
--गा० दफा ३६--वलीकी अलाहिदगी-वली और नाबालिरा के मध्य वैमनस्य-उचितहै कि ऐसी सूरत में जब यह प्रमाणित हो जाय कि वली नाबालिग के प्रति अत्याचार करता है तो वली हटा दिया जाय । जब नाबालिग की ऐसी अवस्था होकि वह मामला समझ सकता हो और उसके सम्बन्ध में अपनी राय रख सकता हो तब उसको ऐसे वली की सरक्षता में रखना जिसके प्रति वह वैमनस्य रखताहो मुनासिब नहीं है देखो-मुरारीलाल बनाम मु० सरस्वती Z Lah. L. J. 141; 26 Punj. L.R..467%
3A. I. R. 1925 Lah. 375.
-गादफा ३६--वलीका नियत किया जाना-मुसलमान नाबालिग बहिन के पतिः ( बहनोई) का नियत किया जाना--जाती कानून गुन्ना बनामः दरगाह बाई 851 C. 624; 28.0C. 172; A. I.. R. 1925-Dudh 6 23%3;
--गा० दफा ३६ और ४७ (जी)-श्रादेश दफा ३६ के अनुसार-इस दफा के अनुसार वली का हटाया जाना । अपीलके योग्य है। सूरजनारायण सिंह बनाम विशम्भरनाथ भान A. I. R. 1925 Oudh. 260%
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हॉलकी नज़ीरें]
गार्जियन एण्ड वाइस
__ --गा० दफा ४१--नाबालिग की मृत्यु-उत्तराधिकार में विरोध-आया अदालत वलीको आज्ञा दे सकतीहै कि वह एक दावेदार को जायदाद सोपदे तुलसीदास गोबिंद जी बनाम माधवदास लालजी (1926) M. W. N. 68. 92 I C. 570; A. I. R. 1926 Mad. 148.
--गा० दफा ४१--नाबालिग की मृत्युसे पलायत की समाप्ति-मृत्यु पर अदालतका कर्तव्य है कि उसकी जायदाद की हवालगी का हुकम दे । हीले हवालेकी सूरतमें जुर्माने का हुकम उचित है। फतेहचन्द बनाम पारवतीबाई 92 I. C. 196; A. I. R. 1925 Sind 269.
-गा० दफा ४१(३)--किसी वलीके पृथक किये जानेके सम्बन्ध अर्जी प्राप्त होनेपर, अदालतको दफा ४१ (३) के आधीन अधिकार है कि वह अदालतमें पेश किये हुए हिसाबकी जांचका हुक्म दे । रामराव बनाम रंगा स्वामीराव 92. I. C. 98; A. 1. R. 1926 Mad. 419.
-मा० दफा ४१ -यदि वह नाबालिग, जिसके लिये श्रदालत द्वारा वली नियत किया गया है मर जाय और इस बातका झगड़ा होकि कौन वारिस है, तो अदालत उस अवस्थामें वलीको यह हुक्म नहीं देसकती कि झगड़ा करने पाले वारिसों में किसीको भी जायदादपर कब्ज़ादे या उन्हें हिसाब दे। तुलसी दास गोबिन्द जी बनाम माधवदास लाल जी 22. L. W. 642,
-गा० दफा ४१ - नाबालिसके मर जानेपर वलायत समाप्त हो जाती है। नाबालिगके मर जानेपर अदालत वलीको जायदाद उस शख्सको हवाला करने के लिये इजाज़त देगी जोकि वारिस होनेकी सनद प्राप्त करे । मालगुज़ारीक श्रदान करनेकी सरतमें ही अदालत वलीपर जुर्मानाकर सकती है। फतेह चन्द्र बनाम पार्वती बाई 183. L. R. 85; A. I. P. 1925 Sind. 269.
-गा० दका ४५ जुर्माना -दफा ४१ (३) के आधीन हुक्मका उल्लङ्घन -जांच -मु० अब्बासी बेगम बनाम मु० याकृती बेगम 93 I. C. 628; 7 Pat. L.J. 473.
-गा० दफा ४५--अदालत दफा ४५. के अनुसार वलीपर तबतक जुर्माना नहीं कर सकती, जबतककि वह इस बातकी जांच न करेकि कितना रुपया घलीको देना है और वलीको इस बातका अवसर न दे कि वह सबूत हेकि उसे कुछ भी देना शेष नहीं है । मु० अम्बासी बेगम बनाम मु० याकृती बेगम 4 Bah. 264; A. I. R. 192b Patra. 477. __--गा दफा ४५--वलीको किसी जायदानके कब्जेको किसी नये क्लीके हवाले करनेका हुक्म देना- अाशा न मानने पर जुर्माना- जुर्माने के खिलाफ अपील- हाईकोर्ट मामलेकी सुनवाई कर सकती है--नाबालिसके अधिकार (Title) पर बिना विचार किये हुएही डिलेवरीका हुक्म देना। प्रकीर
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मावालिगी और बलायत
[पांचवां प्रकरण
मुहम्मद बनाम बृज नारायण 23 A.L.J. 736; L.R.6 A. 377 (Civ) 88 I. C. 144; A. I. R. 1925 A11. 785. ___-गा० दफा ४७-और ४८-जब डिस्ट्रिक्ट जजके हुक्मके विरुद्ध अपील नहीं होती तो वही हुक्म अन्तिम हुक्म समझा जाता है और उसपर नालिश या और किसी तरहपर एतराज़ नहीं किया जासकता । तरिनी कुंवरदत्त बनाम शीश चन्द्र दास 85 I C. 667; A. I. R. 1925 Cal.1160.
-गा० दफा ४८--डिस्ट्रिक्ट जजका शादीके खर्चके नियत करनेवाला हुक्म--श्राया निगरानीहो सकती है-देखो गार्जियन एण्ड वार्ड्स एक्ट दफा ३१ (३) (डी)--92 I. C. 482; A. I. R. 1926 All. 301. .. -गा० दफा ४८--एक्टके अनुसार जितने हुक्म होते हैं वे सब अन्तिम हुक्म माने जाते हैं यदि उनके विरुद्ध इस एक्टकी दफा ४७ के अनुसार अपील न की गई या जाबता दीवानीके अनुसार निगरानी न की गई । सूरज नारायण सिंह बनाम विशम्भर नाथ भान A. I. R. 1925 Oudh. 260.
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Naik Girls Girls Protecton Act.
No. II of 1929.
नायक कन्या रक्षण एक्ट नं० २ सन् १९२९ ई०
संयुक्त प्रान्त आगरा व अवधकी व्यवस्थापिका सभा द्वारा निर्मित
DKI
( यह क़ानून सिर्फ़ संयुक्त प्रान्तमें लागू है )
नोट - - यद्यपि 'नायक कन्या संरक्षण एक्ट नं० २ सन १९२९ ई०' का सम्बन्ध प्रधानतः हिन्दू-लाँ
के विषय से नहीं है किन्तु इस कानूनमें १८ वर्षकी नाबालिग नायक जातिकी कन्याओं का संरक्षण किया गया है इसलिये हमने इस प्रकरणका विषय समझकर तथा पाठकोंकी जानकारी के लिये दे दिया है । यह ध्यान रहे कि 'नायक' जाति हिन्दू जाति है और उनकी कन्याओंको प्रायः वैश्या ( रंडी ) वृत्ति सिखाई जाती है । यह कानून नायक जातिकी नाबालिग लड़कियों तक लागू होता है । बालिग लड़कियां यानी उनकी १८ वर्षकी उमर समाप्त होने के बाद यह कानून लागू नहीं होगा ।
चूंकि इस सूबेकी 'नायक' जातिकी नाबालिग लड़कियोंको वेश्या ( रण्डी ) वृत्ति सिखलाने की प्रथाका अन्त करदेना अति आवश्यकं प्रतीत होता है और चूंकि गवर्नमेण्ट श्राफ़ इण्डिया एक्टकी दफा ८० (ए) की उप दफा (३) अनुसार गवर्नर जनरल हिन्द महोदयकी स्वीकृत इस एक्टको पास करनेके लिये इससे पूर्वही प्राप्तकी जाचुकी है अतः नीचे लिखा हुआ क़ानून बनाया जाता है:
- दफा १ नाम व विस्तार
(ए) यह एक्ट सन् १६२६ ई० का नायक कन्या रक्षण एक्ट ( The Naik Girls' Protection Act, 1929. कहलायेगा ।
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કરવું
नाबालिगी और वलायत
[पांचवां प्रकरण
(बी) यह एक्ट सारे संयुक्त प्रान्त ( आगरा व अघध )
में लागू होगा। -दफा २ हालात जानने के लिये ज़िलाधीशके अधिकार
जिलाधीश (District Magistrate) को अधिकार है कि वह समय समय पर अपने खास या आम हुक्म के द्वारा जो निर्धारित नियमों के अनुसार प्रकाशित किये जायेंगे अपने अधिकार सीमा के अन्दर उपस्थित नायक जाति के किसी एक व्यक्ति या उनमें से अनेकोंको अपने सामने उप. स्थित होने का हुक्म देवे तथा उससे इस एक्टके लिये निर्धारितकी हुई चातोंके बारे में पूंछ । -दफा ३ नायक जाति की नाबालिग लड़कियोंके हटानेमें ... जिलाधीश द्वारा रुकावट डालनके अधिकार
जिलाधीश (District Magistrate ) को अधिकार है कि वह अपने लिखित हुक्म द्वारा समय समयपर अपने अधिकार सीमामें उपस्थित किसी व्यक्ति या व्यक्तियोंकी जिनके निरीक्षण या अधिकारमें नायक जातिकी नाबालिग लड़की या लड़कियां हों जिस प्रकार चाहे उस लड़की या लड़कियों को एक स्थानसे दूसरे स्थानमें जानेसे रोकने या किसी दूसरे प्रकारसे उनके जाने आनेको नियम बद्ध करनेका हुक्म देसके या उस लड़की या लड़कियों को कमाऊ कमिश्नरी ( Kumaun Division ) में न लेजाने देवे जिसमें कि उन्हें वहां वेश्या वृत्तिकी शिक्षा न दीजासके या वह दुराचारसे परिवेष्टित सीमामें न रह सके । -दफा ४ नायक जातिको लड़कियोंके निरीक्षणका प्रबन्ध
करनेके लिये जिलाधीशके अधिकार . यदि ज़िलाधीश · District Magistrate) की अनुमतिमें उसके अधिकार सीमाके अन्दर इस बातकी प्राशङ्का है कि नायक जातिकी कोई नाबालिग लड़की बेंचदी जावेगी या भाडेपर दीजावेगी या सिखलाई जावेगी या किसी दूसरे प्रकारसे हटादी जावेगी जिसमें कि वह वेश्या वृत्तिमें लगाई जासके या किसी गैर कानूनी तथा व्यभिचारके काममें लगाई जावे तो वह आशा देसकता है कि वह नाबालिग लड़की किसी नौआवादी (Settlement) में भेजदी जावे तथा वहां निर्धारित समय तक रक्खी जावे या ज़िलाधीश यह भी आज्ञा देसकता है कि यह नाबालिग लड़की किसी ऐसे व्यक्तिकी संरक्षामें रखदी जावे जो उसी धर्मका अनुयायी होवे तथाम जिस्ट्रेटकी रायमें उस नाबालिग लड़कीको सुरक्षित रखनेके योग्य हो । जिलाधीश ऐसी
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४३
दफा२-७ ]
नायक कन्या रक्षण एक्ट
कार्रवाई भी अमल में लासकता है जोकि उपरोक्त आज्ञाको पालन करानेके लिये आवश्यक प्रतीत हो ।
- दफा ५ सूचना न देनेवाले के लिये दण्ड
यदि जिलाधीराने किसी व्यक्तिसे इस एक्टकी दफ़ा २ के अनुसार सूचना वाही हो तथा उसे अपने सामने बुलाया हो और वह व्यक्ति बिला किसी क़ानूनी (Lawful ) कारणके मजिस्ट्रेट के सामने हाजिर न होवे या उस सूचना देने से इनकार करे या चाही हुई सूचना न देसके जिसे कि वह देसकता है या गलत सूचना देवे तो उसको छः मास तक के साधारण (Simple ) कारावास ( Imprisonment ) या ढाईसौ २५०) रुपये तक के जुर्माने या दोनों का दण्ड दिया जावेगा ।
किन्तु यदि कोई व्यक्ति पहिली बार इस अपराधका दोषी ठहराया गया हो तो उसको वास्तविक कारावासका दण्ड न दिया जावेगा ।
- दफा ६ ज़िलाधीशकी आज्ञाके उल्लंघन करनेमें दण्ड
यदि कोई व्यक्ति बिला किसी क़ानूनी (Lawful ) कारणके इस एक्ट की दफा ३ व ४ के अनुसार दीहुई डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेटकी आज्ञाका उल्लंघन करेगा या उसका विरोध करेगा या किसी भी प्रकारसे उस आशाके पालनमें आपत्ति उत्पन्न करेगा तो उसे किसी भी प्रकारका एक साल तकका कारावास या पांच सौ रुपये तकका जुर्माना होवेगा या दोनों दण्ड एक साथ दिये जायेंगे ।
- दफा ७ प्रांतिक सरकार द्वारा नियम बनाये जानेके अधिकार
प्रान्तिक सरकारको अधिकार है कि वह इस एक्ट के उद्देश्यकी पूर्ति के लिये इस एक्टके अनुसार नियमोंको बना सके तथा उसे यह भी अधिकार है कि वह ऐसे नियमोंको भी बनावे जिनसे कि यह निर्धारित होसके कि डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट इस एक्टके आधारपर किस प्रकारकी आज्ञायें दे सकता है तथा वह भी नियम बनायेगी जिसके अनुसार डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट नायक जाति या उसके समूह के किसी व्यक्ति विशेषको इस एक्टकी दफ़ा २ व ३ से बरी कर सकेगा तथा किन शर्तोंके साथ वह व्यक्ति बरी किया जासकेगा ।
किन्तु शर्त यह है कि प्रान्तिक सरकार अपने नियम बनानेके इन अधिकारों का प्रयोग करनेसे पहिले उन नियमोंको गज़ट द्वारा प्रकाशित करेगी तथा नायक जातिकी वस्तियोंमें इसको विशेष रूपसे प्रकाशित करेगी तथा काउंसिल में भी उन नियमोंपर वादविवाद होनेका अवसर देनेके पश्चात्
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माबालिग्री और बलायत
[पांचवां प्रकरण
ऐसे नियमोंको बनायेगीऔर यह भी शर्त है कि यह बनाये हुए नियम उस समय तक प्रयोग न किये जायेंगे जबतक कि यह नियम अपने अन्तिम रूप ( Final Form ) में गज़टमें प्रकाशित न कर दिये जावे । -दफा ८ परिभाषाएं इस एक्टमें(ए) नाबालिग लड़की ( Minor girl ) से अभिप्राय उस लड़की
___ का हैं जिसकी आयु अठारह वर्षसे न्यून होवे।। (बी) निर्धारित ( Prescribed ) से अभिप्राय उन बातोंसे है
जो इस एक्टके नियमों द्वारा निर्धारित कीगई हों। (सी) नौआवादी ( Settlement) से अभिप्राय उस मकान
या संस्थासे है जिसे प्रान्तिक सरकारने लड़कियों की रखवाली के लियेस एक्टके अनसार (Settlement ) (नौआवादी) के नामसे घोषित कर दिया हो परन्तु शते यह है कि ऐसे मकान या संस्थाका प्रबन्ध उन लोगोंके हाथ में रखा जावेगा जो वहां रक्खी जाने वाली लड़कियोंके
सहधर्मी होंगे। (डी) नायक जातिके व्यक्ति (Member of the Naik Caste)
नायक माता पितासे उत्पन्न वेश्या या नायक जातिकी वेश्या भी नायक जातिकी 'Member of the Naik Caster समझी जावेगी। ए० एच० डी०ई० बी० हैमिल्टन, सेक्रेटरी टु गवर्नमेन्ट यू० पी० की आज्ञानुसार।
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मुश्तरका खानदान
छठवां-प्रकरण
मिताक्षरालॉके अनुसार नोट-मुश्तरका खानदान वह कहलाता है जिसमें एक कुटुम्बके बहुतसे लोग शामिल शर्गक रहते हों और किसी तरहका अलगाव न हो । इसीको अविभक्त परिवार, अविभाजित परिवार या कुटुम्म, बिना बटा हुआ परिवारं, अविच्छिन्न परिवार, संयुक्त परिवार या कुटुम्ब, तथा मुस्तरका खानदान आदि नामोंसे कहते हैं । हिन्दुओंमें प्रायः सब लोग संयुक्त परिवारमें रहते हैं। इस प्रकरणमें शामिल शर्गक कुटुम्बकी सीमाका विस्तार, अधिकार, जिम्मेदारियां तथा कौन जायदाद शामिल शरीक है और कौन नहीं, जायदादका इन्तकाल मंसूख कराना और हकदारके मरनेपर उसके हिस्सेकी जायदाद किन लोगोंको मिलेगी, इत्यादि बातों का उल्लेख किया गया है ।
दफा ३८४ हिन्दू ख़ानदान मुश्तरका होता है
आम तौरपर हिन्दू खानदान मुश्तरका होता है, इसीलिये अदालतोंमें हिन्दू खानदान पहले मुश्तरका ( शामिल शरीक ) मान लिया जाता है जब तककि उसके खिलाफ साबित न किया जाय । मगर यह बात ज़रूर है, कि मुश्तरका खानदानमें जिस कदर दूरकी रिश्तेदारी होती जायगी उसी कदर बमुक़ाबिले नज़दीकी रिश्तेदारीके उस खानदानका मुश्तरका माना जाना कमज़ोर होता जायगा; अर्थात् दूरकी रिश्तेदारीको मुश्तरका मानना कमज़ोर होगा: देखो-मोरू विश्वनाथ बनाम गनेश 10 Bem. H. C. 444, 468; प्रीतकुंवर बनाम महादेवप्रसाद 21 I, A. 134; S. C. 22 Cal. 85.
_जब किसी हिन्दू खानदानमें बटवारा करानेसे अलहदगी हो जावे तो भी वह अलहदगी अधिक समयतक कायम नहीं रह सकती क्योंकि जब कोई आदमी अपने भाई या दूसरे हिस्सेदारसे अलहदा होगया और अलहदा होने के बाद उसके लड़का पैदा होगया, तो वह आदमी जो अलहदा हुआ था एक नये मुश्तरका खानदानका मुखियाहो जाता है वह उसका मूल पुरुष कहलाता है। इस नये खान्दानमें उसके बेटे, पोते, परपोते, शामिल हैं। इस अलहदा
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[ छठवां प्रकरण
हुये आदमीके मरनेपर जब उसकी छोड़ी हुई जायदाद उसके बेटोंके पास आवेगी, तब वह जायदाद फिर कुदरती तौरसे मुश्तरका हो जाया करती है । नतीजा यह है कि आम तौरपर हिन्दू खानदान मुश्तरका होता है: देखो - रामनरायन सिंह बनाम प्रीतमसिंह 11 B. L. R. 997; S. C. 20 Suth. 189; और देखो - दफा १६८ ।
४३२
मुश्तरका खान्दान
प्रत्येक हिन्दू खान्दान मुश्तरका समझा जायगा, जब तक कि उसका बटवारा न साबित किया जाय - कोई जायदाद मुश्तरका है यह फरीकों के बर्ताव से समझा जायगा, उस सूरत में जबकि कोई शहादत न होगी - अदालतको उस समय बहुत ही सावधानीकी आवश्यकता है जिस समय कि हिन्दू स्त्रीके मुश्तरका होने का प्रश्न हो--क़ानून शहादतकी दफा १०१ - - कुमुदिनी दास्या बनाम मुख सुन्दरी दास्या A. I. R. 1925 Cal. 257.
दफा ३८५ मुश्तरका ख़ानदानके मेम्बर
हिन्दुओं में मुश्तरका खानदानका फैलाव बहुत बड़ा है- मुश्तरका खानदानमें मृत पुरुष के पूर्वज और उनकी सन्तान, इसी तरह पर नीचेकी शाखा में बहुत दूर तक मुश्तरका खान्दानका फैलाव होता है। मुश्तरका खानदान के मुकाबले में 'हिन्दू कोपार्सनरी' (दफा ३६६-४०० ; का फैलाव बहुत छोटा है। जब हम हिन्दू मुश्तरका खानदान के बारेमें कहते हैं जिससे 'कोपार्सन बनती है, तो हमारा मतलब उन सब कुटुम्बियोंसे नहीं है, जो किसी एकही दूरके पूर्वजकी सन्तान हैं, और जिनमें अभी तक बटवारा नहीं हुआ बल्कि हमारा मतलब सिर्फ उन कुटुम्बियोंसे है जो अपनी रिश्तेदारी की वजह से खानदानकी मुश्तरका जायदादपर नीचे लिखे हक़ रखते हैं
(१) मुश्तरका जायदादपर अपना क़ब्ज़ा रखकर उससे लाभ उठाने का हक़ रखते हैं और ( २ ) उस जायदादपर अपने क़र्जेका बोझा डाल सकते हैं और ( ३ ) जायदादको गिरवी करने या बेचने आदिसे एक दूसरेको रोक सकते हैं और ( ४ ) अपनी इच्छासे उस जायदादका बटवारा करा सकते हैं।
हिन्दू खानदान मुश्तरका में 'कोपार्सनरी' के सिवाय और जो आदमी शामिल हैं उनका हक़ कम होता है, जैसे सिर्फ रोटी, कपड़ा पाना । मुद्दत रका खानदान में ऐसे भी आदमी होते हैं जो किसी खास सूरतके पैदा होजाने पर 'कोपार्सनरी' की हक़दारीके अन्दर आ जाते हैं इसलिये 'कोपार्सनरी' हक़दारी कैसी होती है इसके बतानेके पहिले यह बात ज़रूरी हैं कि कोपानरीके समझाने में जिन जिन बातोंकी ज़रूरत पड़ेगी, वे पहिलेही साफ तौर से बता दी जायें।
देवदासियों (वेश्याओं) की हिस्सेदारी नर्तकी कुमारियों ( वेश्याओं ) की भी खान्दानी हिस्सेदारी जीवित रहने के अधिकारसे हो सकती हैं। ऐसी
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दफा ३८५-३८६]
मिताक्षरा लॉके अनुसार
४३३
कोई भी नज़ीर नहीं है जो यहां तक पहुंचती हो कि किसी वेश्याकी पुत्री जन्मके कारण पैतृक सम्पत्तिपर अधिकार प्राप्त करती है। पाण्डेचेरी कोकिल अम्बल बनाम सुन्दर अम्मल 86 I. C. 633; 21 L. W. 259; A. I. R. 1925 Mad. 902.
___ यह प्रश्न जटिल है कि वेश्याओंकी पैतृक सम्पत्ति कौन है ? लड़की जो किसी वेश्यासे शेबातीके गर्भसे पैदा हुई है उसके बापका पता नहीं हो सकता और यह सही है कि वेश्याकी वह लड़की है। यदि बापका पता भी हो यानी वह वेश्या उतने दिन किसी खास आदमी के पास सिर्फ उसी के लिये रही हो तो भी वह लड़की बापकी जायदादमें कोई हक्क नहीं रखती। दफा ३८६ अपनी पैदाइशसे कौन लोग जायदादमें हक़ रखते हैं
अब यह प्रश्न उपस्थित होता है कि वह कौनसे आदमी हैं जो अपने पैदा होते ही, उसी समयसे, मुश्तरका खानदानकी जायदादमें हकदार हो जाते हैं ? इसका जवाब यह है कि वह आदमी जो कि जायदादके मालिकको पिन्डदान कर सकते हैं, वही अपनी पैदाइशसे मुश्तरका खानदानकी जायदादमें हकदार हो जाते हैं; अर्थात् पुरुष शाखामें तीन पीढ़ी तककी सन्तान, बेटे, पोते, परपोतेको यह हक्क प्राप्त हैं। इसीलिये जिस आदमीके बेटा, पोता, परपोता ज़िन्दा हो तो यह सब और उसको मिलाकर एक हिस्सेदारी कायम करते हैं, और इनमें से हर एकको पिण्डदान करनेका अधिकार है। इसीलिये वह आदमी पैदाइशसे जायदादमें हिस्सा पाते हैं । जो सन्तान मालिक जायदादको पिन्डदान नहीं कर सकती, वह इस हिस्सेदारी (कोपासनरी दफा ३६६से४०० ) में शामिल नहीं हो सकती, जैसे परपोतेका लड़का मालिक जायदादको पिन्डदान नहीं कर सकता। इसलिये जब तक मालिक जीता है, तब तक वह इस हिस्सेदारीमें शामिल नहीं हो सकता । मगर जैसे जैसे ऊपरका पूर्वज मरता जायगा, उसी तरहपर नीचेके दरजेकी पुरुष सन्तान 'कोपार्सनरी' की हिस्सेदारीमें शामिल होती जायगी।
__ स्मृतियों में यह माना गया है, कि लड़के, पोते और परपोतेका दिया हुआ पिण्ड मृत पुरुषको पहुंचता है। लड़का अपने बापको, पोता अपने दादा को, परपोता अपने परदादाको पिण्ड देता है। इसके आगे पिन्डकी क्रिया नहीं चलती । इसलिये लड़का श्रादि तीन सन्तान, और जिसे पिन्ड दिया जाता है उसे मिलाकर, चार पीढ़ी होती हैं। इन्ही चारोंके बीच में जो शारत्रानुसार सम्बन्ध है, वही क़ानूनमें 'कोपार्सनरी' नामसे कहा जाता है। सपिण्डी करणके विधानमें स्मृतियों में माना गया है, कि मृतपुरुष और उसके तीन पूर्वज इन चारों को मिलाकर एक 'पूर्ण पिण्डसपिण्ड' बनता है। मतलब यह
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मुश्तरका खान्दान
[छठवां प्रकरण
marriorronm.www
कि, पूर्ण पिण्डसपिण्ड चार डिगरीमें रहता है, इसी लिये 'कोपार्सनरी' की हिस्सेदारी चार डिगरीके अन्दरही मानी जाती है । कोपार्सनरीका विषय भागे विस्तारसे कहा गया है-देखो दफा ३६६ से ४०० यहांपर यह समझ लेना चाहिये कि मालिककी जायदादको जो जो लोग अपने हिन्दू शास्त्रीय सम्बन्धसे पिण्डदान करने के अधिकारी हैं वही अपनी पैदाइशसे मौरूसी जायदादमें हक़ प्राप्तकर लेते हैं। यानी लड़का, पोता, और परपोता । लड़के पोते, परपोतेके सिवाय और दूसरे रिश्तेदार अपनी पैदाइशसे मौरूसी, जायदादमें हक नहीं प्राप्त करते, जैसे परपोतेका लड़का । परपोतेके लड़केको उसके भगदादा ( वृद्ध प्रपितामह ) के जीतेजी जायदादमें कुछ हक़ नहीं है। मगर नगड़दादाके मरतेही वह भी अपने परदादाके साथः परपोतेकी हैसियत से जायदादमें अपनी पैदाइशसे हक्क प्राप्त कर लेता है। दफा ३८७ मुश्तरका ख़ानदानमें कौन आदमी होते हैं ?
एक हिन्दू मुश्तरका खानदानमें सिर्फ बाप और उसके पुत्रहीनहीं होते, परिक मूल पुरुष और उसके बिन ब्याहे लड़के, और लड़कियां, उसकी औरतें, उसके व्याहे हुए लड़के, और उन लड़कोंकी औरते व बच्चे, और विधवालड़की जिसे अपने पति के खानदानमें भोजन वस्त्र नहीं मिलता हो, होते हैं। इस तरहका खानदान जो यद्यपि स्वयं बहुतसी सूरतोंमें पूरा है, तो भी एक विशाल खानदानका अंश होसकता है। यानी ऐसे छोटे छोटे खानदान मिल कर एक बहुत बड़ा खानदान बनाते हैं। इस बड़े खानदानमें मूल पुरुषके सब मर्द औलाद और उनकी औरतें, लड़के, बिनव्याही लड़कियां होती हैं। चाहे खानदानः बड़ाहो या छोटा, उसके मेम्बर प्रायः इकट्ठे रहते हैं और मुश्तरका पूंजीसे उनका सब खर्चा होता है तथा अपने धर्मके सब कृत्य इकट्ठे अदा करते हैं । इस तरहसे रहनेवाले हिन्दू खानदानको अङ्गरेज़ी कानूनके जानने वाले 'ज्वाइन्ट हिन्दू फैमिली' ( Joint Hindu family ) कहते हैं; अर्थात् हिन्दू मुश्तरका खानदान, और इस खानदानकी आम सूरत यह है कि उसके मेम्बर भोजन, पूजन, और जायदादमें मुश्तरका होते हैं।
मामा और वहिनका लड़का-हिन्दूलॉ का कोई ऐसा नियम नहीं है, जिसके अनुसार पुत्रीका पुत्र और उसका नाना एकही हिन्दू मुश्तरका खानदान केमेम्बर माने जांय । दनजेर बनाम जहांगीर L. R. 6 All. 87 (Rev); 87 I.C. 6983 A. I. R. 1925 All. 775.
दो जुदा यानी बंटे हुये भाइयोंके केवल एक साथ रहने से यह नहीं साबित होता कि वे संयुक्त परिवारके सदस्य हैं । अलाहिदाभाइयोंका आराम सुविधा या शान्ति ी गरज़ से एक घरमें रहना असाधारण बात नहीं है। सदाशिवम् पिल्ले बनाम सानमुगम पिल्ले A. I. 1. 1927 Mad. 126.
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दफा ३८७-३८८]
मिताक्षरा लॉके अनुसार
४३५
नाबालिगकी जायदादपर वली-जब किसी खानदानका कोई सदस्य मायालिरा हो; और उसकी जायदादपर कानूनके अनुसार वली मुकर्रर किया गया हो, उस सूरतमें यह कहना कि नाबालिग मुश्तरका खानदानका मेम्बर नहीं रहा, एक बिल्कुल नया सिद्धान्त है । हरीमोहन घोष बनाम सुरेन्द्रनाथ मित्र 41 C. L. J. 535; 88 I. C. 1025; A. I. R. 1925 Cal. 1153. दफा ३८८ मेम्बरोंके हक़
मुश्तरका खानदानकी जायदादमें मेम्बसेंके हक हर एक स्कूलके भनु. सार मिन्न भिन्न होते हैं--बंगाल स्कूल--अगर जायदाद बङ्गाल स्कूलके ताबे है,तो लड़कोंको बापकेजीते जी मौरूसी जायदादमें कुछभी हक्क नहीं है। बह जायदाद बापके पास पूरे अधिकारों सहित रहती है। बापको कुल जायदादके बेचनेका पूरा हक्क प्राप्त है-(दफा ४६२-४६४ ); बङ्गालमें अगर बाप, बिना किसी वसीयतके मर जाये, तो उसके लड़के जायदादमें हक उत्तराधि. कारके अनुसार प्राप्त करते हैं। परन्तु अगर जायदाद मिताक्षरा स्कूलके ताबे हो तो दूसरी शकल होगी; देखो दफा १६-१७.
किसी मेम्बरकी, किसी खास हिस्सेपर उसके अधिकारके घोषणाकी नालिश तब तक नहीं हो सकती, जब तक बटवारेका दावा न किया जाय । रामस्वरूप बनाम मु० कटौला 83 I. C. 2273 A. I. R. 1925 All. 211.
हिस्सेदारकी स्त्रीका भरण पोषण बतौर कर्जके माना जायगा-हिन्दूलॉके सच्चे अभिप्रायसे यह विदित होता है कि मुश्तरका खानदानके हिस्सेदारोंकी स्त्रियां भी मुश्तरका खानदानकी मेम्बर होती हैं चाहे उन्हें जायदादमें हिस्सा बटाने या बटवारा करानेका अधिकार न हो। यद्यपि हिन्दू लॉ, हिन्दू पतिपर, बिना किसी जायदादके हवालेके जो उसके अधिकारमें हो, जबकि मुश्तरका खानदानके कब्जे में जायदाद हो, अपनी स्त्रीकी परवरिशका भार रखता है, ताहम स्त्री द्वारा पतिके खिलाफकी हुई नालिश केवल ऐसी नालिश न समझी जानी चाहिये, जो कि व्यक्तिगत पतिके खिलाफ हो किन्तु वह सही रीतिपर समस्त खानदानके खिलाफ नालिश है।
यह भी तय हुआ कि इस बातके माननेके लिये कोई कारण नहीं है कि परवरिशकी बाकी जो किसी स्त्रीको अपने पतिसे पाना हो, क्यों हिन्दू लॉके अनुसार, जो केवल गैर अदा की हुई पाबन्दीका ध्यान रखता है और जिसके तथा कर्ज या हानिके मध्य कोई अन्तर नहीं है कर्ज न समझा जाय ? श्री राजा बोम्मा देवरा राजलक्ष्मी बनाम नागना नायडू 21 L. W. 461; 87 I. C. 5713 A. I. R. 1925 Mad. 757.
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[ छठवां प्रकरण
दफा ३८९ मिताक्षरा स्कूल के अनुसार मुश्तरका ख़ानदान मिताक्षरा स्कूल में हिन्दू खानदानका मतलब मूल पुरुष और उसकी frant प्रधान शाखाकी सन्तान से है और जब तककि वह आदमी मामूली हालत में रहता है मुश्तरका माना जाता है। मुश्तरका खानदानमें किसी आदमी या औरतके मर जानेसे कोई फरक नहीं पड़ता देखो - सुकनधा वानी मन्दर बनाम सुकनधा वानी मन्दर ( 1904 ) 28 Mad. 344, 345.
४३६
मुश्तरका खान्दान
दफा ३९० मुश्तरका ख़ानदान बनानेसे नहीं बनता
मुतरका खानदान किसी आदमी या औरतके बनानेसे नहीं बनता वह जिस तरहसे क़ानूनमें माना गया है उसी तरहपर बनता है । यानी जितनी हदमें क़ानूनने मुश्तरका खानदानका फैलाव माना है उसी हृदमें वह रहेगा कोई उसे ज्यादा कमती नहीं कर सकता, मगर इसमें सिर्फ एक बात ऐसी है जिसके करने से गैर आदमी मुश्तरका खानदानके भीतर आ जाता है वह बात लड़का गोद लेना है। दत्तक लेने से दूसरे खानदानका लड़का भी मुश्तरका खानदानके भीतर आ जाता है ।
दफा ३९१ मुश्तरका खानदानकी शाखाएं
मुश्तरका खानदान एक मूल पुरुषसे शुरू होता है और उस मूल पुरुष के परिवारमें अनेक पुरुषोंकी औलाद होने से उनको मूल पुरुष मानकर छोटे अनेक मुश्तरका खानदान हो सकते हैं; देखो- -सदर सनाम मिस्ट्री बनाम मरासि महुलू मिस्ट्री 25 Mad. 149, 154. जब तक कि खानदानका बटवारा नहीं होता तब तक उसके दो या दो से ज्यादा मेम्बर चाहे वह एकही शाखा के मेम्बर हों अथवा वह उसी खानदानकी अनेक शाखाओंके मेम्बर हों, वे मुश्तरका खानदानसे अलहदा, और स्वाधीन क़ानूनके अनुसार नहीं मानेजायेंगे। लेकिन जहां पर वह एकही शाखा के सब मेम्बर हों तो वह उस बड़ेजमावके अन्दर अपना एक खास और अलहदा जमाव बना लेते हैं और इसके अनुसार उस शाखाके किसी मेम्बरकी खुद कमाई हुई जायदाद या किसी पूर्व पुरुषसे मिली हुई जायदाद, जो उस शाखाकी (सिर्फ उसी शाखाकी ) अलहदा जायदाद हो सकती है; बड़े जमावके अन्तर्गत दूसरी शाखाओं से अलहदा क़ब्ज़ा रखेंगेः देखो - 25 Mad. 149-155,
दफा ३९२ मुश्तरका खानदान कब टूट जाता है
मुश्तरका खानदानके सब मेम्बरोंके हक़का बटवारा हो जाने पर मुश्त रका खानदान टूट जाता है। जिन आदमियोंने मुश्तरका खानदान से बटवारा करा लेने के कारण मुश्तरका खानदान तोड़ दिया है उसमें नये मुश्तरक
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दफा ३८६-३६३]
मिताक्षरा लॉके अनुसार
खानदानकी चाल लागू होगी देखो--बटो कृष्ण नाहक बनाम चिन्तामणि नाइक 12 Cal. 262 जब कोई आदमी किसी मुश्तरका खानदानमें अकेला और पारिनरी मालिक हो तो उसके मरनेपर भी मुश्तरका खानदान टूट जाता है और उसकी जायदाद, अगर वह किसीको न दे गया हो तो उत्तरा. धिकारके अनुसार उसके वारिसको मिलती है देखो--इस पुस्तकका नवां प्रकरण । दफा ३९३ अलग रहनेसे मुश्तरका ख़ानदान नहीं टूट जाता
हिन्दू समाजमें शामिल शरीक परिवार, आम तौरसे होता है वह खानपानमें, पूजनमें, और जायदादमें जुड़ा रहता है, देखो रघुनन्द बनाम ब्रजकिशोर 1 Mad. 69, 81; 3. I A. 154. अगर जायदाद, बटवारा होकर अलहदा हो जाय, तो फिर वह खानदान शामिल शरीक नहीं गिना जाता । और अगर मुश्तरका खानदानके आदमियोंका रहन सहन और पूजन तथा खान पान अलहदा भी हो, तो ऐसी सूरतमें वह खानदान अलहदा नहीं माना जायगा; देखो-गनेशदत्त बनाम जीवाच (1908) 31 Cal. 262; 31. I. A. 10.
जब कोई:हिन्दू मिताक्षरा लॉ के आधीन हो और उसके पुत्र हों तथा वे अलाहिदा अलाहिदा रहते हों; तो यह नहीं माना जा सकता किं पिता भी
पने पत्रोंसे अलाहिदा है. जैनारायण बनाम प्रयागनारायण 21 L. W. 162; 20 W. N. 157; 85 I. C.21; L..R. 6 P.C.73; 27 Bom. L. R. 713; (1925) M. W. N. 13; 29 C. W. N. 775; 3 Pat. L. R. 255; A. I. R. 1925 P. C. 11; 48 M. L. J. 236 (P.C.).
क़ब्ज़ा मुखालिफ़ाना नहीं होता-यदि किसी संयुक्त परिवारका कोई सदस्य परिवारसे बहुत दिन तक बाहर रहा हो, तो कब्ज़ा मुखालिफ़ानाका प्रश्न नहीं उठता, जब तककि उस सदस्यका परिवारसे खारिज किया जाना था उसकी अनुपस्थितिके कारण परिवारका त्याग न साबित किया जाय । इस दशामें उसके हिस्सेका इन्तकाल, किसी अन्य सदस्य द्वारा नहीं किया जा सकता, या यदि उस संयुक्त खान्दानके किसी अन्य सदस्यने उसके हिस्से का इन्तकाल किया हो तो उसकी पाबन्दी उसपर नहीं हो सकती । गोबिन्द स्वामी चेटियर बनाम कोयण्डा बानी चेटियर A. I. R. 1927 Mad. 111.
किसी अविभक्त यानी गैर बटे हुये साझीदारके खिलाफ़ बिना उसकी जानकारी या उसके झानके कब्ज़ा मुखालिफ़ाना नहीं हासिल किया जा सकता। गोविन्द स्वामी चेटियर बनाम कोयण्डा वानी चेटियर A. I. R. 1927 Mad. 111,
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मुश्तरका खान्दान
[छठया प्रकरण
दफा ३९४ कुल देवता
हिन्दुस्थानमें सब हिन्दुओंके हर एक खानदानमें किसी न किसी देवता का विशेष पूजन होता है इन्हें कुल देवता या इष्ट देवता कहते हैं हिन्दुओंके हर एक परिवारमें जुदे जुदे नामके कुल देवताहोते हैं बटवारा करानेके समय कुल देवताकी मूर्ति और मन्दिर तकसीम नहीं किया जा सकता। मगर यह हो सकता है कि अगर मुश्तरका खानदानके लोग चाहें तो बारी बारीसे उस मूर्तिको अपने कब्जेमें रखें, या अदालत उस मूर्तिका कब्ज़ा खानदानके किसी प्रधान पुरुषको दे दे और बाक़ीके सब हिस्सेदार उस मूर्तिके पूजनके अधि. कारी होंगे देखो-दामोदरदास बनाम उत्तमराम ( 1892 ) 17 Bom. 271. मित्कन्थ बनाम नैशरंजन (1874) 14 Beng L. B. 166. और देखो दफा ५२७ में, 'देवस्थान' तथा दफा ८२३. दफा ३९५ मुश्तरका ख़ानदानका सुबूत किसके ज़िम्मे होगा
अदालत हिन्दू खानदान मुश्तरकाका होना पहिले मान लेती है इसलिये जो आदमी यह कहता हो कि खानदान मुश्तरका नहीं है, सुबूतका भार उसी के जिम्मे होगा देखो-दफा ३६७।
कोपार्सनरी (Coparcenary)
दफा ३९६ कोपार्सनरी
कोपार्सनरीका अर्थ-कोपार्सनरी शब्द अङ्गरेजी भषाका है इसका अर्थ है संसृष्टि, संसृष्टिता, समांशिता, शुरकाय, एक जद्दीकी जमात । इस कोपा. र्सनरीका हक जिन लोगोंके पास रहता है वह 'कोपार्सनर' कहलाते हैं। कोपासनर'का अर्थ है, समाशिन्, संसृष्टिन्, अंशहर, रिक्थाधिकारिन्, दायाद, शरीक मुंजमिल, शरीक खानदान। कोपार्सनरीका हक़ जिस जायदादमें रहता है वह 'कोपार्सनरी प्रापरटी' कहलाती है ऐसी जायदाद हमेशा मुश्तएका खानदानमें हुआ करती है। मुश्तरका हिन्दू खानदानमें 'कोपार्सनरी' का समझ लेना परमावश्यक है क्योंकि अनेक मौके शामिल शरीक रहनेपर भी जिन लोगोंको कोपार्सनरीका हक़ प्राप्त रहता है, उन्हींका पूरा अधिकार मुश्तरका जायदादपर रहता है। बाक़ीके लोगोंका हक सिर्फ रोटी, कपड़े
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दफा ३४४-३६७]
कोपार्सनरी
पानेका होता है। इसलिये जब मुश्तरका खानदान अर्थात् शामिल शरीक परिवारमें जायदादका मिलना, या बटवाराकी नालिश करना हो तो सबसे पहले यह निश्चित करो कि, वह आदमी जो जायदाद पानेका अपनेको हकधार बताता है या बटवारा करा पानेका हकदार बनता है 'कोपार्सनरी' के फैलावके अन्दर है या नहीं। अगर वह उसके अन्दर नहीं होगा तो उसे उपरोक्त हक प्राप्त नहीं होगा इसलिये नीचे 'कोपार्सनरी' को विस्तारसे सम. झाते हैं। दफा ३९७ बार सुबूत उसपर होगा जो बटा हुआ ख़ानदान
बयान करे कोपार्सनरी, हमेशा मुश्तरका खानदानमें होती है और हिन्दू खानदान आमतौरसे धर्म शास्त्रोंमें मुश्तरका माना गया है तथा अदालतमें भी वह पहले मुश्तरका मान लिया जाता है। इसी सबबसे जो पक्षकार इसके विरुद्ध क्यान करता हो, यानी मुश्तरका नहीं है, ऐसा बयानकरता हो तो इस बातके साबित करनेका भार उसी पक्षकारपर होगा, जो मुश्तरका नहीं बयान करता है। देखो-ट्वेिलियन हिन्दू लॉ पेज २१४ तथा एवीडेंस एक्ट नं० १ सन १८७२. ई०की दफा १०३.
दिवेलियन हिन्दुलॉ में कहा गया है कि "हर एक हिन्दू खान्दान स्नानपान और पूजन और जायदादमें शामिल शरीक मान लिया जाता है, और उस खान्दानकी जायदाद मुश्तरका मानली जाती है, इसलिये वार सुबूत उस पक्षकारके ऊपर होगा जो खान्दानको अलहदा होना बयान करता हो" नजीरें देखो--रिवनप्रसाद बनाम राधाबीबी (1846) 4M I. A. 137, 168; नरांगुटी लछमीड़वाम्हा बनाम बेंगामा नैडू (1861) 9 M. I. A. 66, 92, 1W. R. P. C. 30, 32; नीलकिस्टो देव बरमोने बनाम वीरचन्द्रथाकुर (1869) 12 M. I. A. 623, 540; 3 B. L. R. P. C. 13, 17; 12 W. R. P. C. 21, 28; मुसम्मात चिथ्या बनाम मिहीलाल बाबू ( 1867) 11M. I. A. 369; प्रीतकुंवर बनाम महादेवप्रसादसिंह-(1894) 21 A. 184, 135; 22 Cal. 85,89; भगवती मिसराइन बनाम दुमन मिसराइन (1875) 24 W. R.C. R 3653 तारकचन्द्र पोदार बनाम जुदीशरचन्द्र कुण्डू ( 1873 ) 11 B. L. B. 193; 19 W. R. C. R. 178; शिवप्रसाद चक्रवर्ती बनाम गङ्गामनी देवी-(1871) 16 W. R. C. R. 294; कासिमभाई अहमदभाई बनाम अहमदभाई हुव्वीभाई (1887) 12 Bom. 280, 309; पिलाशकुंवर वनाम भवानीवकस नरायण W. R. (1864) C. R, 1. विश्वम्भर सरकार बनाम सुरधनी दासी 3 W. R. C. R. 21; त्रिलोचनराय बनाम राजकिशनराय (1866 ) 5 W. R. C. R. 214; वीरनारायन सरकार बनाम तीनकौड़ीनन्दी (1864) 1 W. R. C. R. 316; और देखो दफा ४२२.
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४४०
मुश्तरका खान्दान
दफा ३९८ बटवाराके बाद मुश्तरका हो जाना
ऊपर मुश्तरका खानदानकी अलामत बताई गई है। इसका कारण यह है कि अगर किसी हिन्दू खानदानमें बटवारा भी हो जाय, उसके बाद जब रटे हुये आदमियोंकी औलाद होगी तो फिर वह मुश्तरका खानदान उतने हिस्से की जायदाद में हो जायगा जितना हिस्सा कि बटवारा कराने में मिला था । ऐसा मानो कि तीन भाई क, ख, ग, जो अभी तक शामिल शरीक रहते थे तीनोंने आपसमें बटवारा करा लिया और अपना अपना हिस्सा जायदादमें अलहदा करा लिया, अब देखिये उनकी ऐसी हालत सिर्फ थोड़ेही समय तक रहेगी क्योंकि जहां उनके लड़के पैदा हुये, तीनोंके, तीन मुश्तरका खानदान हो जायेंगे, क्योंकि मिताक्षरा लॉके अनुसार लड़के, पोते, परपोते मौरूसी जायदाद में अपनी पैदाइश के समय से ही हक़दार हो जाते हैं ।
[ छठवां प्रकरण
जब किसी हिन्दू आदमीकी औलाद बिना बटवारा कराये हुये रहती है तो मुश्तरका खानदान होता है, ऐसे मुश्तरका खान्दानमें दो तरहके मेम्बर होते हैं, ( १ ) जो 'कोपार्सनरी' में शामिल होते हैं और ( २ ) वह जिनको सिर्फ रोटी कपड़ा मिलनेका हक़ रहता है।
'कोपार्सनरी' मुश्तरका खान्दानके उन आदमियोंके गिरोहको कहते हैं जो मुश्तरका खानदानमें चार क़िस्म के अधिकार रखते हैं देखो - दफा ३८४, ४०१.
दफा ३९९
कोपार्सनरी तीन पीढ़ी में रहती है
जहां कि एक आदमीको मुश्तरका खानदानकी जायदादमें हिस्सा मिलता है तो उसकी तीन पीढ़ी तककी पुरुष सन्तान उस हिस्से में अपनी पैदाइशसे हक़ प्राप्त कर लेती है, इस तरहपर 'कोपार्सनरी' की हिस्सेदारी बढ़ती जाती है । 'कोपार्सनरी' की हिस्सेदारी हमेशा इस शर्तकी पाबन्द है, कि जो आदमी अपने हिस्सा पानेका दावा करता हो उसे उस पूर्वज से तीन पीढ़ी के अन्दर होना चाहिये जिसने कि हिस्सा पाया है; यानी तीन पीढ़ीसे ज्यादा फासलेका न हो । जब कोई तीन पीढ़ी से ज्यादा हो तो वह इस कोपासेनरीके हक़का हक़दार नहीं होगा क्योंकि 'कोपार्सनरी' हमेशा तीन पीढ़ीमें रहती है । कोपार्सनरीके चार मुख्य सिद्धांत यह हैं-
( १ ) कोपार्सनरी, मूल पुरुषसे शुरू होती है और मूल पुरुष भी उसमें शामिल रहता है । मूल उसे कहते हैं जिससे वह खान्दान बना हो देखो दफा ३८४.
(२) कोपार्सनरी, मूल पुरुष और उसकी तीत पुश्तोंमें रहती है (लड़का, पोता परपोता ) मूल पुरुषको मिला कर चार पुश्तों में देखो दफा ३८६.
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कोपार्सनरी
दफा ३६८-४०० ]
સ
(३) कोपार्सनरी, जायदादके आखिरी मालिकले तीन पुश्तोंमें और उसे मिलाकर चार पुश्तों में रहती है- देखो दफा ४००. ( ४ ) कोपार्सनरी, में वह लोग नहीं शामिल हैं जो मूल पुरुषसे, उसे मिलाकर या जायदादके आखिरी मालिकसे, उसे मिलाकर, पांचवीं पुश्तमें होते हैं ।
दफा ४०० आख़ीर मालिकसे तीन पीढ़ीमें कोपार्सनरी रहती है
ऊपरकी बातोंको ध्यानमें रखकर यह बात समझ लेनेके योग्य है, कि कोपार्सनरीकी हिस्सेदारी मूल पुरुषकी तीन पीढ़ी तककी सन्तानमें ही ख़तम नहीं हो जाती बल्कि जायदाद के आखिरी मालिककी तीन पीढ़ी तक होती. है । अर्थात् आखिरी मालिक के लड़के, पोते, परपोते तथा आखिरी मालिक भी शामिल रहता है, चाहे वह मूल पुरुषसे कितना भी दूर हो देखो - 10 B, H. C. R. 462, 465. इसे आसानीसे समझने के लिये एक फैसला देलो उपरोक्त नज़ीरमें जस्टिस नानाभाई हरीदासका फैसला और मोरो विश्वनाथ बनाम गनेश विठ्ठल 10 B. H. C. R. 444, 448 जस्टिस वेस्ट साहेबका फैसला विचारणीय है । जस्टिस नानाभाई हरीदासने इस तरह परं निश्चय किया -
अ
1
क
'च
घ
ज
ने एक
ख,
इस ऊपरके नक़शेमें 'अ' मूल पुरुष है और बाकी सब उसकी मर्द औलाद हैं। ( १ ) अ, पहले मर गया, उसके पीछे क, और मरे । ख, लड़का घ को और पोता च, छ, को छोड़ा और मर गया । च, छ, अपने बाप घ, से जायदादका बटवारा करा सकते हैं क्योंकि उनका मौरूसी जायदादमें बापके साथ हिस्सा हैं ।
( २ ) अब ऐसा मानो कि क, ख, पहले मर गये पीछे, अ, मरा और उसके एक परपोता घ, उस समय जिन्दा था जब अ, मरा था । अ, के मरने
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४४२
मुश्तरका खान्दान
[छठवां प्रकरण
पर च, और छ, पैदा हुए, तो भी वह घ, से जायदादका बटवारा करा सकते हैं। क्योंकि कोपार्सनरीमें पैदाइशसे हक़ माना जाता है और जायदादके आखिरी मालिकसे तीन पुश्त तककी पुरुष सन्तान कोपार्सनरीमें शामिल होती है जैसाकि इस किताबकी दफा ३६६ के तीसरे सिद्धान्तमें बताया गया है। - (३) अब ऐसा मानो कि क, ख, पहले मर गये, उसके पीछे अ, मरा और अ, ने अपने मरनेके समय ग, और घ, को छोड़ा। तब यह दोनों भाई जायदादकोसर वाइवर शिपके हकके साथ ( देखो दफा ५५८) मुश्तरकन् लेंगे। घ, अपने दो लड़के च, छ, को छोड़ कर मर गया, तब च, छ, और च, का लड़का ज, भी 'ग' से जायदादका बटवारा करा सकता है। अगर ज, के कोई लड़का होता तो उसका भी यह अधिकार प्राप्त होता, क्योंकि कोपार्सनरी तीन पुश्तमें रहती है।
(४) अब ऐसा मानो कि-क, स्त्र, और छ पहिले मर मये उसके बाद अ, मरा और उसने अपने मरते समय ग, और च, छ, को छोड़ा। ऐसी सूरतमें च, छ, का कोई हक्क जायदादमें नहीं है और वे ग, से बटवारा नहीं करा सकते, जो जायदाद ग, को अ, से मिली है। क्योंकि जायदाद ग, को अकेले मिली है। च, छ, के बाप घ, को जब जायदाद नहीं मिली, तो उनका तथा उनके लड़कोंका कोई हक़ नहीं रहा । ग, अकेले सब जायदादका मालिक होगा और ग, के मरनेपर उसकी सन्तानको वह मिलेगी।
कोपार्सनरीके उदाहरण- . मूल पुरुष
ऊपरके नक़शेमें कई तरहके अलग अलग उदाहरण समझो
(१) ऐसा मानो कि, अ, मूल पुरुष है और जिन्दा है तो कोपार्सनरी .अ, से तीन पीढ़ी तक यानी उसके लड़के, पोते, परपोतों तक रहेगी और अ,
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४४३
दफा ४०० ]
कोपार्सनरी
भी उसमें शामिल रहेगा अर्थात् क, ख, ग, घ, च, छ, ज, झ, प, और फ कोपार्सनरी में शामिल हैं। मगर ब, भ, और म, तथा उसकी सन्तान, हरगिज़ कोपार्सनरी में शामिल नहीं है ।
( २ ) ऐसा मानो कि --अ, मर गया और उसकी छोड़ी हुई जायदाद उसके लड़कों को मिली तो सिर्फ उसी जायदाद में लड़के और लड़कों के नीचे की तीन पीढ़ियां, कोपार्सनरीमें शामिल हो जायेंगी; अर्थात् के मरनेपर ब, भ, भी कोपार्सनरी में शामिल हो जायेंगे, क्योंकि ब, भ, जायदाद के आखिरी मालिक से तीन पीढ़ी के अन्दर हैं। मगर म और उसकी सन्तान हरगिज़ शामिल नहीं होगी क्योंकि वह आखिरी मालिक जायदादसे पांचवीं पीढ़ी में है । मालिक भी एक पीढ़ी शुमार किया जाता है । यह स्मरण रहे कि - लड़के पोते, परपोते सर वाइवर शिप ( देखो दफा ५५८ ) के हक़ के साथ जायदाद लेते हैं । इसी तरहपर जब ऊपरकी शाखा वाले मर्द मरते जायेंगे तब नीचे की शाखा वाले मर्द कोपार्सनरीमें शरीक होते जायेंगे ।
(३) ऐसा मानो फि-अ, के मरनेसे पहिले क, ख, ग, मर चुके थे पीछे अ, मरा । तो उस समय अ, की जायदाद उसके पोतोंको मिली (घ, च, छ, ज, झ, );. पोते आखिरी मालिक जायदादके होगये तो अब उनके लड़के, पोते, परपोते, कोपार्सनरीमें शामिल हो जायेंगे, अर्थात् म, भी कोपासंनरी के भीतर आ जावेगा मगर य, र, नहीं आवेगा ।
( ४ ) ऐसा मानो कि-अ, के मरने से पहिले उसके सब लड़के पोते, दोनों मर चुके थे पीछे अ, मरा। तो अब अ, के मरनेपर जायदाद उसके परपोतोंके पास पहुंची। वह ( परपोते ) जायदादके आखिरी मालिक हुये ऐसी सूरतमें उनके ( परपोतोंके ) लड़के, पोते, परपोते, कोपार्सनरीमें शरीक हो जायेंगे । अर्थात् जब जायदाद ऋ, के मरने पर प, फ, को मिली तो प, फ, के लड़के, पोते परपोते, भी कोपार्सनरीमें शामिल होगये यानी ब, भ, म, य, र, इसी तरह कोपार्सनरी बढ़ती जाती है ।
(५) अगर अ, के मरनेसे पहले उसके सब लड़के, पोते, परपोते मर चुके थे उसके पीछे अ, मरा और अ, के मरने के समय ब, और भ, ज़िन्दा थे, तो जायदाद मुश्तरका खान्दान के तरीक़े से नहीं मिलेगी बल्कि उत्तराधिकार ( Inheritance ) के अनुसार अ, के नज़दीकी वारिसको मिलेगी ( देखो प्रकरण १ ) यह माना गया है कि ऐसी सूरतमें अ, के मरने के समय कोपार्सन टूट गई थी ।
( ६ ) ऐसा मानो कि--१-अ के मरने से पहिले क, ख, मर चुके थे पीछे अ, मरा । अ, का लड़का गा और उसके पोते, तथा परपोते ज़िन्दा हैं । २--अथवा क, पहिले मर गया ख, ग, और पोते, परपोते, ज़िन्दा हैं । ३-
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मुश्तरका खान्दान
[छठवां प्रकरण
अथवा ग, (लड़का ), ज, झ, (पोते ), दोनों पहिले मर गये पीछे अ, मरा हो और क, ख, तथा बाकीके पोते, परपोते ज़िन्दा हैं, तो हर एक कुटम्बी जो इस कोपार्सनरीमें शामिल माने गये हैं उन्हें अधिकार है कि अपने बापके, या दादाके स्थानापन्न होकर चाचाओं या चचाज़ात दादाओंके साथ कोपार्सनरीके पूरे पूरे हक्क प्राप्त करें।
(७) ऊपरकी सब बातोंपर ध्यान रखते हुये इस दफाके नक्शेमें यह बात भी समझ लीजिये कि-कोपार्सनरीमें कई एक छोटे छोटे परिवार ( Families) भी शामिल हो जाते हैं, परन्तु कोपार्सनरीके सिद्धांत और फैलाव के बाहर नहीं जा सकते जैसे-श्र, का परिवार तीन पीढ़ीमें फैला है। इसी तरहसे ग, का परिवार, दो पीढ़ीमें एवं क, ख, का परिवार एक, एक पीढ़ीमें फैला है। यह लोग बड़ी कोपार्सनरीके अन्दर छोटी छोटी कोपार्सनरी अपनी अपनी बनाते हैं। जिस तरहसे कि ग, यद्यपि अ, के साथ कोपासंवरी में शामिल है परन्तु ग, अपनी अलाहा कोपार्सनरी अ, की ज़िन्दगीमें सिर्फ अपने लड़कों और पोतोंकी बनाता है। एवं क, यद्यपि अ, के साथ कोपासेनरीमें शामिल है परन्तु क, अपनी कोपार्समरी सिर्फ अपने लड़कोंके साथ अ, की ज़िन्दगीमें बनाता है। इसका मतलब यह है कि मूल पुरुषसे तीन पीढ़ी नीचे तक कोपार्सनरी मानी जाती है इसमें चाहे जितने आदमी हों वह सब शामिल हैं, और इसीके अन्दर अपने अपने परिवारकी अलहदा अलहदा कोपार्सनरी मानी जा सकती है, परन्तु किसी तरहसे भी वह मल पुरुष या जायदादके आखिरी मालिकसे तीन पीढ़ीसे आगे नहीं मानी जायगई और इसमें मूल पुरुष तथा मालिक शामिल रहेंगे।
कोपार्सनर (Coparcener)
दफा ४०१ कौनलोग कोपार्सनर हैं और कौननहीं तथा उनकेहक:
(१) कोपार्सनरके हक-कोपार्सनरीमें जो लोग शामिल माने गये हैं वही 'कोपार्सनर' कहलाते हैं। अर्थात् जो लोग मुश्तरका जायदादमें अपना हिस्सा रखते हैं वह लोग 'कोपार्सनर' कहलाते हैं । कोपार्सनरका हरू मुश्तरका जायदादमें यह होता है.. (१) जायदादपर कब्ज़ा रखना और उससे लाभ उठाना ।
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दफा ४११]
कोपार्सनर
४५
(२) जायदादके बारेमें एक दूसरेको काम करने में रुकावट डालना। (३) अपने कर्जेका जायदादपर बोझा डालना । (४) अपनी इच्छासे जायदादका बटवारा करा लेना।।
इन चार हनोंके सिवाय यह भी याद रखना चाहिये कि -कोपार्सनर जायदादको या उसके किसी खास हिस्सेको सरवाइवरशिप ( देखो दफा ५५८), के अनुसार लेते हैं । कोपार्सनरके अधिकारोंको विस्तारसे देखो दफा ४१०.
(२) दत्तकपुत्र कोपार्सनर है-दत्तकपुत्र भी, जिससमयसे कि वह गोद लिया जाता है कोपार्सनर बनजाता है इसतरहपर कि मानो वह औरस पुत्र है, कोपार्सनरके हक्क उसे पूरे प्राप्त होजाते हैं। . (३) बेटे, पोते, परपोते कोपार्सनर हैं-हिन्दूधर्मशाखके अनुसार बेटे, पोते, और परपोते पैतृक जायदादमें अपनी पैदाइशके समयसे हक्क प्राप्त करलेते हैं तो इससे साफ जाहिर है कि वही लोग जो अपनी पैदाइशसे पैतृक जायदादमें हक्र प्राप्त करलेते हैं कोपार्सनर है यानी मूलपुरुष, और उसके बेटे, पोते, परपोते.
(४) परपोतेके बेटे कब कोपार्सनर होंगे-यहबात बिल्कुल साफ है कि मूलपुरुष ( वह आदमी जिससे खानदान बना है या शुरू होता है ) के जीते जी सिवाय उसके, और उसके बेटे, पोले, परपोतोंके, अन्य कोई भी कोपार्सनर नहीं होसकता, मगर जब मूलपुरुष मर जायगा तो उसके मरने के पश्चात् जब जायदाद उस मूलपुरुषके बेटोंके पास जायगीतब बेदोंके परपोते भी कोपार्सनर सिर्फ उस जायदादमें होजायेंगे जो मौरूसी जायदाद मूलपुरुषके बेटोंके पास आई है, और उस जायदादमें बेटोंके परपोते भीअपना हक्क अपनी पैदाइशसे प्राप्त करेंगे। इस जगहपर स्मरण रखो कि बेटोंके परपोते मूलपुरुषके जीवनकालमें पैतृक जायदादमें कुछ हक्क नहीं रखते और न वह उससमय कोपार्सनर हैं।
(५) पोतेका अपने बापके स्थापन होना-अगर मूलपुरुषके मरनेसे पहिले उसके कई एक बेटोंमेंसे कोई बेटा मरगया हो तो मूलपुरुषके मरनेपर मरेहुए बेटेका लड़का (मूलपुरुषका पोता) अपने पिताके स्थानापन्न होकर मूलपुरुषके दूसरे बेटोंके साथ (चाचाओंके साथ) मौरूसी जायदादमें हिस्सा पावेगा। और ऊपर बताये हुए कायदेके अनुसार जब मृतपिताके स्थानापन्न होकर पोतेको मौरूसी जायदाद मिली हो तो अब उस पोतेके बेटे, पोते, और परपोते अपनी पैदाइशसे उस जायदादमें हक प्राप्त करलेते हैं और वह सब कोपासनर होजायेंगे।
(६) परपोतेका अपने दादाके स्थानापन्न होना-जब मूलपुरुषके मरने सेपहिले उसके कई एक बेटोंमेंसे कोई बेटा मरगया हो और उस मरेहुप
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मुश्तरका खान्दान
[ छटवां प्रकरण
बेटेका लड़का ( मूलपुरुषका पोता ) भी मरगया हो तो मूलपुरुषके मरने के पश्चात् मूलपुरुषका परपोता अपने मृतदादाके स्थानापन्न होकर मूलपुरुष के दूसरे बेटों के साथ मौरूसी जायदाद में हिस्सा पावेगा । और ऊपर के क़ायदे के अनुसार जब मौरूसी जायदाद मूल पुरुषके परपोतेको मिली हो तो उस जायदाद में मूल पुरुषके परपोतेके बेटे, पोते, परपोते अपनी पैदाइश से इन प्राप्त कर लेंगे तथा वह कोपार्सनर हो जायेंगे ।
४४६
(७) परपोते के बेटेको कब हक़ नहीं मिलेगा- जब मूल पुरुषके मरने से पहिले उसके कई एक बेटों में से कोई बेटा मर गया हो, और उस मरे हुए बेटेका लड़का तथा पोता ( मूल पुरुषका पोता और परपोता ) भी मर गया हो तो मूल पुरुष के मरनेके पश्चात् मूल पुरुषके मरे हुये बेटेका परपोता जायदाद में हिस्सा पानेका अधिकारी नहीं होगा और न वह कोपार्सनर बन सकता है और जब मूल पुरुषके मृत बेटेके परपोतेको जायदाद नहीं मिली तो फिर उस जायदादमें उसके बेटे, पोते, परपोते भी अपना कोई हक़ नहीं रखते । अर्थात् उन्हें मौरूसी जायदाद में कुछ हक़ नहीं है, क्योंकि तीन पुश्त तक ही स्थानापन्न होकर जायदाद पानेका क़ायदा है ।
1
दफा ४०२ मिताक्षराला के अनुसार कोपार्सनर
मिताक्षराला के अनुसार हर एक हिन्दू अपनी पैदाइशसे या गोद लेने से सम्पूर्ण कोपार्सनरी जायदाद में अपना हक़ प्राप्त कर लेता है । कोपार्सनरी जायदाद चाहे पैतृक हो या न हो और चाहे उसके जन्म होने या दत्तक लेने के समय से पहिले या पीछे मिली हो तो भी हक़ प्राप्त कर लेता है ।
यह बात स्मरण रखनेके योग्य है कि- बापको यदि किसी नालिश करनेका अधिकार क़ानूनन् प्राप्त है तो कोई भी 'कोपार्सर' उस अधिकारको नहीं ले सकता । अर्थात् अगर कोई कोपार्सनर यह ख्याल करे कि उस अधिकारमें वह शामिल है तो गलत है, देखो - उजागरसिंह बनाम पीतमसिंह 8 I. A. 190; 4 All. 120 मगर देवस्थानकी जायदादमें लड़केका हक़ माना गया है देखो - रामचन्द्र पांडे बनाम रामकृष्ण भट्ट 33 Cal. 507.
लड़कों का भाग कोपार्सनरी जायदादमें बापके भागके बराबर रहता है देखो - सुन्दरलाल बनाम चितारमल 29 All 1 परन्तु लड़के कभी अपने बाप से अलहदा क़ब्ज़ा जायदाद पर नहीं रख सकते - देखो - बल्देवदास बनाम श्यामलाल 1 All. 77. बाबूवीर किशोरसिंह बनाम हरवल्लभ नरायनसिंह W. R. C. R. 502.
दफा ४०३ अनौरस पुत्र
(१) द्विज (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, ) जातिमें अनौरसपुत्र ( जो पुत्र औरस' न हो औरस पुत्रके लिये देखो दफा ८२ ) का हक़ कोपार्सनरी जाय
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दफा ४०२-४०३ ]
कोपार्सनर
दादमें कुछ नहीं माना गया क्योंकि वह कोपार्सनर नहीं है - देखो - रोशनसिंह बनाम बलवन्तसिंह ( 1899 ) 27 I. A. 51, 56, 22 All. 191, 197; 2 Bom. L. R. 529 रणमर्दनसिंह बनाम साहेब प्रल्हादसिंह 7 M. I. A. 18, 4 W. R. P. C. 132.
४४७
( २ ) शूद्र क़ौममें अनौरसपुत्रका हक़ माना गया है और वह कोपार्सनर होता है । देखो - राही बनाम गोविन्द वल्दतेजा 1 Bom. 97. सादू बनाम बैजा 4 Bom. 37. सरस्वती बनाम मन्नू 2 All. 134. हरगोविन्द कुंवर बनाम धरमसिंह 6 All 329. कृष्णा पैप्पन बनाम मुदुसामी 7 Mad. 407. एन कृष्णाअम्मा बनाम एन पामा 4 Mad. H. C. 234. और देखो - 7 Mad. 407, 4 Mad. H. C. 234; 12 Mad. 72; 13 Mad. I. A. 141, 159. और भी देखना हो तो मनुस्मृति अध्याय ६ श्लोक १७६ देखोदास्यांवादासदास्यांवायः शूद्रस्य सुतोभवेत् सोनुज्ञातो हरेदंशमिति धर्मोव्यवस्थितः ।
तथा याज्ञवल्क्य व्यवहाराध्यय श्लोक १३४.
जातोऽपि दास्यां शूद्रेण कामतों शहरो भवेत् मृते पितरिकुर्युस्तं भ्रातरस्त्वर्द्ध भागिकम् ।
शास्त्रोंमें बताया गया है कि शूद्र क़ौममें अगर दासी या दासीकी दासी से पुत्र पैदा हो तो पिताकी इच्छा से भाग पाता है। क़ानूनमें यह मान लिया गया कि शूद्र क़ौममें अनौरस पुत्र कोपार्सनर हो सकता है अगर कोई विशेष बात इसके खिलाफ़ न हो ।
यह बात हमेशा याद रखना चाहिये कि अगर अनौरसपुत्रकी पैदाइश किसी ऐसे सम्बन्ध से हुई है कि जो धार्मिक दृष्टिसे अनुचित है अथवा किसी ऐसी स्त्रीसे हुई है कि जिसका पति जिन्दा हो और किसी दूसरे पुरुषके अयोग्य सम्बन्धसे वह पैदा हुआ हो तो शूद्र क़ौममें भी लड़केका हक़ कोपासनरी जायदादमें नहीं माना जायगा और न वह कोपार्सनर होगा। देखो - वेङ्कटा चिल्लाचिट्टी बनाम परवाथाम 8 Mad H. C. 134 दलीप बनाम गनपति 8 All. 887. दत्तीपरीसीनयादू बनाम दत्तीबेंगरू 4 Mad. H. C. 204.
(३) शूद्रों में भी अनौरस पुत्रका हक़ पैदाइश से नहीं माना गया - शूद्रोंमें जहांपर कि आनौरस पुत्रका हक़ माना गया है वहांपर उसकी पैदाइसे नहीं माना गया इसीलिये अनौरस पुत्र बापसे कोपार्सनरी जायदादका टवारा नहीं करा सकता और न. बापके हक्रोंको रोक सकता है जो उसे
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४४९
मुश्तरका खान्दान
[छठवां प्रकरण
कोपार्सनरी जायदादमें है । देखो-रामसरनगराइन बनाम टेकचन्द्रगरायण ( 1900 ) 28 Cal. 194 अगर उसके बापने हक़ दिये हों तो होंगे।
(४) जब किसी आदमीके औरसपुत्र और अनौरस पुत्र दोनों किस्म के होवे तो बापको अधिकार है कि वह औरस पुत्रोंके बराबर तक अनौरस पुत्रको जायदादमें हक़ दे सकता है ज्यादा नहीं। देखो-करूपान्नान चिदी बनाम वलोकमचट्टी 23 Mad. 16.
(५) बापके मरनेके बाद अनौरस पुत्र सरवाइवरशिप (देखो दफा ५५८); के हनके साथ कोपार्सनरी जायदादमें दूसरे लड़कोंके साथ हिस्सेदार हो जाता है देखो-जोगेन्द्र भूपति हरीचन्द्र महापात्र बनाम नित्यानन्द मानसिंह (1890) 17 I. A. 128; 18 Cal. 151; 11 Cal. 7023
(६) अगर बाप अपनी ज़िन्दगीमें लड़कोंका हेनं नहीं दे गया और मर गया है तो बापके मरनेके पश्चात् अनौरस पुत्र, औरस पुत्रोंके मुनाषिले अदालतमें मुनमा दायर करके अपने हिस्सेका बटवारा करा सकता है। देखो-थङ्गम पिलाई बनाम संप्या पिलाई 12 Mad. 401. फकीर अप्या बनाम फकीर अप्पा (1902) 4 Bom L. R. 809.
(७) अगर बापने अपनी ज़िन्दगीमें लड़कोंका हिस्सा तकसीम नहीं किया तो बापके मरनेपर अनौरस पुत्रको औरस पुत्रसे आधा हिस्सा मिलेगा। देखो-पार्वती बनाम थिरूमलाई 10 Mad. 334,344; चिल्लामल बनाम रङ्गनाथम् पिलाई (1910) 34 Mad. 277.
उदाहरण--ऐसा मानो कि एक आदमी शूद्र कौमका मेरा जिसने दो औरस पुत्र तथा एक अनौरस पुत्र और पांच हजारकी जायदाद छोड़ी बापके मरनेपर अब बटवारा इस तरह होगा कि दो, दो, हज़ारकी जायदाद तो हर एक औरस पुत्रको मिलेगी तथा एक हज़ारकी अनौरस पुत्रको । इसी तरहसे जब औरस पुत्र और अनौरस पुत्र दोनों अनेक हों तो जितना हिस्सा हर एक औरस पुत्रको मिलेगा उसका आधा हिस्सा हर एक अनौरस पुत्र पावेगा। अनौरस पुत्रका हक़ केवल शूद्र कौममें माना गया है द्विजोंमें नहीं।
(८) अनौरस पुत्रको जायदाद कब मिलेगी ? शूद्र कौमके अनौरस पुत्रको उस वक्त कुल जायदादके पानेका हत पैदा होगा जबकि उसका बाप अपने भाइयोंसे बिलकुल अलहदा होकर मरा हो और उसके कोई औरस पुत्र न हो। देखो-25 Mad. 519.
(९) ऐसा अनौरस पुत्र, जो उत्तराधिकार पाने या कोपार्सनर होने का अधिकारी नहीं है वह रोटी कपड़ेके पानेका हक़ उस जायदादमें रखता है जिसकाकि उसका बाप अपनी ज़िन्दगीमें कोपार्सनर था-और यह हक़ उस पुत्रका उस जायदादपर भी होगा जिसका कि बटवारा नहीं हो सकता देखो
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दफा ४०४-४०५]
कोपार्सनर
४४४
रणमर्दनसिंह बनाम साहेब प्रल्हादसिंह 7 Mad. I. A. 18; 4 W. R. P. C. 1323 12 Mad. I. A. 203; 2 Beng. L. R. (P. C.) 15.
(१०) बापके भाई के साथ अनौरस पुत्रका कोई हक कोपार्सनरी जायदादमें नहीं है। यानी अगर कोई शूद्र क़ौमका आदमी अपना भाई और औरस पुत्र तथा अनौरस पुत्रको छोड़कर मर जावे तो उस सूरतमें अनौरस पुत्रका कोई हक़ कोपासनरी जायदादमें नहीं होगा क्योंकि अनौरस पुत्रका कोई हक़ बापके स्थागपन्न होकर नहीं प्राप्त होता। देखो-रानोजी बनाम कांडोजी 8 Mad. 557; 10 Mad. 334; 27 Mad. 32. और दफा ७२२-२.
अनौरस पुत्रको शूद्रों में भी जायदादका न मिलना-किसी व्यक्तिका किसी अन्य पुरुषकी स्त्रीके साथ सहवास, व्यभिचार है, चाहे पतिने उस सम्बन्धकी रजामन्दी भी देदी हो । इस प्रकारके सहवाससे पैदा हुश्रा पुत्र हिन्दूलॉ के अनुसार दासी पुत्र नहीं है अतएव शूद्रोंके मध्य उसे वरासतका अधिकार नहीं है। बीठाबाई बनाम पांडू 28 Bom. L. R. 5957 A. I. R.. 1926 Bom. 301. दफा ४०४ मिताक्षरालॉ में औरत कोपार्सनर नहीं होती
मिताक्षराला के अनुसार औरत कोपार्सनर कभी नहीं होसकती सिर्फ मर्द होता है। देखो-पुनाबीबी बनाम राधा किशुनदास (1903 ) 31 Cal. 476. लेकिन यह कायदा कानून मियादके खिलाफ नहीं माना जायगा यानी अगर किसी सबबसे औरतके कब्जेमें कोई कोपार्सनरी जायदाद चली गई हो और उस जायदादपर उस औरतका कब्ज़ा इतने दिनोंतक बना रहाहो कि क़ानून मियादके अनुसार वह अब बेदखल नहीं की जासकती हो तो ऐसी सूरतमें वह औरत अपनी जिंदगीभर तक कोपार्सनरी जायदादमें क़ब्ज़ारखेगी। देखो-श्याम कुंवर बनाम दाह कुंवर ( 1902) 29 I. A. 132; 29 Cal. 6647. 6 C. W. N. 657; 4 Bom. L. R. 547. दफा ४०५ कोपार्सनर होनेके अयोग्य पुरुष
जिन श्रादमियोंका हक़ उत्तराधिकारमें ( देखो प्रकरण १) उनकी अयोग्यताके सबबसे नहीं माना गया वह आदमी कोपार्सनर नहीं माने गये उनका हक़ सिर्फ रोटी कपड़े का होता है देखो-रामसहाय मुकट बनाम लाल जी सहाय लाला 8 Cal. 149; 9 C. L. R. 457; रामसुंदर राय बनाम रामसहाय भगत 8 Cal. 919. यही बात व्यवहार मयूख तथा दायभाग मेंभी मानी गई है।
इस विषयमें बङ्गाल हाईकोर्टमें यह माना गया है कि जब किसी पुरुष को शारीक अयोग्यता जन्मसे नही बल्कि बीचमें पैदा होगई हो तो भी उसे
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Go
[ छठवां प्रकरण
मुश्तरका खान्दान
कोपार्सनरी जायदादमें हक़ नहीं मिलेगा क्योंकि वह कोपार्सनर नहीं हो सकता देखो - रामसहाय मुकट बनाम लालजी सहाय 8 Cal. 149; 9 C. L. R. 457; रामसुंदर राय बनाम रामसहाय भगत 8 Cal. 919.
बङ्गाल हाईकोर्टकी रायके खिलाफ इलाहाबाद हाईकोर्टने यह माना है कि- जब किसी पुरुषको कोपार्सनरी जायदाद में जन्मसे हक़ एक दफा पैदा हो जाय और उसके बाद उसे शारीरिक अयोग्यता आगई तो अब उस अयोग्यताको आज उसकाहक नहीं मारा जायमा । त्रिवेणी सहाय बनाम मोहम्मद उमर ( 1905 ) 28 All 247.
जब किसी आदमी को अपनी अयोग्यता के सबब से जायदाद में हक नहीं मिला हो तो, जब उसकी अयोग्यता चली जायगी तब वह अपने
के पाने का दावा कर सकता है। देखो - मिस्टर मेनसाहेबका हिन्दूलॉ पेज ६५५; और भट्टाचार्य्यका ज्वाइन्ट फेमिली लॉ ३१६, ३६७, ४११, ४१४, इस तरहसे हक़ मिलनेके बाद अगर अयोग्यता आगई हो तो फिर वह हक नहीं चला जायगा ।
जब किसी आदमीको अयोग्यताके सबबसे उत्तराधिकार और कोपार्सनरी जायदाद में हक़ नहीं मिल सकता तो इस बातकी मनाही नहीं है कि उस अयोग्य आदमीके नाम किसी जायदादका बनशीश पत्र आदि न किया जाय अर्थात् किया जासकता है। देखो गङ्गासहाय बनाम हीरासिंह 2 All. 809; कोर्ट आफ् वास बनाम कुवलसिंह 10 B. L. R. 364. दफा ४०६ अयोग्यता के साबित करनेका भार किसपर होगा
जब किसी मुकद्दमे में किसी आदमीकी शारीरिक योग्यता क्यान की गई हो तो उस अयोग्यता के साबित करनेका भार उस पक्षपर निर्भर है जिसने उसे बयान किया हो । देखो - हेलनदासी बनाम दुर्गादास 1 C. L. J. 323; फटीकचन्द्र चटरजी बनाम जगतमोहिनी देवी 22 W. R. C. R. 348;
न्द्रमनी देबी बनाम क्रिष्टचन्द्र मजूमदार 18 W. R. C. R. 375; ईश्वर चन्द्रसेन बनाम रानीदासी 2 W. R. C. R. 125; नलिनचन्द्रगुहो बनाम भगाला सुन्दरी दासी 21 W. R. C. R. 249; 21 I. A. 94.
दफा ४०७ मरा हुआ माना जायगा
जिस किसी आदमीका हक़ कोपार्सनरी जायदादमें नहीं है और मह कोपार्सनर नहीं हो सकता, तो इसका मतलब यह लगाया गया है कि मानो आदमी मर गया। देखो - बापूजी लक्ष्मण बनाम पाण्डुरंग 6 Bom, 616,
बीरमित्रोदय, ८-६.
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दफा ४०६-४१० ]
कोपार्सनर
दफा ४०८ लड़केको हक़ कब नहीं मिलेगा
जब किसी आदमीको शारीरिक अयोग्यताके सबबसे कोपार्सनरी जायदाद में हक़ नहीं मिलाहो और ऐसी दशामें जायदादका बटवारा हो जाय तो बटवारा होनेके बाद अगर उसके लड़का पैदा होगया तो उस लड़केको भी कोई हक़ नहीं मिलेगा यानी वह लड़का फिर जायदादमें अपना हक़ कुछ भी नहीं रखता देखो - बापूजी लक्ष्मण बनाम पांडुरंग (1882) 6 Bom 616; और अगर बटवारा होने के पहिले उस अयोग्य आदमीके लड़का पैदा हुआ हो और वह लड़का योग्य पैदा हुआ हो तो उसे कोपार्सनरी जायदाद में हक़ मिलेगा । देखो – कृष्णा बनाम सामी (1885) 9 Mad. 64; और देखो मेन हिन्दूलॉकी दफा ६००.
कोपार्सनरी जायदादका कोई हिस्सा रोटी कपड़े के बदले में नहीं दिया जासकता, उसे जिसे रोटी कपड़ेके मिलने का हक़ कोपार्सनरी जायदादमें है । दफा ४०९ अपना हिस्सा छोड़ देना
बम्बई और मदरास प्रांतमें जहांपर किमिताक्षरा पाबंद कियागया है हरएक कोपार्सनर, कोपार्सनरी जायदादका अपना हिस्सा बिला मंजूरी दूसरे शरीक कोपार्सनरोंके किसी भी कोपार्सनरको देसकता है और बक्शीस कर सकता है । देखो - पेदैय्या बनाम रामलिंगन् 11 Mad. 406; मगर कलकत्ता और संयुक्त प्रांत में ऐसा नहीं होसकता अर्थात् वहांपर बिलामंजूरी दूसरे शरीक कोपार्सनरोंके अपना हिस्सा नहीं देसकता और न बख़्शीस करसकता है । देखो -चन्द्रकिशोर बनाम दंपती किशोर 16 All 369; एक पुरानी नज़ीर देखो- दालचन्द बनाम सुंदर 2 Agra 173.
४५१
अगर किसी कोपार्सनरने अपना हिस्सा किसी दूसरे कोपार्सनरको देदिया हो तो वह सिर्फ अपनाही हिस्सा देसकता है मगर अपने बेटे पोते परपोतेका हिस्सा नहीं देसकता। देखो - शिवाजीराव माधोराव बनाम वसंत राव माधोराव 33 Bom. 267; 10 Bom. LR. 778.
नोट - बम्बई और मदरास प्रांत में मुश्तरका खानदान के मेम्बरको यह अधिकार माना गया है कि वह अपना हिस्सा दूसरेको दसकता है यहांपर दूसरेसे मतलब मुश्तरका खानदान के दूसरे मेम्बरसे हैं । यह बात बंगाल और इलाहाबाद हाईकोर्टने नहीं मानी ।
दफा ४१० कोपार्सनरके अधिकार
कोपार्सनरके अधिकार इस किताबकी दफा ४०१ में सामान्यरीति से बताये गये हैं यहांपर उन्हीको विस्तारसे देखिये
( १ ) को पार्सनरका पहला हक़ - -कोपार्सनरी जायदादके मेम्बरके हक़ को रक्षित रखते हुए मुश्तरका जायदादपर क़ब्ज़ा रखना और उससे लाभ
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४५२
मुश्तरका खान्दान
[छठवां प्रकरण
उठाना; देखो हलधरसेन बनाम गुरुदासराय 20 W. R. C. R. 126;सुरेन्द्र नरायनसिंह बनाम हरीमोहन मिसर 33 Cal. 1201; स्टालकारट बनाम गोपालपाण्डे 12 B. L. R. 1973 20 W, B. C. R. 58; नन्दनलाल बनाम लोएड 22 W. R. C. R. 74. - बङ्गाल स्कूल-जब कोई कोपासनर सिर्फ अपने हकके पानका दावा कानूनन नहीं कर सकता, मगर यह शामिल शरीक रहने के लिये दावा कर सकता है ( ऊपरकी नज़ीरें देखो ) यह बात केवल बङ्गाल स्कूलमें होती है यानी बङ्गाल स्कूलमें बापकी ज़िन्दगीमें लड़कोंका हक़ कोपार्सनरी जायदादमें महीं है इसलिये लड़के बापसे अपना हिस्सा तो नहीं लेसकते मगर वह शामिल शरीक रहने के लिये दावा कर सकते हैं मगर शर्त यह है कि यह दावा कानून मियादके बाहर न हो।
अगर कोई कोपार्सनर कोपार्सनरी जायदादमें कुछ ऐसा फेरबदल करता हो, या उसमें कोई ऐसी इमारत बनाता हो, या उसमें कोई ऐसा काम करता हो, कि जिससे कोपार्सनरी जायदादका नुकसान होता हो, या हो सकता हो, तो किसी कोपार्सनरकी प्रार्थनापर कोर्ट उस फेर बदल, या इमारत, या काम को बन्द कर देने और असली हालतमें कर देनेका हुक्म दे सकती है। देखो शशिभषण घोष बनाम गनेशचन्द्रघोष 20 Cal. 500. जानकीसिंह बनाम बखोरीसिंह Ben. S. D. A. 1856; P. 761. शादी बनाम अनूपसिंह (1889) 12 All. 436. परसराम बनाम सरजित 9 All 661.
अब अनेक आदमी कोपार्सनरी जायदादके हक़दार हों तो वह सब आपसमें उस जायदादको अपनी सहूलियतकी गरज़से अपना अपना हिस्सा अलहदा करके लाभ उठा सकते हैं मगर ऐसा करनेसे उस जायदादका बट. धारा नहीं माना जायगा । देखो-ट्रिबेलियन हिन्दूलॉ पेज २२५ और जहांपर कि सब कोपार्सनरोंकी इजाज़तसे और सरज़ीसे किसी कोपार्सनरको मुश्तरका जायदादका कोई हिस्सा मिला हो और उसने उसे उन्नत किया हो तो घे बेदखल नहीं कर सकते । देखो-कलक्टर आफ चौबीस परगना बनाम देवनाथराय चौधरी 21 W. R. C. R. 222. जोतीराय बनाम भिचक मिया 20 W. R.C. P. 288.
यदि कोपार्सनरी जायदादके अनेक हिस्सेदारोंने जब सिर्फ अपनी सहलियतके लिये अपना अपना हिस्सा अलहदा कर लिया हो तो हर एक हिस्सेधारकी जितनी आमदनी उस जायदादसे होगी वह सब मुश्तरका मानी जायगी अर्थात् कोई हिस्सेदार यह नहीं कह सकता कि, उसकी जायदादके हिस्सेकी वह आमदनी है इसलिये उसकी अलहहाकी होगयी, देखो--मुसस्मात बोनाकुंघर बनाम बोलेसिंह 8 W. R. O. R. 182...
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दफा ४१०]
कोपार्सनरं
४५३
मिताक्षराला के अनुसार कोई कोपार्सनर मुश्तरका जायदादसे सिर्फ अपने हिस्से के पानेका अदालतमें दावा नहीं कर सकता, मगर वह जायदादके बटवारा करा पाने का दावाकर सकता है इससे यह मतलब है कि वह बटवारा करा पानेका दावा करे और पीछे अपना हिस्सा जायदाद में से अलाहदा कर लेवे; देखो-त्र्यंबक दीक्षित बनाम नरायन दीक्षित 11 Bom. H C. 69. रतन मनीदत्त बनाम बृजमोहनदत्त 22 W. R.C. R. 333. गोबिन्दचन्द्र घोष बनाम रामकुमार देव 24 W. R. C. R. 393.
___ जब कोई दूसरा आदमी कोपार्सनर नहीं है मुश्तरका जायदादके किसी हिस्सेको अपने कब्जे में लेकर उसका उपभोग करने लगे या उससे लाभ उठाने लगे तो एसी सूरतमें कोई भी कोपार्सनर अदालतमें नालिश करके उसे 'निकाल सकता है यानी यह ज़रूरी नहीं है कि सब कोपार्सनरोंको मिलकर दावा करना चाहिये। देखो-राधाप्रसाद बस्ती बनाम ईसुफ 7 Cal. 4149 9 Cal. L. R. 76; दर्शनसिंह बनाम दिग्विजयसिंह 9 C.LJ. 623.
मियाद दावा करनेकी--अगर कोई आदमी मुश्तरका खानदानकी जायदादसे बेदखल होगया हो या उसका हक़ चलाया गया हो तो वह आदमी बारह वर्षके अन्दर अपने हकके पानेका और जायदादमें क़ब्ज़ा पानेका दावा कर सकता है; देखो-कानून मियाद ऐक्ट न० ६ सन १९०८ की दफा १२७ अगर किसी मुक़द्दमेंमें यह कहा जाता हो कि अमुक आदमी एक समयमें मुश्तरका खान्दानका मेम्बर था मगर अब नहीं है तो इस बातका सुबूत देना उसी पक्षकारपर निर्भर है जिसकी तरफसे यह बयान किया गया हो कि वह अब मुश्तरका खान्दानका मेम्बर नहीं है। देखो-इस किताबकी दफा ३६७ तथा 22 Bom. 259; 18 Bom. 197; 11 Bom. 365.
क़ब्ज़ा मुखालिफ़ाना ( Adverse possession )--मुश्तरका खानदान की जायदादका अगर कोई हिस्सा किसी हिस्सेदारके पास अलहदा क़ब्ज़ेमें बारह वर्षसे ज्यादा रहा हो, और दूसरे हिस्सेदार कहते हों कि वह हिस्सा जो उसके पास अलहदा था सहूलियत आदिकी गरज़से अलहदा कर दिया गया था और असलमें वह शामिल शरीक खान्दानकी जायदाद है। ऐसी सूरतमें वह आदमी जिसके कब्ज़ेमें बारह वर्षसे ज्यादा वह जायदाद रही हो यह कह सकता है कि 'कब्ज़ा मुखालिफ़ाना' होगया। और इस वजेहसे उस श्रादमीसे जायदाद पीछा नहीं लीजासकेगी । बेनीसिंह बनाम भरतसिंह 1 Agra. 162. रंजीतसिंह बनाम मददअली (1868 ) 3 Agra 222. भानागोविन्द गुरावी बनाम विट्ठोजी लाड़ोजी गुरावी 3 Bom. H. C. A. C.170. मगर शर्त यह है कि किसी दूसरे हिस्सेदारने किसी वक्त यह ज़ाहिर किया हो कि वह जायदाद जो अलहदा एक हिस्सेदारके कब्जे में थी मुश्तरका है, और जिसके कब्जेमें थी उसने इस बातसे इनकार किया हो तो बारह वर्षकी
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मुश्तरका खान्दान
[ छठवां प्रकरण
मियाद उस तारीख से शुरू होगी कि जिस तारीखको इनकार किया गया हो कि जायदाद मुश्तरका नहीं है; देखो जोगेन्द्रनाथ बनाम बल्देवदास (1907) 35 Cal. 961. वैद्यनाथ पैय्यर बनाम ऐय्यासामी पैय्यर ( 1908 ) 32 Mad. 191. शफुन्निशा बीबी चौधरानी बनाम कैलाशचन्द्र गंगोपाध्याय 25 W, R. C. R. 53. रखलदासबन्दो पाध्याय बनाम इन्द्रमनी देवी ( 1877 ) 1 Cal L. R. 155.
પ
(२) कोपार्सनरका दूसरा हक़ मुश्तरका जायदाद में यह है कि वह अपना और अपने बच्चोंका तथा उन आदमियों और औरतों का खाना पीना जो उसके ऊपर निर्भर है, मुश्तरका खानदानकी जायदादमें सेले सकता है। देखो - पैय्यावू मुपानार बनाम नीलादखी अमल. 1 Mad. H. C. 45; 12 Bom. H. C. 96. एवं लड़कोंके शिक्षणका खर्च और लड़कियोंकी शादीका खर्च भी ले सकता है देखो - वैकुंटम् अम्भानगर बनाम - कालापिरान पैय्यनगर (1900) 23 Mad. 512. और उचित तथा आवश्यक धार्मिक कृत्योंके खर्चके लिये भी ले सकता है । देखो - भट्टाचार्यके ज्वाइन्ट फैमिली लॉ पेज 277. सब क्रिस्मके खर्च खानदान और जायदाद की स्थिति तथा हैसियतके अनुसार योग्य समझे जायेंगे ।
(३) कोपार्सनरका तीसरा हक़ मुश्तरका जायदादमें यह है किवह अपने मुश्तरका खानदानकी जायदाद के मेनेजर ( प्रबन्धक) से सब किस्म के हिसाबात और हालतें पूंछ सकता है, और जायदाद बेचने या रेहन करने श्रादि बड़ी बड़ी बातोंमें अपना मत दे सकता है ।
( ४ ) कोपार्सनरका चौथा हक़ मुश्तरका जायदादमें यह है कि अगर किसी कोपार्सने ऐसा कोई काम किया हो जो उसके अधिकारसे बाहर है तो उस काम के बारेमें आपत्ति ( रॉक टोंक) करनेके लिये, तथा उस कामका करना अयोग्य है इस बातके क़रार दिये जानेके लिये अदालतमें मुकद्दमा दायर कर सकता है । देखो - सूर्य्यवंशी कुंवर बनाम शिबप्रसादसिंह 6 I. A. 88, 101; 5 Cal. 148, 165; 4 Cal. L. R. 226. अनन्त रामराव बनाम गोपाल बलवन्त ( 1894 ) 19 Bom. 269 गनपति बनाम अन्नाजी ( 1898 ) 23 Bom. 144. रामचन्द्र काशी पाटंकर बनाम दामोदर त्र्यंबक पाटंकर - 20 Bom. 467; 13 W. R. C. R.322, 323.
1
( ५ ) कोपार्सनरका पांचवां हक़ मुश्तरका जायदादमें यह है किहर एक कोपार्सनर अपनी इच्छा के अनुसार मुश्तरका खानदानकी जायदाद का बटवारा करा सकता है । मगर जहांपर मिताक्षराला माना जाता है वहां पर बापके जीते जी पौत्र ( पोता ) पितामह ( दादा ) से बटवारा नहीं करा सकता, इसी तरहपर जब बाप अथवा पितामह दोनों या दोनोंमें से कोई एक भी ज़िन्दा हो तो प्रपौत्र अपने प्रपितामहले बटवारा नहीं करा सकता -
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दफा ४११-४१२]
कोपार्सनर
४५५
अर्थात् इसे यो कहिये कि पोता अपने दादासे जबकि उसका बाप जिन्दा हो, या परपोता अपने परदादासे जबकि उसका बाप या दादा कोई जिन्दा हो तो कोई भी बालिग कोपार्सनर बटवारा नहीं करा सकता-अर्थात् पापके मरने पर पोता अपने दादासे और बाप और दादा दोनोंके मरनेपर परपोता अपने परदादासे बटवारा करा सकता है।।
__ साझीदार द्वारा--यदि किसी संयुक्त हिन्दू परिवारके किसी सदस्यने कोई इन्तकाल किया हो, जिसकी पाबन्दी दरहकीकत परिवारपर नहीं है,
और वह सदस्य मर जाय, और दूसरे जीवित सदस्य भी मर जाय, तो भावी वारिसोंको अधिकार होगा कि इस प्रकारके इन्तकालका विरोध करें। सरजू प्रसाद बनाम मङ्गलसिंह 23 A. L J. 254; L. R.6 A. 201; 47 All. 490; 87 I. C. 294; A. I. R. 1925 All. 339. उदाहरण-ऐसा मानो कि अ, मुश्तरका खानदानका मूलपुरुष है। अ,का
लड़का क,है और ख,पोता है तथा ग, परपोता है। सब जिंदा हैं, ऐसी सूरतमें ख, बटवारा करालेना चाहता है अ, से। तो वह नहीं करा सकता क्योंकि खं, का बाप क, जबतक जीता
रहेगा बटवाराका हक कभी स्त्र,को नहीं प्राप्त होगा। अब ऐसा I मानो कि ग, बटवारा करालेना चाहता है अपने परदादा , ग से। वह नहीं करा सकता क्योंकि ग,का बाप और दादाजिंदा
हैं जब दोनों मरजायें तब ग, को बटवारा करापानेका हक परदादासे होगा बीचमें नहीं होगा। दफा ४११ कोपासेंनरका मरना
जब कोई कोपार्सनर मरजाय तो बाक्री ज़िंदा कोपार्सनरही उस जायदादके मालिक होते हैं । क्योंकि सरवाइवर शिप (देखो दफा ५५८ ). के हक के साथ कोपार्सनर अपना हक्क रखते हैं। एक कोपार्सनरके मरनेपर उसकी चौथी पुश्त कोपार्सनर बनजाती है जैसाकि कोपार्सनरीमें बताया गया है. देखो-राजनरायनसिंह बनाम हीरालाल E Cal. 142; पार्वती कुमारी देबीश्रीमतीरानी बनाम जगदीशचन्द्र चौवल ( 1902) 29 I. A. 827 29 Cal. 4337 6 C. W. N. 490; 4. Bom. L. R. 365; सातोकुंवर बनाम गोपाल साहू ( 1907 ) 34 Ca1. 929; 5 Mad. 362.
अगर सब कोपार्सनर मरगये हों और अब कोई भी कोपार्सनर बाकी मरहे तो फिर मुश्तरका खानदानकी जायदाद उत्तराधिकारके अनुसार उस आदमीके वारिसको पहुंचती है जो कोपार्सनरोंमें सबसे अखीरमें मगहो। दफा ४१२ कोपार्सनरके मरनेसे मुश्तरका व्यापार नष्ट नहीं होता - जब मुश्तरका खानदानका कोई व्यापार चलरहा होतो किसी एक कोपार्सनरके मर जानेसे वह व्यापार बंद नहीं होसकता जिस तरहसे कि किसी
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४५६
मुश्तरका खान्दान
[छठवां प्रकरण
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व्यापारकी साधारण भागीदारी, एक भागीदारके मरनेसे नष्ट हो जाती है देखो 14 Bom. 189, 5 Bom. 38. मुश्तरका खानदानकी जायदादमें कोई कोपार्सनर अपना हिस्सा निश्चित नहीं कर सकता जबतक कि बटवारा नहो जावे । क्योंकि हरएक कोपार्सनरका हिस्सा कमती और ज्यादा होजाना सम्भव है कमती इस वजेहसे हो सकता है कि जब उसके लड़का पैदा हो जाय, और ज्यादा इस वजेहसे होसकता है कि जब उसके कोपार्सनरोंमेंसे कोई मर जाय । इसी तरहके सम्बन्धोंसे कमती और ज्यादा हिस्सा हो जाया करता है इसीलिये कोई कोपार्सनर मुश्तरका खानदानकी जायदादके मुनाफे या भाड़े आदिमें यह कभी नहीं कह सकता कि 'मेरा हिस्सा देदो' क्योंकि वह मुश्तरका खानदानकी जायदाद है, और उसका हिस्सा बटा हुआ नहीं है। देखो-अप्पूधियर बनाम रामा सुव्वा ऐय्यन 11 M. 1. A. 75,
मुश्तरका जायदाद-कोपार्सनरी प्रापर्टी
( Coparcenary property )
दफा ४१३ अप्रतिबन्ध और सप्रतिबन्ध वरासत
मिताक्षरा-तत्र दायशद्धेन यद्धनं स्वामिसम्बन्धादेवनिमित्तादन्यस्य स्वंभवति तदुच्यते-सच दिविधः।अप्रतिबन्ध सप्रतिबन्धश्च । तत्र पुत्राणांपौत्राणां च पुत्रत्वेन पौत्रत्वेन च पितृधनं पितामहधनं च स्वं भवतीत्य प्रतिबन्धो दायः। पितृव्य भ्रात्रादीनां तु पुत्राऽभावे स्वाम्याऽभावे च स्वं भवतीति पुत्रसद्भावःस्वामिसद्भावश्व प्रतिबन्धस्तदभावे पितृव्यत्वेन भ्रातृत्वेन चस्वं भवतीति स प्रतिबंधोदायः एवं तत्पुत्रादिष्वप्यूहनीयः । इति । दायविभागप्रकरणे ।।
भावार्थ-'दाय' शब्दसे वह धन कहलाता है जो स्वामीके सम्बन्धसे दूसरे श्रादभीका धन हो जाय । वह दाय दो प्रकारका है 'अप्रतिबन्ध' और 'सप्रतिबन्ध' । पुत्र और पौत्रोंका पुत्ररूप और पौत्र रूपसे पिता और पितामह के धनमें जो अधिकार है वह अप्रतिबन्धदाय कहलाता है। चाचा और भाई
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दफा ४१३-४१४]
कोपार्सनरी प्रापर्टी
आदिकों का पुत्र और स्वामी के अभाव में ही जिस जायदाद में अधिकार हो सकता है वह 'सप्रतिबन्ध दाय' है क्योंकि पितृव्यरूपसे और भ्राता रूपसे जिस जायदादमें स्वत्वहो वह सप्रतिबन्ध कहलाता है। इसी प्रकार उनके पुत्र श्रादिमेंभी समझना । मिताक्षरामें दो तरहकी जायदाद मानी गयी है एक 'अप्रतिबन्ध' और दूसरी 'सप्रतिबन्ध' । जिस जायदादमें आदमी अपनी पैदाइशसे हक प्राप्त करता है वह जायदाद 'अप्रतिबन्ध' कहलाती है। क्योंकि जायदादका मालिक उस हकमें कोई बन्धन नहीं डाल सकता (बन्धनका अर्थ रुकावट समझना ) इसलिये बाप, दादा और परदादासे पायी हुई जायदाद अपने बेटे, पोते और परपोतोंके लिये अप्रतिबन्ध वरासत होगी, क्योंकि बेटे, पोते, परपोते अपनी पैदाइशसे उस जायदादमें हक्क प्राप्तकर लेते हैं, तथा वह पैदा होते ही अपने बाप, दादा, परदादाके साथ कोपार्सनर हो जाते हैं।
वह जायदाद जिसमें पैदाइशसे हक़ नहीं प्राप्त होता लेकिन आखिरी मालिकके मरनेपर प्राप्त होता है वह 'सप्रतिबन्ध' वरासत है। क्योंकि मालिक . के जीतेजी वह हक़ नहीं प्राप्तकर सकते इसलिये जो जायदाद बाप, भाई, भतीजे और चाचाओं आदिको आखिरी मालिकके मरनेके बाद मिलती है वह जायदाद सप्रतिबन्ध कहलाती है। यह रिश्तेदार अपनी पैदाइशसेही जायदादमें हक्क प्राप्त महीं कर लेते किन्तु उनका हक मालिक आखिरीके मरने के बाद पैदा होता है, और जबतक वह नहीं मरता तबतक उन्हे उत्तराधिकार का एक सिर्फ मौक़ा रहता है क्योंकि अगर वह उस समय, उस मालिकके मरनेके समय तक जिंदा रहेंगे तो मौका मिलेगा।
मुश्तरका खान्दान-इन्तकाल-प्रतिप्रबन्धके कारण पावन्दी होसकती है। गजाधर वक्ससिंह बनाम बैजनाथ A. I. R. 1925 Oudh. 9. दफा ४१४ अप्रतिबन्ध जायदादमें सरवाइवरशिप होता है
____ अप्रतिबन्ध जायदाद हमेशा सरवाइवरशिप ( देखो दफा ५५८); के हनके साथ जाती है। और सप्रतिबन्ध जायदाद उत्तराधिकारके साथ जाती है लेकिन चार तरहके वारिलोको सप्रतिबन्ध जायदाद भी सरवाइवरशिपके हनके साथ जाती है । वह चार वारिस यह हैं
(१) विधवायें (२) लड़कियां ( बम्बईको छोड़कर). (३) लड़कीके लड़के जब वह मुश्तरका रहते हो. (४) लड़के, पोते, परपोते.
अगरेज़ी भाषामें 'अप्रतिबन्धदाय को अन् आयस्ट्रक्टेड् हेरीटेज (Unobstructed heritage ) कहते हैं और 'सप्रतिबन्धदाय' को आबस्ट्रक्टेड् हेरीटेज (Obstructed heritage ) कहते हैं।
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मुश्तरका खान्दान
[ छठवां प्रकरण
नोट-ध्यान रखोकि बेटे, पोते, परपोतेही मौरूसी जायदाद में अपनी पैदाइशते हक्र प्राप्त कर लेते हैं, जिस जायदाद में वे हक प्राप्त करते हैं वह मौरूसी जायदाद होती है अर्थात् वह जायदाद जो उनके बाप दादा, परदादाने अपने बाप दादा, परदादासे पायी हो । मगर लड़के, पोते, परपोते अपने बाप दादा, परदादा की खुद कमाई हुई जायदाद में कोई हक अपनी पैदाइश से प्राप्त नहीं करते | यह भी ध्यान रखो कि बेटे, पोते परपोते, कोपार्सनरी जायदाद में अपना हक अपनी पैदाइशसे प्राप्त करलेते हैं न कि सिर्फ मौरूसी जायदाद मेंही, क्योंकि मौरूसी जायदाद भी एक तरहकी कोपार्सनरी जायदाद है, कोपार्सनरी जायदाद में मौरूसी और मौरूसी के अलावा दूसरे किस्म की भी जायदादें शामिल होती हैं । उदाहरण (१) ऐसा मानो कि अ, ने अपने बापसे जायदाद पाई, और अ, के एक लड़का क, है । ऐसी जायदाद क, के लिये प्रतिबन्ध, है यानी क, अपने बाप अ, के साथ कोपार्सनर होजाता है और उसके मरने पर वह, जायदादको कोपार्सनर होनेकी वजेसे सरवाइवरशिपके हक़ के साथ लेता है। अगर अ, ने अपने दादा या परदादासे भी जायदाद पाई होती तो भी यही शकल होती, मगर परदादा बापसे यदि पाई होती तो यह शकल नहीं होती क्योंकि वह जायदाद उत्तराधिकारके अनुसार आती । ( २ ) ऐसा मानो कि अगर अ, की ज़िंदगीमें क, मरगया और ख, तथा ग, ज़िंदा हैं तो भी वह जायदाद 'अप्रतिबन्ध' रहेगी ।
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( ३ ) ऐसा मानी कि - अगर अ, ने अपने भाईसे जायदाद पाई है। और उसके एक लड़का क, है तो अ, के पास यह जायदाद 'सप्रतिबन्ध' रूप से है क्योंकि क, का कोई हक़ उस जायदादमें अ, की जिंदगीमें नहीं है । अ, के मरने के बाद, क, उस जायदादको उत्तराधिकारके अनुसार लेगा ।
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दफा ४१५ बंगाल स्कूलमें 'अप्रतिन्बध' जायदाद नहीं होती
बङ्गाल प्रांत में जहांपर दायभाग माना जाता है वsiपर 'अप्रतिबन्ध*" जायदाद नहीं मानी जाती, सिर्फ मिताक्षरा स्कूलकेही अन्दर इस क़िस्मकी जायदाद मानी गई है । दायभागमें सब जायदाद 'सप्रतिबन्ध होती है क्यों कि इस स्कूल सिद्धांत के अनुसार कोई भी आदमी किसी दूसरे आदमीकी किसी जायदाद में अपनी पैदाइश से हक़ नहीं प्राप्त करसकता यानी लड़का, पोता, परपोता आदि अपनी पैदाइशसे मौरूसी जायदादमें हक़ नहीं प्राप्त कर सकते। इसका कारण यह है कि दायभागमें सरवाइवरशिपका सिद्धांत नहीं माना गया, उसमें उत्तराधिकारका हक़ माना जाता है, और यह हक़ आखिरी मालिक मरनेही पर प्राप्त होसकता है। ऐसा सिद्धांत होनेपर भी प्रिवी कौन्सिलने दायभाग के अन्दर जब दो या दो से ज्यादा विधवायें या लड़कियां हों और उन्हे कोई जायदाद मुश्तरकन् मिली हो तो वहाँपर सरवाइवर शिपका क़ लगाया है ।
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दफा ४१५-४१७]
कोपार्सनरी प्रापटी
४५६
दका ४१६ मुश्तरका जायदाद दो तरहकी होती है
(१) हिन्दू-लॉके अनुसार जायदाद दो हिस्सोंमें तकसीमकी जासकती है एक 'मुश्तरका खानदानकी जायदाद' और दूसरी 'अलहदा कमाई हुई जायदाद' मुश्तरका खानदानकी जायदादके भी दो हिस्से होसकते हैं एक मौरूसी जायदाद (पैतृकसम्पत्ति ) दुसरी कोपार्सनरोंकी अलहदा जायदाद जो मुश्तरका खानदानकी जायदादमें शामिल होजाती है । इस तरहसे मुश्तरका खानदानकी जायदादमें दो किस्मकी जायदाद शामिल हैं मौरूसी
और मुश्तरका खानदानमें रहने वाले कोपार्सनरोंकी दूसरी जायदाद जिसका ज़िकर दफा ४१८ से ४२३ में किया गया है मुश्तरका खानदानकी जायदादमें नहीं शामिल होगी।
(२) वह सये जायदाद जिसमें मुश्तरका खानदानके सब लोग मुश्तरकन लाभ रखते हों, और मुश्तरकन् कब्ज़ा रखते हों,मुश्तरका जायदाद है अगरेज़ीमें इसे 'कोपार्सनरी प्रापरटी' कहते हैं । मुश्तरका जायदादमें बटवारा करा लेनेका अधिकार सब कोपार्सनको प्राप्त रहता है। देखोकटामानाचियर बनाम शिवगङ्ग 9 M. I. A. 5 43; 615; 2 W. R. P. O. 1 वेंकायामा गारू राजा चिल्लोकानी बनाम फेंकटरामानयम्मा ( 1902) 29 I.A. 156, 164; 25 Mad. 678; 4 Bom. L R. 657; कृष्णदास धर्मसी बनाम गङ्गाबाई (1908) 32 Bom. 479; 10 Bom. L. R. 184; और देखो श्यामनरायन बनाम कोर्ट श्राफ् वार्ड्स (1878) 20 W. R.C. R.197. . दफा ४१७ मुश्तरका जायदाद कौन कौन होती है
(१) कोपार्सनरी जायदाद मुश्तरका होती है-हिन्दूलॉमें सिवाय कोपार्सनरी जायदादके दूसरी किस्मकी मुश्तरका जायदाद नहीं होती। हालैण्डमें अनेक और भिन्न भिन्न खानदानके लोग मिलकर मुश्तरका जायदाद बना लेते हैं, मगर हिन्दुस्थानमें वह मुश्तरका नहीं होती। जो मुश्तरका जायदाद हिन्दुस्थानमें होती है वह हमेशा कोपार्सनरीके हकदारों में ही होती है, किसी मर्द या औरतके बनाने से मुश्तरका जायदाद नहीं बनती । गोपी: बनाम जलधर (1910) 33 All. 41.
(२) बटवाराके बाद खरीदी जायदाद-अगर कोई जायदाद परिवारके अनेक आदमियोंके नामसे खरीदकी गई हो तो वह जायदाद मुश्तरका खानदानकी होजायगी। इसका मतलब यह है कि कोई खानदान पहिले शामिल शरीक रहा हो और पीछे बटवारा होकर सब लोग अलहदा होगये हों उसके पश्चात् अगर कोई जायदाद सबके नामसे या कुछ आदमियोंके नामसे (जो अलहदा होगये थे ) खरीद करली गई हो तो वह जायदाद जितने भादमियों
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मुश्तरका खान्दान
[ छठवां प्रकरण
के नाम से खरीदकी गई है उनके लिये मुश्तरका खानदानकी जायदाद होजाती है और उस जायदाद में हरएक आदमीकी औलाद अपनी पैदाइशसे उसमें हक़ प्राप्त करलेती है जैसा कि कोपार्सनरी जायदादमें बताया गया है देखोराधाबाई बनाम नानाराव 3 Bom. 151; ट्रान्स्फर आफ प्रापरटी एक्ट नंक ४ सम् १८८२ की दफा ४५.
४६०
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(३) मुश्तरका व्यापार या मेहनतकी जायदाद जो जायदाद, शिरकत के व्यापार द्वारा कमायी गयी हो, या मुश्तरका खानदानके मेम्बरोंकी मुश्तका मेहनतले पैदा कीगयी हो, और ऊपर के दोनों तरीकों में मुश्तरका खामदानका रुपया न लगा हो तो भी वह जायदाद मुश्तरका खानदानकी समझी आयगी । देखो - रामप्रसाद तिवारी बनाम शिवचरनदास 10 MI. A. 490. श्यामनरायन बनाम कोर्ट आफ़ बाईस 20 W. R. C. 1. 197. चतुर्भुज मेघ जी बनाम धरमसी नरायनजी 9 Bom. 438, 445, 446 गोपालासामी चिट्ठी बनाम अरुणचेलम चिट्टी (1903) 27 Mad. 32 और देखो मनुस्मृति नवम अध्याय श्लोक २२५
भ्रातृणामविभक्तानां यदुत्थानं भवेत्सह
पुत्र भागं विषमं पिता दद्यात् कथंचन । मनुः
मुश्तरका परिवार में बापके साथ भाइयोंने जो धन पैदा किया हो उसे ताप विषम भागसे पुत्रोंमें नांवांटे अर्थात् बराबर बांटे। मिताक्षराका भी यही सत है। मि० कोलब्रुक डाइजिस्ट Vol. 3 P.386.
लेकिन जब यह किसीने साबित किया हो कि वह जायदाद सिर्फ साधारण भागीदारीके द्वारा पैदा कीगयी है जैसाकि कान्ट्रक्ट एक्ट में बताई गयी है तो उस जायदादमें सरवाइवरशिप आदि जो कोपार्सनरके हक़ हैं नहीं रहेंगे। देखो - 10 MI. A. 490; 9 Bom. 438; 25 Mad. 149, 156; रामनराय नृसिंहदास बनाम रामचन्द्र जानकीलाल 18 Cal 86; 25 A11.378.
अगर मुश्तरका खान्दानके आदमियोंने मिलकर व्यापार नहीं कियाहो यानी उनमें से अगर कुछ आदमी छूट गये हों, और मुश्तरका जायदाद का रुपया उस व्यापारमें न लगाया गया हो तो अदालतको यह ख्याल रखने का मौका हो सकता है कि वह जायदाद जो इस तरहसे पैदा की गयी थी मुश्तरका खानदानकी नहीं है देखो - सुदर्शनम् मिस्ट्री बनाम नरसिम्हलू मिस्ट्री (1901 25 Mad. 149. मिस्टर मेन साहेब कहते हैं कि अगर मुश्तरका खान्दानका कुछ भी रुपया न लेकर कोई जायदाद पैदा कीगयी हो, चाहे वह मुश्तरका खान्दानके सब मेम्बरोंने मुश्तरकन् व्यापार करके या मेहनत करके पैदाकी होतो वह मुश्तरका खानदानकी जायदाद नहीं मानी जायगी और उस
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दफा ४१७]
कोपार्सनर प्रापर्टी
४६१
जायदादमें उनके लड़कोंका हक्क कुछ नहीं होगा क्योंकि वह कोपार्सनरीजायदाद नहीं है । देखो-मेन हिन्दूलों की दफा 277. चतुर्भुज बनाम धरमसी. Bom. 438, 445.
(४) दान या वसीयत द्वारा दान जो मुश्तर का खान्दानको दिया जाय; देखो-दफा ७६७ ऐसा माना गया है कि-जो दान या वसीयत द्वारा दान ( Devise ) किसी मुश्तरका खामदानके सब आदमियोंको दिया गया हो वह मुश्तरका जायदाद नहीं माना जायगा । देखो-किशोरी दुवाइन बनाम मुद्रादुवाइन ( 1911 ) 33 All. 665. दिवालीबाई वनाम बेचरदास पटेल (1902) 26 Bom. 445. परन्तु बम्बई हाईकोर्टने राधाबाई बनाम नानाराव ( 1879 ) 3 Bom. 151. में, और मदरास हाईकोर्टने येथी राजलू नायडू बनाम मुकुंथू नायडू ( 1905 ) 28 Mad 363. कुन्हाचा उन्मा बनाम कुट्टी मम्मी हाजी ( 1892 ) 16 Mad. 201 में माना है कि दान या वसीयत द्वारा दान जो मुश्तरका खान्दानके सब मेम्बरोंको दिया गया हो अगर देने वालेका कोई दूसरा इरादा साफ़ तरहसे जाहिर न कर दिया गया हो तो वह दान या. वसीयत द्वारा दानका धन मुश्तरका जायदाद समझा जायगा। - ऐसा कहा गया है कि ऊपर वालीराय टगोरवाले मुकदमें-( जितेन्द्रमोहन टगोर बनाम गणेन्द्रमोहन टैगोर सन 1872 I. A. Sup Vol 47; 9 B. L. R. 377; 18 W. R. O. R. 359.) के विरुद्ध पड़ती है। क्योंकि इसके अनुसार ये लोग भी जिनका जन्म उस समय नहीं हुआ, जन्मके बाद मुश्तरका जायदादमें अर्थात् दान या वसीयत द्वारा दानकी जायदादमें हक्क प्राप्त कर सकते हैं। परन्तु किसी किसी एक श्रेणी (Class ) के लोगोंको दिये हुये दानके विषयमें जो फैसले हालमें हुए हैं उनसे इस बातका खण्डन होता है । टगोरकेसको तथा नरसिंहरावके केसको विस्तारसे देखो दफा८०७. . (५) बाबुआनाके तौरपर दी हुई जायदाद । बाबुआनाके तौरपर जो जायदाद किसी मुश्तरका खानदानके कनिष्ट (Junior) कुटुम्बीको, और उसकी सीधी पुरुष सन्तानको दीजाय उसके विषयमें देखो-रामचन्द्र माड़वारी बनाम मुदेश्वरसिंह ( 1906) 33 Cal. 1168; 10 C. W. N. 979%3B दुर्गादत्तसिंह बनाम रामेश्वरसिंह ( 1909) 36 I. A. 176; 36 Cal. 943 13 0. W. N. 1013; 11 Bom. L. R. 901; ललितेश्वरसिंह बनाम भवेश्वरसिंह (1908 ) 35 Cal. 823; 12 C. W. N. 958.
(६) समझौतेसे प्राप्तकी हुई जायदाद । जब मुश्तरका खानदानमें कोई ऐसी जायदाद शामिल होजाय जो किसी समझौते (Compromise ) भनवा इन्तज़ाम ( Arrangement )के द्वारा आई हुई हो, चाहे वह मौरूसी श्री हो तो इस बातका निर्णय कि वह जायदाद कोपार्सनरी है या नहीं उस
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मुश्तरका खान्दान
[छठवां प्रकरण
समझौते और इन्तज़ामके ऊपर निर्भर है जो पहिले हो चुका है । देखोमहावीर कुंवर जुमासिंह 8 B. L. R. 38; 16 W. R. C R. 221. . (७) नानासे उत्तराधिकारमें पाई हुई जायदाद। यह अभीतक पूरी तोरसे निश्चित नहीं हुआ है कि नानासे उत्तराधिकारमें पाई हुई जायदाद मौरूसी जयादाद होजाती है या नहीं। इस विषयमें एक केस देखिये
कयामा बनाम वेंकटराम नैय्यामा ( 1902 ) 25 Mad. 678; 29 I. A. 156. के केसमें दो भाई जो मुश्तरका खानदानके मेम्बरों की तरह रहते थे उन्होंने अपने ननासे कुछ जायदाद पाई उनमेंसे एक अपनी विधवाको छोड़. कर मर गया अब यहांपर सवाल यह पैदा हुआ कि उसके नानाकी जायदाद का हिस्सा उसकी विधवाको उत्तराधिकारके अनुसार मिलेगा अथवा सरवाइवरशिपके अनुसार उसके भाईको मिलेगा । प्रिवीकौंसिलके जजोंने यह निश्चित किया कि वह जायदाद दोनों भाइयों के पास मुश्तरका जायदाद थी और उसमें मृतपुरुषका अविभाजित हिस्सा उसके भाईको सरवाइवरशिप के अनसार मिलेगा. विधवाको उत्तराधिकारके अनुसार नहीं मिलेगा। फैसले का यह नतीजा हुआ कि लड़कीके लड़के नानाकी जायदादको सावाइघरशिपके अनुसार मुश्तरकन् लेते हैं। अपने फैसलेमें जजोंने यह भी कहा कि वह जायदाद लड़कीके लड़कोंके हाथमें जब पहुंचेगी तो मौरूसी यानी मुश्तरका खानदानकी जायदाद होजायगी। इलाहाबाद हाईकोर्ट और मदरास हाईकोर्टने नानासे पाई हुई जायदादको मुश्तरका खानदानकी जायदाद नहीं मानी एसलिये इस विषयमें मतभेद है मदरास हाईकोर्ट ऊपरके फैसलेसे यह अर्थ निकलता है कि नानासे पायी हुई जायदाद पारिभाषिक अर्थमें पैतृक सम्पत्ति होती है, देखो-करूपाई बनाम सङ्कर नरायन्ना (1903) 27 Mad. 300, 312, 314 और इसलिये अगर ऐसा मानो कि 'अ' अपने नानासे कोई जायदाद पाये और उसके एक लड़का 'क' होजो उसके साथ मुश्तरका रहता हो तो उस जायदादमें 'क' अपनी पैदाइशसे हक प्राप्त कर लेगा और उस जायदाद 'अ' से बटवारा करा सकता है 27 Mad.382; और देखो 6 Mad. 1, 16; 3 I. A. 128-143,
इलाहाबाद हाईकोर्टने यह माना है कि प्रिवीकौन्सिलके जजोंने यह बताते वक्त कि दो या दोसे ज्यादा लड़कीके लड़के जो जायदाद अपमे नाना से उत्तराधिकारमें पाते हैं उसको मुश्तरका सरवाइवरशिपके साथ लेते हैं और उस वक्त उन्होंने जो पैतृक सम्पत्ति शब्दका उपयोग किया है वह उसके पारिभाषिक अर्थमें नहीं है लेकिन उसका वही मतलब है जो मतलब कि इङ्गलिशलॉ में 'मुश्तरका जायदाद' से निकलता है यानी वह जायदाद कि जिसके साथ सरवाइवरशिपका हक लागू नहीं होता है । इसलिये इलाहाबाद हाईकोर्ट ने यह माना कि नवासेका लड़का नानासे पायी हुई जायदादमें अपनी
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दफा ४१७]
कोपार्सनरी प्रापर्टी
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पैदाइशसे कोई हक़ नहीं रहेगा और न वह उस जायदादका बापसे बटवारा करा सकेगा और अगर बाप लड़केके जीतेजी उस जायदादको इन्तकाल कर दे तो लड़का उसे नहीं रोक सकता, देखो-जमुनाप्रसाद बनाम रामप्रताप ( 1907 ) 29 All. 667. मदरास हाईकोर्ट पैतृक सम्पत्तिका अर्थ उस जायदादसे लगाती है जो किसी पूर्वजसे मिली हो चाहे वह पूर्वज पिताकी तरफसे हो या माताकी तरफसे हो । लेकिन मामा पूर्वज नहीं माना गया और इसी लिये मामासे पायी हुई जायदाद पैतृक सम्पत्ति नहीं मानी जाती मदरास हाईकोर्टका यह मत है, देखो-27 Mad. 300.
मिस्टर मेन साहेबने कहा है कि "जो जायदाद नानासे मिली हो नगड़दादासे मिली हो, या किसी पुजारीसे, या सहपाठीले वरासतमें मिली हो, तो वह जायदाद मुश्तरका खान्दानकी नहीं होगी, देखो-मेन हिन्दूलॉ की दफा २७५" मिस्टर ट्वेिलियनने कहा है कि जब अनेक लड़कियों के अनेक लड़के भिन्न भिन्न खान्दानमें हो और उस समय नानाकी जायदाद उत्तराधिकारमें उन सब नवासोंको मिले तो उस सूरतमें सब नवाले अलहदा अलहदा लेगे और कोपार्सनरी नहीं मानी जायगी, देखो-दिवेलियन हिन्दूलॉ पेज २३३ मिस्टर घारपुरेने कहा है कि-जब कोई जायदाद उत्तराधिकारके अनुसार नानासे मिलती है तो सब नवासे उसे सरवाइवर शिपके अनुसार नहीं लेंगे
और उनमेंसे एकके मरनेपर वह जायदाद सरवाइवर शिपके अनुसार नहीं जायगी, देखो-मिस्टर घारपुरे हिन्दूला पेज १२३. जसोदा कुंवर बनाम शिवप्रसाद 17 Cal. 38.
(८) अप्रतिबन्ध जायदाद किसके लिये कोपार्सनरी नहीं होगी? मिताक्षरा स्कूलके अनुसार वह सब जायदाद मनकूला या गैरमनकूला चाहे किसी तरहभी प्राप्त की गयी हो मगर वह अप्रतिबन्ध दायकी हैसियतसे मिली हो अर्थात् जो सगे बाप, या दत्तक पितासे, या दादा या परदादासे मिली हो वह जायदाद उस आदमीफी सन्तानके लिये कोपार्सनरी जायदाद होगी मगर उस आदभीके लिये नहीं जिसने वह पायी है । देखो-गुरूमरथी रिड़ी बनाम गुरुम्भल (1908)32 Mad. 86, 88; 11 Ail. 194-198
(६) जो जायदाद विधवा कोरोटी कपड़ाके लिये दी गयी है। अगर कोई जायदाद मुश्तरका खान्दानकी किली विधवा को रोटी कपड़ाके खर्वके लिये देदी गयी हो तो विधवाके मरनेपर वह जायदाद कीपार्सनरीमें शामिल हो जायगी। देखो-बेनीप्रसाद बनाम पूरनचन्द 23 Cal 262-273 मगर वह सूरत इससे भिन्न होगी जब किसी विधवाको अपने पतिसे उत्तराधिकार के अनुसार जायदाद मिली है।
(१०) मुश्तरका खान्दान वालोंकी मुश्तरका पूजी-जबकि मुश्तरका खान्दानके सब आदमी जिनके पास मुश्तरका जायदाद है अपनी अलग अलग
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मुश्तरका खान्दान
[ छठवां प्रकरण
कमाईका रुपया किसी एक कारवारमें लगावे तो उस कारवारकी आमदनी मुश्तरका खान्दानकी आमदनी मानी जायगी । देखो-लाल बहादुर बनाम कन्हैयालाल 34 I. A.657 29Allk244; 11C.W.N.417; 9Bom.L.R.5976
(११) कोपार्सनरका फिर शामिल हो जाना-जब मुश्तरका खान्दान का कोई आदमी पहिले अलग हो गया हो और पीछे फिर शामिल हो गयाहो तो उसकी जायदाद सब कोपार्सनरी जायदाद हो जायगी देखो-17 Cal: 33; 33 Mad. 165.
(१२) अलहदा जायदादके दावाकी मियाद-अगर कोई मुश्तरका खान्दानका मेम्बर किसी जायदाद को अपनी अलहदा बयान करता हो उसे कानूनी मियादके अन्दर दावा करना चाहिये अगर ऐसा न होगा तो फिर वह कोपार्सनरीमें सामिल हो सकती है क्योंकि तमादी हो जानेपर दावा नहीं चलेगा। देखो-वसुदेवपाधी वरोरा बनाम मगनी देवन वखशी ( 1501) 28 I. A. 81, 24 Mad 387, b C. W. N. 545; 8 Bom. L. R. 303: .
(१३ ) कोपार्सनरी जायदादकी वृद्धि और प्राप्ति-मुश्तरका खान्दानकी जायदाद चाहे वह मनकूला हो या गैरमनकूला उसकी आमदनीसे या उसकी मददसे या उसके आधारसे जो जायदाद या धन प्राप्त किया गया हो वह सब मुश्तरका खान्दानकी जायदाद है और फिर उस जायदादकी आमदनी और उसकी बिक्रीका रुपया और उस रुपयासे खरीदी हुई जायदाद भी सब मुश्त. एका खान्दानकी जायदादहो जायगी। हरएक बातकी अलगअलग नज़ीरेदेखो
(१) मुश्तरका खान्दानकी जायदादकी आमदनीसे या उसकी मदद आदिसे जो जायदाद प्राप्तकी जाय-मुश्तका है-लालबहादुर बनाम कन्हैय्या लाल (1907)34 I.A. 65; 29 All.244; 11C.W N. 417; 9 Bom.L. R. 597;अमृतनाथ चौधरी बनाम गौरीनाथ चौधरी (1870) 13 M. I. A. 5425 15 W. R. P. C. 10; ईश्वरीप्रसादासंह बनाम नसीबकुंवर (1884 ) 10 Cal. 1017 सुभैय्या बनाम सैरय्या ( 1887 ) 10 Mad. 251; अजोध्याप्रसाद बनाम महादेवप्रसाद ( 1909 ) 14 C W. N. 221; 8 Mad. H. C. 25; 4 Mad. H. C.5; 19 W. R. C. R. 223; 17 W.R. C. B, 528; 8 W: R.C. R. 1827 6 W. R.C. R. 256. . (२) अगर मुश्तरका जायदादके आधारपर कोई जायदाद प्राप्त की गयी हो वह सब मुश्तरका है-शिवप्रसादसिंह बनाम कलन्दरसिंह 1 Ben. Sel. R. 76 दूसरा एडीशन १०१.
(३) मुश्तरका खान्दानकी जायदादकी आमदनीसे जो दूसरी जायदादं प्राप्त की जाय और उससे जो जायदाद प्राप्त की जाय आदि मुश्तरका है। देखो-(1888 ) 11 Mad. 246.
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दफा ४१७]
कोपार्सनरी प्रापर्टी
(४) जो जायदाद मुश्तरका खानदानकी जायदादको बेचकर खरीदी गई हो मुश्तरका है-18 Mad. 73; 3 Cal. 508; 1. Cal. L. R. 343.
(५) जो जायदाद मुश्तरका खानदानकी मनकूला जायदादसे खरीदी गई हो मुश्तरका है-3 Cal. 508; 1 Cal. L. R. 343. अगर किसी मुश्तरका खानदानके आदमीने मुश्तरका खानदानकी जायदादसे बिल्कुलही कम सहायतासे कोई जायदाद प्राप्तकी हो तो ऐसा माना गया है कि वह जायदाद उसकी अलहदाकी समझी जाना चाहिये 10 M. I. A. 490505; 13 Bom. 534; और जिस जायदादके प्राप्त करने में, सीधी तौरसे मदद मुश्तरका खानदानकी जायदादसे न मिली हो और चाहे प्रकारान्तरसे मिली भी हो तो वह जायदाद अलहदाकी समझी जायगी यानी जिस आदमीने पैदा की हो उसकी निजकी समझी जायगी; 10 Bom. 528; स्टून्जके हिन्दूला पेज २१४ में कहा गया है कि-अगर ऐसा कोई उजुर किया जाता हो कि जिसने अलहदा जायदाद कमाई है उस आदमीके सिर्फ खाने पीनेका खर्च मुश्तरका जायदादमें से होता रहा है इसलिये वह सब जायदाद मुश्तरका है, इसका कुछ असर नहीं होगा। और अगर कोई आदमी मश्तरका खानदानका जायदादमें से अपने खर्वके लिये उसकी आमदनी लेता हो तो उस आदमीकी पैदा की हुई सब जायदाद मुश्तरका होगी; 4 Mad. H. C. 5.
(१४) जो जायदाद विद्वत्ताके पेशेसे कमाई गई हो। अगर किसी आदमीको खास तौरसे पढ़ानेका खर्च मुश्तरका. जायदादसे किया गया हो और उसने अपनी विद्वत्तासे जो धन कमाया हो वह सब मुश्तरका खानदान में शामिल हो जायगा-और अगर मुश्तरका खानदानकी जायदादकी आमदनीसे खास तौरपर शिक्षा प्राप्त करके विद्वता न प्राप्त कीगयी हो तो कोई आदमी जो अपनी विद्वता के पेशेसे जायदाद पैदा करे वह उसकी अलहदाकी होगी। इस बारेमें अधिक देखो इस किताबकी दफा ४२०.
(१५) देवोत्तर जायदाद । किसी धार्मिक कामके लिये जो जायदाद दीगयी हो उसके टूस्टियोंमें दूस्टकी कोपार्सनरी होती है। और ऐसी जायदादका बटवारा नहीं हो सकता, देखो-रामचन्द्र पण्डा बनाम रामकृष्ण महापात्र (1906) 33 Cal. 507. देखो प्रकरण १७.
उदाहरण-अ, और ब, एक मन्दिरकी जायदादके ट्रस्टी हैं मन्दिरकी जायदादकी बचतसे दूसरी जायदाद खरीदी गई तो अ, और ब, उसके भी ट्रस्टी हैं क्योंकि जो दूसरी जायदाद खरीदी गयी वह कोपार्सनरी जायवादमें शामिल होगयी मगर दोनों दूस्टी उसे बांट नहीं सकते हैं।
(१६) मिन्न शाखावालोंसे और स्त्रियोंसे उत्तराधिकारमें पायी हुई जायदाद । मानाकी जायदादके झगड़ेको छोड़कर यह कहा जा सकता है कि सिर्फ बाप, दादा, परदादासे पायी हुई जायदाद पैतृक सम्पत्ति होती है यानी
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मुश्तरका खान्दान
[ छठवां प्रकरण
मुश्तरका जायदाद होती है। दूसरे किसी रिश्तेदारसे पायी हुई जायदाद अपनी अलहदा जायदाद होती है उसमें मर्द श्रलाद अपनी पैदाइशसे कोई हक़ नहीं प्राप्त कर सकती यानी वह जायदाद जो परदादाके बापसे या दूसरे दूरके पूर्वजोंसे या भिन्न शाखा वालोंसे जैसे चाचा भतीजा आदि या किसी स्त्री से जैसे मा, दादी आदिसे पायी हुई जायदाद अलहदा होती है, देखोनन्दकुमार बनाम रजीउद्दीन 10 Beng. L. R. 183.
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(१७) बटवारा कराने पर जो हिस्सा जायदादका मिलता है। मुश्तका जायदाद बटवारेमें जो कोपार्सनर अपने हिस्सेकी जायदाद पाता है वह उसकी मर्द औलादके लिये यानी लड़के, पोते, परपोतोंके लिये मौरूसी जायदाद होती है । लड़के, पोते परपोते अपनी पैदाइशसे उसमें हक्क प्राप्त कर लेते हैं; 29 Ail. 244; 34 I. A 65; 9 Bom. 438. चाहे वह बटवारा करानेके वक्त ज़िंदा हों या पीछेसे पैदा हुये हों 3 Cal. 1. मगर ऐसा हिस्सा सिर्फ मर्द औलाद ही लिये मौरूसी है, दूसरे रिश्तेदारोंके लिये वह उसकी अलहदा जायदाद है । और अगर ऐसा कोपार्सनर जिसने बटवारा करा लिया हो मरते समय कोई लड़का, पोता, परपोता, न छोड़े तो वह जायदाद उसके वारिसों को उत्तराधिकार के अनुसार मिलेगी; 17 All. 456; 22 I. A.139.
उदाहरण - ऐसा मानो कि, क, और ख, दो भाई मुश्तरका खानदान के मेम्बर हैं । क, के एक लड़का ग, है और ख, के कोई लड़का नहीं है मगर एक औरत है । क, धौर ख, दोनों मुश्तरका जायदादका बटवारा करा लेते हैं । अब क, की बटवाराकी हुई जायदाद तो ख, के लिये अलहदा जायदाद है । मगर क, के लड़के ग, के लिये वह जायदाद मौरूसी है । इसी तरहपर ख, की बटवारा कराई हुई जायदाद क, के लिये अलहदा जायदाद है । और जब ख, बिना किसी मर्द औलादके मर जाय तो वह जायदाद उसकी औरत विधवाको उत्तराधिकारसे मिलेगी । बटवारा करानेसे बटवारा कराने वाले आदमियोंके बीच में आपसका हक़ टूट जाता है लेकिन बाप और उसकी मर्द औलाद फिर भी मुश्तरका रहते हैं अगर बाप और उसकी मर्द औलाद बटधारा करालें तो उनका भी आपसका हक़ टूट जाता है। जब कोई कोपार्सनर बटवारा होनेपर अपने हिस्से में कोई रेहनकी हुई जायदाद पाता है और बाद में उसको अपनी अलहदा कमाई हुई द्रव्यसे छुटा लेता है तो इससे जायदाद की शकल नहीं बदल जाती यानी वह छुड़ाई हुई जायदाद पैतृक सम्पत्ति बनी रहती है और उसकी मर्द औलाद अपनी पैदाइशसे उसमें हक़ प्राप्त कर लेती है, देखो 5 Mad. H. C. 150. जब किसी कोपार्सनरको रेहन रखी हुई जायदाद हिस्से में मिली हो और वह जायदाद ज़ब्त होगयी हो अर्थात् जिसके पास रेहन रखी थी उसका रुपया न पहुंचने के सबबसे उसने उस जायदाद को जब्त कर लिया हो और उसके पीछे कोपार्सनर ने अपने खुद कमाये हुये
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दफा ४१७ ]
कोपार्सनरी प्रापर्टी
रुपयासे मोल ले लिया हो तो अब वह जायदाद यद्यपि पहिले पैतृक सम्पत्ति थी मगर अब वह पैतृक सम्पत्ति नहीं रहेगी वह जायदाद उस कोपार्सनरकी अलहदाकी जायदाद हो जायगी जिसने कि उसे मोल लिया है; देखो बलवन्त सिंह बनाम रानी किशोरी 20 All. 267; 25 I. A. 54
(१८) जायदाद, जो किसीने अपने पूर्वजसे इनाम या वसीयतले पाई हो । जब कोई आदमी अपनी खुद कमाई हुई या अलहदा जायदादको अपने लड़के को किसी पुरस्कार (इनाम) में देदे या मृत्युलेख पत्र ( वसीयतनामा ) द्वारा उसको देदे तो सवाल यह पैदा होता है कि ऐसी जायदाद लड़केकी अलहदा जायदाद होगी अथवा लड़केकी मर्द श्रलादके लिये मौरूसी जायदाद होगी ? कलकत्ता और मदरासके फैसलोंके अनुसार ऐसी जायदाद जहांपर कि बापका दूसरा इरादा न हो वह मौरूसी मानी गई है, देखो - 6 W. R.71 इनाम 24 Mad. 429. वसीयतका प्रकरण १६ देखो । इरादासे मतलब यह है कि- जैसाकि मृत्यु पत्र से मालूम होता हो या इनाम देते समय जैसा इरादा रहा हो ।
बम्बई और इलाहाबादके फैसलोंके अनुसार ऐसी जायदाद जहांपर मृत्युपत्र में या दान देते समय कोई वरखिलाफ इरादा नहीं पाया जाता हो तो लड़के की लहदा जायदाद मानी जायगी - देखो जगमोहनदास बनाम मंगल दास ( 1886 ) 10 Bom. 528; परसोत्तम बनाम जानकीबाई ( 1907 ) 29 All 354; दोनों मुक़द्दमें वसीयतके हैं। हर सूरत में बाप अपने लड़के की शादी के वक्त जो रुपया उसे पुरुस्कारमें देता है वह लड़के की अलहदा जायदाद होती है मौरूसी जायदाद नहीं होती । और लड़केकी मर्द औलाद अपनी पैदाइशसे उस जायदादमें हक़ प्राप्त नहीं करती। 12 Cal. W. N. 103.
उदाहरण - ( १ ) ऐसा मानो कि अ, और उसके पांच लड़के मुश्तरका खानदानके मेम्बर हैं अ, अपने पांचों लड़कोंको अपनी खुद कमाई हुई मनकूला और रमनकूला जायदाद दानपत्र द्वारा देता है, मदरास और कलकत्ता हाई कोर्ट के अनुसार यह जायदाद हरएक लड़के के हाथमें पैतृकसम्पत्ति होगी जब कि बापका कोई खिलाफ इरादा नसाबित हो और उन लड़कोंकी मर्द औलाद अपनी पैदाइशसे उस जायदाद में हक्क प्राप्त कर लेगी ।
( २ ) ऐसा मानो कि-अ, ने एक वसीयतनामा लिखा जिसके शब्द यह हैं "मेरे तीन लड़के जो कि इस वक्त ज़िन्दा हैं और जितने लड़के कि बादमें पैदा हों वह सब मेरी जायदादको बराबर हिस्सेमें बांट लें" वसीयत में यह भी लिखा था कि जबतक उसकी तीन औरतें न मरजायें तबतक मौरूसी घरका बटवारा नहीं किया जाय। मदरास हाईकोर्टने यह निश्चय किया कि इस वसीयत में कोई ऐसा इरादा नहीं मालूम होता कि लड़के उस जायदादको
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मुश्तरका खान्दान
[ छटवां प्रकण
ar पैतृक सम्पतिके हक़के लेवें, और इसीलिये हरएक हिस्सा जो हरएक लड़को मिला है वह उनके पास उनकी मर्द औलाद के लिये पैतृक संपत्ति होगी यानी मुश्तरका खानदानकी जायदाद होगी - और उसकी पुरुषसंतान अपनी पैदाइश से हक़ प्राप्तकर लेगी । देखो नागालिंग बनाम रामचन्द्र ( 1901 ) 24 Mad. 429.
( ३ ) ऐसा मानो कि अ, वसीयत द्वारा अपने लड़केको जायदाद इन शब्दों के साथ देता है "मेरे मरनेके बाद मंगलदास मेरी जायदादका मालिक होगा वह उसको बेचनहीं सकेगा और न गिरवी रख सकेगा लेकिन उसके भाईसे उस जायदादका और खानदानका खर्चा किया करेगा और बचतका रुपया किसी ठीक जगहपर ब्याज के लिये जमाकर देगा लेकिन यह सब मेरे लड़के मंगलदासका ही होगा और अगर उसे कभी जायदाद के बेचने या गिरवी रखने की ज़रूरत पड़े तो इस वसीयतमें लिखे हुये 'इक्ज़ीक्यूटरों' की राय 'केकर करसकता है” बंबई हाईकोर्टने यह निश्चित किया कि इन शब्दों से बाप का इरादा पाया गया कि उसका लड़का मङ्गलदास उसकी जायदादको पूरे अधिकारके साथ ले और बाक़ीकी इबारत जो वसीयत में लिखी थी उससे कोई विरुद्ध इरादा न पाये जानेकी वजेहसे लड़का उस जायदादको बतौर अलहदा जायदाद के लेगा और उस लड़केकी मर्द औलाद अपनी पैदाइश से हक़ प्राप्त नहीं करेगी 10 Bom. 528.
नोट- 'मुश्तरका खानदान की जायदाद कौन है यह बात ऊपर मोटे तरीके से बताई गई है । मुश्तरका जायदाद और मौरूसी जायदाद में क्या फरक है. यह बात भी समझ लेना चाहिये । मौरूस्ती जायदाद वह कहलाती है जो बाप, दादा, या परदादासे मिली हो ऐसी जायदाद मिलने वालेकी पुरुष सन्तान के लिए मौरूसी जायदाद होती है और मुश्तरका जायदाद में मौरूसी जायदाद शामिल होनेपर भी वह भी जायदाद शामिल हो जाती हैं कि जो दूसरे तरीकोंसे प्राप्त की गयी हो । पैतृक सम्पत्ति और मौरूसी जायदाद में कुछ फरक अन्तमें नहीं है सिर्फ शब्दका फरक है ।
वह सब जायदाद जो, मर्द हिन्दू अपने बाप, दादा, परदादासे पाता है। पैतृक सम्पत्ति कहलाती है, मिताक्षराके अनुसार पैतृक सम्पत्ति में खास बात यह होती है कि बेटे, पोते, परपोते अपनी पैदाइशसे उस जायदादमें हक़, प्राप्त कर लेते हैं हक़ उनको उनकी पैदाइशके वक्तसे लागू होता है यानी अगर 'राम' कोई जायदाद मनकूला या गैर मनकूला अपने बाप दादा या परदादा से पाये तो वह जायदाद उसकी पुरुष सन्तानके लिये पैतृक सम्पत्ति होती है । और अगर रामके कोई बेटा, पोता, परपोता नहीं है जिस वक्त कि उसे जायदाद मिली है तो राम उस जायदादका पूरा मालिक है और उसे जो चाहे कर सकता है, लेकिन अगर जायदाद पाते समय उसके कोई बेटा, पोता, परपोताहो अथवा कोई लड़का, पोता, परपोला पीछेसे पैदाहो जायतो वह लोग खानदानमें सिर्फ पैदा होने की वजेहसेही उस जायदादमें हक़ पानेके अधिकारी
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दफा ४१७]
कोपार्सनरी प्रापर्टी
होंगे। राम उस वक्त पूरे मालिककी तरह जायदादको नहीं रख सकता और न वह उस जायदादको अपनी इच्छाके अनुसार काममें ला सकता है।
यह बात गौर करना ज़रूरी है कि सिर्फ वही जायदाद जो कि एक हिन्दू अपने बाप, दादा, परदादासे पाता है वह सिर्फ उसके बेटों, पोतों, परपोतोंके लियेही पैतृक सम्पत्ति होती है दूसरा कोई कुटुम्बी अपनी पैदाइशसे हक़ नहीं प्राप्त कर सकता। और जब कोई जायदाद किसी हिन्दूको बाप, दादा या परदादासे तो मिली हो मगर सीधे तौरसे न मिली हो यानी किसी दूसरे आदमी या औरतके मरनेके बाद मिली हो जिसका हक उस जायदादपर सिर्फ हीन हयाती हो तो जब वह जायदाद उसके पास आवेगी तो वह उसके लड़के, पोते, परपोतोंके लिये पैतृक सम्पत्ति बन जायगी। यह भी ध्यान रखना कि.जब किसी पुरुषको कोई जायदाद किसी पूर्वजसे मिले और उसके कोई पुरुष सन्तान न हो, उस वक्त वह जायदादको कहीं बेच दे पीछे उसके लड़का पैदा हो जाय तो फिर उस लड़केका हक उस जायदादमें कुछ नहीं रहेगा। और अगर कुछ जायदाद बापके पास बेंचनेसे बाकी रह गयी होगी उसमें बेटे, का हक प्राप्त हो जायगा । जैसे रामको एक जायदाद वरासतमें बापसे मिली, रामके कोई बेटा, पोता, परपोता नहीं है लेकिन उसके बापका भाई (चाचा) है। चाचा अपनी पैदाइशसे उस जायदादमें कोई हक्क प्राप्त नहीं करता चाचाके लिये ऐसी जायदाद रामकी अलहदा जायदाद है क्योंकि राम का उस जायदादमें पूरा अधिकार है कि जैसा जी में प्रावे करे। अब हम मुश्तरका खानदान सम्बन्धी अन्य बातोंका आगे ज़िकर करते हैं।
__प्रत्येक सदस्य द्वारा अपनी अपनी पैदावार संयुक्त परिवारके कोषमें सम्मिलित करना-समस्त संयुक्त परिवारकी जायदाद हो जाती है। पारवथी अम्मला बनाम एम० आर० शिवराम अय्यर A. I. R. 1927. Madras. 90.
अविभाजनीय जायदाद-अविभाजनीय जायदादका इन्तकाल उसके अधिकारी द्वारा होसकता है, यदि कोई विपरीत रवांज न हो-रवाजके साबित करनेकी जिम्मेदारी अधिकारीके ऊपर है। ठाकुर रघुराजसिंह बनाम ठाकुर देषीसिंह. A. I. R. 1927 Nagpur. 15.. .
जब कोई हिन्दू पिता और उसके पुत्र संयुक्त श्रमसे जायदाद प्राप्त करते हैं और इसके अतिरिक्त भोजन और पूजनमें भी संयुक्त हों, उनके सम्ब न्धमें यह ख्याल किया जाना चाहिये कि उनका परिवार संयुक्त परिवार है चाहे उनके पास कोई पूर्वजोंकी जायदाद जो पिताको अपने पिता, पितामह या प्रपितामहसे मिली हो, न हो । हरिदास बनाम देवकुंवर बाई 28 Bom. L. R. 637.
सबूतकी जिम्मेदारी-संयुक्त खान्दानी जायदादके केन्द्रका अस्तित्व -त्रिलोक्य नाथ बनाम चिन्तामणि दत्त 30 C. W. N. 588.
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मुश्तरका खान्दान
[छठवां प्रकरण
मुश्तरका खान्दान-कोई जायदाद मुश्तरका जायदाद समझी जायगी, जबकि दूसरी जायदाद मुश्तरका होगी और खान्दान भी मुश्तरका होगा। मुनेश्वर तिवारी बनाम राम नारायण I. L. R. 6 All. 103 (Rev); 86 1. C. 852; A. I. R. 1925 All. 820.
मुश्तरका अवस्था-जब शहादतसे यह विदित हो कि कोई जायदाद किसी वक्त किसी एक सदस्यके नाम खरीदी गई थी और कोई दूसरी जायदाद किसी दूसरे अवसर पर किसी दूसरे मेम्बरके नाम, किसी एक सदस्य द्वारा किसी दूसरेका कर्ज चुकाया गया या कोई आम क़र्ज़ या हिसाब हो, तो यह स्पष्ट है कि खान्दानकी अवस्था मुश्तरका खान्दानकी है। केवल गांव के कागज़ोंमें अलाहिदा हिस्सोंका दिखाया जाना, ऊपरकी बातोंसे निकलने वाले मुश्तरका अवस्थाको रद्द नहीं कर सकता । भागवानी कुंवर बनाम मोहनसिंह 23 A. L. J. 589 (1915 ) M. W. N. 421; 41 C. L. I. 591; 22 L. W.211; 88 I. C. 385, 29 C. W. N. 1037, A. I. R. 1925 P. C. 1323 49 M. LJ. 55 ( P. C.).
हिबाकी जायदाद कब मुश्तरका मानी जायगी-जब किसी संयुक्त हिन्दू परिवारके मैनेजरने, जिसमें कि वह स्वयं, उसके भाई और पुत्र शामिल है; हिवा द्वारा प्राप्त जायदादको बतौर संयुक्त जायदादके व्यवहृत किया और किसीका अलाहिदा हिसाब नहीं रक्खा, बल्कि दोनोंकी आमदनी और खर्च एकमेंही मिलाता रहा।
तय हुआ कि इस प्रकारकी कार्यवाहीसे हिबा द्वारा प्राप्त हुई जायदाद, पूर्वजों की जायदादके साथ मिला देनेसे स्वयं उपार्जित जायदाद न रहकर पूर्वजोंकी जायदाद होगई। बरबन्ना संगप्पा बनाम परवनिंग बासप्पा. A. I. R. 1927 Bom. 68.
स्वयं उपार्जित जायदाद, फरीकोंके बर्तावसे मुश्तरका जायदाद हो जाती है । श्याम भाई बनाम पुरुषोत्तम दास 21 L. W. 5813 90 I. C. 124; A. I. R. 1925 Mad. 645,
मालकी अदालतमें नाम दर्ज होना खास प्रमाण नहीं है-मालगुज़ारी के कागजों में पृथक नामोंका दाखिला स्वयं हिन्दू परिवारके संयुक्त होनेके प्रतिकूल प्रमाण नहीं है और न उससे यही प्रमाणित होता है कि उनका जायदादपर पृथक पृथक कब्ज़ा है जब कि जायदादका संयुक्त होना स्वीकार किया गया हो-पच्चू बनाम नाथू 7 L. R. 24 ( Rev.).
जब यह स्वीकार कर लिया जाता है या साबित हो जाता है कि खान्दानमें कुछ केन्द्रीय जायदाद है तो उस दूसरे फरीककी जिम्मेदारी हो जाती है कि वह यह साबित करे कि वह मुश्तरका खान्दानकी स्वयं उपा
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दफा ४१६ ]
र्जित जायदाद न थी । मुश्तरका खान्दान कुछ द्वारा जायदाद खरीदी गई और खरीदकी रक्कम, उस खरीदी हुई जायदाद और पैतृक आयदादके २ विस्वा के रेहननामे द्वारा अदाकी गई। मुरतहिनने रेहननामेके बिना पर नीलामकी डिकरी हासिल किया । मुरतहिनके नीलाम के पहिलेही, मुहय्यानने एक नालिश द्वारा यह हुक्म चाहा कि २ विस्वा पैतृक जायदाद के सम्बन्धके रैहननामे और नीलामकी पावन्दी उनपर नहीं है और रेहनना मेमें दर्ज दूसरी जायदाद का दावा छोड़ दिया तथा हुक्म प्राप्तकर लिया । बाक्क़ी जायदाद जो खान्दानके फ़ायदेके लिये खरीदी गई थी बेचदी गई एक पीछेकी नालिशमें जो रेहननामे और नीलामकै जायज़ होनेके लिये मुश्तरका खान्दानके विरोध में दायर की गई थी तय हुआ कि-
( १ ) रेहननामेकी पाबन्दी खान्दान पर है, और यह कि-
अलहंदा जायदाद
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( २ ) नालिश जाबता दीवानीके आर्डर २ रूल २ के अनुसार नहीं हों सकती । श्रभयदत्त सिंह बनाम राघवेन्द्र प्रताप सहाय 3 0. W. N. 40.
ईसाई और हिन्दूकी मुश्तरका जायदाद - जबकि एक ईसाई और उसके हिन्दू सम्बन्धी एकही में मुश्तरका खान्दानकी तरहपर रहते हों और यह मालूम हो कि कितनी ही जायदादों के पृथक करनेकी नीयत उनकी नहीं है और तमाम जायदाद एक मुश्तरका खान्दानकी जायदाद समझी जाती हो ।
तय हुआ कि उसके मध्यमें एक ऐसा समझौता विदित होता है जिसके अनुसार वे सब जायदाद के समान अधिकारी हैं। जोगी रेडी बनाम चिन्नाबी रेड्डी 22 L. W. 116; 90 I. C. 1016; A. I. R. 1925 Mad. 1195.
अलहदा या खुद हासिलकी हुई जायदाद
(Separate or self aquired property)
DD
दफा ४१८ अलहदा या खुद कमाई हुई जायदाद
नीचे लिखे हुए तरीक़ों में से किसी भी तरीक़ेसे जो जायदाद या धन हासिल किया गया हो वह जायदाद या धन उस आदमीका अलहदा माना जायगा जिसने कि उसे हासिल किया है और चाहे वह आदमी मुश्तरका खानदानमें रहता हो और मुश्तरकन् रहते हुये हासिल किया हो । अर्थात् वह जायदाद और धन उस आदमीके निजका होगा मुश्तरका खानदानका कोई भी आदमी अपना कोई हक़ उसमें नहीं रखता। नीचे देखो
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मुश्तरका खान्दान
[ छठवां प्रकरणं
( १ ) जो जायदाद संप्रतिबंधदाय ( देखो दफा ४१३ ) के तौरपर प्राप्त हुई हो अर्थात् जो बाप, दादा, परदादा के अलावा किसी दूसरे आदमी से प्राप्त हुई हो -
( २ ) दान - अगर बाप प्रेमवश अपने किसी लड़केको मौरूसी मनकूला जायदादका कुछ थोड़ा सा हिस्सा बतौर दान या हनामके दे दे । बम्बई और इलाहाबाद हाईकोर्टने इसे नहीं माना देखो - नानाभाई गनपतराव धैर्य्यवान बनाम चर जवाई 2 Bom. 122, 131, 132. इस मुक़द्दमे में सब पुत्रोंकों दान शराकत में दिया गया था इसलिये जायदाद मुश्तरका मानी गयी; परसोतमराव तांतिया बनाम जानकीबाई 29 All 354. और इस किताबकी दफा ४१७ - ४.
(३) सरकारले इनाममें मिली हुई जायदाद - जो जायदाद सरकार की ओरसे किसी मुश्तरका खानदानके एक आदमीको मिली हो तो अगर इनामके पत्रमें यह इरादा न जाहिर किया गया हो कि वह जायदाद सब खानदान वालोंके लिये है तो वह जायदाद इनाम पाने वालेकी अलहदा समझी जायगी - कटाना न चैय्यर बनाम राजा शिवगंग 9M. I. A. 548, 610. महन्त गोविन्द बनाम सीताराम 21 All 53, 25 I. A. 195.
(४) जो जायदाद मुश्तरका खानदानकी किसी आदमीने, मुश्तरका खानदान की जायदादकी आमदनीकी सहायता बिना विद्वता प्राप्त करके; सिर्फ अपने उद्योगसे हासिल की हो अलहदा जायदाद होगी, देखो दफा ४२०.
(५) वह मुश्तरका खानदानकी जायदाद जो खान्दानसे निकल गयी हो और फिर जिसको मुश्तरका खानदानका कोई आदमी, मुश्तरका खानदान के धनकी सहायता बिना प्राप्त करे ।
( ६ ) अलहदा जायदादकी आमदनी और उस आमदनीसे खरीदी हुईं दूसरी जायदाद भी अलहदा जायदाद है; कृष्णाजी बनाम मोरोमहादेव
15 Bom. 32.
(७) जब कोई जायदाद मुश्तरका खान्दानकी किसी ऐसे आदमीके पास हो जिस जायदाद के सब हिस्सेदार मर चुके हों और वह तनहा मालिक हो, तथा किसी हिस्सेदारकी विधवा जिसे गोद लेनेका अधिकार बाक़ी हैं ज़िन्दा न हो तो वह जायदाद अलहदा समझी जायगी। देखो -- बच्चो बनाम मानकोरी बाई 01 Bom. 373; 43I. A. 107.
(८) जब किसी मुश्तरका खानदानके किसी आदमीको बटवारा में उसके हिस्से की जायदाद मिली हो और उसके लड़के, पोते, परपोते न हों तो वह अलहदा होगी।
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दफा ४१८]
अलहदा जायदाद
___ एक सदस्य द्वारा खरीदी हुई जायदाद-जब किसी मेम्बरने कुछ जायदाद अदालतकी नीलाममें खरीदी, जबकि डिकरीदार, नीलाममें खरीदने वालेका मुश्तरका भाई है और जबकि यह बयान किया गया है कि खरीदार डिकरीदारका बेनामीदार है-तय हुआ कि यह मानते हुए भी कि वे मुश्तरका खानदानके भाई हैं यह हर हालतमें मानना आवश्यक नहीं है कि एक भाई दूसरे भाईके लिये अवश्य ही जायदाद खरीदे, यह मुद्दाअलेहकी जिम्मेदारी है कि वह इस बातको सावितकरे किं खरीदार डिकरीदारकाबेनामीदार था। वेट राम चट्टी बनाम मारुत अप्पा पिल्ले 21 L. W. 226; 86 I. C. 886 (1) A. I. . 1925 Mad. 448.
वेश्याकी खुद कमाई हुई जायदाद-जबकि तीन वेश्याये साथ साथ रहती हैं, किन्तु उनमेंसे केवल एक ही धनोपार्जन करती है, तो ऐसी अवस्था में कमाने वाली वेश्या द्वारा अपने नामसे मकान खरीदने में यह नहीं समझा जासकता, कि वह समस्त परिवारके लाभके लिये है, जबकि इस बात साबित करने के लिये कोई सुबूत न हो कि घर खरीदने में कुछ संयुक्त कोष खर्च किया गया है। तओर कन्नाम्मल बनाम तोर रामतिलक अमालः A. I. R. 1927 Mad. 38.
यह बात इस सिद्धांतपर निर्भर है कि जब कई एक वेश्याएं साथ साथ रहती हों और उनमेंसे कुछ अपनी वृद्धावस्थाके सबबसे और कुछ अन्य शारीरिक अयोग्यताके सबबसे अपने पेशेसे कमाई न करती हों, लोगोंसे उन्हे धन न मिलता हो, लोग उन्हे पसंद न करते हों और उनमेंसे एक ही की आमदनीले सबकी परवरिश होती हो ऐसी हालतमें उस कमाने वाली वेश्याके नामसे जो जायदाद खरीदी जायगी तो अदालतको यही अनुमान होगा कि वह जायदाद उसकी निजकी है। यह प्रश्न उस समय जटिल हो जायगा जबकि उनमेंसे कई एक कमाती हों, रुपया शामिल रहा हो. अन्य कारोबार भी शामिल हो पर किसी वुढ़िया वेश्याने अपनी कमाईका बड़ा भाग उस सुंदरी वेश्याके सौंदर्य आदि बनानेमें खर्च किया हो और उसकी श्रामदनी होती हो।
किसी हिन्दू संयुक्त परिवार के सम्बन्धमें, जिसके अधिकार में कोई संयुक्त पारिवारिक जायदाद हो, प्रत्येक वातसे परिणाम निकाला जासकता है कि वह जायदाद मुश्तरका है तओर कन्नाअम्मल बनाम संजोरराम तिलक अम्मल. A. I. 3. 1927 Mad. 38.
एक सदस्य द्वारा अधिकृत जायदादकी सूरतमें संयुक्त परिवारकी कल्पना नहीं हो सकती. यदि पारिवारिक केन्द्र न साबित किया जाय । तंजोर कन्नाअम्मल बनाम तंजोर रामतिलक अम्मल A. I. R. 1927 Mad. 38.
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みりみ
मुश्तरका खाम्दान
[ छठवां प्रकरण
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फारखनीनामा और अधिकार - एक हिन्दू (अ) के (क), (ख) और (ग) तीन पुत्र थे । सबले पहिले (क) खानदान से अपना हिस्सा लेकर अलाहिदा हुआ । और एक फा खनीनामा लिख दिया । उसी प्रकार ( ख ) और (ग), तीन वर्ष के पश्चात् अलाहिदा हो गये। सबसे पहिले (ग) एक पुत्रको, जोकि भुई है, छोड़कर मरा । (क) उसके बाद एक विधवा छोड़कर मरा। तत्पश्चात् ( अ ) और अन्तमें ( ख ) एक विधवा छोड़कर मरा । मुद्दईने नालिश जायदाद पर की, इस कारण पर दावा किया है कि वह अपने पिताकी मृत्युके पश्चात् ( अ ) के साथ रहता था या इसके अतिरिक्त उसने उस जायदाद को अपने चचा (ख) से उसकी मृत्युके पश्चात् वरासतसे प्राप्त किया है ।
तय हुआ कि (१) महज़ (ग) के वयानोंसे, कि १६०७ में (अ) और (क) मुश्तरका थे, न तो वे दुबारा मुश्तरका होते हैं और न उनका मुश्तरका होना साबित ही होता है चाहे इसका प्रतिपादन किसी प्रत्यक्ष शहादत द्वारा भी क्यों न हो ( २ ) मुद्दई के मुताल्लिक, यद्यपि उसके पिता के फारखतीनामाके द्वारा उसके अधिकारका त्याग नहीं होता, क्योंकि उसके पित ने अपना हिस्सा पाया था, और उसे कुछ खानदानी क़र्ज़ से भी छुटकारा (मुक्ति) मिली थी, aagarरेकी पावन्दी उसपर तबतक होगी, जस्तक कि वह धोखेबाजी या और किसी मान्य कारणसे मंसूख न हो ( ३ ) यह कि इस प्रकारके मुश्तरका वारिस बटवारेके पश्चात् मुश्तरका क़ब्जा प्राप्त करते हैं दकीयत सि जुमल नहीं, और चूंकि यह मुद्दई और (ख) ने (अ) की जायदाद आधी आधी है अतएव (क) और (ख) की विधवाओं का अपने पतियोंके भिन्न भिन्न हिस्सोंपर अधिकार प्राप्त है । जादव बाई बनाम मुल्तान चन्द 27 Bom L. R. 425; 87 I. C. 93; A. I. R. 1925 Bom. 350.
अलाहिदा जायदाद का मुश्तरका जायदादमें तबदील किया जानामन्दी सरवाई बनाम सनधानम् सरवाई AIR 1925 Mad. 303.
नानाले मिनी जायदाद - वह जायदाद जो किसी व्यक्तिको अपने नाना से प्राप्त होती है, उसकी हैसियत, उसके कब्ज़े में, बतौर पूर्वजोंकी जायदाद के नहीं होती । सुत्रह्मण्य अप्पा बनाम नल्ला कवन्दन - ( 1926 ) M. W. N. 291(1; A. I. R. 1926 Mad. 634.
नोट — यह नहीं समझ लेना चाहिये कि कोपार्सनरी हरएक जायदाद कोपार्मनरी हैं । मुश्तरका नानक आदमीकी अपनी अलहदा जायदाद भी हो सकती है और वह जायदाद उसके अधिकारमें रहती है, इम तरह बहुत तरहकी जायदादें जो ऊपर बताई गयी हैं अलहदा जायदाद है | अलहदा जायदाद को अपी कमाई हुई जायदाद भी कह सकते हैं, तथा अपनी हामिलकी हुई जायदाद भी उमी अर्थ में है । यह वह जायदाद कि जिसका कोई हिन्दू मझरका जायदादको हानि पहुंचाये बिना प्राप्त करें । ऊपर नम्बर १. २, ३ में जा अलदा जायदाद बतायी गयी है उन के बांग्में यह नहीं कहा जा कता कि
का जायदाद की मदद से या खर्चस प्राप्त की गयी है ऐसी जायदाद खुद कमाई हुई जायदाद कह
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बफा ४१६]
अलहदा जायदाद,
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लातीहै । और जो जायदाद नम्बर ४ में कही गया है कि कोपर्मनरकी कमाई का धनहै इसके विषयमें हमेशा यह सवाल पेदा होसकताई कि वह जायदाद उसकी अग्ना कमाई हुई अलहदा मानी जामकती है या नहीं ? ऊपर नम्बर ५ में जो जायदाद कही है उसके विषयमें भी यही समझना चाहिये । अपनी कमाई हुई जायदाद उस जायदादको कहते है जिसे किसी हिन्दूने अपने मुश्तरका खानदानकी नायनादकी सहायता बिना कमाई हो । ऊपर जायदाद शब्दका अर्थ मनकूला और गैरमनकूला दोनों जायदादोंसे समझना । दका ४१९ अलहदा कमाई
__आगर किसी मुश्तरका खानदान के किसी आदमीने ऐसी कोई अलहदा जायदाद प्राप्तकी हो जो उसने अकेले अपने उद्योगसे प्राप्त की हो और जिसे उसने मुश्तरका खानदानकी जायदादकी सहायता बिना प्राप्तकी हो तो फिर उस जायदादकी आमदनी भी उस आदमीकी अलहदा कमाई मानी जायगीदेखो 27 Mad. 228;सोमा सुदराबनाम गंगा 28 Mad. 385; जगमोहनदास बनाम मंगलदास 10 Bom. 528;
घरासत से मिली जायदाद-ऐसी जायदाद जो किसी मुश्तरका खानदान के व्यक्तिको नज़दीकी होने के कारण प्राप्त हुई हो मुश्तरका खानदान की ऐसी जायदाद नहीं समझी जा सकती, जिसके सम्बन्धमें खानदान का मेनेजर नालिश कर सके या उसके खिलाफ नालिश की जा सके, जिम्की पाबन्दी खानदानके दूसरे सदस्योंपर हो । हंसलाबक्स बनाम राजबक्ससिंह A. I. R. 1925 Oudb 75.
मुश्तरका खानदान-एक हिस्सेदार द्वारा किया जाने वाला व्यवसाय मुश्तरका खानदान का व्यवसाय नहीं समझा जाता। मोथाराम दौलतराम बनाम पहलाद राय गोपाल दास । A.I R. 1925 Sindn. I09.
मुश्तरका खानदान-हिस्सेदार - हिन्दु खानदानके व्यवसायके सम्बन्ध में एक हिस्सेदार पंचायत के सामने मामले को नहीं बयान कर सकता और दूसरे हिस्सेदारों को पाबन्द नहीं बना सकता । पंचायत के सामने किसी विषय को पेश करना खानदानी व्यवसाय का साधारण काम नहीं है। गेंदामल बनाम फर्मा निहालचन्द छज्जूमल 84 I. C. 726; 6 Lal. L. J. 502; A.I R. 1925 Lah. 261.
जब किसी मुश्नरका खानदान का कोई व्यक्ति इसबानका दावा करता है कि अमुक जायदादको उमने स्वयं अपने श्रम और धनमे उपाजित किया है तो उपका यह कर्तव्य होताहै कि वह यह साबित करे कि उसने उस जायदाद के उपार्जिन करने में पैतृक जायदानमे सहायता नहीं ली। जब करठ हिन्दू भाइयों ने कोई जायदाद आपस में मिलकर कमाया हो और इसके खिलाफ़ कोई प्रमाण न हो तो उनके कब्जे में वह मश्वरका जापदाद भी नाम पर होगी और उनकी औलाद उसपर जन्मसे ही अधिकार रसगी । पदि इस
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मुश्तरका खान्दान
[छठवां प्रकरण
बातकी शहादत होगी कि उनका इरादा उस जायदादको मुश्तरका जायदाद रखने का था और मुश्तरका खानदानी जायदाद बनानेका न था तो उस के अनुसार अमल होगा। किन्तु कल्पना इस बात के पक्ष में है कि वह जायदाद मुश्तरका खानदानी जायदाद समझी जाय । मोतीलाल बनास हाजीमल 87 I. C. 809.
मुश्तरका खानदान-पिता द्वारा जायदाद--जब कोई हिन्दू पिता किसी जायदाद को उसके कोई पुत्र उत्पन्न होने के पहिले ही पैदा करता है तो वह जायदाद उसकी स्वयं उपार्जित होती है और जब वह उसके पुत्रोंको मिलती है तब वह बतौर अलाहिहा जायदाद के मिलती है। मथुरादास बनाम राम जी मल 85 I. C. 1006; A. I. R. 1925 Oudh 617. दफा ४२० विद्वत्ताकी कमाई
किसी ऐसे पेशे या कारबारसे जिसके लिये खास विद्वत्ताकी ज़रूरत हो और उससे जो धन प्राप्त किया जाय, ऐसी आमदनी विद्वत्ताका फल मानी जाती है। अगर मुश्तरका खान्दानके खर्चसे वह खास विद्वता न प्राप्त की गई हो तो वह आमदनी अपनी कमाई हुई अलहदा जायदाद कहलायेगी। और अगर मुश्तरका खान्दानकी जायदादकी आमदनीसे वह खास विद्वत्ता प्राप्त की गई हो तो उस विद्वतासे कमाई हुई जायदाद अलहदा जायदाद नहीं मानी जायगी लेकिन अगर खान्दानके खर्चसे केवल मामूली शिक्षा प्रारंभिक प्राप्त कीगई हो तो सिर्फ इस कारणसे वह आमदनी मुश्तरका नहीं समझी जायगी। देखो लक्षमण बनाम जमुनाबाई 6 Bom 225; 1 Mad. 252; 4 A. I. 109; चलाकंडा बनाम चलाकडा 2 Mad. HC.56; वाई मंछा बनाम नरोत्तमदास 6 Bom. H. C. A. C. 1; 10 W. R. 122; कृष्णाजी बनाम मोरो महादेव 15 Bom. 32; लछिमिन कुंवर बनाम देवीप्रसाद 20All 435; दुर्गादत्त बनाम गनेशदत्त ( 1910 ) 32 All. 305,
इसीलिये यह माना गया है कि यद्यपि एक वकीलने मुश्तरका जायदादके खर्चसे प्रारंभिक शिक्षा प्राप्तकी परन्तु कानूनी शिक्षा उसने मुश्तरका जायदादकी सहायता बिना प्राप्तकी इसलिये उसके पेशेकी आमदनी उस वकीलकी खुद कमाई हुई जायदाद होगी देखो-लक्ष्मण बनाम जमुना बाई 6 Bom. 225.
हालमें इलाहाबादके एक मुक़दमेंमें यह सवाल उठा कि क्या एक हिन्दू. ज्योतषीकी आमदनी उसकी खुद कमाई हुई जायदाद है ? मामला यह था कि वह ज्योतषी जब लड़का था तो उसके बापने जो स्वयं ज्योतषी था लड़के को कुछ प्रारंभिक शिक्षा दी थी परन्तु यह देखकर कि उसने ज्योतिष शास्त्र
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दफा ४२०-४२१ ]
की उच्च शिक्षा प्राप्त की थी तो माना गया कि उस लड़केने स्वयं यह शिक्षा प्राप्त की थी इसलिये यह भी माना गया कि ऐसी सूरत में उस ज्योतषीकी आमदनी उसकी खुद कमाई हुई अलहदा जायदाद है देखो - दुर्गादत्त बनाम गनेश दत्त ( 1910 ) 32 All 305.
अलहदा जायदाद
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बंबई हाईकोर्टके, लक्ष्मण बनाम जमुना बाई ( 6 Bom. 225 ) वाले मुकद्दमें में जज मेल्विल् साहेबने कहा है कि - "जो वचन हमारे सापने पेश किये गये हैं उनसे हमारी राय में हिन्दूलॉ के अनुसार यह सिद्ध होता है कि अगर मुश्तरका खान्दानके खर्च से या उस समय जबकि खान्दानके खर्च से किसी आदमी का भरणपोषण होता हो ऐसी दशा में विद्वत्ता प्राप्त की गई हो तो विद्वत्ताका फल बांटा जासकता है लेकिन अगर वह विद्वत्ता किसी ऐसे आदमी के खर्च से प्राप्त की गई हो जो मुश्तरका खान्दानके बाहरका है तो उस विद्वत्ता का फल बांटा नहीं जासकता परन्तु फिर भी यह सवाल बाक़ी रहता है कि उन बचनों में जो मेरे सामने पेश हैं 'विद्वत्ता' शब्दसे क्या मतलब समझना चाहिये, अर्थात् इस समय में इस शब्द से साधारण प्रारंभिक शिक्षा समझी जाय या किसी खास पेरों की खास शिक्षा; हमारी राय यह है कि अगर हम 'विद्वत्ता' शब्दका अर्थ साधारण शिक्षा न मानकर खास तौरकी विद्वत्ता माने तो यह हिन्दू शास्त्रों और आधुनिक हिन्दू समाजके विरुद्ध नहीं होगा" देखो दफा ४१८.
नोट- -यह बात अन्य फैसलोंमें मानी गई है कि साधारण शिक्षासे खास शिक्षा अलग हैं अगर खास शिक्षा (विद्वत्ता ) दूसरे तरह से हो तो उसकी आय अलहदा समझी जायगी.
दफा ४२१ बीमाका रुपया
( १ ) बीमा - जब कोई आदमी अपने बापके रुपया के लिये अपनी अलहदा आमदनी से बीमें ( Insurance ) को क़िस्त देता हो तो वह रुपया उसकी अलहदा जायदाद होगी, देखो - राजाम्भा बनाम रामकृष्ण नैय्या 29 Mad. 121.
( २ ) क़ब्ज़ेसे निकल गयी हुई मौरूसी जायदादकी पुनः प्राप्ति - कितही मामलों में ऐसा होता है कि किसी मुश्तरका खान्दानके लोग अनुचित रीति से अपनी मुश्तरका जायदाद से बेदखल कर दिये जाते हैं या बहुत दिनों तक उनको उस मुश्तरका जायदादपर दखल नहीं मिलता और ऐसी जायदाद को पीछे किसी समय उस मुश्तरका खान्दानका कोई आदमी मुश्तरका सम्पत्तिकी सहायता बिना पुनः प्राप्त कर लेता है। ऐसे मामलोंमें अगर बाप ने वह जायदाद पुनः प्राप्त करली हो तो वह जायदाद चाहे वह मनकूला हो या गैर मनकूला उसको वह अपनी अलहदा या अपनी कमाई हुई जायदाद
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[ छठषां प्रकरण
मानता है परन्तु यदि खान्दानके किसी दूसरे आदमीने ऐसी जायदाद प्राप्त की हो तो अगर वह जायदाद मनकूला हो तो वह उसकी अलहदा या खुद कमाई हुई जायदाद मानी जायगी। लेकिन अगर जायदाद गैर 'मनकूला हो तो वह आदमी उस जायदाद का चौथाई भाग पुनः प्राप्त करनेके एवज़में इनामके तौरपर लेगा, और बाक़ी जायदाद पुनः प्राप्त करने वाले पुरुषके सहित सबकोपार्सनरोंमें बराबर बाट दी जायगी. देखो - बाजावा बनाम वक (1909) 84 Bom. 106; 10 Bom. 528 विशालाक्षी बनाम अन्नासामा 5 Mad. H. C. 150. विश्वेश्वर बनाम सीतलचन्द्र 6 W 1. 69. श्यामनरायन बनाम रघुबीरदयाल 3 Cal. 508. दुलाकी बनाम कोर्ट आफ वार्डस 14 W.R.34; 4 Mad. 250, 259.
४५८
मुश्तरका खान्दान
यह पूर्वोक्त क़ायदा सिर्फ ऐसी मुश्तरका जायदादमें लागू होता है ज़ो पहिले मुश्तरका खान्दानसे निकल गई हो लेकिन पीछे एक कोपार्सनर ने मुरा खान्दानकी सहायता बिना एक गैर आदमीसे जो मुश्तरका खानदानके विरुद्ध उस जायदादपर क़ाबिज़ था पुनः प्राप्त की हो । यह क़ायदा और किसी तरह के मामले से लागू नहीं होगा ।
एक मुकद्दमे में मुश्तरका खानदानकी कुछ जायदाद उस खानदानकी एक शाखा के एक आदमीको किसी समझौते के अनुसार देदी गई थी; और पीछे खानदानकी एक दूसरी शाखाके एक आदमीने अपने रुपयासे उस जायदाद को पुनः प्राप्त कर लिया तो वह जायदाद उस प्राप्त करने वाले आदमी की खुद कमाई हुई जायदाद मानी गई और उसके भाईका उस जायदाद में कुछ भी हिस्सा नहीं माना गया। इस मुकदमे में भाई की तरफसे यह कहा गया था कि जायदाद का एक चौथाई भाग पुनः प्राप्त करने वाले भाईको दे दिया जाय और बाकी जायदाद फिर दोनों भाइयों में बराबर बांट दी जाय परन्तु यह नहीं माना गया- 34 Bom, 106;
दफा ४२२ मुश्तरका जायदाद के मामलों में अदालतका अनुमान
जब कोई हिन्दू यह कहकर, किसी जायदाद के क़ब्ज़ा पाने का दावा करे कि वह जायदाद मे कमाई हुई है और अलहदा है, और मुद्दालेह उस जायदादको मुश्तरका बतलाये । श्रथवा जब कोई हिन्दू यह कहकर कि जायदाद मुश्तरका है जायदाद के बटवारेका दावा करे और मुद्दअलेह उसे अपनी कमाई हुई जायदाद कहे तो ऐसी सूरत में यह सवाल उठता है कि साबित करने का बोझा किल पक्ष पर है । इस विषय के मुख्य २ नियम नीचे लिखे हैं तथा इस किताब की दफा ३६७ भी देखो.
( १ ) जबतक इसके खिलाफ़ साबित नकिया जाय तबतक यही माना शायगा कि हर एक हिन्दू खानदान, खानपान, पूजापाठ, और जायदाद में
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दफा ४२२ ]
अलहदा जायदाद
मुश्तरका है । इसके खिलाफ़ सुबूतका बोझा उस पक्षपर है जो उसे मुश्तरका न बताता हो - नीसकृष्टो बनाम बीरजन्द 12 M. 1. 4233 540, नरगुन्टी बनाम पैगामा 9 MIA 66 4 M. 1, A. 137, 168.
VUL
मुश्तरका खानदान के लोगों का अलाहदा अलहदा रहना और अलहदा अलहदा खानपान करना इस बात की कोई दलील नहीं होगी कि वह लोग मुश्तरका नहीं हैं अर्थात् ऐसा होने पर भी वह मुश्तरका माने जायेंगे । देखो गनेशदत्त बनाम जीवाच ( 1903 ) 31 Cal. 262531 1. A. 10
31 Mad. 482.
महर्षि बृहस्पति ने कहा है - जो भाई एक साथ रहते और खाते पीते हों उनके घरमें पूर्वजों, देवताओं और ब्राह्मणों की एकही पूजा सबके लिये काफी होगी, परंतु जिस खानदान के लोग अलहदा अलहदा रहते हों तो उन सबके घरमें अलहदा अलहदा पूजा होनी चाहिये ।
( २ ) जब किसी मुक़द्दमें में यह साबित किया गया हो कि कोई हिन्दू खानदान किसी समय मुश्तरका था तो जबतक कि यह साबित न कियाजाय कि बटवारा हो चुका है तबतक क़ानूनमें यही माना जायगा कि वह खानदान अब तक मुश्तरका है; चीथा बनाम मिहीलाल 11 M. I. A 369; प्रीतकुबेर बनाम महादेव 22 Cal. 85. 21 I. A. 1343
( ३ ) अगर कोई कोपार्सनर अपने दूसरे कीपार्सनरोंसे अलग होजाय तो यह मान लेने का कोई सबब नहीं है कि दूसरे कोपार्सनर मुश्तर का ही बनै रहे अर्थात् यह माना जासकता है कि एक आदमी के अलग होते ही सब लोग अलग होगये थे । वालावकस बनाम रुखमाबाई 30 Cal. 725; 301 A 130g
( ४ ) किसी खानदान के मुश्तरका होनेसे ही यह अनुमान नहीं कर लिया जा खकता कि उस खानदान के क़ब्ज़ में कोई मुश्तरका या कोई भी जायदाद है अर्थात् विना किसी जायदाद के रखने पर भी खानदान मुश्तरका हो सकता है । मूलजी बनाम गोकुलदास 8 Bom 154; तुलसीदास बनाम प्रेमजी 13 Bom L. R. 133; राम के उन बनाम टुंडामल 33 AH 677; परन्तु जब किसी मुकद्दमेमें यह साबित किया गयाहो या मंजूर किया गया हो कि कोई हिन्दू खानदान एक साथ रहता है और एक साथ खाता पीता है और उसके कब्ज़े में जायदाद भी मुश्तरका है । तो क़ानून यही अनुमान करेगा कि उस खानदान के क़ब्ज़े की सब जायदाद मुश्तरका हैं । ऐसे खानदानका कोई एक आदमी अगर खानदान की जायदाद का एक टुकड़ा अपनी अलग जायदाद बताये तो इस बातके साबित करनेका बोझ उसी पक्ष पर होगा चाहे वह जायदाद उसी के नामसे ही खरीदी गई हो या रसीदें
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मुश्तरका खान्दानं
[छठवां प्रकरण
मौजूह हो तो भी अलहदा जायदाद नहीं मानली जायगी; देखो 12 Bang: L. R. ( P. C.) 317;
लेकिन अगर मुश्तरका खानदान के एक आदमी ' महेश' के नाम पर कोई जायदाद हो और यह भी मालूम होकि उस खानदानके दूसरे लोगों ने अपने रुपया से अपनी कोई अलग जायदाद कमाई हो, और वे खानदान के लोगों से बिना सलाह किये उसका प्रबन्ध करते हों और महेशके विषय में भी खानदानने दुनिया को यह दिखाया हो कि महेश उस जायदादका अंलग अकेला मालिक है, तो उस शकलमें यह अनुमान करना कि जायदाद मुश्तरका है कमजोर हो जायगा। और फिर उस जायदाद को मस्तरका साबित करनेका बोझ उन लोगोंपर है जो उसे मुश्तरका बयान करते हों देखो धरमदास बनाम श्याम सुन्दरी 3 M. I. A. 2297 240; गोपीकृष्ण बनाम गंगाप्रसाद 6 M. I. A. 53; 10 M. I. A. 403; 411; 412; 13 M. I. A. 542350al. L. 11.47736 1. A. 233; 236: 18 All. 176% अतरसिंह बनाम ठाकुरसिंह ( 1908 ) 35 I: A: 296; 35 Cal. 1039.
ऐसा मानों कि अ, उसके दो पुत्र 'क' और 'ख' मुश्तरका खानदान की हैसियत से रहते हैं यह साबितहै कि सन् १८६५ में बापके हाथमें मौरूसी जायदादका बहुत कुछ भाग था सन् १८६५. ई० में बापने एक गैरमनकूला जायदाद अपने नामसे खरीदी और वसीयतसे उसने यह कहकर कि यह खरीदी हुई जायदाद उसकी कमाईकी है उस बापने क, को देदी । इस मामले में अनुमान यही है कि बापने मौरूसी जायदादकी आमदनी से वह जायदाद शरीदी थी इस लिये वह खरीदी हुई जायदाद भी मुश्तरकाहै । वह मुश्तरका नहीं है इसबात के साबित करनेका बोझ 'क' पर है। देखो लालबहादुर बनाम कन्हैयालाल 1907 ) 29 All. 244; 34 I: A. 6 वसीयतनामा में 'बापका यह लिखना कि वह जायदाद उसकी खुद कमाई की थी यह काफी नहीं है और न वह बतौर गवाही के हैं यानी ऐसा लिख देनेसे कोई असर नहीं होगा; देखो दफा ३६७.
(५) जब किसी मुकद्दमे में यह साबित किया गया हो या स्वीकार .. किया गया हो कि बटवारा हो चुका है, तो यह बात कि जायदादका एक हिस्सा अब भी मुश्तरका है, इसबात के साबित करनेका बोझा उसी पक्षपरहै जो मुश्तरका बयान करताहो अर्थात् बटवाराहो जाने के बाद यह नहीं माना जायगा कि फिरभी कोई जायदाद मुश्तरका रह गई थी देखो-विनायक बनाम दत्तो 25 Bom. 367.
(६) जब किसी मुकदमेमें यह साबित किया गया हो या स्वीकार किया गया हो कि मुश्तरका जायदादका कुछ बटवारा हो चुकाहै तो अनुमान
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दफा ४२२ ]
ધ
यही किया जायगा कि जायदाद का पूरा बंटवारा हो चुका है, देखो वैद्यनाथ बनाम एय्यासामी 32 Mad. 191,
अलहदा जायदाद
एक हिन्दू अपने पुत्र और पौत्रों सहित मुश्तरका रहता है उसने दान के तौर पर अपनी जायदाद पौत्र को देवी दानपत्र में उसने वह जायदाद अपनी कमाई हुई बताई थी और दानपत्रमें उसके पुत्रके भी हस्ताक्षर थे यह साबित किया गया था कि पुत्रको दानपत्रका मतलब मालूमथा जब कि उसने हस्ताक्षर कियेथे इसपर अदालतने यही अनुमान किया कि वह जायदाद उस हिन्दू की अपनी कमाई हुई थी; देखो कल्यान जी बनाम वेजनजी
32 10m. 512.
उस सूरत में भी जब कोई व्यक्ति किसी हिन्दू मुश्तरका खान्दानका कर्ता नहीं होता परिस्थितिके लिहाजले अदालत, इस बातको तय करती है कि वह व्यक्ति, जिसके खिलाफ दावा किया गया है उस खान्दानका प्रतिनिधि है और वह दावा उसके खिलाफ़ समस्त खान्दानके प्रतिनिधि स्वरूप किया गया है । अन्नपूर्णा कुंवर बनाम जागेश्वर मिश्र 87 1. C. 208; A. I. R.1925Oudh 658. संयुक्त कमाई - कल्पना और सबूत - मोतीलाल बनाम हरजीमल A. I. R. 1926 Nag. 146.
जब संयुक्त परिवारकी इब्तदायी जायदाद, ऐसी न हो, जिसका कोई आधार हो सके, तब यह कल्पना नहीं हो सकती, कि बादकी जायदाद उसकी सहायता से उपार्जित की गई । इस बातके प्रमाणित करने के लिये; कि स्वयं उपार्जन संयुक्त परिवारकी जायदाद में मिश्रित किया गया था, उस कार्य के स्पष्ट इरादे को भी प्रमाणित करना चाहिये । एक़बालसिंह बनाम बङ्गबहादुरसिंह 93 1. C. 634.
जायदाद के स्वयं उपार्जित होनेके विरुद्ध कल्पना -जायदाद, उसी जायदाद और कुछ पूर्वजों की जायदादको रेहन करके खरीदी गई — आया रेहन - नामेकी पाबन्दी है केवल पूर्वजोंकी जायदाद की बिनापर रेहननामेके जायज़ होनेके विरुद्ध नालिश - इस्तक़रार - आया बादकी शेष जायदादकी बिनापर रेननामेके नाजायज़ ठहरानेकी नालिश में बाधा पड़ती है, अभयदत्तसिंह बनाम राघवेन्द्र प्रताप संहार्य - 18 O. L. J. 37; 91 1. C. 976; A. I. R. 1926 Oudh 77.
यद्यपि यह कल्पना है कि हिन्दू परिवार संयुक्त समझा जाता है जब तक उसके विरुद्ध कोई प्रमाण न हो, किन्तु उस सूरत में जब यह प्रमा णित किया जाता हो कि नालिशके पूर्व एक या दो सदस्य पृथक होगये थे, यह कल्पना नहीं होती । खेवटके दाखिले, जिनमें सदस्योंके हिस्से अलग अलग नियत किये गये हैं, व्यक्तिगत सदस्योंके नाम उनकी पृथक पृथक प्राप्ति
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मुश्तरका खान्दान
[छठवां प्रकरण
और जायदादका चिरकालसे पृथक पृथक उपयोग आदि इस सम्बन्धमें विचा. रणीय बाते हैं, किन्तु वे स्वयं अन्तिम परिणाम नहीं हैं, दरबारीलाल बनाम मु० पारबती बाई 91 I. C. 841; A. I. R. 1926 All. 256.
किसी एक सदस्यके खान्दानसे अलाहिदा हो जाने के बाद, खान्दानके दूसरे सदस्यों में से किसी एकके नाम जायदाद खरीदी गई।
तय हुआ कि यह मान लेनेपर भी, कि वह एक अलाहिदा प्राप्त की हुई जायदाद थी, इस प्रकारकी जायदाद एक साथमें रहने वाले बाकी खानदानके लिये अलाहिदा प्राप्तकी हुई नहीं समझी जा सकती और यह वाकिया कि दस्तावेज इन्तकाल किसी एकहीके नाम था इस बातका अन्तिम निर्णय नहीं हो सकता कि वह जायदाद उसके द्वारा अलाहिदा प्राप्त कीगई थी। नलिनाक्ष्य गोसल बनाम रघुनाथ घोसल 851. C. 662; A. I. R. 1925 Cal. 754.
खान्दानी जायदाद होनेकी सूरतमें उसके मुश्तरका होनेकी कल्पना। हरदत्तलाल बनाम धन्धीसिंह 84 I C. 1011; 28 0. C. 113; A. I. R. 1925 Oudh. 93.
पुत्र द्वारा प्राप्त की हुई जायदाद-यदि पिताके जीवनकालमें ही पुत्र कोई जायदाद अपने नामसे खरीदे और उसके स्वतन्त्र ज़रिये आमदनीके इस प्रकारके हों,कि जिसके द्वारा वह वैसी जायदाद खरीद कर सकता हो,तो यह समझा जायगा कि पुत्रने इसे खास अपने लिये खरीदा है और वह खानदानकी जायदाद न मानी जायगी। चुन्नीलाल खेभनी बनाम नीलमाधव वारिक 41 C. L. J. 374; 86 I. C. 734. A. I. R. 1925 Cal. 1034.
जब किसी खास तारीख तक, किसी परिवारका संयुक्त होना साबित होता हो, तो उसके बाद उसकी अलाहिदगीका सबूत उस फ़रीक द्वारा दिया जाना चाहिये, जिसका कि यह दावा है। देवनारायण पांडे बनाम अज्ञानराम पांडे A. I. R. 1927 Privy Council 52.
___यदि कोई जायदाद किसीकी पत्नीके नाम हो तो यह कल्पना नहीं हो सकती कि उसमें उसके पतिका अधिकार है जब तक यह साबित न हो कि उसके खरीदने के लिये रुपया पतिने ही दिया था। अाफीशियल एशायनी मद्रास बनाम नटेसा ग्रामनी A. I. R. 1927 Mad. 194. दफा ४२३ अलहदा जायदादपर अधिकार
कोई आदमी चाहे मुश्तरका खान्दानमें रहता हो मगर वह अपनी अलहदा जायदाद भी रख सकता है और ऐसी जायदाद उस आदमीके निज की होगी दूसरे किसी हिस्सेदारको उसमें पैदाइश से कोई हक़ नहीं होगा
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दफा ४२३-४२४]
अलहदा जायदाद
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और अगर ऐसी जायदाद जो अलहदा हो वह मुश्तरका खान्दानमें रहनेपर भी वह आदमी उसे बेंच सकता है (6 W. R. 71) और इनाममें दे सकता है या वसीयतके ज़रिये जिसको जी चाहे देसकता है 20 All.267; 25All. 54; 24 Mad. 229; 10 Mad 251; 28 Mad 336; 10 W. R. 287, 20 W. R. 137; 1 All. 394; 12 M. I. A. 1, 39; 9 M. I. A. 96;8Bom. H. C. O. C. 196; और अगर वह बिना किसी वसीयतके मर जाय, तो वह जायदाद उसके वारिसोंको उत्तराधिकारमें मिलती है 9 M. I. A. 5 43, 613.
____ यह निश्चित तौरपर माना गया है कि जिस किसी बापके पास अलहदा जायदाद हो उस जायदादको बाप बिना पूछे अपनी औलादके जैसा उसके जी में आये कर सकता है यानी उस जायदादको बैंच सकता है (6 W. R. 71 ). दान कर सकता है या जिसको जी चाहे दे सकता है। लड़के पोते, परपोते अपनी पैदाइशसे उस जायदादमें कोई हक़ नहीं रखते। मगर बापके मरनेपर उसकी सब जायदाद जब लड़कोंके पास आवेगी तो उस वक्त वह जायदाद मौरूसी हो जायगी और मुश्तरका खानदानकी जायदादमें शामिल हो जायगी (1 All. 394 ). दफा ४२४ मुश्तरका कारवार
(अ) कोपार्सनरोंके कारोबारका वर्णन (१) हिन्दूलॉ में कारबार एक चीज़ है जो वरासतमें मिल सकता है। जब कोई हिन्दू मुश्तरका खान्दानका कोई कारबार छोड़कर मर जाता है तो वरासतमें आने वाली दूसरी जायदादोंकी तरहपर वह कारबार भी उसके वारिसोंको मिलता है। अगर वह आदमी कोई लड़का, पोता या परपोता छोड़कर मरा है तो वही सन्तान उस कारबारके पानेका हक़ रखती है उस सन्तानके हाथमें वह कारबार मश्तरका खान्दानका कारबार बन जाता है। और जिस फर्म या दुकानमें वह सन्तान शरीकहोते हैं, वह मश्तरकाखान्दान का फर्म या दकान कहलाती है। मुश्तरका खान्दानके कारबारमें जो शराकत लड़कों, पोतों या परपोतोंकी होती है वह शराकत कंट्राक्टसे बनाई हुयी (कम्पिनी या दुकान आदि) साधारण हिस्सेदारी ( Partnership ) नहीं है बल्कि वह मुश्तरका खान्दानकी भागीदारी है जो कानूनके असरसे स्वयं पैदा होती है। मुश्तरका खान्दानके फर्ममें जितने कोपार्सनर शरीक हैं उन सबोंके हक़ और कर्जे और ज़िम्मेदारियोंका विचार कंट्राक्ट एक्ट नम्बर । सन १८७२ ई० के अनुसारही नहीं हो सकता बल्कि इसके साथ साथ हिन्दूलॉ के. सिद्धान्तोंका भी झ्याल किया जायगा; देखो-रामलाल बनाम. लक्ष्मीचन्द 1
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मुश्तरका खान्दान
[ छटवां प्रकरणा
Bom H. C. 2 मुश्तरका खान्दानके कारवारकी हिस्सेदारी और मामूली हिस्सेदारी (Partnership) जो अकसर कम्पनियों और दुकानोंमें हुआ करती हैं इन दोनों में क्या फरक है यह फरक नीचे बताते हैं देखो
કર્યુ
१ मुश्तरका खानदानकी हिस्सेदारी किसी एक कोपार्सनर के मर जाने से टूट नहीं जाती और साधारण हिस्सेदारी टूट जाती है । देखो - सांवलवाई बनाम सोमेश्वर 5 Bom. 38; 14 Bom. 194.
२- जब कोई आदमी मुश्तरका खान्दानमें रहता हो और उस खान्दान का कोई मुश्तरका कारवार चलता हो ऐसी हालत में अगर वह अलहदा हो जाय और मुश्तरका खान्दानसे सम्बन्ध तोड़ दे तो वह आदमी पिछले मुनाफा और नुकसानका हिसाब कुछ भी नहीं मांग सकता मगर साधारण हिस्सेदारी में जैसा कि कम्पनियों था साझेदारोंमें हुआ करती है बराबर पिछला हिसाब मांग सकता है।
३- मुश्तरका खान्दानके मेनेजर ( प्रबन्धक) को यह माना हुआ श्रधिकार प्राप्त है कि वह मुश्तरका खान्दानके कारबारके लाभके लिये क़र्ज़ ले सकता है, और उस खान्दानकी जायदादको रेहन कर सकता है ( 5 Cal. 792; 26 Bom. 206; 6 C. W. N. 429 ) और ऐसे क़ज़ अगर उस खानदान के कारबार के लिये, लिये गये हों तो उस क़र्ज़की देनदार मुश्तरका जायदाद है जिसमें नाबालिग़ कोपार्सनरोंका भी हिस्सा शामिल रहेगा। परन्तु ऐसा अधिकार सिर्फ मैनेजर को ही होगा दूसरे कोपार्सनरको नहीं होगा (23 Mad. 597) परन्तु साधारण हिस्सेदारीमें साझेके कारवारके लिये कोई भी हिस्सेदार या साझीदार क़र्ज़ा नहीं ले सकता है और उसके देनदार अन्य सब हिस्सेदार नहीं होते हैं, देखो - कन्ट्राक्ट ऐक्टकी दफा २५९ एक्ट नम्बर ६. सन १८७२ ई०.
४ - साधारण हिस्सेदारीमें साझेके कारवारका क़रज़ा चुकाने के लिये साझीदारका सिर्फ हिस्साही नहीं लिया जायगा वक्ति उसकी दूसरी अलहदा जायदाद भी ली जायगी ( अगर वह साझेदारी रजिस्टरी न हो ) लेकिन जो क़र्ज़ मुश्तरका खान्दानका मेनेजर उस खान्दानके कारोबार के वास्ते लेता है तो उसके अदा करनेके लिये मुश्तरका खान्दानकी कुल जायदाद और उस मेनेजरकी दूसरी अलहदा जायदाद भी जिम्मेदार है और अगर ऐसी सूरत हो कि ज़ाहिरा क़र्ज़ा लेने वाला चाहे मेनेजरही हो पर असल में दूसरे कोपानर भी शामिल हों या उनके व्यवहार या चलनसे यह समझा जा सके कि शामिल थे या जिस क्रर्जे को उन्होंने पीछे स्वीकार कर लिया हो तो उन सब को पार्सनरोंकी अलहदा जायदाद भी उस क़र्जेके श्रदा करने की जिम्मेदार समझी जायगी, देखो - चाला मैय्या बनाम बरादय्या 22 Mad. 166 समल भाई बनाम सोमेश्वर 5 Bom. 38. सकराभाई बनाम मगनलाल 26 Bom. 206; 29 Cal. 583; 9 Bom. L. R. 1289,
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दफा ४२४ ।
अलहदा जायदाद
५-साधारण साझीदारी में जब कोई साझीदार नाबालिग हो तो साझेदारीके कके लिये तो उस नाबालिगका हिस्साही ज़िम्मेदार है उसकी अलहदा जायदाद जिम्मेदार नहीं हैं। मगर यदि उसने बालिग हानेपर साझीदारी स्वीकार करली हो तो फिर उसकी दूसरी अलहदा जायदाद भी उस कर्जेके अदा करने के लिये जो उसकी नाबालिगीमें लिया गया है ज़िम्मेदार होगी। देखो-कन्ट्राक्ट ऐक्टकी दफा २४७, २४८ एक्ट नं०६ सन १८७२ ई०
यही ऊपरका नियम नाबालिग कोपार्सनरोंके लिये भी है अर्थात् मुश्तरका खान्दानका मेनेजर मुश्तरका कारबार के लिये नाबालिग कोपार्सनरके हिस्से सहित मुश्तरका जायदादको रेहन रख सकता है (34 Bon. 72; 35 Bom. 692 ) ऐसी सूरतमें मुश्तरका खान्दानकी जायदादमें जो नाबालिग कोपार्सनरका हिस्सा है उतना ही ज़िम्मेदार होगा लेकिन अगर उस नाबालिग कोपार्सनरने बालिग होनेपर उस मुश्तरका खानदानके कारबारमें अपना साझा स्वीकार कर लिया हो तो फिर उसकी दूसरी अलहदा जायदाद भी उस कर्जे के अदा करने के लिये जिम्मेदार होगी देखो-विश्वम्भर बनाम शिवनरायन 29 All. 166. विश्वम्भर बनाम फतेहलाल 22 Ail. 176; 3 Cal. 738; 86. Cal. 349; 26 Mad. 214.. .
(२) मुश्तरका खान्दानके कारोबारका मेनेजर मुश्तरका खान्दानकी ओरसे किसी गैर आदमीको अपना साझीदार बना सकता है; देखो-रामलाल. बनाम लक्ष्मीचन्द 1 Bom. H. C. app. li. जब मेनेजर ऐसी कोई साझीदारी गैर आदमीके साथ करे तो उसका फैसला यानी जो कुछ झगड़े उस साझीदारोंमें हों कांट्राक्ट एक्ट नं०६ सन १८७२ ई० के अनुसार होंगे क्योंकि वह कारोवार एक गैर आदमीके शरीक होतेही साधारण साझीदारी या कम्पनी का कारबार बन जाता है। ऐसे कारबारमें मेनेजरके, या मुश्तरका खान्दानके किसी दूसरे आदमीके, या उस और आदमीके मरतेही कानूनर शराकत टूट जाती है, देखो--सुखानन्द बनाम सुखानन्द 28 Mad. 344.
(३) मुश्तरका खान्दानका कोई आदमी अगर कोई कारोबार करताहो तो इससे यह अनुमान नहीं किया जा सकता है कि उसका कारबार अवश्य ही मुश्तरका खान्दानका कारोबार है; देखो-वादीलाल बनाम शाह खुशाल 27 Bom. 157; 14 Bom. 189; 40 Cal. 523.
जब कोई हिन्दू पिता और उसके दो पुत्र एक मुश्तरका व्यवसाय करते हों, तो यह समझा जायगा, कि वे एकही मुश्तरका खान्दानके सदस्य हैं यद्यपि इस कल्पनाका खण्डन हो सकता है, चेतनदास मोहनदास बनाम मेनर्स राली ब्रादर्स 83 I.C 138; A. I. R. 1925 Sind 153.
नोट-(१) ऊपर कहा गया है कि मुश्तरका खान्दानका मेनेजर मुश्तरका खान्दानके लिए ज्ये कर्ज लेता है उसके अदा करनेके लिए नाबालिग कोपार्सनरका हिस्साभी. पामन्द है । यह बात योग्य
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[ छठवाँ प्रकरण
है और ऐसाही होना चाहिये था क्योंकि अगर ऐसा न होता तो हो सकता है कि बालिग होनेपर उन कुजके देने से इनकार कर देता तो फिर ऐसी सूरत में मेनेजरको कोई आदमी क्रर्जा नहीं देता और इसलिए मुश्तरका खान्दानका कारोबार बरबाद हो जाता । (२) ऊपर यह भी कहा जा चुका है कि मेनेजर के लिए ' हुए जिस कर्जे में अन्य कोपार्सनर शरीक न हो या उन्होंने उसे स्वीकार न किया हो तो उस क्रर्जे के अदा करने के लिए मुश्तरका खान्दानकी जायदादका उनका हिस्साही पाबन्द होता है उनकी अलहदा जायदाद नहीं पाचन्द होती । इसका कारण यह है कि मेनेजरका अधिकार मुश्तरका जायदाद के अन्दरही रखा गया है | कानून, कोपार्सनरकी अलहदा जायदाद के विषय में, को पार्सनरको मेनेजरसे अलग मानता है।
४८६
मुश्तरका खान्दान
( ४ ) जब कोई विधवा अपने पति के कारोबारके लाभके लिये कोई क़र्ज़ा ले तो वह क़र्ज़ा उस विधवाके मरनेके बाद भी उस कारोबारसे वसूल हो सकता है चाहे विधवाने क़र्जेके एवज़में कारोबारको रेहन नहीं रखा हो। देखो - सकराभाई बनाम मगनलाल 26 Bom. 206:
(क) कोपार्सनरों के अधिकारका वर्णन
( १ ) सब को पार्सनरोंके लाभों और क़ब्ज़ेकी एकता - मुश्तरका खानदानकी जायदाद में किसी भी एक कोपार्सनरका कोई खास हक़ या कोई खास अलहदा लाभ नहीं हो सकता और न उस जायदाद के किसी एक टुकड़ेपर उसका अलहदा क़ब्ज़ा हो सकता है देखो - 26 Bom. 141, 144. प्रिवी कौन्सिल के जजोंने कहा है कि "कोपार्सनरी जायदाद में खानदानके सब लोगों का लाभ और क़ब्ज़ा एकसा होता है" देखो - 9M. I. A.543, 615.
(२) आमदनीका हिस्सा - मिताक्षराला के अनुसार मुश्तरका खानदान की जायदादमें उसका कितना हिस्सा है । उसका हिस्सा सिर्फ बटवारा होने से ही मालूमहो सकता है, देखो - एयोबियर बनाम रामा सुवारयम 11 M. I. A. 75. 89. जबकि मुश्तरका रहने की सूरत में कोई आदमी मुश्तरका जायदाद किसी हिस्सेका अलहदा हक़दार नहीं है तो इसी तरह वह मुश्तरका जायदाद की आमदनीके भी किसी हिस्सेका अलहदा हक़दार नहीं है; देखो -23 Bom 144 मुश्तरका खानदानकी जायदाद की सब आम दनी सबके साझे कोषमें लाई जायगी और वहीं से मुश्तरका खान्दानके सब लोगोंकी ज़रूरत के अनुसार उसका खर्च होगा, देखो - 11 M. I.A. 75,89.
(३) मुश्तरका क़ब्ज़ा रखना, और मुश्तरका लाभ उठाना - हर एक कोपार्सनर मुश्तरका खान्दानकी जायदाद के मुश्तरका क़ब्ज़े और मुश्तरका लाभ उठानेका हक़दार है । अगर कोई कोपार्सनर ज़बरदस्ती मुश्तरका क़ब्ज़े और मुश्तरका लाभ उठाने से बंचित रखा जाय तो वह कोपार्सनर अदालतमें इस बात का दावा दायर कर सकता है कि वह मुश्तरका रहने पाये और कुल
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दफा ४२४]
अलहदा जायदाद
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उसके लाभ उठाने पावे । वह बटवारा करा लेने के लिये मजबूर नहीं किया जा सकता और न है । इस बातकी कोई वजेह नहीं है कि क्यों एक हिन्दू कोपार्सनर जो कि मुश्तरका हक़ोंसे वंचित रखा गया हो, दूसरे कोपार्सनरों के कहनेसे तथा अपनी मरज़ीके खिलाफ बटवारा करानेका दावा करने मुश्तरका खान्दानको तोड़ देने के लिये बाध्य किया जायः देखो-नरानभाई बनाम रनछोड़ 26 Bom 141. रामचन्द्र बनाम रघुनाथ 20 Bom. 467. जब कोई कोपार्सनर मुश्तरका क़ब्ज़ेसे बंचित रखा गया हो तो ऐसे मामले में ऐसी डिकरी होना उचित है कि उसके मुश्तरका क़ब्ज़ेका हक़ क़रार दिया जाय लेकिन इसके सिवाय उस डिकरीमें यह भी होना चाहिये कि उसको वह क़ब्ज़ा दिला दिया जाय । सिर्फ मुश्तरका कब्जेका हक़ करार देनाही काफी नहीं होगा क्योंकि यह उस कोपार्सनरको अपनी मरज़ीके खिलाफ बटवारा का दावा करनेसे बचा नहीं सकता इसलिये कब्ज़ा भी दिला देनेकी डिकरी अवश्य होना चाहिये, देखो-26 Bom. 141, 145. जब किसी कोपार्सनरको उसके दूसरे कोपार्सनर मुश्तरका जायदाद या उसके किसी हिस्से के काममें लाने या लाभ उठानेसे बंचित रखें, तो अदालत उन कोपार्सनरोंको ऐसा करने से रोक सकती है।
उदाहरण-(१) ऐसा मानो कि 'महेश' और 'गणेश' एक मुश्तरका खानदानके मेम्बर हैं । महेश घरके किसी ऐसे दरवाजे या सीढ़ीको काममें लानेसे 'गणेश' को रोकता है जो गणेशके कमरेमें जानेका एक मात्र रास्ता है। महेशका यह काम मानो गणेशको वेदखल करना है। अदालत उसको ऐसा करनेसे रोक सकती है कि जिससे गणेश उस दरवाज़े या सीढीको अपने काममें लासके; 19 Mad. 269; 29 Cal. 500.
(२) ऐसा मानोंकि-'महेश' और 'गणेश' एक मुश्तरका खानदानके मेम्बर हैं उनकी एक दूकान कलकत्तेमें है, गणेश दूकानमें घुसकर वही खाता देखना चाहता है और दूकानके कारबारमें भाग लेना चाहता है परन्तु महेश उसको रोकता है। अदालत महेशको ऐसा करनेसे रोक सकती है। देखोगनपति बनाम अन्नाजी 23 Bom. 144.
(३) अनधिकारके काम--दूसरे कोपार्सनरोंकी मंजूरी बिना, किसी कोपार्सनरको यह अधिकार नहीं है कि वह मुश्तरका खानदानकी किसी ज़मीनपर या उसके किसी हिस्सेपर कोई मकान बनावे या ऐसा काम करे जिससे उस जायदादकी हालत बदल जाय । और न उसको कोई ऐसा काम करनेका अधिकार है कि जिससे मुश्तरका लाभ उठाने में बाधा पड़े । अगर वह ऐसा करे तो अदालतके हुक्मसे रोका जा सकता है। देखो--शिव प्रसाद बनाम लीलासिंह 12 Beng. L. R. 188. गुरुदास बनाम विजय 1.
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४६८
मुश्तरका खान्दान
[छठवां प्रकरण
Bing. L R. A. C. 108; 6 Bom. H. C. A. C. 54; 12 All. 4363; 18 All 115.
अगर कोपार्सनरके किसी कामसे जायदादकी हालत बहुत तबदील न हो मसलन् उसने सिर्फ एक दीवाल बनाई कि जिससे जायदादका मुश्तरका लाभ उठाने में कोई बाधा नहीं पड़ती तो अदालत उसे रद्द नहीं करदेगी; विश्वम्भर बनाम राजाराम 3 Beng. L. R. 67.
.. (४) ज़बरदस्ती बटवारा कराना-मुश्तरका खानदानके हरएक बालिग कोपार्सनरको अधिकार है कि वह मुश्तरका जायदादका बटवारा अपनी मरजीले कराले । परन्तु कोई बालिग लड़का अपने बापले उस समय बटवारा नहीं करा सकरा जबकि बटवारा चाहनेवाले लड़केका खाप आपने बाप (लड़केका दादा ) या भाइयों ( लड़केका चाचा) के साथ कोपासनर हो और वे जिंदा हों अर्थात् लड़के का दादा या चाचा ज़िंदा हों तथा कोरासनर हों।
(५) हिसाब किताब देखने का अधिकार-बङ्गाल हाईकोर्टने यह माना है कि मुश्तरका रहने की सूरतमें भी हरएक कोपार्सनर मुश्तरका जायदाद सम्बन्धी हिसाब किताब देख सकता है तथा मांग सकता है जिससे कि वह जानसके कि मुश्तरका जायदादकी वास्तविक दशा क्या है। देखो - अभय चन्द्र बनाम प्यारी मोहन 5 Beng L. R. 347.
(६) मुश्तरका लाभका अलहदा कर देना-कोई कोपार्सनर अपने मुश्तरका खानदानकी जायदादके लाभको नतो वसीयतसे और न दानके तौर से अलहदा कर सकता है। बम्बई और मदरास प्रांतके लिवाय अन्य प्रतोंमें वह उसे बैंच भी नहीं सकता। अर्थात् उक्त दोनों प्रांतोंके सिवाय किली प्रांत में मुश्तरका खानदानकी जायदाद या उसका मुनाफा आदिका इन्तकाल नहीं किया जासकता।
(७) सरवाइवरशिपका हक़-जब कोई कोपार्सनर मुश्तरका जायदाद का बटवारा होनेसे पहिले मरजाय तो जायदादका उसका मुश्तरका हिस्सा उसके वारिसोंको उत्तराधिकारके तौरपर नहीं मिलेगा बल्कि सरवाइवरशिप (दफा ५५८), के द्वारा पीछे जीते रहने वाले दूसरे कोपार्सनरोंको मिलेगा; 9M. I. A. 543, 615.
(८) मेनेजर -जो कोपार्सनर मेनेजरके तौरपर काम करता है उसे मुश्तरका जायदादकी व्यवस्थाके सम्बन्धमें कुछ खास अधिकार होते हैं जो दूसरे कोपार्सनरको नहीं होते देखो-दफा ४२५.
(६) बापके अधिकार खास हैं-मुश्तरका जायदादकी व्यवस्थाके सम्बन्ध बापके कुछ खास अधिकार होते हैं जो दूसरे कोपार्सनरको नहीं होते।
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दफा ४२५ ]
अलहदा जायदाद
प्रपौत्रको अधिकार है कि पितामह द्वारा किये हुए इन्तक़ालका विरोध करे फिर चाहे वह इन्तक़ाल क़ानूनी आवश्यकता पर ही क्यों न किया गया हो और वह इन्तक़ालके समय पर पैदा भी न हुआ हो । A. I. R. 1927 All. 127.
४८६
बापके अनुचित व्यवहारसे नाबालिएका बटवारा-जब किसी नाबा लिराका पिता, नाबालिग़के प्रति विरोधात्मक कार्य सिलसिलेवार करता हो, तो नाबालिग के वलीको अधिकार है कि वह नाबालिग़की ओरसे बटवारेकी कार्यवाही करे, और नाबालिग़की ओरसे यह मांग पेश करे कि उसका हिस्सा बांट करके, उसके लिये सुरक्षित रख दिया जावे। जब इस प्रकारके बटवारे की नालिशकी जाती है और पिता तथा नाबालिग पुत्रके हिस्से अलग अलग कर दिये जाते हैं, तो पिताके सम्बन्धमें यह ख्याल किया जाता है कि उसके अधिकार अलाहिदा हैं, जगदीशप्रसाद बनाम श्रीधर A. I. R. 1927 All. 60.
विभक्त हिस्सेदारों में से किसी मुन्तक़िल अलैहपर इस बातकी पाबन्दी नहीं है कि वह अपने खरीदारके हिस्से के बटवारेके लिये कहे । केवल उन हिस्सेदारोंमेंसे ही कोई एक मुन्तक़िल अलेह उसके करनेके लिये बाध्य है । बैंकय्या बनाम गुरय्या. 23 L. W. 604.
किसी समय किसी नये कामका करना - अन्य सदस्य हानिके ज़िम्मेदार नहीं हैं - किन्तु कोई नया कार्य, यदि वह पारिवारिक कार्यके अनुसार हो तो, नया कार्य नहीं कहलाता - नारायन शाह बनाम शङ्कर शाह A. I. R. 1927 Mad. 53.
नोट:- जब मुश्तरका हिन्दू खानदान के लोगोंमें, मुश्तरका जायदाद के विषयमें कोई झगड़ा हो तो अदालतको चाहिए कि वह मुश्तरका जायदाद के फिजूल खर्च या गैर कानूनी उपयोगके रोकने के लिये या ऐसे कामके रोकने के लिये कि जिससे कोई कोपार्सनर मुश्तरका हुक्म इतनाई जारी करे जैसाकि 19 Bom. 269. के केस में है ।
लाभ लेनेसे नश्चित हो रहा हो
अकसर देखा गया है कि मुश्तरका खानदानके लोग बिना बटवारा हुये भी अपनी सहूलियत के लिए मुश्तरका जायदादको अपने अलग अलग क्रन्जेमें रखते हैं और उससे लाभ उठाते हैं मगर यह प्राइवेट तौरका इन्तज़ामहें इसलिये अगर वह चाहें तो दूसरी तरह भी बदल सकते हैं । मगर वह मुकम्मिल या किसी तरह का बटवारा नहीं समझा जायगा, देखो - 12 Beng. L. R. 188,195. दफा ४२५ मेनेजरके अधिकार
(१) मुश्तरका खानदानकी जायदादका इन्तज़ाम आम तौरसे बाप या घरका कोई दूसरा बड़ा करता है। मुश्तरका खानदानके मेनेजरको 'कर्ता' कहते हैं, हर सूरतोंमें बाप मुश्तरका खानदानकी जायदादका कुदरती मेनेजर होता है और नाबालिग लड़कोंके होने की सूरतमें बाप अवश्यही उस जायदाद
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wwwnwar
मुश्तरका खान्दान
[छठवां प्रकरण का मेनेजर होता है; देखो-सूर्य वंशी कुंवर बनाम शिव प्रसाद 6 Cal. 148, 165; 6 I. A. 88..
हिन्दू समाजमें मुश्तरका और बिना बटा हुआ खानदानका होना एक साधारण बात है। विना बटा हुआ खानदान सिर्फ जायदाद हीमें नहीं बल्कि खान पान और पूजनमें भी मुश्तरका होता है, इसलिये न सिर्फ मुश्तरका जायदादका ही इन्तज़ाम बल्कि उनके इकट्टे खान पान और पूजन आदिका प्रबन्ध भी खानदानके मेम्बरोंमें होता है या उनकी ओरसे अधिकार प्राप्त मेनेजर करता है; देखो--श्रीवरदा प्रताप बनाम बरजोक्रिस्टो 1 Mad. 69, 81; 3 I. A. 154, 191.
जबतक कि एक खानदानके लोग मुश्तरका रहें तबतक घरका बड़ा पुरुष ही मुश्तरका जायदादके प्रबन्ध वरनेका अधिकारी है । और इस जायदादमें दान पुण्यकी जायदाद भी शामिल है। देखो--थंडावरोपा बनाम शुनमुगन ( 1908 ) 32 Mad. 167, 169. लेकिन घरका बड़ा पुरुष अपने प्रबंधका अधिकार अगर वह चाहे तो छोड़ सकता है और उसकी जगह घरका कोई छोटा पुरुष मेनेजर (प्रबंधक ) नियुक्त होसकता है; 29 Cal. 797 .
यद्यपि जन्मसेही पुत्र मौरूसी जायदादका हक़दार अपने पिताके समान ही होजाता है तो भी पिताको यह अधिकार है कि अपने पैतृक संबंधके कारण और घरके मुखिया तथा मेनेजरकी हैसियतसे खानदानकी जायदादका प्रबंध खानदानके लाभ के लिये जैसा मुनासिब समझ करे। इसलिये पुत्रको यह अधिकार नहीं है कि खानदानकी जायदादके किसी खास हिस्सेपर अपने पिताकी मरज़ीके खिलाफ क़ब्ज़ा करे, यदि ऐसा करे तो पिता उस पुत्रके कब्ज़ा निकाल दिये जानेका दावा करसकता है, देखो-बलदेवदास बनाम श्यामलाल 1 All. 77. अगर पुत्र मुश्तरका जायदादमें बापका प्रबंध पसंद न करता हो तो वह बटवारा करा सकता है प्रबंधमें बापके खिलाफ कुछ नहीं करसकता है। मुश्तरका खानदानकी जायदादके मेनेजरको, मेनेजर होने के कारण उस खानदालके अन्य लोगोंकी अपेक्षा कोई विशेष मालिकाना अधिकार या जायदादमें दूसरोंसे अधिक लाभ उठानेका अधिकार प्राप्त नहीं होता। अगर मेनेजरका कुछ भी अधिक अधिकार है तो यह है कि-वह शानदानके नाबालिगोंके हिस्से सहित खानदानकी सब जायदादका हिन्दूलॉ के अनुसार प्रबंध और इन्तकाल कर सकता है। देखो-नुन्ना बनाम चिदारा वोईना 26 Mad. 214, 221.
(२) आमदनीपर मेनेजरका अधिकार-खानदानके मुखियाकी हैसियतके मेनेजरको आमदनी और खर्चपर पूरा अधिकार है और जो कुछ खर्च करके बचत रहे उसका भी वही अपने पास रखनेवाला होता है। जबतक कि वह खानदानके कामों के लिये जायदादकी आमदनी खर्च करता है तबतक वह
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दफा ४२५ ]
एक तनख्वाहदार एजेन्ट या ट्रस्टीकी तरह कम खर्च करनेके लिये या रुपया बचाने के लिये मजबूर नहीं है। एजेन्ट और ट्रस्टी मजबूर हैं कि वह कम खर्च करें तथा रुपया बचावें । खानदानके मेम्बर जितना खर्च होना मुनासिब समझते हैं अगर मेनेजर उससे अधिक खर्च करता है तो इसका इलाज और कुछ नहीं है सिवाय बटवारा करा लेनेके; देखो -भवानी बनाम जगरनाथ (1909) ) 13 Cal. W. N. 303; ताराचन्द बनाम रविराम 3 Mad. H. C. 177.
अलहदा जायदाद
98
अगर मेनेजरने खानदान के दूसरे लोगों के हिस्से के रुपये खुद खर्चकर डाले हों या ऐसे काममें खर्च किये हों जिससे मुश्तरका खानदानका कुछ सम्बन्ध न हो तो मेनेजर रुपयेका देनदार होगा। यह रुपया उसकी अलहदा जायदादसे वसूल होगा देखो - अभय चन्द्र बनाम प्यारी मोहन ( 1870 ) 5 Beng. L. R. 347, 349.
आहिदा जो व्यक्तिगत हो -- किसी मुश्तरका खान्दानके मैनेजर द्वारा किया हुआ व्यक्तिगत मुद्राहिदा खान्दानके अन्य सदस्योंपर लागू नहीं होता, किन्तु इस कारण से मैनेजरके, उस मुआहिदेको, अपने हिस्सेपर कार्यान्वित करनेमें बाधा नहीं पड़ती, देखो - तानूमल बनाम गङ्गाराम A. I. R. 1925 Sindh 103.
मन्दिरमें लगा सकता है-मुश्तरका खान्दानका मेनेजर, मुश्तरका खान्दानकी जायदादका कुछ भाग, किसी मन्दिरके निमित्त किसी खान्दानी सदस्यकी मृत्युपर अर्पित कर सकता है, औदिप्पा नायडू बनाम मुधू लक्ष्मी अची ( 1925 ) M. W. N. 653; A. I. R. 1925 Mad. ... 128; . A. I. R. 1926 Mad. 128.
साझीदार मेनेजर - जब किसी मुश्तरका खान्दानका मेनेजर किसी अन्य व्यक्ति के साथ साझी होता है तो खान्दानके अन्य व्यक्ति, उसके द्वारा साझी नहीं समझे जाते, हमनदास बनाम फर्म मायादास लक्ष्मीचन्द 87 I... C. 905; A. 1. R. 1925 Sind. 310.
साझीदारी जब किसी मुश्तरका खान्दानका मैनेजर किसी अन्य व्यक्ति के साथ साझीदार होता है तो खान्दानके अन्य सदस्य, उसकी साझीदारी के कारण, साझीदार नहीं होते । यदि वे साझीदारीका दावा करें, तो उन्हें दूसरी बातोंकी तरह इसे भी साबित करना होता है । इस प्रकारका सुबूत न होने पर, वे केवल अपने मेनेजरको हो उसका जिम्मेदार समझ सकते हैं और वे . उससे अलाहिदगी या हिसाब आदिके लिये नालिश नहीं कर सकते । साझीदार मैनेजर की मृत्युपर साझीदारी समाप्त हो जाती है, हेमराज कानजी बनाम टोपेन विशिन जी 86 I. C. 950; A. I. R. 1925 Sind 300.
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मुश्तरका खान्दान
[ छठवां प्रकरण
वली जायदादका नहीं बन सकता -- किसी मुश्तरका खान्दानके मेनेजर के लिये यह अधिकार नहीं है कि वह गार्जियन एण्ड वार्डस ऐक्टके अनुसार उसी मुश्तरका खान्दानके नाबालिग़की जायदाद के वली बननेके लिये अर्ज़ीदे प्रेसीडेन्सी टाउनमें यह हो सकता है, कि मेनेजरको यह अधिकार हो कि वह चार्टर्ड हाईकोर्ट में उसके असाधारण न्यायाधिकारके अनुसार इच्छित इन्तकालके लिये इजाज़त चाहे और इस प्रकारकी इजाज़तके अधिकारपर किसी जायदादका इन्तक़ाल करे, किन्तु उसके लिये यह असम्भव नहीं है कि वह मुश्तरका खान्दानकी किसी जायदादको जो मुफस्सिस में हो तब तक मुन्तक़िल करे, जब तक कि वह नाबालिग़ साझीदारकी जायदादको बांट न दे और इच्छित इन्तक़ालकी जायदाद उसके हिस्सेमें न आ जावे, 16 Bom. 634; 19 Bom. 96; 25 Bom. 353; 25 All. 407 & 43 Bom. 519. foll. यद्यपि अदालतके द्वारा मुकर्रर किये हुये वलीका अधिकार कुदरती और वसीयत वलीके ऊपर होता है किन्तु उस सूरतमें जब अदालत द्वारा कोई वलीन मुकर्रर किया गया हो, तब कुदरती वलीपर वे प्रतिबन्ध नहीं लागू होते हैं, जो कि अदालतने अपने द्वारा नियत किये हुये वलीपर गार्जियन एण्ड वाईस ऐक्ट द्वारा नियत किये हैं । उसके कामोंका जायज़ होना उस आम सिद्धान्त अनुसार निश्चित किया जायगा, जो उस नाबालिग और जायदाद के मैनेजर के मध्य सम्बन्धके आधीन होगा या गार्जियन एण्ड वाईस एक्टके शब्दों में वह उन तमाम कामोंको कर सकेगा, जो कि जायदादके प्राप्त करने, रक्षा करने, और फ़ायदेके लिये उचित और मान्य होंगे । लक्ष्मीचन्द बनाम खुशाल 18 S. L. R.230; 88I. C. 116; A. I. R. 1925 Sind 330.
૪૫૨
संयुक्त हिन्दू परिवारके मेनेजरका यह अधिकार समझा जाता है कि वह परिवार सम्बन्धी हितोंके लिये जो कुछ यथेष्ट समझे करे । उसके कर्तव्य की यह जांच है कि आया एक बुद्धिमान व्यक्तिने परिवारके लाभके लिये, उस अवस्थामें वैसाही किया होता या नहीं, देखो - रोशनलाल बनाम सेठ रुस्तम जी 92 I. C. 669; A. I. R. 1926 Lah. 249.
जायदाद पर पाबन्दी करनेका अधिकार - लाभ - रामचन्द्रसिंह बनाम जङ्गबहादुरसिंह 7 Pat . L. J 52; 5 Pat. 198; 1926 P. H. C. C. 70; A. I. R, 1926 Pat. 17.
जब किसी संयुक्त परिवार के सदस्य द्वारा कोई ऋण दिया जाय और वह उसकी वसूलयाबी के पहिलेही मर जाय तो यदि ऋण दी हुई रक्रम, ऋण देने वालेकी खानगी जायदाद हो, तो वह उस व्यक्तिको दी जानी चाहिये, जिसके पास ऋणदाताकी जायदादके वरासतकी सनद हो । यदि वह जायदाद संयुक्त परिवारकी जायदाद हो, तो उस व्यक्तिको दी जानी चाहिये जो बहै
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दफा ४२६]
अलहदा जायदाद
सियत मैनेजर संयुक्त परिवारके ऋण दाताका प्रतिनिधिहो, शाकर खां बनाम लक्ष्मीमल 94 I. C. 664; A. I. R. 1926 Sind b6.
अन्य व्यक्तिके साथ साझाकर सकता है यदिशेष मेम्बर खान्दान साक्षीदार हैं, शिवनारायन बनाम बाबूलाल 85 I.C. 775; A. I. R. 1925 Nag. 268. अधिकार मेनेजरको है, नारूमल चन्द बनाम मिचूमल फालूमल 18 S. L. R. 1; A. I. R. 1924 Sind 124.
ऊपर जो खान्दानके कामोंका ज़िकर किया गया है वह यह काम हैं जैसे कोपार्सनरों और उनके बाल बच्चोंका भरण पोषण करना, उनको पढ़ाना लिखाना तथा उनके विवाह या यज्ञोपवीत करना, और श्राद्धोंमें खर्च करना, तथा दूसरे धार्मिक कृत्योंमें भी खर्च करना । अगर किसी कोपार्सनरका परिवार ज्यादा बड़ा है और दूसरोंका छोटा है तो यह बात कभी नहीं सुनी जायगी कि अमुक कोपार्सनरके परिवारमें ज्यादा खर्चा हुआ और अमुकमें कम। और न यह बात बटवाराके समय सुनी जायगी। कारण यह है कि मुश्तरका खान्दानमें सच बराबर समझे जाते हैं। 5 Beng. L. R.347, 349.
नोट-मुश्तरका खानदानके मेनेजरकी हैसियत इन्डियन् कांट्राक्ट एक्ट सन १८७२६० के चेप्टर १० के अनुसार नहीं मानी गयी, देखो-मोहमद बनाम राधेराम (1900)22All. 307, 317. दफा ४२६ मेनेजरको बटवाराके समय हिसाब देनेकी ज़िम्मेदारी
जबकोई मुकदमा मुश्तरका जायदादके बटवारेका अदालतमें दायरकिया जाय और मुश्तरका खान्दानके मेनेजरसे पिछला हिसाब मांगा जाय तो मेनेजर पिछला हिसाब समझानेका ज़िम्मेदार नहीं माना गया है । मेनेजर सिर्फ यह बतानेका पाबन्दहै कि अभीतक कितना रुपया खर्च होगया तथा इससमय कितना रुपया बाकी है । मेनेजरसे ऐसा हिसाब नहीं मांगा जायगा कि उसे किफायत का खूब ख्याल रखकर बड़ी परवाहीके साथ रुपया खर्च करना चाहिये था। परन्तु मेनेजर उस रुपयाके देनेका ज़िम्मेदार है जो उसने अपने कामोंमें या दूसरे ऐसे कामों में जिनसे मुश्तरका खान्दानका कुछ सम्बन्ध नहीं है खर्च किया हो अर्थात् अगर जालसाजी या अनुचित रीतिसे निजके कामोंमें खर्च नहीं किया तो कोई भी कोपार्सनर मेनेजरसे तफसीलवार हिसाव पिछला नहीं मांग सकता है। मेनेजरसे कोपार्सनर सिर्फ उस वक्तका हिसाब मांग सकता है कि जिस वक्त बटवारा चाहा गया हो यानी बटवारा चाहे जानेके समय जो हिसाब मौजूद है सिर्फ उसे मांग सकता है पिछला नहीं, देखोबालकृष्ण बनाम मुथूसामी 32 Mad. 271. नरायन बनाम नाथाजी (1903) 28 Bom. 201, 208. दामोदरदास बनाम उत्तमराम 17 Bom. 271.
अगर कोपार्सनरोंके और मेनेजरके दरमियान कोई खास शर्तनामा हो चुका हो तो उस समय मेनेजर बतौर एजेण्टके हिसाब देनेका जिम्मेदार
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[ छठवां प्रकरण
होगा यानी पिछला हिसाब भी देनेका पाबन्द होगा; 22 Mad. 470; 26 I. A. 167.
૨૩
मुश्तरका खान्दान
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• बङ्गाल स्कूल – उन स्थानों में जहां पर बङ्गाल स्कूल माना जाता है वहां पर बिना बटवारा कराये भी कोपार्सनर मेनेजरसे हिसाब मांग सकता है इस बातकें देखनेके लिये कि उसने अभी तक क्या किया है मगर जहांपर मिताक्षरा माना जाता है वहांपर नहीं, 5 Beng. L. R. 347.
दफा ४२७ मेनेजरका अधिकार मुश्तरका ख़ान्दानके लिए रज़ा लेने का
( १ ) मुश्तरका खान्दानके कारोबारके मेनेजरको खुद बखुद यह अधिकार प्राप्त है कि वह खान्दानके कारोबारके साधारण कामोंके लिये क्ररजा ले सकता है, 5 Cal. 792.
जब ऐसे क़र लिये गये हों तो सब कोपार्सनर चाहे वह बालिग़ हों ( 22 Mad. 166; 5 Bom. 38 ). चाहे नाबालिग़ हों ( 29 All. 176; 26 Mad. 214; 3 Cal, 738 ). अपने हिस्सेकी हद्द तक उन क़रजोंके देनदार हैं। लेकिन अगर वह कोपार्सनर उन क़रजोंके लेनेमें खुद भी शरीक रहे हों, अथवा उनके बर्ताव से यह समझा जा सकता हो कि वह शरीक रहे होंगे, या थे, या उन्होंने उन रजोंको उस वक्त या पीछे मंजूर कर लिया हो, तो वह कोपा
नर जाती तौर से भी जिम्मेदार हैं और उनकी दूसरी जायदाद भी जिम्मेदार है । अगर नाबालिग़ कोपार्सनरोंने बालिग़ होनेपर उन क़रजोंको स्वीकार कर लिया हो तो वह भी जाती तौरपर उन क़रजोंके अदा करने के जिम्मेदार है ।
(२) चाहे किसी हिन्दू मुश्तरका खान्दानका कारोबार कुछ भी न हो तो भी मेनेजर खान्दानके साधारण कामोंके लिये क़रज़ा ले सकता है और उसके लिये सबकोपार्सनर वैसा ही जिम्मेदार हैं जैसा कि ऊपर नं० १ में बताया गया है। देखो - गरीबउल्ला बनाम खलकसिंह 25 All 407,414, 415; 30 I. A. 165; द्वारिकानाथ बनाम वेशी 9 Cal. W. N. 879; 22 Mad. 166.
(३) जब मेनेजर खान्दानकी ज़रूरतें बताकर किसीसे क़रजा ले और क़रज़ा देनेवाला मुश्तरका खान्दानकी जायदादमें उस खान्दानके सब मेम्बरों के हिस्सेको अपने क़रजेका देनदार तथा जिम्मेदार बनाये तो जब तक कि वह • अर्थात् रज़ा देने वाला यह साबित न कर दे कि उस क़रज़ेकी वास्तविक में ज़रूरत थी, या यह कि उसने उचित जांच करके वैसी ज़रूरत मालूम कर ली थी, या यह कि उससे ऐसा कहा गया था कि जिससे वैसी ज़रूरत
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दफा ४२७ ]
मालूम पड़ सकती हो तो उसे मुश्तरका खान्दानकी कुल जायदादपर डिकरी नहीं दी जायगी; देखो - सोहरू पद्मनाथ बनाम नारायणराव 18 Bom. 52C; 21 Bom. 808; 5 Cal. 321.
अलहदा जायदाद
४६५
कलकत्ता और इलाहाबाद हाईकोर्टने माना है कि यही क़ायदा जो ऊपर कहा गया है मुश्तरका खान्दानके कारोबार के वास्ते जो क़रज़ा लिया जायगा उसमें भी लागू होगाः देखो-नगेन्द्र बनाम अमरचन्द्र 7 Cal. W. N. 725. गनपतराय बनाम मुन्नीलाल ( 1912 ) 34 All, 135 किन्तु बम्बई हाईकोर्टने इसके बिल्कुल बरखिलाफ माना है अर्थात् बम्बई हाईकोर्टने माना कि क़रज़ा देने वालेको इस बातके पूछने की कोई ज़रूरत नहीं है कि क़र्ज़ किसी वास्तविक ज़रूरत के लिये लिया जाता है या नहीं इत्यादि, हर तरहपर उसके क़र्ज़ की जिम्मेदार मुश्तरका जायदाद होगी; देखो - रघुनाथजी बनाम दि बैंक आफ बम्बई (1909 ) 34 Bom. 72. शङ्का बनाम दि बैंक आफ बरमा (1912) 35 Mad. 692, 694,696.
वह क़र्ज़ जो किसी ऐसी नालिशके सम्बन्धमें दिया गया हो, जिसमें कामयाबी न हासिल हुई हो; और वह नालिश उस वासलात मुनाफ़ाके बिना पर हो जो किसी शसके जायदादपर नाजायज़ क़ब्ज़ा रखनेके कारण प्राप्त हो, नाजायज़ नहीं है, शम्भू भानसिंह बनाम चन्द्रशेखर बक्स सिंह A. I. R. 1925 Oudh 130.
वासलात मुनाफाकी डिकरी, जो जायदादपर नाजायज़ क़ब्ज़ाके मुनाफ़ा के बिनापर हो, पिताकी मृत्युके पश्चात्, उस पैतृक जायदादपर, जो पुत्र के अधिकारमें हो, उसकी तामीलहो सकती है, शम्भू भानसिंह बनाम चन्द्रशेखर बक्ससिंह A. I. R. 1925 Oudh. 230.
तीन हिन्दू भाइयों में से, जो कि साझेदार वारिस थे, एक भाईने, एक ऐसे दावेपर, जो कि तमाम वारिस साझीदारोंकी ओरसे, एक तीसरे व्यक्ति पर था, कुछ जायदाद प्राप्त की । इस प्रकार जायदाद प्राप्त करनेमें, प्राप्त करने वाले भाई ने, उस साझेके कर्जदारसे यह वादा कर लिया कि यदि किसी दूसरे भाईके दावेके कारण, उसे कोई नुक़सान होगा, तो वह उसका जिम्मेदार होगा ।
तय हुआ कि नुकसानका मावज़ा पूरा करनेके लिये, जो क़र्ज़ लेना पड़ा, वह न तो ग़ैर क़ानूनी था और न गैर तहज़ीबी । मातादीन बनाम महराजदीन 12 O L. J. 33; 85 I. C. 959; A. I. R. 1925 Oudh. 325.
पितृव्य ( चचा) द्वारा क़र्ज लिया हुआ जायज़ हो सकता है, चितनवीस बनाम नाथू साऊ A. I. R. 1925 Nag..
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मुश्तरका खान्दान
[ छठवां प्रकरण
जहांपर यह चाहा जाता हो कि खान्दानी जायदादपर, उस क़र्ज़ की पाबन्दी लगाई जाय, जो मेनेजर द्वारा लिया गया हो, वहां महाजनकी जिम्मेदारी होगी कि वह क़र्ज़की आवश्यकता साबित करे, गजाधर महातों बनाम अम्बिकाप्रसाद 67 A. 459; 27 Bom. L. R. 853; 87 I. C. 292; L. R.. 6 P. C. 126; (1925) M. W. N. 532; 22 L. W. 306; 41 C. L. J. 450; A. I. R. 1925 P. C. 169; 89 M. L. J. 238(P.C.)
E
उदाहरण -- मुश्तरका खानदानके प्रबंध करने वाले तीन भाइयोंने मुश्तरका खानदान के कामके लिये महाजनसे क़रज़ लिया. दो भाई मर गये, महाजनने तीसरे भाई और उन दोनों भाइयोंकी संतानपर उस क़रज़ेके पाने का दावा किया । शानदानकी कुल जायदाद उस क़रज़ेकी देनदार है उस तीसरे भाईकी जात और दूसरी जायदाद मी ज़िम्मेदार है परंतु उन दोनों भाइयोंकी संतान ज़िम्मेदार नहीं है क्योंकि वह क़रज़ा लेनेमें खुद शरीक न थे, देखो - 22 Mad. 169. अगर किसी मेनेजरने अपनी जाती जिम्मेदारीपर क़रज़ा लिया हो और उस रुपयाको खानदान के कामोंमें खर्च किया हो तो उस सूरत में ख़ानदानकी कुल जायदाद ज़िम्मेदार है; देखो -- अझोरनाथ बनाम प्रीशचन्द्र 20 Cal. 18.
दफा ४२८ मुश्तरका खानदान के कारोबार के मेनेजर के अधिकार
खानदानके कारोबारके वास्ते क़र्ज़ लेने के अधिकारके अलावा मेनेजरको यहभी अधिकार है कि वह कंट्राक्ट करे, रसीदें दे, और कारबार के संबंध में सब तरहके मामलों का फैसला करे । ऐसे सर्वव्यापी अधिकारके बिना कारबारका चलना असंभव है; देखो -- किशुनप्रसाद बनाम हरनरायन सिंह ( 1911 ) 33 All. 272; 38 I. A. 45. मुश्तरका खानदानके कारोबारके प्रबंधके मेनेजर या मेनेजरोंने अपने नामसे कारबार संबंधी कंट्राक्ट किये हों, तो सवाल यह पैदा होता है कि उन कंट्राक्टोंके विषयमें अदालत में दावा करने के समय अर्जीदावा (Plaint ) में मुद्दईकी जगहपर सिर्फ प्रबंधक मेनेजर या मेनेजरोंका नाम लिखा जाय या खानदानके अन्य मेम्बरोंके भी नाम लिखे जायें। इस बारे में प्रिवी कौंन्सिलकी यह राय हुई है कि दूसरे मेम्बरोंके नाम भी लिखे जाना ज़रूरी होगा; देखो -- किसुनप्रसाद बनाम हरनारायन सिंह 33 All 272, 38 1. A. 45.
इन्तक़ाल पिता द्वारा - व्यवसायके लिये हिन्दूलॉ के अनुसार, किसी खान्दानके मैनेजर द्वारा, क़ानूनी आवश्यकता या खान्दानके फायदेके लिये इन्तक़ाल किया जा सकता है । एक हिन्दू पिताने एक संयुक्त जायदादको, जिसके द्वारा थोड़ी सी आमदनी थी और जो कि खान्दानकी आवश्यकता के लिये काफ़ी न थी, बेचा और बिक्रीकी रक़ममें से उतनी रकम जो खान्दानी
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दफा ४२८]
अलहदा जायदाद
फायदेके लिये ज़रूरी थी व्यापारमें लगाया। व्यवसाय ऐसा न था, जिसमें भाग्यपरही भरोसा करना हो, किन्तु अन्तमें वह असफल रहा।
तय हुआ कि पीछे की नाकामयाबी इस बातका जरिया नहीं है जिसके द्वारा यह निश्चय किया जा सके कि आया वह व्यवसाय चतुरता पूर्ण व्यवसाय न था जिसेकि खान्दानके मेनेजर या पिताने,जिसेकि खास तौरपर खानदानके फ़ायदेके लिये व्यवसाय करनेका अधिकार है किया था। जगमोहन बनाम प्रयाग अहीर 23 A. L. J. 209; 87 I. C. 27; 47 All. 452: A. I. R. 1925 All 618.
जब कोई नाबालिग किसी हिन्दू मुश्तरका खान्दानका सदस्य हो और उस अवस्थामें किसी पूर्वजोंके व्यवसायका हिस्सेदार हो, तो खान्दानका मेने जर, नाबालिगकी तरफसे उसे व्यवसायको तब तक शुरू रख सकता है, जब तक कि वह खान्दानके लिये फ़ायदेमन्द हो । नाबालिगोंपर, मैनेजरके उन कामों की पाबन्दी होगी जो कि उस व्यवसायके करनेमें आवश्यकतानुसार आयेंगे । पूर्वजोंका व्यवसाय भी, दूसरी हिन्दू जायदादकी तरह, मुश्तरका खान्दानके सदस्योंको उत्तराधिकारसे प्राप्त होता है और इस प्रकारका खानदान मेनेजर द्वारा, किसी अन्य व्यक्तिके साथ साझीदार हो सकता है। खानदानी व्यवसायके चलामेका अधिकार जो कि मेनेजरको होता है इस अधिकार को भी रखता है कि वह व्यवसायके साधारण बातोंमें खान्दानी जिम्मेदारी और साखसे काम ले । यद्यपि नाबालिगके सम्बन्धमें, हिन्दूलॉ के अनुसार इस प्रकारका अधिकार बहुतही परिमित और व्याख्या सहित है और मेनेजर उसे केवल वैसीही अवस्था में, जो कि खान्दानके लिये फ़ायदेमन्द हो काममें ला सकता है। जबकि कोई व्यवसाय, जैसेकि कर्ज देना, जो कि मुश्तरका खानदानके फ़ायदेके लिये किया जाता है उस सूरतमें प्रबन्धक सदस्यको ला महाला मुआहिदा करने, रसीद देने, और वसूलयाबीके सम्बन्धमें समझौता करने या वसूल करने आदिके साधारण और इत्तिफ़ाकिया अधिकार देने पड़ते हैं। बिना इस प्रकारके श्राम अधिकारोंके व्यवसायका चलाना असम्भव है। अब कि किसी खान्दानका व्यवसाय गैर मनकूला जायदादोंके सम्बन्धमें क्रय-विक्रय करना होता है तो ऐसे व्यवसायके सम्बन्धमें निस्सन्देह किसी जायदादके बेचनेका जो कि बेचनेके लिये ही खरीदी गई है उस व्यवसायको चलानेके लिये अधिकार देना पड़ता है। उस सूरतमें भी जबकि खान्दानका आम व्यवसाय जायदाद सम्बन्धी क्रय-विक्रय न हो बल्कि रेहननामोंपर कर्ज देना हो, तब भी खान्दानको हानिसे बचानेके लिये अपने रुपयेकी अदाईमें जायदाद खरीदनी पड़ती है इस अवस्थामें भी यह एक संयोगिक कार्य हो जाता है कि मैनेजर उचित समयपर उस जायदादको बेंचे और उससे अपनी रकम वसूल करे । मेनेजर द्वारा किसी खान्दानकी जायदादका इन्तकाल, उसी मूरतमें
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मुश्तरका खान्दान
[छठवां प्रकरण
न्यायपूर्ण है जब उससे खान्दानका स्पष्ट फ़ायदा हो, किन्तु किसी फ़ायदेमन्द व्यवसायका प्रारम्भ करना मैनेजर द्वारा इन्तकालके लिये न्यायपूर्ण कारण न होगा, चाहे वह व्यवसायिक खान्दान हो या न हो। 1 B. H. C. App.bl; 34 Com. 72, 33 All. 272 (P.C.'; 6 M. I. A. 393 (P.0.); 20 C.
W.O. 6453; 20 W. R. 38; 3 N. W. P. H. C. 4; 32 Bom. 577; 28 C. L. J. 250; (1912) M. W. N. 167; (1918) M. W. N. 802; 12 A. L. J. 641; 42 All. 559; 39 C. L. J. 256 (P.C.) ard 39 All. 437 (P. C.) Disc ( Rupchand Bilaram A. J. C.) लक्ष्मीचन्द बनाम खुशालदास 18 S. L. R. 230; 88 I.C. 116; A.I. R. 1925 Sind.330. दफा ४२९ मेनेजरके द्वारा मुश्तरका जायदादका इन्तकाल
किया जाना हिन्द मुश्तरका खानदानके मेनेजरको अधिकार है कि मुश्तरका खानदानकी जायदादको वह रेहन रख सकता है, और बेंच सकता है इस इन्त. कालसे वालिग और नाबालिग दोनों कोपार्सनरोंका लाभ और उनकी जायदाद पापंद होगी मगर शर्त यह है कि--
(१) अगर कोपार्सनर बालिग हैं तो रेहन या विक्रीके समय उनकी मंजूरी होना ज़रूरी है चाहे वह मंजूरी प्रत्यक्ष लीगई हो या प्रकारांतरसे ली गई हो; देखो मिलर बनाम रङ्गनाथ 12 Cal. 389; गरीबउल्ला बनाम खलक सिंह 25 All. 407, 415; 30 I. A. 165, 169.
(२) अगर कोपार्सनर नाबालिग हैं तो रेहन या बिक्री उस समय ठीक मानी जायगी जब वह रुपया खान्दानके व्यापार या खानदानकी कानूनी ज़रूरतों (दफा ४३०)के लिये लिया गया हो ऐसी सूरतमें नाबालिग कोपार्सनर की मुश्तरका जायदाद पावंद होगी; देखो-हनूमान प्रसाद बनाम मुसम्मात बबुई 6 M. 1. A. 393; 21 W. R. 1967 21 All 71, 83; 25 I. A. 183.
खानदानकी ज़रूरतोंके लिये जब मेनेजर मुश्तरका जायदादका इन्तकाल करे और उसने बालिग कोपार्सनरोंकी रजामन्दी न ली हो तो भी उनकी रज़ामन्दी उस समय समझी जायगी जब कि खानदानी ज़रूरत बहुत सख्त हो और मेनेजरको जायदादके इन्तकालके समय उन कोपार्सनरोंकी मंजूरी हासिल करनेका सुभीता और समय न हो; देखो--छोटीराम बनाम नरायनदास 11 Bom. 605; 12 Cal. 389; 399; 29 Cal. 797.
जबकि मुश्तरका शानदानके व्यापारके करजे अदा करने के लिये जायदादका इन्तकाल किया गया हो तो उसमें भी कोपार्सनरोंकी रजामन्दी समझी जायगी जैसाकि ऊपर कहा गया है। देखो--श्यामसुंदर बनाम अचन कुंवर 21
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अलहदा जायदाद
दफा ४२६ ]
All. 71, 83; 25 I. A. 183; विमोला बनाम मोहन 5 Cal. 792; छोटेराम बनाम नरायनदास 11 Bom 605.
४६६
साझेदार द्वारा जब इन्तकाल किया जाय, तो यह आवश्यक है कि वालिग साझेदारकी स्वीकृति ली जाय और वह मामलेमें उपस्थिति हो । भगवानदास बनाम अल्लन खां AIR 1925 All. 28.
इन्तक़ाल वली द्वारा -जब किसी नाबालिराकी माता और वलीने किसी जायदादका इन्तक्न'ल किसी ऐसे तात्पर्यके लिये किया हो जो नतो क़ानूनी आवश्यकता हो, और न किसी ख़ानदानी फ़ायदेके लिये हो, और नाबालिग की जायदादका भावी वारिस उस जायदादको प्राप्त करने के लिये नालिश करे, तो वह बिना किसी प्रकारका मावज़ा चुकाये हुये उस जायदादको प्राप्त कर सकता है क्योंकि उसके और उस व्यक्लिके बीच, जिसके हक़में इन्तक़ाल किया गया है कोई हक़ वा दावाही नहीं पैदा होता । बपेना सीतय्या बनाम पी० Treat 22 L. W. 476; (1925) M. W. N. 587; A. I. R. 1925 Mad. 1288.
संयुक्त हिन्दू परिवारके मैनेजर द्वारा बयनामा न सिर्फ उन हालतों में जायज़ होगा, जिनमें कि बयनामेका तात्पर्य जायदादको किसी भारसे मुक्त करना हो या किसी खतरे से बचाना हो बल्कि उन हालतों में भी जायज़ होगा, जिनमें कि खान्दानी फ़ायदा पहुंचाना हो । इस बातका निश्चय करना कि खान्दानी फ़ायदा क्या है प्रत्येक अवस्थाकी परिस्थितिपर निर्भर है, 40 M. 709 & 6 M. I. A. 393 (P. C.) Rel. on.
वह बयनामा जो कि जायदादके किसी भविष्य या सिलसिलेवार नुनसानके दूर करनेके लिये किया जाय, जायज़ है। सूरजनारायण बनाम गुरुचरनप्रसाद 2 O. W. N.904; A. I. R. 1925 Oudh, 743.
जबकि किसी संयुक्त खान्दानके कर्ता द्वारा, एक लिमिटेड कम्पनीके, जिसकाकि कर्ता सदस्य था, ओवरड्राफ्ट ( Over draft ) हासिल करनेके लिये, खान्दानकी जायदाद रेहन कीगई, और साथही साथ खान्दानके बालिरा सदस्य रेहननामेके सम्बन्धमें परिचित थे और रक़म खान्दानी व्यवसाय में लगाई गई ।
तय हुआ, कि रेहननामेकी नालिशमें एक रिसीवर नियत किया जा सकता है । रामकुमार बनाम चार्टर्ड बैंक आफ इन्डिया 41 C. L. J. 203; 87 I. C. 375; A. I. R. 1925 Cal. 664.
संयुक्त खान्दान या मुश्तरका खान्दान - मुश्तरका खान्दानका मेनेजर कर्जाजात - बारू बनाम बल्ला A. I. R. 1925 Lah. 141.
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मुश्तरका खान्दान
[छठवां प्रकरण
मेनेजर द्वारा किये हुये किसी मुश्तरका खान्दानके इन्तकालमें दूसरे सदस्योंकी रजामन्दी केवल एक किसी आवश्यकताकी शहादत है इस सूरत में उनके खिलाफ इस्टोपलका प्रयोग किया जा सकता है, मु० काल्का देवी बनाम गङ्गाबक्ससिंह 12 0. L. J. 306; 88 I. C. 127; A. I. R. 1925. Oudh435. . 'इस्टापुल' के लिये देखो दसवां प्रकरण । इसका मूल अर्थ है कि 'हन बन्द होगया।
मेनेजर-किसी खान्दानका ऐसा मेनेजर भी, जो खिलाफ मुश्तहक वाकई काबिज़ है कानूनी आवश्यकताके लिये खान्दानी जायदादका इन्तकाल कर सकता है। बालिग सदस्योंकी रजामन्दीकी आवश्यकता नहीं है बल्कि वह कानूनी आवश्यकताके कारण मानली जाती है। .. ऐसे तमाम वाक्यातोंमें उसको जिसके हकमें इन्तकाल किया गया है, कानूनी आवश्यकता साबित करनी होती है। वह इसे या तो बतौर वाकये के साबित कर सकता है या यह कह सकता है कि उसने इस बातके इतमीनान करनेके लिये कि कानूनी आवश्यकता वर्तमान थी ईमानदारके साथ सब मान्य तरीकोंसे अमल किया है, नारायणदास बनाम कामतामल 88.I.C. 916.
_पैतृक जायदादके बेचने के लिये, यह मान्य कारण नहीं है कि वह जायदाद बहुत दूर पर थी या ऐसी आबो हवा में वाक़ थी जहां मलेरियाका प्रकोप रहता है। जबकि जायदादके बेचने की कोई मजबूरी न थी और जायदादके निकल जानेका कोई खतरा न था, किन्तु उस जायदादकी बिक्रीकी रकम खान्दानकी लागतमें लगाई गई, तो वह इन्तकाल बहाल रखा गया, भागवत बनाम आनन्दराव 86 1. C. 515; A. I. R. 1925 Nag. 302.
मुश्तरका खान्दान-इन्तकाल-चचा बतौर मेनेजर-अधिकारकी सीमा, मु० रमेशर बनाम कल्पोराम 84 IC. 84; A.I.R. 1929 All. 538.
न ज्यादा न कम जायदादका इन्तकाल करना-किसी खान्दानके मेने जरके लिये यह सम्भव नहीं है कि वह ठीक उतनीही रकमका इन्तकाल करे, जितनीकि कानूनी प्रावश्यकता हो, किन्तु फिर भी यह उचित नहीं है कि यह आवश्यकतासे बहुत अधिकका इन्तकाल करे । एक ४००) रु० के इन्तकालमें ८०) क़ानूनी आवश्यकताके बाहर समझे गये । यह रकम इतनी कम न समझी गई कि उसके बाबत कुछ ख्याल न किया जाय । क्रमशः दस्तावेज़ मंसूख कर दिया गया और मुद्दईको ३२०) दिलाये गये। मातादीन तिवारी बनाम सूरजबलीसिंह 83 I. C. 32; A. I. R. 1923 All. 522.
काबिज़ मेनेजर-उसके द्वारा संयुक्त परिवारकी जायदादका बयनामा यदि दूसरे सदस्योंके अधिकार भी, उस बयनामेके अनुसार समाप्त हो जाते
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दफा ४२६ ]
हैं - ऐसे मामलों में उचित कल्पना- मुलगू चेंगप्पा बनाम 23 L. W. 390; (1926) M. W. N. 289; 92 I. C. 1926 Mad. 406; 50 M. L. J. 145.
अलहदा जायदाद
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देव सनम्बा गारू
720; A. I. R.
मेनेजर द्वारा रेहननामा - हिन्दू मुश्तरका खान्दानके मेनेजरको उस सूरत में जबकि क़ानूनी आवश्यकताकी शहादत न हो, किसी ऐसे इकरारनामे के करने में न्यायानुकूल न होगा, जिसके द्वारा किसी रेहननामेका इनफ़िक़ाक़ ४० वर्षके लिये हट जाता हो । कानिन फ़िज़ा बीबी बनाम दातादीन 20. W. N. 650; 90 I. C. 184; A. I R. 1925 Oudh 678.
संयुक्त परिवार - मेनेजर - उसके द्वारा पारिवारिक जायदादका रेहन किया जाना-उस जायदादका व्योरा, जिसका मालिक बिलकुल वही है - प्रभाव उन्ना मालप्पा अम्मल बनाम अभय चेट्टी 23 L. W. 168; 92I. C. 524; 50 M. L. J. 172.
क़र्ज़ में सूदकी दर -- किसी हिन्दू खान्दानके मैनेजरको, चाहे वह पिता हो या न हो, यह क़ानूनन् अधिकार नहीं है कि वह क़र्ज़ सूदकी ऊंची दर पर ले, जब तककि इस बातकी आवश्यकता न हो कि उस प्रकारकी दरपर कर्ज लिया जाय, और यदि सुदकी दर अधिक हो तो यह महाजनकी जिम्मेदारी होगी कि वह इस बातको साबित करे कि उस ऊंची दरपर क़र्ज़ लेने की ज़रूरत थी । किसी अदालतको बिना शहादत इस बातके मान लेनेका अधिकार नहीं है कि अमुक सूदकी दर सख्त या ऊंची है और वेजो मामलेका विरोध करते हों प्रमाणित करें कि वादुलनज़रीमें सूदकी दर परिस्थिति के अनुसार ऊंची थी । किसी किसी सूरत में यह हो सकता है कि असली सूद की दर वादुलनज़रीमें इस क़दर अधिक हो कि उसका सबूत अनावश्यक समझा जावे और महाजन यह समझ ले कि उसका यह कर्तव्य है कि वह उसकी आवश्यकता प्रमाणित करे । अन्य सूरत में यह भी हो सकता है कि सूद की दर ऊंची तो हो, किन्तु इस क़दर ऊंची न हो कि महाजन स्वयं इस बात को सिद्ध समझ ले कि उसे उसकी आवश्यकता प्रमाणित करनी होगी, चाहे अदालत ने उसे ऐसा करनेका हुक्म भी न दिया हो। इस प्रकारकी नालिशमें वह सही तरीक़ेपर दण्डित नहीं किया जा सकता यदि उसने उसे स्पष्ठ न किया हो । जब अदालत तनक्रीह महाजनको उसकी व्याख्याके लिये बुलाना आवश्यक न समझे और किसी फैसलेकी वजेहसे भी यह पता न लगे कि उसके लिये उसका स्पष्टीकरण आवश्यक है तो अदालत अपील, बिना उसको उसके स्पष्ट करनेका अवसर दिये हस्तक्षेप न करेगी, यदि सूदकी दर इतनी ऊंची न होगी कि किसी भी परिस्थितिमें वह नाजायज़ समझी जा सके ।
1
एक रेहननामेकी तामीलके सम्बन्धमें नालिशथी । रेहननामा मई सन १६०१० को मुद्दाअलेह नं० १ द्वारा जो मुद्दाअलेह नं०२ से६ तक संयुक्त पिता
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मुश्तरका खान्दान
[ छठवां प्रकरण
और संयुक्त खान्दानका मेनेजर था लिखा गया था। दस्तावेज़ ११००) का था और सूद की शर्त १२ फी सदी चक्रविधि की थी । रेहननामेकी रकम में कुछ भी अदा न किया गया और नालिशकी तारीखपर इसकी रकम एक लाख सात हज़ार और कुछ हुई । यह या तो स्वीकारकर लिया गया या विदित हुआ कि पिता कानूनी ज़रूरतोंके लिये रक्कमकी बहुतही ज्यादाज़रूरतमें था और उसको इससे कम सूदपर कर्ज़ न मिल सका था। नाजायज़ दबावकी कोई बात साबित न हुई थी। इस प्रकारकी भी कोई बात न थी कि मुर्तहिनने जान बूझकर राहिनपर रक्रम लद जानेके लिये रकम पड़ी रहने दिया था बल्कि इसके विरुद्ध इस बातका प्रमाण था कि मुर्तहिनने तेज़ीके साथ बढ़ती हुई रकम की इत्तला राहिनको कई बार दी थी और उसे उसके चुकानेकी चेतावनी दी थी। ताहम नीचेकी अदालतने सूदकी दर इतनी कम करदी कि मुद्दालेहके ऊपर कुल रक्रम मय सूद४५०००)रु हुआ जिसके कारण पुत्रोंकी गाढ़ी कमाई अपने पिता की अदूरदर्शिताके कारण, जिसने सूद न चुकाया था और जिसकी वजहसे उनको सूदपर सूद देना पड़ रहा था सबकी सब चली जाती थी।
तय हुआ कि नीचेकी अदालतने रेहननामेके सूदकी दर कम करने में, उस हालतमें भी जब वह पुत्रोंके खिलाफ थी, गलती की है। क़र्ज़ और सूद की दर स्वीकार किये जानेपर या आवश्यक मालूम होनेपर, पिता कानूनके मुताबिक उस रकमके ऊपर क़र्ज़ लेनेमें न्यायानुकूल था और बादको मामलेके सम्बन्धमें यह विचार कि आया वह न्यायानुकूल था या नहीं असम्बन्ध है। क्रथिवेन्ती पेराजू बनाम सीता रामचन्द्र राजू 22 L. W. 568; 90 I.C. 458; A. I. R. 1925 Mad. 897; 48 M. L.J. 584.
___ जब यह स्पष्ट प्रमाणित हो गया हो कि जायदाद संयुक्त पारिवारिक जायदाद है और रेहननामा उस व्यक्ति द्वारा किया गया है जिसके सम्बन्धमें यह साबित हो चुका है कि वह खान्दानका मैनेजर है, तो दस्तावेज़में इस प्रकारकी तहरीर कि उसने उस दस्तावेज़को अपने व्यक्तिगत अधिकारकी हद तक लिखा है, दस्तावेज़की असिलियतमें कोई अन्तर नहीं डालती; और उससे जो स्वाभाविक परिणाम निकाला जाता है, वह यही होता है कि मुद्दाअलेहके खिलाफ बहैसियत मेनेजरके नालिश कीगई है। यह आवश्यक नहीं है कि मुद्दई यह साफ़ साफ़ बताये कि वह मेनेजरके खिलाफ नालिश कर रहा है या यह कि मुहाअलेहके खिलाफ बहैसियत मेनेजरके नालिशकी जारही है। पृथ्वीपालसिंह बनाम रामेश्वर A. I. R. 1927 Oudh 27.
__ वली द्वारा इन्तकाल-किसी नाबालिगके वली द्वारा किये हुये इन्तकालकी पाबन्दी उसकी रियासतपर तभी होगी, जबकि यह साबित होगा, कि वह रियासतके फायदेके लिये है। कृषि सम्बन्धी खान्दानके विषयमें वली द्वारा सीरका लेना नाबालिगकी रियासतके फायदेके लिये समझा जायगा।
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दफा ४२६ ]
अलहदा जायदाद
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जब कि वलीने १२ फी सर्दी चक्रविधि ब्याज देना स्वीकार किया था, उस अवस्थामें अदालतने उसे घटाकर ६ फीसदी रक्खा था, चन्द्रिकाप्रसाद बनाम रामसागर 12 0. L. J. 5657 20. V. N. 425; 89 I. C. 567; A. I. R. 1925 Oudh 459.
मेनेजर द्वारा इन्तकाल कब लाज़िमी है-सुवासिनीदासी बनाम हाबू घोष A. I. R. 1926 Cal 247.
इन्तकाल-आवश्यकता-सुबूत-जोगेशचन्द्र घोष बनाम चपला सुन्दरी बसु A. I. R. 1926 Cal. 383
महाजनोंके सम्बन्धमें यह आवश्यक नहीं है कि वे कोई अन्यही व्यक्ति हों-मैनेजर द्वारा अपने हिस्सेका अपने व्यक्तिगत ऋणके लिये रेहननामाकी पाबन्दी कहां तक है-मेनेजरका इन्तकालका अधिकार--जैनारायण बनाम महाबीरप्रसाद 3 0. W. N. Sup. 23.
__ मुश्तरका खान्दानके जायज़ रेहननामोंकी अदाई में किये हुये बयनामों की पाबन्दी हिस्सेदारोंपर है, लालबहादुर बनाम अम्बिकाप्रसाद 23 L. W. 220; 91 I. C. 471; 28 0. C. 371; 12 0. L.J. 649; 30C. W. N. 7017 A. I. R. 1925 P. C. 264(P. C.)
इन्तकाल वली द्वारा-आवश्यकता या लाभ नहीं साबित हुआभावी वारिसोंको जायदादकी वापसीमें मुन्तकिलअलेहको मावजेके अदा करनेकी आवश्यकता नहीं है-बेपना सीतय्या बनाम रामस्वामी 91 I. C. 758: A. 1. R. 1925 Mad. 1288.
एक डिकरीदारको, जिसे केवल एक अविभक्त पुत्रके विरुद्ध डिकरी प्राप्त है, अपनी डिकरीकी तामीलमें, पुत्रके पिताकी उस जायदादको, जो पिताके कब्जे में हो, तभी कुर्क करनेका अधिकार है जब पुत्रको पिताके योबन कालमें ही उसके बटवारेका अधिकार प्राप्त हो पञ्जाबमें हिन्दूलॉ का यह आम कायदा है कि पुत्र ऐसा बटवारा नहीं करा सकता, गहरूराम बनाम ताराचन्द A. I. R. 1926 Lah. 85. . उदाहरण-उपरोक्त छोटेराम वाले मुकद्दमेके वानियात यहथे-'महेश' और रमेश दोनों सगे भाई मुश्तरका खान्दानमें रहते हैं, महेश परदेश चला गया, रमेशके सिपुर्द खान्दानका व्यापार और प्रबन्ध था, महेशकी गैरहाज़िरी में और उसकी रजामन्दीके बिना खान्दानके कारोबारके लिये और अपनी बहिनके बिवाहके खर्चके लिये रमेशने मुश्तरका जायदादका एक मकान बेंच डाला क्योंकि यह बेचना कानूनन् जायज़ था इसलिये महेशके ऊपर यह बिक्री लागू पड़ेगी अर्थात् महेश उस बयनामाका पाबन्द होगा। यह समझा जायगा कि महेश भी यही चाहता था कि रमेश मेनेजरकी हैसियतसे खान्दानकी
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मुश्तरका खान्दान
[ छटवां प्रकरण
ज़रूरतोंके लिये जो मुनासिब समझे करे, रामलाल बनाम लखमीचन्द 1 Bom. H C Appli. के मुक़द्दमें में बम्बई हाईकोर्टने कहा कि मेनेजरके मुश्तरका खान्दानी व्यापार चलाने के अधिकारमें, व्यापारके साधारण कामों के लिये मुश्तरका खान्दानकी जायदादको रेहन करनेका अधिकार भी अवश्य बिना दिये हुये भी माना जायगा, श्यामसुन्दर बनाम अछनकुंवर 21 All. 71. वाले मुक़द्दमे में प्रिवी कौन्सिलने कहा कि-मुश्तरका खान्दानके व्यापार के मेनेजरने, घरके दूसरे मेम्बरोंकी रजामन्दी न लेकर खासकर जब उस खान्दानमें नाबालिरा मेम्बर भी हैं कोई जायदाद रेहन रखी हो तो उसका यह रेहन रखना जायज़ था या नहीं इस बातके जांचनेके लिये केवल यह जानना चाहिये कि वह मुश्तरका जायदादके क़रज़ चुकाने के लिये रेहन रखी गयी थी या नहीं ? जायदादके इन्तकालके समय जो बालिग कोपार्सनर मौजूद हों उनकी रजामन्दी लेना परमावश्यक है मगर उन बालिग कोपार्सनरोंकी रजामन्दी लेना इतना आवश्यक नहीं है जो परदेश चले गये हों।
जबकि खान्दानकी ज़रूरतोंके लिये इन्तकाल न किया गया हो तो कोई कोपार्सनर उस इन्तकालका पाबन्द नहीं होगा; देखो-35 Mad. 177.
अगर रेहननामा या बैनामा या किसी इन्तकालके काराज़पर बालिग कोपार्सनरोंने दस्तखत कर दिये हों तो वह उनकी मंजूरी समझी जायगी; देखो-गङ्गाबाई बनाम वामनाजी 2 Bom. H. C. 30; 35 Mad 177. जब कि खान्दानकी ज़रूरत काफ़ी न हो और न बालिग कोपार्सनरोंकी रजामन्दी हो तो मेनेजर मुश्तरका जायदादका इन्तकाल नहीं कर सकता। दफा ४३० मुश्तरका खान्दानकी कानूनी ज़रूरतें ( मुश्तरका खानदानकी कानूनी जरूरतें यह होती है ) (क) (१) सरकारी मालगुज़ारी देना, और मुश्तरका खान्दानकी जाय
दादके ऊपर जो करजे देने हों उनको अदा करना; देखो-25 All. 407, 414-115; 30 I. A. 165; नाथू बनाम कुन्दन
33 All. 242; 29 Cal. 797. जबकि मालगुजारीका तकाज़ा छाती पर चढ़ा हुआ था यहां तककि जिस दिन रेहननामा किया गया, उस दिन स्थावर सम्पत्ति पर कुर्की जारी करदी गई थी।
तय हुआ कि रेहननामा कानूनी प्रावश्यकताके लिये था। सागरसिंह बनाम मथुराप्रसाद 87 I. C. 1035; A. I. R. 1925 Oudh 750. (२) कोपार्सनरों और उनके बाल बच्चोंका भरण पोषण करनाः देखो
मकुन्दी बनाम सरवसुख 6 All. 417, 421.
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दफा ४३०]
अलहदा जायदाद
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(३) मर्द कोपार्सनरों के विवाहके खर्च और उनके लड़कोंके भी; देखो
सुन्दराबाई बनाम शिवनरायन 32 Bom. 81; भागीरथी बनाम जोखू 32 All.575; गोपाल कृष्णनम् बनाम वेंकटरासा
(1914) 37 Mad. 273; 27 Mad. 206;34 Mad.422. (४) कोपार्सनरोंकी लड़कियों के विवाहके खर्च, देखो-11 Bom.
605; 23 Mad. 512, 26 Mad. 497; 35 Mad. 728; 36 .
All 158. बहिनकी शादीके लिये-किसी नाबालिराके वली द्वारा उसकी बहिन की शादीके खर्चके लिये किये हुये इन्तकालकी पाबन्दी खान्दानपर होती है और नाबालिग भी बालिग होनेपर, उसका विरोध नहीं कर सकता, देदारसिंह बनाम वंसी 85 I. C. 741; A. I. R. 1925 Lah 520. (५) अतेष्टी क्रियाके खर्च और खानदानके अन्य मज़हबी खर्च; देखो
नाथूराम बनाम सोमाछगन 14 Bom. 662. लालागनपति
बनाम टूरन 16 W. R. 52. (६) जायदादको फिर प्राप्त करने या उसके बचानेके लिये ज़रूरी
मुक़दमोंका खर्च देखो-मिलर बनाम रंगनाय 12 Cul. 389. (७) मुश्तरका खानदानके मुखियाको किसी संगीन फौजदारी मुक
हमेंसे बचानेका खर्च देखो-बेनीराम बनाम रामसिंह 1912
34 All. 4-8. रिवाज-(पञ्जाव )--पूर्वजोंके क़र्जका अदा करना जायज़ आवश्यकता है। चेतसिंह बनाम तारलोचन 1927 A. I. R. Lahor 53
आवश्यकता--हिन्दूलॉ के कर्ता इस बातको स्वतन्त्रता पूर्वक स्वीकार करते हैं, कि हिन्दू स्त्रीको आवश्यकताकी दशामें खान्दानकी ओरसे कर्ज लेनेका अधिकार है । देखो नारद विष्णु मनु और याज्ञवल्क्य जैमिन (Mayne) पृ० ४५२ में उद्धृत है।
उस अवस्थामें जबकि पुरुष कर्ज लेता है और उसमें जबकि स्त्री कर्ज लेती है जो अन्तर है वह खास तौरपर उस सबूतके देने में है जो दोनों अवस्थाओंमें इस प्रमाणमें देना होता है कि क़र्ज़ लेने वालेको कर्ज लेनेका अधि. कार है और शायद उन चन्द कल्पनाओं में है जो कि चन्द सूरतोंमें की जा सकती हैं । वीरप्पा बनाम नूरखां सेठ 3 Mys L... 64.
अनिश्चित लाभके लिये इन्तनाल--किसी हिन्दू खान्दानका मेम्बर किसी भाग्याधीन (Speculator ) व्यवसायके लिये इन्तकाल नहीं कर सकता। उस व्यक्तिको; जिसके हकमें इन्तकाल किया गया है, हर हालतमें कानूनी ज़रूरत या खान्दानी फायदा साबित करना चाहिये । फ़ायदेके प्रश्नके फैसले
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मुश्तरका खान्दान
[छठवां प्रकरण
के लिए यह देखा जायगा, कि वह व्यवसाय कैसा था, उसका फैसला उसके परिणामपर न होगा, रणचन्द्रसिंह बनाम जङ्गबहादुरसिंह 90 I. C. 553.
पिता द्वारा किये हुए, संयुक्त हिन्दू खान्दानकी जायदादके रेहननामे में केवल दस्तावेज़के द्वारा क़ानूनी आवश्यकताका प्रदर्शन काफ़ी नहीं है । दस्तावेज़ शहादतमें पेश किया जा सकता है, किन्तु महज़ उसका सुबूत कानूनी आवश्यकताके साबित करने के लिये काफ़ी मुबूत नहीं है। राजवन्त बनाम रामेश्वर 12 0. L. J. 235; 2 O. W. N. 225; 87 I. C. 180; A. I. R. 1925 Oudh 440.
आवश्यकता-सिलसिलेवार हानिको रोकना--आवश्यकता है-सूरजनारायन बनाम गुरुचरनप्रसाद 91 I. C. 495; A. I. R. 1928 Oudh 743.
किसी मिले हुये हिस्सेकी खरीदारी और उसके लिये रेहननामा खानदानपर लाज़िमी है, बेनीमाधोसिंह बनाम चन्द्रप्रसादसिंह 6 P L. J.2333; 83 I.C. 603; A. I. B. 1925 Patya 189.
खान्दानी जायदादका बयनामा, जो भावी और सिलसिलेवार नुकसान के दूर करनेकी गरज़से किया गया हो, एक ऐसा बयनामा है जो खान्दानी जायदादके फ़ायदेके लिये किया गया है और उसकी पाबन्दी है।
'आवश्यकता' और 'खान्दानी फायदा' एक दूसरेके विरुद्ध नहीं है। किस चीज़से 'खान्दानी फायदा' है, यह हर सूरतमें परिस्थितिके लिहाज़से अलाहिदा अलाहिदा होता है, सूरजनारायन बनाम गुरचरन प्रसाद 20 W. N. 904; A. I R. 1925. Oudh 743.
पिता द्वारा हक़सफ़ाके लिए गैर जमानती कर्जका लिया जाना कानूनी आवश्यकता होती है--विश्वनाथराय बनाम जोधीराय A. I. R. 1925 Nag. 160 (2).
'आवश्यकता'--किसी हिन्दू संयुक्त परिवारके मैनेजर द्वारा इन्तकाल के जायज़ होनेके सुबूतमें यह आवश्यक है कि पारिवारिक आवश्यकता या लाभ प्रमाणित किया जाय । वाक्य 'आवश्यकता' के अर्थमें सख्ती न की जानी चाहिये । जबकि मैनेजरने किसी घरको, कम कीमतपर इस गरजसे खरीदा, कि वह उसे ऊंची कीमतपर बेचकर, उन क़र्जीको, जो ऊंचे सूदपर हैं, अदा करेगा, और जबकि उन कजोंके अदा करनेके लिये कोई अन्य सूरत न थी, इस अवस्थामें यह खरीद पारिवारिक लाभके लिये समझी जायगी और उसकी बिनापर हुए कर्जकी पाबन्दी परिवारपर होगी। रवीलाल बनाम रघुनाथ मूलजी 92 I. C. 378.
कानूनी आवश्यकता-वह कार्य, जिसके लिये, 'कानूनी आवश्यकता या 'खान्दानी फायदा' समझा जा सकता है, अवश्य ऐसा होना चाहिये, जो
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दफा ४३० ]
अलहदा जायदाद
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उस जायदादकी रक्षाके लिये हो, अर्थात् कोई ऐसा काम, जो उस जायदादकी रक्षाके लिए करना हो, जो पहिलेहीसे कब्जे में हो, किन्तु वह ऐसा काम न हो जिसके द्वारा कोई नवीन जायदाद कब्जे में लाई जानी हो और जोकि उन मौकों लिहाज़से, जो अदालती कार्यवाहीमें आवश्यक होते हैं कामयाब होया न हो। शङ्करसाही बनाम रैचू राम 23 A. L. J. 204; L. R. 6 All. 214; 47 A. 381; 86 1. C. 769; A. I. R. 1925 All. 333.
किसी सदस्य द्वारा रेहननामा-सूदकी दरके लिये भी कानूनी प्राव श्यकताका सुबूत दिया जाना चाहिये, बखतावरसिंह बनाम बनतावरसिंह A. I. R. 1925 Oudh. 235.
आया वह मां जिसने अपने पुत्रकी जायदाद, वरासतसे प्राप्त किया हो, अपने पतिके सम्बन्धी की शादी करने के लिये जायदाद रेहन करनेकी अधिकारिणी है-कानूनी आवश्यकता देखो हिन्दूलॉ स्त्री वारिसोंकी वरासत 1925 P. H. C. C. 271.
दस्तावेज़में वर्णन किया जाना सबूत नहीं है-मु. राजवन्ती बनाम रामेश्वर 28 0.C. 393; A. I. R. 1925 Oudh. 440.
एक मुश्तरका खान्दानके पिताने ५६६५) का एक बयनामा किया। यह ज्ञात हुआ कि उस रकममें से २५६ma) आवश्यक कार्यके लिये न थे और उसकी पाबन्दी पुत्रपर नहीं है। पुत्रने दस्तावेज़ बयनामेके मंसूख करानेके लिये नालिश की।
तय हुआ कि डिक्रीकी मुनासिब शकल यह होगी, कि बयनामेकी स्वीकृति दी जाय, क्योंकि वह रकम जो अनावश्यक बतायी गयी है, बहुतही कम है और खरीदारको, अब २५६॥=) भी अदा करनेके लिये शेष नहीं है क्योंकि उसने वह रकम पिताको अदा करदी है। लालबहादुरलाल बनाम कमलेश्वरनाथ 48 A. 183; 24 A. L.J.52; A. I.R. 1925 All.624.
बेनीराम बनाम रामसिंह के मुकदमे में बाप ताज़ीरात हिन्द की दफा ४६७ और.४७१ के अनुसार सेशन सिपुर्द हुआ था इस मुकद्दमेके खर्चके लिये बापने मुश्तरका खान्दान की जायदाद रेहन की थी। पीछे उसके एक लड़के ने इसपर आपत्ति की, अदालत ने माना कि लड़के, और पोतों की जायदाद भी उस खर्च की ज़िम्मेदार है, मुकद्दमा खारिज कर दिया। (ख) हिन्दू खान्दानकी मुश्तरका जायदाद के रेहन रखनेके विषयमें .
मेनेजरके अधिकार पर प्रिवीकौंसिलने, हनूमानप्रसाद बनाम मुसम्मात बबुई 6. M. I. A. 393, के मुकदमे में विचार किया था। उस मुकदमे में सवाल यह था कि नाबालिग वारिस की माताका अधिकार बहैसियत मेनेजर या वलीके क्या है,
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[ छठवां प्रकरण
• लेकिन उस मुक़द्दमे में जो सिद्धान्त निश्चित हुये वह नीचे लिखे लोगों से भी लागू होते हैं ।
मुश्तरका खान्दान
( १ ) मुश्तरका खान्दानके उस मेनेजरसे जो नाबालिग कोपार्सनर की ओरसे काम कर रहा रो, देखो, सुरेन्द्रो बनाम नन्दन 21 W.
R. 196.
(२) उन विधवाओं से और उन महदूद हक़ रखने वाले वारिसोंसे जिन्हें उत्तराधिकार में जायदाद मिली हो
( ३ ) धर्म खातेकी जायदाद के मेनेजर से;
( ४ ) पागलोंकी जायदाद के मेनेजर से देखो, गौरीनाथ बनाम कलक्टर श्राफ मौनगिर 7 W. R.; कांतीचन्द बनाम विश्वेश्वर 25 Cal. 585.
उक्त हनुमान प्रसाद वाले मुक़द्दमे में प्रिवी कौंसिल के जजोंने कहाकि नाबालिग की जायदादमें क़र्ज़ेका बोझा डालनेके लिये मेनेजरका अधिकार हिन्दू लॉ के अनुसार सीमाबद्ध है, सिर्फ ज़रूरत के वक्त या जायदादको लाभ पहुंचाने के लिये ही उस अधिकार का काममें लाया जाना उचित है अन्यथा नहीं। वह क़र्ज़ा ऐसी सूरतमें लिया गया हो कि अगर उसकी जगह पर दूसरा कोई भी विचारवान आदमी होता तो वह भी उस ज़रूरत के लिये क़र्ज़ा ज़रूर लेता । क़र्ज़ा सिर्फ ज़रूरत के लिये लिया गया हो, और अगर मेनेजरका इन्तज़ाम खराब है और क़रज़ा देने वालेने नेकनीयती से वह क़र्ज़ा दिया है तो वह क़र्ज़ा जायज़ होगा । क़र्ज़ेके बारेमें यह बातें ज्यादा ख्याल की जायेंगी यानी क्या जायदाद किसी खास दबावमें आगई थी ? क्या जायदादपरसे कोई बड़ा खतरा हटाया गया था ? क्या जायदादको कोई लाभ पहुंचाया गया था ? अगर यह सब बातें उस क़रजे में पाई जाती हों या कोई भी पाई जाती हों तो क़र्ज़ा जायज़ माना जायेगा उक्त हनूमान प्रसाद का केस रेहनके बारेमें था मगर यही सब बातें बेंचने से भी लागू होती हैं; देखो मदन ठाकुर बनाम कन्टोलाल 14 Beng L. R. 187; 199; 1 I. 4. 321; 334; और यही बातें आम तौरसे कुल कर्जेसे लागू होंगी ।
नोट - उत्तराधिकार के प्रकरण ९, १० में जो औरतांकी कानूनी जरूरतें बताई गई हैं वह भी देखो दफा ६०२, ६७७.
दफा ४३१ मुश्तरका ख़ानदानकी जरूरतों का बारसुबूत और ख़रीदारकी ज़िम्मेदारी
( १ ) जब किसी मुश्तरका हिन्दू खान्दानका हिन्दू मेनेजर कोई जायदाद बचे या रेद्दन रखे तो खरीदने वाले या रेहन रखने वालेका यह कर्त्तव्य
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दफा ४३१]
अलहदा जायदाद
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है कि वह खानदानी ज़रूरतकी अच्छी तरह जांच करे जिस के लिये जायदाद बेची या रेहन रखी जाती है। खरीदार या जिसके पास रेहन रखा गया हो उसे यह साबित करना होगा कि वास्तव में खानदानी ज़रूरत थी और जायज़ थी, या यहकि उसने अच्छी तरहसे सब उपायों द्वारा उचित जांचकर ली थी कि ज़रूरत है और जायज़ ज़रूरत है।
(२) अगर खरीदार या जिसके पास रेहन रखा गया हो वह यह साबित कर दे कि खान्दानी ज़रूरत थी, और जायज़ ज़रूरत थी, तो चाहे मेनेजर के खराब इन्तज़ाम ही से वह ज़रूरत पैदा हुई हो तो भी जायदाद का इन्तकाल (रेहन या बिक्री) जायज़ माना जायगा। लेकिन अगर उस बद इन्तज़ामी में खरीदार या जिसके पास रेहन रखा गया हो वह भी शरीक रहा हो तो इन्तकाल नाजायज़ माना जायगा।
(३) अगर खरीदार या जिसके पास रेहन रखा गया हो जायज़ जरूरत साबित न कर सके मगर यह साबित करदे कि उसने पूरी तौर पर और सब तरह से उस ज़रूरत की जांच करलीथी औरजो बातें उसके सामने आयीं थी अगर वह.सच होतीं तो दर असल उसका यह समझना कि ज़रूरत जायज़ थी ज़रूर ठीक होता। उस सूरतमें जायदादका इन्तकाल जायज़ माना जायगा और अगर ऐसा साबित न हो सके तो इन्तकाल नाजायज़ माना जायगा देखो, सुरेन्द्र बनाम नन्दन 21 W. R. 196
(४) कोई भी खरीदार या जिसके पास रेहन रखा गया हो इस बात की जांच करने के लिये पाबन्द नहीं होगा कि जो रुपया उससे जायज़ ज़रूरत के लिये लिया गया है दरअसल उसीकाममें खर्च किया गया है या नहीं अगर खरीदार या जिसके पास रेहन रखा गया है खुद भी उस खानदानके इन्तज़ाम में शरीक हो तो उसे यह भी अदालत में साबित करना पडगा कि दरअसल वह रुपया उसी काम में खर्च किया गया है जिस काम के लिये वह लिया गया था, देखो-हनुमान प्रसाद बनाम मुसम्मात बबुई 6 M. I. A. 393; सुरेन्द्रो बनाम नन्दन 21. W. R. 196; बन्शीधर बनाम बिंदेश्वरी 10 M. I. A. 454, 471; दालीबाई बनाम गोपी बाई 26 Bom. 433; कन्हैय्यालाल बनाम मुन्नाबीबी 20 All. 1.35; मदन ठाकुर बनाम कन्तूलाल 14 Beng. L. R. 187, 199; 1 I. A. 321.
(५)मुश्तरका खानदान के व्यापार या कारोबार के मैनेजर ने जो कर्ज खानदान के फर्मके नाम से लिया हो उससे भी पूर्वोक्त कायदे लागू होंगे या नहीं होंगे इस विषय में मत मेद है। देखो - बैनामा में अगर खानदानी फर्मकी ज़रूरत लिखी हो तो ऐसा लिखा जाना इस बातका कतई सुबूत नहीं होगा कि दर असल ज़रूरत थी, जब तक कि वह ज़रूरत दूसरे
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[ छठवां प्रकरण
गवाहों या दूसरी तरह से साबित न की जाय; राजलक्ष्मी देवी बनाम गोकुलचन्द 3 Beng. L. R . ( P. C. )57; 13M. I. A. 209; लाला ब्रजलाल बनाम इन्दुकुंवर 16 Bom L. R. 352; ( P. C. ) इसी तरह से अगर बैनामामें ज़रूरत नहीं लिखी हो तो इस बातका सुबूत भी नहीं होगा कि दर असल ज़रूरत नहीं थी । यह बात दूसरी तरहसे और दूसरे गवाहोंसे साबित की जा सकती है, उमेशचन्द्र बनाम दिगंबर 3 W. R. 154.
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मुश्तरका खान्दान
क़ानूनी आवश्यकता- इस बातके निश्चय करनेके लिये, कि क्या खान्दानी फ़ायदा है और क्या खान्दानी फ़ायदा नहीं है कोई परिमित और निश्चित नियम नहीं है। किसी एक सूरतमें जो बात खान्दानी फ़ायदा समझी जा सकती है वह दूसरी सूरत में वैसीही नहीं रहती । इस प्रश्न का उत्तर कि अमुक क़र्ज जायदादके फ़ायदेकी मद्दमें आता है या नहीं, किसी विशेष सूरतकी तमाम परिस्थितियोंपर निर्भर है। 40 Mad. 709 full. उस सूरत में जबकि माताने बहैसियत वलीके अपने नाबालिग पुत्रके, खान्दानी जायदादको सीरकी ज़मीनपर काश्तकारी करनेके लिये जो कुछ दिनोंसे मौकूफ़ होगई थी, रेहन किया और क़र्ज लिया ।
तय हुआ कि परिस्थितिके लिहाज़ से कर्ज जायज़ और लाजिमी था । चन्द्रिकाप्रसाद बनाम रामसागर 120. L J. 565; 20. W. N. 425; 89 I. C. 567; A. I. R. 1925 Oudh 459.
जिसके हमें इन्तक़ाल किया गया है उसका कर्तव्य और जांच, देखो गिरधारीलाल बनाम किशनचन्द 85 1. C. 463; A. I. R. 1925 Lah.240.
जब जायदाद खान्दानके किसी सबसे बड़े मेम्बरके नाम हो - ऐसी दशामें जबकि किसी खान्दानके सब सदस्य एकमें ही रहते हों, यह तय हो चुका है कि यदि जायदाद सबसे बड़े सदस्यके नाम हो, तो उससे उसको खान्दानके बाक़ी सदस्योंको छोड़कर कोई खास अधिकार नहीं प्राप्त हो जाता और उस व्यक्तिका, जो इस प्रकारकी जायदादपर कोई मामला करता हो, यह कर्तव्य है कि इस बातकी जांच करले कि वह व्यक्ति जो जायदादका इन्तक़ाल करता है उसपर पूर्णाधिकार रखता है या नहीं, पाण्डचेरी कोकिल अम्बल बनाम सुन्दर अम्बल 86 1. C. 633; 21 L. W. 259; A. I. R. 1925 Mad. 902
केवल इस बिनापर कि कोई इन्तक़ाल किसी मुश्तरका खान्दानके मैनेजर द्वारा किया गया है; वह खान्दानके दूसरे मेम्बरोंपर लागू न होगा । उस फ़रीक़को, जिसके दक़में इन्तक़ाल किया गया है, चाहिये कि वह इस बातको साबित करे कि इन्तकाल खान्दानके फ़ायदे या स्वार्थके लिये किया गया है। सुबाशिनी दासी बनाम हब्बू घोश 89 I. C. 100.
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दफा ४३१]
अलहदा जायदाद
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जब किसी हिन्दू मुश्तरका खान्दा के पिता द्वारा किये हुये इन्तकाल पर, उसके पुत्र द्वारा एतराज़ किया जाय, तो यह महाजनका कर्तव्य है कि प्रथम अदालतमें कानूनी आवश्यकता प्रमाणित करे या कमसे कम ऐसा सुबूत पेश करे, जिसके द्वारा, एक चतुर मनुष्यकी समझमें कानूनी आवश्यकता प्रतीत हो सके। इस बिनापर कि हक़शिफ़ा होगया है और हक़शिफ़ा करने वालेके खिलाफ नालिश कीगई है, इस जिम्मेदारीपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। चन्द्रिकासिंह बनाम भागवतसिंह 83 I. C. 54; A. I. R. 1924 All.170.
जांच करना-यह एक बात है कि महाजन उस सम्बन्धमें कानूनी आवश्यकताकी जांच करले, जिस सम्बन्धमें वह रुपया देता है, ऐसी सूरतमें जहांपर कि हर एक बात महाजनकी जानकारीमें हो, दूसरे प्रकारसे ध्यान दिया जाता है। ऐसी हालतोंमें, किसी सख़्त जांचकी आवश्यकता नहीं होती। सन्तानके पालनका खर्च कानूनी आवश्यकतामें आता है, किन्तु सन्तानकी शिक्षा के लिये इमारत बनवाने के लिये क़र्ज़ लेना कानूनी प्रावश्यकता नहीं है , जोगेशचन्द्र घोश बनाम चपला सुन्दरी वसु 90 I. C. 594.
हिन्दुला-इन्तकाल-यदि किसी महाजनने किसी मामलेके करनेके पहिलेही यह मान्य और कानूनी रीतिपर जांच करली है कि कानूनी प्रावश्यकता है, तो मामला करनेके बाद यदि कानूनी आवश्यकताका होना गलत भी पाया जाय, तो भी इन्तकाल नाजायज़ नहीं होता । शङ्करराव बनाम पाण्डु रंग A. J. R. 1927 Nag. 65.
जब कुछ रकम न साबित हो कि वह जायज़ ज़रूरतकी थी- जबकि किसी पूर्वजोंकी जायदादके बयनामेपर, किसी साझीदारने २० वर्षके बाद एतराज़ किया, और उस व्यक्तिने, जिसके हकमें बयनामा किया गया था यह प्रमाणित कर दिया कि बयनामेकी रक्कमका तीन चौथाई आवश्यकताके लिये थी किन्तु बय करने वालेके कुप्रबन्ध या उसके आचरणके सम्बन्धमें कुछ भी न कहा गया।
तय हुआ कि बयनामा बहाल रहे। जयसिंह बनाम दरबारीसिंह 6 Lah. 137; 7 Lah. L. J. 354; 89 I. C. 302, 26 Punj. L. R. 329%; A. I. R. 1925 Lah 396.
जबकि मेनेजरको कम सूदपर करज़ा मिल सकताहो और उसने ज्यादा सूदपर करज़ा लिया हो तो अदालत उसी शरहसे सूद दिलायेगी जिस कदर कि कम सूदपर मिल सकता था; देखो-हरिनाथ बनाम रणधीरसिंह 18 Cal. 311; 18 I. A. 1.
जबकि अदालतने गार्जियन् एन्ड वाईस ऐक्ट सन् १८६० ई० की दफा, २८ और २६ के अनुसार किसी नाबालिगकी अलहदा जायदादके वलीको उस
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मुश्तरका खान्दान
[छटवां प्रकरण
जायदादके रेहन रखने या बेंचनेका अधिकार दिया हो तो खरीदार या रेहन रखने वाले को किसी जायज़ ज़रूरतकी जांच करने की कोई ज़रूरत नहीं है वह इन्तकाल जायज़ होगा, देखो-गङ्गाप्रसाद बनाम महारानी बीबी 11 Cal.379 383,384;12 I.A. 47, 10. गार्जियन् एन्ड वाई ऐक्टके अनुसार नाबालिग अलहदा जायदादका मेनेजर मुश्तरका खानदानकी जायदादमें जिसमें उस नाबालिगका भी हिस्सा हो वली नहीं नियत हो सकता, क्योंकि मिताक्षरालॉ के अनुसार वह मुश्तरका जायदाद किसी एक आदमीकी नहीं है; देखो-25Aii. 407; 30 1 A. 165. दफा ४३२ पंचायत करनेके बारेमें मेनेजरका अधिकार ___मुश्तरका खान्दानकी जायदाद सम्बन्धी झगड़ोंमें मेनेजरको पंचायत करनेका अधिकार है। देखो-जगन्नाथ बनाम मन्नूलाल 16 All. 231. इलाहाबादके एक मुक़द्दमें में यह माना गया है कि बापने अपने कोपार्सनरोसे जायदादके बटवाराके सम्बन्धमें समझौता (Compromise) किया वह समझौता उस बापके लड़कोंको मानना पड़ेगा; देखो-पीतमसिंह बनाम उजागर सिंह 1 All. 651. दफा ४३३ मेनेजर द्वारा क़र्जे का स्वीकार किया जाना
__ हिन्दू मुश्तरका खान्दानके ऊपर अगर कोई कर्जा हो और उस क़र्जे में तमादी न हुई हो तो मेनेजरको अधिकार है कि वह उस क़र्जेको मंजूर करे या उसका सूद अदा करे ताकि उसकी क़ानूनी मियाद और बढ़ जाय मगर मेनेजरको यह अधिकार कभी नहीं है कि जो कर्जा तमादी होगया हो उसे पीछे मंजूर करले या उसका सूद देदे ताकि उसकी नालिश हो सके। देखो-भास्कर बनाम बीजालाल 17 Bom. 512. दिनकर बनाम अप्पाजी 20 Bom. 155. चिन्नाया बनाम गुरूनाथम् 5 Mad. 169. दलीपसिंह बनाम कुंदनलाल (1913) 35_All. 207.
कर्ता-कर्ताको क़र्ज़ स्वीकार करने का वही अधिकार है जो उसे कर्ज लेनेका है और इस बातकी आवश्यकता नहीं है कि यह प्रकाशित किया जाय कि क़र्ज़ बहैसियत कर्ताके स्वीकार किया गया है, हरीमोहन बनाम सुरेन्द्रनाथ 41 C. L. J. 535; 88 I. C. 102:1; A. I. R. 1925 Cal. 1153.
मुश्तरका खानदान -किसी प्रामिज़री नोट पर केवल कर्ताके दस्तखत होने के कारण खान्दानके दूसरे सदस्योंपर, जिनके दस्तखत उस नोट पर नहीं हैं, पाबन्दी नहीं होती--प्रामिज़री नोट मैनेजर द्वारा तामीली--हरीमोहन बनाम सुरेन्द्रनाथ 41 C. L. J. 535; 88 I. C. 1025; A. I. R. 1925 Cal. 1153.
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अलहदा जायदाद
दफा ४३२-४३४ ]
तमादी रक़ममें जायदादका इन्तक़ाल नाजायज़ है - हिन्दू संयुक्त परिवारका मैनेजर, किसी ऐसे क़र्ज़ की दाईके लिये, जो तमादी होगया हो, पारिवारिक जायदादका इन्तक़ाल नहीं कर सकता । हिन्दू पिताका मामला इससे भिन्न है । झब्बूराम बनाम ठाकुर बहोरनसिंह 91 1. C. 1023; A. I.
R. 1926 All. 243.
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असली मामलेका फिरसे नया करना, प्रिवी कौन्सिलके अनुसार बताया हुआ, पूर्वजोंके क़र्जका इन्तक़ाल नहीं होता। बाबूराम बनाम महादेव A. I. R. 1927 All. 127.
मेनेजर द्वारा क़र्ज़ देनेसे महाजनको सूदकी दर और मूलधनकी श्रावइयकता नान्दानके दूसरे सदस्योंके निलाफ़ साबित करनी होगी, परमेश्वर पांडे बनाम राज किशोरप्रसाद A. I. R. 1925 Patna 59.
दफा ४३४ अनेक कोपार्सनरोंमें किसी एकका अलहदा दावा करना
हिन्दू मुश्तरका जायदादमें सभी कोपार्सनरोंका लाभ बराबर माना गया है इसलिये मुश्तरका खान्दानकी जायदाद और मुश्तरका खान्दान के कारो बारके सम्बन्धमें अदालत में कोई दावा दायर करनेमें सभी कोपार्सनरोंका मुद्दई होना ज़रूरी है । सिर्फ एक कोपार्सनर खान्दानकी तरफ़से अकेला दावा नहीं कर सकता और दूसरे कोपार्सनर अगर उस दावामें शरीक होनेसे इनकार करें तो उनको उस मुक़द्दमें में मुद्दा अलेह बनाना चाहिये जैसे कोई एक कोपार्सनर अकेले किसीके बेदखल करनेका दावा नहीं करसकता है; देखोबालकृष्ण बनाम मोरुकृष्ण 21 Bom. 154. अथवा मुश्तरका खान्दानकी किसी जायदादपर क़ब्ज़ा पानेका दावा नहीं कर सकता है, देखो बालकृष्ण बनाम म्युनिसिपलटी आफ महद 10 Bom 32. या मुश्तरका खान्दानका क़र्ज़ा वसूल करनेका दावा नहीं कर सकता है, देखो - कालिदास बनाम नाथू 7 Bom. 217 या मुश्तरका खान्दानके किसी कंट्राक्टके तोड़ दिये जानेका और उसके हर्जेका दावा नहीं कर सकता है; देखो-अलागप्पा बनाम बेलियन 8 Mad. 33.
लेकिन जब किसी कोपार्सनर ने अपने नामसे मुश्तरका खान्दानकी तरफ से कोई कंट्राक्ट किया हो तो कलकत्ता, बम्बई, और इलाहाबाद के हाईकोट के फैसलों के अनुसार वह दूसरे कोपार्सनरोंको शरीक किये बिना अकेले दावा कर सकता है मगर शर्त यह है कि कंट्राक्ट करते समय उसने यह न प्रकट किया हो कि मैं मुश्तरका खान्दानकी तरफ़से काम करता हूं। अगर प्रकट कर दिया हो तो वह अलहदा दावा नहीं कर सकता, देखो - वेशी बनाम सोदिस्तलाल 7 Cal. 739 जागाभाई बनाम रुस्तमजी 9 Bom. 311.
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मुश्तरका खान्दान
[छटवां प्रकरण
अनन्तराम बनाम चुन्नूलाल 25 All. 378. गोपालदास बनाम बद्रीनाथ 27 All. 361. दुर्गाप्रसाद बनाम दामोदरदास (1909) 32 All. 189.
जब कोई कोपार्सनर खानदानकी तरफसे अलहदा दावा करे तो कंट्राक्ट ऐक्ट सन् १८७२ ई०की दफा २३० के अनुसार ऐसा माना जायगा कि वह सबकी तरफसे एजेन्ट था। परन्तु मदरास हाईकोर्ट की राय है कि सब कोपासनर मनहमें में शरीक किये जायेंगे इसका कारण यह है कि सभी कोपासनर उस कंट्राक्टसे लाभ उठाते हैं। देखो-सीशन बनाम वीरा 32 Mad. 284. किशुनप्रसाद बनाम हरनरायनसिंह 33 All. 272; 38 I. A. 45.
नाबालिग कोपार्सनर-मुश्तरका खान्दानके कारोबार सम्बन्धी अगर कोई मुक़द्दमा हो तो अदालतमें उसे दायर करने में नाबालिग कोपार्सनरोंका शरीक होना ज़रूरी नहीं माना गया; देखो-लछिमन बनाम शिवा 26 Cal. 349. अनन्तराम बनाम चन्मूलाल 25 All. 378. लालजी बनाम केशवजी (1913) 37 Bom. 340.
मियाद और साझीदार द्वारा इन्तकाल-जब किसीमुश्तरका खान्दानके इन्तकालके विरुद्ध कोई नालिश की जाती है तब मियाद, उस वक्त से जबकि कार्यवाही आरम्भ हुई है ली जाती है। किसी खान्दानी साझीदारके बाद के जन्मके कारण, मियादके शुमारके लिये फिरसे कार्यवाही आरम्भ नहीं की जा सकती। कानूनकी यह स्पष्ट आज्ञा है कि बहुमतकी स्वीकृतिके पश्चात यानी कार्यवाहीके आरम्भसे तीन वर्षकी मियाद नालिश करने वालेको मिल सकती है। उस मनुष्यकी गिनती, जो उस समय अस्तित्वमें न था, उस कार्यवाहीमें नहीं आती अतएव तीन वर्षकी वृद्धिका अधिकारी नहीं होता, रनदीपसिंह बनाम परमेश्वरप्रसाद 47 Ali. 166; 62 I. A. 693 23 A. L.J. 176, 26 Punj. L. R. 113; 27 Bom. L. R. 175;21 L. W. 236; L. R. 6 P. C. 47; (1925) M. W. N. 262, 12 0. L. J. 74; 20. W. N.1:270. C.34386 1. C. 249; 29 C. W.N. 666: A. I. R. 1925 P. C. 33; 48 M. L. J. 29 ( P. C.) दफा ४३५ मेनेजरका अदालतमें दावा करना
(१) हिन्दू मुश्तरका खान्दानका मेनेजर मुश्तरका खान्दानकी तरफ से बिना दूसरे कोपार्सनरोंके शरीक किये अदालतमें दावा दायर कर सकता है या नहीं इस बातपर बड़ा मतभेद है दोनों तरहकी नजीरें देखिये-(नीचे के केसोंमें माना गया है कि मेनेजरको अधिकार नहीं है-काटुशेली बनाम वेलोटिल 3 Mad. 234. हरीगोपाल बनाम गोकुलदास 12 Bom. 158; 23 Mnd. 190: 21 Bom. 154 ) नीचेके केसोंमें माना गया कि उसे अधिकार था--अरुणच्छला बनाम विथियालिंग 6 Mad. 27; 17 Bom. 122.
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दफा ४३५]
अलहदा जायदाद
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(२) यह माना गया है कि मुश्तरका खान्दानकी गैर मनकूला जायदादके सम्बन्धमें जो अदालतमें दावा किये जायेंगे उनको सिर्फ मेनेजर नहीं कर सकता यानी वह अपने नाम से अकेला नहीं कर सकता बल्कि दूसरे कोपार्सनरोंको भी मुद्दई बनाना ज़रूरी होगा, देखो-किशुनप्रसाद बनाम हरनारायनसिंह 33 All. 272, 277; 38 I. A. 45, 52.
(३) इलाहाबाद और मदरास हाईकोर्टकी राय यह है कि हिन्दू मुश्तरका खान्दानके मेनेजरके पास अगर कोई चीज़ रेहन कीगयी हो तो उसके सम्बन्धमें मेनेजर अलहदा दावा कर सकता है दूसरे कोपार्सनरोंको दावामें शरीक करने की ज़रूरत नहीं है। देखो-हरीलाल बनाम मुनमुन कुंवर (1912) 34 All. 549; मदनलाल बनाम किशुनसिंह (1912) 34 All. 572; 35 Mad. 685.शिवशङ्कर बनाम जाधोकुंवर (1914) 41 I. A. 216, 220.
(४) कलकत्ता हाईकोर्टकी राय-इलाहाबाद और मदराससे विरुद्ध है यानी यह माना है कि अकेले मेनेजर नालिश नहीं कर सकता बल्कि सब कोपार्सनरोंको शरीक होना ज़रूरी होगा, देखो-देवीप्रसाद बनाम धरमजीत (1914) 41. Cal. 727. बम्बई हाईकोर्टकी राय भी यही, है देखो-काशीनाथ बनाम विमनाजी 30 Bom. 477; 34 Bom. 354; 12 Bom. L. R. 811.
(५) प्रिवी कौन्सिलकी रायमें जबकि मुश्तरका खान्दानकी तरफसे मेनेजरको कारोबारके कंट्राक्ट अपने नामसे करनेका अधिकार प्राप्त है तो ऐसे कारबारमें, जैसे रुपयाका लेन देन मेनेजर स्वयं अपने नामसे दावा कर सकता है दूसरे कोपार्सनरोंको शरीक करनेकी ज़रूरत नहीं है, देखोकिशुनप्रसाद बनाम हरनारायणसिंह (1911) 33 All. 272; 38 I. A. 45; 29 All. 311.
मेनेजर प्रतिनिधि है-मुश्तरका खान्दानकी जायदाद, जब तक बटवारा न हो, एक जायदाद है -नालिशमें मैनेजर खान्दानका प्रतिनिधि होता है-किसन बनाम सीताराम A. I. R. 1925 Nag. 160 (2)
नोट-जाबता दीवानी सन १९०८ आर्डर ३४ रूल नम्बर १ के अनुसार यह बात मानी गयी है कि "जिनका रेहनसे सम्बन्ध हो वह सब फरीक बनाये जावें" इस बारेमें इलाहाबाद और मदरास हाईकोर्ट की यह राय है कि चूंकि मेनेजर सब कोपार्सनरोंकी तरफसे होता है इसलिये दूसरे कोपासनरोंका मुकद्दमेंमें शरीक करनेकी जरूरत नहीं है परन्तु कलकत्ता और बम्बई की हाईकोर्ट उक्त जावता. दीवानीके शब्दोंको दृढ़तासे मानती हैं यानी जहां तक सम्बन्ध हो सबको फरीक बनना चाहिये ।
सलगप्पा बनाम वेल्लियन 18 Mad. 38-36 वाले मुकद्दमेंमें मदरास हाईकोर्टने कहा कि जो लोग मेनेजरके साथ लाभमें शरीक हैं उनको (दूसरे कोपार्सनर) बिना शामिल किये मेनेजर दावा नहीं कर सकता और किशुन प्रसाद बनाम हरनारायणसिंह 33 All. 272, 38; I. A. 45. वाले हालके
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मुश्तरका खान्दान
[छठवां प्रकरण
मुकद्दमेंमें प्रिवी कौन्सिलने मदरास हाईकोर्टकी राय नहीं मानी कहा कि मदरास हाईकोर्ट जितनी दूर जाती है वहां तक जाना ठीक नहीं है।
(६) अगर दो या दो से ज्यादा मेनेजर हों, और उन सबके नाम से कंट्राक्ट लिया गया हो तो वह सब मुद्दई बनाये जावेंगे; देखो-6 Cal. 815; 33 All. 272, 278. दफा ४३६ दौरान मुक़दमेंमें कोपार्सनरोंका फरीक बनाया जाना
और मियाद अगर कोई मुकद्दमा अदालतमें एक या कुछ कोपार्सनरोंने दाखिल किया हो और अदालतकी रायमें सब कोपार्सनरोंको मुद्दई बनाया जाना ज़रूरी समझ पड़े तो अदालत अपने अधिकारसे अथवा किसी मुद्दई या मुद्दाअलेह के अर्ज करनेपर बाक़ीके सब कोपार्सनरोंको फरीक बनाये जानेका हुक्म दे सकती है। लेकिन अगर दूसरे कोपार्सनरोंके मुद्दई बनाये जाने तक उनके सम्बन्धमें वह मुक़दमा यदि तमादी होगया हो तो वह कुल मुक़द्दमा डिस्मिस् यानी नारिज किया जायगा; देखो-कालिदास बनाम नाथू 7Bom 217; 32 Mad. 284; और देखो कानून मियाद सन १९०८ ई० की दफा २२.
ऊपर कही हुई कानून मियाद सन १९०८ ई० की दफा २२ का मतलब यह है कि "अदालतमें नालिश दायर कर देनेके पश्चात् उसी नालिशमें कोई मुद्दई या मुद्दाअलेह कायम किया जाय या ज्यादा किया जाय तो उसकी निस्बत नालिशका दायर होना उस वक्त से माना जायगा जिस वक्तसे कि नया मुद्दई या मुद्दाअलेह बनाया गया है, मगर शर्त यह है कि जब कोई मुद्दई या मुद्दाअलेह मर जाय और नालिश उसके कायम मुकाम वारिसकी तरफसे दायर है तो उस नालिशका दायर होना उसी वक्तसे शुमार किया जावेगा जब कि पहिले दफा दायर हुई थी" जो मुक़द्दमा सब कोपार्सनरोंको मिलकर दायर करना चाहिये था उसे अगर सिर्फ मेनेजरने दायर किया हो तो ऐसे मामलेसे ऊपरका कायदा सबका सब लागू नहीं होता । बम्बई हाईकोर्ट की रायके अनुसार ऐसे मामले में तीन सवालों पर विचार करना निहायत ज़रूरी है
(१) क्या जो कोपार्सनर मुद्दई नहीं बनाये गये वह सब बालिग हैं ? ( २ ) क्या उन्होंने (बालिग कोपार्सनर ) इस दावा के दायर किये
जानेमें रज़ामन्दी दी थी ? (३) क्या मुद्दाअलेहने मुकद्दमेके आरम्भमें ऐसा उन किया था कि
अमुक कोपार्सनर मुद्दई बनाये जाये ?
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दफा ४३६ ]
अलहदा जायदाद
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अगर वे कोपार्सनर जो मुद्दई नहीं बनाये गये बालिग हों और उन्होंने दावा दायर किया जाना मञ्जूर किया हो और अगर मुद्दाअलेहने मुक़दमेके श्रारम्भमें यह उज्र पेश किया हो कि वे मुद्दई बनाये जावें ऐसी सूरतमें मुद्दा अलेहकी उज्रदारीपर वे सब कोपार्सनर मुद्दई बनाये जायेंगे । क्योंकि इस बातसे मुद्दाअलेहका यह खटका मिट जायगा कि कहीं मेनेजरने उनकी मर्जी के बिना तो दावा दायर नहीं किया । लेकिन अगर मुहाअलेहने मुकद्दमेके आरम्भमें कोई एतराज़ न किया हो तो समझा जायगा कि उसने उन कोपार्सनरोंका मुद्दई न बनाया जाना स्वीकार कर लिया था। और चाहे तमादी भी हो गयी हो तो भी अदालत दूसरे कोपार्सनरोंको मुद्दई बना सकती है। अर्थात् अदालतको ऐसा अधिकार प्राप्त है। देखो-गुरुवाया बनाम दत्तात्रेय 28 Bom. 11; हरी गोपाल बनाम गोकुलदास 12Bom. 158; इमदाद अहमद बनाम तपेश्वरी नारायण (1910) 37 All. 60; इलाहाबाद हाईकोर्टने भी यही बात मानी है, देखो-तपेश्वरी बनाम रुद्रनारायण 26 All. 528.
बम्बई हाईकोर्टकी उक्त नजीर (28 Bom. 11 ) सिर्फ उसी मामलेसे लागू होती है जिसमें दूसरे कोपार्सनर बालिरा हो नाबालिग कोपार्सनरोंके मामलेमें लागू नहीं होती क्योंकि नाबालिग रज़ामन्दी नहीं दे सकता-लेकिन फिरभी कलकत्ता हाईकोर्टने हालके एक मुकदमे में तमादी हो जानेपर भी एक नाबालिग कोपार्सनरको मुहई बनाया, देखो-ठाकुर मनी बनाम दाईरानी 33Cal.1079 यह मुकदमा खान्दानी जायदादके रेहननामाकी मंसूखीका था।
उदाहरण--'महेश' और 'शिव' एक मुश्तरका खान्दानके मेम्बर हैं उस खान्दानका एक मकान बम्बईमें है गणेश उस मकानमें रहता है। महेश यह कहकर कि गणेशको उस मकानमें रहनेका अधिकार नहीं है, गणेशसे क़ब्ज़ा पानेका दावा करता है यह दावा महेशने अकेले किया अर्थात् शिव को शामिल नहीं किया। दावा अदालतमें पहिली जनवरी सन १६११ ई० को दायर किया गया इस दावा दायर करनेकी कानूनी मियाद आखिरी पहिली अगस्त सन १९११ ई० थी, यानी कानून मियादके अनुसार पहिली अगस्त १९११ तक दावा दायर हो जाना ज़रूरी था पीछे तमादी हो जाती थी। अब जो दावा ता पहिली जनवरी सन् १९११ ई० को दायर किया गया था उसकी पहिली पेशी अदालतमें तारीख पहिली सितम्बर सन् १९११ ई० को हुई। उस दिन गणेश मुद्दाअलेहने अदालतमें अर्ज़ किया कि इस केसमें शिवको मी मुद्दई बनाना चाहिये । ऐसे मामले में स्पष्ट है कि शिव को भी मुद्दई बनाना चाहिये । ऐसा मानो कि अदालतने शिवको मुद्दई बनाया तो गोया पहिली सितम्बर सन् १९११ ई० को ही शिवके सम्बन्धमें मुकद्दमा शुरू हुआ (लिमीटेशन एक्ट सन १९०८ ई० की दफा २२ ). अर्थात् शिव कानूनी मियाद के खतम होनेके बाद मुद्दई बनाया गया ऐसी सूरतमें कुल मुक़द्दमा
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मुश्तरका खान्दान
[छठवां प्रकरण
अवश्य खारिज किया जायगा यानी महेशने जो मुक़द्दमा मियादके अन्दर दायर किया था वह भी खारिज हो जायगा । नतीजा यह हुआ कि ऐसी सूरतमें शिव को मुद्दई बनानेसे कोई लाभ नहीं होगा इसीलिये कोर्ट शिवको बिना मुद्दई बनाये मुक़द्दमा खारिज कर सकती है।
अब ऐसा मानो कि ऊपर कहे हुये उदाहरणमें महेश खान्दानका मेनेजर हो और शिव बालिग हो ऐसी सूरतमें गणेशके एतराज़ करनेपर अदालत शिवको फरीक बनायेगी मगर तमादी होनेपर भी मुक़द्दमा खारिज नहीं कर देगी यानी मुकद्दमा अदालतमें सुना जायगा।
मुश्तरका खान्दानके सम्बन्धमें अदालत एक सदस्यको दूसरे सदस्यको वली नहीं नियत कर सकती--गार्जियन एन्ड वार्ड्स ऐक्टकी दफा ७ बलवीर बनाम छेदीलाल 85 I. C. 276; A. I. R. 1925 Oudh 642.
संयुक्त हिन्दू परिवारके सम्बन्धमें यह निश्चित कानून है कि बहुत सी अवस्थाओंमें केवल प्रबन्धक सदस्यको हो फ़रीन बनाना पर्याप्त होता है। ओरीराम दुबे बनाम केदारनाथ 7 L. R. 63 (Rev).
प्रतिनिधित्व बापका-जब किसी मुश्तरका खान्दानका पिता नालिश करता है या उसके खिलाफ नालिश की जाती है तो यह समझा जाता कि उसके द्वारा या उसके खिलाफ की हुई नालिश बहैसियत खान्दानके प्रतिनिधिके कीगयी है, नारायन बनाम मु० धूदा बाई, 21 Nag. L. R. 38; A. I. R. 1925 Nag. 299. दफा ४३७ सब कोपार्सनरोंको मुद्दई बनाया जाना
ऊपर कही बातोंसे ( दफा ४३६ ); स्पष्ट है कि दूसरे कोपार्सनरोंका फरीक मुकद्दमा बनाये जानेका सवाल क़ानून मियादकी कैदके कारण इतना अवश्यक होगया है । अगर क़ानून मियादकी दफा २२ वी न होतो इस प्रश्नके विचारकी इतनी आवश्यकता न थी क्योंकि दौरान मुक़द्दमें में किसी समय वह फ़रीक बनाये जा सकते थे। कानून मियादकी दफा २२ की इतनी कड़ी शौसे और इसके सम्बन्धकी नज़ीरोंके मतभेदके कारण उचित यही है कि जब किसी हिन्दू मुश्तरका खान्दानकी तरफसे कोई दावा दायर किया जाय तो सब कोपार्सनरोंका चाहे वह बालिग हों और चाहे नाबालिग हों मुद्दई बनाये जायें। अगर उनमें से कोई मुद्दई बननेसे इन्कार करे तो वह मुद्दाअलेह बनाया जाय । अब तक इस विषयमें जो कुछ निश्चित हो चुका है वह यह है कि मुश्तरका खान्दानके कारबारमें (जैसे रुपयाका लेन देन ) जिसको कि खान्दानका कोई एक या ज्यादा आदमी मेनेजर या मेनेजरोंकी हैसियतसे करते हों और उनको अपने नामसे कंट्राक्ट करने का अधिकार हो
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दैफा ४३७-४३८)
अलहदा जायदाद
तो ऐसी सूरतमें मेनेजर कंट्राक्टोंके विषयमें अकेले अपने नामसे अदालतमें दावा दायर कर सकता है । परन्तु इसमें भी दो या दो से ज्यादा मेनेजर अगर हों और कंट्रीक्ट सबने मिलकर किया हो तो वह सब मुद्दई बनाये जायेंगे नहीं तो कानून मियादकी २२ वी दफा लागू पड़ेगी देखो--रामसेवक बनाम रामलाल 6 Crl. 817.
मुर्तहनको मुद्दई बनानेपर-जब किसी मुर्त हिनकी नालिशमें, जो उसने गहिनके खिलाफ दायरकी थी, मुर्तहिनोंमें से किसी एकका नाबालिग पुत्र मुद्दाअलेह न बनाया गया; जिसपर यह विरोध उठाया गया कि नालिश ब वजह गैर शामिली फ़रीक़ के नाजायज़ है । तय हुआ कि मुद्दईको असली दस्तावेज़ लिखने वालोंके खिलाफ डिकरीपानेका अधिकार है । राहिनके सम्बन्धमें यह नहीं कहा जा सकता कि वे नाबालिगके अधिकारके प्रतिनिधि थे।
यह भी तय हुआ कि नाबालिगके लिये अवसर है कि वह इन्तकालसे बचे, उन अधिकारों के द्वारा जो हिन्दूला के अनुसार नाबालिगोंको प्राप्त है। नाथू बनाम रामस्वरूप 23 A. L.J. 246 47 All. 427; 87 1. C. 700%; A. I. R. 1925 All. 385.
नोट-कानून मियादके डरसे ध्यान रखना कि जब कोई नालिश मुश्तरका खानदानकी तरफ से दायर करना हो तो सब फरीक खानदान वालोंको मुद्दई बना लेना और जो इनकार करे उसे पुद्दा. अलेह बनाना
दफा ४३८ सब कोपार्सनरोंका मुहालेह बनाया जाना
जब किसी आदमीको मुश्तरका खान्दानके किसी आदमी (कोपार्सनर) पर दीवानी अदालतमें कर्जे या दूसरी किस्मका दावा करना हो. जिस मामले का बोझ मुश्तरका खान्दानपर हो तो मुद्दईको चाहिये कि उस खान्दानके सब (आदमियोंको मुदाअलेद बनाये अगर किसी एकको बनायेगा तो अकेले उसी एकपर डिकरी होगी, और उस डिकरीको मुद्दई सारी मुश्तरका जायदाद पर जारी नहीं करा सकेगा, जिस एक आदमीके ऊपर डिकरी होगी उसीके हिस्से पर जारी करा सकता है । अगर मुश्तरका खान्दानमें कोई नाबालिरा हों तो उन्हें भी मुद्दाअलेह बनाना चाहिये क्योंकि मिताक्षरालॉके अनुसार कोपार्सनर अपनी पैदाइशसे पैतृक जायदादमें हिस्सेदार हो जाते हैं। जब नाबालिग. मुहाअलेह बनाया जाय या बनाये जायें तो उनका बली करार दिया जायगा, देखो इस किताबका प्रकरण ५.
अनिश्चित हिस्सेके खरीदारको क्या करना चाहिये-किसी मुश्तरका खान्दानकी जायदादके किसी अनिश्चित भागके खरीदने वालेको, एक इस प्रकारकी नालिश दायर करनी चाहिये, जिसमें पूरी मुश्तरका जायदाद शामिल
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मुश्तरका खान्दान
[ छठवां प्रकरण
हो, आवश्यक व्यक्ति फ़रीक़ हों । इस प्रकारकी नालिशमें अदालतको चाहिये कि इन्तक़ालपर अमल करनेके लिये उस जायदाद के हिस्सेदारोंके अनुसार हिस्से नियत कर दे और उस व्यक्तिको, जिसके हक़में इन्तक़ाल किया गया है, जितना हिस्सा इस प्रकार श्राये दे दे, नारायन बनाम धुवा बाई 21 Nag. L. R. 38; A. I R. 1925 Nay. 299.
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फरीकों का मिलाया जाना एक रेहननामेपर एक हिन्दू पिताके विरुद्ध नालिश - मियादकी बात उनका फ़रीक बनाया जाना - मु० राजवन्ता बनाम रामेश्वर 28 O. C. 393; A. I. R. 1925 Oudh. 440.
दफा ४३९ मेनेजरपर डिकरी
( १ ) सारे मुश्तरका खान्दानकी तरफसे काम करने वाले मेनेजर पर अगर किसी क़र्जेकी डिकरी हुई हो और वह क़र्ज़ उस मेनेजरने खान्दान या खान्दानके कारोबारके लिये लिया हो तो सारी मुश्तरका जायदाद पर डिकरी जारीकी जासकेगी । चाहे मुश्तरका खान्दानके अन्य आदमी उस मुक़द्दमेमें मुद्दा अलेह न भी बनाये गये हों; देखों-दौलतराम बनाम मेहरचन्द 15 Cai. 70, 14 I. A. 187; शिवप्रसाद बनाम राजकुमार 20 Cal. 453; वल्देव बनाम मुबारक 29 Cal. 583; कुञ्जन बनाम सिधा 22 Mad 461; हरी बनाम जै राम 14 Bom. 597; भाना बनाम चिंडू 21 Bom. 616; काशीनाथ नाम चिमनाजी 30 Bom. 477; सखाराम बनाम देवजी 23 Bom. 372; शिवशङ्कर बनाम जाडोकुंवर 411. A. 216; 36 All 383; 33 All. 71.
( २ ) परन्तु अगर अकेले मेनेजरकी जातिपर डिकरी हुई हो और वह क़र्ज़ चाहे मेनेजरने खान्दानके लिये या खान्दानके कारवारके लिये लिया हो तो भी वह डिकरी सारी मुश्तरका जायदादपर जारी नहीं हो सकेगी सिर्फ मेनेजरके हिस्से जायदादपर जारी होगी; देखो - गुरुबप्पा वनाम भिम्मा
10 Mad. 316.
उदादरण - महेश, शिव और गणेश एक हिन्दू मुश्करका खान्दानके मेम्बर है । इनमें महेश और शिव दोनों मेनेजर हैं, इन दोनोंने खान्दान की ज़रूरतों के लिये वरुणसे ५०००) रु० क़र्ज़ लिया । वरुणने महेश और शिव दोनों मेनेजरों पर दावा किया और अदालत से उनके ऊपर मैनेजर की हैसियतसे डिकरी प्राप्तकी तो यद्यपि गणेश उस मुक़द्दमे में मुद्दालेह नहीं बनाया गया था तथा वह नाबालिग भी था तोभी वह डिकरी सारी मुश्तरका खान्दानकी जायदादपर जारीकी जासकेगी । इसी तरहका एक केस देखोबल्देव बनाम मुवारक 29 Cal. 583; दौलतराम बनाम मेहरचन्द 15 Cal. 70; 14 I. A. 187.
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दफा ४३६-४४०]
अलहदी जायदाद
__ अब ऐसा मानों कि कन्ट्राक्टके मामलेमें फरीक होनेके कारण वरुण को, महेश और शिवकी ज़ातपर भी डिकरी मिल सकती है, ऐसी डिकरी वह महेश और शिवकी अलहदा जायदादपर भी, जारी करा सकता है परन्तु गणेशकी जातपर डिकरी कभी नहीं पासकता चाहे गणेश बालिग्न भी होता क्योंकि गणेश उस कन्ट्राक्टमें शरीक न था।
(३) हालमें एक मुकद्दमा इस किस्मका हुआ है कि जिसमें मुश्तरका खान्दानके मेनेजरपर एक गैर मनकूला जायदादके बैबातकी डिकरी हुई, उस मुक़दमे में दूसरे कोपार्सनरोंने अदालतमें यह उज्र पेश किया कि चूकि वे उस मुक़द्दमेमें मुद्दाअलेह नहीं बनाये गये थे इसलिये मुश्तरका खान्दानकी जाय. दादका उनका हिस्सा उस डिकरीका पाबन्द नहीं होना चाहिये। प्रिवीकौंसिल के जजोंने यह राय दी कि वह पाबन्द हैं यद्यपि फरीक नहीं बनाये गये थे। जजोंने फरमाया कि “हिन्दुस्थानी नजीरोंको देखते हुये और जिनसे हमारा मतभेद नहीं है इस बातमें कोई सन्देह नहीं मालूम होता कि बैबातके मुकदमे सहित कितनेही मामलोंमें मुश्तरका खान्दानके मेनेजर खान्दानकी तरफसे ऐसी पूरी तरहसे काम करते हैं कि उससे सारे खान्दानका पाबन्द होना समझा जाता है वर्तमान मुक़दमे में भी यही सिद्धान्त लागू होना चाहिये इस मामलेमें ऐसा समझने का कोई कारण नहीं है कि मेनेजरोंने खान्दानके लिये काम नहीं किया" टान्सफर आफ प्रापर्टी एक्ट सन १८८२ ई० की दफा ८५ और ज़ाबता दीवानीके आर्डर ३४ रूल १ का कोई प्रश्न इस मामलेमें नहीं उठता क्यों कि रेहन रखने वालेको रेहन रखते समय इस बातकी सूचना कोई नहीं मिली थी कि मुंबईका भी हक़ उसमें शामिल है। देखो-शिवशङ्कर बनाम जाधोकुंवर 41 I. A. 216; 36 All. 383. 33 All. 71. . दफा ४४० बापके ज़ाती कर्जेकी डिकरी
मुश्तरका खान्दानके मेनेजरके ज़ाती कर्जेकी डिकरी, खान्दानके दूसरे लोगोंको पाबन्द नहीं करती। लेकिन अगर मेनेजर बाप हो तो उसके ज़ाती कर्जेकी डिकरीक पाबन्द उसके लड़के पोते, परपोते, भी होते हैं मगर वह सिर्फ मुश्तरका जायदादके अपने हिस्से तक पाबन्द माने गये हैं। यह बात इसलिये कानूनमें मानी गयी है कि हिन्दू धर्म शास्त्रानुसार पुत्र और पौत्र अपने पिता और पितामहके कर्ज देनेके पाबन्द माने गये हैं मगर शर्त यही है कि वह क़र्ज़ जायज़ ज़रूरतके लिये लिया गया हो। यह कायदा प्रपौत्र और प्रपितामह या अन्य किसी कुटुम्बीके दरमियानमें लागू नहीं होता।
पिता द्वारा कर्ज गैर तहज़ीब-जब किसी ऐसी डिकरीकी तामीलमें, जो केवल पिताके खिलाफ हो, संयुक्त परिवारकी जायदाद नीलाम की जा रही हो, तो पुत्र उस डिकरीसे तब तक छुटकारा नहीं पा सकते, जब तक
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१२२
मुश्तरका खान्दान
[छठवां प्रकरण
यह यह न साबित करें, कि पिता द्वारा लिया हुआ क़र्ज़ ऐसा क़र्ज़ है जिसे हिन्दूला गैर तहज़ीब क़रार देती है-रजीतसिंह बनाम रम्मनसिंह 87 I. C. 654; A. I. R. 1925 All 781. ' नाबालिराके मेनेजर व वली--हिन्दू नाबालिगोंके पिता द्वारा किया हुआ इन्तकाल, जो वह न केवल संयुक्त हिन्दू परिवारके प्रबन्धकर्ताकी हैसियतसे बल्कि नाबालिगोंके वलीकी हैसियतसे करता है वादुलनज़री उनपर लाजिमी है। चाहे पिताके अधिकार वलीसे कम हों या अधिक; किन्तु जब तक यह न साबित किया जाय कि इन्तकाल अनावश्यक या गैर कानूनी तरीकेपर किया गया है तब तक इन्तकाल बादुलनज़री जायज़ होगा-अलागर आयंगार बनाम श्रीनिवास आयंगार 22 L. W. 515; (1925 ) M. W. N. 777; A. I. B. 1925 Mad. 128.
पिता द्वारा रेहननामा--व्यक्तिगत ज़िम्मेदारी-मुश्तरका स्वान्दानी जायदाद-पुत्रोंके अधिकार-यदि नीलामके योग्य हैं, मु० महराजी बनाम राघोमन A. I. R. 1926 Oudh 6].
हिन्दु पिता द्वारा दुरुपयोग-पुत्रों की जिम्मेदारी नहीं है-रामेश्वर सिंह बहादुर बनाम दुर्गा मन्दिर 7 Pat. L. J. 42; A.L. R.1926 Pat.14.
. एक हिन्दू पिताने किसी अन्य व्यक्तिके हाथ मुश्तरका खान्दानी जायदाद बेची। कुछ हिस्सेदारोंकी तहरीकपर बयनामा मंसूख कर दिया गया, जिसपर खरीदारने पिताके खिलाफ क़ीमत खरीद वगैरः के वापस करनेका दावा किया । मुकद्दमेंके दौरानमें ही पिता मर गया और उसका पुत्र बतौर कानूनी प्रतिनिधिके फरीक बनाया गया। तय हुआ कि पुत्रके विरुद्ध जो अपने पिताका कानूनी प्रतिनिधि है डिकरी दी जाय और उसकी तामील उसकी अधिकृत जायदाद पर, जिसपर हिन्दूलॉ के अनुसार पिताके ऋणोंकी जिम्मेदारी है की जाय--कल्लूमल बनाम परतापसिंह 92 I. C. 787; A. I. R. 1926 Ondh 301.
कैसे हनशिफ़ाका क़र्ज़, जायदादपर बाप नहीं डाल सकता- साधारण सरीक्रेपर हिन्दू पिता पैतृक जायदादपर, किसी दूसरी जायदादके हक़शिफ़ेके लिये कर्जका भार नहीं डाल सकता, शङ्करशाही बनाम बैजूराम 23 A. L. J. 204; 47 A. 381; L. R. 6 All. 214; 86 I. C. 769; A. I. R. 1925 All. 333. दफा ४४१ बापका किसी नाबालिगके दावामें समझौता करलेना
हिन्दु नाबालिगका बाप मुश्तरका हिन्दू खान्दानका मेम्बर और मेनेजर है, किसी नालिश करने की गरज़से वह उस नाबालिग्रका वली बनाया गया
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अलहदा जायदाद
५२३
दफा ४४१ ]
तो ऐसी सूरत में जानता दीवानी सन् १९०८ ई० का आर्डर ३२ रूल ७ लागू पड़ेगा अर्थात् वह अदालतकी मंजूरी के बिना उस मुक़द्दमेंमें कोई तसफ़ीया ( समझौता) नहीं कर सकता । अगर उसने बिना अदालतकी मंजूरी प्राप्त किये समझौता ( Concent decree ) कर लिया हो या कोई एकतरफा अपने ऊपर डिकरी करवाली हो तो उसका नाबालिग पाबन्द नहीं माना जायगा, ऐसा समझौता रद्द कर दिया जायगा, देखो - गनेशा बनाम तुलजाराम 36 Mad. 295; 40 I. A. 132.
उक्त जाबता दीवानी के रूल ७ का मतलब यह है कि "कोई रिश्तेदार या वली दौरान मुक़द्दमा, इस बातका अधिकारी नहीं होगा कि बिला मंजूरी अदालत के नाबालिग की तरफ़से कोई इक़रार करे या सुलहनामा, या समझौता उस मुक़द्दमें में करे जिसमें कि वह बहैसियत वली या हितैषीके नियुक्त हो"
नाबालिग साझीदारपर भी, तामील तलब मुआहिदोंके सम्बन्धमें वही पाबन्दी होती है, जो तामील शुदा मुआहिदों के सम्बन्धमें है । इसलिये नाबालिग उस मुआहिदेको कार्यमें परिणित कर सकता है जिसके लिये वह बाध्यं हो, लक्ष्मीचन्द बनाम खुशालदास 18S. L. R. 2303A. I.R 1925Sind.330.
घरू समझौता - ( १ ) यह आवश्यक नहीं है कि किसी पारिवारिक प्रबन्धके जायज़ और लाज़िमी होनेके लिये, परिवार के सभी सदस्य उसके फ़रीक हों । यदि परिवारके कुछ सदस्य श्रापसमें मिल जांय और अपने झगड़े का कोई समझौता करलें, तो कोई कारण नहीं है कि वह समझौता पारिवा रिक प्रबन्ध न समझा जाय, तेजबहादुर खां बनाम नक्कू खां A. I. R. 1927 Oudh. 97.
( २ ) जब किसी अन्तिम पुरुष अधिकारीके परिवारके सभी सदस्य, विधवाकी मृत्यु पश्चात् दाखिल खारिज कराने के लिये मिल गये और अदालत मालमें यह दरख्वास्त की, कि उन सभी के नाम बिना किसी रिश्ते या दर्जेके लिहाज़ के मोहकमा मालके कागज़ातो में चढ़ा दिये जांय, तो उनके संम्बन्धमें यह कल्पनाकी जायगी; कि वे पारिवारिक प्रबन्धके अन्तर्गत हैं और अपने समस्त भावी झगड़ों को, जिनकी तहरीर या रजिस्ट्रीकी आवश्यकता नहीं है निश्चित कर चुके हैं, तेजबहादुर खां बनाम नक्कू खां 35 All. 502, 37 All. 105; 17 O. C. 108, 19 O. C. 75 & 22 O. C. 300 full. A I. R. 1927 Oudh. 97.
( ३ ) इस अभिप्रायके लिये कि किसी परिवारका प्रबन्ध अच्छा प्रबन्ध समझा जाय, यह आवश्यक नहीं है कि कोई अदालती कार्यवाही होती हो या किसी प्रकारकी अदालती कार्यवाही, जिसका परिणाम परिवारके पक्ष में विदित होता हो चल रही हो । पारिवारिक प्रबन्धके सिद्धान्तका विस्तार
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[ छठवां प्रकरण
उसी सीमा तक नहीं है, जहां तक कि उसके सदस्योंके शान्ति पूर्वक रहनेका प्रबन्धमें बल्कि उसका असली सम्बन्ध प्रबन्धके उन मामलातोंसे है जो कि पारिवारिक सदस्योंके मध्य उनकी जायदादके सम्बन्धमें हों, सदाशिव पिल्ले बनाम शानमुगम पिल्ले A. I. R. 1927 Mad. 126.
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मुश्तरका खान्दान
(४) पुत्रपर पिता ऋणकी जिम्मेदारी, जो गैर तहज़ीबी न हो, उसी प्रकार है, चाहे उसका अमल अदालत द्वारा हो या किसी खानगी समझौते द्वारा । केवल वह जायदाद जिसे महाजन पिताके जीवन में नीलाम करा सकता था, ऐसी जायदाद है, जिसे वह उसकी मृत्युके पश्चात् भी नीलाम करा सकता है, बिन्दाप्रसाद बनाम राजबल्लभ सहाय 91 I. C. 785 48A, 245 24 A. L. J. 273; A. I. R. 1926 All. 220.
यह एक हिन्दू पिता के लिये योग्य है कि वह तमाम मुश्तरका खान्दान का. जिसमें कि वह स्वयं और उसके नाबालिग पुत्र हों, उसके खिलाफ किसी रेननामेकी नालिशमें, प्रतिनिधि हो । फलतः जबकि राहिनके पुत्र रेहननामे की रकमकी अदाईकी मियाद से १२ वर्षके बाद मुद्दालेह बनाये जांय, तो उनके खिलाफ नालिशमें तमादी नहीं होती, मु० राजवन्त बनाम रामेश्वर 12 O. L. J. 235; 87 I. C. 180; A. I. R. 1926 Oudh. 440.
मुश्तरका जायदादका इन्तक़ाल
दफा ४४२ मुश्तरका जायदादका इन्तक़ाल कौन कर सकता है
नीचे लिखे हुये आदमी मुश्तरका खान्दानकी जायदादका इन्तक़ाल कर सकते हैं और इन्हींका किया हुआ इन्तक़ाल जायज़ माना जायगाः( १ ) जिस खान्दानमें सब बालिग़ कोपार्सनर हों और सब बालिय कोपार्सनर मिल कर जब जायदादका इन्तक़ाल करें, देखो -महाबीरप्रसाद बनाम रामयाद 12 Beng. L. R 90, 94.
(२) मुश्तरका खान्दानका मेनेजर सिर्फ उन सूरतोंमें जिनका ज़िकर इस किताबकी दफा ४२६ में किया गया है ।
(३) बाप, सिर्फ वहां तक जिस क़दर कि दफा ४४४ में बताया गया है । ( ४ ) वह एक कोपार्सनर जो अन्य कोपार्सनरोंके मर जानेके बाद जीता
रहा हो उन सूरतों में जिसका ज़िकर दफा ४४५ में किया गया है । जिस किसी हिन्दू मुश्तरका खान्दानमें दो या दो से ज्यादा को पार्सनद हों तो कोई भी कोपार्सनर अन्य कोपार्सनरोंसे अधिकार पाये बिना
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दफा ४४२-४४३ |
मुश्तरका खान्दानकी जायदादका इन्तक़ाल नहीं कर सकता अगर करे तो दूसरे कोपार्सनर उसके पाबन्द नहीं होंगे और वह इन्तक़ाल भी नाजायज़ माना जायगा देखो - गुरुवय्या बनाम थिम्मा 10 Mad. 316 शिवप्रसाद बनाम साहेबलाल 20 Cal. 453-461; कृष्णा बनाम कृष्णसामी 23 Mad. 597, 600.
मुश्तरका जायदादका इन्तक़ाल
५२५
दफा ४४३ नाबालिग होनेपर मुश्तरका जायदाद कैसे खरीदी जाय
ऊपर यह कहा जा चुका है कि जहांपर दूसरे नाबालिग कोपार्सनर हों, मेनेजर मुश्तरका खान्दानकी जायदादको न तो बेंच सकता है और न रेहन कर सकता है और न किसी तरहका इन्तक़ाल कर सकता है सिवाय उन सूरतोंके जब कि खान्दानी जायज़ ज़रूरतें हों देखो दफा ४३०, ४३१. अगर मुश्तरका खान्दानकी जायदादकी बिक्री बिना खान्दानी ज़रूरत के की गयी है तो उस बिक्रीको नाबालिग कोपार्सनर जब वह बालिग होंगे मंसूख करा देंगे इस तरहकी विक्रीमें खरीदार के लिये जोखिम है। अकसर ऐसा होता है कि जहांपर मुश्तरका खान्दानकी जायदादमें नालिगों का भी हिस्सा होता है तो खरीदार इस डरसे जायदादका पूरा दाम बाज़ारी भावसे देना नहीं चाहता जब तक कि मेनेजर अदालतसे नाबालिगोंकी तरफसे जायदाद
की मंजूरी न लेवे। ऐसे मामलेमें जहां नाबालिग कोपार्सनर हों मेनेजर को अदालतसे मंजूरी प्राप्त कर लेना ज़रूर चाहिये ।
अगर बेची जानेवाली जायदाद हाईकोर्टके 'ओगेजिनल जुरिस्डिक्शन' के अन्दर हो तो मेनेजरको चाहिये कि अदालतसे प्रार्थना करे कि वह उसे वली नाबालिगों का बनादे और उस जायदाद के बेंचे जानेकी मंजूरी दे जिसमें नाबालिगों का हिस्सा है देखो - 25 Bom. 353; 19Bom.96; 16Bom-634.
अदालतकी मंजूरी लेनेसे जायदादके खरीदारकी पूरी रक्षा होती है । अगर अदालतकी मंजूरी लेली गयी हो तो चाहे पोछेसे यह भी मालूम हो जाय कि कोई जायज़ ज़रूरत बिक्रीकी न थी तो भी वह बिक्री रद्द नहीं की जायगी मगर शर्त यह है कि खरीदारने कोई जालसाजी, या बेईमानी आदि न की हो; देखो - गङ्गाप्रसाद बनाम महारानी बीबी 11 Cal. 379; 383384; 12 I. A. 47, 50.
गार्जियन एन्ड वार्ड्स एक्ट सन १८६० ई० इस मामलेमे लागू नहीं होता क्योंकि इस क़ानून के अनुसार नाबालिराकी खुद अलहदा जायदाद के लिये ही वली. मुकर्रर हो सकता है लेकिन मुश्तरका जायदादमें नाबालिएको कोपार्सनरका हिस्सा उसकी अलहदा जायदाद नहीं है; 25 All. 407, 4163 30 I. A. 165, 170; 33 Mad. 139.
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मुश्तरका खान्दान
[छटवां प्रकरण
___ जबकि बेची जाने वाली जायदाद हाईकोर्टके 'ओरिजिनल जुरिस्डिक्शनमें' न हो तो खरीदारको चाहिये कि मेनेजरसे कहे कि दूसरी अदालत से जो मजाज़ मंजूरी देनेका रखती हो बेंचने की मंजूरी प्राप्त करे और अगर किसी सबबसे खरीदार अदालतकी मंजूरी मुनासिब न समझता हो तो उसे चाहिये कि बिक्रीकी ज़रूरतोंको अच्छी तरहसे और सब उपायोंसे ठीक जांच करले जो एक समझदारको योग्य रीतिसे करना चाहिये। दफा ४४४ बापके द्वारा मुश्तरका जायदादका इन्तकाल
मुश्तरका खान्दानकी जायदादके इन्तक़ाल करनेमें बापकी हैसियतसे बापको ऐसे खास अधिकार प्राप्त हैं जो किसी दूसरे कोपार्सनरको प्राप्त नहीं है वह अधिकार यह हैं. (१) बाप, इस किताबकी दफा ७६६, ४१८-२; में लिखी हुई हद तक पैतृक मनकूला जायदादको दान कर सकता है।
(२) बाप, पैतृक मनकूला और गैर मनकूला जायदादको अपने पुत्रों और पौत्रोंके हिस्से सहित अपने ज़ाती कर्जे के अदा करनेके लिये बेंच सकता है और रेहन कर सकता है बशर्तेकि वह क़र्जा जायज़ हो; देखो दफा ४४८.
(३) बाप, खान्दानके देवताके लिये पैतृक गैर मनकूला जायदादका बहुत थोड़ा सा भाग देवताके पूजन आदिके खर्चके लिये अलहदा कर सकता है देखो -रघुनाथ बनाम गोविंद 8 All. 76. यह निजका धर्मादा कहलाता है देखो दफा ८२३.
___ ऊपर कही हुई सूरतोंके सिवाय मुश्तरका खान्दानकी जायदादमें वाप के भी वही अधिकार हैं जो मेनेजरके होते हैं अर्थात् जब उसके पुत्र बालिग हों तो उनकी मरजी बिना या अगर नाबालिग हों तो जायज़ ज़रूरत बिना वह मुश्तरका खान्दानकी जायदादका इन्तकाल नहीं कर सकता; देखो-चिन्नै य्या बनाम पीरूमल 13 Mad. 51; 16 Mad. 84. बाला बनाम बालाजी 22 Bom. 825; 26 Bom. 163, 27 Mad. 162.
उस क़र्जके लिये जो किसी पहिलेके रेहननामेकी वजहसे हो,हिन्दू पिता संयुक्त खान्दानकी जायदादका इन्तकाल कर सकता है - चन्दूलाल बनाम मुकुन्दी 26 Punj. L. R. 120; 87 I. C. 40; A. I. R. 1925 Lah. 503.
पिताका कर्ज-खान्दानी जायदादकी जिम्मेदारी-किस क़दर है हरिहर प्रसाद बनाम महाबीर पांडे 27 0. C. 306; 1925 Oudh 91, . इसमें पाबन्दी नहीं मानी गयी-प्रभाव-आया पिताके हिस्सेपर जिम्मेदारी है ?-जुक्खू पण्डी बनाम माताप्रसाद 83 I. C. 1044; A.I. . 1925 Oudh. 94.
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मुश्तरका जायदाद का इन्तक़ाल
एक रेहननामेकी नालिशमें अदालत ने केवल पिताके खिलाफ रक़मकी डिकरी इसलिये दी कि क़र्ज गैर तहजीबी साबित हुआ । डिकीदार ने तामील डिकरीमें कुल पैतृक जायदाद मय उस जायदाद के जो रेहननाने में थी कुर्क कराई | खान्दानके दूसरे सदस्योंने एतराज किया और दलील पेश की कि क़र्ज ग़ैर तहज़ीबी होनेके कारण, उसकी पाबन्दी पैतृक जायदाद पर नहीं है। तय हुआ कि खान्दानके दूसरे मेम्बरोंका यह हक़ है कि वे बची हुई पैतृक जायदादपर अपने अधिकारको प्राप्त करें, किन्तु उन्हें यह अधिकार नहीं है कि वे उस जायदादपर पिताकी जायदादको कुर्क होने से रोकें, जिसके खिलाफ डिकरी है - शिवनाथप्रसाद बनाम तुलसी 23 AL. J 865; 89 I. C. 480; L. R. 6 A. 523; A. I. R. 1925 All. 801.
दफा ४४४ ]
५२७.
मुश्तरका खान्दान --पिता द्वारा इन्तकाल - रतन बनाम शिवलाल 4. I. R. 1925 Oudh 35.
मुश्तरका खान्दान -- पिता द्वारा इन्तकाल -- जब किसी मुश्तरका हिन्दू खान्दानके पिता द्वारा इन्तक़ाल किया गया हो, और रक़म मावजाका अधिक भाग पुराना कर्ज चुकाने या क़ानूनी आवश्यकताकी बिनापर हो, तो वह इन्तक़ाल जायज़ और पुत्रोंपर लाजिम होता है। यदि मावजेका वह भाग जो कानूनी आवश्यकतामें नहीं आता, अधिक होता है, तो अदालत उसपर अलाहिदा गैर करती है और उनके जायज़ होने या न होनेके सम्बन्धमें फैसला करती है--गौरीशङ्कर बनाम बद्रीनाथ 88 I. C. 474; A. 1. R. 1925 Oudh. 685.
जब किसी पिता द्वारा किये हुये इन्तक़ालका विरोध पुत्र द्वारा किया जाय, जिसमें कि मावजेके किसी हिस्सेकी पाबन्दी न हो, तो अदालतको उस रक्रमपर ध्यान देना चाहिये, जिसके सम्बन्धमें क़ानूनी आवश्यकता न हो । यदि वह रक्कम इतनी कम है कि वह हिसावमें छोड़ दी जा सकती है तो नीलाम बहाल रहना चाहिये नहीं तो मंसूख किया जाना चाहिये। दूसरी जांच इस प्रकार है कि यह देखा जाय कि आया वह रक़म जो आवश्यक थी सिवाय उस इन्तक़ालके जिसका विरोध किया गया है और किसी प्रकार प्राप्त की जा सकती थी - चन्द्रिकासिंह बनाम भागवतसिंह 83 1. C. 54; A. I. R. 1924 All. 170 पिता द्वारा लिया हुआ पहिलेका क़र्ज, यदि वह गैरकानूनी या गैर तहज़ीबी न हो, पुत्रपर लाज़िमी है और उसकी बिनापर किया हुआ इन्तक़ाल जायज़ है । उस सूरत में भी, जबकि बयनामेमें वर्णित किसी खास क़र्जके अदा करने की रकम, किसी दूसरे पहिलेके क़र्जके अदा करनेमें सर्फ कीगई हो, तो भी उसकी पाबन्दी पुत्रपर होगी । यह सूरत उस सूरतसे भिन्न है जबकि दस्तावेज़ में बेईमानी और धोखेबाज़ीसे, उस व्यक्तिको जो विरोध करनेका
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मुश्तरका खान्दान
[छठवां प्रकरण
अधिकारी है, विरोध करनेसे महरूम रखने की ग़रज़से ऐसी रकम दर्ज कराली जाती है-प्यारेलाल बनाम श्री ठाकुरजी L. R. 6 A. 537; 881. C. 964; 23 A L.J.909; A 1. R. 1926 Ail. 79.
पिता द्वारा मुश्तरका खान्दान की जायदाद का बयनामा-पुत्र दस्तावेज़का एक फ़रीक हो--रेहननामेके सुबूतके लिये ज़बानी शहादतपाया ली जा सकती है --रामचन्द्र हनुमन्त बनाम काशीनाथ लक्ष्मण 27 Bou. LR. 241, 87 I. C. 804; A. I. R. 1925 Bom. 288.
अब प्रिवीकौंसिलकी क्या राय है -राजा बहादुर राजा वृजनारायण बनाम मङ्गल प्रसादराय 2 All. L. 1. 934 ( P. C. ) का मुक्तहमा प्रिवी कौसिलसे तय हुआ है और इसी नज़ीरसे उस समय तकका सारा झगड़ा मिट गया । वाकियात यह थे-सीताराम अपने दो नाबालिग लड़कों सहित मुश्तरका खान्दानका मुखिया था । उसने १२ दिसम्बर सन १६०५ ई० और १६ जून सन १९०७ई० को मुश्तरका खान्दानकी जायदाद रेहनकी। इस रेहनसे छुटाने के लिये उसने फिर ता०२४ मार्च सन १९०८ ई० को दसरा रेहननामा रामनरायण और जगदीश प्रसादके हकमें लिखा । इन दूसरे मुरतहनोंने रेहन की एकतरफा डिकरी सीताराम पर सन १९१२ ई०में प्राप्त की। सन १९१३ई० में सीतारामके दोनों नाबालिरा बेटोंकी तरफसे उनकी मां ने एकतरफा डिकरी रद कराने और लड़कों का हक रेहनके मामलेसे साफ करनेका दावा किया । इस दावेमें बाप और दोनों मुर्तहिन मुद्दाअलेह बनाये गये। प्रारममिक अदालत ने दावा डिकरी किया यानी बेटोंका हक बरी किया और लड़कोंका सम्बन्ध जहां तक डिकरीसे था वहां तक उस डिकरीको खारिज कर दिया। हाईकोर्टने फैसला बहाल रखा अर्थात् बापके रेहनका जिम्मेदार लड़कोंको नहीं माना पीछे यह अपील हाईकोर्ट के फैसलेके विरुद्ध प्रिवी कौन्सिलमें किया गया। प्रिवी कौन्लिलके सामने सबसे ज़रूरी प्रश्न यह था कि मुश्तरका खान्दान का पैतृक ऋण अर्थात् मौरूसी कर्जा कौन है ? बापके किये हुये रेहनकी अदायगीके जिम्मेदार मुश्तरका खान्दानकी कुल जायदाद है ? साहू रामचन्द्र बनाम भूपसिंह 42 [. A. 127. वाली नजीरपर पूरी तरहसे विवेचन किया गया और अन्तमें तय हुआ कि बापने पहले पहल जो रेहननामे लिखे वह मौरूसी क़र्जा था और उन दोनों रेहननामोंके अदा करने के लिये दूसरा रेहननामा, इसलिये दूसरे रेहनका रुपया अदा करने की जिम्मेदारी मुश्तरका जायदादपर है जिसमें लड़कोंका हक़ शामिल है।
पहलेकी नजीरोंमें प्रिवी कौन्सिलकी यह राय थी कि बापने अगर पहले पहल रेहन कर दिया हो तो वह मौरूसी क़र्जा नहीं माना जायगा और इसी रायपर हज़ारों मुक़द्दमें फैसल होगये हैं अब नयी इस नजीरने पहले का सादा कानून बदल दिया। इस ग्रन्थके छपने के समय उपरोक्त बात मानी जाती है इस नजीरको ध्यानमें रखना चाहिये।
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दफा ४४५ ]
मुश्तरका जायदादका इन्तक़ाल
दफा ४४५ बचे हुए ( आख़िरी ) कोपार्सनर के द्वारा मुश्तरका जायदाद का इन्तक़ाल
अगर किसी मुश्तरका खान्दानमें आखिरी आदमी जीवित रह गया हों और उसके कोई लड़के, पोते, परपोते न हों तो वह अकेला मुश्तरका खानदानकी जायदादका बतौर अपनी अलहदा जायदाद के मालिक होता है । उसे उस जायदाद के बेच देने या रेहन कर देनेका बिना किसी कानूनी ज़रूरतके भी पूरा अधिकार है वह उस जायदादको दानके द्वारा अथवा वसीयत के द्वारा दे सकता है, देखो- -6 M. I. A. 309; 3 Bom. H.C A.C. 6.
५२६
अगर उस बचे हुये आदमीके, जिसने अपनी जायदादको बेंच दिया हो पीछे कोई लड़का पैदा हो जाय तो वह लड़का अपने बापके किये हुये उस इन्तक़ालको मंसूरन नहीं करा सकता जो उसके पैदा होने से पहिले किया गया था, अगर उस आदमीने मुश्तरका जायदादकी इन्तक़ाल बज़रिये वसीयतनामाके किया हो तो यह साफ़ नहीं हैं । पहिले यह सिद्धान्त समझ लो किं वसीयत का असर और हक्कउस वक्त से पैदा होता है जबकि वसीयत करनेवाला मरे । इसलिये दूसरा कोई कोपार्सनर अगर वसीयत करने के पीछे, तथा वसीयत करनेवाले के मरने से पहिले पैदा होगया- -या गोद लिया गया हो तब वह वसीयत जहां तक कि उसमें मुश्तरका खान्दानकी जायदादका सम्बन्ध रखा गया, रद हो जायगा । और वह मुश्तरका जायदाद सरवाइवरशिप ( दफा ५५८ ); के हक़ के द्वारा पीछे पैदा हुये या गोद लिये गये कोपार्सनर के पास चली जायगी । इसका नतीजा यह होता है किं जहांपर आखिरी मुश्तरका खान्दानके आदमीने, मुश्तरका खान्दानकी जायदादको बज़ रेये वसीयत के इन्तक़ाल किया हो तो वह वसीयतनामा, वसीयत करनेवाले आदमीके वसीयतकी तारीख के पश्चात् लड़का पैदा होनेसे या गोद लेनेसे, या दूसरे मरें हुए कोपार्सनरी किसी विधवाके गोद लेनेसे जो गोद वसीयत करने वाले के पहिले लिया गया हो, या उसके मरनेके बाद लड़का पैदा होनेसे, या मरे हुये कोपार्सनर के लड़का पैदा होनेसें, रद्द हो जायगा और बे असर हो जायगा, देखो - बच्चो बनाम मनकोरीबाई 31 Bom. 373, 341. A. 107, 12 Bom 105; 8 Mad. 89.
संयुक्त खान्दान- जहांकि बटवारेकी नालिश दायर होनेके पश्चात्, उस सदस्यने जो खान्दानका मुन्तज़िम था, खान्दानकी तरफ से, कुछ प्रामिजरी नोटका क़र्ज़, जो कि उसने खान्दानके फ़ायदेके लिये लिया था, चुकाया, और असली क़र्ज़को बाक़ी रखनेके लिये कुछ प्रांमिज़री नोटों को फिर लिख दिया ।
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मुश्तरका खान्दान
[छठवां प्रकरण
तय हुआ कि यद्यपि खान्दानके अलाहिदा हो जाने के बाद मुन्तज़िम द्वारा ऐसे प्रामिज़री नोटोंके नये किये जानेकी, जो तमादी होगये थे, जिम्मेदारी खान्दानके दूसरे सदस्योंपर नहीं है, यद्यपि खान्दानके दूसरे आदमीन्या. यानुसार उनके अदा करने के लिये बाध्य हैं -विश्वशङ्कर नारायन अय्यर बनाम कासी अय्यर 21 L. W. 25; 86 I. C. 225; A. I. R. 1925 Mad.453. - उदाहरण-ऐसा मानो कि महेश, शिव, और रामनाथ तीन हिन्द भाई मुश्तरका हिन्दु खान्दानके मेम्बर हैं और मिताक्षराला के पाबन्द हैं। शिव और रामनाथ महेशकी ज़िन्दगीमें मर गये अब महेश अकेला मुश्तरका खान्दानका आखिरी कोपार्सनर हुआ। महेश एक वसीयतके जरियेसेरामदत्त को मुश्तरका खान्दानकी जायदाद देकर मर गया उसने एक विधवा और एक लड़की छोड़ी, महेशकी विधवा जबकि महेश मरा था गर्भवती थी पीछे उसके एक लड़का पैदा हुआ तो वही लड़का सरवाइवरशिप के द्वारा उससब जायदादका मालिक होगा जो रामदत्तको वसीयतके ज़रियेसे दीगई थी। रामदत्तको कुछ भी नहीं मिलेगा, और अगर वसीयतके बाद और बापके मरने से पहिले लड़का पैदा हो जाता तो भी यही सूरत रहती। इसी क्रिस्मकामुकएमा, देखो-हनुमन्त बनाम भीमाचार्य 12 Bom. 105, 109, 110
मुश्तरका खानदानकी जायदादके लाभ अर्थात
मुनाफेका इन्तकाल
दफा ४४६ मुश्तरका जायदादका दान करना या वसीयत द्वारा
दान करना जिन प्रान्तोंमें कि मिताक्षराला माना जाता है वहांपर कोई भी कोपा. सनर मुश्तरका खान्दानकी जायदादके मुश्तरका लाभको न तो दानके द्वारा
और न वसीयतके द्वारा किसीको दे सकता है; देखो-बाबा बनाम टिम्मा 7 Mad. 357. पुन्नूसामी बनाम थाथा 9 Mad. 273. रामअन्ना बनाम वेंकट 11 Mad. 246. रोहाला बनाम पुलीकर 27 Mad. 162, 166. ऊदाराम बनाम रानू 11 Bom. H. C. 76. बिन्द्रावनदास बनाम जमनाबाई 12 Bom. H. C. 229. कालू बनाम बारसू 19 Bom. 803. विटलावुहन बनाम यामेन अत्रा 8 Mad. H. C. 6. लक्षमण बनाम रामचन्द्र 5 Bom. 48; 7 I. A. 181; 29 Bom. 351.
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दफा ४४६-४४७]
मुनाफेका इन्तकाल
हालका एक मुकदमा देखो-मोतीलालके कब्जे में मौरूसी जायदाद थी उसने बालकृष्णको गोद लिया उसी समय उसने एक वसीयत लिखा जिसमें यह भी लिखा कि "श्रीउत्तर नारायणजीके मन्दिर में दीपक जलाने के लिये २०) रु० वार्षिक दिया जाया करे" कुछ दिन बाद वह मर गया दत्तक पुत्रने रु० देना बन्द कर दिया तब मन्दिरके मेनेजरने तीन वर्षके बनाया की नालिशकी अदालतने वसीयतके आधारपर दावा डिकरी किया अपीलमें फैसला बहाल रहा, दत्तक पुत्रने बम्बई हाईकोर्टमें अपीलकी । अपीलांटकी तरफसे बम्बई हाईकोर्टके सुप्रसिद्ध वकील पं० पद्मनाम भास्कर सिंगणेने बहसमें कहा कि मस्तरका हिन्द्र परिवारका कोई कोपासनर वसीयत नहीं कर सकता इस मामले में जब मोतीलालने बालकृष्णको गोद ले लिया तो वह दत्तक पुत्र कोपार्सनर होगया ऐसी दशामें वसीयत करनेका हक ही नहीं रहा हाईकोर्टने यह बात मानी और अपील डिकरी किया मन्दिरके मेनेजर का दावा खारिज हुआ, देखो-बालकृष्ण मोतीराम गजर बनाम भीउत्तर नारायणदेव 21 Bom. L. R. 225. .. अगर किसी कोपार्सनरके पास उनकी कोई दूसरी अलहदा जायदाद है तो वह उसे अपनी मरजीके अनुसार जिसको जी चाहे दे सकता है। देखो दफा ४१८, ४१६.
पुत्र द्वारा मंसूखीकी नालिश-जायदाद पिताके हिस्से में दीगई और बाकी सम्पत्ति पुत्रके हिस्से में-आया उचित है-तय हुआ कि अनुचित हैघरदाराजलू चेट्टी बनाम वेलायुद्ध उदायन 22 L. W. 230; 90 I. C. 7439 A. I. R. 1925 Mad. 1160. दफा ४४७ मुश्तरका जायदादका बेंचना या रेहन करना
(१) बम्बई और मदरास प्रान्तमें जैसाकि मिताक्षरालाका अर्थ माना गया है उसके अनुसार उक्त दोनों प्रान्तोंमें हर एक कोपार्सनर मुश्तरका खान्दानकी जायदादका मुश्तरका लाभ, दूसरे कोपार्सनरोंके बिना पूछे कीमत के बदलेमें बेंच सकता है, रेहन कर सकता है और किसी दूसरे तरीक्रेपर भी इन्तकाल कर सकता है। देखो--तुकाराम बनाम रामचन्द्र 6 Bom. H. C. A.C. 247. बासुदेव बनाम बेंकटेश 10 Bom. H. C. 139. फकीराया बनाम चानप 10 Bom. H. C. 162. एय्यागरी बनाम एय्यागरी 25 Mad. 690, 703. लक्षमण बनाम रामचन्द्र 5 Bom. 48, 61; 7 1. A. 181, 195. सूर्यवंशीकुंवर बनाम शिवप्रसाद 5 Cal. 148. 1663 6 I. A.88, 101,102. बालगोविन्ददास बनाम नारायनलाल 15 All 339,351; 20 1.A.116,125.
(२) बङ्गाल और संयुक्त प्रान्तमें जैसाकि मिताक्षगलॉका अर्थ माना गया है उसके अनुसार उक्त दोनों प्रान्तोंमें कोई भी कोपार्सनर मुश्तरका
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मुश्तरका खान्दान
[छठवां प्रकरण
खान्दानकी जायदादके मुश्तरका लाभको बिना दूसरे कोपार्सनरोंकी मंजूरीके कीमतके बदले में किसी तरहका इन्तकाल नहीं कर सकता: देखो-माधोप्रसाद धनाम मेहरवानसिंह 18 Cal, 157; 17 I. A. 194. सदावर्तप्रसाद बनाम फूलवास 3 Beng. L. R. F. B. R. 31. कालीशङ्कर बनाम नवाबसिंह 81 All. 507. बालगोविन्ददास बनाम नरायनलाल 15 All. 339-351; 20 I. A. 116-125. और देखो मुहम्मद बनाम मिथ्थूलाल 31 All. 783. चन्द्रा बनाम दम्पति 16 All. 369.
मगर बाप या दादा मुश्तरका खान्दानकी जायदादका इन्तकाल कर सकता है देखो दफा ४४८. मिताक्षरालॉका दृढ़ सिद्धान्त है, कि हर एक कोपार्सनर मुश्तरका खान्दानकी सम्पूर्ण जायदादमें मालिकाना अपना हक़ रखता है इसलिये कोई एक कोपार्सनर बिना दूसरे कोपार्सनरोंकी मंजूरीके मुश्तरका खान्दानकी जायदादकी किसी आमदनीको इन्तकाल नहीं कर सकता । मिताक्षरालॉ का यह सिद्धान्त दृढ़ताके साथ बङ्गाल और संयुक्तप्रांत में माना जाता है, लेकिन बम्बई और मदरास प्रांतमें मिताक्षरालॉ का उक्त दृढ़ सिद्धान्त मुश्तरका खान्दानकी जायदादके इन्तकालके सम्बन्धमें मुलायमियतके साथ बर्ताव में लाया जाता है।
भावी वारिसोंकी मंजूरीसे विधवाका इन्तकाल-विधवा द्वारा किसी पूर्व इन्तकाल जायदादमें किन्ही कल्पित भावी वारिसोंकी स्वीकृत लिये जाने के कारण, वरासतका समय आनेपर जीवित भावी वारिसोंके, चाहे वे भावी वारिसोंके पुत्रही हों, किसी मौजूदा इन्तकालमें कानूनी आवश्यकतापर एतराज करने में बाधा नहीं पड़ती-तुकाराम बनाम गनपत 26 Cr. L.J. 327 (2); 84 1. C. 551 (2); A. I. R. 1923 Nag. 156. दफा ४४८ जब बापने अपना क़र्जा चुकानेके लिये जायदाद
का इन्तकाल किया हो उन सय प्रान्तोंमें जिनमें कि मिताक्षराला माना जाता है, अगर किसी हिन्दू मुश्तरका खान्दानका फैलाव सिर्फ़ बाप और उसके लड़कोंही तक हो तो बाप अपने निजके कर्जे या पहिलेके कोंके लिये मुश्तरका खान्दानकी जायदादका अपना हिस्सा और अपने लड़कोंका भी हिस्सा दोनों बेच सकता है और रेहन कर सकता है। अगर वह कर्जे किसी अनुचित या कानूनन् नाजायज़ काम के लिये लिये गये हों तो नहीं कर सकता । यही कायदा उस मुश्तरका खान्दानसे भी लागू होगा जो दादा और पोताके दर्मियान बना हो, फारण यह है कि हिन्दू धर्म शास्त्रोंमें कहा गया है कि लड़का अपने बाप और बादाके कोंके अदा करनेका पाक्न्द और जिम्मेदार है तथा उन क्रोंकी
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दफा ४४८]
मुनाफेका इन्तकाल
ज़िम्मेदार मुश्तरका जायदाद रहती है। मतलब यह है कि जब किसी परिवार में सिर्फ बाप और उसके लड़के हों, या दादा और उसके पोते हों, या बाप और उसके लड़के, पोते हों तो ऐसी सूरतमें बाप और दादा अपने लड़कों और पोतोंका हिस्सा तथा अपना हिस्सा बेंच सकता है, रेहन कर सकता है। लड़कों और पोतोंकी मंजूरीकी ज़रूरत नहीं होगी।
. हिसाव भी इन्तकालका प्रमाण हो सकता है-पिता और उस व्यक्तिके बीचका हिसाब, जिसके हकमें इन्तकाल किया गया है इन्तकाल करनेका प्रमाण है किन्तु यदि मुद्दाअलेह किसी दूसरे दस्तावेज़को पेश करना चाहे, तो उसपर विचार किया जा सकता है और यदि उस दस्तावेज़के दर्ज रक्रम से कर्जके सम्बन्धमें कोई सन्देह हो, तो इन्तकाल अस्वीकार किया जा सकता है-रामरेख बनाम रामसुन्दर L. R. 6 A. 128; 86 I. C. 834, A. I. R. 1925 All. 295 (2).
पिता द्वारा किये हुये इन्तकालका विरोध बिना कर्जको गैर कानूनीया असभ्य साबित किये हुए ही किया जा सकता है, यदि वयनामा किसी तामील में या किसी पहिलेके कर्जके सम्बन्धमें न हो-बल्देव बनाम भगवान मिश्र A. I. R. 1925 All. 241 (1).
जब किसी पिताके खिलाफ, जो किसी संयुक्त हिन्दू खान्दानका मेनेजर हो, कोई डिकरी दी जाय, तो इसके पहिले, कि उसकी तामील परिवारकी संयुक्त जायदादपर हो, यह आवश्यक है कि उस डिकरीसे यह प्रकट हो कि वह पिताके खिलाफ, बहैसियत मेनेजर व प्रतिनिधि खान्दान पास कीगई है। यह आवश्यक नहीं है कि डिकरीमें इस प्रकारकी बात बिल्कुल खुलासा होनारूमल मूलचन्द बनाम जगतमल थारूमल A. I. R. 1925 Sind. 288.
यदि पिताने स्वतन्त्र रीतिपर, खान्दानका कर्जा चुकानेके लिये रेहन किया हो. तो वह रेहनकी रकम संयुक्त खान्दानकी जायदादसे वसूलकी जा सकती है-सीतलबक्स शुक्ल बनाम जगतपालसिंह 120. L.J. 114; 86 I. C. 693; A. I. R. 1926 Dudh 394.
घरकी मरम्मत--घरकी मरम्मतमें जो खर्च हो, वह कानूनी आवश्य कताके अन्दर है। किन्तु इस प्रकारकी दुरुस्तीका पूरा हिसाब रखना बहुत कठिन है। ऐसी अवस्थामें केवल इस बातकी जांच कर लेना कि घरकी दुरुस्तीकी आवश्यकता है और उसकी मरम्मत कराई जा रही है तथा उसमें रुपया लगाया जा रहा है काफी है-सालिकराम बनाम मोहनलाल 7 Lah. L.J. 470; 90 I. C. 1438 26 Punj. L. R 708;A.I.R.1925 Lah.407.
___ उदाहरण-(१) ऐसा मानो कि जय और विजय दो हिन्दू भाई हैं मुदतरका खान्दानके मेम्बर हैं और संयुक्त प्रान्तमें रहते हैं जहांपर मिता.
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[ छटवां प्रकरण
क्षरा लॉ दृढ़ता के साथ माना जाता है यानी वहांपर कोई कोपार्सनर बिना दूसरे को पार्सनरों की मजूरीके मुश्तरका जायदादका कोई अपना हिस्सा या मुनाफा नहीं बेच सकता और न रेहन कर सकता है जैसा कि दफा ४४७ में बताया है। फ़र्ज़ करो कि मुश्तरका खान्दानमें बाप और उसके दो लड़के हैं, अर्थात् राम बाप है और उसके लव, तथा कुरा दो लड़के हैं, ऐसी सूरत में रामने खास क़र्जेके अदा करने के लिये अथवा पहिलेके क़र्ज़ेके चुकाने के लिये कीमत के बदले में मुश्तरका जायदादका अपना और अपने दोनों लड़कों का हिस्सा बिना मजूरी लड़कों के वरुण नामक आदमीके हाथ बेच दिया तो अब लव और उस विक्रीके पाबन्द हैं बशर्तकि बेचा जाना क़ानूनन नाजायज़ न हो । लड़के वरुणसे यह कहकर जायदाद पीछे नहीं पा सकते कि बापको हमारे हिस्से के बेंचनेका अधिकार न था और अगर ऐसी सूरत होती कि दादाने अपना हिस्सा तथा अपने पोतेका हिस्सा बिना पूंछे पोतेके बेच देता तो भी जायज़ होता ।
४.३४
मुश्तरका खान्दान
(२) बम्बई और मदरास प्रांतमें जहांपर मिताक्षरा लॉ के उक्त वाक्य का अर्थ सख्ती से नहीं माना जाता वहांपर हरएक कोपार्सनर मुश्तरका खान्दानकी जायदादका अपना हिस्सा बिना मञ्जुरी दूसरे कोपार्सनरों के क़ीमत के बदले बेंच सकता है और बाप अपने क़र्जे तथा क़जोंके लिये जो नाजायज़ न हों अपने लड़कोंके हिस्से सहित अपना हिस्सा मुश्तरका जायदादका बेच सकता है । अगर क़ानूननु नाजायज़ कामोंके लिये बेचा गया हो तो वह बिक्री नाजायज़ मानी जायगी ।
नोट- इलाहाबाद और बंगाल हाईकोर्ट के तथा बम्बई और मदरास हाईकोर्ट के दरमियान सिर्फ फरक यह है कि उपरोक्त पूर्व के दोनों हाईकाटों में मुश्तरका जायदादको एक मेम्बर नहीं बेंच सकता और न रेहन कर सकता है जब तक कि सब मेम्बर जिनका हिस्सा मुश्तरका जायदाद में हैं मंजूर न करले अथवा सबके सब मंम्बर उस बैनामा या रेहननामामें शामिल न हों । एवं उपरोक्त आखिरी दोनों हाईकोर्ट में मुश्तरका खान्दानका हरएक मेम्बर अपना हिस्सा बिना दूसरे मेम्बरों की मंजूरी के भी इन्तकाल कर सकता है बाकी बातें सब हाईकोटोकी एकसां है। आखिरी दोनों हाईकोटोंने खरीदारके लाभपर ज्यादा ध्यान दिया है तथा पहिले वालने जायदाद की रक्षापर | " क्रीमत के बदले " ऐसा कहने से मतलब यह है कि रुपया लेकर जायदाद दी गयी हो बसीयत या दान आदिके तरीके से नहीं ।
दफा ४४९ अदालतकी डिकरीसे मुश्तरका जायदादका कुर्क़ और नीलाम होना
शामिल शरीक हिन्दू परिवारमें रहने वाले किसी आदमीके ऊपर अगर कोई डिकरी अदालतसे हो जाय, तो यह बात साफ है कि सब प्रांतोंमें जहां पर कि मिताक्षरा लॉ माना गया है, जिसके ऊपर डिकरी हो उसकी ज़िन्दगी में मुश्तरका खान्दानकी जायदाद अदालतसे कुर्क कराई जा सकती है और
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दफा ४EJ
मुनाफेका इन्तकाल
नीलाम हो सकती है, देखो-दीनदयाल बनाम जगदीप नरायन 3 Cal. 198) 4 I. A. 247 ऊदाराम बनाम रानू 11 Bom. H. 0 76.
अगर कोई डिकरी कर्जदारकी ज़िन्दगीमें अदालतसे हो जाय और उस डिकरीमें कर्जदारकी जिन्दगीमें मुश्तरका खान्दानकी जायदादका उसका हिस्सा कुर्क न कराया गया हो वक्ति कर्जदारके मरनेके बाद कुर्क कराया गया हो तो फिर उस डिकरीमें मुश्तरका खान्दानकी जायदाद कुर्क नहीं हो सकती और म नीलाम हो सकती है। देखो-सूर्य वंशीकुंवर बनाम शिवप्रसाद 5 Cal. 148, 174; 6 I. A. 88, 109 बिट्टलदास बनाम नन्दकिशोर 23 All. 109%, अगर बापपर डिकरी हो और बापकी जिन्दगीमें मुश्तरका जायदाद कुर्क नहीं कराई गयी हो तो बापके मरनेपर बापकी छोड़ी हुई जायदाद जब उसके लड़कोंके पास भावेगी तो उस डिकरीमें वह मुश्तरका जायदाद बापके मरने के बाद भी अदालतसे कुर्क और नीलाम हो सकेगी। कारण यह है कि बाप के कर्जेके देनेके पाबन्द और जिम्मेदार लड़के माने गये हैं इतनाही नहीं वक्लि बापके कर्जेके लिये लड़कोंकी जायदाद भी कुर्क और नीलाम हो सकती है डिकरी चाहे सिर्फ बापके नामपर हो । अगर बापके ऊपर किसी ऐले कर्जेकी डिकरी हो गयी है जो कानूनन नाजायज़ थी तो उस सूरतमें बापके मरनेके बाद न तो बापकी मुश्तरका जायदादहीपाबन्द है और न लड़कोंकी जायदाद अर्थात् ऐसी डिकरीमें मुश्तरका जायदादका कोई हिस्सा कुर्क नहीं हो सकता और न नीलाम हो सकता है। यही कायदा दादा और पोतेके बीचमें होगा।
उदाहरण-जय, और विजय दोनों मुश्तरका खान्दानके मेम्बर हैं दोनों भाई हैं। तथा मिताक्षरालॉ को मानते हैं । लक्षमणको एक डिकरी अदालतसे जयके ऊपर मिली, लक्षमणने उस डिकरीमें जयका हिस्सा जो मुश्तरकाजाय.' दादमें था कुर्क कराया, कुर्क होनेके बाद और नीलाम होनेसे पहिले जय मर गया तो ऐसी सूरतमें वह कुर्क किया हुआ हिस्सा नीलाम हो सकता है। और अगर जायदादकी कुर्कीके पहिले मर जाता तो पीछे जयका हिस्सा जो मुश्तरका खान्दानकी जायदादमें था डिकरीमें कुर्क नहीं हो सकता और न नीलाम हो सकता । कारण यह है कि जयके मरतेही उसका हिस्सा सरवाइवरशिपके हक़के अनुसार उसके भाई विजयको मिल जाता और उस वक्त वह जायदाद विजयकी हो जाती।
पुत्रने तामीली नीलामका विरोध इस विनापर, किया कि कर्ज जिसकी बिनापर नालिश कीगई थी अनावश्यक था- गजाधर पांडे बनाम जदुपीर पांडे 47 All. 122; 85 1. C. 31; A. I. R. 1925 All. 180.
डिकरीका तामील न होना-किसी हिन्दू हिस्सेदारके विरुद्ध प्राप्त हुई डिकरीकी उसकी मृत्युके पश्चात्, संयुक्त परिवारकी जायदादपर, तामील
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मुश्तरका खान्दान .
[छठवां प्रकरण
नहीं हो सकती-ऊदराजसिंह बनाम झ्यामलाल 93 I. C. 385 (1); A. I. R. 1926 All. 338.
संयुक्त-जहांपर, कोई क़र्ज, जो परिवारके लाभके व्यवसायके लिये, लिया गया बताया गया हो, यह साबित हो कि वह उस तात्पर्यके लिये नहीं लिया गया, तो हिस्सेदार उसके जिम्मेदार न होंगे-रामगोपाल बनाम फर्म भानराम मङ्गलचन्द 94 I. C. 163. दफा ४५० मुश्तरका जायदादके ख़रीदारके हक़
(१) जब किसी आदमीने मुश्तरका खान्दानके किसी आदमीका मुश्तरका जायदादका हिस्सा अदालतकी किसी डिकरीके नीलाममें खरीद किया हो, इससे खरीदारको यह हक प्राप्त नहीं है कि मुश्तरका जायदादके किसी खास हिस्सेको अपने कब्जे में रखे, देखो-ऊदाराम बनाम रानू ।। Bom. H. C. 76. पांडुरंग बनाम भास्कर 11 Bom. H. C.72 पालानी बनाम मासाकोरम् 20 Mad. 243. एक मुक़द्दमें में खरीदार ने जायदाद पर कब्ज़ा कर लिया था और बादमें उसे इन्तकाल भी कर दिया था, देखो-पटेल धनाम हुक्मचन्द्र 10 Bom. 363.
जब किसी श्रादमीने मुश्तरका जायदादका हिस्सा अदालतके नीलाममें खरीद किया हो तो वह जायदादपर क़ब्ज़ा नहीं कर सकता बल्कि वह अदा. लतमें मुश्तरका जायदादके बटवारा करा पानेका दावा कर सकता है, बटघारा होनेके बाद खरीदार अपने खरीदे हुये हिस्सेपर कब्ज़ा व दखल करेगा, बटवारा कराने में अगर कोई कोपार्सनर राजी न हो तो खरीदार उसे या उन सबको मजबूर कर सकता है और बटवारा करा सकता है। देखो-दीनदयाल बनाम जगदीपनरायन 3 Cal. 198; 4 I. A. 247; 10 Cal.626;11 I.A.26.
हिस्सेपर डिकरी-किसी संयुक्त खान्दानके किसी हिस्सेदारका महाजन डिकरीकी तामीलमें मुश्तरका जायदादके उस सदस्यके हिस्सेको नीलाम करा सकता है और उसे खरीद सकता है किन्तु महाजनको उसपर काबिज़ होनेका अधिकार नहीं है। उसे यह अधिकार प्राप्त हो जाता है कि वह उस सदस्यके हिस्सेका बटवारा करावे किन्तु उसे यह अधिकार नहीं होता कि उस खान्दानके दूसरे सदस्योंके साथ उस जायदादपर दखल करे, मेंडीप्रसाद सिंह बनाम नन्दकेश्वरप्रसादसिंह 85 I. C. 1014; 6 Pat. L.J. 742; A. I. R. 1923 Patna 451.
परिवारकी जायदादकी विशेष मदोंका इन्तकाल-इन्तनालकी जाय. दादमें अपने भागकी प्राप्तिके लिए अन्य सदस्य द्वारा नालिश और उसमें उसके पक्षकी डिकरी-बादको मुन्तकिलअलेह द्वारा आम बटवारे और अपने
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दफा ४५० ]
मुनाफे का इन्तकाल
लिये इन्तक़ालकी हुई जायदाद के पृथक किये जाने तथा उसके स्थानमें अन्य जायदाद के दिये जानेकी नालिश-कहां तक चलने योग्य है--सोरी मूथी बनाम पी० पचिया पिल्ले 91 1. C. 868; A. I. R. 1926 Mad. 241. हिस्सेदार केवल बटवारेमें ही पृ और निश्चित भाग प्राप्त कर सकते हैं नीलाममें हिस्सेदारका अधिकार खरीद करने वाला कुछ परिस्थितियों में ही खरीदका यथार्थ अधिकार प्राप्त करता है--सत्यनारायन बनाम बिहारीलाल 52 I. A. 22 (1925) M. W. N. 1: 23 A. L. J. 85; 6 L. R. P. C. 1; 21 L. W. 375; 27 Bom. L. R. 135; 84 I. C. 883; 29 C. W.N. 797, A. I. R. 1925 P. C. 1847.
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मुश्तरका जायदाद के खरीदारके लिये सिर्फ एकही तरीक़ा है कि वह मुश्तरका जायदाद का हिस्सा खरीद करनेके बाद अदालतमें बटवारा करापाने का दावा सब कोपार्सनरोंके मुक़ाबिलेसें दायर करे और बटवारा होने पर अपने खरीदे हुये हिस्से के अनुसार जायदादपर दखल करें; देखो -- पाण्डुरंग बनाम भास्कर 11 Bom H. C. 72; 8 Mad. H. C. 6.
(२) बम्बई हाईकोर्ट के अनुसार माना गया है कि जब किसी आदमी नेमुखतलिफ़ मुश्तरका जायदादमें से किसी जायदादका कोई हिस्सा खरीद किया हो तो खरीदारको सिर्फ उसी जायदाद के बटवारा करापानेका दावा नहीं करना होगा जिसमें उसका खरीदा हुआ हिस्सा शामिल है बल्कि कुल जितनी जायदाद मुश्तरका खान्दानकी है सबका बटवारा करापानेकी नालिश कराना होगा और अगर सब कोपार्सनर इस बातपर राजी हों तो खरीदार . सिर्फ उतनीही जायदादका बटवारा करायेगाः देखो - ऊदाराम बनाम रानू 11 Bom. H. C. 76. मुरारराव बनाम सीताराम 23 Bom. 184 शिवमुर टापा बनाम वीरप्पा 24 Bom. 128.
इलाहाबाद हाईकोर्ट के अनुसार यह माना गया है कि जब किसी आदमी ने मुखतलिफ़ मुश्तरका जायदाद में से किसी अलहदा जायदादका कोई हिस्सा खरीद किया हो तो खरीदार बिना कोपार्सनरोंकी मंजूरी के सिर्फ उसी खरीदी हुई जायदाद के बटवारा करा पाने का दावा कर सकता है; देखो - राममोहन बनाम मूलचन्द 28 All 390.
मदरास और कलकत्ता हाईकोर्ट में यह माना गया है कि इस क़िस्मके खरीदारको सब मुश्तरका जायदादका बटवारा करना योग्य होगा; देखोबेकटराम बनाम मीरा 13 Mad. 27. पलानी बनाम मासा 20 Mad. 243. कुंवर हसमत बनाम सुन्दरदास 11 Cal. 396-399. यह बात सब हाईकोर्टो
मानी गयी है कि अगर कोई कोपार्सनर यह चाहे कि खरीदारके खरीदे हुये हिस्से का बटवारा कराकर उसे अलग करदें तो हर एक को पार्टनरका
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५३८
मुश्तरका खान्दान
[छठवां प्रकरण
अधिकार है कि वह लिफे उसी जायदादके बटवारा करा देनेका दावा कर सकता है जिसमें खरीदारका खरीदा हुआ हिस्सा शामिल है न कि सब मुश्तरका जायदादका; देखो-सुब्रह्मण्य बनाम पद्मनाभ 19 Mad. 267. रामचरन बनाम अजोध्या 29 Ail. 50.
(३) यह बात सब जगह मानी गयी है कि खरीदार बटवारा करापाने का दावा उस आदमीकी जिन्दगीमें और उसके मरनेके बाद भी कर सकता है जिसका हिस्सा उसने खरीद किया था, एय्यागिरि बनाम एय्यागिरि 25 Mad. 690 इसी तरहपर जब खरीदार मर जाय तो उसके वारिस भी बटवारा करा पानेका दावा कर सकते हैं।
(४) अगर किसी आदमीने मुश्तरका खान्दानकी जायदादका कोई हिस्सा किसी कोपार्सनरसे खरीद कर लिया हो, और खरीदनेकी तारीखके पश्चात् और खरीदारके बटवाराका मुकद्दमा अदालतमें दाखिल करनेसे पहिले कोई दूसरा कोपार्सनर उस खान्दानमें पैदा हो जावे, या मर जावे तो उस खरीदारको कितनी जायदाद मिलेगी? यह बात बड़े झगड़ेकी है क्योंकि हिन्दुस्थानके हाईकोर्टीका इस प्रश्नपर मतभेद है । मतभेद नीचे देखो--
बम्बई हाईकोर्ट-बम्बई हाईकोर्टके मतके अनुसार यह तय हुआ है कि खरीदने की तारीख के बाद जब कोई दूसरा कोपार्सनर मुश्तरका खान्दानमें पैदा हो जावे तो खरीदार को खरीदे हुये हिस्से से कमती हिस्सा मिलेगा यानी बटवाराका मुकदमा दायर करने के समय उस आदमीका जितना हिस्सा होगा उतना खरीदारको मिलेगा-जितना हिस्सा खरीदा था उतना नहीं मिलेगा। और अगर खरीद करने की तारीखके बाद कोई कोपार्सनर मर जावे तो खरीदारको ज्यादा हिस्सा नहीं मिलेगा बल्कि उसे उतनाही हिस्सा मिलेगा जितना कि उसने नरीद किया था देखो-गुरलिंगप्पा बनाम ननदाया 21 Bom 797 ऐसा मानो कि-मुश्तरका जायदादके बेंचनेके समय बाप और उसके दो लड़के थे, और बटवाराकी नालिश करनेके सयय ४ लड़के और पैदा होगये थे अब बम्बई हाईकोर्टके अनुसार खरीदारको हिस्सा नहीं मिलेगा बल्कि हिस्सा मिलेगा और अगर उपरोक्त तीनों में से कोई मर जाता तो खरीदारको ज्यादा हिस्सा नहीं मिलता बल्कि हिस्सा ही मिलता।
मदरास हाईकोर्ट-मदरास हाईकोर्टके फुल बेंचके फैसलेके अनुसार खरीदारको हमेशा उतनाही हिस्सा मिलेगा जितना उसने खरीद किया था यानी जिस कोपार्सनरसे उसने जितना हिस्सा खरीद किया था उतनाही हमेशा मिलेगा चाहे खरीदने के पश्चात् कोई दुसरा कोपार्सनर पैदा हो जाये अथवा मर जावे, देखो-चिन्नूपिलाई बनाम कालीमुट्ठ 35 Mad. 47.
__उदाहरण -श्र, क, ख, ग, घ, यह पांच हिन्दू भाई हैं और मुश्तरका खान्दानमें रहते हैं। श्र, ने अपना हक़ रामके हाथ बेच दिया उसके बाद अ,
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दफा ४५० ]
मुनाफेका इन्तकाल
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के एक लड़का पैदा होगया, लड़का पैदा होने के बाद रामने घटवारा करापाने का दावा किया अब देखो मदरास हाईकोर्ट के फैसलेके अनुसार रामको हिस्सा मिलेगा और बम्बई हाईकोर्टके फैसलेके अनुसार मिलेगा। श्र,क, ख, यह तीनों मुश्तरका खान्दानके मेम्बर हैं अ, ने अपना हक्क रामके हाथ बेच दिया उसके बाद क, मर गया, पीछे रामने श्र, धौर ख, पर बटवारा करा पानेका दावा किया तो अब रामको आधा हिस्सा नहीं मिलेगा बक्लि मिलेगा। क्योंकि किसी हिस्सेदारका हक खरीद लेनेसे राम कोपार्सनर नहीं हो जायगा । क, का हिस्सा उसके मरनेपर अ, और ख, को जायगा जो उसके कोपार्सनर हैं सबब यह है कि सरवाइवरशिप इनमें लागू था अपना हक्क बेंच देनेसे कोपार्सनरपनेका हक़ नहीं चला जाता इसी तरह आगर क, और ख, दोनों मर जाते तो उन दोनोंका हक़ सरवाइवरशिपके अनुसार अकेले अ, को मिल जाता-रामको नहीं।
नोट-मदरास हाई कोर्टमें भी कोपार्सनरके मरनेसे इसी तरहका फैनला होगा जैसा ऊपर उदाहरण के आखीरमें बताया गया है । जो नियम जायदादके मयनामासे लागू किये गये है वही नियम रेड्ननामासे भी लागू होंगे।
अगर किसी खरीदारने मुश्तरका खान्दानके किसी मेम्बरसे उसका हिस्सा खरीद किया हो, और किसी तरहसे खरीदारने उस मुश्तरका जायदादपर अपना कब्ज़ा व दखल कर लिया हो चाहे उस कब्जा व दखलमें दूसरे कोपार्सनरोंका हिस्सा भी शामिल हो जिसे उसने नहीं खरीदा था, तो ऐसी सूरतमें कोई भी कोपार्सनर अदालत फौजदारीके द्वारा उस खरीदारको जायदादसे बेदखल नहीं कर सकेगा और न अदालत दीवानीमें उसके बेदखल किये जानेका दावा कर सकेगा। अब बड़ी मुश्किल यह समझमें आती है कि ऐसी सूरतमें दूसरे हिस्सेदारोंको क्या करना चाहिये ? इसका उपाय सिर्फ एकही है कि दूसरे कोपार्सनरोंको अपनी तरफसे बटवारा करा पानेका दावा अदालतमें करना चाहिये यह दावा सब कोपासेनर मिलकर अथवा एक भी कर सकता है । और कोपार्सनर इस क्रिस्मका दावा भी कर सकते हैं कि "करार दिया जाय कि खरीदारके साथ जायदादके उपभोग करनेका हक दूसरे कोपार्सनरोंको है" देखो--महाबलाय बनाम टिमाया 12 Bom. H. C. 138. घाबाजी बनाम वासुदेव 1 Bom. 95; 2 Bom. 676; b Bom. 498.
जो जायदाद खरीद की गयी हो अगर उसपर किसी कर्जका बोझा खरीद करनेसे पहिलेका है तो वह बोझा खरीद करनेपर भी बना रहेगा यानी उस कर्जेका ज़िम्मेदार खरीदार होगा, देखो-11 .Bom. H. C. 76 नरायन बनाम नाथाजी (1904 ) 28 Bom 201.
साझेदारीसे खरीद-मुनाफ़ा मय सूदकी जिम्मेदारी - गङ्गा विशन जीवन राव बनाम बल्लभदास 87 I. C. 703; A. I. R 1924 Bom 433..
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[ छठवां प्रकरण
दफा ४५१ मुश्तरका जायदाद का हिस्सा जिस आदमीका बिक गया हो उसकी स्थिति
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मुश्तरका खान्दान
जब किसी कोपार्सनरका बिना बटा हुआ हिस्सा मुश्तरका जायदादका न दिया गया हो लेकिन खरीदार या दूसरे कोपार्सनरोंके द्वारा बटवारा न हुआ हो तो उस बिक्री से कोपार्सनरकी हैसियत में कोई फरक नहीं पड़ता, तथा दूसरे कोपार्सनरके मरनेपर सरवाइवर शिपकै अनुसार उसका हक़ बना रहता है, देखो -- 21 Bom. 797, 803
इन्तकाल मंसूखकराने में बिके हुए हिस्से को उसे देना जिसने इन्तकाल किया है-- जब किसी मुश्तरका खान्दानका कोई नाबालिग सदस्य बटवारे और खान्दानी जायदाद के अपने हिस्सेको अलाहिदा करने, तथा खान्दानके दूसरे साझीदारों द्वारा किये हुए इन्तक़ालको मंसूख करनेकी नालिश करता है, तब अदालत, यदि इन्तक़ालकी पाबन्दी उसपर नहीं होती, तो यथा सम्भव मुन्तलिकी हुई जायदाद, इन्तक़ाल करने वालोंके हिस्सेमें लगा देती है और उसे उनके अधिकार में दे देती है जिनके हक़में वह इन्तक़ाल किया गया हो । बीरा स्वमी नायडू बनाम शिव गुरुनाथ पिल्ले 21. L. W. 111; 86 I. C. 234; A..I. R. 1925 Mad. 793.
सकूनती मकान - किसी हिन्दू हिस्सेदारकी स्त्री को यह अधिकार नहीं है कि वह किसी मकानकी नीलामपर, इस बिनापर कि उसे उसमें सकूनका अधिकार है, एतराज करे, जब तककि वह यह न साबित करे कि वह क़र्ज़ जिसके कारण वह नीलाम हो रहा है और तहजीबी है या इस गरज .से लिया गया है कि उसको उस मकानकी सकूनतसे महरूम किया जाय । हिस्सेदारकी विधवाकी अवस्था, उस सूरत में जबकि नीलाम जीवित हिस्सेदारों द्वारा सार्थक की जाती हो, भिन्न है । मु० ननकी बनाम फर्म शामदास सालिगराम 89 I. C. 874.
दफा ४५२ अगर कोपार्सनर अपना हिस्सा छोड़ दे
मदरास हाईकोर्ट की राय यह है कि कोपार्सनर मुश्तरका जायदाद में अपना हिस्सा किसी एक या ज्यादा कोपार्सनरोके हक़में या सब कोपार्सनरों के लिये छोड़ सकता है; - पेडैय्या बनाम रामलिङ्गम् 11 Mad 4065 25 Mad. 149, 156; अप्पा बनाम रांगा 6 Mal. 71.
इलाहाबाद हाईकोर्ट की राय यह है कि-कोपार्सनर सब कोपार्सनरों के इनमें अपना हिस्सा छोड़ सकता है, लेकिन अगर वह एक या ज्यादा कोपार्सनरों के हक़ में छोड़े तो सब कोपार्सनर उसमें लाभ उठायेंगे अर्थात्
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दफा ४५१-४५३ ]
मुनाफेका इन्तकाले
जिसको वह हिस्सा दिया गया है सिर्फ वही उससे लाभ नहीं उठायेगा बक्लि सब कोपार्सनर लाभ उठायेंगे, देखो -चन्द्र बनाम दम्पति 16 Ali. 369..
(१) एक बापके जय और विजय दो पुत्र हैं। जयका पुत्र वसु, और विजयका पुत्र अत्रि है । जयने मुश्तरका जायदादमें अपना हिस्सा अपने बाप के हकमें छोड़ दिया यानी दे दिया तो जयके पुत्र वसु सहित सब कोपार्सनर उससे लाभ उठावेंगे यह राय बम्बई हाईकोर्टकी है ( 6 Bom. L. R. 925, 947; 9 Bom. L. R. 595; 33 Bom. 267; 1 Mad. 312; 5 A. 61 ).
(२) अ, क, ख, ग चार भाई मुश्तरका खान्दान में हैं , क मुश्तरका खान्दानकी जायदादमें अपना हिस्सा अकेले ख, के हकमें दे दिया पीछे ख, बटवाराका दावा ग, के ऊपर करता है ऐले मामलेमें मदरास हाईकोर्टका मत है कि ख, तीन चौथाई हिस्सा पानेका हक़दार होगा । तथा ग, एक चौथाई पावेगा । परन्तु इलाहाबाद हाईकोर्टने ऐसा माना है कि भलेही अ, और क ने अपने हिस्से ख को दे दिये हों किन्तु ख और ग उस जायदादका बराबर लाभ उठायेंगे यानी आधी जायदाद ख को तथा प्राधी जायदाद ग को मिलेगी।
मदरास हाईकोर्ट की उक्तरायका आधार महर्षि मनुका वचन मालूम होता है क्योंकि मनुस्मृतिमें कहा गया कि -
भातृणां यस्तु ने हेत धनं शक्तः स्वकर्मणा सनिर्भाज्यःस्वकादेशात्किञ्चिद्दत्त्वोपजीवनम् ।मनु-२०७
मतलब यह है कि अगर किसी भाई की अलग कमाई अपने पेशेसे हो और वह जायदादमें अपना हिस्सा न चाहता हो तो जायदादका उसका हिस्सा ले लिया जायगा और उसे उसके बदले है कुछ दे दिया जायगा जिससे उसके पुत्र कालांतर में कोई विवाद न कर सके । इसी आशयपर मदरासके हाईकोर्ट की राय हुई है कि यदि सब कोपार्सनरोंके हकमें अपना हिस्सा छोड़ा जा सकता है तो कोई वजह नहीं है कि वह अकेले किसी ऐसे कोपार्सनरके हक़ में न छोड़ सके जिसको कि सचमुच वैसी मदद की ज़रूरत है। दफा ४५३ दिवालिया कोपार्सनर
जिस मुश्तरका खान्दानमें मिताक्षराला माना जाता है यदि उसका कोई कोपार्सनर अदालतसे दिवालिया ठहराया जाय तो मुश्तरका खान्दानका उसका हिस्सा आफिशल एसाइनीके कब्जे में चला जायगा; देखो-नुन बनाम चिड़ाराभोइना 26 Mad. 214, 223 अगर दिवाले की कार्रवाई के दरमियान
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मुश्तरका खान्दान
[छटवां प्रकरण
में वह कोपासनर मर जाय तो दूसरे कोपार्सनर सरवाइवर शिपके द्वारा उसके हिस्सेके हक़दार नहीं होंगे फकीरचन्द बनाम मोतीचन्द 7 Bom. 438.
ऐसा मानो कि जय और उसका पुत्र विजय मुश्तरका खान्दानमें हैं, जय दिवालिया हो गया और उसके मरने के बाद आफीशल एसाइनीने जयका हिस्सा बेच दिया जो मुश्तरका खान्दानमें था। विजयने इस बातपर उजुर किया कि जयके मरनेके बाद मुश्तरका खान्दानकी जायदादका उसके हिस्सा परसे श्राफीशल एसाइनीका हक जाता रहा और सरवाइवर शिप द्वारा विजयका हक उसपर कायम होगा। परन्तु बम्बई हाईकोर्टने विजयकी यह धात नहीं मानी देखो ऊपरकी नज़ीर 7 Bom. 438. दफा ४५४ मुश्तरका खान्दान के फर्मका दिवाला
जब मुश्तरका खान्दानके फर्मका दिवाला हो जाय तो नाबालिरा कोपार्सन के हिस्से सहित सब कोपार्सनरोंके हिस्सोंपर आफिशल एसाइनीका हक्क कायम हो जायेगा 26 Mad. 214; 14 Bom. 189.
जब किसी मुश्तरका खान्दानके मैनेजरने, खान्दानके फ़ायदेके व्यवसायमें, किसी पब्लिक टूस्टकी रकमका दुरुपयोग किया हो, तो मुश्तरका खान्दानके मेम्बर मैनेजरके साथ मुश्तरका तरीकेपर और अलाहिदा अलाहिदा भी, वह रकम मय सूद जो वह पब्लिक ट्रस्ट सही तरीकेपर तलब करे, चुकानेके लिये वाध्य है-जैनारायण बनाम प्रयागनारायन (1925) M. W. N. 13; 21 L. W. 162;20. W. N. 15.7; 85 I. C.2; L. R. 6 P.C. 73:27 Bom. L. R.713:29 C W.N.775; 3 Pat. L. R. 265: A. I. R. 1925 P.C. 11; 48 M. L. J. 236 (P.C.)
पिता दिवालिया करार दिया गया-जब किसी हिन्दू मुश्तरका खानदानका मैनेजर दिवालिया करार दिया गया हो, तो उसकी खान्दानी जायदादके मुनासिब कारणोंपर मुन्तकिल करनेका अधिकार, जो उसे दिवालिया होनेके पहिले प्राप्त था, रिसीवर या किसी आफिसके नुमाइन्दाको प्राप्त हुआ नहीं माना जा सकता-श्रीपदगोपाल कृष्ण बनाम बासप्पा रुद्रप्पा 27 Bom. L. R. 934; 89 I.C. 996; 49 Bom. 785; A. 1. R. 1925 Bom 416.
. व्यवसायिक कर्ज-दिवालिया-पुत्रका हिस्सा-जिम्मेदारी-खेमचन्द बनाम नारायणदास सेठी 89 I. C. 1022; 26 Punj. L. R. 848; 6 Lah. 493.
जिमीदारीपर नाम चढ़ा होना-यह एक आम रिवाज़ है, यद्यपि ऐसा नहीं, जो परिवर्तन न किया जा सके, कि मुश्तरका खान्दानकी ज़मीदारीके सम्बन्धमें मालगुजारीके काराजोंमें केवल मैनेजरका नाम दर्ज रहता है। ऐसी
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दफा ४५४ ]
मुनाफे का इन्तक़ाल
दशामें, मैनेजर प्रतिनिधि स्वरूप रहता है और दरअसल मुश्तरका खान्दान उस लिखित हिस्सेका अधिकारी होता है। अतएव यू० पी० लैण्ड रेवन्यू एक्टकी दफा १११ ( १ ) (बी) के अनुसार हुक्मकी पाबन्दी उन छोटे मेम्बरों पर भी होती है जिनके नाम मालगुजारीके क्राग्रज़ोंमें नहीं दर्ज होते जहांपर कि केवल मैनेजरका नाम होता है -36 All 313; 24 O. C. 143 Full. 20 O. C. 241. शिवबक्ससिंह बनाम इन्द्रबहादुरसिंह 120. L. J. 239; 2 O. W. N. 209; 28 O. C. 194; 87 I. C. 185; LR. 6 0 65; A. I. R. 1925 Oudh. 392.
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व्यवसायिक झूठा - दिवालिया होना - पुत्रका हिस्सा - जिम्मेदारीखेमचन्द बनाम नारायणदास सेठी A. I. R. 1926 Lah. 141.
किसी हिन्दू मुश्तरका खान्दानके मेनेजरके दिवालिया हो जानेपर, सरकारी रिसीवर खान्दानी जायदादके नुमायशी इन्तक़ालपर, जो कि फैसले के कुछही पहिले खान्दानके बड़े सदस्यों द्वारा किया गया हों, जबकि मैनेजर खान्दानका छोटा सदस्य हो, एतराज़ किया जा सकता है - नारायनदास an afguarga 85 1. C. 896; 46 All. 912; A. I. R. 1925 All. 194 ( 1 )
मेनेजरको रन्डी रखना -- जब किसी मुश्तरका खान्दानका मेनेजर रण्डी रख के और खान्दानी जायदादका रुपया रण्डीकी जायदादको तरक्की में लगावे, तो खान्दानके दूसरे मेम्बरोंको यह अधिकार नहीं है कि रण्डीको तरक्की शुदा जायदादसे उस रक़मके वसूल करनेका दावा करें, या उसे मुश्तरका खान्दानकी रक्कम होनेका दावा करें-- देवीराम बनाम प्रहलाददास 21 L. W. 183; 86 I. C. 201; L. R 6 P. C. 92; A. I. R. 1925 P. C. 38 ( P. C. )
पिताका दिवालिया होना- जब किसी मुश्तरका खान्दानका कोई सदस्य दिवालिया क़रार दिया जाता है, तो उसके पुत्रोंके बिना बंटे हुये हिस्से किन्तु खान्दानके दूसरे सदस्योंके नहीं, रिसीवरको प्राप्त होते हैं, यद्यपि पुत्रों के हिस्सेपर किसी ऐसे क़र्ज़ की ज़िम्मेदारी न पड़ेगी, जिसे वे ग़ैर तहज़ीबी या गैर क़ानूनी साबित कर सकें-- शिवगोपाल बनाम सुखरू 87 I. C. 957; A. I. R. 1925 Nag. 418.
पिता दिवालिया क़रार दिया गया और बटे हुये पुत्रोंके हिस्से फीसियल रिसीवरको प्राप्त होते हैं किन्तु वे इस बिनापर कि क़र्ज रौर तहज़ीबी या गैर क़ानूनी है बटवारेके लिये नालिश दायर कर सकते हैं । प्रान्तीय इनसालवेन्सी ( दिवालिया ) ऐक्ट दफा २ - जी० नरसमलू बनाम पी० बासव शङ्करन् 85 I. C. 439; AIR 1920 Mad. 249; 47 M. L. J. 749
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मुश्तरका खान्दान
[छठवां प्रकरण
मुश्तरका जायदादका इन्तकाल मंसूख कराना
दफा ४५५ दानका ममूख़ कराना
मिताक्षरा के अनुसार कोई कोपार्सनर न तो मुश्तरका जायदादके अपने हिस्सेको, या अपने लाभ को दान कर सकता है और न किसी को दे सकता है यदि कोई ऐसी लिखा पढ़ी की गयी हो तो दूसरे कोपार्सनरों के एतराज़ करनेपर अदालतसे बिल्कुल मन्सुख कर दी जायगी। परन्तु बाप : पैतृक मनकूला जायदादका दान कहां तक कर सकता है या किसी देवताके लिये कहां तक दानकर सकता है यह बात इस किताबकी दफा ४१८-३, ७६६ में बतायी गयी है। . मुश्तरका जायदादसे दिया हुआ दान-उस सूरतमें भी जब वह दाता के हिस्सेके अन्दर हो नाजायज़ है--पिताको अधिकार है कि वह पुत्रीके हक में उचित दान करे, किन्तु वह भी विधवा या माताके हकमें दान नहीं कर सकता--एम० सुब्बाराव बनाम अदेम्मा 83 I. C. 72; A.l. R.1925Mad. 60; 47 M. L. J. 465. दफा ४५६ बिक्री और रेहनका मंसूख करना
बम्बई और मदरास प्रांतमें जिस तरह से कि मिताक्षरा लॉ का अर्थ मानागया है उसके अनुसार यदि मुश्तरका खान्दानका कोई कोपार्सनर अपने हिस्सेसे ज्यादा मुश्तरका जायदादका कोई भाग बेच दे या रेहन कर दे या किसी दूसरी तरहसे इन्तकाल कर दे तो दूसरे कोपार्सनरोंके उजुर करने पर वह विक्री या रेहन या इन्तकाल केवल उसी एक बेंचने वाले कोपार्सनरके हिस्से तक लागू समझा जायगा । अर्थात् जिस कदर कि बेंचने वाले कोपार्स. नरका हिस्सा होगा उसका इन्तकाल जायज़ माना जायगा और जिस कदर कि उसने दूसरे कोपार्सनरों का ज्यादा हिस्सा बेंच, या रेहन या इन्तकाल कर दिया है वह नाजायज़ माना जायगा। इसका कारण यह है कि हरएक कोपासेनर अपने हिस्सेको बेच या रेहन या इन्तकालकर सकता है; देखो-श्रीपति चिना बनाम श्रीपति सूर्य Mad.196 माराप्पा बनाम रंगसामी 23 Mad.89.
(२) बङ्गाल और संयुक्त प्रांतमें मितक्षराला मानने वाले मुश्तरका खान्दानका कोई कोपार्सनर मुश्तरका जायदादको या उसका कोई हिस्सा अपने हिस्से से ज्यादा बेंचदे या रेहन करदे या किसी दूसरी तरहसे इन्तकाल कर दे, अथवा केवल अपनाही हिस्सा दूसरे कोपार्सनगेकी रज़ामन्दीके बिना बेचदे या रेहन करदे या किसी दूसरी तरहसे इन्तकाल कर दे
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दफा ४५५-४५६ ]
इन्तक़ाल मंसूरन करना
तो ऐसी सूरत में वह सब विक्री, या रेहन, और इन्तकाल अदालतसे मंसूत्र हो जायगा । लेकिन अगर वह बेचने वाला कोपार्सनर पिता या पितामह हो और उसने जायदाद इन्तक़ाल उस क़र्जेके चुकानेके लिये किया हो जिसका ज़िक इस किताबकी दफा ४४८ में किया गया है तो वैसा इन्तक़ाल जायज़ माना जायगा कारण यह है कि बङ्गाल और संयुक्त प्रांत में कोपार्सनर मुश्तरका खान्दानके अपने हिस्सेका भी इन्तक़ाल दूसरे कोपार्सनरोंकी बिना मंजूरी नहीं कर सकता इसी लिये ऊपर कही हुई विक्री या रेहन या इन्तक़ाल सब मन्सूख हो जाता है ।
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जब मुश्तरका खान्दानका कोई आदमी इन्तक़ालके मंसूत्र करा दिये जानेकी अदालत में प्रार्थना करे तो अदालतको यह ज़रूरी नहीं है कि वह वैसाही करे जैसाकि उसने चाहा है बल्कि अदालतको अधिकार है कि जैसा उसकी राय में उचित समझ पड़े किसी शर्त के साथ उसको मंसूरन करे; देखोमोधू बनाम गुलवर 9 W. R. 511. हनुमान बनाम बाबूकृष्ण 8 Beng. L. R. 358. तेजपाल बनाम गङ्गा 25 All. 59. मसलन् अदालत यह कह सकती है कि-- इन्तक़ाल करने वाला अपने हिस्से में से वह रक़म उस श्रादमीको
अदा करता रहे जिसके नाम इन्तक़ाल किया गया है और जिसके बदले में रक़म ली गयी है; देखो -- महात्रीप्रसाद बनाम रामयाद 12 Beng. L. R. 90 जमुना बनाम गङ्गा 19 Cal 401. इससे स्पष्ट है कि बम्बई और मदरास तथा बंगाल और संयुक्त प्रान्तमें इस आखिरी अन्शमें क़ानूनके अर्थमें मतभेद नहीं है प्रायः सब जगह पर यही है । हर हालत में वह आदमी जिसके नाम इन्तक़ाल किया गया इन्तक़ाल करनेवालेके हिस्सेका हक़दार होता है: देखोदीनदयाल बनाम जगदीश नरायन 3 Cal. 198--208; 4 I. A, 247-255.
पिता द्वारा इन्तक़ालमें नीलाम मंसूख नहीं हुआ - यह ठीक नहीं है कि यदि मुआवज़ेका कोई भी भाग, चाहे वह कितनाही कम क्यों न हो नाजायज़ हो, और उसकी पावन्दी मुद्दईपर, इस वजहसे न हो कि वह क़ानूनी आवश्यकता में शुमार न हो, तो मुद्दईको यह अधिकार होगा, कि वह नीलाम को मंसूखकरा देवे। इसके विरुद्ध कितनेही प्रमाण हैं कि यदि मावजेका कोई भी अंश, जो क़ानूनी आवश्यकतामें शामिल न हों बहुतही मामूली हो, तो नीलाम जायज़ रहेगी। एक नज़ीर है जिसमें मावज़े के ६०००) रु० में से २५० ) क़ानूनी आवश्यकताके बाहर पाये गये, किन्तु यह प्रमाणित हुआ कि यह रुपये मुद्दई के पिताको दिये गये थे । तय हुआ कि नीलाम जायज़ रहे और २५० ) रुपये, डिकरीकी रक्रममें वज़ा न किये जांय - बहादुरलाल बनाम कमलेश्वरनाथ L. R. 6 A 591; 90 I. C. 988; A. I. R. 1925 All. 624 ( F. B. ).
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मुश्तरका खान्दान
[छठा प्रकरण
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नाबालिग खान्दानी साझीदार द्वारा मंसूखीकी नालिश-गैर तहज़ीबी या गैर कानूनी साबित करने की पुत्रकी जिम्मेदारी-गिरधारीलाल बनाम किशनचन्द 85 I. O. 463; A. I. h. 1925 Cal. 240.
मुश्तरका खान्दान-बिना आवश्यकताका इन्तकाल पूर्णतया मंसूख किया जा सकता है, न कि केवल उस हद तकही, जो कि बिरोध करने वाले हिस्सेदारका अधिकार है-चिरौंजीलाल बनाम करतारसिंह A. I. R. 1925 Lah. 130.
रेहननामेकी डिकरी और नीलाम और जब नीलाम नाबालिग द्वारा मंसूख न कराई जा सके-गजाधर पांडे बनाम यदुवीर पांडे 47 A. 122; 85 I.C. 31; A. I. R. 1925 All. 183.
उदाहरण-(१) जय और विजय दो हिन्दु भाई मुश्तरका खान्दानमें हैं और कलकत्तमें रहते हैं उनके खान्दानमें मिताक्षराला माना जाता है जय खान्दानका मेनेजर है उसने जायज़ ज़रूरतके लिये ३०००)रु० महेशसे लेकर खान्दानकी जायदाद उसके पास रेहन करदी। रेहनमें विजयकी मंजूरी नहीं लीगयी थी। पीछे विजयने अदालतमें रेहन मंसूख किये जानेका दावा जय
और महेशपर किया अदालतको मालूम हुआ कि जयने जायज़ ज़रूरत बता कर महेशसे कर्जा लिया था और महेशने उसकी बातपर विश्वास करके वह कर्जा दिया था ऐसी सूरतमें रेहन मंसूख करते हुये अदालतने यह हुक्म दिया कि जायदादमें आधा हिस्सा जयका रहे और आधा विजयका, परन्तु जय अपने आधे हिस्सोंमें से महेशका कुल कर्जा सूद सहित बराबर अदा करता रहे। इस तरहका फैसला बङ्गाल और संयक्त प्रान्तमें मिताक्षराला के अनुसार होगा। अगर रेहन करने के बाद जय मर जावे तो महेशका रुपया मारा जायगा उसे कुछ भी नहीं मिलेगा क्योंकि सरवाइवरशिपके द्वारा जय की जायदाद विजयके पास चली जायगी और विजय उसका पूरा मालिक हो जायगा परन्तु महेशके क़र्जाका जिम्मेदार नहीं रहेगा, देखो-माधोप्रसाद बनाम मेहरबानसिंह 18 Cal. 157; 17 I. A. 194.
(२) ऊपरके उदाहरणको ध्यानमें रखकर पुनः विचार कगे जय और विजय दोनों मिताक्षरा मानने वाले हैं, जय मुश्तरका खान्दानकी जायदाद विजयकी बिना मंजूरी महेशको बेच दी, विजय उस विक्रीकी मंसूखीके लिये जय और महेशपर दावा करता है, यह साबित है कि जयने बिक्रीका रुपया जायदादके किसी जायज़ क़र्जेके चुकाने में अदा किया था ऐसे मामले में दङ्गाल और संयुक्त प्रांत के अन्तर्गत अदालत बिक्री मंसूख कर देगी मगर साथ ही यह भी हुक्मदे सकती है कि महेश बतौर सादे कर्जेके अपना रुपया वसूल करे। लेकिन अगर जयने वह बिक्रीका रुपया खास अपने कर्जेके चुकानेमें अदा किया हो या मुश्तरका खान्दानके किसी काममें जो जायज़ और ज़रूरी हो
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दफा ४५७ ]
इन्तकाल मंसूरन करना
न लगाया हो तो महेशको सादे कर्जेकी तरहपर भी वसूल करनेका अधिकार नहीं रहेगा यानी सब रुपया मारा जायगा।
नोट-खरीदारको चाहिये कि अच्छी तरहसे और सब तरहसे मुश्तरका खान्दानी जरूरत जायजको मालूम करके रुपया दे और खबर रख कि वह रुपया खान्दानी जायज काममें खचर्चा होगा वरना बड़े झगड़में फंसना पड़ेगा-ऊपरके उदाहरण देखो-अगर इन्तकाल करने वाला बाप हो तो उसके बेटों को पाबन्द होना पड़ेगा । बम्बई और मदरासकी बात बिल्कुल साफ ऊपर कही जा चुकी हैं। दफा ४५७ मुश्तरका जायदादके इन्तकाल हो जानेपर कौन
उज कर सकता है जबकि कोई कोपार्सनर अपने अधिकारसे ज्यादा या हिस्सेसे ज्यादा मुश्तरका जायदादका इन्तकालकरे तो कोई भी दूसरा कोपार्सनर जो इन्तकालके समय मौजूद हो अदालतमें प्रार्थना करके उस इन्तकालको मंसूख करा सकता है, उसके सिवाय कोई भी कोपार्सनर जो इन्तकालके समय गर्भमें हो वह भी पैदा होनेके बाद उस इन्तकालको मंसून करा सकता है इसका कारण यह है कि हिन्दूलॉ के अनुसार गर्भ वाले पुत्रके अधिकार भी बहुत सी सूरतोंमें वही हैं जो जन्मे हुये पुत्रके होते हैं; देखो-सबापा थी बनाम सोमासुन्दरम् 16 Mad 76. रामअन्ना बनाम वेङ्कटा 11 Mad. 246. (दानका केस है) गिरधारीलाल बनाम कन्तूलाल 14 Beng. L. R. 187, 11 I. A. 321.
(१) उक्त 11 Mad. 246. में तय हुआ है कि जय, जो मिताक्षराला का माननेवाला है कोई पैतृक जायदाद विजयको दान करदी दानके समय जयका कोई पुत्र नहीं था लेकिन दानकी तारीखले दो मासके बाद एक पुत्र पैदा हुआ उस पुत्रके उज्र करनेपर अदालतने इस दानको मंसून कर दिया क्योंकि दानके समय वह लड़का गर्भमें श। चूंकि यह दानका मामला था इसलिये सबका सब मंसूख कर दिया गया न कि पुत्रके हिस्से तक।
(२) मदरास प्रान्तमें जैसाकि मिताक्षरालॉ का अर्थ माना जाता है जय उसका मानने वाला है बिना किसी जायज़ ज़रूरतके उसने कोई पैतृक जायदाद विजयको बेच दी इस बिक्रीके समय जो पुत्र जयका गर्भमें था उसके पैदा होने के बाद उसके उजुर करनेपर यह बिक्री सिर्फ पुत्रके हिस्से तक मंसूख करदी जायगी सबकी सब नहीं यानी बापके हिस्सेकी बिक्री मंसूख नहीं होगी इस किस्मका फैसला 16 Mad. 76. में किया गया है।
(३) जय और उसका पुत्र विजय मिताक्षराला मानने वाले हैं मुश्तरका खान्दानमें रहते हैं, जयने कोई पैतृक जायदाद विजयके हिस्से सहित
और बिना मंजूरी उसके एक जायज़ कर्जा अदा करनेके लिये महेशके हाथ बेंच दी यह बिक्री सर्वथा जायज़ मानी जायगी विजय उस बिक्रीपर कोई
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मुश्तरका खान्दान
[ छठवां प्रकरण
उज्र नहीं कर सकता क्योंकि बापका क़र्जा अदा करने के लिये यह विक्री की गई थी-इस क़िस्मका फैसला देखो-4 Bang. L R. 117;11 I. A 321.
(४) विकी हुयी जायदादसे हिस्सा लौटाना-प्रथम मुद्दाअलेह के पिता ( स ) की मृत्यु, उस जायदादको, जिसका वर्णन नालिशकी सूची नं० १ में है प्रथम मुद्दईक पिताके हाथ बेचनेके बाद तथा दूसरी सूची में वर्णित जायदादको चौथे मुद्दाअलेहके हाथ बेचने के बाद, और तीसरी सूची में वर्णित जायदादको मुद्दाअलेह नं. ३ के पूर्वजोंके हाथ बेचने के बाद, हो गई । चौथी सूचीमें वर्णित जायदादका इन्तकाल उसके द्वारान हुआ था । प्रथम मुद्दाअलेह ने यह जावा किया कि उसके पिता द्वारा किये हुए इन्तकाल की पाबन्दी उस पर न थी और अपने हिस्सेके बटवारे के लिये नालिश दायर कर दी तथा डिकरी प्राप्त किया। उपरोक्त मुक़द्दमेकी समाप्ति पर, मुद्दईने जिसके हकमें सूची नं०१ की जायदाद इन्तकाल की गई थी, नालिश दायरकी जिसपर कि (स) की जायदादके आम बटवारेके लिये अपील दायर हुई। उन्होंने यह दलील पेशकी कि जो जायदाद इन्तकाल करनेसे बच गयी थी, वह उस हिस्सेके नियत करने के लिये काफ़ी है जिसका प्रथम मुद्दाअलेह अधिकारी है। प्रथम अदालत में उन्होंने यह प्रार्थनाकी कि वह पूरी जायदाद, जो उन्हें बेची गई है (स) के हिस्से में लगा दी जानी चाहिये और ( स ) के मध्यसे उन्हें प्राप्त होनी चाहिये या दूसरी सूरतमें यदि अदालत यह फैसला करे कि वह जायदाद जोकि उन्हें बेची गई है उनके हिस्से में नहीं लगाई जा सकती तो उसके बजाय दूसरी जायदाद लगाई जानी चाहिये।
__ तय हुआ कि मुद्दय्यानको प्रथम प्रार्थनाका अधिकार नहीं है किन्तु वे दूसरी प्रार्थनाके अधिकारी हैं । जहां तक कि खाल खास जायदादकी बिक्रीका सम्बन्ध है प्रथम नालिश ही अन्तिम है और अमर तजवीज़ शुदः है। पहिली नालिशकी डिकरीका यह फैसला होता है कि मुद्दई उस नालिशमें अपना हिस्सा बतौर अलाहिदा जायदादके प्राप्त करता है और उसे मुश्तरकाखान्दान की जायदादकी तरहपर नहीं प्राप्त करता। दूसरी प्रार्थनाके सम्बन्धमें, यह मुद्दई के अधिकारके भीतर न था कि वह पहिली नालिशमें आम बटवारेकी प्रार्थना करता । सोडरी मुथू बनाम पवदे पचिया पिल्ले ( 1925) M. W. N. 844; 49 M. L. J. 679.
हिस्सेदारीकी जायदादकी एक महका इन्तकाल-पुत्र द्वारा इन्तकाल के मंसूख्न करनेकी नालिश-मुन्तकिल अलेहका श्राम बटवारे और पिता द्वारा इन्तकाल किये हुए भागके नियत करानेका अधिकार-कन्दा स्वामी ओडायन बनाम बेलामुदा ओडायन 92 I. C. 332 (1); A. I. R. 1925 All 96.
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दफा ४५८ ]
इन्तक़ाल मंसूरन करना
दो व्यक्तियों के मध्य समान भाग लेनेका सुलहनामा जायज़ माना गया गौचन्द्रदास बनाम सुवासिनी दासी A. I. R. 1926 Cal 240.
उसके अधिकार रेहननामे की डिकरीपर एतराज करने का अधिकार-नारायन बनाम धूंधाबाई 92 1. C. 663, A. I. R. 1925 Nag. 299.
पितामहके खिलाफ़ डिकरीमें नीलाम -- यदि प्रपौत्र विरोध करे, तो उसे क़र्ज़ को गैर तहज़ीबी साबित करना होगा, बद्रीनाथ बनाम राधा वल्लभ राज जी A. I. R. 1925 Qudh. 199.
पिता के खिलाफ़ डिकरीकी नीलाम, पुत्र के अधिकारपर भी पहुंचती है जब तक कि महाजनको यह न विदित हो कि क़र्ज़ गैर तहजीबी मतलबसे लिया गया था, सत्यनारायन बनाम बिहारीलाल 6 Lah. 1; 52 I. A. 22; (1925) M. W. N. 1; 23 A. L J. 85; L. R. 6 P. C. 1; 21 L. W 375; 27 Bom L. R. 135; 84 I. C. 883; 29 C. W. N. 797; A. I. R. 1925 P. C. 18; 47 M. L. J. 857; (P.C.)
दफा ४५८ जायज़ इन्तक़ालके समय यदि गर्भमें भी पुत्र न हो तो हक़ नहीं है।
जायज़ इन्तकाल के समय यानी जिस समय मुश्तरका खान्दानकी किसी जायदादका इन्नक़ाल किया गया हो वह पुत्र उस समय न तो गर्भमें हो और न जन्मा हो तो वह पीछे पैदा होकर उस इन्तक़ालके मंसूत्र करापाने का दावा नहीं कर सकता, देखो -- राजाराम बनाम लक्षमण 8 W. R. 16, 21 भोलानाथ बनाम कारलिक 34 Cal. 372, 33 All 289.
लेकिन जो इन्तक़ाल नाजायज़ हो अर्थात् बिना जायज़ ज़रूरत के या जो उस वक्त पुत्र मौजूद हों उनकी रजामन्दीके बिना किया गया हो वह इन्तक़ाल, पीछे उन पुत्रोंके उज्र करनेपर और उस पुत्रके भी उज्र करनेपर जो पीछेसे पैदा हुआ है मंसूख किया जायगा लेकिन अगर इन्तक़ालके वक्त जो पुत्र मौजूद हों उन्होंने उस इन्तक़ालको मंजूर कर लिया हो या पीछेसे मंजूर कर लिया हो तो मंसूख नहीं किया जायगा, देखो - 33 All 664,
( १ ) जय, मिताक्षरालों का मानने वाला है उसने एक पैतृक जायदाद महेशको बेच दी, बिक्री के समय जयका कोई पुत्र न तो मौजूद था और न गर्भ में था तथा बिक्री बिना जायज़ ज़रूरतके की गयी थी परन्तु फिर भी वह बिक्री जायज़ है मंसूख नहीं की जा सकेगी क्योंकि ज़रूरत जायज़ या नाजायज़का सवाल उसी वक्त पैदा होता है जब दूसरे कोपार्सनर भी मौजूद हों अगर बिक्रीके दो वर्ष के बाद कोई पुत्र जयके पैदा हो तो वह उस बिक्री को नाजायज़ नहीं ठहरा सकता ।
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[ छठवां प्रकरण
खान्दानी साझीदारोंके खिलाफ़, जो कि बयनामेके समय मौजूद थे, बीती हुई मियाद किसी नाबालिग साझीदारके पैदा होने या गर्भ में आने से पुनर्जीवित नहो सकेगी, सिकन्दरसिंह बनाम बच्चूपांडे AI R.1925Ajl 54. मावजा - मावज़ेका अधिक भाग ऐसा पाया गया जिसकी जिम्मेदारी थी -- डिकरीकी क़िस्म - सनमुख पांडे बनाम जगन्नाथ पांडे 83 I. C. 838; A. I. R. 1924 All. 708.
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मुश्तरका खान्दान
पीछेसे पैदा हुआ सदस्य इन्तक़ाल मंसूरन करा सकता है - अधिकारसीतारामसिंह बनाम छेदीसिंह 46 All. 882; 83 1. C. 1052; A. I. R. 1924 All. 798.
नोट - ऊपर के उदाहरणमें बिक्रीका मतलब यह है कि जायदादका इन्तकाल पूरी तरह से न हुआ हो मसलन् बिक्रीका सिर्फ इक़रार हुआ हो और इक़रारके बाद कोई पुत्र पैदा हो तो मिताक्षराला के अनुसार बंगाल और संयुक्त प्रांतमें वह विक्री सबकी सब मंसूख हो जायगी मगर बम्बई और मदरास प्रांत पुत्र के हिस्से तक मंसूख होगी यानी पुत्रका हिस्साही सिर्फ बरी कर दिया जायगा, देखो - पुनाम बाला बनाम सुन्दरप्पा एय्यर 20 Mad. 354 और देखो ट्रान्स्फर आफ प्रापरटी ऐक्ट १ ८८२की धारा ५४
(२) जयका एक लड़का विजय है, जयने पैतृक जायदाद विजयकीरज़ामन्दी बिना किसी जायज़ ज़रूरत के लिये महेशके हाथ बेंच दी, बेंचने की तारीख से दो वर्ष बाद जयके एक और पुत्र पैदा हुआ बिक्री नाजायज़ थी इसलिये पीछेसे पैदा हुये लड़केके उज्र करने पर बङ्गाल और संयुक्त प्रान्तमें सबकी सब बिक्री, और बम्बई तथा मदरासमें सिर्फ पैदा हुये लड़के के हिस्से तक मंसूख करदी जायगी । लेलिन अगर वह बिक्री विजयकी रजामन्दीसे हुई थी तब वह लड़का कोई उम्र नहीं कर सकता क्योंकि माना जायगा कि वह बिक्री जायज़ थी और अगर उस लड़केको गर्भ में आनेके पश्चात् या पैदा होने के पश्चात् विजयने रजामन्दी दी हो तो उस लड़के का हक़ नष्ट नहीं होताइसी क़िस्मका केस देखो - 33 All 654, 11 W. R. 480.
( ३ ) जय और उसका पुत्र विजय, तथा जयके चाचाका पुत्र राम मुश्तरका खान्दानमें हैं, विजयकी नाबालिगीमें जय और रामने मुश्तरका जायदाद आपस में बांटली अर्थात् जयने कुछ जायदाद रामको देदी इसके पश्चात् जयके दो पुत्र शिव और सेवक पैदा हुये तीनों भाइयों ( विजय, शिव, सेवक ) ने उस जायदाद के वापिस पानेका दावा जय और राम पर किया जो जयने रामको दी थी। तीनों भाइयोंने कहा कि यद्यपि जयने रामको अपने चाचाका दत्तक पुत्र मानकर वह जायदाद दी थी परन्तु वह दत्तक जायज़ नहीं था इसलिये रामको खान्दानकी किसी जायदादपर कोई हक़ नहीं है ( यह साफ़ है कि अगर दत्तक दर असल नाजायज़ है तो उसको इस तरहपर जायदाद का देना भी नाजायज़ है ) इसलिये विजय, शिव, और सेवक तीनों अदालत
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दफा ४५६-४६०]
इन्तकाल मंसूख करना
में प्रार्थना करके जायदाद वापिस ले सकते हैं; देखो-रामकिशोर बनाम जैनरायन 40 Cal. 966; 40 I. A. 213.
दावाकी मियाद-मिताक्षरालॉ मानने वाले बापने जिस पैतृक जायदादका इन्तक़ाल किया हो उसपर उसका पुत्र बारह वर्षके अन्दर उज्र कर सकता है और यह मियाद उस समयसे शुरू होगी जबकि उस आदमीने जिसके नाम इन्तकाल किया गया है जायदाद पर क़ब्ज़ा किया हो। देखो लिमीटेशन ऐक्ट नं०६ सन १९०८ ई०. । दफा ४५९ जायदादके इन्तकाल के बाद यदि दत्तक लिया गया हो
मुश्तरका जायदादके इन्तकालके पश्चात् जो दत्तक पुत्र लिया गया हो वह उस इन्तकालको जो जायज़ हो रद्द नहीं करा सकता मगर नाजायज़को करा सकता है। देखो-सूदानन्द बनाम सूर्यमणि 11 W. R. 436. रामभट्ट बनाम लक्षिमण 5 Bom. 630..
दत्तक-दत्तक लेन वाले पिता द्वारा नाना Maternal grand father) की जायदाद प्राप्त किया जाना-दत्तक पुत्र इसमें खान्दानी साझी है-बी० शेषझा बनाम ए० अप्पाराव A I. R. 1925 Mad. 125. दफा ४६० माके गर्भ में रहते हुए पुत्रके अधिकार
हिन्दूलॉ के अनुसार गर्भ में जो पुत्र हो उसको भी बहुत कुछ वही अधिकार प्राप्त हैं जो जन्में हुये पुनको हैं । गर्भमें चाहे लड़का हो या लड़की उनके जीवित पैदा होनेपर वे वरासतके अधिकारी हैं । गर्भ में जो पुत्र हो वह बटवाराके समय जायदादमें हिस्सा पानेका भी अधिकारी माना गया है। गर्भमें उस पुत्रके रहते समय यदि उसका बाप वसीयत द्वारा किसीको जायदाद दे दी हो या दे गया हो तो वह पुत्र पैदा होनेपर सरवाइवरशिप द्वारा उस जायदादको वापिस ले सकता है जिस तरहसे जीवित पुत्र पिताकी मृत्युके बाद सरवाइवरशिपसे उसकी जायदाद पाता है। उसी तरह वह पुत्र भी जो गर्भ में हो जायदाद पायेगा। पुत्रके सरवाइवरशिपका अधिकार रद्द करनेके लिये बाप किसी तीसरे श्रादमीको मुश्तरका जायदाद नहीं दे सकता चाहे वह पुत्र मौजूद हो या गर्भ में हो। जायदादके जिस इन्तकालपर जीवित पुत्र अदालतमें उज्रकर सकता है उसी तरह वह पुत्र भी कर सकता है जो इन्तकालके समय गर्भ में हो। सिर्फ एक ऐसी सूरत है जिसमें हिन्दुला गर्भ रहने वाले पुत्रको मौजूद नहीं मानता वह सूरत दत्तक पुत्रके सम्बन्धमें है क्योंकि आदमी अपनी स्त्रीके गर्भवती होनेपर भी दत्तक पुत्र ले सकता है पीछे चाहे गर्भसे पुत्रही उत्पन्न हो, देखो -हनूमन्त बनाम रामवन्द्र 12 Bom. 105. और देखो दफा १०५.
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[ छठवां प्रकरण
बादको पैदा हुये पुत्रका पिताकी जायदाद में हिस्सा है - ओङ्कारेश्वर बनाम दुशान्तप्रसाद A-1. R. 1925 Oudh 56.
५५२
मुश्तरका खान्दान
सुश्तरका खान्दान-बंटवारा-टवारे के सम्बन्धमें फ़रीक़ों के बीचका एक बड़ी शहादत है -- अलाहिदी के प्रमाणित करने की जिम्मेदारी उस पक्षपर होती है जो कि इसे पेश करता है जबकि कोई खान्दानी जायदादका होना क़बूल कर लिया जाता है - हरनारायन पांडे बनाम सुरेश पांडे A. I.
R. 1925 Oudh. 56.
पुत्रका अधिकार जब वह जायदाद बापके हक़ से निकल जानेके बाद पैदा हुआ हो -- कोई हिन्दू पुत्र, उसके पिता के खिलाफ दीगई रेहननामेकी डिपर एतराज़ नहीं कर सकता, जबकि वह, पिताके उस जायदादसे अधिकार चले जाने के बाद पैदा हुआ हो, नरायन बनाम मु० धूधाबाई 21 Nag. L. R. 38; A I. R. 1925 Nag. 299.
दायभाग लॉ
दायभागला के अनुसार कोपार्सनर और कोपार्सनरी जायदाद
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दफा ४६१ दायभागलॉके अनुसार मुश्तरका ख़ानदान की खास पहिचान
कोपार्सनर और कोपार्सनरी जायदाद के सम्बन्धमें दायभाग लॉ-- मिताक्षराला से बिल्कुल भिन्न है, परन्तु जहां दायभागमें कुछ नहीं कहा गया वहां पर जहां तक सम्भव है मिताक्षराला ही माना जाता है क्योंकि बङ्गाल में भी मिताक्षराला का प्रमाण सबसे ऊंचे दर्जेका माना जाता है, जहां पर मिताक्षरा और दायभाग में मतभेद होता है वहीं पर सिर्फ दायभागला बङ्गाल में माना जाता है; देखो -- कलक्टर आफ मदुरा बनाम मोटोराम लिंग 12 M. I. A. 397-105. भगवानदीन बनाम मैनाबाई 11 M. I. A. 487-507. अक्षय बनाम हरीदास 35 Cal. 721.
पैतृक सम्पत्ति में पिता और पुत्रोंके अधिकारके सम्बन्धमें दायभाग के सिवाय दो और भी ग्रन्थ हैं जो बङ्गालमें मान्य है १ - दायतत्व २ - दायक्रम संग्रह दायत्व कर्ता हैं पं० रघुनन्दन जो सोलहवीं शताब्दी में हुये और दायक्रम संग्रह कर्ता हैं श्रीकृष्ण तत्वालंकार जो अट्ठारहवीं शताब्दी में हुये यह दोनों ग्रन्थ वरासतसे सम्बन्ध रखते हैं देखो - दफा २३-५.
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दफा ४६१-४६३]
दायभाग-लॉ
५५३
यह विचार कि संयुक्त खान्दानमें, व्यक्तिगत नामकी जायदाद भी संयुक्त खान्दानकी ही जायदाद होती है, उस दशामें जबकि खान्दान केवल पिता पुत्र का हो और दायभागलॉ के अधीन हो, नहीं माना जाता। इस बातके निर्णय में कि आया जायदाद स्वयं उपार्जित है, इसपर ध्यान दिया जाता है कि वह रकम जिससे वह खरीदी गई है कहांसे प्राप्त हुई है। इस बातके सुबूत न होनेपर, कि उस सदस्यके पास कोई पृथक फण्ड है, यह माना जाता है कि वह संयुक्त खान्दानकी जायदाद है--यशोदा सुन्दरी बनाम पालमोहन 42 C. L. J. 486. दफा ४६२ लड़के अपनी पैदाइशसे कोई हक़ नहीं प्राप्त करते
___ मिताक्षरालॉ के अनुसार प्रत्येक पुत्र कुल पैतृक जायदादमें अपनी पैदाइशसे वापके साथ बराबरका हक़ प्राप्त कर लेता है, और बापके मरने के बाद लड़का सरवाइवरशिपके अनुसार बापकी छोड़ी हुई जायदाद लेता है न कि उसके वारिसकी तरह। दायभागलों के अनुसार लड़के पैतृक जायदादमें अपनी पैदाइशसे कोई भी हक़ नहीं प्राप्त करते, उनका हक़ बापके मरनेके पश्चात् पैदा होता है बापके मरनेपर लड़के उतनीही जायदाद पाते हैं जितनी कि बाप छोड़ गया हो चाहे वह जायदाद मौरूसी हो या उसकी अलहदा कमाईकी हो इस स्कूलमें लड़के सरवाइवरशिपके अनुसार बापकी जायदाद नहीं पाते बल्कि वह बतौर वारिसके पाते हैं। बाप और लडकोंके बीच में कोपार्सनरी नहीं होती। हिन्दूला के कुछ लेखकोंकी राय है कि बाप और लड़के पैतृक जायदादमें मुश्तरका हक़ प्राप्त करते हैं और इसलिये वह कोपा. सनरीकी हक़दारीके भीतर आ सकते हैं मगर यह बात पूरे तौरसे तय नहीं हुई है कि कहां तक यह बात इस बङ्गाल स्कूल में माननीय होगी। दफा ४६३ पैतृक जायदादके इन्तकाल करने में बापको पूरा
अधिकार है ___ जब दायभागलॉ में यह बात मानी गयी है कि लड़के अपनी पैदाइशसे पैतृक जायदादमें कोई हक़नहीं प्राप्त करसकते इसीलिये कुल पैतृक जायदादको बाप अपनी मरज़ीके अनुसार बैंच सकता है, रेहन कर सकता है, दान कर सकता है, वसीयत कर सकता है, और दूसरे तरीकोंसे भी दे सकता है चाहे वह जायदाद मनकूला हो या गैर मनकूला हो । मौरूसी जायदादमें वापके वैसेही अधिकार होते हैं जैसे उसको अपनी अलहदा जायदादमें, देखोरामकिशोर बनाम भुवनमयी (1859) Beng. S. D. A. 229, 250-251. देवेन्द्र बनाम बृजेन्द्र 17 Cal. 846. यही कायदा वहांपर भी लागू होगा जहां पर जेठे लड़केका हक़ जायदाद पानेका माना गया हो, देखो-उदय बनाम
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[ छठवां प्रकरण
आदोलाल 5 Cal. 113. नरायन बनाम लोकनाथ 7 Cal. 461. मिताक्षराला में बापके अधिकार मौरूसी जायदाद के इन्तक़ालमें महदूद रखे गये हैं देखो इस किताबकी दफा ४४४.
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मुश्तरका खान्दान
दफा ४६४ लड़के बापसे बटवारा नहीं करा सकते और न हिसाब मांग सकते हैं
दायभागलॉ में लड़कोंका कोई हक़ उनकी पैदाइशसे मौरूसी जायदाद मैं नहीं होता इसलिये उस जायदादका बटवारा भी लड़के बापसे नहीं करा सकते और न उस जायदाद के इन्तज़ाम करनेका हिसाब तलब कर सकते हैं। बाप जायदादका तनहा पूरा मालिक होता है और ऐसा माना जाता है किं वह उसकी खास जायदाद है, उसे अधिकार है कि जैसा इन्तज़ाम चाहे करे, देखो - दायभागलॉ चेप्टर १ दफा ११-३१-३८-४४-५०, चेप्टर २ दफा ८ मिताक्षरालों में ऐसा नहीं होता उसमें लड़के बटवारा करा सकते हैं तथा हिसाब देख सकते हैं देखो इस किताबकी दफा ४१०.
दफा ४६५ दायभागलॉके अनुसार पैतृक सम्पत्ति कौन है ?
यह बात दोनों स्कूलोंमें मानी गयी है कि बाप, दादा, परदादासे मिली हुई जायदाद पैतृक जायदाद होती है मगर मिताक्षराके अनुसार पैतृक जायदादमें लड़का अपनी पैदाइशसे हक़ प्राप्तकर लेता है दायभागलॉ में नहीं करता । दफा ४६६ दायभागलॉके अनुसार कोपार्सनर
मिताक्षराला में कोपार्सनरीकी बुनियाद पुत्रका उत्पन्न होना है यानी पुत्र पैदा होतेही कोपार्सनरी शुरू हो जाती है देखो दफा ३८६ लेकिन दायभागलों में बापके मरनेके बाद से कोपार्सनरी की बुनियाद पड़ती है जब तक बाप जीवित है कोपार्सनरी नहीं समझी जाती मरनेके बाद कोपार्सनरी होने पर मृत पिता के पुत्र उसके वारिस बनकर उसकी पैतृक और अलहदा जायदाद आपसमें कोपार्सनरकी तरह रखते हैं । इन पुत्रों अर्थात् कोपार्सनरों में से किसीके मरने पर उसके वारिस उसके हिस्से के पानेके अधिकारी होते हैं और उसकी जगह कोपार्सनरी की हिस्सेदारीमें शरीक हो जाते हैं इस स्कूल
पुत्र, लड़कियां विधवा या विधवायें भी वारिस हो सकती हैं इससे साफ़ है कि दायभागमें स्त्रियां भी अपने बाप या पतिकी वारिस बनकर कोपार्सनरीमें शरीक हो जाती हैं, परन्तु मिताक्षराला में कोई स्त्री कोपार्सनरीमें नहीं शरीक हो सकती । दायभागलों में कोपार्सनरी स्त्रीसे शुरू नहीं होती, तथा स्त्रियां आपस में कोपार्सनर नहीं होतीं बल्कि वारिस तरीके कोपार्सनरी में शामिल रहती हैं ।
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दफा ४६५-४६८]
दायभाग-लॉ
(१) देखो, दायभाग मानने वाला विजय अपने तीन पुत्र मुकुंद, कुमुद और अनन्तको छोड़कर मर गया यह तीनों भाई अपने बापके वारिस और श्रापसमें कोपार्सनर हैं पीछे मुकुन्द एक विधवा छोड़कर मर गया तथा कुमुद एक लड़की छोड़ कर मर गया यह विधवा और लड़की अनन्तके साथ कोपार्सनर होंगी।
(२) दायभागका मानने वाला विजय बिना वसीयत किये मर गया उसने अपना एक पुत्र, और एक पोता जिसका बाप मर गया है, और एक परपोता जिसका बाप और दादा मरगया था, छोड़ा यह सब विजयके वारिस होकर उसकी जायदादमें कोपार्सनर होंगे। परपोतेका लड़का कोपार्सनरीमें नहीं शामिल होगा।
(३) दायभागके अनुसार कोपार्सनरी भाइयों, चाचाओं, भतीजों, या चाचाओंके पुत्रों आदिमें होती है मगर वह बाप और बेटे, तथा दादा और पोते, इसी तरह परदादा और परपोतेके बीचमें नहीं होती देखो-.
विजय
अनन्त प्रयाग धीरज विचार करो अगर विजय मुकुन्द, कुमुद, अनन्तको छोड़कर मर जाय तो वह तीनों वारिस हैं तथा आपसमें कोपार्सनर हैं। अगर प्रयाग को छोड़कर मुकुन्द और धीरजको छोड़कर कुमुद मर जाय तो उस समय अनन्त प्रयाग, और धीरज आपसमें कोपार्सनर हैं। अगर मुकुन्द, कुमुद अनन्त, प्रयाग तथा धीरज सब जीवित हों तो प्रयाग और धीरज कोपार्सनर नहीं होंगे। अगर कोपार्सनरीकी हालतमें प्रयागको छोड़कर मुकुन्द मर जाय तो प्रयाग अपने बापका वारिस होगा और कोपासेनरीमें शामिल हो जायगा।
नोट-मुसलमान, पारसी, ईसाई आदिमें दो भाई आपसमें कोएयर ( Coheir ) अर्थात समान अधिकार प्राप्त उत्तराधिकारी होते हैं परन्तु दो हिन्दू भाई आपसमें कोपार्सनर होते है। दफा ४६७ दायभागला की कोपार्सनरी जायदाद
मिताक्षराला में जितनी क्रिस्मकी जायदाद कोपार्सनरी जायदाद में शामिल मानी गयी है वही दायभागलॉ में भी मानी गयी है देखो इस किताबकी दफा ४१७. दफा ४६८ दायभागमें हर एक कोपार्सनर अपना हिस्सालेता है
मिताक्षरालॉ की कोपार्सनरी में सब कोपार्सनरोंका मालिकाना अधिकार एक समान मिला हुआ रहता है अर्थात् मुश्तरका खान्दानका कोई
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[ छठवां प्रकरण
आदमी अपने हिस्सेकी तादाद नहीं बता सकता क्योंकि दूसरे कोपार्सनरोंके मरने या पैदा होने से उसके हिस्सेकी तादाद बढ़ घट सकती है बटवारा होने के बाद हिस्से की तादाद मालूम हो सकती है बीचमें नहीं ।
५५६
A
मुश्तरका खान्दान
दायभागमें मालिकाना अधिकारकी नहीं बल्कि क़ब्ज़ेके अधिकारकी एकता है अर्थात् हर एक कोपार्सनरका हिस्सा निश्चित रहता है किसी दूसरे कोपार्सनरके मरने या पैदा होनेसे बढ़ता घटता नहीं, बटवाराके पहिले यह बात मालूम रहती है कि किस कोपार्सनरका कितना हिस्सा है पिता के मरने के बाद पुत्रोंका क़ब्ज़ा जायदादपर एकसां होता है क़ब्ज़ा एकसां होनेकी हालत में कोई दो पुत्र यह नहीं कह सकते कि दो आधे हिस्सों में अमुक आधे हिस्सा हमारा है ( हिस्साकी तादाद निश्चित रहेगी मगर जायदाद के क़ब्ज़े मैं नहीं ) ऐसा वह बटवाराके बादही कह सकते हैं । दायभागमें मुश्तरका क़ब्ज़ा तोड़ने का नाम बटवारा है और मिताक्षरामै मुश्तरका अधिकार तोड़ने का नाम बटवारा है
दफा ४६९ दायभागमें सरवाइवरशिप
दायभागलॉमें सरवाइवरशिपका हक़ नहीं होता जैसा कि मिताक्षरा में होता है, देखो - - दफा ५५८ - १. इस स्कूलमें अपने हिस्सेपर कोपार्सनरका पूरा अधिकार होता है ।
दफा ४७० कोपार्सनर का पूरा अधिकार
दायभाग लॉ हरएक कोपार्सनर अपने हिस्सेको बिना पूंछे दूसरे कोपार्सनरों के इन्तक़ाल कर सकता है यानी बेंच सकता है, रेहन कर सकता है, दान कर सकता है, वसीयत या और जो जी चाहे कर सकता है मगर मिताक्षरा लॉमें ऐसा नहीं हो सकता, देखो - केंवलराम बनाम रामहरी 4 Beng. Sel. R. 196,
दफा ४७१ अदालतकी डिकरीका असर
जब किसी दायभागलॉ मानने वाले कोपार्सनरपर क़ज़ैकी डिकरी अदा- लतसे हो उसमें उसका हिस्सा जिसने नीलाम में खरीद कियाहो वह खरीदार उस कोपार्सनर की जगरपर अधिकार प्राप्त कर लेता है मगर मिताक्षरा लॉमें ऐसा नहीं होता, देखो - 10 Cal. 244.
इसी तरहपर हर एक कोपार्सनर अपना हिस्सा किसी दूसरे आदमी को पट्टापर भी दे सकता है और पट्टा लेने वाला उसकी जगह कोपार्सनर बन जाता है जैसा कि खरीदार, देखो - रामदेवल बनाम मित्रजीत 17 W. . R. 320; मेकूडानल्ड बनाम लालाशिव 21 W. R. 17.
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दायभाग-लॉ
दफा ४६६-४७५ ]
दफा ४७२ दायभागलॉका मेनेजर
मुश्तरका खान्दान की जायदाद के मेनेजरके अधिकार दायभाग और मिताक्षरा लॉमें एक समान हैं; देखो - 32 Mad. 271, 274. दफा ४७३ कोपार्सनरी जायदादका लाभ
५५७
दायभागलॉका कोई कोपार्सनर जिस तरहपर चाहे अपने हिस्सेको काममें लावे, देखो -- ईश्वरचन्द्र बनाम नन्दकुमार 8 W. R. 239. रामदुबल बनाम मित्रजीत 17 W. R. 420 लेकिन वह ऐसा कोई काम नहीं करसकता कि जिससे कोपार्सनरी जायदादको हानि पहुंचे ( 13 W. R. 322 ) या जिससे दूसरे कोपार्सनरों के अधिकारमें फरक पड़े मसलन् वह किसी मुश्तरका खेत का कोई एक हिस्सा सिर्फ अपने लाभ के लिये नहीं जोत सकता (20 W. R. 168 ) अगर उसका हिस्सा उस खेतमें अलग बता दिया गया हो तो वह ऐसा कर सकता है ( 18 Oal. 10, 21; 17 I . A. 110, 120 ) . दफा ४७४ बटवारा करानेका अधिकार
मिताक्षरा लॉकी तरह दायभाग लॉमें भी हर एक बालिग़ कोपार्सनर बटवारा कराने का दावा कर सकता है, देखो - 6M. I. A 526. दफा ४७५ कोपार्सनरी जायदादमें अदालतका ख्याल
मुश्तरका खान्दान और मुश्तरका जायदादके विषयमें अदालत जो कुछ ख़्याल करके मान सकती है वह अधिकांश मिताक्षरा लॉ और दायभाग लॉ दोनो में एकही है। लेकिन दायभाग लॉमें यह नहीं ख़्याल किया जासकता कि बापने अपने पुत्र के नामसे जो जायदाद खरीदी वह मुश्तरका खान्दानकी जायदाद में शामिल है अर्थात् वह शामिल नहीं मानी जायगी क्योंकि इस स्कूल में बाप और बेटे के दरमियान मुश्तरका खान्दान नहीं होता, ऐसे मामले कि वह जायदाद बापकी थी या बेटेकी इसमें बार सुबूत उस पक्षपर होगा जो यह बयान करता हो कि यह जायदाद बाप की है; देखो - सारदा बनाम महानन्द 31 Cal. 448.
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पैतृक ऋण मौरूसी क़र्ज़ा
1
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सातवां - प्रकरण
पुत्र और पौत्रकी जिम्मेदारी
दफा ४७६ पुत्रका कर्तव्य और जिम्मेदारी
जब कोई हिन्दू पुत्र या पौत्र अपने बाप या दादासे अलग न हुआ हो तो हिन्दूलों के अनुसार उस पुत्र और पौत्रका कर्तव्य है कि अपने बाप या दादाका लिया हुआ क़र्ज़ा अदा करे, देखो - नारदस्मृतिः कोलब्रुकड़ाईजेस्ट Vol. 1. P. 267,334 फकीरचन्द बनाम दयाराम 25 All 67 मगर शर्त यह है कि वह क़र्जी अनुचित और बे क़ानूनी कामोंके लिये न लिया गया हो देखो - कोलब्रुकड़ाईजेस्ट P. 300 और यह कि उस क़र्जेकी तमादी न हो गयी हो, सुब्रह्मण्य ऐय्यर बनाम गोपाल ऐय्यर 30 Mad. 308.
हिन्दू धर्म शास्त्रानुसार हिन्दू पुरुष और उसका बाप तथा उसका दादा और परदादा ये चारों एकही श्रात्मा भिन्न भिन्न चार शरीरमें माने जाते हैं इस सिद्धांतके अनुसार परदादाके क़र्जेका पाबन्द परपोता होना चाहिये परंतु लिमीटेशन एक्टके खास क़ायदेके अनुसार परदादाके क़र्जेकी देनदारी पर - पोतेपर नहीं पड़ती। बापका क़र्जा अनुचित है सिर्फ इस कारण कोई पुत्र बापका क़र्जा अदा करनेकी ज़िम्मेदारीसे छूट सकता है लेकिन वह जायदाद पर किसी विवाद को डालकर नहीं छूट सकता । मतलब यह है कि चाहे जायदाद मौरूसी हो या क़र्ज लेने वालेकी खुद कमाई हो दोनोंही हालतों में उसका क़र्जा पुत्रको पाबन्द करता, देखो -- हनुमानप्रसाद पांडे बनाम मुनरा6 Mad 1. A. 393; 10 W. R. C. R. P. 81; 1 I. A. 321; 14 B. L. R. 187, 197; 22 W. R. C. R. 56, 58.
मिताक्षराके अनुसार कोपार्सनरी जायदादमें बाप और बेटेका यद्यपि एकसाही हक़ होता है परन्तु बाप उस जायदादकी आमदनीमेंसे अपने जाती कर्जा चुका सकता है और जायदादपर उस क़र्जेका बोझ डाल सकता है और जायदादका या उसके किसी हिस्सेका इन्तक़ाल करके अपने बेटों या पोतोंको चाहे वे बालिग़ हों या नाबालिग पाबन्दकर सकता है, लेकिन
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दफा ४७६ ]
पुत्र और पौत्रकी जिम्मेदारी
५५४
भतीजेको पाबन्द नहींकर सकता; देखो-गंगूलू बनाम अंचाबापूलू 4 Mad. 73; रामरतन बनाम लक्षमणदास (1908 ) 30 All. 460; फूलचन्द बनाम मानसिंह : All. 309; 9 Cal.495; 12C.L.R 292,297; परिमनदास बनाम महूमल 24 Call.672; परन्तु शर्त यह है कि वह क़र्जा जायदादके इन्तकालसे पहले लिया गया हो इसपर फैसले देखो--29 Mad.200; चन्द्रदेवसिंह बनाम माताप्रसाद 31 All. 176; कालीशङ्कर बनाम नबाबसिंह (1909); 35 Bom.
9:12 Bom. L. R, 910: 20 Cal. 328:34 Cal. 7353; 11 c. W. N. 613; 27 Cal. 762; 6 Cal. 135; 7 C. L. R. 97; 5 Cal 855; 6 C. L. R. 470; 15 All. 75, 80.
अगर कर्जा अनुचित और बेक़ानूनी कामोंके लिये लिया गया हो तो उसके ज़िम्मेदार पुत्र और पौत्र नहीं होते, देखो-6 Mad. I. A. 393; 18 W. R C. R. 81; 8 Cal. 517; 10 C. L. R. 489; 8 Bom. 481; 15 B. L. R. 264; 23 W. R. C. R. 365; 3 Cal. 1; 4 Mad. 1; 4 Mad. 73:9 Mad. 3433; 2 Bom 494.4983 5 Bom. 621; 6 Bom. 520; 2 Bom. L. R. b9; 3 All. 125: 11 Cal. 396, 5 C. L. R. 224; 2 Cal, 438; 6 Mad. 400; 2 C. W. N. 603; 12 C. L. R 104,1 Bom. 262. 25 W. R.C. R. 311.
बाबुआना-बाबुआना ((trant) के तौरसे जो जायदाद मिली हो उससे भी यह नियम लागू होता है, देखो-दुर्गादत्तसिंह वनाम रामेश्वरसिंह बहादुर ( महाराज) (1909 ) 36 I. A. 176. 36 Cal. 943; 13 C.w. N. 1013; 11 B. L. R. 901.
बापका क़र्जा बंटे चाहे मंजूर करें या न करें वे पाबन्द अवश्य माने जायगे देखो-फूलचन्द बनाम मानसिंह ( 1882) 4 All. 309, बापका कर्जा चुकाने के लिये बेटोंको जायदाद का इन्तक़ाल करनाही पड़ेगा इसलिये पिता अपनी जिन्दगीमें अपने ज़ाती कर्जे के लिये कोपार्सनरी जायदादके इन्तकाल करनेका अधिकार रखता है मानो वह अपने बेटोंकी तरफसे इन्तकाल करता है इस लिये बाप कोपार्सरी जायदादका इन्तकाल इस ढंग से नहीं कर सकता कि उसके बेटेका हक़ भी पाबन्द होजाय अर्थात् बेटेका हक्र जब किसी डिकरीमें कुर्क होगया हो तो बाप उसे इन्तकाल नहीं कर सकता-सुवारागा बनाम नागाअप्पा 33 Bom. 264; 10 Bom LR.1206.
बापने कर्ज बेकानूनी और अनुचित कामोंके लिये लिया यह बात 'पुत्रको साबित करना होगा और यह भी सबित करना होगा कि खरीदारको
या कर्जा देनेवालेको यह बात मालूम थी या वह जांच करके मालूम कर सकता था कि वह कर्जा अनुचित कामोंके लिये लिया गया था; देखो-गिरधारीलाल बनाम कांतोलाल 1 I. A. 321; 14 B. L. R. 187; 22 W.
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५.६०
पैतृक ऋण अर्थात् मौरूसी कर्जा
सातवां प्रकरण
R. C. R.56; 6 I. A. 88; 5 Cal. 148-171; 4 Cal. L. R. 226. 238; 16 Mad. 9935. N. W. P. 89; 24 Bom. 343; I Bom L. R. 839: 31 All. 5996Mad 400; 151. A.99; 16 Cal 7173 24 W. R. C. R. 231; 25 W. R. C. R. 185.
पुत्र ऐसा सुबूत इस समय भी पेशकर सकता है जब कि रुपया किसी तीसरेसे लेकर कोई कर्जा बापने अदा किया हो; देखो-महाराजसिंह बनाम बलवंतसिंह 28 All. 508;
केवल इस क़दर साबित कर देना काफी नहीं होगा कि बाप फिजूल खर्च और ऐय्याश था, वल्कि उसे स्पष्टरीतिसे साबित करना पड़ेगा-30 All. 156; 8 All. 231; 6 All. 193. 23 W. R. C. R. 260; 15 I. A. 99; 15 Cal.717; 20 Bom. 534; 14 Bom. 320; 8 Mad. 75; 21 All, 238; 6 Bom. 520.
बापके क़र्जा लेनेके समय जो पुत्र पैदा नहीं हुआ वह उस रेहनपर कुछ आपत्ति नहीं कर सकता जो उस कर्जेके अदा करनेके लिये किया जाय भोलानाथ खत्री बनाम कार्तिक कृष्णदास खत्री 34 Cal. 372; 11 C. W.N. 462.
जब पुत्र यह सावितकरे कि कर्जेका कोई भाग अनुचित तथा बंकानूनी काम के लिये बापने लिया था तो बाकी कर्जे के लिये जायदाद जिम्मेदार रहेगी देखो-ऊपरकी नजीरें।
संयुक्त खान्दान के जायज़ रेहननामे को अदा करने के लिये, संयुक्त खान्दानी जायदाद का बेचा जाना जायज़ है उसकी पावन्दी प्रत्येक साझदार पर होती है। लाल बहादुर बनाम अम्बिकाप्रसाद 52 1. A. 443. 2 0. W. N. 913. (1925) M. W. N. 852; 47 A. 795; A. I. R. 1925; P.C. 264 (P.C.)
जब किसी संयुक्त हिन्दू परिवार के पितापर मालगुजारीके .आखिरी निर्णीत बैटवारेकी पाबन्दी होती है, तो उसकी पाबन्दी पुत्रपर उसी प्रकार होगी, चाहे पुत्र का नाम मालगुज़ारी के कागजोंमें न चढ़ा हो । गजाधरसिंह बनाम हरीसिंह L. R. 6 A. 237; 23 A. L. J. 291; 47 All. 416; 87 I. C. 647; L. R. 6 A. 95 ( Rev.) A. I. R. 1925 All. 421.
केवल इस बात पर, कि हिन्दू पुत्र के लिये यह पवित्र प्रतिबन्ध है कि वह अपने पिता का ऋण चुकाये, ऐसा रेहननामा जो कानूनी प्रावश्यकता या पहिले का कर्ज चुकाने की वजह की कमी के कारण नाजायज़ हो जायज नहीं हो सकता । वसीधर बनाम बिहारीलाल 2 0 W. N. 369; 120.L.J.35989 I. C.67;A.I. R. 1925 Oudh. 626.
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दफा ४७६ ]
पुत्र और पौत्रकी जिम्मेदारी
ज़मानत-हिन्दू प्रपौत्रपर उस ज़मानतके कर्जेकी पाबन्दी है जो उसके पितामहपर, किसी व्यक्तिकी ज़मानत करनेके कारण, जो गार्जियन एण्ड वार्ड्स एक्ट के अनुसार वली मुक़र्रर किया गयाहो, हुआ हो; बृजनाथप्रसाद बनाम बिन्धेश्वरी प्रसादसिंह 6 Pat. L. I. 560; 86 I.C. 791 (2);A. 1. R. 1925 Patna. 609.
मिताक्षराके अनुसार पुत्रोंको माताका ऋण चुकाना चाहिये, तद्यपि ऋण चुकानेके बाद जो बाकी रह जाता है लड़की उसकी वारिस होती है। माधवराव हरबा जी बनाम अम्बा बाई लक्ष्मन 85 I. C. 193; A. I. R. 1925 Bom 125.
पिता और पुत्रमें बटवारा हो जाने के पश्चात पिताके क़र्जका जिम्मेदार पुत्र नहीं होता, जगदीशप्रसाद बनाम श्रीधर A. I. R. 1927 All. 60.
ज़मानतका क़र्जा--एक हिन्दू पुत्रपर, पिता द्वारा किये हुए ज़मानत नामेकी, जो उसने हाजिरी या ईमानदारीके सम्बन्धमें किया हो, पाबन्दी है। निदवोलू अटचूटम् बनाम रतनजी 23 L. W. 193; (1926) M. W. N. 268; 49 Mad.211; 92 1. C. 9773 A. I. R. 1926 Mad. 3235 50 M. L.J. 208.
पिता द्वारा अन्य सदस्यके साथ किया हुआ ऋण--पुत्रपर अदाईकी पाबन्दी है; सुरेन्द्र मोहनसिंह बनाम हरीप्रसादसिंह24 A.L.J. 33; (1926) M. W. N. 49; 5 Pat. 1357 91 I. C. 1033: 7 Pat. L. 1. 97, 30 C. W. N. 482; A. I. R. 1925 P. C. 80% 50 M. L J. 1 (P. C.)
खान्दानके सम्बन्धमें पिताकी नालिश-पुत्रोंपर कितनी पाबन्दी है-- हुलेम माह लो बनाम सण्ट साहो A. I. R. 1925 Pat. 308.
धार्मिक पाबन्दी--पुत्रपर, पिताके खिलाफ़ उस डिकरीका, जो मुनाफा जायदादके उस समयके सम्बन्धमें, जब कि वह उसपर नाजायज़ रीतिपर क्राबिज़ रहा हो, धार्मिक रीतिपर ( Pious) पाबन्दी है। इस प्रकारका मुनाफा, न दण्ड और न जुर्मानाके रूपमें है और न यही कहना सम्भव है कि वह ऋण या कर्ज नहीं है, पलानिवेल रामसुब्रामनिया पिल्ले बनाम सिवकामी अम्माल 21 L. W. 6063 (1925) M. W. N. 371; 90 I. C. 165; A. A. I. R. 1925 Mad. 841.
पुत्रकी जिम्मेदारी-पिता द्वारा दूसरे सदस्योंके सहित लिया हुआ कर्ज-लड़केपर जिम्मेदारी है। सुरेन्द्र मोहनसिंह बनाम हरिप्रसादसिंह 52 I. A. 418; 42 C. L.J.592; A. I. R. 1925 P.C. 280; 50 M. L. J. 1 ( P. C.)
71
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पैतृक ऋण अर्थात् मौरूसी क़र्जा
[सातवां प्रकरण
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पिताकी जिन्दगीमें ही पिताके कर्जकी जिम्मेदारी पुत्रपर पैदा हो जाती है। मु. कालका देवी बनाम गङ्गा बक्ससिंह 12 0. L. J. 306; 88 I. C. 127; A. I. R. 1925 Cudh. 435.
पिता द्वारा--पुत्रोंपर पिताके कर्जकी अदाईकी जिम्मेदारी है यदि वह गैर-कानूनी या गैर-तहजीबी न हो, गिरधारीलाल बनाम किशनचन्द 85 I.C. 463; A. I. R. 1925 Lah. 240.
पुत्रों की जिम्मेदारी--कान्तीचन्द्र बनाम उदयबंशA.I.R.1925Nag.7
पुत्रकी जिम्मेदारी अलाहिदा होने के बाद--पिता और पुत्रकी अलाहिदगीके पश्चात, पुत्रपर पिताके साधारण क़र्जकी जिम्मेदारी नहीं होती। इस सूरतमें पिताका कोई सरमाया पुत्रके कब्जे में नहीं होता, इसलिये कोई असर नहीं पड़ता; रामगुलामसिंह बनाम नन्दकिशोरप्रसाद 4 Pat. 469; 6 Pat. L I. 613; 88 I. C. 813; ( 1925 - P. H. C. C. 341; A. 1. R. 1925 Pat. 688.
पवित्र जिम्मेदारी--पुत्रोंपर अपने पिताका कर्ज, उसकी जिन्दगीमें ही भदा करनेकी पवित्र जिम्मेदारी है। केवल यह बात कि बटवारेकी नालिशमें पिताके खिलाफ़ एक व्यक्तिगत डिकरी हुई, इस बातका प्रभाव नहीं है कि क्रजे गैर तहजीबी या गैर कानूनी है । रघुनाथ प्रसादसिंह बनाम बासुदेव प्रसादसिंह 3 Pat. L_J. 764; 88 1.C.1012;A.I.R. 1925 Patna. 823.
धार्मिक जिम्मेदारी-दुरुपयोगका प्रश्न, नियतका प्रश्न है। जब कोई हिन्द पिता, किसी ऐसी रकमको जो उसे दी जाती है, दूसरे मनुष्योंमें जो उसमें हिस्सा पाने के अधिकारी हैं तकसीम करने में देर लगाता है या तक्रसीम नहीं करता, तो यह दुरुपयोग नहीं होता और उसके पुत्रोंपर उस क़र्ज़की अदाईके लिये धार्मिक या पवित्र पाबन्दी होती है-गनेशप्रसाद बनाम जोतसिंह 87 I. C. 1017; A. I. R. 1925 Oudh. 719.
पिता द्वारा वर्ज़-चितनवीस बनाम नाथू साझ A.I.R. 1925Nag.2.
एक हिन्दू विधवाने अपनी जायदादको किती मनुष्यके हकमें समर्पित किया। उसकी मृत्युके पश्चात् दूसरे व्यक्तिने उसके कब्जेके लिये नालिश किया । उस व्यक्तिने जिसके हकमें समर्पण किया गया था, मुक़द्दमेंमें चाराजोईकी, किन्तु वह अन्तमें नाकामयाब रहा। तय हुआ कि फैसलेका क़र्ज़ न तो गैर कानूनी था और न गैर तहज़ीबी, और डिकरीदारको अधिकार था कि वह अपने खर्चकी डिकरी की तामील, उस पैतृक सम्पत्तिपर करावे जो कर्जदारके पुत्रके कब्ज़ेमें थी; रुद्रप्रताप बनाम शारदा महेश 23 A. L.J. 467, L. R.6 AIL.32188 I.. 200: A. I. R. 1925 Alla71.
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दफा ४७७]
पुत्र और पौत्रकी जिम्मेदारी
यदि किसी अविभाजित हिन्दू परिवारका प्रबन्धक पिता हो और शेष सदस्य पुत्र हों, तो पिता द्वारा लिये हुए समस्त क्रोंकी डिकरीकी तामील, केवल उस कर्जे को छोड़कर, जो गैर तहज़ीबी साबित किया जाय, मुश्तरका जायदादपर होगी। अतएव इस बातका भार पुत्रोंपर होगा, कि यदि वे खान्दानी जायदादको उस डिकरीसे बचाना चाहें, जो उनके पिता द्वारा लिखे हुए प्रामिज़री नोंटकी बिनापर है तो वे उस क़ज़ को गैर तहज़ीबी साबित करें। शाह श्री किशनदास बनाम कन्हैय्यालाल 20 W. N. 206; 86 I. C. 897; 12 O.L. J. 232; A. I. R. 1925 Oudh. 559.
____ पितामह द्वारा क़र्ज़-पितामहके क़र्जके अदा करनेकी जिम्मेदारी पिता के कर्जके साथही साथ है और उसके सूदके श्रदाई की भी जिम्मेदारी है। वृहस्पतिका वह वाक्य, जिसमें यह बताया गया है कि पितामहके कर्जके सूद की अदाईकी पाबन्दी नहीं है भारतीय अदालतोंमें नहीं माना गया है। लाडू नारायनसिंह बनाम गोबर्धनदास 1925 P. H. C. O. 104, 6 P. L. T, 497; 86 I. O. 721; 4 Pat. 478; A. I. R. 1925 Paha 470.
बटे हुए खान्दानमें कर्जका बार सुबूत-जब दोनों फरीकेंके यह बयान हो कि परिवार, नालिश करने की तारीख में पृथक था, तो इस सुबूत की जिम्मेदारी कि कर्ज उस वक्त लिया गया था जब परिवार संयुक्त था, उस फरीकपर होगी जो यह बयान करेगा । भोजन और पूजन की अलाहिदगी कितने ही कारणोंसे हो जाती है। किन्तु फिर भी परिवार संयुक्त परिवार ही बना रहता है। प्रताप नारायनसिंह बनाम रामकुमारसिंह 94 I. C. 9443 24 A. L. J. 513. दफा ४७७ कर्जा देनेवालेका कर्तव्य
रुपया देनेवाला महाजन अपने रुपये के लिये या वह आदमी जिसके पास वापने जायदादका इन्तकाल किया हो उस जायदाद पर कब्ज़ापानेके लिये दावा करे तो इन दोनोंको यह साबित करना होगा कि कर्जा पहले का था या यह कि उन्होंने खूबही उचित जांच करके नेकनीयतीसे यह विश्वास कर लिया था कि कर्जा पहलेका है. देखो-8 Mad.75:5 Mad 337, 6 Mad. 400; 13-Mad. 51; 26 Bom, 326; 3 Bom. L. R. 898, BN. W. P. H. C. 899 28; All. 608.
मगर इन दोनोंको यह साबित करनेकी ज़रूरत नहीं हैं कि कर्जा कानूनी ज़रूरतसे लिया गया था या नहीं, लेकिन यदि साबित करें तो और भी अच्छी बात होगी, 30 All. 156; 24 All 459; 28 All. 508.
नीलाममें जायदादके खरीदारको यह साबित करनेकी ज़रूरत नहीं है कि खरीदनेसे पहले उसने कुछ जांच की थी या नहीं, देखो-15 I. A. 99; 15 Cal. 717.
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पैतृक ऋण अर्थात् मौरूसी कर्जा
[सातवां प्रकरण
__जब इन्तकाल पिता द्वारा किया जाता हो तो उस व्यक्तिका, जिसके हकमें इन्तकाल हो रहा हो, कर्तव्य है कि क़र्जकी यथार्थता की जांच करे, गिरधारीलाल बनाम किशनचन्द 85 I. C. 463; A. I.R. 1925 Lah 240.
___ महाजन जो किसी खान्दानी जायदादपर, जो उसके मेनेजर को रेहनमें कर्ज देता है, उसका कर्तव्य है कि वह क़र्जकी आवश्यकताकी जांच करे और जहांतक सम्भव हो उन फरीकोंके सम्बन्धमें जिनके साथ वह मामला कर रहा है और इस बातके विषयमें कि मेनेजर वह मामला खान्दानी फायदेके लिये कर रहा है इतमीनान करले । यदि उसने इस प्रकार जांचकर लिया है
और ईमानदारीसे व्यवहार कर रहा है तो काफ़ी और मान्य आवश्यकता, उसके दावेसे बाहर नहीं है और इस परिस्थितिसे उसके लिये यह बाध्य नहीं है कि रकमके खर्चकी ओर देखे या इस बातपर विचार करे, कि वह रकम जो वह दे रहा है, खान्दानी आवश्यकतासे अधिक तो नहीं है । इस बातसे कि रेहननामेकी दर-ब्याज अदालत की दरसे अधिक है या रेहननामें की जायदाद उस जायदादसे जो डिकरीके अनुसार नीलामकी जा रही है अधिक है रेहननामा नाजायज़ नहीं हो सकता । शिव बिहारी बनाम शिवरतनसिंह 90 I. C. 345, A. I. R. 1925 Oudh.740.
बापके गवन करनेकी रकमके जिम्मेदार पुत्र माने गये--हिन्दुलॉ के अनुसार पुत्रपर उस रकमकी अदाईकी पाबन्दी है जो उसके पिताने, बहैसियत टूस्टीके रावन किया हो, यह पाबन्दी उस सूरतमें भी रहेगी, जब ग्रवन जान्ता फौजदारीका अपराध समझा गया हो; बेङ्कट कृष्णप्पा बनाम कुन्दर्थी पैरागी (1926) M. W. N. 194; 23 L. W.714; 94 I. C. 634; A. 1. R. 1926 Mad. 535; 50 M. L. J. 353.
एक हिन्दू पुत्रपर अपने पिता द्वारा लोहेके व्यवसायमें लिये हुए ऋण की जिम्मेदारी है । व्यवसायक ऋण अव्यवहारिक ऋण नहीं है । गौतमका सिद्धांत, जो इसके विरुद्ध, आधुनिक समयके लिये असामयिक समझा जाना चाहिये; निदाबोलू अटचूटाम् बनाम रतनजी 23 L. W. 193; ( 1926) M. W. N. 258; 49 Mad. 211; 92 I.C. 977; A. I. R. 1926 Mad. 323, 50 M. L.J. 208.
ऋण, जो न तो गैर कानूनी है और न गैर तहजीबी और हिन्दु पिता द्वारा मुश्तरका खान्दानकी जायदादपर लिया गया है, उस रेहननामेके पूर्व, जिसकी नालिश की गयी है, पूर्वजोंका ऋण है और उसकी पाबन्दी पुत्रोंके हिस्सेपर है। ठकुरी बाई बनाम जसपतराय 93 I. C. 911.
___ जब कोई हिन्दू पिता मुश्तरका खान्दानी जायदाद का रेहन किसी पहिलेके रेहननामेकी अदाईके लिये करता है तो वह पूर्वजोंका ऋण है और
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दफा ४७८]
पुत्र और पौत्रकी जिम्मेदारी
उसकी पाबन्दी पुत्रोंपर है। छोटूराम भीखराम बनाम नारायन A. I. R. 1926 Nag. 49.
पहिलेके रेहननामे की अदाईके हेतु माता द्वारा इन्तकाल--खरीदारपर यह पावन्दी नहीं है कि वह इस बातको देखे, कि रकम ठीक रीतिपर खर्च की गई है। विश्वनाथ भाट बनाम मालप्पा निंगप्पा 92 I. C. 628; A. I. R. 1925 Bom. 514.
इस बातके साबित करनेकी जिम्मेदारी कि वह कर्ज जो संयुक्त परिवार के किसी सदस्य द्वारा लियागया है। परिवारके लाभके लियेथा, कर्ज देनेवाले पर होना चाहिये और खास कर उस समय, जब उसने परिवारके कुदरती प्रधान यानी पिताके साथ मामला न किया हो, बक्लि पुत्रके साथ जो अन्य ग्राममें रहता हो और जिसने कर्ज लेनेपर केवल अपने हस्ताक्षर कर दिये हैं
और इस सम्बन्धमें, कि वह कर्ज किस लिये या किस पारिवारिक व्यवसायके लिये लिया गया है. कुछ भी न बताया गया हो । नारायणसिंह बनाम मोहन सिंह 8 Lah. L. J. 10; 27 Punj L. R. 95, 93 I. C. 340; A. I. R. 1926 Lah. 214.
पिता द्वारा इन्तकाल-जब हिन्दू पुत्रों द्वारा अपने पिताके किये हुए इन्तकाल को,कानूनी ज़रूरत या पूर्व कर्जकी अदाई न होनेकी सूरतमें, मंसूख करनेकी नालिशकी जाती है उस सूरतमें उन्हें यह बतानेकी ज़रूरत नहीं होती कि कर्ज गैर कानूनी या गैर तहजीबी था; यह खरीदने वालेका कर्ज साबित करे । जगतसिंह बनाम बिक्रमसिंह 88 I.C. 900; A. I. R. 1925 Oudh. 675. दफा ४७८ अनुचित कामोंके कर्जका पुत्र ज़िम्मेदार नहीं है
याज्ञवल्क्य स्मृति ऋणदान प्रकरण में याज्ञवल्क्य कहते हैं किसुराकामद्यतकृतं दण्ड शुक्लावशिष्टकम् वृथादानं तथैवेह पुत्रोदद्यान्नपैतृकम् ।याज्ञवल्क्य१-४७ धूर्ते बंदिनि मल्लेच कुवैद्ये कितवे शठे चाट चारण चौरेषु दभवति निष्फलम् । शातातप
अर्थात्--शराब पीनेके लिये, कामेच्छासे विषय भोग करनेके लिये, जुवा खेलनेके लिये, और जुरमानेका या महसूलका जो रुपया देना बाकी हो, या वृथादान या धूर्त, बन्दीजन, पहेलवान, कुवैद्य, कपटी, शठ, चाट, चारण तथा चोरके देनेका जो इकरार किया हो, बापके किये हुए ऐसे कर्जीके देनेका
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पैतृक ऋण अर्थात् मौरूसी क़र्जा
[सातवां प्रकरण
जिम्मेदार पुत्र नहीं है। धूर्त प्रादिकोंके देनेके लिये पिताका इकरार पुत्रोंके लिये निश्चित निष्फल होता है, यही बात शातातपने कही है
अनुचित काम कौनसे हैं इसका वर्णन बृहस्पतिने इस प्रकार किया हैबापने जो कर्जे शराब पीने के लिये या जुवां खेलने के लिये, लिये हों या बदला पाये बिना किसी लिखत द्वारा अपने ऊपर कर्जा मान लिया हो या कामान्ध होकर या क्रोधान्ध होकर कर्जा लियाहो या उस रकमके लिये जिसका ज़ामिन् बाप हुआ हो, या जुर्माना, या महसूलकी रकमके लिये; या उनका बकाया अदा करनेके लिये, पुत्र पाबन्द नहीं है। मि० कोलबुक कहते हैं कि जो रुपया बापने रिश्वतमें देने का वादा किया हो या उसका कोई हिस्सा बाकी हो तो वह पुत्रकी जिम्मेदारीले भिन्न है इस रिश्वतके मामलेपर; दिवाकर बनाम नर जनार्दन पाटेकर ( 1822 ) 2 Borr. 194, 200; का मुकदमा देखो-स्ट्रेन्ज Vol. 1 P. 167 में कहते हैं कि खिलौने, या अनावश्यक सुखोपभोगकी वस्तुयें जो बापने देने कही हों उनकाभी जिम्मेदार पुत्र नहीं होता । नीचे साफ तौरसे बर्तमान कानूनके अनुसार अर्थ और उसका फल समझिये
ऊपर जो यह कहा गया है कि जिस रकमके लिये बापने ज़मानत की हो उसके लिये पुत्र पाबन्द नहीं है इसमें ज़मानत इस तरहकी समझना चाहिये कि जैसे किसीसे अदालतकी हाजिरीके लिये, या शांति बनाये रखने के लिये या नेक चलन रहने के लिये ज़मानत ली जाती है; देखो-ब्रुकडाइ जेस्ट Vol. 1 P. 246 परन्तु जब बापने किसी कर्जकी ज़मानतकी हो तो कई मुक़दमों में पुत्र उस ज़मानतके कर्जे के पाबन्द माने गये हैं, देखो--28 Mad. 377; 26 All. 611; 23 Bom. 454; 11 Mad. 373; 13 C. W. N. 9; लेकिन साथ ही यह भी माना गया है कि जब बापने ज़ामिन् होनेके बदलेमें कोई रकम पायी हो या उसका बदला किसी दूसरे रूपमें पाया हो तभी पुत्र उस ज़मानत के पाबन्द हो सकते है अन्यथा नहीं ही सकते, देखो-नारायण बनाम बेङ्कटा चार्य 28 Bom. 408; 6 Bom L. R. 4:34 यह ध्यान रहे कि इस मामले में पुत्र और पौत्र दोनों समान हैं जो पुत्रके लिये कायदा लागू होगा वही पौत्र के लिये।
कोई फौजदारी अपराध या जाल या और कोई ऐसा काम, जो काम बापको एक भले और प्रतिष्ठित आदमीकी हैसियतसे नहीं करना चाहिये था अगर वह करे और उससे कोई फर्ज पैद हो तो पुत्र उसके पाबन्द नहीं होंगे। जैसे बापने यदि कोई माल चुराया हो और उसे खर्च भी कर डाला हो ऐसे मालके बारेमें जो डिकरी रुपया दिला दिये जानेकी दीवानी अदालतसे हो उस डिकरीके देनदार पुत्र नहीं होंगे; देखो-दुरबार खचार बनाम खचर हारसुर (1908) 32 Bom. 348; 10 Bom. L. R. 297; या
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दफा ४७६ ]
पुत्र और पौत्रकी जिम्मेदारी
जो माल बापने अनधिकारसे खर्च कर लिया हो उसके रुपयेके दिला दिये जाने की जो डिकरी दीवानी अदालतसे हो ऐसी डिकरीके देनदार पुत्र नहीं होंगे देखो -परेमनदास बनाम मट्ठ महतो 24 Cal. 672. परन्तु यह बात उस मामले से लागू नहीं होगी कि जिसमें बापने किसीका रुपया अनधिकारसे दबा रखा हो, देखो-महाबीरप्रसाद बनाम बासुदेवसिंह 6 All.234. चन्द्रसेन बनाम गङ्गाराम 2 All. 899; 27 Mad. 71; 28 All. 718. बापने यदि हिसाब न दिया हो तो देखो-16 Mad. 99; 31 Mad. 161. ) और अगर बापपर किसी आदमीने पिछले मुनाफेकी डिकरी प्राप्त की हो कि जिसकी गैर मनकूला जायदाद बापने अनधिकारसे अपने कब्जेमें रख छोड़ी थी तो उस डिकरीके भी पुत्र पाबन्द होंगे, देखो-गुरूनाथम् चट्टी बनाम राघ वेलूचट्टी 31 Mad 472. और इसी तरहपर पुत्र उस मुक़दमेंके खर्चके भी पाबन्द होंगे जो बापसे दिलाया गया हो मगर फौजदारी मामलोंसे सम्बग्ध न रखता हो, देखो-11 C. W. N. 163; 14 C. W. N. 6593; 33 All. 472.
पिता द्वारा सासुको जायदादका एक हक्रीकी भाग समर्पण किया जाना, बतौर इस रिश्वतकेकिवह बहकी ओरसे मक्रहमानचलाये-पत्रके विरुद्ध उस समर्पणकी पाबन्दी नहीं है पुत्रकी ओरसे समर्पणकी जायदादके वापसीकी नालिश हुयी उसमें डिकरी यदि समर्पण पिताके हिस्से तक जायज़ है-साकी वेंकट सुब्बप्पा बनाम एस कोरम्मा A. I. R. 1926 Mad. 5787 50 M. L.J. 369.
यदि किसी मुश्तरका खान्दानकी जायदाद, जो मिताक्षरा स्कूलके आधीन हो, खान्दानके पिता के खिलाफ उसकी व्यक्तिगत डिकरी द्वारा कुर्ककी गई हो, तो पुत्र उस जायदादके अपने अधिकारोंको कुर्की या नीलामसे केवल इस बिनापर बचा सकते हैं कि वे यह साबित करें, कि क़र्ज़ जिसकी बिनापर वह कुर्की है गैर तहजीबी कर्ज है या ऐसा क़र्ज है जिसकी अदाईकी पाबन्दी पुत्रोंका पवित्र कर्तव्य नहीं है-अब्दुलकरीम बनाम रामकिशोर 23 A. L. J. 196; 86 I. C. 8379 47 All 421; A. I. R. 1925 All. 327.
सूद न्यायानुसार मिलेगा-जब संयुक्त परिवारकी जायदादका रेहननामा सूदकी ऊंची दर पर किया जाय, तो मुर्तहिनको सूदकी दरकी न्यायानुकूलता और आवश्यकताका सुबूत देना चाहिये-केदारनाथ बनाम भीखम सिंह-92 I. C.679. दफा ४०९ सूद दिया जायगा
पुत्र और पौत्र अपने पाप या दादाके कर्जके सूद देनेका भी पावन्द है। सूत्र कितना देना चाहिये यह बात अदालत निश्चित करेगी । दाम दुपटका
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पैतृक ऋण अर्थात् मौरूसी कर्जा
(सातवां प्रकरण
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कानून जो इस किताबकी दफा ७८० से ७८८ प्रकरण १५ में बताया गया है जहां पर नहीं लागू किया गया वहां वह किसी तरहसे भी लागू नहीं होगा, देखो-2 C. W. N. 603. लक्ष्मणदास बनाम खुन्नूलाल 19 All. 26; 31 Bom. 354. में माना गया है कि जब कर्जकी जिम्मेदारी मानली गयी हो तो उसके सूदकी जिम्मेदारी भी उसीके साथ मानली जायगी।
जब कोई हिस्सेदार किसी अतिरिक्त अदाईका दस्तावेज़ लिखता है जिसमें कि वह पूर्व अदाईके दस्तावेज़का जिक्र करता है, तो उसे इसके बाद यह दावे स्थापित करनेका अधिकार नहीं रहता कि दस्तावेज़का दर . सूद अधिक था जबकि वह स्वयं दस्तावेज़का एक तरीक़ है, उसके बयान या कार्यवाहीसे यह साबित होता है कि उसने सूदकी मुनासिबतको स्वीकार कर लिया है, तो वह उसपर बादको एतराज़ नहीं कर सकता-चन्द्रिका प्रसाद बनाम नाजिर हुसेन-92 I. C. 681 (2);A. I.R.1926 Oudh. 306. दफा ४८० बापका अधिकार
बापको जो अधिकार प्राप्त हैं उसे खान्दानका कोई दूसरा आदमी, बापकी गैरहाजिरीमें भी काममें नहीं ला सकता देखो, प्रेमजी बनाम हुकुमचन्द 10 Bom. 363 यह माना गया है कि अगर बाप दिवालिया हो जाय तो फिर आफीशल्--एसाइनी को वही अधिकार प्राप्त हो जाता है जो बापको है, देखो-फकीरचन्द मोतीचन्द बनाम मोतीचन्द हरखचन्द 7 Bom. 438; 19 Mad. 74.
पहलेके कर्जे को अदा करनेके लिये या किसी कानूनी ज़रूरतके लिये ही बाप मुश्तरका जायदादका इन्तकाल या उसे पाबन्द करसकती है, देखोचिन्नाया बनाम पीरूमल 13 Mad. 51;परन्तु और किसी मतलबके लिये नहीं यदि करे तो उस जायदादका नीलाम या रेहन रद किया जासकता है, देखोरामदाल बनाम पायोध्याप्रसाद 28 All. 328; बीरकिशोरसिंह बनाम हर. बलमी नरायनासंह 7 W. R.C_R. 5077 31 All. 176.
पिता द्वारा किये हुये इन्तकाल, महज़ खान्दानकी ज़रूरतका बनाना काफ़ी न होगा-गिरधारीलाल बनाम किशनचन्द्र 85 I. C. 463; A. I. R. 1925 Lah. 240.
पिता द्वारा रेहननामा-जबकि पिता, जो कि किसी संयुक्त हिन्दू परिवारका प्रबन्धकर्ता होता है यदि वह बिना कानूनी आवश्यकता या पहिलेका कर्ज चुकानेनी गरज़से, कोई रेहननामा करे, और इसके पश्चात् जायदादका बटवारा हो और बटवारेमें राहिनकी स्त्रीका भी हिस्सा लगाया जाय, तो रेहननामेका प्रभाव राहिनकी स्त्रीके हिस्सेपर न पड़ेगा, सिर्फ राहिनके हिस्से
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दफा ४८०J
पुत्र और पौत्रकी जिम्मेदारी
पर उसकी पाबन्दी होगी-मु० कालका देवी बनाम गङ्गाबक्ससिंह 12 0.L. J. 306; 88 I. C. 127; A. I. R. 1925 Oudh 435.
माता द्वारा-जबकि नाबालिराकीमाताने नाबालिगकी जायदाद, रेहननामेका कर्ज चुकानेके लिये इस बिनापर बेंच डालीहो, कि उसका बेचना नाबालिगके लिये फ़ायदेमन्द था, क्योंकि उस जायदादकी आमदनी, जो रेहन थी, रेहननामेकी रकमके सूदसे अधिक थी, किन्तु यह विरोध किया गया कि माता द्वारा अदा की हुई रकम अधिक थी। तय हुआ कि उस सुरतमें भी, जबकि मुर्तहिन को अधिक रकम दी गई हो कानूनी खरीदार पर कोई असर नहीं पड़ता, क्योंकि उसका केवल यह कर्तव्य था कि वह यह समझ ले कि आया रेहननामेका रुपया देना बाकी है या नहीं। इस बातसे इतमीनान करने के बाद, वह इस बातके लिये बाध्य न था कि वह इस बातकी चिन्ता करे, कि आया बिक्रीकी रकम मुद्दईके वली द्वारा मुनासिब रीतिपर खर्च की गई या नहीं--विश्वनाथ भट्ट बनाम मल्लप्पा 49 Bom. 8213 27 Bom. L. R. 1103; A. I. R. 1925 Bom. 514.
हनशिफ़ाके लिये जायदादका इन्तकाल-जबकि एक हिन्दू पिताने, जो कि अपनी जायदादकी रक्षाके लिये कर्ज लेनेकी विवशतामें न था, एक दूसरी जायदादको हकशिफ़ा द्वारा हासिल करनेकी गरज़से अपने पूर्वाधिकारियोंकी संयुक्त जायदादको रेहनकर दिया। तय हुआ कि उसे यह अधिकार न था कि वह ऐसा करता और पूर्वजोंकी संयुक्त जायदादपर भार डालता--शङ्करसहाय बनाम बेचू 47 A. 381; 23 A. L.J. 204; L. R. 6 A. 214,86 I. C. 769; A. I. R. 1925 All. 333.
मंसूखीके लिये नालिश--रकम मावजेके एक भागकी आवश्यकता नहीं साबित हुई--प्रश्न यह है कि आया बयनामा कानूनी आवश्यकताकी बिना पर था--जब बयनामा कानूनी आवश्यकताके लिये हो, तो उसका समस्त खर्च परिवारके लाभके लिये समझा जाता है, कानूनी खरीदारपर जिसने उचित जांचके पश्चात् खरीद किया है यह पाबन्दी नहीं है कि वह उस रकम को जो कानूनी आवश्यकताके लिये न साबित हुई हो बिरोधी-मुद्दईको वापस करे--86 I.C.91; A. I. R. 1925 All. 324, 47 All. 355; 1927 A. I. R. P. C. 37-Over-Ruled. (यह नज़ीर मंसूख हो गयी है)।
जब जायदाद किसी संयुक्त हिन्दू परिवारसे, किसी डिकरीकी तामील में, निकल गई हो और तीसरे फरीकका अधिकार, उसके अन्दर आगया हो, तो नीलाम इन्तकालकर्ताके पुत्र और प्रपौत्रोंकी तहरीकपर नीलाम मंसूख नहीं किया जा सकता, जब तक यह न साबित किया जाय कि ऋण गैर कानूनी या गैर तहजीबी है। किन्तु जब इन्तकाल केवल चचा या मेनेजर द्वारा किया
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पैतृक ऋण अर्थात् मौरूसी क़र्जा
(सातवां प्रकरण
गया हो, तो इस प्रकारका विचार नहीं होता। इस सूरतमें, यदि इन्तकाल कानूनी आवश्यकता द्वारा प्रमाणित न किया गया हो, तो वह बहाल नहीं किया जा सकता--नानकचन्द बनाम रामप्रसाद 92 I. C. 316; A. I. R. 1926 All. 250.
___ कर्ज़-एक मुर्तहिनने एक हिन्दू पिता और उसके पुत्रोंके खिलाफ रेहननामेकी रकम वसूल पानेके लिये नालिश किया । दौरान नालिशमें मुर्तहिनके वकीलने बयान किया, कि उसे कर्जकी पाबन्दी पुत्रोंपर श्रायद होती है। पिताके विरुद्ध एक सादी रकमकी डिकरी प्राप्त हो गई । इसके पश्चात पुत्रों ने नालिश द्वारा यह हुक्म इस्तारारियाचाहा कि पिताके खिलाफ प्राप्त सादी रक्रमकी डिकरीकी पाबन्दी संयुक्त परिवारकी जायदादपर नहीं हो सकती और उसके अनुसार वह कुक्र या नीलाम नहीं की जा सकती । इस नालिश के सम्बन्धमें मुर्तहिनके वकील के बयानकी वजहसे न तो इस्टापल और न अन तजवीज़ शुदा ( Res-Judicata. ) के सिद्धांत लागू होते हैं, मनोहरलाल बनाम इमदादअली A. I. R. 1927 Oudh. 15.
पितामह द्वारा रेहननामा-रेहननामेकी रकम चुकानेके लिये, बादको बयनामा हुआ उसमें प्रपौत्रके विरोध करनेका अधिकार है जिसका बयनामेके पश्चात जन्म हुआ था । नालिशके चलाये जानेकी योग्यता-मियाद, लाल बहादुर बनाम अम्बिकाप्रसाद 23 L. W. 220; 91 I. C. 471; 28 0.C. 371; 12 0.L.J. 689; 30 0.W.N. 701; A.I.R. 1925 P. C. 264.
मुद्दाअलेहको हन शिफ़ाकी एक डिकरी,एक बयनामेके सम्बन्धमें, जोकि एक हिन्दू मुश्तरका खान्दानके पिता द्वारा लिखा गया था, प्राप्त हुई। उसके डिकरी प्राप्त करने तक, वह पूर्वजोंका क़र्ज़, जिसके लिये पिताने बयनामा लिखा था अदा कर दिया गया और हक़शिफ़ा करने वाले द्वारा खरीदारको बयनामेका अदा किया हुआ रुपया खरीदार (पिता) द्वारा ऐसे कामके लिये खर्च कर डाला गया, जिसकी पाबन्दी खान्दान पर नहीं थी । पुत्रों द्वारा मुद्दाअलेहके पक्षके बयनामेको रद करनेकी नालिशमें तय हुआ कि उनपर बयनामेकी पाबन्दी नहीं है और उन्हें जायदादको वापस पानेका अधिकार है, जवाहिरसिंह बनाम उदय प्रकाश 24 A. L. J. 97; (1926) M. W. N. 197; 53 I. A. 36; 3 C. W. N. 365, 48 A. 152; 93 I.C. 216; 43 C. L. J. 374; 30 C. W. N. 698; A. I. R. 1926 P. C. 16;50 M. L. J. 344 ( P. C. )
संयुक्त परिवारका पिता-प्रतिनिधि स्वरूप नालिशमें माना जायगा, नारायण बनाम धूंधा बाई 92 I. C. 663; A. I. R. 1925 Nag. 299.
पिता द्वारा बतौर मेनेजरके बिला ज़रूरत रेहननामा--पीछेका रेहननामा--पीछेके मुर्तहिनको, जिसने पहिलेके रेहननामेको चुकानेकी गरज
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दफा ४८१]
पुत्र और पौत्रकी जिम्मेदारी
रुपया दिया हो, यह अधिकार नहीं है, कि उस नालिशमें, जिसे कि सहिनके पुत्रने पीछेके रेहननामेको मंसूरन करनेके लिये दावा किया हो, पहिलेके रोहननामेकी अदाई में दिये हुए कर्जका दावा करे, प्रतापसिंह बनाम शमशेर बहादुर A. I. R. 1925 Oudh. 708.
पितामह द्वारा रेहन-रेहननामेका क़र्ज़ अदा करनेके लिये पीछेसे बयनामा--पाबन्दीकी सूरत--पहिलेका कर्ज़-प्रपौत्रका अधिकार विरोध करनेका--बयनामे के बाद जन्म-किस सूरतमें नालिश हो सकती है-सियाद, लालबहादुर बनाम अम्बिकाप्रसाद 2 0. W. N. 913; 47 A. 795; A. I. B. 1925 P. C. 264.
किसी मुश्तरका खान्दानका पिता, उस खान्दानका ऐसा एजेण्ट है जिसे यह अधिकार है कि खान्दानपर लागू क़र्ज़की मियाद बढ़ानेके लिये उसकी तस्दीक करे, सीतला बख्श शुक्ल बनाम जगतपालसिंह 12 0. L. J. 114; 86 I. C. 693, A. I. R. 1925 Oudh. 394.
पिता द्वारा किसी नाबालिगके प्रबन्धक व वलीकी हैसियतसे इन्तकाल -इन्तकालकी पाबन्दी होगी यदि वह किसी गैरकानूनी तात्पर्यके लिये नहीं किया गया, अलगर आयंगर बनाम श्रीनिवास आयंगर 91. I. C. 709; A. I. R. 1925 Mad. 1248; 50 M. L. J. 406.
पिता द्वारा इन्तकाल--पिताके विरुद्ध व्यक्तिगत डिकरी--पैर तहजीब से रङ्गा हुआ क़र्ज़-मुश्तरका पूर्वजोंकी जायदादकी तामील नीलाम--उसमें पिताका हिस्सा बरी नहीं किया जा सकता, शिवनाथ प्रसाद बनाम तुलसीराम 48 All. 1; A. I. R. 1935 All. 801. दफा ४८१ पहलेके क़ौके लिये रहन
पहलेके कर्जके लिये अगर रेहन न किया गया हो तो बंगाल हाईकोर्टने उस रेहनकी पाबन्दी बापके हक़ तक मानी है, देखो--पहलेके कर्जके लिये रेहन न था, 5 Cal. 856; 6 C. L. R. 473; 6 Cal. 1357 6 C. L. B. 97, 100; 8 Cal. 131; 9C. L. R. 417; 20Cal. 3287 24 All. 459; 9 All. 493; 21 Mad. 28; 10 Cal. 528; 34 Cal. 735; 11 C. W. N. 6133 34 Cal. 184; 11 C. W. N. 294; 29 Mad 484; रेहनकी पाबन्दी बापके हक तक मानी गयी 34 Cal. 735; 11 C.W.N. 613, 29 Cal.328. इलाहाबाद हाईकोर्टकी राय बङ्गाल हाईकोर्टके विरुद्ध है, देखो-चन्द्रदेवसिंह बनाम माताप्रसाद 31 All. 176; कालीशङ्कर बनाम नवाबसिंह ( 1909 ) 31 All. 507; मोहम्मद मिर्जा मिलुल्लाह बनाम मिठूलाल ( 1911 ) 33 All. 783.
इस विषयमें मि० दिवेलियन कहते हैं कि--इलाहाबाद हाईकोर्टकी राय ठीक है क्योंकि मुश्तरका खान्दानकी जायदादमें कोई कोपार्सनर अपना
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पैतृक ऋण अर्थात् मौरूसी क़र्ज़ा
[ सातवां प्रकरण
कोई हिस्सा निश्चित नहीं कर सकता लेकिन बम्बई और मदरास प्रांतमें ऐसा हो सकता है इसलिये बापका हक़ उस रेहनके क़र्जेका पाबन्द माना जाता है। यद्यपि यह क़र्जा पुत्र और पौत्रके सम्बन्धमें ( Unsecured. ) अर्थात् ज़मानत रहित है तो भी पुत्र और पौत्र देनेके पाबन्द होंगे और इसकी डिकरी कोपार्सनरी जायदादसे वसूलकी जायगी। जो जायदाद रेहन हो उससे भी वसूल की जासकेगी, देखो -- दत्तात्रेय बनाम विष्णु ( 1911 ) 36 Bom. 68; 13 Bom. L. R. 1161; चिन्तामणिराव बनाम काशिनाथ 1889 Bom. 320 किन्तु शर्त यह है कि ( Unsecured ) अर्थात् ज़मानत रहित क़र्जेके सम्बन्धमें जो तमादीका नियम है, लागू होगा, देखो --सूरज प्रसाद बनाम गुलाबचन्द ( 1900 ) 27 Cal. 762, इस नजीरसे इन नजीरोंमें फरक़ है, 34 Cal. 184; 11 C. W. N. 294; 12 C. W. N. 9; 29 All. 544.
५.७२
इससे मतलब यह निकला कि पहलेके क़र्जेके लिये रेहन, और उसी वक्त क़र्जेके बदले में रेहन, इन दोनों रेहनोंके वसूलीके दावामें कोई फरक नहीं है लेकिन इनमें तमादीकी शर्तोंका ध्यान रखना ज़रूर होगा और उस जायदाद का प्रश्न भी इससे अलग है जिसकी कार्रवाई दावा से पूर्व करदी गई हो । चिदम्बरा मुदालिमा बनाम कुथापेरूमल ( 1903 ) 27 Mad. 326, 328 में कहा गया है कि पहले के क़र्जके रेहन और उसी वक्त लिये हुए क़र्ज के बदले में रेहन इन दोनों में कोई विशेष भेद मानना बहुत कठिन है क्योकि दोनों ही सूरतों में पुत्र और पौत्र उन क़जके देनदार हैं सिर्फ यह अन्तर है कि बाप ने कोई जायदाद रेहन करके क़र्जा लिया हो तो व जायदाद ही उस क़र्जे की पाबन्द होगी पुत्र और पौत्र नहीं होंगे, देखो -- गङ्गाप्रसाद बनाम शिवदयाल सिंह 9 C. L. R. 417; 31 All. 176.
अगर बापने कोई जायदाद बेची हो लेकिन वह बिक्री किसी पुराने क़र्जेके बारेमें न हो, और किसी बे क़ानूनी या दुराचारके गरज़से न हो, तो पुत्र उस बिक्रीका रुपया अदा किये बिना उस बिक्रीको मंसूख नहीं करा सकते ऐसी बिक्रीका रुपया एक प्रकारका क़र्ज है इसलिये वह पुत्रोंको देना ही पड़ता है, देखो -- हसमतराय बनाम सुन्दरदास 11 Cal. 396; 4 B. L. R. A. C. 15; 12 W. R. C. R. 447.
कई पुराने मुक़द्दमों में यह माना गया था कि अगर रेहनके पहलेका क़र्ज़ा खान्दानी ज़रूरत के लिये न लिया गया हो तो महाजनको कोई हक़ नहीं है कि वह उसे कोपार्सनरी जायदादसे वसूल कर सके; देखो - हनूमानकामत नाम दौलत मन्दिर 10 Cal. 528. लालसिंह बनाम देवनरारायणसिंह 8 All. 279. अरुणाचलचट्टी बनाम मुनिसामी मुदाली 7 Mad. 39.
जबकि बापने कुल मुश्तरका जायदाद या सिर्फ अपना हिस्सा रेहन या बय या कोई इन्तक़ाल किया हो तो इस बारेमें जो कोई प्रश्न उठेगा उसका
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दफा ४८१ ]
पुत्र और पात्र की जिम्मेदारी
विचार रेहन या वय या इन्तक़ालके फरीक़ोंके कामों तथा उस मुक़द्दमें की सूरतपर निर्भर होता है; देखो - शम्भूनाथ पाण्डे बनाम गुलाबसिंह 14 I.
A. 77–83; 14 Cal 572-579.
५७३
अगर ऐसा मामला हो कि बापने मौरूसी जायदाद किसी पुराने क़र्ज़ के देनेके लिये नहीं बेंची तो भी जब तक पुत्र यह साबित न करें कि वह रुपया किसी बे क़ानूनी या बुरे कामोंके मतलब के लिये बापने लिया था और उन्हीं कामों में खर्च किया तब तक उस बयनामाको खारिज नहीं करा सकते अर्थात ऐसा साबित करनेपर बिना रुपया वापिस दिये खारिज करा सकते हैं: देखो हसमतराय कुंवर बनाम सुन्दरदास 11 Cal. 396. नाथूलाल चौधरी बनाम चादीसाही 4 B. L. R. A. C. 15; 12 W. R. C. R. 447.
जब बापने सिर्फ अपना हिस्सा या कुल मुश्तरका जायदाद इन्तकाल किया हो और कोई यह कहता हो कि यह इन्तकाल नाजायज़ है तो इस प्रश्नका फैसला इन्तक़ालकी दस्तावेज़के शब्दोंही से नहीं कर दिया जायगा बल्कि उस इन्तक़ालके दूसरे चारो तरफके सम्बन्धोंको देखकर भी किया जायगा और इसके साबित करनेका बार सुबूत उस पक्षकारपर है जो दावा करता हो, देखो - नरायनराव दामोदर बनाम - बालकृष्ण Bom. P. J. 1881. P. 293.
प्रिवी कौन्सिलका श्राख़ीर फैसला -- भूपसिंह मुद्दाअलेह नं०१ के लड़के और पोते मिताक्षराके मुश्तरका हिन्दू खान्दानमें रहते थे, भूपसिंह खान्दान का मुखिया था उसने सन् १८८२ ई० में मुश्तरका खान्दानकी जायदाद मौज़ा 'पंदात' का एक विस्वा हिस्सा चूरनसिंहके पास रेहनकर दिया । सन १८८३ में उसी जायदादको २००) रु० पर उसने भागीरथीके पास फिर रेहन कर दिया । सन् १८८४ ई० में उसने फिर वही जायदाद साहू रामचन्द्र मुद्दईके पास रेहन की । सन् १८६३ ई० में साहू रामचन्द्रने रेहनकी नालिश करके बापपर डिकरी प्राप्त करली, पहलेके रेहननामोंका रु० अदा करके अपने हक़ में उन्हें इन्तक़ाल करा लिया । सन् १९१० ई० में भागीरथके रेहननामेकी नालिश की गयी इस रेहननामेमें लिखा था 'मैंने अपनी ज़रूरत से क़र्ज़ लिया दावा में कहा गया कि भूपसिंहने क़ानूनी ज़रूरतसे रु० लिया था, सब जजने क़ानूनी ज़रूरत साबित न होनेसे दावा डिस्मिस् किया, इलाहाबाद में अपील हुयी किन्तु वहां भी अपील डिस्मिस हुआ । प्रिवी कौन्सिलमें जब यह मामला पेश हुआ जजोंने निम्न लिखित नतीजे निकाले ।
१ - मिताक्षराला के हिन्दू सम्मिलित परिवारके मेम्बरोंके द्वारा जो जायदाद पैदा की गयी हो वह दानमें नहीं दी जा सकती और न वह रेहन या बिक्रीकी जा सकती है जब तक कि सब मेम्बरोंकी मंजूरी न हो जाय ।
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पैतृक ऋण अर्थात् मौरूसी क़र्जा
[सातवां प्रकरण
२-बाप, मेनेजर और मुखियाकी हैसियतसे मुश्तरका जायदादको अपनी स्थिति सुधारने या परिवारकी ज़रूरतके लिये इन्तकाल कर सकता है इसके सिवाय उसे कोई अधिकार रेहन करने या बेच देनेका नहीं है किंतु मौरूसी कर्जा यानी पैतृक ऋणमें ऐसा हक़ बना रहता है (अब प्रश्न यह है कि पैतृक ऋण कौन है ? देखो 'नोट' ) जो क़र्जा बापने पैतृक जायदाद रेहन करके लिया हो वह पैतृक ऋण नहीं है लेकिन अगर ऐसा कर्जा खान्दानकी ज़रूरतके लिये लिया गया हो तो है । पैतृक ऋणके रेहननामेको जायज़ साबित करनेके लिये केवल पहलेका क़र्जा होनाही ज़रूरी नहीं है बल्कि यह मी साबित करना चाहिये कि वास्तवमें वह क़र्जा लिया गया था।
३-मिताक्षराके अनुसार पुत्र और पौत्रपर अपने बाप और दादाके सम्बन्धमें जो धार्मिक कर्तव्य माने गये हैं कि वे उनका कर्जा चुकावें, बाप और दादाकी जिन्दगीमें कर्जे उन्हें पावन्द नहीं करते।
४-ऐसे रेहनके मामलेमें जहां कानूनी ज़रूरत बयानकी जाती हो तो बार सबत उसपर होगा जिसके हलकी रक्षा उस जरूरत बयान करनेसे होती हो; देखो--साहू रामचन्द्र बनाम भूपसिंह (1917) 19 Bom.L.R. 498; 31 All. 176.वह कर्ज जोकि संयुक्त खान्दानकी ज़मानतपर लिया गया हो,पीछे के कर्जके प्रमाणमें पूर्वजोंका कर्ज है-छोटूराम भीखराज बनाम नारायन 90 I. C. 210. रेहननामेके पहिले--सन्मुख पांडे बनाम जगन्नाथ पांडे 83 I. C. 838; A. I. R. 1924 All. 708.
कर्ज--पूर्वजोंका क़र्ज-संयुक्त खान्दानकी जायदाद--मेनेजर द्वारा रेहननामा--आवश्यकता--प्रतापसिंह बनाम शमशेर बहादुरसिंह 10 0. & A. L. R. 1389; 87 I. C. 66.
पूर्वजोंका क़र्ज--पिता द्वारा किये हुये ऋणकी जिम्मेदारी पुत्रोंपर होने के लिये दो बातोंका होना आवश्यक है। प्रथम यह कि यह नालिशके मामले के पहिले लिया गया हो और दूसरे यहकि यह बहैसियत संयुक्त जायदादके मालिकके अतिरिक्त लिया गया हो या जमानत दीगई हो या इस प्रकारकी संयुक्त जायदादसे उसका प्राप्त होना समझा गया हो--सुरेन्द्रनाथ पांडे बनाम वृन्दाबन चन्द्र घोष A. I. R 1925 Cal. 545.
पहिलेका ऋण -उस रेहननामेके ऋणके पहिलेका, जिसके सम्बन्धमें नालिश द्वारा निर्णय हो रहा हो, ऋण पिताका ऐसा ऋण नहीं है जिसकी पाबन्दी पुत्रपर हो सके, किन्तु पिताके पिता (बाबा) के साझी द्वारा किया हुआ ज़बानी ऋण, जिसकी पाबन्दी बाबा पर रही हो, उसकी पाबन्दी पुत्रके पुत्र (पोते) पर इस प्रकार होती है जैसे कि वह पिदरी कर्ज हो--रामरतन मिश्र षमाम कपिलदेवसिंह 83 I. C. 417; A. I. R. 1923 All. 20.
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दफा ४८१ ]
पुत्र और पौत्रकी जिम्मेदारी
पूर्वजोंका ऋण - पूर्वजोंका ऋण उस समय और वाक्रयेसे पहिलेका होना चाहिये, जबकि पिता अलाहिदा हुआ था - गजाधरबक्ससिंह बनाम बैजनाथ AIR 1925 Ondh. 9.
पूर्वजों का क़र्ज, जो फिजूलखर्ची या असावधानीके कारण हुआ है पुत्रों पर लागू है -- बंशीधर बनाम पाण्डुरङ्ग A. I. R 1925 Nag 196.
पहिलेकी आवश्यकताके लिये क़र्ज-- किसी इन्तक़ालके सम्बन्धमें श्रावश्यकता - प्रमाणित करनेके लिये, यह काफ़ी नहीं है कि पिता द्वारा खान्दानी जायदादको रेहन करके जो क़र्ज लिया गया है उससे किसी पहिले रेहननामेका क़र्ज जो खान्दानी जायदाद पर था चुकाया गया है । यह भी प्रमाणित किया जाना चाहिये कि पहिलेका रेहननामा भी आवश्यकता के लिये ही था - सुरेन्द्रनाथ पांडे बनाम बृन्दावनचन्द्र घोष A. I. R. 1925 Cal. 545.
पुत्र और प्रपौत्र दोनों पर पूर्वजोंके ऋणकी समान जिम्मेदारी हैमाधोप्रसाद बनाम नियामत 84 I. C. 501; 27 O. C. 366; A. I. R. 1925 Oudh 185.
साझीदार द्वारा कर्ज -- खान्दानी जायदादका ऋण चुकानेके लिये बेचा जाना -- साझीदारकी स्त्री अपनी सकूनत ( Residence ) का दावा तब तक नहीं कर सकती जब तक कि वह उस क़र्जको गैर-तहजीब न साबित करे-ननकी बनाम श्यामदास सालिकराम AIR 1925 Lah. 638.
मुश्तरका खान्दान- पूर्व क़र्जमें वह क़र्ज भी शामिल है जो भोगबन्धक रेहननामे के अनुसार हो- माधोप्रसाद बनाम नियामत 27 O. C. 366; 84 I. C. 501; A. I. R. 1925 Oudh 185.
मुद्दाअलेह के पिता द्वारा किया हुआ पहिलेका रेहननामा - मुद्दाभलेह के चचा द्वारा किया हुआ पीछेका रेहननामा, जिसकी अदाई पहिले होनी है पहिले रेहमनामेका कर्ज पूर्वजोंका क़र्ज नहीं है - केवल पुत्रकी पवित्र पावन्दी इन्तक़ालको जायज़ नहीं बनाती - हिन्दूलॉ - इन्तकाल - बन्शीधर बनाम बिहारीलाल 89 1. C. 67; 12 O. L. J. 359; 2 O. W. N. 369; A. I. R. 1925 Oudh 626.
पहिली दस्तावेज़ जो पूर्वजोंका क़र्ज हो, उसके बदले जानेमें, पाबन्दी नहीं रहती -- केवल इस वजहसे किसी मुर्तहिनने अपने पहिले दस्तावेजोंकी रक्कम वसूल करने के बजाय जो कि बिल्कुलही अलाहिदा, साफ़ और स्वतन्त्र थी, उसकी मियाद खतम होनेके समय, उन्हें रेहननामेमें मय और मावजोंके शामिल कर लिया और सूदकी दर भी घटा दी, पहिलेके रेहननामाका जो कि पूर्वजोंके क़र्ज पर था प्रभाव नहीं पड़ सकता, और उसके लिये यह आव
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पैतृक ऋण अर्थात् मारूसी कर्जा
[सातयां प्रकरण
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श्यक नहीं है कि कानूनी प्रावश्यकता साबित की जाय--शिवप्रसाद बनाम बलवन्तसिंह A. I. R. 1927 All. 150.
नोट--जबसे यह फैसला प्रित्रीकौंसिलका हुआ सब जगह माना जाने लगा है कि बापने यदि कोई कर्जा प्रामेसरी नोट या सादी दस्तावेज या दूसरी तरहसे लिया हो जिसमें जायदाद रेहन नहीं कीगयी, पीछे उस फर्जके चुकाने के लिये बापने मुश्तरका जायदाद रेहन करदी ऐसी सूरत में वह कर्जा मौरूसी कर्जा (पैतृक ऋण) माना जायगा, रेइन नामा जायज होगा, पुत्र जिम्मेदार होंगे । किंतु यदि बापने पहलेही मुश्तरका जाय दाद रेहन करके कर्जा लिया हो तो वह पैतृक ऋण नहीं माना जायगा। यही बात दादा और पोतेके बीच समझना । अब प्रिवी कौंसिलने अपनी राय बदल दी है अब यह बात नहीं मानी जाती, देखो इस किताबका पेज ५२८ में “अब प्रिवीकौंसिलकी क्या रायहै'। दफा ४८२ जब लड़के फरीक न बनाये गये हों तो क्या
पाबन्दी है ? मुश्तरका जायदादको जब बापने रेहन कर दिया हो और उस रेहननामाके अनुसार अदालतसे डिकरी होगयी हो मगर उस मुकदमे में लड़के फरीक न बनाये गये हों तो भी उस डिकरीके लड़के पाबन्द हो सकते हैं किन्तु इसमें भी मतभेद है।
ट्रान्सफर आव प्रापर्टी (कानून इन्तकाल जायदाद ) एक्ट नं०४ सन १८८२ ई० के अनुसार जब रेहनका कोई दावा किया जाय तो माना गया है कि उस दावासे वही फ़ीक़ पाबन्द होंगे जो उसमें दरअसल तरीक़ बनाये गये हों-इसपर मतभेद है । मिताक्षरालॉ मानने वाले कुटुम्बके बापने मुश्तरका खान्दानकी जायदाद रेहन करदी हो, वह रेहन, और मुश्तरका खान्दानके मेनेजरकी हैसियतसे जो रेहन कीगयी हो, इन दोनोंका दर्जा बराबर है। उपरोक्त ऐक्ट नं०४ सन् १८८२ ई० के पास होनेसे पहले यह माना जाता था कि बापकी रेहनकी हुई जायदादके रेहननामेके अनुसार जो डिकरी अदालतसे हो जाय और चाहे उसमें लड़के जो बापके शरीक रहते थे फरीकन भी बनाये जांय तो भी लड़के उस डिकरीके पाबन्द माने जायंगे क्योंकि बाप कुटुम्बके मुखियाकी तौरपर माना गया है, देखो-4 Mad. 1; S. C. (1885) 9 Mad. 343; 5 Mad. 251; 6 Bom 520; 9 Cal. L. B. 350; 4 Mad. 111; 14 I. A. 187; 15 Cal. 70;2 All. 746; 3 All 72; 3 All. 191; 3 All. 443; 11 Cal. L. R. 263.
उपरोक्त कानून इन्तकाल जायदादकी दफा ८५ में कहा गया है कि जो जायदाद रेहन रखी गयी हो उसमें जितने आदमियोंका हक़ हो वे सब उस रेहनके मुकदमे में फ़रीक़ बनाये जायंगे मगर शर्त यह है कि मुद्दईको यह मालूम हो कि उस जायदादमें उन लोगोंका भी हक़ है। इस पर बङ्गाल हाई.
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दफा ४८२ ]
पुत्र और पौत्रकी जिम्मेदारी
कोर्टने माना कि जब मुद्दईको यह मालूम हो कि उस जायदादमें हक़ रखने वाले कुछ और लोग भी हैं लेकिन उसने मुक़द्दमेमें उनको फ़रीक़ न बनाया हो तो उन लोगोंको अर्थात् पुत्रको अधिकार है कि वे उस मुक़द्दमेकी डिकरी अपने ऊपरसे खारिज करा दें, देखो -- सूरजप्रसाद लाला बनाम गुलाबचन्द 28 Cai. 517; 5 C. W. N. 640; 27 Cal. 724; 4 C. W. N. 701. इस बातका बार सुबूत पुत्रोंपर है, देखो - - रामनाथगय बनाम लक्ष्मणराय 21 All. 193. इलाहाबाद हाईकोर्ट की राय, उक्त बङ्गाल हाईकोर्ट की रायके विरुद्ध कुछ मुक़द्दमोंमें रही है; जैसे- बलवन्तसिंह बनाम अनन्तसिंह (1910) 33 AJ1. 7. लेकिन एक और मुक़द्दमे में इलाहाबाद हाईकोर्टने बङ्गालके हाईकोर्ट की रायके अनुसार अपनी राय प्रकाश की है, देखो - रामप्रसाद बनाम मनमोहन 30 All. 257.
बङ्गाल हाईकोर्ट की रायका यह मतलब है कि जब मुक़द्दमेमें पुत्र फरीक़ बनाये जाने से छूट गये हों तो वह डिकरी महज़ इस वजहसे खारिज नहीं हो जायगी बलि मुद्दईको पुत्रोंके विरुद्ध नया दावा करना होगा और इस नये दावेसे वह क़र्ज़ा कोपार्सनरी जायदादके नीलामसे वसूल किया जासकता है, देखो - धर्मसिंह बनाम अङ्गनलाल 21 All 301. लछिमनदास बनाम डालू 22 All 394. रामसिंह बनाम सोभाराम 29 All 544; 28 Cal. 517; 6 C. W. N. 640; 2≠ All. 211.
मदरास और बम्बई हाईकोर्टकी यह राय है कि इस विषयमें जो क़ानून है वह ट्रान्सफर आफ प्रापरटी एक्ट नं० ४ सन १८८२ ई० के पास होनेसे नहीं बदल गया, देखो- -21 Mad. 222; 22 Mad. 207; 34 Bom. 354; 12 Bom. L. R. 219; 12 Bom. L. R. 811; 12 Bom. L. R. 940.
मुहम्मद असकरी बनाम राधेरामसिंह 22 All 307 वाले मामले में अदालतने माना कि जब कोई मुक़द्दमा बाबत रेहन या किसी कन्ट्राक्टके मुश्तरका खान्दानके मेनेजरपर दायर किया गया हो तो उसकी डिकरी हो जानेके पश्चात् वे सब मेम्बर पाबन्द होंगे जिनका कि हक़ उस जायदादमें था और एकही हैसियत रखते थे । अर्थात् ऐसी डिकरी हो जानेपर फिर डिकरीदारको दूसरे मेम्बरों पर दावा करने की ज़रूरत नहीं है ।
क़ानून जावता दीवानी एक्ट नं० ५ सन १९०८ ई० आर्डर नं० ३४ के रूल नं० १ में कहा गया है कि - "इस क़ानून की शर्तोंका ख़्याल रखते हुए यह ज़रूरी है कि वह सब लोग जो किसी रेइनकी जायदादमें हक़ रखते हों उस रेहनके दावेमें फरीक़ बनाये आयें" इस क़ानूनके आर्डर ३४ से वे सब मुशकिलें जो क़ानून इन्तक़ाल जायदाद एक्ट नं० ४ सन १८८२ ई० की दफा २५वीं के अनुसार पैदा होती हैं साफ तौरसे तय नहीं होगयीं, यह बात मानी
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पैतृक ऋण अर्थात् मौरूसी क़र्जा
[सातवां प्रकरण
गयी है कि मुश्तरका खान्दानके जो लोग इनफिनाक रेहन ( रेहनसे छुटाने का हक़ ) रखते हों वे सब रेहनके मुकदमे में फरीक बनाये जायंगे । ___जब बापके किये हुए रेहननामे के मुक़द्दमे में लड़के फरीक न बनाये गये हों तो लड़कोंके लिये सिर्फ एकही मौका उस डिकरीमें उदारी करनेका रहता है या तो वे उज्र दारी उस डिकरीके इजरा होनेपर करें या नया मुक्तहमा डिकरीकी मन्सूखीका दायर करें। मतलब यह है कि अगर लड़के उस रेहनके दावेमें फरीक बनाये जाते तो जो कुछ के जवाब उस वक्त लगाते वही जवाब वे उस समय भी लगा सकते हैं जब कि वे फरीक न बनाये गये हों और उस डिकरीका इजरा उनके लाभके विरुद्ध किया गया हो इससे ज्यादा पुत्रों के लिये उदारीका मौक़ा कोई नहीं है, देखो--8Mad.376;33Cal.676. 21All.356:इस आखिरी केसमें माना गया कि जब पुत्रकेद्वाराबापका स्थानापन्न (Representative) बनाकर दावा किया गया हो तो पुत्रोंकी उदारीका मौका नष्ट हो जाता है
ऐसी डिकरीकी उजदारीमें या नया मुकद्दमा उस डिकरीकी मन्सूखीके लिये दायर करने में जिसमें लड़के फरीक न बनाये गये हों, वे (पुत्र ) अदालत को दिखला सकते हैं और साबित कर सकते हैं कि जिस कर्जेके सम्बन्धमें रेहननामा लिखा गया था वह कर्जा कानूनी और बुरे कामोंके लिये लिया गया था, देखो-रामकृष्ण बनाम बिनायक नरायन 34 Bom. 354; 12 Bom. L. R. 219. मातादीन बनाम गयादीन 31 All. 599. लड़के इन्फि काक रेहन (जायदादको रेहनसे छुटाना ) करा सकते हैं, देखो-4 Mad. 1, 69; 8 Bom. 481; 21 Mad. 222. मगर ऐसे दावेमें सिर्फ यह उज्रदारी काफी नहीं होगी कि हम उस मुकदमे में फरीक नहीं बनाये गये थे, देखो-- लालसिंह बनाम पुलन्दरसिंह 28 All. 182. देवीसिंह बनाम जैराम 25 All. 214. केहरीसिंह बनाम चुन्नीलाल 33 All. 436.
जो लड़का रेहनकी डिकरी हो जानेके बाद पैदा हुआ हो उसको इन्फिनाक रेहनका हक़ नही पैदा होगा, देखो--22 Mad. 372.
कुछ मुक़द्दमोंमें यह कहा गया कि बापके विरुद्ध रेहनकी डिकरी हो या सादे कर्जेकी हो और उस मुक़द्दमे में पुत्र फरीक़ न बनाये गये हों और जायदाद उस डिकरीसे नीलाम होगयीहो तो दोनोंही प्रकार (रेहन और सादे कर्जे) की डिकरियोंमें पुत्रोंको सिर्फ यही एक उपाय बाक़ी रहता है कि वे यह दिखलाये कि वास्तवमें कोई ऐसा क़र्जा नहीं था कि जिससे नीलाम जायज़ समझा जाय, देखो-21 Mad. 222; 11 Mad. 64; 27 All. 16.
रेहनके मुकदमेके समय जो लड़का बापके शरीक न रहा हो उसे भी रेहनसे जायदाद छुपानेके दाया करनेका अधिकार प्राप्त है, देखो-त्र्यम्बक बालकृष्ण बनाम नरायण दामोदर दभोलकर 8 Bom. 481.
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दफा ४८३]
पुत्र और पौत्रकी जिम्मेदारी
५७६
जबकि पुत्र रेहनके मुकदमे में फरीक हों तो वह किसी दूसरे मुकदमे में यह प्रश्न नहीं उठा सकते कि रेहन या नीलाम जायज़ नहीं था। बापपर जो. दावा किया जाय उसमें यदि पुत्र फरीक़ न बनाये जाये तो महाजनको अधिकार है कि वह पुत्रोंपर अलग दावा दायर करे, देखो-रामसिंह बनाम शोभाराम (1907) 29 All. 544. धर्मसिंह बनाम श्रङ्गनलाल (1899 ) 21 All. 301. आर्यबुद्र बनाम डोरासामी (1888) 11 Mad. 413.
बैबातकी डिकरी-किसी संयुक्त परिवारके केवल मेनेजरके खिलाफ प्राप्त बयबातकी डिकरी; जो किसी ऐसे रेहननामेकी बिनापर हो, जो कानूनी आवश्यकतापर किया गया हो, परिवारके उन समस्त सदस्योंके खिलाफ भी लाजिमी है जो कि मुकदमे में फ़रीक़ नहीं बनाये गये । यदि हिन्दू पिता अपने पुत्रोंका कानूनी प्रतिनिधि हो सकता है तो कोई कारण नहीं है कि क्यों चाचा या भाई जो संयुक्त परिवारका मेनेजर हो, उसी प्रकार अपने भाइयों या भतीजोंका प्रतिनिधि न हो सके, किसी ऐसे रेहननामेकी नालिशमें जो क़ानूनी आवश्यकतापर किया गया हो । यदि इस प्रकारका मामला हो, तो उसका प्रभाव समस्त परिवारपर पड़ता है और यदि उस दस्ताबेज़की बिना पर केवल मेनेजरके खिलाफ नालिश की जाती है, तो इस प्रकारकी मालिश द्वारा प्राप्त डिकरीकी पाबन्दी समस्त परिवारके सदस्योंपर होती है--पिरथी पालसिंह बनाम रामेश्वर A. I. R. 1927 Oudh. 27.
नोट--नापके किये हुए रेहनके दावेमें जहां तक होसके सब पुत्रोंको 'चाहे वे बापके शरीक रहते हो या न रहते हो या नवजात (एक दिनका बच्चा भी) हो, फरीक बना देना चाहिये । और उन लोगोंको भी फरीक बनाना इतनाही जरूरी है जो किसी किस्मका हक रेहनकी जायदादमें रखते हैं।। दफा ४८३ नीलामसे पुत्रके हक़का चला जाना
(१) बापके विरुद्ध जो डिकरी हुई हो उसके अनुसार कोपार्सनरी जायदादके नीलाम हो जानेपर पुत्रोंका हक भी चला जाता है, देखो-मदन थाकुर बनाम कंटूलाल 1 I. A. 321; 14 B. L. R. 187; 22 W. R.C. R. 56; 13 I. A. 1; 13 Chl 21; 15 I. A. 99; 16 Cal. 717,16 I. .A 1; 12 Mad. 142; 17 Bom. 718; 8 Cal. 617, 10 C. L. R.1893 23. Cal. 262; 6 All. 234; 6 Cal L. R. 36.
मातादीन बनाम गङ्गादीन 31 All. 599. में माना गया कि सिर्फ दो हालतों में हक नहीं चला जाता, वह दोनों हालते यह है--
(१) जब कि पुत्रोंके हक़ न बेचे गये हों या (२) जब कि पुत्र यह साबित करें कि बापने कर्जा ये कानूनी या बुरे
कामोंके लिये लिया था और महाजन, खरीदार या दूसरा खरीदार
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५८०
पैतृक ऋण अर्थात् मौरूसी क़र्जा
(सातवां प्रकरण
जांच करने हीसे यह मालूम कर सकता था कि वह कर्जा बे कानूनी था और बुरे कामोंके लिये ही लिया गया था, देखो-- जुहारमल बनाम एकनाथ 24 Bom. 343; 1 Bom. L. R.
839; 16 Mad. 99. पुत्र उस कके वास्तविक (दरअसल कर्जा नहीं लिया गया यानी दस्तावेज़ किसी अन्य कारणसे लिखी गई थी या रुपया दिखलाकर फिर वापिस ले लिया गया इत्यादि ) होने और न होनेका झगड़ा भी उठा सकते हैं, देखो-13 1. A. 1-18; 13 Cal. 21.
(२) नीलामसे हक़ नहीं मारा गया-हालका एक मुकद्दमा देखोहनूमानदास रामदयाल बनाम वल्लभदास (1918 ) 20 Bom. L. R. 472. मुहाभलेह नं०६ और ७ ने सन् १९०४ ई० में मुहाअलेह नं०५ से कुछ रकम दिला पानेका दावा किया था जिसकी डिकरी उन्हें प्राप्त होगई किन्तु उस समय मुहाअलेह नं०५ के एक लड़का ४ वर्षका था जो इस हालके मुकदमे में मुद्दई है। उक्त डिकरीमें अदालतके बाज़ाविता नीलामके द्वारा मुहाभलेह नं. ५ के दो मकान नीलाम होगये जिन्हें मुद्दाअलेह नं० १ से ४ ने खरीद किया । सन् १९१५ ई० में मुद्दामलेह नं०५ के लड़के ने दावा किया कि जो नीलाम मौरूसी मकानोंका हो चुका है उनमें आधा हिस्सा मेरा करार दिया जाय क्योंकि वह हिस्सा खरीदार मुद्दाअलेह नं०१ से ४ के पास नहीं गया
और मालिकाना दखल दिलाया जाय । मुहाअलेह नं० १ से ४ ने यह उजुर किया कि अदालतके नीलामसे लड़केका हक़ खरीदारके पास चला गया अब वह दावा नहीं कर सकता अदालतने माना कि लड़केका हिस्सा अदालतके नीलामसे खरीदारके पास नहीं गया, लड़का उससे ले सकता है, मुद्दाअलेह की उजुरदारी ऐसे मामलेमें नहीं मानी जायगी जहां किसी कोपार्सनरने खरीदारके विरुद्ध दावा किया हो।।
- प्रिवी कौन्सिलका मुकदमा भी देखो जिसमें एक हिन्दू शामिल शरीक परिवारका बाप छत्रपति मिताक्षराला के प्रभुत्वमें रहता था, बेनीमाधवने ५ छत्रपतिपर नालिश करके सादे कर्जेकी डिकरी प्राप्त करली, छत्रपतिके पुत्रोंने
बेनीमाधव पर दावा किया कि उनका हिस्सा डिकरीसे बरी कर दिया जाय किन्तु यह दावा अनायास डिस्मिस होगया। बेनीमाधवने कुल मौरूसी जायदाद नीलाम कराई और खुद खरीद लिया, नीलामकी मंजूरी अदालतने इन शब्दों में दी "Right. title and interest of the Judgment debtor" मयूनका हक, स्वत्व, तथा अधिकार खरीदारको दिया गया, अपीलमें एक प्रश्न ज़रूरी माना गया कि अदालतके नीलामसे क्या चला गया ? सबजजने यह माना था कि छत्रपतिका बिना बटा हुआ हिस्सा चला गया, हाईकोर्टने
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दफा ४८४ ]
पुत्र और पौत्रकी जिम्मेदारी
यह माना कि सब जायदाद चली गई जिसपर कि छत्रपति इन्तक़ालका हन रखता था प्रिवी कौन्सिलमें खूब बहस होकर यह तय हुआ कि मुश्तरका हिन्दू खान्दानके बापपर जो डिकरी हो और उसमें बापका हक़, स्वत्व, तथा अधिकार नीलाम हो जाय तो यही समझा जायगा कि केवल बापकाही हिस्सा जो मौरूसी जायदाद में था जाता रहा दूसरेका नहीं, देखो - श्रीपतिसिंह दुगार बनाम महाराजा, सर पी०के० टगोर (1916) P. C. 19. Bom. L. R. 290. और देखो दफा ४८८.
५८१
पिता के खिलाफ डिकरी - महाजनको अधिकार है कि उस डिकरीकी तामीलमें, जो हिन्दू पिता द्वारा लिया गया हो तमाम संयुक्त खान्दानकी जायदादको मय पुत्रों के अधिकारके नीलाम कराले-दे सोडजा बनाम वामन राव 27 Bom. L. R.1451.
स्त्री वारिस - परिमित अधिकारीकी स्वीकृति भावी वारिसोंके खिलाफ मियादसे बढ़ नहीं सकती - लक्ष्मी बनाम वेङ्कटराव 82 IO. 1052; A. I. R. 1925 Nag. 207.
क़र्ज पिता द्वारा - जबकि किसी हिन्दू पिता के खिलाफ किसी रक्कमकी fडकरी प्राप्त हुई हो और उसकी तामीलमें खान्दानी जायदाद नीलास कीगई हो, पुत्र उसे केवल गैर तहजीबी साबित करनेके बाद ही मंसूत्र करा सकते हैं, रञ्जीतसिंह बनाम रम्मनसिंह 87 I. C. 654; A. I. R. 1925 All. 781.
क़र्ज पिता द्वारा - पुत्रोंकी जिम्मेदारी - पार्थसारथी अप्पाराव बनाम सुब्बाराम 84 I. C. 276; A. I. R. 1924 Mad 840.
दफा ४८४ रुपयेकी डिकरी
सिर्फ रुपयाके क़र्जेके बारेमें जो डिकरी बापपर हो उसके द्वारा बापकी जिन्दगी में सबकोपार्सनरी जायदाद नीलामकी जा सकती है, देखो - हरीराम बनाम विश्वनाथसिंह 22 All. 408. यह मामला रेहनके क़र्जेका था जिसमें दावेकी रक़म अनिश्चित थी; 16 I A. 1; 12 Mad. 142; 20 Cal. 328; 9 Cal. 389; 12 Cal L. R. 494; 1 Bom. 262; 5 Cal. 855; 6 Cal. L. R. 473; 5 N. W. P. 89. मगर शर्त यह है कि वह क़र्जा बे क़ानूनी न हो और बुरे कामकी गरज़सें न लिया गया हो । खान्दानके कामोंके लिये लिया गया था या नहीं इस बातका कोई प्रश्न नहीं उठता । उक्त डिकरीके पाबन्द पुत्र भी होंगे चाहे पुत्र उस मुक़दमे में फरीक़ बनाये गये हों या न बनाये गये हों देखो - -1 1. A. 321; 14 B. L. R. 187; 22 W.R. C. R.56-59; 9 Mad. 343-345-349; 13 I. A. 1; 13 Cal. 21; 6 I. A. 88; 5 Cal. 148-171; 5 Cal. L. R. 226–238; 15 I. A.. 99; 15 Cal. 717; 16 I.
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पैतृक ऋण अर्थात् मौरूसी क़र्ज़ा
[ सातवां प्रकरण
A. 1; 12 Mad. 142; 27 All. 16; 25 All. 57; 23 Mad.292; 16Mad. 99; 11 Mad. 64; 12 Mad. 309; 9 Cal. 452; 12 C. L. R. 47; 36 Boin.68; 13 Bom L. R. 1161; 28 All. 288.
लेकिन अगर पुत्र उस मुक़द्दमेमें फ़रीक़ न बनाये गये हों तो वह किसी दूसरे मुक़द्दमे में जो उनपर हो उस क़र्जेकी पावन्दीपर अपत्ति कर सकते हैं, देखो - 22 Mad 49; 4 Mad. 320; 24 Bom. 135; 11 Bom. 37; 27 All. 16. या क़ानून जात्रता दीवानी ऐक्ट नं० ५ सन् १९०८ ई० आर्डर २१ रूल ५७ के अनुसार इजरा डिकरीमें उज्रदारी करें। उक्त रूल ५७ इस प्रकार है: - " अगर कोई जायदाद इजरा डिकरीसे कुर्क हुई हो मगर डिकरीदारके
सूरकी वजहसे अदालत इजरा दरख्वास्तकी निस्बत आगे कोई काररवाई न कर सके तो अदालतको लाजिम होगा कि इजराकी दरख्वास्त नामंजूर करे या उचित कार्रवाई के वास्ते आगेकी किसी तारीख तक मुलतबी रखे और इजराकी उक्त दरख्वास्त की नामन्जूरीपर कुर्ती रद हो जायगी" इस विषय में फैसले भी देखो - शिवराम बनाम सखाराम 33 Bom. 39; 10 Bom. L. R. 39; 20 Bɔm. 385; 12 All. 209, 1 Mad. 358.
५. ८२
इलाहाबाद हाईकोर्टने दो मुक़द्दमोंमें से एक में यह कहाकि जब नीलाम न हुआ हो तो पुत्र उस डिकरीपर केवल इस कारण से ही आपत्ति कर सकते हैं कि वे उस मुक़द्दमे में फरीक़ नहीं बनाये गये थे, लेकिन दूसरे मुक़द्दमेमें उसी हाईकोर्ट ने कहा कि पुत्रोंके फरीक़ बनाये जाने या न बनाये जानेमें कुछ भेद नहीं है, देखो - रामदयाल बनाम दुर्गासिंह 12 All. 209; 9All. 142. करुण सिंह बनाम भूपसिंह (1904) 27 All. 16.
दफा ४८५ बे क़ायदा नीलामसे पुत्रोंका हक़ रक्षित रहता है
जिसके पास बापने रेहन रखा हो उस आदमीने अगर क़ानून इन्तक़ाल जायदाद एक्ट नं० ४ सन् १८८२ ई० की दफा ६६ के विरुद्ध, क़र्जेकी डिकरी में जायदाद नीलाम कराली हो या नीलाम दूसरी तरहसे बे क़ायदा हो तो पुत्रों का हक़ नहीं जाता, देखो -- 22 Mad. 372.
दफा ४८६ बापके मरने के बाद इजराय डिकरी
बापके मरनेके बाद पुत्रोंके हाथमें जो कोपार्सनरी जायदाद हो उसके विरुद्ध डिकरीदार डिकरी इजरा करा सकता है-इस विषय में जाबता दीवानी एक्ट ५ सन् १९०८ ई० की दफा ५०-५२-५३ देखो । नीचे इन दफाओंका वर्णन किया गया है, देखो दफा ४८७.
किसी हिन्दू पिता के खिलाफ रेहननामेकी डिकरीकी तामील उस जायदादपर जो पुत्रोंके अधिकारमें ही हो सकती, किन्तु वे क़र्जको ग़ैर क़ानूनी या गैर तहजीबी साबित कर सकते हैं। केवल यह साबित करना काफ़ी न होगा
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दफा ४८५-४८७]
पुत्र और पौत्रकी जिम्मेदारी
५८३
कि मामले फुजूल खर्ची या असावधानीके साथ किया गया था और रकम उससे सस्ते सूदकी दरपर मिल सकती थी--टिकैत गायननाथ बनाम मल्हा जी वैद्य (1925) P. H. C.C. 160; 6 Pat L. T. 507; 90 1.C. 276%; A. I. R. 1925 Patna 588. दफा ४८७ कानूनी प्रतिनिधि
इस विषयपर कानून जाबता दीवानी एक्ट ५ सन् १९०८ ई. की दफायें ५०-५२-५३ इस प्रकार हैं
दफा ५० (१) अगर वह आदमी जिसपर डिकरी हुई हो डिकरीकी तामील होनेसे पहले मर जाय तो डिकरीदारको अपत्यार है कि उस आदमी के कानूनी प्रतिनिधि अर्थात् उसके कंायम मुकामपर डिकरी जारी होने की दरख्वास्त, डिकरी देने वाली अदालतमें करे।
(२) अगर उस प्रतिनिधिके नाम डिकरी जारी कराई जाय तो उसकी जिम्मेदारी सिर्फ उतनीही होगी जितनी कि मरने वालेकी जायदाद उसके हाथमें आई हो और वह खर्च न कीगई हो । प्रतिनिधिकी जिम्मेदारी कितनी है यह मालूम करनेके लिये डिकरी इजरा करने वाली अदालतको अधिकार है कि अपनी मरजीसे या डिकरीदारकी दरख्वास्तपर उस प्रतिनिधिले हिसाब के ऐसे कागजात ज़बरदस्ती दाखिल कराये जो अदालतको मुनासिब मालूम हों।
दफा ५२ (१) मरने वालेका कानूनी प्रतिनिधि होने की हैसियतसे अगर किसी आदमी पर डिकरी हुई हो और वह डिकरी मरने वालेकी जायदादसे नकद रुपया दिलानेके वास्ते हो तो इजरा डिकरी उस जायदादकी कुर्की और नीलामके ज़रियेसे हो सकती है।
(२) अगर ऐसी कोई जायदाद उस कानूनी प्रतिनिधिके हाथमें बाकी न रहे और वह अदालतके इतमीनानके लिये यह साबित न कर सके कि उसने मरने वाले की जायदादको जो उसके कब्जेमें आई उचित रीतिसे खर्च किया है तो उसपर उतनीही जायदादकी बाबत डिकरी जारी हो सकती है जिसकी निस्वत वह पूर्वोक्त रीतिसे अदालतका इतमीनान न करा सका था और वह डिकरी उसपर उसी तरह जारी होमी कि मानो वह उसीकी जात खास पर हुई है।
दफा ५३-पूर्वोक्त दफा ५० और ५२ के मतलबोंके लिये जो जायदाद किसी आदमीके बेटे या दूसरी औलादके कब्ज़ेमें इस तरहपर आये कि उस जायदादपर हिन्दूला के अनुसार मरने वालेके कर्जेका बोझ हो तो समझा जायगा कि वह जायदाद मरने पालेकी वही जायदाद है जो उसके बेटे या दूसरी औलादके कब्जे में उसके कानूनी प्रतिनिधिकी हैसियतसे आयी है।
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पैतृक ऋण अर्थात् मौरूसी क़र्ज़ा
[ सातवां प्रकरण
इस विषय पर नज़ीर देखो - शङ्करनाथ पण्डित बनाम मदनमोहनदास 14 C. W.N.298.
५८४
पहली जनवरी सन् १९०८ ई० के पहले जैसा क़ानून था उसके अनुसार पुत्र उस जायदाद की कुर्कीपर आपत्ति कर सकता था जो उसके बापकी जिन्दगीमें सादे क़र्जेकी हुई हो, देखो -प्यारेलालसिंह बनाम कुञ्जीलाल 16 All. 449; 11 All 302; 28 All. 51; 32 Mad. 429; 16 Mad. 99; 11 Mad. 413; 13 Mad. 265; 5 Mad. 232; 6 C. W. N.223;28Cal 517.
काली कृष्ण सरकार बनाम रघुनाथदेव (1903) 31 Cal. 224. लेकिन जब बापके जीवनकालमें उस डिकरीकी इजरासे कुर्की न हुई हो (चाहे इजरा हो भी गयी हो); तो मदरास और इलाहाबाद हाईकोर्टकी राय में और बङ्गाल के भी कुछ फैसलोंके अनुसार पुत्र पर नये सिरेसे दावा करना होगा, देखोइसी पैराकी नजरें ।
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१
Marat हाईकोर्ट और बङ्गाल हाईकोर्टके फुलबेन्चकी यह राय हुई कि ऐसी डिकरी पुत्रोंके विरुद्ध जारीकी जा सकती है नये सिरेसे मुक़द्दमेकी ज़रूरत नहीं है, देखो -- 28 Bom. 383; 6 Bom. L. R 344; 20 Bom. 385, 34 Cal. 642; 11 C. W. N. 593.
रेनकी डिकरीका इजरा भी इसी तरह पर होगा, देखो-20 Cal. 895. अगर डिकरीका वोझ कोपार्सनरी जायदादपर हो तो बापके मरनेके बाद इजराकी कार्रवाई उसके पुत्रोंके विरुद्ध हो सकती है, देखो-- 7 Mad. 339; 4 Mad. 1.
दफा ४८८ पुत्रका हक़ कब चला जाता है ?
arus frरुद्ध जो डिकरी हुई हो उसके इजराके नीलामसे सिर्फ बाप काही बिना बटा हुआ हक़ चला जाता है या सारे खान्दानका बिना बटा हुआ हक़ चला जाता है ? इस प्रश्नका फैसला इजराकी कार्रवाईपर निर्भर हे । अदालत सिर्फ यह देखेगी कि वास्तवमें क्या बेचा गया और खरीदारने उसको क्या समझकर खरीदा, देखो -- 14 I. A. 84; 10Mad. 241; 14 I. A. 77, 83; 14 Cal. 572; 31 I. A. 1; 27 Mad. 131; 8 C. W. N. 180; 8 Cal. 898; 10 C. L. K. 505; 12 Bom. 691. इस प्रश्नमें क़ानून और वास्तविक घटनायें दोनों मिली रहती हैं, देखो--नीचेके मुक़द्दमों में माना गया है कि केवल बापका हक़ नीलामसे चला गया 4 I. A. 247; 3 Cal. 198; 1 C. L. R. 49; 14 I. A. 77; 14 Cal. 572; 11 I. A. 26; 10 Cal. 626; 9 All. 672; 14 I. A. 84; 10 Mad. 241; 8 Bom. 489; 15 Bom. 87; 23 Cal. 262; 2 All. 800; 2 All. 899; 7 C. L. R. 218; - 5 Cal. 425, 5 O. L. R. 112. अब देखिये नीचेके मुक़द्दमोंमें यह माना
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दफा ४८८-४६०)
पुत्र और पौत्रकी जिम्मेदारी
गया कि नीलामसे लड़कोंका हक़ भी चला जाता है 15 I. A. 99; 15 Cal. 7173 16 I. A. 1; 12 Mad. 142; 171. A. 11:17 Cal.584; 17Bam. 718; 29 Mad. 484; 11 Mad. 64; 11 Bom. 42, 6 Bom. 530, देखो दफा ४८४-२.
पिताका क़र्ज-पिताके खिलाफ डिकरीकी तामीलमें पुत्रका हिस्सा नीलाम किया जा सकता है--नारायण गनेश बनाम सगुनाबाई गङ्गाधर 49 Bom. 113; 85 I. C. 181; A. I. R. 1925 Bom. 198.
पिता द्वारा हिबा या दानकी पुत्रपर पाबन्दी--अवस्था--दान स्त्री या माताको--दान, पुत्रीको--अन्तर-मोव्वा सुब्बाराव बनाम मोव्वा भादम्मा 83 I. C. 72; A. I. R. 1925 Mad. 68.
नोट-डिकरीदारका यह कर्तव्यहै कि कुकी और नीलामके हुक्ममें या नीलामके सर्टीफिकट (किचाला) में यह देखले कि उसमें जायदाद सम्बन्धी मद्यून का हक साफ साफ लिखा है या नहीं।
दफा ४८९ बार सुबूत
बार सुबूतके विषयमें मतमेद है, प्रश्न यह है कि जायवादके नीलामसे जायदाद परसे बेटोंका भी हक्र चला जाना माना जावे या केवल बापका हक चला जाना माना जावे-14 All. 191; 14 All. 179, 12 All. 99; 15 Bom. 87. मनोहर बनाम बलवन्त (1901) 3 Bom. L.R. 97. माना गया है कि इस विषयमें बार सुबूत उस पक्षकारपरहै जो नीलामका समर्थन करता हो, देखो-हज़ाहिरा बनाम माईजी मदन ईसबजी Bom. P.J. 1875P.97. दफा ४९० ख़रीदारका कर्तव्य
नीलामके खरीदारका केवल यह कर्तव्य है कि वह यह देखे कि डिकरी बापपर हुई है और जो जायदाद नीलाम की जाती है वह उस डिकरीके अनुसार नीलाम होना चाहिये, जब खरीदार इतना करले और डीक मूल्य देकर नेकनीयतीसे खरीद ले तो पुत्रोंका यह अधिकार नहीं है कि पीछेसे उसमें हस्तक्षेप कर सके और जायदादको खरीदारसे वापिस ले सके, देखो--1 I. A. 321; 14 B.L. R. 187:22W . R.C. R. 56: 6 All. 234. I I . A. 99; 15 Cal. 317; 4 Mad. 96, 2 Cal. 213; 25 W. R. C. R. 421; 23 W. R. C. R. 260; 1 S. W. R. C. R. 55. ___नानोमी षबुभासिन बनाम मदनमोहन (1885) 13 I. A. 1-18; 13 Cal. 21-36; 15 I. A. 99; 15 Cal. 370. इन मुक़द्दमोंमें कहा गया कि अगर बापका कर्जा ऐसा था कि जिससे नीलाम जायज़ हो सकता था तो ऐसी सूरतमें बाप उस जायदादको चाहे स्वयं बेच देता या महाजन दावा
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पैतृक ऋण अर्थात् मौरूसी कर्जा
(सातवां प्रकरण
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करके नीलाम करवाता । ऐसे मामलेमें पुत्र यदि कुछ आपत्ति करें तो वे यही कह सकते हैं कि नीलाम या इजराकी काररवाई में वे फरीक नहीं थे इसलिये उन्हें अपने मुकद्दमे में बापके उस कर्जेके जायज़ या नाजायज़ होनेका प्रश्न उठानेकी इजाज़त दी जाय, यदि उन्हें ऐसा हक मिले तो भी वे जब तक यह न साबित करदें कि कर्जा ऐसा नहीं था जिससे नीलाम जायज़ समझा जाय तब तक उन्हें कुछ लाभ नहीं होगा । जिस लिखतके अनुसार जायदाद खरीसारके कब्जे में गयी हो उससे अगर यह ठीक न मालम होता हो कि सारी जायदादसे उस लिखतका सम्बन्ध है या केवल बापकी कोपार्सनरी जायदाद के हिस्सेसे तो ऐसे मामलेमें बेटोंका फ़रीक न बनाया जाना अवश्य ध्यान देने योग्य होगा लेकिन जब खरीदारने सारी जायदादका खूब भाव ताव करके
और ठीक दाम देकर नेकनीयतीसे जायदाद खरीद की हो तो खरीदार उसी बिनापर अपने हक्रकी रक्षा कर सकता है जिस बिनापर वह नीलाम जिसके इजराका विरोध पुत्रोंने किया हो जायज़ समझा जाता। दफा ४९१ पुत्रोंपर डिकरी
यापकी जिन्दगीमें जब पुत्रोंको फरीक बनाकर उनपर डिकरी हो जाय तो उससे कोपार्सनरी जायदाद पाबन्द हो जाती है मगर शर्त यह है कि पुत्रों पर डिकरी तभी होगी जबकि बापने वह क़र्जा किसी बेक़ानूनी और बुरे कामों के लिये न लिया हो देखो-22 Mad. 49; 8 Cal. 517; 10 C. W.R.489.
__ मतलब यह है कि जब बापके कर्जेकी नालिशमें पुत्र भी फरीक बना दिये गये हों और उनके मुकाबिलेमें डिकरी हो जाय तो उस समय कुल मुश्तरका जायदाद पाबन्द हो जाती है फिर बेटोंकों कोई मौक़ा उजुर करनेका बाकी नहीं रहता। जहांपर कोपार्सनरी जायदाद डिकरीसे पाबन्द न हो वहां पर बाप अपनी ज़ात वाससे उस क़र्जेके चुकानेका पाबन्द माना गया है। दफा ४९२ पुत्रोंपर बापके क़र्जेकी साधारण ज़िम्मेदारी
(१) बाप और दादाके कर्जे जिनका बोझ जायदादपर न पड़ाहो पुत्र और पौत्रको आवश्यक है कि वे कर्जे वह मुश्तरका जायदादसे चुका दें जिसमें कि उनका हिस्सा भी शामिल है और जिस जायदादमें बाप और दादा हिस्सा रखते थे मगर शर्त यह है कि वे कर्जे बेक्कानूनी या बुरे कामोंके लिये न लिये गये हों देखो-1 I. A. 3213 14 B. L. R. 187; 22 W. R. C. R. 56%; b Cal. 855; 6 C. L. R. 473; 27 Mad. 243; 11 Bom. H. 0.76317 Mad. 268; 4 Mad. 1; 9 Cal. 389; 12 C. L. R. 494; 5 Mad. 615.6 Mad. 293, 9 I. A. 128; 6 Mad. 1; 29 Mad. 484.
(२) हर्जानेका दावा-गोपाल भट्ट अपने नाबालिगभतीजे गणेश और चिन्तामणिके साथ मुश्तरका रहता था उसने एक वसीयतके द्वारा मुश्तरका
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दफा ४६१-४६३ ]
पुत्र और पौत्रकी जिम्मेदारी
खान्दानकी जायदादका ट्रस्टी काशीनाथको नियत किया । काशीनाथपर यह दावा किया गयाकि उसकी बेहद्द बदइन्तज़ामीके सबबसे जायदादको नुकसान पहुंचा है, १४४०३ = ) ७ की डिकरी काशिनाथपर हुई इस डिकरीका रुपया वसूल करनेके लिये सताराकी अदालतमें डिकरी भेजी गयी। वहां पर काशीनाथ और उसके लड़के हनुमन्त और नारायणके हक़ सहित मौरूसी जायदाद कुर्क की गई, हनुमन्त और नारायणने उज्र किया कि हमारा हिस्सा बरी कर दिया जाय। हाईकोर्टने कहा कि अदालत दीवानीके नियम भङ्ग करनेले बाप पर जो डिकरी ट्रस्टीकी हैसियतसे हो उसका विचार हिन्दूलॉ के असदव्यवहार और बे क़ानूनी क़जके अनुसार नहीं किया जा सकता, इसलिये लड़के ऐसी डिकरीके पाबन्द हैं; देखो --हनुमन्त काशीनाथ जोशी बनाम गणेश अन्नाजी (1918) 21 Bom. L. R. 435-448.
५८७
जब पिता द्वारा पूर्वजोंका ऋण अदा करनेके लिये इन्तक़ाल किया जाय, तो उसकी पाबन्दी पुत्रोंपर होगी, चाहे पूर्वजोंके रेहननामेका कोई भाग, बतौर रेहननामेके ही तामीलके योग्य हो और पितापर व्यक्तिगत उसकी कोई जिम्मेदारी न हो -- सत्यनारायन बनाम सत्यनारायन मूर्ति - (1926) M. W. N. 7; 92 I. C. 85 (1) ; A. I. R. 1926 Mad. 428; 50M. L. J. 144.
पिता के विरुद्ध डिकरी - तामीलके समस्त खान्दानी जायदादका मय पुत्रोंके अधिकारके नीलाम होना दे सोडजा बनाम वामनराव 91 I. C. 984 ( 1 ); A. I. R. 1926 Bom. 117.
हिन्दू पुत्र के खिलाफ, डिकरीका डिकरीदार यह अधिकार रखता है कि उसके मुश्तरका खान्दानकी जायदादके बंटे हुये हिस्सेको, जो पिताके क़ब्ज़े में हो कुर्क और नीलाम करा सके, किन्तु यह अधिकार उसी सूरतमें है जब पुत्रको यह अधिकार प्राप्त हो कि वह पिताके जीवनकालमें ही बढ़वारा - करा सकता है । पञ्जाबमें यह आम तरीक़ा है कि पुत्र इस प्रकार बटवारा नहीं करा सकता -गहरूराम बनाम ताराचन्द 89 1. C. 176.
दफा ४९३ बापकी ज़िन्दगी में पुत्र कहां तक ज़िम्मेदार हैं
बापके जीवनकालमें लड़के अपने बापके क़र्जेके लिये मुश्तरका जायदादके अपने हिस्से तक ज़िम्मेदार हैं और बापकी जायदाद जो उनके हाथमें आयी हो वह भी जिम्मेदार है अर्थात् बापने दुनियांसे सम्बन्ध छोड़कर सन्यास या साधुता अङ्गीकार करली हो या इतने दिनों तक लापता हो गया हो जिससे वह मरा हुआ समझा जा सकता हो और समझा भी जाता हो । इन दोनों सम्बन्धोंसे जो जायदाद बापके हिस्सेकी लड़कोंके पास आये वह
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पैतृक ऋण अर्थात् मौरूसी क़र्ज़ा
[ सातवां प्रकरण
भी जिम्मेदार होगी । विष्णुस्मृतिमें कहा गया है कि बीस वर्ष तक लापता रहनेपर वह मरा हुआ माना जायगा, और देखो - कोलब्रुक डाइजेस्ट Vol. 1, P. 266. और देखो क़ानून शहादत एक्ट नं० १ सन १८७२ ई० की दफा १०७-१०८ इस किताबकी दफा ४६४.
प्रबद
पुत्रपर पाबन्दी नहीं --पिता द्वारा किये हुये इन्तक़ालकी पाबन्दी, पिता के जीवनकालमें, उस सूरतमें जब क़ानूनी आवश्यकता न साबित हो पुत्रके अधिकारपर नहीं होती । जब पुत्र द्वारा नालिश कीगयी और क़ानूनी ज़रू रतकी शहादत केवल दस्तावेज़ और उस आदमीके ज़रिये ही प्राप्त हुई जिसके इनमें इन्तक़ाल किया गया था। तय हुआ कि क़ानूनी ज़रूरत नहीं साबित हुई- --- नागप्पा बनाम चादेप्पा 2 Mags. L. J. 284.
दफा ४९४ जिन्दा है या मर गया
अब किसी मामलेमें ऐसा प्रश्न उठे कि अमुक आदमी ( या स्त्री ) मर गया या जीवित है और किस पक्षकारपर बार सुबूत है, इस विषयमें देखो कानून शहादत दूसरा एडीशन, छपा हुआ सम १६०२ ई० एक्ट नं० १ सन १८७२ ई० की दफा १०७ और १०८, उपरोक्त दफायें इस प्रकार हैं-
दफा १०७ - - ' जबकि यह प्रश्न उठे कि अमुक आदमी जीवित है या मर गया और यह साबित किया जाता हो कि वह तीस वर्षके अन्दर जीवित था तो बार सुबूत उस पक्षकार पर होगा जो उसका मर जाना बयान करता हो ।'
दफा १०८ - - ' बशर्ते कि जब, यह प्रश्न उठे कि अमुक आदमी जीवित है या मर गया, और यह साबित हो कि उसके जीवित रहनेका समाचार अगर वह आदमी जीवित होता तो स्वभावतः जिन लोगोंके पास आ सकता था सात वर्ष तक नहीं आया, तो बार सुबूत उस पक्षकारपर होगा जो कहता हो कि वह जीवित है ।'
दफा ४९५ पुत्रोंपर नालिश करनेकी मियाद
'कानून मियाद एक्ट नं० ६ सन १६०८ ई० श्रार्टिकल १२० के अनुसार पुत्रोंपर बापके क़र्जेका दावा करनेके लिये छः (६) वर्षकी मियाद मानी गयी है और यह मियाद उस समयसे शुरू होगी जबकि महाजनको क़र्ज़ेके दावा करनेका हक़ पैदा हुआ हो; देखो - महाराजसिंह बनाम बलवन्तसिंह 28 All 508; 23 All. 206; 16 Mad. 99; 17 Mad. 122.
ध्यान रखना चाहिये कि जब बापको क़र्जा देने वाले महाजनका हक़ पुत्रोंपर दावा करनेका वापकी जिन्दगीमें पैदा हो जाय तो बापके मर जाने से
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दफा ४६४ - ४६७ ]
- पुत्र और पौत्रकी जिम्मेदारी
मियाद में कुछ भी फरक नहीं पड़ेगा; देखो -23 Mad 292, 22 Mad. 49; 16 Mad. 99. उक्त क़ानून मियादका आर्टिकल इस प्रकार है:
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५८६
'ऐसा दावा जिसके लिये इस क़ानून में कोई मियाद नियत नहीं की गई ६ छः वर्षकी मानी जायगी और यह मियाद उस वक्तसे शुरू होगी जबकि नालिश करनेका हक़ पैदा हो जाय ।'
नोट - - कानून मियादमें यह १२० आर्टिकल सिर्फ उस वक्त काममें लाया जाता है जबकि किसी मुकद्दमेंकी मियाद स्पष्ट रीति से उस कानून में न बतायी गया हो, जब अदालतका पूरे तौर से इतमान हो जाय कि जिस मुकद्दमेमें यह आर्टिकल लागू किये जानेकी प्रार्थना की जाती है उस मुक़द्दमे के बारेमें 'क्रातून मियादमें कोई निश्चित मियाद नहीं बतायी गई तब वह इसके अनुसार मियाद मान लेगी इस आर्टिकलमें एक बारीक बात यह ध्यान में रखने योग्य है कि इसके अनुसार मियाद उस वक्त से शुरू होती हैं जबकि वादीको हक़ नालिश करनेको पैदा हो जाय न कि बिनाय मुखासमत ( Cause of Action ) पैदा होनेसे ।
दफा ४९६ कर्जे जिनका बोझ जायदादपर नहीं पड़ता
बापके किये हुये सादे कंट्राक्ट ( मुआहिदा ) चाहे वह ज़बानी या किसी लिखत द्वारा किये गये हों उनका बोझा मुश्तरका खान्दानकी जायदाद पर नहीं पड़ता और न बापकी अलहदा पैदा की हुई जायदादमें पड़ता है अर्थात ऐसे क़र्जेसे दोनों क़िस्मकी जायदाद कुर्क और नीलाम नहीं हो सकती और जबकि लड़का या कोई वारिस जिसे बापके या पूर्वजके मरने पर जायदाद मिली हो उस जायदादका इन्तक़ाल करदे तो बापके क़र्जेका डिकरीदार उस आदमी के विरुद्ध दावा नहीं कर सकता जिसके नाम इन्तक़ाल किया गया हो, मगर शर्त यह है कि जब वह आदमी जिसके नाम इन्तक़ाल किया गया है यह बात जानता हो कि क़र्जेके मारने के लिये ही यह इन्तक़ाल किया जाता है या यह जानता हो कि डिकरीदारका हक़ मारनेके लिये किया गया है तो ऐसी सूरतमें लड़कों और वारिसोंके विरुद्ध डिकरीदारका हक़ डिकरी वसुल करनेके लिये सिर्फ उनकी जातसे पैदा होगा, देखो - ज़बरदस्तखां बनाम इन्द्रमन, आगरा हाईकोर्ट फुलबेंच रिपोर्ट 1903 P. 71; 2. W. R. C. R. 296; 9 Bom. H. C. 116; 4 Mad. H. C. 84; 4 Cal.897; 4 C. L. R. 193; 11 I. A. 164; 6 All. 560.
दफा ४९७ बापके क़र्ज़का बोझा पुत्रकी जायदादपर नहीं पड़ता
areer क्रर्जा पुत्रकी अलहदा जायदादले कदापि वसूल नहीं किया जा .सकता और न पुत्रकी उस जायदादसे वसूल किया जा सकता है जो बापने नेकनीयती से पुरस्कार ( इनाम ) में दी हो चाहे वह मुश्तरका जायदादका कोई हिस्सा भी हो, बापके क़र्जेका डिकरीदार सिर्फ मुश्तरका खान्दानकी
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पैतृक ऋण अर्थात् मौरूसी क़ज़ा
[सातवां प्रकरण
जायदादसे और उस जायदादसे जो बापके मरने के पश्चात् पुत्रोंको मिली हो कर्जा वसूल कर सकता है, देखो-4 Mad. 1; 4 Mad. 21-45; 8 Bom. 220; 8 Bom. 309; 26 W. R.C. R. 202; 10 Bom. H.C. 361; 11 Bom. H. C. 763 13 Bom. 653; 12 W. R.C. R. 41; 3 Mad. 42.
बापके कर्जेका डिकरीदार उस जायदादसे भी अपनी डिकरी वसूल नहीं कर सकता जो बाप और पुत्रोंके बीच में नेकनीयतीसे बटवारा हो जाने पर पुत्रोंके हिस्से में आयी हो देखो-बटवारेसे पहलेके कर्जेसे इसका सम्बन्ध नहीं होगा, 24 Mad. 555.
कृष्णासामी बनाम रामसामी एय्यर 22 Mad. 519.में माना गया कि अगर बटवारा बापके कर्जेके मारनेकी नीयतसे किया गया हो तो डिकरीदार वसूल कर सकता है।
बङ्गाल स्कूल-बङ्गाल स्कूलमें बापकी जिन्दगीमें पुत्रोंका कोई हक मौरूसी जायदादमें नहीं होता इसलिये वापके उचित और अनुचित सब तरह के कर्जे जिनका दावा किया जा सकता हो मौरूसी जायदादसे वसूल किये जा सकते हैं और बापके मरनेपर उसकी छोड़ी हुई मौरूसी जायदाद और अलहदाकी जायदाद जो पुत्रोंके कब्जे में आवे दोनों से यह कर्जा वसूल किया जा सकता है।
हनशिफ़ाकी हुई जायदादपर लदे कर्जकी अदाईके लिये रेहननामापरिवारके लिये कोई लाभ न प्रमाणित हुश्रा-पुत्रपर पाबन्दी नहीं है--भगवतीसिंह बनाम गुरुचरन दुबे 92 1. C. 332 (1); A. I. R. 1925All.96.
पुत्रके बरी करनेकी दशामें--एक नालिश, एक हिन्दू पिता द्वारा लिखे हुये प्रामिज़री नोटपर दायर कीगई। पुत्र भी बतौर मुद्दाअलेहके फरीक बनाये गये किन्तु बादको रिहा कर दिये गये । रकमकी एक डिकरी प्राप्त कीगई और उसकी तामीलमें खान्दानी जायदाद नीलाम कराई गई। अर्जी तामील और नीलामकी सार्टीफिकट दोनोंमें यह नोट लिखा था कि पुत्र रिहा कर दिये गये हैं--तय हुआ कि जो कुछ खरीदारको प्राप्त हुआ वह पिताका अधिकार था और यह वाकया कि सार्टीफिकट नीलाममें सर्वे नम्बर बिना यह बताये हुये, कि केवल पिताका अधिकार ही नीलामके योग्य है दर्ज किया गया है, विरोधजनक नहीं है--नाटेश पाथार बनाम सुब्बू पाथार 23 L. W. 349; 94 I.C. 68.
किसी हिन्दू पिता द्वारा किया हुआ रेहननामा, अपनी स्वयं उपार्जित जायदादके बचानेके लिये, यानी उस जायदादको बचानेके लिये जिसे उसने अपने चचाज़ाद भाईसे बतौर वारिस पाया है, ऐसा रेहननामा नहीं है, जो किसी पारिवारिक आवश्यकता या पूर्वजोंका ऋण चुकानेके लिये किया गया
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दफा ४६८]
पुत्र और पौत्रकी जिम्मेदारी
समझा जाता हो, अतएव उसकी पाबन्दी उसके पुत्रों और प्रपौत्रों पर नहीं है। तद्यपि जब इस प्रकारके रेहननामेकी डिकरी हो जाय तो वे उसकी जिम्मेदारीसे तब तक नहीं बच सकते, जब तककि वे यह न साबित कर सके, कि रेहननामा किसी गैर कानूनी या गैर तहजीबी अभिप्रायके लिये किया गया था--नन्दलाल बनाम उमराई 93 I. C. 655 3 0. W. N. 359; A. I. R. 1926 Oudh. 321.
कर्ज--पिता द्वारा रेहननामा--जातीय जिम्मेदारी-संयुक्त खान्दान की जायदाद-पुत्रोंका हक़--यदि क़ाबिले नीलाम है--मुसम्मात महराजी बनाम राघोमन 89 I. C. 476.
___ कर्ज और पिता द्वारा दुरुपयोग-किसी हिन्दू पिताने किसी दूसरे की ओरसे कर्ज लिया और बादको उसका दुरुपयोग किया। किसी दूसरे व्यक्तिने रकमकी अदाईके लिये रेहननामा लिख दिया और उसकी मृत्युके पश्चात् उसके पुत्रोंपर उस रेहननामेकी बिनापर नालिश हुई। तय हुआ कि असली कर्जका लिया जाना फौजदारीका जुर्म न था, उसकी बिनापर केवल कर्ज सम्बन्धी दीवानीके नियमोंका उल्लंघन था। कर्ज इस किस्म का था, जिसके अदा करनेके लिये पुत्रोंपर धार्मिक (Pious) जिम्मेदारी थी। चूंकि कर्ज खान्दानके फ़ायदेके लिये न लिया गया था इसलिये रकमकी डिकरी दी जा सकती है न कि रेहननामेकी-रामेश्वरसिंह बहादुर बनाम दुर्गामन्धर 90 I. C. 454. दफा ४९८ पैतृक ऋण देना जायदादही पर निर्भर नहीं है
हिन्दू धर्म शास्त्रानुसार अपने बाप, दादा, और परदादाके कर्जेका अदा करना पुत्र, पौत्र, और प्रपौत्रका धार्मिक कर्तव्य कर्म माना गया है जिस तरह से कि अन्य धार्मिक कृत्योंके पूरा करनेकी जिम्मेदारी है उसी तरहपर पैतृक ऋणके चुका देनेकी मानी गयी है, देखो-याज्ञवल्क्य २-६२ और नारद १-३-४ कहते हैं
ऋणलेख्यकृतन्दयं पुरुषस्त्रिभिरेव च प्राधिस्तु भुज्यते तावद्यावत्तन्नप्रदीयते । याज्ञ. क्रमादव्याहृतं प्राप्त पुत्रैर्यनर्णमुद्धृतम् दद्यः पैतामहं पौत्रास्तचतुर्थानिवर्तते । नारद-वि०
वाज्ञवल्क्य कहते हैं कि किसी लिखतके द्वारा जो कर्जा लिया गया हो वह तीन पीढ़ी तक चुकाया जायगा और जो कर्जा जायदाद रेहन करके लिया
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पैतृक ऋण अर्थात् मौरूसी क़र्ज़ा
[ सातवां प्रकरण
गया हो तो जब तक वह चुकाया न जाय तब तक जायदाद धनीके पास रहेगी। नारद कहते हैं कि बापका क़र्जा क्रमसे पुत्रादिकोंपर प्राप्त होता है यानी पुत्र यदि वह क़र्जा न दे सकें तो पौत्र देवें और यदि वे भी न दे सके तो प्रपौत्र देवें मगर चौथी पीढ़ीको वह क़र्जा पाबन्द नहीं करता ।
५६२
यह बात अभी हिन्दुओंमें बहुत कुछ प्रचलित है. क्योंकि जब कोई हिन्दू गया श्राद्ध करनेके लिये जाता है तो वह जाने से पहिले अपने पैतृक ऋण चुका देता है। शास्त्रकार कहते हैं कि यदि वह पैतृक ऋण चुकाये बिना गया मैं श्राद्ध करे तो पितरोंकी मुक्ति नहीं होती । अङ्गरेजी क़ानून से बढ़कर हिन्दू धर्म शास्त्रोंने पैतृक ऋण चुकाने की आज्ञा दी है, अङ्गरेजी क़ानूनमें तो सिर्फ बाप और दादा क़र्जा चुकाने की जिम्मेदारी पुत्र और पौत्रकी मुश्तरका जायदाद के हिस्से तक मानी गई है। मगर धर्मशास्त्रोंमें इससे बहुत ज्यादा मानी गयी है उन्होंने बाप, दादा, और परदादाके क़र्जेकी जिम्मेदारी जायदाद और उनकी सन्तानकी ज्ञात पर मानी है तथा यह उपदेश किया गया है कि बिना पैतृक ऋण चुकाये पितरोंकी मुक्ति नहीं होती और ऐसा करना पुत्र, पौत्र, और प्रपौत्रपर परमावश्यकं धर्म है । इस विषयपर और भी देखो - डबल्यु. में कनाटन हिन्दूलॉ 2 Vol. P. 284. कोलब्रुक डाइजेस्ट 1 Vol. P. 270; तथा Act No. 5 of 1881 की दफा 101-105.
दफा ४९९ दूसरे हिस्सेदार जिम्मेदार नहीं होंगे
पुत्र और पौत्रके सिवाय मुश्तरका खान्दानके दूसरे कोपार्सनरौपर कर्जा चुकाने की जिम्मेदारी नहीं है जिन्हें सरवाइवरशिपके अनुसार हक़ प्राप्त होता हो, देखो - जबकि हिस्सा बेच दिया गया हो 3 Mad. 145. जहां पर किन बट सकने वाली जायदाद हो 29 Mad. 453; 32 Mad. 429;
30 Mad. 454.
यदि कोई नाजायज़ तौरसे किसीके मरनेपर उसकी जायदादपर क़ब्ज़ा दखल करले तो उस जायदादसे मृत पुरुषके क़र्जे वसूल किये जा सकते हैं, देखो --3 Mad. 359; 7 Mad. 586; 4 Cal. 342; 3 CL. R. 154; 4 Cal. 508; 35 Cal. 276; 12 C W. N. 237.
पट्टे मिली हुई ज़मीनमें, जिसपर क़र्जेकी डिकरीकी इजरा नहीं हो सकती, उपरोक्त नियम कोई भी लागू नहीं होंगे, देखो - 9 I. A. 104; 6 Bom. 211. 7 Mad. 85; 10 Cal. 677; 15 I. A. 19; 15 Cal. 471; 15 Bom. 13; 25 Cal. 276; 12 C. W. N. 237.
दफा ५०० क़र्ज़ा न चुकाने में धर्मशास्त्रका मत
देखो नारदस्मृति प्रथम विवादपद अध्याय ३ श्लोक ६-१०,
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दफा ४६६-५०१ ]
बापके वे कानूनी कर्जे .
कोटिशतेतुसंपूर्णे जायतेतस्यवेश्मनि ऋणसंशोधनार्थाय दासो जन्मनि जन्मनि तपस्वी वाग्निहोत्रीवा ऋणवान् मृयते यदि तपश्चैवाग्निहोत्रंच तत्सर्वं धनिनां धनम्
नारद कहते हैं कि ऋण लिया हुआ और दान दिया हुआ न देनेसे सौ करोड़ तक बढ़ता है, सौ करोड़ पूरा होनेपर वह ऋण चुकानेके लिये धनीके घर अनेक जन्म तक दास होकर कर्जा लेने वाले या दान देने वालेको रहना पड़ता है। यदि तपस्वी अथवा अग्निहोत्री बिना ऋण चुकाये मर जाय तो तपस्वीके तप और अग्निहोत्रीके अग्निहोत्रका फल धनीको मिलता है। . .
नोट-दान दिया हुआ' इससे मतलब यह है कि दान तो दिया मगर दानकी वस्तु दान लेने वाले को नहीं दी या उसे काम में नहीं लगाया जिसके लिये दान किया था ।
बेकानूनी या बुरे कामोंके वास्ते बापके लिये
हुए कोंके उदाहरण
दफा ५०१ बेकानुनी या बुरे कामोंके लिये बापके कर्जे
निम्नलिखित बापके क़ोंके अदा करनेके लिये पुत्र मजबूर नहीं किये जा सकते और ऐसे कोंकी डिकरी अदालतसे उनपर नहीं हो सकती । यह ध्यान रहे कि जिस प्रकारके कर्जे बापके लिये हुये पुत्रोंको मजबूर नहीं करते, वैसाही दादाके लिये हुये कर्जे पौत्रोंको मज़बूर नहीं करते यानी बाप और दादाके कजों में कोई फरक नहीं है दोनों एकही तरहके माने जाते हैं।
(१) जो कर्जा शराब पीनेके लिये लिया गया हो।
(२) खेल, तमाशों, या जुवा खेलने आदिके कामोंके लिये या शर्त लगाने के लिए या ऐसे कामों में जो नुकसान हो गया हो उसके अदा करने के लिये।
(३) ऐसे इकरारसे जो बिना बदलावका हो अर्थात् बापने किसीको १००) देनेका बचन दिया मगर उसके बदले में कुछ नहीं लिया।
75
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५६४
पैतृक ऋण अर्थात् मौरूसी क़र्जा
[सातवां प्रकरण
(१) कामेच्छा पूर्ण करनेके लिये या रंडीबाजी आदिके लिये।
(५) ऐसे कामोंके लिये, जो काम किसी शुद्ध चरित्रको घृणित कर देने वाले हों, देखो-28 All. I. L. R. 508 All. W. N. (1906 ) 117; 3 A. L. J.274; मेन हिन्दूला P. 378. कोलबुकडाइजेस्ट Vol. 1 P. 2473 300, 305, 311.
(६) जो कर्जा बापने बुरे कामों के लिये लिया हो उनके देनेका पुत्र जिम्मेदार नहीं है, देखो-3 Bom. L. R. 647, 23 Suth. 260; 25 Suth 421; 2 Cal. 213; 25 Suth. 311, 5 Cal. 1483 6 I. A. 88; 8 All. I. L. R. 231; 7 N. W. P.110.
(७) मिताक्षरा और दायभाग दोनों स्कूलोंमें यह माना गया है कि जब बापके मरनेपर उसकी जायदाद पुत्रोंके हाथमें आ जाये और उस वक्त बापकी जायदादसे कर्जा वसूल करनेके लिये कोई ऐसा दावा करे कि मैंने पुत्रोंके बापके हाथ इतनी कीमतकी शराब बेची थी जिसका वह जिम्मेदार था तो ऐसा दावा खारिज हो जायगा, देखो-2 P. W. R. (1909); 24P. R. (1909); 1 Indian Cases 13; P. L. R. 1908.
(८) एक मामलेमें बुरे कामोंके वास्ते लिये हुए बापके कर्जे दिलापाने का दावा पुत्रोंके विरुद्ध किया गया था उसमें कहा गया कि ऐसे कर्जेके बारे में पुत्रोंकी जिम्मेदारी अनुचित जिम्मेदारी है इसलिये ऐसे कर्जेका कोई लड़का जिम्मेदार नहीं है, देखो-S. C. 151. सिलेक्ट केस (1878) 8 No. 143; 1 C. P. L. R. 43.
(१) एक हिन्दु बापने बहैसियत अपने अज्ञान लड़केके वलीके, उसकी तरफ़से यह दावा किया था कि दत्तक जायज़ करार दिया जावे। अदालतने दत्तक खारिज कर दिया और कहा कि दत्तक झूठा था तथा बापने जानबूझ कर ऐसा दावा किया है और यह भी हुक्म दिया कि गवर्नमेन्टका खर्चा जो इस मुक़द्दमेमें पड़ा हो बाप (मुद्दई ) अदा करे। इस मुकद्दमे में खर्चा अदा करनेकी जो बात है वह जुरमानेके तौरपर है क्योंकि बापको दत्तकके झूठे होनेकी बात पहलेसे मालूम थी ऐसे खर्चेके देनेके लिये पुत्र जिम्मेदार नहीं माने गये देखो-20 M. L. J. 89; 6 M L. T. 308.
(१०) इस मुकद्दमेमें, खेतमें पानी जानेके रास्तेको बापने रोक दिया था यद्यपि यह काम ये कानूनी नहीं था फिर भी बेइन्साफ़ी (Wrongful) का ज़रूर था अदालतने उस आदमीकी नुकसानकी डिकरी बापपर की जिसे पानी रोक देनेसे नुकसान हुआ था। कहा गया कि पुत्र एसी जिम्मेदारीके जवाबदार नहीं हैं जो उनके बापने बेइन्साफ़ीसे किया। बापके मरने के बाद
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दफा ५०१ ]
aruha क़ानूनी क़र्ज़े
जब जायदाद पुत्रोंके हाथमें आयी तब उस डिकरीका असर नहीं रहेगा, देखो - 32 B. 348; 10 Bom. L. R. 297.
५६५
( ११ ) कोई कंट्राक्ट जो बापने किया हो उससे हिन्दूलॉ के अनुसार हमेशा की जिम्मेदारी नहीं पैदा होती यानी वह कंट्राक्ट पुत्रको पाबन्द नहीं कर सकता पुत्र सिर्फ बापके क़र्जेके देनेके जिम्मेदार हैं। बापके किये हुए हर एक कंट्राक्टसे पुत्र पाबन्द नहीं हो जाते और जब बापने कोई ऐसा कंट्राक्ट किया हो जिससे हमेशा के लिए रुपया देनेकी जिम्मेदारी पैदा होती हो तो जब उसकी जायदाद उसके प्रपौत्रके हाथमें आ जाबेगी तो उस कंट्राक्टका असर टूट जावेगा इसी तरहपर पुत्रोंके सम्बन्धमें भी लागू होगा, तथा पौत्रों से भी; देखो - 6 Bom. L. R. 642.
( १२ ) नीचेके मुक़द्दमेमें यह सूरत थी कि बाप खजाञ्ची था । उसने कुछ रुपया दगाबाजी से चुराया । अदालतने उस रुपपके वसूल करने की डिकरी Latur करदी, माना गया कि पुत्र डिकरीके जिम्मेदार नहीं हैं और यही सूरत उस समय भी होगी जब बापने कोई रुपया किसी अपराध करनेके लिये क़र्ज़ लिया हो; देखो - 27 M. 71; 6 All. 234; 24 Cal. 672.
(१३) बापने कुछ जायदाद चुराई और पीछे ईसाई होगया या दूसरे मज़हबमें चला गया पीछे अदालतने उतने रुपयेकी डिकरी बापपर की जितनी कीमत की जायदाद उसने चुराई थी, डिकरीके इजरामें जब मुश्तरका जायदाद सब कुर्क हुई तब पुत्रोंने अलग दावा दायर किया कि डिकरी खारिज करदी जाय । अदालतने कहा कि बापने बुरे कामोंके लिये जो क़र्जा लिया हो वह पुत्रोंसे नहीं दिलाया जा सकता : इसलिये कुल मुश्तरका जायदाद कुर्ती और नीलाम योग्य नहीं है; देखो - No. 128 of 1879 Civil.
( १४ ) ऐसे क़र्जे जैसे बापने किसीके नेक चलन रहने या शांति बनाये रखनेके लिये ज़मानतकी हो ( मुचलका आदि ) उनके देनेके लिये पुत्र ज़िम्मेदार नहीं हैं, देखो - 28 M. 377. इस केसमें कहा गया है कि बाप और पुत्र शामिल रहते हों और बापके मरनेपर वह जायदाद पुत्रोंके हाथमें आजाय तो उस जायदादपरसे बापके ऐसे सब क़ज़का बोझ हट जाता है जो बापने मुलका श्रादिकी तरहपर किये हों ।
गैर तहजीबी क़र्जके अन्दर किन किन बातोंका समावेश है, और ग़ैर तहजीबी क़र्ज किस प्रकार होता है-पिता द्वारा धनका दुरुपयोग -- फौजदारीके जुर्म की अदायगी, यदि श्रावश्यक हो - अपराधकी डिकरी --जगन्नाथ प्रसाद बनाम जुगुलकिशोर L. R. 6 All. 518; 89 1. C. 492 23A, L. J. 882; A. I. R. 1926 All. 89.
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पैतृक ऋण अर्थात् मौरूसी कर्जा
(सातवां प्रकरण
जब पिता द्वारा किये हुये रेहननामेकी डिकरी हो जाय, तो पुत्रोंके लिये यह काफ़ी नहीं है कि वह यही साबित करें कि रेहननामा आवश्यकता के लिये न था, बल्कि यह भी साबित करें, कि वह गैर कानूनी और गैर तहजीबी था-केदारनाथ बनाम शङ्करदयाल 94 I. C. 250.
गैर तहजीबी ऋणमें क्या शामिल है--पिता द्वारा दुरुपयोगकी हुई रक्रम जाब्ता फौजदारीके अनुसार कैद-अपराधकी तादाद-जगन्नाथप्रसाद बनाम जुगुलकिशोर 48 All. 9; A. I. R. 1926 A. 89.
गैर कानूनी और गैर तहजीवी क़र्ज--प्रतिस्पर्धाके कारण नालिश करने पर हर्जाना-पुत्रोंपर इस प्रकारके कर्जकी अदाईकी जिम्मेदारीका विचार किया गया है, देखो-सुन्दरलाल बनाम रघुनन्दनप्रसाद 83 I. C. 413; A. I. R. 1924 P. 465..
पिता द्वारा रेहमनामा इनशिफ़ाकी हुई जायदादका कर्ज चुकाने के लिये खान्दानके लिये कोई फायदा नहीं साबित हुआ-पुत्रोंपर पाबन्दी नहीं हैभगवतीसिंह बनाम गुरुचरन दुबे A. I. R. 1925 All. 96,
पिता द्वारा रेहननामा--डिकरीकी तामीलपर नीलाम--पुत्रपर इस बातकी जिम्मेदारी है कि वह कर्जको गैर तहजीबी साबित करे--विश्वनाथ राय बनाम जोधीराय A. I. B. 1925 All. 120.
बापके लिये हुए कानूनी कोंके उदाहरण
दफा ५०२ बापके लिए हुए कानूनी कर्जे
जिन क़र्जीका ज़िकर नीचे किया गया है उसके लिये पुत्र और पौत्र पाबन्द होंगे:
(१) बापने अपने बापके श्राद्ध करने के लिये जो कर्ज लिया हो, चाहे पुत्र बालिग या नाबालिग हों या कोई पौत्र जो अपने बापके मरनेपर पैदा हुआ हो सब उस कर्जेके पाबन्द हैं, देखो-6 W. R. 34; 11 W. R. 52. मेकनाटन हिन्दूलॉ Vol. 2 Ch. 11 P. 296.
हिन्दूलॉ के अनुसार पौत्र अपने बापकी माता (दादी) की अन्तेष्ठी क्रियाके खर्च के लिये जिम्मेदार नहीं माना गया, देखो-7M. L. T. 263; 5 Indian Cases 55.
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५६७
दफा ५०२ ]
बापके क़ानूनी क़ज़ै
(२) मुश्तरका खान्दानके लोगोंकी शादीके लिये जो छोटे हों, और बाप जो कर्जा अपने पुत्रोंके विवाहोंके लिये उचित लेवे मगर शर्त यह है कि मुश्तरका जायदादकी आमदनी विवाहके खर्च के लिये काफ़ी न हो, देखो-(1910) M. W. N. 649; 8 Indian Cases 195; 9 M. L T. 26; 20 M. L. J. 855; 9 Bom. L. R. 1366; 32 B. 81; 6 Indian Cases 465; 32 All. 575; 15 N. C. C. R. 159; 7 M. L. T. 384; 27 Mad. 206.
(३) बेटियों की शादी के लिये बापका क़र्जा चाहे बाप ब्राह्मण हो या दूसरे किसी भी वर्णका हो क़ानूनी क़र्जा माना गया है; देखो --8 Indian Cases 854; 32 T. L. R. 74; 1 C. 289; 25 W. R. 235; 3 I. A. 72; 16 W. R. 52; 7 Beng. Sel. R. 513; 14 Mad. 316; 26 M. 505.
8 M. L. J. 105 में कहा गया कि हिन्दू बापपर अपनी बेटियोंकी शादी करना क़ानूनी फ़र्ज नहीं है बल्कि सभ्यताका है और इसी तरह से ब्याही हुई बेटियों की परवरिश करना भी है। एक मामलेमें माताने अपनी बेटीका विवाह कर दिया पीछे उसके बापपर विवाहके खर्चा पानेका दावा किया अदालतने कहा कि बापपर धार्मिक फ़र्ज है कि वह बेटीका विवाह करे मगर क़ानूनी नहीं है, देखो - 26 Mad. 505. यही बात मदरासके हालके एक मुकद्दमे में मानी गयी, देखो -8 Indian Cases 854.
भाई-भाईपर क़ानूनी फ़र्ज है कि वह अपने शामिल शरीक मृत भाई की बेटीका विवाह करे । यदि वह इनकार करदे और बेटीकी विधवा माता किसी तरहसे उसका विवाह करदे पीछे वह विधवा माता अपने पति के भाई पर उस विवाह के खर्च पानेका दावा कर सकती है जो कुछ कि उसकी बेटी के विवाहमें पड़ा हो, देखो -23 vad. 512; 16 W. R. 52; 6 C. 36; 6 C. L. R. 429.
खान्दानकी इज्ज़तको बचाये रखनेके लिये जो क़र्ज हो वह ऐसा है मानो विवाहके खर्च के लिये लिया गया है, देखो -- No. 63 of 1886 Civil
( ५ ) जो क़र्जा खान्दानके लाभके लिये लेकर किसी व्यापार में लगाया गया हो या व्यापार करनेके लिये लिया गया हो; देखो - No. 67 of 1873 Civil.
(६) किसी शराबी या नशेबाज़का क़र्जा जबकि वह नशेकी हालत में न हो और शान्त बुद्धि हो तथा उसने व्यापारके लिये या रक्षा करनेके लिये लिया हो देखो -- No. 44 of 1872 Civil.
(७) हिन्दू जिमीदारका क़र्जा, जो व्यापारमें लगानेके लिये लिया गया हो, देखो - No. 77 of 1876 Civil; No. 53 of 1869 Civil; No. 11 of.
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पैतृक ऋण अर्थात् मौरूसी क़ज़ा
[सातवां प्रकरण
1871 Civil; No. 77 of 1876 Civil; No. 98 of 1879 Civil; No. 78 of 1879 Civil; 87 P. B. 1881; 93 P. R. 1883; 152 P. R. 1888.
(८) बापने अपनी और अपने नाबालिग्न पुत्रोंकी तरफ़से जिनकाकि वह वली था मुश्तरका जायदादकी किसी ज़मीनकी ज़मानतपर चौदह वर्षकी लिखत करदी, इसकी रजिस्टरी नहीं हुई थी, माना गया कि खान्दानके लाभ के लिये ऐसी लिखत जायज़ मानी जायगी, देखो-5 Indian Cases 762; 7 M. L. T. 92.
() मुश्तरका खान्दानके बापको जब कोई रुपया किसी दूसरे श्रादमीके देनेके लिये मिला हो और वह उसे खर्च कर डाले, और उसने यह रुपया खान्दान वालोंके लाभके लिये खर्च किया हो जिस खान्दानमें बाप मेनेजरकी हैसियत रखता था तो यही माना जा सकेगा कि बापने दीवानी कानून के अनुसार विश्वासघात किया मगर फौजदारी कानूनके अनुसार नहीं, इस. लिये साथ रहने वाले उसके पुत्र ऐसे रुपयेके अदा करनेके जिम्मेदार हैं, पुत्रों के हिस्सेकी जायदाद जिम्मेदार होगी, देखो-31 Mad. 161; 17 M. L. J. 613; 3 M. L. T. 353; 31 Mad. 472.
(१०) जो क़र्जा बापने लिया हो उसकी जिम्मेदारी पुत्रोंपर है क्योंकि बाप पुत्रोंका एजेन्ट है पुत्रोंकी जिम्मेदारी उसी वक्त पैदा हो जाती है जबकि बापपर वह पैदा होती है और अगर बाप पीछे से कोई रकम बुरे इरादेसे अनुचित खर्च करदे चाहे वह ऐसा करनेसे फौजदारी कानूनसे अपराधीकी हैसियतसे जिम्मेदार होगया हो तो भी पुत्र उसके देनेके पाबन्द हैं, देखो19 M. L. J. 759.
(११) मिताक्षराला के अनुसार पुत्र ऐसी डिकरीके पाबन्द माने गये हैं जो उनके बाप पर किसी हक़दारके वासलातकी बारीकी हुई हो यानी यदि बापने किसी हक़दारकी जायदाद दबा ली हो और उसका मुनाफ़ा लिया हो, पीछे हक़दारके दावा करनेपर मुनाफा वापिस करनेकी डिकरी बापपर हो जाय तो वह पुत्रोंके हिस्से जायदादसे वसूलकी जा सकेगी, देखो--5 C. L.J. 80; 11 C. W. N. 163.
(१२) गवर्नमेन्टकी मालगुज़ारी चुकाने के लिये जो कर्जा बापने लिया हो, देखो-1w. k. 96. मेकनाटन हिन्दूला Vol. 2 P. 293..
(१३ ) जो क़र्जा बापने कुटुम्बके खर्चके लिये, अपनी आमदनीका ज़रिया ठीक करनेके लिये लिया हो देखो-2 B. 666.
(१४) खान्दानकी कानूनी ज़रूरतोंके लिये देखो इस किताबकी दफा ४३०.
(१५) जब बापने किसीके साथ कोई इकरार ऐसा किया हो कि जिसके सबबसे दीवानी और फौजदारी जिम्मेदारी हो जाती हो यानी दीवानी
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दफा ५०२]
बापके कानूनी कर्जे
कानूनके अनुसार तो उस इकरारके पूरे करनेकी जिम्मेदारी पैदा होगई हो और फौजदारी कानूनके अनुसार वह इक़रार अपराध समझा जा सकता हो, और बाप उस फौजदारी अपराधसे बचने के लिये तीसरे आदमीसे प्रामेसरी नोट ( रुक्का) लिखकर कर्जा लिया हो तो ऐसी सूरतमें पुन उस कर्जे के ज़िम्मेदार हैं, पुत्र ऐसा कहकर कि हमारे बापने फौजदारी अपराधकी धमकीके असरसे वह रुक्का लिखा था इसलिये वह नाजायज़ है अपना बचाव नहीं कर सकते देखो-28 All. 718; 3 A. L.J. 506; A.. W. N. 1906 P. 222.
(१६) बापने किसीके क़र्जा चुका देनेकी ज़मानत करली हो-इसमें मतभेद है- बम्बई -बम्बई हाईकोर्ट के अनुसार पुत्र अपने बापकी ज़मानतका क़र्जा देनेके लिये मौरूसी जायदाद तक पाबन्द माना गया है। एक मामलेमें बापने अनाज देनेकी ज़मानतकी, अदालतने कहा कि वापके पास जो मौरूसी जायदाद थी वह कुल जिम्मेदार है और जब बापके मरनेपर वह जायदाद पुत्रों के हाथमें आवे तो उस जायदाद तक पुत्र मी ज़िम्मेदार होंगे, देखो-22 Bom. 454. मगर पौत्र अपने दादाकी जमानतका पाबन्द नहीं होगा जब तक कि दादाने उस ज़मानतके बदले में कोई चीज़ न पाई हो 28 Bom. 408. ट्रिवेलियन फेमिलीलॉ 308, ट्रिलियनका कहना है कि पुत्र और पौत्रमें कुछ फरक नहीं है।
इलाहाबाद-इलाहाबाद हाईकोर्टने, महाराजा आफ बनारस बनाम रामकुमार मिश्र 26 All. 611. वाले मुकदमेमें कहा कि शामिल शरीक हिन्दू कुटुम्बमें किसी पट्टेका रुपया देनेकी जमानत यदि बापने की हो तो उस लिखतके अनुसार बापपर पूरी तौरसे जिम्मेदारी पैदा हो जानेपर पुत्र भी, अपने मौरूसी जायदाद के हिस्से तक पाबन्द माने गये हैं।
मदरास-अगर ऐसा मुक्तहमा मदरास हाईकोर्ट में हो तो वहां भी ऐसाही होगा, देखो--28 Mad. 377; 11 Mad. 378.
मध्य भारत-मध्य भारत और पञ्जाबमें भी बापकी ज़मानतके कर्जमें पुत्र जिम्मेदार माने गये हैं, देखो--1 N. L. R. 178, No. 60 of 1886 Civil.
___ कलकत्ता--कलकत्ता हाईकोर्टको इस विषयमें अभी तक सन्देह है 4 M. L. J. 429; 13 C. W. N. 9 वाले मुक्नहमेमें जजोंने कहा कि हम मदरास, इलाहाबाद और बम्बई हाईकोटौंकी रायके विरुद्ध कोई सिद्धान्त निश्चित नहीं करना चाहते मगर हमारी राय यह है कि उक्त हाईकोर्टोंके फैसले, इस विषयके शास्त्रोंमें कहे हुये श्लोकोंके अर्थानुसार विचारने योग्य हैं। यह ऊपरका मुकदमा रेहनका था इसमें बापने कहा था कि अगर महाजन रेहन
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पैतृक ऋण अर्थात् मौरूसी क़ज़ा
[सातवां प्रकरण
रखी हुई जायदादपर कब्ज़ा न पा सके या उसका रुपया न वसूल कर सके तो हमारे खान्दानकी अमुक जायदादसे वह कर्ज हरजाना सहित वसूल किया जावे । ६ वर्षके बाद उस रेहन रखी हुई जायदादसे बेदखल होनेपर महाजन ने पुत्रोंपर बापके इक़रारके अनुसार कर्ज और हरजानेके वसूल करनेकी नालिश की परन्तु अदालतने उसकी डिकरी नहीं दी।
पिता द्वारा रेहननामा--यदि किसी मुश्तरका खान्दानका मेनेजर किसी रेहननामे द्वारा जायदादपर क़र्ज़ करता है और यदि वह संयोगवश पिता है तो उसके पुत्रोंपर उस रेहननामेकी पाबन्दी होगी, यदि रेहननामेकी रकम पूर्व कर्ज चुकाने के लिये सर्फ कीगई है। यह बात साधारण नियमके मातहत है कि पुत्र उस जिम्मेदारीसे उस वक्त बच सकते हैं जब वे यह साबित करें, कि पूर्व कर्ज़ और तहजीबी या गैर कानूनी था।
एक नालिशमें, जो मुद्दईने एक रकमकी वसूलीके लिये, जिसे किप्रतिबादियोंके पिताने रेहननामेके द्वारा लिया था दायर किया था यह मालूम हुआ कि एक पूर्व रेहननामेके खिलाफ डिकरीमें जिसका कि पिता एक फरीक था, पीछेसे रेहनकी हुई जायदादका एक हिस्सा प्रतिवादियों द्वारा खरीदा गया था। तय हुआ कि मुद्दई प्रतिवादियों द्वारा इस प्रकार खरीदी हुई जायदाद को अपने रेहननामेकी बिनापर नीलाम नहीं करा सकता था-कन्हैयालाल बनाम निरञ्जनलाल 23 A. L. J. 52; L. R. 6 All. 247; 47 A. 351; A. I. R. 1925.
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बटवारा
आठवां- प्रकरण
:- यह बात स्मरण रखिये कि बटवारा हमेशा मुश्तरका जायदादमें होता है। मुश्तरका
बहुत भेद नहीं है जहां कहीं दोनों में
जायदाद मुश्तरका खान्दानमें होती है ( देखो प्रकरण ६ ); जो जायदाद मुश्तरका नहीं है उसमें बटवारा नहीं होता । बटवारे में मिताक्षरा और दायभागलों में मतभेद पड़ता है उसे उसी जगहपर स्पष्ट कर दिया गया है। वहां समझ लेना कि मिताक्षराला ही माना जाता है । जो लोग केवल भरण पोषण के पाने का अधिकार रखते हैं ( देखो दफा में नहीं होता । बटवारेका यह प्रकरण आठ भागों में विभक्त है; जैसे
जहां दायभागलों का उल्लेख नहीं है, जायदाद में अपना हिस्सा नहीं रखते ६५१ - ६६२ ); उनका हिस्सा बटवारे
( १ ) बटवारे के साधारण नियम दफा ५०३ - ५१२, ( २ ) स्त्रियोंका अधिकार दफा ५१३ — ५२०, ( ३ ) कोपार्सनरों के हिस्सों के निश्चित करनेका कायदा दफा ५२१ – ५२५, ( ४ ) - ५४०, ( ६ ) कुटुम्बियोंका फिर उत्तराधिकार दफा
बटवारेकी जायदाद दफा ५२६ – ५२७, ( ५ ) अलाहदगी और बटवारा दफा ५२८ बटवारे के कानूनकी कुछ जरूरी दफाएं दफा ५४१ – ५५१, ( ७ ) बटे हुए शामिल हो जाना दफा ५५२, (८) बटवारा न हो सकने वाली जायदाद का
५५३ - ५५७.
( १ ) बटवारे के साधारण नियम
दफा ५०३
बटवारा क्या है ?
हिन्दू धर्म शास्त्रों में कहा गया है कि मुश्तरका खान्दान, बटवारा हो जानेसे जब सब लोग अलग अलग रहने लगते हैं तो धर्मकी वृद्धि होती है । इसका मतलब यह है कि अलग अलग रहनेसे सब लोग अलग अलग पञ्चयज्ञ करेंगे जिससे धर्म की बृद्धि होगी इस लिये बटवारा होना धर्म सङ्गत है । मनु कहते हैं कि
76
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६०२
बटवारा
[आठवां प्रकरण
एवं सहबसे युर्वा पृथग्वा धर्मकाम्यया पृथग्विवर्धते धर्म स्तस्माद्धापृथक्रिया -१११
भाइयोंको उचित है कि इकट्ठे रहें अथवा धर्मको वृद्धिकी इच्छासे धन बांट करके अलग अलग निवास करें। अलग अलग रहनेसे धर्म वृद्धि होती है।
बटवारे, को धर्मशास्त्रमें “दायविभाग" कहते हैं । मुश्तरका जायदाद दो तरह की होती है। एक तो मुश्तरका खान्दानकी जायदाद और दूसरी वह जायदाद जो खुद कमाई हुई हो और मुश्तरकामें शामिल हो सकती हो, देखो दफा ४१७, जितने क़िस्मकी मुश्तरका जायदाद है उसका बटवारा हो सकता है, और जो नहीं है उसका उसके मालिकके जीवन-कालमें बिना मर्जी उसके बटवारा नहींहो सकता, बिना बटवारेके हिस्सा निश्चित नहीं होता।
नालिश किसी सदस्य द्वारा अधिकार करार देनेकी-बिना बटवारेके दावेके कोई खास हिस्सा नहीं नियत होता-रामस्वरूप बनाम मु० कतूला 83 I. C. 227; A. I. B. 1925 All. 211.
हिन्दूलॉ का यह सिद्धांत है कि बटवारा वह वस्तु है कि जिसके होजाने से मुश्तरका खान्दानके आदमी एक दूसरे से अलग हो जाते हैं और फिर वे कोपार्सनर नहीं रहते तथा सरवाइवरशिप का हक्क टूट जाता है।
मिताक्षरा स्कूलके अनुसार मुश्तरका खान्दानके लोंगोंकी अलाहदगी दो तरहसे होती है, एक तो हकका बटवार दूसरा जायदादका बटवारा । हकका बटवारा उसे कहते हैं जिसमें सब कोपार्सनरोंके हिस्से निश्चित करके उसका मुनाफा भी अलग अलग कर दिया जाय और ऐसा हो जानेके बाद सब कोपासनर टेनेण्ट इन् कामन (Tenent in Common) (देखो दफा ५५८) के तौर पर अपने हिस्सेपर काबिज़ रहते हैं जायदादके बटवारेमें जायदाद नाप जोख करके सबका हिस्सा अलग अलग कर दिया जाता है और सरवाइवरशिपका हक टूट जाता है । सरवाइवरशिपका हक, देखो दफा ५५८.
__ दायभाग स्कूलके अनुसार बटवारा यह है कि कोपार्सनरों के हिस्सेके अनुसार जायदाद उनमें बांट दी जाय क्योंकि दायभागमें हरएक कोपार्सनरके हिस्से निश्चित रहते हैं । दफा ४६८. दफा ५०४ बटवारा करापानेका कौन हक़दार है ?
श्राम क़ायदा यह है कि किसी जायदादमें जिन लोगोंका हिस्सा हो बटवारा करा सकते हैं, देखो-शङ्करवख्श बनाम हरदेववश 16 I. A. 719 16 Cal. 397; सेक्रेटरी आफ स्टेट बनाम कामाक्षीचाई साहबा 7 M. I. A. 476, 537; 4 W. R. P. C. 42, 45; विधवाओंके लिये 24 Mad. 441,
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दफा ५०४]
बटवारेके साधारण नियम
६०३
बम्बईको छोड़कर अन्यत्र ऐसा कायदा है कि अगर किसी कोपार्सनरी जायदादके हिस्सेदारोंने आपसमें बटवारा न करनेका इकरार किया हो तो इस इकरारसे सिर्फ वही हिस्सेदार पाबन्द किये जायेंगे जिन्होंने ऐसा किया है, देखो-श्री मोहन ठाकुर बनाम मेकरीगोर 28 Cal. 769; 3 C. W. N. 1263 राजेन्द्रदत्त बनाम श्यामचन्द्र मित्र 6 Cal. 106; 12C.W.N.7937 28 Cal. 769; सुवरैय्याटउकर बनाम राजाराम टउकर 25 Mad. 585 मगर उनके उत्तराधिकारी ऐसे इकरारके पाबन्द नहीं होंगे और न के लोग होंगे जिन्हें वे जायदाद दे गये हों (वसीयत या दानके द्वारा) देखो-अनाथनाथ देव बनाम मकिनतोश 8 B. L_R. 60; आनन्द चन्द्रघोष बनाम प्राणकिस्टो दत्त 3 B. L R.O.C. 14; 11 W. R. O.C. 19; 36 Bom. 53; 13 Bom.L.R. 963.
'बम्बई में माना गया है कि अगर ऐसा इक़रार कर भी लिया गया हो तो वह पाबन्द नहीं करता, देखो-रामलिङ्ग बनाम विरूपाक्षी 7 Bom. b38.
___ वसीयतनामे में शर्त-अगर कोई, अपने घसीयतनामेमें यह शर्त रखे कि मेरे मरने के बाद जायदादका बटवारा न हो तो इस शर्तका कुछभी असर न होगा। क्योंकि दानके साथ ऐसी कोई शर्त नहीं लगाई जासकती, देखोमकुन्दलाल शाहू बनाम गनेशचन्द्रशाह 1 Cal.104; राय किशोरीदास बनाम देवेन्द्रनाथ सरकार 15 I. A. 37; 15 Cal. 409; और देखो Act. No. 10 of 1865 S. S. 125.
इसी तरह जायदादका मालिक अपनी ज़िन्दगीमें अपने वारिसोंसे यह मुआहिदा नहीं करसकता कि मेरे मरनेके बाद जायदादका बटवारा न हो या वटवारा न किया जाय, देखो-राजेन्द्रदत्त बनाम श्यामचन्द्र मित्र ( 1880) 6Cal. 106.
किसी रवाजके अनुसार या सरकारसे मिले हुए दानको किसी शर्तके अनुसार जायदाद ऐसी हो सकती है कि जिसका बटवारा नहीं हो सकता, देखो-विनायक बनाम गोपाल 30 I. A. 77; 27 Bom. 353; 7 C. W. N. 40955 Bom. L. R. 408. और देखो दफा ३० से ३५ रवाज तथा दफा ५२६.
बटवारेसे अदालत इनकार नहीं करेगी-नाबालिगके मामलेको छोड़ कर और किसी मामलेमें अदालतको यह अधिकार नहीं है कि बटवारेकी आक्षा देनेसे इनकार करे, देखो-सैलाम बनाम चिन्नामल 24 Mad. 441. लाड़े बनाम सदाशिव 6 Bom. L. R. 35 हर एक कोपार्सनरको अधिकार है कि मुश्तरका खान्दानसे अलग हो जाय लेकिन वह मुश्तरका खान्दानके दूसरे लोगोंको उनकी मर्जीके खिलाफ बटवारा करा लेनेको मजबूर नहीं कर सकता, देखो-मञ्जनाथ बनाम नारायन b Mad. 362.
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[ आठवां प्रकरण
मिताक्षरा स्कूल - मिताक्षरा स्कूलके अनुसार हरएक बालिग़ कोपार्सनर ज़बरदस्ती मुश्तरका खान्दानकी जायदादका बटवारा करा सकता है लेकिन शर्त यह है कि पिताके जीवित रहते दादा और पोतेमें या पिता और दादाके जीवित रहनेपर दादा और परपोते के दरमियान बटवारा नहीं सकता, देखोविशनचन्द्रराय बनाम समेदा कुंवर 11 I. A. 164; 6 All. 560; इसके विरुद्ध, देखो - जुगुल किशोर बनाम शिवसहाय 5 All. 450; 16 Bom. 29; इस विषय में मनु कहते हैं कि:
६०४
बटवारा
ऊर्ध्वं पितुश्च मातुश्च समेत्य भ्रातरः समम्
भजेरन्यैतृकं रिक्थ मनीशास्ते हिजीवतोः ६- १०४
सब भाई अपने माता पिताकी मृत्यु होनेपर मौरूसी धनको बराबर बांट लें, किन्तु उनके जीवित रहनेपर धन बांटनेका पुत्रोंको अधिकार नहीं है, मगर अब यह बात दायभाग स्कूल को छोड़ कर अन्यत्र नहीं मानी जातीमाना यह गया है कि वे लोग जो मुश्तरका जायदादमें अपना हक़ रखते हैं हरवक्त अपने अपने हिस्सेका बटवारा करा सकते हैं बटवारे के समय सिर्फ उनको अपनी अपनी रिश्तेदारीसे अपना हक़ निश्चित करना पड़ेगा, देखोभट्टाचार्य का हिन्दूलॉ 2 Ed. P. 322; मिताक्षरा स्कूलमें कोई स्त्री बटवारा खुद नहीं करा सकती ।
बापके बटवारे पर पुत्रोंकी आपत्ति कब हो सकती है - हिन्दूलॉ के अनुसार पिताको अधिकार है कि अपने जीवन कालमें ही अपने पुत्रोंके मध्य बटवारा कर दे । पुत्रों को अधिकार है कि बालिग होने पर, यदि बटवारेमें उनका कुछ अहित हो, तो एतराज़कर सकते हैं - बापू बनाम शंकर 28 Bom. L. R. 46; 93 I. C. 213; A. I. R. 1926 Bom. 160.
-1
नालिश बग़रज तक़सीम-जायदाद छूट जानेसे दावा खारिज हुआकिसी हिन्दू मुश्तरका खान्दानके एक सदस्य द्वारा बटवारेके लिये दायर की हुई नालिश, इस लिये खारिज कर दी गई, कि उस खान्दानकी समस्त जायदाद एकसाथ नहीं एकत्रितकी गई थी। इसके बादभी उस जायदादका बटवारा तोल या नाप द्वारा भी नहीं हुआ । तय हुआ कि मुश्तरका पनसे यह समझा जाता है कि वह तमाम जायदाद जो सदस्योंके क़ब्जे में हैं, यदि यह न साबित किया जाय कि उसमें से कोई ख़ास जायदाद किसी मेम्बरने उपार्जितकी है, तो वह ऐसी जायदाद है जिसके सम्बन्धमें बटवारा होना चाहिये - हजारीलाल बनाम रामलाल 47 All. 746; 23 A. L. J. 621; L. R. 6 All 379; 28 I. C. 422; A. 1. R. 1925 All. 813.
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दफा ५०५]
बटवारेके साधारण नियम
दायभाग स्कूल-दायभाग स्कूलमें हरएक बालिरा कोपार्सनर चाहे वह स्त्री हो या पुरुष कोपार्सनरी जायदादका बटवारा ज़बरदस्ती करा सकता है। देखो दफा ४६८; नज़ीर देखो-31 Cal. 214; 8 C. W. N. 11. दफा ५०५ बेटे पोते और परपोतेके बटवारेका हक
मिताक्षरा स्कूलके अनुसार लड़का, मुश्त का जायदाद चाहे वह मनकूला या गैर मनकूला हो बापसे बटवारा करा सकता है, देखो-जगमोहन दास मङ्गलदास बनाम मङ्गलदास नाथू भाई 10 Bom. 628; सूर्यवंशी कुंवरि बनाम शिवप्रसादसिंह 6 I. A. 88 -100; b Cal. 148; 4 C. L. R. 2268 16 Bom. 29; राजाराम तिवारी बनाम लक्ष्मणप्रसाद 1867 B. L. R. F. B. 731; 8 W. R. C. R. 15-20, लालजीतसिंह बनाम राजकुमारसिंह 12 B L. R. 373; 20 W. R. C. R. 336; 18 Mad. 179; 1 All. 1592 12 Bom. 280; 16 Bom. 29; 7 Bom. L. R. 232; 18 Mad. 179.
परन्तु वह अपने दादासे बापके मरने के पश्चात् और परदादा से बाप और दादाके मरनेके पश्चात् बटवारा करा सकता है 1 Mad. H. C. 77; यह भी माना गया है कि अगर बाप और दादा दोनों ज़िन्दाहों और उनके हाथसे जायदाद खराब हो रही हो तब लड़का बटवारा करा सकता है, देखो-रामे. श्वरप्रसादसिंह बनाम लक्ष्मीप्रसादसिंह 31 Cal. 111.
बेटा अपने बापसे तभी बटवारा करा सकता है जब बाप अपने बाप(दादा) या भाइयों तथा दूसरे कोपार्सनरोंके शामिल शरीक न रहता हो। अगर रहता हो तो बेटा अपने बापसे बटवारा नहीं करा सकता, देखो 6. All. 560--575; 11 I. A. 164-179; 16 Bom, 26; 7 Bom. L. R. 232; मगर इलाहाबाद हाईकोर्टकी राय इससे सहमत नहीं है, देखो-जुगुल किशोर बनाम शिवसहाय 5 All. 480.
पुत्र-अगर मुश्तरका खान्दानमें केवल बाप और उसके लड़के हों तो प्रत्येक बालिग लड़का मुश्तरका जायदादका बटवारा बापसे करा सकता है, देखो--सूर्यवंशीकुंवर बनाम शिवप्रसाद 5 Cal. 14886 I. A. 88;10Bom. 528; 1 All. 159.
पौत्र--अगर मुश्तरका खान्दानमें केबल दादा और पोता मौजूद हैं तो पोता मुश्तरका जायदादका बटवारा अपने दादासे करा सकता है, देखो1 Mad. H. C. 77; 12 Beng. L. B. 373.
। प्रपौत्र-अगर मुश्तरका खान्दानमें केवल परदादा और परपोतामौजूद हैं तो परपोता मुश्तरका जायदादका बटवारा परदादासे करा सकता है, देखो--वेस्ट ऐन्ड बुहलरका हिन्दूलॉ P. 672..
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[ आठवां प्रकरण
उदाहरणरमेश
1
महेश
( १ ) एक मुश्तरका हिन्दू खान्दानमें रमेश, महेश, और सुरेश रहते हैं, सुरेशका बाप महेश और दादा रमेश है । सुरेश ने मौरूसी मुश्तरका जायदाद के बटवारेका दावा अपने बाप महेश और दादा रमेशपर किया । अब प्रश्न यह है कि क्या सुरेश बटवारेका ऐसा दावा कर सकता है ? देखो बम्बई हाईकोर्ट के अनुसार ऐसा दावा नहीं हो सकता क्योंकि सुरेशका बाप महेश ज़िन्दा है और वे दोनों शामिल शरीक रहते हैं मगर इलाहाबाद हाईकोर्टके अनुसार सुरेश ऐसा दावा कर सकता है। इलाहाबाद हाईकोर्टने यह माना कि पोतेका हक़ उसकी पैदाइशंसे मुश्तरका जायदाद में जब था तो वह अपना हिस्सा बटा पानेके लिये मजबूर कर सकता है। इसी रायको मदरास हाईकोर्ट और कलकत्ता हाईकोर्टने भी पसन्द किया है, देखो- - 18 Mad. 179--183; 31 Cal.
सुरेश
111-128.
६०६
बटवारा
गणेश
रमेश
महेश
(२) मुश्तरका खान्दानमें गणेश पहिले मर गया, अब रमेश और और उसका लड़का सुरेश तथा भाई महेश रहते हैं । सुरेश ने मौरूसी मुश्तरका जायदादके बटवारेका दावा अपने बाप रमेश और अपने चाचा महेशपर किया । अब प्रश्न यह है कि क्या ऐसा दावा हो सकता है ? बम्बई हाईकोर्ट के अनुसार सुरेश ऐसा दावा नहीं कर सकता क्योंकि उसका रमेश अपने भाई महेशके साथ मुश्तरका रहता है इलाहाबाद हाईकोर्ट के अनुसार सुरेश ऐसा दावा सकता है, देखो -- सरताज बनाम देवराज 10 All. 272; 15 I. A. 51.
सुरेश
प्रपौत्र -- साधारण तरीक्रेपर, हिन्दू पिता और पुत्रके बटवारे में, प्रपौत्र यद्यपि वे जन्मसे मुश्तरका खान्दानके हिस्सेदार होते हैं, किन्तु वे अपने पिता के ही मध्यसे, जिसके साथ बटवारेके बाद भी उनका मुश्तरका होना समझा जाता है, अपना अधिकार प्राप्त करते है - जादव भाई बनाम मुल्तानचन्द 27 Bom. L. R. 426; 87 I. C. 936; A. I. R. 1925 Bom. 380.
दफा ५०६ स्त्रियोंके परस्पर बटवारा
जब दो या दो से ज्यादा स्त्रियां किसी जायदादकी मुश्तरकन् मालिक हों जैसे विधवायें या बेटियां जो उत्तराधिकारके अनुसार मालिक हुई हैं ( दफा ६०४, ६०५ ). तो उनमेंसे हर एक बटवारा करा सकती हैं--सुन्दर बनाम पार्वती 16 I. A. 186; 12 All. 51; 11 Mad. 304; 33 All. 443; 24 Mad. 441; 3 Mad. H. C. 424. लेकिन इस बटवारेसे सरवाइवरशिप (दफा ५५८ ) के हक़पर कुछ असर नहीं पड़ेगा, देखो -- 1 I. A. 212; 8
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दफा ५०६-५०७]
बटवारेके साधारण नियम
६०७
C. W. N. 658; 6 B. L R. 134; 31 Bom. 360. तथा यह बठवारा इस तरहसे करना योग्य होगा कि रिवर्ज़नरके हकपर कोई बुरा असर न पड़ेपालकुंवर बनाम पंवासकुंवर 8 C. W. N. 658; 9 Cal. b80.
स्त्रियोंका इस तरहका बटारा सिर्फ दायभाग स्कूलमें होता है मिताक्षरा स्कूलमें ऐसा तभी होगा जबकि पिता या पतिने अपनी अलग कमाई हुई कोई जायदाद छोड़ी हो या पिता या पतिके मरनेके बाद कोई कोपार्स. नर जीवित न रहा हो या शायद ऐसे मामलेमें भी जिसमें कि बटवारा करते . समय पत्नियोंको भी हिस्सा दिया गया हो।
जबकि विधवा या लड़की बटवारा करानेकी हक़दार हो तो उसके हिस्सेका खरीदार भी वैसाही अधिकार रखता है, देखो-जानकीनाथ मुखोपाध्याय बनाम मथुरानाथ मुखोपाध्याय 9 Cal. 580; 12 Cal. L. R. 215.
जबकि हिन्दू विधवा बटवारेकी हकदार हो और यह भय हो कि वह अपने हिस्सेकी जायदाद खराब कर डालेगी तो अदालत बटवारेकी डिकरी देते समय कोई ऐसा प्रबन्ध अवश्य कर देगी कि जिससे जायदादकी रक्षा होवे तथा रिवर्ज़नरोंके हकमें नुकसान न पहुंचे, देखो-दुर्गानाथ प्रमाणिक बनाम चिन्तामणिदासी 31 Cal. 214, 8 C. W. N. 11; 9 Cal. 580; 12 Cal. L. R. 215.
जब कोई विधवा बटवारेका दावा करे तो अदालतको अधिकार है कि वह दावे को सुननेसे इनकार करदे और अगर वह चाहे तो सुने, देखोमहदेयी कुंवर बनाम हरखनरायन 9 Cal. 244 P. 250; 2 Col. 262.
नोट-अदालत बहुत करके विधवाक दावेको नहीं सुनेगी और खास कर पुत्र रहित विधवा के दावे को विल्कुल नहीं मुनेगी । बनारस स्कूलमें विधवा, लड़की, मां, दादी और परदादी बटवारा नहीं करासकतीं और जिस स्कूलमें ऐसा माना गया है वहां एक थोड़े से हिस्साके ख्यालसे प्रायः अदालत बटवारे से इनकार कर देती है। दफा ५०७ नाबालिग कोपार्सनर
जब कोई कोपार्सनर नाबालिग हो और यह देखा जाय कि जायदादके मुश्तरका रहनेसे उसका नुकसान होता है। मसलन इस तरह कि दूसरे कोपासनर जायदाद खराब करते हों या नाबालिग्रके विरुद्ध अपना कोई हक कायम करते हों या उसके पालन पोषणका खर्चा देनेसे इनकार करते हों या और किसी सूरतमें जबकि बटवारेमें ही नाबालिग्रका फायदा देखा जाता हो तो उसकी तरफसे बटवारेका दावा उसके बापके विरुद्ध भी किया जा सकता है। देखो--8 Cal. 537; 10 C. L. R. 402, 19 Bom. 99; 12 Mad. 401; 25 W. R. C. R. 497. भोलानाथ बनाम घासीराम 29 All. 373.
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६०८
बटवारा
[आठवां प्रकरण
अगर यह सूरतें कोई न हों जैसीकि ऊपर कही गयी हैं तो नाबालिग की तरफ़से बटवारेका दावा नहीं किया जा सकता, देखो--34 I. A. 1073 31 Bom. 373.
अगर बटवारेका दावा करनेके बाद बाप मर जाय तो नाबालिग पुत्रकी ओरसे उस दावेको आगे चलानेमें भी यही ऊपरका सिद्धान्त लागू होगा, देखो--पार्बती बनाम मुंजकरंथ 5 Mad. H. C. 193. लेकिन अगर उस दावाको आगे नहीं चलानेसे जायदादमें नाबालिगके हनपर कोई बुरा असर न पड़ता हो तो दावा आगे नहीं चलाया जायगा।
साधारणतः हिन्दू मुश्तरका खान्दानके नाबालिगका लाभ इसीमें है कि उसका हिस्सा अलग न किया जाय इससे यह स्पष्ट है कि बटवारेमें नाबालिराका लाभ नहीं है क्योंकि जायदादके मुश्तरका बने रहनेसे ही उसकी ज्यादा आमदनी होती है और इस तरह अधिक लाभ होता है बटवारा कर देनेपर आमदनी घटनेसे अवश्य हानि है इसके सिवाय नाबालिराके लिये मिताक्षराके अनुसार एक यह हानि भी है कि बटवारेके बाद न बालिग सरघाइवरशिपका लाभ खो देता है, देखो--कामाक्षी अम्मल बनाम चिदम्बरा. रेडी 3 Mad. H. C. Rep 94.
नाबालिगकी तरफसे बटवारा कराने की जो खास शर्ते ऊपर बयान की गयी हैं उनके मौजूद होनेसे नाबालिगके वलीको यह अधिकार है कि वह बटवारा करे 36 1. A. 71; 31 All. 412, 13 C. W. N. 983; 11 Bom. L. R. 978. जगन्नाथ बनाम मानूलाल 16 All. 231. के मामले में माना गया है कि वली पञ्चायतसे भी नाबालिगकी तरफसे बटवारा करा सकता है।
जबकि पञ्चायत से या समझौते से या कलक्टर साहेब की आज्ञा से वटवारा हो गया हो तो नाबालिरा भी उसका पाबन्द है और उस प्राज्ञाके अनुसार वह बटवारा करा सकता है मगर शर्त यह है कि उस बटवारेका नाबालिरापर कोई बुरा असर न पड़ता हो और वह बटवारा उचित हो और और बटवारेके समय नाबालिराका कोई प्रतिनिधि मौजूदहो और वह प्रतिनिधि भी ऐसा हो जो नेकनीयतीसे नाबालिग्न के लाभ के लिये ही काम करता हो । नीचे नज़ीरें देखो-जब पञ्चायतसे बटवारा हुआ हो-रामनारायण प्रमानिक बनाम श्रीमती दासी 1 W. R. C. R. 281; जब समझौतेसे-10 W. R. C. R. 273; 8 B. L. R. 363; जब कलक्टर साहेबकी आज्ञासे-हरीप्रसाद झा बनाम मदनमोहन ठाकुर 8 B. L. R. Ap. 72, 17 W.R. C. R. 217; 29 All. 37; नाबालिराका कोई प्रतिनिधि बटवारेके समय होना चाहियेलालबहादुरसिंह बनाम शिशुपालसिंह 14 All. 498 कृष्णाबाई बनाम खगौड़ा 18 Bom. 197;प्रतिनिधि अज्ञानका ही लाभ देखे-कालीशङ्करं बमाम देवेदोनाथ 23W.R.C.R.68,19Bom. 59372Mad.H. C. 182729 Mad. 62.
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बटवारे के साधारण नियम
६०६
दफा ५०६ ]
उस नाबालिका हिस्सा, जिसने अपने वली द्वारा बटवारेकी नालिश की हो, उसके पिता के दूसरे लड़के के पैदा होनेके कारण कम न किया जा सकेगा यदि वह लड़का नालिशकी तारीख़के बाद गर्भमें आया हो किन्तु प्राथमिक डिकरी के पूर्व ही उत्पन्न होगया हो - कृष्णास्वामी देवन बनाम पुलुक रुपा श्रीवन 48 Mad. 465; 21 L. W. 675; 88I. C. 424; A. 1. R. 1925 Mad. 717; 48 M. L. J. 354.
नाबालिग हिस्सेदार होनेपर बटवारा होगा - दवे राजलू नायडू बनाम कोण्डममल A. I. R. 1925 Mad. 427.
बटवारा - सब हिस्सेदार नाबालिग़ - प्रत्येकके भाई द्वारा बतौर वली के बटवारा, मामूली तरीक़ेपर ईमानदारीके साथ और बालिग होनेपर नाबा - लिगों द्वारा अमल -तय हुआ कि बटवारा जायज़ था - टी० देव राजलू नायडू बनाम कोंडामल A. I. R. 1925 Mad. 427.
पिता और नाबालिग - किसी हिन्दू मुश्तरका खान्दानके बटवारेकी नालिशमें, पिताके लिये योग्य है कि वह अपने नाबालिग पुत्रोंके वलीकी भांति कार्यवाही करे। यह नहीं कहा जा सकता कि पिताके अधिकार नाबालिग पुत्रों के खिलाफ हैं-लिंगा रेड्डी बनाम चेंगलराभा रेड्डी 21 L. W. 659; 8 / I. C 42; A. I. R. 1925 Mad. 734; 48 M. L. J. 417.
दफा ५०८ बटवारे के बाद लड़केका पैदा होना
मिताक्षराके मानने वाले किसी कुटुम्बमें जब बाप और बेटोंके परस्पर बटवारा हो जाय और उसके बाद उस बापके फिर पुत्र उत्पन्न हो तो यह पुत्र अपने भाइयोंकी जायदाद में से कोई हिस्सा नहीं पावेगा यानी जायदादका बटवारा फिर नहीं होगा, देखो - 4 Mad. H. C. 307; 33 Bom. 267; 10 Bom. L. R. 778; 1 Bom. I. R. 123. और देखो दफा ६०३ - ३.
( १ ) परन्तु यदि वटवारेके समय वह पुत्र माके गर्भमें रहा हो तो अवश्य बटवारा होगा - मीनाक्षी बनाम वीरअप्पा 8 Mad. 89.
बटवारे के समय गर्भस्थिति पुत्रको हिस्सा मिलेगा इस विषय में लघुहारीतस्मृति देखो -
ये जाता येपिचा जाता येच गर्भेव्यवस्थिताः वृत्तिंतेऽपिहिकाङ्क्षेतिवृत्तिदानं न सिध्यति । श्लो०११५
जो मनुष्य पैदा हुये हैं या जो नहीं पैदा हुये या जो गर्भमें स्थित हैं वे सब निज वृत्तिकी कांक्षा करते हैं इसलिये मौरूसी जायदाद किसीके बांट लेने या दान कर देने से उनका हक़ नहीं चला जाता। और देखो -- याज्ञवल्क्य -
77
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६१० wwwwwwwwww
बटवारा
[आठवां प्रकरण
'विभक्तेषु सुतो जातः सवर्णायां विभागभाक् --
सवर्णा स्त्रीमें पैदा हुआ पुत्र जो बटवारेके बाद जन्मे वह फिरसे अपने हिस्सेका बटवारा करा सकता है यही बात हिन्दूलॉ में भी मानी गयी है कि जो लड़का बटवारा हो जानेके पश्चात् पैदा हो मगर बटवारेके समय गर्भमें हो वह अपने हिस्सेके पानेका अधिकारी वैसाही है जैसा कि बटवारेके समय उसके मौजूद होनेकी सूरतमें होता इसलिये अगर बटवारेमें उस गर्भस्थित लड़केका हिस्सा रक्षित न रखा गया हो तो वह पैदा होनेपर फिर उस जायदादका बटवारा करा सकता है और अपना हिस्सा ले सकता है, देखो--4 Mad. H. C. 307; 12 Bom. 105, 108, 109. उदाहरण-(१) रमेश और उसके दो लड़के महेश और सुरेश तीनों मुश्त
रमेश रका खान्दानमें रहते हैं बाप और दोनों बेटोंके दरमियान .. . मौरूसी जायदादका बटवारा हो गया उस समय रमेशकी
- स्त्री गर्भवती थी और यह बात घरके सब लोगोंको मालूम
' थी ऐसी सूरतमें कुल जायदाद चार बराबर भागोंमें बटना चाहिये यानी रमेश और उसके दो पुत्र जीवित तथा एक वह पुत्र जो गर्भ में है। जायदादका प्रत्येक हिस्सा जीवित हिस्सेदार लेंगे और एक चौथाई हिस्सा गर्भस्थित पुत्रके लिये रक्षित रखा जायगा। अगर पुत्र पैदा हुआ तो वह अपना हिस्सा लेगा और अगर लड़की पैदा हुई तो वह हिस्सा फिर तीनों को बांट दिया जायगा यानी रमेश और उसके दोनों पुत्रोंको।गर्भस्थित पुत्रके अधिकार देखो दफा ४६०.
(२) अगर बापने बटवारेके समय अपना हिस्सा लिया हो उसके बाद यदि पुत्र पैदा हुआ हो मगर बटवारेके समय गर्भमें न हो वह पुत्र अपने बापकी सब जायदादका अकेला मालिक होगा अर्थात् बटवारेके समय जो जायदाद उसके बापको मिली हो और जो जायदाद उसके बापके पास बटवारे से पहिले हो या पीछेसे कमाई गई हो वह सब उस पुत्रको मिलेगी, देखोकालिदास बनाम कृष्ण 2 Beng. L. R. F. B. 103-118. नवलसिंह बनाम भगवानसिंह 4 All. 427; 23 Bom. 636. मनु कहते हैं किऊर्ध्वं विभाजातस्तु पित्र्यमेव धनं हरेत् ६-२१६. बटवारेके बाद जो लड़का पैदाहो वह अपने बापके सब धनको पाता है। अनीशः पूर्वजः पित्रोद्घतुर्भागे विभक्तजः पुत्रैः सह विभक्तेन पित्रायत्स्वयमर्जितम् विभक्तजस्य तत्सर्वं मनीशा पूर्वजाःस्मृताः। बृथ्शाता०
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दफा ५०८]
बटवारेके साधारण नियम
बिना बटवारा किये पुत्र, पिताकी जायदाद नहीं पा सकता, बटवारेके बाद जन्मे पुत्रको पिताकी सब जायदाद मिलती है। उसमें बटे हुये पुत्रोंका हक नहीं है।
बटवारेसे मिली हुई जायदाद और अपनी सब सम्पत्तिको यदि बापने खर्च कर दिया हो, उसने अपने पुत्रके लिये कुछ न छोड़ा हो जो बटवारेके बाद पैदा हुआ है तो ऐसी सूरतमें उसे कुछ नहीं मिलेगा, देखो-शिवाजी राव बनाम बसंतराव 33 Bom. 267.
अगर बाप, बटवारा होने के बाद कुछ लड़कोंसे तो अलग और कुछ लड़कोंके साथ मुश्तरका रहता हो पीछे कोई पुत्र पैदा होवे तो वे सब पुत्र जिनके साथ बाप रहता था बराबर हिस्सेसे जायदाद बांट लेंगे।
यदि बापने बटवारेके समय अपना हिस्सा नहीं लिया और बिना हिस्सा लिये सब लड़कोंसे अलहदा होगया उसके बाद पुत्र पैदा हुआ तो वह मुश्तरका जायदादका फिरसे बटवारा करायेगा और अपना हिस्सा वह सिर्फ उसी जायदादमें नहीं बटायेगा जो पहिलेके बटवारेके समय थी बल्कि वह उस कुल जायदादमें भी अपना हिस्सा बटायेगा जो उस जायदादकी मददसे दूसरी और कोई जायदाद पैदा कीगई हो, देखो--20 Mad.75; W. Mac Hindu Law Vol 1 P. 47.
अगर पिताके मरनेपर भाइयोंमें बटवारा हुआ हो और पीछे माके गर्भ से कोई लड़का पैदा हो जाय अथवा यदि कोई भाई अपनी स्त्रीको गर्भवती छोड़कर मर गया हो और बटवारेके पीछे उसके लड़का पैदा हो जाय तोदोनों सूरतोंमें फिरसे बटवारा होगा और जन्मे हुये लड़कोंको हिस्सा मिलेगा-- देखो हिन्दूलॉ मुल्लाका सन १६२६ ई० पेज ३१८. याज्ञवल्क्य ने कहा है कि-- 'दृश्यादा तद्विभागःस्या दायव्ययविशोधितात्' दायभागे
_ऐसी सूरतमें बटवारेके समय जो जायदाद हो और पीछे जो उसकी मददसे पैदा कीगयी दोनों में उन्हें हिस्सा मिलेगा। इसीलिये मिताक्षराकार कहते हैं कि जब ऐसा मौक़ा उपस्थित हो तब बटवारा करने वालोंको चाहिये कि गर्भके प्रसवका इन्तज़ार करके बटवारा करें, देखो--
'अथ भातृणां दायविभागो यश्वानपत्याः स्त्रियस्तासाम पुत्रलाभात् गृहीतगर्भणामाप्रसवात्प्रतीक्षण मितियोजनीयम् मिताक्षरा।
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५१२
बटवारा
[आठवां प्रकरण
बटवारेके बाद बापका वैनामा-बटवारेके पश्चात् पिता द्वार बयनामा से पुत्रके हिस्सेपर पाबन्दी नहीं है, वी० शेषझा बनाम ए० अप्पाराव A. I. R. 1925 Mad. 125. दफा ५०९ दत्तक पुत्र और उसका पुत्र और पौत्र
__दत्तक पुत्र और दत्तक पुत्रका पुत्र, तथा पौत्र, भी बटवारा करापानेका मुश्तरका जायदादमें उतनाही हक़ रखता है जितना कि औरस पुत्र और उसका पुत्र तथा पौत्र रखता है, 4 Cal. 425; 1 Mad. H. C. 45; 7Mad. 253. दफा ५१० अनौरस पुत्र
(१) यह बात सब हाईकोटीने मानी है कि द्विजों ( ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ) में अनौरस पुत्र न तो उत्तराधिकारमें जायदाद पावेगा और न बटवारेमें हिस्सा पावेगा। वह सिर्फ रोटी कपड़ेके पानेका अधिकारी है। देखो--बुशानसिंह बनाम बलवन्तसिंह 22 All. 191; 27 I A. 51.
(२) शूद्रोंमें दासी पुत्रका कुछ अधिकार यद्यपि शास्त्रोंमें माना गया है मगर कानूनमें चाहे मिताक्षरालॉ या चाहे दायभागलॉ का मामला हो दोनों में उसका सिर्फ रोटी कपड़ा पानेका हन स्वीकार किया गया है, देखो-- रामसरन बनाम टेकचन्द 28 Cal. 194; 1 Cal. 1. 19 Cal. 91.
बम्बई, मदरास, और इलाहाबाद हाईकोर्ट के अनुसार माना गया है कि जो औरत किसी आदमीके पास सिर्फ उसीके लिये हमेशा बहुत दिनोंसे रहती हो उसके अनौरस पुत्रका कुछ हक़ उत्तराधिकारकी जायदादमें और बटवारे में है, देखो--1 Bom. 110. साधू बनाम वैजा 4 Bom. 37; 7 Mad. 407; 12 Mad. 72. सरस्वती बनाम मानू 2 All. 134.6 A.ll. 329.
अनौरस पुत्रका कोई हक़ अपनी पैदाइशसे मौरूसी जायदादमें नहीं होता देखो--जोगेन्द्रो बनाम नित्यानन्द 18 Cal. 151-155; 17 I. A. 128; 28 Cal. 194-294.
अनौरस पुत्र बापसे भी मौरूसी जायदादका बटवारा नहीं करा सकता देखो--साधू बनाम वैजा 4 Bom. 37-44.
बाप अपनी ज़िन्दगीमें अगर चाहे तो मौरूसी जायदादमें औरस पुत्रों के बराबर अनौरस पुत्रको हिस्सा देदे मगर वह ज्यादा नहीं दे सकता. देखो23 Md. 16. अनौरस पुत्र अपने बापके मरनेपर, बापके दूसरे औरस पुत्रों पर जायदादके बटवारेका दावा नहीं कर सकता और न बापके किसी कोपासनर पर बटवारेका दावा कर सकता है, देखो-4 Bom. 37; 12 Mad, 401; 25 Mad. 429; 27 Mad. 32; 10 Mad. 334.
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दफा ५०६-५१०]
बटवारेके साधारण नियम
यह बात साफ़ तौरसे निश्चित नहीं हुई कि औरस भाइयों के साथ अनौरस पुत्रका बटवारे में कितना हिस्सा मिलेगा, मगर जो कुछ तय हुआ है उसके लिये देखो-इस कितावकी दफा ६०३. - अनुलोमज और औरस पुत्रोंके बीच बटवारा-अनुलोमज विवाह शास्त्रकारोंने स्वीकार किये हैं, देखो दफा ६३ यहां पर यह बताना है कि अनुलोमज विवाहके पुत्रों और औरस पुत्रोंके बीच जायदादका बटवारा कैसा होगा। मनु अध्याय ६ श्लोक १५३ में कहते हैं: -
चतुरोंऽशान्हरेदिप्र स्त्रीनंशान्क्षत्रियासुतः वैश्या पुत्रो हरे दयंश मंशंशूद्रासुतोहरेत् ॥१५३॥ यद्यपि स्यात्तु सत्पुत्रोऽप्यसत्पुत्रोऽपिवाभवेत् नाधिकं दशमाद्दद्याच्छूद्रा पुत्राय धर्मतः॥१५४॥
वृहद्विष्णु स्मृति अध्याय १५१ ब्राह्मणस्यचतुर्पु वर्णेषुचेत् तुत्राः भवेयुस्ते पैतृक मृक्थं दशधा विभजेयुः ॥ १॥ तत्र ब्राह्मणी पुत्रश्चतुरोंऽशाना दद्यात् ॥ २॥ क्षत्रिया पुत्रस्त्रीन् ॥३॥ दावंशौ वैश्या पुत्रः॥ ४ ॥ शूद्रापुत्रस्त्वेकम् ॥ ५ ॥
भावार्थ-४ भाग ब्राह्मर्णाका पुत्र, ३ भाग क्षत्रियाका पुत्र, २भाग वैश्या का पुत्र और १ भाग शूद्राका पुत्र लेवे । अगर ब्राह्मणी, क्षत्रिया, और वैश्या स्त्रीसे कोई पुत्र न हो और शूद्राके पुत्र हो तो भी शूद्राके पुत्रको १०वें भागसे ज्यादा हिस्सा नहीं मिलेगा । वृहद्विष्णुने भी इसी मतका पूर्ण रूपसे समर्थन किया है और बहुत विस्तृत व्याख्या की है।
उदाहरण-महेश ब्राह्मणकी ब्राह्मण स्त्रीसे २ लड़के और क्षत्रिय स्त्री से एक लड़का और वैश्य स्त्रीसे २ लड़के तथा शूद्रा स्त्रीसे २ लड़के पैदा हुये तो इनके परस्पर जायदादका बटवारा कैसा होगा? ऊपरके सिद्धांतानुसार महेशकी जायदाद १७ भागों में बटेगी इसमें से भाग ब्राह्मणीके दोनों लड़कों को और ३ भाग क्षत्रियाके एक लड़केको और ४ भाग वैश्याके दोनों लड़कों को तथा २ भाग शूद्राके दोनों लड़कोंको मिलेगी। सिद्धान्त यह है कि ब्राह्मणी के पुत्रको जितना हिस्सा मिले उसका पौन हिस्सा क्षत्रियाके पुत्रको तथा आधा वैश्याके पुत्रको और चौथाई शूद्राके पुत्रको मिलेगा।
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६१४
बटवारा
[आठवां प्रकरण
अगर ब्राह्मणी से कोई पुत्र नहीं है सिर्फ क्षत्रियासे १ वैश्या से १ और शुद्रा से १ पुत्र है तो जायदाद ६ भागों में बट कर ३ भाग क्षत्रिया के पुत्र को २ भाग वैश्याके पुत्रको एवं १ भाग शूद्राके पुत्रको मिलेगी। इसी तरहपर यदि केवल वैश्यासे १ पुत्र है व शूद्रासे १ है तो जायदाद ३ भागोंमें बटकर २ भाग वैश्याके पुत्रको व १ भाग शुद्राके पुत्र को मिलेगी। यदि सिर्फ शूद्रा का ही पुत्र है तो सब उसे मिलेगी। यह बटबारा अनुलोमज विवाहके पुत्रों के परस्पर है स्त्रियोंका हक इसमें शामिल नहीं है। वर्गानुसार स्त्रियोंका हक इस बटवारेसे सम्बन्ध नहीं रखता। दफा ५११ गैर हाज़िर कोपार्सनर
गैर हाज़िर कोपार्सनर के हनपर बटवारेका क्या असर पड़ता है इस विषयमें सर तामस स्ट्रेन्जने अपने हिन्दूलॉ के Vol.1 P. 206-207. में कहा है कि इस विषयमें विदेशमें गये हुये गैर हाजिर कोपार्सनरकी भी वही हालत है जो नाबालिगकी है। वटवारेके समय उसकी भी रजामन्दी नहीं ली जा सकती इसलिये बटवारा उसकी गैरहाज़िरीमें होगा। जैसे कानून किसी नाबालिगके बालिग होने तक उसके हिस्सेकी रक्षा करता है उसी तरह उस गैरहाज़िर कोपार्सनरके लौटने तक उसके हिस्सेकी रक्षा करता है। 'विदेश' का मतलब उन स्थानोंसे है जहांपर जल्दखबर नहीं पहुंचसकतीजैसे पहाड़पर जाना, किसी बड़े जङ्गलमें जाना आदि, देखो-कोलबुककी डाईजेस्ट ii Vol.P. 29. दफा ५१२ हिस्सेका ख़रीदार बटवारा करा सकता है
जब किसी कोपार्सनरका हिस्सा कुीके नीलाममें किसी गैर आदमीने खरीदा हो तो खरीदारको अधिकार है कि वह उस हिस्सेका बटवारा कराले, या कोपार्सनरने खुद मुन्तकिल कर दिया हो (जहांपर ऐसा इन्तकाल जायज़ माना गया हो) तो खरीदारको बटवारेका वही अधिकार है जो कोपार्सनर को था । खरीदार उस हिस्सेके अलग करानेका अधिकारी है जिसे उसने खरीदा था, देखो-विपिनबिहारी बनाम लालमोहन चट्टोपाध्याय 12 Cal. 209; 9 Cal. 580; 12 C. L. R. 215; 7 Mad. 588; 11 Bom. H. C. 727 22 W. R. C. R. 1169 20 W. R. C. R. 1703 18 W.R. C. R.23.
___ अगर खरीदारने कोपार्सनरोंके रहने वाले घरका हिस्सा खरीद किया हो तो वह हिस्सा दूसरे कोपार्सनरोंके हाथ उसको अवश्य बेच देना होगा, इस बातके लिये खरीदार वाध्य किया जायगा, देखो -Act.4of 1893 दफा४.
यदि किसी कोपार्सनरने मुश्तरका जायदादमें का अपना हिस्सा किसी दूसरे श्रादमीके नाम दान कर दिया हो तो मिताक्षरालॉ जहां तक लागू होता है वहांपर ऐसा दान नाजायज़ समझा जायगा इसलिये दान लेने वाला बट. चारा नहीं करा सकता, देखो-बाबा बनाम टिम्मा 7 Mad. 357.
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दफा ५११-५१३ ]
farter अधिकार
यह माना गया है कि जब किसी खरीदारने रजामन्दीसे किसी कोपानरका हिस्सा उसकी मुश्तरका जायदाद में खरीद किया हो तो वह बम्बई और मदरास प्रान्तमें खरीदे हुये हिस्सेके बटा पानेका दावा कर सकता है मगर बङ्गाल और संयुक्त प्रांतमें जैसा कि मिताक्षराका अर्थ माना जाता है उसके अनुसार कोई कोपार्सनर बिना मंजूरी दूसरे सब कोपार्सनरोंकी मुश्तका जायदादका अपना हिस्सा बेच नहीं सकता इसलिये खरीदार के बटवारा करा पाने का हक़ ऐसी जायदादमें अनिश्चित है ।
( २ ) स्त्रियोंका अधिकार
६१५
दफा ५१३ बटवारे के समय पत्नीका अधिकार
पत्नी से मतलब यह है कि जिसका पति जीवित हो-इस विषय में याज्ञ: वल्क्य कहते हैं कि
-
यदि कुर्यात्समानंशान पत्न्यः कार्याः समाशिकाः नदत्तं स्त्रीधनं यासां भर्त्रावा श्वशुरेण वा । व्यव० ११५ यदा स्वेच्छयापिता सर्वानेवसुतान समविभागिनः करोति तदा पत्न्यश्च पुत्रसमांशभाजः कर्तव्याः यासां पत्नीनां भर्त्रा श्वशुरेणवा स्त्रीधनं नदत्तं । दत्तेषु स्त्रीधने श्रद्धांश वक्ष्यति दत्तेत्वर्थं प्रकल्पयेत् इति मिताचरा ।
जब पिता अपनी इच्छासे पुत्रोंको समान भाग करके जायदाद बांटता हो तो अपनी उन पत्नियोंको भी पुत्रोंके बराबर हिस्सा दे जिन्हें पति या श्वसुरने स्त्रीधन न दिया हो। यदि दिया हो तो पुत्रके हिस्से से आधा हिस्सा देवे । मगर हिन्दूलों के अनुसार पिताकी इच्छा नहीं मानी जाती, उपरोक्त बचन का जैसा कि अर्थ स्कूलोंमें माना जाता है उसके अनुसार माना गया है कि -
दक्षिण हिन्दुस्थानको छोड़कर अन्यत्र मिताक्षरालों का यह नियम है कि जब बाप और बेटोंके परस्पर बटवारा हो तब एक पुत्रके हिस्से के बराबर बापकी पत्नी (माता या सौतेली माता ) को भी एक हिस्सा मिलेगा, यह
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[ आठवां प्रकरण
हिस्सा उसके भरण पोषणके बदले में मिलेगा, देखो - दामोदर मिसिर बनाम सनावुटी मिसराइन 8 Cul 537; 10 Cal. L. R. 401; दुलार कुंवर बनाम द्वारिकानाथ मिसिर 32 Cal. 234; 9 C. W. N. 270. सुमिरन ठाकुर बनाम चन्द्रमणि मिसिर 8 Cal. 17; 9 C. L. R. 415. महाबीरप्रसाद बनाम रामयादसिंह 12 B. L. R. 90-99; 20 W. R. C. R. 192. लालजीतसिंह बनाम राजकुमारसिंह 12 BLR. 873; 20 W. R. C. R. 337. प्रसिद्ध नारायनसिंह बनाम हनूमान सहाय 5 Cal 845; 5 C. L. R576
६१६
अगर बापकी पत्नी ( माता या सौतेली माता ) को उसके पति (बाप) या ससुरने कोई अलहदा जायदाद दे दी हो तो बाप और बेटोंके परस्पर बटवारेके समय बापकी उस पत्नीको जायदादका इतना हिस्सा बटवारेमें दिया जायगा कि जो पहिले मिली हुई अलहदा जायदाद में मिलकर एक पुत्र के हिस्से के बराबर बन जाय, देखो - जैरामनाथ बनाम नाथू श्यामजी 31 Bom. 54; 8 Bom. L. R. 632; 12 B. L. R. 90; 20 W. R. C. R. 192, 196. यदि उसके पास एक लड़के के हिस्सेके बराबर या ज्यादा जायदाद पहिले से है तो बटवारेमें हिस्सा नहीं मिलेगा । नीचे उदाहरण देखो
महेश १
२। कमलनयनी
( १ ) महेशके दो स्त्रियां हैं, कमलनयनी और सुशीला, कमलनयनीके एक पुत्र शङ्कर और सुशीला के चार पुत्र हैं । शङ्करने मौरूसी मुश्तरका | जायदाद के बटा पानेका दावा महेश शङ्कर दिनेश सुरेश रमेश गणेश अपने बापपर किया । ऐसी सूरत में जायदाद आठ बराबर भागों में बटेगी हरएक हिस्सेदार है हिस्सा लेगा । महेश की दोनों स्त्रियां एक लड़केके बराबर हिस्सा पायेंगी, देखो -दुलार कुंवर बनाम द्वारिकानाथ 32 Cal. 234.
४
५ ६ ।
७ ।
बंटवारा
| ३
सुशीला
1
अब ऐसा मानो कि महेशकी दो स्त्रियां हैं, सुशीला सिर्फ गणेश अपने एक पुत्रको छोड़कर मर गयी, पीछे गणेशने बटवारेका दावा बाप पर किया । ऐसी सूरत में जायदाद पांच बराबर भागों में बांटी जायगी। हर एक पांचवां हिस्सा लेगा । अब यह मानो कि सुशीलाके पास पतिकी दी हुई १००) साल के मुनाफेकी जायदाद पहिले से है और इस पांचवें हिस्सेकी आमदनी २०० ) रु० सालकी समझी जाती है तो ऐसी सूरत में उसे ५ वें हिस्सेकी आधी जायदाद मिलेगी । जायदादकी दूसरी तरहकी क़ीमतका भी ख्याल किया जायगा। देखो -- 31 Bom. 54. पत्नी स्वयं बटवारा नहीं करा सकती ।
दायभाग स्कूल - दायभाग स्कूलमें यह प्रश्न उठताही नहीं क्योंकि वहां पर बाप अपनी पैदा की हुई और मौरूसी जायदादका भी पूरा अकेला मालिक
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दफा ५१४]
स्त्रियोंका अधिकार
होता है । मगर जहां कहीं कभी कभी बाप और पुत्रोंके परस्पर बटवारा हुआ है वहांपर यह माना गया है कि बापकी जो पत्नियां पुत्रहीन हों उन्हें एक पुत्र के हिस्सेके बराबर हर एकको हिस्सा दिया जाय । परन्तु यदि किसी पत्नीके पास स्त्रीधनकी सम्पत्तिहो तो उसे एक पुत्रके हिस्सेसे आधा हिस्सा दियाजाय । दफा ५१४ बटवारेक समय माका हिस्सा
दक्षिण भारतमें यद्यपि यह कहा जाता है कि मा या सौतेली मा को बटवारेमें हिस्सा देनेका रवाज उठ गया है तो भी यह नियम है कि जब बेटों में या बेटों और पोतोंके परस्पर कोपार्सनरी जायदादका बटवारा हो तो विधवा माता या सौतेली माताको भरण पोषणके खर्चके बदले एक पुत्रके हिस्से के बराबर हिस्सा दिया जायगा देखो-8 Cal. 649; 11 C. L. R. 186; 31 Cal. 1065; 8 C. W. N. 76337 Cal. 191: 3 All. 118, 27 Cal. 551:311. A. 103 31 Cal 262; 6 B. L. R 1; 16 I. A 1153 4Cal. 756:5 Cal. 845%B12 Cal. 165; 10 Cal. 1017; 3 All.88, 12 B. L. R. 385%; 17 Bom. 27132 Bom. 494
इस विषय में याज्ञवल्क्य कहते हैं किपितृवं विभजतां माताय्यंशं समंहरेत-व्यव० १२३
१२३ पिताके मर जानेपर भाइयोंके बटवारेके समय माताको एक पुत्रके हिस्से के बराबर हिस्सा मिलेगा, उदाहरण देखो
(१) महेशकी दो स्त्रियां हैं, सुशीलाल और कमला । कमला एक पुत्र महेश
मुकुन्दको छोड़कर भर गयी। दूसरीके तीन पुत्र
हैं । मुकुन्दने अपने बाप महेशके मरनेपर मुश्तका सुशीला कमला
. जायदादके बटापानेका दावा अपनी सौतेली मां
और सौतेले तीनों भाइयोपर किया । ऐसी सूरतमें
जायदाद पांच बराबर हिस्सों में बांटी जायगी। गणेश रमेश सुरेश मुकुन्द हरएक पांचवां हिस्सा लेगा यानी सौतेली माता
सहित बटवारा होगा, देखो-दामोदरदास बनान
उत्तमराम 17 Bom. 271. (२) महेश मर गया उसने दो विधवायें सुशीला और कमला तथा
दोनोंसे पैदा हुए पांच पुत्र छो । अब दो माताएं और पांच पुत्र जीवित रहे
पांचों पुत्रोंके परस्पर बटवारा हुआ तो सुशीला सुशीला कमला कुल मुश्तरका जायदाद पहिले पांच
बराबर भागोंमें पुत्रोंके हिसाबसे बांटी । । । । । जायेगी। पीछे रमेश और सुरेशको रमेस सुरेश गणेश मुकुंद प्रताप जितना हिस्सा मिलेगा वह उनकी वि
धवामाता सहित तीन बराबर हिस्सोंमें
महेश
कमला
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बटवारा
[आठवां प्रकरण
सुशीला
बटेगा और इसी तरहपर कमलाके तीन पुत्रोंको जितना हिस्सा मिलेगा उसके सहित चार बराबर भागोंमें बांटा जायगा इस तरहपर बटवारा होगा, क्योंकि नियम यह है कि माता अपने एक पुत्रके हिस्से बराबर पायेगी अर्थात् रमेश
और सुरेशको हिस्सा उनकी माता सहित मिला । इसमें हरएक हिस्से का हिस्सा लेंगे यानी हरएक हिस्सा यायेगा। इसी प्रकार तीन भाइयोंको हिस्सा उनकी विधवा माता कमलाके सहित मिला। इसमेंसे हरएक ३ हिस्से में से हिस्सा पावेंगे यानी हरएक को हिस्सा मिलेगा। इस तरहसे सुशीला में और कमला हिस्सा पावेगी। (३) महेश दो विधवाएं और दो पुत्र छोड़कर मरा कमलाके कोई महेश
पुत्र नहीं है । रमेशने सुरेशपर बटवारे की नालिश की उसमें सुशीला और
सौतेलीमा कमलाको प्रतिवादी बनाया। कमला
ऐसी सूरतमें जायदाद चार बराबर
हिस्सों में बटेगी हरएक विधवा और रमेश सुरेश
पुत्र ! हिस्सा पावेंगे। यहांपर कमलाके
कोई पुत्र नहीं है इसलिये ऐसा हुआ। नोट-माता स्वयं बटवारा नहीं करा सकती देखो-गणेशदत्त बनाम जेवाच 31 Cal. 2627 31 I. A. 10-15 के मुकद्दमेमें माना गया है कि यदि बटवारेमें माताका हिस्मा रक्षित न रखा गया हो तो इस वनहसे बटवाग नाजायज नहीं हो जायगा । माके हिस्सेका कायदा सिर्फ उसी समय लागू होगा जब कि बटवार आम तौर से हो अर्थात अगर किसी अजनबी आदर्माकी दरख्वास्तपर बटवारा हो तो उस सूरत में ऐसा नहीं होगा यानी उस बटवारेमें सिर्फ अजनवी आदमीका उतना हिस्सा अलग कर दिया जायगा जितना कि उसने खरीदा हो या नीलाम में लिया हो, देखो 20Cal.682.
__ अगर जायदाद बेटोंने मौरूसी जायदादकी सहायता बिना स्वयं कमाई हो तो उसमें माका हिस्सा नहीं होता।
बङ्गालको छोड़कर अन्यत्र सब जगह पर यह नियम है कि पुत्रहीना विधवा माताको उसके सौतेले पुत्रोंके परस्पर बटवारा होनेके समय जायदाद का एक पुत्रके बराबर हिस्सा दिया जायगा देखो-8 Cal. 537; 10 C. L. R. 401. यह मिथिला केस है। यह स्पष्ट है कि जायदायका वह हिस्सा जो विधवा माताको दिया जायगा वह उसके भरण पोषणके लिये काफ़ी होना चाहिये । यह ध्यान रहे कि जब बटवारा समाप्त हो जायगा तभीसे अपने अपने हिस्से की मिलकियत पैदा होगी न कि उसके पहलेसेशिवदयाल तिवारी बनाम जदुनाथ तिवारी 9 W. R. 61; 12 Cal. 96. माताके पास स्त्रीधन होनेसे पत्नीके विषयमें कहा हुआ नियम लागू होगा, देखो दफा ५१३.
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दफा ५१५]
स्त्रियों का अधिकार
दायभाग-दायभाग स्कूलमें जब भिन्न भिन्न माताओंके पुत्रोंके परस्पर बटवारा हो तो प्रत्येक माताको उसके एक पुत्रके हिस्सेके बराबर हिस्सा मिलेगा: 16 Cal. 758. में माना गया है कि पुत्र रहित सौतेली मांको सौतेले पुत्रोंके साथ जायदादमें कोई हिस्सा नहीं मिलेगा। पति वसीयतनामेके द्वारा या ज़बानी या दूसरे आदमियोंसे कहकर ऐसी व्यवस्था कर सकता है कि बटवारेके समय उसकी स्त्रीको कोई हिस्सा न मिले क्योंकि पतिको जायदाद पर पूर्ण अधिकार प्राप्त रहता है।
परिवारपर विधवाके परवरिशकी पाबन्दी-यदि पिताकी मृत्युके पश्चात् पुत्र पारिवारिक जायदादका बटवारा करे, तो उन्हें माताकी परवरिशके लिये और परिवारकी अन्य किसी विधवाकी परवरिशके लिये अवश्य प्रबन्ध करना पड़ेगा। माता और अन्य विधवाओंकी परवरिशकी जिम्मेदारी समस्त परिपारपर होगी, पुत्र या सौतेले पुत्रोंके बटवारेमें कोई अन्तर न होगा, यानी हर सूरतमें विधवाओंकी परवरिशका प्रबन्ध किया जायगा-यान्द्र वीरना बनाम यान्द्र सीतम्मा A. 1. R. 1927 Mad. 83. . सौतेली माताका हिस्सा-मिताक्षराकानूनके आधीन पुत्रों और सौतेली मा के बटवारेमें, सौतेली मांको एक पुत्रके समान हिस्सा पानेका अधिकार है। व्याखाये इस बातमें एक मत है कि याज्ञवल्क्य द्वारा प्रयोग किये हुये शब्द माताके अन्दर, जो कि पिताकी मृत्युके पश्चात् पुत्रों के बटवारेके सम्बन्धमें वर्णित है, सौतेली मा ( Step Mother ) भी आ जाती है-तगे इन्द्र सिंह बनाम हरनामसिंह 7 Lah. L. J. 424; 6 Lah. 457; 26 Punj. L. R. 680; 90 I. C. 1035; A. I. R. 1925 Lah. 568. .
हिन्दूलॉ के साधारण नियमोंके अनुसार, दो भाइयोंके बटवारेमें, जो भिन्न माताओंके पुत्र हों, सौतेली माता भी यदि वह पुत्र बिहीन हो, उनके बराबर हिस्सा पाती है-दमनसिंह बनाम सुबरनसाई 22 N. L. R 28; 94 I. C. 791; A. I. R. 1926 Nag. 291.
मध्य प्रांतमें मां का हिस्सा-मध्य प्रदेशमें पिता और पुत्रके मध्य बटवारेमें पिताकी स्त्रीको भी पुत्रके बराबर हिस्सा मिलता है किन्तु स्त्रीधनके बराबर यदि उसको अपने पति या ससुरसे कुछ प्राप्त हुआ है, उसके हिस्से में कमी करदी जाती है-राधेकिशनलाल बनाम हरकिशनलाल A. I. R. 1927 Nag. 55. दफा ५१५ बटवारेके समय दादीका हिस्सा
अपने पोतोंके बीचमें बटवारा होने के समय विधवा दादी एक पोतेके हिस्सेके बराबर हिस्सा पानेका अधिकार रखती है, देखो-सरोदादासी बनाम
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[ आठवां प्रकरण
भुवनमोहन 15 Cal. 20239 WR. CR. 61; 31 Cal 1065; 12 W. R. C. R. 409. परन्तु पोतों और परपोतोंके बीचमें बटवारा होनेके समय उसे एक पोते के हिस्से के बराबर हिस्सा मिलेगा- -31 Cal. 1065.
६२०
बटवारा
जिस दादीके भिन्न भिन्न पुत्रोंके पुत्र हों ऐसे पोतोंके परस्पर बटवारा होने के समय दादीको हिस्सा मिलनेका यह नियम है कि यदि वे सब पोते जायदादका बराबर हिस्सा पाते तो उस एक हिस्सेके बराबर दादीको हिस्सा मिलेगा हालां कि पोतोंको जो हिस्सा मिलेगा वह इस बातपर निर्भर है कि वह अपने अपने बापके कितने पुत्र हैं और उनकी माता भी उनसे हिस्सा बटानेके लिये जीवित हैं या नहीं ।
संयुक्त प्रांत में पोतों के परस्पर बटवारा होनेके समय दादीका हिस्सा नहीं माना गया है, देखो - राधा बनाम बच्चामन (1880) 3 All. 118 शिवनारायन बनाम जानकीप्रसाद ( 1912 ) 34 All. 505 दादी बटवारा नहीं करा सकती ।
आजी (Grand mothr ) का अधिकार - कन्हैयालाल बनाम मुब nter 83 1. C. 147; L. R. 6 All. 1; 47 All.127;A.I.R.1925All.19. दफा ५१६ बटवारे के समय परदादीका हिस्सा
हिन्दूलों में बटवाराके समय विधवा परदादीका हिस्सा नहीं माना गया, परन्तु यदि कोई माने तो वही सूरत होगी जो मा और दादी के अधिकार में होती है जैसा कि ऊपर कहा गया है ।
दफा ५१७ बटवारे के हिस्से में स्त्रीधनका मुजरा होना
विधवाको हिस्सा देते समय यह देख लिया जायगा कि उसको उसके पति या ससुरसे कोई जायदाद आदि मिली थी या नहीं । यदि मिली हो तो उतनी जायदादका मूल्य कम करके उसे हिस्सा दिया जायगा, देखो - किशोरी मोहन घोष बनाम मनीमोहन घोष 12 Cal. 165. जदुनाथदेव सरकार बनाम वजनाथदेव सरकार 12 B. L. R. 385.
देखो - याज्ञवल्क्यके श्लोक १२४ व्यव० का टीका करते हुये मिताक्षरा करा कहते हैं
पितुरूर्ध्वं पितुः प्रयाणादूर्ध्वं विभजतां मातापि स्वपुत्रांशसमं अंशं हरेत् यदि स्त्रीधनं न दत्तम् । दत्ते स्वर्धाशहारिणीति वक्ष्येत् ।
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स्त्रियोंका अधिकार
६२१
दफा ५१६-५१८ ]
पिताके मरने पर बटवारेमें माता भी एक पुत्रके हिस्सेके बराबर हिस्सा पायेगी अगर उसे कोई स्त्रीधन न दिया गया हो । दिया गया हो तो आधा हिस्सा पायेगी । हिन्दूलों में 'अपि' शब्द से यह अर्थ निकाला गया है कि माता दादी, परदादी भी इसी प्रकार हिस्सा पायेंगी । 'अर्द्धाश' शब्दका व्यापक अर्थ यह माना गया कि उसे इतना हिस्सा बटवारेमें दिया जाय जो उसका स्त्री धन मिलाकर एक पुत्रके हिस्सेके बराबर हो जाय ।
भरण पोषणका खर्च देते समय भी इस बातका ध्यान रखा जायगा । लेकिन यदि विधवाको कोई जायदाद अपने किसी पुत्रसे उत्तराधिकार में मिली हो तो वह जायदाद बटवारे के समय हिसाब में शुमार नहीं की जायगी -- 3 Cal. 149; 36 Cal. 75; 12 C. W. N.1002.
यदि कोई खास तौर से इक़रार न किया गया हो तो सधवा या विधवा को बटवारे के समय जो हिस्सा मिलेगा उसमें उसके लाभका अधिकार सीमावद्ध रहेगा दायभाग और मिताक्षराला दोनोंमें यह बात ऐसेही मानी गयी है। अर्थात् वह हिस्सा जो बटवारेमें मिलता है उस स्त्रीके स्त्रीधनके वारिस नहीं पाते और न वह स्त्री उस हिस्सेको वसीयतके द्वारा किसीको दे सकती है 11 C. W. N. 89. उस स्त्रीके मरनेपर वह हिस्सा उसके बेटों और पोतों को या उनके वारिसोंको वापिस मिल जाता है कई मामलों में इस प्रश्नपर वादविवाद हुआ है, देखो - देवी मङ्गलप्रसादसिंह बनाम महादेवप्रसाद सिंह ( P. C.) 16 C. W. N. 409; 14 Bom. L. R. 220; 37Cal. 87; 15 C. W. N. 945-952.
स्त्री वारिसोंके क़ब्ज़ेमें यदि जायदाद हो-जब किसी जायदादको स्त्री वारिसोंने अपने जीवनकाल के अधिकारसे प्राप्त किया हो, तो वे उसे अपने अपने हिस्सोंका पृथक उपभोग करनेकी गरज बांट सकती हैं, किन्तु वे भावी वारिसोंके अधिकारोंमें कोई कमी नहीं कर सकतीं - - मु० लोराण्डी बनाम मु० निहालदेवी 6 Lah. 124; 26 Punj. L. R 769; A. I. R. 1925 Lah. 403.
दफा ५१८ कौन स्त्री बटवारेमें हिस्सा नहीं पाती
कोई स्त्री जो कोपार्सनर नहीं है वह बटवारेके सयय हिस्सा नहीं पाती सिवाय मा दादी और कहींपर परदादी के ।
बहन - याज्ञवल्क्यने कहा है कि
संस्कृतास्तु संस्कार्या भ्रातृभिः पूर्वसंस्कृतैः भगिन्यश्च निजादंशाद्दत्वांशंतु तुरीयकम् । व्यव० १२४
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६२२
बटवारा
[आठवां प्रकरण
भाई अपनी बहनोंके संस्कार अपने अपने हिस्सोंसे चौथाई देकर करें मिताक्षराने टीकामें यह कहा है कि भाई, बहनोंको हिस्सा दे उसमें से संस्कार किये जायें यानी बहनों की शादी करनेके लिये यह चौथाई हिस्सा नहीं बल्कि वरासतन् मिलता है ऐसा मतलब मिताक्षराका है। मनुस्मृतिके प्रसिद्ध और आदि टीकाकार मेधातिथि कहते हैं कि बहनका हिस्सा ऐसे निश्चित किया जायगा कि यदि वह लड़का होती तो उस सूरतमें जितना हिस्सा उसे मिलता उसका चौथाई मिलना चाहिये । मगर आज कल यह बात मानी नहीं जाती। यद्यपि प्राचीन शास्त्रकारोंने बहनका चौथाई हिस्सा पानेका अधिकार माना है परन्तु आज कल बटवारेमें बहन हिस्सा नहीं पाती, देखो--8 Cal. 537; 10 C. L. R. 401. बटवारेके समय विवाह तक उसके भरण-पोषणका और विवाहके समय उसके खर्चका प्रबन्ध खानदानी जायदाद में से किया जाता है, देखो-दफा ६०२-३.
विधवाका दावा बटवाराके लिये -मुद्दई जो एक शरीक खान्दानकी जायदादके हिस्सेदारकी विधवा है अपने पतिके मरनेके बाद बटवारेकी दरख्वास्त दी। मुद्दाअलेहने एतराज़ किया कि खान्दानका बटवारा नहीं हुआ इसलिये मुद्दईका केवल भरण-पोषणके अधिकारको छोड़ और कोई अधिकार नहीं है। मुद्दईने जो बटवारानामा जो रजिस्ट्री नहीं था, पेश किया, जिससे साबित हुआ कि सन् १८८६ ई. के बाद दूसरा बटवारा होने वाला था। पहिले बटवारेके बादसे इस खान्दानके लोग अलग अलग काम-काज करने लगे थे और जायदाद अलग अलग करली थी। इसलिये तय हुआ कि जायदादका इच्छानुसार बटवारा हो चुका है, बाकी बची हुई खान्दानी जायदाद में मुद्दईका भी अधिकार है कि बटवारा करा कराले । काग़ज़ रजिस्ट्री न होने से न्याय नहीं छोड़ा जा सकता, देखो-1923 All. I. R. (B. S.) 464. दफा ५१९ बिक्रीका असर हकपर
__ जायदादपर किसीका अपने भरण-पोषणका हक नहीं होता परन्तु जाय. दादके बिकतेही उस जायदादपर वैसा हक़ पैदा हो जाता है चाहे वह जाय. दाद बटवारेसे पहिले बिके या बटवारेके समय, देखो--विलासो बनाम दीनानाथ 3 All. 88; 27 Cal. 551; 4 C. W. N. 764. दीनदयाललाल बनाम जगदीपनरायनसिंह 4 I. A. 247; 3 Cal. 1987 27Cal.77;43.W.N.254.
जब किसी कारणसे किसी का भरण पोषणका हक़ मारा गया हो तो वह बटवारेके समय भी हिस्सा पानेका हक़दार नहीं रहेगा-सेलन बनाम चिन्नामल 24 Mad. 441. परन्तु एक मुकद्दमेमें कहा गया कि व्यभिचारके दोषसे ऐसा हक्क नहीं मारा जायगा, देखो-मनीराम कोलीटा बनाम केरीकोलीटानी 7 I. A. 115; 5 Cal. 776; 6 C. L. R. 322.
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दफा ५१६-५२१]
हिस्सोंके निश्चित करने का कायदा
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दफा ५२० अधिकार कब काममें लाया जायगा
जब तक कि बटवारा या अलगाव न हो जाय तब तक कोई सधवा या विधवा अपना हिस्सा नहीं मांग सकती-सुन्दइबहू बनाम मनोहरलाल उपाध्याय 10 C. L. R. 79. तथा स्ट्रेन्ज हिन्दुला Vol. 1 P. 188-189.
अगर जायदादके मुनाफेका एक हिस्सा उसके भरणपोषणके लिये नियत किया जा चुका हो तो भी वह बटवारे या अलगाव होनेसे पहिले हिस्सा नहीं मांग सकती। बटवारा मुकम्मिल हो जानेसे पहिले वह इन्तकालका हक भी नहीं रखती। जब बटवारा होगया हो तो फौरनही वह अपने हिस्सेका दावा कर सकती है, देखो-रामजोशी बनाम लक्ष्मीबाई 1 Bom. H. O. 189.
. मा फरीक बनाई जायगी-जब बेटा बापपर दावा करे तो बापके साथ उसकी स्त्री भी फरीक मुक़द्दमा बनाई जायगी-ललजीतसिंह बनाम राजकुमार सिंह 2 B L. B. 378-383; 20 W. R. C. R. 336-340. पुत्रोंके परस्पर अगर बटवारेका दावा हो तो भी उनकीमा फरीक मुकद्दमा बनाई जायगी। बटवारेके समय मा का हिस्सा अगर अलग न किया गया हो तो उससे बटवारा नाजायज़ नहीं होता-गनेशदत्त ठाकुर बनाम जीवाचठकुराइन 31 I. A. 15; 81 Cal. 262; 8 C..W. N. 146; 6 Bom. L. R. 1.मा अपना हिस्सा अलग न किया जाना मंजूर कर सकती है वह किसी खास पुत्र या पौत्रके साथ रह सकती है।
कोपार्सनरोंके हिस्सोंके निश्चित करनेका कायदा
दफा ५२१ हिस्मोंके निश्चित करनेके सिद्धान्त
खान्दान मुश्तरकामें बटवारेके समय सब कोपार्सन के हिस्से नीचे लिखे नियमों के अनुसार निश्चित किये जाते हैं
(१) बाप और बेठोंके परस्पर बटवारा होनेके समय हर एक बेटा बापके हिस्सेके बराबर हिस्सा पाता है उदाहरणके लिये जैसे कि तीन बेटे हों और बाप हो तो जायदाद चार बराबर हिस्सोंमें बटेंगी। याज्ञवल्क्य कहते हैं
भूपितामहोपात्ता निबंघोहब्यमेवच बस्त्रस्यात्सदृशं स्वाम्यं पितुः पुत्रस्य चैवहि-व्यव०१२०
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६२४
बटवारी
.
[आठवां प्रकरण
मौरूसी जायदादमें पिता और पुत्र मिलकर बराबर हिस्सा बांट लेवें । इस बातपर ध्यान रखना चाहिये कि मिताक्षराने कहा है कि पिता अपने बापसे यदि अलग होगया हो तो फिर पोतेका हक दादाकी जायदाद में नहीं रहता।
(२) जब मुश्तरका खान्दानमें भाइयोंके परस्पर बटवारा हो तो हर एक भाई बगबर हिस्सा पावेगा । देखो याज्ञवल्क्यविभजेरन सुताः पित्रोरू रिक्थमृणं समम्-व्यव० ११७
पिताके मरनेपर भाई उसकी जायदाद और क़र्जा परस्पर बराबर हिस्से में बांट लेवे।
. (३) हर एक शाखा परस्ट्रिपस (Per Stirpes) हिस्सा पाती है, परन्तु हर एक शाखाके मेम्बरों को पर केपिटा ( Per Capita) हिस्सा मिलता है। दोनों शब्दोंका अर्थ देखो दफा ५५८ । बेटे चाहे एकही मां के हों और चाहे मिन्न मित्र माताओंके हो दोनों में यही नियम लागू होता है, देखोमंजनाथ बनाम नारायण 5 Mad. 362. और देखो याज्ञवल्क्यअनेक पितृकाणान्तु पितृतो भाग कल्पना-व्यव० १२०
मुश्तरका जायदादमें अनेक पिताओं वाले पुत्रोंका विभाग उनके पिताओं के दर्जेके अनुसार होता है यानी परस्ट्रिपस ( Per Stirpes ) पीछे परकेकेपिटा ( Per Capita ) इन दोनों शब्दोंका अर्थ देखो दफा ५५८.
(४) कोई कोपार्सनर आर पुत्र छोड़कर मर जाय तो उस कोपार्सनरके हिस्सेका अधिकारी उसका पुत्र होता है मगर शर्त यह है कि वह पुत्र कोपार्सनरीकी सीमाके अन्दर हो-कोपार्सनरी देखो दफा ३६६.
उदाहरण-(१) अ, नामका एक पुरुष अपना एक पुत्र क, और दो पोते ख १, और ख २, तथा तीन परपोते झ १, झ २, झ३, और एक नगड़पोता ठ, छोड़कर मर गया-नीचे वंशवृक्ष देखो
+
ग+
ख१
ख२
च
। झ२
।
झर
। झ३
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दफा ५२१ ]
हिस्सोंके निश्चित करनेका क़ायदा
इस वंशवृक्षमें + यह निशान जिनमें लगा है वे सब मर चुके हैं। इस मुश्तरका खान्दानमें मूल पुरुष अ, है और उसके चार पुत्रोंकी उनकी सन्तानों सहित चार भिन्न भिन्न शाखाएं हैं । अ, के मरनेके पहिले ख, ग, च, घ, छ, ज, मर चुके थे । घ की शाखाका एकमात्र जीवित वारिस ठ, मूल पुरुष अ, से चौथी पीढ़ी से बाहर है । इसलिये वह कोपार्सनरीकी सीमा के भीतर नहीं है । बटवारेके वक्त मुश्तरका जायदाद ऐसी शकलमें सिर्फ तीन शाखाओं में तकसीम होगी और वह ( Per Stirpes ) बंटेगी अर्थात् क को एक तिहाई हिस्सा मिलेगा, और दूसरे तिहाई हिस्सेको ख, के पुत्र ख १, और ख २, आपसमें बराबर बांट लेंगे यानी उन दोनोंमें से हर एक को जायदादका छठवां हिस्सा मिलेगा, और तीसरे तिहाई हिस्सेको ग, के पोते झ १, झ २, झ ३, आपस में बराबर बांट लेंगे अर्थात् उनमें से हर एकको जायदादका नवां हिस्सा मिलेगा। यानी सब हिस्सेदारोंको जायदाद में निम्न लिखित हिस्से मिलेंगे -
क ख १, ख २ झ १, हैं; झ२, है; झ३, है.
( २ ) अ, मरा और उसने चार पोते ग, घ, च, और छ को और नौ परपोते छोड़े नीचे वंशवृक्षमें दिखाया गया है + यह निशान जिनमें लगा है वे सब मर चुके हैं ।
क+
ग
अ+
ख+
६२५
छ
ग गरे
घ१ च १
च२ छ१ छ२ छ३ सब कोपार्सनर बटवारा चाहते हैं और एक दूसरेसे अलहदा हो जाना चाहते हैं । इस मुश्तरका खानदानमें दो शाखायें अ, के पुत्रोंकी हैं। इसलिये मुश्तरका जायदाद दो भागों में पहिले तकसीम करदी जायगी यानी क, और ख, की शाखा में । क, की शाखायें और ख, की शाखामें है । अब क, की शाखामें क, का पुत्र ग, और पौत्र ग१, गर, गरे, में चारों क, केई के हिस्से में बराबर बराबर हिस्सा पावेंगे अर्थात् हिस्सा हर एकको मिलेगा यानी कुल जायदाद में से हर एक है हिस्सा पायेगा । इसी तरहपर ख, की शाखा में उसके पुत्र घ, च, छ, तीनो का हिस्सा हर एक पावेंगे यानी हर एकको हिस्सा मिलेगा । घ, और घ१, दोनों मिलकर के हिस्से में से बराबर बराबर लेंगे यानी हर एकको हिस्सा मिलेगा । च, और च१, च२, ये तीनों हिस्से
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६२६
बटवारा
[आठवां प्रकरण
में से बराबर बराबर हिस्स पायेंगे यानी के हिस्सेमें से तो और कुल जायदादके हिसाबसे हिस्सा पावेंगे एवं छ, और उसके पुत्र छ१, छर, छ३, ये चारों हर एक हिस्सेमें से हिस्सा पावेंगे यानी कुल जायदादके हिसाबसे हिस्सा पावेंगे। सब हिस्सेदारोंको जायदादमें निम्न लिखित हिस्से मिलेंगेगगे। गैग;
घधेचच चे छ छ छै ४ छ (३) अ, नामका एक हिन्दू जो मदरास स्कूल आव हिन्दूलों के प्रभुत्वमें रहता था अपने पोते ग, और सात परपोते छोड़ कर मर गया, वंशवृक्ष देखो
भ+
व
+
घ+
च+
गर ग२ ग३
घर चर
चर छ? + यह निशान जिनमें लगा है वे सब मर चुके हैं। अब देखिये ग१, मर, च१, च२, और छ१ ने बटवारेकी नालिश ग, ग३, घ१, पर की। यहांपर यह निश्चित करना है कि पक्षकारोंका वास्तविक हिस्सा जायदादमें क्या है ? यह साफ़ है कि इस मुश्तरका खान्दानकी दो शाखायें हैं। इसलिये जायदाद दो हिस्सोंमें बांटी जायगी । क, की शाखाको ३ और ख, की शाखाको हिस्सा मिलेगा। क, की शाखामें ग, और उसके तीन पुत्र ग१, गरे, ग३, हर एक आधी जायदादका हिस्सा पावेंगे अर्थात् कुल जायदादमें से है। इसी तरह पर ख, की शाखामें उसके तीन पुत्र घ, च, छ, होनेके कारण पहिले आधी जायदादमें तीन भाग किये जायेंगे। पीछे हर एक भागमें से उनके पुत्र अपने बापके हिस्से में से बराबर बराबर लेंगे अर्थात् घ, च, छ, हर एक हिस्से की जायदादका हिस्सा पावेगे यानी कुल जायदादका हिस्सा घ१ पावेगा
च? और चर, हर एक का आधा आधा हिस्सा पावेंगे, यानी हर एक ३। और छ१, पायेगा.
ऊपरके पांचों वादियोंने (ग१, ग२; च१; च२, छ१.) अपना अपना हिस्सा लेकर मुश्तरका खानदानको छोड़ दिया। पहिलेकी तरहपर ग, ग३, और घ१, मुश्तरका रहने लगे इनके हिस्से निम्नलिखित थे-गग,,.
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दफा ५२२ ]
हिस्सों के निश्चित करनेका क़ायदा
इसके पश्चात् ग, मरा। तब उसके पुत्र गरे, ने घ१, पर अपने बापका हिस्सा मिलनेकी नालिशकी जो हिस्सा उसके बापका मुश्तरका खानदानी जायदाद में था । ग३, का हिस्सा उसके बापके मरनेके समय जायदादमें है था और बापका था । बापके मरनेपर उसका हिस्सा है उसके पुत्र ग३ को पहुंचा इसलिये अब गरे अपने हिस्से का और अपने बापके हिस्से है का दोनों का हक़दार होगया यानी उसका हिस्सा अब होगया और घ१, का पहिले का हिस्सा जैसा था वैसा बना रहा यानी । । देखो - मंजनाथ बनाम नारायण 5 Mad. 362.
६२७
दफा ५२२ क्या बाप कमती ज्यादा बटवारा कर सकता है ?
मिताक्षराके अनुसार बापको अधिकार है कि अपनी पैदा की हुई जायदाद जिसे चाहे दे दे कोई दूसरा उजुर नहीं कर सकता, देखो - दफा ४१८ से ४२४.
इस विषय में मि० मेन अपने हिन्दूलॉ 7 ed. P. 665 में कहते हैं कि "बापके पास जो जायदाद चाहे वह उसकी खुदकी कमाई हो और चाहे ऐसी कोई दूसरी जायदाद हो जिसमें पुत्रोंका हक़ उनकी पैदाइशसे नहीं पैदा होता। दोनों क़िस्मकी जायदाद मिताक्षरा और बङ्गाल स्कूलके अनुसार बाप को अधिकार है कि जिसे चाहे दे दे । यही बात बटवारेके मामलेमें लागू होगी यानी उसे ऐसा अधिकार है कि जिस पुत्रको चाहे कम और जिसको चाहे ज्यादा हिस्सा दे आपसमें एक दूसरेके इक़रार जायज़ माने जावेंगे जिनमें कमती ज्यादा हिस्सा दिया गया हो, अगर बाप ऐसा करना नहीं चाहे तो वह इनामके तौरपर भी किसी पुत्रको या दूसरेको जायदाद दे सकता है।" इस तरहका कम और ज्यादा बटवारा कुछ खास सूरतोंके सिवाय बाक़ी सब जगह पर बर्जित किया है, देखो - कोलब्रुक डायजिस्ट Vol. II P. 540-541. मेकनाटन हिन्दूलॉ Vol. II P. 147. स्मृति चन्द्रिका २ - १.
मिताक्षराके अनुसार मौरूसी जायदादका बटवारा विना मरज़ी लड़कों के जब पिता करे तो हिन्दूलॉ के अनुसार पिता ऐसा कर सकता है और वह बटवारा पुत्रों को पाबंद करेगा देखो -2 Mad. 317. मगर दूसरे किसी कोपा
नरको बिना मरज़ी उसके वह बटवारेके लिये मजबूर नहीं कर सकतादेखो वेस्ट एण्ड बुहलर हिन्दूलॉ P. 666. अगर बापने अपनी इच्छासे बटवारेमें बेटोंको कुछ कम ज्यादा हिस्सा दिया हो तो ऐसा समझा जा सकता है कि वह घरेलू प्रबन्ध है और किसी हद तक लड़के उसके पाबन्द हो सकते हैं, देखो - बीजराज बनाम शिवदीन 35 All 337. इस विषय में नारद कहते हैं कि
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६२८
बटवारा
[ आठव प्रकरण
व्याधितः कुपितचैव विषयासक्त मानसः अन्यथा शास्त्रकारीच न विभागो पिता प्रभुः । नारद
रोग ग्रस्त होने से, या क्रोधसे या किसी मतलब या दुर्व्यसनसे या शास्त्रको न जाननेवाला बाप मौरूसी जायदाद बांटनेका अधिकारी नहीं है । प्रायः यह बात मानी जाती है ।
बड़े भाईको ज्यादा हिस्सा देना- जबकि एक सम्मिलित हिन्दू कुटुम्ब के बटवारे में पाच ( सालिस) ने बड़े भाईको और भाइयोंकी अपेक्षा कुछ हिस्सा अधिक इसलिये दे दिया कि उसने बहुत समय तक अपने भाइयोंकी देख भाल और परवरिशकी और उन्हें पढ़ा लिखाकर अच्छे अच्छे ओहदोंके योग्य बना दिया, और जब यह कहा गया कि यह बटवारा नाजायज़ है और पञ्चका फैसला खिलाफ क़ानून है । तय हुआ कि पञ्चका फैसला क़ानूनके खिलाफ नहीं है क्योंकि ये 'ज्येष्ठ भाग' के तौरपर नहीं दिया गया था, देखो78 I. C. 238; 1925 All. I. R. 301 (Pat )
यदि संयुक्त परिवार के सदस्य इस बातपर रजामन्द हों कि अमुक जायदादका अमुक हिस्सा वे आपसमें ले लेंगे, तो यह आवश्यक नहीं है कि उनकी बराबर नाप जोख ही की जाय । यदि बटवारा स्वयं स्पष्ट है तो बादके इस प्रबन्धका कोई महत्व नहीं है । हां यदि इस प्रकारके प्रबन्धके प्रतिकूल कोई शहादत हो, तो उससे यह साबित होगा कि इस प्रकारका कोई प्रबन्ध यानी बटवारा नहीं हुआ - सदाशिव पिल्ले बनाम शानमुगम पिल्ले A. I. R. 1927 Mad. 126.
पिता और पुत्रके मध्य बटवार --पिता और पुत्र के मध्य बटवारेमें पुत्र के पुत्रको यदि वह नाबालिग हो और अपने पिता के साथही रहता हो, तो अलग हिस्सा न दिया जायगा -राधेकिशनलाल बनाम हरकिशनलाल A. I R. 1927 Nag. 55.
दफा ५२३ बटवारे के पहिले अपना हिस्सा रहन करना
मुश्तरका जायदादके किसी खास हिस्सेको कोई कोपार्सनर दूसरे को पार्सरके पास रेहन करदे और पीछे बटवारा होनेके समय वह खास हिस्सा ( जो रेहन किया गया था ) दूसरे कोपार्सनर के हिस्सेमें चला जाय तो वह आदमी जिसके पास वह खास हिस्सा रेहन रखा गया था, केवल उस जायदादपर दावा कर सकता है जो रेहन करने वाले कोपार्सनरके हिस्सेमें आई हो । मगर शर्त यह है बटवारा अनुचित रीतिसे न किया गया हो और कोई • जाल फरेब भी न हो, देखो - मथिया बनाम अष्पाला (1910) 34 Mad.1752
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दफा ५२३-५२५]
हिस्सोंके निश्चित करनेका क़ायदा
६२४
बैजनाथ बनाम रामूदीन (1873) 1 I. A. 106 हेमचन्द्र बनाम थाकोमनी (1893) 20 Cal. 533; साहेबजादा बनाम हिल्स (1907) 35 Cal. 388. अमोलक बनाम चन्दन (1902) 24 All. 483. लक्ष्मण बनाम गोपाल 23 Bom. 385.
इसी तरहसे जब किसी कोपार्सनरने जायदादका कोई खास हिस्सा बेंच दिया हो या रेहन कर दिया हो तो उचित यही है कि बटवारेके समय जहां तक सम्भव हो सके जायदादका वह खास हिस्सा खरीदार या उस आदमी को कि जिसके पास वह हिस्सा रेहन रखा गया था दिया जाय, ऐसा करते समय यह ध्यान रखना आवश्यक होगा कि रेहन रखने वाले या बेचनेवाले कोपार्सनरने जितना रुपया पाया था उसीके अनुसार और उस कोपार्सनरके हिस्सेकी मालियतके अन्दर जायदाद दी जायगी, देखो-ऊदाराम बनाम रानू (1875) 11 Bom. H. C. 76. पाण्डुरंग बनाम भास्कर (1874) 11 Bom. H. C. 72. ऐय्यागारी बनाम ऐय्यागारी (1902) 25 Mad 690-718.
____ बटवारा-कोई हिस्सेदार उन खौको जो मुश्तरका खान्दान द्वारा होने चाहिये, अपनी निजी जायदाद से करता रहा बटवारेके पहिलेही उसका मावज़ा दूसरे हिस्सेदारों द्वारा अनुपातसे किया जाना चाहिये-भोलीबाई बनाम द्वारिकादास 84 I. C. 168; A. I. R. 1926 Lah. 32. दफा ५२४ कुछ कोपार्सनर बटवारा करें और कुछ शरीक रहें
यदि जायदादके कुछ भागका बटवारा किया जाय और कुछ भागका न किया जाय; या कुछ कोपार्टनर कुल जायदादका बटवारा करलें और कुछ शामिल शरीक बने रहें, इन दोनों सूरतोंमें पीछे उस बाकी जायदादका बटवारा करते समय या बाकी रहे हुये मुश्तरका कोपार्सनरोंके परस्पर बटवारा होने के समय उसी हिसाबसे बटवारा होगा जैसा कि पूरी जायदादका एक साथही किया जाता हो। यह अवश्य है कि पीछेसे होने वाले इस बटवारेके समय तक जो कोपार्सनर मर गये हों या जो नये पैदा हुये हों उनका ख्याल रखते हुये बटवारा किया जायगा 5 Mad. 362.
कठियावाड़ चिमड़ीके 'झालागिरासियों' के विषयमें देखो-पृथ्वीसिंह जी बनाम उम्मेदसिंहजी (1904) 6 Bom. L. R. 98.
'ढंदूका' ताल्लूकाके 'खरद' के चुदासामागिरासियोंके विषयमें देखोमालूभाई बनाम सूरसंगजी ( 1905 ) 7 Bom. L. R. 8212 दफा ५२५ भिन्न भिन्न माताओंके पुत्र
यदि कोई खानदानी रसम विरुद्ध न हो तो भिन्न भिन्न माताओंके पुत्र बराबर हिस्सा पाते हैं, देखो-सुब्रह्मण्य पण्डा चोका टालावार बनाम शिवसुब्रह्मण्य पिल्ले 17 Mad, 316-327.
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६३०
बटवारा
[आठवां प्रकरण
Nornn Annnnnor
जब बेटियोंके पुत्र या गोत्रज सपिण्ड ( परन्तु उनकी सन्तान नहीं) यारिस होते हैं तो बटवारेके समय परकेपिटा (Per Capita दफा ५५८) हिस्सा पाते हैं 17 Bom. 303.
हर एक बालिरा कोपासनर इस बातकी व्यवस्था कर सकता है कि उसके मरनेके बाद उसका हिस्सा उसकी सन्तानमें कैसे बांटा जाय और किस किसको मिले । मगर शर्त यह है कि उसके ऐसा करनेसे किसीकी वरासतमें फरक न पड़े और किसी ऐसे आदमीको हिस्सा न दिया जाय जो उस समय पैदा न हुआ हो । यह बात पहले थी मगर अब नये कानूनके असर ऐसा हो. सकता है। देखो वसीयतका प्रकरण ।
(४) बटवारेकी जायदाद
दफा ५२६ किस चीज़का बटवारा हो सकता है और किसका नहीं
(१) सिर्फ मनकूला और गैर मनकूला कोपार्सनरी जायदादका ही बटवारा हो सकता है कोपार्सनर इस बातपर जोर दे सकते हैं कि खानदान की सब जायदाद जो बांटी जा सकती हो बांटी जाय ।
(२) पट्टेकी जायदाद--पट्टेपर मिली हुई जायदाद चाहे वह साधा. रण हो या सरकारसे पट्टेपर मिली हो बांटी जा सकती है--दत्तात्रेय विठ्ठल बनाम महादाजी 16 Bom. 528.
(३) असामियोंके कब्जेकी ज़मीन--नाप जोखकर या लगान बांटकर उस भूमिका भी बटवारा हो सकता है जो असामियोंके कब्ज़ेमें हो, देखोउष्पाला राघव चारलू बनाम उष्पाला रामानुज चारलू 26 Mad. 78; 11 C. W. N. 397.
(४) खानदानके रहनेका मकान-कोपार्सनर या उसके हिस्सेका खरीदार इस बातपर ज़ोर दे सकता है कि खानदानके रहनेका मकान भी बांटा जाय लेकिन खरीदार जो कोपार्सनर न हो तो उसे अपना हिस्सा दूसरे कोपार्सनरके हाथ बेंच देना होगा, देखो--Act No. 4 of 1893 S. 4., मकानके साथ यदि कोई अहाता लगा हो तो चाहे उसमें ग्राम सड़क भीगयी हो तो भी वह अहाता बांटा जा सकता है, देखो--रामप्रसाद नरायन तिवारी पनाम कोर्ट आफ वार्ड्स 21 W. R.C. R. 15.
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दफा ५२६ ]
बटवारेकी जायदाद
अहसानउल्ला बनाम काली किंकर कुर (1884 ) 10 Cal. 675. वाले मुकद्दमे में अदालत ने कहा है कि "बटवारेका सिद्धान्त यही है कि जो जायदाद उसके आंतरिक मूल्यको नष्ट किये बिना बांटी जा सकती हो वह अवश्य बांटी जाय किन्तु यदि बांटनेसे वह आंतरिक मूल्य नष्ट होता हो तब उसके हिस्सेके बराबर कोपार्सनरको रुपया दिया जायगा।"
(५) किस जायदादका बटवारा नहीं होता-जिस जायदादमें प्राचीन और न बदलनेवाले रवाजके अनुसार यह नियम हो कि समग्र जायदादपकही बारिसको मिले और वही उसको भोगे और वह बांटी न जाय तो वह बांटी न जा सकेगी-11 I. A. 1; 13 B. L. R. 165; 14 M. I. A. 570; 24 Mad. 562; 4 Bom. 494; 7 [L. A. 162. जिंस जायदादमें ऐसा रवाज हो वह कोपार्सनरी जायदाद नहीं है और इसलिये उसका बटवारा नहीं हो सकता _ अगर किसीने अहदनामा किया हो कि वह अमुक जायदादका बटवारा न करेंगे तो यह काम व्यर्थ है क्योंकि उसके पाबन्द दूसरे लोग या उनकी सन्तान भी नहीं होगी।
अगर कोई जायदाद सरकारसे इस शर्तके साथ मिली हो कि उसका बटवारा न हो सकेगा तो वह बांटी नहीं जा सकती। ऐसी जायदादका विचार सरकारी शापरसे और मामलेकी सब बातोंपरसे किया जायगा, देखो-- शंभुशिव ऐय्यर हिन्दूलॉ P. 461.
___ एक सदस्य द्वारा उपार्जित जायदाद दूस्टके लिये अलाहिदा होगी। दूसरेका अधिकार--जमनादास काशीदास बनाम दुष्यन्तप्रसाद A.. I. R. 1925 Oudh. b6.
बटवारा--केवल थोडीसी खानदानी ज़मीनके बटवारेकी नालिश नहीं हो सकती, यदि कोई खास परिस्थिति न हो-85 I.C. 503; A. I. R. 1925 Mad 333; 47 M. L.J. 908.
जो जायदाद विदेशी न्यायाधिकारमें हो--तत्सम्बन्धी नालिश-पारिवारिक जायदाद जो विदेशी न्यायाधिकारमें हों, हिस्सेको बराबर करनेके लिये शुमार नहीं की जा सकती--श्रीनिवास बनाम सुबरायप्पा 4 Mys.L.J.681.
यदि किसी मुश्तरका जायदादमें कई प्रकारकी जायदादें हों और उस मुश्तरका खानदानमें कई सदस्य हों, जिनके मध्य बटवारा होना हो, तो यह किसी सदस्यके लिये उचित न होगा कि किसी जायदादको किसी अन्य व्यक्ति के हकमें मुन्तकिल करदे और इस बातका आग्रह करे, कि वह खास जायदाद उसके खरीदारको मिले। चाहे यह खास बिक्री हो या बिक्रीका मुआहिदा हो किन्तु यह प्रश्न कि आया वह जायदाद खरीदारको मिलना चाहिये या नहीं, उस मामलेकी परिस्थिति पर निर्भर है-जम्मालमदक वेंकट रामप्पा बनाम राघवलू 21 L. W. 62; 45 I C. 1054; A. I. R. 1925 Mad. 492.
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६३२
बटवारा
[आठवां प्रकरण
दफा ५२७ जो जायदाद स्वाभाविक तरहपर नहीं बट सकती हो
इस विषयमें मनु कहते हैं किबस्त्रपत्रमलङ्कारं कृतानमुदकं स्त्रियः योगक्षेमं प्रचारंच न विभाज्यं प्रचक्षते । मनु ६-२१६
मिताक्षराने मनुके उपरोक्त क्लोक को उद्धृत करके कहा है कि कपड़े, बाहन जेबर, पका हुना अन्न, उदक ( कुंबा, बावड़ी, तालाब आदि) दासी. योगक्षेम और प्रचार ये विभाग करने योग बुद्धि मानोंने नहीं बताया । इस बचनकी पाबन्दी कहां तक बटवारेमें की जाती है ? नीचे देखो--
वस्त्र-कपड़ोंके बारेमें मिताक्षराने कहा है कि इस्तेमाली कपड़े जिस के जो हों वह उसके पास रहे और जो दूसरे कपड़े हैं वह बांट लिये जाय । मगर शर्त यह है कि जहांपर कपड़े टुकड़े किये बिना नहीं बट सकते हों, और टुकड़े करनेसे वह खराब या बेकार हो जा सकते हों तो ऐसा नहीं किया जायगा । वह किसी एक कोपार्सनरको देकर उसका बदला दूसरी चीज़में डाल दिया जायगा या नक़द कीमत उससे दिला दी जायगी।
पत्र-सवारी जैसे घोड़ा, पालकी, गाड़ी, रथ, मोटर आदि। ये जिसके इस्तेमालमें रहते हों उसीके पास रहने दिये जायें । मगर उसकी क़ीमतका स्याल करके सब हिस्सेदारोंमें उसका बदला या तो किसी दूसरी चीज़ या रुपयामें दिला दिया जाय । अगर कोई सवारी तिजारतके लिये खास है तो बह सामान्य वस्तुकी तरह समझी जायगी और उसकी कीमत सबको बांट दी जायगी।
अलङ्कार--जेवर, जिसके अङ्गपर हो वह उसी के पास रहने दिया जाय । यहांपर जेवरसे मतलब है जो साधारणत. इस्तेमाल किया जाता हो । अगर कोई ऐसा ज़ेवर है जो कभी कभी किसी खास समयमें काममें लाया जाता है वह सबको बांटा जायगा, यह बात मानली गयी है कि घरमें जो लोग होते हैं घह करीब करीब बराबर कीमतका गहना पहने रहते हैं।
कृतान्न--पका हुआ अन्न जैसे लड्डू, मिठाई, आदि । इनका बटवारा असभ्य है। माना गया है कि यह चीज़े रीज़ाना के खाने पीने के खर्चके लिये .बनाई जाती हैं इसलिये नहीं बांटना चाहिये, इनकी कीमत भी ज्यादा नहीं होती. भोज्य पदार्थका बटवारा सभ्य समाज में तुच्छ समझा जाता है। 'कृतान्न' शब्द से चावल, मूंग, तिल, यब, गेहूं आदिका भी बोध हो सकता है। यदि यह ज्यादाहों या इसका व्यापारही किया जाताहो तो बांटे जायेंगे।
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दफा ५२७ ]
बटवारेकी जायदाद
- उदक--कुंवा, बावड़ी, तालाब आदि, यदि हिस्सेदारोंकी संख्याके अनुसार उनके हिस्सोंमें बराबर बांटे न जा सकते हों तो उनकी बिक्री करके कीमत बांटना उचित नहीं है । ऐसा प्रबन्ध कर देना चाहिये कि उन्हें सब हिस्सेदार किसी क्रमसे भोग सकें।
स्त्री--दासी, बापके पासकी रखेली औरत, आज कल यह रवाज नहीं रहा । मदरास प्रांतमें देवदासियां मन्दिरोंमें होती हैं। मगर उनका बटवारा नहीं हो सकता है।
_ योगक्षेम--'योगक्षेम' शब्द दो शब्दोंके योगसे बना है 'योग' और 'क्षेम' । मिताक्षराने इन दोनों शब्दोंका अर्थ अलग अलग किया है, देखोयोग-योगशब्देनालब्धलाभकारणं श्रौतस्माताग्निसाध्य
मिष्टं कर्म लक्ष्यतेक्षेम-क्षेमशब्देन लब्धपरिरक्षणहेतुभूतं बहिर्वेदिदानतडागा
रामनिर्माणादि पूर्त कर्म लक्ष्यते-मिताक्षरा ___ 'योग' शब्दका मतलब यह है कि अलभ्य वस्तुके लाभका जो कारण श्रौत, स्मार्त अग्निमें जो होनेवाला यज्ञरूपकर्म। श्रीर 'क्षम' शब्दका अर्थ यह है कि प्राप्त हुएकी रक्षाका जो कारण जैसे वेदीके बाहरका दान, तालाब, या बाग
आदि लगवाने के कामका पूरा करना। अर्थात् जो धन या जायदाद यज्ञ आदि व तालाब, कुंवा, बारा श्रादिके निर्माण करनेके मतलबले या मज़हबी कामके किसी मतलबसे (जैसे देवमन्दिर आदि) अलग करदी गयी हो या सिर्फ नाम ज़द करदी गयी हो या संकल्प करदी गयी हो उस धन या जायदादके हिस्से होना नहीं चाहिये 'तथा हिस्सेदारों में वह धन या जायदाद तकसीम नहीं होगी। माना गया है कि ऐसे किसी कामके लिये जो सम्पत्ति निकाल दी जाती है वह वास्तवमें पब्लिक की होजाती है और उससे सर्व साधारणको लाभ पहुंच सकता है चाहे वह संपत्ति किसी एकही आदमीके पास रहे ।मगर वह जैरातकी सम्पत्ति मानी जायगी।
प्रचार-मकान, खेत, बाग, या मन्दिरका रास्ता, या रास्ता-मिता. क्षराने इनको विभागके अयोग बताया है मगर अब उसका मतलब यह लगाया जाता है कि अगर किसी तरहसे सम्भव हो सके तो विभाग कर दिया जाय
और अगर असम्भव हो तो ऐसा प्रबन्धकर दिया जाय कि जिसमें सब हिस्सेदारोंके लाभमें नुकसान न पड़ता हो या किसी एकको देकर उसकी कीमत सबको दिला दी जाय । सबका सारांश हिन्दूलॉ में यह माना गया है कि
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६३४
बटवारा
[आठवां प्रकरण
पशु, या घरका कोई साज सामान और इसी प्रकारकी अन्य जायदाद जो स्वभावतः टुकड़े करके नहीं बांटी जा सकती, किसी एक कोपार्सनर को उसके हिस्से में दी जा सकती है और उसके बराबर दसरे प्रकारकी कोई जायदाद उसके हिस्से में कम करके दूसरे कोपार्सनरों में बांटी जा सकती है या नकद रुपया ले, देकर यह हिसाब बराबर किया जा सकता है। परन्तु यदि ऐसी कोई जायदाद इस तरह की हो कि एकही कोपार्सनर को उसे देदेना उचित न हो जैसे सड़क, कुंवा. पुल, तालाब आदिः तब ऐसी सूरतमें यह ज़रूरी होगा कि उतनी जायदाद मुश्तरका बनी रहे, देखो-गोबिन्द अन्नाजी बोधनी बनाम त्र्यंबक गोबिन्द धानेश्वर (1910 ) 12 Bom. L. R. 363,
कई सूरतोंमें यह ज़रूरी होगा कि जायदाद बेंचकर उसका मूल्य बांटा आय, देखो-Act. No 4 of 1893 S. 2.
देवस्थान-देवस्थान आदि पूजा के स्थान, और ऐसी जायदाद जो किसी देवमूर्ति या अन्य प्रकारके धर्म कार्यके लिये अलहदा कर दी गयी हो टुकड़े करके बांटी नहीं जा सकती, देखो--आनन्दमयी चौधरानी बनाम बैकुण्ठनाथराय 8 W.R.C.R.193; गौतम इन्सूटीटिव्शन 28--46 सेक्रेड बुक्स
आफ दी ईस्ट Vol. II P. 306; राजेन्द्रदत्त बनाम श्यामचन्द्र मित्र 6 Cal. 106; और देखो-भट्टाचार्यका लॉ श्राफ ज्वाइन्ट हिन्दू फेमली P.450-451.
पारवारिक मूर्तिका बटवारा नहीं हो सकता--अधिकारियों द्वारा बारी बारीसे प्रार्थना करना होगा, इसका उपाय यही है । प्रमथनाथ मलिक बनाम प्रद्युम्न कुमार मलिक 3 Put. L. R. 315; A. I. R. 1925 P. C. 139.
खान्दानी मूर्ति--मूर्ति पूजनके अधिकारका बटवारा नहीं हो सकता। इस प्रकारके अधिकारके हिस्सेदारोंको बारी बारीसे पूजन करने का अधिकार है। प्रमथनाथ बनाम प्रद्युम्न कुमार 52 1. A. 245; 23 A. L. J. 537; 41 C. L.J.551; 87 I.C.3053 22 L. W. 4925 ( 1925 ) M. W. N. 431:20. W. N. 557:27 B. L. R. 1064; 62 Cal. 809:30C. W. N. 25; A. I. R. 1925 P. C. 139; 49 M. L.J. 30 ( P. C.)
जब किसी जायदादपर किसी धर्म खातेके खर्चका बोझ पड़ा हो वह जायदाद बांटी जा सकती है परन्तु उस खर्चका बोझ जायदादके हिस्सोंके अनुसार बना रहेगा 8M. I. A.66.
जो जायदाद किसी खास काममें आया करती हो जैसे पूजाका दालान, यज्ञ की वेदी, कुल देवताकी जगह, बटवारेसे बंचित नहीं रह सकती परन्तु यदि अदालत सव हालतोंका विचार करके यह ख्याल करे कि उस जायदादको किसी एक हिस्लेदारोंको देदेना उचित होगा तो वह उसे देदेगी और उसका मूल्य उस हिस्सेदारसे लेलेगी जो उसके हिस्सेसे ज्यादा है 3 Cal. 514; देवस्थान के बारेमें इस किताबका प्रकरण १७ देखिये।
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दफा ५२८]
अलहदगी और बटवारा
ध्यान रखने योग्य बातें
वह जायदाद बांटी जा सकती है जो कोपार्सनरी प्रापरटी होती है, देखो दफा ४१३ से ४१७. जो जायदाद निजकी किसी व्यक्तिकी होती है हरगिज़ नहीं बांटी जा सकेगी। जब खानदान में या खानदान के किसी एक मेम्बरके दिलमें बटवाराका प्रश्न पैदा हो तो पहले यह निश्चित करना ज़रूरी है कि कौन जायदाद बटवारेके काबिल है। सबसे पहले यह सिद्धांत माना जायगा कि जितने कर्जे खानदानके देने हैं या जिन कोंका बोझा खानदानी जायदादपर है जिसमें बापके कर्जे शामिल हैं वे सब अदा व बेबाक़ कर दिये जायंगे, देखो-लक्ष्मण बनाम रामचन्द्र 1 Bom. 561; 3 Mad. H. C. 1773 181. दूसरा सिद्धांत यह होना चाहिये कि खान्दानी स्त्रियों के और किसी अयोग्यताके कारण जो वारिस बंचित किये गये हैं उनके भरण पोषण और लड़कियोंकी शादीके खर्चेका प्रबन्ध बटवारेसे पहले जायदादमें से हो जाना चाहिये, देखो ( 1924 ) 5 Lah 375; 84 I. C. 168; तीसरा सिद्धांत यह माना जायगा कि जब बटवारा भाइयोंके बीच हो तो विधवा माताकी अन्त्येष्ठी क्रियाके खर्च उस जायदादसे अलहदा होजाना चाहिये, देखो--32 Mad. 191, 200.
(५) अलहदगी और बटवारा
दफा ५२८ अलहदगी कैसे होती है
मिताक्षराके अनुसार बाप अपने पुत्रोंकी मरजीसे या उनकी मरजीके विरुद्ध जायदादका बटवारा कर सकता है-कण्ठासामी बनाम डोराई सामी ऐय्यर 2 Mad. 317; मिताक्षराके अनुसार बापको यद्यपि स्वयं बटवारा कर देनेका अधिकार है परन्तु इसके सिवाय भी मुश्तरका खान्दाद के कोपार्सनर मुश्तरका खान्दानमें बने रह कर भी अलग अलग हो सकते हैं। ऐसा करनेके बाद वे या तो 'टेनेन्टम् इन कामन् ' ( Tenants in Common ) दफा ५५८ देखो) हो जाते हैं या अलग अलग हिस्सोंके मालिककी हैसियतसे रहते हैं या उनकी स्थितिमें कोई और ऐसा परिर्वतन हो सकता है जो मुश्तरका खान्दानके मेम्बरोंकी हैसियत के विरुद्ध न हो । ऐसी अलहदगी अदालत की आशा या महकमें मालकी आज्ञा से भी हो सकती है। .
सब कोपार्सनर शरीक होंगे-आपसके समझौते से जो अलगाव या बटवारा हो उसमें सब कोपार्सनर शरीक रहेंगे । नाबालिग कोपार्सनरों की तरफसे उनके वली शरीक रहेंगे।
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बटवारा
[आठवां प्रकरण
नापजोख कर बटवारेकी ज़रूरत नहीं है- चाहे किसी जायदादमें नाप जोख कर बटवारा न हुआ हो तो भी उसके कोपार्सनर अलग हो सकते हैं, देखो--पार्वती बनाम नौनिहालसिंह ( 1909) 36 I.A. 71; 31 All. 412; 13 C. W. N. 983; 11 Bom. L. R. 878; 30 I.A. 139; 30 Cal. 738; 7C. W. N. 578; 5 Bom. L. R. 461; 11 M.I. A. 75; 8 W. R. P. C. 1; 13M. I. A. 497; 6 Bom. L. R. 2023 14 W. R. P. C. 33; 1 I A. 55. 13 B. L. R. 235:31W. R C. R. 214; 6 W. R.C. R. 139; 7 W. R. C. R. 488; 8 W. R.C. R.11651 N. W. P.75%
83 N. W. P. 108; 25 W. R. C. R. 97.
जेस जायदादका बटवारा नहीं हो सकता उसके सम्बन्धमें कोपार्सनर भी अलहदा नहीं हो सकते । मुकम्मिल अलगाव हो जानेपर मिताक्षराला के अनुसार सरवाइवरशिप (देखो दफा ५५८) का हक चला जाता है और सब कोपार्सनर उस जायदाद के ज्वाइन्ट टेनेन्टस (Joint tenants दफा ५५८) नहीं रहते, बक्लि टेनेन्टस इन कामन् ( Tenants in Common देखो दफा ५५८ ) हो जाते हैं।
ऐसी कोई सूरत हो सकती है कि खान्दानके सब लोग अलगहो जायें, मगर साथही आपसमें समझौता करके सुभीतेके लिये पूरी जायदादको या उसके कुछ हिस्सेको, सब कोपार्सनरोंके हिस्से निश्चित करके मुश्तरका बनी रहने दें, देखो-पटनीमल बनाम मनोहरलाल b Bom. Sel. R. 340; ऐसी सूरतमें भी सब कोपार्सनर टेनेन्टस इन कामन् (Tenants in Common दफा ५५८) होंगे और मुश्तरका खान्दानके साथ जो बाते लगी होती हैं टूट जावेगी, देखो-3 Mad. H. C. 289; 13 M. I. A. 113; 12 W. R. P. C. 40; 26 I. A. 167. अगर कोई जायज़ इकरारनामा नहो तो वह जायदाद पीछसे नाप जोखकर बांटी जा सकती है और बटापाने के लिये कोपार्सनर ज़ोर दे सकते हैं--6 Bom. L. R. 35; 25 Mad. 585.
शहादत--मुश्तरका खान्दानकी जायदाद रहनेके लिये यह आवश्यक नहीं है कि खान्दानके सब आदमी एक साथही रहें। वे अलाहिदा रह सकते श्रीर अलाहिदा भोजन कर सकते हैं, फिरभी उनकी जायदाद मुश्तरका रह सकती है। प्रत्येक हिन्दू खान्दानके लिये यह मान लियागया है कि वह भोजन पूजन और रियासतमें मुश्तरका होता है और उसकी जायदाद मुश्तरका और गैर बटी हुई मानी जाती है। किसी दस्तावेज़में किसी एकही हिस्सेदार के नामके होनेसे यह साबित नहीं होता, कि मामला अलाहिदाका है या यह कि उस के और बाकी खान्दानके अन्दर बटवाराहो गया है। एकही हिस्सेदारके नामसे जायदाद होनेमें इस बातके माननेके साथही साथ कि खान्दान मुश्त: रका है यह भी माना जाता है कि हिन्दू खान्दानका श्राम रवाज है और यह
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दफा ५२६ ]
अलहदगी और बटवारा
वस्तुतः उन बिना और पुत्रोंके खान्दानमें जो मिताक्षरालों के आधीन हैं बहुत अधिक माना जाता है-गंगाश बनाम नारायन 86 I. C. 505; A. I. R. 1925 Nag. 284.
किसी संयुक्त परिवारका कोई एक सदस्य परिवार के अन्य सदस्योंसे अलग हो सकता है और संयुक्त परिवारकी जायदादसे अपने हिस्सेको अलाहिदा कर सकता है । शेष सदस्य बिना किसी आपसी समझौते के संयुक्त परिवार के सदस्य बने रह सकते हैं और बचे हुए संयुक्त हिस्सेका उपयोगकर सकते हैं । यह प्रश्न कि आया उस संयुक्त परिवारके शेष सदस्य संयुक्त परिवारके सदस्य हैं या नहीं, शहादत द्वारा फैसल किया जा सकता है - बन्ना संगप्पा बनाम परवनिंग बासप्पा A. I. R. 1927 Bombay 8.
६३७
35 Bom. 75; 12 Bom. L. R. 936 में माना गया है कि जिस दस्तावेज़ के अनुसार जायदादके मालिकान, जायदादको बाटै उसे बटवारेका दस्तावेज़ कहते हैं । मगर बिना कोई दस्तावेज़ लिखे हुए भी बटवारा हो सकता है, देखो -रीवनप्रसाद बनाम राधाबीबी 4 MIA 137; 7W.R P. C. 35-37; 18 Cal. 302; 34 Cal. 72.
हिस्सेकी बिक्री - मुश्तरका खान्दानकी जायदादमें जब कोई हिस्सेदार अपना हक्क दूसरे कोपार्सनरके हाथ बेच देता है तो इससे बेचनेवालेका अलगाव माना जाता है, देखो - बालकृष्ण त्र्यंबक तंडुलकर बनाम सावित्रीबाई 3
Bom. 54; 6 Mad. 71.
जब कोई हिन्दू, जो मिताक्षराला के अधीन हो और उसके पुत्र आपस में एक दूसरे भाई से अलाहिदा रहते हों, तो यह नहीं समझा जा सकता कि वह अपने पुत्रोंसे अलाहिदा होगया है और वह तथा उसकी सन्तान मुश्तरका खान्दान नहीं है जब तक कि यह न साबित हो कि उन्होंने एक मुश्तरका खान्दान होने का इक़रार कर लिया है- जैनारायण बनाम प्रयागनारायन 21 L. W. 162; 2 O. W. N. 157; 85 I. C. 2; L. R. 6 P. C. 73; 27 Bom. L. R. 713; (1925) M. W. N.13; 29 C. W. N. 775; 3 Pat L. R. 255; A. I. R 1925 P. C. 11; 48 M. L. J. 236. (P. C.)
मुश्तरका खान्दानके सदस्योंकी चिरकालको अलाहिदगीसे उनके क़ानूनी बटवारेकी कल्पना होती है-देवराव बनाम विट्ठल 87 1. C. 1000 A. I. R. 1925 Nag. 363.
दफा ५२९ अलहदगीका सुबूत
अलहदगीके सुबूत निम्नलिखित हो सकते हैं
( १ ) कोई ऐसा काम या ऐसी बात जिससे अलहदगीका इरादा ज़ाहिर होता हो, देखो - जीवाबाई बनाम कृष्णाजी 6 Bom. L. R 351.
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बटवारा
[आठवां प्रकरण
(२)एक साथ रहने सहनेका त्याग-गणेशदत्त ठाकुर बनाम जीवाच ठकुराइन 31 1 A. 10; 31 Cal. 262; 8 C. W. N. 146, 6 Bom. L. R.1; 26 W. R. C. R. 365.
(३) जायदादके किसी हिस्सेपर अलग कब्ज़ा कर लेना-मुरारी विठोजी बनाम मुकुन्द शिवजी 15 Bom. 201; 10 Bom. H. C. 444; 23
P W. R. C. R. 395; 18 W. R.C. R. 210.
R 210. () जायदादके मुनाफेके किसी हिस्सेका अलग भोगना-5All 532.
(५) मोहकमें मालके कागजातमें अलग अलग हिस्सा लिखा होनारामलाल बनाम देवीदत्त 10 All. 490, 30 I.A. 1; 30 Cal. 231;5Bom. L. R. 103; 1 All. 487.
शहादत-मालगुज़ारी और गांवके कागज़ोंमें हिस्सोंका पृथक वर्णन किसी मुश्तरका हिन्दू खान्दानकी अलाहिदगीका एक बहुतही सूक्ष्म चिन्ह है
और कानूनी कल्पनाके खिलाफ साबित करनेके लिये, अर्थात् उस खान्दानको जिसके सम्बन्धमें वे पृथक दाखिले हैं अलाहिदा साबित करने के लिये, बिलकुल नाकाफ़ी हैं । कलक्टरकी किताब मालगुजारीके लिये रक्खी जाती है अधिकार प्रदर्शनके लिये नहीं । कलक्टरकी किताबमें किसी व्यक्तिका नाम किसी ज़मीनके कब्ज़ेपर लिख जानेसे यह साबित नहीं होता कि उसका अधि. कार स्थापित होगया या किसी दूसरेका अधिकार दूर होगया। वही कानून बन्दोबस्तके खेवटमें नामोंके दर्ज करने में लागू होता है, जो कि मौज़ामें हिस्सेदारके दर्ज करने में-मु० भगवानी कुंवर बनाम मोहनसिंह 23 A.L. J.58); 41 C. L. J. 591; 22 L. W. 2117 (1925) M. W. N. 421; 88 I. O. 385; 29 C. W. N. 1037; A. I. R. 1925 P. C. 192, 49 M. L. J. 55 ( P. C.).
बटवारा-मालगुजारीके कागज़ोंमें दाखिलेकी शहादत-जैराम बनाम राजबहादुर कुरमी 83 I. C. 563; A. I. R. 1924 Oudh. 326.
बटवारा-शहादत-हैसियतमें अलाहिदगी-वाजिबुल अर्ज़का दाखिला लक्ष्मीनारायन बनाम सालिग्राम 83 I. O. 833; A. I. R.1924Oudh.428.
. (६) बिक्रीके रुपयों में अलग हिस्से तकसीम करनेका इकरार करनारामकिशुनसिंह बनाम शिवनन्दनसिंह 23 W. R C. R. 412.
(७) मुश्तरका खान्दानके लोगोंसे अलग होकर दूसरोंसे कोई व्यवहार करना या अन्य ऐसे काम जो खान्दानके मुश्तरका रहनेकी हालतके विरुद्ध हों,या किसी समय घटी या मुनाफेका जमाखर्च अलग अलग हो जाना
आदि । ऊपरकी यह सब बातें अलहदगीका काफी सुबूत उस वक्त तक नहीं होंगी जब तक कि यह साबित न किया जाय कि अलहदगीका इरादा भी उन
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दफा ५३०]
अलहदगी और बटवारा
कामों में शामिल था परन्तु ये सब बाते उस दर्जे तक सुबूत ज़रूर हैं कि जिनसे यह मान लिया जा सकता है कि अलहदगी होगयी।
अगर कोई आदमी मुश्तरका खान्दानसे मुकम्मिल अलग हो जाय पीछ मुश्तरका खान्दानके किसी रिश्तेदारकी परवरिश और उसके लड़के, लड़कियों का विवाह आदि करे और अपना काम भी उनसे कराता रहे इत्यादि सब बातें वैसेही करे जैसे कि मुश्तरका रहने में होती तो इससे अलहदगीमें कोई बाधा नहीं पड़ती, देखो-जगनकुंवर बनाम रघुनन्दनलाल शाहू 10 W. B. C. R. 128.
जहांपर ज़ाहिरा मुश्तरका खान्दानका कारोबार भिन्न भिन्न स्थानों में चलता हो और साल भरमें या किसी वक्त हिसाब किताब करके हिस्सेदारोंके नामसे अलग अलग खर्च और मुनाफेका जमा खर्च हो जाता हो तो वे सब अलहदा समझे जायेंगे, चाहे भोजन साथही करते हों और एकही घरमें रहते हों और एकही कारोबारमें सब लोग काम करते हों जमा खर्च हर साल होना ज़रूरी नहीं है, चाहे जब ऐसा जमा खर्च हो जाय, असर एकही रखेगा।
सुबूतकी जिम्मेदारी-किसी हकीकी वक्तपर बटवारेका विवादग्रस्त प्रश्न अवश्य प्रमाणित किया जाना चाहिये-पीछेके बटवारेके सुबूतसे, यह जिम्मेदारी दूर नहीं होती-मु० भगवानी कुंवर बनाम महाऊसिंह 23A. L. J. 589; 41C L. J. 591; 22 L. W. 211, 29 C. W.N.10378(1925) M. W. N. 421; 88 I.C. 385; A. I. R. 1925 P. C. 132, 49 M.L. J. 55 ( P. C.). दफा ५३० अधूरा बटवारा
आपसमें समझौता करके ऐसा किया जा सकता है कि अलगाव या बटवारेमें कुछ कोपार्सनर शरीक हों और कुछ नहीं, परन्तु शरीक न होनेवाले कोपार्सनरोंकी स्थितिमें इस अधूरे बटवारे या अलगावका कुछ असर नहीं पड़ेगा, देखो-रावनप्रसाद बनाम राधाबीबी 4 M. I. A. 137; 7W.R P. 0. 35-37; 25 Mad. 1493 2 Mad. 317.324, 5 Cal. 474, 18 Bom. 611; 35 Bom. 293; 13 Bom. L. R 287; 35 Cal. 9617 12 C. W. N. 127; 37 I. A. 161; 22 All. 415.
इसी प्रकार आपसमें समझौता करके जायदादका कुछ भाग बांटा जा सकता है और कुछ नहीं । बची हुई जायदाद जब चाहें पीछे बांट लें-18 Mad. 418; 14 C. W. N. 221. अधूरे बटवारेसे आम तौरसे पहिले ऐसा समझाया जा सकता है कि सब कोपार्सनर अलग होगये,देखो-32Mad.1913; मगर 3 Mad. H. C. 325. में माना गया कि ऐसे समझे जानेका प्रतिवाद भी किया जा सकता है।
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बटवारा
[आठवां प्रकरण
दूरी भगवन्तलू बनाम टाईपात्री वीर अवधानलू (1909 ) 38 Mad. 246. में यह बात मानी गयी कि अधूरा बटवारा ज़बरदस्ती नहीं कराया जा सकता।
बटवारेका मुकद्दमा दायर हो जानेपर भी यदि वादी और प्रतिवादी राज़ी हों तो जायदाद या कोपार्सनरोंके सम्बन्धमें अधूरा बटवारा हो सकता है अर्थात् दोनों फरीकोंके राज़ी होनेपर अझैदावामें जितनी मुश्तरका जायदाद चाहें रखें और जितनी चाहें न रखें यह अधिकार प्राप्त है, देखो-चन्द्रशेखर बनाम कुन्दनलाल 31 All. 3. बाकी जायदाद पीछे बट सकती है। अदालत अधूरा बटवारा कभी नहीं करेगी। वह बट सकने वाली जायदादकी नाप जोख करके ठीक बटवारा करेगी।
पक्षपात युक्त बटवाराके बारेमें देखो जबकि आसामियोंके हाथमें जायबाद हो-जी० ए० सुब्रह्मनियन बनाम रामचन्द्रराव-85 I. C. 503; A. I. R• 1925 Mad. 333.
परिवारका अनेक शाखाओंसे संयुक्त होना उनमें से एक शाखका बटपारा हुआ अन्तिम बटवारेसे उन सदस्योंके अधिकारों में जो परिवारसे अलाहिदा नहीं हुये, कोई असर न पड़ेगा-नारायण शाह बनाम शङ्कर शाह A. I. R. 1927 Mad. 53. दफा ५३१ बटवारेसे जो जायदाद छूट गयी हो
जब कोपार्सनरी जायदादका कोई हिस्सा अकस्मात् या गलतीसे या जाल, फरेबसे बटवारेमें शामिल किया जानेसे रह गया हो तो उसका बटवारा कोपार्सनरोंमें पीछेसे भी किया जा सकता है और हर एक कोपार्सनर उसका ज़मरदस्ती बटवारा करा सकता है, देखो-योगेन्द्रीनाथराय बनाम घालादेवदास 35 Cal. 961; 12 C. W. N. 127; 13 C. W. 309; 1 All. 543; 10 Bom. H. C. 444.
अन्योन्यापहृतं द्रव्यं विभक्ते यत्तु दृश्यते तत्पुनस्ते समरंशैबिभजेरनिति स्थितिः। या०व्यव०१२६
मिताक्षराकार कहते हैं कि बटवारा किये पीछे जो धन भाइयोंमें परस्पर चुराया हुआ देख पड़े उसको वे समान भागोंमें फिर बांट लेवें । बल्कि मनुने तो यह कहा है कि अगर बड़ा भाई चुराये तो उसे फिर हिस्सा न मिले और राजा उसे दण्ड देवे, देखो मनु
यो जेष्ठो बिनिकुवर्ति लोभात् भ्रातृन्यवीयसः सो जेष्ठः स्याद भागश्च नियंतव्यश्वराजभिः। मनुह-२१३
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दफा ५३१-५३२]
अलहदगी और बटवारा
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बटवारा होनेके बाद जब यह मालूम हो कि कोई जायदाद जो किसी कोपार्सनरके हिस्सेमें पड़ चुकी है वह कोपार्सनरी जायदादकी नहीं है या उस जायदादपर किसी जायज़ खर्चका बोझ है तो वह कोपार्सनर जिसके हिस्से में वह जायदाद पड़ी हो फिरसे बटवारा करानेका अधिकार रखता है या कमसेकम वहयह करसकता है कि दूसरे हिस्सेदारोंसे उसजायदादके बदले में रुपया या दूसरी जायदाद लेवे, देखो-मारूती बनाम रामा 21Bom.333; लक्ष्मण बनाम गोपाल 23 Bom. 385.
जब किसी बटवारेमें बेईमानी करके नाबालिग़का हिस्सा कम नियत किया जाता है तब नाबालिग्रको अधिकार है कि दुबारा बटवारा कराये ताकि उसका सही हिस्सा उसे मिल जाय । ऐसे मामलेमें मियादका प्रश्न नहीं उठता अर्थात् मियाद उस समयसे शुरू होगी जब उसे बेईमानीका ज्ञान हुआ हो, देखो-104 I. C. 4937 1927 A. I. R. 305 Nag.
बटवाराकी कल्पना-एक मेम्बरका अलाहिदा होना पर दूसरे मेम्बर पर असर पड़ता है। दुवारा मुश्तरका होनेपर सुबूतकी जिम्मेदारी उसीपर होगी जो यह बयान करता हो एक मेम्बर द्वारा, जिसने बटवारेकी नालिश दायरकी हो, नालिशका वापस लेना-अलाहिदगीकी तारीख साबित करना चाहिये-असर-पलानी अम्बल बनाम मुथुवेंकटचल मोनीगर 48Mad.254; L. R. 6 P. C. 143; 23 A. L.J. 7463, 52 I. A. 83; 6 Pat. L. I. 133; 21 L. W. 439, 27 C. W. N. 846; ( 1925) M. W. N. 330; 3 Pat. L. R. 126; 27 Bom. L. R. 735; 87 I. C. 333 (2); A. I. R. 1925 P. C. 49; 48 M. L.J. 83. (P. C.)
जब किसी हिन्दू खान्दानमें बटवारा हो जाता है, तो पहली बात जो समझी जाती है वह यह है कि बटवारा कामिल है। यदि बटवारेके पश्चात् कोई मेम्बर यह कहे कि अमुक जायदाद बिना बटे हुयेही रह गई थी, तो उसे इसका सुबूत देना होगा-रोशनलाल बनाम महराजप्रसाद 89 I.C. 344; L. R.6 All. 512.
कल्पना-किसी हिन्दू मुश्तरका खान्दानके बटवारेके पश्चात् कुछ सदस्योंके मुश्तरका होनेकी कल्पना नहीं की जा सकती। यदि कोई इस प्रकार मुश्तरका होनेका दावा करता है, तो यह उसकी जिम्मेदारी होती है कि वह उसका सुबूत दे-रघुनाथप्रसादसिंह बनाम बासुदेवप्रसादसिंह 88 I. C. 1012; 6 P. L. J. 764; A. I. R. 1925 Pat. 823. दफा ५३२ बटवारेमें इरादेका प्रश्न
जब कोई कुटुम्ब बटवारा करके अलग अलग हो जानेका इरादा करले बस वही हिन्दूलॉ के अनुसार जायदादका पटवारा निश्चित समझा जायगा,
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[ आठवां प्रकरण
देखो - - रामप्रसादसिंह बनाम लक्षपति कुंवर 30 I. A. 1; 30 Cal. 23-253; 7 C. W. N. 162; 5 Bom. L. R. 103.
ફ્ર
बटवारा
कुटुम्बके लोगोंने यदि कोई दस्तावेज़ लिखकर या कोई ऐसे काम करके दिखा दियाहो कि वे आपसमें बटवारा करके मुश्तरका खानदानकी स्थिति बदलना चाहते हैं तो इसीसे उनके बटवारेकी नीयत मानली जायगी देखो - दुर्गाप्रसाद बनाम कुन्दनकुंवर 1 I. A. 55; 13 B. L. R. 235-239; 30 Cal. 738-750; 7 C. W. N. 578; 21 W. R. C. R. 214; 30 I. A. 139-147.
कोपार्सनर लोग मोहकमे मामलेमें या लैन्ड रजिस्ट्रेशन एक्ट नं0 7 (B. C. ) 1876 के अनुसार जो कोई दरख्वास्त आदि दें और उनमें मुश्तका जायदाद के हिस्सोंमें अपने अपने भागकी तशरीह करें परन्तु बटवारेकी कोई नीयत ज़ाहिर न हो तो इससे मुश्तरका खान्दान बटा हुआ नहीं समझा जायगा हां अलगाव के विषयमें यह शहादत हो सकती है, देखो -- फुलझरी कुंवरका मामला 8 BL. R 38; 17 W. R. C. R. 102; 8. B. L. R. 396 का नोट 14 W. R. C. R. 31; 1 All. 437; 7 Cal. 369.
मोहकमे मालके कागज़ात में अलग अलग हिस्सा दिखाया गया हो तो इससे बटवारेकी नीयतका सुबूत नहीं होगा बल्कि अलगाव समझा जा सकता है, देखो - 10 All. 490.
जब कोपार्सनर आपसमें यह नीयत करलें कि वे जायदाद के हिस्सोंको अलग अलग भोगेंगे तो चाहे नाप जोखकर जायदादका बटवारा न भी हुआ हो और चाहे वे उन हिस्सोंको अलग अलग भोगने भी नहीं लगे हों तो भी यह मान लिया जायगा कि उन सबका बटवारा होगया, देखो - 11 Mad. I. A. 75-90; 8 W. R. P. C. 1; 30 I. A. 136; 30 Cal. 738; 13 M. I. A. 113; 21 W. R. C. R. 214; 17 I. A.194;18 Cal.157;12Cal.96.
छोटे भाई के भरण पोषणके लिये जो जायदाद आपसमें समझौता करके अलग करदी गयी हो वह बटवारे से अलग नहीं समझी जायगी, देखो - 20 Mad. 256. जायदाद के हिस्सोंको अलग अलग भोगनेकी नीयत करने के बाद यदि सब फ़रीक़ क़ानून के अनुसार फिर मुश्तरका रहने लगें तो जायदाद फिर मुश्तरका समझी जायगी इस सूरतके सिवाय और किसी सूरतमें उनका वह
लग जायदाद भोगनेका निश्चय नहीं बदल सकता यानी बटा हुआ खान्दान समझा जायगा । जब बटवारेका केवल इक़रारनामा ही लिखा गया हो तो उससे बटवारा होगया ऐसा नहीं समझा जायगा 4 Bom. 157.
कुक़ से पहले बटवारा - जो बटवारा अदालतकी कुर्कीसे पहले पितापुत्रके बीच होगया हो तो वह बटवारा इस वजेहसे नाजायज़ नहीं हो जायगा
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दफा ५३३]
अलहदगी और बटवारा
कि वह कुर्की से पहले हुआ है। जब पुत्र पितासे अलग होगया हो तो पिताके कर्जाकी पाबन्दी उस पुत्रकी जायदाद पर नहीं पड़ती-25 A. L. J. 409%8 1927 A. I. R. 714 All.
संयुक्त हिन्दू परिवारकी अवस्थाके बटवारेके लिये यह पर्याप्त है कि बटवारा करनेका सन्देह रहित इरादा हो। किन्तु यह कहना यथार्थ नहीं है कि एक भाईके अलाहिदा हो जाने या अलाहिदा होनेका इरादा ज़ाहिर करने का यह अर्थ है कि अन्य भाईभी अलाहिदा समझे जांय-बावन्ना संगप्पा बनाम परव निंगवासप्पा A. I. R. 1927 Bom. 68.
दफा ५३३ हिस्सेका ख़रीदार
__ जब किसी मुश्तरका खान्दानकी जायदादका कोई हिस्सा किसी दूसरे ने खरीद किया हो या नीलाममें लिया हो जो कोपार्सनर न हो तो अगर वह कानूनी मियादके अन्दर दावा करके बटवारा न कराले तो उसका हिस्सा चला जायगा। यानी पीछे वह दावा नहीं कर सकता-10 Bom. H. C. 444. यह बात भी स्पष्ट है कि जिस कोपार्सनरका हिस्सा उसने खरीद किया हो अगर वह दावा करनेकी मियादके अन्दर मर जाय तो फिर खरीदारका हिस्सा चला जायगा या नहीं, देखो दफा ४५०. ।
कोपार्सनरी जायदादमें किसी एक कोपार्सनरके हिस्सेके खरीदारको यह अधिकार है कि वह केवल उतने हिस्सेके बटवारेके लिये दावा दायर करे, परन्तु शर्त यह है कि खरीदारको वह हिस्सा खरीदना जायज़ रहा हो और यह कि उस हिस्सेका बटवारा करनेसे बाकी जायदादको हानि न पहुंचती हो, देखो-हरीकृष्ण चौधरी बनाम वेंकट लक्ष्मीनरायन 34Mad. 402. लेकिन हर एक कोपार्सनरको यह अधिकार है कि कोपार्सनरी जायदादमें अपना हिस्सा निश्चित कराये और बटवारा कराये किसी कोपार्सनरके दावेमें यह नहीं देखा जायगा कि जायदाद को नुकसान पहुंचता है या नहीं, देखो-23 Bom. 184; 24 Bom. 123; 28 All. 39, 34 Mad. 269; 11 Cal. 396.
कोपार्सनरके हिस्सेके खरीदारपर कोई भी दूसरा कोपार्सनर उतने हिस्सेके बटवारा हो जानेका दावा कर सकता है-28 All. 50, 16 Mad. 983 19 Mad. 267.
जब कोपार्सनरी जायदादके किसी हिस्सेपर उस हिस्सेके खरीदारका किसी तरहसे कब्ज़ा हो जाय तो फिर उसका कब्ज़ा बना रहेगा और बाकी जायदादके हानि लाभका ख्याल नहीं किया जायगा, देखो-15 Mad. 234.
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बटवारा
[आठवां प्रकरण
दफा ५३४ धर्मच्युत हो जानेसे कोपार्सनर नहीं रहता
मुसलमान, या ईसाई हो जानेसे मुश्तरका खान्दानका हिन्दू, कोपासेनरीसे अलाहिदा हो जाता है, देखो-गोविन्दकृष्ण नरायन बनाम अब्दुल कयूम 25 All. 564-5737 29 All. 487.
जन्मान्धका अधिकार -जब किसी वटवारेकी नालिशमें, मुद्दाअलेहने बयान किया हो कि मुद्दई बवजह जन्मसे अन्धा होनेके हिस्सा पानेके क़ाबिल नहीं है, किन्तु तनकीहके पहलेही मुद्दाअलेहने मुद्दईसे सुलह करली हो, जिसके कारण नालिशका कारण बाकी न रह गया हो, और उस सुलहनामेकी एक बात यह भी हो कि मुद्दाअलेहने मुद्दईके हकको मान लिया हो, तो वह समझौता मुद्दाअलेह और उसकी सन्तानपर लाज़िमी होगा और मुश्तरका खान्दानकी जायदादमें मुद्दईके अधिकार पानेके लिये आख्रिरी होगा-बुध सागर बनाम विशुनसहाय 23 A. L. J. 141; 86 I. C. 154; 47All.3273 A. I. R. 1925 All. 366.
जन्मान्धका अधिकार-इस बातके सुबूतकी जिम्मेदारी, कि एक पक्ष पैदायशी अन्धा होनेके कारण मुश्तरका खान्दानकी जायदादमें हिस्सा पाने के अयोग्य है, उस पक्षपर है जो इसे पेश करे-बुद्धसागर बनाम विशुनसहाय 23 A. LJ. 141; 86 I.C.554; 47All.327;A..I.R.1925 All 366. दफा ५३५ बटवारेकी डिकरी
बटवारेकी डिकरीका वही असर होता है जो बटवारेके इकरारनामेका होता है, देखो-तेज प्रतापसिंह बनाम चम्पाकली कुंवरि 12 Cal. 96; 4 Bom. 157. बटवारेकी डिकरी या किसी ऐसे मुक़द्दमेकी डिकरी जिसमें जायदादकी अलाहिदगीका या पञ्चायत द्वारा अलाहिदा करनेका उद्देशहो अलाहिदा हो जानेका असर रखती है-19 Mad. 290; 20 Mad. 490; 5 I.A. 228; 4 Cal. 434; 12 W. R. C. R. 510. थोड़े फ़रक़के साथ देखो-35 Cal. 961; 12 C. W. N. 127.
डिकरीके अनुसार हिस्सा मिलने में कुछ देर हो तो इससे अलाहिदगी में कुछ फरक नहीं पड़ता-लक्ष्मणदारकू बनाम नरायन लक्ष्मण 24 Bo.n. 182. ऐसा माना गया है कि अपील फैसल होनेतक डिकरी अलाहिदगी पैदा नहीं करती लेकिन यदि अपीलका फैसला होनेसे पहले फरीक स्वयं अला. हिदा हो जाय तो डिकरीका वही असर होगा-6 Bom. 1137 5I. A. 228; 4 Cal. 434.
बङ्गाल स्कूलके एक मुकदमे में बटवारेकी डिकरी होनेपर भी सब फरीक मुश्तरका रहते रहे, तो मानागया कि अलाहिदगी नहीं हुई, देखो-प्राणकिशुन मित्र बनाम रामसुन्दरी दासी (1842) Fulton 410; 4 Bom. 157.
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दफा ५३४ - ५३६ ]
अलहदगी और बटवारा
किसी डिकरीके नीलामके द्वारा अगर मुश्तरका जायदादका कोई हिस्सा नीलाम हो जाय तो उससे अलाहिदगी नहीं होती - 29 Cal. 797. माना गया है कि अदालत के हुक्मसे मुश्तरका खान्दान अलाहिदा नहीं किया जा सकता, जब तक कि कोपार्सनर अलाहिदा न हो जायें या न चाहें ।
६४५
किसी बटवारेकी नालिशमें, इस वजहसे कि नालिशमें कुछ ऐसी जायदाद है जिसमें कुछ ऐसे व्यक्ति साझी हैं जो कि नालिशके फ़रीनोंमें से नहीं हैं, उस जायदाद के बटवारेकी डिकरीमें जो फरीक़ोंके ही पूर्ण क़ब्ज़ेमें है बाधा नहीं पड़ती - नलिनाक्ष्य घोशल बनाम रघुनाथ घोशल 85 I C. 662; A. I. R. 1925 Cal. 754.
दफा ५३६ बटवारेका दावा
जो आदमी बटवारा करा पानेका अधिकारी और कोपार्सनरीकी सीमा के भीतर है वही बटवारा करा सकता है, देखो दफा ३६६ से ४१२.
मियाद- [- जब किसी कोपार्सनरको मालूम हो कि वह कोपार्सनरीसे अलग किया गया है, उस तारीख से बारह वर्षके अन्दर बटवारेका दावा करने की मियाद है, देखो -- Act No. 9 of 1908 Sched 1; Art 27; 6 Cala 938; 11 Mad 380.
बटवारे के मुक़द्दमे में जो प्रश्न तय कर दिये गये हों उनका फिर विचार उन्हीं फरीक़ोंके किसी दूसरे मुक़द्दमेमें नहीं हो सकता । उसमें 'रेसजुडीकेटा' लागू होगा, देखो -- परसोतमराव बनाम राधाबाई 32 All. 469. जाबता दीवानीकी दफा ११ देखो। इसका सारांश यह है कि जिस बातका एक दफा फैसला होगया उसका फिर फैसला नहीं किया जाता इसीका नाम है 'रेसजुडी केटा' । इस शब्दकी व्याख्या यदि की जाय तो एक भारी पुस्तक बन जाय, अङ्गरेज़ीमें इसकी व्याख्यामें कई भिन्न भिन्न पुस्तकें बन गयी हैं ।
फरीन - बटवारेके दावेमें जितने आदमी हिस्सा पानेके अधिकारी हों वे सब और पत्नी, मा, दादी, कहींपर परदादी, बिना बढे हुए हिस्सोंके खरीदार, या उन हिस्सोंको अपने पास रेहन रखने वाले ये सब बटवारेके मुक़द्दमे में फरीक़ बनाये जायेंगे, देखो - जाबता दीवानी 1908 Order 1 Rules 3,4. हिन्दू मुश्तरका कुटुम्बके प्रबन्धक ने सन १६०३ ई० में कुछ जमीन बेची, मगर आवश्यकताके लिये नहीं बेची मुद्दई १७ सालका उस समय था वह जानता था । बिक्रीका रुपया महाजनी काममें लगाया गया जो कुटुम्बकी ओरसे चलता था । सन १६१५ई० में बटवारा हुआ, महाजनी हिसाब किताब जोड़ा गया और सन १६०३ ई० में जो जायदाद बिकी थी न जोडी गयी । बाद में मुद्दईने जायदाद खरीदने वालेपर दावा किया कि जायदाद वापिस
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[ आठवां प्रकरण
मिले, तय हुआ कि बटवारेके समय जायदाद जोड़ी गयी थी इसलिये मुद्दई वह अब नहीं पा सकता- 1923 All I R. 442 Mad.
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बटवारा
बटवारा में मुनाफ़ेका दावाहो सकता है--नीलकण्ठ बनाम गजानन 92 I. C. 364; A. I. R. 1926 Nag. 248.
दफा ५३७ बटवारेकी जायदाद
जब बटवारेका दावा दायर किया जाय तो उससे बटवारा होने योग्य सम्पूर्ण जायदाद शामिल कर देना आवश्यक होगा, देखो -- जाबता दीवानी 1908 Sched. 1 Order II Rule. 1; 11 Cal. 396; 23 Bom. 144; 11 Bom. H. C. 69; 7 Bom. H. C. A. C. 46; 12 Cal. 566; 6 B. L. R. 134; 9 C. L. R. 170; 5 Mad. H. C. 419; 24 Bom. 128; 12 Bom. H. C. 148.
एक तरहकी ऐसी नज़ीरें हैं कि जिनमें कुल कोपार्सनरी जायदाद दावा में शामिल न करनेके कारण मुक़द्दमा डिसमिस कर दिया गया, देखो - 14 Cal. 122; 8 C. L. R. 367; 12 Cal. 566; लेकिन उचित यह है कि जब ऐसी आपत्ति की जाय कि सब जायदाद दावामें नहीं शामिल की गयी तो. अदालत मुद्दईको अर्जेौदावा बदलने और उसमें कुल जायदाद शामिल करने की आशादे 14 Cal. 835; बटवारेका दावा दायर होनेपर पहले अदालत यह देखेगी कि मुद्दई ऐसा दावा कर सकता है या नहीं और जायदाद पानेका हक़दार है या नहीं, देखो - 38 Cal. 681.
मुद्दाले इस बात पर जोर देसकता है कि बटवारे के अर्जीदावामें मुद्दई मे जो जायदाद मुश्तरका शामिल नहीं की वह भी शामिल की जाय - 24 Bom. 128; 1 Bom. L. R. 620.
दफा ५३८ भिन्न भिन्न इलाक़ोंकी जायदाद
बटवारेकी जायदाद किसी एकही अदालतकी हद बन्दीके अत्यारमें न हो तो भी वह सब जायदाद एकही मुक़द्दमे में शामिल की जायगी लेकिन अगर कोई ऐसी जायदाद हो जो ब्रिटिश इंडियामें न हो तो वह उस दावामें नहीं शामिल की जायगी -- हरीनरायन ब्रह्म बनाम गणपतराव दाजी 7 Bom. 272; 25 W. R. 353; 15 W. R. C. R. 111; 22Bom. 922; 18 Bom. 389; 23 Bom. 597.
जब कोपार्सनरी जायदाद भिन्न भिन्न अदालतोंके इलाक़ेके अन्दर हो तो बटवारेका दावा उनमें से किसी अदालत में किया जा सकता है --3 Mad H. C. 376; पंचानन मल्लिक बनाम शिवचन्द्र मल्लिक 14 Cal. 835; 22 Bom. 922; 4 Bom. 482, 6 B. L. R. 134.
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दफा ५३७-५४०]
अलहदगी और बटवारा
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अगर कोई ऐसी जायदाद हो कि जिसमें कोपार्सनरोंके हन किसी गैर आदमीने खरीद कर लिये हों और वह गैर आदमी तथा कोपार्सनर मिलकर उसे शामिल शरीक रखते हों तो ऐसी जायदादके बटवारेका दावा अलग उसी अदालतमें करना चाहिये जिसके इलाकेमें वह जायदाद हो-पुरुषोत्तम बनाम आत्माराम जनार्दन 23 Bom. 597; 1 Bom. L. R. 76.
किसी कोपार्सनर की अलाहिदा जायदाद के लिये बाहरी आदमी को अलाहिदा दावा दायर करना पड़ेगा-लक्ष्मी नरायण बनाम जानकी दास 23 All. 216. दफा ५३९ मुनाफे के हिसाबका दावा
मुश्तरका खान्दानका कोई आदमी जब खान्दानकी जायदादको भोगने से बश्चित कर दिया गया हो तो उसको अपनी अलाहिदगीके समय तकका साधारण हिसाब लेनेका अधिकार है, देखो--कृष्णा बनाम सव्वाना 7 Mad. 564, 19 Bom. b32; 5 Bom 589; 7 I. A. 387 6 C. L. R. 153; और देखो--जाबता दीवानी 1908 Order 20 Rule 12.
अगर किसी कोपार्सनरको जायदादके कुछ हिस्सोंके भोगनेमें बाधा पड़ी हो तो वह उतने दिनों तकका हिसाव ले सकता है, देखो दफा ४२४(क).
मरम्मत आदि--अगर पहलेसे कोई स्पष्ट समझौता न हो गया हो तो कोपार्सनरी जायदादकी मरम्मत आदिमें किसी कोपार्सनर ने अपने पाससे जो कुछ खर्च किया हो वह खर्च उसे नहीं मिलसकता-1 Mad H.0. 309. दफा ५४० मुश्तरका खानदानका क़र्ज़ आदि
मुश्तरका जायदाद पर जो कुछ क़र्ज़ हो, और बटवारा करने वाले भाइयोंके बापका जो कुछ क़र्ज़ हो, और भरण पोषणका जो खर्च जायदादपर पड़ता हो, कुटुम्बियोंकी लड़कियों के विवाहका जो खर्च हो और वह अलग
लग हिस्सों मेंसे न दिया जा सकता हो; और धर्म क्रत्य सम्बन्धी जो खर्च खान्दानके ज़िम्मे हों, यह सब कर्ज़ और खर्च बटवारे के समय जायदाद मेंसे अलग किया जायगा अर्थात् अलग अलग हिस्सों में से दिये जानेका प्रबन्ध नहीं किया जायगा । और बटवारेमें सब प्रकारकी कोपार्सनरी जायदाद और वह जायदाद भी जो कोपार्सनरी जायदादकी मददसे खरीदी गयी हो या पैदा की गयी हो बटवारेमें शामिल की जायगी।
मुश्तरका जायदादका क़र्ज़ और बापका क़र्ज़ जायदादसे अलग किया जायगा, देखो--ताराचन्द बनाम रीवराम 3 Mad. H. C. 1773 लक्ष्मणदादा नायक बनाम रामचन्द्र दादा नायक 1 Bom. 561.
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६४८
बटवारा
[आठवां प्रकरण
5 Bom 589, 595 में माना गया कि किसी कोपार्सनरको उसके खर्च के लिये पहले जो रुपया मिल चुका हो उसका हिसाब नहीं लिया जायगा।
जायदादके किसी हिस्सेको अपना मानकर किसी कोपार्सनरने अगर उसे बेच दिया हो तो जहां तक मुमकिन हो उतना हिस्सा खरीदारको दिया जाना चाहिये । अगर ऐसा मुमकिन न हो तो खरीदार उसी कोपार्सनर की जातसे हरजाना पानेका हकदार होगा, देखो--26 Mad. 690, 7:8, 719.
जब किसी कोपार्सनरने मुश्तरका जायदादके किसी खास हिस्सेपर अपना निजका रुपया लगाया हो या और. तरहसे उस हिस्सेकी तरक्की की हो तो उचित यही है कि वह हिस्सा उसीको दिया जाय । मगर शर्त यहहै कि वह उसका हिस्सा उसके उचित हिस्सेसे अधिक न हो । एक मुक़द्दमे में एक कोपार्सनर ने मुश्तरका खान्दानकी ज़मीनपर एल मकान अपने निजके रुपये से बनवा लिया था अदालतने यह फैसला किया कि प्रत्येक कोपार्सनर उस मकानमें तथा उस ज़मीनमें कि जिसपर वह मकान बनाया गया है हिस्सा पानेका हक़दार है, देखो-बिछोवा बाबा बनाम हरीवा वाव 6 Bom H. C. A.C54.
यद्यपि बटवारे की नालिश के पश्चात् खान्दानी मेनेजर द्वारा किसी प्रोनोटके नये करनेपर, मुश्तरका खान्दानके मेम्बरोंकी हैसियत असली कर्ज को जीवित रखने के लिये काफ़ी न हो, ताहम जब खान्दानी मेनेजर खान्दानी कर्ज को अदा करे, तो खान्दानके दूसरे मेम्बर न्यायानुसार वाध्य हैं कि वे उस कर्ज में भाग ले--विश्व शङ्कर नारायन अय्यर बनाम कासी अय्यर 21 L. W. 25; 86 I.C. 225; A. I. R. 1925 Mad. 453.
नोट-मुश्तरका खानदानमें, अलाहिंदगी यानी अलगाव और बटवारा इनका ठीकठीक निश्चय होना प्रत्येक मुकद्दमेकी शहादतपर निर्भर है । यदि बट जानेकी नीयत और उनके कामोंसे उस नीयतका सुबूत मिलता है तो ऐमी अलाहिदगी बटवारेका असर रखती है। इस तरहका अलगाव या बटवाराहो जानेसे मुश्तरका कुटुम्ब नहीं रहता चाहे कुछ जायदाद मुश्तरकाभी रह गयी हो । पीछे हरएक मेम्बर नये मुश्तरका खानदानका मूल पुरुष बन जाता है, सरवाइवरशिप टूट जाता है, उसकी जायदाद उत्तराधिकार के क्रम से चलती है।
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दफा ५४१-५४२]
कानूनकी कुछ ज़रूरी दफायें
६४६
(६) बटवारा ( Partition ) के कानूनकी कुछ
जरूरी दफायें
अदालतके द्वारा जो बटवारे होते हैं वे सब कानून वटवारा यानी पार्टीशन् एक्ट नं०४ सन् १८६३ई० की नीचे लिखी दफाओं के अनुसार किये जाते हैं । परन्तु जहां कहीं किसी गैर मनकूला जायदादके बटवारेके विषयमें कोई स्थानिक कानून हो और वह जायदाद सरकारको मालगुजारी देती हो तो उससे नीचेकी दफायें लागू नहीं होंगीदफा ५४१ बटवारेके बजाय बिक्री
(उक्त कानून बटवाराकी दफा २) "जब बटवारेके किसी मुक्नहमेमें, जो अगर इस कानून के जारी होनेसे पहिले दायर किया जाता तो उसमें बटवारेकी डिकरी हो जाती. अदालत यह देखे कि मुकदमे सम्बन्धी जायदाद इस क्रिस्मकी है कि तकसीम उचित रीतिसे और सुभीतेसे नहीं हो सकती या जायदाद के हिस्सेदारोंकी संख्याके ड्यालसे या किसी दूसरी खास वजेहसे ऐसी तक़सीम न हो सकती हो और अदालतकी यह राय हो कि तकसीम करनेके बजाय जायदाद बेचकर उसका दाम हिस्सेदारोंको बांट देना ज्यादा लाभकारी होगा तब अदालत अगर मुनासिब समझे तो किसी ऐसे हिस्सेदार की दरखास्तपर जो स्वयं या मजमूई तौरसे जायदादके एक या ज्यादा हिस्से में हक़ रखता हो, यह हुक्म देगी कि जायदाद बेचकर उसका दाम बांट दिया जाय” 4 Bom. 108 और देखो मुल्ला हिन्दूलॉ सन १९२६ ई० पेज ३४५. दफा ५४२ जब हिस्सेदार खरीदनेको तैय्यार हों
( उक्त कानून बटवाराकी दफा ३.) (१) अगर किसी मुकदमे में, जिसमें ऊपर लिखी हुई दूसरी दफाके अनुसार अदालतसे बिक्रीकी आज्ञा देनेकी प्रार्थना कीगयी हो, कोई दूसरा हिस्सेदार ऐसी प्रार्थना करनेवाले या करनेवालोंका हिस्सा या हिस्से मूल्य देकर खरीद लेनेकी मंजूरी मांगे, तो अदालत जिस रीतिसे मुनासिब समझे उस हिस्से या हिस्सोंका मूल्य मालूम करायेगी, और उसी मूल्यपर उस हिस्सेदारके हाथ बेच देगी और इस सम्बन्धमें जो कुछ हिदायते ज़रूरी और उचित समझे करेगी।
(२) इसी दफाके अङ्क १ के अनुसार जब दो या ज्यादा हिस्सेदार उस तरहपर अलग अलग खरीदनेकी मंजूरीमांगें तोजो हिस्सेदार अदालतके लगाये हुये दामसे ज्यादा दाम देगा उसीके हाथ हिस्से या हिस्सोंकी विक्री होगी।
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६५०
बटवारा
[आठवां प्रकरण
(३) अगर अदालतके लगाये हुये दामपर खरीदारीकी इच्छा करने वाला हिस्सेदार उस हिस्से या हिस्सोको न खरीदना चाहे तो उसको दरख्वास्तका सब खर्चा ( अगर कोई हो) देना पड़ेगा। दफा ५४३ रहनके मकानके हिस्सेके बटवारेका दावा
( उक्त कानून बटवाराकी दफा ४.) (१) जब मुश्तरका खान्दानके रहनेके मकानका एक हिस्सा किसी ऐसे आदमीको मुन्तकिल किया गया हो जो उस मुश्तरका खान्दानका आदमी नहीं है, और वह आदमी उस हिस्सेके बटवारेका दावा करे, और उस मुश्तरका खान्दानका कोई हिस्सेदार उस हिस्सेके खरीदनेको तैय्यार हो, तो अदालत जैसे मुनासिब समझे उस हिस्से का दाम लगायेगी और उसे उस हिस्सेदारके हाथ बेच देनेकी आज्ञा देगी और उस सम्बन्धमें जो ज़रूरी और उचित हिदायते हों करेगी। ... (२) ऊपर कहे हुये इसी दफाके अङ्क १ के अनुसार जब मुश्तरका खान्दानके दो या ज्यादा हिस्सेदार अलग अलग उस हिस्सेके खरीदनेको तैय्यार हों तो अदालत वही कार्रवाई करेगी जो दफा ३ के अङ्क २ में कही गयी है। दफा ५४४ अयोग्य फरीकोंका स्थानापन्न
(उक्त कानून बटवाराकी दफा ५ ) जब किसी बटवारेके मुकदमे में कोई आदमी जो अयोग्य फरीक़की तरफ़से उस मुकदमेमें अधिकार प्राप्त स्थानापन्न हो, उस अयोग्य फरीक़की ओरसे बिक्रीकी दरखास्त करे या खरीदनेको तैय्यार हो और मंजूरी मांगे तो अदालत उसकी दरखास्त तभी मंजूर करेगी जबकि वह यह देखेगी कि वह बिक्री या खरीद उस अयोग्य फरीक़के लिये लाभकारी होगी। दफा ५४५ नीलाममें निश्चित मूल्य और हिस्सेदारकी बोली
(उक्त कानून बटवाराकी दफा ६.) (१) दफा २ के अनुसार जो नीलाम होगा उसमें मूल्य निश्चित रहेगा, और वह मूल्य अदालत समय समय पर जैसा मुनासिब समझे निश्चित करेगी।
(२) ऐसे हर एक नीलाममें हर एक हिस्सेदारको यह अधिकार है कि बोली बोले और डिपाज़िटका रुपया अदा न करे या मूल्यका रुपया या उसका कोई हिस्सा उसी वक्त अदा करने के बजाय, जैसा कि अदालत उचित समझे उस हिस्सेदारके किसी हिसाबमें काट ले।
नोट-'निश्चित मूल्य' यह वह मूल्यहै नो अदालत निश्चित करती है और जिससे कमर वह जायदाद नीलाम नहीं रा सकती।
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दफा ५४३-५४६ ]
कानूनकी कुछ ज़रूरी दफायें
(३) अगर दो या ज्यादा आदमी जिनमेंसे एक उस जायदादका हिस्सेदार हो नीलामके समय बराबर बराबर बोली बोलकर एकही दाम दे तो वह बोली हिस्सेदारकी बोली समझी जायगी। दफा ५४६ बिक्रीका जाबता
( उक्त कानून बटवाराकी दफा ७) ऊपरकी दफाओं में कही हुई सूरतों के सिवाय जब किसी दूसरी सूरतमें इस एक्ट के अनुसार जायदादके बेंचनेका हुक्म हो तो जहांतक मुमकिन होगा नीचे लिखा ज़ाबता काममें लायाजायगा
(क) अगर वह जायदाद कलकत्ता, बम्बई, और मदरासके ओरीजिनल जुरिडिक्शन्की किसी डिकरी या हुक्मके अनुसार या लोअर बरमाकी चीफ कोर्टकी डिकरी या हुक्मके अनुसार बेची जाय तो उसमें वही जाबता काममें लाया जायगा जो उस अदालतका रजिस्ट्रार ओरीजिनल् सिविल जुरिस्डिक्शन्के अनुसार किसी जायदादके बेंचने में काममें लाता हो।
(ख) अगर वह जायदाद किसी दूसरी अदालतकी डिकरी या हुक्म के अनुसार बैंची जाय तो, उसमें वह जाबता काममें लाया जायगा जो हाईकोर्ट समय समयपर निश्चित करे और जब तक ऐसा जाबता निश्चित न किया जाय तो ज़ाबता दीवानी ऐक्ट नं०५सन् १९०ई०का वह कायदा काममें लाया जायगा जिसके अनुसार साधारण डिकरीकी कुर्की में नीलाम होता है। दफा ५४७ डिकरी
( उक्त कानून बटवाराकी दफा ८) इस कानूनकी दफा २-३. और के अनुसार अदालत डिकरीका जो हुक्म देगी वह ज़ावता दीवानीकी दफा २ के अनुसार समझा जायगा। दफा ५४८ आधा बटवारा आधी बिक्री
(उक्त कानून बटवाराकी दफा . ) बटवारेके किसी मुकदमे में अगर अदालत मुनासिब समझे तो जिस जायदादके सम्बन्धमें वह मुकदमा दायर हुआ हो उसके एक हिस्सेके लिये बटवारेकी डिकरी दे और बाकी हिस्सेके लिये कानूनके अनुसार बिक्रीकी आज्ञा दे। दफा ५४९. इस कानूनसे पहलेके मुकद्दमे
( उक्त कानून बटवाराकी दफा १०) यह कानून उन सब मुकदमोंसे लागू होगा जो इसके जारी होनेसे पहिले दायर किये गये हों और इसके जारी होनेके वक्त चल रहे हों, लेकिन जिन मुकद्दमोंका अदालत फैसला कर चुकी है उनसे यह कानून लागू नहीं होगा। .
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[ आठवां प्रकरण
दफा ५५० सरकारी मालगुज़ारी देनेवाली जायदादका बटवारा
सरकारी मालगुज़ारी देने वाली जायदादके बटवारेकी डिकरी दीवानी अदालत दे सकती है परन्तु उस डिकरीकी तामील नहीं करा सकती, देखोमेहरबान रावत बनाम बिहारीलाल 23 Cal. 679. दत्तात्रेय बिट्ठल बनाम महादा जी परशुराम 16 Bom. 528; 8 C. L. R. 367; 11 Bom. 662; 7 Cal. 153.
६५२
बटवारा
लेकिन अगर वह डिकरी इस शर्तसे की जायकि बटवारा या उस जायदादका कोई हिस्सा अलग करनेपर भी सरकारी मालगुजारी बिना बटी हुई दी जायगी तो कलेक्टर उस जायदादका बटवारा या उस जायदादका कोई हिस्सा अलग कर देगा उसकी यह कार्रवाई जाबता दीवानी एक्ट नं० ५ सन १६०८ ई० की दफा ५४ के अनुसार होगी ।
अगर सरकारी मालगुज़ारी बांटकर अलग अदा करनेकी प्रार्थना न की जाय तो अदालत दीवानी ऊपर कही हुई अपनी डिकरी की तामील करा सकती है, देखो - योगेश्वरी देवी बनाम कैलाश चन्द्रलहरी 24 Cal. 725; 1. C. W.N. 374.
गुजरातकी ताल्लुकेदारी जायदाद के बटवारेकी दरख्वास्त बम्बई हाईकोर्टके सिवाय अन्य कोई दीवानी अदालत नहीं सुन सकती -- Act. 6 of
1888 S. 21.
दफा ५५१ मालगुजारी के कानून
सरकारी मालगुज़ारी अदा करने वाली जायदादोंके सम्बन्धमें निम्न लिखित क़ानून हैं
( १ ) अजमेर के वास्ते - रिजोल्यूशन नं० २ सन् १८५७ ई०.
( २ ) संयुक्त प्रान्तके वास्ते-एक्ट नं० ३ सन् १६२६ ई० .
( ३ ) मध्य प्रदेश के वास्ते---एक्ट नं० १८ सन् १८८९ ई० की दफा १३६ जिसका संशोधन हुआ है; एक्ट नं० १६ सन् १८८६ ई० की दफा २६.
(४) बम्बई के वास्ते--एक्ट नं
१० सन् १८७६ ई०६ एक्ट नं० ५ बम्बई कौंसिल सन् १८७९ ई० की दफा ११३; ११४; एक्ट नं० ६ सन् १८८८ ई०.
(५) मदरासके वास्ते -- मदरास रिजोल्यूशन नं० २ सन् १८०३ ई०. (६) बङ्गालके वास्ते - - रिजोल्यूशन नं० ८ सन् १७६३ ई० और नं० ७ सन् १८२२ ई०; एक्ट नं० ५ सन् १८६७ ई०.
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बटे कुटुम्बका सामिल होना
(७) आसामके वास्ते - रिजोल्यूशन नं० १ सन् १८८६ ई० की दफा ६६ - १२१ और दफा १५४.
दफा ५५०-५५२ ]
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(८) पञ्जाबके वास्ते -एक्ट नं० १७ सन् १८८७ ई० की दफा ११२ से १३५ और दफा १५८.
(७) बटे हुए कुटुम्बियों का फिर शामिल शरीक होजाना
दफा ५५२ फिर शामिल हो जाना
मुश्तरका खान्दानके बटवारा करने वाले सब लोग या उसमें से कुछ फरीक़ बटवारा हो जानेके बाद फिर एकमें शरीकहो सकते हैं, और उनके इस तरहपर शामिल होने से फिर मुश्तरका खान्दान बन जा सकता है। उस खान्दानकी वही हैसियत होगी जो बटवारा करनेके पहले थी, देखो -- बकस लाडूराम बनाम रुखमाबाई 30 I. A. 130; 30 Cal. 725; 7 C. W. N. 642; 5 Bum. L. R. 469; 10 M. I. A. 403; 4 W. R. P. O. 11; 3 Bom. H. C. A. C. 69; 4 Bom. H. C. O. C. 150; 35 Cal. 721; 19 Cal 634; 5 W. R. C. R, 249; 33 Mad. 165.
--बाला
सिर्फ इकट्ठे रहने या एक साथ जायदादके भोगनेसे एकमें शामिल होना नहीं समझा जायगा बल्कि शामिल होने वाले सब कुटुम्बियोंका जायदादका मालिकाना हक़ फिर एक हो जाना चाहिये -- 37 Cal. 703; 7 W. R. C. R. 35; 5 Bom. L. R. 461.
बटे हुए कुटुम्बियों की सन्तान भी अगर चाहे तो फिर एकमें शामिल, हो सकती है परन्तु उन सन्तानों का एकमें शामिल होना हिन्दूलॉ के अभिप्राय के अन्दर नहीं है और न उनके एकमें शामिल होनेसे वरासतमें कुछ असर पड़ेगा--10 Cal. L. R. 161.
मिताक्षरा के अनुसार नीचे लिखे सिर्फ तीन प्रकारके कुटुम्बी ही फिर कमें शामिल हो सकते हैं। इस विषय में वृहस्पति कहते हैं कि-
विभक्तो यः पुनः पित्रा माता वैकत्र संस्थितः पितृव्येणाथवा प्रीत्या स तत्संसृष्ट उच्यते ।
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बटवारा
[आठवां प्रकरण
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(१) पिता और पुत्र । (२) भाई और भाई। (३) चाचा और भतीजे-33 Cal. 371; 10 C. W N. 236.
स्मृति चन्द्रिका, दायभाग, वीरमित्रोदय, और मयूख इनकी भी यही राय है । परन्तु मिथिला स्कूलमें कोई भी मुश्तरका खान्दानका मेम्बर एकमें शामिल हो सकता है। नाबालिगकी तरफसे एकमें शामिल होनेका इक़रार नहीं किया जा सकता, देखो-301. A. 130; 5 Bom. L. R. 469; 30 Cal 725.
सुबूत-जब बटकर फिर कोई शामिल हो जावे तो बार सुबूत उसके ऊपर होगा जो कहे कि फिर शामिल होगये थे, देखो-गोपालचन्द दाद्योदिया बनाम कनीराम दाधोदिया 7 W. R.C. R. 35.
बटवारा-एक बार किसी मुश्तरका खान्दानके बटवारेके पश्चात् यह उस फ़रीनकी जिम्मेदारी होती है, जो कि दुबारा मुश्तरका होना पेश करते हैं,कि वह यह साबित करे,कि खान्दान दुवारा मुश्तरका होगया है। इन वाकयातोंसे, कि सब सदस्य या उनमें से कुछ सदस्य एक साथ एक घरमें रहते हैं या मुश्तरका तिजारत करते हैं या एक साथ सरकारी टैक्स देते हैं, इस प्रकार मुश्तरका खान्दान नहीं साबित होता-जगप्रसादराय बनाम मु.सिंगारी 23 A. L. J. 97; 2 0. W. N. 229; 86 I.C. 1224 L. R. 6 P.C. 111; 27 Bom. L. R. 7608 29 C. W. N. 941; A. I. R. 1925 P.C. 93.2); 49 M. L.J.162 (P.C.)
____ बटवारा-जब किसी मुश्तरका खान्दानका कोई मेम्बर खान्दानसे अलाहिदा हो जाता है, तो दूसरे मेम्बर बिना किसी खास प्रबन्धके मुश्तरका रह सकते हैं। यदि खान्दानके मुश्तरका होने में झगड़ा पड़े तो इस बातपर कि अलाहिदगीके बाद मी व्यवसाय मुश्तरका होता था तसफ़ीहा किया जायगा। जंगबहादुरसिंह बनाम तेजबहादुरसिंह 89 I. C. 556.
शिरकतकी कल्पनाका सुबूत-रघुनाथसिंह बनाम बासुदेवप्रसाद 3 Pat. L. R. 328; A. I. R. 1925 P. 823.
जब परिवारका कोई एक व्यक्ति अलग हो जाय, तो परिवारके संयुक्त रहनेकी कल्पना शेष नहीं रह जाती। सयुक्त होने या दुधारा मिलनेका इनरारनामा साबित प्रमाणित किया जाना चाहिये--तिरखामल बनाम गुरुजी मल 91 I.C.571(1); A. I. R. 1926 Lah. 185.
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दफा ५५३]
न वट सकने वाली जायदाद
(८) बटवारा न हो सकने वाली जायदादका उत्तराधिकार
दफा ५५३ ज्येष्ठका हक़ सब जायदाद पानेका
जिस जायदाद का बटवारा नहीं हो सकता अर्थात् ऐसी जायदाद कि जिसका वारिस खानदानका सिर्फ एक ही आदमी होता है उस जायदाद का उत्तराधिकार रवाज के अनुसार या दानपत्र की या किसी लिखित की शतों के अनुसार होता है-देखो-वैकट नृसिंह अप्पाराव बनाम कोर्ट आफ वार्डस 7 I. A. 38: 6 C. L. R. 153; 24 Mat 613, जायदाद की वरासत हिन्दूलॉ के उत्तराधिकारके साधारण नियमानुसार होगी या 'प्राइमोजे निचर' ( Primogeniture देखो दफा ५५७) के नियम के अनुसार ही इस प्रश्नका निर्णय प्रत्येक मुकदमे में उसकी शहादतके अनुसार होगा, देखो-मल्लिकार्जुन महाराज बनाम दुर्गा महाराज 17 I. A. 134-144; 18 Mad. 406; 32 [. A. 261-269; 28 Mad. 608-515; 10C. W. N. 96-106, 7 Bom. L. R.907.
प्राइमोजेनिवर (दफा ५५७); उत्तराधिकारका वह नियम है कि जिस के अनुसार ज्येष्ठ पुत्रही अपने पिताकी जायदादका वारिस होता है दूसरे पुत्र वारिस नहीं होते। किसी खास रवाज के अनुसार एकही वारिसको जायदाद के मिलनेके नियम पर-बङ्गाल रिजोल्यूशन एक्ट नं०१६ सन् १७६३ ई० का कोई असर नहीं पड़ता-देखो बीरप्रताप शाही बनाम राजेन्द्र प्रतापशाही 12 M. I. A. 179 W. R. P. C. 157 29 I. A. 178; 29 Cal. 828; 7 C. W. N. 57; 4 Bom. L. R 664.
मद्रास रिजोल्यूशननं०२५सन्१८०ई०का असर नहीं पड़ता जो साधारण सनदसे जायदाद दी गयी हो । मगर सनदकी शर्तों और रवाजके अनुसार इसका बिचार होगा, देखो-काची कलियानारे गप्पा कलक्का थोला उदयार बनाम काची यूवारे गप्पा कलक्का थोला उदयार ( 1906 ) 32 I. A. 261269: 28 Mad. 508; 10 C. W. N. 95-106; 7 Bom. L. R.907; 8 I, A. 99; 3 Mad. 290; 17 1. A. 1343 13 Mad. 406; 7 I. A. 38; 14 B. L. R. 115.
पञ्चायत द्वारा बची हुई रकम ( Extra-Sum) को एक पक्षके हिस्से में लगा देना गैर कानूनी नहीं है, किन्तु एलाउन्स ज्येष्ठ भाग नहीं कहा जा सकता, बेथनाथ अय्यर बनाम एस० सुब्रह्मण्य अय्यर A. I. R. 1925 Mad. 301.
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बटवारा
[ आठव प्रकरण
दफा ५५४ न बट सकने वाली जायदाद के नियम
जिस जायदादका बटवारा नहीं हो सकता, उसके उत्तराधिकारका नियम हिन्दूलॉ से अवश्यही भिन्न है परन्तु खान्दान का यदि कोई विशेष रवाज न हो तो उत्तराधिकारका क्रम हिन्दूलॉ के अनुसार होगा, देखो - 23 I. A. 128; 19 Mad. 451; 16 Mad. 11; 17 I. A. 123; 18 Cal. 151154; 9 M. I. A, 543; 2 W. R. P. C. 31.
मिताक्षरा के अनुसार न बट सकने वाली मौरूसी जायदादका उत्तराधिकारी वही आदमी होगा जो कोपार्सनर होता यदि वह जायदाद बट सकती, देखो - योगेन्द्र भूपति हरी चन्दन महा पात्र राजा बनाम नित्यानन्द मानसिंह 17 I. A. 128-131; 18 Cal. 151; 31 Cal. 224.
अलाहिदगी -- न बट सकने वाली जायदाद में यदि कोई कहे कि अमुक पुरुष अलाहिदा रहता था इस वजहसे वह अधिकारी नहीं है तो ऐसा सवाल ऐसी जायदादमें कभी पैदा ही नहीं हो सकता क्योंकि जायदाद एकही आदमी के पास रहेगी तो अलाहिदगी किसकी होगी। वहां ज्येष्ठ का प्रश्न या किसी रवाजका प्रश्न उठा करता है-- देखो, मशहूर केस-ललतेश्वर सिंह बनाम रमेश्वर सिंह (1909 ) 36 Cal. 481; 13 C. W. N. 838. ऐसी जायदाद का उत्तराधिकार हमेशा सरवाइवरशिप (दफा ५५८ ) के नियमानुसार होता है ।
न बट सकने वाली मौरूसी जायदाद जो मिताक्षरालों के प्रभुत्वमें हो उसका क़ाबिज़ मालिक मरजाय और कोई पुरुष सन्तान न छोड़े तथा मुश्तरका खान्दान हो तो उसकी भिन्न शाखाका पुरुष वारिस होगा, विधवा या पिछले मालिककी लड़कियां वारिस नहीं होंगी -- चिन्तामणि सिंह चौधरी बनाम नवलखो कुंवर 2 I. A. 263; 1 Cal. 153; 24 W. R. C. R. 255; 111 A. 149, 7 All. 1. ऐसी जायदाद के क़ाबिज़की जिन्दगीमें उसके वारिसका हक़ केवल "स्पेस् सक्सेशन्" ( Spes Successionis ) होता है अर्थात् केवल उत्तराधिकारी होने की आशा मात्र रहती है अधिक नहीं और उसके इस तरहके हक़का इन्तक़ाल नहीं होसकता है, देखो --ललितेश्वर सिंह बनाम रामेश्वर सिंह 36 Cal. 481.
हक़ीयत नाकाबिल तकसीम -- ताल्लुकेदारी जायदाद भी है--ठाकुर जैइन्द्रबहादुरसिंह बनाम ठाकुर बच्चूसिंह 83 1. C. 382; A. I. R. 1924 Oudh. 218.
अधिकार इन्तक़ाल -- वह रवाज, जिसके अनुसार इन्तक़ालके अधिकारकी अस्वीकृत हो, उदाहरणके सहित शहादत द्वारा सावितकी जानी चाहिये -- इन्तक़ालका उदाहरणका न होना शहादत है किन्तु कभी खिलाफ न हो, प्रतापचन्द्र देव बनाम जगदीशचन्द्र देव A. I. R. 1925 Cal. 116.
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दफा ५५४-५५५
न बट सकने वाली जायदाद
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पूर्वके क़ब्ज़ेदारका गैर जमानती कर्ज--प्रतापचन्द्रदेव बनाम जगदीश चन्द्रदेव A. 1. R. 1925 Cal. 116.
खान्दानी रवाज या किसी अन्य प्रकारसे कब्ज़ा न होनेकी सुरतमें हनीयत नाकाबिल तकसीम इन्तनालके योग्य है-प्रतापचन्द्र देव बनाम जग*दीशचन्द्र देव A. I. R. 1925 Cal. 116.
__ बचत-बचत द्वारा हासिल की हुई जायदाद कब्ज़ेदारकी अलाहिदा जायदाद है--हरिहरप्रसादसिंह बनाम केशवप्रसादासंह A.I.R.1925 Pat.68.
तीस वर्षके बन्दोबस्तके पहिले प्रामगांवकी ज़मीदारी बतौर राज्यके थी और इसीलिये नाकाबिल तक़सीम और एकही उत्तराधिकारके शासनके अधीन थी, तथा खान्दानके दूसरे मौजूदा सदस्य वाजिब परवरिशके और आमदनीके किसी विशेष हिस्सेके पानेके अधिकारी थे। यह ठीक उसी तरह की रियासत थी, जैसी कि सरकारने तीस वर्षके बन्दोबस्तमें ज़मीदारोंको दिया था। इसके अतिरिक्त उस वक्त तक आमगांव खान्दानमें एक रवाज हो गया था कि रियासतपर उसी प्रकार कब्ज़ा रहना चाहिये और उन्हीं शौकी पाबन्दी होनी चाहिये । तीस वर्षके बन्दोबस्तमें या उसके पश्चात् उस ग्रांटकी सूरतमें या खान्दानी रवाजके जायज़ होने में कोई असर न पड़ा था । अतएव ज़मीदारी नाकाबिल तकसीम करार दीगई -मल्हारराव बनाम मार्तण्डराव 84 I. C. 654; A. I. R. 1923 Nag.201. दफा ५५५ स्त्रियोंका वारिस होना
यदि कोई खास रवाज न हो तो मिताक्षराला से शासित होनेवाली न बट सकने वाली मौरूसी जायदादकी वारिस स्त्रियां नहीं हो सकतीं, मगर शर्त यह है कि वह जायदाद पिछले पूरे मालिककी खुद प्राप्तकी हुई न हो, और अगर पिछले मालिकके कोई पुरुष वारिसही नहीं हो तो स्त्रियां वारिस हो सकती हैं। तेखो-हिरन्नाथ कुंवर बनाम रामनरायनसिंह 9 B. L. R. 274; 17 W. R. C. R. 316.
___ जबकि न बट सकनेवाली जायदाद ऐती जायदाद हो जो अलग खुद कमाई गयी हो तो उस जायदादेसे वही नियम लागू होता है जो अलग कमाई हुई जायदादके लिये नियत है (देखो दफा ४१८ से ४२३ ) और स्त्रियां उसी प्रकार उस जायदादकी वारिस हो सकती हैं जैसे कि वे बटवारा हो सकने वाली जायदादकी होती-देखो, जहांपर गवर्नमेन्टने कोई जायदाद किसी कुटुम्बको इनामके तौरपर दी हो-रामनन्दनसिंह बनाम जानकीकुंवर 29 I. A. 178; 29 Cal. 828; 7 C. W. N. 57.
कटम्मानाचियर बनाम राजा शिवगंगासन 9 M. 1. A. 5 43; 2 W. R. P.C. 31. वाले मुकदमे में यह मानागया कि जबतक कि कोई खास रवाज
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६५८
बटवारा -
[आठवां प्रकरण
अचल साबित न की जाय तब तक स्त्रियां न बट सकने वाली जायदादकी वरासतसे बंचित नहीं रखी जासकतीं, इससे यह स्पष्ट है कि यदि कोई पुरुष सन्तान रहित हो तो विधवा आदि वारिस हो सकती हैं, देखो-5 I. A. 61; 1 Mad. 312; 5 I. A. 149; 4 Cal. 190. दफा ५५६ मिताक्षराकी ज्येष्ठ लाइन
मिताक्षराला द्वारा शासित न बट सकने वाली जायदाद जब उत्तराधिकारके क्रममें उतरती है तो खूनके लिहाज़से सबसे नज़दीकी कोपार्सनर को नहीं मिलती बक्लि ज्येष्ठ लाइनके सबसे नज़दीकी कोपार्सनरको मिलती है, देखो -32 I. A. 261; 28 Mal. 508; 10 C. W. N. 95; 7 Bom.L. R. 907.4 Mad. 250; 16Mad. 11; 23 I.A. 128; 19 Mad. 451:11 I. A. 51; 10 Cal. 511; 20 I.A.773 20 Cai. 649.
___ इस उदाहरणमें झाको छोड़कर बाकी सब कोपासेनर हैं। न बट सकने वाली मौरूसी जायदाद इस वक्त अ, के पास है अ, के तीन पुत्र, दो पौत्र और दो प्रपौत्र तथा एक प्रपौत्रका पुत्र मौजूद है। अ,की ज्येष्ठ लाइन में क, घ, ज, झ, हैं।
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(१) अ, मरा तो सब जायदाद अकेले क, को मिलेगी इसमें सन्देह नहीं है। मगर ऐसा मानो कि क, पहिले मरा और पीछे अ, मरा तो फिर जायदाद घ. उसके पोतेको मिलेगी जो सब पोतोंमें ज्येष्ठ है, अगर क. घ. दोनों पहिले मर गये पीछे अ, मरा तो सब जायदाद उसके ज्येष्ठ प्रपौत्र, ज, को मिलेगी।
(२) यदि क, घ, ज, पहिले मर गये पीछे अ, मरा तो अब ज्येष्ठ लाइन के हिसाबसे तो सब जायदाद झ, को मिलना चाहिये मगर आज तक कोई मुक़द्दमा ऐसा देखने में नहीं आया कि जिसमें, पुत्र, पौत्र, प्रपौत्रके मरनेके बाद बुद्ध प्रपितामह अपने प्रपौत्रके पुत्रको छोड़कर मरा होऔर उनके बीचमें ऐसा झगड़ा पैदा हुआ हो। मिताक्षरालॉ के अनुसार ऐसी कोई जायदादही नहीं है कि जो एकही किसी वारिसकी खास सन्तानमें रहे इसलिये माना यह गया है कि जब ऐसी हालत हो तो ख, को सब जायदाद मिलेगी क्योंकि सबसे नज़दीकी कोपार्सनर वही है। मिताक्षरामें दो बातें कही गयी हैं ज्येष्ठ लाइन
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दफा ५५६-५५७ ]
न बट सकने वाली जायदाद
और कोपार्सनर । अ, के जीते झ, कोपार्सनर न था, अ, मरा तब झ, कोपार्सनर हो सकता था अगर उसका बाप, दादा या परदादा जिन्दा होता। वह सूरत भी इस उदाहरणमें नहीं है इसलिये जायदाद ख, को मिलेगी। दफा ५५७ 'प्राइमोजेनिचर' का नियम
___ अगर कोई खास नियम या रवाज बाधक न हो तो, न बट सकनेवाली जायदादका उत्तराधिकार 'प्राइमोजेनिचर'के नियमके अनुसार होता है अर्थात् एकही दर्जेके लोगोंमें ज्येष्ठ ही उत्तराधिकारी सब जायदादका होता है। देखो श्वरीसिंह बनाम बल्देवसिंह 11 I. A. 135-145: 10 Cal. 792-805: भवानी गुलाम बनाम देवराज कुंवारी (1883)5All.542817Mad. 316-325.
कुछ खान्दानों में 'प्राइमोजेनिचर' का नियम नहीं बलि और दूसरी वजेह ज्येष्ठके चुने जानेकी होती है-11 I. A. 51; 29 I. A. 62, 29Cal. 343; 4 B. L. R. 472.
अवध-अवधके ताल्लुक्नेदारोंके विषयमें देखो--देवीबशसिंह बनाम चन्द्रभानसिंह (1910) 37 I. A. 168; 32 All. 599,14 C. W. N. 1010 12 Bom. L. R. 1015. अवधके रईसों ( ताल्लुक्केदारों) में प्रायः यह रवाज अब भी जारी है यदि इसके विरुद्ध साबित हो जाय तो दूसरी बात है।
__ खूनकी नज़दीकी-मिताक्षरालॉ के अनुसार एकही दर्जेके लोगोंमें खून के लिहाज़से नज़दीकी रिश्तेदार होनेकी वजेहसेही कोई पुरुष उत्तराधिकारी नहीं होता जैसे सगे छोटे भाईके होते सौतेला बड़ा भाई चुना जायगा 11
Mad 316. बङ्गाल स्कूलमें माना गया है कि पिछले मालिकके निकटस्थ कुटुम्बियोंमें जो सबसे ज्येष्ठ होगा वही वारिस होगा अर्थात् ज्येष्ठ सौतेले भाईके होते भी सगा छोटा भाई वारिस होगा बङ्गालकी नज़ीर देखो-3B.LR.(P. C.) 13; 12 W. R. (P. C.) 217 17 Mad. 316.
ज्येष्ठ पुत्र-अगर किसी खानदानमें यह रवाज न हो कि पुत्र अपनी माताओंके छोटे बड़े होनेके लिहाज़से वारिस हों तो उस खानदानमें पिछले मालिककी किसी स्त्रीसे भी जन्मा ज्येष्ठ पुत्र वारिस होगा, देखो-रामासामी कामाया नायक बनाम सुन्दरा लिंगासामी 17 Mad. 422, 26 I. A. 55%; 22 Mad. 515; 28 I. A. 100; 23 All. 369; 5 C. W. N. 602; 12 B, L. R. 396.
माना गया है कि यदि कोई रवाज खास न हो तो माकी जात पांतका कुछ असर इस सिद्धान्तमें नहीं पड़ता ( परन्तु पुत्र जायज़ होना चाहिये)2
W. R. C. R. 232; और देखो मेन हिन्दूलॉ7 ed. की दफा 541 P. 733. में कहा गया है कि "प्रिवी कौन्सिलने एक प्रश्न यह फैसला करनेसे छोड़ दिया कि अनुचित कुटुम्ब और जातिकी स्त्रियोंसे पैदा हुये पुत्रोंमें कौन वारिस
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[ आठवां प्रकरण
होगा ? आज कल दूसरी जातिकी स्त्रीसे तो विवाह कभी होता ही नहीं यह वाज बहुत दिनोंसे प्रचलित है यदि कोई पुत्र ऐसे विवाहसे पैदा हो तो वह अनौरस पुत्र होगा और उसे वरासत में अधिकार नहीं होगा इसलिये यह प्रश्न वृथा है । मगर जब विवाह अपनी क़ौममें भिन्न भिन्न खान्दानोंकी लड़कियोंसे हुआ हो और जायज़ हो उनसे पैदा हुये पुत्रोंमें यह प्रश्न ज़रूर उठता है -- मदरासमें इसी तरहका एक मामला पैदा हुआ उसमें दो पुत्र दो माताओं से पैदा हुये थे । बापकी पहिली स्त्री निःसन्तान पहिले मर चुकी थी - पीछेकी स्त्रियोंके ये दोनों पुत्र थे, इनमें जो छोटा बेटा था उसकी माकी शादी बड़े बेटेकी मासे पहिले हुई थी - हाईकोर्टने मानाकि छोटा बेटा वारिस है क्योंकि उसकी मा ऊंचे दर्जे की बेटी है यानी ज्येष्ठ पुत्रकी मा एक रियायाकी लड़की है और छोटे बेटेकी मा एक ज़िमीदारकी लड़की है” देखो - 26 I. A. 555; S. C, 22 Mad. 515.
६६०
बटवारा
ज्येष्ठ पुत्रकी लाइन - ऐसे ज्येष्ठ पुत्रकी मृत्युके बाद जबकि जायदादका वह मालिक बन गया हो तो उस जायदादकी बरासत उसी ज्येष्ठ पुत्रकी ज्येष्ठ लाइन में रहेगी । लेकिन यदि ज्येष्ठ पुत्र जायदादके मालिक होनेसे पहिलेही मर जाय तो फिर उसका पुत्र वारिस होगा या मरनेवालेका भाई, इस प्रश्नका स्पष्ट निर्णय अभी तक नहीं हुआ, देखो मेनहिन्दूलॉ 7 ed. P. 736.
अनौरस पुत्र - यदि ज्येष्ठ पुत्रके नज़दीकी रिश्तेदार न हों बहुत दूरके हों और उसके पिताका एक अनौरस पुत्र हो तो ऐसा माना जा सकता है कि दूसरे बहुत दूर के रिश्तेदारोंके होते वह अनौरस पुत्र ज्येष्ठ पुत्रका वारिस होगा - 17 I. A. 128; 18 Cal. 151.
बटवारा हो सकने वाली जायदाद में जिस तरह हर एक पुरुष मालिक से नया कुटुम्ब बनता है उसी तरह न बट सकने वाली जायदाद के पुरुष मालिक में भी बनता है - 23 I. A. 128; 19 Mad. 451.
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रिक्थाधिकार अर्थात् उत्तराधिकार
नवां-प्रकरण
अब हम सर्व साधारण के समझने के लिये एक जरूरी विषय 'रिस्थाधिकार' को लिखते हैं। रिक्थाधिकारको आजकल लोग उत्तराधिकार अकसर कहते हैं यद्यपि उत्तराधिकार शब्द मिताक्षरालॉमें अशुद्ध है किन्तु प्रचलित होनेके कारण हमने उत्तराधिकार ही शब्दका प्रयोग किया है । उत्तराधिकारका अर्थ है 'वरासत' वरासत हिन्दुओं के बटे हुए खानदानमें होती है । प्राचीन हिन्दू धर्म शास्त्रोंके देखनेसे माल्म होता है कि पहिले हिन्दुओंका खानदान शामिल शरीक रहा करता था। जो खानदान वटा न हो उसे मुश्तरका खानदान अथवा शामिल शरीक परिवार कहते हैं (देखो प्रकरण छठवां) यही हालत खानपान
और धार्मिक कामोंमें थी । खानपान मुश्तरका और धार्मिक कृत्ये भी मुश्तरकन् होती थी । अग्निहोत्र, श्राद्ध आदिमें भी इस बातका प्रमाण मिलताहै । सब से पहिले हिन्दू परिवार शामिल शरीक रहता था। पीछे से बटवाराकी चाल पैदा हुई और जबसे बटवारेका रवाज चला तभीसे वरासत यानी उत्तराधिकार की पैदाइश हुई, क्योंकि वरासत हमेशा बटे हुए परिवारमें होती है, शामिल शरीक खानदानमें नहीं होती यह बात खूब ध्यान में रहे कि इस प्रकरणमें जहां जहां बरासतका क्रम बताया गया है यद्यपि उसमें नये कानूनके अनुसार संशोधन बड़े विचार से कर दिया गया है तो भी आप एक्ट नं० २ सन १९२९ ई. हिन्दू उत्तराधिकार संशोधक ऐक्टके नियमों को वहांगर भूल न जायं । अर्थात उपरोक्त कानून का यह नियम कि, मृत पुरुषकी जायदाद, दादा के पश्चात और चाचा से पहले लड़के की लड़की, लड़की की लड़की, बहन तथा बहनके लड़केको क्रमानुसार पहुंचती है । इसके बाद वही क्रमहै जो पहले था।
___उत्तराधिकारके विषयके शुरू करनेसे पहिले यह बात जरूरी मालूम पड़ती है कि जो पारिभाषिक शब्द प्रायः इस विषयमें आवें संक्षिप्तमें उनकी सूची प्रथम दी जाय दफा५५८में कुछ ऐसे शब्दोंकी सूची दी है । यह नवां प्रकरण निम्न लिखित ८ भागोंमें विभक्त है
(१) साधारण नियम दफा ५५०-५७२ (२) मिताक्षरालॉके अनुसार मर्दोका उत्तराधिकार दफा ५७३-६०५ (३) सपिण्डोंमें वसमत. मिलनेका क्रम दफा ६.३ -१३० (४) समानोदकोंमें वरासत मिलनेका क्रम दफा ६३१-६३२ (५) बन्धुओंमें वरासत मिलनेका क्रम दफा ६३३-६४१ ( ६ ) कानूनी वारिस न होनेपर उत्तराधिकार दफा ६४२ (७) औरतोंकी वरासत दफा ६४३-६५० (५) उत्तराधिकार से वंचित वारिस दफा ६५-६६२.
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उत्तराधिकार
[नयां प्रकरण
(१) साधारण नियम
दफा ५५८ पारिभाषिक शब्दोंकी सूची
(१) सरवाइवरशिप- (Survivorship) यह शब्द 'सरवाइव' से बना है। 'सरवाइव' का अर्थ है पश्चात् जीवन, अति जीवन, और अवशिष्ट । यह शब्द जब वरासतमें शामिल हो जाता है तो उसे 'सरवाइवरशिप' कहते हैं उस वक्त इसका अर्थ होता है 'शेषाधिकार, जीवित रहनेवाले वारिसका हक' इसे यों समझिये कि, जब एकसे ज्यादा आदमी या औरतें किसी जायदादमें 'सरवाइवरशिपके' हनके साथ हिस्सा रखती हों तो उनमें से एकके मरनेपर उसकी जायदादका वह हिस्सा जिसमें सरवाइवरशिपका हक़ शामिल था उसके वारिसको नहीं मिलेगा बक्ति दूसरे जीवित हिस्सेदारोंको बराबर मिलेगा। एवं जब एकके सिवाय सब हिस्सेदार मर जायेंगे तो वह एकही हिस्सेदार सब आयदादका अकेला मालिक होगा।
उदाहरण-राम, कृष्ण, और शिव तीनो सगे भाई हैं तथा तीनोकी स्त्रियां हैं। तीनोको एक जायदाद मिली जिसमें सरवाइवरशिपका हक़ शामिल था। राम मर गया तो अब रामकी जायदादमेंका वह हिस्सा जिसमें सरवाइवरशिपका हक़ शामिल था उसकी विधवाको नहीं मिलेगा बक्लि कृष्ण, और शिवको बराबर मिल जायगा। पीछे कृष्ण मरा तो इसी तरह उसकी विधवा को जायदाद नहीं मिली बक्ति उसकी जायदादका मालिक शिव अकेला हुआ। अब शिव अवशिष्ट रहनेकी वजेहसे यानी पश्चात् जीवनके सबबसे कुल जाय. दादका अकेला वारिस होगया। ऐसे हक्रको 'सरवाइवरशिप' कहते हैं । दफा ५६१ भी देखो।
(२) रिवर्ज़नर-वारिस-रिवर्ज़नर-वारिस' ( Reversioner ) का अर्थ है 'प्रत्यावृत्याधिकारी, परावर्तनाधिकारी, और पुनरागमनाधिकारी । इस शब्दका उपयोग ऐसी जगहपर किया जाता है जैसे-जब किसी आदमीने अपनी जायदाद, या उसका कोई हिस्सा किसी दूसरे आदमीके नाम निश्चित समय तकके लिये अपने कब्जेसे निकालकर उसके कब्जेमें दे दिया हो, तो उस समयके गुज़र जानेपर वह जायदाद मालिकके पास आती है । इसी तरह पर जब कोई जायदाद विधवाको उसकी जिन्दगी भरके लिये वरासत में मिली हो तो वह जायदाद विधवाके मर जानेपर मालिक असली यानी उसके पति को पहिले पहुंचती है और फिर पतिके वारिसको जाती है। वह वारिस जो पतिके सम्बन्धसे पैदा होता है 'रिवर्ज़नर' वारिस कहलाता है इसी तरहपर दूसरी सब बाते समझिये 'भावी वारिस' 'भविष्यमें होनेवाला वारिस' जो
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दफा ५५८ ]
साधारण नियम
वारिस उसके मरनेके पश्चात् होनेवाला हो जिसके कब्जेमें सम्पत्ति है 'रिवजनर' वारिस कहलाताहै।
(३) टेनेन्ट इन् कामन्-( Tenant in Common ) क्राबिज़ शरीक, असामियान मुश्तर्क; जब एक या एकसे ज्यादा लोग किसी हनमें शामिल हों और उस हकमें सरवाइवरशिपका कायदा लागू न होता हो तो ऐसे हकमें जो लोग शरीक हैं वे टेनेन्ट इन् कामन् कहलाते हैं।
(४) ज्वाइन्ट टेनेन्ट-(Joint Tenant ) काबिज़ मुश्तर्क, अर्थात् जब किसी हकमें कई लोग शरीक हों और वे सब सरवाइवरशिपके कायदेके साथ हक़ रखते हों तो वे लोग जो इस तरह पर शरीक हैं 'ज्वाइन्ट टेनेन्ट' कहलाते हैं।
(५) पर केपिटा-(Per Capita) यह शब्द लेटिन भाषाका है जिसका अर्थ है 'व्यक्तिगत' इसका व्यवहार अधिकतर बटवारेमें किया जाता है वहां पर इसका अर्थ होता है 'शिर पीछे बटवारा' या 'आदमी पीछे बटवारा' या व्यक्तिगत, ऐसा बटवारा उस सूरतमें होता है जबकि अनेक लोग एकही रिश्ते
और हनसे किसी जायदादमें हिस्सा रखते हों, जैसे 'क' अपने तीन पुत्रोंको छोड़कर मरा तो यह तीनो पुत्र यापकी जायदादमें बराबरके हिस्सेदार होंगे क्योंकि वे एकही रिश्ते और हकसे जायदादमें हिस्सा रखते हैं ऐसे बटवारे को 'परकेपिटा' यानी व्यक्तिगत कहते हैं।
(६) पर स्ट्रिपेस-( Per stripes ) यह शब्द लेटिन भाषाका है। इसका अर्थ बटवारेमें होता है 'लाट पीछे बटवारा' जैसे 'क' के दो पुत्र हैं 'ख' और 'ग' । तथा 'ख' के भी दो पुत्र हैं। 'ख' पहले मरा और उसने अपने दोनों पुत्र छोड़े; 'क' मरा । अब 'क' की जायदाद पहले (परकेपिटाके अनुसार) दो हिस्सोंमें बटेगी उसमेंसे एक हिस्सा 'ग' को मिलेगा और दूसरे एक हिस्से में परस्ट्रिपेसके अनुसार 'ख' के दोनों पुत्र बराबर बराबर हिस्सा पावेंगे क्योंकि इन दोनों पुत्रोंका 'लाट पीछे बटवारा होगा। 'ख' के दोनों पुत्र अपने बापके 'लाट' के अनुसार बरावर हिस्सा पावेंगे।
(७) लेटर्स आव एडमिनिस्ट्रेशन् -(Letters of Administration) इसका अर्थ है-चिट्टियात अहतमाम' यानी जायदादके वारिसको उस जाय. दादपर अधिकार करनेकी जो आज्ञा (सनद ) अदालतसे मिलती है उसे 'लेटर्स श्राव् एडमिनिस्ट्रेशन' कहते हैं। (८) कुछ रिश्तेदारों अर्थात् सम्बन्धियोंकी संक्षाः
लड़का २ पौत्र
पोता
लड़केका लड़का ३ प्रपौत्र
परपोता . लड़केके लड़केका लड़का
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હૃ
४ पितृ ५ पितामह ६ प्रपितामह
७ मातृ
८ पितामही & प्रपितामही
१० मातामह
११ प्रमातामह
१२ वृद्ध प्रमातामह
१३ मातामही
१४ प्रमातामही १५ वृद्ध प्रमातामही
१६ पुत्री- दुहि १७ दौहित्र
१५ मातुल
१६ भ्राता
२० भ्रातृ पुत्र २१ भगिनी
२२ भागिनेय
२३ मातृष्वसृसुत २४ पितृष्वसा २५ पितृष्वसृसुत २६ सहोदर
२७ भिन्नोदर २८ पितृभ्रातृ-सुत २६ पितृव्य
उत्तराधिकार
पिता-बाप
दादा
परदादा
मा-माता
दादी
परदादी
नाना
मामा
भाई
भतीजा
बापकी मा-पितामहकी स्त्री
बापके बापकी मा-प्रपितामहकी स्त्री
मा का बाप
परनाना
माके बापका बाप - नानाका बाप
नगढ़ नाना
माके बापके बायका बाप = परनानाका बाप माकी माता नानाकी स्त्री
नानी
परनानी
माके बापकी मा-परनानाकी स्त्री नगड़नानी माके बापके बापकी मा-नगड़नानाकी स्त्री
लड़की-बेटी
दोहिता- नाती
बहन
भानजा
मौसीका लड़का
[ नवां प्रकरण
चापका बाप
बापके बापका बाप
बुआ
बुवाका लड़का
सगा
सौतेला
चाचाका लड़का चाचा, काका, ताऊ
लड़कीका लड़का
माका भाई - नानाका लड़का
भाईका लड़का
बहनका लड़का
माकी बहनका लड़का बापकी बहन
बापकी बहनका लड़का जो एकही गर्भसे पैदा हुए हों जो एक गर्भसे नहीं पैदा हुए
बापके भाईका लड़का बापका भाई
दफा ५५९ उत्तराधिकार कैसी जायदाद में होता है ?
यह बहुत ज़रूरी बात है इसको हमेशा ध्यान में रखकर उत्तराधिकार यानी वरासत के सवालपर विचार करना चाहिये । अगर इस बातको भूलकर विचार कीजियेगा तो भारी गलती हो जायेगी । जब कभी उत्तराधिकारकी बात आप विचार करें तो सबसे पहले यह सोच लेना कि - सबसे आखिरी मर्द मालिक के क़ब्ज़े में जो जायदाद बिल्कुल अलहदा हो उसी जायदाद के सम्बन्धमें उत्तराधिकारका क़ानून लागू होगा; मुश्तरका जायदादमें नहीं; अर्थात् बटे हुये हिन्दू खान्दानमें जब जायदाद किसी आखिरी मर्द मालिकके पास
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दफा ५५६-५६१ ]
साधारण नियम
रहती है और उस जायदाद में किसी दूसरेका हिस्सा मुश्तरक नहीं रहता तो उस आखिरी मर्द मालिकके मरनेके बाद उसकी जायदाद जिस आदमी या औरतको पहुंचती है वह मरे हुये मालिकका उत्तराधिकारी होता है । यानी सबसे आखिरी मालिकके पास जो जायदाद उसके क़ब्ज़े में सबसे अलहदा रही हो सिर्फ उसीपर वरासतका क़ानून लागू पड़ेगा ।
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दफा ५६० वरासत दो तरह से निश्चित की जाती है
इस किताब के प्रथम प्रकरणमें स्कूलोंका विषय बयान किया गया है । उसमें दो बड़े स्कूल हैं । एक मिताक्षरा स्कूल और दूसरा दायभाग स्कूल | दायभाग स्कूल सिर्फ बङ्गाल में माना जाता है और बाक़ी सब जगहों में मिताक्षरा स्कूलका प्रभुत्व है । इन्हीं स्कूलोंके अनुसार समस्त हिन्दुस्थानमें दो तरहकी वरासतका होना निश्चित किया गया है- - एक मिताक्षरा स्कूल के अनुसार और दूसरा दायभाग स्कूलके अनुसार । इन दोनों क़ायदोंमें फरक यह है कि मिताक्षरा स्कूल खूनके रिश्तेसे वरासत क़ायम करता है और दायभाग स्कूल धार्मिक कृत्योंके, यानी मज़हबी रस्मातके सम्बन्धसे इस तरहपर दोनों स्कूलोंके सिद्धान्त आपसमें विरुद्ध हैं । इसी सबबसे वरासत दो तरह से निश्चित की जाती है ।
स्वयं उपार्जित जायदादके लिये पूर्ण रुधिर और अर्द्ध रुधिरका सिद्धान्त माना जायगा - आत्माराम बनाम पोडू A. I. R. 1926 Nag. 154.
तरीक़ा वरासत अगर क़ानूनके खिलाफ हो तो क़ानूनके खिलाफ वरासतका तरीक़ा नहीं माना जा सकता - हरबक्ससिंह बनाम डालबहादुर 47 All. 186; 88 I. C. 255; A.. I. R. 1925 All. 155.
मिताक्षरा स्कूल के अनुसार वरासत पानेका हक़दार, परिवारकी रिश्तेदारीसे निश्चित किया जायगा; देखो -- लल्लूभाई बनाम काशीबाई 5 Bom. 110, 121; 7 I. A. 212, 234.
दायभाग स्कूल के अनुसार वरासत पानेका हक़दार, वह माना गया है. जो मरे हुये आदमीको धार्मिक कृत्य द्वारा लाभ पहुंचानेका ज्यादा अधिकारी हो; देखो - जितेन्द्रमोहन बनाम गजेन्द्रमोहन 9 B. L. R 377, 394. दफा ५६१ मिताक्षरालॉके अनुसार जायदाद कैसे पहुंचती है
मिताक्षरालों के अनुसार जब किसीको जायदाद मिलती है तो वह दो सूरतों में से कोई एक होती है । मिताक्षरालॉ में जायदाद दो सूरतोंसे पहुंसूचना माना गया है- - एक तो 'सक्सेशन' और दूसरा 'सरवाइवरशिप' । 'सक्सेशन' का अर्थ है सिलसिला, जानशीनी, अनुक्रम, परंपरा, आनुपूर्व, उत्तराधिकारिता, दायभाग । और 'सरवाइवरशिप' का अर्थ है कि - हिन्दू परिवार
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उत्तराधिकार
[ नवां प्रकरण
में मुश्तरका जायदाद के हिस्सेदारके मरने के बाद जो हिस्सेदार जीवित रहता जाय उन्हीं में जायदाद चली जायगी देखो दफा ५५८ । इन्हीं दोनों सूरतोंसे मिताक्षरालॉ में जायदाद वरासतन पहुंचना माना गया है । 'सरवाइवरशिप' का तरीक़ा मुश्तरका परिवारकी जायदाद के लिये लागू होता है जिसपर कि आखिरी मालिक बिल्कुल अलहदा क़ब्ज़ा रखता हो ।
६६६
उदाहरण - जय और विजय दोनों भाई हैं और शामिल शरीक परिवारके मेम्बर हैं तथा मिताक्षराला के प्रभुत्वमें रहते हैं । जय, मरा और उसने भाई विजय को और अपनी विधवा स्त्री तुलसीको छोड़ा । अब जयका हिस्सा चज़रिये हक़ 'सरवाइवरशिप' के विजयको मिलेगा, उसकी विधवा तुलसीको नहीं मिलेगा । मगर तुलसीको सिर्फ रोटी कपड़ा मिलनेका हक़ रहेगा । लेकिन अगर जय और विजय दोनों अलहदा होते तो जयकी जायदाद उसके मरने पर उसकी विधवा तुलसीको मिलती और तुलसी, बतौर वारिस के जायदादकी मालिकिन होती विजय, नहीं होता । यह माना गया है कि विधवा ऐसी सूरत में भाईके बनिस्बत नज़दीकी वारिस है ।
रक्त सम्बन्ध - मिताक्षरालों के अधीन किसी हिन्दू के सम्बन्धमें ऐसे सपिण्ड वारिसों के मध्य जो कि समान हैसियत के हों, वह वारिस होगा जिसका रक्त सम्बन्ध पूरा होगा बमुकाबिले उसके जिसका रक्त सम्बन्ध आधा होगा । यह पूर्ण रक्त और अर्द्ध रक्तकी गुरुता केवल भाई और भाईके पुत्रों तकही निर्भर नहीं है बल्कि इसका अमल सपिण्ड सम्बन्धियों तक होता है-नारायन बनाम हामजी 21 N. L. R. 163.
दफा ५६२ दायभागलॉके अनुसार जायदाद कैसे पहुंचती है
दायभागलॉके अनुसार जायदाद सिर्फ एकही तरीकेसे पहुंचती है । वह तरीक़ा 'सक्सेशन है, देखो दफा ५६१ दायभाग मुश्तरका परिवारकी जायदाद के बारेमें भी 'सरवाइवरशिप दफा ५५८' का तरीका नहीं मानता । तात्पर्य यह है कि मिताक्षरालॉके अन्दर मुश्तरका खान्दानका हर एक मेम्बर मुश्तरका जायदाद में सिर्फ शामिल शरीक हक़ रखता है और दायभागलों के अन्दर मुश्तरका खान्दानका हर एक मेम्बर अपने हिस्सेका अलहदा अलहदा मालिक होता है । इसी सबबसे उसके मरनेपर उसका वारिस उसकी मुश्तका जायदाद के हिस्सेका उसी तरह मालिक हो जाता है मानो जायदाद के उतने हिस्सेका वह ( मरनेवाला ) अलहदा मालिक था ।
दायभाग - वरासतका मस्ला दायभागके सम्बन्धमें, इस सिद्धान्तपर चलता है कि केवल वही वारिस हो सकते हैं जो कि उस व्यक्तिकी, जिसकी जायदाद के वह वारिस हो रहे हैं आत्माको लाभ पहुंचा सकें । बङ्गाल प्रणाली के अनुसार पुत्रीके पुत्रका पुत्र वारिस नहीं हो सकता । उस सूरत में भी जब
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दफा ५६२-५६३ ]
साधारण नियम
कि मुतवफ्रीका कोई ऐसा वारिस न हो जो उसकी आत्माको लाभ पहुंचा सके, नज़दीकी सम्बन्धीके लिहाज़से भी पुत्रीका प्रपौत्र वारिस नहीं होसकता नेपालदास मुकुरजी बनाम प्रभासचन्द्र 90 I. C. 499; 42 C.L. J.221. .
उदाहरण-जय और विजय दोनों भाई हैं और मुश्तरका परिवारके मेम्बर हैं तथा दायभागलों के प्रभुत्वमें रहते हैं। जय मर गया और उसने अपने भाई विजय और अपनी विधवा तुलसीको छोड़ा। ऐसी सूरतमें जयका हिस्सा जो मुश्तरका जायदादमें था वह उसकी विधवाको बतौर वारिसके ठीक उसी तरहपर मिल जायगा मानो वह दोनों अलहदा रहते थे। अर्थात् दायभागलॉ के अनुसार मुश्तरका स्नानदानके हर एक मेम्बरके मरनेपर उनके वारिस जायदाद पाते हैं जितने हिस्सेका मरनेवाला अपनी ज़िन्दगीमें मालिक था। यह मानागया है कि भाईकी बनिस्बत विधवा नज़दीकी वारिस होती है। दफा ५६३ वारिस किस तरह निश्चित करना चाहिये ।
जब किसी जायदादका वारिस निश्चित करना हो तो पहिले यह मालूम करो कि उस जायदादका आखिरी पूरे अधिकार रखनेवाला मालिक कौन था। जब यह मालूम हो जाय तो उस आखिरी पूरे अधिकार रखनेवाले मालिकका वारिस अब जो कोई हो वही जायदाद पानेका हकदार है। आखिरी पूरा मालिक वह है (चाहे मर्द हो या औरत ) जिसके कब्ज़ेमें जायदाद सबसे पीछे सम्पूर्ण अधिकारों सहित और अलहदा रही हो। जैसे
उदाहरण-मङ्गल, और अतुल दो भाई हैं । इनकी माकानाम है सुभद्रा और मंगलकी स्त्रीका नाम चन्द्रमुखी है। चाचा ( बापका भाई ) का नाम बल. वन्त है । मंगल मरा और उसने अपनी विधवा चन्द्रमुखी भाई अतुल, मा सुभद्रा और चाचा बलवन्तको छोड़ा। मगर मंगल आखिरी पूरा मालिक उस जायदादका था जो उसके क़ब्ज़ेमें अलहदा थी इस वजहसे उसकी विधवा चन्द्रमुखी बतौर वारिसके पतिकी जायदाद लेगी, लेकिन विधवा उस जायदादकी पूरी मालकिन नहीं है, इसीलिये इस जायदादका वारिस निश्चित करने के लिये विधवासे गिनती नहीं की जायगी। विधवाके मरनेपर जायदादका जो आखिरी पूरा मालिक मंगल था उसके दूसरे वारिसको मिलेगी। यानी उसकी मा सुभद्रा वारिस है उसको मिलेगी। मा भी जायदादकी पूरी मालकिन नहीं होगी इसलिये मा के मरनेपर जायदाद माके वारिसको नहीं मिलेगी। अब वारिस फिर उसी तरहपर तलाश किया जायगा कि जायदादका आखिरी पूरा मालिक कौन था ? जायदादका आखिरी पूरा मालिक मंगल था तो अब माके मरनेपर मंगलके दूसरे धारिसको मिलेगी। मंगलका अब वारिस उसका भाई अतुल है। तो अतुलको जायदाद मिली, अतुल मर्द होनेके सबबसे संपूर्ण अधिकारों सहित जायदादको पाता है वह जायदादका पूरा मालिक होगया और इसलिये अतुलके मरनेपर जायदाद अतुलके वारिसको मिलेगी न कि
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उत्तराधिकार
[नवां प्रकरण
मंगलके वारिसको । क्योंकि अब जायदादका आखिरी पूरा मालिक अतुल था। अगर अतुलके कोई लड़का वगैरा हुआ तो वह उसका वारिस होगा और अगर लड़का न हुआ तो विधवा वारिस होगी, विधवाके मरनेपर वारिस फिर उसी तरहपर तलाश किया जायगा क्योंकि विधवाको महदूद अधिकार जायदादमें था। अब अगर तलका वारिस उसका चाचा बलवन्त होगा तो उसे मिल जायगगी, और चाचाके मरनेपर चाचाके वारिसोंको जायदाद मिलेगी क्योंकि चाचा मर्द होनेकी वजहसे सम्पूर्ण अधिकारों सहित जायदाद लेता है। दफा ५६४ मर्द जायदादका पूरा मालिक होता है
जिस जायदादका वारिस कोई मर्द होता है तो वह सम्पूर्ण अधिकारों के साथ जायदाद लेता है इसलिये वह जायदादका पूरा मालिक होता है और उसीसे अगला वारिस निश्चित किया जाता है।
जब कोई जायदाद बतौर वारिसके किसी 'औरत' को मिलती है तो वह उस जायदादपर महदूद हक्क रखती है यानी वह उस जायदादकी पूरी मालकिन नहीं मानी जाती (बम्बई और मदरासके सिवाय) और इसीलिये आगेका वारिस निश्चित करनेके लिये उस औरतसे गिनती नहीं की जायगी बक्लि आखिरी पूरे मालिकसे की जायगी। जब कोई औरत ऐसी जायदाद जो उसने बतौर वारिसके किसी मर्दसे पायी हो छोड़कर मर जाय, तो वह जायदाद चाहे उस औरतने किसी मर्दसे या किसी औरतसे पाई हो, उस औरतके वारिसको नहीं मिलेगी बक्लि जिस मर्दसे वह जायदाद चली है उस मर्दके दूसरे वारिसको मिलेगी। मगर औरतका स्त्रीधन औरतके वारिस को मिलेगा।
बम्बई प्रान्तमें कुछ औरतें ऐसी मानी गयी हैं जो जायदादको पूरे अधिकारों सहित लेती हैं इसी सबबसे उनके मरनेपर जायदाद उनके वारिसों को मिलती है। औरतका स्त्रीधन उसके वारिसको ही मिलता है। देखो प्रकरण ११ में दफा ६८२; ६८३; ६८६. दफा ५६५ बंगाल, बनारस और मिथिला स्कूलमें कितनी
औरतें वारिस मानी गयी हैं ? बङ्गाल, बनारस, और मिथिला स्कूलके अनुसार सिर्फ पांच औरते मर्द की जायदादकी वारिस मानी गई हैं। मदरास स्कूलमें इससे कुछ ज्यादा औरतें और बम्बई स्कूलमें उससे भी ज्यादा औरतें वारिस मानी गयी हैं। मदरास और बम्बई स्कूलकी औरतोंका वर्णन देखो (दफा ६४०, ६४१ ) वह पांच औरतें जिनका ऊपर ज़िकर किया गया है यह हैं-(१) विधवा (२)
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दफा ५६४-५६६ ]
साधारण नियम
लड़की (३) मा (४) बापकी मा ( दादी ) (५) पितामहकी मा ( परदादी ) पहिले सिर्फ ५ औरतें वारिस मानी जाती थीं मगर अब नये क़ानूनके अनुसार बङ्गालको छोड़कर लड़केकी लड़की, लड़की की लड़की, और बहन तीन औरतें . अधिक वारिस मानी गई हैं अर्थात् अब ८ औरतें वारिस होती हैं । नया क़ानून इस प्रकरणके अंतमें लगा है देखिये ।
६६ε
बङ्गाल स्कूलमें नये क़ानून की ३ औरतें वारिस नहीं मानी गयी, लेकिन अन्य स्कूलोंमें वह वारिस होती हैं। दफा ५६६ उत्तराधिकारकी जायदाद में औरतोंका हक़ महदूद है
जब औरतको जायदाद किसी मर्दसे, या किसी औरतसे बतौर वारिस के मिलती है तो उसका अधिकार उस जायदादपर महदूद रहता है । इसीलिये जब कोई हिन्दू बटे हुये परिवारका एक भाई और अपनी विधवाको छोड़ कर मर जाय तो उसकी विधवा बतौर वारिसके उसकी जायदाद पायेगी, भाई नहीं पायेगा । मगर विधवाका अधिकार उस जायदादपर महदूद (मर्यादा युक्त, संकुचित ) रहेगा। यानी विधवाको सिर्फ जायदादकी आमदनीके खर्च करनेका अधिकार है मगर वह जायदादको रेहन कर देने, बेंच देने, या किसी को दान कर देने आदिका अधिकार सिवाय उन सूरतोंके कि जिनका ज़िकर इस हिन्दूलॉ के अन्दर दफा ६०२ में है, नहीं है। विधवा के मरने पर वह जायदाद उसके वारिसको नहीं मिलेगी बल्कि उसके पतिके वारिसको मिलेगी यानी भाईको मिलेगी । यह याद रखना कि विधवाको जब कोई जायदाद किसीके वारिस होने की वजहसे मिलेगी तो उस जायदाद में उसके पूरे अधिकार नहीं होंगे। इसी तरहपर हिन्दुओंकी हर एक औरत ( विधवा लड़की, मा, दादी, परदादी, लड़के की लड़की, लड़की की लड़की और बहन ) का अधिकार उस जायदाद में महदूद रहता है जो उसे उत्तराधिकार में मिलती है।
मर्द, चाहे किसी मर्दका, या किसी औरतका वारिस हो उसे जायदाद मालिकाना तौर से अर्थात् सम्पूर्ण अधिकारों सहित मिलती है इसीलिये मर्द को जब कोई जायदाद उत्तराधिकार में मिलेगी तो उस जायदाद पर उसका पूरा अधिकार रहता है । और पूरा अधिकार रहने की वजहसे वारिस उस मर्द से निश्चित किया जाता है ।
विधवाको दी हुई जायदाद - जब विधवाको पूर्ण अधिकार दिया गया हो, तो वह उसे बिना इस ख़्यालके कि वह स्त्री है प्राप्त होना चाहिये-सन्देहात्मक मौके पर परिमित अधिकारही माना जाता है- इन्तक़ालके पूर्ण अधिकारोंके होने की सूरतमें कोई बाधा उपस्थित नहीं होती - हितेन्द्रसिंह बनाम सर रामेश्वरसिंह 87 I. C. 849; 88 I. C. 141 (2) ; 4 Pat. 510; 6 P. L. T. 634; A. I. R. 1225 Pat, 625,
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६७० rrrrrrrrrrrrrrrrrrrammar
उत्तराधिकार
[नवां प्रकरण
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नोट-बम्बई और मदरास प्रान्तमें कुछ औरतें पूरे अधिकारके साथ जायदाद लेती है देखो दफा ६४०-६४१. दफा ५६७ वरासतका हक़ फौरन पहुंच जाता है ____एक हिन्दू मर्दके मरनेपर जो आदमी उसका नज़दीकी वारिस होता है उसकी छोड़ी हुई जायदादके पानेका फौरन हकदार हो जाता है। वारिसाना हक़ उसी वक्तसे मिल जाना शुमार किया जायगा जिस वक्तकि जायदादका मालिक मर गया हो । वारिसाना हक़ किसी सूरतमें भी, उससे ज्यादा नज़दीकी वारिसकी पैदाइशकी उम्मेदमें नहीं ठहर सकता। जहां कि ऐसी पैदाइशका होना मालिक जायदादके मरनेके समय अन्दाज़ नहीं किया जा सकता हो और जब एक दफा किसी हिन्दू आदमीकी जायदाद उसके मरनेपर उसके मजदीकी वारिसको मिल गयी तो फिर वह उससे नहीं लौट सकती, मगर शर्त यह है कि जब कोई उससे नज़दीकी वारिस जिसका अन्दाज़ मालिक जायदादके मरनेके समय किया जा सकता था पैदा हो जाय, अथवा मरे हुये उस आदमीके लिये अगर कोई लड़का गोद ले लिया जाय तो फिर जायदाद लौटकर इन आखीरमें कहे हुये वारिसोंको मिल जायगी देखो-नीलकमल बनाम जोतेन्द्रो (1881) 7 Cal. 178, 183. कालिदास बनाम कृष्ण 2Beng. L. R. F. B. 103; नृपसिंह बनाम वीरभद्र (1893) 17 Mad. 287. गोवर्द्धनदास बनाम बाई रामकुंवर (1902) 26 Bom. 449, 467.
उदाहरण-ललित,अपना एक जन्मका अन्धाबेटा,और एक भतीजा छोड़ कर मरगया। लड़का अन्धा होनेकी वजहसे हिन्दूलॉके अनुसार उत्तराधिकार को प्राप्त नहीं होता। इसलिये ललितकी सब जायदाद उसके भतीजेको मिली। अन्धे बेटेने ब्याह किया और उसके एक लड़का 'अमृत' पैदा हुआ। भतीजे से अमृत, ललितका नज़दीकी वारिस है, इसलिये कि ललितका अमृत पोता है। अमृत भतीजेसे जायदाद वापिस मांगता है मगर वह जायदादके पाने का हक़दार नहीं है क्योंकि ललितके मरतेही उसकी जायदाद भतीजेको उत्तराधिकारके अनुसार प्राप्त होगयी थी। ऐसी सूरतमें दो बातें पैदा होती हैं पहिली यहकि अगर ललितके मरनेके समय अमृतकी पैदाइशका अनुमान किया जा सकता था तो जायदाद भतीजे से वापिस मिलेगी, दूसरे यह कि अगर ऐसा अनुमान उस वक्त नहीं किया जा सकता था तो नहीं मिलेगी।
भावी वारिसके हकमें वरासतका ठीक वक्तले पहिले पहुंचना तब तक नाजायज़ है, जब तककि बिधवाका समस्त रियासतसे पूर्ण अधिकार न उठ जाय-मु० भगवतीबाई बनाम दादू खुशीराम A. I. R. 1925 Nag. 95. दफा ५६८ बेटा, पोता, परपोताका इकट्ठा हक़दार होना - एक बेटा और एक पोता जिसका बाप मर गया है, और एक परपोता जिसका कि बाप और दादा दोनों मर गये हैं, यह सब मिलकर अपनी पैतृक
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दफा ५६७-५६८]
साधारण नियम
६७१
संपत्तिके एकदम वारिस होजाते हैं जो पैतृक संपत्ति अलहदा और बिला किसीकी शिरकतके कमाई गयी हो। सिवाय ऐसी सूरतके और जगहपर ऐसा हक़ एकदम प्राप्त नहीं होता; देखो-मारूदाजी बनाम दुराइसानी 30 Mad 348. प्रथम उदाहरण
ब्रह्मदेव
गणेश
महेश+
रमेश+
सुरेश+
शम्भू
विजय+
अमृत+
राम
अज . +यह निशान मरेहुयेका है
कृष्ण ब्रह्मदेव एक हिन्दू है। उसके एक बेटा 'गणेश' और एक पोता 'शंभ और परपोता 'अज' और एक परपोतेका बेटा 'कृष्ण' है । महेश, रमेश बिजय सुरेश, अमृत, और राम मरचुके हैं उसके बाद ब्रह्मदेव मरा तो जायदादकी तकसीम कैसे होगी?
अगरब्रह्मदेवके वारिस जायदाद तकसीम कराना चाहें तो हो सकती है। अब देखिये ब्रह्मदेवकी जायदाद तीन वराबर हिस्सोंमें तक़सीम होगी। गणेश, शंभू , और अज तीनों एकएक हिस्सा लेंगे। गणेश अकेला सब जायदाद नहीं ले सकता, शंभू अपने बाप महेशका हिस्सा लेगा, अज अपने दादा रमेशका हिस्सा लेगा, मगर कृष्णको कुछ भी हिस्सा नहीं मिलेगा, क्योंकि कृष्ण दोनों तरफसे मिलाकर ब्रह्मदेवसे चौथी पीढ़ीके गहर निकल जाता है। स्थानापन्न होकर हिस्सा बटानेका अधिकार चौथी पीढ़ीके बाहर वालेको नहीं है। . दूसरा उदाहरण- ब्रह्मदेव
गणेश महेश रमेश
शम्भू शिव विजय
+यह निशान मरेहुयेका है अज अमृत मुकुंद
ब्रह्मदेव एक हिन्दू मर गया। उसने एक बेटा गणेश, दो पोते शंभू और शिव और तीन परपोते अज, अमृत मुकुन्दको छोड़ा।
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६७२
उत्तराधिकार
[नवां प्रकरण
ब्रह्मदेवके वारिस, अगर उसकी जायदाद तक़सीम कराना चाहें तो जायदाद पहिले तीन बराबर हिस्सोंमें बाटी जायगी। उसमेंसे एक हिस्सा गणेशको मिलेगा, एक हिस्से में शंभू और शिवको हिस्सा मिलेगा, और एक हिस्लेमें अज अमृत मुकुन्दको हिस्सा मिलेगा। यानी गणेश अपने बापकी, शंभू और शिव अपने दादाकी, अज, अमृत, मुकुन्द अपने परदादाकी जायदाद का भाग पायेंगे और उस भागमें सब लड़के बराबरके हिस्सेदार होंगे, एक हिस्सा जायदादका गणेशको मिलेगा जिसमें वह अकेला मालिक है और एक हिस्सा जो शम्भू और शिवको मिलेगा उसमे यह दोनों बराबरके हिस्सेदार होगें एवं अज, अमृत, मुकुन्द अपने परदादाके हिस्से में बराबरके हिस्सेदार होंगे। अगर गणेशके एक लड़का होता तो दोनों मिलकर तिहाई हिस्सा लेते और उस लड़केकी मौरूसी जायदाद गणेशके हाथमें होती जिसके ऊपर लड़केका हक उसकी पैदाइशसे होजाता। . तीसरा उदाहरण- . . ब्रह्मदेव ... .
लड़की+
( भाई ) अमृत
सुरेश+
गणश
+यह निशान मृत पुरुषोंका है। ब्रह्मदेव हिन्दू है और उसके पास बिला शिरकतकी जायदाद है । ब्रह्मदेव भरा और उसने अपने नवासेके लड़के गणेश, को और भाई अमृत, को छोड़ा सुरेश जो ब्रह्मदेवका नवासा यानी दौहित्र होता है वह ब्रह्मदेवके मरनेसे पहिले मर गया था और लड़की भी मर चुकी थी। अब देखिये हिन्दूलाँके अनुसार ब्रह्मदेवकी जायदाद उसका भाई अमृत पायेगा गणेश नहीं पायेगा अगर सुरेश जीता होता जब कि ब्रह्मदेव मरा था तो अमृतसे पहिले वह जायदाद पाता क्योंकि वह नवासा होने की वजहसे भाईके पहिले जायदाद पाता है। मगर वह ब्रह्मदेवसे पहिले मर गया इस सबबसे उसको जायदाद प्राप्त नहीं हुई थी। यहां पर गणेश अपने बाप सुरेशके स्थानापन्न होकर उसके हकको नहीं ले सकता और न उसके द्वारा जायदादका मालिक बन सकता है। हिन्दूलॉके अनुसार ठीक वारिस वही आदमी है जो पिछले मालिक के मरनेके समय सबसे नज़दीकी वारिस होता है और कोई भी आदमी किसी ऐसे दूसरे आदमीके द्वारा जायदाद पानेका हक़दार नहीं बन सकता जिसने कि खुदही जायदाद नहीं पायी । यही सिद्धांत यहांपर लागू किया है क्योंकि सुरेशकी ज़िंदगी में ब्रह्मदेवकी जायदाद उसे नहीं मिली थी, इसी सबबसे गणेशका हक़ मारा गया।
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साधारण नियम
दफा ५६६ - ५७० ]
दफा ५६९ उत्तराधिकारका हक़ किसीको नहीं दिया जासकता
उत्तराधिकारका हक़ जबतक उसे प्राप्त न हो ऐसा माना जायेगा कि मानोउसे वह हक्र प्राप्तही नहीं है, यानी वह हक़ हासिलशुदा नहीं होता। इसीलिये उत्तराधिकार के हक़का क़ानूनी जायज़ इन्तक़ाल नहीं होसकता अर्थात् इस हक़ को कोई मर्द या औरत रेहन या बय या और किसी तरहपर इन्तक़ाल नहीं' करसकती और न किसीको दे सकती है; देखो - ट्रांसफर श्राफ प्रापरटी एक्ट की दफा ६ सन १८८२ ई० यह दफा इस प्रकार है -
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"अगर कोई आदमी अपने उत्तराधिकारके हक़के प्राप्त होनेके पहिले किसी दूसरे आदमी के साथ उस हक़के बारेमें कोई शर्त या मुनाहिदा करले तो वह शर्त या मुआहिंदा जबउसे ऐसा हक़ प्राप्त होगा पाबंद नहीं कर सकेगा " और देखो - बहादुरसिंह बनाम मोहरसिंह (1901) 24 Cal. 94; 29 I:A.1. दफा ५७० मिताक्षरा स्कूलमें सरवाइवरशिपू चार वारिसों में होता है
.
आमतौरपर मिताक्षरास्कूल के अनुसार अगर दो या दोसे ज्यादा आदमी उत्तराधिकारी हों तो वह जायदादको बतौर क़ाबिज़शरीरके लेते हैं बानी सरवाइवरशिप ( देखो दफा ५५८ ); का हक़ नहीं रहता । मगर चार तड़के ऐसे वारिस होते हैं जो इस तरह पर जायदादको नहीं लेते, बक्लि वह सरवाइवरशिप (देखो दफा ५५८ ) के हक़के साथ जायदाद पाते हैं। यह ध्यान रखना कि सिवाय चार क़िस्मके वारिसोंके जो नीचे बताये गये हैं और जितनी किस्म के वारिस होते हैं वह जायदादको उत्तराधिकारमें सरवाइवरशिपके हलके साथ नहीं लेते । चार क़िस्मके वारिस यह हैं
(१) बेटे, पोते, परपोते - दो या दो से ज्यादा हों अपने पैतृक पूर्वजोंकी अलहदा तथा खुद कमाई हुई जायदादको बतौर वारिसके लेते हैं; देखो - 18 Cal. 151, 17 I. A. 128.
:
(२) नेवासा - यानी लड़कीके लड़के दो या दोसे ज्यादा हों और जो मुश्तरका खानदानमें रहते हों, अपने नानाकी जायदादको बतौर वारिसके लेते हैं; देखो - 25 Mad. 678, 29I. A. 156.
(३) विधवायें - दो या दोसे ज्यादा हों जो अपने पतिकी जायदादको बतौर वारिसके पाती हैं देखो - भगवानदीन बनाम मैनाबाई 11Mad. I.A.487.
( ४ ) लड़कियें - दो या दो से ज्यादा हों जो अपने बापकी जायदादकी वारिस होती हैं; देखो - बैंकायाम्मा बनाम वेंकटरामनैअम्मा (1902) 25 Mad. 678, 29. I. A. 156. बंबई और मदरास प्रांतको छोड़कर बाक़ी सब
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६७४
उत्तराधिकार
[नर्वा प्रकरण
जगह मिताक्षरास्कूलके अन्दर ऊपरका कायदा लागू होगा । बंबई और मदरास प्रांतमें इसलिये नहीं होगा कि वहांपर लड़किये पूरे अधिकारके साथ बापकी जायदाद पाती हैं देखो-विथप्पा बनाम सावित्री ( 1910 ) 34 Bom. 510.
नोट-ऊपर बताये हुए चार क्रिस्मके वारिस 'सरवाइवरशिप' के हकके साथ उत्तराधिकारमें भायदाद पाते हैं 'सरवाइवरशिप' का विशेष विवरण देखो ( दफा ५५८); चार किस्म के वारिस यानी, (बेटे-पोते-परपोते) नेवासा, विधवाएं, और लड़कियां,इनको छोड़कर बाकी सब रिश्तेदार उत्तराधिकारकी नायदादको बिना 'सरवाइवरशिप' के हकके लेते हैं अर्थात् उनमें ऐसा नहीं होता कि मुश्तरका जायदाद के हिस्सेदारों के मर जानेके जो बाकी रहता जाय उन्हीं में जायदाद चली जाय । बल्कि उनके वारिसोको जायदाद मिल जाती है । . उदाहरण-(१) एक हिन्दू जिसके पास अलहदा जायदाद थी अपने दो लड़के नल, और नील, को छोड़कर मरगया । पश्चात् नल, अपनी विधवा विदुषीको छोड़कर मरगया। मिताक्षरास्कूलके अनुसार नल और नील इकट्ठे सरवाइवरशिप ( देखो दफा ५५८); के हकके साथ उत्तराधिकारी थे इसलिये अगर नल जायदादका बिना बटवारा किये मरजाय तो सरवाइवरशिप (देखो दफा ५५८ ); केहक़के अनुसार उसका हिस्सा उसके भाई नील को मिलजायगा उसकी विधवा विदुषीको नहीं मिलेगा। लेकिन अगर नल और नीलके बीच में उस जायदादका बटवारा हो गया था तो उसका बटा हुआ हिस्सा उसकी धारिस विधवाको मिलेगा यानी विदुषीको मिलेगा । ऐसा मानोकि नल और नील ने बटवारा नहीं किया और नल एक बेटा, या पोता, या परपोता, छोड़कर मरा है तो अब नलका बिना बटा हुआ हिस्सा उसके भाई नीलको नहीं मिलेगा बलि उसके लड़के या पोते या परपोतेको मिल जायगा । इस जगहपर यह सिद्धांत लागू होगा कि लड़के, पोते, परपोतेका सरवाइवरशिपका हक बमुकाविले भाईके ज्यादा होता है ( देखो दफा ४०१)
(२) एक हिन्दू दो 'नेवासा' यानी लड़कीके लड़के, छोड़कर मरगया। जिनके नाम हैं महेश और गणेश । यह दोनों मुश्तरका खानदानमें रहते हैं। दोनों नेवासे नानाकी जायदाद काबिज़ मुश्तरक यानी सरवाइवरशिप (देखो दफा ५५८); के हनके साथ लेंगे। महेश अपनी विधवाको छोड़कर मरगया। अब जायदादमेंका वह हिस्सा जिसपर महेश सरवाइवरशिप (देखो दफा ५५८) के हक़के साथ काबिज़ था उसकी विधवाको नहीं मिलेगा, बल्कि उसके भाई गणेशको मिलेगा। अगर दोनों नेवासे मुश्तरका खानदानमें रहते न होते तो सरवाइवरशिपका हक लागू नहीं पड़ता और उस सूरतमें महेशके मरनेपर उसकी विधवाको बतौर वारिसके उसकी जायदाद मिल जाती।
(३.) एक हिन्दू अपनी दो विधवाएं चन्द्रमुखी, और सावित्रीको छोड़ कर मरगया। दोनों विधवाएं 'सरवाइवरशिप' ( देखो दफा ५५८); के हक्रके साथ इकट्ठी वारिस होंगी और चन्द्रमुखीके मरनेपर उसका अविभाजित हिस्सा
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रफा ५७१-५७२]
साधारण नियम
६७५
सावित्रीको मिलेगा । यही सूरत तब होगी जब सावित्री पहिले मरजाय तो उसका हिस्सा चन्द्रमुखीको मिलेगा।
(.) एक हिन्दू दो लड़कियां प्रमदा और प्रफुल्लको छोड़कर मरगया। दोनों लड़कियां बापकी जायदादपर' सरवाइवरशिप' के हकके साथ वारिस होंगी। प्रमदाके मरनेपर उसका जायदादमेका अविभाजित हिस्सा प्रफुल्लको मिलेगा और अगर प्रफुल्ल पहिले मरजायगी तो उसका हिस्सा प्रमदाको मिल जायगा। अब देखिये इस विषयमें बंबई प्रांतमें क्या फरकपड़ता है। बंबई प्रांतमें प्रमदा और प्रफुल्ल जायदादको अलहदा अलहदा लेंगी और यहांपर 'सरवाइवर शिप' का हक नहीं होता इसलिये प्रमदाके मरनेपर उसका हिस्सा उसके पारिसको चलाजायगा, यानी अगर प्रमदा एक लड़की छोड़कर मरे तो उसका हिस्सा बजाय उसकी बहन प्रफुल्लके, उसकी वारिस लड़कीको मिलेगा। दफा ५७१ दायभाग स्कूल में सरवाइवरशिप दो बारिसोंमें होताहै . दायभागस्कूलके अनुसार 'सरवाइवरशिप' दोवारिसोंमें होता है,विधवा और लड़कियोंमें-विधवा और लड़कियां जायदाद उत्तराधिकारमें काबिज़ मुश्तरकसरवाइवरशिपके हलके साथ लेती हैं। इनदो वारिसोंको छोड़कर बाकी जितने वारिस इस स्कूलके अनुसार जायदाद लेते हैं वह सब अलहदा अलहदा लेते हैं उनमें 'सरवाइवरशिप' का हक नहीं रहता। - उदाहरण-एक हिन्दू जिसके पास अलहदा जायदाद थी दो लड़के जय
और विजय को छोड़कर मरगया। जय अपनी विधवा गंगाको छोड़कर मरा। इस स्कूलके अनुसार जय और विजय दोनों भाई अपने बापके काबिज़ शरीक उत्तराधिकारी थे यानी सरवाइवरशिपका हक नहीं था। इसलिये जयके मरनेपर जयकी वारिस उसकी विधवा गंगा होगई और जयकी जायदादमेंका उसका हिस्सा गंगाको मिला। विजयको नहीं मिलेगा। मिताक्षरा स्कूलके अनुसार विधवाको नहीं मिलेगा (देखो ५७४-१)
नोट-इस कितावको दफा ५७४-३, ४ में जो सूरतें उन उदाहरणोंमें दी गयी है वही दायभाग स्कूलमें भी मानी गयी हैं। दफा ५७२ किन वारिसोंमें सरवाइवरशिप नहीं लागू होता
ऊपर कही हुई दफा ५७०, ५७१ केसिवाय दोनों स्कूलोंके अन्दर सरवाइवरशिप दूसरे वारिसोंके उत्तराधिकारके हकके साथ नहीं लागू होता। अर्थात् चार वारिस जो इस किताबकी दफा ५७० में बताये गये हैं मिताक्षरा स्कूल के अनुसार । और दो वारिस जो इस किताबकी दफा ५७१ में बताये गये हैं वायभाग स्कूलके अनुसार, सरवाइवरशिपके हकके साथ जायदाद लेते हैं।
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६७६
उत्तराधिकार
[नवां प्रकरण
बाकी वारिस इस तरहपर नहीं लेते । अर्थात् जिस उत्तराधिकारमें सरवाइवरशिप हक़ शामिल नहीं होगा तो उस वारिसके मरनेके बाद जायदाद उसके वारिसको जायेगी। .. . उदाहरण -एक हिन्दु, अमृत और विजय नामक दो भाई छोड़कर मरगया। दोनों भाई उसकी छोड़ी हुई जायदादको इकट्ठा लेंगे। ऐसा मानो कि अमृत एक विधवा छोड़कर मरगया तो उसकी विधवा बतौर वारिसके पतिकी छोड़ी हुई जादाद लेगी, उसके भाई विजयको नहीं मिलेगी। यही कायदा चाचा और भतीजोंके साथ लागू होगा तथा और दूसरे वारिसोंके साथ भी यही कायदा माना जायगा।
- (२) मर्दोका उत्तराधिकार मिताक्षरालॉके अनुसार
दफा ५७३ स्कूलोंके सबबसे उत्तराधिकार एकमां नहीं है.....
पहिले वताचुके हैं कि हिन्दुस्थानभरमें दो बड़े स्कूलोंकाप्रभुत्व मानागया है। स्कूलका अर्थ धर्मशास्त्र है ( देखो प्रकरण १) मिताक्षरा और दायभाग यह दो बड़े स्कूल हैं। दायभागसे मिताक्षरा स्कूल अधिक बड़ा है; क्योंकि दायभाग सिर्फ बंगालमें माना जाता है और मिताक्षरा स्कूल बंगालको छोड़ कर बाकी समस्त भारतमें माना जाता है। उत्तराधिकारके लिये जो कुछ कि कायदे मिताक्षरामें लिखे गये हैं. वह बनारस, मिथिला, बंबई और मदरास स्कूलमें माने जाते हैं, क्योंकि यह सब मिताक्षरा स्कूलके टुकड़े हैं, मगर जो जो कायदे इन प्रांतोंमें उत्तराधिकारके बारेमें प्रचलित होरहे हैं वह सब एकही तरहपर नहीं हैं, यानी कहीं कहीं उनमें भेद पड़गया है। यह भेद इसलिये पड़गया कि मिताक्षराके साथसाथ दूसरे ग्रन्थभी कहीं कहीं मान लियेगये हैं।
बनारस, और मिथिला स्कूलमें मिताक्षराका प्रभुत्व पूरा पूरा माना गया है। क्योंकि इन दोनों स्कूलोंमें सिर्फ पांच औरतें वारिस मानी गयी हैं यानी (१) विधवा (२) लड़की (३) मा (४) दादी (५) परदादी। इस सिद्धांतपर कि कोई भी औरत जो मिताक्षरामें वारिस नहीं बताई गयी उसे इन दो स्कूलों में वारिस नहीं माना गया । यद्यपि बंगालमें भी पांचही औरते वारिस बताई गयी हैं मगर वहांपर दायभागका प्रभुत्व है। - बंबई और मदरास स्कूलमें भी मिताक्षरामें कही हुई पांच औरतें वारिस मानीगयी है लेकिन बंबई और मदरास स्कूल, इनके अलावा कुछ थोडीसी दूसरी
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दफा ५७३-५७४]
मर्दोका उत्तराधिकार
औरतोंको भी वारिस मानता है (देखो दफा ६४०६६४१)बंबई स्कूल में, मदरास स्कूलसे भी अधिक औरतें वारिस मानी गयी हैं।
नतीजा यह है कि उत्तराधिकारकाक्रम जैसा कि मिताक्षरामें लिखा हुआ है बिल्कुल उसी तरहसे बंबई,गुजरात और उत्तरीय कोकनमें नहीं मानाजाता। कारण यह है कि इन जगहोंपर नीलकण्ठ भट्टाचार्य्यके बनये हुए ग्रन्थ, व्यवहार मयूखकी प्रधानता थोड़ेसे विषयोंमें जहां कि मिताक्षरासे वह भिन्न है मानली गयी है। " दायभाग और मिताक्षराके उत्तराधिकार-दायभाग और मिताक्षरा एक दूसरेसे बिल्कुल पृथक हैं । दायभाग की स्कीम मिताक्षरा की स्कीम से बिल्कुल अलाहदा है और कुछ अंश तक तो वह उसके विपरीत है, और जहां तक कानून उत्तराधिकारका सम्बन्ध है एकका मेल दूसरेके साथ नहीं किया जा सकता । शम्भूचन्द दे बनाम कार्तिकचन्द दे A. I. R. 1927 Cal. 11. माताके, पिताके पिताके पिताकी पुत्रीके पुत्रकापुत्र,दायभागके अनुसार वारिस नहीं होता-शम्भूचन्द दे बनाम कार्तिकचन्द दे A. I.R. 1927 Cal. 11. .
कदवा कुनबी-अहमदाबाद के कदवा कुनबियोंमें यह रवाज है कि यदि कोई विवाहिता किन्तु निस्सन्तान स्त्री अपने पिताकी जायदाद उत्तराधिकारमें प्राप्त करे तो उसकी मृत्युके पश्चात् उस जायदादका उत्तराधिकार उसके पति या उसके सम्बन्धियों के वजाय उसके पिताके सम्बन्धियोंपर जाता है-रतिलाल नाथलाल बनाम मोतीलाल सङ्कलचन्द 27 Bom. L. R. 880; 88 I.C. 891; A. I. R. 1925 Bom. 380.
वरासत-पाचमें पिता द्वारा स्वयं उपार्जित जायदादका उत्तराधिकार हिसार जिलेके अग्रवाल बनियों में यह रवाज नहीं है कि पिता द्वारा उपार्जित जायदादके उत्तराधिकारमें पुत्रीको उसके वंशजोंके मुकाबिलेमें वारिस होनेसे बंचित रक्खा जाय-शिवलाल बनाम हुकुमचन्द A.I.R. 1927 1a. 47.. ... तकसीम शुदा साझेदारकी वरासत-जब कि कोई खानदान पहिलेही बटा हुआ होता है, तो वारिस जायदादपर काबिज़ शरीक हीते हैं (Tenant in Common ) न कि काबिज़ मुश्तर्क (Joint Tenant )-जादवभाई बनाम मुल्तानचन्द्र 27 Bom. L. R. 426387 I. C. 936; A. I. R.. 1925 Bom. 350. दफा ५७४ मिताक्षरालॉके अनुसार जायदाद किसके पास जायगी?
मिताक्षराला के अनुसार किसी मर्द हिन्दूके मरनेपर उसकी जायदाद किसके पास जायगी इस बातके निश्चय करनेके लिये नीचे लिखी हुई बातोंको ध्यानमें रखना चाहिये-.
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उत्तराधिकार
[ नवां प्रकरण
( १ ) जब कोई आदमी अपनी मौतके समय मुश्तरका अर्थात् अविभाजित परिवारका मेम्बर हो तथा उसके क़ब्ज़ेमें मुश्तरका जायदाद हो तो उसका हिस्सा' सरवाइवरशिप' के हक़के साथ उसके मुश्तरका हिस्सेदारोंको मिलेगा ।
६७८
( २ ) जब कोई आदमी अपनी मौत के समय शामिल शरीक खानदानमें हो और अगर वह खुद कमाई हुई अलहदा जायदाद छोड़गया हो तो ऐसी जायदाद उसके वारिसको उत्तराधिकार के क्रमके अनुसार मिलेगी उसके मुश्तरका हिस्सेदरको नहीं मिलेगी । और जो जायदाद उसने मुश्तरका छोड़ी अर्थात् जिसपर वह मुश्तरका हक़ रखता था वह मुश्तरका हिस्सेदारको मिलेगी अलहदा कमाई हुई और उसे अलहदा मिली हुई जायदाद उसके वारिसको मिलेगी, देखो - पेरियासामी बनाम पेरियासामी 1 Mad 312; 5 I. A. 61. (३) जब कोई आदमी अपनी मौत के समय अपने दूसरे मुश्तरका हिस्सेदारों से अलहदा हो और जायदादपर अलहदा क़ब्ज़ा रखता हो तो उसकी तमाम जायदाद चाहे किसी तरहसे मी उसे प्राप्त हुई हो वह उत्तराधिकारके क्रमके अनुसार उसके वारिसको मिलेगी देखो - दुर्गाप्रसाद बनाम दुर्गा कुंवरि 4 Cal. 190, 202, 5 I. A. 149.
(४) जबकोई आदमी अपनी मौतके समय मुश्तरका खानदानमें अकेला हो, यानी उसके दूसरे हिस्सेदार मर चुके हों, तो तमाम जायदाद यानी मुश्तरका जायदाद मिलाकर उसे मिल जायगी जो उसका वारिस होगा अर्थात् तमाम जायदाद उत्तराधिकारके क्रमसे उसके वारिसको मिलजायगी; देखो
6 M. I. A. 309.
(५) जब कोई आदमी मुश्तरका खानदानसे अलहदा हो गयाहो और पीछे वह फिर उसी खानदानमें शामिल हो गया हो और मुश्तरकाकी दशामें मराहो तो उसकी जायदाद इस किताबके प्रकरण ६ के अनुसार उसके वारिस को मिलेगी ।
उदाहरण - राम और लक्ष्मण दोनों भाई मुश्तरका हिस्सेदार हैं। राम अपनी विधवा स्त्रीको छोड़कर मर गया और रामने अपनी खुद कमाई हुई जायदाद भी छोड़ी और थोड़ीसी जायदाद जो उसको उत्तराधिकारमें मिली थी जिसपर राम क़ानूनके अनुसार अलहदा मालिक था उसे भी छोड़ा । देखिये. मुश्तरका जायदाद का हिस्सा तो उसके भाई लक्ष्मणको मिलेगा जो रामका मुश्तरका हिस्सेदार है, लेकिन रामकी खुद कमाई हुई और उत्तराधिकारमें मिली हुई अलहदा जायदाद उसकी विधवाको बतौर वारिसके मिलेगी । दफा ५७५ कौनसी जायदाद उत्तराधिकार के योग्य हैं ?
मिताक्षरालॉके अनुसार मर्द हिन्दूके मर जानेपर नीचे लिखी हुई जायदाद 'मृत पुरुष' के वारिसको उत्तराधिकारके अनुसार मिलेगी ।
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दफा ५७५-५७७ ]
मर्दोका उत्तराधिकार
( १ ) मरनेवालेकी खुद कमाई और अलहदा जायदाद, चाहे वह मरनेके समय शामिल शरीक परिवारमें क्यों न हो उसके वारिसको उत्तराधिकार के क्रमानुसार मिलेगी ।
६७६
(२) सब शामिल शरीक यानी मुद्दतरका जायदाद, जिसका कि मरने वाला अपनी मौत के समय अकेला ही जीता हिस्सेदार था अर्थात् दूसरे हिस्से दार सब उसकी ज़िंदगीमें मर चुके थे, उत्तराधिकारके क्रमानुसार उसके वारिसको मिलेगी ।
(३) मृतपुरुषकी सब जायशद, चाहे किसी तरहसे वह प्राप्तकी गयीं हो जब कि मृतपुरुष अपनी मौतके समय अलहदा होगया हो तो उसकी सब जायदाद उत्तराधिकारके क्रमानुसार उसके वारिसको मिलेगी ।
नोट - स्मरण रखना कि ऊपर बताई हुई तीन तरहकी जायदादमें ही उत्तरराधिकारका कानून लागू होगा दूसरीमें नहीं | खुद कमाई हुई, और उत्तराधिकारमें मिली हुई जो कानूनन् उसकी अलहदा समझी जाती हो, और मुश्तरका जायदादका बटा हुआ हिस्सा इन किस्मोंमें से कोई एक किस्म होगी तो उस जायदाद का वारिस वह होगा जो मृत पुरुषका उत्तराधिकार के अनुमार वारिस करार दिया गया हो ।
दफा ५७६ मिताक्षरालॉके अनुसार उत्तराधिकारका सिद्धान्त
मिताक्षरा स्कूलमें वरासतके क्रमका प्रधान सिद्धांत खूनकी नज़दीकी रिश्तेदारी मानीगयी है। इसपर नजीरें देखो - पारोट बापालाल बनाम महता हरीलाल (1894) 19 Bom 631; बाबालाल बनाम ननकूराम (1895) 22 Cal. 339; सुब्बासिंह बनाम सरफराज़ ( 1896 ) 19 All 215; सुब्रह्मण्य बनाम शिवा (1894) 17 Mad. 316; अप्पा नदाई बनाम बागूबाली (1909 ) 33 Mad 439, 444; चिन्नासामी बनाम कुंजूपिल्लाई ( 1912 ) 35 Mad 152. बंगालस्कूल अर्थात् दायभाग स्कूलमें वरासतके क्रमका प्रधान सिद्धांत पितृ और मातृ वंशके पूर्वजोंको आत्मिक लाभ पहुंचाने की बुनियादपर निर्भर माना गया है; देखो - गुरु गोविंद बनाम अनन्दलाल 5 Beng. L. R.15. दफा ५७७ मिताक्षरा, मनुके वचनानुसार उत्तराधिकार कायम करता है
अनन्तरः सपिण्डाद्यस्तस्य तस्य धनं भवेत्
अतऊर्ध्वं सकुल्यःस्यादाचाय्र्यः शिष्यएवच । मनुह - १८७
कुल्लूकभट्ट - ने इस लोककी टीकामें लिखा है कि - "सपिण्डमध्यात्संनिकृष्टतरो यः सपिण्डः पुमान् स्त्री वा तस्य मृतधनं भवति ।
"
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उत्तराधिकार
[ नवां प्रकरण
सपिण्डके मध्य में जो बहुत समीपी सपिण्ड पुरुष अथवा स्त्री होवे उसे मृतपुरुषका धन मिलता है और जब ऐसा वारिस न हो तो सपिण्डकी संतान में और उसके भी न होनेपर समानोदकों को और पीछे आचार्य तथा शिष्यको जायदाद मिलेगी । इस श्लोक में कहा गया है कि सबसे नज़दीकी सपिण्ड को उत्तराधिकार मिलता है यह शब्द मिताक्षराला के वरासत के क्रमका मूल है ।
दफा ५७८ उत्तराधिकार किस क्रमसेचलता है
६८०
हिन्दुओंके यहां उत्तराधिकार, उस जायदादका जो इस किताबकी दफा ५.६५ में बताया गया है, पहिले सपिण्डमें होता है, यानी लबसे पहिले सपिण्ड जायदाद पाता है, सपिण्डके न होनेपर 'समानोदक' और समानोदकके न होने पर बन्धु जायदाद पाते हैं । बन्धुके न होनेपर आचार्य और शिष्यका हक़ है संपिण्डका विषय नीचे देखिये -
दफा ५७९ सपिण्ड शब्दका अर्थ
इस किताब की दफा ४७ में 'सपिण्ड' शब्दका अर्थ विस्तारसे कहा गया है । वही अर्थ यहां पर भी समझिये । सारांश यह है कि जिसका शरीर अपने शरीरके साथ एक हो उसे सपिण्ड कहते हैं ।
दफा ५८० दो तरह के सपिण्ड
सपिण्ड दो तरह के होते हैं, एक' गोत्रज सपिण्ड' दूसरा भिन्न गोत्रज सपिण्ड' | 'गोत्रज सपिण्ड' से यह मतलब है कि अपने गोत्रका हो और सपिण्ड हो तथा भिन्न गोत्रज सपिण्ड से यह मतलब है कि अपने गोत्रका न हो और सपिण्ड हो । गोत्रका फैलाव बहुत बड़ा है: मगर सपिण्डका फैलाव उसी हद तक है जहां तक कि शरीरके अवयवोंका सम्बन्ध मिलता हो । भिन्न गोत्रज सपिण्ड' को बन्धु कहते हैं- देखो दफा ४७
. स्त्रीको अपना गोत्र छोड़ देना - स्त्री विवाह संस्सार द्वारा अपने पिता के गोत्रको छोड़ देती है और अपने पतिके गोत्र को ग्रहरण करती है और अपने पति के गोत्रज सपिण्डकी गोत्रज सपिण्ड हो जाती है, यानी उसके पतिके वंशज उसके बंशज हो जाते हैं- भगवानदास बनाम गजाधर AI. R. 1927 Nag. 68.
दफा ५८१ मिताक्षरा के अनुसार गोत्रजसपिण्ड और भिन्न
गोत्रज सपिण्ड
दफा ४७ में बताया जाचुका है कि' गोत्रज सपिण्ड' और भिन्न गोत्रज सपिण्ड' कौन रिश्तेदार होते हैं। दफा ५८० में बताया गया कि 'भिन्न गोत्रज
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दफा ५७८-५८१]
मौका उत्तराधिकार
६८१
सपिण्डको' बन्धु कहते हैं इस विषयमें देखो दफा ५६०३६३३-६३४ मिताक्षरा में गोत्रज सपिण्ड और भिन्न गोत्रज सपिण्ड दोनों शरीरके सम्बन्धसे मानेगये हैं। मिताक्षराके सपिण्डोंका नक्शा देखो और ध्यान पूर्वक विचार करोः
यह नक़शा जे० आर० घारपुरे हिन्दूला सन १९१० ई. से उद्धृत किया गया है इससे मिताक्षराके अनुसार 'सपिण्ड' अच्छी तरहसे समझमें श्रा जावेगा। श्राप कल्पना कीजिये कि आपका शरीर ६०० अशोंसे बना है। अब विचारिये कि यह प्रशं आये कहांसे ? उत्तर है कि आपके माता और पितासे आये अर्थात ३०० अन्श माताके शरीरसे और ३०० अन्श पिताके शरीरसे। माताका शरीर भी ६०० अंशोंसे बना है। इसी प्रकारसे माताके शरीरमें ३०० भन्श माताके पिता (नाना) से और ३०० अन्श माताकी मा (नानी) के शरीरसे भाये हैं, तो आपके शरीरमें १५० अंश नानीके शरीरसे और १५० अंश नानाके शरीरसे आये हैं । नानीका शरीरभी ६०० अंशोंसे बना है, नानीके शरीरमें ३०० अंश नानीकी माताके शरीरसे और ३०० अंश नानीके पिताके शरीरसे पाये हैं तो परिणाम यह हुआ कि नानीकी माताके शरीरसे ७५ अंश और नानीके पिताके शरीरसे ७५ अंश आपके शरीरमें आये हैं। इसी तरह जितना ऊपर चले जाइये बेशुमार सम्बन्ध होता चला जायगा। अब देखिये आपके पिताका शरीर ६०० अंशोंसे बनाहै। पिताके शरीरमें३०० अंश आपकी दादीसे
और ३०० अंश आपके दादाके शरीरसे आये हैं, तो आपके शरीरमें आपकी दादीके शरीरके १५० अंश और दादाके शरीरके १५० अंश मौजूद हैं। एवं दादीका शीर ६०० अंशोंसे बना है। दादीके शरीरमें ३.० अंश दादीकी मासे और ३०० अंश दादी के पिताके शरीरसे आये हैं । तो परिणाम यह हुआ कि आपके शरीरमें दादीकी माके शीरसे ७५ अंश और दादीके पिताके शरीरसे ७५ अंश आये हैं । इसी तरहपर जितना आप विचार करते जायेंगे सम्बन्ध मिलता और फैलता जायगा। नीचेकी लाइनमें भी यही क्रम है; अर्थात आपके पुत्र और लड़कीके शरीरमें आपके शरीरके ३०० अंश और आपकी पत्नीके शरीरके ३०० अंश कुल ६०० अंशदोनोंमें मौजूद हैं। आगे जितनी सन्तान बढ़ती जायगी उतनाही ऊपर वाले माता पिताके शरीरोंके अंश घटते जायेंगे। अंशोके सिद्धांतसे तमाम दुनियांके लोगोंका सम्बन्ध हो सकता है। इसीलिये आचार्योंने नियम कर दिया है, देखो दफा ५१ । यहां एक बात पर और ध्यान रखिये कि नशे में आपको दो शाखाएं देख पड़ेंगी, एक मर्द शाखा दूसरी नीकी शाखा । मर्द शाखामें गोत्र नहीं बदलता और स्त्री शास्त्रामें गोत्र बदल जाता है। मर्द शाखाको सगोत्र या गोत्रज सपिण्ड कहते हैं और स्त्री शाखाको भिन्न गोत्र या भिन्न गोत्रज सपिण्ड कहते हैं । भिन्न गोत्रज सपिण्ड बन्धु कहलाते हैं, देखो दफा ६३३. इस नक्शे के समझने के लिये नीचेकी दफा ५८२ पदिये।
86
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६५२
उत्तराधिकार
[नवां प्रकरण
بهره می بر
بی بی بی
من یه بی بی بی بی بی بی بی
م ه ی
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दफा ५८२ सपिण्ड किसे कहते हैं
जो एकही पिण्डमें शामिल होते हों वह सपिण्ड हैं। पिण्डका अर्थ शरीर है, जो एकही शरीरमें शामिल होते हों वे सपिण्ड हैं। यानी जिनके शरीरके अवयव (अंश) एक हों वह सपिण्ड हैं। ऐसे सपिण्डको पूर्णपिण्ड सपिण्ड कहते हैं । पूर्ण-पिण्ड, उपरकी तीन और नीचेकी तीन पूश्तोंमें होता है। इस तरहपर जिस आदमीसे गिनना शुरू करते हो उसे भी मिलादो तो सात पुश्त हो जायेगी। जैसे ऊपरकी तीन पुश्ते हैं पिता, पितामह, प्रपितामह ( बाप, दादा, परदादा) एवं नीचेकी तीन पुश्ते हैं पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र ( लड़का, पोता, परपोता ) इन छः में जब मालिकको मिलादो तो सात पुश्ते हो जाती हैं, इन सात पुश्तों में पूर्ण पिण्ड' होता है। क्योंकि मालिकसे शरीर सम्बन्धी अवयवोंके द्वारा सब एक दूसरेसे बंधे हुए हैं। मालिकके शरीरके अवयव पुत्र, पौत्र और प्रपौत्रमें मौजूद हैं तथा मालिकके शरीरमें उसके पिता, पितामह और प्रपितामहके शरीरके अवयव मौजूद हैं। इस लिये सब मिल कर शरीरके अवयव रूप बन्धन से एक 'पूर्णपिण्ड' बनता है। प्रपौत्रका पुत्र (परपोते का लड़का) तथा प्रपितामह का पिता (परदादा का चाप ) पूर्ण पिण्ड नहीं है।
याज्ञवल्क्यकी टीका मिताक्षरामें विज्ञानेश्वरने सपिण्ड शब्दको श्राद्धके आधार पर प्रयोग नहीं किया, बक्लि अवयव सम्बन्ध परही प्रयोग किया है। क्योंकि उन्होंने विवाह सम्बन्धमें जो सपिण्डकी व्याख्या की है ( देखो दफा ४६ से ४८); उसमें श्राद्धकी कोई बात नहीं कही, पर रक्तका अथवा अवयवका सम्बन्ध कहा है, इसी आधार पर सपिण्ड बताया गया है । उस जगहपर सपिण्ड ऐसे अर्थमें शामिल है जहांपर पिण्डदानकी क्रिया हो ही नहीं सकती। तात्पर्य यह है कि उनका दिया हुआ पिण्ड शास्त्रानुसार उले पहुंच नहीं सकता। यह सपिण्ड मालिकसे सीधी लाइनका होता है मगर इनके अतिरिक्त और भी रिश्तेदार सपिण्ड होते हैं । उनका पूर्ण पिण्ड उनके अनुसार चलता है।
विज्ञानेश्वरके कहने का तात्पर्य यह है कि सपिण्डका सम्बन्ध तब होता है जब दो आदमियोंके बीच में शरीरके अंगोंका सम्बन्ध एक दूसरेमें हो। शरीरके अंगोंके सम्बन्धसे जव सपिण्ड जोड़ा जायगा तो उसका फैलाव हो जाता है क्योंकि हर एक शरीरमें पिता और माताके अंगोंके अंश लड़केमें आते हैं । इसी सबबसे और ऊपर कहे हुए सिद्धांतके अनुसार वह कहते हैं, कि हर आदमी अपने बाप और माकी तरफ वाले पूर्वजों और चाचाओं मामाओं फूफियों तथा मौसियोंका सपिण्ड है। इसी तरहपर इन आदमियोंकी स्त्रियां और पति भी सपिण्ड हैं। अर्थात चाचा और चाची. मामा और मामी, फफा और फूफी, मौसा और मौसी सब सपिण्ड हैं। पति और पत्नी आपसमें इस
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दफा ५८२-५८३]
मौका उत्तराधिकार
लिये सपिण्ड हैं कि वह दोनों मिल कर एक शरीर प्रारम्भ करते हैं। भाइयोंकी स्त्रियां भी आपसमें सपिण्ड हैं क्योंकि उनसे जो लड़के पैदा होते हैं वह अपने पूर्वजोंके शरीरके अंश रखते हैं।
___ अगर इसी तरहपर सिल सिला सपिण्डका माना जाय तो तमाम दुनिया एक न एकसे सम्बन्ध रखती हुई मिल जावेगी और सब लोग किसी न किसी तरहसे सपिडमें शामिल हो जायेंगे। इस लिये आचार्योने नियम कर दिया है कि
पञ्चमात्सप्तमादृवं मातृतः मितृतस्तथा । मातृतो मातुः सन्ताने पञ्चमादूर्व, पितृतः सन्ताने सप्तमादृवं सापिण्ड्यं निवर्तत इति। याज्ञवल्क्ये ॥५३॥
सपिण्डता-माताकी तरफ पांचवीं और पिताकी तरफ सातवीं पीढ़ीमें निबत्त हो जाती है अर्थात् माके सम्बन्धसे पांचवीं पीढ़ीमें और बापकी तरफ बापके सम्बन्धसे सातवीं पीढ़ीमें सपिण्डता निवृत्त हो जाती है। आगेके सम्बन्धको सपिण्ड नहीं कह सकते । यही नियम माना गया है। इस वजहसे बापसे लेकर छः पूर्व पुरुष और लड़केसे लेकर छः उत्तर पुरुष और उस श्रादमीको जोड़ कर सात पीढ़ी शुमारकी जायंगी। सात पीढीकी गणना अपनेको मिला कर शुमार करना चाहिये अर्थात् वह खुद भी सात पीढीके अन्दर एक पीढ़ी है । एवं मातासे लेकर पांच पीढ़ी गिनना-देखो-घारपुरे हिन्दूलॉ पेज ३०६ और मेन हिन्दूलॉकी दफा ५१०.
पूर्ण रुधिर सम्बन्धको अर्द्ध रुधिरपर श्रेष्टता मानी गयी है। नारायन धनाम इमरानी 91 I. C. 989; A. I. B. 1926 Nag 218. दफा ५८३ बापसे सातवीं मासे पांचवीं पीढ़ीके बाद सपिण्ड
नहीं रहता यह बात प्रायः सभी प्राचार्योने मानी है कि बापकी तरफसे सातवीं पीढ़ी और माके तरफसे पांचवीं पीढ़ीके पश्चात् सपिण्ड नहीं रहता अर्थात् अपनेको लेकर बापकी शाखामें सातवीं पीढ़ीतक और इसी तरहपर अपनेको लेकर माकी शाखामें पांचवीं पीढ़ी तक सपिण्डतारहती है, पश्चात् नहीं रहती। सात पीढ़ी और पांच पीढ़ीके सपिण्ड देखो इस किताबकी दफा ५८४ और प्रमाण देखो दफा ५१.
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उत्तराधिकार
[नयां प्रकरण
दफा ५८४ सात दर्जेके सपिण्डोंका नकशा
धर्म शास्त्रके अनुसार सपिण्डका नक्शा देखो( परदादाके पिताके पिताका पिता ) पि०७
(परदादाके पिताका पिता) पि०६
५वृद्धप्रमातामह ( नानाके पापका बार)
(परदादाका पिता)
( परदादा ) प्रपितामह४ ( दादा ) पितामह३
४प्रमातामह ( नानाका पाप)
३मातामह (नाना)
dies
पिता
२माता
माता
(गोत्रज सपिण्ड)
(मिन गोत्रम सपिण्ड) मालिक १
पुत्र
पौत्र
प्रपौत्र
(गोत्रनसपिण्ड)
देखो-मालिक नं०१ अपनेको, या जिस आदमीका सपिण्ड मिलाना चाहते हो उसे समझो । मालिक नं०१ की दो शाखायें ऊपर गयी हैं और एक नीचे। ऊपरकी पितावाली शाखामें सपिण्ड सातवें नम्बरमें खतम हो जाता है अर्थात् सात नम्बर जहांपर दिया गया है वहां तक सपिण्ड हैं । 'पि' से मतलब है पिता यानी नं०५ का पिता ६, और नं०६ का पिता ७ है। इस तरहपर पिताकी शाखामें सपिण्ड सात पीढ़ी तक ऊपर जाता है । अब देखिये माताकी शाखा, इस शाखामें सपिण्ड पांचवें नम्बरमें खतम हो जाता है यानी मातृपक्षमें माता नाना, परनाना, और परनानाका बाप (नगड़नाना) चार हुए
और मालिकको मिला दो तो पांच हो जाते हैं। इस तरहपर मालिकको मिका कर माता पक्षमें सपिण्ड पांचवीं पीढ़ीमें समाप्त हो जाता है। नीचेकी
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दफा ५८४ - ५६६ ]
मर्दोंका उत्तराधिकार
शाखा देखिये - मालिकसे लेकर सातवीं पीढ़ीमें सपिण्ड समाप्त हो जाता है । 'पु' से मतलब पुत्र है, यानी नं० ४ का पुत्र ५ और नं० ५ का पुत्र ६, एवं नं०६ का पुत्र नं० ७ है । मालिक को हर शाखा में एक पीढ़ी मान कर शामिल करना चाहिये ।
६८५
सपिएड - सपिण्डों में सात पीढ़ी तक पूर्ण रक्त सम्बन्धको अर्द्ध रक्त सम्बन्धपर तरजीह दी जाती है जब वे दूसरी तमाम सूरतोंमें समान हों। सात पीढ़ीके पश्चात् पूर्ण रक्त और अर्द्ध रक्तमें कोई अन्तर नहीं माना जाता आत्माराम बनाम पाण्डू 87 I. C. 178.
दफा ५८५ पिण्डदान और जलदान के
सपिण्ड
पिण्डदान और जलदान हर आदमी अपने बाप, दादा, और परदादाको करता है, एवं नाना, परनाना तथा नगड़ नाना ( परनानाका बाप ) को करता है, अर्थात् ऊपरकी शाखा में पितृ पक्षमें तीन तथा मातृ पक्षमें तीन पीढ़ियों तक पिण्ड और पानी देता है । इसी तरहसे हर आदमी अपने लड़के, पोते, परपोते से पिण्ड और पानी पाता है। ऊपरकी शाखा में तीन और नीचेकी शाखामें तीन तथा उस आदमी को मिला कर सात पीढ़ी हो जाती हैं और दोनों शाखाओंका वह बाराबरका सपिएड होता है । यह इस लिये सपिण्ड है कि ऊपरकी शाखामें तीन पीढ़ियोंको वह पिण्ड और पानी देता है। इसी तरहसे नीचेकी शाखामें तीन पीढ़ीसे वह पिण्ड और पानी लेता है । वह ऊपर और नीचेकी दोनों शाखाओंको जोड़ता है। अतएव यह सात पीढ़ियों का सपिण्ड है। तथा इनमेंसे एक दूसरेके सपिण्ड हैं। यह बात एक मुकदमें में मानी गयी है; देखो - गुरू बनाम अनन्द 6 BL. R 39, S. C. 13 Suth ( F. B. ) 49; अमृत बनाम लच्छमीनरायन 2BLR. ( FB ) 34; S. C. 10 Suth (F. B.) 76.
दफा ५८६ दोनों सपिण्डोंमें फरक्क नहीं है
ऊपर कहे हुए सात दर्जेके और तीन दर्जेके दोनों सपिण्डों में कुछ फरफ़ नहीं है । सात दर्जेके सपिण्डकी अपेक्षा तीन दर्जे के सपिण्ड निकटस्थ हैं, तीन दर्जे के सपिण्डका काम उत्तराधिकार और श्राद्ध तर्पण में आता है, मगर साठ दर्जे के सपिण्डों का काम उत्तराधिकारमें और सम्बन्धके मिलानेमें आता है । सात दर्जेवाले सपिण्डके अन्दर तीन दर्जे वाले सपिण्ड हैं ।
सपिण्ड शब्दका अर्थ हम बता चुके हैं कि जो एकही पिण्डसे बने हों अथवा एक शरीर के अंश पाये जाते हों वह सब मिल कर एक दूसरेके सपिण्ड होते हैं देखो दफा ५७६
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६८६
उत्तराधिकार
[नवां प्रकरण
दफा ५८७ सकुल्य किसे कहते हैं . धर्मशास्त्रोंमें सपिण्ड, सकुल्य, समानोदक, और बन्धु माने गये हैं । इन सबके दोंमें फरक है। सपिण्ड पहिले कहा गया है ( इस पुस्तककी दफा ५७० से ५८६ देखो) यहांपर सकुल्यका विषय कहते हैं।
सपिएड
सकुल्य
समानोदक
गोत्रज
मिन्नगोत्रज
(बन्धु) (१) नम्बर १ सपिण्ड है जिसका वर्णन इस किताबकी दफा ५७६ से
५८६ में देखो। (२) नम्बर २ गोत्रज सपिण्ड है इसका वर्णन देखो दफा ५८०. (३) नम्बर ३ भिन्न गोत्रज सपिण्ड है इसका वर्णन देखो दफा ५८०%;
५६०६३३६६३६ गोत्रज सपिण्ड उसे कहते हैं जो अपने गोत्रका न हो । ऐसा सम्बन्धी एक या अनेक स्त्री या स्त्रियोंके सम्बन्धसे पैदा होता है और जो सम्बन्धी किसी स्त्रीके सम्बन्धसे मिलता हो उसे
बन्धुकहते हैं। (४) नम्बर ४ सकुल्य है इसका वर्णन देखो आगेके नकशेमें. (५) नम्बर ५ समानोदक है इसका वर्णन देखो दफा ५८८, ५८६.
जहांपर तीन पीढ़ियोंका सपिण्ड समाप्त होता है वहाँसे लेकर और सातवीं पीढ़ीके सपिण्ड तक ऊपरकी शाखामें, इसी तरहपर नीचेकी शाखामें जहांपर तीन पीढ़ियोंका सपिण्ड समाप्त होता है वहांसे लेकर सात पीढ़ीके सपिण्ड तक और उनके सम्बन्धी जिनका दिया हुआ पिण्ड मालिकको अथवा मालिकके पूर्वपुरुषोंको जिन्हें मालिक दे सकता था नहीं दे सकते।
सकुल्य ऐसे सपिण्डको कहते हैं जिसका दिया हुआ पिण्ड मालिकको या मालिकके बाप, दादा, परदादाको न पहुंचता हो। वह सब सकुल्य एक इसरेके हैं। जैसे भतीजेके बेटेका बेटा, परपोतेका बेटा, परदादाका बाप, और परदादाका भाई इत्यादि सकुल्य होते हैं।
सकुल्यका रिश्ता कोई ज़रूरी रिश्ता नहीं माना गया है, इसीसे अनेक धर्म ग्रन्थोंमें इसका उल्लेख नहीं मिलता है । सपिएड और समानोदक तथा बन्धुका उल्लेख अधिकतासे मिलता है। यह बात तय नहीं मालूम होती कि सकुल्यका फैलाव कहां तक होना चाहिये, मगर पिण्डके रिश्तेसे हम सकुल्यका नक्शा नीचे देते हैं। सब मिल कर १५ सकुल्य होते हैं। नम्बर १६ तक सपिण्ड है और नम्बर १७ से ३१ तक सकुल्य दिखलाये गये हैं।
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दफा ५८७ ]
मौका उत्तराधिकार
६८७
बा, स२२
बा, स२१
सकुल्यका नकशानं. १६ तक सपिण्ड हैं और नं १७ से ३१ तक
सकुल्य दिखलाये गये हैं।
बा, स२०
बा४
बा३
ल१४
ल१५
मालिक?
ल८
ल१६
ल१३
.
ल,स२९
ल१०
ल, स३०
ल,स२३
ल, स२७
ल, स३१
ल, स२४
ल, स२८
2-11-11
ल, स१८
बाप हैं।
ल, स२५ ल, स१६ (१) बा, से मतलब है वाप । मालिकसे ऊपर शाखामे सब एक दूसरेके (२) ल, से मतलब है लड़का, मालिकका लड़का ल ५, और सब एक
दूसरेके लड़का हैं। (३) बा, स-और ल, स । मालिकके सकुल्य हैं और उनका मालिक
भी सकुल्य है। (४) नम्बर १ से १६ तक सपिण्ड और न०१७ से ३१ तक सकुल्य हैं। (५) ल, स, नं०१७ से लेकर ल, स, नं०३१ तक हर एकके तीन तीन
पुश्त आगे फैलाकर सब सकुल्य हैं। क्योंकि सकुल्यका लड़का, पोता परपोता भी सकुल्य है इसलिये कि उनका बाप स्वयं
सकुल्य है। (६) यह निश्चित नहीं कि सकुल्यका फैलाव इतनाही होता है या
- इससे अधिक।
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उत्तराधिकार
[नवां प्रकरण
मालिक सात सपिण्डोंके बीचका आदमी है। यानी वह बीचका सपिण्ड है। वह अपने बेटे, पोते, परपोतेका सपिण्ड इसलिये होता है कि वह मालिकको पिण्ड देते हैं तथा उसके सपिण्ड हैं। कारण उनसे उसको पिण्ड मिलता है ( देखो ल, ५, ६, ७) परन्तु मालिकके परपोतेका लड़का (ल, स, १७) सपिण्ड नहीं है, वह मालिकके सकुल्य हैं; क्योंकि वह अपने बाप, दादा, परदादाका ही सपिण्ड है और उन्हींको पिण्ड देता है और वह उससे पिण्ड पाते हैं । वह मालिकको पिण्ड नहीं देता और न मालिक उससे पिण्ड पाता है। इस लिये परपोतेका बेटा सकुल्य है और जब वह स्वयं सकुल्य है तो उसकी औलाद नं०१८, १६ और उनका बंश तीन पुश्त तक सब सकुल्य है नं०८मालिकका भाई है, मालिक स्वयं अपने भाईसे पिण्ड नहीं पाता, बलि उस पिण्डके फायदेमें शरीक होता है जिसको मर्द अपने पूर्वजों बाप, दादा, परदादाको देता है । यह तीन पूर्वज वही हैं जिनके लिये पिण्डदान करना मालिक पर फर्ज़ है, इसी तरह भतीजा ( ल .) भी अपने तीन पूर्वजोंको पिण्ड देता है जिनमें मालिकके दो पुर्वज यानी बाप और दादा शामिल हैं, इस लिये मालिकके यह सब सपिण्ड हैं। भतीजेका लड़का (ल १०) भी अपने बाप, दादा, परदादाको पिण्ड देता है जिनमें मालिकके पूर्वजोंमें एक शामिल है। इसलिये मालिकका सपिण्ड है मगर भतीजेका पोता (ल, स, २३) सकुल्य है इसलिये कि वह पिण्ड अपने बाप, दादा, परदादाको देताहै मगर मालिकको या मालिकके पूर्वजोंको उसका फायदा कुछ नहीं पहुंचता। इसी तरहसे मालिकका चाचा (ल ११ और मालिकके बापका चाचा ( ल १४) सपिण्ड है क्योंकि मालिकका चाचा मालिकके दादा और परदादाको, तथा मालिकके बापका चाचा मालिकके परदादाको पिण्ड देते हैं । एवंदोनोंके लड़के पोते मालिकके पूर्वज दादा और परदादाको पिरड देते हैं इससे सब सपिण्ड है। मगर उनके लड़के यानी (ल, स, २६. २७, २८, और २६, ३०, ३१ ) सकुल्य हैं क्योंकि वह मालिकके किती पूर्वजको पिएड नहीं देते। (वा, स२. २१, २२ ) सकुल्य हैं और इनका मालिक सकुल्य है। इसी तरहपर सकुल का फैलाव आगे भी होसकताहै। सपिण्ड और समानोंदकके बीच में सकुल्यहोते हैं। दफा ५८८ समानोदक किसे कहते हैं
समानोदक वह रिश्तेदार कहे जाते हैं जो मालिकसे सातवीं पीढ़ीके पश्चात् और चौदहवीं पीढ़ीके या इक्कीसवीं पीढ़ीके भीतर होते हैं। देखो इस विषयमे प्रमाण
सर्वेषामेव वर्णानां विज्ञेया साप्तपौरुषी सपिण्डता ततःपश्चात् समानोदक धर्मता।ततः कालवशात्तत्र विस्मृतौ
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६२३
दफा ५८८ ]
मदका उत्तराधिकार
नामगोत्रतः समानोदक संज्ञा तु तावन्मांत्रापिनश्यति ॥ ब्राह्मे - सप्तोर्ध्वं त्रयः सोदकाः, ततोगोत्रजाः ॥
सब वर्णोंकी सपिण्डता सात पीढ़ी यानी सात पूर्व और सात पर पुरुष में समाप्त हो जाती है। पूर्व से बाप दादा आदि और परसे लड़का, पोता आदि अर्थ समझना चाहिये, बापसे लेकर ६ पूर्व पुरुष और लड़केसे लेकर ६ पर पुरुष और सातवां मालिक दोनोंमें शामिल होकर सात पुरुष होते हैं। इन्हीं सात पुरुषों तक सपिण्डता मानी जाती है, इसके बाद समानोदक संज्ञा है । समय के अधिक हो जाने के कारण जब सम्बन्ध सिलसिलेवार याद नहीं रहता तब समानोदक भी समाप्त हो जाता है । कहने का प्रयोजन यह है कि जब समानोदक भी नहीं रहा तब सिर्फ गोत्र बाक़ी रह जाता है । गोत्रसे यह जाना जाता. है कि किसी समय में एकही वंश शाखाके पूर्वजोंमें कोई विशेष पुरुष था जिसका सम्बन्ध एक दूसरे से चला आता है । बहुत दिन व्यतीत हो जानेके सबसे सिलसिला खानदानी याद नहीं रहाः सिर्फ खानदान एक है इस बात के ज़ाहिर करने के लिये 'गोत्र' केवल याद है । आचार्य कहते हैं कि सातवीं पीढ़ीके पश्चात् तीन पीढ़ी तक समानोदक संज्ञा रहती है । मगर इस वचनके विरुद्ध अनेक बचन हैं जिनसे यह अर्थ निकलता है कि समानोदकता सात पुरुषोंके बाद होती है और सात पीढ़ी तक होती है तथा इससे भी अधिक होती है ।
'सपिण्डाऽभावे सपिण्डा स्तत्रापि सोदकाः प्राचतुर्दशात्' ।
दत्तक मीमांसा - सपिण्डके अभाव में असपिण्ड, और असपिण्डके अभाव में समानोदक होता है जो चौदह पीढ़ी तक रहता है । दूसरे पेजका नशा देखो - दफा ५८६.
इस विषय में मनुजी कहते हैं:
अनन्तरं सपिण्डाद्यस्तस्य तस्यधनं भवेत्
अतऊर्ध्वं सकुल्यः स्यादाचार्यः शिष्य एवच ॥ १८॥
-
मनुके कहने का तात्पर्य यह है कि भाईके बाद सपिंडों में जो सबसे नज़दीकका होगा उसे जायदाद मिलेगी सपिंडों के न होनेकी दशा में सकुल्यको तथा उसके भी न होने पर आचार्य और शिष्यको क्रमसे जायदाद मिलेगी । 'सकुल्य' यहांपर सपिंडों के वारिसोंके पश्चात् मनुने प्रयोग किया है जिसका मतलब समानोदकों से है क्योंकि मृत पुरुषसे सात दर्जे ऊपरके पूर्वजों और उनकी सन्तानों एवं नीचे की शाखाके सात वंशजों और उनकी सन्तानों के
87
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६०
उत्तराधिकार
[नवां प्रकरण
क्रम वद्ध वारिसोंमें ही सपिंड एवं समानोदक होते हैं सपिंड ५७ दर्जे तक मानकर भागेके सब समानोदक माने जाते हैं इसलिये 'सकुल्य' शब्दका यहां पर प्रयोग समानोदकोंसे है । दूसरी तर्क यह है सकुल्यके बाद मनु आचार्य को जायदाद पहुंचनेका नियम करते हैं तो समानोदक कहां चलेगये ? जिनका ज़िक्र ही नहीं किया गया इस सबबसे भी मनुके इस जगहपर सकुल्यके प्रयोग से समानोदक जानना सर्वथा उचित होगा । दफा ५८९ सापण्ड और समानोदक
इस दफाके शामिल नक़शेमें सपिण्ड और समानोदक दिखाये गये हैं। ५७ सपिंड हैं और १४७ समानोदक हैं। इस जगहपर आप यह ध्यान रखें कि 'सपिंड' कहने में 'पूर्णपिंड सपिंड' और 'सपिंड' दोनों शामिल हैं । नक़शेमें देखिये कि मालिकके नीचेकी शाखामें नं०१ से ३ तक और मालिकसे ऊपर की शाखामें १ से ३ तक (बा) लाइनके लोग 'पूर्णपिंड सपिंड' में शामिल हैं विस्तृत वर्णन इस किताबकी दफा ५८२ में देखो क़ानूनकी दृष्टिसे समानोदकोंका जानना इसलिये बहुत ज़रूरी है कि मृत पुरुषकी जायदाद सपिंडके याद समानोदकोंको उत्तराधिकारमें पहुंचती है। समानोदकों की संख्या अभी तक निश्चित नहीं हुयी मगर जहां तक माने जा चुके हैं वे इस नक़शेमें बताये गये हैं। प्रत्येक मुक़द्दमे में जब दूरकी रिश्तेदारीके अनुसार जायदाद मिलने का कोई व्यक्ति वारिस अपने को बताता है तो उसे सिलसिला वरासत साबित करना बहुत कठिन हो जाता है। प्रथम तो उतने पुराने वयोवृद्ध सैकड़ों वर्ष के पुरुष शहादतको नहीं मिलते दूसरे काग़ज़ी शहादत सिलसिलेवार मिलना कठिन हो जाता है। हमारे देशमें प्रत्येक व्यक्ति अपने वंशका इतिहास तक नहीं लिखता। इन्हीं अनेक कठिनाइयोंसे समानोदकोंको जायदाद यद्यपि पहले पहुंचती है परन्तु शहादत न होनेकी दशा में प्रिवी कौन्सिल का मत यह जान पड़ता है कि ऐसी दशाके होनेपर जायदाद बन्धुओंको देदी जाय । यह राय समीचीन है जब समानोदक अपने हक़का सिलसिला साबित न कर सकें तो ज़रूर बन्धुओंको जायदाद दी जाना चाहिये। इस नकशेसे आर बन्धुओंका सिलसिला और विस्तार जान सकेंगे तथा यह भी जान सकेंगेकि किस दर्जेके सपिंडके पश्चात् कौन दर्जे के समानोदक होते हैं। दर्जाके अङ्क प्रत्येक के साथ इसीलिये लगा दिये हैं।
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मदका उत्तराधिकार
दफा ५८६ ]
सपिण्ड सत्तावन होते हैं देखिये -
( १ ) ल १ से ल ६ तक (२) बा १ से बा ६ तक ( ३ ) बा १ की ल ४ ) बा २ की ल
...
...
१ से ल ६ तक १ से ल ६ तक
१
से ल ६ तक
१
(५) बा ३ की ल (६) बा ४ की ल से ल ६ तक (७) बा ५ की ल १ से ल ६ तक (८) बा ६ की ल १ से ल ६ तक ( 8 ) मा १ से मा ६ तक (१०) विधवा, लड़की, दोहिता
...
समानोदक एक सौ सैंतालीस होते हैं, देखिये
www
800
हैं । सपिण्ड और समानोदक मिलकर २०४ होते है 'सकुल्य'
इसी से उत्तराधिकार में सकुल्यकी जरूरत नहीं रही ।
( १ ) ल ६ के नीचे स ७ से स १३ तक (२) बा १ की ल ६ के नीचे स ७ से स १३ तक (३) वा २ कील ६ के नीचे स ७ से स १३ तक ( ४ ) बा ३ की ल ६ के नीचे स ७ से १३ तक (५) बा ४ की ल ६ के नीचे स ७ से १३ तक (६) बा ५ की ल ६ के नीचे स ७ से स १३ तक (७) बा ६ की ल ६ के नीचे स ७ से स १३ तक (८) बा ७ और उसके १३ वंशज (१) बा ८ और उसके १३ वंशज (१०) बा ६ और उसके १३ वंशज ( ११ ) बा १० और उसके १३ वंशज (१२) बा ११ और उसके १३ वंशज (१३) बा १२ और उसके १३ वंशज (१४) बा १३ और उसके १३ वंशज
सपिंडका जोड़
860
...
...
...
006
...
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000
000
"...
...
...
...
...
६६१
५७
*
१४
१४
१४
१४
१४
१४
समानोदकोंका जोड़
१४७
नोट - उत्तराधिकार में पहिले सपिण्ड और पीछे समानोदक और उनके पीछे बन्धु वारिस होते.
सपिण्डकी ५७ पीढी के अंतर्गत होते हैं ।
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उत्तराधिकार
[मवां प्रकरण
दफा ५९० बन्धु किसे कहते हैं ?
हिन्दुओंमें 'सपिण्ड' और 'समानोदक' मर्द सम्बन्धी रिश्तेदार होते हैं यानी जिन रिश्तेदारों का सम्बन्ध सिर्फ मर्दसे होता है वह सपिण्ड और समानोदकके अन्दर होते हैं। लेकिन 'बन्धु' यानी 'भिन्न गोत्रज सपिण्ड' स्त्री सम्बन्धी रिश्तेदार होते हैं । यह वह रिश्तेदार कहलाते हैं जिनका सम्बन्ध एक या एक से ज्यादा स्त्री द्वारा होता है । हर एक 'बन्धु' का सम्बन्ध मृत पुरुषसे कमसे कम एक स्त्री द्वारा ज़रूर ही होना चाहिये, कई एक स्त्रियों द्वारा जो सम्बन्ध होता है वह भी ‘बन्धु' कहलाते हैं। 'बन्धु' ऐसे रिश्तेदार कहे जाते हैं जैसे-बुवाका लड़का, मौसीका लड़का, मामाका लड़का, आदि। धुवाका लड़का, बापकी बहनका लड़का है। यहां पर बापकी बहन (स्त्री) द्वारा लड़केके साथ सम्बन्ध है। मौसीका लड़का, माकी बहनका लड़का है यहांपर मा और माकी बहन, दो स्त्रियों द्वारा लड़केके साथ सम्बन्ध है ।मामा का लड़का, माके भाईका लड़का है यहां पर माके द्वारा लड़केके साथ सम्बम्ध है इत्यादि । जहांपर 'बन्धु' शब्द आवे समझ लेना चाहिये कि किसी एक या कई एक स्त्रियोंके द्वारा सम्बन्ध जुड़ेगा। बन्धुओंको उत्तराधिकार सपिएड और समानोदकोंके पश्चात् प्राप्त होता है । बन्धुओं का विवरण इस किताब की दफा ६३३ से ६४१ तक देखो। दफा ५९१ गोत्रज सपिण्ड और भिन्न गोत्रज सपिण्डमें क्या
मिताक्षराने सपिण्डको दो भागोंमें तक़सीम किया है 'गोत्रज सपिण्ड' और 'भिन्न गोत्रज सपिण्ड' ( देखो दफा ५८० से ५८३, ५६० ) गोत्रज सपिण्ड वह सपिण्ड हैं जो मृत पुरुषके खानदान अर्थात् गोत्रके होते हैं। भिन्न गोत्रज सपिण्ड वह सपिण्ड हैं जो मृत पुरुषके गोत्रके नहीं होते यानी दूसरे गोत्रके होते हैं । गोत्रज सपिण्ड सब मर्द सम्बन्धी रिश्तेदार होते हैं। वह सिके पुरुषके सम्बन्धसे सपिण्डमें शामिल होते हैं जैसे पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र, और पिता, पितामह, प्रपितामह, और भ्राता, भ्रातृ पुत्र आदि। भिन्न गोत्रज सपिण्ड सब स्त्री सम्बन्धी रिश्तेदार होते हैं (दफा ५६०); यानी वह पुरुष जो एक या अनेक स्त्रियोंके सम्बन्धसे मृत पुरुषसे जुड़े हुये थे जैसे -भांजा,
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दफा ५६०-५६४ ]
मदका उत्तराधिकार
दोहिता, आदि । भिन्न गोत्रज सपिण्डको मिताक्षराला में 'वन्धु' कहा गया है: और वह प्रायः 'बन्धु' के नामसे प्रसिद्ध हैं ।
दफा ५९२ उत्तराधिकारमें सपिण्ड शब्दका संकेत अर्थ भाना
१६३
गया है
गोत्रज सपिण्ड दो भागोंमें बेटा है एक 'सपिण्ड' दूसरा 'समानोदक' | समानोदकमें गोत्र एकही रहता है । मिताक्षराला में 'सपिण्ड' शब्दका अर्थ: दो तरह से किया गया है । एक अर्थ विस्तृत है दूसरा संकेत है। जहां पर सपि - एड शब्दका विस्तृत अर्थ किया जाता है वहांपर मृत पुरुषके वह सब रिश्तेदार शामिल हैं जो उसके खूनके द्वारा परम्परा सम्बन्ध रखते हैं । और जहां पर संकेत अर्थ किया जाता है वहां पर मृत पुरुषकी सात पीढ़ी तक जो उसके खून के सम्बन्ध से रिश्तेदार हैं माने जाते हैं । उत्तराधिकारमें जो सपिण्ड शब्दका प्रयोग किया गया है वह संकेत अर्थमें किया गया है। यानी वरासत कै कामके लिये सपिण्ड शब्द के अर्थका फैलाव सिर्फ मृत पुरुषकी सात पीढ़ी तक माना गया है ज्यादा नहीं माना गया । इसलिये कारण रखना चाहिये कि जहां पर इस विषयमें सपिण्ड शब्द आवे उसका मतलब वरासतके लिये संकेत अर्थसे करना योग्य होगा ।
दफा ५९३ तीन क़िस्मके वारिस जायदाद पाते हैं
मिताक्षराला के अनुसार तीन क़िस्मके वारिस माने गये हैं जो जाय दाद पानेके अधिकार हैं: ( १ ) सपिण्ड (२) समानोदक ( ३ ) बन्धु । यह सब यथाक्रम जायदाद पाते हैं यानी सबसे पहिले सपिण्ड जायदाद पायेगा और उसके बाद समानोदक, उसके पश्चात् बन्धु पायेगा । अर्थात् जब सपिण्ड में कोई न हो तब समानोदक जायदाद पाते हैं और जब समानोदकोंमें कोई न हो तब बन्धु अधिकारी होते हैं ।
दफा ५९४ सपिण्ड
मिताक्षरालों के अनुसार एक आदमी के सपिएड ५७ होते हैं। नीचे दफा ५६५ का नक्शा देखिये
स्त्रीविवाह होने से सपिण्ड में दाखिल हो जाती है। मगर लड़कीका लड़का गोत्रज सपिएड नहीं है; वह भिन्न गोत्रज सपिण्ड है । उत्तराधिकारके कामके लिये वह गोत्रज सपिण्डों के साथ रखा गया है ।
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उत्तराधिकार
दफा ५९५ सत्तावन दर्जेके सपिण्डों का नक़शा
२०
1
१८
१६
+परदादी १४ परदादा १५
+ दादी१२
1
+माता १०
६६४
विधवा ७
लड़की
लड़कीका लड़का
२१
१६
1
दादा१३
बाप११
- मृतपुरुष
१ पुत्र
२ पौत्र
T
३ प्रपौत्र
४
1
[ नवां प्रकरण
४०
૪૬
४७
३४ ४१ ४८ 1
२८ ३५ ४२ ४६
6- - - - - N
५२
५३
५४
५५
५६
२२ २६ ३६ ४३ ५० ५७
२३ ३० ३७ ४४ ५१
२४ ३१ ३८ ४५
I
२५ ३२ ३६
२६ ३३
२७
( १ ) नं० १ से ६ तक पहिलेका दूसरा लड़का है
(२) नं० ७ मृत पुरुषकी स्त्री विधवा, नं० ८ लड़की, नं० दोहिता है ( ३ ) नं० १० मा और इसी तरहसे उस लाइनमें ऊपर तक सब पूर्वजोंकी मातायें हैं ।
( ४ ) नं० ११ बाप और ऊपरकी लाइनमें सब पहलेके दूसरे, पिता हैं । (५) नं० ११ बापकी नीचेकी लाइनमें सब पहिलेके दूसरे लड़के हैं एवं ऊपरकी लाइनमें नं० २१ तक समझ लेना सब मिलकर ५७ होते हैं
-
शुमार - ( १ ) छः पुश्त नीचे तक मर्द शाखामें मर्दको, ६दर्जे नीचे
तक छः
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दफा ५५५-५६७]
मर्दोका उत्तराधिकार
(२) छः पुश्त ऊपरकी बापकी शाखामें मर्द यानी, साप, दादा, परदादा एवं ऊपर छः पुश्त तक और उनमें से पहिले वाले तीन पुश्त तक कीस्त्रिया ( +इस निशान वाली) और उनके ऊपरकी तीन स्त्रियां बहुत करके मानी जाती हैं।
(३) ऊपरकी शाखा वाले बाप आदिकोंकी ६ पुश्तोंके हर एकमें . छः छः पुश्तों तक मर्द (४) विधवा स्त्री, लड़की, लड़कीका लड़का
सपिण्डोंका जोड़ ५७ दफा ५९६ समानोदकोंकी संख्या निश्चित नहीं है
जैसाकि ऊपर बताया गया है, सपिंडकी रिश्तेदारी मृत पुरुषसे उसको मिलाकर सात पीढ़ी तक फैलती है और मृत पुरुषको मिलाकर उसके आठवें दर्जेसे लेकर चौदहवे दर्जे तक और हर एक उस शाखामें एकसे तेरह तक एवं सपिंडकी दोनों शाखाओंमें तेरह दर्जे तक समानोदक फैलता है इससे भी अधिक समानोदक माने जा सकते हैं अगर खूनसे सम्बन्ध रखने वाली रिश्तेदारी साफ तौरपर साबित करदी जाय (देखो इस किताबकी दफा ५८८, ५८६) नज़ीर देखो-देवकोरे बनाम अमृतराम 10 Bom. 372. कालिका. प्रसाद बनाम मथुराप्रसाद 30 All. 510; 36 I. A. 166. रामवरन बनाम कमलाप्रसाद (1910) 32 All. 594. दफा ५९७ बन्धुओंकी संख्या निश्चित नहीं है
पहिले बताया गया है कि बन्धु कौन रिश्तेदार होते हैं (देखो दफा ५६०); पहिले ऐसा ख्याल किया जाता था कि मिताक्षरामें जो है किस्म 'बन्धु' बताये गये हैं सिर्फ इतनेही होते थे। मगर अब उसका अर्थ ऐसा माना जाता है कि मिताक्षरामें जो ६ बन्धु बताये गये हैं वह बन्धुओं की संख्या को खतम नहीं कर देते यानी सिर्फ ६ ही बन्धु नहीं हैं . से ज्यादा भी होते हैं। यह ६ बन्धु मिताक्षरामें सिर्फ उदाहरणकी तरह बताये गये हैं कारण यह है कि अगर आप सिर्फ ६ ही बन्धु मानेगे तो यह बात बिल्कुल बुद्धिके विरुद्ध होगी कि मामाका लड़का बन्धु हो और उसका बाप यानी मामा बन्धु न हो। इसी तरहपर यह बातभी है कि मामा बन्धुहो और उसका बाप नानाबन्धु हो 'बन्धु' दो शाखामें होते हैं। ऊपरकी शाखामें और नीचेकी शाखामें। और ऊपरकी शाखावाले वन्धु जैसे नाना, नानाका बाप, इत्यादि और नीचेकी शाखा वाले बन्धु जैसे लड़की का लड़का, लड़की की लड़की का लड़का देखो दफा ६३८.
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उत्तराधिकार
[नवां प्रकरण
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दफा ५९८ वरासत मिलनेका क्रम मिताक्षराके अनुसार
उत्तराधिकार मिलने के क्रमको समझनेसे पहिले महर्षि याज्ञवल्क्य के नीचे लिखे श्लोकको और मिताक्षराकार विज्ञानेश्वरके मतको अच्छी तरहसे ध्यान में रख लीजिये । महर्षिने बड़ी उत्तमता और संक्षेपसे उत्तराधिकारके जटिल प्रश्नको वर्णन किया है । याज्ञवल्क्य कहते हैं -व्य०-१३५-१३६.
पत्नी दुहितरश्चैव पितरौ भातरस्तथा तत्सुता गोत्रजा बन्धुः शिष्यःस ब्रह्मचारिणः । एषामऽभावे पूर्वस्य धनभा गुत्तरोत्तरः स्वातस्य ह्यपुत्रस्य सर्ववर्णेष्वयंविधिः ॥
मरे हुये अपुत्र ( जिसके पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र न हों ) पुरुषका धन नीचे के क्रमानुसार पहिलेके न होनेपर दूसरेको मिलता है। क्रम यह है विधवा, लड़की, नेवासा, माता, पिता, भाई, भतीजा, गोत्रज, बन्धु, शिष्य, और ब्रह्मचारी।
मिताक्षराका यह नियम है कि जब एकही दर्जेके दो किस्मके वारिस हों तो जायदाद सबसे पहिले सहोदर ( सगे) को मिलेगी और उसके न होने पर मिन्नोदर (सौतेले) को मिलेगी। भाई, भतीजे आदिमें यह नियम सर्वत्र लागू रहता है।
मिताक्षरामें बताये हुये इस क्रमको बनारस, मिथिला, और मदरास स्कूलने पूरा पूरा स्वीकार किया है ( देखो दफा ५६६); मगर भतीजेके लड़के के बारेमें भेद है, इन स्कूलोंने भतीजेके पुत्रका दर्जा दादी और दादासे पहिले माना है और हालमें एक फैसला प्रिवी कौन्सिलसे ऐसा होगया है कि जिसमें भतीजेके पुत्रका दर्जा दादीसे पहिले स्वीकार किया गया, देखो-बुद्धासिंह बनाम ललतूसिंह ( 1912 ) 34 All. 663. इस नज़ीरका विवरण देखो दफा ६२५ । इस नजीरमें बहुत छान बीन कीगयी है और यह भी तय कर दिया गया है कि हर एक पूर्वजकी लाइनमें तीन दर्जे तक जायदाद मिलेगी, यानी पूर्वजके लड़के, पोते, परपोते तक । नक्शा देखो-दफा ६२४.
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दफा ५६६ - ५६६ ]
मौका उत्तराधिकार
दफा ५९९ बनारस, मिथिला, मदरास स्कूल में वरासत मिलनेकाक्रम बनारस, मिथिला और मदरास स्कूलमें उत्तराधिकार नीचे लिखे क्रम के अनुसार पहिले कहे हुए वारिसके न होनेपर दूसरे वारिसको मिलता है । वरामत के
वारस
क्रमका नं०
-३
४
५
AU
१०
११
१२
१३
१४
१५
१६
१७
१६
T
लड़का, पोता, परपोता विधवा ( मृत पुरुषकी स्त्री ) लड़की
( १ ) बिन ब्याही लड़की (कांरी ) ( २ ) व्याही लड़की जो गरीब हो ३) व्याही लड़की जो धनवान हो लड़की का लड़का ( नेवासा दौहित्र ) माता
२०
२१
२२
बाप
भाई
( १ ) सहोदर भाई (सगा ) (२) भिन्नोदर भाई ( सौतेला ) भाईका लड़का
( १ ) सहोदर भाईका लड़का ( सगे भाईका ) (२) मिनोदर भाईका लड़का ( सौतेले भाईका )
भाईके लड़केका लड़का (भतीजेका पुत्र ) नोट- देखो नीचे बापकी मा ( दादी )
बापका बाप ( दादा - पितामह )
लड़के की लड़की
लड़की की लड़की
६६७
बहन
बहनका लड़का ( बहनके मरनेके बाद लिया हुआ गोदका पुत्र नहीं ) देखो ऐक्ट नं० १२ सन १६२६ ई० इस प्रकरणके अन्तमें
बापका भाई (चाचा) ( १ ) बापका सहोदर भाई ( लगा )
( २ ) बापका भिन्नोदर भाई (सौतेला) बापके भाईका लड़का ( चाचाका पुत्र ( १ ) बापके सहोदर भाईका लड़का ( सगा ) ( २ ) बापके मित्रोदर भाईका लड़का ( सौतेला ) बापके भाईका पोता
बाप बापकी मा ( दादाकी मा- पितामहकी मा ) बाप बापका बाप ( परदादा-प्रपितामह )
( क्रम समाप्त न समझना उदाहरणार्थ बताया गया है ) इसी क्रमसे ऊपर के पूर्वज और उनकी संतानवारिल होगी, देखो नक़शादफा ६२४ नोट - भहिके लड़के के लड़केकी, इलाहाबाद हाईकोर्ट के अनुसार यह जगह है, मगर मदरास क्रे कुछ फैसलोंके अनुसार वह चाचा के बेटों के पीछे माना गया है । बम्बई में उसकी जगह निश्चित नहीं, इसीसे 'बाप के भाई के लड़केके लड़के' को ऊपर नहीं बताया गया ।
88
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[ नवां प्रकरण
दफा ६०० गुजरात, बम्बईद्वीप और उत्तरीय कोकनमें वरासत मिलने का क्रम
गुजरात, बम्बई द्वीप और उत्तरीय कोकनमें वरासत मिलनेका क्रम
- नीचे लिखे अनुसार है । अर्थात् पहिले कहे हुए वारिसके न होनेपर दूसरेको उत्तराधिकार मिलता है ।
द
वरासत के
क्रमका नं.
१ -- ३ | लड़का, पोता, परपोता
४
५
६०
११
१२
१३
१४
१५
१६
१७
१८
१६
२०
२१
२२
२३
उत्तराधिकार
२४
२५
२६
२७
२८
२६
३०
विधवा (मृत पुरुषकी स्त्री ) लड़क
वारिस
( १ ) बिन ब्याही लड़की (कारी ) ( २ ) व्याही लड़की जो गरीब हो ( ३ ) व्याही लड़की जो धनवान हो लड़की का लड़का (नेवासा - दौहित्र ) बाप
माना
सहोदर भाई ( सगा )
सहोदर भाईका लड़का ( सगे भाईका )
सहोदर भाईके लड़केका लड़का - देखो, नीचे नोट
बापकी माता ( दादी )
बहन
लड़के की विधवा
लड़के के लड़के की विधवा ( पोतेकी विधवा ) परपोतेकी विधवा सौतेली मा
सहोदर भाई की विधवा
महोदर भाईके लड़के की विधवा पितामह ( दादा ) और सौतेला भाई बापकी माता ( दादी ) सौतेले भाईका लड़का
बापके भाई का लड़का बाप की सौतेली मा सौतेले भाईकी विधवा
ज़रूरी - ऐक्ट नं० २ सन १९२९ ई० के अनुसार नं० २० में पितामह के बाद वे वारि आना चाहिये जो इम ऐक्ट में बताये गये हैं। मगर नं० १३ में बहनका स्थान पहले ही से मौजूद है. इस लिये सम्भव है कि नं० २० दादा के बाद लड़केकी लड़की - लड़की की लड़की और उसके बाद बहनका लड़का वारिस माना जाय किन्तु अभी निश्चित नहीं है । सन्देह इस लिये पैदा होता है कि ऐक्ट में लिखा है कि दादा के बाद और चाचा के पहिले । तथा यहांपर दादाक बाद बाकी माता (दादी) आती है तो ठीक स्थान दोनाके मध्यका न हुआ अभी तक इस बारमें इस ग्रन्थके यहां तक छपने के समय तक कोई भी नजीर नहीं हुयीं जो इस सन्दका संशोधन कर देती । कानून देखा इस प्रकरण के अन्त में ।
आपके भाई की विधवा (चाचाकी विधवा )
सौतेले भाई के लड़केकी विधवा
बापके भाई के लड़के की विधवा (चाचाके पुत्रकी विधवा पितामहकी मा
प्रपितामह
नोट- बम्बई प्रांत में इसकी जगह निश्चित नहीं है । इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इसकी यह जगह मानी है | मदरासके फैसलोंक अनुसार चाचा के बेटों के पीछे इसका हक़ माना गया है।
F
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दफा ६००-६०१]
मर्दोका उत्तराधिकार
दफा ६०१ बम्बई प्रांतके दूसरे हिस्सोंमें वरासत मिलनेका क्रम .. बम्बई द्वीप, गुजरात और उत्तरीय कोकन को छोड़कर बाकी बम्बई प्रांतके दूसरे हिस्सोंमें वरासत मिलनेकाक्रम, नीचे लिखे अनुसार है। अर्थात् पहिले कहे हुए वारिसके न होनेपर उत्तराधिकार दूसरेवारिसको मिलता है।
वरासत के क्रमका नं
बारिस
लड़की
16Mxa
हका जो गरीब हो
१-३ लड़का, पोता, परपोता
विधवा ( मृत पुरुषकी स्त्री) (१) बिन ब्याही लड़की (क्वारी) (२) ब्याही लड़की (३) ब्याही लड़की जो धनवान हो लड़कीका लड़का ( नेवासा-दौहित्र) माता बाप (१) सहोदर माई (सगा) (२) मित्रोदर भाई (सौतेला) भाईका लड़का (भतीजा) (१) सहोदर भाईका लड़का ( सगे भाई का पुत्र) । (२) मिन्नोदर भाईका लड़का (सौतेले भाईका पुत्र) भाईके लड़के का लड़का-(देखो नीचे नोट) बापकी मा ( दादी) बहन लड़केकी विधवा पोतेकी विधवा परपोतेकी विधवा सौतेली मा भाईकी विधवा
भाईके लड़केकी विधवा २०
पितामह (दादा)
बापका भाई (चाचा) २२ बापके भाईका लड़का
बापकी सौतेली मा २४ बापके भाई की विधवा (चाचाकी विधवा)
बापके भाईके लड़केकी विधवा . २६ पितामहकी मा २७ प्रपितामह
नोट-भतीजेके लड़केका स्थान निश्चित नहीं है मगर इलाहाबाद हाईकोर्टने इसका यही स्थान माना है। ज़रूरी नोट-दफा १०० के नीचे देखिये।
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१५
२१
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७००
उत्तराधिकार
[नयों प्रकरण
दफा ६०२ औरतोंकी कानुनी ज़रूरतें
हर एक औरत (दफा ६४३) जिसे जायदादमें पूरा हक़ प्राप्त नहीं है, मगर उसे वह महदूद हकके साथ सिर्फ जिन्दगी भरके लिये मिली है, उस जायदादको नीचे लिखी हुई कानूनी ज़रूरतोंके लिये इन्तकाल कर सकती है यानी गिरवी रख सकती है बेच सकती है शोर दान या बस्नशीशमें भी दे सकती है।
कानूनी ज़रूरतें वह हैं कि जिनके होनेपर जायदादका इन्तकाल हो सकता है। और ऐसे इन्तकाल का रिवर्जनर वारिस ( देखो दफा ५५८) पाबन्द होगा।
१-धार्मिक कृत्योंके लिये
(१) अन्त्येष्ठि कर्म, यानी मरनेके पश्चात् क्रिया कर्म और दूसरे कर्मों के खर्चके लिये भी देखोदलेल कुंवर बनाम अम्बिका प्रसाद 23 All. 226. जैसे लड़केकी जायदाद मा की क्रिया कर्म करनेके लिये काममें लाई जा सकती है--वृजभूषणदास बनाम पार्वतीबाई 9 Bom. L_R. 1187.
(२) गयाक्षेत्रमें श्राद्ध करनेका खर्च तथा उसके सफरका खर्च, और. पंढरपुरमें श्राद्ध करनेका खर्च तथा उसके सफरका खर्च । मगर यह सब खर्च उस औरतके खानदानकी हैसियत और उसकी स्थितिके अनुसार तथा जायदादके अनुसार होना चाहिये । ऐसा न होनेपर वह इन्तकाल ठीक नहीं माना जायगा।
मिस्टर मांडलीक कहते हैं कि अनेक हिन्दूलॉके ग्रन्थकारोंने काशी (बनारस) की यात्राका खर्च कानूनी ज़रूरतोंमें नहीं बताया, मगर यह उनकी गलती है। मांडलीकका कहना है कि काशी यात्रा करना प्रत्येक हिन्दूका मुख्य धार्मिक कर्तव्य कर्म है; इस लिये इस यात्राका खर्च भी कानूनी ज़रूरत मानना चाहिये । देखो--मत्स्य पुराण, अग्नि पुराण, मदन पारिजातका तीर्थ प्रत्याम्नाय प्रकरण, काशीं खण्ड और नारायण भट्टका त्रिस्थली सेतु ।
अगर कोई औरत गया श्राद्ध करके बिरादरी या ब्राह्मण भोजन कराने के लिये जायदादका इन्तकाल करे तो वह कानूनी ज़रूरत नहीं है, देखो-मखन बनाम गायन 30 All. 255.
(३) उन लोगोंके धार्मिक कृत्योंका खर्च, जिनके करनेके लिये आखिरी मालिक पाबन्द था। जैसे माकी अन्त्येष्ठि क्रिया और श्राद्ध देखो--- श्रीमोहनझा बनाम बृजबिहारी मिश्र 36 Cal. 753; बृजभूषणदास बनाम पार्वतीबाई 7 Bom L. R. 1187.
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दफा ६०२ ]
मर्दोका उत्तराधिकार
( ४ ) आखिरी मालिक के क़रज़े देनेके लिये । लेकिन अगर वह फ़रजे दुराचार यानी असद व्यवहार के लिये लिये गये हों तो उनके अदा करनेके लिये नहीं । यदि जायज़ क़रजे क़ानून मियादके बाहर भी हों या किसी दूसरे क़ानूनसे वे न दिलाये जा सकते हों तो इस बारे में कोई रुकावट नहीं पड़ेगी देखो -- चिम्मनजी बनाम दिनकर 1 Bom. 320; कन्डप्पा बनाम सव्वा 13 Mad. 119; 21 Cal. 190; कन्डा स्वामी बनाम राजगोपाल स्वामी 7 M. L. J. 363.
७०
अगर आखिरी मालिककै करजोंके बारेमें उसकी जायदाद इन्सालबंट हो जाय तब किसी औरतको किसी क़र्जेके अदा करनेका अधिकार नहीं है, और अगर कोई धोखा देकर रुपया औरत से वसूल कर लेगा तो उसे वह रुपया लौटा देना पड़ेगा ।
२ - दानके लिये -
विधवा, अपनी लड़की के विवाह कालमें लड़कीके पतिको, और लड़कीके द्विरागमनमें लड़कीको जायदाद मेंसे उचित हिस्सा दानदे सकती है । 'उचित' सेमतलब है कि -खानदानकी हैसियत, और स्थिति, और जायदादकी की हैसियत अनुसार होना चाहिये, किसीके हक़ मारनेकी गरज से नहीं । विवाह कालमें जायदाद देनेकी नज़ीर देखो राम बनाम बेंगी दुसामी 22 Mad. 113. द्विरागमन अर्थात् गवनेमें जायदाद देनेकी नजीर देखोचूड़ामणि बनाम गोपीशाह 37 Cal. 1.
मि० घारपुरेके हिन्दूलॉ के अनुसार क़ानूनी ज़रूरतें यह भी मानी गयी हैं - (१) धार्मिक पूजाके लिये देव मन्दिर बनवाना, (२) तालाब आदि बनवाना ( ३ ) देव मूर्तिपर चढ़ाना और ब्राह्मणोंको दान देना मगर थोड़ा, देखो - घारपुरे हिन्दूलॉ दूसरा एडीशन पेज २५० नजीर देखो - जगजोबन बनाम देवशंकर 1 Bom. 394.
३ - भरण-पोषण यानी रोटी कपड़ेके लिये ( गुज़ारा ) - अपने खाने पीनेके लिये, और उनके खाने पीनेके लिये जिन्हें आखिरी मालिक देनेका पाबन्द था, देखो - सदाशिव बनाम धाकूबाई 5 Bom. 450, 460.
आखिरी मालिक जिनको खाना पीना देनेके लिये पाबन्द था वह यह -मा, दादी, क्वारी लड़की, क्वारी बद्दन, आदि ।
हैं जैसे
आखिरी मालिकपर लड़केकी विधवा, पोतेकी विधवा, परपोतेकी विधवा, आदिको खाना पीना देनेके लिये क़ानूनी पाबन्दी नहीं है किन्तु वह सदाचार और सद्व्यवहारके अनुसार पाबन्द है, अब देखिये आखिरी मालिक तो सदाचारसे पाबन्द है मगर जब उसके मरनेके बाद उसकी जायदाद दूसरे वारिस को चली जायगी तो वह वारिस जिसके पास जांगदाद है क़ानूनी पाबन्द हो
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उत्तराधिकार
[ नवां प्रकरण
जायगा । इसलिये जब आखिरी मालिक के मरने पर उसकी जायदादकी वारिस कोई भी औरत हो वह बेटे, पोते, परपोतेकी विधवाको भी रोटी कपड़ा देने के लिये क़ानूनी पाबन्द है ।
-
४ - लड़कियों के विवाह के लिये -
૩૦૨
उन लड़कियोंके विवाहके लिये जायदाद इन्तक़ालकी जा सकेगी जिन लड़कियोंके विवाद करनेके लिये आखिरी मालिक पाबन्द था जैसे - बहन, लड़की, लड़केकी लड़की, पोतेकी लड़की, परपोतेकी लड़की, इत्यादि, देखोदेवीदयाल बनाम भानु प्रताप 33 Cal. 433. मखन बनाम गयन 33All 255. गनपति बनाम तुलसीराम 36 Bom. 88.
उनके परवरिशकी पावन्दी, जिनकी परवरिश उस जायदादपर अवलम्बित है - माता जो अपने पुत्रकी जायदाद वरासतसे प्राप्त करती है, श्राया उस जायदाद के रेहननामेका, बरारज़ शादी अपने पतिके भाईके पुत्र की पुत्रीके, अधिकार है- क़ानूनी आवश्यकता - बैजनाथ राय बनाम मङ्गल DAIĘ AICIAN AT 5 Pat. 350; A. I. R. 1926 Pat. 1,
५ - गवर्नमेन्टकी मालगुज़ारीके लिये
अगर पहिले किसी आदमीकी बदइन्तज़ामी और ग़फलतकी वजहसे सरकारी मालगुज़ारी बाक़ी रह गई हो और उस मालगुज़ारीके अदा करने के लिये औरत क़र्जा लिया हो या जायदादका इन्तक़ाल किया हो तो दोनों जायज़ होंगे। लेकिन जब यह बात औरतने जान बूझकर की हो या क़र्जा देने वाला या मोल लेने वाला इस बदइन्तज़ामीका कारण हो तो वह इन्तनाल रद्द हो जायगा; देखो - जीवन बनाम वृजलाल 30 Cal. 550; 30 I. A. 81. श्रीमोहन बनाम बृजबिहारी 36 Cal. 753.
६- ज़रूरी मुक़द्दमेसे जायदाद बचानेके लिये- जब कोई ऐसा खास मुक़द्दमा दायर हो जाय जिससे जायदाद नष्ट हो सकती हो और उसकी पैरवीका खर्च निहायत ज़रूरी हो, तो उस खर्चके लिये जायदादका इन्तकाल जायज़ होगा, मगर हर हालतमें यह ज़रूरी है कि ऐसे खर्चके लिये जायदाद का इन्तक़ाल उस वक्त जायज़ मानाजायगा जब यह साबितहो कि सिवाय इस तरीके और कोई तरीक़ा बाक़ी न था; देखो-अमजदअली बनाम मनीराम 12 Cal. 52. इन्द्रकुंवर बनाम ललताप्रसाद 4 All. 552 मीमारेद्दी बनाम भास्कर 6 Bom. L. R.628.
७ - जायदादकी मरम्मतके खर्चके लिये-औरतें जायदादकी ज़रूरी - मरम्मत करानेके लिये क़र्जा ले सकती हैं और जायदादका इन्तक़ाल कर सकती हैं। यह क़र्जा जो मरम्मत के लिये लिया जायगा वह रिवर्जनर वारिस ( देखो दफा ५५८ ) को पाबन्द करेगा मगर जब ऐसा क़र्जा उस मरम्मतके
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दफा ६०३]
मदीका उत्तराधिकार
३.
लिये लिया गया हो जो 'ज़रूरी है अर्थात् जिस मरम्मतके बिना जायदादकी स्थिति कायम नहीं रह सकती, कोई औरत जायदादकी उन्नतिके लिये या उसको अच्छा बनानेके लिये कर्जा नहीं ले सकती और न इन्तकाल करसकती है। देखो हरीमोहन बनाम गनेशचन्द्र 10 Cal. 828. गनप्पा बनाम सूवीसन्ना 10 Bom. L. R. 927.
८-डिकरीके अदा करने के लिये जायदादका इन्तकाल किया जासकता है, अगर उस इन्तकालसे लाभ हो। .
जहांपर डिकरीकी मालियतसे ज्यादा कीमतकी जायदाद बेंच दीगयी हो या रेहन कर दीगयी हो तो वह इन्तकाल जायज़ नहीं माना जा सकेगा। यही सूरत उस वक्त भी लागू होगी जब ज्यादा कीमतकी जायदाद डिंकरीके मतालबेकी अपेक्षा कममें बेची गई हो या रेहन कीगयी हो।
९-आखिरी मालिककी वरासतकासार्टीफिकट लेने के लिये-आखिरी मालिककी वरासतका सार्टीफिकट लेनेका खर्च और ( Letters of administration देखो दफा ५५८). चिट्ठियात एहतमामका खर्च कानूनी ज़रूरत माना गया है। देखो-श्रीमोहन बनाम वृजविवारी 36 Cal. 753.
जब इन्तकालका समय ज्यादा बीत गया हो-ऐसी सूरतमें, जब किसी परिमित अधिकारी द्वारा किये हुये इन्तकालको बहुत समय व्यतीत होगया हो, और जहांपर दस्तावेज़ इन्तकालमें वर्णित वाक्यातोंसे यह विदित होता हो, कि इन्तकाल उचित तात्पर्यकी बिनापर किया गया है या कमसे कम खरीदारको उचित कारण बताये गये हैं, ऐसी अवस्थामें अदालतको चाहिये, कि यथासम्भव इन्तकालको बहाल रक्खे-अब्दुल सन्यामी बनाम रामचन्द्रराव 1926 M. W. N. 319.
नोट-इस दफामें 'आखिरी मालिक' से यह मतलन है कि जो मर्द पूरे अधिकारों सहित जायदादपर कब्जा रखताहो, और जिसके मरनेपर जायदाद उसके वारिसको पहुंचीहो, देखो दफा ५५९; ५६३, ५६४ 'इन्तकाल' से यह मतलबह कि गिरवी रखना, बेंच डालना, दानमें देना, पुरस्कार देना; या अपने कब्जेसे बाहर कर देना। यह बात हमेशा स्मरण रखना चाहिये कि औरत अपने किसी फायदक लिये जायदाद इन्तकाल नहीं कर सकती और न कर्जा ले सकती है जिससे कि रिवर्जनर वारिस ( देखा दफा ५५८) पाबन्द हो जाय । यह दफा उन सक औरतोंसे लागूहै जिन्ह जायदाद उनकी जिन्दगी भर के लिये महदूद आधकारों सहित मिलाहो, जैसे-१ विधना, लड़की,३ मा,४ दादी,५ परदादी आदि । बम्बई प्रांतमें औरतें उत्तराधिकारमें पूरे अधिकारों सहित मर्द से जायदाद पाती है और इसी से उनके मरनेके पश्चात् उनके वारिसोंको वह जायदाद मिल जातीहै, इसी सबब से उन्हें मर्दसे पाई जायदाद पर 'इन्तकाल' कग्नेका अधिकार प्राप्तहै उनके लिये इस दफासे कुछभी जरूरत नहीं है । कानूनी जरूरीके विषयमें और देखो दफा ४४०, ३३, ६७७, ७०२, ७०६, ७०७.
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उत्तराधिकार
[नवी प्रकरण
(३) सपिण्डोंमें वरासत मिलनेका क्रम
सपिण्ड नीचे लिखे क्रमानुसार उत्तराधिकारी होते हैं
दफा ६०३ लड़के, पोते, परपोतेकी वरासत
(१) अलहदा जायदादके वारिस होते हैं-लड़का, पोता, परपोता, यह तीनों मिलकर इकट्ठ मृत पुरुषकी अलहदा या खुद कमाई हुई जायदादके वारिस होते हैं। यानी एक लड़का, एक पोता जिसका बाप मर गया है, और एक परपोता जिसका बाप और दादा दोनों मर गये हैं मिलकर मरने वालेकी ऊपरकही हुई जायदादकै मालिकहोते हैं,देखो-मारूदाबी बनाम डोराई सामी 30 Mad. 340 लड़कोंके बिषयमें और देखो-2 Mad. 182, 5W. P.C.114.
(२) इकट्ठे जायदाद लेते हैं-लड़के, पोते, परपोते बापकी जायदाद को व्यक्तिगत नहीं लेते बल्ले अपने बाप और दादाके स्थानापन्न होकर उनका हिस्सा लेते हैं। देखो
मङ्गल
अमृत
शङ्कर +
गणेश +
भीम नल +
जय विजय अजय + यह निशान मरे हुएका है।
मङ्गल मरा और उसने एक लड़का 'अमृत' दो पोते 'राम और भीम' तथा तीन परपोते जय, विजय, और अजयको छोड़ा। ऊपरके बताये हुये सिद्धा. स्तके अनुसार मङ्गलकी जायदाद पहिले तीन बराबर हिस्सोंमें बांटी जायगी
नमें से एक हिस्सा उसका लडका 'अमृत' लेगा दसरा हिस्सा उसके पोते दोनों मिल कर लेंगे। इसी प्रकार तीसरा हिस्सा उसके परपोते तीनों मिल कर लेंगे । और अगर परपोतेका बेटा होता तो उसे हक़ नहीं मिलता। इस तरहके बटवारेका अगरेजीमें 'परस्ट्रिरिपस' ( Per Stripes ) है और व्यक्तिगत लेते तो बापकी जायदादमें ६ हिस्से हो जाते ऐसे बटवारेको अङ्गरेजीमें 'परकेपिटा' ( Per Capita) कहते हैं। लड़के, पोते, परपोते हमेशा बापकी
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दफा ६०३ ]
सपिण्डोमें वरासत मिलनेका क्रम
छोड़ी हुई जायदादको 'परस्ट्रिरिपस' लेते हैं यानी व्यक्तिगत नहीं लेते। इन दोनों शब्दोंके लिये देखो दफा ५५८
७०५
(३) बटवारा होने के बाद जब लड़का पैदा हो - अगर बाप और लड़कोंके बीच में बटवारा हो जाय और उसके बाद बापके एक लड़का पैदा होजाय तो वह लड़का अपने बापकी वह सब जायदाद पायेगा जो बापको बटवारे में मिली है । और इस जायदादके सिवाय वह लड़का अपने बापकी उस सब जायदादका भी अकेला मालिक होगा जो बापकी अलहदा और कोई जायदाद हो, या उसके बापने बटवारा होनेके बाद जो जायदाद कमाई हो । अर्थात् बटवारा हो जाने के बाद जब लड़का पैदा होजाय तो वहीं बापकी सब जायदादका मालिक होता है क्योंकि बापकी ज़िन्दगी में लड़का जब अलहदा हों आता है तो पीछे बापकी जायदादका वारिस नहीं माना जाता; देखो - नवलसिंह बनाम भगवानसिंह 4 All 427. और देखो दफा ५०८.
उदाहरण -- गणेशके दो लड़के जय और विजय हैं। यह तीनों शामिल शरीक रहते हैं। जय और विजय अपने बाप गणेशसे अलहदा होगये । उसके बाद गणेश के एक लड़का तीसरा 'महेश' पैदा हुआ वह लड़का और बाप शामिल रहने लगे अब गणेश मरा तो उसकी सब जायदाद महेशको अकेले मिलेगी। जय और विजयको नहीं मिलेगी । चाहे बापके पास मरते समय अलहदा, या खुद कमाई हुई या मुश्तरका हिस्सावाली जायदाद हो ।
( ४ ) शामिल शरीक और बठे हुये लड़के - जहांपर कि एक बाप और दो माताओंके लड़के होते हैं तो अक्सर यह होता है कि पहिली औरत के लड़के बापसे बटवारा करके अलहदा हो जाते हैं। और बाप दूसरी स्त्री और उसके लड़कोंके साथ रहता है ऐसी हालतमें अगर बाप खुद कमाई हुई जायदाद छोड़कर मरे तो उसकी दूसरी स्त्रीके लड़के और उनकी औलाद उसकी सब जायदाद पाने के अधिकारी होंगे और जो लड़के पहिले बटवारा कर चुके हैं वह और उनकी औलाद नहीं पायेगी, चाहे वह जायदाद बापको बटवारा करनेके पहिले या पीछे प्राप्त हुई हो । अर्थात् बटे हुये लड़कोंका हक़ बापकी खुद कमाई हुई जायदादपर कुछ नहीं है, देखो - नाना बनाम रामचन्द्र 32 Mad. 377; 2 Mad. 182-185.
उदाहरण – शङ्करके राम और भीम दो लड़के हैं। तीनों मुश्तरका रहते हैं। रामने शङ्कर से बटवारा कर लिया और मुश्तरका जायदादमेंका अपना हिस्सा अलहदा करके उसपर क़ाबिज़ हो गया । शङ्कर मरा और उसने राम, और भीमको छोड़ा अब भीम जो बापके साथ शामिल रहता था वही अकेला शङ्करकी खुद कमाई हुई जायदाद, और उस जायदादका जो बापके पास मुश्तरका हिस्सा बचा था सबका मालिक होगा, रामको नहीं मिलेगी क्योंकि पहिले वह बापकी जिन्दगी में अलहदा हो चुका था। दो शादी होने की वजहसे
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গুনাথিকাৰ
[नर्वा प्रकरण
कोई फरक इस जगहपर नहीं पड़ता। यहांपर सिर्फ यह विचार किया जायगा: कि जो पुत्र बापसे अलहदा हो गये हैं वह वापकी खुद कमाई हुई जायदादके पानेके हकदार नहीं हैं। अगर किसी बापने अपने लड़केको या लड़कोंको अलहदा करदिया हो और पैतृक सम्पत्ति यानी मौरूसी जायदादका हिस्सा न दिया हो और बाप दूसरे लड़कोंके साथ रहने की हालतमें मरगया हो तो मौरूसी जायदादमें अलहदा किये हुये लड़के अपना हिस्सा बटा सकते हैं, क्योंकि उनका हिस्सा बापकी ज़िन्दगीमें था और उस वक्त भी वह अगर चाहते तो बटा लेते मगर बापकी खुद कमाई हुई जायदादके वह वारिस नहीं होंगे । बक्लि उस जायदादके वह लड़के वारिस होंगे जो बापके साथ मुश्तरका रहते थे। . विधवाके पुत्र-इस ग्रन्थकी दफा ६३ के अनुसार जब किसीने विधवा से विवाह सवर्णमें किया हो और उससे भी लड़के पैदा होगये हों तथा उस पुरुषके पहिली स्त्री आदिसे भी लड़के हों तो अब चूंकि विधवा विवाह कानूनन् जायज़ मान लिया गया है इसलिये ऐसा समझा जायगा कि विधवा के पुत्र भी वही हक़ रखते हैं जो उस पुरुषकी पहली स्त्रीसे उत्पन्न पुत्र हक़ रखते हैं अर्थात् दोनों तरहके पुत्रोंको समान हक्क प्राप्त होगा देखो इस ग्रन्थ के पेज १२५ से १२८ तक।
(५) अनौरस पुत्र-हिन्दुस्थानके सब हाईकोर्टाके अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्योंमें अनौरस पुत्र (जो असली लड़का नहो) का उत्तराधिकार बापकी जायदादमें कुछ नहीं है। वह सिर्फ अपने बापकी जायदादमें रोटी, कपड़ा पानेका अधिकारी है; देखो-रोशन सिंह बनाम बलवन्तसिंह 22 All. 191, 27. I. A. 51. चोट्रया बनाम साहब पुरहूलाल 7 M. I. A. 18, दफा ४०३, ५१०, ५३२ भी देखो।
___ अनौरस पुत्र-वह पुत्र कहलाता है जो विवाहिता स्त्रीसे न पैदा हो । कलकत्ता हाईकोर्ट के अनुसार चाहे मुकद्दमा मिताक्षरालॉका हो या दायभागलॉका हो, शुद्र कौमका अनौरस पुत्र भी वापकी जायदादमें कुछ हक़ नहीं रखता। उसे बापकी वरासत नहीं मिलती वह सिर्फ अपने बापकी जायदादमें रोटी कपड़ा पानेका अधिकारी है।
बम्बई मदरास और इलाहाबाद हाईकोर्ट के अनुसार शूद्र कौमका अनौरसपुत्र अपने बापकी वरासतके हिस्सेका हकदार है, बशर्ते कि उसकी मा केवल उसके बापहीके पास रहती हो और व्यभिचारसे वह पुत्र पैदा न हुआ हो। ऐसा होने पर वह अनौरस पुत्र उत्तराधिकारके पूरे अधिकार नहीं रखता । यह पूरी तौरसे माना गया है कि जहांपर कोई बाप औरस पुत्र और अनौरस पुत्रको छोड़ कर मर जाय तो अनौरस पुत्रको, औरस पुत्रसे आधा हिस्सा मिलेगा, और जहांपर औरस पुत्र न हो लेकिन विधवा, लड़की या
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दफा ६०३]
सपिण्डोंमें वरासत मिलनेका क्रम
लड़कीका लड़का हो तो अनौरस.पुत्र आधा हिस्सा पायेगा और दूसरा आधा हिस्सा विधवा, लड़की या लड़कीके लड़केको मिलेगा। अगर विधवा, लड़की या लड़की का लड़का न हो तो अनौरस पुत्र सब जायदाद पायेगा देखो-शेष गिरि बनाम गिरेवा 14 Bom. 282. राही बनाम गोबिन्द 1 Bom. 97; साहू बनाम वाइजा 4 Bom. 37. रामकाली बनाम जम्मा 30 All. 508, मीनाक्षी बनाम अप्पाकुटी ( 1909) 33 Mad. 226; अन्नाय्यान बनाम चिन्नन 33 Mad. 366
ऊपर यह बताया गया है कि अनौरस पुत्रको औरस पुत्रके हिस्सेसे आधा हिस्सा मिलता है मगर इस 'आधे' का मतलब इस जगहपर क्या होना चाहिये इस बातपर मतभेद है। देखिये मेन और सरकार हिन्दूलॉ के अनुसार तो अनौरस पुत्र उस हिस्सेका आधा हिस्सा लेता है जितना कि उसे औरस पुत्र होने की सूरतमें मिलता यानी अनौरस पुत्रको एक चौथाई हिस्सा मिलेगा और तीन चौथाई हिस्सा । औरस पुत्र को मिलेगा। ऐसा मानों कि एक आदमी दो पुत्र छोड़कर मर गया जिनमें से एक औरस और एक अनौरस है। अगर दोनों पुत्र औरस होते तो आधा आधा हिस्सा मिलता अनौरस होनेकी वजेहसे आधेका आधा हिस्सा मिला, यही शकल उस सूरत में लागू होगी जब कोई एकसे ज्यादा औरस पुत्र और अनौरस पुत्र छोड़कर मर जाय; यानी जितना हिस्सा औरसको मिलेगा उसका आधा अनौरसको मगर 'आधा' उपरोक्त रीतिसे शुमार किया जायगा।
मदरास हाईकोर्टके अनुसार यह माना गया है कि जितना हिस्सा औरस पुत्रको मिलेगा उस हिस्सेका आधा अनौरस पुत्र पायेगा अर्थात् दोहि हाई औरस पुत्र और एक तिहाई अनौरस पुत्र; देखो-चिल्लामममाल बनाम रंगनाथं ( 1910 ) 34 Mad.2 77.
शूद्रोंमें गैर कानूनी पुत्रको, बमुकाबिले कानूनी या दत्तक पुत्रके उस हिस्सेका आधा हिस्सा मिलता है जो कि उसे उस सूरतमें मिलता जबकि वह कानूनी पुत्र होता, न कि उस हिस्सेका प्राधा जो कि दूसरे हिस्सेदार पाते हैं-34 M. 277. का फैसला प्रिवी कौन्सिलके 46 M. 167. के फैसले द्वारा रद्द कर दिया गया है। प्रतिनिधित्वका सिद्धान्त, जो कि कानूनी पुत्रों के वरासतके सम्बन्धमें लागू होता है वही गैर कानूनी पुत्रोंके सम्बन्धमें भी लागू होता है 25 M.619. शूद्रके दत्तक पुत्र भऔर गैर कानूनी पुत्रके मुकाबिलेमें गैर कानूनी पुत्रको कानूनी पुत्र मानना सब प्रकारसे न्याय विरुद्ध होगा और यह फर्ज करना कि दत्तकका रस्म इस प्रकार कानूनी पुत्रके बाद हुआ, और इस कारणसे दत्तक नाजायज़ हुआ और इससे यह परिणाम निकाला कि गैरकानूनी पुत्र तमाम जायदादका मालिक हुआ,और इसके बाद वह जायदाद आधी आधी तकसीम कीगई और इस प्रकार आधी जायदाद दत्तक पुत्रको
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उत्तराधिकार
[नवां प्रकरण
और आधी गैर कानूनी पुत्रको मिली। इस कल्पनाका सही तरीका यह है कि दत्तक पुत्रको उसी हैसियतमें समझा जाय, जिस हैसियतमें कि कुदरती पुत्र होता है, फिर यह फ़र्ज किया जाय कि गैर कानूनी पुत्र कानूनी पुत्र है और यह समझ कर कि वे कानूनी पुत्रोंके साथ रह सकते हैं यह देखा नाय कि उनको उस अवस्थामें कौनसा हिस्सा मिलेगा, और उसका आधा और कानूनी पुत्रको दिया जाय - महाराजा कोल्हापुर बनाम एस सुन्दरम् अय्यर 48 Mad. 1; A. I. R. 1925 Mad. 497.
अपनीही जातिकी नीची श्रेणी की स्त्रीके साथ शादी करना जायज़ है और किसी ऐसे जातीय रवाजके न होनेपर, जो उसे नाजायज़ करार दे, शादी करने वाले आदमीकी सन्तानको खानदानी जायदादके उत्तराधिकारसे नहीं रोकतीं - हरप्रसाद बनाम केवल 47 All. 169; L. R. 6 A.7 (Civ) 83 I. C. 1637 A. I. R. 1925 All. 26.
वेश्याके पुत्रोंका उत्तराधिकार-एक वेश्याके दो पुत्र थे। एक पुत्रके प्रपौत्रने दूसरे पुत्रके प्रपौत्रके पुत्रकी जायदाद, प्राप्त करनेके लिये नालिश किया-तय हुआ कि हिन्दूलॉ के सबसे नज़दीकी सम्बन्धीका नियम लागू होता है और मुद्दईका दावा ठीक है। चूकि वेश्या हिन्दू थी और उसकी सन्तान हिन्दू धर्मको मानती थी और हिन्दू रस्म रवाजको धारण किये हुये थी अतएव उसकी सन्तानके लिये हिन्दूलॉ की ही पाबन्दी होगी, वेश्याके लड़कोंके पिताकी चाहे कोई भी जाति क्यों न हों, जब तक कि कोई जायज़ थौर लाज़िमी रवाज इसके खिलाफ न हो-विश्वनाथ मुदली बनाम डोरै स्वामी मुदली 48 Mad. 944; ( 1925 ) M. W. N. 613 A. I.R. 1926 Mad. 1; 49 M. L. J. 684.
उदाहरण बजरङ्गादास शूद्र कौम है, उसके पास तीन लाख रुपया है और वह शिवलाल एक औरस पुत्र तथा बिहारी एक अनौरस पुत्रको छोड़ कर मर गया। अब देखिये मदरास हाईकोर्ट के अनुसार तो दो तिहाई शिकलाल और एक तिहाई बिहारी पायेगा यानी दो लाख रुपया शिवलाल और एक लाख बिहारी पायेगा। मगर मिस्टर मेनसाहेब और सरकार हिन्दूलॉके अनुसार ऐसा हिस्सा नहीं होगा। उनके अनुसार शिवलाल औरस पुत्र तीन हिस्सा पायेगा और बिहारी एक हिस्सा अर्थात् सवा दो लाख रु०शिवलालको
और पच्छत्तर हजार बिहारीको मिलेंगे। यह अाखिरी हिस्सा इस सिद्धान्तपर किया गया है कि अगर बिहारी औरस पुत्र होता तो दोनोंको डेढ़ डेढ़ लाख रु० मिलता। मगर वह अनौरस पुत्र है इसलिये जितना उसे औरस होनेकी सूरतमें मिलता उसका आधा हिस्सा अनौरस होनेपर मिलेगा यानी डेड लाखका आधा पच्छत्तर हज़ार रुपया। ...
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दफा ६०३ ]
afrosta बरासत मिलनेका क्रम
( ६ ) अनौरस और औरस पुत्रोंमें सरवाइवरशिप - यह ध्यान रखना कि औरस पुत्र और अनौरस पुत्र अपने बापकी जायदादको मुश्तरका और सरवाइवरशिपके हक़ ( देखो दफा ५५८ ) के साथ ठीक उसी तरहसे लेते हैं . जिस तरह कि औरस पुत्र लेते हैं । इसलिये अगर एक शूद एक औरस पुत्र, और एक अनौरस पुत्रको छोड़कर मर जाय और उसके पीछे औरस पुत्र भी विना बटवारा किये मर जाय तो औरस पुत्रकी जायदादका हिस्सा अनौरस पुत्र को मिलेगा; देखो 7-18 Cal. 151; 17 1. A. 128.
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( 9 ) अनौरस पुत्रका हक़ उसकी औरस औलादको मिलता है-शूद्र कौम बापकी जायदादमें अनौरस पुत्रका हक़ कोई जाती हक़ नहीं माना गया वह हक़ उस अनौरस पुत्रके मरनेपर उसकी औरस औलादको मिलेगा । ऐसा मानों कि जैसे - देवीदास एक शूद्र है और उसके कालीदास एक औरस पुत्र और चरनदास एक अनौरस पुत्र है। चरनदास अपने बापसे पहिले सेवाद स नामक एक औरस पुत्रको छोड़ कर मर गया । पीछे देबीदास मरा तो अब सेवादासको सिर्फ उतनाही हिस्सा मिलेगा जितना कि उसके बाप चरनदासके ज़िन्दा होनेपर उसको मिलता । इसी तरहपर अगर सेवाराम भी एक औरस पुत्रको छोड़ कर वापसे पहिले या पीछे और देबीदासके पहिले मर गया होता तो चरनदासके पौत्रको उतनाही हिस्सा मिलता जितना कि उसके पितामहका था ।
अगर अनौरस पुत्र कोई अनौरस पुत्र छोड़ कर बापकी जिन्दगी में मर जाय तो अभी तक यह निश्चित नहीं है कि उसको हिस्सा मिलेगा या नहीं । जैसे अगर चरणदास एक अनौरस पुत्र छोड़ कर बापकी जिन्दगी में मरजाता तो उस पुत्रको हिस्सा मिलेगा या नहीं मिलेगा अभी तक निश्चित नहीं है: देखो - - रामलिङ्ग बनाम पवादाई 25 Mad 519. इस विषयमें धर्मशास्त्रकारोंके वचनोंसे प्रतीत होता है कि अनौरस पुत्रके अनौरस पुत्रको शूद्रोंमें भी भाग नहीं मिलेगा । एवं उसके पोते और परपोते से भी समझना चाहिये ।
(८) अनौरस पुत्रको उत्तराधिकार नहीं मिलता-- अनौरस पुत्र सिर्फ अपने बापकी जायदाद में हिस्सा पाता है वह अपने भाई बन्दोंकी जायदादकां उत्तराधिकारी कभी नहीं हो सकता अर्थात् बापके सिवाय उसे किसी भी अन्य रिश्तेदारका उत्तराधिकार प्राप्त नहीं हो सकता; देखो स्वामी - शङ्कर बनाम राजेश्वर 21 All. 99.
उदाहरण - एक शूद्र अपने एक औरस पुत्र कालीदास और एक अनौरस पुत्र चरनदास को छोड़ कर मर गया वह दोनों बापकी जायदाद शामिल शरीक और सरवाइवर शिपके इक ( दफा ५५८ ); के साथ लेंगे, अगर दोनों आपसमें बढ़वारा करालें तो कालीदासके मरनेपर उसकी जायदाद उसके
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उत्तराधिकार -
[नवां प्रकरण
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पारिसको मिलेगी, चरन दासको नहीं मिलेगी, क्योंकि वह उसका वारिस नहीं है । और अगर ऐसा मानों कि बटवारा नहीं हुआ तो कालीदास औरस पुत्रकी जायदाद सरवाइवरशिपके हक़के अनुसार चरनदासको मिलेगी। यह ध्यान रखना कि चरनदास अनौरस पुत्र सिर्फ उतनी जायदाद पायेगा जो बापसे कालीदासको मिली होगी। और जो जायदाद कालिदासकी खुद कमाई है या और कोई दूसरी है अह कालिदासके वारिसको मिलेगी अनौरस पुत्र चरनदास को हरगिज़ नहीं मिलेगी क्योंकि वह उसका वारिस नहीं है।
(१) द्विजोंमें अनौरस पुत्रका कोई हल नहीं है । दासी पुत्र-यह बात हम पहिले बता चुके हैं कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, और वैश्योंमें अनौरस पुत्रका बापकी जायदादहै कोई अधिकार किसी तरह का नहीं है वह बापका उत्तराधिकारी नहीं है और न वह बटवारा करासकता है। शूद्रोंके अनौरस पुत्रके बारेमें हिन्दूधर्म शास्त्रोंमें यह मानागया है कि अगर वह 'दासीपुत्र' हो यानी 'दासी' का लड़का हो तो वरासत और बटवारेमें कुछ अधिकार रखता है। कलकत्ता हाईकोर्टने 'दासी' शब्दका अर्थ यह किया है जो 'औरत खरीदी गयी हो' और चूंकि सन् १८४३ ई० में दासीका होना बन्द कर दिया गया है इसलिये अब दासी नहीं होती इस सवबसे कोई भी आदमी दासी पुत्र नहीं हो सकता । नतीजा यह निकला कि चाहे मिताक्षरालॉया दायभागलॉका केस हो कलकत्ता हाईकोर्टके अनुसार सन् १८४३ ई० से जब कि दासी होना बन्द कर दिया गया है तबसे कोई भी 'अनौरस पुत्र' दासी पुत्र नहीं कहा जा सकता इससे उसे वरासतमें और बटवारेमें किसी हिस्सेके लेनेका भी हक़ नहीं है सिर्फ वह पापकी जायदादमें रोटी कपड़ा पानेका अधिकार है। देखो--रामसरन बनाम देकचन्द ( 1900) 28 Cal. 194; नरायन बनाम रखल 1 Cal. 1; क्रिपाल बनाम सुकरमनी 19 Cal. 91.
बम्बई, मदरास, और इलाहाबादकी हाईकोर्टने यह माना है कि यद्यपि 'दासी' शब्दका अर्थ खरीदी गयी औरतसे है मगर इस अर्थमें उस औरतका भी समावेश हो सकता है कि जो किसी आदमीके पास सिर्फ उसीके लिये बराबर रही हो, तो ऐही औरतका खड़का इन कोटौंके अनुसार वरासत और बटवारामें कुछ हक रखता है जैसा कि ऊपर बताया गया है।
(१०) अनौरस पुत्र बटवारा नहीं करा सकता--अनौरस पुत्र अपने बापसे मौरूसी जायदादका बटवारा नहीं करा सकता क्योंकि उसे पैदाइससे हक्क नहीं पैदा होता । बापको अधिकार है कि अगर वह चाहे तो उसे प्राधा हिस्सा है। मगर आधेसे ज्यादा बापका अधिकार भी देनेका नहीं है। देखो दफा ४०३, ५२२.
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दफा ६०४]
सपिण्डोंमें वरासत मिलने का क्रम
दफा ६०४ विधवाकी वरासत
(१) कब हक होता है ? पुत्र, पौत्र, प्रपौत्रके न होनेपर मृत पुरुषकी जायदाद उसकी विधवा स्त्रीको मिलती है। बृहस्पतिने कहा है कि
आम्नाये स्मृति तन्त्रेच लोकाचारे च सूरभिः .. शरीरार्द्धस्मृता जाया पुण्या पुण्यफले समा।
यस्य नोपरताभार्या देहार्द्ध तस्य जीवति जीवत्यर्द्ध शरीरेऽथ कथमन्यः समाप्नुयात् । . सकुल्यौर्विद्यमानस्तु पितृमातृसनाभिभिः असुतस्य प्रमीतस्य पत्नीतद्भागहारिणी । बृहस्पति.
बृहस्पति कहते हैं कि-यह बात वेद, स्मृति, तंत्र और लोकाचारमें मी मानी जाती है कि पुण्य और पापके फलकी स्त्री बराबरकी हिस्सेदार है, क्योंकि वह पुरुषका आधा शरीर है। जिस मृत पुरुषकी विधवा स्त्री जीती हो तो मानों उस पुरुषका प्राधा अङ्ग जीता है, और जब भाषा अङ्ग जीता है तो उसे छोड़कर मृत पुरुषकी जायदाद कैसे दूसरेको दी जा सकती है। नतीजा यह हुआ कि सकुल्योंके तथा माता पिता और भाइयोंके मौजूद होने पर भी अपुत्र पुरुषकी जायदाद उसकी विधवा लेगी। 'अपुत्र मृत पुरुष से यह मतलब है कि जिसके पुत्र, पौत्र और प्रपौत्र न हों और ऐसी हालतमें बह मरा हो। ____ याज्ञवल्क्यने भी विधवाको पुत्र, पौत्र, और प्रपौत्रके पश्चात् मृत पुरुष * धनका वारिस माना है
पत्नी दुहितरश्चैव पितरौ भ्रातरस्तथा, तत्सुता गोत्रजा बन्धु शिष्यः सब्रह्मचारिणः ॥ अनेन पूर्व पूर्वस्याभावे पर परस्याधिकारं वदन् सर्वेभ्यः पूर्व पल्या एव पनाधिकार मभिधत्ते
विष्णुने भी यही बात मानी है; देखो(अपुत्रस्य धनं पत्न्याभिगामि)
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७१२
उत्तराधिकार
[नयां प्रकरण
جی ام سی جی جی، میو میو میو نیو به بهره می به نیهانی دوم و یه هنیه به ره وه بهم
अपुत्रका अर्थात् जिसके पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र न हों उसके धनको पहिले उसकी विधवा लेती है।
बिल्कुल इसी प्रकार कानूनमें माना गया है। नीचे देखो
(२) विधवाकी मिलकियत-लड़के, पोते, परपोतेके न होनेपर पति की छोड़ी हुई जायदाद विधवाको महदूद हकोंके साथ मिलती है। विधवा के मरनेपर वह जायदाद विधवाके वारिसोंको नहीं मिलेगी, बल्कि उसके पतिके वारिसोंको मिलेगी, इस किताबकी दफा ५६३ देखो-भगवानदीन बनाम मैनाबाई 11 M. I.A. 487.
विधवाको जो जायदाद पतिसे मिलेगी उस जायदादमें वह सिर्फ उसके मुनाकेके पानेकी हकदार है, चन्द कानूनी सूरतोंके सिवाय विधवाको जाय. दादके इन्तकाल करने का कोई अधिकार नहीं है। मगर उसे यह अधिकार है कि वह अगर चाहे तो सिर्फ अपनी जिन्दगी भरके लिये जायदादमें जो उसे हक है रेहन, या बय करदे, यानी गिरवी रखदे, या बेंच डाले । जायदादके मुनाफ पर विधवाको पूरा अधिकार है। उसे अपनी मरज़ीके अनुसार वह काममें ला सकती है। विधवाके उत्तराधिकार सम्बन्धमें कुछ नजीरें देखिये 9M. I. A. 643-611; 2 W. R. P.C. 31-39; 5 I. A. 61, 1 Mad, 31252C. L.R.81; 5I.A. 14994 Cal.1903 3 C. L. R. 31-401 13M.1. A. 1133 3 B.L. R.P.C.411 12 W. R. P. C.403 13
M. I. A. 497; 6 B.L. R. 2027 14 W. R. P. C. 38, 3 Mad. H.C. '289; 2 M. I. A. 331; 5 W.R. P.0 131; 3 M. W. P. 74; जैनियों के लिये देखो-6 N. W. P. 382. S. C; 5 I. A. 87; 1 All. 688, 1925 A. I. R.97 Oudh.
-हिन्दू स्त्रीके मुसलमान हो जानेपर आया उत्तराधिकारका अधिकार 'चला जाता है ? यदि कोई हिन्दू स्त्री विधवा हो जानेके बाद मुसलमान हो जाय, तो सिवाय उसके हिन्दू पतिके, उसके वरासतके अधिकारों में कोई असर नहीं पड़ता-घनश्यामदास बनाम सरस्वती 21 L. W. 415; (1925) M. W. N. 285; 87 I. C. 62', A. I. R. 1925 Mad. 861. . जब पतिकी मृत्युके पश्चात् कोई हिन्दू विधवा, किसी मुश्तरका खानदानकी जायदादपर काबिज पाई जाती है, तो उसका कब्ज़ा आमतौरपर उस की परवरिशके सम्बन्धमें माना जाता है । उसका कब्ज़ा उस जायदादपर मुखालिफ़ाना नहीं होता-यशवन्त बनाम दौलत 89 I. C. 663.
उस विधवाका अधिकार, जो जायदादपर ताहयात अधिकार रखती है बमुकाबिले उस विधवाके अधिकारके जो परवरिशकी गरज़से जायदाद प्राप्त करती है, अधिक होता है-गोपी कोपरी बनाम मु० राजरूप कोयर A. I. R. 1925 All. 190.
4. ०61.
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दफा ६०४]
सपिण्डोंमें वरासत मिलनेका क्रम
.. श्राया विधवाकी जायदाद ग्रांट द्वारा कायमहो सकती है ? जज कुमार स्वामी को इस बातमें सन्देह है । स्पेशर चीफ़ जस्टिसका मत है कि विधवा की जायदादका वसीयत या ग्रांट द्वारा कायम किया जाना सम्भव है और यह कानून द्वारा भी पैदा हो सकती है:-महाराजा कोल्हापुर बनाम एस. सुदरम् अय्यर 48 Mad. 1; A. I. R. 1925 Mad, 497.
विधवा जायदादके लाभके लिये किसी कानूनी सुलहनामेकी पाबन्दी जायदादपर कर सकती है, किन्तु ज़रूरतसे अधिक रकमके सुलहनामेकी पाबन्दी जायदाद पर न होगी, देखो-बसावन बनाम नाथा A. I. R. 1925 Oudh. 30.
विधवा द्वारा प्राप्त की हुई जायदाद-इस आम सिद्धान्तमें कि कोई हिन्दू विधवा किसी जायदादपर कब्ज़ा मुखालिफ़ाना रखनेकी हालतमें उसे अपना अलग स्त्रीधन जायदाद समझती है, इस पावन्दीकी आवश्यकता है कि आया उसने उस जायदादको बहैसियत अपने पतिकी विधवाके पैदा किया है ? अन्तिम सूरतमें वह जायदाद उसके पतिकी इजाफा जायदाद हो नाती है और वह वरासतसे विधवाके वारिसोंको नहीं बल्लि उसके पतिके वारिसोंको मिलती है-जगमोहनसिंह बनाम प्रयागनारायण 87 I.C.473; 3 Pat. L. R. 251; 1925 P. H. C.C. 140, 6 Pat. L. J. 206, A. I. B. 1925 Pat. 5230
स्वयं उपार्जित सम्मत्ति-किसी व्यक्तिकी स्वयं उपार्जित सम्पत्तिपर उसकी विधवाका बमुक़ाबिले उसके पिताके ज्यादा नज़दीकी सम्बन्ध हैमु० जीराबाई बनाम मु० रामदुलाराबाई 89 I. O. 991.
क़ब्ज़ेका लिया जाना, जबकि बहैसियत विधवाके वह नहीं प्राप्त किया जा सकता था, वस्तुतः सम्पूर्ण अधिकारको पैदा करता है जैसे कब्ज़ा मुखा. लिफ़ाना-लालबहाहरसिंह बनाम मथुरासिंह 87 1. C. 164; A. I. R. 1925 Oudh 669.
. यदि किसी विधवाका कब्ज़ा मुखालिफ़ाना, अन्तिम पुरुष अधिकारीके जीवनकालसे ही आरम्भ होता है तो मियादका सिलसिला विधवाके कब्जेके वक जारी रहेगा, किन्तु यदि कब्ज़ा मुखालिफाना अन्तिम पुरुष अधिकारीकी मृत्युके पश्चात् विधवाकी ताहयात कब्जेदारीके मध्य आरम्भ होता है तो विधवाकी मृत्युके बादसे भावी वारिसोंके खिलाफ मियादका चलना शुरू होगा। जब विधवा केवल परवरिशकी अधिकारिणी हो तो उसका कब्जा मुखालिफाना माना जायगा, यदि इस बातका कोई सुबूत न हो, कि वह किसी अन्य प्रबन्धसे है-भगवानदीन बनाम अजोध्या 87 I. C. 1021; A. I. R. R. 1925 Oudh. 729.
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उत्तराधिकार
हिन्दू विधवाको उस जायदाद के इन्तक़ाल करनेका परिमित अधिकार है जिसेकि उसने बतौर अपने पतिकी वारिसके प्राप्त किया है । वह कोई ऐसा इन्तकाल नहीं कर सकती, जो उसके जीवन के पश्चात् प्रभाव रखता है और वह वसीयतनामे के द्वारा इन्तक़ाल बहुतही कम कर सकती है। मध्य प्रदेश में हिन्दू विधवा अपने पति से प्राप्त मौरूसी जोतकी वसीयत नहीं कर सकती1. शिवदयाल बनाम रामप्रसाद 90 I. C. 247.
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नवां प्रकरण
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विधवा - नियत मासिक एलाउन्स के एवज़में जायदादका त्याग जो कोर्ट आफवार्डसकी विधवा थी कोर्ट की इजाज़त नहीं हासिलकी गई जायदाद का कोर्टके क़ब्जे में होनेसे ऐसी दशा में त्याग जायज़ नहीं है - बंगाल कोर्ट आफ वार्ड ऐक्ट (बी०सी० सन् १८७६ ई० ) की दफा ६० देखो - मानसिंह बनाम महारानी नवलखपति 53 IA 11; 43 C. L J. 259; ( 1926 ) M. W. N. 332; 7 Pat. L. J. 223; 5 Pat. 290; 94 I. C. 830; A. I. R. 1926 P. C. 2; 50 M. L. J.332 (P. C.).
त्याग परवरिश - उसके लिये आदेश- भावी वारिस या किसी अन्य के हमें त्याग और उसका जायज़ होना-अभयपद त्रिवेदी बनाम रामकिंकर त्रिवेदी AIR 1926 Cal. 228 . त्याग -- समस्त जायदादका क्रमशः त्याग एक साथ नहीं जायज़ होना -- मारू बनाम टेसो 24 A. L. J 541.
(३) बदचलन विधवा -- बदचलन विधवा अपने पतिकी जायदादके पानेका हक़ नहीं रखती और अगर एक दफा उसे हक़ प्राप्त हो जाय तो फिर बदचलनी की वजेहसे जायदाद उससे वापिस नहीं ली जा सकती । अर्थात् जब बदचलनीकी दशा में उसे पतिकी जायदाद मिलनेका मौक़ा प्राप्त हुआ हो तो उसे जायदाद नहीं मिलेगी और अगर जायदाद मिल जाने के पीछे वह 'बदचलन हो जाय तो उससे बदचलनीकी वजहसे जायदाद नहीं लौटाई जायगी, देखो -- मनीराम बनाम केरी कोलीटानी 5 Cai. 776; 7 I. A.115. सैलाम बनाम चिन्नामल 24 Mad. 441. गङ्गाधर बनाम एलू ( 1912 ) 33 Bom. 138; 2 All. 271.
वह विधवा जो कि दुराचारिणी रही हो, किन्तु उसके सम्बन्धमें प्रमाणित किया गया हो कि उसने अपवित्र जीवन त्याग दिया है तो वह केवल परवरिश की अधिकारिणी है--भीखूबाई बनाम हरीबा 49 Bom. 459; 27 Bum. L. R. 13; A. I. R. 1925 Bom. 153.
(४) विधवाका पुनर्विवाह-जब किसी विधवाको पतिकी जाददाद प्राप्त होगयी हो और उसके बाद वह अपना दूसरा विवाह करले तो वह जायदाद जो पहिले पतिके मरनेपर उसे मिली है वह विधवासे छीन लीजायगी और वह जायदाद उसके पहिले मृत पतिके वारिसको मिल जायगी; देखो - बसूल जहांन बनाम रामसरन 22 Cal. 589.
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दफा ६०४] . सपिण्डोमें वरासत मिलनेका क्रम . ७१५
विधवा पुनर्विवाह करनेसे अपनी घरासतको खो देती है इसे 'हारीतने' भी कहा है देखो
भा-ब्यभिचारिणी यावद्यावच नियमेस्थिताः . . ... तावत्तस्याभवेद्रव्य मन्यथास्यादिलुप्यते । हारीतस्मृति.
हारीत कहते हैं कि, जब तक भार्या अपने नियमों में स्थित रहे और ब्रह्मचारिणी बनी रहे तबतक पतिकी जायदादका उपभोग करे, ऐसीन रहनेसे जायदाद छीन लीजायगी। : (५) बेधर्म विधवा-जय किसी विधवाको पतिकी जायदाद वरासतमें मिली हो उसके बाद अगर वह अपने धर्म में न रहे, यानी हिन्दू नरहे, तोंइस पातसे प्रायः उसके अधिकारमें फरक नहीं पड़ेगा देखो-हिन्दू विधवाओंका पुनर्विवाह करने का कानूना एक्ट १५ सन १८५६ ई० की दफा २, माटुंगिनी बनाम रामरतन 19 Cal. 289.
(६) विधवा माकी हैसियत नष्ट नहीं करेगी-विधवा बदचलनीकी वजहसे तो पतिकी जायदाद वरासतमें नहीं पाती, मगर वह अपने पहिले पतिके लड़कों की माकी हैसियत नहीं खो देती इसलिये वह पतिकी विधवाकी हैसियतसे तो पतिकी जायदाद कमी नहीं पायेगी, मगर वह माकी हैसियतसे अपने उन पुत्रों की जायदादके पानेका हक रखती है जो पहिले पतिसे पैदा हुए हों, देखो चामरहारू बनाम काशी 29 Bom. 388; वासापा बनाम रायावा 29 Bom. 91; लक्ष्मण बनाम सेवा 28 Mad. 425.
जहांपर विधवाके दूसरी शादी करनेका रवाज है वहांपर अगर कोई विधवा पतिकी जायदादके वारिस बनजानेके बाद दूसरी शादी करले तो भी जायदाद उससे छिन जायगी। इस विषयपर इलाहाबाद हाईकोर्टकी यह राय है कि विधवासे जायदाद ज़रूर छीन लीजायेगी, देखो-मूला बनाम परताप (1910 ) 32 All. 489. दूसरे हाईकोर्टीकी राय कुछ विरुद्ध है। . एक्ट नम्बर १५ सन १८५६ ई० की दफा २ के अनुसार विधवा दूसरी शादी कर लेनेसे अपने पहिले पति की जायदादमेंसे रोटी कपड़ापानेकी मुस्त हक नहीं रहेगी। इलाहाबाद हाईकोर्टने गजाधर बनाम कौसिल्ला ( 1908) 31All. 161 में यह माना कि जहांपर विधवा अपनी कौमकीरसमके अनुसार दूसरी शादी करसकती है और उस क्रोममें दूसरी शादी करना नाजायज़ नहीं माना जाता तो विधवा ऐसी सूरतमें अपने रोटी कपड़ेके पानेका हक्क पहिले पतिकी जायदादमें रखती है। .. (७) दो या ज्यादा विधवायें-जब कोई पति मर जाय और दो या दोसे अधिक विधवाये छोड़े तो यह सब विधवायें पतिकी जायदाद मुश्तरकन्
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उत्तराधिकार
[ नव प्रकरण
चौर सरवाइवरशिपके हक़के साथ ( देखो दफा ५५८ ) हासिल करती हैं । ऐसा मानो कि एक हिन्दू अपनी तीन विधवायें गङ्गा, जमुना और तुलसी, को छोड़ कर मरगया। तीनो विधवायें मुश्तरकन् और सरवाइवरशिपके हक़के सम्थ पति की जायदाद लेंगी । और तीनों विधवायें पतिकी जायदादकी आमदनीका बराबर हिस्सा लेनेका हक़ रखती हैं। उन तीनोंमेंसे जब एक विधवा मर जायगी तो उसका हिस्सा बाक़ी दो विधवाओंको मिलेगा इसी तरहपर जब दूसरी विधवा मरेगी तो उसका भी हिस्सा तीसरी विधवाको मिलेगा । और जब आखिरी विधवा मर जायगी तो जायदाद उसके पति के वारिसको मिलेगी । विधवाएं पति की जायदादका बटवारा नहीं करासकर्ती जिससे कि दूसरी विधवाका सरवाइवर शिपका हक़ मारा जाय। विधवायें, अगर आपसमें जायदादका बटवारा करलें कि जिससे उनको बराबर मुनाफा मिलने में सहूलियत रहे तो कर सकती हैं परन्तु आपसी बटवारेसे किसी तरहका नुकसान दूसरे वारिसको पहुंचता हो तो वह नहीं कर सकेंगी, देखो दफा ५०६.
१६
जब किसी शामिल शरीक विधवाको जायदादका मुनाफा न मिलता हो ( चाहे वह जिसके पास इन्तजाममें जायदाद है खा जाता हो या दूसरी विधवाऐं न देती हों या और किसी तरहसे न मिलता हो ) तो वह विधवा जिसे मुनाफा नहीं मिलता अदालतमें इस बातकी नालिश करे और अदालतको यह मालूम हो कि विधवाको जायदादका मुनाफा दिलानेके लिये उसके पति से पाई हुई जायदादका बटवारा करना ही योग्य होगा तो अदालत ऐसी डिकरी कर सकती है कि वह विधवा जायदादपर अलहदा क़ब्ज़ा रक्खे और उसका मुनाफा अलहदा हासिल करे लेकिन ऐसी डिकरीसे 'सरवाइवरशिप' का हक़ नहीं टूट जायगा यह बात प्रिवी कौंसिल ने भी मानी है; देखो -- भगवानदीन बनाम मेमाबाई 11 M. I. A. 489; नीलमनी बनाम वधामनी 1 Mad. 290 4 I. A. 212; 34 All 189,
रवाज के अनुसार जब एक विधवा दूसरी विधवाकी मृत्युके पश्चात्, उसकी जायदादकी वारिस हो सकती है, तो वह उसके द्वारा किये हुये इन्तकालको भी रद्द करा सकती है। मु० सुरजो बनाम मु० दलेली 7 Lah. I J. 474; 87 I. C. 937; 26 Punj L. R. 269; A. I.R. 1625 Lah, 573.
एक हालके मुक़द्दमें में जहांपर कि विधवाने अपने पतिकी छोड़ी हुई जायदादपर अलहदा क़ब्ज़ा रखनेके लिये अदालतमें नालिश की थी प्रिवी कौन्सिल ने वादीके अलहदा क़ब्ज़ा पानेके हक़को मानते हुये यह फरमाया कि 'ऐसा मान लेना कि मुश्तरका जायदाद बट नहीं सकती यह गैर मुमकिन है' देखो -- सुन्दर बनाम पारवती 12 All 51; 16 1. A. 186. इस मुक़दमें में प्रिवी कौन्सिलकी जो यह राय है कि 'मुश्तरका जायदाद बट सकती है' इसका मतलब यह है कि जायदाद सहूलियत के लिये और अलहदा अलहदा मुनाफा
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एफा ६०४]
सपिण्डोंमें वरासत मिलनेका काम
७१७
हासिल करनेके लिये बांटी जा सकती है मगर किसी सूरतमें मीसा बटवारा नहीं हो सकता जिससे सरवाइवरशिपका हक टूट जाय।.
जहांपर कि एक हिन्दू एकही विधवा छोड़कर मरजाय तो वह विधवा अपने उस हकको जो उसे अपनी जिन्दगी भरके लिये पतिकी छोड़ी हुई जायदादमें मिला है रेहन कर सकती है और बेच सकती है। लेकिन विधवा जायदादको कहीं रेहन नहीं कर सकती और न बेच सकती है सिवाय उन चन्द सूरतोंके जो कानूनमें बताई गई हैं देखो दफा ७०६ । ध्यान रहे कि विधवा अपने हकको रेहन या बय तो कर सकती है मगर जायदादको नहीं इसे साफ तौरपर यों समझिये कि विधवा जायदादके मुनाफेको सिर्फ अपनी जिन्दगी भरके लिये रेहन और बय कर सकती है। और अगर कानूनी सूरतोंके सिवाय जायदादको रेहन या बय करदे तो वह रेहन या बय उस वारिसको पाबन्द नहीं करेगा जो विधवाके मरनेके बाद उसके पतिका वारिस होगा। ऐसा मानों कि एक आदमी एक विधवा और एक भाई छोड़कर मर गया विधवा जायदादकी वारिस हुई और उसने जायदादको चिना कानूनी ज़रूरतके किसीके पास रेहन या बयं कर दिया तो वह रेहन या बय सिर्फ विधवाकी ज़िन्दगी भरके लिये पाबन्द करेगा मगर अब विधवा मर जायगी और जायबाद उसके पतिके भाईको वरासतन पहुंचेगी तो रेहन या बय उसके भाईको पाबन्द नहीं करेगा।
(८) सरवाइवरशिपका हक नहीं मारा जायगा-जहां कोई हिन्दू दो या दोसे ज्यादा विधवाएं छोड़ कर मर जाय तो सब विधवाओंका पतिकी जायदादपर मुश्तरका और सरवाइवरशिप (दफा ५५८ ) के हकके साथ कब्ज़ा होता है। उन विधवाओंमेंसे हर एक अपना मुश्तरका हिस्सा अपनी ज़िन्दगी भरके लिये रेहन कर सकती है और बेंच सकती है। इसी तरह हर एक विधवा अपनी जायदादकी आमदनी जो उसे उसके अलहदा हिस्सेसे मिलती है चाहे वह हिस्सा अदालत की डिकरी से अथवा आपसमें अलहदा कर लिया गया हो रेहन कर सकती है और बेच सकती है। लेकिन ऐसा इन्तकाल, चाहे वह रेहन या वय या किसी अन्य तरहसे भी किया गया हो उस विधवाकी ज़िन्दगी तक जायज़ रहेगा जिसने कि उसे किया हो । उस विधवाके मर जाने के बाद उसका किया हुश्रा इस्तचल रह हो जायागा और उसका हिस्सा दुसरी विधवाको मिल जायगा । अर्थात् विधवा जायदादका प्रेसा इन्तकाल नहीं कर सकती जो दूसरी विधवाके सरवाइवरशिपके हकमें बाधा पहुंचाये।
(३) विधवाका इन्तकाल कब जायज़ होगा-जहांपर दोसे ज्यादा विधवाएं पतिकी जायदादपर काबिज़ हों और उनमेंसे एक विधवा सर विधवाओंकी मंजूरीसे जायदादका इन्तकाल करदे तो वह इन्तकाल उन सब
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[ मर्वा प्रकरण
विधवाओंकी जिंदगी भरके लिके पाबन्द करेगा। ज्यादा नहीं सब विधवाओंके मरनेके बाद जब जायदाद उनके पतिके वारिसको पहुंचेगी उस वक्त उस वारिसको विधवाओंका किया हुआ इन्तकाल पाबन्द नहीं करेगा, देखो-हरीनरायन बनाम बिताई 31 Bom. 560; दुर्गादत्त बनाम गीता (1911 ) 39 All. 443, 449,
१
उत्तराधिकार
जब दो या दो से अधिक विधवाएं पति की जायदादमें वारिसाना क़ब्ज़ा रखती हों और हर एक विधवा अपने अपने अलहदा हिस्सेकी मालकिन हो चाहे वह अदालतसे या आपसके बटवारेसे अलहदा क़ब्ज़ा जायदादपर रखती हो। उनमें से किसी बिधवाने क़ानूनी ज़रूरत के लिये अपनी वह जायदाद जिसपर कि वह अलहदा क़ाबिज़ है बिना मंजूरी सब विधवाओंके इन्तक़ाल करदे तो ऐसी सूरतमें वह इन्तक़ाल सिर्फ उसकी जिन्दगी भरके लिये उसकी अलहदाकी जायदादको पाबन्द करेगा ज्यादा नहीं । और जब वह विधवा मर Sarita उसका हिस्सा दूसरी विधवाको चला जायगा और इन्तक़ाल रद्द समझा जायगा, देखो - वदाली बनाम कोटीपाली ( 1902 ) 26 Mad. 334; (1906) 30Mad. 3.
( ११ ) विधवाका रोटी कपड़ा पानेका हक़ -- जब विधवा अपने पतिकी छोड़ी हुई जायदादकी वारिस नहीं होती अर्थात् जब विधवाको पतिकी जायदाद नहीं मिलती तो फिर विधवाका सिर्फ रोटी, कपड़े पानेका हक़ बाक़ी रह जाता है । रोटी, कपड़ेके हक़को भरण-पोषण, गुज़ारा, या नाननफ़क़ा, कहते हैं । विधवाके गुज़ारेका इक़, पतिकी अलहदा जायदादमें, और उस जायदादमें भी जिस जायदादका उसका पति मरते समय मुश्तरकन् हिस्सेदार था रहता है। मतलब यह है कि ऊपर कही हुई दोनों किस्मोंकी जायदादपर विधवाका हक़ गुज़ारा पाने का रहता है। नजीरें देखो-
१ - पतिकी छोड़ी हुई अलहदा जायदादपर विधवाका हक़ गुज़ारा पानेका है । यशवन्तराव बनाम काशीबाई 12 Bom. 26, 28.
२ - उस जायदादपर जिस जायदादका उसका पति मरते समय मुश्तरकन हिस्सेदार था; देवीप्रसाद बनाम गुणवन्ली 22 Cal. 410; ज्ञानती बनाम अलामेलू 27 Mad. 45; बेचा बनाम मदीना 23 All 86; आधीबाई बनाम कृष्णदास 11 Bom, 199.
चाहे विधवा बिना किसी उचित सबके अपने पतिकी जिन्दगीमें उससे अलहदा रही हो और जब उसका पति मरा हो तबभी पति से अलहदा रहती हो तो भी विधवा अपने गुज़ारा पाने की मुश्तहक़ है । यह गुज़ारा उसके पति की जायदाद मेंसे मिलेगा जो उसके पतिने छोड़ी हो चाहे वह लद्दा हो या मुश्तरका हो। देखो - 31 Mad. 338.
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दफा ६०४ ]
afrosta aied मिलने का कर्म
( ११ ) विधवाका मुनाफेपर हक़-- जब किसी विधवाक कोई जायदाद वरासत में मिली हो तो उस जायदाद के मुनाफेपर विधवाका पूरा अधिकार होता है । विधवा के मरने पर वरासत से मिली हुई जायदाद उस पुरुष के वारिसको चली जायगी जिससे कि उसने पायी है, मगर यदि विधवाने उस जायदाद के मुनाकेसे कोई दूसरी मनकूला या गैर मनकूला जायदाद खरीदकी हो या नक़द छोड़ाहो जिसपर कि उसका पूरा अधिकार माना गया है वह जायदाद और नक़द सब विधवाके उत्तराधिकारीको मिलेगा ।
७१६
उदाहरण - रामदेवी विधवाको एक जायदाद पतिसे गैर मनकूला बरासत में मिली, विधवाने उस जायदाद के मुनाफेसे दो मकान और एक गांव खरीद किया तथा उसके पास पांच हजार रु० नक़द भी जमा हो गया । विधवाने इस अपनी जायदादको किसी दूसरे आदमीको पुण्य कर दिया और पीछे मर गयी और उसने एक लड़की छोड़ी । अब पतिसे पाई हुई जायदाद तो उस लड़की को मिली मगर दोनों मकान व एक गांव और नक़द सब विधवा के दिखें हुये दानाधिकारीको मिलेगा -- अगर उस विधवाने अपनी जिन्दगी में कुछ भी न किया हो तो सब लड़कीको मिलेगा ।
( १२ ) विधवा कब जायदादका इन्तक़ाल कर सकती है--जब किसी विधवाको या विधवाओंको उत्तराधिकारमें पतिकी जायदाद उनकी जिन्दगी भरके लिये मिली हो तो वह ऊपर कहे हुए क़ायदोंकी पाबन्दीके साथ क़ानूनी ज़रूरतोंके लिये जो इस किताबकी दफा ६०२, ७०६ में बताई गयी हैं जायदाद - का इन्तक़ाल कर सकती हैं।
क्रिया कर्म का खर्च - एक विधवा, जो किसी मुश्तरका खान्दानकी मेम्बर श्री और जिसके पास अपने पति द्वारा उपार्जित कोई जायदाद न थी, मर गई । उसके जीवन कालमें उसका पालन उसके पतिके एक भतीजे और एक भतीजेके पुत्रने समान रीतिपर किया था। उसकी मृत्युके पश्चात् यह प्रश्न उठा कि उसकी अन्त्येष्टि क्रिया का खर्च कौन उठाये । तय हुआ कि भतीजा और दूसरे भतीजे का पुत्र बराबर बराबर खर्च बरदास्त करें। इस बहस में कोई जान नहीं है कि वही व्यक्ति, जिसने क्रियाकी हो उस व्ययको बरदास्त करे । शिव ऐथला बनाम रङ्गगप्पा पेथला 49 MI J719.
ज़मीनका पट्टा - अब विधवा द्वारा किये हुये ज़मीनके पट्टेके लगानकी वसूलयाबी के समय बिधवा मर गई, तो उसके व्यक्तिगत वारिस उसके वसूल करने के अधिकारी होंगे, न कि भावी वारिस - मारुती बनाम उकर्द 22 N. L. R. 13; 99 I. C. 741; A. I. R. 1926 Nag. 314.
वह हिन्दू विधवा, जो अन्तिम पुरुष अधिकारीकी जायदाद के प्रबन्ध की सरकारी सनद प्राप्त करती है उसी हैसियतपर है जिसपर कि कोई अन्य प्रबन्धकर्ता और अदालतकी मन्जूरी के साथ उसके द्वारा किये हुये इन्तकाल
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- उत्तराधिकार
[नवां प्रकरण
के खिलाफ, कोई भी ऐसा एतराज़ जो किसी अन्य प्रकारके प्रबन्धकर्ताके खिलाफ नहीं हो सकता, नहीं किया जा सकता। परिणाम स्वरूप उसपर कानूनी आवश्यकताकी बिनापर आक्रमण नहीं हो सकता-राखलचन्द्रवर्धन पनाम प्रसादचन्द्र चटरजी 90 I. C. 229. दफा ६०५ लडकीकी वरासत
(१) कब हक होता है-लड़के, पोते, परपोते, और विधवाके न होने पर लड़कीको उत्तराधिकार मिलता है। "पत्नी दुहितरश्चैव पितरौ भ्रातरस्तथा" याज्ञवल्क्य २-१३५
तस्मादपुत्रस्य (पुत्र, पौत्र, प्रपौत्ररहितस्य ) स्वर्यातस्य विभक्तस्यासंसृष्टिना परिणीता स्त्री संयता सकलमेव धनं गृह्णातीति स्थितम् । तद्भावे 'दुहितरः' । मिताक्षरा . वृहस्पति-भर्तुर्धनहरी पत्नी तां बिना दुहिता स्मृता। अङ्गादङ्गात्संभवति पुत्रवद दुहितानृणाम्-अपुत्रधनं पल्याभिगामि, तद्भावे दुहितगामि १७-५. नारद-यथैवात्मा तथा पुत्रः पुत्रेण दुहितासमा तस्यामात्मनि जीवन्त्या कथमन्योहरेद्धनम् १३-४६.
भावार्थ-याज्ञवल्क्य, मिताक्षरा, बृहस्पति, बृहद्विष्णु और नारदके बचनोंसे लड़कीका हक़ बापकी जायदादमें है। मगर जब मृत पुरुषके, पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र, और विधवा मर चुकी हो।
विधवाके पश्चात् लड़कीका हक्क बापकी जायदाद पानेमें माना गया है, यही बात कानूनमें भी मानी गयी है कि अपुत्र पुरुषकी जायदाद विधवाके मरनेपर लड़कीको मिलेगी।
(२) जब तक सब विधवायें न मर जायें-कोई लड़का, पोता, परपोता जीवित रहेगा तो विधवाको जायदाद नहीं मिलेगी और जब तक विधवा जिन्दा रहेगी तब तक लड़कीको नहीं मिलेगी। अगर कोई आदमी अनेक विधवायें छोड़कर मरा हो तो जब तक वह सब विधवायें मर न जायेगी तब तक लड़कीको या लड़कियोंको कुछ भी नहीं मिलेगा। यानी सब विधवाओं
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दफा ६०५]
सपिण्डोंमें वरासत मिलनेका क्रम
के मर जानेपर बापकी जायदाद लड़कियों को मिलती है, देखो--प्राणजीवन दास तुलसीदास बनाम देवकुंवरि बाई (1859) 1 Bom. H. C. 130.
(३) लड़कियोंमें विभाग-पराशरजी कहते हैं कि"अपुत्रस्य मृतस्य रिक्थं कुमारी गृह्णीयात् तद्भावे चोदा।
अर्थात् मृत पुरुषका धन पहिले कुमारी लड़की (जिसका ब्याह नहीं हुआ) लेवे, और उसके न होनेपर विवाहिता लड़की लेवे । कानूनमें भी ऐसा ही माना गया है। फरक यह है कि पराशरने पहले हक़ क्वारी लड़कीका और दूसरा ब्याहीका रखा है, कानूनमें ब्याही लड़कीमें भी भेद डालागया है।
बापकी जायदाद पहिले बिनव्याही लड़कीको मिलेगी, उसके पीछे उस लड़कीका हक होगा जिसका ब्याह होगया है लेकिन गरीब (खाने पीने की तंगी) है, और सबसे पीछे उस लड़कीका हक होगा जिसका ब्याह होगया है और धनवान है; देखो-जमुनाबाई बनाम खिमजी 14 Bom. 113. टटवा बनाम वसवा 23 Bom. 229. अवधकुमारी बनाम चन्द्राबाई 2 All. 561, उन्नो बनाम डरवो 4 All. 243.
(१) बिन ब्याही लड़की (क्वारी) (२) व्याही और गरीब ( ससुरालवालोंकी गरीबी) (३) व्याही और आसूदा (ससुराल वालोंका धनवान होना)
पहिले दर्जेकी लड़कीके होते हुये, दूसरे दर्जेकी लड़की, और दूसरे दर्जेकी लड़कीके होते हुये तीसरे दर्जेकी लड़कीका हक़ न होगा।
(४) जब एकही दर्जेकी अनेक लड़कियां हों-जब किसी मृत पुरुष के दो या दो से ज्यादा लड़कियां एकही दर्जेकी हों तो वह सब बापकी जायदाद सरवाइवरशिपके हनके साथ ( देखो दफा ५५८) विधवाओंकी तरह लेती हैं। देखो-अमृतलाल बनाम रजनीकांत ( 1876) I. A. 113, 1267 15 Beng. L. R. 10, 24.
एक पुत्री जो अपने पिताकी जायदाद वरासतसे प्राप्त करती है, परित मित अधिकारिणी होनेके कारण, उस जायदादका इन्तकाल कामिल, बिना उसकी कानूनी आवश्यकताके नहीं कर सकती। वह उस जायदादपर भावी वारिसोंके खिलाफ अपने खास कर्जके लिये या निजी मतलबके लिये पाबन्दी नहीं कर सकती, किन्तु वह ऐसी पाबन्दी अपने जीवनकालके लिये कर सकती है। पत्री केवल अपने जीवन भरके अधिकारका ही इन्तलाल कर सकती है और उस व्यक्तिकी तहरीकपर जिसके हकमें इन्तकाल किया गया है उस इन्तकालके बटवारेका अमल हो सकता है-साहदेवसिंह बनाम किशनबिहारी पांडे 90 I. C. 559; 1925 P. H. C.C. 292; A. I. R. 1925 Pat.820.
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उत्तराधिकार
[नवा प्रकरण
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... जब वापकी जायदाद एकही दर्जेकी कई एक लड़कियों को मिली हो तो उनमें से हर एक अपने उस लाभको जो लड़कीको जायदादमें सिर्फ उसकी जिन्दगी भर तकके लिये मिला है रेहन कर सकती है, बेंच सकती है. मगर शर्त यह है कि उस रेहन या बेचनेसे दूसरी लड़कियोंके सरवाइवरशिपके हकमें कोई बाधा न पड़ती हो देखो--23 Mad. 504.
लड़कियां अपने बापसे पाई जायदादमें अपने अपने हिस्से में अलहदा अलहदा प्रबन्ध कर सकती हैं मगर शर्त यह है कि वह प्रबन्ध ऐसा होना चाहिये कि जिससे कि उसके बादके वारिस (भावी वारिस) के हक़ोंमें किसी तरहकी वाधा न पडे और कोई नुकसान न पैदा हो, देखो--कैलास बनाम काशी 24 Cal. 339.
(५)बङ्गाल, बनारस, और मिथिला स्कूलमें -बङ्गाल, बनारस और मिथिला स्कूलके अनुसार जब किसी लड़कीको बापकी जायदाद उत्तराधिकारमें मिली हो तो उस जायदादमें लड़कीका महदूद हक्क रहता है; यानी वह जायदाद लड़कीकी जिन्दगी भरके लिये मिलती है और लड़कीके मरने के बाद वह जायदाद लड़कीके वारिसको नहीं मिलती, बल्लि उसके बापके दूसरेवारिसको मिलती है। देखो-छोटेलाल बनाम चुन्नूलाल 4 Cal. 744; 6 I. A. 15, मुटू बनाम डोरासिंह 3 Mad. 290; 81. A. 99.
'ऊपरके चारो स्कूलोंके अन्तगर्त अगर बापकी जायदाद किसी बिन व्याही लड़कीको मिलगयी हो,और उसके पश्चात् उस लड़कीका विवाह होगया हो तो भी लड़कीको उत्तराधिकारकी जायदादपर हीन हयाती (जिन्दगीभर') हक़ रहेगा और उसके मरनेपर जायदाद उसके बापके दूसरे वारिसको जायगी अगर लड़कीने मरनेके समय एक लड़का छोड़ा तो उस लड़केको जायदाद बहैसियत उसके नानाके वारिसके मिलेगी, लड़कीके वारिस के हैसियतसे नहीं। देखो मेन हिन्दूलॉकी दफा ६१३.
(६) बम्बई स्कूलमें-बम्बई प्रान्तमें ऊपर कहे हुये पैरा ४, ५ के कायदे लड़कियों के लिये लागू नहीं पड़ते । बम्बई प्रान्तमें बापकी जायहाद जब कोई लड़की उत्तराधिकारमें पाती है तो उसे उस जायदादपर पूरे हक़ होते हैं। अनेक लड़कियोंके होनेपर हर एक लड़कीको बापकी जायदादमें उसके हिस्से के अनुसार पूरा हक़ होता है और वह उसे मानिन्द अपनी अलहदा जायदादके रखती है, और लड़कीके मरनेपर वह जायदाद ( वापसे वरासतन् पाई हुई) उसके बापके दूसरे वारिसको नहीं मिलेगी, बक्लि लड़कीके वारिसको मिलेगी जैसे उसका स्त्री धन होता है; देखो-भागीरथीबाई बनाम कन्नूजीराव 11 Bom. 285; गुलप्पा बनाम तैय्यब 31 Bom. 453; विथ्थापा बनाम सावित्री 34 Bom. 510.
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दफा ६०५ ]
सपिण्डों में वरासत मिलने का क्रम
उदाहरण - महेशके दो लड़कियें शारदा और सरस्वती हैं। शारदाके एक लड़की कमला और सरस्वतीके एक लड़की माधुरी है। महेश मरा तो अब महेश
७२२
शारदा
सरस्वती
कमला
माधुरी
महेशके मरनेपर उसकी जायदाद दोनों लड़कियां लेंगी । बम्बई प्रान्त में दोनों लड़किये बापसे पाई हुई जायदादपर आधे आधे हिस्से की पूरी मालकिन हो गयीं और इसी लिये उनके मरनेपर जायदाद उनके वारिसको मिलेगी। पैरा ५ में कहे हुए स्कूलों में दोनों लड़कियां सरवाइवरशिपके इनके साथ बाकी जायदाद लेती हैं और एक लड़कीके मरनेपर दूसरी लड़की 'उसकी जायदाद की वारिस होती है और दोनोंके मरनेपर वह जायदाद किसी लड़की के वारिसको नहीं मिलती बक्लि उसके बापके वारिसको मिलती है । बम्बई में यही बिचित्र बात है कि यहांपर दोनों लड़कियां बापकी जायदाद सरवाइवरशिपके हक़के साथ नहीं लेतीं; इसी कारणसे हरएक लड़की अपने हिस्से के अनुसार जायदादपर पूरा मालिकाना क़ब्ज़ा कर लेती है; मानों वह उतने हिस्से की असली मालिक होगयी । इसीलिये इस प्रान्तमें हर एक लड़की अपना हिस्सा बिला किसी रोकके रेहन कर सकती है, बेंच सकती है और जैसा जीमें आये कर सकती है जिस तरहपर स्त्रीधनमें उसका अधिकार है उसी तरहपर बापसे पायी हुई जायदादपर हो जाता है । यही कारण है कि उस लड़की के मरनेपर जायदाद लड़कीके वारिसको मिलती है, बापके वारिस को नहीं । देखो जब महेश मरा तो दोनों लड़कियें उसकी छोड़ी हुई जायदाद पर आधे आधे हिस्सेकी पूरी वारिस होंगी। पीछे शारदा मरी तो शारदाका श्रधा हिस्सा उसकी लड़की कमलाको मिला, एवं सरस्वतीके मरने पर उसका हिस्सा माधुरीको मिला ।
नोट- - यह स्मरण रखना चाहिये कि बम्बई स्कूलको छोड़कर बाकी सब स्कूलोंमे लड़कियां सरवाइवरशिपके इकके साथ बापकी जायदाद लेती हैं और अपना हक उस जायदादमें महदूद रखती हैं. । वह लड़कियां जायदादको रेहन या बय नहीं कर सकतीं क्योंकि उन्हें अपने जीवन भरके लिये जायदाद मिली हैं, बम्बई में इसके बिरुद्ध है ।
(७) दुश्चरित्रता- दुश्चरित्रताका दोष लड़कीको जायदाद में हिस्सा पानेके लिये कोई रोक नहीं करेगा, देखो - आधअप्पा बनाम रुद्रव 4 Bom. 104. कोजी आडू बनाम लक्ष्मी 6 Mad. 149; 156.
लेकिन जहां पर एक ऐसी लड़की यानी दुश्चरित्रा बिन व्याही हो और दूसरी व्याही सच्चरित्रा हो तो जायदादके पानेका हक़ सच्चरित्रा ब्याही लड़की
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उत्तराधिकार nrmmmmmwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwr
[ नवा प्रकरण
को होगा। दुश्चरित्रा बिन ब्याही लड़कीका हक़ मारा जायगा और अगर एक ही लड़की है जो दुश्चरित्रा है तो उसे जायदादमें हिस्सा मिलेगा देखोतारा बनाम कृष्णा (1907 ) 31 Bom. 495. यही बात उस समय होगी जब एकही दर्जेकी लड़कियों में सच्चरित्रा और दुश्चरित्रा हों; सच्चरित्रा को जायदाद मिलेगी।
यह स्मरण रखनाकि मिताक्षरामें सिर्फ विधवाही एक ऐसी औरत है कि जिसका दुश्चरित्र होनेके सबबसे जायदाद पानेका हक़ मारा जाता है। देखो-वेदामल बनाम वेदानयाग 31 Mad 100. : (८) नाजायज़ लड़की-जो लड़की, सवर्णकी विवाही हुई स्त्रीसे नहीं पैदा हुई, यानी अनौरसा है वह चाहे शूद्रकी भी हो लेकिन अपने बापकी जायदाद पानेका हक़ बिलकुल नहीं रखती; देखो-मिखिया बनाम बाबू (1908) 32 Bom. 562. लेकिन अनौरसा लड़की, अपनी माकी जायदाद पाने का हक रखती है। देखो-अरुणागिरि बनाम रेगनायकी 21 Mad. 40.
(६) रवाजसे लड़कीका हक़ चला जाता है-जिस किसी प्रान्तमें अथवा जिस किसी घरानेमें ऐसा खास रवाज हो कि वहां लड़की जायदाद पानेका हक़ नहीं रखती, तो लड़कीको उत्तराधिकारमें जायदाद नहीं मिलती। देखो-बजरंगी बनाम मनोकर्णिका 30 All. 1; 35 I. A. 1, पार्वती बनाम चन्द्रपाल 31 All. 4575 36 I. A. 126. और देखो नीचे पैरा १४.
. (१०) लड़की कब जायदाद इन्तकाल कर सकती है?-जब किसी लड़कीको या लड़कियोंको बापसे उत्तराधिकारमें (बम्बई प्रान्तको छोड़कर) उनकी जिन्दगी भरके लिये जायदाद मिली हो तो वह ऊपर बताये हुये कायदोंकी पाबन्दीके साथ कानूनी ज़रूरतोंके लिये जो इस किताबकी दफा ६०२, ७०६ में बताई गयी हैं जायदादका इन्तकाल कर सकती हैं । बम्बई प्रांत में लड़की पूरी मालिक मानी गयी है इसलिये उसे कानूनी ज़रूरतों की ज़रूरत नहीं है।
(११) कारी लड़कीका जब विवाह हो जाय-जब किसी क्वारी लड़कीको बापकी जायदाद उत्तराधिकारमें मिली हो और उसके बाद उस लड़कीका विवाह हो जाय तो वह जायदाद लड़कीके साथ ससुरालमें जाती है और उसके मरनेपर सरवाइवरशिपके हक़के अनुसार दूसरी लड़कीको 'मिलेगी (अगर कोई हो) यदि एकही लड़की है तो पीछे उसके बापके दूसरे वारिसको मिलेगी। लड़कीके पति या ससुर आदिको नहीं मिलेगी। लड़की के लड़केका हक़ जायदाद मिलनेके लिये नानासे माना गया है और जब एक 'दफा लड़कीके लड़केको जायदाद मिल जावे तो वह उस जायदादका पूरा 'मालिक हो जाता है इसलिये उस लड़केके मरने पर लड़केके वारिसको जाय
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दफा ६०५]
सपिण्डों में वरासत मिलनका क्रम
दाद मिलेगी; यानी उस वक्त नानाके खानदानसे निकलकर नेचासाके खानदानमें आ जायेगी।
(१२) क्वारी लड़कीका बदचलन होना-जब कोई क्वारी लड़की क्वारेपनमें बदचलन हो जाय और वेश्याकी तरहपर रहने लगे तो वह लड़की न तो क्यारी रहती है और न ब्याही । अगर वह लड़की ऐसी न होगयी हो कि उसका हक्क कानूनन् मारा गया हो तो उसे दूसरी शुद्ध चरित्रा क्वारी लड़कियों, और सब क्याही लड़कियोंके पश्चात् बापकी जायदाद मिलेगी, देखते तारा बनाम कृष्णा (1907) 31 Bom. 495 at P. 510; 9 Bom. L. R: 774. देखो-द्विवेलियन हिन्दॉ पेज ३७२.
(१३) तीन किस्मकी लड़कियों में जायदादका मिलना-जब कोई आदमी तीन किस्मकी लड़कियोंको छोड़कर मरजाय तो सरवाइवरशिपके हक के साथ (देखो दफा ५५८ ) क्रमसे बापकी जायदाद लड़कियों को मिलेगी। तीन किस्मकी लड़कियोंसे मतलब यह है, (१) कारी, (२) ब्याही परीक, (३) ब्याही अमीर । बांपकी जायदाद लड़कियोंको सरवाइवरशिपके हकके साथ मिलती है, मगर लड़कियों में सबसे पहिले क्वारी लड़की जायदाद पावेगी, अगर क्वारी लड़कियों में एक मरजाय तो उसका हिस्सा बाकी कारी लड़कियों को मिलेगा और जब आखिरी कारी लड़की मरजायगी तब वह जायदाद ब्याही और गरीब लड़कियोंको मिलेगी, इनमें भी वही मम-रहेगा कि एकके मरनेपर उसका हिस्सा दूसरी गरीब लड़कियों को मिल जायगा और जब अाखिरी ब्याही और गरीब लड़की मरजायगी, तब जायदाद ब्याही और अमीर लड़कियोंको मिलेगी। वह भी इसी तरहसे मालिक होंगी यानी एकके मरनेपर बाकी लड़कियां उसके हिस्सेको लेंगी और जब आखिरी ब्याही अमीर लड़की मर जायगी तो फिर वह जायदाद उसके बापके दूसरे वारिसको मिलेगी। १ . अमर कोई लड़की अपना लड़का छोड़कर या सब किस्मकी लड़कियां लड़के छोड़ कर मरी हों तो जब तक तीनों किस्मकी सब लड़कियां न मर जावेगी तब तक लड़कीके लड़केको या लड़कोंको जायदाद नहीं मिलेगी। उदाहरण-(१) . . विजय .....
वारी... . ल्याही गरीवः . . . . . व्याही-अमीरः ..
विद्या प्रभा मनी गङ्गा · कमला प्रफुल्ल
विजयके तीन किस्म की दो दो लड़कियां हैं। यानी दो छारी से च्याही-गरीब और दो ब्याही-अमीर । इन छ लड़कियोंको छोड़ कर बिजय मर गया अब सरवाइवरशिपके हलके .साथ. सबसे पहिले कारी लड़कियां
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उत्तराधिकार
[नवां प्रकरण
بی سی سی میں بی بی سی سی ای
ہو تو بی
بی سی کی بھی
जायदाद पावेंगी, दोनों क्वारी लड़कियोंको पहिले जायदाद मिलेगी, यानी विद्या और प्रभाको। जब इन दोनों में से एक मर जायगी तो दूसरी लड़की उसका हिस्सा लेगी। ऐसा मानो कि पहिले विद्या मर गयी तो उसका हिस्सा प्रभाको मिलेगा उस समय प्रभा पूरी जायदादकी मालिकिन होजायगी। और जब दूसरी क्वारी लड़की भी मरजायगी यानी प्रभाके मरनेपर जायदाद ब्याही
और गरीब लड़कियोंको मिलेगी। उनमें भी सरवाइवरशिपका हक़ लागू रहेगा और जब वह दोनों लड़कियां मर जायेंगी तब जायदाद ब्याही और अमीर लड़कियोंको मिलेगी। उनमें भी सरवाइवरशिपका हक़ रहेगा इसलिये जब आखिरी लड़की मरेगी तब लड़कीके लड़केका या लड़कोंका हक़ जायदाद प्रानेका पैदा होगा। लड़कीके या लड़कियोंके जीतेजी नहीं होगा।
(२) ऐसा मानों कि विजय दो कारी लड़कियोंको छोड़ कर मर गया उसके मरनेके बाद एकका विवाह हो गया और वह कुछ दिनोंके बाद मर गयी, मगर दूसरी लड़कीका विवाह नहीं हुआ था। तो अब सरवाइवरशिपके हकके अनुसार इस ब्याही हुई लड़कीके मरमेपर उसका हिस्ला कोरी लड़की को मिलेगा और उस वक्त वह अकेली अपनी जिन्दगी भर जायदादपपर क्राबिज़ रहेगी। जब वह मरेगी तब दूसरी ब्याही-गरीब लड़कियां (अगर कोई हों) जायदाद पावेंगी। उनके बाद ब्याही और अमीर लड़कियां । अगर च्याही लड़की एक लड़का छोड़ कर मर गयी हो तो क्वारी लड़कीके जीते जी वह जायदाद नहीं पावेगा।
(३) ऐसा मानों कि विजय दो कारी लड़कियोको छोड़ कर मर गया। उसके मरनेपर एकका विवाह हो गया। क्वारी लड़की पहिले मर गयी। अब उसका हिस्सा सरवाइवरशिपके अनुसार ब्याही लड़कीको मिलेगा। नजीरे देखो-दौलतकुंवर बनाम बरमादेवसहाय (1874 ) 14 B. L. R. 246 note; 22 W. R. C. R. 54; कहमनचियर बनाम डोरासिंहटेवर ( 1871) 6M. I. I. C. 330, 332, दुलारी बनाम मूलचन्द 32 All. 314 और देखो-मिस्टर मेनके हिन्दूलॉकी दफा 557; दिवेलियन हिन्दूलॉका पेज 3723 38 All. 111 ( 1916 ) यदुवंशीकुंवर बनाम महिपालसिंह वाले मामले में यह बाकियात थे-एक बदे हुए खानदानका हिन्दू मरा। उसने अपनी विधवा और चार लड़कियां छोड़ी इनमेसे एक क्वारी थी तीन विवाहिता । विधवाके मरने पर क्वारी लड़कीने तीन विवाहिता लड़कियोंपर अपने बापकी जायदाद दिला पानेका दावा किया । मगर दौरान मुक़द्दमे में वह क्वारी लड़कीमर गयी । पीछ तीनो लड़कियोंने दरखास्त दी कि अब हम वारिस उस जायदादकी हैं। अदालतने मुकद्दमा खारिज कर दिया। इसके फैसलेके कुल पढ़नेसे यह जाहिर होता है कि अदालतने सबसे पहिले वारी लड़कीका हक्क बापकी जाय द्वादमें माना पीछे प्रतिवादिनियोंका।
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दफा ६०५]
सपिण्डोंमें वरासत मिलनेका क्रम
(१४) अवध और पञ्जाब प्रांतमें लड़की और नेवासेका हक नहीं माना गया-पञ्जाब प्रान्तकी कई एक जातियोंमें माना गया है कि मर्द सम्बन्धी रिश्तेदारके मुकाबिलेमें स्त्री सम्बन्धी रिश्तेदारोंका हक वरासतमें जायदाद पानेका नहीं है। यानी उनमें लड़की, या लड़कीका लड़का वरासतमें जायदाद नहीं पासकता, देखो-पाव कस्टम ७२ और देखो पाव कस्टमरीलॉ 11, 80; III 48.अवध प्रान्तके प्रायः क्षत्रिय तालुकेदारों और ज़मीदारोंमें लड़की
और लड़कीके लड़कोंका हक उत्तराधिकारकी जायदादमें नहीं माना जाता। इस विषयमें मिस्टर मेन साहेव कहते हैं कि "बहुत सी अवध प्रान्तकीं अपीलें जो प्रिवी कौंसिलमें मेरी तजवीज़में आयी हैं उनमें गांवके वाजिबुल अर्ज से ज़ाहिर हुआ है कि जायदाद चाहे वह मौरूसी हो या खुद कमाई हुई हो, लड़की और लड़कीके बच्चोंका हक़ उस जायदादमें नहीं है, और एक सरक्यु लर नम्बरी ४२ सन् १८६४ चीफ कमिश्नर साहेब बहादुर अवधका इसी मतलबका है कि इस (अवध )प्रान्तके ऊंचे कुल वाले क्षत्रियों में ऊपर कही हुई रवाज प्रचलित है।" देखो मेन हिन्दूलाँ की दफा ५६१ जिन मुकद्दमोंमें रवाज के आधारपर लड़की और लड़कीके लड़कोंका हक उत्तराधिकारकी जायदाद में नहीं माना गया वह नीचे लिखे हैं, देखो-बजरङ्गीसिंह बनाम मनोकर्णिका बाशसिंह (1907) 35I.A.1, 30All.1; 12C.W.N.74,9Bom.L.R.13482 नानाजी उत्पत भाऊ बनाम सुन्दरबाई (1874) 11 Bom. H. C. 249: (पंढरपुरके 'उत्पात' नामक परिवारमें). प्रागजीवन दयाराम बनाम रेखाबाई ( 1881) 5 Bom. 482.वीराभाई अजभाई बनाम हिरावाबाई (1903) 30 1. A. 234; 2363 27 Bom. 492, 49837C.W. N. 716, 718, 719. (चुदासामागमेटे गरासिया कौममें). मुसम्मात पार्वती कुंवर बनाम चन्द्रपाल कुंवर रानी (1909) 36 I. A. 126; 31 All. 457; 13 C. W. N. 1073; 11 Bom. L. R. 890. (चौहान राजपूत अवध प्रान्तमें ). गोहल गरासिया नामक कौममें कोई रवाज मुक़र्रर नहीं है, रंछोड़दास विट्ठलदास बनाम रावल नाथूबाई केसाभाई (1895) 21 Bom. 110.
, एक हिन्दू पुत्री, अपने पिताकी, जो मुसलमान होगया हो, वारिस नहीं हो सकती। ऐक्ट २१सन् १८५०ई०के अनुसार यह नाजायज़ है-सुन्दर अम्मल बनाम अमीनल 40 Mad. 1118, Foil. I1 All 100 Not follz A. I. R. 1927 Mad 72.
अमीर और गरीब बहन-दो बहनोंकी बीचकी एक नालिशमें मुहाअलेह बहनकी ओरसे यह दलील पेश कीगयी, कि मुद्दई बहिन बहुत बीमार है और मुद्दाअलेहको गरीबीके कारण मिताक्षराके उस कानूनके अनुसार जिसमें गरीबको अमीरके ऊपर तरजीह दीगयी है तरजीह मिलानी चाहिये।
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Re
उत्तराधिकार
[ नवां प्रकरण
तय हुआ कि मुद्दाअलेह अपने मुतवफ़ी पिताकी पूरी जायदादकी मिताक्षरा के अनुसार वारिस हैं-- मनकी कुंवर बनाम कुन्दन कुंवर 23 A. L, J. 183; 47 All. 403; 87 I. C. 121; A. I. R. 1225 All. 378. स्कूल पुत्रियका अधिकार - बम्बई प्रान्तमें, हिन्दूलॉके अधीन पुत्रियां अपने पिताकी जायदादकी वारिस उसके पूर्ण अधिकार पर होती हैं और यदि कोई हिस्सेदार नहो तो वे क़ब्ज़ा मुश्तरका हासिल करती नहीं है, क़ब्ज़ा बिल जमाल नहीं-- किसन तुकाराम बनाम बापू तुकाराम 27 Bom. L. R. 670; 89 I. C. 196 (1); A. I. R. 1925 Bom. 424.
पुत्रियोंके मध्य जायदादकी तक़सीमका इक़रारनामा -- ए, तीन पुत्रियाँ छोड़कर मरा । उन्होंने उसकी जायदादकी तक़सीमके लिये ज़बानी मुश्राहिदा कर लिया। एक पुत्री अपना हिस्सा अपने सौतेले पुत्र के क़ब्ज़ेमें छोड़कर मर गई। प्रश्न यह था कि आया उन बहिनोंके मध्यका इक़रारनामा उनके मध्य जीवित रहने के अधिकारको रद्द करता था ? नीचेकी अदालतने तय किया कि जीवित रहने का अधिकार तब नष्ट होगया था ।
दूसरी अपीलमें तय हुआ कि वाक्य 'पूर्ण अधिकार' अर्थात् बिक्री द्वारा इन्तक़ालका अधिकार आदिका अर्थ यह है कि प्रत्येक बहिन पूरे कब्जे से जायदाद ले, और यहकि किसी बहनकी मृत्युके पश्चात् उसका हिस्सा उसके धारिसको मिलेगा, न कि उसकी जीवित वहनको-- लक्ष्मम्मा बनाम सुभारागुदू 85 I. C. 788; A. I. R. 1925 Mad. 343,
दफा ६०६ लड़कीके लड़के की वरासत (नेवासा - दोहिता- दौहित्र)
कब हक़ होता है ? -- (१) लड़के, पोते, परपोते, विधवा, और लड़कियोंके न होने पर दौहित्र यानी लड़कीके लड़केको उत्तराधिकार में जायदाद मिलेगी ।
याज्ञवल्क्यने साफ़ तौरसे दौहित्रको नहीं कहा-
'पत्नी दुहितरचैव पितरौ भातरस्तथा' २ – १३५.
इस श्लोक में दुहितरःके आगे 'च' का अक्षर है; इस अक्षरसे मिताक्षराकार विज्ञानेश्वर ऐसा अर्थ निकालते हैं कि-
'च' शब्दात् दुहितृभावे दोहित्राः धनभाक् ।
'च' के कहने से मतलब यह है कि लड़कीके न होने पर लड़कीका लड़का धन पानेका अधिकारी होगा । विष्णु भी यही कहते हैं
'पुत्र पौत्र संताने दौहित्र धन माप्नुयुः,
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दफा ६०६ ]
सपिण्डों में वरासत मिलनेका क्रम
पुत्र (पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र न होनेपर ) पुरुषका धन उसके पुत्र, पौत्र आदि सम्तान न होनेपर दौहित्रको मिलेगा । मनुजी कहते हैं
ह
दौहित्रोह्यखिलं रिक्थमपुत्रस्य पितुर्हरेत्
एव दद्यात् दो पिण्डौ पित्रे माता महायच । ६-१३२ जिसके पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र नहीं हैं ऐसे बापका सब धन उसकी लड़की का लड़का लेवे वही अपने पिता और नानाको दो पिण्ड दे। नतीजा यह है कि पहिले पुत्रिका पुत्रका रवाज था ( देखो ८२-३३ ८३ ) और उस वक्त वह पुत्र, पौत्र, प्रपौत्रके पश्चात्ही धन पानेका अधिकारी हो जाता था। यही बात अब तक चली आती है । उत्तराधिकार में दौहित्रका दर्जा पहिलेकी रीतिके अनुसार रखा गया है मगर अब वह नानाका लड़का नहीं कहलाता बल्कि अपने बापका लड़का कहलाता है । देखो दफा ६२४ का नक़शा ।
( २ ) क़ानूनमें लड़कीका लड़का कब वारिस होगा ? - जब तक संब लड़कियां जो वारिस होनेके लायक हैं और जायदाद पानेका हक़ रखती हैं: मर न जायें, तब तक लड़कीका लड़का नानाकी जायदाद पानेका अधिकारी. नहीं होगा, देखो -- बैजनाथ बनाम महाबीर 1 All. 608. शान्तकुमार बनाम देवसरन 8 All 365
लड़कीका लड़का असलमें तो 'बन्धु' यानी भिन्न गोत्रज सपिंड है। क्योंकि उसका रिश्ता मृत पुरुषसे एक स्त्रीके द्वारा है। लेकिन वह गोत्रज सपिंडों के साथ जायदाद पाता है। कारण यह है कि हिन्दू धर्म शास्त्रों में ऐसा माना गया है, देखो - श्रीनिवास बनाम डंडायू डापानी 12 Mad 411.
(३) लड़कीका लड़का मा का वारिस बनकर नानाकी जायदाद नहीं लेता - हिन्दूलॉ में उत्तराधिकारके विषयमें लड़कीके लड़केका खास स्थान रखा गया है, यद्यपि वह भिन्न गोत्रज सपिण्ड यानी बन्धु है परन्तु वह मृत पुरुष के बाप और अन्य सपिंडोंसे पहिले जायदाद पानेका अधिकारी माना गया है । कारण यह है कि प्राचीन रीति यह थी कि जिस हिन्दूके लड़का नहीं होता था वह अपनी लडकीको शौनक के बचनानुसार कन्यादान करके उससे पैदा हुये पुत्रको अपना पुत्र बना लेता था शौनकका वचन यह है-
भ्रातृकां प्रदास्यामि तुभ्यं कन्यामलंकृताम् यस्यां यो जायते पुत्रो समे पुत्रो भवेदिति ।
इस बचनके अनुसार प्राचीन रीति थी ( देखो दफा ८२-३ ८३ ) इस तरहके लड़केको 'पुत्रिकापुत्र' कहते हैं । इस लड़केके दर्जेको याज्ञवल्क्य
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उत्तराधिकार
[ नवां प्रकरण
वैधायन, देवल और बृहस्पतिने औरस पुत्रसे दूसरा दर्जा माना है (देखो दफा ६०). अब यह रवाज बन्द होगया है मगर लड़कीके लड़केका स्थान उत्तराधिकार में ज्योंका त्यों रहा और अब भी उसका स्थान पुत्र, पौत्र प्रपौत्र के नीचेही माना गया है। आप ख्याल करेंगेकि विधवा, और लड़कीकी वरासतके भी नीचे कहना चाहिये था उत्तर यह है कि विधवा और लड़की तो सिर्फ जिन्दगीभरके लिये बीचमें पाजातीहैं और महदूद अधिकार रखती हैं। प्राचीन रीति और अगरेजी कानूनमें सिर्फ यह फरक पड़ गया है कि पहिले वह लड़का जो शौनकके बचना नुसार नानाका लड़का बन जाया करता था, अब वह अपने बापका माना जाता है। शौनकके बचनके नुसार विवाह नही माना जाता । उत्तराधिकारमें वह नानाके पौत्र ( पोते) की तरह माना जाता है। देखो-27 Mad. 300; 311; 312.
लड़कीका लड़का अपनी माका वारिस बनकर जायदाद नहीं पाता, बक्ति वह अपने नानाका वारिस बन कर नानासे जायदाद पाता है।
(४) नानाकी जायदादमें पूरा हक़ रखता है-जिस तरहपर कि विधवा लड़की जायदादमें महदूद हक़ रखती हैं उस तरहपर लड़कीका लड़का नाना से पाई हुई जायदादमें महदद हक़ नहीं रखता। वह उस जायदादका परा मालिक हो जाता है । इसी लिये जब कोई जायदाद नानाकी, किसी नेवासेको मिली हो तो फिर उस नेवासेके मरनेके बाद वह जायदाद उसके वारिसको जायगी, नानाके वारिसको नहीं मिलेगी।
(५) जब एकसे ज्यादा लड़कियोंके लड़के हों-जब किसीके दो या दोसे ज्यादा लड़कियों के अनेक लड़के हों तो वह सब लड़के नानाकी जायदाद बराबर हिस्सेमें पावेंगे। अर्थात् जब अनेक लड़कियोंके अनेक पुत्र हों तो वह सब पुत्र नानाकी जायदादमें बराबर हिस्सा लेंगे।
उदाहरण--'महेशदत्त'के दो लड़कियां हैं उमा और गार्गी । उमाके दो लड़के और गार्गीके तीन लड़के हैं। दोनों लड़कियां मर गयीं। पीछे महेशदत्त मरा तो अब उसकी जायदाद पांच बराबर हिस्सोंमें वाटी जायगी। हर एक लड़कीका लड़का एक एक हिस्सा पायेगा।
. (६) जब एकही लड़कीके एकसे ज्यादा लड़के हों-जब किसी आदमी के एकही लड़की हो और उस लड़कीके अनेक लड़के हों और वह सब मुश्तरका खानदानमें रहते हों तो वह सबनानाकी जायदादको मुश्तरका और सरवाइवरशिपके हलके साथ ( देखो दफा ५५८) लेंगे। देखो--वेंकयामा बनाम वेंकटरामनै अम्मा 26 Mad. 678; 29 I. A. 156.
जय कई एक लड़के जुदी जुदी लड़कियोंके हों तो वह पहिले नानाकी सब जायदाद शामिल शरीक लेंगे और फिर उन्हें अखत्यार है कि अपना
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दफा ६०७]
सपिण्डोमें वरासत मिलनेका क्रम
अपना हिस्सा बटालेवें, क्योंकि दो मिन्न लड़कियोंके लड़कों में मुश्तरका हिस्सेदारी नहीं हो सकती; देखो--27 Mad. 382, 385. ___उदाहरण-'महेशदत्त' अपनी लड़की उमाको छोड़कर मरगया। उमा के दो लड़के हैं जय और विजय । महेशदत्त के मरनेपर उसकी जायदाद उसकी लड़की उमाको मिली, उमाके मरनेपर वह जायदाद जय और विजयको बतौर माके वारिसके नहीं मिलेगी, बलि नानाके वारिसके मिलेगी। अब अमर जयं और विजय दोनों शामिल शरीक खानदानमें रहते हैं तो जो जायदाद उन्हें नानाकी मिलेगी वह भी मुश्तरका खानदानकी जायदादमें शामिल हो जायगी और उन दोनों मेंसे एकके मरनेपर दूसरेके पास सरवाइवरशिपके हाके अनुसार चली जायगी। ऐसा मानो कि अगर जय एक विधवा, छोड़ कर मरे तो वह जायदाद विधवाको नहीं मिलेगी, बलि विजयको मिलेगी जो उसका जीता हुआ मुश्तरकन् हिस्सेदार है।
__ अगर जय और विजय के दरमियान बटवारा हो गया होता तो जायदाद दोनोंको आधी आधी मिलती उस वक्त सरवाइवरशिपका हक नहीं लागू पड़ता।
नोट-(१) यह याद रखना कि जब जायदाद किसी मर्दके पास आती है तो पूरे अधिकारों सहित आती है। उसे रेहेन, वगैरा की सब अधिकार होता है। बबई प्रान्तमें कुछ औरतें ऐसी मानी गयी है जिन्हें जायदाद पूरे अधिकारों सहित प्राप्त होती है । देखो दफा ६४४, ६४५, ६८३.
२) अगर नेवासा एक लड़का छोड़कर अपने नानासे पहिले मर जाय तो उस लड़केको जायदाद नहीं मिलेगी क्योंकि जब वाप वारिस नहीं हुआ तो उसके लड़के नहीं हो सकते ।
(३) दायभाग लॉ में आध्यात्मिक लाभ माना जाता है पुत्रीका पुत्र-उसका अधिकार नेपालदास मुखेर जी बनाम प्रवास चन्द्र मुकरजी 30 C. W. N. 357; A. I. R. 1926 Cal. 640. यह कानून बङ्गालमें माना जाताहै अन्यत्र नहीं माना जाता। दफा ६०७ माताकी वरासत
(१) कब हक्क होता है ?-लड़के, पोते, परपोते, विधवा, लड़की और लड़कीके लड़केके न होनेपर माताको जायदाद मिलती है। याज्ञवल्क्य-पत्नी दुहितरश्चैव पितरौ भ्रातरस्तथा । २-१३५
अपत्र (जिसके लड़के, पोते, परपोते न हों ) पुरुषका धन उसकी विधवा, लड़की, और 'च' लड़कीके लड़केके न होनेपर पिताको मिलेगी। इस जगहपर 'पितरौ' पद है, इसकी व्याख्या मिताक्षराकार यों करते हैं
तद्भावे पितरौ मातापितरौ धनभाजौ, यद्यपि युगपदधिकरणवचनतायां बन्दस्मरणात् तदपवादत्त्वादेक शेषस्य
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उत्तराधिकार
[नयां प्रकरण
धनग्रहणे पित्रोः क्रमो न प्रतीयते। तथापि विग्रहवाक्ये मातृ शब्दस्य पूर्वनिपातादेकशेषभावपक्षे च मातापितराविति मातृशब्दस्य पूर्व श्रवणात् । पाठक्रमादेवार्थक्रमावगमाद्धनसम्बन्धेऽपि क्रमापेक्षायां प्रतीतकानुरोधेनैव प्रथमं माता धनभाक् तद्भावे पितेति गम्यते ।
___ भावार्थ-'तद्भावे पितरौं' के कहने से यह मतलब है कि दौहित्र के अभावमें माता, पिता धनके भागी होते हैं । यद्यपि "युगपदधिकरणवचनता" एकबार अनेक अर्थोके कहने में 'द्वन्द्व' नामक समास होता है एक शेष द्वन्द्र समासका अपवाद है। इस लिये 'माता च पिता च पितरौ' करनेसे क्रमका निर्देश होजाता है,माताका पहिले पिताका पीछे । इस समासमें माता शब्दका पूर्व निपात है और माता शब्द पहिले सुना जानेसे एवं पढ़नेके क्रमसे ही अर्थ का क्रम जाना जाता है इसीलिये धनके सम्बन्धमें भी पहिले माताही धन पाने की भागिनी होती है, उसके अभावमें पिता। मनुजी ने कहा है
अनपत्यस्य पुत्रस्य मातादायममाप्नुयात मातर्यपि च वृत्तायां पितुर्माताहरेद्धनम् ६-२१७ भ्रातासुतबिहीनस्य तनयस्य मृतस्य च मातारिक्थहरीज्ञेया भाता वा तदनुज्ञया । बृहस्पति
इन वचनोंसे यह सिद्ध होता है कि पितासे पहिले माता धन पानेकी अधिकारिणी है। ... (२) माताको उत्तराधिकार मिलेगा-पितासे पहिले माता मिताक्षरा स्कूलमें धन पानेकी भागिनी मानी गई है। देखो-अनन्दी बनाम हरी 33 Bom. 404; i! Bom. L. R. 641; 4 I. A. 1; IMad.174;14 Bom.605.
(३) महदूद अधिकार-विधवाकी तरह माता भी अपने लड़केकी जायदादमें महदूद अधिकार रखती है, माताके मरनेपर वह जायदाद उसके वारिसोंको नहीं मिलेगी, बक्लि लड़केके वारिसको मिलेगी। देखो-बृजभूषणदास बनाम बाई पार्वती 32 Bom. 26; जलेसुर बनाम अग्गुर 9 Cal. 725 • (४) बदचलनी और पुनर्विवाह--अगर माता उस वक्त बदचलन हो गयी है जब उसे लड़केकी जायदाद मिलनेका मौका आया है तो इस वजहसे माता उत्तराधिकारसे खारिज नहीं की जायगी और इसी तरहपर जब उसे
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दफा ६०७]
सपिण्डोंमें वरासत मिलनेका क्रम
जायदाद लड़केकी मिल गयी हो, उसके बाद वह अपना पुनर्विवाह करले तो भी माता से जायदाद नहीं हटाई जायगी, अर्थात् दोनों सूरतोंमें माता को जायदाद मिलेगी। देखो-कोजीयाडू बनाम लक्ष्मी 5. Mad. 149, वेदामल बनाम वेदानैयाया 31 Mad. 100, डालसिंह बनाम दिनी 32 All. 155; बल्देव बनाम मथुरा 33 All. 702, यह सब बदचलनीके सम्बन्धी मामले हैं। पुनर्विवाहके विषयकी नज़ीर देखो-वासप्पा बनाम रायाया 29 Bom. 91.
(५) सौतेली माता-सौतेली माता सौतेले लड़के की वारिस कभी नहीं हो सकती इसलिये कि वह सौतेले बेटेकी जायदाद कभी नहीं पाती। देखो-रामानन्द बनाम स्वर्गियानी 16 All. 221; रामासामी नाम बनारासाम्मा 8 Mad. 133; टहलदाई बनाम गयाप्रसाद 37 Cal. 214 सेथाई बनाम नाचियर 37 Mad. 286.
बम्बई प्रांतमें सौतेली माता सौतेले लड़केकी वारिस मानी गयी है। क्योंकि वहांपर सगोत्र सपिण्ड मानी गयी है। देखो-केशरबाई बनाम बालब 4 Bom. 188; रस्सूबाई बनाम जोलिका बाई 19 Bom. 707; और देखो इस किताबकी दफा ६०,६०१. • (६) गोद लेने वाली माता-माताके अर्थमें गोद लेने वाली माता भी शामिल है। इसी लिये मिताक्षरालॉ के अनुसार गोद लेने वाली मा गोद लेने वाले वापसे पहिले दत्तक पुत्रकी जायदाद पाती है, देखो-नन्दी बनाम हरी 33 Bom. 404.
(७)जायदादका इन्तकाल-जब किसी माताको लड़केकी वरासतमें जायदाद उसकी जिन्दगी भरके लिये मिली हो तो वह यानी माता, कानूनी जरूरतोंके सिवाय जो इस किताब की दफा ६०२-७०६ में बताई गयी है जायदादको कहीं रेहन या बय या किसी तरहका इन्तकाल नहीं कर सकती। माताको जायदादमें जो कुछ मुनाफा मिले वह उसकास्त्रीधन है अर्थात् जायदाद के मुनाफासे यदि कोई दूसरी जायदाद वह खरीद करले या नकद छोडकर मर जावे तो वह जायदाद, जो लड़केसे वरासतमें मिली थी लड़केके वारिस को मिलेगी, मगर मुनाफेसे जो जायदाद खरीदी गयी थी वह माताके वारिस को मिलेगी। माता का हक मुनाफे पर पूरा है। उसके जी में जैसा आये वह कर सकती है। मुनाफेसे पैदाकी हुयी जायदाद स्त्रीधन बन जाती है।
(८) मयूखलॉ-उन केसोंमें जहांपर मयूखलॉप्रधानतासे माना जाता है मा से पहिले बाप, लड़केकी जायदादका वारिस होता है, देखो-खुदाभाई बनाम बाहधर 6 Bom. 541.
मयूखमें यह कहा गया है कि दौहित्रके अभावमें पिता और पिताके अभावमें माता धम पाती है। इस बातकी पुष्टि कात्यायनने भी की है, देखो
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8
उत्तराधिकार
[ नवां प्रकरण
पुत्रस्यार्य कुलजा पत्नी दुहितरोपिवा । तद्भावे पिता
माता भ्राता पुत्राः प्रकीर्तिताः ।
नारदने यों कहा है कि
पुत्रधनं पत्न्यभिगामि । तद्भावे दुहितृगामि तद्भावे दौहित्रगामि तद्भावे पितृगामि तद्भावे मातृगामि तद्भावे भ्रातृगामि तद्भावे भ्रातृपुत्रगामि तद्भावे सकुल्यगामि ।
-
यद्यपि कुछ श्राचाय्यने मातासे पहिले पिताका हक़ स्वीकार किया है मगर वह सिर्फ जहां पर मयूखका स्वामित्व है वहांपर माना जाता है (देखो दफा ५७३; ५७७; ५७८) मयूखकी प्रधानता महाराष्ट्र यानी बम्बई स्कूलमें मानी जाती हैं, देखो दफा २३.
दफा ६०८ बापकी वरासत
(१) लड़के, पोते, परपोते, विधवा, लड़की, लड़कीका लड़का, चौर माताके न होनेपर बापको उत्तराधिकारमें लड़केकी जायदाद मिलेगी ।
याशवण्क्य - 'पत्नी दुहितरश्चैव पितरौ भ्रातरस्तथा २ - १३५.
मिताक्षरा 'पितरौ' का अर्थ करनेमें द्वंद्व समास किया गया है, इसलिये माताके पश्चात् पिताका भाग आता है ( देखो दफा ६०७ ) मयूख जहां पर माना जाता है उसे छोड़कर बाक़ी सब जगहों पर माताके पश्चात् बापका हक़ उत्तराधिकारमें माना गया है, ( देखो दफा ६२४ ).
(२) बाप, पूरे अधिकारों सहित जायदाद लेता है और उसके मरने पर उसके वारिसको जायदाद मिलती है। जब किसी मर्दको जायदाद मिलती है तो पूरे अधिकारों सहित मिलती है (देखो दफा ५६४ ).
(३) महाराष्ट्र प्रान्त यानी बम्बई स्कूलमें जहां मयूखकी प्रधानता मानी जाती है मातासे पहिले बापको जायदाद मिलती है (देखो दफा ५७३ ५७७; ५७८ तथा दफा २३ ).
दफा ६०९ भाईकी वरासत
(१) लड़के, पोते, परपोते, विधवा, लड़की, लड़कीला लड़का, माता और पिताके न होनेपर भाईको उत्तराधिकारमें जायदाद मिलेगी, याज्ञवल्क्य -
'पत्नी दुहितरचैव पितरौ भ्रातरस्तथा' २ - १३५.
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दफा ६०८-६०६]
सपिण्डोंमें वरासत मिलनेका क्रम
मिताक्षरा-'पित्राऽभावे भातरोधनभाज'
तथा-भातृष्वपि सोदराः प्रथमं गृन्हीयुः भिन्नोदराणां भात्रा विप्रकर्षात्'
- पिताके न होनेपर भाइयोंको धन मिलेगा,भाइयों में पहिले सहोदर भाई (जो एकही मा से पैदा हुये हों) और सहोदरके न होने पर भिन्नोदर भाई (सौतेला भाई ) को धन मिलेगा, देखो-2 V. R. C. R. 123.
(२) पहिले सहोदर (सगे) भाईका हक़ होगा और उसके न होनेपर सौतेले भाईका, देखो-अनन्तासंह बनाम हुर्गासिंह (1910) 37 I. A. 191.
मिताक्षरालॉ के अनुसार घरासतक सम्बन्ध में और बटे हुये भाईको बटे हुये भाईपर तरजीह दीगई है, देवी भाई बनाम दयाभाई मोतीलाल 89. 1. C. 164.
(३) भाइयोंमें सरवाइवरशिपका हक नहीं लागू पड़ता इसलिये जब दो या दो से ज्यादा भाई हों तो यह सब जायदादको अपने अपने हिस्से के अनुसार लेते हैं; यानी अगर वह चाहें तो बटवारा कराले और जब उनमें से एक भाई मरेगा तो उसका हिस्सा उसके वारिसको मिलेगा। जैसे जय, और विजय दो भाई हैं । इनको उत्तराधिकारमें भाईकी जायदाद मिली। अगर वह चाहें तो बटवारा कराल और जब बटवारा हो जायगा तो हर एक भाई का हिस्सा, उसकी औलाद या उसके वारिसको मिलेगा। अगर सरवाइवर, शिपका हक़ होता तो बटवारा नहीं हो सकता। सरवाइवरशिपका हक मिता.. क्षराके अनुसार सिर्फ चार वारिसोंमें लागू माना गया है (देखो दफा ५७०).
(४) भाईका हन जायदादमें पूरा होता है। वह जायदाद पूरे अधिक कारों सहित लेता है. ( देखो दफा ५६४).
(५)जहांपर मयूख' माना जाता है (देखो दफा २३, ५७३, ५७७१. ५३८.) उन केसोंमें सौतेला भाई पितामहके साथ हिस्सा लेता है।
मयूख और मिताक्षरा दोनोंहीके अनुसार उस जायदादके उत्तराधिकार में, जो किसी स्त्रीके पूर्ण अधिकारमें हो, सगा भाई सौतेली बहिनके मुका: बिलेमें वारिस होता है-घनश्यामदास नारायनदास बनाम सरस्वतीबाई 21, L. W. 415; ( 1925 ) M. W. N. 285; 87 I. C. 621, A. I. R. 1925 Mad. 861.
मयूखका सिद्धान्त--हिन्दूलों की मयूख प्रणालीके अनुसार मुतवफ़ी भाईकी जायदाद, पहिले मरे हुये भाई के पुत्रोंको दूसरे जीवित भाई यो भाइयों
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લ
उत्तराधिकार
[ नवां प्रकरण
सहित, उत्तराधिकारसे प्राप्त होती है- केसरलाल बनाम जग्गू भाई 49Bom. 282; 27 Bom. L. R. 226; A. I. R. 1625 Bom. 406.
दफा ६१० भाईके लड़के की वरासत
( १ ) लड़के, पोते, परपोते, विधवा, लड़की, लड़कीका लड़का, माता पिता, और भाइयों के न होनेपर भाईके लड़केको उत्तराधिकारमें जायदाद मिलती है ।
जैसाकि क्रम मिताक्षराके अनुसार ऊपर भाईकी वरासत में बताया गया है पहिले 'सगे' को और उसके न होनेपर 'सौतेले' को जायदाद मिलती है उसी क्रमसे भाईके लड़कों को भी हक़ प्राप्त होता है; देखो-
(२) सगे भाईके लड़के पहिले जायदाद पानेके अधिकारी हैं। उनके न होनेपर सौतेले भाई जायदाद पावेंगे ।
(३) भाईके लड़के जायदादको सब बराबर हिस्से में लेते हैं। जैसेमृत पुरुषके जय और विजय दो भाई थे। जयके एक लड़का और विजयके तीन लडके मौजूद हैं और जय, विजय मर चुके हैं तो मृत पुरुषकी जायदाद चार बराबर हिस्सों में बांटी जायगी और हर एक भाईका लड़का एक एक हिस्सा पावेगा । अर्थात् भाइयोंके लड़के आयदाद व्यक्तिगत लेते हैं । अङ्ग 'रेजी में इसे 'परकेपिटा' कहते हैं। देखो दफा ५५८.
(४) भाईके लड़कों का हक़ जायदादमें पूरा होता है (देखो दफा ५६४) -
(५) जहां पर मयूखकी प्रधानता मानी जाती है ( दफा २३ देखो ). उन केसों में सौतेले भाईके लड़केका हक़, बापके भाईके पीछे माना गया है. ( देखो मुल्ला हिन्दूलॉ का पेज ३६ ) और - चण्डिका बनाम मुन्नाकुंवर 24All 273; 29 I. A. 70.
दफा ६११ भाई के पोते की वरासत
( १ ) यह निश्चित है कि भाईके पोते की यानी भाईके लड़केके लड़के की वरासत, पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र, विधवा, लड़की, नेवासा, माता, पिता, भाईऔर भाईके लड़के के बाद होती है। मगर इसमें संशय है कि उसकी जगह कौनसी है । मिताक्षरामें भाईके लड़केका लड़का साफ़ शब्दोंमें नहीं कहा गया; इसीलिये अर्थ की खींच तान पड़ गयी । देखो दफा ६२५.
(२) मिताक्षरा में कहा गया कि
'भ्रातृणामप्यभावे तत्पुत्राः '
और आगे चलकर यह कहा गया है कि - 'भ्रातृपुत्राणामप्यभावे गोत्रजा धनभाजः'
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दफा ६१०-६११]
सपिण्डोमें वरासत मिलनेका क्रम
अर्थात् 'भाईयोंके अभावमें उनके पुत्र' और 'भाईके पुत्रोंके अभावमें गोत्रज धन पाते हैं। यहांपर भाईके लड़केका लड़का छूट गया यांनी साफ तौरपर नहीं कहा गया । इस विषय पर बड़ा विवाद है। देखो दफा ५६६, ६२३, ६२४, ६२५.
(३) इलाहाबाद हाईकोर्टने भाई के लड़केके लड़केका हक, भाईके लड़के के पीछेही स्वीकार किया है। अर्थात् भाईका पोता, भाईके लड़केके न होनेपर जायदाद पानेका अधिकारी माना गया है। देखो-कल्याणराय बनाम रामचन्द्र (1901 ) 24 All. 128.
बिल्कुल इसी क़िस्मका एक बहुत बड़ा मुकद्दमा हालमें इलाहाबाद हाईकोर्टसे फैसल हुआ है और प्रिवीकौंसिलमें वह फैसला बहाल रहा । इस मुक़द्दमेंके वाक़ियात यह थे कि वादी परदादाका पोता था और प्रतिवादी दादाका परपोता था। मुक़द्दमा उत्तराधिकारका था। फैसलोंमें बहुत छान बीन करके माना गया कि मिताक्षरालॉके अनुसार पितामहकी तीन पीढ़ियाँ प्रपितामह और उसकी औलादसे पहिले वारिस होती हैं एवं पितामहका प्रपौत्र प्रपितामहके पौत्रसे पहिले जायदाद पानेका अधिकारी है; देखो-बुधासिंह बनाम ललतूसिंह 34 All. 663. इस मुकद्दमेंका ज्यादा खुलासा हाल अलहदा दिया गया है। देखो दफा ६२५ इस केससे यह नतीजा निकला कि भाईका पोता, भाईके लड़केके पश्चात् वारिस होता है।
.. (४) मदरास हाईकोर्टने भाईके पोतेसे पहिले दादीका हक स्वीकार किया है। अर्थात् भाईके लड़केके बाद दादीको जायदाद पहुंचती है (देखो नक्शा दफा ६२७ ) इस फरकका कारण देखो दफा ६३०.
(५) बम्बई हाईकोर्टको छोड़ कर सगा, सौतेलेसे पहिले जायदाद पाता है। यह कायदा श्राम माना गया है। मगर बम्बई हाईकोर्ट के अनुसार मिता. क्षरा और मयूख दोनोके केसोंमें सहोदरको सौतेलेसे प्रधानता देनेका कायदा भाई और भाईके लड़कोंके लिये ही महदूद किया गया है और दूसरी भिन्न शाखाओंके रिश्तेदारोंके लिये नहीं; जैसे चाचा, चाचाके लड़के, वगैरा; देखो-सामन्त बनाम अमरा 6 Bom. 394, 397; 24 Bom. 317.
___ इलाहाबाद हाईकोर्ट के अनुसार सौतेलेसे सहोदरकी प्रधानता सब भिन्न शाखाओंके सब रिश्तेदारों के लिये लागू की गई है । इलाहाबादके केसोंके 'प्रपितामहके सहोदर भाईके पोते' को 'प्रपितामहके सौतेले भाईके पोते, से प्रधानता दी गई है 19 All. 216.
(६) भाईके पोतेको जबजायदाद मिलती है तो पूरे अधिकारों के साथ मिलती है। उसमें सरवाइवरशिपका हक लागू नहीं होता ( देखो दफा ५६४, ५७०, ५७२ ) तथा सबको बराबर हिस्सा मिलता है।
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उत्तराधिकार
[नवां प्रकरण
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दफा ६१२ बापकी मा ( दादी) की वरासत
(१) लड़के, पोते, परपोते, विधवा, लड़की, नेवासा, माता, पिता, 'भाई, भाईके लड़के, भाई के पोतेके न होनेपर बापकी माता यानी दादीको जायदाद मिलेगी। मिताक्षरामें कहा गया है कि -
भातृपुत्राणामप्यभावे गोत्रजा धनभाजः,गोत्रजाःपितामही सपिण्डाः समानोदकाश्च । तत्रपितामही प्रथमंधनभाक्
___ अर्थात् भाईके लड़कों और पोतोंके अभावमें गोत्रज धन पाते हैं, गोत्रजोंमें पितामही ( दादी) और सपिण्ड ( देखो ५८२) और समानोदक (दफा ५६६) शामिल हैं। इनमें सबसे पहिले पितामही जायदाद पावेगी। . (२) दादीको उत्तराधिकारमें जायदाद महदूद हकके साथ मिलती है (देखो दफा ५६६) और उस जायदादको वह सिवाय कानूनी ज़रूरतोंके जो इस किताबकी दफा ६०२, ७०६ में बताई गई हैं इन्तकाल नहीं कर सकती। मगर उसे जायदाद के मुनाफे पर और मुनाफेकी बचत पर पूरा अधिकार प्राप्त है। अगर कोई दादी जायदादके मुनाफेसे दूसरी जायदाद खरीद करे या नकद जमा करे तो उस जायदादपर और रुपये पर दादीका पूरा अधिकार होगा; यानी दादीके मरनेपर वह जायदाद जो वरासतमें मिली थी पोतेके रिवर्ज़नर वारिस ( देखो दफा ५५८). को जायगी और जो जायदाद उसने मुनाफेकी बचतसे खरीदकी है या नकद छोड़ी है उस ( दादी) के वारिस को मिलेगी। दफा ६१३ बापके बापकी वरासत (पितामह-दादा)
(१) लड़के, पोते, परपोते, विधवा, लड़की, नेवासा, माता, पिता, माई, भाई के लड़के, भाईके पोते, बापकी माताके न होनेपर उत्तराधिकारमें पितामहको जायदाद मिलेगी। मिताक्षरामें कहा गया है कि- पितामह्याश्चाभावे समानगोत्रजः सपिण्डाः पितामहादयो धनभाजः
पितामही (दादी) के अभावमें समान गोत्रज सपिण्ड पितामह (दादा) आदि धन पाते हैं । आदिसे मतलब यह है कि पहिलेके न होनेपर दूसरा।
(२) पितामह ( दादा ) जायदादको पूरे अधिकारोंके साथ लेता है (देखो दफा ५६४).
(३) बेटेकी लड़की, लड़कीकी लड़की, बहन और बहनके बेटेकी वरासत पापके पाप (दादा) के बाद एक्ट नं० २ सन् १६२६ ३० की दफा २ के
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दफा ६१२-६१५]
सपिण्डोंमें वरासत मिलने का क्रम
अनुसार अब लड़केकी लड़की, लड़कीकी लड़की, बहन और उसके पीछे बहन के.लड़केको वरासतमें क्रमसे जायदाद मिलेगी। और अगर बहनके लड़कान हो तो उस लड़केको भी वरासत मिलेगी जो बहनके जीते जी गोद लिया गया हो। यानी बहनके मरनेपर गोद न लिया गया हो। .
क्रमसे जायदाद मिलनेका मतलब यह है कि जो वारिस पहले बताया गया है उसके न होनेपर दुसरेको व दूसरेके न होनेपर तीसरेको एवं तीसरे के न होने पर चौथेको मिलेगी। इन सब वारिसों को कोई ज्यादा हक नहीं होंगे उन्हें वही हक रहेंगे जो स्कूलोंके अन्तर्गत उनके माने गये हैं। दफा ६१४ बापका भाई (पितृव्य-चाचा-काका-ताऊ ) ..
(१) लड़के, पोते, परपोते, विधवा, लड़की, नेवासा, माता, पिता, भाई, भाईके लड़के, भाईके पोते, दादी, और दादाके ( एवं नये कानून एक्ट नं०२ सन् १९२६ ई० के अनुसार लड़केकी लड़की, लड़कीकी लड़की, बहन
और बहनके लड़केके ) न होनेपर उत्तराधिकारमें चाचाको जायदाद मिलेगी। मिताक्षरामें कहा गया है कि- 'तत्रच पितृसंतानाभावे पितामही पितामह पितृव्यास्तत्पुत्राश्च क्रमेणधनभाजः'
पिताकी संतानके अभावमें दादी,दादा और चाचा तथा उनके लड़के क्रमसे जायदाद पाते हैं इस जगहपर 'पितृव्य' से मतलब 'चाचा' है। संस्कृतमें वाप भाई के लिये यह खास शब्द नियत है मगर दूसरे रिश्तेदारों के सम्बन्धमें ऐसा नहीं है ( देखो दफा ५५८)
(२) चाचा जायदादको पूरे अधिकारसे लेता है (देखो दफा ५६४) तथा सरवाइवरशिपका हक लागू नहीं होता ( देखो दफा ५५८, ५७०, ५७२) जायदाद बराबर हिस्सों में मिलेगी और बम्बई हाईकोर्ट को छोड़कर यह माना गया है कि सौतेले से पहिले सहोदरका हक होता है (देखो दफा ६११-५) चाचा चाहे सहोदर हो या सौतेला हो हमेशा बापके सहोदर भाईके लड़केसे पहिले जायदाद पाता है। दफा ६१५ बापके भाईके लड़केकी वरासत (चाचाका लड़का)
(१) ऊपरके वारिसों के न होनेपर उत्तराधिकारमें चाचाके लड़केको जायदाद मिलेगी। मिताक्षरामें कहा है कि
'पितृव्यास्तत्पुत्राश्च क्रमेणधनभाजः'
चाचा और चाचाके लड़के क्रमसे धन पाते हैं । इसलिये चाचाओंके न होनेपर चाचा का लड़का या लड़के जायदाद पाते हैं । पहिले सहोदर को
पितान
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उत्तराधिकार
[ नयां प्रकरण
पीछे सौतेलेको हक़ प्राप्त होता है ( देखो दफा ६११ - ५ ) बम्बई हाईकोर्ट ऐसा नहीं मानती -
७४०
(२) चाचा के लड़के बराबर हिस्सा पावेगें, तथा जायदादको पूरे अधिकारके साथ लेंगे ( देखो ५६४ ) सरवाइवरशिप लागू नहीं पड़ेगा । पोतेकी वरासत ( चाचाका पोता )
दफा ६१६ बाप के भाई के
(चाचाका पोता ) - ( १ ) इलाहाबाद हाइकोर्टके अनुसार चाचाका पोता, चाचाके लड़केके बाद और पितामहकी माता ( परदादी ) से पहिले उत्तराधिकारमें जायदाद पाता है । यानी क्रम यह है - लडूके- पोते - परपोते, विधवा, लड़की, नेवासा, माता, पिता, भाई, भाईके लड़के, भाई के पोते, दादी, दादा, लड़केकी लड़की, लड़की की लड़की, बहन, बहनका लड़का, चाचा, चाचा के लड़कोंके न होनेपर चाचाके पोते उत्तराधिकारमें जायदाद पाते हैं ।
मिताक्षरा में साफ़ नहीं कहा गया मगर जो सिद्धान्त ऊपर भाईके पोते की वरासत ( दफा ६११ ) में माना गया उसके अनुसार चाचाके पोते की जगह यही है । मिताक्षरामें 'पितृव्यास्तत्पुत्राश्च' यहांपर 'च' से मतलब यह 'लिया गया है कि 'उनके लड़के' यानी चाचा और उसके लड़के तथा उनके लड़के | देखो दफा ६२५.
(२) चाचा के पोते बराबर हिस्सा पावेंगे, तथा जायदाद पूरे अधिकारों के साथ लेंगे (देखो दफा ५६४ ) सरवाइवरशिप लागू नहीं पड़ेगा ।
दफा ६१७ परदादीकी वरासत (बापके बापकी मा- पितामहकी मा)
(१) लड़के, पोते, परपोते, विधवा, लड़की, नेवासा, माता, पिता, भाई, भाईके लड़के, भाईके पोते, दादी, दादा, लड़के की लड़की, लड़की की लड़की, बहन, बहनके लड़के, चाचा, चाचाके लड़के, और चाचाके पोतों के न होने पर परदादी को उत्तराधिकार में जायदाद मिलती है । मिताक्षरामें कहा गया है कि
-
'पितामह सन्तानाभावे प्रपितामही'
दादाकी सन्तान न होनेपर परदादी को जायदाद मिलती है । इसलिये परदादीका हक़ परदादा से पहिले माना गया है ।
परदादीको जायदाद महदूद अधिकारों सहित सिर्फ उसकी जिन्दगीभर के लिये मिलती है। इसीलिये उसको सिवाय क़ानूनी ज़रूरतोंके जो इस किताबकी दफा ६०२; ७०६ में बताई गयी हैं जायदादका इन्तक़ाल नहीं कर सकती । मिताक्षरा स्कूलमें औरतोंका हक़ महदूद होता है (देखो दफा ५६६ )
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दफा ६१६-६२० ]
सपिण्डों में वरासत मिलनेका क्रम
दफा ६१८ परदादाकी वरासत ( प्रपितामह )
( १ ) लड़के - - पोते -- परपोते, विधवा लड़की, नेवासा, माता, पिता, भाई, भाई के लड़के, भाईके पोते, दादी, दादा, लड़केकी लड़की, लड़की की लड़की, बहन, चहनका लड़का, चाचा, चाचाके लड़के, चाचाके पोते और परदादी के न होनेपर उत्तराधिकारकी जायदाद परदादाको मिलेगी । मिताक्षरा में कहा गया है कि
-७४१
'पितामह सन्तानाभावे प्रपितामही प्रपितामहस्तत्पुत्राः "
परदादी के अभाव में परदादा हक़दार है । यानी परदादीके पश्चात् परदादा वारिस होगा ।
( २ ) परदादा जायदाद का पूरा मालिक होगा (देखो दफा ५६४ ) दफा ६१९ दादा भाईको वरः सत ( पितामहका भाई - बाप के भाई )
(१) लड़के, पोते, परपोते, विधवा, लड़की, नेवासा, माता, पिता, भाई, भाईके लड़के, भाईके पोते, दादी, दादा, लड़केकी लड़की, लड़की की लड़की, बहन, बहनका लड़का, चात्रा, चाचाके लड़के, चाचा के पोते, परदादी और परदादा न होनेपर उत्तराधिकारमें जायदाद, दादाके भाईको मिलेगी ।
जो बचन मिताक्षराका ऊपर परदादाकी वरासतमें कहा गया है उसके अनुसार माना गया है कि प्रपितामहके न होनेपर उनके पुत्र अधिकारी होंगे । इसलिये परदादा के पश्चात् दादाके भाई उत्तराधिकारी हैं।
(२) दादाका भाई जायदादका पूरा मालिक होगा (देखो दफा ५६४) और सब हिस्सा बराबर लेंगे सरवाइवरशिप नहीं लागू होगा (देखो दफा ५५८; ५७०; ५७२ )
दफा ६२० दादाके भतीजे की वरासत (पितामहके भाई का लड़का )
(१) लड़के, पोते, परपोते, विधवा, लड़की, नेवासा, माता, पिता, भाई भाईके लड़के, भाईके पोते, दादी, दादा, लड़केकी लड़की, लड़कीकी लड़की, बहन, बहनका लड़का, चाचा, चाचाके लड़के चाचाके पोते, परदादी, परदादा और दादा भाईके न होनेपर दादाके भतीजे उत्तराधिकारकी जायदाद पाते. हैं। मिताक्षरामें कहा गया है कि
'पितामह सन्तानाभावे प्रपितामही प्रपितामहस्तत्पुत्रास्तत्सूनवः'
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उत्तराधिकार
नवां प्रकरण
परदादाके न होनेपर, दादाका भाई, और उसके भी न होनेपर उसके लड़के यानी 'दादाके भतीजे' जायदाद पावेंगे। इनका हक़ वैसाही होगा जैसा 'दादा भाईकी वरासत' का है। ऊपर देखो ।
ર
दफा ६२१ दादा के भाई के पोते की वरासत (पितामहके भाई का पौत्र)
( १ ) जैसाकि ऊपर दफा ६११, ६१६ में कहा गया है उसीके अनुसार दादा के भाई के पोते की जगह यह है । यानी वह, लड़के, पोते, परपोते, विधवा लड़की, नेवासा, माता, पिता, भाई, भाई के लड़के, भाईकेपोते, दादी, दादा, लड़केकी लड़की लड़की की लड़की, बहन, बहनका लड़का, चाचा, चाचाके लड़के, चाचा के पोते, परदादी, परदादा, दादाके भाई, धौरदादा के भतीजे के न होनेपर जायदाद पाता है ।
मिताक्षरा में साफ नहीं कहा गया मगर जो सिद्धान्त ऊपर दफा ६११; ६१६ में माना गया है उसके अनुसार दादाके भाईका पोता मृत पुरुष के परपोतेके लड़केसे पहिले वारिस होता है । देखो नक़शा दफा ६२४; यानी नं० २१ दादा के भाईके पोतेका स्थान है और नं० २२ परपोते के लड़केका ।
(२) दादा के भाईके पोते अपना सब हक़ वैसाही रखते हैं जैसा कि ऊपर दफा ६१६ में कहा गया है ।
(३) वारिसों की लिस्ट जो मिताक्षरामें दी गयी है इस जगहसे यानी मं० २१ ( देखो नक्शा दफा ६२४ ) से समाप्त हो जाती है । इन वारिसोंके बारेमें तो साफ साफ कहा गया है परन्तु भाईके पोते, चाचा के पोते, और दादा भाईके पोते के विषयमें कुछ नहीं कहा गया। आगे के वारिसोंके बारेमें मिताक्षराकार विज्ञानेश्वर जी ने यह बचन दिया है
'एव मासतमात्समान गोत्राणां सपिण्डानांधनग्रहणं वेदितव्यम्'
इसी तरहसे समान गोत्रमें सात दर्जे ऊपर सपिण्ड धन पानेके अधिकारी हैं। यानी जितने सपिण्ड वाक्क़ी रह गये वह सब इसी क्रमसे जायदाद पावेंगे। देखो दफा ६२४.
दफा ६२२ दूसरे सपिण्ड वारिस
ऊपर बताये हुए वारिसों के सिवाय जो सपिण्ड वाक़ी रह गये वह नीचे के क़ायदेके अनुसार वारिस होते हैं
( १ ) नज़दीकी सपिण्डका हक़ दूर के सपिण्ड से पहिले होता है ।
( २ ) भिन्न शाखाओंके रिश्तेदारोंमें भी सौतेले से सहोदर पहिले जायदाद पाते हैं मगर बम्बई प्रांत में यह क़ायदा आम नहीं माना गया । वहांपर यह माना गया है कि - मिताक्षरा और मयूख दोनों केसों में सहोदरको सौतेले से प्रधानता देने का क़ायदा भाई और भाईके लड़कों के लिये ही महदूद हैं और
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दफा ६२१-६२३ ]
सपिण्डों में वरासत मिलने का क्रम
दूसरी भिन्न शाखाओंके रिश्तेदारोंके लिये नहीं, जैसे चाचा, या चाचाके लड़के आदि वारिस होने वाले सपिण्डों की संख्या जो मिताक्षरामें साफ तौरपर नहीं बताये गये २२ से ५७ तक होती है (देखो नक्शा दफा ६२४ ) मिताक्षरों में कहा गया है कि
-
७४३
'इत्येवमाससमात्समान गोत्राणां सपिण्डानां धनग्रहणं वेदितव्यम् तेषामभावे समानोदकानां धनसम्बन्धः’
इसी तरहपर ऊपरके सात समान गोत्र वाले सपिण्डों में जायदाद चली जायगी और जब सपिण्ड भी कोई नहीं होवें तो उस समय समानोदकों में जायदाद जायेगी। इसी बचनके आधारपर २२ से ५७ पीढ़ी तक सपिंडका दर्जा मानकर जायदाद पानेके वह अधिकारी क्रमसे माने गये हैं । दफा ६२४ देखो ।
नोट - ऊपर यह बताया गया है कि सहोदर का हक सौते के से पहिले होता है; मगर ऐसा क्रम क्यों है ? इस सवाल का जबाव सरल नहीं; क्योंकि जिन सिद्धान्तोंपर यह क्रम सपिण्डों के लिये लागू किया गया है वह आपसमें एक दूसरे से जाहिरा विरोधी है यह बात बतायी गयी है कि नजदीकी सपिण्ड दूर के सपिण्ड से पहिले जायदाद पाता है । अब सवाल यह होगा कि नजदीकी सपिण्ड कौन है ? और कौन सपिण्ड किस सपिण्डसे नजदीकी होता है ? इस बातका निर्णय भिन्न भिन्न सिद्धान्तों के अनुसार किया गया है इसलिये जिस जगहपर जो स्कूल माना जाता हो उसके अनुसार नजदीकी सपिण्ड ध्यानमें रखना । वह सिद्धान्त जो नजदीकी और दूरके सपिण्डमें फरक डालते हैं उनका उल्लेख. हम क्रमसे नीचे करते है ।
दफा ६२३ सपिण्डों की वरासतका पहला सिद्धान्त
प्रोफेसर सर्वाधिकारी, डाक्टर जाली, मिस्टर मेन और डाक्टर जोगे' द्रनाथ भट्टाचार्य के अनुसार पहला सिद्धान्त यह है. इन सबने यह माना है कि हर एक भिन्न शाखाकी लाइन तीन पीढ़ियोंमें ठहर जाती है । तीन पीढ़ियों में ठहर जानेका जो सिद्धान्त बताया गया उसको इस तरहपर समझिये कि पहिली प्रधान लाइन नीचेकी तरफ तीन पीढ़ी तक जाती है, पीछे ऊपर प्रधान लाइन में पहिली पीढ़ीकी भिन्न शाखा में (बापकी) तीन पीढ़ी तक। और दूसरी पीढ़ीकी भिन्न शाखामें तीन पीढ़ी तक एवं तीसरी पीढ़ीकी मित्र शाखा में तीन पीढ़ी तक जाती है। इस तरह पर तीन पीढ़ी चारों तरफसे समाप्त हो जाती हैं, इसके पश्चात् फिर वही क्रम वरासतका प्रधान लाइन से शुरू होता है, यानी प्रधान लाइनमें नीचेकी तरफ चौथी, पांचवीं और छठवीं पीढ़ी तक, और पीछे ऊपरकी प्रधान लाइनकी पहिली पीढ़ीमें चौथी, पांचवीं छठवीं पीढ़ी तक और दूसरी पीढ़ीमें चौथी, पांचवीं, छठवीं पीढ़ी तक, एवं तीसरी पीढ़ी
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उत्तराधिकार
[नवां प्रकरण
की चौथी, पांचवीं छठवीं पीढ़ी तक जाती है। उसके बाद इसी तरह ऊपरकी प्रधान शाखा और भिन्न शाखाओं में जाकर सत्तावन पीढ़ीमें समाप्त हो जाती है। ( नकशा देखो दफा ६२४) (१) मृत पुरुषकी नीचेकी शाखामें पहिली तीन पीढ़ी, पुत्र, पौत्र,
प्रपौत्र। (२) विधुवा, लड़की, लड़कीका लड़का । (३) मा, बाप और उनकी भिन्न शाखा वाली लाइनमें पहिली तीन
पीढ़ी यानी पुत्रं, पौत्र , प्रपौत्र। (४) बांपैकी मा, बापका बाप, (पितामह) (देखो इस जगहके बाद
वाले वारिस ऐक्ट नं० २ सन् १९२६ई० इस प्रकरणके अन्तमें.)
और उनकी पहिली तीन पीढ़ी यानी पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र । (५) पितामहेकी मा, पितामहका बाप, और उनकी तीन पीढ़ी यानी
पुत्रं, पौत्र, प्रपौत्र। (६) मृत पुरुषके नीचेकी शाखामें पिछली तीन पीढ़ी यानी प्रपौत्र
की पुत्र, प्रपौत्रका पौत्र, प्रपौत्रका प्रपौत्र।। (७) यापकी शाखामें पिछली तीन पीढ़ी यानी-प्रपौत्रैका पुत्र,
प्रपौत्रका पौत्र, प्रपौत्रका प्रपौत्र । (८) पितामहकी शाखामें पिछली तीन पीढ़ी यानी-प्रपौत्रका पुत्र,
प्रपौत्रका पौत्र, प्रपौत्रका प्रपौत्र । (१) प्रपितामहकी शाखामें पिछली तीन पीढ़ी यानी-प्रपौत्रका पुत्र,
प्रपौत्रका पौत्र, प्रपौत्रका प्रपौत्र । (१०) प्रपितामहकी मा, प्रपितामहका बाप, और उनकी पहिली तीन
पीढ़ी यानी उनके पुत्र, पौत्र, प्रपौत्रै। (११) प्रपितामहके बाँपंकी मा, प्रपितामहकी पितामह, और उनकी
पहिली तीन पीढ़ी यानी उनके पुत्र, पौत्रे, प्रपौत्र। (१२) प्रपितामहके पितामहकी मा, प्रपितामहके पितामहका बाप,
और उनकी पहली तीन पीढ़ी यानी उनके पुत्रं, पौत्र , प्रपौत्रै ।
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दफा ६२४] सपिण्डोंमें वरासत मिलनका क्रम
mmmmmmim (१३) प्रपितामहके बापकी शाखामें पिछली तीन पीढ़ी यानी उनके
प्रपौत्रके पुत्रं, प्रपौत्रके पौत्र, प्रपौत्रके प्रपौत्र । ... . . (१४) प्रपितामहके प्रपितामहकी शाखामें पिछली तीन पीढ़ी यानी
उनके प्रपौत्रके पुत्र, प्रपौत्रके पौत्र प्रपौत्रके प्रपौत्र। (१५) प्रपितामहके प्रपितामहकी शाखामें पिछली तीन पीढ़ी यानी . उनके प्रपौत्रके पुत्र, प्रपौत्रपौत्र, प्रपौत्रपौत्र ।
नोट-ऊपरके क्रमसे ५७ सपिण्डोंमें पहले के न होनेपर दूसरेको सम्पत्ति मिलेगी। दफा ६२४ पहिले सिद्धान्तका नक्शा
वरासत किस क्रमसे मिलती है इस बारेमें दफा ५६ और ६२३ पहले पढ़ लीजिये, पीछे नीचेके क्रमको विचारो। प्रोफेसर सर्वाधिकारी, डाक्टर जोगेन्द्रनाथ भट्टाचार्य, डाक्टर जाली, और मिस्टर मेन साहेबके सिद्धांतानुसार सपिण्डोंके दौका नक़शा नीचे देखो। इस नक्रोमें जिस क्रमसे नम्बर दिये गये हैं उसी क्रमसे उत्तराधिकारकी जायदाद पानेके लिये वारिस होते हैं । प्रिवी कौन्सिलने बुधासिंह बनाम ललतूसिंह 42 I. A. 208-224, 37 All. 604; 30 I.C. 529. में आम सिद्धान्त यही माना है। और देखो पुल्ला हिन्दूलॉ १९२६ पेज ४५. बुधासिंह बनाम ललतूसिंह 42 I. A. 208; 37 All. 604, 30 I. C. 529. वाले मामलेमें प्रिवी कौन्सिलने कहा कि इस मुकदमेके पक्षकार मिताक्षरा स्कूलके अन्तर्गत बनारस स्कूलके हैं और झगड़ा है दरमियान चाचाके पोते और बापके चाचाके लड़केके। यानी इस दफाके नक्शे के नम्बर १६ और नं०२० के दरमियान । डाक्टर सर्वाधिकारीके मतानुसार बमुकाबिले नं०२० यानी बापके चाचाके लड़केके, नं०१६ चाचाके लड़केके लड़केको तरजीह है यानी उसका हक पहले माना जायगा।
नशेमें जो नम्बर दिये गये हैं वे उत्तराधिकारमें जायदाद पानेका क्रम बतानेके लिये दिये गये है। नम्बर १, २, ३, में जो कोष्ठ लगाया गया है वह इस मतलबसे है कि वे तीनों इकट्ठे जायदाद पाते हैं अर्थात् पौत्र जिसका पिता मर चुका है और प्रपौत्र जिसका पिता और पितामह मर चुका है मृत पुरुषकी जायदाद तीनों इकट्ठ (पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र,) लेते हैं। इस नक्शेके नम्बरों पर ध्यान रखना, नम्बरके क्रमसे मृत पुरुषका उत्तराधिकारी निश्चित कीजिये।
94
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६. mmmmmmmmms
उत्तराधिकार
[नवां प्रकरण
आज कल यही क्रम माना जाता है। +मा४४ - बा४५
+मा३६ - बा४०
+मा३४ - बा३५
मा१७
बा१८
३६ ४२
मा१२- बा१३
१६.३७ ४३
मा ७- बाद
१४ २० ३८ ५२
५७
विधवा४---मृतपुरुष लड़की ५
ल लड़कीका ल२१(१-३) लड़का
६ १५ २१ ४६ ५३ १. १६ ३१ ५० ५४
११ २८ ३२ ५१
२५ २६ ३३
ल२२
२६ ३०
ल२३
२७
ल२४ + पूरी तौर पर यह निश्चित नहीं है कि नं०३४, ३६, ४४ सपिण्ड हैं। बहुत करके तो माने जाते हैं और मानना चाहिये।
(१) मृत पुरुष-वह है जो पुरुष जायदादका आखिरी पूरा मालिक था. (२) 'ल' से मतलब लड़केसे है। 'या' से बाप और 'मा' से माता। (३) मृत पुरुषकी नीचेकी लाइन 'ल १' से शुरू होकर सीधी 'ल२४'
तक गयी है। और ऊपकी प्रधान लाइन 'बा' से शुरू होकर सीधी 'बा ४५' तक । ऊपरकी प्रधान लाइनमें हर एकके बराबर जो 'मा' हैं वह उनकी पत्नियां हैं जैसे 'बा' की पत्ती 'मा ७ है।
इसी तरह समझो। (४) ऊपरकी प्रधान लाइनमें जो शाखायें लटकी हुई हैं हर एककी
'भिन्न शाखा' हैं। प्रधान शाखा मृत पुरुषके ऊपर और नीचे सीधी लाइनकी है। बाकी सब 'भिन्नशाखा' कहलाती हैं।
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सपिण्डों में वरासत मिलनेका क्रम
दफा ६२५ ]
इस निशान से यह मतलब समझिये कि नं०१३दादा है दादाके बाद एक्ट नं० २ सन १६२६ ई० के अनुसार अब लड़केकी लड़की यानी नं० १ की लड़की को जायदाद मिलेगी। उसके बाद लड़की की लड़की यानी नं० ५ की लड़की को, उसके बाद बहन और उसके बाद बहन के लड़के को जायदाद मिलेगी। बहन के लड़के के बाद नं०१४ यानी बापके भाई (चाचा) को मिलेगी और फिर आगे उसी क्रमसे चलेगी । उपरोक्त चार वारिस [ ( १ ) लड़केकी लड़की, (२) लड़की की लड़की, (३) बहन तथा ( ४ ) बहनका लड़का ] नये क़ानूनके अनुसार बीचमें वारिस माने गये हैं मगर इनके होनेसे सपिण्ड में कोई फर्क नहीं पड़ता सिर्फ चाचासे आगे के वारिसोंके हक़ चार दर्जे दूर हो गये हैं। देखो एक्ट नं० २ सन १६२६ ई० इस प्रकरण के अन्तमे ।
दफा ६२५ पहिले सिद्धान्तपर इलाहाबाद हाईकोर्टका मशहूर
७४७
मुकद्दमा
:
बुधासिंह वगैरा वादी बनाम ललतूसिंह बरौरा प्रतिवादी 34 All. 663. में माना गया है कि 'हर एक मिन्न शाखाकी लाइन तीन पीढ़ियोंमें ठहर जाती 'है'। इस नतीजेके अनुसार पोते तक उत्तराधिकार मिन्न शाखाओं में होता है, जैसा कि इस किताबकी दफा ६२४ में नक़शा दिया गया है। उपरोक्त मुक़द्दमें का खुलासा यह है -
34 All. 663. जस्टिस बेनरजी और जस्टिस पिगटके इजालमें बाबू गौरीशङ्कर सब जज मुरादाबादके फैसलेके खिलाफ ६ जुलाई सन १९१२ ई० को अपील पेश हुआ अपीलका नम्बर था २४६ सन् १६१० ई० । मुक़द्दमा, हिन्दूलॉ मिताक्षरा स्कूलके अङ्गर्गत दरमियान 'पितामहके प्रपौत्र' और 'प्रपितामहके पौत्र' के था । यानी दादाका परपोता, और परदादाके पोतेके ।
इस मुकदमे में नीचे लिखी नजीरें बहसमें लायी गयीं - ( १ ) कल्याणराय बनाम रामचन्द्र ( 1901 ) 24 I. L. R. All. 128. ( २ ) रटचपुतीदत्त बनाम राजेन्द्रनारायनराय ( 1839 ) 2 Mad. I. A. 133. ( ३ ) काशीबाई गनेश बनाम सीताबाई रघुनाथ शिवराम (1911) 13Bom. L. R.552. ( ४ ) राचाव बनाम कलिङ्ग अप्पा ( 1892 ) I. L. R. 16 Bom. 716. ( ५ ) करमचन्द गरैन बनाम ऑगडङ्गगुरैन ( 1866 ) 6 W. R. 158. ( ६ ) चिन्ना स्यामी पिलाई बनाम कुंजू पिलाई ( 1911 ) I. L. R. 353 Mad. 152. ( ७ ) भैय्याराम सिंह बनाम भैय्या उधर सिंह ( 1870 ) 13 Mad. I. A. 373. ( ८ ) सूर्य्यभुक्त बनाम लक्ष्मीगरासामा ( 1881 ) I. L. R. 5 Mad. 291.
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[ नवां प्रकरण
यह मुक़द्दमा उत्तराधिकार के अनुसार एक बहुत बड़ी जायदाद मनकूला और रमनकूला (स्थावर और जङ्गम) के दिला पानेका दायर किया गया था । जायदाद साहेब सहाय की थी । देखो
नैनसुखमल
७४८
रामसिंह 1 बुधासिंह
नरपतिसिंह
ललतूसिंह + ( प्रतिवादी )
उत्तराधिकार
राजा गुरसहाय
कानजीमल
+ बुधासिंह - चतुरी सिंह ( वादी )
T साहेब सहाय (मृत पुरुष )
+ पक्षकार हैं ।
इस मुक़द्दमे में बादी साहेब सहायके परदादादाका पोता था और प्रतिवादी साहेब सहायके दादाका परपोता। प्रारम्भिक अदालतमें यानी मुरादाबाद (यू०पी० ) में दावा डिस्मिस होगया अर्थात् वादीके खिलाफ फैसला हुआ । इसीलिये वादीने इलाहाबाद हाईकोर्ट में अपील दायर की थी ।
-
बादी अपीलांट की तरफसे आनरेबल डाक्टर सुन्दरलाल और श्रानरेबल पं० मोतीलाल नेहरूने बहसकी कि
"प्रारम्भिक अदालत ने जो यह नतीजा निकाला है कि दादाका परपोता परदादा पोतेसे पहिले वारिस होता है, यह हिन्दूलॉके विरुद्ध है । याज्ञवल्क्य के अ० २–१३५, १३६ का अर्थ मंडलीकने अपने अनुवादके २२०, ३७७, ३७८ और ३८० से ३८४ पेज तक ठीक तौरपर बताया है । मिताक्षराकी जिनपक्तियों पर विचार करना है वह मांडलीक के चेपटर २ सेक्शन ४ ल्पेसिटा १, ७ और सेक्शन ५ ल्पेसिटा १, ४, ५ में है । याज्ञवल्क्यके ऊपर कहे हुएश्लोकमें जो (अपुत्रस्य) शब्द आया है उसका अर्थ है - जिसके कोई मर्द औलाद न हो ( तत्सुता ) का अर्थ यह है "उनके लड़के" न कि उनकी औलाद और ( सन्तान) का अर्थ उस औलादसे है जो वरासतकी हक़दार है और जो पहिले कही गयी है । 'परपोता' कहीं भी नहीं कहा गया "
वादीके वकीलोंकी बहस इन ग्रन्थोंके आधार पर थी - जी० सी० घोस हिन्दूलॉ 125, 127; वेस्ट और बुहलर हिन्दूलॉ 124. 114, 116; जे० एन० भट्टाचार्य्य हिन्दूलॉ 448; यस०सी० सरकार व्यवस्था चन्द्रिका Vol. 1. 178, 183, 204; आर० सर्वाधिकारी हिन्दूला आफ् इनहेरीटेन्स 423, 435; मदन पारिजात सीताराम शास्त्रीका अनुवादित 22; जी०सी० सरकार हिन्दूलॉ चौथा
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दफा ६२५]
सपिण्डोमें वरासत मिलनेका क्रम
७४६
एडीशन 290; रूमसे चार्ट आफ इन्हेरीटेन्स 43, मेगनाटन हिन्दूला 28; कोलबूक्स डाइजेस्ट आफ हिन्दूलॉ Vol II. 542 (pl.) 417; वीरमित्रोदय मि० सेटलोरका अनुवाद 420, 423 तक।..
प्रारम्भिक अदालतने, कल्याणराय बनाम रामचन्द्र 24 All. 128 को मान कर इस केसका फैसला किया। मगर इस केससे (24 All. 128 ) कोई श्राम सिद्धान्त नहीं निकलता। वह जी०सी० सरकारके हिन्दूलॉके पेज 288में विचार किया गया है। इसका कानून पूरे तौरपर चिन्तामणि बनाम कंजूपिलाई के केसमें बहस किया गया था। और वह फैसला वादीके पक्षमें है।
प्रतिवादी रिस्पाडेन्टकी तरफसे आनररेबल पं० मदनमोहन मालवीय और सतीशचन्द्रवनरजी, और डा० तेजबहादुर सपरूने बहसकी कि
मनुके अध्याय 8-१८६, १८७ में यह आम कायदा माना गया है कि वरासतमें तीन पीढ़ी होती हैं । याज्ञवल्क्य अ०२-१३५, १३६ का अनुवाद जैसा कि मांडलीकने किया है गलत है, (च) और (एव) शब्दका अनुवाद बिल्कुल नहीं किया और श्लोकमें जो (तथा ) शब्द था उसे 'भ्रातरौं' के साथ लाना चाहिये था। सबसे मुख्य शब्द ( अपुत्रस्य) है और इस जगह (पुत्र) शब्दके अर्थमें पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र शामिल है। इस बातसे कोई इनकार नहीं करता । मांडलीकका याज्ञवल्क्य २२२ देखो। यह सही है कि मिताक्षरामें साफ तौरपर परपोतेका जिकर नहीं किया गया लेकिन इस भूलको 'वीर मित्रोदय' पूरी कर देता है, पुरानी पुस्तकों में जो वारिसोंकी लिस्ट पायी जाती है वह मुकम्मिल नहीं है सिर्फ उदाहरणार्थ है। और इसीलिये अगर कोई खास वारिस उनमें नहीं बताया गया हो तो इसका मतलब यह नहीं है कि वह वारिस नहीं होता। लड़कीके लड़केके बारेमें याज्ञवल्क्यमें कुछ नहीं बताया गया। संस्कृतमें बापके भाईके लिये एक खास शब्द है ( पितृव्य ) लेकिन ऐसा कोई दूसरा शब्द दादाके भाई और परदादाके भाईके बतानेके लिये नहीं है और यही बात है कि उन ग्रन्थोंमें खुलासा नहीं है।
सपिण्डकी रिश्तेदारी सातवीं डिगरीमें समाप्त हो जाती है और मिताक्षरामें ऊपरकी तरफ सात पीढ़ी तक बताई गई है तथा मनुस्मृति ५-६०; जे०सी० घोष हिन्दूला ४१, ५७, ५८, ६५, ६६, ७८, ६७, १६६, १७०, १८३, १८४; जे०सी० घोषने देवल और पराशरके बचनोंको जितना बताया है उससे यह मालूम होता है कि नीचे तीन पीढ़ी तक शरीरकी एकता रहती है अगर अपीलाट वादीकी बहसको माना जाय तो परपोता सगोत्र सपिण्ड भी नहीं होगा। याज्ञवल्क्यको सारी वरासत एकही श्लोकमें बताना थी और इस लिये वह ( तत्सुता) को औलादके अर्थमें लाये हैं । मिताक्षरा (पितृ संतान) शब्दको पिताकी लाइन बतानेके लिये काममें लाये हैं, (संतान ) का अर्थ राचव बनाम कलिङ्ग अप्पा (1822) I. L. R. 16 Bom, 716 में 'एक दूसरे
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७५०
उत्तराधिकार
[नवां प्रकरण
का सम्बन्ध' का अर्थ लगाया गया है। मांडलीकके प्रमाण जो कि पेज ३६० (सुवोधिनी ) और पेज ३६४ (वीर मित्रोदय ) में कहे गये हैं वह दोनों गलत हैं। मांडलीकने यह विचार करने में गलती की है कि सिर्फ दश वारिस बताये गये हैं। मांडलीकसे हेरिङ्गटनका सिद्धान्त ठीक है यद्यपि उसे चौथी पुश्तमें ठहर जाना चाहिये था, सात पुश्त तक नहीं जाना चाहिये था।
प्रतिवादी रिस्पान्डेन्टके वकीलोंने जो अपीलमें बहसकी उसका सारांश यह था कि (तत्सुता) का अर्थ परपोते तकमानना चाहिये । एवं (पितृसन्तान) (सन्तति) (सूनु) शब्दोंके अर्थ देखनेके लिये शब्दकल्पद्रुम पेज २२६३; मिस्टर विलियमस् संस्कृत इङ्गलिश डिकशनरी पेज १०५७, १११८; अमरकोश अ०२-७; कोलबुक का दान्सलेशन पेज १७५ का हवाला दिया गया है।
प्रतिवादीके वकीलोंने अपनी बहसमें जिन नज़ीरों और जिन ग्रन्थोंका हवाला दिया यह हैं
रचपुटीदत्त बनाम राजेन्द्रनरायनराय (1839 ) 2 Moo. I. A. 132, 157; भैय्या रामसिंह बनाम भैय्या उधरसिंह ( 1870) 13 Moo.I. A.373, 392, 393. करमचन्द बनाम उदंगुरैन (1866) 6 W. R. 158 औरियाकुंवर बनाम राजूनेसुकुल ( 1870) 14 W. R. 208; काशीबाई बनाम सीताबाई ( 1911) i3 Bom. L. R. 652, 557. राधेसिंह बनाम झूलेसिंह ( 1855) S. D. A. Bengal. 384; 399. और नये लेखकोंकी राये प्रतिवादीके पक्षको मज़बूत करती हैं, देखो-सर्वाधिकारी हिन्दूलॉ इन्हेरीटेन्स 654, 656; यस० सी० सरकार व्यवस्था चन्द्रिका Vol. 1, P. 183; जी० एन० भट्टाचार्य हिन्दू लॉ 447 से 478 तक जे० सी० घोष हिन्दूला 126, 146. मि० मेन हिन्दूला 4773 ( 1868 ) 12 Moo. I. A. 448. मि० सेटलोरका अनुवादित दायभाग पेज 57. सर एय्यरका अपरार्क पेज 41.
। हाईकोर्टने इस फैसलेमें प्रायः सब बातोपर विचार करते हुये अपनी तजवीज़के आखीरमें फरमाया कि-"अगर आज कलके वकीलोंको मेरी राय स्वीकार हो तो मुझे मि० सर्वाधिकारीकी स्कीम जो सिर्फ मिताक्षराके अनुसार मानी जाती है, मि० हेरिङ्गटनकी स्कीमसे ज्यादा पसन्द है। मुझे इस स्कीममें कोई ऐसा एतराज़ नहीं देख पड़ता है जिसमें कि मैं उस स्कीमको जिसे अगरेज़ जजोंने बिचारा है पसन्द न करूं । मैं बगैर किसी तरहकी शङ्का के इन दोनों स्कीमोंको मांडलीककी स्कीमसे ज्यादा पसन्द करता हूं। जिन्होंने मांडलीककी स्कीम मानी है ऐसे योग्य लेखकोंकी और जजोंकी प्रशंसा करते हुये मैं कहता हूं कि यह स्कीम (पुत्र) और ( सन्तान ) के यथार्थ शब्दोंपर निर्भर है। इन शब्दोंको अगर किताबके साथ पढ़ा जाय तो इनका मतलब बदल जायेगा । हिन्दुओंका आम सिद्धान्त यह है कि-वरासत सबसे पारसके
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सपिण्डोंमें वरासत मिलनका क्रम
सपिण्डको पहुसंगी। इस सिद्धान्तको मांडलीककी स्कीमसे धक्का पहुंचेगा इसलिये मैं इस अपीलको मय खर्चाके डिस्मिस करताई"
___ मतीजा यह निकला कि-मिताक्षरालों के अनुसार पितामहकी तीन पीढ़ियां, प्रपितामह और उसकी औलादसे पहिले वारिस होती हैं। यानी पितामहका प्रपौत्र, प्रपितामहके पौत्रसे पहिले जायदाद पानेका अधिकारी है। इसीलिये ऊपरकी प्रधान लाइनमें तीन पीढ़ी तक वरासत चलकर ठहर जाती है जैसा कि ऊपरके नक्शे दफा ६२४ में दिया गया है। दफा ६२६ सपिण्डोंकी वरासतका दूसरा सिद्धान्त
मदरास हाईकोर्ट के फैसले सुरैय्या बनाम लक्ष्मीनरासामा (1881) 5 Mad. 291. चिन्नासामी बनाम कुंजू (1910) 35 Mad.152.और मांडलीक हिन्दूलॉ पेज 378 के अनुसार यह मानामया है कि हरएक मिनशाखाकी लाइन दो पीढ़ीके बाद ठहर जाती है। दो पीढ़ीके बाद ठहर जानेका यह मतलब सम. झिये कि पहिली प्रधान लाइनमें नीचेकी तरफ तीन पीढ़ी तक जाती है।पीछे ऊपरकी प्रधान लाइनमें पहिली पीढ़ीकी मिन्न शाखामें (बापकी) दो पीढ़ी तक, इसी तरहपर ऊपरकी प्रधान शाखा ६ पीढ़ी तक दो, दो, पीढ़ी।पश्चात् प्रधान लाइनमें नीचेकी तरफ चौथी, पांचवीं और छठवीं पीढ़ी तक । उसके बाद ऊपरकी प्रधान लाइनमें पिताकी लाइनकी मित्र शाखामें तीसरी, चौथी, पांचवीं और छठवीं पीढ़ी तक। इसी तरह पर प्रधान लाइनकी मिन्न शास्त्रामें अन्त तक चार, चार पीढ़ीमें चलकर ५७ पीढ़ीमें समाप्त हो जाती है। इस सिद्धान्तके अनुसार जायदाद पानेका क्रम, यह होगा । देखो
(१) मृत पुरुषकी नीधेकी शास्त्रामें पहिली तीन पीढ़ी, पुत्र, पौत्र,
. प्रपौत्र। (२) विधवा, लड़की, लड़कीका लड़का। (३) मो, बाप और उनकी मिन्न शाखा वाली लाइनमें पहिली दो
पीढ़ी यानी उनके पुत्रं, पौत्र। (१) बांपैकी मा, बापका बोप, (इस जगहके बाद वारिस देखो ऐक्ट
नं०२ सन्१९२६ई. इस प्रकरणके अन्तमें) और उनकी पहिली दो पीढ़ी यानी उसके पुत्र, पौत्र।
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उत्तराधिकार
[नवां प्रकरण
anana
(५) पितामहकी मा, पितामहका बाप, और उनकी दो पहिली पीढ़ी
यानी उनके पुत्र, पौत्र। (६) प्रपितामहकी मा, प्रपितामहका बाप, और उनकी पहिली दो
पीढ़ी यानी उनके पुत्र, और पौटं। (७) प्रपितामहके बापकी मा, प्रपितामहको पितामह, और उनकी
पहिली दो पीढ़ी यानी उनके पुत्र, पौत्र। (८) प्रपितामहके पितामहकी मा, प्रपितामहके प्रपितामह, और
उनकी पहली दो पीढ़ी यानी उनके पुत्र, पौत्र। (१) मृत पुरुषके नीचेकी शाखा में पिछली तीन पीढ़ी यानी प्रपौत्र
- को पुत्र, प्रपौत्रका पौत्र, प्रपत्रिका प्रपौत्र। (१०) यापकी शाखामें पिछली चार पीढ़ी यानी उसके प्रपौत्र,प्रपौत्रका
पुत्र, प्रपौत्रका पौत्र, प्रपौत्रका प्रपौत्र । (११) पितामहकी शाखामें पिछली चार पीढ़ी यानी उसके प्रपौत्र,
प्रपौत्रका पुत्र, प्रपौत्रका पौत्र, प्रपौत्रका प्रपौत्र । (१२) प्रपितामहकी शाखामें पिछली चार पीढ़ी यानी उसके प्रपौत्र,
प्रपौत्रका पुत्र, प्रपौत्रका पौत्र, प्रपौत्रका प्रपौत्र । (१३) प्रपितामहके बापकी शाखामें पिछली चार पीढ़ी यानी उसके
प्रपौत्र, प्रपौत्रका पुत्र, प्रपौत्रका पौत्र, प्रपौत्रका प्रपौत्र। . (१४) प्रपितामहके पितामहकी शाखामें पिछली चार पीढ़ी यानी
- उसके प्रपौत्रं, प्रपौत्रका पुत्र, प्रपौत्रका पौत्र, प्रपौत्रका प्रपौत्र । (१५) प्रपितामहके प्रपितामह की शाखामें पिछली चार पीढ़ी यानी ___ उसके प्रपौत्र प्रपौत्रके पुत्रं, प्रपौत्रके पौत्र, प्रपौत्रके प्रपौत्र ।
इस सिद्धान्तमें यह माना गया कि वापके भाई (चाचा) का लड़का, बमुकाबिले भाईके पोतेके नज़दीकी वारिस होता है क्योंकि यह माना गया है कि दूसरी पीढ़ी वाले हमेशा तीसरी पीढ़ी वालोंसे पहिले वारिस होते हैं। देखो यहांपर भाईका पोता तीसरी पीढ़ीमें है और चाचाका बेटा दूसरी पीढ़ी में, इसलिये भाईके पोतेसे पहिले वारिस हो जाता है। इस सिद्धान्तके अनु. साप नीचेका नक्शा देखो- ..
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वफा ६३७ ].
सपिण्डोंमें वरासत मिलनेका क्रम
दफा ६२७ दूसरे सिद्धान्तका नक्शा मदरास हाईकोर्ट और मि० मांडलीकके सिद्धान्तानुसार।
२८- ~
मा२७
-
मा२३
बा २४
-
मा १६-बी २०
-
१५-बा १६
-
मा ११ -बा१२
। २२ ५० ५५
१८४६५१५
मा ७ - बाद विधवा ४ - मृतपुरुष
मा
.
.
-
लड़कीका ल२
-
४
३
.
ल
.
-
-
-
ल ३२ ल ३३
(१) 'ल' से मतलब लड़केसे है। (२) 'या' से मतलब बापसे है।
(३) 'मा' से मतलब मातासे है। . * इस जगह के वारिस देखो एक्ट नं०२ सन १९२६ ई० इस प्रकरण के अन्त में।
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उत्तराधिकार
[नवां प्रकरण
दफा ६२८ सपिण्डोंकी वरासतका तीसरा सिद्धान्त
तीसरा सिद्धांत मि० हेरिंगटन् साहेयके अनुसार है। यह सिद्धान्त रटचिपुटीदत्त बनाम राजेन्द्र ( 1839 ) 2 M. I.A. 133, 149, 161. के मुक्तइमेमें माना गया था कि हर एक लाइन छठवीं पीढ़ी तक विला किसी रोक टोकके चली जायगी। मगर इस मुकदमे में मिस्टर हेरिङ्गटन साहेबकी तजवीज़से यह नहीं मालूम होता कि प्रपौत्रके पुत्र, पौत्र, प्रपौत्रका स्थान उत्तराधिकारमें कहां है। इतना ज़रूर मालूम होता है कि बापकी छठवीं पीढ़ीवाला यानी बापके प्रपौत्रका प्रपौत्र, दादी और पितामहसे पहिले वारिस होता है। अगर ऐसी बात है तो मृत पुरुषकी छठवीं पीढ़ी तककोभी उससे पहिले जायदाद मिलना चाहिये, यानी उसके प्रपौत्रके पुत्र, पौत्र, प्रपौत्रको इन सबका हक्क दादीले पहिले होना चाहिये।
मि० हेरिङ्गटन साहेबके सिद्धान्तानुसार वरासतका क्रम यह होगा। (१) मृत पुरुषकी नीचेकी शास्त्रामें पहिली तीन पीढ़ी यानी, उसके
पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र। (२) विधवा, लड़की, लड़कीका लड़का। (३) मा, बाप, और उसकी छ:'-''पीढ़ी। (४) मृत पुरुषकी नीचेकी लाइनमें पिछली तीन पीढ़ी। (५) बापकी मा, पितामह, और उसकी छः०-पीढ़ी। (६) पितामहकी मा, पितामहका बाप, और उस की छः पीढ़ी। (७) प्रपितामहकी मा, प्रपितामहका बाप, और उसकी छपीढ़ी। (८) प्रपितामहके बोपकी मा, प्रपितामहका पितामह, और उसकी
छः पीढ़ी। (१) प्रपितामहके पितामहकी मा,प्रपितामहकाप्रपितामह, और उसकी
छः पीढ़ी। देखो--घेस्ट और बुहलर साहेबका हिन्दूला तीसरा एडीशन पेज १२४, १२५.
मि० हेरिङ्गटन साहेबके सिद्धान्तके अनुसार बापकी नीचेकी छठवी पीढीको पहिले उत्तराधिकारमें जायदाद मिलती है। यह बात इलाहाबाद हाईकोर्टने पूर्णतया स्वीकार नहीं की और जहां तक मालूम होता है किसी हाईकोर्टमें यह राय अब स्वीकार नहीं की जाती।
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सफा ६२८-६२६]
सपिण्डोंमें वरासत मिलनका क्रम
दफा ६२९ तीसरे सिद्धान्तका नक्शा
मिस्टर हेरिङ्गटन साहेब के सिद्धान्त के अनुसार । किन्तु आज कल यह माना नहीं जाता।
।
मा४२-बा४३
।
। ।
३६ ४५ ५४
।
।
R३६
विधवा ४
मृतपुरुष
.
TOE
.
.
लड़की ५
A
१ २३ ३२१
लड़कीका लड़का ६
....
१२
२४
३३
१३ २५
(१)?' यह निशान निश्चित नहीं है, मुमकिन है कि न० १५, १६,
१७ का स्थान हो। (२) 'ल' से मतलब 'लड़का' और 'या' से 'बाप' और 'मा'से
'माता' है। नोट-यह मिस्टर हेरिंगटन् साहेवका सिद्धान्त उपरोक्त 2 M. I. A. 133, 1493 161. में मानागया था जिससे यह नतीमा निकला कि हर एक मित्र शाखाकी लाइन सीधी : पादा तक चली जायगी, जैसा कि ऊपरके नकशेसे मालूम होगा।
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- उत्तराधिकार
[नवां प्रकरण
दफा ६३० तीनों सिद्धान्तोंका फरक - उत्तराधिकार तीन सिद्धान्तोंके अनुसार विभक्त किया गया है, (देखो ६२३ से ६२६ )। इनमें से पहिला सिद्धान्त प्रोफेसर सर्वाधिकारी डाक्टर जाली, मिस्टर मेनसाहेब और डाक्टर जोगेन्द्रनाथ भट्टाचार्यके अनुसार है, इस सिद्धान्तको जैसाकि इस किताबकी दफा ६२३, ६२४ में बताया गया है इसीको जस्टिस बनरजी और जस्टिस पिगटने मिस्टर हेरिङ्गटनकी स्कीमको 'पसन्द करते हुये प्रोफेसर सर्वाधिकारीके क्रमको माना है (देखो दफा ६२५). इस सिद्धान्तके अनुसार भाईका पोता चाचाके बेटेसे पहिले वारिस होगा और जायदाद पायेगा । अब प्रायः यही सिद्धान्त माना जाता है।
ऊपर कहे हुए जो तीनों सिद्धान्तों में फरक है वह मिताक्षरामें (पुत्र) के अर्थमें भेद पड़ जानेसे यानी एक जगहपर (पुत्र) के मतलबमें भेद होने पर और दूसरी जगह (पुत्र) और ( सन्तान) के मतलबमें भेद होनेसे पड़ गया है। मिताक्षरामें कहा गया है कि-- .. "भ्रातृणामप्यभावे तत्पुत्राः पितृक्रमेण धनभाजः” ।
भाइयोंके भी न होनेपर उनके पुत्र पिताके लिहाज़से जायदादमें भाग पावेंगे और आगे चलकर मिताक्षरामें यह भी कहा गया है कि
"तत्रच पितृसन्तानाभावे पितामही पितामह पितृव्यास्तत्पुत्राश्चक्रमेणधनभाजः पितामहसन्तानाभावे प्रपितामही प्रपितामहस्तत्पुत्रास्तत्सूनवश्वेत्येव मा सप्तमात्समानगोत्राणां सपिण्डानां धनग्रहणंवेदितव्यम्"
मतलब यह है कि पिताकी सन्तानके न होनेपर दादी (पिताकी मा) दादा ( पिताका बाप) चाचा और उसके लड़के क्रमसे जायदाद पाते हैं। इसी तरहसे दादाकी सन्तान न होनेपर पितामहकी मा, प्रपितामह, और उसके लड़के और उनके लड़के । इसी प्रकार सात पीढ़ी पर्यन्त सगोत्र सपिएडोंको जायदाद मिलेगी।
पहिले सिद्धान्तके अनुसार (पुत्र) का मतलब बेटे, पोतेसे लिया गया है और (सन्तान) का मतलब नीचेकी तीन पीढ़ी तक जैसाकि मृत पुरुषकी सन्तान के बारेमें अर्थ किया गया 'अपुत्रस्य' पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र रहितस्य पुरुषस्य।
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दफा ६३०-६३१]
समानोदकोंमें घरोसत मिलनेका क्रम
दूसरे सिद्धान्तके अनुसार (पुत्र) का मतलब सिर्फ लड़केसे है। इस दूसरे सिद्धान्तमें पुत्र शब्दमें पौत्रका अर्थ होना नहीं मानाजाता और (संतान) का मतलब नीचकी दो पीढ़ी तकका लिया गया है। . - तीसरे सिद्धान्तके अनुसार (पुत्र) और (सन्तान) का मतलब हर एक पूर्व पुरुषकी लाइन में उसकी छः पीढ़ी तक माना गया है। यही सपब है. कि तीनों सिद्धान्तोंमें फरक पड़ गया। अधिक देखना हो तो 34 All. 663. का केस देखो। साधारणतः हमने उत्तराधिकारके सिद्धान्तोंका दिग्दर्शन, करा दिया है।
(४) समानोदकोंमें वरासत मिलनेका क्रम
समानोदक नीचे लिखे क्रमानुसार उत्तराधिकारी होते हैं
दफा ६३१ समानोदकोंमें उत्तराधिकारका क्रम
किसी सपिण्डके न होनेपर वरासत 'समानोदक' को मिलेगी--(देखो दफा ५८८, ५६३) समानोदकोंमें भी वही क्रम माना जावेगा जैसा कि सपिण्डमें माना गया है, यानी नज़दीकी समानोदक दूरके समानोदकसे पहिले वारिस होनेका अधिकार रखता है। अर्थात् नज़दीकी कुटुम्बी समानोदकका हक्क दूरके कुटुम्बी समानोदकसे पहिले होगा और नज़दीकी कुटुम्बी समानो दकमें नज़दीकी रिश्तेदारका हक़ पहिले होगा। देखो, नकशा दफा ६२४...
समानोदक किसे कहते हैं यह बात इस किताबकी दफा ५८८ में बताई गयी है। मिताक्षरामें समानोदकके लिये कहा गया है कि
'तेषामभावे समानोदकानां धनसम्बन्धः
तेच सपिण्डानामुपरिसवेदितव्याः' ।
सपिंडके अभावमें समानोदक जायदाद पावेंगे, वह सात सपिण्डोंके ऊपरसे शुमार किये जाते हैं।
नीचेके नकथेमें जो क्रम बताया गया है उसी क्रमके अनुसार मृत पुरुषकी जायदाद मिलेगी। यह क्रम केवल ५७ डिगरी तक ठीक समझना। समानोदकोंका फैलाव चौदह डिगरी तक हमने ननशेमें जाहिर किया है मगर यह निश्चित नहीं है कि समानोदक इतनेही होते हैं। चौदह दर्जेके पश्चात् समानोदक वारिसका कोई केस हमें नहीं मिला।
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.... उत्तराधिकार -
[नो प्रकरण
PAARAMAme.
समानोदक और साकुल्य- यद्यपि प्रत्येक व्यक्तिको यह अधिकार है कि वह किसी अन्य व्यक्तिको पानीका पिण्ड दे, किन्तु कानून उत्तराधिकार द्वारा पाक्य समानोदकमें एक परिमित वर्गको ही विशेषता दीगई है। प्रत्येक व्यक्ति जो पानी देनेका अधिकारी है, वारिस नहीं हो सकता: किन्तु समानोदकोंमें से केवल वही उत्तराधिकारी हो सकते हैं जो समानोदकके होते हुये साकुल्य भी हों, यानी उनका सम्बन्ध मुतवफीके खान्दानसे मी हो। मा के सम्बन्धियोंका शुमार साकुल्यमें नहीं होता--शम्भूचन्द्र देबनाम कार्तिक चन्द्र दे--A. I. R. 1927 Cal. 11.
नम्बर ५७ तक के वारिसोंका क्रम दफा ६२४ में ठीक बताया गया है आगेके नम्बरोंका क्रम भी उसी प्रकार समझ लीजिये जो सिद्धान्त ५७ पीढ़ी के क्रम निश्चित करने में माना गया है वही समानोदकोंमें समझना, सिद्धान्त देखो ६२३-६२५. दफा ६३२ समानोदकोंका नक्शा देखो
(५) बन्धुओंमें वरासत मिलनेका क्रम
अब हम उत्तराधिकार में बन्धुओं के बरासत पानेका विषय वर्णन करते हैं । बन्धुओंका क्रम पेंचीदा है। दफा ५८१ के नकशेके सिद्धान्तको प्यानमें रखिये । मिताक्षराने जो सिद्धान्त सपिण्ड निश्चित करनेमें माना है वही बन्धुओंमें भी माना है । सपिण्ड और बन्धुमें कोई भेद नहीं है क्योंकि दोनों का सम्बन्ध शारीरिक सम्बन्धके द्वारा पैदा होता है, भिन्न गोत्र होनेसे शारीरिक सम्बन्धमें कोई बाधा नहीं पड़ती । बन्धुओंका यह विषय पढ़नेसे पहले तीन बातोंपर अवश्य ध्यान रखना । (१) सपिण्डके सिद्धान्तों को स्मरण रखते हुए आप यह विचार करें कि माता-पिताके शरीरके अंश पुत्र, पौत्र और प्रपौत्र में कमसे कमती होते जाते हैं, यानी ऐसा मानों कि पुत्रका शरीर ६०० अंशोसे बना है तो ३०० अंश माताके शरीरसे और ३०० अंश पिताके शरीरसे आये एवं पौत्रके शरीरमें, दादी-दादाके शरीरके अंश डेढ़, डेढ़ सौ आये, तथा प्रपौत्रके शरीरमें परदादी-परदादाके शरीरके अंश पचहत्तर, पचहत्तर आये । इससे यह बात स्पष्ट हो गयी कि पुत्रके शरीरमें माता-पिताके शरीर के अंश सबसे ज्यादा हैं । अब यह विचार कीजिये कि पुत्रमें यदि माता-पिताके शरीरके अंश सबसे ज्यादा हैं तो लड़कीमें भी उतने ही अंश हैं क्योंकि पुत्र और लड़की एक ही माता-पितासे जन्मे हैं अर्थात लड़कीके शरीरमें भी माता-पिता के शरीरके अंश तीन, तीन सौ मौजूद एवं लड़की की लड़कीके शरीरम डेद, डेढसौ अंश और लड़की की बेटीकी लड़कीके शरीरमें पचहत्तर पचहत्तर अंश मौजूद हैं । लड़कियों की लाइनकी सन्तान बन्धुओंके अन्तर्गत है । नतीजा यह निकला कि जिस सिद्धान्तसे पुत्रकी लाइनमें सगात्र सपिण्ड निश्चित किया
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दफा ६३२-६३३]
बन्धुओंमें वरासत मिलनका क्रम .
जाता है उसी सिद्धान्तसे लड़कीकी लाइनमें भिन्नगोत्रन सपिण्ड निश्चित किया जाता है । मित्रगोत्रन सपिण्डको बन्धु कहते हैं । बन्धुकी गणना कहांसे और कैसे की जाय, यह प्रश्न अब साफ होगया कि नहांसे और जैसे सविण्डकी गणनाकी जाय उसी तरह बन्धुकी भी। देखिये सपिण्डमैं सबसे पहले पुत्र को गिनते हैं, बन्धुमें सबसे पहले लड़कीके लड़केको गिनते है । लड़कीका लड़का यद्यपि बन्धु है, और बन्धुकी हैसियतसे उसका यही स्थान है किन्तु आचार्योके खास वचनोंके अनुसार उसे सपिण्डके साथ बारिस मान लिया है देखो दफा ६०६, ६२४. इसलिये अब सबसे पहले पुत्रकी लड़कीका लडका बन्धु माना जाता है । सपिण्डमें पौत्रका दर्जा दूसरा है, बन्धु पौत्रकी लड़कीके लड़केका दर्जा दूसरा है। मिताक्षरामें जिन बन्धुओंका नाम लिया गया है वे उदाहरणकी तौरपर कहे गये। देखो दफा ५९७. (२) प्रपौत्रकी बात परभी विचार कर लीजिये । सपिण्डम प्रपौत्र शामिल है किन्तु बन्धुमें नहीं। ऐसा क्यों हुआ ? उत्तर यह है कि प्रपौत्र पूर्ण पिण्डकी हद है, वह खुद सपिण्डमें शामिल है, किन्तु उसकी सन्तान नहीं । इसलिये जब प्रपौत्रकी सन्तान नहीं शामिल हो सकती तो बन्धुका सम्बन्धही नहीं पैदा होगा दफा ३९९ के २-४ सिद्धान्तको देख लीजिये । सपिण्डमें प्रपौत्रके पुत्रसे पहले विधवा, लड़की, लड़कीका लड़का, और माता क्रमसे वारिस मानी गयी हैं। इनमें किसीसे भी बन्धु नहीं बन सकता क्योंकि विधवा तो पुत्र और लड़कीका शरीर बनाती है और स्त्री-पुरुष दोनों मिलकर शरीर पैदा करते हैं, लड़की और लसीके लड़केकी बात ऊपर कह चुके हैं । मातासे बन्धु इसलिये नहीं बन सकताकि माता और पिता दोनोंके शरीरसे मृतपुरुषका शरीर बना है जिसके सम्बन्धसे बन्धुका विचार किया जाता है। अपने और अपनी बहनके शरीरमें माता-पिताके शरीरिक शोंकी समानता है इसलिये पुत्रकी लाइनके बाद जब ऊपरकी लाइनमें बन्धु विचार किया नायगा तो कहनकी पुत्र तीसरा बन्धु होगा, इसी प्रकार समझिये । (३) बन्धुओंके वरासत पानेका क्रम ६३७१ ३३८६ ६३९. दफामें कहा गया है यह ध्यान रखना कि बन्धुओं की संख्या १२३में समाप्त नहींहो जाती लेकिन हम देखते हैं कि बहुतेरे लोगोंका जायदाद पानेका हक कानूनन पैदा हो जाता है किन्तु वे अपना हक नहीं समझते ऐसी दशामें दूसरे लोग जो उनके मुकाविलेमें हक नहीं रखते जायदादपर काबिज हो जाते हैं या उसे लावारिसीमें सरकार जन्त कर लेती है सपिण्डकी हैसियतसे ५. और समानोदककी होसियतसे १४७ तथा बन्धुकी हैसियतसे १२५ यानी कुल ३२७ वारिस तो इस ग्रन्थमें स्पष्ट बताये गये हैं देखो दफा ६२४, ६३२१३८-६३९; फिर भी वारिसोंकी संख्या समाप्त नहीं है। दफा ६३३ बन्धु किसे कहते हैं
मिताक्षरा में कहा है कि
'भिन्नगोत्राणां सपिण्डानांबन्धु शब्देन गृहणात्'
मिन्नगोत्र सपिडोंको बन्धु कहते हैं। बन्धु और मिन्नगोत्र सपिडमें फरक नहीं है (दफा ५८१ ) बन्धु, स्त्री सम्बन्धी रिश्तेदार होते हैं केवल मर्द सम्बन्धी रिश्तेदार नहीं होते, 'वन्धु' वह रिश्तेदार कहलाते हैं जिनका सम्बन्ध एक या एकसे ज्यादा स्त्रियोंके द्वारा होताहो । बन्धु किसे कहते हैं ? देखो इस किताब की दफा ५६०, ५१.
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७६.
- ....
उत्तराधिकार- ..
[नवां प्रकरण
7. : हर एक बन्धुको मृतपुरुषका कमसे कम एक स्त्री द्वारा ज़रूर ही सम्बन्ध होना चाहिये, दो स्त्रियोंके द्वारा जो सम्बन्ध होता है वह भी बन्ध कहलाते हैं। देखो-कृष्णा बनाम बेंकट राम 29 Mad. 115; वेंकटगिरि बनाम चन्द्ररू 23 Mad.123; पारोट बापालाल बनाम महता हरीलाल19Bom.631. और जहांपर दो स्त्रियोंसे ज्यादाके द्वारा सम्बन्ध जुड़ता हो तो उसे भी वन्धु कहते हैं अर्थात् मृतपुरुष और जिल रिश्तेदारके बीचमें कोई पूर्वज स्त्री हो तो वह भी बन्धु कहलायेगा। दफा ६३४ मिताक्षराके बन्धु-मिताक्षरा
"वन्धवश्व त्रिविधाः प्रात्मबन्धवः पितृ बन्धवो मातृबन्धवश्वेति । यथोक्रम् । अात्म पितृष्वसुः पुत्रा प्रात्ममातृध्वसुः सुताः । आत्ममातुलपुत्राश्च विज्ञेयाह्यात्मवान्धवाः ।। पितुः पितृष्वसुः पुत्राः पितुर्मातृष्वसुः सुताः। पितुर्मातुलपुत्राश्व विज्ञेयाः पितृबान्धवाः ॥ मातुः पितृष्वसुः पुत्रों मातुर्मातृष्वसुःसुताः मातुर्मातुल पुत्राश्व विज्ञेया मातृवान्धवाः ॥इति।।तत्र चान्तरङ्गत्वात्प्रथममात्मबन्धवो धनभाजस्तदभावे पितृबन्धवस्तदभावे मातृबन्धव इति कमो वेदितव्यम ॥" . मिताक्षरामें बन्धु तीन तरहके माने गये हैं--(१) आत्मबन्धु-अपने बन्धु । (२) पितृबन्धु--बापके बन्धु । (३) मातृ बन्धु-माके बन्धु । ... इन तीनों बन्धुओंमें हर एकके अन्दर तीन, तीन रिश्तेदार हैं । जैसे
मिताक्षरामें कहे हये बन्धु
मिताक्षरामें कहे हुए बन्धु यह हैं-- १.१२-पितृष्वसुः पुत्राः । बापकी बहनके लड़के-बुवाके लड़के २३२-मातृष्वसुः सुताः माकी बहन लड़क-मौसीक लड़के ३३-मातुल पुत्रा:- माकं भाई के लड़के-मामाक लड़क ११:पितु:पितृष्वसुःपुत्राः पितामहकी बहनके लड़के-दादाकी बहन लड़के २२ पितुर्मातृष्वसुःसुताः पिताकी माकी बहन के लड़के ३६३-पितुर्मातुल पुत्राः । पिताकी माके भाईक लड़के १.११-मातुःपितृष्वसुःपुत्राः माके बापकी बहन के लड़के-नानाकी बहनके पुत्र २२-मातुर्मातुष्वसुःसुताः .माकी माकी बहन के लड़के-नानीकी बहनके पुत्र ३३-मातुर्मातुलपुत्राः माकी माके भाई के लड़के-नानीके भाईके पुत्र.
सं.ना
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'ध आत्म
م ا م ا
س
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दफा ६३४-६३५]
बन्धुओंमें वरासत मिलनेका फ्रेम
पहिले ऐसा ख्याल किया जाता था कि मिताक्षरामें जो९ क्रिस्मके बन्धु बताये गये हैं सिर्फ इतनेही होते हैं। मगर अब उसका अर्थ ऐसा माना जाता है कि मिताक्षरामें जो बन्धु बताये गये हैं वह बन्धुओंकी तादादको खतम नहीं कर देते; यानी सिर्फ ६ ही बन्धु नहीं हैं । ६ से ज्यादा भी होते हैं । यह . ६ बन्धु जो मिताक्षरामें बताये गये हैं वह केवल उदाहरणकी तरहपर बतायें गये हैं। देखो दफा ५६७. दफा ६३५ बन्धुओंके क्रमके सिद्धान्त
(१) मिताक्षरामें बताये हुए तीन किस्मके बन्धुओंमेंसे पहले आत्म बन्धु वारिस होंगे और उनके न होनेपर पितृबन्धु और उनके भी न होनेपर मातृबन्धु । देखो 19 Mad. 405; 33 I. A. 83; 28 Bom. 453..
(२) जब कभी मिताक्षरामें कहे हुए एकही दर्जे के कई एक बन्धु जीवित हों तो जिस बन्धुका नाम पहले लिया गया है वह पहले वारिस होगा देखो-33 Mad. 439.
(३) मिताक्षरामें बताये हुए बन्धुओंके अलावा अदालतने जिन बन्धुओं को अधिक माना है उनके बीचमें यह सिद्धान्त लागू होगा कि बापके सम्बन्धसे जो बन्धु होते हैं वे माताके सम्बन्ध वाले बन्धुओंसे पहले जायदाद पावें । देखो 18 Mad. 193; 20 Mad. 342.
(४) ऊपरके नियमोंको मानते हुए यह सिद्धान्त माना गया है कि नज़दीकी लाइन वाला बन्धु, दूरकी लाइन वाले बन्धुसे पहले वारिस होता है। देखो 20 Mad. 3423 29 Mad. 115.
(५) ऊपरके नियमोंको मानते हुए जहांपर कि ऐसे दो बन्धु हों जो एकही पूर्व पुरुष द्वारा मृत पुरुषसे सम्बन्ध रखते हों वहांपर यह सिद्धान्त माना जायगा कि पासके दर्जेवाला बन्धु, दूरके दर्जे वाले बन्धुसे पहले वारिस . होगा। देखो-5 Bum. b97.
(६) ऊपरके सब नियमोंको मानते हुए जहांगर एक ही पूर्व पुरुषक सम्बन्धसे एक ही दर्जेके दो या ज्यादा बन्धु हों वहांपर यह सिद्धान्त माना जायगा कि जिस बन्धुका सम्बन्ध मृतपुरुषसे एक स्त्रीके द्वारा है वह पहले वारिस होगा, बमुनाविले उस बन्धुके जिसका सम्बन्ध दो स्त्रियों या ज्यादासे है। देखो-30 Mad. 405; 33 Mad. 439.
(७) यह सिद्धान्त माना गया है कि परिवारकी लड़कियोंके पत्र पहले वारिस होंगे उनके न होनेपर परिवारकी लड़कियोंके लड़कोंके लड़के वारिस होंगे और उनके भी न होनेपर परिवारकी लड़कियों की लड़कियों के पत्र वारिस होंगे । देखो दफा ६३८, ६३६.
96
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उत्तराधिकार
[नवां प्रकरण
(८) उक्त नम्बर ७ के अनुसार यह माना गया है कि पहले आत्मबन्धु वारिस होंगे पीछे पितृबन्धु और उसके पीछे मातृबन्धु वारिस होंगे। एक ही दर्जेके अनेक वारिसोंमें जिसका नाम पहले कहा गया है वह वारिस होंगे। दफा ६३६ बन्धओंका सामान्य सिद्धान्त बंगाल स्कूलके अनुसार
आमतौरपर बन्धुओंके लिये जो सिद्धान्त माना गया है वह यह है कि पितृपक्षके सात पूर्वजोंके हर एककी पांच डिगरी तक, और इसी तरहपर मातृपक्षके पांच पूर्वजोंके हर एककी पांच डिगरी तक जो स्त्री द्वारा रिश्तेदार होते हैं वह सब बन्धु कहलाते हैं । इसका कारण यह है-कि याज्ञवल्क्यने कहा है कि
'पञ्चमात्सप्तमादूर्ध्वं मातृतःपितृतस्तथा' [देखो दफा ५१]
इसी आधारसे अदालतोंमें ऊपरका सिद्धान्त मान कर बन्धुओंका फैलाव किया गया है। दफा ६३७ बंगाल स्कूल के अनुसार कलकत्ता हाईकोर्ट की राय ___कलकत्ता हाईकोर्टने, उम्मेद बहादुर बनाम उदयचन्द (1880) 6 Cal. 119; के मुक़द्दमे में यह करार दिया कि 'सपिण्डता एक दूसरेमें होना चाहिये। इसका नतीजा यह निकाला गया कि पितृपक्षमें पांच डिगरी तकके पूर्वज लिये गये, सात डिगरी तकके नहीं। अगर हम कलकत्ता हाईकोर्टके अनुसार बन्धुओंको निश्चित करना चाहें तो हर एक बन्धु नीचे लिखे हुए आदमियोंके पांच डिगरीके अन्दर किसी स्त्री द्वारा सम्बन्ध रखने वाला होना चाहिये।
(१) मृतपुरुष.
(२) मृतपुरुषके पितृपक्षके पूर्वज पांच डिगरीमें, यानी चार पूर्वज बार्प, दादा, परदादा, नगड़दादा ।
(३) मृतपुरुषके बापके मातृपक्षके पूर्वज पांच डिगरीके अन्दर यानी दादीका बापं, दादीकादादा, दादीकापरदादी ।
(४) मातृपक्षके पूर्वज पांच डिगरीमें,यानी नानी, परनाना,नगड़नाना।
(५) मृतपुरुषकी माके मातृपक्षके पूर्वज पांच डिगरी तक यानी नानी का बांप और उसका दांदा.
नीचे दिया हुआ नक़शा देखो। इस ननशेमें सब पांच डिगरियोंमें हैं मगर नम्बर ७ 'बापकी माका परदादा' छठवीं डिगरीमे हैं। इसकी गणना करनेमें दादी नम्बर २ का शुमार नहीं किया गया इसलिये उसे भी पांच डिगरीके अन्दर माना है।
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दफा ६३६ - ६३७ ]
बाप ७
बाप ६
बाप ५
मा २
बाप १
बन्धुओंमें वरासत मिलने का क्रम
बाप ४
बाप ३
बाप २
बाप १०
बाप ६
T
बाप ५
मा १
मृत पुरुष
लड़की
७६३
बाप १२
1
बाप ११
1 मा ३
मृत पुरुष
कलकत्ता हाईकोर्ट की रायके अनुसार ऊपर बताये हुए आदमियोंकी पांच डिगरी तककी औलादमें से मृतपुरुष के स्त्री द्वारा रिश्तेदार सबही बन्धु नहीं होते बक्लि इस हाईकोर्ट में यह माना गया है कि कोई आदमी बन्धु नहीं हो सकता जब तक कि मृतपुरुष उसके नानाकी या उसके बापके नानाकी या उसकी मार्के नानाकी लाइनमें न हो। इस सिद्धान्त के अनुसार हर सूरत में नीचे बताये हुए रिश्तेदार यद्यपि पांच पीढ़ी के अन्दर हैं मगर बन्धु नहीं माने जायेंगे । जैसे -- ( १ ) लड़की की लड़कीके लड़केका लड़का ( २ ) लड़की के लड़केके लड़केका लड़का ।
लड़का
लड़की
लड़का
लड़का
लड़का (२)
- लड़का ( १ )
ऊपरके नक़शेमें जहांपर मृतपुरुष लिखा है उस स्थानको मृतपुरुष या मृतपुरुषकी लाइनमें किसी पूर्वजको मानो । नम्बर १ और २ के नाना या उसके बापके नाना या उनकी माके नानाका 'मृतपुरुष' का स्थान नहीं हो सकता; अर्थात् 'मृतपुरुष' नम्बर १ और २ का नाना, या उसके बापका नाना, या उनकी माका नाना, नहीं है और न उनकी लाइनमें है; इसीलिये नम्बर १ और २ मृतपुरुष बन्धु नहीं हैं।
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७६४
उत्तराधिकार
[नर्वा प्रकरण
कलकत्ता हाईकोर्टकी पेंचीदा रायका सारांश हमने ऊपर बताया। अब आगे इसी रायके अनुसार बन्धुओंको फैलाकर समझाते हैं ।
५८-६८ बाप ७
२६-३५ बाप ४ ४७-५७ बाप ६
६१-१०१ बाप १० ११३-१२३ बाप १२
२२-२८ बाप३ ३६-४६ बाप ५
८०-१० बाप
१०२-११२ बाप ११
१५-२१ बाप २
मा५
मा ५
६-७४
६६-७६ चाप
मा३
८-१४ बाप १
मृतपुरुष
___लड़की
लड़का १
लड़की
(१) लड़का ३ लड़का २
लड़की
(४)लड़का ६ (६)लड़का ५ लड़की
(२)लड़का लड़की लड़का ११ +
लड़का१०+ (३)लड़का (७)लड़का लड़का (१) नम्बर १,२मृतपुरुषका लड़का और पोता है। यह दोनों सपिण्ड हैं।
(२) नं० ३ लड़कीका लड़का, नं० ४ लड़केकी लड़कीका लड़का, नं० ५ लड़कीके लड़केका लड़का, नं० ६ लड़कीकी लड़कीका लड़का है।।
(३) नं०७ मृत पुरुषके पोतेकी लड़कीका लड़का, नं०८ लड़केके लड़कीके लड़केका लड़का, नं० ६ लड़केकी लड़कीकी लड़कीका लड़का है।
(४) नं० १० +लड़कीके, लड़केके लड़केका लड़का, और नं० ११ + लड़कीकी लड़कीके लड़केका लड़का है । यह दोनों बन्धु नहीं हैं क्योंकि इनमें घही कायदा लागू पड़ता है जो ऊपर कहा गया है। . (५) ऊपर नं०१ और २ सपिण्ड हैं तथा नं० १० और ११ बन्धु नहीं माने जाते । इसलिये इन चारोंको छोड़कर बाकी सात रिश्तेदार मृत पुरुषके बन्धु हैं, अर्थात् नं० ३, ४, ५, ६,७,८,६, यह सात बन्धु हैं देखो जिनमें कोष्ट () बना हुआ है।
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दफा ६३७]
बन्धुओंमें धरासत मिलनेका क्रम
७६५.
www
(६) जिस तरह पर कि ऊपर कहे हुये (कोष्टके नं० ३ से १ तक) सात रिश्तेदार मृत पुरुषके बन्धु बताये गये हैं उसी तरहपर मृत पुरुषके बाप की पितृपक्षवाली लाइन (दाहने तरफ नं०१ से ४ देखो) में चारों पूर्वजोंमें से हर एकके यह सात (नीचेकी शाखाके कोष्टके नं० ३ से १ तक ) रिश्ते. दार मृत पुरुषके बन्धु होंगे इस तरह पर चारों पूर्वजोंके द्वारा २८ बन्धु होंगे। अर्थात् कोष्टके नं०३ से १ तक सात बन्धु नीचेकी शाखामें बताये गये, अब ऊपरकी शाखामें देखो. १ बापका स्थान है। बाप और बापके तीन पूर्वज मिलाकर ४ हुये, इनके प्रत्येकके सात सात रिश्तेदार जो नीचेकी शाखामें कोष्ट में बताये गये हैं जोड़नेसे २८ हुये । इस २८ में नीचेके ७ बन्धु और जोड़ दो तो ३५ होंगे यही क्रम बापके बायें तरफ ८-१४ के रूपमें ३५ बन्धुतक दिखाया
गया है।
(७) इसी तरह पर मृत पुरुषके बाकीके सब पूर्वजोंमें से (दाहिने तरफ ५ से १२) हर एक पूर्वजके, इन सात रिश्तेदारोंके अलावा, उनके बेटे, पोते, परपोते और परपोतेके लड़के भी मृत पुरुषके बन्धु होंगे। एवं इन सब पूर्वजों में से हर एक के ११ रिश्तेदार मृत पुरुषके बन्धु होंगे इसलिये कुल बन्धु इन पाठ पूर्वजोंके द्वारा ८८होंगे । अर्थात् दाहिने तरफके नं०५ से १२ तक ८ पूर्वज (३ पितृपक्षके और ५ मातृपक्षके) हैं। इन प्रत्येकके ११ रिश्तेदार और मिलाओ तो ८८ हुये । इन ८८ में पहलेके ३५ बन्धु भी जोड़ो तो १२३ बन्धु -होते हैं। यही क्रम ३६-४६ के रूपमें बाये तरफ ननशेमें दिखाया गया है। .
. मृत पुरुषके कुल बन्धु यह होते हैं- १-मृत पुरुषकी औलादमें से
२-उसके पिताके पितृपक्षके चार पूर्वजों द्वारा ... २८ ३-उसके दूसरे पूर्वजों द्वारा
___ कुल जोड़ १२३ नोट-लड़कीका लड़का यद्यपि बन्धुहै मगर वह वरासतमें मासे पहिले अधिकारी है।
नाना-ऊपरकी शाखा वाले बन्धुओंमें नानाका बन्धु होना सबने स्वीकार किया है और अदालतमें नानाके बन्धु माने जानेके बारे में फैसले भी हुये हैं । मगर यह नहीं समझ लेना चाहिये कि ऊपरवाली शाखामें सिर्फ नानाही बन्धु होगा, बलि अपने नानाके सिवाय बापका नाना और मा का नाना भी बन्धु माना गया है।
ऊपर जो १२३ बन्धु कलकत्ता हाईकोर्ट के अनुसार बताये गये हैं वह तीन किस्मके हैं योनी आत्मबन्धु, पितृबन्धु और मालबन्धु। . . , ...
...
८८
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'उत्तराधिकार
[ नवां प्रकरण
rammar
(१) आत्मबन्धु-वह हैं जो अपनी, अपने बापकी, दादाकी, नाना की औलादमें बन्धु होते हैं यानी अपने, और नम्बर १, २ तथा नम्बर ८ की औलादमें जो बन्धु होते हैं।
(२) पितृबन्धु--पितृपक्षके बानीके पूर्वजोंकी औलादमें जो बन्धु होते हैं यानी नं० ३, ४, ५, ६, ७ वाले पूर्वजोंकी औलादमें जो बन्धु होते हैं ।
(३) मातृवन्धु-माताकी तरफके बाकीके पूर्वजोंकी औलादमें जो बन्धु होते हैं यानी नं० ६ से १२ तककी औलादमें जो बन्धु होते हैं। दफा ६३८ मिताक्षरा स्कूल के अनुसार बन्धु
__ यह ध्यान रखना कि मिताक्षरामें जो । बन्धु बताये गये हैं वे उदाहरणकी तरहपर माने जाते हैं (देखो दफा ५६७ ६३४) मिताक्षराला और मयूखला के बन्धुओंमें अन्तर नहीं है देखो 19 Bom. 631. मृत पुरुषके बन्धु तीन तरह के होते हैं अर्थात् (१) परिवारकी लड़कियोंके लड़के; (२) परिवारकी लड़कियोंके लड़कों के लड़के (३) परिवारकी लड़कियोंकी लड़कियों के लड़के । ये तीनों तरहके बन्धु दफा ६३५-७, ८ के अनुसार जायदाद पाते हैं। तक्त तीन तरहके बन्धु इस प्रकार समझिये।
पिताकी | पितामहकी तीन तरहके बन्धु मृत पुरुषकी शाखा
शाखा २-पुत्रकी लड़कीके लड़के
एवं कियोंक लड़के । ३-पौत्रकी लड़कीके लड़के
एवं २-परिवारकी लड़। १-लड़कियोंके लड़कोंक लड़क कियोंके लड़कों| २-लड़कोंकी लड़कियोंके लड़- एवं के लड़के
कोंके लड़के ३-परिवारकी लड-१-लड़कियोंकी लड़कियोंक
| २-लड़कियों की लड़कियोंकी
शाखा
१-परिवारकी लङ- १-लड़कीके लड़के
कियोंकी लडकि
लड़के
योंके लड़क । लड़कियोंके लड़के
इसी सिद्धान्तके अनुसार दफा ६३६ के चारों नकशे देखिये। मिताक्षरालॉके अनुसार डाक्टर जोगेन्द्रनाथ भट्टाचार्यने अपने हिन्दूलॉके दूसरे एडीशन पेज ५६०-४६२में तथापंथराजकुमार सर्वाधिकारीने अपने हिन्दूला आव् इनहेरीटेन्सके पेज७०७,७१२ (१), (b) में बन्धुओंके रिक्थाधिकारका जो क्रम माना है नीचे लिखता हूं। यही क्रम सर अर्नेस्ट जान दिवेलियन,डीसीव्यल० नेअपने हिन्दूलॉके दूसरे एडीशन पेज ३८२-३८४ में और सी०यस०रामकृष्ण बी०ए०बी०यल ने अपने हिन्दूलॉ जिल्द २ सन १९१३ ई० पेज १६२-१६५
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दफा ६३८]
बन्धुओंमें वरासतं मिलनका क्रम
में माना है। मि० जान डी. मेनने अपने हिन्दूलों के सातवां एडीशन पेज ६८२-६६६ तकमें बन्धुओंकी व्याख्या की है। गम्भीर विचार करनेके बाद भट्टाचार्यके मतके विरुद्ध नहीं जाते। और भी देखिये मुटु सामी बनाम मुटूकुमारासामी 16 Mad 23 में माना गया कि मिताक्षरामें जो बन्धुओं की लिस्ट दी है अपूर्ण है लेकिन बन्धुओंकी जो लिस्ट उक्त दोनों (डाक्टर जोगेन्द्रनाथ भट्टाचार्य और पं० राजकुमार सर्वाधिकारी) लेखकाने दी है वह बहुत कुछ माननीय और पूर्ण है। यही बात 23 I. A. 83, 19 Mad. 4057 में मानी गयी । उक्त भट्टाचार्य और सर्वाधिकारीके मतानुसार बन्धुओंके उत्तरा धिकार पानेका क्रम इस प्रकार है । इस क्रमके साथ ६३६ दफाके नक्रशोको देखो। बन्धुओंका क्रम नीचे १२३ तक बताया गया है ।
(आत्म बन्धु)
( परिवारकी लड़कियों के लड़के) (१) लड़केकी लड़कीका लड़का 46 Bom. 641. में, बापकी लड़कीकी लड़की
से पहले माना है। (२) लड़के लड़केकी लड़कीका लड़का ) बहनका लड़का 20 Ail. 1913:9 All. 48714 M. 1. A. 187; 10
B. L R. ( P.C.)7, 6 Mad. H. C.2783 (सौतेली बहनका पुत्र वारिस होने का हक रखता है देखो 15 Mad. 300; 2 M.L.J. 835 बहनका प्रपौत्र बन्धु नहीं होता, देखो-2 Bom. L. R. 8423) अब यह पहले वारिस होगा देखो ऐक्ट मं० २ सन १९२६ ई. इस प्रकरणके अन्तमें।
दायभाग- बङ्गाल प्रणालीके अनुसार बहिनके पुत्रको सौतेले भाई मुकाबिले तरजीह दी जाती है-सुखमयी विश्वास बनाम मनोरञ्जन
चौधरी 89 I. C. 827. (४) भाईकी लड़कीका लड़का 10 B. L. R. 341; 18 W.R. C. R. 331, . (५) भाईके लड़केकी लड़कीका लड़का (६) बापके बापकी लड़कीका लड़का 37 Cal. 214, 14 C. W. N. 443.
बम्बई प्रान्तमें व्यवहार मयूखके आधीन वरासतके सम्बन्धमें पिता की बहिनके पुत्रको बमुकाबिले मामाके तरजीह दी जाती है-सखाराम नारायन बनाम बालकृष्ण सदाशिव 49 Bom. 739; 27 Bom. L.
B. 1003, A. I. R. 1925 Bom..451 ( F. B.) (७) बापके बापके लड़केकी लड़कीका लड़का 1 Lah. 588, 60 I. C. 101; (८) बापके बापके पोतेकी लड़कीका लड़का
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...उत्तराधिकार..
[नवां प्रकरण
(परिवारकी लड़कियोंके लड़कोंके लड़के) (१) लड़कीके लड़केका लड़का 30 Mad. 406, 11Mad. 287;17A11.523;
__ बन्धू-पुत्रीका प्रपौत्र बमुक़ाबिले बहिनके प्रपौत्रके नज़दीकी शख्स है जिससे सिलसिला तौरियत शुमार किया जाता है-महाराजा कोल्हापुर बनाम एस० सुन्दरम् अय्यर 48 Mad. 15 A. I. R. 1925
Mad. 499. (१०) लड़केकी लड़कीके लड़केका लड़का नोट-पं. राजकुमार सर्वाधिकारी यह स्थान पोतेकी लड़कीके पोतेका बताते हैं देखो।
सर्वाधिकारी हिन्दूला आव इनहेरीटेन्स पेज ७१४. (११) बापकी लड़कीके लड़केका लड़का 20 Mad. 342. (१२) भाई की लड़कीके लड़केका लड़का (१३) बापके, वापकी लड़कीके लड़केका लड़का
पिताकी बहनके पुत्रका पुत्र वारिसके योग्य बन्धु है--हरिहरप्रसाद
बनाम रामधन 47 All. 172; L R. 6 A.50; A.I.B. 1925 All.17. (१४) बापके बापके लड़केकी लड़कीके लड़केका लड़का नोट-इस जगहपर उक्त दोनों लेखक आंगेके नं०४९,५०,५१,५२ को शामिल करते हैं।
(परिवारकी लड़कियों की लड़कियोंके लड़के ) (१५) लड़कीकी लड़की का लड़का 30 Mad. 406; 31 All. 454; 32 All.
640; 7 Indian. Cases. 292, 17 A. L. J. 776; 7 A.L.J. 5575
17 M. L. J_285. (१६) लड़केकी लड़कीकी लड़कीका लड़का (१७) बापकी लड़की की लड़कीका लड़का 6 Cal. 119; 9 C. L. R. 500 (१८) बापके लड़केकी (भाई) लड़कीकी लड़कीका लड़का (१६) पितामहकी लड़कीकी लड़कीका लड़का 19 Bom. 631; 23 Mad.
. 123329 Mad. 115. (२०) पितामहके लड़केकी लड़कीकी लड़कीका लड़का नोट-पं० राजकुमार सर्वधिकारी यह स्थान आगेके नं० ५३, ५४, ५५, ५६ को देते है
इनका कौन स्थान होना चाहिये यह कहना कठिन है किन्तु आत्म बन्धुके बीचम न होना चाहिये ऊपर नं० २० परिवारकी लड़कियों और लड़कियोंकी लड़कियों के
सम्बन्धसे आत्म बन्धु बताये गये हैं अब हम नीच माताकी तरफसे आत्म बन्धु कहते हैं । (२१) माका बाप (नाना) 15 Mad. 421. (२२) माका भाई (मामा) 23 I. A. 83; 19 Mad. 405; 12 M. I.A.
448; 466, 467; 1 B. L. R. (P.C.) 44, 52, 53; 10 W. R..
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दफा ६३८]
बन्धुओंमें परासत मिलनेका क्रम
७६६
(P.C.) 31, 34; 26 Bom. 710; 4 Bom. L. R. 5273 13 Mad. 10; 5 Bom. 597.
मामा और मौसीके पुत्र-मुतवफ्रीकी जायदादपर,वरासतके सम्बन्ध में, उसकी माताके भाई (मामा) के पुत्रको बमुकाबिले उसकी माताकी बहिन (मौसी) के पुत्रके तरजीह दी जाती है-रामीरेडी बनाम गंगारेड्डी 48 Mad..722; (1925) M. W. N. 335; 21 L.W. 476,
87 I. C. 609 (2) A. I. R. 1925 Mad. 807. (२३) माके भाई (मामा) का लड़का 20 Mad. 342. (२४) माके भाई (मामा) के लड़केका लड़का (२५) माके बापका बाप ( नानाका बाप-प्रमातामह) 11 Mad. 287. (२६) माके बापका भाई (२७) माके बापके भाईका लड़का (२८) माके बापके भाईके लड़केका लड़का 5 Mad. 89 (२६) माके पितामहका बाप (वृद्ध प्रमातामह) (३०)माके पितामहका भाई (३१) माके पितामहके भाईका.लड़का, . (३२) माके पितामहके भाईके लड़केका लड़का
(परिवारकी लड़कियोंके लड़के ). (३३)माकी बहनका लड़का 22W. R.C. R. 264; 28Bom.4583 6Bom.
L. R. 460; 6 Bom. 597; 33 Mad. 439. (३४) नानाके लड़केकी लड़कीका लड़का (३५) नानाके लड़केके लड़केकी लड़कीका लड़का (३६) नानाके परपोतेका लड़का (३७) नानाके बापके परपोतेका लड़का (३८) नानाके दादाके परपोतेका लड़का
( परिवारकी लड़कियोंके लड़कोंके लड़के ) (३६) माकी बहनके लड़केका लड़का 9 Mad. L. R. 1129. (४०) माके भाईकी लड़कीके लड़केका लड़का
(परिवारकी लड़कियोंकी लड़कियोंके लड़के ) (४१) माकी बहनकी लड़कीका लड़का (४२) माके भाईकी लड़कीकी लड़कीका लड़का. . . . . . . .
97
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उत्तराधिकार
( पितृ बन्धु )
( परिवारकी लड़कियों के लड़के )
(४३) प्रपितामहकी लड़कीका लड़का 23 I. A. 83; 19 Mad. 405; 16 Mad; 23; 29 Mad. 615.
७७०
[ नवां प्रकरण
(४४) प्रपितामहके लड़केकी लड़कीका लड़का 2 Mad. H. C. 346. ( ४५ ) प्रपितामहके लड़केके लड़केकी लड़कीका लड़का (४६) वृद्ध प्रपितामहकी लड़कीका लड़का
( ४७ ) वृद्ध प्रपितामहके लड़केकी लड़कीका लड़का
(४८) वृद्ध प्रपितामहके पौत्रकी लड़कीका लड़का 17 Cal. 518.
( परिवार की लड़कियों के लड़कों के लड़के )
( ४१ ) प्रपितामहकी लड़कीके लड़केका लड़का 12 Mad. 155;28Rom.453. (५०) प्रपितामहके लड़केकी लड़की के लड़केका लड़का ( ५१ ) वृद्ध प्रपितामहकी लड़कीके लड़केका लड़का
(५२) वृद्ध प्रपितामहके लड़केकी लड़की के लड़केका लड़का
( परिवारकी लड़कियों की लड़कियोंके लड़के ) (५३) प्रपितामहकी लड़कीकी लड़कीका लड़का (५४) प्रपितामहके लड़केकी लड़कीकी लड़कीका लड़का (५५) वृद्ध प्रपितामहकी लड़कीकी लड़कीका लड़का (५६) वृद्ध प्रपितामहके लड़केकी लड़की की लड़कीका लड़का
[ नीचे ऐसे पितृ बन्धु देखो जिनका मृत पुरुष पिताकी तरफ से आत्म बन्धुहैं ] ( परिवारकी लड़कियों के लड़के )
(५७) बापके नानाका लड़का (५८) बापके नानाका पोता (५६) बापके नानाका परपोता (६०) बापके नानाके बापका लड़का (६१) बापके नानाके बापका पोता (६२) बापके नानाके बापका परपोता (६३) बापके नानाके पितामहका लड़का (६४) बापके नानाके पितामहका पोता (६५) बापके नाना के पितामहका परपोता (६६) बापके नानाकी लड़कीका लड़का (६७) बापके नानाके लड़केकी लड़कीका लड़का (६८) बापके नानाके पोतेकी लड़कीका लड़का
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दफा ६३८]
बन्धुओंमें वरासत मिलनेका क्रम
andowscas
(६६) आपके नानाके बापकी लड़कीका लड़का (७०) बापके नानाके बापके लड़केकी लड़कीका लड़का (७१) बापके नानाके बापके पोतेकी लड़कीका लड़का (७२) बापके नानाके पितामहकी लड़कीका लड़का (७३) बापके नानाके पितामहके लड़केकी लड़कीका लड़का (७४) बापके नानाके पितामहके पोतेकी लड़कीका लड़का
( परिवारकी लड़कियोंके लड़कोंके लड़के ) (७५) बापके नानाके परपोतेका लड़का (७६) बापके नानाके बापके परपोतेका लड़का (७७) बापके नानाके दादके परपोतेका लड़का (७८) बापके नानाकी लड़कीका पोता (७६ ) बापके नानाके लड़केकी लड़कीका पोता (८०) बापके नानाके बापकी लड़कीका पोता (८१) बापके नानाके बापके लड़केकी लड़कीका पोता
(परिवारकी लड़कियोंकी लड़कियोंके लड़के) (८२) बापके नानाकी लड़कीकी लड़कीका लड़का (८३) बापके नानाके लड़केकी लड़कीकी लड़कीका लड़का . (४) बापके नानाके बापकी लड़कीकी लड़कीका लड़का . (८५) बापके नानाके बापके लड़केकी लड़कीकी लड़कीका लड़का
(मातृ बन्धु)
( परिवारकी लड़कियों के लड़के) (८६) नानाके बापकी लड़कीका लड़का (८७) नानाके बापके लड़केकी लड़कीका लड़का (८८) नानाके बापके पोतेकी लड़कीका लड़का (८९) नानाके दादाकी लड़कीका लड़का (१०) नानाके दादाके लड़केकी लड़कीका लड़का (११) नानाके दादाके पोतेकी लड़कीका लड़का
(परिवारकी लड़कियोंके लड़कों के लड़के ) (६२) नानाके बापकी लड़कीका पोता (६३) नानाके बापके लड़केकी लड़कीका पोता (६४ ) नानाके दादाकी लड़कीका पोता (६५) नानाके दादाके लड़की लड़कीका पोता
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७७२
उत्तराधिकार
[नवां प्रकरण
aamwww
(परिवारकी लड़कियोंकी लड़कियोंके लड़के ) (१६) नानाके बापकी लड़कीकी लड़कीका लड़का (१७) नानाके बापके लड़केकी लड़कीकी लड़कीका लड़का (१८) नानाके दादाकी लड़कीकी लड़कीका लड़का (६६) नानाके दादाके लड़केकी लड़कीकी लड़कीका लड़का [ऐसे मातृ बन्धु देखो जिनका मृत पुरुष, पिताकी तरफसे पितृ बन्धु है ]
(परिवारकी लड़कियोंके लड़के) (१००)माका नाना (१०१) माके नानाका लड़का (१०२) माके नानाका पोता (१०३) माके नानाका परपोता (१०४)माके नानाका बाप (१०५) माके नानाके बापका लडका (१०६)माके नानाके बापका पोता (१०७) माके नानाके बापका परपोता (१०८)माके नानाकी लड़कीका लड़का (१०६) माके नानाके लड़केकी लड़कीका लड़का (११०) माके नानाके पोतेकी लड़कीका लड़का (१११) माके नानाके बापकी लड़कीका लड़का (११२) माके नानाके बापके लड़केकी लड़कीका लड़का (११३ ) माके नानाके बापके पोतेकी लड़कीका लड़का (११४) माक नानाक परपतिका लड़का (११५) मामाके नानाके बापके परपोतेका लड़का
(परिवारकी लड़कियोंके लड़कोंके लड़के ) (११६) माके नानाकी लड़कीका पोता (११७) माके नानाके लड़केकी लड़कीका पोता (११८) माके नानाके बापकी लड़कीका पोता (११६ ) माके नानाके बापके लड़केकी लड़कीका पोता
(परिवारकी लड़कियोंकी लड़कियोंके लड़के ) (१२०) माके नानाकी लड़कीकी लड़कीका लड़का (१२१) माके नानाके लड़केकी लड़कीकी लड़कीका लड़का (१२२)माके नानाके पापकी लड़कीकी लड़कीका लड़का (१२३) माके नानाके बापके लड़केकी लड़कीकी लड़कीका लड़का
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दफा ६३६ ]
बन्धुओंमें वरासत मिलनेका क्रम
७७३
vvvvvvv
ऊपर नं०१ से नं०४२ तक आत्मबन्धु, और नं०४३ से नं०८५ तक पितृ बन्धु तथा नं०८६ से नं० १२३ तक मातृबन्धु यताये गये हैं । जहांपर पंडित राजकुमार सर्वाधिकारीके मतमें कुछ भेद पड़ता है उसका सङ्केत उसी जगह कर दिया गया है। उपरोक १२३ बन्धुओंका रिश्ता जल्द समझमें आनेके लिये चार नक्शे आगे दिये हैं-देखो दफा ६३६. .
ऊपर जो बन्धुओंके नम्बर दिये गये हैं उन्हें नक्शोंसे इस प्रकार मिलान कीजिये।
नम्बर १ से नं० २० तक नक्शा नं०१ में देखो नम्बर २१ से नं०४२ तक नक्शा नं०२ में देखो नम्बर ४३ से नं०५६ तक नकशानं०१ में देखो नम्बर ५७ से नं०८५ तक नशा नं. ३ में देखो नम्बर ८६ से नं० ६६ तक नकशा नं०२ में देखो
नम्बर १०० नं० १२३ तक नक्शा नं०४ में देखो दफा ६३९ बन्धुओंके नकशे मिताक्षरालॉ के अनुसार
ऊपर दफा.६३८ में जो १२३ बन्धुओंका वर्णन किया गया है उनके रिश्ते समझनेके लिये चार नक्शे नीचे दिये गये हैं। नशोंमें 'पु' अक्षरसे पुत्र लड़का समझना और 'ल' अक्षरसे लड़की-पुत्री समझना । ये नक्शे सीव्यस०रामकृष्ण हिन्दूलॉ जिल्द २ सन १९१३ई० पेज १६३-१६५ से उद्धृत किये गये हैं। इन नकशोंके देखनेका कायदा सरल है । नक्शोंमें जो नम्बर दिये गये हैं वे दफा ६३८ के बन्धुओंके नम्बरके अनुसार हैं। ननशोंके मिलान करनेमें शब्दोंसे सावधान रहिये। शब्दके अर्थपर विचार करके मिलान कीजिये। अर्थात् किसी जगहपर बाप कहा गया है और किसी जगहपर पिता, एवं पुत्र
और लड़का,इत्यादि ऐसे स्थानोंपर शब्दका भेद पड़ जाता है किन्तु अर्थका नहीं। इसलिये अर्थ समझकर विचार कीजिये ।आप यदि चाहें तो दफा ६३८ में कहे हुए बन्धुको पहले देखकर पीछे नक़शा देने अथवा पहले नक्शेसे नम्बर देखकर पीछे उसी नम्बरमें बन्धुको देलें । ज्यादा अच्छा यह होगा कि जिस बन्धु के बारेमें आपको देखना हो पहले दफा ६३८ में पता लगाइये । पीछे जब उसका नम्बर मालूम हो जाय तो उसी दफाके नीचे यह देखो कि यह नम्बर किस नम्बर के ननशेमें है। पीछे उस नम्बर का नक्शा देखिये तो जल्द मालूम हो जायगा । प्रिवी कौन्सिलने हालमें जो राय जाहिर की है उसके अनुसार बन्धुओंका क्रम व नकशा आगे दिया गया है।
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उत्तराधिकार
[नवां प्रकरण
मिताक्षराला के अनुसार नक़शा नं. १ बापकी तरफसे आत्मबन्धु और कुछ पितृबन्धु
५५ पु-
ल-
वृद्ध प्रपितामह
-ल
५१ पु--:४६ पु
--
पु४७ पु४८
पु४७
प्रपितामह पु५६ . पु५२
५३ पु
-ल
-
-
४६ पु-३पु
---
28
पितामह पु५४
पु५०
4
-
-
१५ पु
-ल
8
--
पिता पु२०
पिता पु२० पु.
-
१७ पु
-ल
--
११ पु-३ पु
पू४
मृतपुर
प१८
पु१२
पु-पु१६पु-ल
-ल-
-पु
नोट-दफा ६३८के नं०१ से २० तथा नं० ४३ से ५६ इस नकशेमें देखो 'पु' से पुत्र और 'ल' से लड़की समझना।
१०प
|
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बन्धुओंमें वरासत मिलनेका क्रम
मिताक्षराला के अनुसार
नक्क़शा नं० २ माताकी तरफसे आत्मबन्धु और कुछ मातृबन्धु
नानाका दादा २६
दफा ६३६ ]
नानाका बाप २५
माता
--2.
- पु६६
-ल
1- पुदε- पुε४
माताका बाप -नाना २१
ल. - पुε६
- पु८६ - पु१२
-ल-- ५४१
- पु३३-५३६
पु६०
पु६५
पु८७
पु१३
पु३४
पु४०
ल
- पु२६
ल
- पु२२
ल
|
ल
पु६६
पु६७
이
'
पु४२
- पु३१ - पु३२ – पु३८
ल
पु६१
- पु२७ - पु२८ - पु३७
७७५
- पु२३ - पु२४ - पु३६
ल
--
पु३५
मृत पुरुष
नोट- दफा ६३८ के नम्बर २१ से ४२ और नम्बर ८६ से ९९ इस नक्शे में देखो 'पु' से पुत्र और 'ल' से लड़की समझना ।
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उत्तराधिकार
[नवां प्रकरण
A
anAM
मिताक्षराला के अनुसार नक़शा नं० ३ पितृबन्धु अर्थात् बापके बन्धु पिताके नानाका पितामह ( दादा)
-पु६३ -पु६४-पु६५-पु७७ ७२ पु-ल
-
-
पु७३
पु७४
पिताके नानाका बाप
-पु६१-पु६२-पु७६
८४पु--ल
ल
८०पु-६६पु
ल
पु७१
पु८५
पुद पिताका नाना
पुष
पु५८-पु५६ -पु७५
८२पु--ल
७८पु-६६पु
प६७
H
पु७६ पिताकी माता
पिता
मृतपुरुष
नोट-दफा ६३८ के नम्बर ५७ से ८५ तक इस नकशे में देखो 'पु' से पुत्र और 'ल' से लईकी समझना।
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दफा ६३६
बन्धुओंमें वरासत मिलनेका क्रम
७७७
~
~
मिताक्षराला के अनुसार नक़शा नं. ४ मातृबन्धु अर्थात माताके बन्धु ... माताके नानाका बाप १०४
-पु१०५ -पु१०६-पु१०७-पु११५ १२२पु--ल
-ल११८पु-१११पु
।
।
पु११२
3
पुर१३
- पु१२३
पुर१६ माताका नाना १००
-पु१०२-पु१०३-पु११४
१२०पु--ल
पु११०
११६पु-१०८पु
पुर०६
पुर१७ माताकी माता-नानी
ल पु१२१
माता
मृतपुरुष
नोट-दफा ६३८ के नम्बर १०० से १२३ तक इस नकशे में देखो 'पु' से पुत्र और 'ल' से लड़की समझना। दफा ६३९(अ) प्रिवी कौन्सिल हालमें द्वारा माने हुए बन्धु ...
बन्धुओंमें जायदाद मिलने के सम्बन्धमें मतभेद है हमने दोनों मत बतानेकी पूरी चेष्टाकी है। एक मत इस बारेमें आप दफा ६३३ से दफा ६३६ तकमें देखिये इस जगहपर हम केसलॉ भर्थात् प्रिवी कौन्सिलके विद्वान जजोंने जो माना है वह बताना चाहते हैं--वेदाचेला बनाम सुब्रह्मण्य ( 1921) 48
98
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उत्तराधिकार
[ नवां प्रकरण
I. A. 349, 364; 44 Mad. 753-767; 64 I. C. 402. # fara frat कौन्सिल के जजोंने श्रीगोपालचन्द्र शास्त्री और श्रीराजकुमार सर्वाधिकारीके हिन्दूलों पर विचार करके यह माना और कहा कि-
200
श्रीसर्वाधिकारी और मि० मेन, तथा श्रीभट्टाचार्य्यके हिन्दूलॉमें बन्धुओं के उत्तराधिकारका क्रम हर एक शाखा में अच्छा विचार किया गया है लेकिन frat कौन्सिसने कहा कि मामा (मांके बापका लड़का ) का स्थान जो उन्होंने निश्चित किया है उसे हम उचित और ठीक नहीं समझते । जहां पर कोई विशेष प्रमाण इस क्रमके काटनेका न हो तो मुत्थूसामी बनाम सिमामवेडू 16 Mad 23- 30. जो अपील में जुडीशल कमेटी द्वारा 19 Mad. 405 में स्वीकार किया गया है सुरक्षित लाइन बतायी है। 48 I.4.349. में प्रिवी कौन्सिलने बन्धुओं को वरासतमें जायदाद मिलनेका क्रम नीचे लिखे अनुसार माना है:
( आत्म बन्धु )
—
( १ ) लड़केकी लड़कीका लड़का - बम्बई में बहनकी लड़की से पहले हक़दार होता है 46 Bom. 541.
(२) लड़के के लड़केकी लड़कीका लड़का
(३) बहनका लड़का - 6 Mad H. C. 278; 9All. 467; 20 All. 191. सौतेली बहनका लड़का बन्धु है 15 Mad. 300. किन्तु सौतेली बहन, का सौतेला लड़का बन्धु नहीं माना जायगा 45 Mad. 257.
माकी बहनके लड़के से पहले, बहनका लड़का जायदाद पावेगा 22 W. R. 264.
(४) भाईकी लड़कीका लड़का 10 Beng. L. R. 341.
(५) भाई के लड़के की लड़की का लड़का
(६) बापकी बहनका लड़का 37 Cal. 214; 51 I. A. 368; 49Bom.739. (७) बापके बापके लड़के की लड़कीका लड़का 60 I. C. 101.
(८) बापके बापके लड़केके लड़के की लड़की का लड़का
) माका बाप - नाना 15 Mad. 421.
( १० ) मांके बापका लड़का ( माका भाई यानी मामा ) नं० २१ के बन्धुसे पहले वारिस माना गया है 48 I. A. 349; 44 Mad. 753; 64 I. C. 402.
( ११ ) माके बापके लड़केका लड़का -- यह नं० १३ के बन्धुसे पहले वारिस मान गया है 38 All. 416 34 1. C. 108, 33 Mad, 439.
( १२ ) माके बापके लड़के के लड़केका लड़का
(१३) माके बापकी लड़कीका लड़का (१४) मा बाप के लड़के की लड़की का लड़का
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दफा ६३६]
बन्धुओंमें वरासत मिलनेका क्रम
(१५) माके बापके लड़के लड़केकी लड़कीका लड़का (१६) माके बापके लड़के के लड़केके लड़के का लड़का (१७) लड़कीके लड़केका लड़का 30 Mad. 406) 17 All. 284 (१८) लड़केकी लड़कीके लड़के का लड़का (१६) बापकी लड़कीके लड़का लड़का (२०) बापके लड़केकी लड़कीके लड़केका लड़का (२१) बापके बापकी लड़की लड़केका लड़का 4TAll. 172743 All
463, 62 I.C. 432. (२२) बापके बापके लड़केकी लड़कीके लड़का लड़का (२३) माके बापकी लड़कीके लड़केका लड़का 9 Bom. L. R. 1129: (२४) माके बापके लड़की लड़कीके लड़केका लड़का (२५) लड़कीकी लड़कीका लड़का 31 AII. 454,32 All. 610 (२६) लड़केकी लड़कीकी लड़कीका लड़का (२७) बापकी लड़कीकी लड़कीका लड़का 6 Cal. 119. (२८) बापके लड़की लड़कीकी लड़कीका लड़का (२६) बापके बापकी सड़कीकी लड़कीका लपका 19 Bom. 831, 27
Mad. 123. (३०) बापके बापक लड़की लड़कीकी लरकीका काका (३१) माके बापकी लड़कीकी लड़कीका लड़का ........ .. (३२) माके बापके लड़की लड़कीकी लड़कीका लड़का
(पितृ बन्धु) (३३) प्रपितामहकी लड़कीका लड़का 23 I. A. 833 19 Mad. 406, 29
Mad. 116. (३४) प्रपितामहके लड़केकी लड़कीका लड़का (३५) प्रपितामहके लड़केके लड़केकी लड़कीका लड़का . .. (३६) वृद्ध प्रपितामहकी लड़कीका लड़का (३७) वृद्ध प्रपितामहके लड़केकी लड़कीका लड़का (३८) वृद्ध प्रपितामहके लड़के के लड़केकी लड़कीका लड़का 17 Cal. b18. (३६) बापका नाना । (४०) बापके नानाका लड़का 12 M. I. A. 448. (४१) बापके नानाके लड़केका लड़का . (४२) बापके नानाके लड़केके लड़केका लड़का: . (४३) बापका परनाना (बापके नानाका बाप). (४४) बापके परनानाका लड़का (४५) बापके परनानाके लड़के का लड़का
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950
उत्तराधिकार
(४६) बापके परनानाके लड़केके लड़केका लड़का
(४७) बापका नगड़नाना ( बापके नानाके बापका बाप ) (४८) बापके नगड़नानाका लड़का
( ४६ ) बापके नगड़नानाके लड़केका लड़का
[ नवां प्रकरण
(५०) बापके नगड़नानाके लड़केके लड़केका लड़का (५१) बापके नानाकी लड़कीका लड़का (५२) बापके नानाके लड़के की लड़की का लड़का (५३) बापके नानाके लड़केके लड़के की लड़कीका लड़का (५४) बापके परनानाकी लड़कीका लड़का
( ५५ ) बापके परनानाके लड़के की लड़की का लड़का
( ५६ ) बापके परनानाके लड़केके लड़केकी लड़की का लड़का (५७) बापके नानाके लड़केके लड़केके लड़केका लड़का (५८) बापके परनानाके लड़के के लड़के के लड़केका लड़का ( ५६ ) बापके नगड़नानाके लड़केके लड़के के लड़केका लड़का
(६०) प्रपितामहकी लड़कीके लड़केका लड़का 12Mad. 155; 28Bom.453.
( ६१ ) प्रपितामहके लड़केकी लड़की के लड़केका लड़का (६२) वृद्ध प्रपितामहकी लड़की के लड़केका लड़का
(६३) वृद्ध प्रपितामहके लड़केकी लड़की के लड़के का लड़का
( ६४ ) बापके नानाकी लड़की के लड़केका लड़का (६५) बापके नानाक़े लड़केकी लड़की के लड़केका लड़का (६६) बापके परनानाकी लड़कीके लड़केका लड़का (६७) बापके परनानाके लड़केकी लड़की के लड़केका लड़का (६८) प्रपितामहकी लड़की की लड़की का लड़का (६६ ) प्रपितामहके लड़केकी लड़कीकी लड़कीका लड़का ( ७० ) वृद्ध प्रपितामहकी लड़की की लड़कीका लड़का (७१) वृद्ध प्रपितामहके लड़केकी लड़की की लड़कीका लड़का ( ७२ ) बापके नानाकी लड़की की लड़कीका लड़का (७३) बाप के नानाके लड़के की लड़की की लड़कीका लड़का (७४) बापके परनानाकी लड़कीकी लड़की का लड़का (७५) बापके परनानाके लड़केकी लड़की की लड़कीका लड़का
( मातृबन्धु )
(७६) परनाना - 11 Mad. 287. (७७) परनानाका लड़का (७८) परनानाके लड़केका लड़का
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दफा ६३४]
बन्धुओंमें वरासत मिलनेका क्रम
७८१
(७६ ) परनानाके लड़केके लड़केका लड़का 5 Mad. 69. (८०) नगड़नाना (नानाके बापका बाप) (८१) नगड़नानाका लड़का (५२) नगड़नानाके लड़केका लड़का (८३) नगड़नानाके लड़केके लड़केका लड़का (८४) परनानाकी लड़कीका लड़का 48 0.I.86; 6P.L.J. 14; 60I.C.251. (८५) परनानाके लड़केकी लड़कीका लड़का (५६) परनानाके लड़के के लड़केकी लड़कीका लड़का (८७) नगड़नानाकी लड़कीका लड़का (८८) नगड़नानाके लड़केकी लड़कीका लड़का (८६) नगड़नानाके लड़केके लड़केकी लड़कीका लड़का (६०) परनानाके लड़केके लड़केके लड़केका लड़का (६१) नगड़नानाके लड़केके लड़केके लड़केका लड़का (१२) परनानाकी लड़कीके लड़केका लड़का (१३) परनानानके लड़केकी लड़कीके लड़केका लड़का - (१४) नगड़नानाकी लड़कीके लड़केका लड़का (१५) नगड़नानाके लड़केकी लड़कीके लड़केका लड़का (६६) परनानाकी लड़कीकी लड़कीका लड़का (१७) परनानाके लड़केकी लड़कीकी लड़कीका लड़का (६८) नगड़नानाकी लड़कीकी लड़कीका लड़का (६६) नगड़नानाके लड़केकी लड़कीकी लड़कीका लड़का (१००) माका नाना - (१०१) माके नानाका लड़का (१०२) माके नानाके लड़केका लड़का (१०३) माके नानाके लड़केके लड़केका लड़का (१०४) माका परनाना (१०५) माके परनानाका लड़का (१०६) माके परनानाके लड़केका लड़का (१०७) माके परनानाके लड़केके लड़केका लड़का . (१०८) माके नानाकी लड़कीका लड़का (१०६) माके मानाके लड़केकी लड़कीका लड़का (११०) माके नानाके लड़केके लड़केकी लड़कीका लड़का (१११) माके परनानाकी लड़कीका लड़का (११२) माके परनानाके लड़केकी लड़कीका लड़का (११३) माके परनानाके लड़के लड़केकी लड़कीका लड़का
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उत्तराधिकार
( ११४ ) मा नानाके लड़केके लड़केके लड़केका लड़का ( ११५ ) माके परनाना के लड़के के लड़के के लड़केका लड़का ( ११६ ) माके नानाकी लड़कीके लड़केका लड़का
( ११७ ) माके नानाके लड़केकी लड़कीके लड़केका लड़का
१७८२
( ११८ ) माके परनानाकी लड़कीके लड़केका लड़का
( ११९ ) माके परनानाके लड़केकी लड़कीके लड़केका लड़का ( १२० ) माके नानाकी लड़कीकी लड़कीका लड़का नानाक लड़केकी लड़कीकी लड़कीका लड़का
[ नवां प्रकरण
( १२१ ) मा ( १२२ ) माके परनानाकी लड़कीकी लड़कीका लड़का
( १२३ ) माके परनानाके लड़केकी लड़कीकी लड़कीका लड़का
नोट - दफा ६३३ से ६३९ तक के बन्धुओं की संख्या १२३ बताई जा चुकी है और यहां पर भी बन्धुओं की संख्या १२३ बताई गयी है । फरक स्थान का है अर्थात किस बन्धुकी कौन जगह "है इस बातका फरक है । इस फरकके पड़ने से पहले या पीछे वारिस होने का मौका बन जाता है । नं० ९ तक तो दोनों ने एकही क्रम माना है आगे फरक पड़ने लगा । यह न समझिये कि पहले के बन्धुओं का क्रम कतई गलत है, अभी तक किसी फैसलेमें यह नहीं बताया गया कि अमुक क्रम सब गलत माना जाय और अमुक सही । चूंकि बन्धुओं की संख्या अधिक है और पेंचीश है तथा सिद्धान्तों में मतभेद है इसीसे स्कूलों के अन्तर्गत उनका अर्थ भिन्न भिन्न हो सकता है और इसी सबब से कतई तय नहीं हुआ। हम इस जगह पर स्मृति कारों के अविकल बचनों द्वारा सारा फरक समझाना चाहते थे किन्तु ग्रन्थके बहुत बढ़ जाने के भय से संकेत करके छोड़ दिया है ।
नक़शा देखनेकी रीति- पहले आप मृतपुरुष आखिरी मालिक को निश्चित करें पीछे अपना रिश्ता उससे मिलावे और फिर यह देखें कि आपकी रिश्तेदारीकी जगह किस नम्बर में आती है। जब नवम्र मिल जाय तब नक़शा सामने रखें । पहलेका नम्बर जो आपको मिला है उसमें आत्मबन्धु या पितृबन्धु या मातृबन्धु लिखा है । नक्रशेमें सबसे पहले बन्धुकी क़िस्म देख लें पीछे वह नम्बर तलाश करलें उसी स्थानपर मिलेगा, नम्बरका मतलब यह है कि पहले जितने नम्बर हैं जब वे सब न होंगे तब उस नम्बर को वरासत मिलेगी ।
दफा ६४० बम्बई में कौन कौन औरतें बन्धु मानी गयी हैं
( १ ) मि० वेस्ट, और मि० बुद्दलरके अनुसार मृत पुरुषकी मिश्र शाखा वालोंकी और उनकी औलादकी लड़कियें सात पुश्त तक बन्धु मानी गयी हैं जैसे-
लड़के की लड़की; देखो - बनीलाल बनाम पारजाराम 20 Bom. 173. और लड़की की लड़की, भाईकी लड़की, देखो -- माधोराम बनाम दाषी 21 Bom, 739, 744. लालूभाई बनाम मानकुंवर बाई 2 Bom. 388, 446. तुलजा
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दफा ६४०-४१]
बन्धुओंमें परासत मिलनेका क्रम
७८
राम बनाम मथुरादास 5 Bom.662.672. और बहनकी लड़की देखो-वेस्ट और बुहलर हिन्दुलॉ पेज 137, 496, 498. यह बन्धु होती हैं।
(२) मधुओं में वारिस होनेका क्रम इनके करीबकी रिश्तेदारी के अनुसार होता है लेकिन मिताक्षरामें जो ६ बन्धुबताये गये हैं उनके पहिले वारिस होनेका हक नहीं खो जाता, अर्थाद जब तक मिताक्षराके बन्धुज़िन्दारहेंगे तब तक यह औरतें जायदाद नहीं पा सकतीं।
(३) बापकी बहन--मयूखके अनुसार बापकी बहन मोज सपिण्ड है, और सब गोत्रज सपिण्डोंके पीछे और बन्धुओंके पहिले उसको वारिस होने का अधिकार होता है। यह बात साफ तौरसे तय नहीं मालूम होती कि बम्बई प्रान्तमें मिताक्षराका जैसा अर्थ लगाया जाता है उसके अनुसार बह गोत्रज सपिण्ड है या नहीं।
बरारमें वरासतके मामले में पिताकी बहिनको, बमुकाबिले पिताकी बहिनके पुत्रके तरजीह दी जाती है--गनपत बनाम मु० सालू 89 I. C. 345.
(४) ऊपर नम्बर १ में लड़की लड़की, और लड़कीकी लड़की, यह दोनों अपनी औलादकी लड़कियां हैं तथा माईकी लड़की, बहनकी लड़की 'मिन्न शाखाकी लड़कियां हैं।
() पापकी बहन, एक पूर्वजकी लड़की है यानी दादाकी सड़की है। मिताक्षरामें जो बन्धु ठीक तौरसे बताये गये हैं वे सब मर्द हैं। औरत बन्धु नहीं बतायी गयी । बनारस और मिथिला स्कूल में मिनाक्षराका उतनाही अर्थ माना गया है जितना कि मिताक्षराके शब्दोसे साफ तौरपर ज़ाहिर होता है। बम्बई और मदरास प्रेसीडेन्सीमें कुछ औरतें भी बन्धु मानी मपी हैं।
बम्बई में यह औरतें बन्धु मानी गयी हैं। (१) लड़के की लड़की (२) लड़कीकी लड़की
पुतीकी पुत्री-बबई प्रकालीके अनुसार पुत्रीकी पुत्री मिन गोत्र सपिण्ड मानी जाती है। घुना जी बनाम तुलसी A. I. R. 1925 Nag. 98.
(३) भाईकी लड़की (४) बमकी लड़की (५) वाफ्की .बहन
नोट-यह निश्चित नहीं है कि बन्धु इतने ही औरतें होती है इस स्कूलमें औरतें पूरे अधिकार सहित जायदाद लेती हैं देखो दफा ६४४, ६४५, ६८२, ६८३२ ६८६. दफा ६४१ मदरासमें कौन कौन औरतें बन्धु मानी गयी हैं ? ... नीचे लिखी औरतें मदरास प्रांतमें बन्धु मानी गयी हैं--
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७८४
उत्तराधिकार
[नवां प्रकरण
(१) बहन, देखो-कुट्टी बनाम राधाकृष्ण 8 Mad. H. C. 88. (२) सौतेली बहन, देखो-कुमार बेलू बनाम बिराना M. 29. (३) लड़के की लड़की, देखो-14 Mad. 149. (४) लड़कीकी लड़की, देखो-17 Mad. 182. (५) भाईकी लड़की, देखो-21 Mad. 263. (६) बापकी बहन, देखो-16 Mad. 421.
यह ऊपर कही हुयी औरतें मृतपुरुषके नज़दीकी रिश्तेदारीके क्रमसे वारिस होती हैं । लेकिन सब मर्द-बन्धुओंके पीछे इन औरतोंका हक्न पैदा होता है, देखो-वेङ्कवनरसिंह बनाम वेङ्कट पुरुषोत्तम (1908) 31 Mad. 321 और देखो प्रकरण ११ः
(६) कानूनी वारिस न होनेपर उत्तराधिकार
दफा ६४२ जब कोई वारिस न हो तो जायदाद कहां जायगी?
याज्ञवल्क्य जी कहते हैं कि किसी वारिसके न होनेपर जायदाद शिष्य, और ब्रह्मचारीको मिलेगी, देखो
(१) पत्नी दुहितरश्चैव पितरौ भ्रातरस्तथा तत्सुतागोत्रजाबन्धुः शिष्यः सब्रह्मचारिणः २-१३५ मिताभरामें कहा गया है कि'बन्धूनामभावे प्राचार्यः । तद्भावे शिष्यः'
बन्धुओं के अभाव में प्राचार्य और उसके अभाव में शिष्य को जायदाद मिलेगी।
(२) गौतमजी कहते हैं कि'श्रोत्रिया ब्राह्मण स्यानपत्यस्य रिक्थं भजेरन्' अनयत्य पुरुषकी जायदाद वेदपाठी ब्राह्मणको मिलेगी।
(३) मनुजी ने कहा है किर 'सर्वेषामप्यभावेतु ब्राह्मणारिक्थ भागिनः।
विद्याः शुचयो दांतास्तथा धर्मों न हीयते' ६-१८८
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दफा ६४२]
कानूनी वारिस न होने पर उत्तराधिकार
८५
सब वारिसोंके अभावमें वेदत्रपीके ज्ञाता, शुद्ध, और इन्द्रियोंके दमन करने वाले ब्राह्मण जायदाद पानेके अधिकारी होते हैं।
(४) नारद जी ने कहा है कि-- ब्राह्मणार्थस्य तनाशे दायादश्चेन कश्चन ब्राह्मणस्यैव दातव्य मेनस्वी स्यान्नृपोऽन्यथा । जब बिला वारिस ब्राह्मण मर जाय तो उसकी जायदाद ब्राह्मणही को
राजा देवे।
(५) बृहविष्णुने कहा है कि'तद्भावे सहाध्यायिगामि, तद्भावे ब्राह्मण धनवयं राजागामि'
सकुल्यके न होनेपर सहपाठी, और उसके भी न होनेपर ब्राह्मणके धनको छोड़कर राजा जायदाद का वारिस होता है १७-१२ .
(६) बौधायन ने कहा है कि--
"तद्भाव पिताचार्योऽन्तेवास्पृत्विग्वा हरेत्" १ सकुल्यके अभावमें आचार्य, पिता, शिष्यको जायदाद मिलेगी प्रश्न १ ७० ५-११७
(१) सबका मतलब यह है कि जहांपर मृतपुरुषके कोई-रिश्तेदार नहीं होते तो गुरू और उनके न होने पर चेला जायदाद लेता है गुरूसे मतलब है कि जो उस खानदानका हो जिसका मृतपुरुष था, और चेला उसी पाठशालाका होना चाहिये जिसका मृतपुरुष था।
(२) जब कोई ब्यापारी आदमी ब्यापार करनेकी गरज़से दूसरे देश को गया हो और वहांपर मरजाय तथा उसके खानदानमें या अन्य कोई भी बारिस न हो तो उस ब्यापारी आदमीकी जायदाद उस आदमीको मिलेगी जो उसके ब्यापारमें शरीक रहा हो। देखो-गिरधारी बनाम बंगाल गवर्नमेंट 12 Moo I. A. 457, 465; S. C. I B. L. R. ( P.O.) 44; S. C. 10. Suth ( P. C. ) 32.
(३) हिन्दू धर्मशास्त्रोमें कहागया है कि जब किसी पुरुषके कोई भी वारिस न हो तो ब्राह्मणकी जायदादको छोड़कर लावारिसकी जायदाद राजा लेवे । देखो मनु ने कहा है कि
अहार्यं ब्राह्मणव्यं राज्ञा नित्यमिति स्थितिः इतरेषांतु वर्णानां सर्वाभावे हेरन्नृपः । ६-१८६ 99
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७८६
उत्तराधिकार
[नर्वा प्रकरण
इस क्रिस्मका कोई फैसला नहीं मिला कि जिसमें लावारिसकी जायदाद गुरू या चेला को मिली हो । यद्यपि आचार्योंकी यह राय है मगर यह राय एक मुकद्दमें में नहीं मानी गयी देखो-कलक्टर श्राफ मसुलीपटम बनाम कावाली बैंकट 8 M. I. A. 500; S. C. 2 Suth ( P. C. ) 59 इस मुकहमें में सरकारने दावा किया था जो जायदाद एक ब्राह्मणकी थी, सरकारने बलिहाज़ लावारसी एक ब्राह्मण विधवाके मुकाबिलेमें दावा किया था।
(४) लावारिस जायदाद का मालिक सरकार होती है-जब किसी आदमीके मरनेपर उसका कोई वारिस न हो तो उसकी जायदादकी मालिक सरकार होती है यह माना हुआ सिद्धांत है। एवं इस सिद्धांतके अनुसार लावारिसकी जायदाद सरकारको पहुंचती है जिमीदारको नहीं पहुंचती यानी जिमीदार उसका मालिक नहीं हो सकता । जब किसी जिमीदारने अपनी जिमीदारीका कोई हिस्सा किसी दूसरे आदमीको या औरतको इस अधिकार के साथ अलहदा दे दिया हो कि उसे जायदादके बेंचनेका अधिकार है और वह आदमी उस जायदादका अकेला संपूर्ण अधिकारों सहित मालिक हो गया होतो उस आदमीके लावारिस मरनेपर जिमीदार या उसके कायम मुकाम उसकी जायदादको नहीं पा सकते वह सरकारमें जायगी, देखो--सोनट बनाम मिरजा 3 I. A. 923 S. C. 25 Suth 239. . उदाहरण-मानसिंह दस गावोंका ज़िमीदार है। उसने एक गांव धीरसिंहको इस शर्तके साथ दे दिया कि वह उसकी मातहतीमें रहेगा मगर धीरसिंहको उस गांवके बेचने वगैराका सब अधिकार प्राप्त रहेगा । धीरसिंह मरगया और उसके कोई वारिस नहीं हैं; अर्थात् सपिण्ड, समानोदक और बन्धुओंमें कोई नहीं है। तो अब धीरसिंहकी उस जिमीदारीको जो लावारसी है सरकार लेगी जिमीदारको नहीं मिलेगी। और ऐसी ही सूरत तब होगी जब धीरसिंहकी औलाद होनेपर जायदाद उसकी औलादमें चली गई हो और आखिरी जायदादका मालिक लावारिस मरगया हो।
मानसिंहने, एक बाग और एक मकान शिवभजन काछीको दे दिया शिवभजन काछी लावारिस मरगया। तो अब बाग और मकान जिसका कि शिवभजन काछी अपनी जिंदगीमें अकेला संपूर्ण अधिकारों सहित मालिक था जिमीदारको नहीं मिलेगा बल्कि सरकार लेगी। यह सिद्धांत ऐसी सूरतसे सम्बन्ध नहीं रखता जहांपर कि कोई बाग या ज़मीन ज़िमीदारने किसीको खिदमती दी हो या दूसरी किसी खास शर्तके आधारदी हो ।
साधकी जायदाद साधूसे मतलब उस आदमीसे है जिसने दुनियांसे अपनेको अलहदा कर लिया हो और किसी बर्णाश्रममें न रहा हो। जब कोई साधू किसी मठ, या कुटी, या गद्दीमें रहेता हो और उसका मालिक हो, तो उस साधूके मरने के बाद उस मठ, या कुटी, या गहीमें लगी हुई जायदादका उत्तराधिकार मठ,
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दफा ६४२]
कानूनी वारिस न होनेपर उत्तराधिकार
७७
कुटी या गद्दीके रवाजके अनुसार होगा। कोई आदमी साधू या फकीर उस वक्त तक नहीं माना जायगा जब तक कि वह दुनियांके सब आरामोंसे अलहदा न हो गया हो और दरहकीकत दुनियांके मुकाबिलेमें मर न गया हो। अगर कोई आदमी असलियतमें साधू हो जाय तो वह दुनियांकी दृष्टिमें मर जाता है और ऐसी सूरतमें उसकी सब जायदाद उसके कानूनी वारिसको फौरन मिल जाती है। और अगर वह किसी मठ या कुटी या गद्दीमें दाखिल हो गया हो तो उस साधूसे फिर उस जायदादसे कुछ सरोकार नहीं रहता जिसपर वह साधू होनेसे पहिले काबिज़ था-देखो दफा ६६०.
अगर कोई पूरा पूरा साधू नहीं हुआ या उसने अपना लगाव दुनिया से नहीं तोड़ा, और वह दुनियांकी दृष्टिमें दुनियांसे अलहदा नहीं हुआ तो इस किस्मका साधू चाहे जिस नामसे वह कहा जाता हो ऐसा है कि मानो उसने मज़हबी कोई उपाधि धारणकी है। ऐसी सूरतमें वह अपनी जायदाद से अलहदा नहीं समझा जायगा और न उसके वारिस उसकी जायदाद पावेंगे। उसकी सब जायदाद उसीके कब्जेमें रहेगी। देखो-2 W Macn. 1013 मधुबन बनाम हरी S. D. of 1852, 1089; अमीना बनाम राधाविनोद S.D. of 1856, 596%, खुदीराम बनाम रुखिनी 15 Suth 197 जगन्नाथ बनाम विद्यानन्द 7 B.L. R. (A.C.J.) 114; S. C. 10 Suth. 1728 दुखराम बनाम लक्षमण 4 Cal 954.
शास्त्रोंमें माना गया है कि शूद्र कोमका कोई आदमी साधू या सन्यासी नहीं हो सकता इस लिये उसकी जायदादका उत्तराधिकार हमेशा कानून के अनुसार होगा जबतक कि कोई सुबूत आम, या खास रवाजका न पेश किया जाये। मतलब यह है कि जब कोई शूद्र कौमका आदमी साधू हो गया हो तो साबित करना चाहिये कि उसके खानदानमें या उसके खास कुटुंबमें ऐसा रवाज है कि साधू होनेपर उसकी जायदाद वारिसको मिल जाती है देखो-धर्मपूरम पंडा समाधी बनाम बीरा पांडियाम 22 Mad 302, 18 Indian Cases 474, 'स्त्री' के संसार त्यागके विषयमें देखो दफा ७११.
सन्यासी या यती किसी संन्यासी या यतीके मरनेके पश्चात् उसकी जायदाद उसके योग्य शिष्य या चेलेको मिलेगी देखो-4 C. 9545 4 C. L. R. 49; 4 0. 954; 1 All. 539; 21 W. R. 340; 10 W. R. 172. 'योग्य शिष्य' अगर ऐसे दो शिष्य हों एक तो ऐसा हो जो मृत संन्यासी या यतीके साथ रहा है और उसकी सेवा सुश्रूषा आदि करता रहाहै और अपने गुरुके गुण प्राप्त कर चुका है दूसरा अजनबी है किन्तु उसमें भी समान गुण है वहां पर यह नियम लागू होगा कि अजनबीसे पहले जायदाद साथ रहने वाले शिष्यको
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७८५
उत्तराधिकार
[नवां प्रकरण
मिलेगी 4 Cal 543 यह नियम किसी महन्तके चेलेसे कुछ भी सम्बन्ध नहीं रखेगा देखो-14 C. W. N. 191. - अगर किसी सन्यासी या यतिका योग्य शिष्य अपने गुरुको छोड़ कर किसी दूसरे स्थानमें चला गया हो और वह वहींपर इधर उधर भ्रमण करता रहा हो तथा उसने अपने सब कर्तव्य जो गुरु और शिष्यके मध्यमें होना चाहिये तोड़दिये हों या वेष बदल दिया हो तो उसे अपने गुरुकी जायदाद उत्तराधिकारमें नहीं मिलेगी, वह उस सन्यासी या यतिका वारिस नहीं हो सकेगा। देखो-4 N. W. P. 101; मानागया है कि कोई शिष्य किसी संन्यासी या यतिका वारिस नहीं हो सकता जब तक कि वह बिरजहवन, न करे देखो-2 Indian Cases 385; 14 C. W. N. 191.
शिष्य या चेला-जब कोई आदमी सन्यासी या यति या गोसांई पंथ के अन्दर आना चाहता है तो उसे कुछ साधारण कृत्य करना होंगे जैसे शिर के बाल घुटाना, स्नान करना, उस पंथके कपड़े पहिनना, और नया नाम रखना । तब वह श्राद्मी उस पंथकी परीक्षाके अन्दर आता है। जब वह एक या दो वर्ष अपनेको वैसा बनाले और उस पथकी सब रसमोंको पूरा करले और मूलमन्त्र द्वारा 'बिरजहवन' आदि करले तो समझा जायगा कि वह आदमी पूर्ण शिष्य या चेला होगया। जब तक पूर्ण शिष्य नहीं हआ तब तक वह आदभी अपने परिवारमें लौट सकता है, पूर्ण हो जानेके पश्चात् प्रायः लौटना नहीं होता। यह भी माना गया है कि अगर किसी महन्त या गुरू या चेला आदिने किसी दूसरी तरहसे केवल नामकी उपाधि मात्र प्राप्त करली हो और वह सब कृत्ये जो उस पंथके लिये आवश्यक थे न किये हों तो सिर्फ नामकी उपाधि मात्रसे वह महन्त या गुरू या चेला आदि नहीं माना जायगा देखो-2 Ind. Cases 385. '. गोसांई-29 All. 109; 3 All. L. J. 717. में माना गया कि यदि किसी गोसांई के चेलेने, चेला होनेके पश्चात् एक वर्ष तक 'ज्योति' की उपासना की हो तब वह सत् शिष्य माना जा सकता है। अगर ऐसा न किया हो तो उसे उत्तराधिकारमें जायदाद नहीं मिलेगी। गोसांईकी जायदादका उत्तराधिकार पूर्णतया हिन्दूलॉसे नहीं निश्चित किया जाता बक्लि गोसाइयोंकी भाई बन्दीके निश्चित रवाज परसे निश्चित किया जाता है 16All.191;21 I. A. 17 जो गोसांई स्वयं और अपने कुटुम्बको दुनियांके धन्धोंके द्वारा भरण पोषण करता हो और उसका सम्बन्ध किसी मठ या मन्दिरसे न हो तो ऐसा समझा जायगा कि वह एक विशेष दर्जेका आदमी है उसकी वरासत उसके खानदानके रवाजके अनुसार होगी, देखो-1878 Select CasePart. 8No. 38. गोसांई और गोस्वामीमें कुछ भेद है किन्तु यदि दोनों दुनियांके धन्धोंसें भरण पोषण करते हों तो एकसां हालत होगी।
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दफा ६४३]
औरतोंकी वरासत
७४
भिखमंगे-भिखमंगोंसे मतलब उन लोगोंसे है जो ज़ाहिरा दुनियांसे विरक्त देख पड़ते हैं और असलमें भीख मांगना उनका पेशा है। भीखकी आमदनीसे वे अपने परिवारका भरण पोषण करते हैं । कभी कभी आत्मिक उपदेश भी वे करते हैं । ऐसे भिखमंगे साधू या किसी मज़हबके उपदेष्टा या गुरू या चेले नहीं समझे जा सकते चाहे वे किसी वेषमें हों और चाहे जो नाम रख लिया हो। ऐसे भिखमंगोंकी जायदादका उत्तराधिकार बहुत करके हिन्दूला के अनुसार होगा जैसे दूसरे लोगोंका होता है, यदि कोई खास रवाजे न साबित किया जाता हो । देखो स्ट्रेन्ज हिन्दूला ३६७. इसी विषयमें और देखो दफा ६६०. - नोट-महन्त, गद्दीधर, किसी अखाड़े या किसी मजहबके गुरू, मन्दिरके या मठके अधिष्ठता आदिके लिये विस्तारसे देखिये इस किताबका प्रकरण १७. '
(७) औरतोंकी वरासत
दफा ६४३ बंगाल, बनारस, मिथिला स्कूलमें आठ औरतें
..वारिस मानी गयी हैं __बङ्गाल, बनारस, और मिथिला स्कूलका यह माना हुआ सिद्धान्त है कि कोई भी औरत एक मर्दकी जायदाद बतौर वारिसके नहीं ले सकती, जब तककि वह पूरे तौरपर वारिस शास्त्रोंमें न बताई गई हो । नतीजा यह है कि बङ्गाल, बनारस, और मिथिला स्कूलमें सिर्फ आठ औरतें पूरे तौर पर वारिस बताई गई हैं। वह आठ औरतें यह हैं
(१) विधवा (२) लड़की (३) मा (४) बापकी मा (दादी) (५) पितामहकी मा (परदादी)।
इन पांच औरतोंके सिवाय और कोई औरत पूरे तौरपर धर्मशास्त्रों में नहीं बताई गयी इसीलिये इनको छोड़कर दूसरी कोई औरत वारिस नहीं मानी जातीमगर अब सन्१६२६ ई० के नये कानूनके अनुसार, (६) लड़केकी लड़की, (७) लड़कीकी लड़की, (८) बहन यानी यह तीन स्त्रियां मी वारिस मानी गई हैं।
मिताक्षरामें वरासतके सिलसिलेमें जिन जिन वारिसोंका नाम बताया गया है वह बापके चाचाके लड़केपर समाप्त हो जाता है। आगेके वारिसोंके लिये मिताक्षरा यह कहता है कि----
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उत्तराधिकार
[ना प्रकरण mmmmm
"एवं आसप्तमात्समान गोत्राणां, सपिण्डानां धनगृहणं वेदितव्यम्, तेषामभावे समानोदकानां धनसम्बन्धः"
बाकीके सपिण्डोंकी वरासतके बारेमें इसी तरहपर सात पूर्व पुरुषों तक समझ लेना और जब सपिण्डोंका अभाव हो तो उस वक्त वरासत समानोदकोंको मिलेगी। समानोदकोंके न होनेपर बन्धुओंको (देखो दफा ५६३).
मिताक्षरामें सबसे पिछली जो पूर्वज स्त्रिये हैं यानी-प्रपितामहकी मा, प्रपितामहकी दादी, प्रपितामहकी परदादी। इन औरतोंको पूरे तौरपर वारिस नहीं बताया। इसीलिये बङ्गाल बनारस, और मिथिला स्कूलमें यह तीन औरते वारिस नहीं मानी जातीं। दफा १४४ बम्बई और मदरास स्कूल में अधिक औरतें वारिस
मानी गयी हैं यह सिद्धान्तकि औरतें जो शास्त्रों में पूरे तौरपर वारिस बताई गई है वही जायदाद पावेगी, यह बात बम्बई और मदरास स्कूलमें नहीं मानी गयी है।
(१) बम्बई स्कूलमें, ऊपर बताई हुई दफा ६४० में पांच स्त्रियों के अलावा कुछ अधिक स्त्रियां वारिस मानी गयी हैं । सबब यह है कि वहांपर मनुके १-१८७ श्लोकपर आधार माना गया है, देखो
अनन्तरः सपिण्डाद्यस्तस्य तस्य धनं भवेत् अतउर्द्ध सकुल्यः स्यादाचार्यःशिष्य एवच । ९-१८७.
इस श्लोकका अर्थ 'सर विलियम जोन्स' साहेबने ऐसा किया है कि वरासत नज़दीकी सपिण्डको मिलेगी चाहे वह मर्द हो या औरत । यह अर्थ कुल्लूकभट्टके टीकासे निकाला गया है, देखो
"यः सपिण्डः पुमान स्त्री वा तस्य मृतधनं भवति"
बम्बईमें गोत्रज सपिण्ड स्त्रियोंको प्रिवी कौन्सिलने वारिस माना है रवाजके आधारपर, देखो-लालू भाई बनाम काशीबाई 5 Bom. 110; 7 I. A. 212, 237.
(२) मदरास स्कूलमें कुछ औरतें बन्धु या मिन्नगोत्रसपिण्ड मानी गई है इस बुनियादपर कि मनुके ऊपरके बचनमें 'सपिण्ड' शब्दमें स्त्रियां
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दफा ६४४-६४५]
औरतोंकी वरासत
भी शामिल मालूम होती हैं, देखो-बालम्मा बनाम पल्लइया 18 Mad. 1687 170. दफा ६८२, ६८३, ६८६, देखो-- दफा ६४५ बम्बई प्रान्तमें कौन स्त्रियां वारिस होती हैं।
बम्बई प्रान्तमें ऊपर कही हुई दफा ६४०,६४४ की पांच स्त्रियोंके अलावा नीचे लिखी स्त्रियां भी वारिस मानी गयी हैं
(१)-बहन, चाहे वह सगी हो या सौतेली, बम्बई में बहन एक विशेष बचनके अनुसार जायदाद पाती है, अपने भाई के घराने में पैदा होने की वजहसे वह गोत्रज सपिण्ड भी मानी जाती है, देखो-4 Bom. 188.
बम्बई प्रान्तमें दादीके न होनेपर बहन वारिस होती है, सगी बहनके न होनेपर सौतेली बहन वारिस होगी। बहन, भाईसे पहिले जायदाद नहीं पाती क्योंकि भाईका लड़का दादीसे पहिले वारिस होता है, देखो-मूलजी बनाम कृष्णदास 24 Bom. 563. भाईकी विधवाके पहले और सौतेली माके पहिले बहन जायदाद पानेका अधिकार रखती है।
__मयूखला के अनुसार सगी बहन सौतेले भाईसे पहिले जायदाद पाती है, क्योंकि मयूखलॉ के अनुसार सौतेला भाई पितामहके साथ जायदाद पाने का अधिकारी होता है। सौतेली बहन चाचासे पहिले जायदाद पाती है, देखो-टीकम बनाम नाथा 36 Bom. 120.. .
मदरास प्रान्तमें यद्यपि बहन वारिस मानी गयी है मगर वह एक बन्धु की हैसियतसे वारिस समझी जाती है। बङ्गाल, बनारस, मिथिलामें बहन वारिस नहीं मानी जाती थी मगर अब नये कानूनसे मानी जाती है।
(२) मृत पुरुषके मरनेसे पहिले जो गोत्रज सपिण्ड मर चुके हैं उन सबकी विधवाये यानी सपिण्ड और समानोदक दोनोंकी विधवाये वारिस होंगी। लेकिन बन्धु या भिन्न गोत्रज सपिंडकी विधवाये नहीं। बल्लभदास बनाम सकरबाई 25 Bom. 281. इस तरह पर लड़का, बाप, भाई, भतीजा, चाचा, चाचाका बेटा आदि मृत पुरुषके गोत्रज सपिण्ड होते हैं, इसीलिये बम्बईके फैसलोंके अनुसार, लड़केकी विधवा, बापकी विधवा यानी सौतेली मा, भाईकी विधवा, भाईके लड़केकी विधवा, चाचाकी विधवा, सगे चाचा के लड़केकी विधवा यह सब गोत्रज सपिण्ड मानी गयी हैं। इसीसे जायदाद पानेकी अधिकारी हैं। यह विधवाये सगोत्र सपिण्ड होनेकी वजहसे बन्धुओं से पहिले जायदाद पाती हैं । यहांपर जो स्त्रियां वारिस बताई गई है वह उदाहरण हैं। इनके अलावा और भी होती हैं मगर वह सब बन्धुओंसे पहिले जायदाद पाती हैं । गोत्रज सपिण्डकी बिधवायें सिर्फ बम्बई प्रान्तमें वारिस मानी गयी हैं दूसरी जगहपर नहीं। इस किताबकी दफा ६४४ में जो स्त्रियां बताई गई हैं वह भी वारिस होती हैं। प्रकरण ११ में विस्तारसे देखो।
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- उत्तराधिकार
[नयां प्रकरण
दफा ६४६ गोत्रज सपिण्ड और सगोत्र सपिण्डमें क्या फरक है ?
गोत्रज सपिण्ड और सगोत्र सपिण्डमें यह फरक है कि गोत्रज सपिण्ड उसे कहते हैं कि जो मृत पुरुषके घराने यानी गोत्रमें पैदा हुये हों। और सगोत्र सपिण्ड वह कहलाते हैं जो विवाहके द्वारा मृत पुरुषके गोत्रमें आते हैं, जैसे बहन आदि गोत्रज सपिण्ड हैं, क्योंकि वह मृत पुरुषके गोत्रमें पैदा हुई है, और चाची सगोत्र सपिण्ड है । क्योंकि उसका सम्बन्ध विवाहके द्वारा मृत पुरुषके गोत्रसे हुआ है, यही फरक इन दोनों में है। इसी तरहपर सब रिश्तेदारोंको समझ लेना। दफा ६४७ बम्बई प्रान्तमें गोत्रज सपिण्डोंकी विधधाएं वारिस
होती हैं ... गोत्रज सपिण्डोंकी विधवाओंकी वरासतका क्रम नीचे लिखे क्रमके अनुसार होता है । मगर गोत्रजसपिण्डकी कोई भी विधवा बहन से पहिले जायदाद नहीं पाती। इस बातको मानते हुये गोत्रजसपिण्डकी विधवायें अपने पतियों के क्रमानुसार वारिस हेाती हैं। लेकिन इन विधवाओंका वारिस होनेका हक़ उस वक्ततक नहीं पैदा होता जबउक कि उनके पतियोंकी शाखा वाले मर्द गोत्रजलपिण्ड न मर जायें। गोत्रजसपिण्डोंकी विधवाओंका हक इस प्रकार माना गया है
गोत्रज सपिण्डोंको विधवाओंके वरासत पाने का क्रम
लड़केकी विधवा | पोतेकी विधवा १५ | परपोतेकी विधवा
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लड़का पोता परपोता मृतपुरुषकी विधवा | लड़की लड़कीका लड़का
मा | बाप भाई भाईका लड़का
चापकी विधवा-मृत पुरुषकी
सौतेली मा भाईकी विधवा भाईके लड़केकी विधवा
१७
दादी
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बहन
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दफा ६४६-६४६ ए]
औरतोंकी वरासत
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बरार में पुत्रवधू वारिस होती है और उसकी बरासतको उसके पतिके चेचाज़ात भाईके मुकाबिले तरजीह दी जाती है-गनपत बनाम बुधमल A. I. R. 1927 Nag 86. दफा ६४८ विधवाओंका क्रम पतियोंके अनुसार होगा . ऊपर दफा ६४७ में नम्बर १८ के बाद अर्थात् जब इनमेंसे कोई बारिस न हो तो उसके बाद दादा वारिस होता है और उसके बाद दादाकी लाइनके पुरुष वारिस होते हैं, इस दादाकी लाइन में चाचा चाचाका लड़का, यह सब गोत्रजसपिण्ड हैं इसलिये अगर इन तीनों में से कोई न हो तो इनकी विधवायें अपने पतियों के क्रमसे जायदाद पायेंगी जैसे--
(१६ ) दादा ( २० ) चाचा (बापका भाई) (२१) चाचाका लड़का (२२) बापकी सौतेली मा (विधवा) (२३) चाचाकी विधवा (२४) चाचा के बेटेकी विधवा।
जैसा कि क्रम ऊपर बताया गया है इसी प्रकार परदादाकी लाइनमेंभी समझ लेना । मगर बम्बई प्रांतमें भाई के पोतेकी तथा चाचा के पोतेकी कौनसी जगह है, वह किसके बाद और किससे पहिले वारिस होने का हक रखते हैं यह बात निश्चित नहीं है परन्तु हर सूरतमें भाईका पोता, भाईकी विधवासे पहिले वारिस होगा और इसी तरह पर चाचाका पोता चाचाकी विधवासे पहिले वारिस होगा क्योंकि यह बात मानी गयी है कि 'विधवाओं के वारिस होने का हक़ उस वक्त तक नहीं पैदा होगा जबतक कि उनके पतियों की शाखावाले मर्द गोत्रजसपिण्ड न मरगये हों। देखो काशीबाई बनाम मोरेश्वर ( 1911 ) 35 Bom. 389सीताराम बनाम चिंतामणि 24 All. 472. दफा ६४९ मदरास प्रांतमें गोत्रजसापण्डोंकी विधवायें वारिस
- नहीं मानी जाती
इस किताबकी दफा ६४३ में जो पांच औरतें बताई गयी हैं उनके सिवाय दफा ६४१ में जो औरतें बताई गई हैं वह सब मदरास प्रांतमें वारिस नहीं मानी गयीं, देखो-कना कम्मल बनाम असन्त माथी 37 Mad 293. दफा ६४९ (ए) रंडी ( वेश्या) की वरासत
___ नर्तकी (वेश्या) स्त्रियों में जीवनके अधिकारके साथ खाम्दानी साझेदारी हो सकती है। किन्तु कोई ऐसी नज़ीर नहीं है जो यहांतक पहुंचती हो कि किसी वेश्याकी पुत्री जन्मके कारण. पैतृक सम्पत्तिकी अधिकारिणी हो सकती हो । फरीक वेश्यायें थीं । माता, पुत्री और प्रपात्री एक साथ रहीं
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उत्तराधिकार
[नवा प्रकरण
और अपनी आमदनी एकही जगह जमा करती रहीं, तथा संयुक्त परिवार के भांति बर्ताव करती रहीं। तय हुआ कि उन्होंने एक संयुक्त परिवार जीवित कालके अधिकारका स्थापित किया था। यहभी तय हुआ कि संयुक्त जायदाद का रेहननामा खान्दानके दूसरे सदस्योंपर उसी प्रकार लाज़िमी होगा जैसे कि कर्ज़ ली हुई रकम किसी संयुक्त हिन्दू परिवारकी आवश्यकतामें लगाई गई हो। पी. कोकिल अम्मल बनाम पी० सुन्दर अम्मल 21 L. W. 259. 86 I.C. 633. A. I. R. 1925 Mad. 802.
वेश्या-पतित हिन्दू स्त्रीके स्त्रीधन जायदाद के सम्बन्धमें साधारण हिन्दुलॉ के वरासतके आदेश लागू होते हैं और वरासतके सम्बन्धमें पुत्रियोंको बमुकाबिले पुत्रोंके तरजीह नहीं दीजाती। शेख तालिबअली बनाम शेष अब्दुल रजाक 129 C. W. N. 624; 89 I. C. 141; A. I. R. 1925 Cal. 748. दफा ६५० विधवा की अपवित्रता
यह सर्वमान्य सिद्धान्त है कि जब पतिके मरनेके बाद विधवाको जायदाद मिलनेका समय उपस्थित हो अर्थात् पतिके मरनेके समय यदि विधवा फाइशा है तो उसे वरासतमें उसके पति की जायदाद नहीं मिलेगी। लेकिन अगर एक बार उसे जायदाद मिल गयी हो पीछे विधवा बदचलन हो गयी हो तो उससे जायदाद छीनी नहीं जायगी देखो मुल्ला हिन्दूला सन् १९२६ ई० पेज १०५ केस देखो 5 Cal.776; 7 I. A. 115; 24 Mad. 441; 36 Bom. 138, 12 I. C.714. नीचे विस्तार से इसी विषयको देखिये।
(8) उत्तराधिकारसे बंचित वारिस
दफा ६५१ व्यभिचारिणी विधवा
(१) धर्मशास्त्र और फैसलोंका संक्षिप्त मत-स्मृति चन्द्रिका (११-२२६) और वीरमित्रोदय (३-२-३) में कहा गया है कि हिन्दू विधवाके लिये उत्तराधिकारके द्वारा पतिकी जायदाद पाने के बारे में ज़रूरी शर्त यह है कि विधवा सच्चरित्र हो यानी व्यभिचारिणी न हो । मिताक्षरा और मयूखभी यही बात कहते हैं किन्तु दूसरे वारिससे व्यभिचारकी शर्त लागू न होगी। विधवाकी पवित्रता या सच्चरित्रताका अर्थ वारिस होनेके मतलबके लिये केवल इतना लिया जायगा कि उसने कभी अपने शरीरसे व्यभिचार नहीं किया मनसे चाहे किया हो । देखो 17 Indian; Cases 83; 16 C. W. N. 964 कात्यायन कहते हैं कि
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दफा ६५०-६५१]
उत्तराधिकारसे बंचित वारिस
'पत्नीपत्युर्धनहरी या स्यादभिचारिणी'
पत्नी अपने पतिका धन तब लेगी जब कि वह व्यभिचारिणी न हो। मदरास और बम्बईकी हाईकोोटेंने माना है कि जिस समय विधवाको जायदाद पहुंचनेका हन पैदा हुआ हो उस समय वह व्यभिचारिणी न हो देखोकोजीयाडू बनाम लक्ष्मी 5 Mad. 149. बम्बई हाईकोर्टकी यह राय है कि यदि पतिके जीतेजी स्त्रीपर व्यभिचारका दोष लगाया गया हो, और पतिने माफकर दिया हो पीछे वह सच्चरित्र होगयी होतो विधवाका हक नहीं मारा जायगा 13 B. L. R. 1033; 36 Bom. 198; बंगाल और इलाहाबाद हाईकोर्ट यह मानते हैं कि वारिस होनेके समय यदि विधवा व्यभिचारिणी है तो उसे जायदाद नहीं मिलेगी। पंजाबमें जब कि स्त्री बालिग्न हो और किसी रिश्तेदारके साथ रहती हो, अथवा उसके लड़के मौजूद हों तो उसे पुरुष सम्बन्धी कुटुम्बियोंके विरुद्ध पतिकी जायदाद नहीं मिलेगी-34 P. R. 1893; 74 P. R. 1893.
(२) अदालती फैसले-व्यभिचारिणी विधवा अपने पतिकी जायदाद के वारिस होनेका हक नहीं रखती देखो-केरीकोलीटानी बनाम मोनीराम कोलिटा (1873 ) 13 B. L. R. 1-117 19 W. R.C. R. 367, लेकिन अगर विधवा व्यभिचारिणी होनेसे पहिले जायदादकी मालिक हो चुकी हो और जायदादपर चाहे उसका कब्ज़ा न हुआ होतो पीछे व्यभिचारिणी हो जानेके कारण उसका हक नहीं मारा जायगा-7 I. A. 115, 5 Cal. 778 6 C.L. R. 322; 13 B.L. R.1; 19.W. R.C. R. 367; 4 Bom. H. 0. A. C. 25; 2 All. 150; 24 Mad. 441 ; भवानी बनाम महताब कुंवर 2 All. 171.
जब अपनी स्त्रीका व्यभिचार पतिने माफ कर दिया हो तो फिर वह व्यभिचार विधवाकी वरासतमें बाधक नहीं होता देखो-गंगाधर बनाम पलू ( 1911) 36 Bom. 138; 13 Bom. L. R. 1038; (व्यभिचारको जाननेपर उसके विरुद्ध कुछ नहीं करना भी माफ' करदेना समझा जासकताहै)
भारतके जिन भागों में मिताक्षराला माना जाता है कमसे कम मदास और बंबई प्रांतमें विधवाही एक एसी वारिस है जो व्यभिचारके कारण उत्तराधिकारसे बंचित रखीजाती है तारा बनाम कृष्ण ( 1907) Bom. 415-502; 9 Bom. L. R. 774; 4 Bom. 104; b Mad 149, 3 Mad. 100; 26 Mad. 509; 1 All. 46; 2 N. W. P. 381; 32 All. 155; 5 Mad. 149; 33 All. 702 ( लड़की, माता, दादी, आदि नहीं)
स्मृतिचन्द्रिका मदरासमें अधिकमान्य है और वीरमित्रोदय बनारस स्कूलमें यह दोनोंही केवल सती स्त्रीको उत्तराधिकारिणी मानते हैं लेकिन
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उत्तराधिकार
[नवां प्रकरण
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मिताक्षरा और मयूख बेटीके उत्तराधिकारके विषयमें ऐसी शर्त नहीं लगातेदेखो 4 Bom. 104-110, 111; इसलिये बंबई और मदरासमें तो यह प्रश्न साफ होगया है देखो कोजी आडू बनाम लक्ष्मी (1882) Mad. 149.
बंगाल स्कूलमें विधवा और अन्य स्त्री वारिसभी उस व्यभिचारके कारण जो उन्होंने वारिस होनेसे पहले किया हो उत्तराधिकारसे बंचितहो जाती हैं, देखो-रामनाथ कुलापतरो बनाम दुर्गासुन्दरी देवी 4 Cal. 550554; 32 Cal. 871; 9 C. W. N. 1002; 22 Cal. 347; 13 B L. R. 1; 19 W. R. C. R. 367-393; परन्तु ब्यभिचारके कारण स्त्रीधनकी वरासत का हक नहीं मारा जाता देखो-गंगाजाटी बनाम घसीटा 1 All. 46%3 नगेन्द्र नन्दिनीदासी बनाम विनयकृष्णदेव 30 Cal. 521; 7 C. W. N. 121, 26 Mad. 509. शास्त्री जी०सी० सरकार इसपर विवाद करतेहैं, देखो उनका हिन्दूलॉ-3 ad. P. 333. दफा ६५२ विधवाका पुनर्विवाह
एक्ट न० 15 सन 1856 S. S. 2 के अनुसार हिन्दू विधवा दूसरा विवाह करसकती है । उपरोक्त एक्टकी दफा २ में कहागया है कि
(दफा २) अपने पतिकी जायदादमें विधवा भरण पोषणके तौरपर जो हक़ रखती हो या अपने पतिके उत्तराधिकारियोंकी वारिस होने का जो हक़ रखती हो ( 22 Bom. 321.) या किसी वसीयतनामेके अनुसार किसी जायदादपर सीमावद्ध अधिकार रखती हो और उस बसीयतमें उसको पुनर्विवाहकी श्राज्ञा न दीगयी हो तो विधवाका पुनर्विवाह होतेही ऊपर कहेहुये उसके सब हक़ों का अन्त इस प्रकार होजायगा कि मानो वह मरगयी और उसके पतिके वारिस या दूसरे लोग जो विधवाके मरनेपर जायदादके वारिस होते, जायदादके वारिसहो जायेंगे।
-पुनर्विवाहके पहले उस विधवाने हिन्दूधर्म चाहे छोड़ा हो या न छोड़ा हो दोनोंही सूरतोंमें एक्ट नं० १५ सन् १८५६ ई० की दफा २ लागू होगीः देखो-मतंगिनी गुप्त बनाम रामरतन राय (1891) 19 Cal. 289; 3 W. R. C. R. 206.
पुनर्विवाह होजानेके बाद विधवा अपने पहिले पतिके पुत्र और अन्य उत्तराधिकारियोंकी वारिस होसकती है-अकोला बनाम बौरियानी 2 B. L. R. 199; 11 W. R. C. R. 827 29 Bom. 91; 6 Bom. L. R. 779; 26 Bom. 388, 4 Bom. L. R. 737; 28 Mad. 425.
हिन्दुओंमें जिन जातियोंमें विधवा विवाहका रिवाज है उन जातियों की विधवायें भी पुनर्विवाह करके अपने पूर्वोक्त हक्न खो देती हैं या नहीं,
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दफा ६५२-६५३]
उत्तराधिकारसे बंचित वारिस
इस विषयमें मतभेद है । इलाहाबाद हाईकोर्टने कहा है कि ऐसी विधवाओं का हक़ नष्ट नहीं होता, देखो-खुदू बनाम दुर्गाप्रसाद 29 All. 122; हरसनदास बनाम नन्दी 11 Al. 330; रंजीत बनाम राधारानी 20 All. 476; गजाधर बनाम कौसिल्या 31 All. 161, मूला बनाम प्रताप ( 1910) 32
All. 489; किन्तु मदरास. कलकत्ता और बम्बई हाईकोर्टीकी राय इसके विरुद्ध है। वे कहते हैं कि हक़ नष्ट होजाता है। देखो-22 Cal. 589; 14 C. W. N. 346;1 Mad. 226; 22 Bom. 321.
पुनर्विवाह करनेवाली विधवा दूसरे पतिकी उसी तरह वारिस हो सकतीहै जैसेकि अपने पहिले पतिकी होसकतीथी-देखो एक्ट नं०१५ सन् १८५६ ई० दफा ५; और देखो इस किताबकी दफा ७२८. दफा ६५३ शारीरिक योग्यता
नया कानून एक्ट नं०१२ सन् १९२८ ई० अयोग्यताके सम्बन्धमें लागू है। अभी तक यह बात अनिश्चितथी और इसपर बहुत कुछ मुकदमेबाजी हो जाया करती थी कि अमुक व्यक्ति अयोग्यहै इसलिये उसे बरासत न मिलना चाहिये पर अब वे सब झगड़े चलेगये। इस कानूनके पास होनेके बाद कोई भी झगड़े न पड़ेंगे मगर जिनको वरासतका हक इस कानूनके पास होने यानी ता०२० सितम्बर सन् १९२८ ई०से पहले पैदा हो गया है यदि उनके सम्बन्धमें इस प्रकार के झगड़े पैदा हो गये हों और अभी चलरहे हों तो उनके लिये हिन्दू लॉ में नीचेके विषयके अनुसारही काम होगा। पहले हमारा विचार इस विषयके निकाल देनेका था मगर यह विचारकर कि सम्भव है कि उन सज्जनोंको इसविषयकी आवश्यकता होजाय जिनके ऐसे झगड़े इस कानूनके पास होनेसे पहले पैदा होगये हैं और चलरहे हैं, नहीं निकाला। मेरा अनुमानहै कि यद्यपि यह कानून पहलेके ऐसे झगड़ोंमें लागू न भी होगा पर अदालतोंकी राये इसनये कानूनके असरसे बिल्कुल खाली न होंगी। हाकिमोंकी रायोंमें इसका असर रहेगा और तब वे तोर मनोरकर वैसा फैसला देनेके लिये विवश होंगे। होना न चाहिये कतिपय हाकिम इसकी परवाहभी न करेंगे। नया कानून पीछे देखो इस प्रकरण के।
[१] यह विषय विवादास्पद है इसलिये पहले आचार्योका मत देख (१) अनंशोक्लीव पतितो जात्यन्धबधिरौतथा
उन्मत्तजड़मूकाश्च येचकेनिरिन्द्रियाः। सर्वेषामपितुन्याय्यं दातुंशक्त्यामनीषिणा ग्रासाच्छादन मत्यन्तं पतितो ह्यददद्भवेत् । मनु ६-२०१,२०२
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उत्तराधिकार
निवां प्रकरण
(२) क्लीवोथपतितस्तजः पङ्गरुन्मत्तको जड़ः
अन्धोऽचिकित्स्यरोगाद्या भर्तव्याःस्युनिरंशकाः। औरसाः क्षेत्रजास्त्वेषां निदोषाभागहारिणः सुताश्चैषां प्रतिब्याः यावद्वैभतृसात्कृताः। अपुत्रायोषितश्चैषां भर्तव्याः साधुवृत्तयः
निर्वास्या व्यभिचारिण्यःप्रतिकूलास्तथैवचाया०२-१४०-१४२ (३) पतित, क्लीवाचिकित्स्यरोग विकलास्त्व भाग
हारिणः । रिक्थग्राहिभिस्तेभर्तब्याः । तेषां चौरसाः पुत्रा भागहारिणः। नतुपतितस्य, पतनीये
कर्मणि कृते त्वनन्तरोत्पन्नाः-वृद्विष्णु १५ अ० ३३-३५ (४) सर्वणापुत्रोऽप्यन्यायवृत्तो नलभेतैकेषांजड़
क्लीवौ भर्तव्यावपत्यजड़स्यभागाहम्-गौतम २६ अ० ॥ (५) अनंशास्त्वाश्रमान्तरगताः । क्लीवोन्मत्तपतिताश्च ।
भरणं क्लीवोन्मत्तानाम्-वसिष्ठ १७ अ० ४६-४८ (६) अतीतव्यवहारान्यासाच्छादनैर्विभयुः । अन्ध
जड़क्लीव व्यसनि व्याधितादींश्च । अमिणः
पतित तज्जात बर्व्यम्-बौधायनर प्रश्न२ अ०४३-४६ (७) पितृदिट्पतितः षण्डो पश्चस्यादौ पपातिकः
औरसा आपनैतेशं लभेरन्क्षेत्रजाः कुतः। दीर्घतीब्रामयग्रस्ता जड़ोन्मत्तान्ध पङ्गवः भर्तव्याःस्युः कुलेनैते तत्पुत्रास्त्वंश भागिनः।
नारद, १३ विवाद २१-२२
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दफा ६५३ ]
उत्तराधिकारसे बंचित वारिस
भावार्थ-(१) मनु (श्र | श्लो० २०१, २०२) कहते हैं कि नपुंसक पतित, जन्मान्ध,बहरा,उन्मत्त,जड़, गूंगा और इन्द्रियहीन जैसे पंगुवा आदि ये सब उत्तराधिकारमें अपना हक़ नहीं पाते। सिर्फ अन्न वस्त्रके पानेका अधिकार रखते हैं। उनके हिस्सेकी जायदाद जिसे मिले उसको चाहिये कि नपुंसकादि लोगोंको उनके जीवन भर अन्न और वस्त्र देवे।
(२) याज्ञवल्क्य (अ० २ श्लो० १४०-१४२) कहते हैं कि, नपुंसक, पतित, पतितके पुत्र, लंगड़ा, उन्मत्त, जड़, अन्धा, असाध्य रोगी अादिको निर्वाह योग्य भोजन वस्र आदि देना चाहिये, मगर वे. जायदादमें हक्क नहीं पावेंगे । नपुंसकादिके औरस पुत्र अथवा क्षेत्रज पुत्र यदि निर्दोष होंगे तो के हक्क पावेंगे इनकी कुमारी कन्याओंको विवाह होने तक पालन करना चाहिये और पुत्रहीन स्त्रियों को यदि वे सती हों तो उनका जन्म भर पालन करना चाहिये और व्यभिचारी होनेसे घरसे निकाल देने के योग्य हैं।
(३) वृहविष्णु ( अ०१५ श्लो०३३-३५) कहते हैं कि-पतित, नपुं. सक, असाध्य रोगी और अन्धा आदि बिकलेन्द्रिय मनुष्य पैतृक धनमें भाग नहीं पाते, किन्तु उनका धन जो पावेगा वही उनका पालन करेगा। इनके
औरसपुत्र पितामहके धनमें भाग पावेंगे, मगर पतित हो जानेके पश्चात् जो पुत्र पैदा होवें धनमें भाग नहीं पायेंगे।
(४) गौतम (अ० २६ श्लो०१) कहते हैं-ऐसा भी मत है कि सवर्णास्त्रीका पुत्र भी यदि कुमार्गी हो तो पैतृक धनमें भाग नहीं पावेगा । जड़ और नमकको हक़ नहीं मिलेगा। इनके भागका पानेवाला इनका पालन करेगा। इसी तरहसे, जड़ आदिका पुत्र धनमें भाग पानेका अधिकारी नहीं है।
(५) वसिष्ठ ( अ० १७ सू० ४६-४८) कहते हैं कि गृहस्थसे वानप्रस्थ अथवा सन्यासी हो जाने वाले पुरुष पिताके धनमें भाग नहीं पायेंगे। नपुंसक, उन्मत्त और पतित भी भाग नहीं पावेंगे, भाग लेने वालेको नपुंसक आदिकोंका पालन करना पड़ेगा।
(६) बौधायन ( प्रश्न २ अ० २ श्लो०४३-४६ ) कहते हैं कि-जो लोग व्यवहारके योग्य नहीं हैं उनको सिर्फ भोजन वस्त्र देकर पालन करे। अन्धा, जड़, नपुंसक, व्यसनी, असाध्य रोगी तथा कर्मरहितका भी पालन करना उचित है । पतित और पतितसे उत्पन्न सन्तानको धनमें भाग नहीं देना चाहिये।
(७) नारद ( विवादपाद १३ श्लो० २१-२२) कहते हैं कि-पिताका बैरी, पतित, नपुंसक, और उत्पात करने वाला, ये सब औरस पुत्र होनेपर
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८००
उत्तराधिकार
[नवां प्रकरण
भी पिताके धनमें भाग नहीं पाते तो क्षेत्रज कैसे पावेगाः अर्थात् उसे नहीं मिलेगा। असाध्य रोगी, जड़, उन्मत्त, अन्धा और पंगुवाको धनमें भाग नहीं मिलेगा। सिर्फ उन्हें पालन करना पड़ेगा । मगर इनके पुत्रोंको हक मिलेगा यदि वे योग्य हों।
[२, कई शारीरिक अयोग्यताओं के कारण हिन्दू वरासत या कोपासनरीसे वंचित हो जाता है । वे शारीरिक अयोग्यताये यह हैं
१-नामर्दी-देखो भट्टाचार्यका लॉ आफ ज्वाइन्ट फैमिली P. 405408. हद्द दर्जेकी मूर्खता-1 Mad. H. C. 214. ट्वेिलियन हिन्दूलॉ P.35 4.
२--जन्मान्ध-मुरारजी गोकुलदास, बनाम पार्वतीबाई 1 Bom. 1773 2 Bom. H. C. 5. उमाबाई बनाम भाऊपदमनजी 1 Bom. 557; 14 B.L. R. 273; 23 W. R. C. R. 78; 2 B. L. R. F. B. 103; 11 W. R. A. 0.J. 11; 20 Bom. L. R. 38.
३-बहरा या गूंगा-मदनगोपाललाल बनाम खिकिन्डा कुंवर 18 I. A. 9; 18 Cal 341; 11 I. A. 20; 6 Ali. 322; 4 Bom. H. C. A. C. 135; 1 B. L. R. A. C. 117; 11 W. R. A. N. J. 19; Ben. S. D. A. 1860 P. 661.
४-अङ्गहीनता और बुद्धिहीनता- मिताक्षरा और दायभागका यही मत है-लंगड़ापन अर्थात् चल सकनेके योग्य न होना-भट्टाचार्य हिन्दुला 2 ed. P. 350; 26 Mad. 133; स्फटिकचन्द्र चटरजी बनाम जगतमोहिनी 22 W. R. C. R,348.
५-पागलपन-रामसुन्दरराय बनाम रामसहाय भगत 8 Cal. 919.
६-पागलपन चाहे वह जन्मका न हो-रामसहाय भुक्कट बनाम लालजीसहाय 8 Cal. 149; 9 C. L. R. 457; 9 N. L. R. 198; 18 W. R.C. R. 305:10 Cal. 639; 5 All. 509, 13M. I. A. 519; 6 B.L. R. 509; 15 W. R. P. C. 1; 7 W. R. C. R. 5; 1 Bom. 177.
७-पागलपन यदि असाध्य हो-द्वारिकानाथ बैसाक बनाम महेन्द्रनाथ बैसाक 9 B L. R. 198; 18 W. R. C. R. 305; 5 All. 509.
अगर किसीका हक़ उसके जन्मसे ही जायदादमें पैदा होगया हो तो वह हक़ मारा नहीं जाता, बशर्ते कि उसके बाद वह पागल हुआ हो, देखोत्रिवेनीसहाय बनाम मोहम्मद उमर 28 All.247. वृजभूषणलाल बनाम विञ्चन देवी 9 B. L. R. 204 का नोट 14 W. R. C. R. 329; 14 M. 289. अगर वारिस होनेके बाद पागल होगया हो तो भी उसका हक नहीं मारा जाता-9 B. L. R. 1983; 18 W. R.C. R. 30535All. 509.
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दफा ६५३]
उत्तराधिकारसे बंचित वारिस
५०१
पागलपनके स्पष्ट प्रमाण होने परही कोई पुरुष या स्त्री वरासतसे वंचितकी जा सकती है। केवल बुद्धिकी कमजोरीके कारण, या स्वयं अपनी जायदादका प्रबन्ध करनेकी योग्यता न होनेके कारणसे ही कोई हिन्दू वरासतसे वंचित नहीं किया जा सकता, देखो-सुरती बनाम नरायनदास (1890) 12 All. 530. हत्या या सज़ा पाना या नाकाबिलियतके कारणोंका वर्णन, देखो-सानयेलप्पा होसमानी बनाम चन्नप्पा सोमसागर 29 C.W.N. 2713 861. C. 324 (2); A.I. R. 1924 P. C. 209.
उत्तराधिकारसे वंचित होनेके उपरोक्त नियम स्त्री और पुरुष दोनों से समान लागू होते हैं, देखो-बाकूबाई बनाम मानचाबाई 2Bom.H C.5.
८-प्रचीन शास्त्रोंके अनुसार असाध्य रोग वाले आदमी उत्तराधिकार से वंचित किये जा सकते हैं, परन्तु वर्तमान कानून केवल असाध्य और बहुत बढ़े हुये कुष्टके रोगीको वरासतसे वंचित करता है, देखो-अनन्त बनाम रमाबाई 1 Bom. 654. जनार्दन पाण्डुरंग बनाम गोपाल 5 Bom. H.C. A. C. J. 145; 1 Mad. S. D. A. 239; 11 W. R.C. R. 5357 22 I. A. 94; 22 Cal. 848; b Ben. Sel. R. 315. - रनछोड्नरायन बनाम आजोबाई 9 Bom. L. R. 114. में माना गया है कि-जिसे साधारण कुष्ठ हो और आराम होने वाला हो वह वंचित नहीं रहेगा। यहांपर यह बात कही जा सकती है कि-क्यों न प्राचीन शास्त्रोंकी श्राशा मानकर सभी असाध्य रोगियोंको वरासतसे वंचित किया जाय? परन्तु जैसाकि भट्टाचार्य अपने लॉ आफ ज्वाइन्ट फैमिलीके P. 407. में कहते हैं कि-यह साबित करना बहुत कठिन है कि कौन रोग असाध्य है जो दवासे नहीं अच्छा हो सकता; देखो-ईश्वर चन्द्रसेन बनाम रानीदासी (1865)2 W. R.C. R. 125. प्राचीन समयमें और भी कई ऐसे कारण माने जाते थे कि जिनकी वजहसे हिन्दू वरासत और बटवारेसे वंचित किया जाता था। लेकिन यह अयोग्यता प्रायश्चित्तसे मिट जाती थी, अब कोई अदालत उन कारणोंसे किसी हिन्दूको उत्तराधिकार या बटवारेसे वंचित नहीं करती। लेकिन फिर भी कई मामलोंमें वैसे अयोग्यवारिसके लिये प्रायश्चित्त आवश्यक माना गया है, देखो-11 W. B. C. R. 535; 6 Ben. Sel. R. 62.
प्राचीनकालमें बापका कोई शत्रु वरासत या बटवारेसे वंचित किया जाता था-भोलानाथ राय बनाम सावित्री 6 Ben. Sel. R 62 परन्तु वर्तमान कानून इसे नहीं मानता, देखो--कालिकाप्रसाद बनाम बद्री 3 N. W. P. 267. मनुने तो यहां तक कहा है कि जाल करने या धोखा देने वाला कोपार्सनर बटवारेके समय अपने हिस्सेसे वंचित किया जा सकता है. परन्तु अब ऐसा नहीं होता; अब तो केवल उसको उस जायदादका बटवारा करा लेना पड़ता है जो उसने अपने दूसरे कोपार्सनरोंको वंचित रखने के लिये
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८०२
उत्तराधिकार
[नवा प्रकरण
जाल या धोखेसे अलहदा करली हो, देखो-3 N. W. P. H. C. 267; स्ट्रेञ्ज हिन्दूला पेज २३२. दफा ६५४ आयेग्यताका असर
जब कोई वारिस अयोग्य मान लिया जाय तो मृतपुरुषका उस अयोग्य के बादवाला वारिस इस तरहपर वारिस होताहै कि मानो वह अयोग्य वारिस मरगया 1 B. L. R. A. C. 117; 11 W. R.A. 0. J. 19; 13 M. I. A. 519; 6 B. L. R. 509; 15 W. R. P. C. 1.
अयोग्य वारिसका पुत्र वारिस हो सकता है परन्तु वह अपने पिताके पुत्र होनेकी हैसियतसे वारिस नहीं होता बल्कि मरने वालेका वारिस होने की हैसियतसे वारिस होता है, देखो--1 B.L. R. A. C. 117; 11 W. R. A. O. J. 19 का नोट।
उदाहरण-अज, मरा और उसने अपनी बहनका पुत्र वारिस छोड़ा। मगर वह पुत्र अन्धा है और उसके एक पुत्र मुकुंद है तो मुकुन्द, अजका वारिस नहीं होगा ( ध्यान रहे कि बहनका पुत्र बन्धु होता है और बन्धुके न होनेपर दूसरे वारिस को जायदाद चली जाती है) दफा ६५५ अयोग्यता चली जानेपर
अगर किसी पुरुष या स्त्रीको एकबार जायदाद मिलनेका हक़ पैदा हो गया हो तो पीछे होनेवाली किसी अयोग्यताके सबबसे वह जायदाद उसके क़ब्ज़ेसे नहीं हटाई जासकती, देखो-अवलख भगत बनाम भीखीमहदू 22 Cal. 864; त्रिवेनीसहाय बनाम मोहम्मद उमर 28 All. 547; 14 Mad. 289; 5 All. 509; 17 I. A. 173; 18 Cal. 111.
जिस अयोग्यताके कारण वारिस जायदादसे बंचित रखा गया हो, और उस अयोग्य वारिसके बादका वारिस उस जायदादपर काबिज़ होगया हो और पीछे अयोग्य वारिसकी वह अयोग्यता जाती रहे तो एसी सूरतमें वह जायदाद पानेका अधिकारी नहीं होता, यानी उसके बादवाले वारिससे जायदाद नहीं छीनीजायगी; देखो-देवकिशन बनाम बुद्धिप्रकाश b All. 509.
ऐसी सूरतमें यदि अयोग्य वारिसके कोई पुत्र उस समय पैदा हुआ हो जब कि उसके बादवाला वारिस जायदादपर काबिज़हो चुका हो तोभी जायदाद उस बाद वाले वारिससे नहीं छीनी जायगी, देखो--कालिदास बनाम कृष्णचन्द्रदास (1869) B. L. R. F. B. 108; 11 W. R. A O J. 11: 1 B. L. R. A. C. 137; 11 W. R. A. 0. J. 19 का नोट, 5 All. 5096 Bom. 616332 Bom. 455%3 10 B. L. R. 559.
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दफा ६५४-६५७]
उत्तराधिकारसे बंचित वारिस
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उदाहरण-एक आदमी मरा और उसने एक लड़का गूंगा और अपनी विधवाको छोड़ा। ऐसी दशामें गूंगे पुत्रको वरासत नहीं मिलेगी। बल्कि विधवाको मिलेगी, यदि विधवाके जीवनकालमें पुत्रका शृंगापन चला जाय
और वह बिल्कुल अच्छा होजाय तो भी पुत्र, विधवासे जायदाद नहीं छीन सकता; विधवाके मरनेपर पुत्रका हक जायदादके पानेका पैदाहोगा; चाहे बाप के भाई मौजूद भी हों। अब दूसरी तरहसे इसेयों समझिये कि-एक आदमी मरा और उसने एक अन्धा लड़का तथा एक भाई छोड़ा । ऐसी दशामें भाई जाय. दादका वारिस होगा । यदि अन्धापन उसका अपने चाचाकी जिन्दगीमें चला जाय और वह बिल्कुल अच्छा हो जाय तो वह चाचासे जायदाद नहीं छीन सकता। अब चाचा यदि अपनापुत्र छोड़कर मरे तो फिर वह जायदाद चाचा के पुत्रको इसलिये मिलेगी क्योंकि चाचा अपने जीवन कालमें उस जायदाद पर पूरे मालिककी हैसियतसे कब्ज़ा रखता था, और यदि चाचा बिना किसी दूसरे वारिसको छोड़े मरजाय तो जायदाद उसे मिलेगी जो अन्धेपनसे अच्छा हुआ है। मगर उसे अपने बापके वारिसकी हैसियतसे नहीं मिलेगी बक्ति बापके भाईके वारिसकी हैसियतसे सिलेगी। दफा ६५६ स्त्रीधन
जिन शारीरिक आरोग्यताओंके कारण स्त्री, किसी पुरुषकी वारिस होनेसे बंचित रखी जाती है उन्हीं अयोग्यताओंके कारण वह किसी स्त्रीके स्त्रीधनकी वारिस होनेसे बंचित होसकती है या नहीं इस विषयमें मतभेदहै। क्योंकि-शास्त्रमें सिर्फ पुरुषके वारिस होने के बारेमें ज़िकर किया गया है स्त्रीके बारेमें नहीं। इस विषयमें शास्त्री जी० सी० सरकार अपने हिन्दूला 3 ed. P. 333 में कहते हैं कि दोनों हालतोंमें कुछ भेद नहीं माननाचाहिये। कोई ब्याही लड़की जिसका पुत्र गूगा हो बंगाल स्कूलमें स्त्रीधन जायदादकी घारिस हो सकती है या नहीं इस प्रश्नका विचार चारुचन्द्रपाल बनाम नवसुन्दरीदासी (1891) 18 Cal. 327 के मुकदमे में किया गया और यह निश्चय किया गया कि वह वारिस होसकती है, क्योंकि यह साबित नहीं किया जासका कि उसके पुत्रका गूंगापन असाध्य है अर्थात् किसी भी वासे आराम होनेके योग्य नहीं है। दफा ६५७ बम्बईमें अयोग्य पुरुषकी स्त्री
बम्बई स्कूलमें अयोग्य हिन्दू पुरुषकी स्त्री या विधवा अपने पतिके द्वारा या दूसरी तरह वारिस हो सकती है मगर शर्त यही है कि वह खुद अयोग्य न हो, देखो-गंगू बनाम चन्द्रभागाबाई 32 Bom. 275, 10 Bom. L. R. 149; अयोग्य पुरुषकी विधवा अपने पति या अपने पुत्रकी मी वारिस हो सकती है, देखो-मेकनाटन हिन्दूला 2 ed. P. 130.
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८०४
उत्तराधिकार
[नवां प्रकरण
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दफा ६५८ हत्यारा वारिस
कोई आदमी उस आदमी की जायदादका वारिस नहीं हो सकता जिसकी हत्यामें वह शरीक रहाहो, देखो--31 Mad. 100; 27 Mad. 591, 32 Boin. 275; 12 Bom. L. R. 149.
वेदाम्मल बनाम वेदानायगा मुदालियर (1907) 31 Mad. 100 में यह बातथी कि पुत्रकी बारिस माता हुई थी। जिसपर कतलका अभियोग लगाया गया था । मगर वह अदालत फौजदारीसे बरी होगयी। मगर दीवानी के मामलों में विशेषकर उत्तराधिकारमें यह नहीं कहा जा सकता कि अदालत फौजदारीमें उसका अपराध प्रमाणित नहीं हुआ, इसलिये वह वारिस होनेके योग्य है।
बापका दुश्मन-मदरास हाईकोर्टने माना है कि बापसे दुश्मनी रखने वाला पुत्र उत्तराधिकारसे बंचित कर दियाजावेगा, देखो - 27 Mad. 591, 14 M. L_J. 297; इलाहाबाद हाईकोर्ट की यह राय है कि जो पुत्र अपने पिता के प्रति दुश्मनीके काम अमलमें लाया हो या अपने पितासे ऐसी दुश्मनी रखता हो जिससे पिताके प्राणोंका भय हो तो यह बातें पुत्रको, बाप का वारिस होनेसे वंचित करने का आधार होसकती हैं, देखो-3 N. W. P. 267; 7 Ben. Sel. R. 62; Ben. S. D A. ( 1848 ) P. 320. दफा ६५९ धर्म या जातिसे च्युत
___ जातिच्युत होने या धर्म त्याग देनेसे कोई पुरुष या स्त्री वरासत से च्यत नहीं की जासकती, देखो-23 Mad. 171; एक्ट नम्बर 21 of 1850% 2 N. W. P. 446; 1 Agra 90; 1 Bom. 5593 W. R. C. R. 206; 1 Indian Jur. N. S 236; 88 I. A. 877 33 All. 356; 15 C. W. N. 545; 13 Bom. L. R. 427; 29 All. 487,
इसका मतलब यह है कि जब कोई जातिच्युत वारिस उत्तराधिकार से वंचित किया जाता है तो वह जातिच्युत होने के कारण नहीं बल्कि कानून में माने हुये दूसरे दोषके कारण जो उसके जातिच्युत होनेके साथ लगा है, जैसे विधवा व्यभिचारके कारण जातिच्युत हुई हो और वरासतसे वंचित रखी गयी हो, तो यहां उसका वरासतसे वंचित रखाजाना उसके जातिच्युत होने के कारण नहीं है बल्कि उसके व्यभिचारके दोषके कारण है।
धर्मच्युत होने के बारेमें मिस्टर मेन अपनी हिन्दूलॉ पेज 804 की दफा 593 में एक मुक़द्दमेका हवाला देते हैं जिसके वाकियात यह थे-रतनसिंह
और उसका पुत्र दौलतसिंह दोनों मुश्तरका खानदानमें रहते थे । रतनसिंह मुसलमान हो गया। पीछे वे दोनों मरगये । दौलतसिंह एक विधवा और कुछ
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दफा ६५८-६६० ]
उत्तराधिकारसे बंचित वारिस
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लड़कियां छोड़गया, और रतनसिंह एक विधवा और लड़की का लड़का खैराती छोड़गया। दोनों विधवाओं के मरने के बाद खैराती और दौलतसिंहकी लड़कियोंके परस्पर जायदादके लिये तकरार हुई । अन्तमें इनका सुलहनामा होगया जिसके अनुसार लड़कियोंने कुल जायदाद का आधे से ज्यादा हिस्सा पाया। दफा ६६. संसार त्याग
जिस श्रादमीकी बायत साफ तौरसे यह साबित कर दिया जाय कि उसने सब सांसारिक कामोंको त्यागदिया है। अर्थात् साधू, संन्यासी, या ब्रह्मचारी हो गयाहै, तो वह वरासतसे वंचित रखा जाता है, देखो-तिलकचन्द्र बनाम श्यामाचरण प्रकाश [ W. R.C. R. 209, ऐसा आदमी यदिफिर सांसारिक कामोंमें शरीक होजाय तो वह फिर वरासत पानेका अधिकारी होजायगा, मगर शर्त यहहै कि-उसकी जायदादपर उसके बाद वाले वारिसका कब्ज़ा न होगया हो । यदि होगया होगा तो फिर वह उससे जाय दाद नहीं छीन सकता।
रामकृष्ण हिन्दूला Part 2 P. 214 में कहा है कि वह आदमी जिसने कि संसारके सब कामोंको छोड़दिया हो, और संन्यासी या नित्य-ब्रह्मचारी होगया हो, उसे उत्तराधिकारका हक नहीं मिलता । जिसने संसार बिल्कुल महीं छोड़दिया है और जो फकीर या साधुसन्त होगया है इनमें मेद सिर्फ यही है कि जिसने संसारको बिल्कुल नहीं त्यागा है, चित्तमें विराग आनेसे घरमें या दूसरी जगहपर कोई झोपड़ी या मठी बनाकर भजन करता है और अपने ज़रूरी कामोंको कभी कभी करता रहता है वह उत्तराधिकारके हकसे वंचित नहीं रस्त्रा जासकता । यदि कोई हिन्दू फ़कीर या साधुसन्त भी होगया, किन्तु उसने संसारको बिल्कुल नहीं त्यागा बल्कि पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र भी पैदा हो गये हैं तो यह बात मानी जायगी कि वह कानूनी फकीर या साधुसन्त नहीं हुआ और इसलिये एक मुकदमे में ऐसी ही सूरत होनेसे अपने भतीजे की जायदादका वारिस हुआ-93 P. R. 1898; पूरे फकीर या साधूसन्तको अपनी पैतृकसम्पत्तिमें कुछ अधिकार नहीं है 1 P. R. 1868.
साधारणतः यह बात मानली जायगी कि जब बहुत दिन फकीर या साधूसन्त हुए ब्यतीत होचुके हों, देशाटन करता हो, घरसे तथा जायदादसे सम्बन्ध न रखता हो, सांसारिक कामोंको न करता हो, तो ऐसा आदमी कानूनी फकीर या साधूसन्त है।
____ 11 Indian, Cases, 373; 106 P. R. 1911 के मामलेमें जगरांवका एक अगरवाल बनियां जो 'सुथरा फकीर' हो गया था, मानागया कि उसने
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उत्तराधिकार
[ नवां प्रकरण
संसारको बिल्कुल छोड़ दिया और अपनी मौरूसी जायदाद के हक़ त्यागदिये । इस नज़ीर में यह भी कहा गया है कि जो पक्षकार यह बयान करे कि उसने संसार नहीं छोड़ा तो साबित करनेका बोझ उसी पक्षकारकी गरदनपर है ।
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लेकिन एक बैरागी साधू जिसने संसारको न छोड़ा हो कुटुम्बमें जायदादका हक़ पाने से बंचित नहीं होलकता यदि कोई रवाज इसके विरुद्ध साबित न हो, देखो - 24 P. R 1880; ऐसे मामलेमें उचित विचार्य विषय ( तनकीह ) यह है कि 'क्या अमुक आदमी फक़ीर या साधू होजाने पर संसारके छोड़ देने का इरादा करता था' ? और 'क्या उसने संसार छोड़ दिया ?' इसके साबित करनेका बोझ जो बयान करे कि 'मैंने संसारको नहीं छोड़ा' उसी पर होगा - 7 P. R. 1892,
कोई हिन्दू वैरागी होजानेपर भी जायदादपर अगर अपना क़ब्ज़ाबनाये रखना चाहे या अपने हक़की जायदाद में अपना स्वत्व स्वीकार करता रहे तो उसके उत्तराधिकारके स्वत्व नहीं नष्ट होंगे। देखो - 10 W. R. 1721 B. L. R. A. C. 114; 1 W. R. 209; 15 W. R. 197; 1878 Select case. Part 8 No. 39; 1879 Select case P. 8 No. 40; और देखो इस किताबकी दफा ६४२ ।
दफा ६६१ बार सुबूत
जो पक्षकार वारिसको अयोग्य बयान करता हो उसीपर बार सुबूत रहेगा, देखो - रामविजय बहादुरसिंह बनाम जगतपालसिंह 17 I. A. 173; 18 Cal. 111; जब किसी पक्षकार की तरफसे यह कहा जाता हो कि अमुक पुरुष, किसी असाध्य रोग, या अपनी दूसरी अयोग्यताके कारण जायदादका वारिस होने से वंचित रखाजाय तो उस पक्षकारको बहुत मज़बूत सुबूत इस बातका देना होगा कि जिस समय उसे जायदाद मिलनेका हक़ पैदा हुआ है वह वैसी बीमारी या अयोग्यता रखता था देखो - 9 O. C. 352; 18 W. R. 375; 22 W. R. 348; 21 W. R. 249; 2 W. R. 125; विधवाके विषयमें देखो -1 B. H. C. 66.
दफा ६६२ वारिस अपना हक़ छोड़ सकता है
जब किसी वारिसको जायदाद पानेका हक़ पैदा होजाय या पैश होने वाला हो दोनों सूरतों में वह अपना हक़ छोड़ सकता है । देखो-गोसांई टीकमजी बनाम पुरुषोत्तमलालजी 3 Agra 238.
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हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधक)
ऐक्ट नं ० २ सन् १९२९ ई०
भारतीय व्यवस्थापिका सभामें पास होकर ता० २१ फरवरी सन् १९२९ ई० को श्रीमान् गवर्नर जनरल महोदय द्वारा स्वीकृत |
यह क़ानून उस हिन्दू पुरुषकी जायदाद के वारिसोंकी लाइन में परिवर्तन करने के लिये बनाया जाता है जो बिना वसीयत ( मृत्यु - पत्र) किये मर जाय । चूंकि यह अति आवश्यक प्रतीत होता है कि जब कोई हिन्दू पुरुष बिला वसीयत किये हुये मरजाय तो उसके पश्चात् उसके वारिस जिस तारीख से उसकी जायदाद के पानेके अधिकारी होते हैं उनकी लाइन में परिवर्तन किया जाय इसलिये नीचे लिखा हुआ क़ानून बनाया जाता है ।
- दफा १ नाम विस्तार और प्रयोग
( १ ) यह क़ानून “हिन्दू उत्तराधिकार" ( संशोधक ) ऐक्ट नम्वर २ सन् १९२९ ई० (Hindu Law of Inheritance (Amendmond) Act. II of 1929 ) कहलायेगा ।
( २ ) यह क़ानून सारे ब्रिटिश भारत में जिसमें ब्रिटिश विलोचिस्तान और संथाल परगने भी शामिल हैं लागू होगा किन्तु यह क़ानून उन्हीं लोगों के सम्बन्धमें लागू होगा जिनके लिये इस क़ानून के पास होने से पहले उन बातोंके लिये मिताक्षराला लागू रहा होगा तथा उन लोगों में भी पुरुषोंकी उसी जायदाद के सम्बन्धमें लागू होगा जो शामिल शरीक परिवार ( मुश्तरका खानदान) की न हो और जो वसीयत द्वारा अलग न कर दी गई हो ।
- दफा २ कुछ वारिसोंके उत्तराधिकारका क्रम
लड़के की लड़की, लड़की की लड़की, बहन तथा बहन का लड़का, क्रमानुसार दादा ( Father's father ) ( बाप का बाप ) के पीछे तथा चाचा
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ऐक्ट नं० २ सन् १६२६ ई०
[ नवां प्रकरण
(Father's brother) ( बाप का भाई) से पहले मृत पुरुष की सम्पत्ति पाने के उत्तराधिकारी होंगे ।
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परन्तु शर्त यह है कि बहन के लड़के से मतलब उस लड़केका नहीं है जो उसकी ( बहन की ) मृत्यु के पश्चात् गोद लिया गया हो ।
- दफा ३ इस क़ानूनकी किसी बातका प्रभाव नीचे लिखी हुई बातोंपर नहीं पड़ेगा
(ए) किसी खानदान या किसी स्थान के विशेष रवाजपर जो क़ानून के तौर पर माना जाता हो, या
(बी) लड़के की लड़की, या लड़की की लड़की या बहनका हक़ किसी जायदाद में उससे अधिक या उससे भिन्न नहीं पहुंच सकेगा जो किसी स्त्रीका मिताक्षरा स्कूल के अनुसार किसी पुरुष की जायदादमें पहुंचता रहा है ।
(सी) यदि किसी रीति रवाज या दूसरे नियम के अनुसार किसी हिन्दू पुरुष की जायदादका उत्तराधिकारी केवल एकही वारिस हो सकता हो तो इस ऐक्ट के अनुसार ऐसे मृत हिन्दू पुरुषका वारिस एक से अधिक न हो सकेगा ।
व्याख्या
इस कानून के बनने का कारण - हिन्दू धर्म शास्त्रकारोंने ५७ दर्जे तक सपिण्ड माने हैं सपिण्ड का मोटा अर्थ यह है "नजदीकी सम्बन्ध" हिन्दुओं में जायदाद का क्रम प्रायः इसी आधार पर चला है ५७ दर्जे में सपिंड सबों ने माना है पर बीचमें उनके शुमार करनेमें मतभेद हैं ।
इस कानून के पास होने से पहले उन बारिसों को जायदाद नहीं मिलती थी खास कर बना स्कूल में जो इस कानून में बताये गये हैं । प्राचीन आर्य ग्रन्थोंमें उत्तराधिकार इन वारिसाको कुछभी नहीं दिया गया चाहे जायदाद दूर से दूर किसी ऐसे वारिसको चली जाय जो कई गोत्र बीचमें आने पर शुमार किया जाता हो अथवा उनके भी न होने पर जायदाद किसी शिष्य या स्थानीय किसी ब्रह्मचारीको दे दी जाय मगर उन वारिसों को न दी जाय जो इस कानून में बताये गये है । क्योंकि वे वारिस पुराने जमान नहीं माने गये । और उनका नाम तक उत्तराधिकार में नहीं लिया गया । बल्कि यह बात साफ तौर से मिलती है कि जिस वाक्य के आधार पर यह उत्तराधिकार निर्माण किया गया है उस वाक्य के अर्थ से यह परिणाम निकाला गया है । क्योंकि उसी वाक्य के अर्थ से बम्बई और मदरास स्कूलों में बंगाल मिथिला और बनारस स्कूल की अपेक्षा कुछ अधिक वारिसों का हक उत्तराधिकार मिलने में मजूर किया गयौह । वे ऐसे वारिसोंके अन्दर कुछ औरतें तथा गोत्रज सपिंडों की विधवायें भी शामिल करते हैं ।
बङ्गाल, मिथिला और बनारस स्कूलमें सिर्फ पांच स्त्रियां सीमाबद्ध अधिकार सहित उत्तराधिकार पाती है जैसे, विधवा, लड़की, मा, दादी और परदादी । बम्बई स्कूलमें इनके अलावा १ लड़केकी लड़की
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दफा ३]
हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधक)
और एक विशेष वचनके अनुसार तथा एक दशामें १ लड़के की विधवा, २ पातकी विधवा, ३ परंपोकी विधत्रा, ४ मृत पुरुषकी सौतेलीमां, ५ भाईकी विधवा और ६ भाईके लड़के की विधवाभी अपने पतिय की शाखा वाले मर्द गोत्रज सपिण्डों के न होने पर उत्तराधिकार पाती हैं । मदरास स्कूल में 9 बहन, २ सौतेली बहन, ३ लड़केकी लड़की, ४ लड़की की लड़की, ५ भाईकी लड़की बन्धु मानी गईहैं । और बहन के पीछे इनके उत्तराधिकार मिलने के प्रश्न पर विचार किया गया है । इस कहने से हमारा मतमतलब यह है कि जिस एक वाक्य के अर्थ करनेका मतभेद आचाय में था उसीसे उत्तराधिकार में मतभेद पड़ गया अब आप वह वाक्य देखो - मनु ९ - १८७ में कहते हैं कि:
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अनन्तरः सपिण्डाद्यास्तस्यतस्यधनं भवेत् ।
श्रत ऊर्द्ध सकुल्यः स्यादाचार्यः शिष्यएवच ॥
इस वाक्य में "सपिण्ड" शब्द के अर्थ में मतभेद हुआ है । कुल्लूक भट्ट ने यह अर्थ किया"यः सपिण्डः पुमान् स्त्री वा तस्यमृतधनं भवति ” उन्होने सपिण्ड शब्दका अर्थ किया कि पुरुषहो या स्त्री हो दोनों सपिण्डहैं दोनों को मृतकी जायदाद मिलेगी । यह अर्थ बम्बई मदरास स्कूल में मानकर स्त्रियों का हक जायदाद पाने का माना गया परन्तु बंगाल मिथिला बनारस स्कूल में इसका अर्थ दूसरा किया गया जिसमें पांच से अधिक स्त्रियां नहीं शामिल की गयीं वहभी दूसरे तरीके से |
इधर बहुत रोज से वह विचार पैदाहो गया था कि जब कोई हिन्दू लड़केकी लड़की या लड़की की लड़की या वहन अथवा बहनका लड़का छोड़ कर मरे तो दूर के वारिस जायदाद ले जाते हैं तथा यह नजदीकी सपिण्डों को कुछ नहीं मिलता । ऐसा मानों कि मृत पुरुष अपनी बहन छोड़कर मरा तो उसको जायदाद न मिलेगी और दूर से दूर के वारिस ले जावेंगे फिर उसे कभी कभी खाने पीनेकी तकलीफ बरदाश्त करना होगी। एक मां बापसे जन्मी और मां बाप के बसवर शरीरके अंश बहनम होते हुये वह वारिस करार न पात्रे उसे भूखों मरना पड़े और गैर आदमी सब धन ले जावें । इत्यादि बातों पर विचार किया गया और बम्बई मदरास का कायदाभी देखा गया इन बातों से यह सर्वमान्य सिद्धान्त मिताक्षरा स्कूल के अन्दर कानून के रूपों में पास कर दिया गया जिसमें इनको जायदाद दूरके वारिसों से पहले मिल जाय । मेरी राय में इस कानून का पास होना अत्यावश्यक था 1
विस्तार – इस कानूनको दफा १ ( २ ) में कहा गया है कि यह कानून वहाँ पर लागू होगा जहां मिताक्षरा लॉ का प्रभुत्वद्वै । यह ध्यान में रखेयेगा कि सिर्फ दायभाग, बंगाल में माना जाता है और भारत की सब जगहों में मिताक्षरा लॉ का प्रभुत्वहै । इस लिये यह कानून बंगालको छोड़कर बाकी सब भारत में माना जायगा । ब्रिटिश बिलोचिस्तान और संथाल परगने भी इस कानून में शामिल हैं । अर्थात् बनारस, मिथिला, महाराष्ट्र, गुजरात, द्रविड़, और आंध्र प्रदेशों में अब यह कानून माना जायेगा । देखो इस किताब का पेज २७
ता० २१ फरवरी सन् १९२९ ई० को श्रीमान् गवर्नर जनरल ने इस कानूनकी मंजूरी प्रदान की है, और इस कानून में यह नहीं बताया गया है कि यह कानून कब से अमल में आवेगा इस लिये यह कानून उसी तारीख से अमल में आवेगा जिस तारीख को गवर्नर जनरल महोदय ने इसकी मंजूरीदी | जनरल क्लाज ऐक्ट का सारांश है कि जब किसी कानून में उसके लागू किये जाने की तारीख न बताई गई हो तो वह उस तारीख से लागू माना जायगा जिस तारीख को गवर्नर जनरलने मंजूरी दीहो । वारिस और हक - अभी तक उत्तराधिकार दादा ( बाप का बाप ) के बाद अर्थात् दादा के न होने पर बाप के भाई को मिलता था मगर अब दादा तक बराबर उसी प्रकार चला जायगा यानी मृत
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[ नवां प्रकरण
पुरुषकी जायदाद पहले उसके लड़के, पोते, परपोते, पावेंगे पीछे विधवा, लड़की, लड़की का लड़का पावेगा पीछे उसकी ( मृत पुरुष की ) मां, बाप, भाई, भाई का बेटा, भाई का पाता पावेगा उसके बाद दादी और दादी के न होने पर दादाको जायदाद मिलेगी, अब इस नये कानून के प्रभाव से दादा के न होनेपर लड़केकी लड़की, लड़की की लड़की, बहन और बहनका लड़का क्रमसे जायदाद पावेगा इनका क्रम ऐसा है कि जब पहला न हो तो दूसरे को क्रम से मिले । अर्थात् लड़के की लड़की न होने पर लड़की की लड़की को मिलेगी इसीतरह एकके न होनेपर आगे के दूसरे वारिस को जायदाद मिलेगी । जब इतने वारिस न देंगे तब बाप के भाई (चाचा) को जायदाद मिलेगी और फिर वरासत का क्रम वही रहेगा जो हिन्दूलों में पहले बताया इस कानून में ३ स्त्रियों को और १ पुरुषको अधिक वारिस माना गया है । इन सबके अधिकारों के बारे में कानून में साफ कर दिया गया है कि जिस स्कूल के अन्तर्गत जिस प्रकार स्त्रियों को जायदाद में इक प्राप्त रहते हैं उतने ही रहेंगे और पुरुषों को जो प्राप्त होते हैं उनको वैसे ही रहेंगे जहां पर 'प्राइमोजेनीचर' का कानून माना जाता है अर्थात वरासत का वह नियम जिसके अनुसार जेष्ट पुत्रही अपने पिता की जायद का मालिक होता है दूसरे पुत्र वारिस नहीं होते वहां पर वहीं कानून माना जायगा इस नये कानून से उसमें कोई परिवर्तन नहीं होगा ।
गया है ।
बहन का दत्तक पुत्र - इस क्रानून में एक नियम विशेष ध्यान में रखने योग्य है कि जब बहन वारिस है। और उसके मरने के बाद जायदाद फिर उसके भाई के पूर्वजों की लाइन में जाने वालीहो जब कि बहन के कोई लड़का न हो। ऐसी दशा में यह नियम किया गया है कि बहन का गोद लिया हुआ लड़का उत्तर धिकारी हो सकेगा अगर बहन के मरने के बाद बहनके पतिने गोद लिया हो तो वह वारिस न होगा | गोद लेने का व्यापक सिद्धान्त यह है कि लड़का पुरुष के लिये गोद लिया जाता है ताकि उसके वंशकी वृद्धिहो उसकी धर्म शास्त्रीय क्रियायें होती रहें और उसका नाम चलता रहे। पहला अधिकार पुरुष का है जो गोद ले सकता है मगर इस कानून के मतलब के लिये गोद का पुत्र वही समझा जायगा जो बहन के जीवन में लिया गयाहो । गोद, बहनके पति के लिये लिया जायगा बहनका पति लेगा, मगर शर्त फिर इतनी है कि बढ्न जीवित हो । बहन के मरने के बाद गोद के लड़के को वह वरासत न मिलेगी । यह नियम क्यों किया गया ? - इसके कई जवाबहो सकते हैं । पहला जवाब यह है कि भाई और बहिन में माता पिता के शरीर के अन्श समान रहते हैं । सपिण्ड के वास्तविक सिद्धान्त के अनुसार बहन-भाई के शररि एकही स्थान से जन्मे होते हैं इस लिये भाई का जितना हक दाता है उतना ही बहन का । हक़ क़ानूनी नहीं बल्कि प्राकृतिक । स्त्री और पुरुष का केवल शरीर भेद होता है । इसलिये भाई के मरने के बाद जब जायदाद बहन के पास जाती है तो उसके सपिण्ड के ख्याल से जाती है जब तक बदन जीवित है वह सपिण्ड बना रहता है उसके मरने पर उसके सन्तान में क्रमागत न्यून होता जाता है। मगर जब बहनकी सन्तानही न हो तो उसकी समाप्ति उसी जगह हो जाती है । इतीसे बहनकी जिन्दगी में गोद लेने की बात विशेष रूप से कहदी गयी है । क्योंकि गोद लेने से, असली लड़क का भाव उसमें भी आ जाता है इसी से मान लिया जाता है कि वह उसका लड़का है । बहन के मर जाने पर उसके पुत्रत्व के भावकी लाइन नाशहो जाती है इसी से बहन के जीवनकाल में गोदके पुत्रको इस कानूनने इक्र दिया है । मेरी राय में यह बात आगे समय पाकर फिर संशोधित होगी और यह नियम शिथिल कर दिया जायगा किन्तु तब तक यही माना जायगा ।
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उत्तराधिकार
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दि हिन्दू इनहेरिटेंस (रिमूवल आफडिसएविलिटी)
ऐक्ट नं० १२ सन् १९२८ ई.
अर्थात् हिन्दू उत्तराधिकार (अयोग्यता निवारक)
ऐक्ट नं० १२ सन् १९२८ ई.
गवर्नर जनरल महोदयने २० सितम्बर सन् १९२८ ई० को भारतीय व्यवस्थापिका सभा द्वारा बनाये और नीचे.
दिये एक्ट को अपनी स्वीकृति प्रदान की। कुछ प्रकार के उत्तराधिकारियों को उत्तराधिकार से बंचित रखने के हेतु हिन्दूलॉ को संशोधित करनेके लिये तथा कुछ सन्देहोंको निवारण करने के हेतु यह एक्ट बनाया जाता है।
चूंकि यह अत्यावश्यक प्रतीत होता है कि कुछ प्रकारके उत्तराधिकारियोंको उत्तराधिकारसे बंचित रखनेके हेतु हिन्दुलॉमें कुछ संशोधन किया जावे तथा कुछ सन्देहोंका निवारण किया जावे अतः नीचे दिया हुआ कानून बनाया जाता है:-दफा १ नाम, विस्तार तथा प्रयोग
(१) यह एक्ट हिन्दू उत्तराधिकार ( अयोग्यता निवारक) एक्ट सन् १९२८ ई० ( The Hindu Inheritance ( Removel of Disabilities ) Act. 1928.) कहलायेगा।
(२) यह एक्ट समस्त ब्रिटिश भारतमें जिसमें ब्रिटिश विलोचिस्तान तथा सन्थाल परगना भी शामिल हैं लागू होगा।
(३) यह एक्ट उन लोगों पर लागू नहीं होगा जिनके लिये हिन्दूला के अनुसार दायभाग कानून का प्रयोग होता है।
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उत्तराधिकार
[नवां प्रकरण
-दफा २ वह व्यक्ति जो अविभक्त हिन्दू परिवारकी सम्पत्ति
के उत्तराधिकार तथा उसके अधिकारोंसे वंचित
नहीं रखे जावेंगे चाहे हिन्दूला या चलन ( Custum ) इसके विरुद्ध ही क्यों न पड़ता हो, जन्मके पागल ( Lunatic ) व दीवाने ( Idiot ) को छोड़कर कोई भी व्यक्ति जिसके लिये हिन्दूलॉ लागू है किसी उत्तराधिकार ( Inheitance ) से या श्रविभक्त परिवारकी सम्पत्तिके अधिकार या विभाग से केवल इस ही कारण वंचित नहीं रहेगा कि वह किसी रोगसे पीड़ितहै या कुद्रूप है अथवा उसमें कोई शारीरिक या मानसिक अयोग्यता है। -दफा ३ निषध तथा बचत
यदि इस एक्टके प्रारम्भ होनेसे पहिले कोई अधिकार पैदा होगया हो अथवा कोई योग्यता प्राप्त हो चुकीहो तो उस पर इस एक्ट की किसी बातका प्रभाव न पड़ेगा या यदि इस एक्टके पास होनेसे पहिले किसी व्यक्ति को कोई धार्मिक अधिकार अथवा किसी धार्मिक या परोपकारी ट्रस्ट ( Trust ) का कार्य या प्रबन्ध न प्राप्त हो सकता हो तो इस एक्ट के अनुसार भी उस व्यक्तिको कोई ऐसा अधिकार प्राप्त न होवेगा।
नोट-यह कानून पास हुआ ता. २० सितम्बर सन् १९२८ ई. को । इस तारीखसे पहले यदि किसी व्यक्ति को वरासतका हक मिलाहो या पैदा होगयाहो तो उसका विचार इस कानूनसे नहें। किया जायगा चाहे उसका वह मुकद्दमा अबभी चल रहाहो । जो समय इस कानून के अन्दरहो । क्योंकि इस कानून की दफा ३ के प्राराम्भक शब्दों से यह ऊपरकी बात स्पष्ट होतीहै । इस कानून के पास होने से पहले जो मुकद्दमे चल गयेहैं और इस समयभी चल रहेहैं उनके सम्बन्ध में हिन्दूला में दिये हुये विषय से और इस समय तकको नजीरोम फैसला किये जायेंगे।
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रिवर्ज़नर और उनके अधिकार
दसवां प्रकरण
इस प्रकरणमें उन उत्तराधिकारियों के अधिकारका वर्णन किया गयाहै जो किसी विधवा या किसी समिावद्ध वारिसके पश्चात् उस जायदादके वारिस होने वालेहैं कि जो जायदाद इस समय विधवा या दूसरे सीमावद्ध वारिसके कब्जे में है 'सीमाबद्ध' शब्दसे यह मतलबहै कि जब जायदाद किसी को सिर्फ उसकी जिन्दगी भरके लिये मिली हो और उसका अधिकार जायदाद के इन्तकाल का न हो, वह केवल उसक मुनाफे के पानेका अधिकारी हो, तो वह वारिस समिावद्ध कहलाताहै जैसे विधवा को जायदाद उसके जीवन भर के लिये मिलीहो तो वह सीमावद्ध वारिस कहलायेगी। यह ध्यान रखना चाहिये कि बम्बई और मदरास प्रान्त में कुछ औरतें पूरे अधिकारके साथ जायदाद पाती हैं, यह सीमावद्ध नहीं हैं । इसके पढ़ने से पहिले यह अवश्य जान लेना चाहिये कि 'रिवर्जनर' किसे कहतेहैं, तथा वारिस कैसे निश्चित करना चाहिये ?--रिवर्जनर के लिये देखो दफा ५५८.२-वारिस कैसे निश्चित करना चाहिये देखो दफा ५६३. 'रिवर्जनर' होने वाले वारिसको कहते हैं। दफा ६६३ जायदादमें रिवर्ज़नरका स्वार्थ
विधवा या किसी सीमावद्ध स्त्री का कब्ज़ा जायदादपरसे तभी समाप्त होजाता है जबकि वह मरजाय या उसने संसार त्याग दिया हो। इसके पहले रिवर्ज़नर कौन होगा यह जानना कठिन है। विधवा या दूसरी स्त्री जब तक न मरे या संसार त्याग न करे तबतक उसके पति या उस मर्दके जिससे दूसरी स्त्रीको जायदाद मिली है, वारिस, जायदाद पानेका दावा नहीं कर सकता, देखो-7 I. A. 115-154; 5 Cal. 7767 6 C. L.R.332 at P.332, 333.
- जबतक विधवा या दूसरी स्त्री ज़िन्दा रहेगी तबतक रिवर्जनरका जायदादमें कोई स्वार्थ नहीं रहेगा सिर्फ वारिस होने की आशामात्र रहेगी। किसी सीमावद्ध स्त्रीके जीवनकालमें यह नहीं कहा जा सकता कि उसके मरने के बाद जायदाद किसको मिलेगी क्योंकि उस वक्त जायदादका मालिक वही होगा जो उस स्त्रीके मरनेके समय जीवितहो और जो पिछले मर्द मालिकका वारिस होता अगर वह स्त्री बीचमें न होती, देखो-39 Mad. 390-391.
कोई रिवर्ज़नर ऐसा दावा अदालतमें नहीं करसकता कि उसके वारिस होनेका हक पहिले मान लियाजाय, देखो-काथामानचैऐर बनाम डोरासिंग टिवर 2 I. A, 169; 15 B. L. R. 83; 23 W. R. C. R. 314. और देखो
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रिवर्जनर
[ दसवां प्रकरण
स्पेसीफिरिलीफ एक्ट 1 of 1877 S.S. 42; श्यामासुन्दरी चौधरानी बनाम जमुना चौधरानी 24 W. R. C. R. 86;9 W. R. C. R. 460.
अगर विधवाका पति कोई जायदाद रेहन कर गया हो तो विधवाके जीवनकाल में रिवज़नर पारिसका हक उस जायदादपर इतना भी नहीं माना जायगा कि वह उसको रेहनेसे छुटाले, देखो-30 All. 497 ट्रान्सफर आफ प्रापरटी एक्ट IV. 1882 S. S 91.
वारिस होने की आशामात्रसे रिवर्ज़नर का जो कुछ भी हक जायदाद में समझा जासके उसको वह रिवर्जनर किसी दूसरेके हाथ इन्तकाल नहीं कर सकता, देखो-ट्रान्सफर आफ प्रापरटी एक्ट IV. 1882. S. S. 6 (a); 32 Mad. 2068 29 Mad. 120; 29 Mad. 390-399; 32 All. 88; जगनाथ बनाम दिग्बू 31 All. 53; 29 Cal. 355, 6C. W. N. 395; श्याम. सुन्दरलाल बनाम अचनकुंवर 25 I. A. 183; 21 All. 71; 2 C. W. N. 729; 17 All. 125; 25 Cal. 778; 10 C. L. R.61-65; 6 C. L. R. 528; 33 All. 414.
रिवर्जनर अपना हक छोड़ भी नहीं सकता, देखो-30 Bom. 2013 और किसी डिकरीसे उसका वह हक कुर्क भी नहीं हो सकता, देखो-ज़ान्ता दीवानी सन् 1908 S. S. 60 दिवाला हो जानेपर श्राफिशियल एसाइनी या दिवालिया अदालतके हाथमें वह हक नहीं जासकता, देखो-बाबू अन्नाजी बनाम रतोजी 21 Bom. 319; इन्सालवेन्सी बम्बई का एक्ट 3 of 1909 S. S. 523 प्राविन्शियल इन्सालवेन्सी एक्ट 3 of 1907 S. S. 2 (e).
रिवर्जनर अपने आशामात्र स्वार्थ को तकसीम नहीं करसकता जैसे श्यामाकुंवर विधवाके मरनेके बाद शिवदत्त वारिस होनेकी आशा रखता है। मगर शिवदत्तका जो स्वार्थ जायदादमें है, उसमें वह किसीको अपना शरीक महीं कर सकता-30 Mad. 486.
अगर कोई रिवर्जनर चाहे तो किसी वसीयतनामेके अनुसार विधवा को जायदादकी वारिस मान सकता है-31 Mad. 474; परन्तु उसके ऐसा करनेसे यह ज़रूरी नहीं है, कि उसके पीछे वाले रिवर्जनर भी इस बात के माननेके लिये पाबन्द हों, देखो--रामशङ्करलाल बनाम गनेशप्रसाद 29 All. 451; 30 All. 406.
जबकि कई रिवर्जनर हों और क्रमसे एकके बाद दूसरा वारिस होने वालाहो तो वारिस होनेका अधिकार वे आपसमें एक दूसरेसे नहीं पाते, बल्कि उनमें से हरएक आखिरी पूरे मालिकके वारिसकी हैसियतसे जायदाद पाता है, 28 Mad. 57; भगवन्ता बनाम सुखी 22 All. 33; 32 Cal. 62; शिवशंकरलाल बनाम सोनीराम ( 1909 ) 32 All. 33-41.
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रिवर्जन के अधिकार
दफा ६६४ ]
किसी सीमाबद्ध स्त्रीके जायदादके वारिस होनेका अधिकार रिवर्जनरों के आपस में कोई निजकी चीज़ नहीं मानी जायगी; अर्थात् उनमें से हर एक, एक दूसरे से स्वतन्त्र ऐसा अधिकार रखता है । इस लिये यदि कोई सीमावद्ध स्त्री जायदादका इन्तक़ाल करे और उस इन्तक़ालको कोई एक रिवर्जनर मानले तो अकेला वही रिवर्जनर उसका पावन्द होगा: दूसरे रिवर्जनर कदापि नहीं होंगे; चाहे वे उस रिवर्जनरके वारिस ही क्यों न हों, अर्थात् ऐसे मामले में बापकी मानी हुई बातका पाचन्द उसका पुत्र नहीं होगा, देखो - बहादुरसिंह बनाम मनोहरसिंह ( 1901 ) 29 I. A. 1; 24 All. 94;6 C. W. N. 169; 4 Bom. L. R. 233; 28 Mod. 57.
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प्रतिनिधित्त्व - हिन्दूलॉ के अन्तर्गत आने वाले मामलोंमें प्रतिनिधित्व का सिद्धान्त लागू नहीं होता, मु० लोराण्डी बनाम मु' निद्दाल 6 Lah. 124; 26 Punj. L. R. 759; A. I. R. 1995; Lah. 403.
विधवा और भावी वारिसों के मध्य एक ऐसे समझौताका होना जिसके द्वारा विधवा अपने पति के संयुक्त पारिवारिक जायदाद के हिस्से का स्वतन्त्र उपभोग कर सके जायज़ है । इस प्रकारके समझौतेकी बिना पर विधवा के नाम के दाखिल होनेसे खान्दानके भावी उत्तराधिकारमें कोई अन्तर नहीं आता। सुमित्राबाई बनाम हिरबाजी A. I. R. 1927; Nag 25.
दफा ६६४ सीमावद्ध स्त्रीके इन्तक़ालकी मंसूखीका दावा
यदि सीमाबद्ध स्त्री मालिक अपने अधिकारसे जायदादका इन्तक़ाल कर दे तो रिवर्जनर उस इन्तक़ालको नाजायज़ क़रार दिला सकते हैं, परन्तु घद्द इन्तक़ाल स्वयं नाजायज़ नहीं है, देखो - विजयगोपाल मुकरजी बनाम कृष्ण महिषी देवी 34IA 87; 34 Cal. 329; 11 C. W.N. 424; 9 Bom. L. R. 602; 41 C. W. N. 106.
ऐसे इन्तक़ालको विर्जनर चाहे मामले और चाहे न माने, मगर वह इन्तक़ालके खारिज करदिये जानेका दावा नहीं कर सकता, अर्थात् उसे चाहिये कि पहिले इन्तक़ालको नाजायज़ साबितकरे, पीछे अदालत उसे रद कर देगी । मतलब यह है कि इन्तक़ाल नाजायज़ साबित करके खारिज करा सकता है, देखो - 25 Cal. 1; 1. C. W. N. 443; 30 Cal. 990; 34 Cal. 329; 11 C. W. N. 434, 33 Cal. 257.
विधवा द्वारा किये हुये इन्तक़ालका विरोध बादमें पैदा हुआ वारिसकर सकता है A. I. R. 1925 Lah. 108.
पति द्वारा किया हुआ कोई गत इन्तक़ाल विधवाकी स्वीकृति के कारण विधवा द्वारा किया हुआ नहीं हो सकता । इलागन बनाम नानजप्पन 85 I. C. 964; A. I. R. 1925 Mad. 919.
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रिवर्जनर .
[दसवां प्रकरण
विधवा द्वारा इन्तकालकी तारीख पर फर्जी भावी वारिस की स्वीकृति असली भावी वारिसको बाधा नहीं पहुंचाती। एक के हकमें किया हुआ समर्पण, सबके हक़में किये हुये समर्पणके समान नहीं है-मजय सन्नय्या बनाम शेषगिरी शम्धुलिंग 49 Bom. 187; 85 I. C. 207; A. I. R. 1925 All.985.भावी वारिसके अधिकारके खतरेको दूर करनेकी नालिश-परिणाम का प्रभाव भावी वारिसपर व्यक्तिगत होता है-महाप्रसाद बनाम नागेश्वरसहाय L. R. 6 P.C. 195,30. W. N. 1:52 I. C. 398; 28 0.C 352; A. I. P. 1925 P. C. 272750 M. L. J. 18. ( P. C. ).
भावी वारिस इस एलानके लिये नालिश कर सकते हैं कि उनके अधिकारमें, संयुक्त विधवाओंके समझौतेसे, जिसमें कि उन्होंने जायदाद को झूठ मूठ वक्फ किया हुआ बतायाहो, कोई असर नहीं पड़ता-मु० तहेलकुंवर बनाम अमरनाथ-A. I. R. 1925 Lah. 2.
वारिस द्वारा, विधवाके जीवनकालमें किया हुआ समझौता असली धारिसोंपर लाजिमी नहीं होता, क्योंकि उस समय वे केवल वरासत की उम्मीदमें थे-नागर बनाम खाले-L. R. 6 All. 267; 86 1. C. 8937 A. I. R. 1925 All. 440.
विधवा द्वारा या उसके खिलाफ नालिशके मुताल्लिक़ जायदाद की पाबन्दी भावी वारिसपर होती है-विधवाके खिलाफ क़ब्ज़ा मुखालिफाना भावी वारिसके खिलाफ होता है-वैथीलिंगा बनाम श्रीरङ्गाथानी-52 I. A. 322; L R.6 P.C. 167; 48 Mad. 883; 42 C. L. J. 563; A. I. R. 1925 P. C. 249; 49 M. L. J. 769 ( P. C.).
विधवाके इन्तकालपर भावी वारिसको एतराज करने का अधिकार हैबैजनाथ बनाम मंगलप्रसाद 425 P. H. C. C. 271; 90 I. C. 732; 6 Pat. L. J.731.
उदाहरण-(१) 'अज' ने अपने मरनेके समय एक विधवा और एक लड़की तथा लड़कीका लड़काछोड़ा। विधवा जायदादकी वारिस हुई । उसने कुछ जायदाद बिना कानूनी ज़रूरतके बेचदी लड़की दावा कर सकती है कि इन्तकाल नाजायज़है इस लिये रद कर दिया जाय ।
(२) 'अज' मरा उसने एक लड़की और अपने भाई शिवको छोड़ा। लड़की जायदादकी वारिस हुई। उसने जायदादका इन्तकाल किया, तो शिव आपत्ति कर सकता है। मगर जब किसीने एक लड़की बिन ब्याही,एक ब्याही गरीब एक ब्याही अमीर और एक भाई (या दूसरा नज़दीकी वारिस) छोड़ा हो, तो जायदाद पहिले बिन ब्याही लड़कीको मिलेगी। यदि उसने कोई जायदाद कानूनी ज़रूरतसे इन्तकाल करदी हो तो दूसरी ब्याही गरीब लड़की ऐसा
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ईफा ६६५ ]
रिवर्जनरोके अधिकार
दावा कर सकती है कि इन्तक़ाल नाजायज़ है। यदि वह न करे तो व्याही लड़की अमीर कर सकती है। यदि वह भी न करे, तो भाई कर सकता है। मगर किसी लड़की के लड़का पैदा हो जानेकी सूरतमें वही लड़का नज़दीकी वारिस हो जायगा और उसे जायदाद मिल जायगी ।
दफा ६६५ जायदादको बरबादीसे रोकनेका दावा
यद्यपि जायदाद में रिवर्जनरका केवल इतनाही स्वार्थ होता है कि वह उस जायदाद के मिलनेकी आशा रखता है; फिर भी उसको यह अधिकार है कि, जायदादको बरबाद होने और नुक़सान पहुंचने से बचानेके लिये विधवा या दूसरी सीमावद्ध मालिकके या उनके स्थानापन्नोंके रोके जाने का दावा करे और वह अदालत से यह भी क़रार दिला सकता है कि जो इन्तक़ाल किया गया है या जिस अनधिकार कामसे जायदादको या रिवर्जनरको नुक़सान पहुंचा हो या पहुंचने का अन्देशा हो, वह इन्तकाल या काम नाजायज़ है, देखो - एसाइनीके रोके जानेके विषयमें 3 Mad. H. C. 116-119. जायदाद के नुकसान के विषय में 2 1. A. 169-191; 15 B. L. R. 83 - 119;23 W. R. C. R. 314; 29 All. 239; 13 C. L. R. 418; 10 B. L. R. 1; 34 Cal 853; 22 Cal. 354; 5 All. 532; 8 All. 646.
६१७
यह ध्यान रहे कि जब विधवाने या किसी सीमावद्ध स्त्रीने जायदादका ऐसा इन्तक़ाल किया हो जो उसके रिवर्जनर्गेको पाबन्द करता हो, तो उस इन्तक़ालको रिवर्जनर उस स्त्रीके जीवनकालमें मंसूख नहीं करा सकता, क्योंकि वह स्त्रीकी जिन्दगी भर जायज़ माना जायगा, पीछे नहीं; अर्थात् मंसूत्र तो हो जायगा, मगर वह मंसूखी स्त्रीके मरनेके बाद समझी जायगी, देखो -
--
10 Cal 1003.
जब जायदाद में कोई नुक़सान पहुंच रहा हो और वह स्त्री जो क़ाबिज़ है नुक़सानके रोकने का कोई काम न करती हो, तो रिवर्जनर नुकसान रोके जाने का दावा कर सकता है। ऐसे दावेके लिये यह ज़रूरी है कि रिवर्जनरों के नुक़सान पहुंचने का पूरा अन्देशा हो ।
जब विधवाने जायदाद में केवल अपने स्वार्थका इन्तक़ाल किया हो, तो उसमें रिवर्जनर हस्तक्षेप नहीं कर सकता; स्वार्थ विधवाकी ज़िन्दगी तक रहेगा। लेकिन अगर रिवर्जनरोंको उससे नुक़सान पहुंचता हो, तो दावा करके बन्द करा सकते हैं। रिवर्जनरको जो दावा करनेका अधिकार दिया गया है वह इस सबब से नहीं कि उसका आशा मात्र स्वार्थ है, बक्लि इस ख्याल से दिया गया है कि इन्तक़ाल मंसूरन करानेमें जो शहादत दरकार है वह देर होने के सबसे कहीं नष्ट न हो जाय; क्योंकि जब इन्तक़ाल हालही में किया
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रिवर्जनर
[ दसवां प्रकरण
गया है तो उस समय काफी शहादत मिल सकती है, देखो-अविनाशचन्द्र मजूमदार बनाम हरीनाथ शाह 32 Cal. 62; 9 C. W. N. 25; 6 Cal.1983 6 C. 1. R. 588; 29 Mad. 390; 13 B. L. R. 222. दूसरी बात यह है कि अगर ऐसा अधिकार रिवर्जनरको न दिया जाता, तो सम्भव था कि जायदाद इतनी खराब हो जाती कि पीछे रिवर्जनरके कामकी ही न रहती, देखो7 W. R. C. R. 119. दफा ६६६ रिवर्ज़नरके दावा करनेपर अदालत कब डिकरी देगी
सीमावद्ध स्त्री मालिककी जायदादके सम्बन्धमें रिवर्जनरके किसी प्रकारका दावा करनेपर अदालत जैसा मुनासिब समझेगी वैसा हुक्म या डिकरी देगी, देखो--स्पेसिफिक रिलीफ ऐक्ट 1 of 1877 S. S. 42; 11B. L. R. 171; 19 1. A. 133.
जब कोई रिवर्जनर यह दावा करे कि विधवाने जो जायदादका इन्तकाल किया है वह विधवाकी मौतके बाद खारिज कर दिया जाय, तो ऐसी सूरतमें, जब तक विधवा इन्तकालकी जायज़ और खास ज़रूरत सावित न करे, अदालत रिवर्जनरके दावेको मंजूर कर लेगी, देखो-ईश्वरीदत्त कुंवर बनाम हंसवती कुंवर 10 I. A 150; 10 Cal. 324.
जब विधवाने थोड़ी रकमके लिये जायदादका कोई हिस्सा रेहन किया हो, जिसे वह अपनी जिन्दगीमें अदा कर सकती हो, तो ऐसी सूरत में अगर रिवर्जनर उस रेहनके इन्तकालको खारिज करा देनेका दावा करे, तो मुमकिनहै कि अदालत उसे न माने, देखो-5 C. W. N. 446. कल्याणसिंह बनाम सांवलसिंह 7 All. 163. के मुक़दमे में विधवा एक वसीयतनामे के अनुसार जायदाद अपने काममें लाई थी। रिवर्जनरने उस इन्तकालको मंसूख करा पाने का दावा किया । अदालतने दावा मंजूर करके डिकरी दी। माना गया कि इन्तकाल नाजायज़ है । लेकिन "बिहारीलाल मोहरवार बनाम माधो. लाल शिरगयाबाल 13 BL. R. 222; 21 W.R.C. R. 430." वाले मुकदमे में विधवाने जायदादका जो इन्तकाल किया था उसका असर विधवाकी मौत के बाद होने वाला था. इस लिये अदालतने डिकरी नहीं दी। इसका सबब यह मालूम होताहै कि जब विधवाके इन्तकालका असर उसके मरनेपर होगा
और विधवाके मरते ही वह सच जायदाद उत्तराधिकारके अनुसार रिवर्जनरोंके पास चली जायगी, तब उस वक्त विधवाके इन्तकालमें ज़ोर बाकी न रहेगा, और दूसली बात यह भी हो सकती है कि वह आदमी जिसके हक़ में दन्तकाल किया गया है, विधवाके मरनेपर रिवर्जनरके मुताबिलेमें उसके अमल करा पानेका दावा करे, तो वह दावा महज़ इस वजह से भी खारिज हो जायेगा कि मुद्दई अपना दावा सावित नहीं करसका। ऐसा दावा रिक
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रिवर्जनरोके अधिकार
दफा ६६६-६६८ ]
ज़ैनर क़ानून मियादके अनुसार उस समय कर सकता है कि जब उसे हन जायदाद मिलने का पैदा होगया हो और कोई उसके हक़में दखलदे | अगर किसी विधवा ने नाजायज़ दत्तक लिया हो जिससे रिवर्ज़नर का हक़ मारा आताहो, तो विर्ज़नर विधवाकी जिन्दगीमें उसे मंसूख करा सकता है । दफा ६६७ रिवर्ज़नरके दावा करनेकी मियाद
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कोई हिन्दू स्त्री जो किसी जायदादका इन्तक़ाल करे उस इन्तक़ालकी मंसूखीका दावा रिवर्ज़नर बारह वर्षके अन्दर कर सकता है और यह मियाद इन्तक़ाल की तारीख से शुरू होगी, देखो - लिमीटेशन एक्ट 9 of 1908 Sched. 1 art. 125. मगर हिन्दू सीमावद्ध स्त्रीके मरने के बाद जायदाद पर क़ब्ज़ा दिला पानेके दावेका उक्त बारह वर्षकी मियादसे कुछ सम्बन्ध नहीं है, अर्थात् विर्ज़नर उस स्त्रीके मरनेके बाद जायदाद पर क़ब्ज़ा दिला पानेका दावा, मरने की तारीख से बारह वर्ष के अन्दर कर सकता है 12 C. W. N. 857, मिसरवा बनाम गिरिजानन्दन तिवारी । पहिले रिवर्जनरके पश्चात् वाले विरज़नरों को क़ानून मियाद पाबन्द नहीं करता, मगर जब वह पहिले दर्जे के रिवर्जनर होजायेंगे, तो उसवक्तंसे ६वर्ष के अन्दर उन्हें दावा करना चाहिये । उदाहरण - 'अज' अपनी एक विधवा, अपने भाई शिव और भतीजे विष्णु को छोड़कर मरगया । 'अज' के मरने के समय लड़की, लड़की का लड़का, और पिता जीवित न थे । पतिकी जायदाद विधवाको मिली उसने बिना क़ानूनी जरूरतके पतिकी जायदादका एक हिस्सा कुवेरके हाथ १ जनवरी सन् १८८० ई० में बेच डाला । शिव इस इन्तक़ालको बारह वर्ष के अन्दर रद करा पाने का दावा कर सकता है। मगर उसने दावा न किया और कुल मियाद बीत गयी और उसके बाद वह १ जनवरी सन् १६०० ई० को मर गया। इस वक्त जायदाद बिधवा के पास थी । श्रव विष्णु जो अपने बाप शिव के समयमें दूसरा रिवर्जनर था, यानी शिवके बाद जायदाद पाने का हक़ रखता था, शिवके मरनेसे पहिला रिवर्जनर हो गया इस लिये अब वह ता० १ जनवरी सन् १६०० ई० से ६ वर्षके अन्दर विधवाके किये हुये इन्तक़ालकों रंद करा पानेका दावा दायर कर सकता है । शिवकी जिन्दगीमें विष्णु को कानून मियाद पाबन्द नहीं करता था ।
माता,
दफा ६६८ रिवर्ज़नरके दावा करनेका अधिकार
रिवर्जनर किसी सीमावद्ध स्त्री या किसी दुसरेके किये हुये इन्तक़ाल की मंसूखीका दावा उस स्त्रीकी जिन्दगी में ही करनेके लिये मजबूर नहीं है ( मगर कर सकता है ) । जब वह जायदादका हक़दार होजाय तब क़ब्ज़ा पानेका दावा करना ज़रूरी है, देखो - जोगेन्द्रनाथ बनरजी बनाम राजेन्द्रनाथ हलदार 7 W. R. C. R. 357.
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८२०
रिवर्जनर
[ दसवां प्रकरण
विधवा द्वारा रेहननामा-भावी वारिसकी नालिश रेहननामे को उस पर लागू न होना करार देनेके लिये-कर्जकी आवश्यकता प्रमाणितहुई किन्तु कर्जकी शौकी सख्तीकी आवश्यकता नहीं प्रमाणित हुई। यह हुक्म होना चाहिये, कि मुद्दई उन शौका पाचन्द नहीं है, मोहनलाल मु० धनकुंवर, 27 O. C. 362; 86 1. C. 426; A. I. R 1925 Oudh 509.
दत्तक पुत्र और भावी वारिसकी अवस्था, विधया द्वारा किये हुये इन्तकाल के सम्बन्ध में समान है, केवल इतना अन्तर है कि दत्तक पुत्रका अधिकार उस समयसे आरम्भ होता है जबसे वह गोद लिया जाता है और भावी वारिसका विधवाकी म्रत्यके पश्चात हनमगोडवा शिवगोडवा बनाम इरगोडवा शिवगोडवा 84 I. C. 374; A. I. R. 1925 Bom. 9.
किसी हिन्दू विधवाके सबसे नजदीकी भावी वारिसोंने नालिश दायर की कि उसके द्वारा जायदादके एक भागका इन्तलाल जो कई व्यक्तियों के हकमें किया गया, उनपर लाज़िम नहीं है। तय हुआ कि नालिश चलाये जाने के योग्य है, क्योंकि तमाम इन्तकालोंका सिलसिला इन्तकालोंके एक ही सिलसिलेमें है अतएव यह आवश्यक नहीं है कि प्रत्येक इन्तकालके लिये पृथक नालिश कीजाय-शंकर बनाम विट्ठलदास 9 N. L. J. 17; A. I. R. 1926 Nag. 316.
विधवाके जीवनकालमें भावी वारिस द्वारा इस्तकरार हनकी नालिश प्रतिनिधिके बतौर होतीहै और इसमें नाकामयाब होनेसे असली भावी वारिस विधवाकी मृत्युके बाद कब्जे की नालिशसे महरूम रहता है-हुसेन रेड्डी बनाम वेंकटरेड्डी 83 I. C. 140; A. 1. R. 1925 Mad. 86; 47 M. L. J. 54b.जब मुद्दय्यानका यह दावाहो कि वे बंशगत वारिस हैं, तो उनपर यह जिम्मेदारीहै कि वह एकही पूर्वजको जिसकी वे सन्तान हों होना साबित करें शङ्कर राव बनाम पाण्डुरंग A. I. R. 1927 Nag. 65.
विधवाके इन्तकालपर भावी वारिस द्वारा इस्तक़रारकी नालिश-महाराज केशवप्रसादसिंह बनाम प्रद्याश ओझा 23 A. L. J. 168; 46 All. 831; L. R. 6P.C.1; 27 Bom. L. R. 13032L. W.2953290. W. N. 606; A. I. R. 1924 P.C. 247.
विधवाके जीवनकालमें ही भावी वारिस उसके पतिद्वारा किये हुये रेहननामेका इनफिनाक करसकते हैं -बसावन बनाम नाथा A. I. R. 1925 Oudh 30. जब किसी हिन्दू विधवा द्वारा किये हुये रेहननामेको जो गैरपढ़ी थी, उसकी तरफसे, उसके भावी वारिसने (पुत्रीके पुत्रने) तस्दीक किया हो । तय हुआ कि केवल इस विनापर ही पुत्रीके पुत्रकी रजामन्दी नहीं सावित होती--रामबुझावनसिंह बनाम सूरजप्रसाद ( 1925 ) P.H. C. C. 137; 88 I. C. 502; 6 Pat. L. I. 826; A. I. R. 1925 Pat. 467.
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दफा ६६९]
रिवर्जन के अधिकार
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भावी वारिस बिना विधवाके इन्तकालको मसूख कराये हुयेही, अपने अधिकारको जारी करा सकता है। लिमिटेशन एक्ट आर्टिकिल ६१ हनमगोवदा सिदगोवदा बनाम हरगोवदा शिवगोवदा 84 I. C 374; A. I. R. 1925 Bom. 9. नज़दीकी भावी वारिस उसी सूरतमें नालिश इस्तकरार हक्र कर सकता है, जब कि वह अपनी कार्यवाही के कारण उससे महरूम न कर दिया गया हो-बच्चू पांडे बनाम मुल्दुलम A. I. R. 1925 All 8.
नालिश इस्तकरार हक़की समझौते द्वारा निश्चय होना-माया इस मामले से परासत पानेका आशापूर्ण अधिकार समाप्त हो जाताहै या यह विवादग्रस्त अधिकारोंका हकीकी समझौता होता है--वहादी कामराजू बनाम वंकट लक्ष्मीपति 21 L. W.711; 88 I. C. 9823 A. I. R. 1925 Mad, 1043; 49 M. L. J. 296.
विधवाके जीवनकालमें विधवा द्वारा वसीयतका विरोध करते हुये, नालिश इस्तकरार हक़ नहीं हो सकती, किन्तु यदि नीचेकी अदालत किसी खास परिस्थितिके कारण, ऐसी नालिशकी इजाजत दे दे, तो हाईकोर्ट उसमें हस्तक्षेप नहीं करती।
कब्ज़ा मुखालिफाना-किसी विधवा द्वाराजोजायदादकी प्रतिनिधिहो या उसके खिलाफ कानूनी नालिशकी पाबन्दी भाषी वारिसोंपर है-विधवाके खिलाफ क़ब्ज़ा मुखालि काना, भावी वारिसोंके खिलाफमी कब्ज़ा मुखालिफानाहै-कैथोलिंग मुद्दालियर बनाम श्री रंगाथ अनी (1926) M. W. N. 11; 30 C. W. N. 313; 99 I. C. 85 (2); 28 Bom. L. R. 1735 A. I. R. 1925 P. C. 249 ( P. C.). दफा ६६९ जायदादके सम्बन्धमें सफलत
जब कोई सीमावद्ध मालिक जायदादके सम्बन्धमें गफलत करे या उस जायदादपर किसीका नाजायज़ करज़ा हो जानेदे तो रिवर्ज़नर दावा कर सकताहै, देखो-राधामोहन बनाम रामदास 3 B. L. R. A. C. 362, 84 W. R. C. R. 863 21 W. R.C. R. 444, चन्द्रकुमार गंगोली बनाम राजकिशन बनरजी 14 W. R.C. R. 3227 श्रादिदेव नारायणसिंह बनाम दुखहरणसिंह 5 All. 5327
__ जायदादके हलके सम्बन्ध में अगर कोई सन्देह हो और सीमावद्ध मालिक उस सन्देहको दावा करके निवृत्त करानेसे इनकार करे या प्रफलत करे, तो रिवर्ज़नर कुछ सूरतोंमें खुद वैसा दावा करके हक़साफ करा सकता है, और सन्देह अगर कोई हो तो उसे मिटवा सकता है, देखो-सूर्यवंशी कुंवर बनाम महीपतसिंह 7 B. L. R. 669516 W. R. C. R. 18.
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८२२
रिवर्जनर
[दसवां प्रकरण
दफा ६७० सीमावह मालकको बेदखल करनेका हक़ · नाजायज़ इन्तकाल होनेकी वजहसे रिवर्ज़नरको साधारणतः यह हक़ नहीं है कि वह सीमावद्ध मालिकको जायदादसे बेदखल कर दे । लेकिन अगर सीमावद्ध मालिकने कोई ऐसा काम कियाहो, जिससे जायदाद हमेशा के लिये ज़ब्त हो सकती हो तो या इसी तरहपर और कोई बात पैदा हो सकतीहो, तो बेदखल करा सकता है, देखो-6 W.R. C. R. 222; किशनी बनाम ख्यालीराम 2 N. W. P. 424; 8 W. R. C. R. 155.
झूठे दत्तक लेने के उद्योग से जायदाद ज़ब्त नहीं होती और न इस सबबसे अदालत रिसीवर मुक़र्रर कर सकती है--1 W.R. C. R. 256. . जब किसी सीमावद्ध मालिकने जायदादका ऐसा नुकसान किया हो, कि जिससे मालूम होताहो कि वह इन्तज़ाम करनेके नाक़ाबिल है, तो केवल ऐसी सूरतमें या इस सूरतमें कि जायदादको नुकसानसे बचाना ज़रूरीहै या जब कि वह स्त्री जायदादपर कब्ज़ा करनेसे इनकार करती ही, तो अदालत को अधिकार है कि रिवज़नरके दावा करनेपर उस जायदादके इन्तज़ाम के वास्ते कोई रिसीवर या मैनेजर नियत करे, देखो-आदिदेव नारायणसिंह बनाम दुखहरणसिंह All. 532; 24 W. R. CR. 86; 13 Mad. 390; अगर अदालत जायदादका फायदा देखे, तो रिवर्ज़नर को ही मैनेजर या रिसीवर नियत करदे, और उसे हुक्म दे कि वह जायदादकी कुल आमदनी विधवा या सीमावद्ध मालिक को बराबर देता रहे, देखो -महारानी बनाम नन्दलाल मिसिर 1 B. L. R. A. C. 27; 10 W. R.C. R.73; 17 W. R. C. R. 11; 5 All. 532.
मुतौफी सासुके कब्जेकी जायदादपर विधवा बहूका १२ वर्षसे अधिक का कब्ज़ा था भावी वारिसों को उचित है कि वह प्रमाणित करें कि बहू को क़दामत के द्वारा केवल विधवा का अधिकार प्राप्त हुआहै- शेषर राव बनाम के० रामराजू सेशग्या-86 I. C. 296; A. I. R. 1925 Mad. 1066.
जब विधवाने जायदादको अपने हाथसे निकल जाने दियाहो या क़ब्ज़ा करने में सफलतकी हो, तो भी ऐसा ही इन्तज़ाम किया जासकता है। दफा ६७१ रिवर्जनरके पीछेवाले रिवर्ज़नर
पहिलेके रिवर्जनरने अगर सीमावद्ध मालिकके किये हुये किसी इन्तकालके विरुद्ध उस इन्तकालकी मंसूखीका दावा किया हो और उसको अदालत से डिकरी न मिलीहो तो उस रिवर्जनरके पीछे होने वाले रिवर्जनर फिर वैसा ही दावा करनेसे रोके नहीं जा सकते । आगे यह बात अदालत की मरज़ीपर है कि दावेको माने या न माने, देखो-22A 11.382;27 Mad.588; 29 Mad. 390.
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दफा ६७०-६७१]
रिवर्जनरके अधिकार
८२३
जायदादके इन्तकालकी मन्सूखीं और जायदाद के नुक्सान रोकने का दावा, अगर पहिला रिवर्जनर विधवासे मिल जानेके कारण या उस इन्तकालको मंजूर कर लेनेके कारण या तमादी होजाने की वजहसे या अपना और अपने रिवर्जनरका हक़ छोड़ देनेकी वजहसे करनेसे इनकार करे, तो दूरका रिवर्जनर दावा कर सकता है, देखो-बखतावर बनान भगवाना (1910) 32 All. 176; झूला बनाम कांताप्रसाद 9 All. 441; 4 All. 16, 2 All 41; 10 Bom. H. C. 351; 8 Cal. L. R. 381, 32 Cal. 623 28 Mad.73 6 All. 428.
__ अगर किसी सीमावद्ध स्त्रीका रिवर्जनर भी सीमावद्ध अधिकार वाला हो तो उसके बाद वाला रिवर्जनर अगर चाहे तो दावा कर सकताहै। कलकत्ता और मदरास हाईकोर्टकी यही रायहै, देखो -32 Cal. 62, 15 All: 132; 13 Mad. 195; 15 Mad. 422; 33 Mad. 410.
लेकिन इलाहाबाद हाईकोर्ट इस रायको नहीं मानती। उसकी राय यह है कि सीमावद्ध रिवरज़नरके यादवाला रिवर्जनर उसी सूरतमें दावा कर सकताहै जब कि सीमावद्ध रिवर्जनर और स्त्री मालिक दोनों आपसमें मिल गयेहों, देखो-ईश्वर नारायण बनाम जानकी 15 All. 132; 6 All. 428; 6 All. 431. इलाहाबाद हाईकोर्टमें जजोंकी राय यह हुई कि इस तरह का दावा यानी दत्तक खारिज करा पानेका दावा या विधवाके किसी और ऐसे कामोंका दावाकि जिस कामसे रिवर्जनरको नुकसान पहुंचने वाला हो, यद्यपि प्रथम रिवर्जनरके पीछे वाले रिवर्जनर भी दायर कर सकते हैं तो भी साधारणतः पहिले रिवर्जनरको दावा दायर करना चाहिये। हमारी राय यह है कि बहुत दूरका रिवर्जनर भी दावा दायर कर सकता है अगर उसके पहिले वाले सब रिवर्जनर विधवा या सीमावद्ध मालिकसे मिल गये हों या उसकी कार्रवाई में हस्तक्षेप न करतेहों । हमारी रायमें "भीखाजी अप्पाजी बनाम जगन्नाथ विट्टल 10 Bom. H. C. 361." वाले मुकदमे में निश्चित किया हुआ सिद्धांत बिल्कुल ठीक है। यह कोई कानून नहीं है कि हर एक आदमी चाहे कितनी भी दूरका रिवर्जनर हो ऐसा दावा करे। दावा करनेका अधिकार सीमावद्ध होना चाहिये। अगर बहुत ही पास वाला रिनर्जनर काफी वजहके बिना दाबा करनेसे इनकार करे या अपने किसी कामसे वह वैसा दावा करनेके अयोग्य हो या विधवाकी नाजायज़ कार्रवाई उसने मंजूर कर ली हो, तब उसके बाद वाला रिवर्जनर दावा करने का अधिकारी होगा, देखो-गुलाबसिंह कुंवर बनाम राव करनसिंह 14 M. I. A. 176-193; 10 B. L. R. 1-8. दूर के रिवर्जनरके ऐसा दावा करनेपर अदालत अपने अधिकारसे यह विचार करेगी कि मुद्दईको ऐसा दावा करने का अधिकार देना चाहिये या नहीं, और यह मुमकिन है कि अदालत उसके पहिलेके रिवर्जनर या रिवर्जनरोंको मुकदमे में फरीक नावे 8 I. A 14-22; 6 Cal. 764; 8 Cal. L. R. 381, to 386.
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रिवर्जनर
[ दसवां प्रकरण
इस बात के प्रतिपादन के लिये कोई सिद्धान्त नहीं है, कि अधिक दूर | के सम्बन्ध का भावी वारिस, उस सूरत में जब कि सबसे नज़दीकी वारिस नाबालिगहो, नालिश कर सकता है। अधिक दूरका भावी वारिस बतौर नाबा - लिग्रके वलीके नालिश कर सकता है, कालीचरणसिंह बनाम बागेश्वर कुंवरि 23 A. L. J. 653; 89 I. C 374; A I. R. 1925 All. 585.
૪
भावी वारिस द्वारा नालिशमें प्रश्न यहथा कि आया फैसलेकी पाबन्दी दूसरे भावी वारिस परभी है ? माताप्रसाद बनाम नागेश्वरसहाय 3 O. W. N. 11 L. R. 6 P. C. 195; 52 I. A 398; 28 O. C. 352; A. I. R. 1925 P. C. 272; 50 M. L. J. 18 ( P. C.).
इस इस्तक़रारकी नालिश कि बयान कियाहुआ दत्तक नाजायज़ है मुद्दालेह पर दत्तक के जायज़ होने के सबूतकी जिम्मेदारी है- लक्ष्मन बनाम मूला
A I. R. 1925 Nag. 61.
एक पहिले मुक़द्दमे में विधवा और वे व्यक्ति जिनके हक़में इन्तक़ाल किया गया था, इस बातको न साबित करसके कि मुद्दई भावी वारिस न था । पीछेसे पहिले मुक़द्दमेके मुद्दई के पुत्रने विधवा और कुछ दूसरे व्यक्तियों के खिलाफ जिनके हक़ में उसकी जायदादका कुछ इन्तक़ाल किया गयाथा, नालिश किया। तय हुआ कि पीछेके मुक़द्दमेके मुद्दालेह इस अधिकारसे महरूम न थे कि वे यह एतराज करें, कि उस मुक़द्दमेका मुद्दई ठीक दूसरा भावी वारिस न था - कालीचरन बनाम बागेश्वर कुंवारी 23 A. L. J. 653; 89 I. C. 374; A. I. R. 1925 All. 585.
नोट- जब दूर के रिवर्ज़नर को ऐसा करना हो तो उसे चाहिये कि पहिले के सब रिवर्जनरों को मुद्दालेह बनावे और दावेमें वह सब बातें बतादे कि जिनसे उसे ऐसा करना पड़ा, वह यदि ऐसा न करेगा तो सम्भव है कि मुकद्दमा खारिज हो जाय ।
निःसन्तान हिन्दू विधवाने नाजायज़ तौरसे कोई जायदाद बेच दी हो और उसके बादका रिवर्ज़नर उस बिक्रीके खारिज करानेका दावा करनेमें देर करे, तो इससे यह नहीं समझा जायगा कि उसने वह बिक्री मंजूर करली थी । अगर मंजूर की भी हो तो यह मंजूरी ऐसी होना चाहिये, कि जिसके कारण यह रिवर्जनर उस बिक्रीपर कोई आपत्ति करनेका अधिकारी न रह गया हो । ऐसी सूरत में उसके बादका रिवर्जनर अदालतमें दावा करके उस बिक्री को मंसूख करा सकेगा, देखो -- 6 All. 431-434; 4 N. W. P. 83.
दफा ६७२ रिवर्ज़नर के बादवाले रिवर्ज़नरके दावाकी मियाद
पहिले रिवर्जनर के दावा करनेमें क़ानून मियादकी पाबन्दी हो सकती है यानी उसमें तमादी हो सकती है परंतु उस तमादी हो जाने से दूसरे रिव
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रिवर्जनरोंके अधिकार
दफा ६७२-६७४ ]
जैनरके दावामें तमादी नहीं होती, देखो - [ – 32 Cal. 62; 9 C. W. N. 25; 4 Bom. L. R. 893; 12 C W. N. 857-859.
૮૨૫
रिवर्जनरके पश्चात् वाले रिवर्जनरको जिस दिन वैसा दावा करनेका अधिकार प्राप्तहो उस तारीख से ६ वर्ष तक उसे दावा कर देना चाहिये पीछे तमादी हो जायगी लिमीटेशन एक्ट 9 of 1908-120; 32 Cal. 473.
अगर दूसरा रिवर्ज़नर उस समय नाबालिग्रहो जब उसे वैसा दावा करनेका अधिकार प्राप्त हुआ हैं तो वह नाबालिग रिवर्जनर क़ानून मियादकी दफा ६ का लाभ उठा सकता है यानी बालिग होनेकी तारीख से तीन वर्ष के अन्दर वैसा दावा दायर करसकता है यही बात पहिले वाले रिवर्जनरसे भी लागू होगी - 28 Mad. 57; 22 All 33; 32 Cal. 62.
दफा ६७३ रिवर्ज़नर कब आपत्ति कर सकता है
जब कोई विधवा या दूसरी सीमावद्ध स्त्री मालिक जायदाद की रक्षाका उचित प्रबन्ध न करे तो उसके बाद वाला रिवर्जनर, या अगर वह इसमें आपत्ति न करें या न कर सकता हो तो उसके भी बाद वाला रिर्ज़नर उन सब कामों पर आपत्ति करसकता है जो काम उसकी घरासतमें बाधक होतेद्दों, वह उसी तरहपर आपत्तिकर सकता है जैसे कि वह स्वयं उस जायदादका वारिस होने की सूरत में करता । जैसे पिछले मर्द मालिकके वसीयतनामे पर या उसके वारिसके किसी कामपर आपत्ति कर सकता है - वैकुंठनाथराय बनाम गिरीशचन्द्र मुकरजी 15 W. R. C. R. 96; यह माना गया है कि हिन्दू विधवा के मौत के बाद जो रिवर्ज़नर जायदादका हक़दार हो वह इस बातका दावा कर सकता है कि विधवा के पति की जायदादका उचित प्रबन्ध किया जाय--29 Cal. 260; 6 C. W. N. 267.
दफा ६७४ रिवर्ज़नर के अधिकार
( १ ) सीमावद्ध मालिक के मरनेपर उस जायदादके पानेका अधिकारी सीमावद्ध मालिकका वारिस नहीं होगा बल्कि पिछले पूरे मर्द मालिकका वारिस होगा - वरासतका सारटीफिकट अदालतसे प्राप्त करनेके क्या नियम हैं इस विषय में देखो - अविनाशचन्द्रपाल बनाम प्रबोधचन्द्रपाल ( 1911 ) 15 C. W. N. 1018.
अगर पहिला रिवर्जनर किसी कारण अपना हक़ छोड़दे तो उसके वादवाला रिवर्जनर जायदादका मालिक होगा--गोसांई टीकमजी बनाम पुरुषोत्तमलालजी 3 Agra 238.
रिवर्ज़नर जब जायदादका मालिक हो जाता है तो वह सीमावद्ध पहिले मालिक के नियम विरुद्ध सब कामपर आपत्ति कर सकता है। सीमावद्ध मालिक
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८२६
[ दसवां प्रकरण
के मरनेके समय जो जायदाद जिस हालतमें थी उसी हालतमें वह जायदाद पानेका अधिकारी है। विधवाके किसी नियम विरुद्ध जायदादका पट्टा आदि देनेके कारण अगर किसी दूसरे आदमीने जायदाद में तरक्क़ी की हो तो रिवर्ज़नर उसका बदला देनेका ज़िम्मेदार नहीं है वह पट्टेदारले ज्यों की स्यों जायदाद छीन लेगा --इस विषय में नज़ीर देखो - ब्रजभूषण बनाम दयाराम
32 Bom. 32.
रिवर्जनर
( २ ) इस्टापुल (Estopple) से हक़का चला जाना
इस्टापुल (Estopple) का नियम - इस्टापुल (Estopple) के लिये देखो दफा ११५क़ानून शहादत । यह नियम उस समय लागू होता है जब सीमावद्ध वारिसके जीवनकालमें उसके रिवर्जनर ( देखो दफा ५५८ ) ने किसी लिखत के ज़रिये से या अपनी कारगुज़ारीके ज़रिये ले या किसी दूसरे तरीक्नेसे यह इक़रार कर लियाहो या ऐसा माना जासकता हो कि उस रिवर्ज़नरने अपने होनेवाले इको कुछ लेकर छोड़ दिया, या कुछ जायदाद का हिस्सा सीमाबद्ध वारिस की जिन्दगी में ले लिया और बाक़ी हिस्सा उसे दे दिया, या कोई पंचायतकी जिसमें उस रिवर्ज़नरको, सीमावद्ध वारिसके जीतेजी कुछ दिला दिया गया और बाक़ी जायदाद के मालिक दूसरे क़रार दियेगये या वही सीमावद्ध वारिस पूरा मालिक बना दिया गया तो उस सीमावद्ध वारिसके मरनेपर अगर वही रिवर्ज़नर बाक़ी रहे जिसने कुछ हिस्सा किसी प्रकारसे पा लिया है तो फिर उसको, वह जायदाद नहीं मिलेगी जो सीमाबद्ध वारिसने छोड़ी है । इस्टापुल का क़ानूनी मंशा यह है कि अपने इक़रारकी पाबन्दी या अपने फेल की पाबन्दी | किन्तु यह इस्टापुलका नियम आसान नहीं है बड़े गम्भीर विचार का है:
G
इस दूसरे संस्करण के संशोधन करते समय मुझे एक मुक़द्दमे में इसी इस्टापुलके नियमपर बड़ी गम्भीरता से विचार करना पड़ा और इस समय तककी प्रायः सभी नज़ीरोंके तात्पर्य के जानने की आवश्यकता पड़ी। भगवानदास बनाम ललताबाई नम्बर प्रारंभिक ३०३ सन् १६१० ई० सबजज कोर्ट जिला बांदा (यू०पी०) का मामला था वाक़ियात यह थे । यह कि अयोध्याप्रसाद के मरने पर उसकी लड़की ललताबाई अपने बाप की जायदादपर सीमावद्ध अपने जीवनकाल तककी अवधिकी मालिक हुयी । ललताचा ईके मरनेपर उसकी जायदादका रिवजनर फकीरे चौधरी था जो अजोध्याप्रसादके भाई का लड़का था । ललताबाई और फकीरे चौधरी और अन्य कुछ फरीकोंने मिलकर एक पंचायतनामा लिखा । पंचोंने यह तय किया कि एक तिहायी हिस्सा फकीर चौधरी को ललताबाई या सलोनी के मरने पर दे दिया जाय और दो तिहाईपर ललताबाई का पूरा अधिकार रहे। सलोनी, ललताबाईके भाईकी विधवा थी । पंचायती फैसला मंसूख कराने के लिये, भगवानदासने यह दावा किया। भगवानदास रिवर्ज •
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रिवर्जनरोके अधिकार
दफा ६७४ ]
मरके बादवाला रिवर्जनर था यानी फकीरे चौधरी के भाईका लड़का था । प्रारंभिक अदालतसे दावा खारिज हुआ मगर इलाहाबाद हाईकोर्ट से पूरा fडकरी होगया। पंचामतनामा मन्सूख होगया और तय होगया कि ललताबाई के मरनेके बाद इसका कुछभी असर बाकी न रहेगा। हाईकोर्ट अपीलका नं० ५६ सन् १९११ ई० और फैसला ता० १४ फरवरी सन् १९१४ ई० है । प्रिवी कौंसिल अपील होने पर बाकी सब फैसला इलाहाबाद हाईकोर्टका मान लिया गया मगर इतना बदल दिया गया कि "मुद्दई और मुद्दालेह नं० ८ से ११तक एक तरफ और बाक़ी लोग दूसरी तरफके आपसमें इनमें इस फैसलेकी पावन्दी रहेगी" इसका सारांश यहथा कि फकीरे और ललताबाई पाबंद रहेंगे । पीछे ललताबाई मरी और उस वक फकीरे जीवितथा अब प्रश्न यह पैदा हुआ कि फकीरेको वह जायदाद मिलेगी या इस्टापुलका नियम लागू होगा । फकीरेको एक तिहाई जायदाद मिल चुकीथी वह उस पर क़ाबिज़ भी था । इस प्रश्न पर बड़ा मतमे नजीरोंमें है-अभी तक जो साफ तौर पर इस विषयमें तय हुआ है वह यह है कि यदि रिवर्जनरको जायदादका कोई हिस्सा बतौर हेवानामा यानी दानरूपसे मिला हो तो ऐसी शकल में इस्टापुल का नियम रिवर्जनरके विरुद्ध लागू नहीं होगा । अर्थात् किसी सीमावद्ध वारिसने कुछ जायदाद रिवर्जनरको बतौर दानके देदी और कुछ दूसरे रिश्तेदारको दे दी या अपने ही पास रखी तो रिवर्जनरका भावी हक़ मारा नहीं जासकता, देखो - 25 Bom. L. R 813, 24 Mad. 819; 71 I. C. 237; मिलता हुआ केस देखो - 1924 Mad. 177 ( P. C. ); 17 All. L. J. 536.
८२७
पुत्र पाबन्द होंगे - अब बापके इक़में इस्टापुलका नियम लग जाताहो तो पुत्रभी उसके पाबन्द होंगे, देखो- - 19All. L. J. 799.
महादेवप्रसाद मुद्दई बनाम माताप्रसाद वगैरह मुद्दालेह 19 All LJ. 1921 Page 799 में यह माना गया था, जो बढ़ाही जरूरी समझा गया कि पृथ्वीपालसिंह आखिरी पूरा मालिक जायदादका था उसने अपनी विधवा मु० गजराजकुंवर और लड़की बलराज कुंवर को छोड़कर वफात पाई । १५ अक्टूबर सन् १८६७ ई० को मुग् वलराज कुंवरने एक पट्टा इस्तमरारी माताप्रसाद और देवी सहायके हक़में लिखा जिसका नज़राना २०००) रु० लिया । रुपया सब रजिस्ट्रार के सामने दिया गया। सूरजपालसिंह उस समय रिवर्जनर था उसने पट्टामें अपनी गवाहीकर दी। तारीख २६ अक्टूबर सन् १९०१ई०को मु० बलराजकुंवर और ठा० सुरजपालसिंह दोनों ने मिलकर एक दानपत्र ( हिबा ) उस जायदादका लिखा जो पट्टेमें दी गई थी और उसीके हक़में लिखा जिसे पट्टा दिया गया था । इस दानपत्रके अनुसार दाखिल खारिज नाम का हुआ जिसमें सूरजपालसिंहका हलफ पर इजहार हुआ और उसने हिबाको दुबारा मंजूर किया । बलराजकुंवर तारीख ६ सितम्बर सन् १९०६ को मर गयी। मंड
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.५२८
रिवर्जनर .
[दसर्वा प्रकरण
सूरजपालसिंह जायदादका मालिक हुआ वह करीब तीनसाल बाद सन् १९०६ ई० को मर गया। यह मौजूदा सुकद्दमा सूरजपालसिंहके नाबालिग लड़के की तरफ से उसकी मांको वली करके चलाया गया है मगर तारीख ४ सितम्बर सन्१९१८ई० तक नहीं चलाया गया। हिबा की हुई जायदादके पानेका दावा उनपर कियागया है जिन्हें जायदाद हिबाकी गयीथी। हिवाको नाजायज़ करार देकर दावा किया गया है। मुद्दई कहता है कि हिबा, नाजायज़ दबाव डालकर कराया गया है। कोई कानूनी ज़रूरत न थी इस लिये मुद्दई उसका पाबन्द नहीं है । मुहालेह इन बातोंसे इनकार करता हुआ यह कहता है कि नज़दीकी रिवर्ज़नर सूरजपालासंहने खुशी से मंजूरी दी थी और वह इस लिये अपने हक्क को ( Estopped ) नहीं पा सकता तथा जन उसे हक़ नहीं मिल सकता तो मुद्दई को भी नहीं मिल सकता । मुद्दई अपीलांटकी सबसे जोरदार बहस यह है कि जिस समय सूरजपालसिंहने हिवाके जरियेसे जायदादका इन्तकाल किया था उस समय उसको कोई हक़ जायदाद में नहीं प्राप्त हुआथा इसलिये उसका हक नहीं मारा जासकता (Not Estopped) देखो--अमृतनरायनसिंह बनाम गंगासिंह ( 1917 ) A. L.J 265; 17 A. L. J. 5303 17 A. L. J.66; ( 1919 ) Bom. L. R. 488. (ऊपरके सब मामलों पर विचार करके जज महोदयने आगे कहा) नजीरोंके विचार करने पर हमारी राय यह है कि रिवर्जनर की रजामन्दी आगेके है समय पर उसे पाबन्द करती है। हमारी रायमें सूरजपाल सिंह जायदादका मालिक हुआ, बलराज कुंवर के मरने पर जो उसके साथ हिबा कर चुका था इसलिये सूरजपालसिंह अब वरासतका हक उस जायदाद के पानेका नहीं रखता ( Estopped ) और जब सूरजपालसिंह को हक़ नहीं है तो उसके ज़रिये से उसके लड़के मुद्दईका हक भी बन्द हो गया ( Estopped ) अपील खारिज हुआ।
भिन्नभिन्न मामले--अब हम कुछऐसे मामले बताते हैं जिनमें इस्टापुल लागू हुआ किसीमें इक़रारनामा था किसीमें इन्तकाल दस्तावेज पर रजामन्दी दी गई थी किसीमें कोई हिस्सा लिया गया था और किसीमेंबार सुबूत डाला गया था। अगर हम सबका पूरा विवरण दें तो गून्थ बहुत बढ़ जायगा, देखो-66 I. C. 874; 16 All. L. J. 825 ( P. C.); 21 All. L.J. 140; 85 I. C. 509, 1925 Mad. 638.
___ एकयात ध्यानमें रखिये कि अगर रिवर्जनरके बादवाले रिवर्जनरके साथ ऐसी कोई बात हो तो पहला रिवर्जनर उसका पाबन्द नहीं होगा। और अगर पहले रिवर्जनर के हक़ में इस्टापुल लागू हो और वही क्ति उस वक्त भी जीवित हो जब कि सीमावद्ध वारिसने कोई जायदाद दूसरे को दी हो अपने मरने के बाद और वह उसके पहले मर गया हो अथवा सीमावद्ध वारिस ने कोई वसीयतकी हो जिसमें पहले रिवर्जनरने मंजूरी दी हो और उस रिवर्ज
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दफा ६७४ ]
रिवर्जनरों के अधिकार
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नर को भी वसीयत में लिखी जायदादका कुछ हिस्सा दिलाया गया हो तो सीमावद्ध वारिसके मरने पर रिवर्जनर उसका पाबन्द नहीं माना नायना यहां पर यह सिद्धान्त है कि सीमावद्ध वारिसके मरतेही जायदाद रिवर्जनरको पहुंच गयी। अभी तक यह प्रश्न अनिश्चित है कि जब जायदाद ऐसे व्यक्ति के कब्जे में हो जिसका किसी तरहका कोई हक़ उसमें नहीं है और न शास्त्रानुसार उसे पहुंच सकता है तथा रिवर्जनर के हक में इस्टापुलका नियम लागू होता है तो ऐसी दशामें वह जायदाद किसके कजेमें रहे ? कौन उसका वारिस माना जाय ? इस प्रश्नका निश्चय आगे किसी नजीर से हो तो हो मगर इस समय हमारे सामने कोई ऐसी नजीर नहीं है। यह प्रश्न मियादके अन्दरका है यहां पर कब्ज़ा मुखालिफानाका नियम नहीं है हमारी राय में जब ऐसी परिस्थिति हो तो रिवर्जनर के नीचे की लाइन अर्थात् उसके बादवाले वारिस का हक पैदा हो जाना चाहिये । उत्तराधिकार में एक यह नियम भी है कि अगर शारीरिक अयोग्यता के सबब से वह वारिस नहीं हो सकता तो उसके बाद वाला वारिस माना जाता है।
__ जब किसी हिन्दू विधवा और भावी वारिसके बीच ऐसा इकरारनामा हो, जिसके द्वारा विधवा जायदादकी पूर्ण अधिकारिणी मानी गई हो और उसे इच्छानुकूल इन्तकाल करनेका अधिकार प्राप्त हुआ हो,और इकरारनामा के बाद भावी वारिसने जायदादके खरीदारके अधिकारसे इन्कार किया। तय हुआ कि भावी वारिसको इन्कार करनेका अधिकार नहीं है-सतनारा यन साहू बनाम विन्धेशरीप्रसाद 6 L. R. All. 210; 87 I. C. 7875 AM I. R. 1925 All. 453.
जब कोई विधवा, उस जायदादको जो कि उसके ताहयात अधिकारमें है, स्पष्टतया कानूनी आवश्यकताके लिये मुन्तकिल करती है और भावी वारिस उस इन्तकालसे रज़ामन्द होते हैं तो यह विदित होता है कि कानूनी आवश्यकता थी-अमरकृष्ण बनाम राजेन्द्र 87 I. C. 7903 A. I. R. 1925 A. I. R. Cal.1205.
भावी वारिसकी रजामन्दीके सहित इन्तकाल-रामास्वामी रेड्डी बनाम राजगोपालाचारियर 22L.W.518; (1925) M.W.N.789; A I.B. 1928 Mad.29.विधवाका इन्तकाल-भावी वारिसकी रज़ामन्दी-तस्वीक-इस्टापलं रेटीफिकेशनकी रसीद-नायकमल बनाम मूनूस्वामी मुद्दालियरं 84 I.C. 231; A. I. R. 1924 Mad. 819.
भावी वारिस, जिसने हिन्दू विधवाके इन्तकालमें अपनी रजामन्दी ज़ाहिर करदी हो, उस इन्तकालके सम्बन्धमें इस्टापुलके अनुसार एतराज करनेसे असमर्थ है -गुथा वीरा राघवया बनाम रामकोटय्या 23LW.3059 A. I. R. 1926 Mad, 508,
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रिवर्जनर
[दसवां प्रकरण
एक हिन्दू विधवाने अपने मृत पतिके अलाहिदा भाई तथा दूसरे अला. हिदा मृत भाईके पुत्रोंके साथ एक समझौता किया, जिसके द्वारा उसके पति की जायदाद, उसके भाई तथा मृत भाईके पुत्रों में बांट दीगई और विधवाको ताहयात कुछ रकम सालाना मिलना निश्चित हुा । विधवाकी मृत्युके पश्चात् भाईने मृत भाईके पुत्रोंके खिलाफ जायदादके वापिस मिलने की इस बिनापर नालिशकी कि समझौतेकी उसपर पाबन्दी नहीं है क्योंकि वह उस समय भावी पारिस था. और इन्तकाल केवल भावी वरासत पर हुआ था। तय हुआ कि नालिश खारिज की जाय । भावी वरासतकी आशाका इन्तकाल न हुआ था, बलि जायदादका इन्तकाल हुआ था और उसके कब्जेका भी-पेण्टाकोटा सोमीनायडू बनाम सीतारामय्या 22 L. W. 716.
हिन्दू विधवा द्वारा समर्पणके जायज़ होनेके लिये, यह भावश्यक है कि उसने अपना समस्त अधिकार उठा लिया हो और वह केवल भाषी वारिसों में जायदादके बटवारेका ही प्रयन्ध न हो। उसमें भावी वारिसोंमें जायदादके स्टवारेके सम्बन्धमें ऐसी शोंके होनेसे, जिनके कारण उनके उन हिस्सों में, जो उन्हें बतौर भावी वारिसके मिलते फ़र्क पड़ता हो, कोई अनियमता नहीं होती। ऐसी दशामें मामला खानदानी प्रबन्ध समझा जाता है और उसके फरीक इस्टापुलके अनुसार उसकी शों में झगड़ा नहीं कर सकते। जब कोई दत्तक पुत्र जोसन् १८६७ई० में गोद लिया गया था बिना किसी एतराज़के उस की सत्य तक सही दत्तक माना गया.तो अदालत गोदके अधिकारको मानती है-सम्भाशिव शास्त्री बनाम रामास्वामी शास्त्री 86 1. C. 7723 A. 1. R. 1925 Mad. 803; 48 M. L. J. 358.
जब कोई हिन्दू विधवा अपने भावी वारिसके साथ इन्तकाल करती है तो वह उसकी मृत्युके पश्चात् उस इन्तकालके खिलाफ एतराज नहीं कर सकती, क्योंकि वह इस्टापुलके अनुसार उस दावेसे गिर जाती है। विधवा द्वारा इन्तकाल करने में भावी वारिसकी रजामन्दी देने और विधवाके साथ साथ भावी वारिसका इन्तकालमें रहने में कोई अन्तर नहीं है। और न भावी वारिसकी मौखिक लिखित या अमली रज़ामन्दी तथा विधवाके साथ दस्ता. वेज़के तस्दीक करने में ही कोई अन्तर है-अमरकृष्ण दे बनाम राजेन्द्रकुमार दे 87 I. C. 790; A. I. R. 1925 A. I. R. Cal. 1205.
जब किसी हिन्दू विधवाकी जायदादका भावी वारिस मुन्तकिल अलेह से कीमत निश्चित करता, मामलेकी नसीहत करता, और उस इन्तकालसे रज़ामन्दी प्रगट करता है तथा उन तमाम अधिकागेको जो वह खरीदारके पक्षमें रखता है दे देना स्वीकार करता है, तो वह पीछेसे उस दस्तावेज़ इन्तकालके आधारपर जो उसके हकमें अन्तिम पुरुष अधिकारीकी पुत्री द्वारा
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दफा ६७५]
रिवर्जनरोंके अधिकार
लिखा गया हो, उस मामलेपर एतराज नहीं कर सकता-भल्लामुहीकाम शास्त्री बनाम थिरमामिही कन्नम्मा 1925 M. W.N. 495, 88 I. C. 7647 A. I. 1. ( 1925 ) Mad. 638; 48 M. 1. J. 284.
इस्टापुलका नया मुकदमा-इस ग्रन्थके यहां तक छपने पर एक मशहुर मुकद्दमा प्रिवी कौन्सिलने इसी विषयका फैसल कर दिया है। बाक्रियात यह हैं:-'अ' और 'ब' दोनों भाई हैं हिन्दू खान्दान है। ''ने सन १९०८ ई० में एक दस्तावेज़ लिखी जिसका मतलब यह था कि उसने 'स' को गोद लिया है। 'म' सन १९१२ ई० में मर गया 'ब' सन १९१४ ई० में मर गया और उसने एक लड़की 'क' को छोड़ा । 'ब' के मरनेपर 'स' ने जायदादपर कब्ज़ा व दखल किया यह कहते हुये कि 'ब' के भाईने मुझे गोद लिया है। 'क' ने 'स' पर दावा किया कि करार दिया जाय कि 'ब' की जायदादकी वारिसबहे. सियत वारिसके मुहय्या है। 'सने यह एतराज़ किया कि मुझे 'भ' ने गोद लिया है और लेने देने की रसूम हो चुकी है और अगर मान मी लिया जाय कि देने लेनेकी रसूम नहीं हुयी तो 'ब' इस वजेहसे इस्टापड ( Estopped) है कि 'ब' ने अनेक काम और अमल ऐसे किये हैं। 'क' अपने बापके द्वारा दावा दायर करती है जो खुद अपने हक पानेसे रुका है। काम और अमल '' के यह बयान किये गये (१)'ब' गोदके लड़के 'स' को उसके गांवसेलाया
और गोदनामापर अपनी गवाही की (२)गोदके लड़के 'स' को 'ब' ने इजाज़त दी कि वह 'अ' की क्रिया कर्म करे (३) जब गोदके लड़के 'स' का विवाह हुआ तो 'ब' ने उसे 'अ' का लड़का जैसा माना (गोदमें देना और लेना इसमें साबित नहीं हुआ था अगर ऐसा दत्तकहो भी तो वह कानूनन नहीं माना जा सकता) जुडीशल कमेटीने यह तय किया कि ऐसी दशामें इस्टापुलका सिद्धांत जो दफा ११५ कानून शहादतमें बताया गया है लागू नहीं होता। यह माना गया कि लड़की एंसा दावा कर सकती है उसके मुताबिलेमें इस्टापुल नहीं है, देखो-धनराज बनाम सोनीवाई 52 I. A. 231; 52 Cal. 4823; 87 I. C. 357. और देखो-मुल्ला हिन्दूलॉ 1926 P. 473. इस मुकदमे में इस्टापुलके बारे में प्रायः अनेक सिद्धान्त तय किये गये हैं हमने संक्षप से. ऊपर बता दिया है। दफा ६७५ कब्जा पानेकी नालिशकी मियाद
____यह साफ बात है कि सीमावद्ध स्त्री मालिकके मरने के बाद रिवर्जनर जायदादपर कब्ज़ा दिला पानेकी नालिश बारह वर्षतक करसकता है। अर्थात् अंगर उस स्त्रीके मरने के बाद जायदादपर ऐसे शख्शका कब्ज़ा होगया हो जो जायज़ वारिस नहीं है या उस स्त्रीके मरने के बाद जायदादका कोई इन्तकाल भी हो चुका है या उस जायदादपर कोई ऐसा आदमी काबिज़ है जिसका
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रिवर्जनर
[दसवां प्रकरण
कब्ज़ा बारह वर्षका हो चुका है तो भी विधवाके मरनेकी तारीखसे बारह वर्ष के अन्दर जायज़ रिवर्जनर जायदादपर क़ब्ज़ा दिला पानेका दावा करसकता है, देखो-सीमावद्ध स्त्रीकेमरनेपर दावाकरना-लिमीटेशन एक्ट 9 of 1908 Schel 1 art 141; 26 I. A. 71; 23 Bom. 7:25; 14 Bom, 4827 34 Cal. 329, 18 Bom. 216% 19 All. 357; 14 All. 156; 25 All. 4353 23 AII. 448: 20 All. 42; 26 Mad. 143, एसे आदमीका कब्ज़ा जो जायज़, पारिस नहीं हैं आदि--( 1904) 8 C. W. N. 535.
यह कायदा, कानून मियादका उस स्त्रीसे भी लागू होगा जो एक स्त्री के मरने के बाद रिवर्जनर हो-रामदेयी बनाम अबू जाफर 97All. 494; तथा उस व्यक्तिसे भी लागू होगा जो दो स्त्रियों के पश्चात्का रिवर्जनर हो-25 All. 435; 13 Mad. 512; 14 Bom. 512.
अगर किसी विधवाने जायदादका इन्तकाल कर दिया हो और वह जायदाद दूसरेके कब्जे में हो तो जिस समय विधवा मरे उसी वक्त रिवर्जनर जायदाद पाने का दावा करसकता है हनूमानप्रसाद सिंह बनाम भगवती प्रसाद 19 All. 357. दफा ६७६ इन्तकालके जायज़ और नाजायज़ होनेका सुबूत
(१) सीमावद्ध स्त्री मालिकके किये हुये इन्तकालके जायज़ या नाजायज़ होनेका सवाल जब किसी मुक़द्दमे में उठे तो उस श्रादमीको जिसके हक़ में इन्तकाल किया गया है साबित करना होगा कि कानूनी ज़रूरतके लिये वह इन्तकाल किया गया है या उसने नेक नीयतीसे इस विषयमें जांच की थी, और समझदार श्रादमीकी तरह पर वह यह जानकर सन्तुष्ट होगया था कि वास्तव में ऐसी ज़रूरत थी, देखो-धरमचन्द लाल बनाम भवानी मिसरा.
24I. A. 183:25 Cal. 189; 1C W. N. 697; महेशर बरुशासिंह बनाम रतनसिंह 23 [ A. 57; 23 Cal. 266, 19 W. RC R. 79; 191. A. 1968 14 All. 436; 6 Bom. L. R. 628; 15 C. W. N. 793.
यदि उसने ईमानदारीसे ठीक जांच करली हो तो इन्तकालसे पहिलेके बुरे इन्तज़ामका असर उसपर कुछ नहीं पड़ेगा और इस बात का भी कुछ असर नहीं पड़ेगा कि वह कानूनी ज़रूरत विधवाके बुरे कामसे पैदा हुई थी या नहीं--6M. I. A. 393. : अगर उसने ऐसी ठीक जांच करली हो तो यह देखने की कुछभी ज़रूरत नहीं है कि जो रुपया उसने दिया वह उस कानूनी ज़रूरत में लगाया गयाथा या नहीं और न यह मालूम करना उसका काम है कि जो रुपया उसने दिया
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दफा १७६ ]
रिवर्जनरके अधिकार
वह सबका सब या कुछ उसी ज़रूरतके लिये लिया गया था--24 All. 547; 9 W. R. C. R. 501; 6 M. I. A. 393.
१३
ऐसे इन्तक़ालके झगड़े में प्रत्येक खरीदार या रेहन रखने वालेको यह साबित करना होगा कि स्त्रीने अपने अधिकारों तथा मामलेकी सब हालतों और उस इन्तक़ालका जो परिणाम होगा उसको भी मती भांति समझकर इन्तक़ालका दस्तावेज़ लिखा था और जिस क़ानूनी ज़रूरतसे उसने इन्तकाल किया था वह ज़रूरत कहां तक थी इसका मालूम करलेना भी उसे साबित करना पड़ेगा, देखो -- कामेश्वरप्रसाद बनाम रणबहादुरसिंह 8 I. A. 83 6 Cal. 843; 19 I. A. 1; 19 Cal. 249; 5 Bom. 450; 35 Cal. 420.
भावी वारिसों ने एक जायदादके क़ब्ज़े के लिये, जो मुतवक्री विधवा द्वारा इन्तक़ाल की गई थी । इन्तक़ालके ५० वर्षके पश्चात् नालिश किया। उस इन्तक़ालकी तस्दीक़ अन्तिम पुरुष अधिकारी की भगिनी द्वारा कीगई ft और मुन्तलिअलैह द्वारा किये हुये, इन्तक़ालकी तस्दीक़ उसके भावी वारिसों में से दो के द्वारा की गई थी और इसके अतिरिक्त भावी वारिसों वे बटवारेमें परस्पर यह मुआहिदा किया था कि वे इन्तक़ाल पर एतराज़ न करेंगे। तय हुआ कि नीचे की अदालतका यह फैसला कि इन्तक़ाल क़ानूनी आवश्यकताके लिये किया गया था बहाल रहना चाहिये, नाटेश अय्यर बनाम पञ्चयागेश अय्यर 22 L. W. 874, 93 I. C. 684. A. I. R. 1926 Mad. 247.
नोट - इस विषय में और देखो इस किताब की दफा ४३१ तथा कानूनी ज़रूरतों के बारेमें देखा दफा ४३०, ६०२.
(२) परदानशीन औरत - खरीदार या रेहन रखने वालेको क़ानूनी ज़रूरत के सवालके सिवाय, यह स्पष्ट है कि परदानशीन स्त्री किसी इन्तक़ाल. से भी उस वक्त तक पाबन्द नहीं समझी जायगी जबतक कि साफ साफ यह साबित न किया जाय कि वह स्त्री तमाम हालतोंसे पूरी तरहसे वाक़िफ थी और यह कि उसकी परदानशीनी की हालतका अनुचित लाभ नहीं लिया गया था, और यह कि उसके सलाहकारोंपर दबाव या किसी तरहका असर नहीं डाला गया वे स्वतन्त्र थे - 8 I. A. 39; 7 Cal. 245; 29 I. A. 132; 29 Cal. 664; 35 Cal. 420; 31 Bom. 165; 17 All. 125; 37 Cal. 526; 14 C. W. N. 974.
यह साबित करने का बोझ खरीदारपर है कि हिन्दू विधवाले किसी जायदादको ऐसी खास हालतोंमें बेंचा जब कि विधवा बिना मंजूरी पतिके वारिसोंके क़ानूनी ज़रूरत के लिये बेच सकती थी - 4 Bom 462.
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रिवर्जनर
[दसवां प्रकरण
. ऐसी सूरतमें जबकि पति ज्यादा सूदपर क़रज़ा लेकर मरगया हो और विधवाने कम सूदपर करज़ा लेकर उसे अदाकर दिया हो तो भी कम सूद के करज़ा देनेवाले को यह साबित करना पड़ेगा कि उसने कानूनी ज़रूरत के लिये करज़ा लिया था और जो बातें ऊपर बतायी गयी हैं सब साबित करना होंगी। दूसरे पक्षको यह साबित करने की ज़रूरत नहीं है कि पति जो जायदाद छोड़ गया था उससे कर्जा चुकाया जा सकता था-231, A. b7; 23 Cal. 266.
इन्तकालके बाद यदि अधिक समयतक उसपर आपत्ति न की जाय तो इस सबबसे वह व्यक्ति कोई लाभ नहीं उठा सकता है कि जिसके ज़िम्मे सुबूत दरअसल डाला गया है। हां यह हो सकता है कि उतने दिन बीतने के कारण यदि कुछ कम सुबूत हो जाय तो अदालत इस बातपर विचार करेगी और यह भी होसकता है कि उतने दिनों तक चुप रहने के कारण अदालत उनकी मंजूरी होना अनुमान करे 38 Cal. 721. दफा ६७७ जब क़ानूनी ज़रूरतका कुछ हिस्सा साबित कियाजाय
जव कानूनी ज़रूरत का कुछ हिस्ला साबित कियाजाय और यह विदित हो कि उस आदमीको जिसे इन्तकाल किया गया यह मालूम था या वह जांच करके यह मालम करसकता था कि जरूरतसे ज्यादा रुपया लिया गया है तब यह कम रकम जिसकी वास्तवमें ज़रूरत थी देकर जायदाद छुटाली जायगी -25 All. 330; 33 Cal. 1079; 34 I.A.72, 29 All. 331:9 Bom. L. R. 591; 13 W. R.C. R. 457; 27 All. 494.:
___ या अगर जायदाद बेच दीगयी होतो वही रक्कम सूद सहित देकर बिक्री खारिज करदी जायगी और यदि इस बीचमें इन्तकाल वाला उस जायदादपर काबिज़ रहा हो तो उतने दिनका मुनाफा उसमें मुजरा दिया जायगा-डिपुटी कमिश्नर आफ् खीरी बनाम खानजनसिंह 34 I. A. 72529 All. 331; 11 C.W.N. 474; 9 Bom. L. R.591.
हरीकिशुनभगत बनाम बजरंगपहायसिंह 13 C. W. N. 544. 549 के मुक़द्दमे में कहा गया है कि प्रिवी कौन्सिलने डिपुटी कमिश्नर श्राफ खीरी बनाम खानजनसिंह 34 I. A. 72; 2 I. All. 331; 11 C. W. N. 474; 9 Bom. L. R. 591 के मामले में यह माना है कि कानूनी ज़रूरत साबित न होनेसे अगर विधवाकी बची हुई जायदादका कुछ हिस्सेका बेचना नाजायज़ साबित हो तो कुल बिक्री रद करदी जायगी और जितने दिनोंतक खरीदार काबिज़ रहा हो उतने दिनोंके मुनाफेका उसे हिसाब देना होगा।
मि० ट्रिवेलियन् कहते हैं कि प्रिवी कौंसिलने उक्त नियम सर्वव्यापी नहीं मान लिया है एक दूसरे मामले में अर्थात् फेलाराम बनाम बगलानन्द
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दफा ६७७-६७६ ]
रिवर्जनरोंके अधिकार
बनर्जी 14 C. W. N. 895-896 में कहा है कि अगर विधवा इस बात की पाचन्द की जाय कि क़ानूनी ज़रूरत के लिये जितनी रक्कम दरकार हो सिर्फ उतनेही रक्तमकी जायदाद बेंचे तो एकतो ऐसा होना असम्भव है और दूसरे जायदादपर भी इसका बुरा असर पड़ सकता है, मुमकिन है कि जायदाद में उतनी रक्रमके लिये भाग अलहदा न किया जासकता हो. हमारी राय में प्रिची कौंसिलने ऐसा व्यापक सिद्धान्त नहीं माना है, जायदादकी बिक्री सबकी सब रद की जाय या नहीं इसके विचार में केवल यह देखना चाहिये कि वह बिक्री उचित और जायदाद के लाभके लिये हुई या नहीं, देखो - फूलचन्दलाल बनाम रघुवंश 9 W. R. C. R. 107.
एक मुक़द्दमे में इन्तक़ालका पूरी मतालबा क़ानूनी ज़रूरत साबित नहीं हुआ मगर फिर भी अदालतने माना कि मुद्दई पूरा मतालबा अदा करके बिक्री खारिज करा सकता है - 11 BL. R. 416, 20W.R. C. R. 1877 2 W. R. C. R. 107-109 क़ानूनी ज़रूरतों के लिये देखो दफा ४३०, ६०२. दफा ६७८ इन्तक्नालके ख़ारिज होनेपर क़र्ज़ की अदायगी
जब इन्तक़ाल खारिज किया जाय तो कभी कभी ऐसा होसकता है कि रिवर्ज़नर से उतनी रक्कम अदा कराई जाय जितनीसे कि जायदादको फायदा पहुंचाहो, विधवा के पास रेहनका रुपया अदा करनेके लायक रक़महो फिर भी वह यदि जायदाद बेचकर रक़म अदा करे तो रिवर्ज़नर रेहनका रुपया अदा करके विक्री खारिज करा सकता है - मोहमद शमशुल मोलवी बनाम सेवकराम 2 I. A .7; 14B. L. R. 226; 22 W. R. C. R. 409;5 Bom. 450.
अगर विधवाने पतिकी जायदाद बढ़ानेके उद्देशसे दूसरी जायदाद खरीदनेको क़रज़ लिया हो तो रिवर्जनर उस क़रज़को अदा करके वह जायदाद लेसकता है । यदि खरीदारने जायदादकी उन्नति के लिये उसपर कुछ रक़म खर्च की हो और रिवर्जनरको यह बात मालूमहो तो विक्री रद होनेपर रिवर्ज - नर वह रक़म खरीदारको अदा करेगा लेकिन जो रक़म खरीदारने मरम्मत में खर्चकी हो उसके लेनेका या अपनी बनायी हुई किसी इमारत के गिरादेनेका दावा खरीदार नहीं कर सकता, देखो - उदयसिंह बनाम फूलचन्द 5 N. W. P. 197,6 C. L. R. 140; 21 Bom. 749; 9 Bom. L. R. 1181. दफा ६७९ सरकारका अधिकार
आखिरी पूरे मालिकका कोई वारिस न होनेपर किसी स्त्रीकी जिन्दगी में या उसके मरनेके बाद सरकार आखिरी वारिसकी हैसियतसे जब उस जायदादकी वारिस होती है तो वह सीमावद्ध स्त्रीके सब अधिकारी कार्मो पर आपत्ति करसकती है मतलब यह है कि सरकारके वही सब अधिकार होते हैं जो रिवर्जनर के होते हैं, देखो --8 M. I. A.529.
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रिवर्जनर
[दसवां प्रकरण
दफा ६८० सीमाबद्ध मालिकके कामोंपर कौन आपत्ति कर
सकता है ? ___ सीमाबद्ध मालिकके कामोंपर आपत्ति करनेका अधिकार या तो रिव. जनरको होता है या उस आदमीको जिसने कुीमें जायदाद खरीदकर जायदादके सब स्वत्व प्राप्त करलिये हों-रामकिशुन सरकार बनाम ज़हरुलहक चौधरी W. R. 1864; C. R. 351; ब्रजकिशोरदासी बनाम श्रीनाथवोस 9 W. R.C R. 463. दफा ६८१ विचाराधीन मुक़दमे
किसी विचाराधीन मुकदमे में सीमाबद्ध मालिकके मरजानेपर उसकी जगह रिवर्जनर लेता है 33 All. 15; 23 Cal. 636323 Cal, 454.
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वरासतसे मिली हुई जायदादपर स्त्रियोंका अधिकार
ग्यारहवा प्रकरण
दफा ६८२ वारिसकी हैसियतसे स्त्रियोंका अधिकार महदूद है ( १ ) सिवाय उन सूरतोंके जो इस किताबकी दफा ६४०, ६४१ में कही गयी हैं, वरासतसे मिली हुई जायदादपर किसी हिन्दू 'स्त्री' का पूरा अधि कार नहीं होता; चाहे वह जायदाद उस स्त्रीको किसी पुरुषसे मिली हो अथवा किसी स्त्री । पूरा अधिकार न होनेका अर्थ यह है कि जब किसी स्त्रीको, पुरुष या स्त्रीके मरनेके बाद वारिसकी हैसियतसे मृत ( पुरुष, या स्त्री ) की जायदाद उत्तराधिकारके द्वारा मिली हो तो उसपर स्त्रीका वैसा अधिकार नहीं होता जैसाकि उस जायदादके पूरे मालिकको था; यानी वह स्त्री अपनी मरज़ी से उस जायदादका दान नहीं कर सकती, बेच नहीं सकती, रेहन नहीं कर सकती और न किसी दूसरी तरहसे इन्तक़ाल कर सकती है। मगर वह क़ानूनी ज़रूरतोंके लिये ऐसा कर सकती है, देखो दफा ६०२. यह बात हिन्दूलॉके सभी लिखने वालोंने मानी है कि वरासतसे पाई हुई जायदादका इन्तकाल कोई स्त्री नहीं कर सकतीः कारण यह है कि स्त्रीसे वरासतकी कोई नई शाखा नहीं निकलती, इसीलिये स्त्रीके मरनेके बाद जायदाद उस आदमी के पास चली जाती है जो पिछले आखिरी पूरे मालिकका वारिस होता, अगर वह स्त्री बीचमें न होती। नज़ीरें देखो बनारस स्कूल जहां लागू किया गया था शिवशङ्करलाल बनाम देबीसहाय (1903) 30I. A. 202; 25 All. 468; 7 C. W. N. 831; 22 All. 353. शिवप्रताप बहादुरसिंह बनाम इलाहाबाद बेङ्क 30 I. A. 209; 25 All. 476; 7 C. W. N. 840; 5 Bom. L. R. 833. छोटेलाल बनाम चुन्नूलाल 6 I. A.15; 4 Cal 744; 3 C. Lo R. 465; 14 B. L. R. 235; 11 M. I. A. 139. मदरास स्कूल जहांपर लागू किया गया था वेङ्कट रामकृष्णराव बनाम भुजङ्गराव 19 Mad. 107; 19 Mad. 110; 3 Mad. H. C. 312; 29 Mad. 358. बङ्गाल स्कूल जहां पर लागू किया गया था -- प्राणकृष्ण बनाम नवमनी दासी 5 Cal. 222. हरि
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स्त्रियों के अधिकार
[ग्यारहवां प्रकरण
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दयालसिंह शर्मा बनाम ग्रीशचन्द्र मुकरजी 17 Cal. 911. भुवनमोहन बनर्जी बनाम मदनमोहनसिंह 1 Shome's L. R. C. R. 3. बम्बई स्कूलमें स्त्रियां पूरी मालिक होती हैं।
(२) जब किसी स्त्रीके पास कोई जायदाद या धन, स्त्रीधनके तौर पर हो, तो वह जायदाद या धन उस स्त्रीके मरनेपर जब दूसरी किसी स्त्री के पास वरासतमें जायगा तो उस वक्त वह जायदाद या धन स्त्रीधन नहीं रहेगा। वरासतसे पायी हुई जायदादकी शर्ते उसमें लागू होंगी-30 I. A. 2027 25 A.l. 468; 5 Bom. L. R. 828; 17 Cal.911.
(३) मिताक्षरा स्कूल में जब कोई जायदाद वरासतमें किसी विधवास्त्री, बेटी, मा, दादी, और परदादीको मिलती है तो उसमें इनका महदूद हक्क होता है, यानी यह जायदादमें पूरे मालिकाना अधिकार नहीं रखतीं। मगर बम्बई स्कूलमें यह बात नहीं मानी जाती। वहांपर दूसरा कायदा लागू किया गया है । इस विषयपर नजीरें बहुत हैं--विधवाके अधिकार महदूद होने में भगवानदीन दुबे बनाम मैना बीबी 11 M. I. A. 487; 9 W. R. (P.C.)23. मनीराम बनाम केरीकोलीटानी 7 I. A..115, 1545 Cal.7763 6 Cal.L. R. 322. लड़कीके अधिकार महदूद होने में--छोटेलाल बनाम छुन्नीलाल 6 I. A. 15; 4 Cal. 744; 3 Cal. L. R. 465; 14 B. L. R. 246. माके अधिकार महद्द होने में--बम्बई में भी मा और दादीका अधिकार महदूद रखागया है, बम्बई स्कूलकी नजीरें देखो-ब्रजभूषणदास द्वारिकादास बनाम पार्बती बाई (1907) 32 Bom. 2; 9 Bom. L. R. 1187; 21 Bom. 739, 744. मदरास स्कूलमें 8 Mad. H. C. 88. बनारस स्कलमें, जलेसर कुंवर बनाम उगुरराय 9 Cal. 725; 12 C. L. R. 460. मिथिला स्कूलमें जैसा कि बनारस स्कूलमें कहा गया है। बङ्गाल स्कूलमें ( 1908) 36 Cal 75. 12 C. W. N. 1002.
___(४) जय किसी स्त्रीको उत्तराधिकारमें आखिरी पूरे मालिककी खुद कमाई हुई जायदाद मिलती है तो उसपर भी उस स्त्रीका महदूद अधिकार रहता है जैसाकि ऊपर कहा गया है, देखो--नामा सिवय्याचट्ठी बनाम सिवागमी (1863) 1 Mad. H. C. 374.
(५) इनामके तौरसे मिली हुई किसी किस्मकी जायदाद जो बम्बई और मदरास प्रान्तमें होती है, चाहे वह विधवाके नामसे हो, तो भी उसका उसमें पूरा अधिकार नहीं रहता।।
(६) जायदादके अधिकारकी सूरत नहीं बदल सकती--अर्थात् कोई स्त्री जिसे महदूद अधिकार प्राप्त हैं, वह अपने अधिकारको जो उसे जायदादमें प्राप्त हैं, नहीं बदल सकती, यानी वह जिस हैसियतसे जाय
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दफा ६८३]
त्रियोंकी वरासतकी जायदाद
दादकी वारिस हुई है उस हैसियतको नहीं बदल सकती, देखो--श्यामलाल मित्र बनाम अमरेन्द्रनाथ (1895) 23 Cal. 460.
इसी तरहपर बेटी भी जायदादमें ऐसा कोई काम नहीं कर सकती जिससे उसके बाद होने वाले वारिसके हकोंमें कोई तब्दीली आजाने 3Mad.
H. C. 812. कैलाशचन्द्र चक्रवर्ती बनाम काशीचन्द्र चक्रवर्ती 24 Cal.3391 (1903) 26 All. 546, 23 Mad. 504: ____ अगर कोई स्त्री जिसे महदूद अधिकार प्राप्त हैं जायदादकोउस पारिस की मंजूरीके साथ जो उसके मरनेके बाद वारिस होने वाला है किसी दूसरे को इन्तकाल करदे तो ऐसा भी वह नहीं कर सकती, देखो--13 Mad. L. J. 323. हेमचन्द्र बनाम शरणमयीदेवी 22 Cal. 354; 30 Mad. 201. हरगवन मगन बनाम बैजनाथदास (1909) 32 All. 88; 33Mad.474. ..
और अगर किसी स्त्रीके पीछे होने वाले वारिसने उस जायदादके बदले में योग्य कीमत या कोई चीज़ लेकर इन्तकालकर देनेकी मंजूरी दी हो तो उस सूरतमें उस होने वाले वारिसको अपनी मन्जूरीका पाबन्द होना पड़ेगा और स्त्रीका इन्तकाल सही रहेगा, देखो-2C. W. N. 132; 10 Bom. L. R.210 और देखो दफा ७०८, ७०६.. ... सरकारके बन्दोबस्त करनेसे विधवाका अधिकार नहीं बदलेगा और अगर उस बन्दोवस्त में कोई खास तौरका हुक्म दिया गया हो तो दूसरी बात है 30 Al]. 490. दफा ६८३ बम्बई प्रान्तमें वरासतसे मिली हुई जायदादपर
स्त्रियों के अधिकार (१) बम्बई प्रान्तमें जहांपर मिताक्षरा या जहाँपर मयूखका प्राधान्य है, वहां किसी पुरुष या स्त्रीसे किसी स्त्रीको परासतमें मिली हुई जायदाद उस वारिसकी अपनी जायदाद होती है, परन्तु यह बात विधवा, मा, और लड़केकी विधवा, तथा गोत्रज सपिसडोंकी विधवाओंके लिये नहीं है। उस जायदादपर उक्त स्त्रियोंका अधिकार उतनाही होता है जितना कि उनके पति का जीवनकालमें होता है. यानी अगर किसी स्त्रीको उत्तराधिकारसे उस वक्त जायदाद मिली हो जबकि उसका पति जिन्दा है ( जैसे मा) तो जितना अधिकार उनके पतिका देख रेख (Control) करने में होता सिर्फ उतनाही अघिकार उक्त स्त्रियोंको जायदादमें प्राप्त रहता है, वह पूरी मालिक नहीं समझी जाती 30 Bom. 229; 7 Bom. L. R. 936.
(२) जब एकही दर्जेके अनेक वारिस हों तो उनमें सरवाइवरशिपका हक्र लागू नहीं पड़ेगा।
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- स्त्रियोंके अधिकार
[ग्यारहवां प्रकरण
(३) बम्बई हाईकोर्ट के फुलबेंचने, गान्धी मगनलाल मोतीचन्द बनाम यादववाई 24 Bom. 1927 1 Bom. L. R. 574 के मामले में यह माना कि मुजरात प्रान्तमै अपनी क्वारी पोती की जायदाद मनकूला और गैरमनकूलाकी पारिस जब दादी होती है तो वह उस जायदादकी पूरी मालिक होती है, क्योंकि वह दादी बहैसियत दादीके वारिस होती है न कि दादाकी विधवाकी हैसियतसे इस लिये उस दादीके मरने के बाद जायदाद दादी के वारिस को मिलेगी, न कि पोतीके वारिसको।
मिस्टर मेनसाहेबने अपने हिन्दूलॉके सातवें एडीशन पेज ८२६, ८२७ में यह जाहिर किया है, कि जुडीशलकमेटीने उक्त फुल बेंचकी रायको, शिवशङ्करलाल बनाम देवीसहाय 30 1. A. 202; 25 All. 468 और लालशिव प्रतापसिंह बहादुर बनाम इलाहाबाद बैंक के मामलेमें रद कर दिया। परन्तु उसका ऐसा समझना ठीक नहीं है, क्योंकि बम्बईका यह फैसला बम्बई प्रांत के खास कानूनके आधारपर किया गया है। इस कानूनके अनुसार दादी बहैसियत दादीके वारिस होती है, न कि बहैसियत दादा की विधवाके । मिताक्षरालॉ के अनुसार भी यही बात है। इस लिये गोत्रज सपिण्डकी विधवाओं की तरह दादीके हक़ महदूद नहीं होते । बक्ति बम्बईके लॉ के अनुसार दादी स्वयं गोत्रज सपिण्ड मानी जाती है; इस लिये उस कानूनके अनुसार बहनों और भतीजियोंकी तरह वह भी जायदादकी पूरी मालकिन होती है।
बम्बई में लड़की उत्तराधिकारसे पायी हुई जायदादकी पूरी मालकिन होती है। इसपर उक्त जुडीशल कमेटी के फैसले का कोई असर नहीं पड़ता ( 30 Bom. 229 ) इस लिये माके विषयमें भी ऐसाही समझना चाहिये।
यह माना गया है कि जो स्त्रियां आखिरी पूरे मालिक के खानदान में विवाहके सम्बन्धसे मेम्बर नहीं हुई हैं वह सब जब उत्तराधिकारसे जायदादर पाती हैं तो पूरे अधिकारसे पाती हैं-32 Bom. 263 9 B. L. R. 1187.
बम्बई प्रांतमें स्त्रियां आम तौरपर जायदादकी पूरी मालिक होती हैं और जिन स्त्रियोंका हक़ सिर्फ अपनी परवरिश पानेका जायदादपर होता है वह इसमें शामिल नहीं हैं, जैसे विधवा, मा, भिन्न शाखाके सपिण्ड आदि। - जब कोई स्त्री बहैसियत विधवा, या मा या गोत्रज सपिण्डकी स्त्रीके वारिस होती है तो जायदादमें उसका अधिकार सीमाबद्ध होता है, देखोगजाधर भट्ट बनाम चन्द्रभागाबाई 18 Bom.6907 तुलजाराम मुरारजी बनाम मथुरादास 5 Bom. 662. दफा ६८४ वारी लडकी ___कारी बेटी जो जायदाद उत्तराधिकारमें अपनी मासे पाती है वह उस बेटीके मरने के बाद ( खासकर मद्रास प्रांतमें ) उस जायदाद उत्तराधिकार
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दफा ६८४-६८६ ]
स्त्रियोंकी वरासतकी जायदाद
८४१
एक खास कायदेके अनुसार होता है उस कायदेके अनुसार बेटी अपनी मा की तरह उस जायदादकी पूरी मालिक होती है, देखो-2 Mad. L.J.149; 19 Mad. 107, 109; 24 Bom. 192. मगर इसके खिलाफ एक नजीर है32 Mad. 521; 19 Mad. 110.
मिताक्षराके जिस नियमके अनुसार यह कायदा बना है उसके अनुसार स्त्रीधनकी जायदादपर उस (बेटी) का अधिकार भी बैसाही होता है जैसा अन्य स्त्रियोंका। दफा ६८५ जैन विधवा
___ सरावगी अगरवालकी पुत्रहीना विधवाको अपनी सम्प्रदायके रवाज के अनुसार अपने मृत पतिकी जायदादमें अन्य हिन्दू विधवाकी अपेक्षा अधिक अधिकार प्राप्त हैं अर्थात् वह अपने पतिकी कमाई हुई जायदादकी पूरी मालिक होती है। शिवसिंहराय बनाम दाखो 6 N. W. P. 382; 5 I. A. 87, 1 All. 688. शम्भूनाथ बनाम ज्ञानचन्द्र 16 All. 379. हरिनामप्रसाद बनाम माडिलदास 27 Cal. 379. किन्तु मौरूसी जायदादके विषयमें उसका बही अधिकार होता है जो हिन्दू विधवाका होता है। दफा ६८६ मनकूला जायदादपर विधवाका कैसा अधिकार है ?
__ बङ्गाल और बनारस स्कूलके अनुसार मनकूला जायदादपर जो किसी स्त्रीको उत्तराधिकारमें मिले जैसे विधवाका या अन्य किसी सीमावद्ध अधिकार रखने वाले वारिसका वैसाही अधिकार होता है जैसा कि गैर मनकूला जायदादपर होता है। दक्षिण हिन्दुस्थानके विषयमें मदरास हाईकोर्टकी राय भी ऐसी ही है दुर्गानाथ प्रमाणिक बनाम चिन्तामणीदासी 31 Cal. 214; 11 M. I. A. 139; 8 Mad. 290, 304.
इस विषयमें बम्बईका लॉ कुछ निश्चित नहीं है, मगर यह स्पष्ट है कि बम्बई प्रान्तके जिन जिलोंमें मिताक्षरा प्रधान माना जाता है उनमें विधवा का अधिकार बङ्गाल या बनारस स्कूलकी विधवासे अधिक नहीं है-32 Bom. 59; 9 Bom. L. R. 305; 17 Bom. 690.
यह भी स्पष्ट है कि जिन प्रान्तोंमें मयूख प्रधान माना जाता है उनमें भी विधवा अपने पतिसे उत्तराधिकारमें मिले हुये माल मनकूलाको वसीयत द्वारा किसीको नहीं दे सकती, देखो-छम्मनलाल मगनलाल शाह बनाम डोशी गणेश मोतीचन्द 28 Bom. 453, 6 Born. L. R. 460; 17 Bom. 690; 21 Bom. 170. विधवाके मरनेके बाद वह मनकूला जायदाद उसके वारिसको नहीं मिलेगी और न वे उस जायदादसे विधवाका कर्ज चुका सकते हैं, देखो-16 Bom. 233.
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स्त्रियों के अधिकार
[ग्यारहवां प्रकरण
यदि विधवाको अपने पतिसे वसीयत द्वारा कोई अधिकार मिला हो तो वह उस अधिकारको काममें लासकती है। देखो-मोतीलाल बनाम रत्ती राम 21 Bom. 170.
पतिसे पाये हुये माल मनकूलापर विधवाके पूर्ण अधिकारका उल्लेख मयूखमें स्पष्ट और निश्चित रूपसे नहीं किया गया है ( 32 Bom. 59,9 Mad. L. R. 1305). परन्तु कई अदालतोंकी नजीरें हैं कि मयूखके अनुसार विधवा या अन्य कोई भी स्त्री जो माल मनकूलाकी वारिस हो अपने जीवनकालमें उस मालको जैसे चाहे दे सकती है अर्थात् ( Dispose ) खर्च कर सकती है-लक्ष्मीबाई बनाम लक्ष्मण मोरोबा 4 Bom. H. C. O.C; 250-1623 11 Bom. 285. बलवन्तराक बनाम परसोत्तम 9 Bom. H. C. 99-111. तुलजाराम मुरारजी बनाम मथुगदास bBom.662. दामोदर माधौ जी बनाम परमानन्ददास 7 Bom. 155-163; और देखो-1Bom.H.C.56. ____ मयूखकी इसी बातके सम्बन्धमें मिस्टर मेनने अपने हिन्दूला की दफा २५७ पेज ३२२ और पेज ८७० में कहा है कि-"हिन्दू गृहस्थका मुखिया साधारणतः जिन आवश्यक और उचित मतलबों या कामों के लिये कोई खर्च करता है बस उतनेही सीमा तक स्त्रीका अधिकार मनकूला जायदादके खर्च करने का समझना चाहिये" कितनेही सूरतोंमें माल मनकूला इस तरहका हो सकता है कि उसे दूसरी शकलमें तब्दील किये बिना (बेचें बिना) उसका लाभ विधवा नहीं उठा सकती ऐसी सूरतों में विधवा उसे बेच सकती है, और दूसरी शकलमें तब्दील कर सकती है परन्तु मूलधन विधवाको ज्योंका त्यों बनाये रखना पड़ेगा। हां यदि उस मनकूला जायदादकी आमदनी उसके भरण पोषण के लिये सामान्यतः काफी न हो तो वह उस माल मनकूलाके मूलधनको खर्च भी कर सकती है, धार्मिक कामोंके लिये भी वह उसका एक उचित भाग खर्च कर सकती है-नृसिंह बनाम वेंकटाद्रि 8 Mad. 290. गदाधरभट्ट बनाम चन्द्रभागाबाई 17 Bom. 690-703-704.
मिथिला स्कूल के अनुसार वह विधवा जिसके सन्तान न हो, गैरमनकूला जायदादको रेहन, बय नहीं करसकती परंतु जब विधवाको अपने पति से उत्तराधिकारमें मनकूला जायदाद मिली हो तो उस पर विधवा का पूर्ण अधिकार है उसे वह जिस तरहपर चाहे इन्तकाल करे या किसी को दे दे. यानी अपनी मरज़ीके अनुसार इन्तकालकर सकती है, देखो-विरजिनकुंवर बनाम लक्ष्मीनारायन महता 10 Cal. 39255 W. R. C. R. 141. दफा ६८७ वसीयत ज़बानी जायज़ है लिखित नहीं
जिस जगह स्त्रीको यह अधिकार है कि वह उत्तराधिकारमें मिली हुई जायदादको ज़बानी वसीयत द्वारा किसीको दे दे, वहां भी उसे यह अधिकार
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सफा ६८७-६८६]
स्त्रियों की वरासतकी जायदाद
नहीं है कि वह लिखित वसीयत द्वारा किसीको देजाय । विधवा, पतिकी गैरमनकूला जायदाक्को, उचित क्रजेके चुकाने के लिये भी उस जायदादका इन्तकाल नहीं कर सकती है (5 Bom. L. R. 314) अगर ज़बानी वसीयत से वह जायदाद किसीको न दे गयी हो तो उसके मरनेके बाद, उसके बादके चारिसको वह जायदाद मिलेगी।
यह संदेह हो सकता है कि जबानी वसीयत तो जायज़ माना जाय और अगर वह लिखित वसीयत कर जाय तो नाजायज़ क्यों हो जायगा हम इस विषयको विस्तार से दूसरी जगह कहेंगे यहां पर यही समझ लीजिये कि कानूनकी एक विचित्र बात है। यह स्पष्ट है कि षडाल और बनारस स्कूल में ऐसा नहीं होता। दफा ६८८ बटवारासे मिलीहुई जायदाद
बटवारा करानेमें जब कोई जायदाद मा या दादीको मिली हो तो उसमें उनका कैसा हक्र है इस बातके लिये देखो प्रकरण ८. दफा ६८९ जायदादपर स्त्रीके अधिकारकी समस्या
अदालतोंमें इस बातपर बड़ा पादविवाद हुआ है कि विधवा या दूसरी किसी सीमाबद्ध उत्तराधिकारिणी स्त्रीको मिली हुई जायदाद में उस विधवा या स्त्रीका स्वार्थ ( Interest) या हक्क किस प्रकारका समझना चाहिये। माना यही गया है कि सारी जायदाद विधवा या दूसरी सीमाबद्ध उत्तराधिकारिणी स्त्रीको पूरी तरह प्राप्त है (22 Bom 984), वही उस जायदादकी प्रतिनिधि या मालिक है, देखो-भालानहाना बनाम प्रभूहरी2 Bom. 67; 73, 74, ( 1909) 36 I. A. 138, 31 All. 497, 13 C. W.N. 1117: 11 Bom. L. R. 911.
उसके अधिकारमें उस जायदादका पूरा कब्ज़ा और उसकी कुल आम. दनी भी है, जायदादकी आमदनीको वह जैसे चाहे खर्च करे कोई उससे उसका हिसाब नहीं मांग सकता परंतु वह उस जायदादके शरीर (मूल)को नष्ट नहीं कर सकती और न जायदादका किसी तरह इन्तकाल कर सकती है सिवाय उस सूरतके जब कि (कानूनी ज़रूरतें दफा ६०२) उचित ज़रूरतों के लिये ऐसा करे, या अपने पश्चात्के होने वाले वारिसकी उचित मंजूरी (देखो दफा ६८२-६ तथा ७०८) को प्राप्त करके इन्तकाल करे । जायदाद के लाभके लिये या उचित ज़रूरतों के लिये (देखो दफा ६०२, ६७७ ) जो कुछ खर्च हो वह जायदादसे लिया जायगा । स्त्री मालिक, के जीवनकाल में दूसरे किसी का भी स्वार्थ उस जायदादमें नहीं होता । समस्त वादविवाद का सार यह निकला कि जायदादमें ऊपर कही हुई विधवा या स्त्री मालिकका स्वार्थ
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स्त्रियोंके अधिकार
[ग्यारहवां प्रकरण
यानी अधिकार उस आदमीसे कुछ अधिक है जिसे कोई जायदाद इस शर्तसे मिली हो कि वह उसे अपनी ज़िन्दगीभर केवल भोगे।
पुनर्विवाह होनेके बाद कब्ज़ा और मृत्यु-जब कोई हिन्दू विधवा पुनर्विवाहके पश्चात भी अपने पहिले पतिकी जायदाद पर १२ वर्षतक क्राबिज रही, किन्तु उसने वह अधिकार अपनी मौजूदा हैसियतसे नहीं, बल्कि अपने पहिले पति की विधवा की हैसियत से रक्खा, तो उसने उस जायदाद के अपने पहिले पतिके लिये जीवित रक्खा अतएव उसकी सत्य के पश्चात. वह जायदाद उसके पहिले पतिके वारिसको प्राप्तहोगी, उमरावसिंह बनाम पिरथी L. R.GA. 117; 86 I. C. 445; A. I. R. 1925 All. 369.
पुनर्विवाहसे दोनोंकी जायदाद मिलना-जिन जातोंमें पतिके भाई के साथ पुनर्विवाहकी प्रथा होती है, उनमें विधवा दोनों भाइयोंकी जायदादकी वारिस होती है, नागर बनाम रवासे L. R. 6 All. 267; 86 I. C. 8935 A. I. R. 1925 All. 440. दफा ६९० विधवाका कर्जा रिवर्ज़नरको पाबन्द नहीं करता
विधवा और मुश्तरका खानदानके मेनेजरकी स्थितिमें यह मेद है कि मेनेजर दूसरे कोपार्सनरोंकी मंजूरी बिना कुछ नहीं कर सकता और विधवा स्वयं अपने अधिकारसे कर सकती है जहां तककि कानूनने उसे करनेकी इजाजत दी है, 11 Bom. 320, 324.
___ अगर विधवा किसीके किसी प्रकारके हकको या अपने जिम्मे किसीके कर्जेको स्वीकार करले तो वर्तमान लिमीटेशन लॉ नं० ६ सन् १९०८ की दफा १६ के अनुसार रिवर्जनर अर्थात् विधवाके पश्चात् जायदादका वारिस होने वाला पाबन्द नहीं होता-32 All. 33.
विधवाका ऋण-जब किसी विधवाने बहुतसी जायदाद वरासतसे प्राप्त की हो,तो उसे यह अधिकार नहीं है कि वह भावी वारिसोंपर कर्जकी पाबंदी डाले, जब कि वह उस कर्ज को जायदादकी आमदनीसे अदा करसकती हो। किन्तु जब आमदनी उसकी परवरिशके लिये या उन आवश्यकताओंके लिये जो, हिन्दूलॉके अनुसार जायज़हों, काफ़ी न हो, तो परिमित अधिकारी जायदादका इन्तकाल भावी वारिसोंके विरुद्ध करसकता है। एक पुत्रीको, जिसे अपने पिताकी जायदाद वरासतसे प्राप्त हुई है, यह अधिकार नहीं है कि वह उस जायदाद को अपने किसी लड़केकी शादीके लिये मुन्तकिल करे ।
अन्य परिणाम-एक हिन्दू पिता, अपने किसी पुत्रकी शादी के लिये, पूर्वजोंकी रियासतका इन्तकाल नहीं कर सकता। जब किसी परिमित अधिकारीने, वरासतसे प्राप्त की हुई जायदादको, ऐसे अभिप्राय के लिये, जिसकी पाबन्दी भावी वारिसोंपर नहीं होती, मुन्तकिल किया और वह अभिप्राय
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दफा ६६०-६६१]
स्त्रियोंकी वरासतकी जायदाद
रेहननामेमें साफ बता दिया गया और मुर्तहिनको यह पूर्णतया विदित था कि रकम उसी अभिप्रायके लिये लीगई है--तय हुआ कि दूसरे भावी वारिस को उसके जायज़ होनेका विरोध करनेके लिये, इस वजहसे, कि उसने उसको तामीलके समय अपनी रजामन्दी देदी थी, रुकावट नहीं है, राजगोपालाचारियर बनाम स्वामीरेड्डी 1926 M. W. N.266; 93 I.C. 49, A. I. R. 1926 Mad. 517; 50 M. L. J. 221. दफा ६९१ विधवाके कामोंमें दखल
जबतक यह न दिखाया जाय कि विधवा जिस ढंग से जायदादके साथ व्यवहार करती है उससे जायदाद नष्ट होजानेका भय है या वैसा भय होगया है या रिवर्ज़नर तक जायदाद पहुंचने में भय पैदा होगया है तब तक अदालत विधवाके कामोंमें दखल न देगी, देखो-6 M. I. A. 433.
विधवाके बाद वारिस होनेवाला वैसा दखल देनेकी प्रार्थना करे तो. उसे दिखलाना होगा कि विधवाके किसी कामसे जाययादके बरवाद होनेका भय है और यह कि यदि अदालत मनाहीका हुक्म न देगी तो विधवाके काम से, विधवाके बाद वारिस होनेवालोंका नुकसान होजानेका भय है। सिर्फ यह दिखाना काफी नहीं है कि विधवाने कोई ऐसा दान किया है या जायदाद इस तरह अलगकी है जो कानूनसे बर्जित है-हरीदासदत्त बनाम रामगुनमनीदासी 2 Taylor and Bell 2799 6M. I. A. 433.
बटवारासे जो जायदाद मनकूला विधवाको मिली हो यदि उसके परबाद होनेका भय हो तो अदालत रिवर्जनरोंके स्वार्थकी रक्षाके हेतुसे उस जायदादके विषयमें कुछ प्रबन्ध :कर सकती है-(1903 ) 31 Cal. 2144 8 C. W. N. 11.
एक मामलेमें विधवा एक रक्रमकी हकदार हुई बम्बई हाईकोर्टने रिव. जनरोंके रक्षाके च्यालसे उस रकमको सुरक्षित कर दिया, देखो-गम्भीरमल बनाम हमीरमल 21 Bom. 747.
परन्तु इसीतरहके एक दूसरे मामलेमें कलकत्ता हाईकोर्टने यह माना कि जबतक यह साबित न किया जाय कि विधवा उस रक्रमको खराब कर देगी तबतक विधवा इस बातकी ज़मानत देनेके लिये बाध्य नहीं है कि वह उस रकमको नष्ट नहीं करेगी, देखो-बिन्दवसनी दासी बनाम घलीचन्द सन्त 1 W. R.C. R. 125.
अदालत ऐसी रकमको किसी उचित रीतिसे लगा देनेके लिये हिदायत कर सकती है, देखो-मृणालिनी दासी बनाम अविनाशचन्द्रदत्त (1910) 14 C. W. N. 1024.
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स्त्रियोंके अधिकार
[ ग्यारहवां प्रकरण
लार्ड जिफर्ड ने काशीनाथ वैसाक बनाम हरसुन्दरी दासीके मामले में माना है कि अपने मृतपतिकी जायदाद मनकूला और गैर मनकूला दोनों पर विधवाका अवाध्य अधिकार होता है-ऐसी आमदनी किसी दूसरे आदमीके पास जमा की हो या उस बचतसे कोई दूसरी जायदाद खरीदी हो तो ऐसी रक्कम या जायदादपर विधवा और दूसरी स्त्रीका पूर्ण अधिकार रहता है यांनी वह अपने किसी भी काममें उस रक्कम या जायदादको खर्च कर सकती है और उसे रेहन या चय भी कर सकती है और जिसे वह देना चाहे दे सकती है, देखो -सुरजी मनी दासी बनाम दीनबन्धु मलिक 9 M. I. A. 1233 पन्नालाल बनाम बामासुन्दरी दासी 6 B. L. R. 732; सौदामिनीदासी बनाम एडमिनिस्ट्रेर जनरल आफ बंगाल 20 I. A. 12; 20 Cal. 433; ईश्वरीदत्त कुंवर बनाम हंसवती 10 I.A. 150 - 158; 10 Cal. 324; 13 C. L. R. 418-424; सामीनाथ पिलाई बनाम मानिक कसामी पिलाई 22 Mad. 3363 4 B. L. R. O. C. 1, 40, 42; 12 W. R. O. C. J. 13, 28, 29.
६३६
अगर जायदादकी आमदनी किसी काममें लगा दी गयी हो और उस से जो लाभ होगा वह, और लगी हुई आमदनी, सब उस वक्त जायदाद का इजाफा माना जायगा जब यह न साबित हो सकता हो कि विधवा या दूसरी स्त्रीने वह काम अपने निजके लाभ के लिये किया था । इजाफा करार पाने पर रिवर्ज़नर वारिस उसका मालिक होगा, देखो -- 14I. A. 63, 14 Cal. 387, 14 B. L. R. 159; 25 Mad. 351-360.
अपने पति की जायदादपर क़र्ज़ लेकर उस रुपयासे जो जायदाद विधवा खरीदे उसका हक़दार पतिका वारिस होगा मगर शर्त यह है कि वह ऐसा क़र्ज़ अदा करने का भी ज़िम्मेदार होगा - यदीसिंह बनाम फूलचन्द 5 N. W. P. 197.
यदि विधवा जायदादकी आमदनी इस नीयतसे किसी काममें लगा दे कि वह काम जायदादका भाग समझा जाय तो फिर वह उन्हीं हालतों में उसे व्यवहार में ला सकती है जिन हालतोंमें कि वह असली जायदाद को ला सकती है 10 I. A. 150; 10 Cal. 324.
अगर जायदाद की ग्रामदनी विधवाने इस ढंगसे किसी काममें लगाई हो जिससे यह मालूम होताहो कि उसकी यह नीयत नहीं थी कि वह लगाई हुयी रकम उसके पति की जायदादका भाग समझी जाय बल्कि विधवाकी यह नीयतहो कि वह उस जायदादको अपने काम में लावेगी ऐसी सूरतमें विधवा उस रक़म को अपनी ज़िन्दगीभर तकही अपने काममें लासकती है अगर वह अपनी ज़िन्दगी में उसे काममें न लावे (किसीको न दे या वसीयत न करे) तो वह विधवा के बाद विधवाके वारिसको नहीं मिलेगी बल्कि उसके पतिकी जायदाद में इजाफा समझी जायगी और पति के वारिसको मिलेगी, देखो -
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दफा ६६२ ]
स्त्रियों की वरासत की जायदाद
अननचन्द्र मण्डल बनाम नीलमनी 9 Cal. 758; 10 I. A. 150; 10 Cala 324; 13 C. L. R. 418; श्रीधर चट्टोपाध्याय बनाम कालीपद चक्रवर्ती ( 1911 ) 16 C. W. N. 106.
ちぎら
जायदादकी जो आमदनी सीमावद्ध स्त्री मालिक अपने मरते समयतक अपने कामोंमें न लाई हो वह उसके बाद उसके स्त्रीधन के वारिसको नहीं मिलेगी बल्कि रिवर्जनरको मिलेगी 10 Bom. 478; 5 Cal. 512; 4 C.R. R. 511, 423.
जब किसी दस्तावेज़ या वसीयत नामाके द्वारा हिन्दू विधवाको इस बातका पूरा अधिकार दिया गयाहो कि वह मुनाफे को अपने काममें लावे तो मुनाफे की जितनी रक्रम उसके मरनेके समयतक उसके काम में आने से बच गयी हो वह विधवा के वारिसको मिलेगी ।
दफा ६९२ एकसे अधिक विधवायें
जहां पर एकसे अधिक विधवाएँ हों ऐसे मामलेमें जायदाद के प्रबन्धकीं अधिकारिणी बड़ी विधवा होगी अर्थात् पहिले ब्याही हुई विधवा होगी- जिजोईं अम्बाबाई साहबा बनाम कामाक्षीबाई साहबा 3 M. H. C. 424. अधिक विधवाएँ उस जायदादको अलग अलग भोगनेके लिये आपसमें बांट सकती हैं मगर शर्त यह है कि उनके पश्चात् होनेवाले वारिसके छक्रमें किसी तरह की हानि न पहुंचती हो 29 Bom. 346; 7 Bom L. R 238.
एक विधवा पति से प्राप्त जायदादको बिना दूसरी संयुक्त विधवाके सहयोग नहीं छोड़ सकती - बी अन्ना नायडू बनाम जग्गू नायडू A. I. R 1925 Mad. 153.
विधवा द्वारा समर्पणके जायज़ होनेके लिये, आवश्यक हैं कि वह पूरी जायदादका समर्पण हो, और साथही साथ वह क़ानूनी भी होना चाहिये, केवल भावी वारिसोंमें जायदादके तकसीमका प्रबन्ध न होना चाहिये - इन्द्रनारायण मन्ना बनाम सर्वस्वदासी 87 1. C. 9303 41 C. L. J. 341, A. I. R. 1925 Cal. 743.
विधवा जीवित रहने के अधिकारका त्याग - दो संयुक्त विधवाओं मैं से किसी एक को उस जीवित रहने के अधिकारको त्याग करने में कोई क़ानूनी कावट नहीं है, जो वह किसी मुन्तलिलेहकी उस जायदाद के वापस लेने में प्रयोगकर सकती है, जो उसे ( मुन्तलि अलेइको) संयुक्त विधवा द्वारा, दोनों के बटवारे के बाद मुन्तक़िल कीगई है-मेडै दालयाय कलिआनी अन्नी बनाम मेडै दालवाय थिरुमलाप्पा मुद्दालियर A. I. R. 1927 Mad. 115.
संयुक्त विधवाओं में से कोई एकके द्वारा इन्तकाल - दो संयुक्त विधवाओं में से कोई एक विधवा बिना दूसरीकी रजामन्दीके अपने पतिको जाय
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स्त्रियोंके अधिकार
[ग्याररवा प्रकरण
दादका कोई हिस्सा खानदानी फायदेके लिये मी मुन्तकिल नहीं कर सकती 14 M. L. J. 139. के फैसलेमें जज इस बातसे सहमत थे कि बड़ी विधवा दूसरीकी मेनेजर या एजेन्ट मानी गई थी। इस प्रकारका परिणाम केवल ऐसी दशामें निकाला जा सकता है जब विधवाओं में आपसमें अनबन न हो, किन्तु ऐसी सूरतमें जब उनमें आपस में विरोध हो, यह असम्भव है-वाल्लूरू अप्पालासूरी बनाम कन्नम्मा 22 L. W. 287; (1925) M. W. N. 622; 90 I. C. 8817 A. I. R.1926 Mad. 6849 M.L. J. 479. दफा ६९३ जायदादमें इजाफा
जब कोई सीमावद्ध स्त्री मालिक, जायदादमें इज़ाफ़ा इस नीयतसे करे कि वह इज़ाफ़ा जायदादका भाग समझा जाय तो वह इज़ाफ़ा चाहे उस रक्रमसे किया गयाहो जिसपर स्त्रीका पूरा अधिकार था, उस स्त्रीके मरने पर जायदादके वारिसको मिलेगा न कि स्त्रीके वारिसको । अगर कोई मकान जायदाद की ज़मीनपर बनाया जाय तो उसके विषयमें यही माना जायगा कि वह जायदादका एक भाग समझा जानेकी नीयतसे बनाया गया था, देखो--कट नरासिंभ अप्पाराव बहादुर (राजा) बनाम वेंकट पुरुशोथामा जगन्नाढ़ा गोपालाराव बहादुर (राजा सुरेनानी) ( 1908) 31 Mad. 321; फकीरा डोबी वनाम गोपीलाल 6 C. L. R. 66.
विधवा-धनका जमा करना-इज़ाफ़ा जायदाद-हिन्दू विधवाको अपने पतिसे प्राप्त हुई जायदादकी आमदनीको खर्च करने का पूर्ण अधिकार है। वह या तो उसे खर्च कर सकती है या अपने लाभके लिये जमा कर सकती है। उस सूरतमें जब विधवा जायदाद खरीदे, और उसकी कार्यवाहीसे यह विदित हो कि वह जायदाद उसके पति की जायदादका भाग बन जाय, तव घरासतका सिलसिला उस जायदादके सम्बन्धमें भी पतिकी जायदादकी तरह परही होगा और वह जायदाद इजाफ़ा जायदाद हो जायगी। जब उसका यह इरादा न हो, उस सूरतमें उसका उस जायदादपर सम्पर्ण अधिकार होता और वह उसे जिस प्रकार चाहे बेच सकती है या जिसे चाहे दे सकती है और भावी वारिसोंको उसके द्वारा किये हुये इस प्रकारके इन्तकालपर एतराज़ करनेका कोई अधिकार नहीं रहता।
इजाफा जायदाद--जब उसकी कार्यवाही या तर्ज अमल द्वारा उसकी नीयतकी कल्पना करनेका प्रश्न होता है उस दशामें यह माना जाता है कि उसने उस जायदादको अपने सम्पूर्ण अधिकारमें अपने पूरे फायदे या सम्पूर्ण इन्तकालके अधिकार सहित रखनेकी नीयत रखी थी। जब जायदाद पति द्वारा प्राप्तकी हुई नहीं होती, तव इस प्रकारकी नीयतकी कल्पनाकी आवश्यकता नहीं होती, कि आया वह उस जायदादको अपने पतिकी जायदादका
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दफा ६६३-६९४ ]
स्त्रियोंकी वरासतकी जायदाद
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भाग बनाना चाहती थी। उसकी मृत्युके पश्चात् उसकी जायदादका उत्तरा. धिकार उसी प्रकार होता है जिस प्रकार स्त्री धनका-अघेश्वरानन्दजी बनाम शिवाजी राजासाहेब A. I. B. 1926 Mad. 84, 49 M. L. J. 568..
- यह प्रश्नकि आया अमुक जायदाद, इजाफा जायदाद (Aceretion) है नीयतका प्रश्न है, किन्तु विरुद्ध शहादत न होने की सूरतमें आमदनी द्वारा खरीद की हुई जायदाद, इजाफ़ा जायदाद है--मु० तहेलकुंवर बनाम अमरनाथ A. I. R. 1925 Lah. 2. दफा ६९४ जायदादकी आमदनीपर अधिकार
- जायदादकी जो आमदनी विधवा या दूसरी सीमाबद्ध स्त्री मालिकके हाथमें जमा होगी अर्थात् जब किसी सीमाबद्ध स्त्रीको जायदाद उसके गुज़ारे के लिये या ज़िन्दगी भरके लिये मिली हो और उस जायदादकी आमदनीकी बचत चाहे विधवा या दूसरी स्त्रीने अपने पास रखी हो या ऐसी आमदनी किसी दूसरे आदमीके पास जमा की हो या उस बचतसे कोई दूसरी जायदाद खरीदी हो तो ऐसी रकम या जायदादपर विधवा और दूसरी स्त्रीका पूर्ण अधिकार रहता है। यानी वह अपने किसी भी काममें उस रक्कम या जायदाद को खर्च कर सकती है और उसे रेहन बय भी कर सकती है और जिसे वह देना चाहे दे सकती है। देखो-दफा ६६१.
एक ज़मीदारीका मालिक अपनी नाबालिग्रीकी हालतमें अपनी विधवा माताको छोड़कर मर गया। जायदाद वास्तव में कोर्ट आफ वार्डके प्रबन्धमें धी, और बादमें उसका प्रबन्ध अदालतके रिसीवरोंके हाथमें था। उसने (विधवा माने ) एक वसीयतनामा लिखा, जिसके द्वारा उसने गवर्नमेन्ट प्रामिज़री नोट और जायदादकी कुछ नदीको पृथक किया।
तय हुआ कि अपने पुत्रकी मृत्युके पश्चात् उसे अपने जायदाद और उसकी आमदनी पर ताहयात अधिकार होगया था, और आमदनीके अन्दर उस लगे हुये मूलधनका सूद भी शामिल है जो पुत्रकी मृत्युके पहले जमा किया गया है । उस आमदनीपर उसका ताहयात अधिकार था। उस आमदनी को या उसके किसी हिस्सेको, वह जबकि वह उसकी अधिकारिणी थी, बतौर इजाफ़ा जायदादके यदि वह चाहती जमा कर सकती थी। इस प्रकार की शहादत न होने पर कि उसने कभी उसे बतौर इजाफ़ा जायदाद जमा किया था, वह इस बातकी अधिकारिणी थी कि उसे बजरिये वसीयत या अन्य रीतिसे काममें लाती। यह भी तय हुआ कि वह अपने पुत्रकी मृत्युके पश्चात् उन प्रामिज़री नोट्स या दूसरी लागतोंकी, जो कि रकमके स्वरूपमें जायदादके सम्बन्ध में कोर्ट आफ वाईससे प्राप्त हुये थे और जिसे कि उसने
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420
- स्त्रियों के अधिकार -
[ग्याररवा प्रकरण
अपने खर्च में लानेके लिये या उनके द्वारा किसी प्रकारकी आमदनी प्राप्त करने के लिये हासिल किया था, ताहयात अधिकारिणी थी किन्तु उसने वसीयत द्वारा उन प्रामिज़री नोटोंका जो कि रक्रमके स्वरूपमें नाबालिग पुत्रकी मृत्यु के पूर्व कोर्ट आफ वार्ड्ससे प्राप्त हुये थे न पृथक किया था । उसने केवल उन प्रामिज़री नोटों के सम्बन्धमें वसीयत किया था, जिनकी वह पूर्ण अधिका.. रिणी थी और जिन्हें उसने अपने पुत्रकी मृत्युके पश्चात् कोर्ट श्राफ वार्डसे जबकि वह बहैसियत रिसीवरके थी प्राप्त किया था। उसके वसीयतका वही एक मान्य और न्याय पूर्ण कारण था और वसीयतनामा इस वजहसे नाजायज नहीं हो सकता कि उसे इन्तकालका अधिकार न था--वेकटद्री अप्पाराव बनाम पार्थ सारथी अप्पा 48 Mad. 312; 23 A. LJ. 2613 L. R. 6 P. C. 82, 52 1. A. 214, 27 Bom. L. R. 823; 87 I.C. 324;(1925) M W.N. 44113 Pat. L. R. 288929 C. W. N. 989, A. I. R. 1925 P. C. 1057 48 M. L.J. 627 (P.C.) - विधवापर इस बातकी पाबन्दी नहीं है कि पतिका कर्ज, पतिकी जायदादकी शामदनीसे अदा करे-विश्वनाथ बनाम रामनाथ 12 0. L.J. 4067 20. W. N. 522; 81 I.C. 581; A. I. R. 1925 Oudh 529. .
श्रामदनी से पैदा की हुई जायदाद-बचत से पैदा की हुई जायदाद, अधिकारी की जायदाद है-हरीहरप्रसाद सिंह बनाम केशव प्रसाद सिंह 13 I.C. 454.
आमदनीको खर्च करना और कर्ज चुकानेके लिये कर्ज लेना-हिन्दूला के अनुसार हिन्दू विधवाको पूर्ण अधिकार है कि वह उस आमदनीको जो उस जायदादसे प्राप्त होती है जिसकी कि वह अपने पति की कारिसकी भांति अधिकारिणी है, खर्च करे। उसको अधिकार है कि उसे सम्पूर्ण नर्चकर डाले, और कुछ भी न बचावे । यदि विधवा कुल आमदनी अपने खर्च में लगाले और अपने पतिके कर्जको चुकाने के लिये कर्ज ले तो उसका यह कार्य न्यायपूर्ण होगा, और यदि उसने उस कर्जको चुकानेके लिये कर्ज लिया है तो भावी वारिसोंको उसे चुकाना होगा।
हिन्दलों के अनुसार हिन्दू विधवापर अपने पतिके कर्जको चुकानेकी पावन्दी है इस प्रकारकी अदाई पति की आत्मिक उन्नतिके लिये है 30 B. 113; 21 C. 190. Rof. अतएव जहां कहीं कोई विधवा अपने पतिका कर्ज चुकाने के लिये, पति द्वारा प्राप्त जायदादका इन्तकाल करती है वहां किसी प्रकारकी आवश्यकता या दवावका प्रश्न नहीं उठता-ठाकुर विशुनाथ बनाम रामरतन 12 0. L. J. 4063 20. W. N. 522; 89 I.C. 581; A. I. R. 19250udh 529.
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दफा ६६५-६६७]
स्त्रियों की वरासतकी जायदाद
दफा ६९५ भरण पोषणके खचसे बची हुई रक्कम
भरण पोषणके खर्चसे कुछ रकम बचाकर यदि विधवा किसी काममें लगावे तो वह उसकी स्त्रीधनकी जायदाद है और उसके मरनेके बाद उसके वारिसको मिलेगी, देखो-28 Mad. 1. दफा ६९६ विधवाकी खरीदी जायदाद
यह ख्याल कर लेनेका कोई कारण नहीं है कि अपने पतिके मृत्यु के बाद हिन्दू विधवाने जो जायदाद खरीदी हो वह ज़रूरही उसके पतिकी जायदादका भाग मानी जाय-26 I. A. 2263 26 Cal. 871. . दफा ६९७ पट्टे
विधवा या दूसरी स्त्री सीमाबद्ध मालिक बरासतसे पायी हुई जायदाद का पट्टा दे सकती है और इसी तरह जायदादके प्रबंध सम्बन्धी दूसरे काम भी कर सकती है मगर यह माना गया है कि यदि ऐसी किसी स्त्रीने श्रप अधिकारसे अधिक पट्टे सदाके लिये दिये हों या लम्बी मुहतके लिये दिये हो तो वह सब उसके मरने पर रह हो जावेंगे और रिवर्जनर वारिस उन्हें रह करा सकता है । देखो-सदाई नायक बनाम सेराईनायक ( 1961 ) 28 Cal. 532;5 C. W.N. 2703 विजयगोपाल मुकरजी बनाम नीलरतनमुकरजी (1903) 30 Cal. 9903; 7 C. W.N. 864,S.C. on appeal बिजयगोपाल मुकरजी बनाम कृष्णमहिषी देवी श्रीमती ( 1907)34 I. A. 87, 34 Cal. 8293 11 C. W. N. 42438 Bom L. R. 602. .... परन्तु वह पट्टे वैसी हालतोमें दिये गये हों कि जिन हालतों में उस स्त्री मालिकका किया हुआ जायदादका इन्तकाल जायज़ समझा जा सकता है तो रिवज़नर वारिस उसे रह नहीं करा सकता । या किसी खास मामलेमें जब कि वह पट्टे जायदादके अच्छे इन्तज़ामके खयालसे मुनासिब समझे जा सकते हो या जायदादके लाभके लिये समझे जासकते हों तो रिवर्जनर वारिस उन्हें रद्द नहीं करा सकता । देखो-शङ्करनाथ मुकरजी बनाम बिजयगोपाल मुकरजी (1908).13 0.WN. 2013 दयामनी देवी बनाम श्रीनिवासकुंडू 11906) 33 Cal. 284. - यह माना गया है कि पढे चाहे भी किसी तरहके हों उस स्त्री मालिक की जिन्दगी भर तक चलेंगे जिसने पट्टे दिये हों देखो-मोहनकुंवर बनाम जोरामनसिंह Marsh 166 ( माशेल्स रिपोर्ट हाईकोर्ट आफ बंगाल १८६२), 9. W. R. C. R. 598. ऐसे पट्टोंके रद करनेका दावा सीमाबद्ध स्त्री मालिक के मरनेसे बारह १२ वर्षके अन्दर किया जा सकता है। देखो-34 I.A. 87; 34 Cal 329; 11C. W. N. 42479 Bom.L. R. 602..
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स्त्रियों के अधिकार
[ग्यारहया प्रकरण
खान-हिन्दु विधवा या दूसरी सीमाबद्ध स्त्री खान खोद कर उसका लाभ अपने काममें लासकती है, मगर शर्त यह है कि वह उस खानको खाली न कर डाले देखो-22 Mad. 126. दफा ६९८ सीमाबद्ध स्त्री मालिककी ज़िन्दगीभरके लिये जाय
जादका इन्तकाल - एक हिन्दू विधवा या दूसरी सीमाबद्ध स्त्री मालिक जायदादको, या यदि वह शिरकतमें मालिकहो तो जायदादमेंके अपने स्वार्थको अपनी जिंदगी भरके लिये इन्तकाल कर सकती है. देखो-(विधवा ) रामाकल बनाम रामासानी 22 Mad. 522, हनूमानप्रसादसिंह बनाम भगवतीप्रसाद 11 All. 357. ( दूसरी सीमाबद्ध स्त्री मालिक ) कान्नी अम्मल बनाम अम्मा कान्नूअमल 23 Mad .50 4. ( शिराकतमें जानकीनाथ मुखोपाध्याय बनाम मथवनाथ मुखोपाध्याय 9 Cal. 580; 12 C. L. R. 15; हरीनरायन बनाम विटे 31 Bom. 560; 9 Bom. L. R. 1049; 23 Mad. 504.
यदि उसने सारी जायदादका इन्तकाल किया हो और यह इन्तकाल ज़रूरतोंके लिये या दूसरी गरजसे किया गया हो, तो रिवर्जनर वारिस उसके पाबन्द समझे जायँगे, और अगर कानूनन् इन्तकालके समय वैसी ज़रूरत न हो तो वह इन्तकाल उस स्त्रीकी जिन्दगी भर तकके लिये ही समझा जायगा उस स्त्रीके मरते ही मंसूख हो जायगा देखो-26 Mad. 334 26 Mad 143; मुन्नालाल चौधरी बनाम गजराजसिंह 17 Cal. 246 रामचन्द्र मंकेश्वर बनाम भीमराव रावजी | Bom. 577; 6 Bom. H.C.A. C. 270; प्रागदास बनाम हरीकृष्ण 1 All. 503; -यदि विधवाकी हैसियतसे उसने वह जायदाद वरासतमें पायी हो तो उसका किया हुअा वसा इन्तकाल विधवा के पुनर्विवाह तक जायज़ माना जायगा, देखो-1 Bom. L. R. 201.
जब किसी इन्तज़ाममें यह शर्त रखी गयी हो कि विधवा जायदादका इन्तकाल न करे तो उसमें यह भी नियम लागू होगा, चाहे उस इन्तज़ाम में साफ तौरसे यह न कहा गया हो कि विधवा अपनी जिन्दगीभर जायदाद का इन्तकाल न करे, देखो-कोई समझौता:इन्तकालकी हद्द तक पहुंच सकता है
और नहीं भी पहुंच सकता यह सव बातें हर मामलेकी सूरतों पर निर्भर हैं 83 Mad. 473. दफा ६९९ डिकरी द्वारा कुकी
सीमाबद्ध मालिक के निजका लाभभी डिकरी द्वारा कुर्क और बेचा जा सकता है, देखो--एक्ट नं0 5 सन् 1908 ई० की दफा 60.
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दफा ६१८-७०.]
स्त्रियोंकी वरासतकी जायदाद
जब किसी विधवा का हल बेच दिया गया हो तो उसका मूल्य उसके वारिसों को दिया जायगा, देखो--28 Cal. 155, b C. W. N. 242.
हिन्दू विधवाके विरुद्ध डिकरी-हिन्दू विधवाके जमानती महाजनको, जव कि जमानत डिकरी की पूर्तिके लिये काफ़ी न हो, यह अधिकार होगा, कि वह दूसरी जायदादको कुर्क कराये। जगन्नाथप्रसाद बनाम जदुराय L.R. 6 A. 873 85 I. C. 9633 A. I. R. 1925 Al. 352.
जब किसी विधवाकी स्थावर जायदादके खिलाफ़ डिकरीके नीलाम की कोई जायदाद खरीदी जाती है, तो खरीदारका अधिकार, उस नालिशकी हैसियत पर निर्भर होता है जिसकी बिना पर वह डिकरी प्राप्त की गई है। यदि दावा उसके व्यक्तिगत खिलाफ हो, तो उसका ताहयात अधिकार ही मुन्तकिल होता है। ईश्वरीप्रसाद बनाम बाबू नन्दन शुक्ल 47 All. b63L. R.6 A. 291; 88 I. C. 1937 A. I. R. 1925 All. 495. दफा ७०० विधवा आदि कब जायदादका इन्तकाल करसकतीहै?
कानूनी ज़रूरतों के लिये ( देखो दफा ६०२-७०६ ) जो ऐसे कारणों से अनायास आपड़ी हों जिनपर कुछ वश नहीं चल सकता था ऐसी सूरतमें कोई विधवा या सीमावद्ध दूसरी स्त्री मालिक जायदादका इन्तकाल करसकती है और उस जायदाद पर उस ज़रूरतके खर्चका बोझ डाल सकती है रिवर्जनर उसके पाबन्द होंगे । कलक्टर श्राफ मसूरिपाटम बनाम कवेली वेंकट नानपणा 8M. IA.5292W. R. P. C. 61: 10 B. L. R.1.5 Rom. H. C A.C. 2173 हफीजन्निशा बेगम बनाम राधाविनोट मिश्र Ben. S. D. A. (1866) P. 595; इस केसमें हमेशा का पट्टा था 14.Ch W.N. 895.
लेकिन अगर जायदादकी आमदनी उक्त ज़रूरत के पूरी करने के लिये काफी हो तो रिवर्ज़नर वारिस पाबन्द नहीं होंगे, देखो-रवनेश्वरप्रसादसिंह बनाम चण्डीप्रसादसिंह ( 1911) 38 Cal. 7215 काली नरायनराय बनाम रामकुमारचन्द्र W. R. 1864 C. R. 14; विधवा या कोई दूसरी स्त्री मालिक बसीयतनामाके द्वारा जायदादका इन्तकाल नहीं करसकती-विश्वनाथ बनाम नरायन (1903) 6 Bom. LR. 314. संसारिक दूसरे कामोंकी अपेक्षा कृत, धार्मिक, या दान सम्बन्धी या अपने पतिकी आत्मा को शांति पहुंचाने के मतलबोंके लिये जायदादके खर्च करनेका अधिक अधिकार विधवाको प्राप्त है।
___ खाने पीने के लिये-किसी विधवा ने, अपने पति की जायदाद की आमदनीसे, जो केवल एक मकान था, अपनी परवरिश में असमर्थ हो, उसे ६००) में बेच दिया। उस रकम में से ३००) रुपये उसने उस कर्ज की अदाई, जिसकी पाबन्दी भावी वारिसों पर थी, लगाया और शेष ३००). उसने अपनी
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स्त्रियोंके अधिकार
[ ग्यारहवां प्रकरण
परघरिशके लिये रख छोड़े । नीचे की अदालतको ज्ञात हुआ कि वयनामा जायज़ था और मावज़ा उचित था। तय हुआ कि वयनामा जायज़ है और उसकी पाबन्दी भावी वारिसों पर है। इसके लिये कोई सख्त पाबन्दी नहीं है कि विधवा अपने भावी जीविकाके लिये जायदादका इन्तक़ाल न कर सके । प्रत्येक मामला उसकी परिस्थिति पर निर्भर है । जब कोई अन्य जायदाद न हो और उस जायदाद की आमदनी से विधवा की परवरिश न हो सकती हो, तो वह उस जायदाद को मुन्तक़िल कर सकती है । कुथा लिंगम मुद्दालियर बनाम सनमुगा मुद्दालियर 23 L. W. 373; ( 1926) M. W. N. 274; 92 I. C. 389, A. I. R. 1926 Mad. 468; 50 M. L. J. 234.
૪
पञ्जाब-- मेहर ( Dower ) जब किसी विधवा को कोई जायदाद, मेहर की जगह पर, उसके पति के वंशजों के बिना किसी ऐतराज प्राप्त हुई हो, तो वह विधवा की स्वयं उपार्जित जायदाद हो जाती है। इस प्रकार विधवा के हक़ में मुन्तक़िल की हुई जायदाद के सम्बन्ध में, यदि वह विधवा किसी प्रकार का इन्तक़ाल करे, तो उसके वंशज उस इन्तक़ाल पर कोई ऐतराज या किसी प्रकार का विरोध नहीं कर सकते । अब्दुल मजीद खां बनाम मुसम्मात साहिबजान A. I. R. 1927 Lahore 29.
दफा ७०१ खरीदार या रेहन रखने वाले के कर्तव्य तथा बारसुबुत
हनूमानप्रसाद पाण्डे बनाम मनराज कुंवरि (6M. I. A. 393 ) के मामले में और दूसरे मुक़द्दमोंमें जो सिद्धान्त निश्चितदुये हैं कि 'ज़रूरत' क्या होती है यानी ज़रूरत में कितनी रक्रम शामिल है और बच्चे ( नाबालिग़ ) वारिसके मेनेजरसे व्यवहार करनेवाले के क्या कर्तव्य हैं तथा बारसुबूत का बोझ किसपर है वही सिद्धान्त विधवाओं और सीमाबद्ध स्त्रीसेभी लागू होंगे. देखो - 19 I. A 196; 14 All. 420; 23 Cal. 766.
उस व्यक्ति को जिसके हक़में इन्तक़ाल किया जाता हो चाहिये कि वह न केवल इस बात से ही इतमीनान करे कि श्रावश्यकता है बल्कि वह यह भी समझ ले ऐसी आवश्यकता है कि वह जो बिना कर्ज लिये रक़ा नहीं हो सकती । रमन बनाम बराती 270 C. 329; 85 I. C. 489; AIR 1925 Oudh 557.
कानूनका यह सिद्धान्त है कि उस अवस्थामें जब कि जायदाद परि मिति अधिकारी से खरीद की जाय, तो यह उस व्यक्तिका कर्तव्य है कि जिसके हमें इन्तक़ाल किया जाता है कि वह इस बातको जानें कि इन्तक़ाल जायज़ है और उन परिस्थितियों को स्पष्ट करे, जिनके द्वारा परिमिति अधिकारी को उसके इन्तक़ालका पूर्ण अधिकार प्राप्त है, केवल यह बातकी नाबालिन भाषी वारिसका पिता, उसके प्रतिनिधिकी हैसियत से इन्तक़ालमें शरीक़ था और उसकी आजी ( Grand Mother ) भी मौजूद थी, सबूतका भार
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एफा ७०१-७०३]
स्त्रियोंकी वरासतकी जायदाद
५५
उस व्यक्तिके कन्धे से जिसके हक़ में इन्तकाल किया गया है, हटा कर भावी वारिसों पर नहीं डालती। सुलेमान साहेब बनाम पी० वेंकटराजू 21. L. W. 115; 86 I. C. 195; A. I. R. 1925 Mad. 670. दफा ७०२ ज़रूरतका दबाव
जब तक ज़रूरत वास्तवमें न पैदा होजाय तब तक विधवा या दूसरी सीमावद्ध स्त्री मालिक रुपया कर्ज नहीं ले सकती, देखो-मुल्लाकाल बनाम मादाचट्टी 6 Mad. Jur. 261; और देखो मिस्टर मेनका हिन्दूलॉ ७ एडीशन ६३४. रुपया किसीसे कर्ज लेनेके लिये स्पष्ट ज़रूरत और ज़रूरतका दबाव वास्तविक होना चाहिये, देखों--धर्मचन्द्रलाल बनाम भवानी मिसराइन 24 I. A. 183; 25 Cal. 1897 1 C. W.N. 697, बैंजनाथप्रसाद बनाम विसनविहारी सहायसिंह 19 W. R. C. R. 79.
ज़रूरत का दबाव अवश्य बाहर से होना चाहिये केवल "जायदाद को और भी उत्तम बनानेकी इच्छा” इस तरह की ज़रूरत जायज़ नहीं समझी जाती। मगर जायदादको बचाये रखने की ज़रूरत ऐसी ज़रूरत मानी गयी है कि जिसपर कर्ज लिया जासके। कानूनी ज़रूरत न हो और फिर भी जायदाद के फायदे के लिये कर्ज लियागया हो, मस्लन् विधवाके हिस्सेदारने कर्ज लेकर विधवाके हिस्सेकी मालगुज़ारी सरकारी चुकाई हो तो ऐसी सूरतमें भी विधवा
की जायदादका इन्तकाल नहीं माना जायगा, देखो-उपेन्द्रलाल मुकरजी बनाम गिरीन्द्रनाथ मुकरजी 25 Cal. bG5, 2 C. W.N. 425; अपने पति की जिन्दगीमें विधवाने जो कर्ज़ चुकाये हों उनके लिये भी जायदाद का इन्तकाल नहीं जायज़ माना जायगा, देखो-हेमन्त बहादुर बनाम भवानी कुंवर 30AIL. 352, 33 All. 3425 13 Bom. L. B. 354.
विधवाने किसी घरू समझौतेकी वजह से पतिसे पायी हुई जायदाद का कोई भाग छोड़ दिया हो तो विधवाके मरनेपर उसके रिवर्जनर इस बात के पाचन्द नहीं होंगे, उन्हें विधवाके मरने पर यह जायदाद भी मिलेगी मगर शर्त यह है कि वह रिवर्जनर वारिस उस समय पैदा होगये हों और कभी उस जायदादके छोड़ देने की मंजूरी न दी हो, देखो-आसाराम सथानी बनाम चराडीवरण मुकरजी 13 C. W. N. 147. दफा ७०३ सम्पूर्ण जायदादके इन्तकालका अधिकार
___ हर एक सीमाबद्ध मालिकको कानूनी ज़रूरतों के लिये ( दफा ६०२, ७०६). सम्पूर्ण जायदादके इन्तकाल करलेका अधिकार प्राप्त है। एक पतिकी दो विधवाओंके होने में या अधिक होने में आपसमें बटवारा होनेपर उनमें से एकको जो हिस्सा मिले, कानूनी ज़रूरतके लिये वह अपने उस सम्पूर्ण हिस्से का इन्तकाल कर सकती है, देखो - ठाकुर मनीसिंह बनाम दायीरानी कुंवर
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स्त्रियोंके अधिकार
[ ग्यारहवां प्रकरण
33 Cal. 1079 बिना क़ानूनी ज़रूरत के कोई विधवा आदि उस जायदाद का भी इन्तक़ाल नहीं कर सकती जो उसे अपने भरण पोषण के लिये मिलीहो । एकके बाद दूसरे दत्तक के हक़में तमादी नहीं है- - एक हिन्दू विधवाने, जिसे कि अपने पति से जायदाद मिली थी, उस जायदादका एक भाग मुन्तकिल किया, और इसके पश्चात् एक लड़के को गोद लिया । वह लड़का नावालिग्री की सूरत में ही मर गया । अन्तमें उसने एक अन्य लड़के को गोद लिया और उसने उस इन्ककालको मन्सूख करने के लिये नालिशकी । नीचेकी अदा
तने नालिशको तमादीकी बिनापर इस वजह से खारिज करदिया, कि दूसरा दत्तक, पहिलेका प्रतिनिधि है। हाईकोर्ट में तय हुआ कि दूसरा दत्तक पहिले दत्तकका उत्तराधिकारी न था और न उसका प्रतिनिधि था । चाहे विधवा ने प्रथम दत्तक के पूर्व ही जब कि वह उस जायदाद पर बहैसियत विधवा के अधिकार रखती थी, इन्तक़ाल किया हो और चाहे उसने, उसकी मृत्युके पश्चात्, जब कि वह, उस जायदाद को वारिसकी जायदाद की भांति क़ब्ज़े में रखती इन्तक़ाल कियाहो, किन्तु इनमें से किसी से दूसरे दत्तकके इन्तक़ाल के सम्बन्ध में नालिश करनेमें बाधा नहीं पड़ती, और नालिश तमादी नहीं हुई है। हनुमतसुबय्या बनाम कृष्णा 49 Bom. 604; 89I.C. 62; 27 Bom. L. R. 642; A. I. R. 1925 Bom. 402.
८५६
किसी हिन्दू विधवा ऐसे बाक़ी लगानकी जिम्मेदारी, जो किसी ऐसे पट्टेका बाक़ी लगान है जिसे कि उसने अपने फ़ायदेके लिये लिया है केवल उसी पर है वह उसकी अदाई के लिये खान्दानी जायदादका इन्तक़ाल नहीं कर सकती । ईश्वरीप्रसाद बनाम बाबूनन्दन शुक्ल 47 All. 563; L. R. 6 All. 291; 88 I. C. 193; A. I. R. 1925 Alll 495.
दफा ७०५ ख़ानदानी कारोबार
खानदान के पूर्वजों का कारवार जो विधवाको वरासत में मिलाहो उसके लिये भी विधवा जायदाद का इन्तकाल विधवाकी हैसियत से उन्हीं क़ैदों के साथ कर सकती है जो विधवा द्वारा जायदादका इन्तकाल किये जाने के लिये मुकर्रर हैं। ऐसे मामले में अगर कोई कहे कि विधवाने कारोबारके मेनेजरकी हैसियत से दूसरे फरीक़ों की मंजूरी बिना जायदाद के इन्तक़ालका अधिकार काममें लाई है, तब यह साबित करना होगा कि वह इन्तक़ाल कारोवारका क़र्ज़ चुकाने के लिये ज़रूरी था, और इस बातका वारसुबूत उस पक्ष पर होगा जिसने उस जायदादपर क़ज़ी दियाहो, देखो - श्यामसुन्दरलाल बनाम अचनकुंर 25 I . A. 183; 21 All. 71; 2 C. W. N. 729.
विधवा पतिसे प्राप्त जायदादपर खान्दानी व्यवसाय के लिये तथा उस मकानकी पूर्ति के लिये, जो उसके पति द्वारा प्राप्त अपूर्ण छोड़ा गया है, पाबंदी
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STA.
दफा ७४-७०६]
स्त्रियोंकी वरासतकी जायदाद
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कर सकती है। सुबामन्यचेट्टी बनाम रामकृष्णम्मा 84 I. C. 868, A. I. R.. 1925 Mad. 403. दफा ७०५ एक पतिकी दो विधवाएं
एक पतिकी दो विधवाओं में से एक विधवा दूसरी विधवाके हिस्से, और अपने पश्चात् होनेवाले वारिसके हकका अगर इन्तकाल करदे तो यह ज़रूरी नहीं है कि वह इन्तनाल अवश्यही नाजायज़ होजाय, 30 Mad. 3. दफा ७०६ कानूनी ज़रूरतें कौन हैं ? • जायदादका इन्तक़ाल करनेके लिये नीचे लिखी ज़रूरतें कानूनी ज़रू, रते हैं ऐसी ज़रूरतें होनेपर इन्तकाल जायज़ होगा । (१) धार्मिक कृत्येअपने पति या दूसरे पूरे मालिकका क्रियाकर्म, श्राद्ध, और वार्षिक रस्म अदा करना कानूनीज़रूरते हैं, देखो-मोतीराम कुंवर बनाम गोपालसाह11B.L.R: 416; 20 W. R. C. R. 1877 लक्ष्मीनारायण बनाम दासू 11 Mad. 2887 चुम्मनलाल बनाम गनपतिलाल 16 W. R.C. R:527 जन्मेजय बनाम संसो. मेयो 1 B. L. R. 418; ततैय्या बनाम रामकृष्णमुरा 34 Mad. 288. .
उस कर्जकी अदाई जो एक आवश्यक घरके बनानेके लिये,पहिले लिया गया था, और जितकी मन्शा भावी वारिसोंको धोखा देने की न थी-भावी वारिसों पर पाबन्दो है । लाभू बनाम सवनसिंह 97 Punj. L. R. 26, A. I. R. Lah. 252.
इन्तकालके क़ानूनी साबित करनेके लिये भावी वारिसों की रजामन्दी की शहादत, सेबसे अधिक कानूनी और प्रस्तावजनक शहादत है । सुमित्रा बाई बनाम हिरबाजी A. I. R. 1927 Nagpur 28.
कानूनी आवश्यकताके लिये जायदादके इन्तकालके सम्बन्धमें,विधवाका वहीअधिकार हैं, जो किसी पारिवारिक जायदाद मेनेजरको होता है। किन्तु उनका उपयोग केवल आवश्यकताके समय या जायदादके लाभके लिये किया जा सकता है। किसी खास मामलेमें जायदादपर किसी मान्य कर्ज़का होना, किसी खास खतरे को टालनेकी व्यवस्था या जायदादके लिये किसी खास लाभका होना, ये बातें हैं जिनपर ध्यान दिया जाना चाहिये। यह कोई प्रश्न ही नहीं है कि आया वह अपनी परवरिशके लिये, या अपने धार्मिक रिवाजों के खर्च के लिये, या अपने पतिकी आत्मिक उन्नतिके इन्तकाल कर सकती है, हां! वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्तिको सबसे आगे बढ़ाने की अधिकारिणी नहीं है।
शब्द "आवश्यकता"के कुछ विशेष या कानूनी अर्थ हैं। 'आवश्यकता' का अर्थ विवशता ही नहीं है बल्कि ज़रूरत या एक प्रकारका दबाव है, जिसे
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'त्रियों के अधिकार
[ग्यारहर्वा प्रकरण
कानूनके अनुसार गम्भीर और पर्याप्त समझा जाता है। सन्तोषकुमार मलिक बनाम गनेशचन्द्र A. I. R. 1927 Cal. 160.
पतिकी जायदाद के कुछ भागका इन्तकाल उसकी आत्माके लाभ के लिये जायज़ है-जव आमदनी काफ़ी न हो, तो समस्त जायदादकी इन्तकाल की इजाज़त, किसी ऐसे कार्यके लिये है जो पतिकी आत्मा की मुक्तिके लिये आवश्यक समझा जाय । मु० तहेल कुंवर बनाम अमरनाथ A.I. R. 1925 Lah. 2.
और अन्य ऐसे धार्मिक कृत्योंका करना कि जिनका करना पिछले पूरे मालिक पर लाज़िमी था जैसे उसकी मा की श्राद्ध; 11 B. L. R. 418; 10 W. R. C. R. 309.
तीर्थयात्रा-अपने पतिकी आत्माके लाभके वास्ते विधवा तीर्थयात्राके लिये या गयामें श्राद्ध करने के लिये जो खर्च करे वह कानूनी ज़रूरत है, देखो-मोहमद अशरफ़ बनाम बजेसरीदासी 11 B. L. R. 118; 19 W. R... R.426. 11 B. L.R.416%20W.R.C. R.1873 तारिणीप्रसाद चटरजी बनाम भोलानाथ मुकरजी 21 Cal. 1903; गनपत बनाम तुलसीराम 36 Bom. 88; 13 Bom. L. R. 860; 2 C. L. R. 474.
यह माना गया है कि कोई स्त्री अपनी आत्माके लाभ लिये तीर्थयात्रा में जो खर्च करे वह कानूनी ज़रूरत नहीं है, देखो-हरीमोहन अधिकारी बनाम अलकमणिदासी | W. R. C. R. 252; हरीकृष्ण भगत बनाम बजरंगसहायसिंह 13 C. W.N. 544, 547; (चाहे यह यात्रा भी उसीके पतिके लाभके लिये हो तो भी कानूनी ज़रूरत नहीं मानी गयी, 5 Mad. 552.)
तीर्थयात्रासे लौटकर ब्राह्मण भोजन कराने के लिये जो खर्च हो यह कानूनी ज़रूरत नहीं है इसलिये वह इस कामके वास्ते जायदादका इन्तकाल नहीं कर सकती, देखो-माखनलाल बनाम ज्ञानसिंह (1910) 33 All. 255.
विधवा द्वारा, अपने पतिके क़र्ज़ चुकाने, तथा उसके क्रिया कर्म करने के लिये गैरमनकूला जायदादका बेचना जायज़ है क्योंकि ये कानूनी आवश्यकतायें हैं । बाई सूरज बनाम जीजीबाई भावसांग 86 I. C. 196. A. I. R. 1925 Bom 38.
दान-पुराने मुक़द्दमोंमें यह जायज़ माना गया था, कि पतिकी जायदादका थोडासा हिस्सा विधवा ब्राह्मणोंको या किसी देवमूर्ति को दान कर सकती है, देखो-जगजीवन नाथोजी बनाम देवशंकर काशीराम Borr. 3949 कपर भवानी बनाम सेवकराम शिवशङ्कर 1 Borr. 405; रामकवलसिंह बनाम रामकिशोरदास 22 Cal. 506. और देखो हालके एक मुक़द्दमे में भी जायदाद का थोडासा हिस्सा दान किया गया था वह जायज़ माना गया, ततैय्या
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दफा ७०६]
स्त्रियों की वरासतकी जायदाद
बनाम रामकृष्ण अम्मा ( 1910) 34 Mad. 288; परन्तु आजकल प्रायः सभी मामलोंमें दान जायज़ नहीं माना जाता क्योंकि ऐसा दान विधवाके लाभके लिये समझा जाता है, देखो-कार्तिकचन्द बनाम गौरमोहनराय IW. R. C. R. 48.
किसी विधवा ने अपने पतिसे प्राप्त जायदादके कुछ भागको हिसः कर दिया और तत्पश्चात् अपनी सम्पूर्ण जायदादको भावी वारिसके हकमें समर्पण कर दिया। तय हुआ, कि भावी वारिसका मुन्तकिल शुदा जायदाद के क़ब्ज़ेके हासिल करनेकी नालिशका अधिकार, विधवाकी मृत्युके पश्चात् होता है। इन्तकालके किसी मावजेके लिये होने या न होनेके कारण कोई अन्तर नहीं पड़ता। प्रफुल्ल कामनी राय बनाम भलानीनाथ राव 52 Cal. 1018.
विधवा द्वारा दान-विधवा द्वारा किसी खान्दानी पुरोहितके दान का जायज़ होना उसकी तादाद पर निर्भर है अर्थात् वह समस्त जायदाद का कौनसा हिस्सा है। ईश्वरीप्रसाद बनाम बाबूनन्दन शुक्ल L.R.6 All. 2913 88 I.C. 1939 47 All. 563. A. 1. R. 1925 AII. 495.
यह स्पष्ट है कि अगर जायदादका बहुतसा हिस्सा किसी देवमूर्ति के लिये दान किया जाय तो अवश्य नाजायज़ होगा, देखो-चूडामणीदासी बनाम वैद्यनाथ नायक 32 Cal. 473; रामकवलसिंह बनाम रामकिशोरदास 22 Cal. 506; त्र्यंबक प्राचार्य बनाम महादेवरामजी 6 Bom. H. C.0. C. 15 और यह भी माना गया है कि अगर रिवर्ज़नरकी मंजूरी से किया गया हो तो जायज़ है, देखो-ब्रजनाथ बनाम माटीलाल 3 B. L. R. O. C. 92.
तालाब खुदाना, कुंआ बनवाना आदि यद्यपि अच्छे काम हैं परन्तु यह कानूनी ज़रूरत नहीं मानी गयीं इसी से जायदादका इन्तकाल इन बातों में नाजायज़ होगा।
(२) कर्जा प्रदाकरना-पिछले पूरे मालिकके कर्ज अदाकरना कानूनी ज़रूरत है इसी तरहपर उसकी डिकरीके अदा करनेके लिये मी, देखो-देवीद्रयाल साह बनाम भानुप्रतापसिंह 31Cal. 433; 8 C. W. N. 4087 जयन्ती बनाम अलामेलू 27 Mad.45; लक्ष्मण रामचन्द्र जोशी बनाम सत्यभामावाई 2 Bom. 494; महेश्वरवकससिंह बनाम रतनसिंह 23 L. A. 57; 23 Cal. 766% फेलाराम बनाम बगलानन्द ( 1910 ) 14 C. W. N. 895; 11 Bom. 325% [उस मालिकके ऐसे कर्ज जिनके अदा करनेके लिये कोई दूसरी व्यवस्था न हो 7 W. R. C. R. 450.]
आखिरी पूरे मालिकके जजोंके देनेके लिये विधवा या कोई स्त्री मजसूर नहीं की जासकती कि वह उस जायदादकी आमदनीसे देवे यानी नाय
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स्त्रियों के अधिकार
[ग्यारहवां प्रकरण
दादकी आमदनी से अदा करना या न करना उसकी इच्छा पर निर्भर है, देखो-रामासामीचट्टी बनाम मांगेकरासू 18 Mad. 113.
. जो कर्ज कानून मियादसे या किसी दूसरे कानूनसे तमादी हो गये हों उनके अदा करने के लिये विधवा जायदादका इन्तकाल कर सकती है क्योंकि मृतकका कर्जा अदा करना धार्मिक कर्तव्य है, देखो-चिमनाजी गोविन्द बनाम दिनकर 11 Bom. 320; कांडप्पा बनाम सुब्बा 13 Mad. 189; 21 Cal. 190; भाऊवाबाजी बनाम गोपालमहीपति 11 Bom. 325; जो कर्ज बुरे कामों के वास्ते लिये गये हों उनके लिये वह जायदादका इन्तकाल उसी सूरत में कर सकती है जब कि अदालत मज़बूर करे। कर्ज अदा करने में सब लेनदारों के साथ एकसा बर्ताव होना चाहिये, उनमें से किसीके साथ खास रियायत नहीं होना चाहिये, देखो--रङ्गील बनाम विनायक विष्णु 11 Bom, 666.
कर्ज अदा करने के लिये यह जरूरी नहीं है कि लेनदार अदालत में दावा करके जब दबाव डालें तभी कर्जे अदा किये जायें (केहरिसिंह बनाम रूपसिंह 3 N. W. P. 4). लेकिन फिर भी किसी तरहका दवाव ज़रूर ही होना चाहिये।
खान्दानी ज़रूरतके लिये विधवा द्वारा लिये हुये कर्जकी पाबन्दीभाषी वारिसपर है । वेंकय्या बनाम एम० बंगरय्या A.I.R. 1925 Mad. 401 (2).
दस्तावेज़में कानूनी ज़रूरतके ज़ाहिर करनेसे कानूनी ज़रूरत प्रमाणित नहीं होजाती। मु. राजकुंवरि बनाम रानी महराज कुंवर A. I. R. 1925 Oudh 243.
किसी विधवाकी जायदादके इच्छित या अनिच्छित इन्तकालके सम्बन्ध में जब कि रकम किसी पहिलेके कर्जके चुकाने में लगाई गई हो, वही सिद्धांत लागू होंगे। यदि पहिलेका कर्ज इस प्रकारका हो कि उसकी पाबन्दी केवल विधवा पर पड़ती हो, तो महज़ उसका हक मुन्तक़िल हो जायगा। किन्तु यदि कर्जकी पाबन्दी पतिकी जायदाद पर भी हो तो उस व्यक्तिके हक में, जिसको इन्तकाल किया गया पूर्णाधिकार मुन्तकिल हो जायगे । ईश्वरी प्रसाद बनाम बाबूनन्दन शुक्ल 47 All. b63; L. R. 6 All. 291; 88 I. CL 1935A. I. R. 1925 All. 415.
(३) सरकारी मालगुज़ारी आदि-सरकारी मालगुजारी अदा करने के लिये या ऐसा सरकारी देन चुकानेके लिये जिसके न चुकानेसे जायदाद खतरेमें पड़ती हो कानूनी ज़रूरत है, देखो-श्रीमोहनझा बनाम व्रजबिहारी मिश्र 36 Cal. 753; मेकनाटन हिन्दूला 2 Vol. 293; किसी सरकारी डिकरी के चुकानेके वास्ते चाहे वह डिकरी उस स्त्री पर ही हुई हो कानुनी ज़रूरत है। 36 I. A. 138; 31 All. 497; 11 Bom. L. R. 911
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दफा ७०६ ]
स्त्रियोंकी वरासतकी जायदाद
जब कि किसी विधवाकी जायदादका क़ब्जेदार, उसकी ज़मीदारी को बेच डाले और परिणाम स्वरूप, जो त्यक्त सत्त्व ( साकितुलमिल्कियत ) का अधिकार उसके हक़में प्राप्त हो, तो वह उतराधिकार से प्राप्त होनेके कारण, उसकी जायदादका एक अन्श नहीं कहा जासकता । अतएव यह नहीं माना जा सकता, कि इस प्रकारकी त्यक्त सत्त्व के बाक़ी लगानकी डिकरीकी अदाई के द्वारा, परिमित अधिकारी, खान्दानी जायदादका कोई अन्श बचा रहा है । इस लिये इस प्रकारके बाक़ी लगानकी श्रदाई क़ानूनी आवश्यकता नहीं है । ईश्वरीप्रसाद बनाम बाबूनन्दन शुक्ल 47 All. 563 I. R, 64.291; 88 1. C. 193; A. I. R. 1925 All. 495.
(४) खर्च - ज़रूरी मुक़द्दमेका वाजवी खर्च क़ानूनी ज़रूरत है 6 Bom. L. R. 628. ऐसे मुक़द्दमेका खर्च जो जायदादको फिर हासिल करने के लिये या जायदादकी रक्षाके लिये या अपसे हलकी रक्षा के लिये दायर किया गया हो क़ानूनी ज़रूरत है । करीमुद्दीन मुन्शी बनाम गोविन्द कृष्ण नरायन 36 I. A. 138; 31 All 497; 13 C. W. N. 1117,11 Bom. L. R. 911; 31 Cal. 433, अजमद अली बनाम मनीराम 12 Cal. 52. और दूसरे ज़रूरी क़ानूनी खर्च जैसे वरासतकी सार्टिफिकेटका हासिल करना क़ानूनी ज़रूरत है; देखो- -36 Cal. 753,
किसी स्त्रीका व्यर्थ मुक़दमेबाजीके लिये जो खर्च पड़े वह क़ानूनी ज़रूरत हरगिज़ नहीं है और उसमें वह जायदादका इन्तक़ाल नहीं कर सकती, देखो - 4 Ail. 532,
(५) मरम्मत आदिके खर्च - जायदादकी रक्षा और उसके बचाये रखने के लिये जो खर्च हो क़ानूनी खर्च है, देखो - सूर्यप्रसाद बनाम कृष्णप्रताप बहा डुर साहेब 1 N. W, P. 46. मरम्मतका खर्च या दूसरे ज़रूरी खचोंके लिये जो जायदाद के लाभके लिये हों: 10 Cal, 823.
यह माना गया है कि यद्यपि सड़कका कर ( Road cess ) पब्लिक डिमान्डस् रिकवरी एक्टके अनुसार देना लाज़मी है इसके न देनेसे स्त्रीपर जो क़र्ज हो जाय उसके अदा करनेके लिये वह जायदाद नहीं बेच सकती: देखो - श्रीमोहनझा बनाम ब्रजबिहारी मिश्र 36 Cal, 753. परन्तु आम तौर से ऐसी राय है कि ऐसा नहीं होना चाहिये ।
(६) स्त्रीके भरण पोषणका खर्च - अपने भरण पोषणके खर्च के लिये ( अगर आमदनी जायदादकी काफी न हो ) या ऐसे धार्मिक रसूमके खर्च के लिये जिनका करना उस स्त्रीका परम कर्तव्य है, देखो- - 5 Bom. 450; 12 Cal. 52, 5 N. W. P. 197.
खानदानके आश्रितोंका भरण पोषण - अपने खानदानके उन आश्रितों के भरण पोषण के लिये जिनका भरण पोषण उसके पति या पिछले पूरे मालिक
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स्त्रियोंके अधिकार
[ ग्यारहवां प्रकरण
पर क़ानूनन और सामाजिक नियमसे लाज़मी था और उनके विवाह के लिये ग्रा दूसरे ज़रूरी धार्मिक कामोंके लिये जो खर्च हो क़ानूनी ज़रूरत है -- देवीदयाल साह बनाम भानुप्रतापसिंह 31 Cal. 433. गनपति बनाम तुलसीराम 13 Bom. L. R. 860; 7 Ben. Sel. R. 513; 18 All. 574.
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यह बात सभी खर्चे से लागू होगी कि जो कुछ खर्च किया जायगा खानदान की हैसियत और जायदाद की हैसियत का ख़्याल करके उचित तादाद में खर्च किया जायगा, दुरिहरराय बनाम दलसंहार सिंह 2 W. R C.R.367.
पति के पौत्रोंके भरणपोषण के लिये, देखो - चिम्मनलाल बनाम गनपतिलाल 16 W. C. R. 52; इसमें माना गया है कि पितामह अपने पौत्रोंके लिये यद्यपि क़ानूनी पावन्द नहीं है परंतु वह सामाजिक नियमसे पाबन्द है । श्री मोहनझा बनाम ब्रजविहारी 36 Cal. 753; में मांके श्राद्धके लिये जायदाद बेचना जायज़ माना गया है ।
(७) बेटीका व्याह - अपनी बेटीके व्याहके लिये जो खर्च हो क़ानूनी ज़रूरत है, देखो - माखनलाल बनाम ज्ञानसिंह ( 1910 ) 33 All. 255; या खानदानकी दूसरी लड़कियोंके विवाह के लिये पति या पिछला पूरा मालिक मज़बूर था ।
पुत्रीके दहेजके लिये इन्तक़ाल में भावी वारिसके एतराज़ करनेका अधिकार- दहेज देने के लिये जायदादके इन्तक़ालके अनुमानका नियम --- विधवा शादीके सम्बन्धमें वैसा ही प्रबन्ध करनेके लिये वाध्य है, जैसा कि उसके पतिने यदि वह जीवित होता, तो किया होता । माधोप्रसाद बनाम धनराज कुंवर 3 OWN. 529.
हिन्दू विधवा द्वारा अपने पति की जायदाद के उस इन्तक़ालकी पाबंदी, जो वह अपनी पुत्रीके व्याहके लिये करती है, भावी वारिसों पर लाज़िमी है । कोई हिन्दू विधवा इस बात के लिये वाध्य नहीं है कि वह अपने पासकी रक्कम को, जो उस रियासत से न प्राप्त की गई हो, खर्च करे । उसे अधिकार है कि वह जायदाद की रक़म अपनी लड़की की शादी के खर्च में लगावे | सतीशचन्द्र नाग बनाम हरी पद्दा 41 Cal. L, J. 209; 87 I. C. 43; A. I. R. 1925 Cal. 689;
बेटेकी बेटीके विवाह के लिये विधवाने जो क़र्ज़ा लिया उसके विषयमें अदालतकी यह राय हुई कि विधवाके मरनेके बाद रिवर्ज़नर उस क़र्जेके देनहार होंगे चाहे वह क़र्ज़ जायदाद पर न लिया गया हो, देखो -- 6 Cal. 36: 6 C. L. R. 229.
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दफा ७०६ ]
स्त्रियोंकी घरांसतकी जायदाद
किसी हिन्दू विधवाने अपनी पुत्री की शादीके समय अपनी पुत्री और उसके पति के हक़ में, अपनी जायदाद के १२ आानेका हिस्सा हिबा कर दिया । तय हुआ कि पुत्री की शादी प्रधान कर्तव्य है और हिन्दूलॉकी | खर्च करने की व्यवस्था केवल हिदायतके तौर पर है न कि हुक्मके तौर पर, और उसमें उचित व्यवस्था करनेकी भी राय है । जब कि शादी भावी वारिसोंके पिता और पूर्वजों की इच्छानुकूल हुई और उन्होंने उसमें भाग लिया तथा हिबानामे की तस्दीक़ की, तो वह अनुचित नहीं समझा जासकता । सैलबाला देव बनाम बैकुण्ठनाथ घोष 91 I. C. 186; A. I. R. 1926 Cal. 486.
व्याह के समय बेटीको दान--- मिताक्षरालॉके अनुसार चलने वाले पुरुषकी विधवा अपनी बेटी के विवाह के समय पतिकी जाग्रदादका कुछ हिस्सा बेटीको दान कर सकती है मगर शर्त यह है कि वह हिस्सा जायदाद के अनुसार उचित तादाद में हो, देखो -चूड़ामणि शाह बनाम गोपी 37 Cal. 1-8, 13 C. W. N. 994-999; रामसामी एय्यर बनाम बेगड्डुसामी पेयर 22 Mad. 113; [ यह भी माना गया है कि वह दान जायदादकी एक चौथाई से ज्यादा न होना चाहिये ] बंगाल स्कूलमें भी ऐसाही अधिकार स्वीकार किया गया है, वहां पर बेटीको दान देना धर्मकृत्य माना गया है बेटीको ऐसा दान दुरागमन ( गौना ) के समय भी दिया जा सकता है, देखो - 37 Cal. 1; 13 C. W. N. 994; व्याह के समय दामादको भी ऐसा दान दिया जा सकता है. 22 Mad. 113; में जायज़ माना गया है । इसी सम्बन्धमें और देखो -- इस किताबकी दफा ६०२, ४३०, ६७७, ७०२.
किसी अलाहिदा हिन्दू की विधवा द्वारा, जो मिताक्षराके आधीन हो, पुत्रीको दहेज देनेके लिये किये हुये इन्तक़ालपर कोई एतराज़ नहीं हो सकता, शर्ते कि मामले की परिस्थितिके लिहाज़ से वह उचित इन्तक़ाल हो । यह व्यर्थ है कि आया इन्तक़ाल विवाह संस्कारके पूर्व या पश्चात् किया गया । उदयदत्त बनाम अम्बिकाप्रसाद A. I. R. 1927 Oudh 110.
(८) पति के भाई के लड़केकी लड़की का व्याह-- जब कि कोई मनुष्य किसी जायदादको उत्तराधिकारसे या जीवित रहने के कारण प्राप्त करता हो, तो वह वाध्य होता है कि उन व्यक्तियोंकी परवरिश करे, जिनकी परवरिश अन्तिम अधिकारी पर निर्भर थी । स्त्री वारिसको भी खान्दान सदस्योंकी परवरिश के लिये उतनी ही पावन्दी है जितनी कि किसी पुरुष वारिस पर उस जायदाद के उत्तराधिकारके कारण होती है । यह प्रतिबन्ध राजाके ऊपर भी लागू होता है जब कि वह जायदादको जन्ती या दण्ड स्वरूपमें लेता है । दर असल उस मनुष्यका, जो वारिस होता है, यह कर्तव्य है, कि खान्दानी साझीदार या ऐसी खान्दानी सदस्योंकी, जिनकी परवरिश के लिये वह क़ानूनन् वाध्य है, परवरिश, शिक्षा, व्याह, श्राद्ध और दूसरे धार्मिक कार्यों का
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स्त्रियों के अधिकार
[ग्यारहवां प्रकरणे
खर्च उठाये । विधवा द्वारा जिसने पुत्रकी जायदादको वरासतसे प्राप्त किया हो अपने पति के भाईके लड़केकी लड़कीकी शादीके लिये जायदादका रेहन करना जायज़ है और एक कानूनी आवश्यकता है।
यह भी तय हुआ कि अपने गत पतिकी जायदाद पर विधवाके अधिकारोंमें, कोई अङ्गरेज़ी क़ानून समान परिस्थितिके अनुसार लागू नहीं होते। अतएव इस सम्बन्धमें विचार करने के समय किसीको पश्चिमीय क़ानूनके चक्करमें पड़कर परेशान न होना चाहिये । समर्पण करदेनेके अधिकार और किसी खास अभिप्रायके लिये इन्तकाल करने के अधिकारमें अन्तर है । बैंजनाथ राय बनाम मंगलाप्रसाद ( 1925) P. H.C. C. 271, 90 I. C. 7:25 6 Pat. L. J.731. दफा ७०७ कहांतक अधिकार काममें लाये जा सकते हैं ?
मुश्तरका खानदानके मेनेजरकी तरह, विधवाको भी उसके अधिकारों के काममें लाने की उचित शक्ति प्राप्त होना ज़रूरी है, शर्त यह है कि वह अपने पीछे होनेवाले वारिसके लाभका उचित स्याल रखे जैसाकि 11 Bom. 320, 324; 18 Boni. 534; में कहा गया है।
यह माना गया है कि किसी रेहनमामाकी मियाद पूरी होनेसे पहिले यदि विधवा जायदादको बेंचकर उसे छुडाले तो वह बिक्री जायज़ होगी।
अगर जायदाद रेहन करने की अपेक्षा उसके बेचनेमें लाभहो तो विधवा उसके रेहन करनेके लिये मज़बूर नहीं है, और न अपनी ज़ाती जिम्मेदारी पर कर्ज लेनेके लिये मजबूर है, देखो--31 Mad. 153, 9 W. R C. R. 1073 26 Cal. 820; 3 C. W. N. 470.
विधवाकेलिये अकसर यह असम्भव होता है कि वह जायदादका ठीक उतना ही हिस्सा बेचे जितनी रकमकी उसे ज़रूरत है अगर इस सिलसिले में वह ज़रूरतसे ज्यादा हिस्सा भी बेच डाले तो भी बिक्री जायज़ मानी जायगी, देखो--कमिक्षाप्रसाद राय बनाम जगदम्बा दासी 5 B. L. R. 508-520%; फेलारामराय बनाम बगलानन्द बनरजी 14 3. W. N. 895; विधवा जायदाद रेहन करके उतना कर्ज ले सकती है जितना कि उसे कानूनी ज़रूरतके लिये आवश्यक है, देखो-ललित पाण्डे बनाम श्रीधर देवनरायनसिंह 5 B. L. R. 176; एक मुकदमे में दत्तक पुत्रकी वली विधवाने, बलीकी हैसियतसे जायदाद का इन्तकाल किया पीछे दत्तक नाजायज़ हो गया तो माना गया कि दत्तक नाजायज़ होनेकी वजहसे जायदादके इन्तकाल पर कोई असर नहीं पड़ता अर्थात् इन्तकाल जायज है, देखो--14 Cal. 401.
बिना कानूनी आवश्यकताके विधवा द्वारा किया हुआ इन्तकाल काबिल मंसूखी है, किन्तु वह तबतक जायज़ रहता है जब तक कि भावी वारिस द्वारा
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दफा ७०७-७०८]
स्त्रियोंकी वरासतकी जायदाद
८६५
वह मंसूत्र नहीं कराया जाता । उपेन्द्रनाथ जाना बनाम शिवदासी देवी 88 1. C. 898; A. I. R. 1925 Cal. 1053.
___ क़र्जा देना या न देना उसकी मरजी पर है-एक स्त्री जो कि क़ब्ज़े की अधिकारिणी है और उस समय समस्त जायदादकी प्रतिनिधि है यदि किसी कर्जका बोझ जायदादपर है और उसकी पाबन्दी उसपर लाजिमी है,यह उसका अधिकार, कि वह अपनी समझले इसबातका फैसला करे, कि आया वह कर्ज अदा करेगी या नहीं। इसके अतिरिक्त यह लाजिमी नहीं है कि वह व्यक्ति, जिसके हकमें उन्तकाल किया गया है इस प्रकारका कोई दावा स्थापित करे, कि यदि कर्ज न अदा किया जायगा, तो परिणाम स्वरूप किसी प्रकार का बुरा नतीज़ा पैदा होगा। अम्बिकाप्रसाद बनाम माधोप्रसाद 85 I. C. 868 (1), A. 1. R. 1925 Ail. 621. दफा ७०८ इन्तकालके लिये रिवर्ज़नरोंकी मंजूरी
___ अगर कोई स्त्री जो किसी शर्तबन्द जायदादकी मालिक हो तो वह उस जायदादमें अपना सम्पूर्ण हक़ या उसका कोई भी भाग बेचे और यह विक्री किसी कानूनी ज़रूरतके लिये न हो तो भी इस विक्रीसे उस विधवाके सारे हनका इन्तकाल हो जाता है मगर शर्त यह है कि विक्रीके समय या विक्रीके बाद उन सब लोगोंकी मंजूरी हो गयी हो जो उसके बाद रिवर्जनर हो सकते हों, देखो--21 Mad. 128; में मदरास हाईकोर्टने कहा कि किसी जायदादके किसी भागका बेचा जाना अच्छी बात नहीं है, मगर 32 Mad. 206; में इसके विरुद्ध फैसला हुआ तथा 31 Mad. 366-370; 35 I. A. 1; 30 All. 19 25 Bom. 129. भी देखो।
विक्रीके समय या विक्रीके पश्चात् रिवर्जनर वारिसकी मंजूरी हो जाने से वह इन्तकाल जायज़ माना गया, देखो--बजरंगसिंह बनाम मनिकर्णिका बख्शसिंह 36 I. A. 1; 30 All. 1; 9 Bom. L. R. 1348; 17 Cal. 896%; 34 Bom. 165; 10 Cal. 1102.
__ अगर उस स्त्रीके बादकी वारिस भी कोई सीमाबद्ध अधिकारकी स्त्री हो तो उस स्त्री की और उसके बादके वारिसकी भी मंजूरी लेना ज़रूरी होगा--जैसे किसी विधवाके मरनेके बाद लड़की वारिस होने वाली है जिसके एक लड़का है तो इन्तकालके बारेमें लड़की और उसके लड़केकी भी मंजूरी ज़रूरी होगी। सिर्फ स्त्री रिवर्जनरकी मंजूरी इन्तकालके जायज़ करनेके लिये काफ़ी नहीं होगी; देखो--गुलाबसिंह बनाम रावकरनसिंह 14 M. I. A. 176; 10 B. L. R. 1; बिपिन बिहारीकुंडू बनाम दुर्गाचरण बनरजी 35 Cal. 1086; बम्बई स्कूल में यह बात ज़रूरी नहीं है क्योंकि वहां
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स्त्रियोंके अधिकार
[ ग्यारहवां प्रकरण
रिवर्जनर का अधिकार भिन्न है हर एक स्त्री पूरे मालिककी तरह अपना हक़ पाती है ।
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आमतौर से यह सिद्धांत माना गया है कि रिवर्जनरकी मंजूरी मिल जानेसे प्रथम तो यह फायदा होता है कि विक्रीके लिये क़ानूनी ज़रूरतका प्रमाण हो जाता है और दूसरे वह पीछेसे कोई झगड़ा नहीं कर सकता; देखो विनायक बनाम गोविन्द 25 Bom. 129; पिलू बनाम बाबाजी 34 Bom. 145 11 Bom. L. R. 1291, और देखो -क़ानून शहादतकी दफा ११५ जिसका सारांश यह है कि " जब किसी आदमीने अपने बयान या किसी दूसरी तरह से समझ बूझ कर दूसरे किसीको किसी चीज़ की निस्चत यह ज्ञान करा दिया हो, या ऐसा करने दिया हो कि, वह ठीक है और उसी भरोसे पर वह काम किया गया हो तो फिर वह और उसका कायम मुकाम पाबंद हो जाता है। इत्यादि । " ऐसा मानो कि किसी स्त्रीने कोई दस्तावेज़ लिखी जिसका असर रिवर्जन के विरुद्ध है मगर रिवर्जनरने बहैसित गवाहके उसपर अपनी गवाही कर दी तो फिर वह और उसके क़ायम मुक़ाम इस दफाके असर से कभी कोई झगड़ा नहीं कर सकते, जो कुछ दस्तावेज़में लिखा होगा उनको मंजूर
समझा जायगा ।
किसी विधवा द्वारा इन्तक़ालकी क़ानूनी आवश्यकतापर विचार करते हुये, अदालत इस बातका ध्यान देती है कि तस्दीक करने वालों में से एक सबसे नज़दीकी भावी वारिस था - अनन्तू बनाम रामरूप तिवारी L. R. 6 A. 284; 87 I. C. 315; A. I. R. 1925 All. 692.
बिना मंजूरी के इन्तकाल - किसी हिन्दू विधवाको अपने अधिकारोंके वर्तने में वही सुविधा प्राप्त होती है जो किसी संयुक्त परिवार के प्रबन्धक या किसी नावालिग़की जायदायके मेनेजरको प्राप्त होती है, बशर्ते कि वह अपने भावी वारिसों के हक़में ईमानदारी के काम करती है । इस प्रकारके मामले में अतएव, केवल यह देखना होता है कि आया उसने अपने भावी वारिसोंके हितके अनुकूल कार्य किया है या उनके प्रतिकूल - 11 Bom 320 और 18 Bom. 534 Appl.
यदि किसी विधवा द्वारा इन्तक़ालमें सम्पूर्ण क़ानूनी आवश्यकता न भी साबित हुई हो, तो भी वह इस बिनापर कि वह प्रबन्धके अनुसार एक बुद्धिमत्ता और लाभका कार्य है बहाल किया जाता है- सुमित्राबाई बनाम fart A I. R. 1927 Nag. 25.
भावी वारिसकी रजामन्दीसे आधी जायदादका हित्रः पुत्रीके हक़में-चौधरी सुरेश्वर मिश्र बनाम मु० महेशरानी मिसरानी 41 CL. J. 433 ( P. C. ).
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दफा ७०६ ]
स्त्रियोंकी वरासतकी जायदाद
भावी वारिस के साथ समझौता जायज़ होना - माताप्रसाद बनाम नागेश्वर सहाय 30W.N. 1; L.R.6P. C. 195; 52 I. A. 398; 28 O. C. 352; A. I. R. 1925 P. C. 272; 50M. L. J.18 ( P. C )
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जब किसी विधवाकी जायदाद के खरीदारोंमें से कुछ भावी वारिस भी हों तो बयनामे की वजहसे यह नहीं माना जा सकता कि भावी वारिसोंकी रजामन्दी हासिल करली गई है - के० सीतारामप्पा बनाम आर० समुद्भुदू 21 L. W. 69; 86 I. C. 4; A. I. R. 1925 Mad. 384.
जीवित रहने के अधिकारको छोड़ने वाले प्रश्नका सम्बन्ध इरादे या नियत से है, जो कि प्रत्येक मामलेमें दस्तावेज़ बटवारे द्वारा यदि कोई हो या अन्य परिस्थितियों द्वारा साबित किया जाना चाहिये कि आया विधवाओं ने अपने जीवित रहने के अधिकारोंको भविष्य में प्रयोग करने के लिये सुरक्षित रक्खा है, या उनको तिलाञ्जलि दे दी है -1 – 14 M. L. J 175, Foll और यह स्पष्ट शहादतों द्वारा साबित किया जाना चाहिये कि विधवाओं को अपने जीवित रहने के अधिकारोंका ज्ञान था, और उन्होंने अपनी इच्छासे उनका त्याग किया है - मेडै दालवाय कलिआनी अन्नी बनाम मेडै दालवाय थिरु मलायप्पा मुद्दालियर 1 A. I. R. 1927 Mad. 115.
दफा ७०९ मंजूरी देनेका तरीक़ा
मंजूरी देनेका तरीक़ा कुछ नहीं है, चाहे जिस तरहसे मंजूरी दीगई हो, मंजूरी दस्तखत करके, या दस्तावेज़पर दस्तखत करके, दी जा सकती है ( 13 C. W. N. 931 ). या विक्रीके बाद उसके मालूम होनेपर किसी तरहका एतराज़ न करनेसे मंजूरी समझी जा सकती है; देखो -- महेशचन्द्र बोस बनाम उग्रकान्त वनरजी 24 W. R. C. R. 127. सब हालतोंको जान कर जब मन्जूरी दीगई हो तभी वह मंजूरी, मंजूरी समझी जायगी -श्यामसुन्दरलाल बनाम अच्चनकुंवर 25 I. A. 183; 21 All. 71, 2 C. W. N. 729-733. मंजूरी सब दोषोंसे रहित होना चाहिये यानी उसमें कोई ऐसा धोखा या ग़लती न हो कि जिससे विक्री वगैरा नाजायज़ हो जाय, , और मंजूरी नेकनीयती तथा बिना किसी दबावके दीगई हो; देखो -- कोलॅंडिया शुलागन बनाम वेदामन्थू शुलागन 19 Mad 337. इस केसमें जायदादका इन्तक़ाल रिवर्जनरको नुकसान पहुंचानेकी गरज़से किया गया था । परदानशीन औरत की मंजूरी में इस बातका स्पष्ट सुबूत होना चाहिये कि उस स्त्रीने सब हालातों और अपने अधिकारोंको समझकर वह मंजूरी दी थी। तथा उसकी परदानशीनीकी हालतकी बजेहसे उसे किसी तरहका धोका नहीं दिया गया हो देखो -- भगवत दयालसिंह बनाम देवीदयाल शाह 35 I A. 48; 35 Cal. 220; 10 Bom. L. R. 230. अगर कोई एतराज़ करनेसे चूक जाय मगर असल में उसने मंजूरी न दी हो तो वह मन्जूरीका देना नहीं समझा जायगा ।
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स्त्रियोंके अधिकार
[ ग्यारहवां प्रकरण
एक जायदाद जो सब रिवर्जनरोंकी मंजूरीसे विक चुकी हो तो पीछे पैदा होने वाले वारिस उसपर कोई झगड़ा नहीं कर सकते, जैसे -- किसी विधवाके लड़की और देवर ( पतिका भाई ) मौजूद हैं, विधवाने जायदादका इन्तक़ाल करते समय दोनोंकी मंजूरी योग्य रीति से लेली थी, पीछे लड़की के लड़का पैदा होगया तो अब वह नेवासा इस इन्तक़ालपर कोई बाधा नहीं कर सकता - इसी तरहपर अगर विधवाने पीछेसे कोई लड़का गोद लिया होता तो वह भी इसका पाबन्द होता; देखो -- 25 Bom. 129; 3 W. R.
C. R. 14.
दफा ७१०
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अगर कोई स्त्री जायदादका अपना हक़ रिवर्जनर को दे दे
विधवा या दूसरी सीमाबद्ध स्त्री मालिक हर समय अपनी सारी जायदाद या उसका कोई हिस्सा अपने बादके होने वाले वारिसको दे सकती है और वह उसी समय से जायदादका पूरा मालिक हो जाता है; देखो -- 31 Mad. 366. गङ्गाप्रसाद बनाम शम्भूनाथ 22 W. R C. R 393. यह भी माना गया है कि प्रत्येक स्त्री मालिक अपने बादके होने वाली किसी स्त्री रिवर्जरको भी जायदाद दे सकती है; भूपालराम बनाम लक्ष्मीकुंवर 11 All. 253. रूपराम बनाम रेवती 32 All. 582; जब कोई स्त्री रिवर्जनरको जायवाद दे तो सब रिवर्जनरों को देना चाहिये जो उस समय मौजूद हों और जिनको उस स्त्रीके मरनेपर जायदाद पानेका हक़ हो, अगर उनमें से किसी एक रिवर्जनरको जायदाद दी गई हो तो योग्य नहीं समझा जायगा; हेमचन्द्र बनाम स्वर्णमयी देवी 22 Cal. 355; 12 C. W. N 49.
अपने रिवर्जन की मंजूरीसे, उस रिवर्जनरके बादके रिवर्जनरको भी जायदाद दी जा सकती है 1 W. R. C. R. 98; अगर कुछ शर्तें लगाकर रिचर्डनरको जायदाद दीगयी हो तो देना नाजायज़ होगा लेकिन अगर वह शर्तें ऐसी हों कि उस जायदाद के खुद वारिस होनेपर रिवर्जनरके साथ लगी रहतीं तो देना जायज़ होगा 30 Mad. 145.
देनेके समय अगर ऐसा समझौता हुआ हो कि रिवर्जनर जायदाद लेकर उसका कुछ हिस्सा फिर उस विधवाको दान करदे जिससे विधवा के अधि कार उसमें अधिक हो जायँ तो यह देना नाजायज़ होगा 22 Cal. 354; 14 C. W. N. 226; 31 Mad 446; 31 Mad. 366. लेकिन अगर यह समझौता हो कि उस छोड़ी हुई जायदाद में से सिर्फ रोटी कपड़ा उस विधवाको मिलता रहे तो नाजायज़ नहीं होगा, देखो वही नज़ीर 31 Mad. 446. तथा यह भी माना गया है कि अगर ऐसा समझौता हो जाय कि छोड़ी हुई जायदाद में से कुछ हिस्सा किसी दूसरेको दे दिया जायगा तो भी नाजायज़ नहीं होगा ।
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दफा ७१.]
स्त्रियोंकी वरासतकी जायदाद
विधवा द्वारा अधिकारका छोड़ा जाना, अधिकारका मुन्तकिल करना है यह निस्सन्देह एक प्रकारका इन्तकाल है-शिवनन्दनसिंह बनाम जैरामसिंह 27 O. C. 378, A I. R. 1925 Oudh. 78.
एक समानही कई भावी वारिसोंमें से किसी एकहीके हकमें समर्पण नाजायज़ है-बच्चू पांडे बनाम मु० दूलम्मा A. I. R. 1925 All. 8. .
जब कोई हिन्द विधवा अपनी जायदादको सबसे नजदीकी भावी वारिस के हकमें समर्पित करती है तो उसकी परवरिश और सकूनतकी शर्ते उसके समर्पणके जायज़ होने में बाधक नहीं होतीं, बशर्तेकि समर्पण कानूनी है और वह केवल भावी वारिसोंमें जायदादके तकसीम कर लेनेका है महज़ प्रबन्ध न हो-अभयपादा त्रिवेदी बनाम रामकिङ्कर त्रिवेदी 89 I. C. 770.
एक हिन्दू विधवाने अपने पतिकी समस्त गैर मनकूला जायदाद सब से नज़दीकी भावी वारिसके हकमें समर्पित कर दिया। उसने एक रहनेका घर और कुछ मनकूला जायदाद जिसके बाबत यह सन्देह था कि आया यह भी उसने अपने पतिसे ही पाया है, रख छोड़ा। समर्पणमें यह भी शर्त थी कि उसे कुछ सालाना नकदी और कुछ गल्ला उसकी परवरिशके लिये दिया जाया करेगा। तय हुआ कि समर्पण बिलकुल जायज़ था-गोपालचन्द्र दत्त बनाम सुरेन्द्रनाथ दत्त 86 I. C. 804; A. I. R. 1925 Cal. 1004.
विधवा अपनी समस्त जायदादका हक़ीकी समर्पण सबसे नज़दीकी भावी वारिसके हकमें कर सकती है। इस प्रकारके समर्पणके लिये किसी खास जाब्ते की ज़रूरत नहीं है-जी० कोटीरेड्डी बनाम सुब्बा रेड्डी A. 1. R. 1925 Mad. 382.
भावी वारिसको हिबः--जायज़ है या नहीं, देखो इन्द्रनारायण मन्ना बनाम सर्वस्व दासी 41 C. L. J. 341; 87 I. C. 930; A. I. R. 1925 Cal. 743.
दो लड़कियोंमें से एकका त्याग--ऐसी दो पुत्रियोंमेंसे, जिन्होंने अपनी पिताकी जायदादको वरासतसे पाया था,एक पुत्रीने अपने हिस्सेकी जायदाद का इन्तकाल किया और मर गई। पीछेसे दूसरी पुत्रीने एक दस्तावेज़ दस्तबरदारी बहन एक नज़दीकी भावी वारिसके लिखा,और उसके जीवनके समय में ही, एक व्यक्तिने उसके द्वारा अधिकार बताते हुये, मृत पुत्रीके इन्तकाल को मंसूख करना चाहा। तय हुआ कि वह जीवित पुत्रीके जीवनकालमें वैसा करनेका अधिकारी नहीं है-नीलकान्ति सुन्दर शिवराव बनाम बीअम्मा 22 L. W. 398; (1925) M. W. N. 643; 48 Mad. 933; A. 1. R. 1925 Mad. 1267; 49 M. L.J. 266.
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स्त्रियोंके अधिकार
पररषा प्रकरण
हक़के त्यागकी रजिस्ट्री ज़रूरी नहीं है--रजिस्ट्रेशन ऐक्ट ( कानून रजिस्ट्री ) में कोई भी ऐसा आदेश नहीं है जिसके अनुसार किसी विशेष मामलेको तहरीरमें लाने की आशा हो, उस कानूनकी केवल यह मन्शा है कि जब चन्द मामले तहरीरी हों, तो उस तहरीरकी रजिस्ट्री होनी चाहिये। कानून इन्तकाल जायदाद ( Transfer of Property Act ) में या किसी अन्य कानूनमें भी कोई ऐसी बात नहीं है जिसकी यह मन्शा हो कि गैर मनकूला जायदादसे महज़ अधिकारका त्याग करना भी तहरीरी होना चाहिये। हिन्दू विधवा द्वारा उसके अधिकारका त्याग, किसी प्रकारका इन्तकाल नहीं है, बल्कि एक अधिकारका केवल त्याग है जिसेकि भावी वारिस अपने अधिकारमें प्राप्त करता है किन्तु इसलिये नहीं कि विधवा द्वारा उसे कोई इन्त. काल किया गया है। इस प्रकारका त्याग बिना किसी तहरीरके किया जा सकता है किन्तु यदि वह त्यागमें लाया जाय, तो कानून रजिस्ट्रीकी दफा १७ के अनुसार उसकी रजिस्ट्री अवश्य होनी चाहिये--गौरीवाई बनाम गयावाई A. I. R. 1927 Nag. 44.
विधवा द्वारा, अपनी परवरिशके लिये कुछ सालाना एलाउन्स और रहने के लिये मकानके बजाय अपने अधिकारोंके त्यागका समझौता करना प्रभावजनक और जायज़ है--गौरीवाई बनाम गयावाई A. I. R. 1927 Nag. 44.
दफा ७११ संसार त्यागनेवाली स्त्रीका हक़ चला जाता है
जब विधवा या कोई दूसरी स्त्री मालिक संसार त्याग दे (साधू, सन्यासिनी आदि ) तो उसी समय रिवर्जनरको सब जायदाद मिल जाती है, देखो Ben. S. D. A. (1856 ) P. 695. दफा ७१२ वसीयतके अनुसार अधिकार
जब कोई हिन्दू विधवा या दूसरा सीमाबद्ध वारिस वसीयतके अनुसार जायदादका वारिस होता है तो उसके अधिकार वसीयतकी शतों के साथ होते हैं; देखो--चन्द्रमनीदासी बनाम हरीदास मित्र 5 C. L. R. 157. अगर वसीयतमें सिर्फ उसे जायदाद देदी गयी हो और कोई अधिकार न बताया गया हो तो फिर उसके अधिकार वही होंगे जो कानूनमें लिखे हैं। दफा ७१३ अदालतसे मिला हुआ अधिकार
अगर किसी स्त्री मालिकको जायदादके इन्तकालकी इजाज़त प्रोवेट एण्ड एडमिनिस्ट्रेशन एक्टकी दफा ६० के अनुसार मिली हो तो चाहे कानूनी ज़रूरत हो या न हो और चाहे रिवर्जनरसे मंजूरी लीगयी हो या न लीगई
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दफा ७११-७१५ ]
नियों की वरासतकी जायदाद
हो, जायदाद पानेवाला उसका पूरा मालिक हो जाता है तथा कोई झगड़ा नहीं रहता देखो--कामाक्षानाथ बनाम हरीचरनसेन 26 Cal. 607. दफा ७१४ वह कर्जे जो जायदादपर न लिये गये हों
क़ानूनी ज़रूरतोंके लिये विधवाने जो क़र्ज़ लिया हो और वह जायदाद पर कोई दस्तावेज़ लिखकर न लिया गया हो तो उस कर्जेके जिम्मेदार रिव: जनर होगे या नहीं इसमें मतभेद है। परन्तु जो क़र्ज़ खान्दानके कागेवारके वास्ते लिया गया हो उसके ज़िम्मेदार रिवर्जनर अवश्य होंगे। इस विषयमें सबकी राय एक है कि जो क़र्जा विधवाने खान्दानी कारोबारके लिये लिया हो उसके देनेके रिवर्जनर जिम्मेदार होंगे 26Bom.206:3Bom L. R.738.
इलाहाबाद हाईकोर्टने रिवर्जनरोंको जिम्मेदार नहीं माना, देखो-- धीरजसिंह बनाम मंगाराम 19 All. 300. श्यामनन्द बनाम हरलाल 18All. 471. कल्लू बनाम फैयाज़अलीखां 30 All. 394. मदरास हाईकोर्ट और कल. कत्ता हाईकोर्टकी फुलबेचने रिवर्जनरको जिम्मेदार माना है देखो--33Mad. 492; 34 Mud 188; 10 Cal. 823; 6 Cal 36.
हालमें कलकत्ता हाईकोर्डकी राय पहलेसे खिलाफ़ हो गयी है, उसने अब यह माना कि रिवर्जनर ज़िम्मेदार नहीं है, देखो-गिरीबाबा दासी बनाम श्रीनाथचन्द्रसिंह 12 C. W. N. 7697 प्रसन्नकुमार नन्दी बनाम उमे. दुर राजा चौधरी 13 C. W. N. 353.
बम्बई हाईकोर्टने एक मामले में रिवर्जनरोंको जिम्मेदार नहीं माना, देखो-गड़जप्पा देसाई बनाम अप्पाजी जीवनराव 3 Bom. 237; लेकिन हालके एक मुक़द्दमे में बम्बई हाईकोर्टकी फुलबेचने जिम्मेदार माना 26. Bom; 206,3 Bom. L. R.738. दफा ७१५ अदालतके फैसलेसे जायदादकी पाबंदी
(१) किसी विधवा या दूसरी सीमाबद्ध स्त्री मालिककी जायदाद के सम्बन्धमें अगर कोई काननी या दसरी कार्रवाई की जाय उसमें वह विधवा या कोई स्त्री अपनी जायदादकी तरफसे परे तौर पर पैरवी करने वाली समझी जायगी। अर्थात् ऐसा मानो कि किसी स्त्रीकी जायदादपर जिसे सिर्फ जीवन भर का अधिकार है कोई नालिश मालगुजारी या लगान करार देनेके लियेकी गयी हो और उस स्त्रीने योग्य रीतिसे पैरवीकी हो तो उस फैसलेके पाबंद उसके रिवर्जनर भी होगें।
(२) जो डिकरी पिछले पूरे मालिकपर हुई हो तो स्त्रीके पास जायदाद चली जाने पर भी उस जायदाद पर वह डिकरी जारी की जा सकती है
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७२
स्त्रियोंके अधिकार
[ग्यारहवां प्रकरण
और जायदाद कुर्क व नीलाम हो सकती है; देखो-नाथाहरी बनाम जामनी 8 Bom. H. C. A. C. 37; 5 Mad. 5.
(३) अगर किसी दौरान मुक़दमे में कोई हिन्दू मुद्दालेह मर जाय, और उसकी जगहपर उसका वारिस चाहे वह स्त्री हो या मर्द वारिस बनाया गया हो और उस वारिसके मुकाबिलेमें डिकरी हुई हो, तो वह डिकरी तिर्फ पहले के असली मुद्दालेहकी छोड़ी हुई जायदाद तकही पाबंद करेगी वारिस की ज़ात या दूसरी जायदाद पाबंद नहीं हो सकेगी। दफा ७१६ जायदादके वापिस लेनेका दावा
अगर जायदादका कोई हिस्सा दूसरोंके हाथमें चला गया हो उसे वापिस लेने के लिये विधवा या दूसरी सीमाबद्ध स्त्री अदालतसे वापिस ले सकती है। अगर वह ऐसा दावा न करे और जानबूझकर या बिना जाने उस जायदादको अपने कब्जे में न ले तो उसके मरने पर उसके रिवर्जनर अथवा रिवर्जनरके रिवर्जनर भी अदालतसे वापिस ले सकते हैं देखो-21 W. B. C. R. 444; 14 W. R. C. R. 322. दफा ७५७ रिवर्ज़नर डिकरीके पाबंद होगें
(१) जब कोई डिकरी सीमाबद्ध स्त्री मालिकपर हुई हो तो रिवर्जनर उसके पाबंद होंगे, लेकिन अगर यह साबित किया जाय कि उस मुक़द्दमे में हकीयतका विचार पूरी तरह पर नहीं किया गया था, या किसी खास वजह से उस डिकरी पर उन किया जा सके तो पाबंद नहीं होंगे देखो-9 M. I. A. 5433; 11 I. A. 197; 11 Cal 186%; 20 I. A. 183; 21 Cal 8; मदन मोहनलाल बनाम अकबरखां 28 All. 241; 19 All. 357; 8 All. 429; 1 All 283.
विधवाके खिलाफ डिकरीकी तामील, उसके पतिकी जायदाद पर जो भावी वारिसके कब्जेमें हो, होती है, यदि कर्ज जिसकी बिना पर नालिश की गई है, इस प्रकारका हो कि उसकी पाबन्दी जायदाद पर होती हो। बहादुरसिंह बनाम गंगाबक्शसिंह देखो-84 I. C. 39 4. 28 P. C. 80 A. I. R. 1925 Odh. 272.
(२) अगर किसी सीमाबद्ध स्त्रीके ज़ाती मामले में कोई अदालती फैसला हुआ हो तो उसके रिवर्जनर पाबंद नहीं होंगे वृजलाल बनाम जीवनकृष्ण 26 Cal. 285; अगर स्त्री कोई कानून विरुद्ध कामकरे तो उसके रिवर्ज़नर पाबंद नहीं होंगे, देखो-- 15 C. W. N. 857.
(३) अगर जायदादके फ़ायदेके लिये उसने कोई काम किया हो तो जायदादकी ज़िम्मेदार होगीः देखोलालजी लहाय बनाम गोवर्द्धनझा 1.5 C. W.N.859.
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दफा ७१६-७१८ ]
स्त्रियों की वरासतकी जायदाद
४ ) अगर स्त्री ने मिलकर किसी से जायदाद पर डिकरी कराली हो तो वह डिकरी नाजायज़ होजायगी रिवर्जनर उसके पाबन्द नहीं होंगे, देखो - 11 Bom. 119.
दफा ७१८ समझौता
८७३
इलाहाबाद हाईकोर्टने माना हैं कि अदालतमें बाक़ायदा मुक़द्दमा चलाने के बाद जो डिकरी हुई हो उसीके पाबन्द रिवर्जनर हैं, लेकिन वह किसी समझौते के पाबन्द नहीं होंगे, डिकरीके बाद समझौता हुआहो तो भी पाबन्द नहीं होंगे, देखो -- महादेवी बनाम बलदेव 30 All. 75; गोविन्द कृष्णनरायन बनाम खुन्नीलाल 29 All. 187; सन्तकुमार बनाम देवसरन 8 A11.365; रामस्वरूप बनाम रामदेवी 29 All 239; 10 C. L. R337; 5 Bom. L. R. 885; ( मगर क़ानूनी ज़रूरत की बुनियादपर समझौता हो सकता है ) मदरास हाईकोर्डने यह माना है कि जब स्त्रोको यह निश्चय हो कि दावा सच्चे और उचित कर्जे की बुनियाद पर किया गया है तो वह स्त्री उस मुक़द्दमे में जवाबदावा लगाने के लिये मज़बूर नहीं है 30 Mad. 3; 17 Mad. L. J. 160.
सुलहनामा रिवर्ज़नरके साथ - ( १ ) जो किसी सीमाबद्ध वारिसनें, होनेवाले वारिस प्रेजेटिव या कनटिन्जेण्ट ( Presumptive or Contingent ) रिवर्ज़नरके साथ मिलकर कोई सुलहनामा करले या उसके साथ पंचायत करले तो वह रिवर्ज़नर 'स्टापुल' के सिद्धांतसे अपने इनको नहीं पा सकेगा अर्थात् महरूम हो जायगा 45I.A. 118,40All 487; 47I.C. 207.
उदाहरण - 'ए' और 'बी' दो भाई हैं जो हिन्दूलों के बनारस स्कूल के पाबंद हैं । 'ए' मर गया और उसने एक विधवा 'पी' छोड़ी। 'ए' के मरने पर 'बी' मे खानदानी जायदादपर क़ब्ज़ा सरवाइवरशिप ( देखो दफा ५५८ ) के अनुसार कर लिया । 'पी' का कहना है कि उसका पति अलहदा रहता था 'बी' से और उसने 'के' लड़के को अपने पतिं 'ए' के लिये गोद लिया । 'के' है 'पी' के पति की बहनका लड़का । उसके बाद 'बी' एक विधवा 'आर' व एक लड़की छोड़कर और 'के' को छोड़कर मर गया । 'बी' के मरनेपर उसकी जायदाद उसकी विधवा 'आर' को पहुंच गयी और 'आर' के मरनेपर उसकी लड़की को जायदाद सीमाबद्ध अधिकार से पहुंचगयी श्रव उस लड़की के मरने के बाद 'के' रिवर्ज़नरकी हैसियत से उस जायदादका हक़दार है अगर 'के' जायज़ तौर से गोद लिया गया है यहां पर देखिये लड़की ( Presumptive ) रिवर्ज़नर है और 'के' ( Contingent ) रिवर्जनर है. ।
'बी' की विधवा 'आर' ने दो दावे दायर किये एक में कहा कि मेरा पति खानदानकी कुल जायदादका अकेला मालिक था और दूसरे में कहा कि 'के' का गोद क़ानूनन् नाजायज़ है । तब समझौता हुआ कि जायदाद 'बी' की
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स्त्रियोंके अधिकार
[ग्यारहवां प्रकरण
विधवा 'भार' और उसकी लड़की, तथा 'ए' की विधवा 'पी' और 'के' का गोद उचित मानकर बांटले । 'पी' ने वह जायदाद इन्तकाल करदी जो उसे समझौते में 'के' के गोद लेने की हैसियत से मिली थी। 'के' उस समझौते में फरीक था।
__ पहले लड़की मरी उसके बाद विधवा 'भार' मरगयी। 'आर'के मरने पर 'के' ने यह दावा किया कि 'आर' का मैं रिवर्जनर हूं, 'आर' की जायदाद मुझे मिले। इन वाकियातों पर विचारकर प्रिवी कौंसिलके विद्वान् जजों ने तय किया कि 'के' रिवर्जनी हक़ प्राप्त करनेसे महरूम था, देखो-45 I. A. 118; 40 All. 487; 47 I. C. 207.
(२) अगर रिवर्जनर तस्फीयेमें फरीक हो जो घरू ( Family arrangement ) तौरसे किया गयाहो तो भी वह रिवर्जनरी हक़से महरूम रहेगा, देखो--24 Cal. W. N. 105; 50 I. C. 812 ( P. C )
___ उदाहरण-एक हिन्दू बनारस स्कूलका पाबन्द है वह एक विधवा 'ज' और तीन लड़कियां 'अ' 'ब' 'स' और 'अ' तथा 'स' से उत्पन्न दोनाती (लड़कीके लड़के)छोड़कर मरगया । विधवा 'ज'ने उस जायदादके पूरेहकों सहित पानेका दावा किया जो लड़कियोंके बापकी थी। तब विधका 'ज' के और लड़कियों के दरमियान तस्फीया होगया जिसके ज़रियेसे कुछ जायदाद लड़कियोंके लड़कों 'क' 'ख' को देदी गयी और कुछ जायदाद लड़कियोंके दरमियान बांट दीगयी जिसमें उनका हक़ पूरा माना गया । लड़कियां और उनके लड़कोंने अपने हिस्से की जायदादपर फौरन कब्जा कर लिया । और वे जायदादका उपयोग पूरे मालिककी तरह पर करने लगे। 'स' ने अपने हिस्सेकी जायदाद रेहन करदी और 'ब' ने अपने हिस्सेकी जायदाद 'ग' के हाथ बेच दी। इस तस्फीया की तारीखसे करीव ३७ वर्षके बाद 'स' मर गयी। 'स' के मरजाने पर 'ब' ने 'ग' पर यह दावा किया कि जो जायदाद उसने बेचदीथी दिला दीजाय इस बयान से दावा किया कि जायदाद मेरे बापकी है और मेरी मां और मेरी बहन के मरनेके पर वह अपने बापकी जायदादकी पूरी मालिक होगी और उस वक्त उसे क़ब्ज़ा मिल सकता था। प्रिवी कौंसिलके जजोंने तय किया कि 'व' घरू तस्फीयेमें फरीक थी उसका अलग रहना मंजूर नहीं किया गया था उस पर विश्वास करके बैनामा हुआ था । तस्फीयासे ३८ वर्षके बाद यह दावा दायर हुआ सब फरीक़ जो उस तस्फीयेमें शरीक थे अपने अपने हिस्सेकी जायदादपर पूरा हक़ बनाये रहे किसी दूसरे फरीकने कोई आपत्ति नहीं की इसी तरहकी अनेक घटनाएं हुयीं इसलिये अब वह ऐसे बैनामापर आपत्ति नहीं करसकती जो उसके विश्वासपर किया गया है, देखो-24 Cal. W. N. 105.
विधवाका समझौता करना-किसी मुकद्दमेका वाज़ाब्ता समझौता, किसी हिन्दू विधवा द्वारा, उसके ठीक होशहवास और इस विश्वास पर कि
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दफा ७१६-७२१ ]
स्त्रियोंकी वरासत की जायदाद
वह समझौता जायदाद के लिये लाभकारी होगा, भावी वारिसों पर लाजिमी । राम अय्यर बनाम नारायण स्वामी अय्यर 23 L. W. 496; A. I. R. 1926 Mad 609.
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बंगाल हाईकोर्ट ने यह माना है कि विधवा उस जायदाद के सम्बन्ध में जिसका मुक़द्दमा चल रहा है समझौता कर सकती है और उसको फैसले के खिलाफ़ अपील करनेका अधिकार है, देखो--तारणीचरण गङ्गोली बनाम वाटसन 3 B. L. RA. C. 437; 12 W. R. C. R. 413-417. लेकिन अगर बिना ज़रूरत के समझौता किया हो जिससे जायदादका इन्तकाल हो जाय, या वह समझोता रिवर्जनरोंके लिये मुफ़ीद न हो तो रिवर्जनर उसके पाचन्द नहीं होंगे 14 W. R. C. R. 146; 33 Mad. 473. अगर स्त्रीने सिर्फ अपने आरामके लिये किया हो तो भी वही सूरत होगी (6CL. R. 76. ) यह माना गया है कि स्त्रीने अगर अपने जाती हक़के बारेमें कोई समझौता किया हो तो उसपर कोई रिवर्जनर उज्र नहीं कर सकता है।
दफा ७१९ रिवर्ज़नरको फरीन बनाया जाना
मिस्टर मेन अपने हिन्दूलों के पेज ८६३ दफा ६४१ के नोट Y में कहते हैं कि मुक़द्दमे में स्त्रीके साथ उसके रिवर्जनरोंको भी फ़ीक़ मुक़द्दमा बनालेना अच्छा होगा, ताकि पीछे वह कोई उम्र न कर सकें और उस फैसले के पाबन्द हो जायँ, इस बातपर ट्रिवेलियन हिन्दूलॉ पेज ४७६ में विरोध किया गया है उसमें कहा गया है कि रिवर्जनरों को फ़रीक़ बनाने की कोई वजह नहीं है क्योंकि रिवर्जनरों के हक़पर कोई असर उस फैसलेका नहीं पड़ता ।
दफा ७२० मुक़द्दमेका खर्च
जो मुक़द्दमा किसी सीमाबद्ध स्त्री-मालिकने चलाया हो या उस पर किसी दूसरेने चलायाहो दोनों मुक़द्दमोंके खर्च की जिम्मेदार उसकी जायदाद होगी, देखो - चन्द्रकुमार राय गनेशचन्द्र 13 Cal. 2833 6 Cal. 479; 8 C. L. R. 1.
दफा ७२१ डिकरीमें नीलाम
विधवा, या दूसरी सीमाबद्ध स्त्री मालिकपर डिकरी होने से जो जायदाद नीलाम हो तो उस नीलामसे उस स्त्रीके जिन्दगीभरका हक़ ही नीलाम हो सकता है ज्यादा नहीं यानी खरीदार नीलामको उस स्त्री के मरने पर जायदाद छोड़ देना पड़ेगी, उस वक्त उस जायदादके मालिक रिवर्ज - नर हो जायँगे, देखो -- 11 M. I. A. 241; 8 W. R. ( P. C. ) 17; 26 Cal. 285; 17 Mad. 208, 15 B. L. R. 142; 16 Cal. 511.
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५७६
स्त्रियों के अधिकार
[ ग्यारहवां प्रकरण
जो कर्ज किसी स्त्रीने अपनी ज़ाती जिम्मेदारीपर लिया हो और वह कानूनी ज़रूरतके लियेभी लिया गया हो तो उस कर्जे की डिकरीमें उस स्त्री का जिन्दगीभरका हकही नीलाम होसकता है और बेचा जा सकता है जादा नहीं, देखो--कल्लू बनाम फैय्याज़ अलीखां 30 All. 394; अगर किसी स्त्री ने ऐसी अनेक डिकरियोंके अदा करने के लिये जायदादका इन्तकाल किया हो जिनमें से कुछ कानूनी ज़रूरतके लिये कर्जा लिया गया था तो अदालत जायदाद के खरीदारक हकमें कुछभी दखल नहीं देगी यानी जायज़ माना जायगा, देखो--बरदाकांत बनाम जतेन्द्रनरायन 22 Cal. 974; सरकारी मालगुजारी के बकायाकी डिकरीमें अगर स्त्रीकी जायदाद नीलाम हो तो उस नीलामसे कुल हक़का इन्तकाल होजाता है, यानी खरीदार पूरा मालिक हो जाता है रिवर्जनरका हक नहीं रहता, यही बात जायदाद बेच देनमें होती है, देखो-देवीदास चौधरी बनाम विप्रचरण घोशाल 22 Cal. 641; 11 C. W. N. 821,
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भरण-पोषण
बारहवां प्रकरण
दफा ७२२ कौन लोग भरण पोषणका ख़र्च पानेके अधिकारी हैं
नीचे लिखे हुये लोग भरण पोषणके खर्च पानेके अधिकारी माने गये हैं-(१) पुत्र पिताका कर्तव्य है कि वह अपने अज्ञान बालकोंकी परवरिश करे इसलिये पिता अपने अज्ञान बालकोंके भरण पोषणके खर्चका पाबन्द माना गया है परन्तु बालिग पुत्रोंका नहीं। अज्ञान बालकोंकी परवरिशकी पाबन्दी पिताकी ज़ात खासपर है, देखो--11 Mad. 91; 4 Beng. L. R. App 238 2 Bom. 46, 350, 351.
मिताक्षरा लॉके कुटुम्बमें जब लड़का बालिग्न हो तो वह मौरूसी जायदादसे अपना भरण पोषण ले सकता है पिताकी जातखाससे नहीं और जहां पर न बट सकनेवाली जायदादहो या प्राइमोजेनिचर (देखो दफा ५५७). की हो वहांपर बालिग लड़के अपने भरण पोषणका खर्च उस जायदादसे ले सकते हैं, देखो--12 Bom. H. C. 94; 2 Bom. 346; 24 Mad. 147; 27 I. A. 157. पौत्र और प्रपौत्रके विषयमें भी यही कायदा लागू माना जायगा।
(२) अनौरस पुत्र--हिन्दू बाप अपने अनौरस पुत्रोंके भरण पोषणका खर्च देनेके लिये पाबन्द है; देखो--धाना बनाम गेरेली 32 Cal. 479; 8 Mad. 325. मगर बापके मरतेही अनौरस पुत्रोंके भरण पोषणका खर्च मिलना बन्द हो जायगा क्योंकि बापकी जायदाद उसके वारिसोंके पास चली जायगी तथा वे अनौरस पुत्र उस जायदादमें कुछ हक नहीं रखते; देखो दफा ४०३. और अनौरस पुत्रकी सन्तानको कोई ऐसा हक नहीं होगा । उदाहरणके लिये जैसे 'अ' नामका एक हिन्दू मरा और उसने 'क' एक अनौरस पुत्र छोड़ा पीछे 'क' अपना एक औरस पुत्र छोड़कर मर गया जिसका नाम 'ख' है। अब 'ख' किसी तरहसे भी 'अ' की जायदादमें से भरण पोषणका खर्च नहीं पा सकता। 'क' अपने जीवनकालमें ऐसा हक पानेका अधिकारी था। यदि किसी स्त्रीके गर्भसे पतिके जीते जी व्यभिचार द्वारा लड़का पैदा हुआ हो, या ऐसी स्त्रीसे पैदा हुआ हो जो एकही आदमीके पास न रहती हो या मां हिन्दू न हो और
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भरण-पोषण
[बारहयां प्रकरण
बाप हिन्दु हो, या बाप हिन्दू न हो मां हिन्दू हो, तो ऐसे पुत्रोंका हक़ कुछ नहीं है, देखो-12 M. I. A. 203-2207 1 Bom. 97; 1 Mad. 3063 34 Mad. 68.
अनौरस पुत्रोंके भरण पोषण पानेका हक़ सिर्फ साधारण रोटी कपड़े का होता है जो उनके गुज़ारेके लिये उपयुक्त हो, खानदानकी हैसियत या दूसरी बातोंपर ध्यान नहीं दिया जायगा। अनौरस लड़कीके भरण पोषणका हक्क हिन्दूलॉ में नहीं माना गया, देखो--18 Bom. 177, 183.
शूद्र--किसी शूद्रके गैर कानूनी पुत्रको जीवन पर्यन्त उसके कल्पित पिताकी मुश्तरका जायदादसे परवरिश पानेका अधिकार है, और यह परघरिश जायदादपर लागू होती है। गैर कानूनी लड़की भी कल्पित पिताके खानदानकी मेम्बर समझी जाती है और उसे भी कल्पित पिताकी जायदाद से तब तक परवरिश पानेका अधिकार है जब तक उसकी शादी न हो जाय या वह बालिग न हो जाय या इन दोनोंमें से जो पहिले हों--नटराजन बनाम मुथिया चेटी 22 L. W. 650.
(३) लड़की--बिन व्याही लड़कियोंके भरण पोषणके खर्चका पाबन्द पिता है, और यदि पिता मर जाय तो वे पिताकी जायदादसे ऐसा खर्च ले सकती हैं, देखो-बाई मंगल बनाम बाई रुकमिनि 23 Bom. 291; 6 All. 632. विवाह होनेके बाद लड़की पतिके कुटुम्बकी हो जाती है, उस समय वह अपने पतिसे या पतिकी जायदाद से अपना भरण पोषण पा सकती है, देखो दफा ७२३.
(४) पत्नी (जिसका पति जीवित हो ) देखो दफा ७२३.
(५) विठलाई हुई औरत--बिठलाई हुई औरतका कोई हक्न भरण पोषण के पानेका नहीं होता क्योंकि उसे पुरुष जिस समय चाहे छोड़ सकता है किन्तु जो हिन्दू स्त्री किसी हिन्दू पुरुषके पास सिर्फ उसीके लिये जन्म भर तक रही हो उसके भरण पोषणका हक़ उस पुरुषकी जायदादपर रहता है, देखो दफा ७३३.
(६) विधवा--देखो दफा ७२५ से ७२६.
किसी हिन्दू विधवाकी परवरिशकी जिम्मेदारी जायदाद पर नहीं है और उसे परवरिशके बजाय किसी जायदादको कब्जेमें रखनेका अधिकार नहीं है। मु० फुलाझारी बनाम हरप्रसाद 3 0. W. N. 181; 93 I. C. 378; A. I. R. 1926 Oudh 338. पहले परवरिशका अधिकार उस पुरुषपर रहता है पीछे उसके न रहनेपर जायदादपर गिरता है तो प्रधान अधिकार जायदाद पर नहीं हुआ।
(७) माता-देखो दफा ७२६.
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दफा ७२३]
खर्च पानेका अधिकार आदि
(८) पुत्रवधू-देखो दफा ७२६
(R) बिन व्याही बहिन-बिन व्याही बहिनका जबतक विवाह न हो भाई उसके भरण पोषणके खर्चका पाबन्द है । यदि बापकी जायदाद उसे उत्तराधिकारमें किसी प्रकारले मिलीहो तो उससे वह अपना वैसा खर्चलेगी।
(१०) उत्तराधिकारसे बंचित वारिस-देखो दफा ६५१ से ६६२.
(११) सौतेली माता-सौतेला पुत्र अपनी सौतेली माताका भरण पोषणका खर्च देनेके लिये ज़ात खाससे पावन्द नहीं है हां यदि उसमें वाप की जायदाद पायी हो तो वह सौतेली माता उस जायदादसे अपना वैसा खर्च ले सकती है, देखो-9 Bom. 279; 5 Boin. 99. दफा ७२३ पत्नीके भरण पोषणका खर्च
हिन्दू धर्मशास्त्रोंका मत है कि विवाहिता स्त्री जो सब प्रकारसे योग्य हो, पतिकी अर्धाङ्गिनी होती है, और उससे उत्पन्न संतान पतिको और पति के पितरोंको तृप्त करती है तथा पिण्डदान और जलदान देनेका अधिकार रखती है इसलिये पत्नीकी सब प्रकारकी रक्षा करना पतिका कर्तव्य माना गया है। याज्ञवल्क्य कहते हैं कि
लोकानंत्यंदिवः प्रातिः पुत्रपौत्र प्रपौत्रकैः यस्मात्तस्मास्त्रियःसेव्याः कर्तव्याश्वसुरक्षिताःप्राचा०७०
आज्ञा संपादनीदक्षां बीरगं प्रियवादिनीस् त्यजन्दाप्यस्तृतीयांश मद्रव्योभरणं स्त्रियः। प्राचा० ७६
जिससे, पुत्र पौत्र और प्रपौत्रसे वंशका विस्तार और अन्तमें स्वर्गकी प्राप्ति होती है उसका मूल स्त्री है इसीलिये स्त्रीका सेवन करना तथा उसकी सब तरहसे हमेशा रक्षा करना चाहिये । यह भी कहा है कि जो पुरुष, आज्ञाकारिणी, चतुरा, पुत्रवती, मधुर भाषिणी स्त्रीको त्याग देता है उसको राजा दण्ड दे, और पतिके धनमेंसे तीसरा भाग निकालकर उस स्त्रीको दे. यदि पति निर्धन हो तो स्त्रीको भरण पोषणका खर्च दिलावे ।
_अपने पतिसे, पत्नीको भोजन, वस्त्र, रहनेका स्थान, और अपनी हैसियतके अनुसार धार्मिक और अन्य कर्तव्य कर्मों का खर्च पानेका अधिकार है, देखो-सिधिंगप्पा बनाम सिदावा 2 Bom. 624-6287 S. C. 2 Bom. 634; मित्यकिशोरीदासी बनाम जोगेन्द्रनाथ मल्लिक 5 I. A. 55, अपने ससुर की जायदादमें से अपने भरण पोषणका खर्च पानेका अधिकार स्त्रीको हो
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भरण-पोषण
[बारहवां प्रकरण
सकता है। परंतु जब तक अपने पति की कोई जायदाद दूसरे कुटुम्बियों के हाथमें न हो तब तक वह उन कुटुम्चियोंसे भरण पोषण पानेका कोई अधिकार नहीं रखती, देखो--रमाबाई बनाम त्र्यम्बक गनेश देसाई 9 Bom. H. C. 283; पति अपनी स्त्रीको अन्य वैवाहिक हक़ भलेही न दे परंतु उसके भरण पोषणका खर्च अवश्य देना होगा लेकिन यदि स्त्री व्यभिचारिणी हो तो नहीं दिया जायगा, देखो मनु कहते हैं कि--
एतदेवविधिका घोषित्सु पतितास्वपि वस्त्रानपान देयन्तु बसेयुश्वगृहांतिके । मनु०११-१८६
पतित स्त्रियोंमें भी यही विधि करे 'पतितस्योदकंकार्य' अर्थात् पतित को, सिर्फ अन्न वस्त्र देना योग्य है, इसी तरह पर पतित स्त्रियोंको अन्न वस्त्र दे और उन्हें अपने घरके समीप रखे। आशय यह है कि व्यभिचारिणी होने पर भी अन्न वस्त्र देना योग्य बताया गया है यह सदाचार और सद्व्यवहार पर निर्भर है, कानून पर नहीं। .
स्त्रीके भरण पोषणका नर्च मिलना पतिके पास कोई जायदाद होने या न होनेपर निर्भर नहीं है, पति ऐसा खर्च देनेके लिये अपनी ज़ात खाससे पाबन्द है, देखो-नर्बदाबाई बनाम महादेव नरायन 5 Bom. 99, 103; (1902 ) 27 Mad. 45-48.
दीवानी अदालतमें ऐसे निर्धन पतिपर यदि स्त्री अपने भरण पोषणका दावा करे जो पति न तो कुछ कमाता हो और न उसके पास कुछ जायदाद हो तो कुछ लाभ नहीं होगा। परंतु जाब्ता फौजदारी बाब ३६ के अनुसार स्त्री अपने निर्धन पतिको इस बातपर वाध्य करसकती है कि वह मेहनत, मज़दूरी करके उसका भरण पोषण करे। स्त्री पतिकी तनख्वाह से या दूसरी आमदनीसे भी अपने भरण पोषणका खर्च ले सकती है।
हिन्दूधर्मसे च्युत-पतिके हिन्दूधर्म त्याग देने पर भी उसपर स्त्रीके भरण पोषणके खर्चपानेका हक बनारहता है, देखो-4Mad.H C.App.III.
वैवाहिक सम्बन्ध टूटना-नेटिव कन्वर्टस मैरेज डिसोल्यूशन एक्ट सन् १८६६ई० नं० २१ की दफा २८ के अनुसार जिस स्त्रीका वैवाहिक सम्बन्ध तोड़ दिया गया हो वह भी अपने पतिसे भरण पोषणके खर्च पाने का अधिकार रखती है, अर्थात् स्त्री यदि ईसाई होजाय तो भी हिन्दू पतिसे भरण पोषणका खच उस वक्त तक पा सकती है जब तक कि वह अपना दूसरा विवाह न करले।
वरासतसे वंचित पति-जब पति किसी अयोग्यताके सबबसे उत्तराधिकारसे वंचित कर दिया गया हो ( देखो ६५३ से ६५५ ) और उसकी स्त्री
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दफा ७२३]
खर्च पानेका अधिकार आदि
पतिब्रता हो यानी व्यभिचारिणी न हो तो वह जायदादके उस हिस्सेसे अपने भरण पोषणका खर्च पायेगी जो उसके पतिको मिला, यही राय मिताक्षरा, दायभाग, व्यवहारमयूख तथा स्मृतिचन्द्रिका की है। यदि पति मर जाय और उसके पुत्र वारिस हों, तो माताकी हैसियतसे उसको भरण पोषण पुत्रों से मिलेगा, देखो दफा ७२६.
स्थान--स्त्रीके भरण पोषणका स्थान आमतौरसे उसके पतिका घर है, देखो-सीतानाथ मुकरजी बनाम हेमवती देवी 24 W. R.C. R. 377: 1 Mad. H. C. 375; परंतु यदि पति बिना कारण उसको अपने साथ न रहने दे, स्वयं या उस स्त्रीका अलग रहनाही उचित हो तो वह अलग रह कर भरण पोषणका खर्च लेगी, देखो-9 W. R. C. R. 4753 12 Bom. L. R. 373; 6 B.L.R. App. 85; 14 W. R. C. R. 451; 19 mal. 84; 2Bom. 634; इसके सिवाय दूसरी किसी सूरतमें स्त्री अलग रहकर भरण पोषणके पानेका अधिकार नहीं रखती, देखो-4 C. W. N. 488. ___अधिकार छोड़ना--स्त्री, अपने भरण पोषणके खर्च पानेके हन से पतिको मुक्त नहीं कर सकती, यानी वह स्वयं अपना ऐसा अधिकार नहीं छोड़ सकती, परंतु यदि पति और पत्नीने आपसमें किसी समझौतेसे भरण पोषणके खर्चकी रकम निश्चित करली हो, और यदि वह उचित हो, तो अदालत ऐसे समझौतेको मान लेगी 5 Bom. 92, 103, 107.
हनका नष्ट हो जाना-जो स्त्री बिना कारण अपने पति को छोड़ दे तो उसके भरण पोषणका हक नष्ट हो जाता है, देखो--मुरामयालीरंगरामा बनाम रामपाली ब्रह्माजी 31 Mad. 33831 Mad. H. C 375. या उसके (पति) साथ रहनेसे इनकार करे तो भी उसका ऐसा हक्क नष्ट हो जाता है, देखो6 W. R. C. R. 116,9 W. R. C. R. 478. तथा व्यभिचारिणी होनेसे भी नष्ट हो जाता है, राजा पृथ्वीसिंह बनाम राजकुंवर ( 1873 ) I.A. Sup. Vol. P. 203-210; 12 B. L. R. 238, 247; 20 W. R. C. R. 21; 1 Mad. H. C. 379; 19 Mad. 6. यदि स्त्रीने भरण पोषणके खर्च पानेकी डिकरी भी प्राप्त करली हो, या आपसका समझौता होगया हो तो भी व्यमिचारिणी स्त्रीका हक नष्ट हो जाता है, देखो--नवगोपालराय बनाम अमृतमयी दासी 24 W. R. C. R. 428, 26 Bom. 707. जातिच्युत होनेसे किसी स्त्रीका हक नष्ट नहीं होता, Act No. 21 of 1850. महारानी विक्ट्ररिया बनाम मरीमुट्ठ 4 Mad. 243.
पतिपर जिम्मेदारी जब वह स्त्रीके साथ निर्दयता करता हो---मुद्दई एक ज़मीदारकी पत्नी है जो कि अपने पति के कितनेही निर्दयताके वर्तावोंके कारण, जैसे कि उसके भोजनमें ज़हरका मिला देना,उसके खिलाफ़ जवाहिरातकी
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વર
भरण-पोषण
[ बारहवा प्रकरण
चोरीका दावा करना तथा एक रखेल औरत को गढ़ीमें लाकर रख लेना आदि अपने पति से अलाहिदा रहती है--स्पेंशर ओ० सी० जे० ने कहा कि पतिपर अपनी पत्नीकी परवरिश की जिम्मेदारी उसके विवाह संस्कारके विधानसे ही उत्पन्न हुई बतायी गयी है । हिन्दूनान्दान के सम्बन्धमें यह क़ानूनी जिम्मेदारी हिन्दू लॉ द्वारा आयद होती है । जबकि शादी करने वाले फ़रीकों में कोई मुआहिदा नहीं होता, जैसाकि हिन्दुओंमें है, जब परवरिशकी नालिश आहिदा विनापर नहीं होती बल्कि उस दीवानी के सम्बन्धसे होती है जिस का वर्णन ख़ास तौरपर लिमिटेशन एक्टकी १२८ वे आर्टिकिलमें किया गया है । परवरिशका अधिकार पति की मृत्युके कारण समाप्त नहीं होता । नीचे की अदालतने निर्णय किया कि मुद्दईको परवरिशका अधिकार नहीं है और उसको अलाहिदा रहना न्यायपूर्ण नहीं है । मेरी रायमें मुद्दईका अलाहिदा रहना उचित है और उसे अलाहिदा परवरिशके दावा करनेका अधिकार है और यह अधिकार उन व्यक्तियोंके खिलाफ भी स्थापित होता हैं, जो उस जायदाद के मालिक हों, चाहे वे उसे वरासतसे प्राप्त करें या जीवित रहनेसे:
श्रीनिवास आयङ्गरने कहाकि वह परिस्थितियां जो कि एक स्त्रीको अपने पतिको छोड़कर पिता के पास रहने के लिये विवश करती हैं इतनी स्पष्ट होती हैं कि वे इस अवांछित कार्य के कारणको विदित करती हैं । स्त्रीके प्रति पतिका कैसा वर्ताव, निर्दयताका वर्ताव माना जा सकता है यह खान्दानके परिस्थितिके लिहाज़ से भिन्न भिन्न है । स्त्रीके पालन करने की पतिकी जिम्मेदारी केवल पति तकही निर्भर नहीं होती, बक्लि उसके वारिस, उसकी मृत्यु के पश्चात् उसकी जायदादसे, उसके पालन करनेके जिम्मेदार होते हैं- श्री राजा बोम्मादेवर राजा लक्ष्मी बनाम नागन्ना नायडू 21 L. W. 461; 87. C. 571; A. I. R. 1925 Mad. 757.
दफा ७२४ पत्नीके भरण पोषण के ख़र्च की रकम
वह स्त्री जिसका पति जिन्दा हो उसके भरण पोषणके खर्चकी तादाद उसके पति की हैसियत और उसकी जायदाद और उसके ज़िम्मे के दूसरे खच का ख़्याल करके नियत की जायेगी। पतिने वसीयतमें या दूसरी तरह अगर यह बता दिया हो कि उसकी स्त्रीको भरण पोषणके लिये खर्चकी अमुक तादाद दी जाय तो अदालत पतिकी इस रायका ख़्याल करेगी परन्तु केवल पतिकी राय परसे इस बारेमें फैसला नहीं हो सकता, देखो - 12 C. W. N. 808.
याज्ञवल्क्यने स्त्रीके भरण पोषणके खर्च के लिये पति की जायदादकी एक तिहाई जायदाद मुकरिकी है देखो याज्ञ० श्लो० ७६ और बम्बई हाईकोर्ट ने इस रायको माना है, देखो - रामाबाई बनाम त्र्यंबक गनेश देसाई 9 Bom.
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दफा ७२४-७२५]
खर्च पानेका अधिकार आदि
H. C. 283. मगर कोई अदालत इस नियमकी पाबन्द नहीं है जैसा उसे उचित समझ पड़े रकम निश्चित करेगी-अदालत भरण पोषणका खर्च देते समय, ऐसे दावा करनेवालेके चाल चलनका भी ख्याल करेगी। दफा ७२५ विधवाके भरण पोषणका खर्च
जो विधवा अपने पतिकी किसी जायदादकी वारिस न हो, तो चाहे उसका कोई पुत्र हो या न हो, उसे अधिकार है कि उस जायदादमें से अपने भरण पोषणका खर्च लेवे जिसमें उसके पतिका हन मालिक या कोपार्सनरके तौरपर था, या यदि पति वरासतसे वंचित न किया जाता तो उस जायदाद में उसका वैसा हक्न होता देखो-शिवदेयी बनाम दुर्गाप्रसाद 4N. W. P. 63; 11 Cal. 492-494; विंदा चौधराइन बनाम राधिका चौधराइन 11 Cal. 492-494; 5 Bom. 99; 8 B. L. R. 226. 3 M. I. A. 229-243; 6W.
R. P. C. 43-45; गुलाब कुंवर बनाम कलक्टर आफ बनारस 4 M. I. A. "246-258; 7 W. R. P.C. 47; 22 Cal. 4107 बेचा बनाम मोथिना 23 All. 86, 2 Bom. 573; 27 Mad. 45; 11 Bom. 199; 15 Bom. 23456 Mad. H.C. 150; 7 Mad. H.O. 226; 12 Bom. H. C. 79; 9 Bom. H.C. 283, 4N.W.P.63; 7N. W. P. 261; 1 Agra 106,9 W. R.C. R. 61; 24 W. R. C. R. 474, 29 Bom. 85; यही नियम उस जायदादसे भी लागू होगा जिसका बटवारा नहीं हो सकता। । यदि राजद्रोहके कारण सरकारने पतिकी जायदाद ज़ब्त करली हो तो 'उस जायदादसे विधवा भरण पोषणका खर्च पानेका अधिकार नहीं रखती, देखो-गंगाबाई बनाम हाग 2 Ind. Jur. N. S. 124. परंतु यदि उसके पुत्रों के या पति के दूसरे वारिसों के राजद्रोह से जायदाद जब्त की गयी हो तो विधवा अपने भरणपोषणका खर्च उस जायदादमेंसे पायेगी 4 M. I. A. 246,7 W. R. P. 0. 473 1 Cal. 365-373-374.
उदाहरण-(१) अज नामक एक मनुष्य जो मिताक्षरालॉके प्रभुत्व में रहता था अपनी एक विधवा और पुत्र छोड़कर मरगया । अजकी कुछ जायदाद अलहदा थी, पुत्रने अपने बापकी सब जायदाद ली। अब अगर पुत्र बाप की विधवाको भरण पोषणका खर्च न दे तो वह पतिकी जायदादसे लेसकती है।
(२) अज और उसका बाप शिव दोनों मिताक्षरा स्कूलके मुश्तरका खानदानमें रहते हैं । अज मरा और उसने एक विधवा छोड़ी। अजका जो हिस्सा मौरूसी जायदादमें था वह शिवको पहुंचा, अजकी विधवा अपने ससुरसे भरण पोषण के पानेका अधिकार रखती है यदि ससुर इनकार करे तो वह पतिके हिस्सेकी जायदादमेंसे लेसकती है, देखो-27 Mad. 45: -
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भरण-पोषण
[बारहवां प्रकरण
दफा ७२६ विधवा माता और पुत्रवधू
याज्ञवल्क्य कहते हैं किपितृमातृ सुतभ्रातृ श्वश्रू श्वसुर मातुलैः हीनानस्यादिना भर्ना गर्हणीयान्यथा भवेत् । आचा० ८६
पतिके मरनेपर स्त्री, पिता, माता, पुत्र, भाई, सास, ससुर, मामा इनके साथ रहे, अकेली न रहे, क्योंकि अकेली रहनेसे निन्दा होती है। तात्पर्य यह है कि जिसके साथ वह रहेगी उसीपर उसके भरण पोषणका खर्च भी पड़ेगा, किन्तु क़ानूनमें माना गया है कि
विधवा माता अपने पुत्रसे और पुत्रके मरनेके बाद उसकी जायदादसे अपने भरणपोषणका खर्च पानेका हक रखती है। मगर सौतेली माता अपने सौतेले पुत्रसे वैसा खर्च नहीं ले सकती, वह पतिकी जायदादमेंसे पायेगीइस विषयमें मनु कहते हैं कि
न माता न पिता न स्त्री न पुत्रस्त्यागमर्हति त्यजन्नपतितानेता नाज्ञा दण्ड्यः शतानिषट् । मनु०८-३८६
माता, पिता, स्त्री, पुत्र, पतित होनेपर भी त्यागनेके योग्य नहीं हैं, ऐसा करनेवाला राजासे छः सौ पण दण्ड पायेगा । और देखो-9 Bom. 279; 2 Bom. 573-582.
इसी तरहपर पुत्रवधू अपने ससुरसे और ससुरके मरनेके बाद उसकी जायदादसे भरण पोषणका खर्च पानेका हक रखती है। यह हक उसका सदाचार और सद्व्यवहारके अनुसार है, मगर जब ससुर मरजाय और उसकी जायदाद उसके दूसरे लड़कों या किसी वारिसके पास चली जाय तव पुत्रवधू का हक़ क़ानूनी होजायेगा और वह ससुरकी जायदादमेंसे अपना वह खर्च लेलेगी 11 All. 194; सदाचार और सद्व्यवहारके अनुसार जो जिम्मेदारी होती है उसके अनुसार ससुरका कर्तव्य है कि अपनी बहूका भरणपोषण करे मगर ससुरके मरते ही बहूका वह हक़ क़ानूनी होजाता है, यानी ससुरकी जायदादका वारिस जो कोई हो उसे बहूका खर्च देना पड़ेगा क्योंकि जायदाद जिम्मेदार होगी।
___ बम्बई में यह माना गया है कि बाप सद्व्यवहारके अनुसार अपनी विधवा लड़कियोंके भरणपोषणके खर्चका जिम्मेदार है, जिनके पास गुज़ारा करने योग्य कोई जायदाद न हो मगर वापके मरनेपर दूसरे वारिस ज़िम्मेदार
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दफा ७२६-७२७]
खर्च पानेका अधिकार आदि
८८५
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नहीं होंगे, देखो-23 Bom. 291; मगर 28 Cal. 278-2885 में कहा गया कि ऐसी लड़कियां दूसरे वारिससे भी अपना पैसा खर्च ले सकती हैं। यानी उस समय बापकी जायदादसे खर्च मिलेगा न कि दूसरे वारिससे।
पुत्रवधूका हक़ ससुरके सिवाय पतिके अन्य कुटुम्बिोपर कुछ नहीं है जब तक कि उन कुटुम्बियोंके हाथमें उसके पतिकी कोई जायदाद न हो या वह उनका कोपार्सनर न रहा हो, देखो--गंगाबाई बनाम सीताराम 1 All. 170-174-177; 2 B. L. A. C. 15-35,9W. R. C. R. 413-42219 Bom. H.C. 233; 5 Mad. H. C. 150; 2 Bom. 673; 2 Bom. 632, 7 Bom.127; 8 Bom. 15%
B9 Bom. 279, 5 Bom. H.C. A.C. 130. जब पति या उसकी शाखा कुटुम्बसे अलग होगई हो तो पतिके रिश्ते. दारोंमें स्त्रीका भरण पोषण पानेका हन सिर्फ उन रिश्तेदारों पर होगा जो उसके पतिकी पुरुष लाइनमें ऊपरकी पीढ़ियों में हों या स्वयं उस स्त्रीकी पुरुष सन्तानमें हों। यदि मौरूसी जायदाद नीलाम होगयी हो और वह नीलाम ऐसा हो कि जिसका पावन्द स्त्रीका पति भी होता तो फिर उस स्त्रीको अपने ससुर या दूसरे कोपार्सनरोंसे भरण पोषणका खर्च पानेका अधिकार नहीं रहता-गङ्गाबाई बनाम सीताराम 1 All. 170-177. कोई वारिस या दूसरा
आदमी जो जायदादपर कब्ज़ा रखता हो विधवाको भरण पोषणका खर्च देने का जिम्मेदार हो सकता है परन्तु वह उन लोगोंके प्रति जिम्मेदार नहीं होगा जिन्होंने विधवाको वैसा खर्च देनेका कन्ट्राक्ट किया हो, देखो-रामासायी ऐयन बनाम मीनाक्षी अम्मल 2 Mad. H. C. 409. दफा ७२७ विधवाका निवास स्थान
यदि कोई खास बात विरुद्ध न पड़ती हो तो विधवा अपने पतिके रहनेके घरमें रहनेका हक रखती है। यदि वह मकान बेच दिया जाय तो वह विक्री विधवाके रहनेके हकपर कुछ भी असर नहीं रखेगी, और उस मकान का खरीदार विधवाको उस मकानसे निकाल नहीं सकेगा, देखो--6 Mad. 130, 1 All. 262; 3 All. 353. अगर खरीदारको खरीदते समय यह मालूम हो कि विधवा उसमें रहती है तो अवश्यही वह विधवाको उस मकानसे नहीं निकाल सकता, मगर शर्त यह है कि अगर कुटुम्बका दूसरा कोई उचित स्थान हो और उसमें विधवाका रहना उचित और योग्य हो तो विधवा उसे छोड़ सकती है 7 Bom. 282. आम तौरसे विधवाको यह हक है कि वह अपने पतिके रहने के घरमें रहे, देखो-कट अम्मल बनाम अनडप्पा चेटी 6 Mad. 130; 18 Bom. 101. यह माना गया है कि विधवाको कोई पतिके घरसे निकाल नहीं सकता, देखो-दिलसुखराम महासुखराम बनाम लल्लूभाई मोती. चन्द 7 Bom. 2829 6 Mad. 13031 All. 262, 3 All. 35336Bom.567.
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भरण-पोषण
[बारहवां प्रकरण
उस सूरतमें जबकि किसी ऐसी डिकरीके कारण जिसकी पाबन्द वह स्त्री भी हो, किसी खरीदारने उस घरको खरीद लिया हो या जवकि वह घर ऐसे क़ज़की डिकरीमें बिका हो जो खानदानकी ज़रूरतोंके वास्ते लिया गया था तो विधवाको वह घर छोड़ना पड़ेगा--27 Mad. 45; 17 Bom. 398; 4 N. W. P. 153; 2 All. J41.
विधवाको, पतिके घरमें रहनेका हक खास उसके शरीरसे सम्बन्ध रखता है और यह हक़ किसी ऐसी डिकरीसे जिसकी पाबन्द विधवा न हो कुर्क नहीं हो सकता-31 Mad. 500. - बालिरा विधवा अपने पतिके रिश्तेदारों के साथ रहने के लिये पावन्द नहीं है और यदि वह व्यभिचारिणी न हो तो पतिका घर छोड़कर अपने मा बापके घर जा रहनेसे उसके भरण पोषणका हक़ मारा नहीं जाता, देखोपृथ्वीसिंह बनाम राजकुंवर ( 1873 ) 1 A. Sup. 203; 12 B. L. R. 238; 20 W. R. C. R. 2156 I.A. 114; 3 Bom. 415-421, 3 Bom. 3723 31 Mad 338; 28 Cal. 278-287; 5 C. W. N. 297 299; 29 Cal.557; 6 C. W. N. 530; 14 Bom. 490; 5 Mad. H. C. 150; 6 W. R.C. R.37;3 I. A. 154; 1Mad. 69.
अगर पति खास तौरसे यह हिदायत कर गया हो कि विधवाको भरण पोषणका खर्च तभी तक दिया जाय जब तक कि वह पतिके घरमें रहे तो विधवाको पतिके घरमें ही रहना होगा। यदि किसी उचित कारणसे वहां रहना उचित न हो तो और बात है, देखो-मूलजीभाई शंकर बनाम बाई उजाम 13 Bom. 218; 15 Bom. 2367 12 B.L. R. 238; 20 W. R. C. R. 21; 6 I. A. 114; 3 Bom. 415; 14 Bom. 490. रहना उचित न होने की सूरतमें देखो--12 C. W.N. 808.जब कुटुम्बकी जायदाद इतनी छोटी हो कि जिससे विधवाके अलग रहनेपर उसके भरण पोषणका खर्च न दिया जा सकता हो तो अदालत विधवाको अलग खर्च नहीं दिलायेगी या अगर दिलाये भी तो विधवाके अलग घरका किराया या दूसरा खर्च नहीं दिलायेगी, देखोकस्तूरवाई बनाम शिवाजीराम 3 Bom. 3723 22 Bom. 52. रामचन्द्र विष्णुवापट बनाम सगुन्नाबाई 4 Bom. 261. दफा ७२८ विधवाके हक़का नष्ट होना
विधवाके दूसरा विवाह कर लेनेपर पतिकी जायदादमें विधवाका भरण पोषणका हक़ नष्ट हो जाता है, देखो-हिन्दू विडोरिमेरेज एक्ट १५सन१८५६ई० की दफा २ और देखो इस किताबकी दफा ६५२. इलाहाबाद हाईकोर्टने यह मानाकि जिस क़ौममें पुनर्विवाहकी रसम जायज़ मानी जाती हो उस कौममें विधवाका भरण पोषणका खर्च पानेका हक़ पहिले पतिकी जायदादमें बना
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दफा ७२८]
खर्च पानेका अधिकार आदि
रहता है देखो - गजाधर बनाम कौसिल्ला 31 All. 161. व्यभिचार करने से विधवाका भरण पोषणके पानेका हक़ नष्ट हो जाता है, देखो - 17Mad 392; 7 Bom. 84, 9 Bom. 108; 17 Cal. 674. दौलत कुंवरि बनाम मेघू तिवारी 15 All. 382; 5 Mad. H. C. 150; 7 I. A. 115-151; 5 Cal.776-786; 6 Cal. L. R. 322; 13 B. L. R. 1-72-73; 19 W. R. C. R.367-405; 2 Mad. H. C. 337; 4 Mad. H. C. 183. याज्ञवल्क्य इस विषय में कहते हैं कि
६५७
पुत्र योषितश्चैषां भर्तव्याः साधुवृत्तयः निर्वास्या व्यभिचारिण्यः प्रतिकूलास्तथैवच । दाय० १४२
एषां त्रीवादीनामपुत्राः पत्न्यः साधुवृत्तयः सदाचारावेद्भर्तव्याः भरणीया । व्यभिचारिण्यस्तु निर्वास्याः । प्रतिकूलास्तथैवच निर्वास्याभवन्ति भरणीया श्राव्यभिचारिण्यश्चेत् । नपुनः प्रातिकूल्य मात्रेण भरणमपि न कर्तव्यम् ।
मिताक्षराकार कहते हैं कि--इन नपुंसक आदिकोंकी जो स्त्रियां साधु वृत्ति वाली हों (सदाचार और पवित्र ) उन्हें भरण पोषण देना योग्य है और जो व्यभिचारिणी हों अथवा सदाचारसे विरुद्ध आचरण करती हों तो उनकों घरसे निकाल दे, यानी जो व्यभिचारिणी न हों वह पालन करने योग्य हैं । यदि कोई स्त्री जो व्यभिचारिणी न हो और सदाचार की प्रतिकूलता भी न करती हो मगर किसी दूसरी वजहसे उससे और उस पुरुषसे जिसपर उसके भरण पोषणका हक़ है परस्पर बिगाड़ हो तो विधवाका वह हक़ नष्ट नहीं होगा ।
अगर किसी समझौते या डिकरीसे ऐसा हक़ उसे दिया गया हो तो भी व्यभिचारसे नष्ट हो जाता है। लेकिन अगर वसीयतके द्वारा वैसा हक़ मिला हो और उस वसीयतमें व्यभिचार के कारण हक़ वर्जित न किया गया हो तो स्त्रीके भरण पोषणका हक़ नहीं मारा जायगा, देखो -- 17 Mad. 392 9Bom. 108; 15 All 382; 34 Bom. 278. अगर भरण पोषण के सिवाय किसी और चीज़के दावेके बदले में समझौता करके भरण पोषण के खर्च देने का इक़रार किया गया हो और उसमें व्यभिच रसे वर्जित होने की कोई शर्त न हो तो भी भरण पोषण का हक़ मारा नहीं जाता, भूपसिंह बनाम लक्ष्मण कुंबर 26 All 321.
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८८८
भरण-पोषण
[बारहवां प्रकरण
दफा ७२९ विधवाके भरण पोषणके ख़र्चकी रकम
विधवाके लिये भरण पोषणकी रकम निश्चित करते हुये विधवाकी उचित ज़रूरतोंका ख्याल करना चाहिये।
__ धार्मिक कृत्य जैसे दान, दक्षिणा और अन्य धार्मिक कृत्य जिनका करना रवाजके अनुसार उसका कर्तव्य है, और विधवा तथा उसके खानदानकी हैसियत, और जायदादके ख्यालसे भोजन, वस्त्र और रहने के मकानका खर्च आदि,देखो-सुन्दरजी ड्रामजी बनाम दहीबाई 29 Bom. 216; 5 I. A. 55; 22 Cul. 410-418, 12 All. 558; 25 W. R. C. R. 474,25 All. 266; 9 C. W. N. 651; 2 All. 407.
हिन्दू धर्म शास्त्रोंके अनुसार यद्यपि विधवाको सब सांसारिक भोग बिलासकोत्याग करके रहने की आज्ञा है परंतु अदालत इसका ख्याल नहीं करेगी, लेकिन इसके साथही वह यह भी नहीं मानेगी कि विधवाको उसी शानशौ
तसे रहनेके लिये खर्चा दिया जायकि जिस तरह वह अपने पतिकी ज़िन्दगी में रहती थी, देखो -हरी मोहनराय बनाम मयन तारा 26 W. R. C. R. 474-476; वाइसनी बनाम रूपसिंह 12 All. 558; 4 N. W. P 63; 4W. R.C. R. 65; अपने वापके घरमें रहनेसे भरण पोषणके खर्चकी जो बचत हो उसका हिसाच नहीं लगाया जायगा, देखो-25 W. A. C. A. 474, 476; ऊपर कहागया है कि भरण पोषणके खर्चकी रकम निश्चित करते समय जायदादकी कमी या ज्यादतीका ख्याल किया जायगा, परंतु केवल जायदादके ज्यादा होने के सबसे यह ज़रूरी नहीं है कि खर्च भी विधवाकोज्यादाही दिया जाय, बल्कि खर्च मांगने वालेकी हैसियत, चालचलनका भी ख्याल किया जायगा, क्योंकि सम्भव है कि इस ख्यालसे खर्च कम देना ही अदालतको उचित जान पड़े इसी तरहपर खर्चकी रक़म मांगनेवालेकी केवल ज़रूरतोंका ही स्याल करके खर्चकी रकम निश्चित नहीं की जायगी, देखो-9 B.L. R. 377-413; 18 W. R. C. R. 359-373; 6 W. R. C. R. 286.
किसी हिन्दू विधवाके अधिकार परवरिश, उस आमदनीसे अधिक न होना चाहिये, जो उसके पति के उस हिस्सेकी सालाना आमदनी हो, जो उसे जीवितावस्थामें बटवारे द्वारा प्राप्त हो सकती। उसके निवास स्थान का अधिकार उसके परवरिशके आम अधिकारमें शामिल है और अदालत द्वारा प्राप्तनीय अधिकार है । उस रकममें वृद्धि होसकती है, यदि परिस्थितिमें कोई परिवर्तन हो, कवलराम बनाम ईश्वरीबाई 93 I. C. 353; A. I. R. 1926 Sind. 135.
किसी हिन्दू विधवाके पास स्त्रीधन स्वरूप जवाहिरात होने के कारण, उसकी उस परवरिशमें जिसका उसे अधिकार है कोई कमी नहीं हो सकती
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एका ७२१-७३१]
खर्च पानेका अधिकार आदि .
या
और खासकर जब कि खानदानमें विधवा द्वारा जवाहिरातोंके पहने जानेका रिवाज़ हो, श्यामाबाई बनाम पुरुषोत्तमदास 90 I.C. 12421L..W. 5517 A. I. R. 1925 Mad. 645. दफा ७३० अन्य लोगोंके भरणपोषणके ख़र्चकी रकम - पत्नी और विधवाके अलावा दूसरे लोगोंके भरण पोषणके खर्च पाने की प्रार्थनापर अदालत जव उनके खर्चकी रकम निश्चित करने लगेगी तब वह उपरोक्त दफा ७२६ में कही हुई बातोंका झ्याल कर लेगी-अर्थात् अन्य लोगों से भी वे बातें लागू समझी गयी हैं, देखो-21 All. 232. दफा ७३१ भूखे मरनेसे बचानेका खर्च
भूखे मरनेसे बचानेका खर्च भी एक प्रकारका भरण पोषणका खर्च है और यह खर्च उस स्त्री या विधवाको दिया जाना चाहिये कि जिसने व्यमिचार त्याग दिया हो। जिस स्त्री या विधवाने व्यमिवार त्याग दिया हो और फिर नेकचलन बन गयी हो उसको भूखे मरनेसे बचानेका खर्च पानेका अधिकार है या नहीं? इस बातका अभीतक निर्णय नहीं हुआ। बम्बई हाईकोर्टने होनम्मा बनाम टिमन्नाभट्ट (1877)| Bom. 559. में स्त्रीका ऐसा अधिकार माना है। परंत बाल बनाम गंगा (1882) 7 Bom. 84. में नहीं माना। हाल के एक मुकदमेमें बम्बई हाईकोर्टने कहा कि "पुराने हिन्दूशास्त्रोंसे मालूम होता है कि हिन्दू स्त्रीको उसका पति बिलकुल ही नहीं छोड़ दे सकता । यदि स्त्री व्यभिचारिणी है, तो भी पति उसको घरमें रोक कर रखे और उसको जीवन कायम रखनेके लिये भोजन और वस्त्र देवे । इसके सिवाय उस स्त्रीका और कोई हक नहीं है । परंतु यदि स्त्री पश्चात्तापको नेकचलन बन जाय और प्रायश्चित्त आदि करके शुद्ध होजाय तो उसको सब प्रकारसे सामाजिक और वैवाहिक हक्क फिर प्राप्त होनेका अधिकार है । लेकिन अगर उसने किसी नीच जातिके पुरुषसे व्यभिचार किया हो तो प्रायश्चित्त करने पर भी वह भाण पोषणका खर्च सिर्फ जीवन रखने के लिये और रहने के स्थानके सिवाय और कुछ नहीं पासकती', देखो-पाराभी बनाम महादेवी 34 Bom. 273-2833 12 Bom. L. R. 196-200. मदरास हाईकोर्टकी राय है कि वैसी स्त्री भूखी मरनेसे बचनेका खर्च भी नहीं पासकती-( 17 Mad 392); इसी अदालत ने पहिलेके एक मुकदमेमें यह भी कहा था कि इस प्रश्नका अभी तक कुछ निर्णय नहीं हुआ देखो-5 Mad. H. C. 150; बंगाल हाईकोर्टने रमानाथ बनाम रजनीमणि दासी ( 1890) 17 Cal. 674-6797 में यह राय प्रकट की कि उस स्त्रीको सिर्फ जीवन निर्वाहके लिये खर्च देना चाहिये । प्राचीन कई शास्त्र और नज़ीरें भी खर्च देनेके ही पक्षमें हैं। इसलिये उचित यही है कि ऐसी स्त्रीको जीवन रखने के लिये खा दिया जाय, देखो-स्टेज हिन्दूला
112
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भरण-पोषण
( बारहवां प्रकरण
Vol. I. P. 172, 175 Vol. 11. P. 39; कोलबूक डाइजेस्ट Vol. II. P. 423, 425; और देखो याज्ञवल्क्य -
८६०
हृताधिकारां मलिनां पिण्डमात्रोपजीविनीम्
परिभूता मधःशय्यां वासये दव्यभिचारिणीम् । विवाह०७०
या व्यभिचरति तां हृताधिकारां भृत्यभरणादि अधिकाररहितां । मलिनां अञ्जनाभ्यंञ्जन शुभ्रवस्त्राभरणा शून्याम् पिण्डमात्रोपजीविनीम् प्राणयात्रामात्र भोजनीम् । धिक्कारादिभिः परिभूतां भूतलशायनीं स्ववेश्मन्येववासयेत् वैरान्य जननार्थ नपुनः शुद्धयर्थम् । मिताक्षरा ।
जो स्त्री व्यभिचारिणी हो उससे भरणपोषणका अधिकार छीन ले । साफ कपड़े जेवर तथा भोगरागकी जो चीजें हैं उसे नहीं दे, सिर्फ भूखे मरने से बचानेके लिये भोजन दे, और धिक्कार आदिसे उसे अपमानित करे, सोनेके लिये चारपाई आदि न दे, ज़मीनपर उसे सुलाये और अपने घर के करीब रहने का स्थान दे, ये सब बातें उसे वैराग्य उत्पन्न कराने वाली हैं शुद्ध करनेवाली नहीं हैं।
यदि स्त्री व्यभिचार न त्यागे तो उसे प्राणनिर्वाहका भी खर्च न मिल सकेगा। परन्तु यदि उसे पहिले अदालतकी डिकरीसे खर्च मिलने का हक़ पैदा हो गया हो तो व्यभिचार करने पर भी वह खर्च बन्द नहीं किया जायेगा, देखो - कंडासामी पिलाई बनाम मुरूगम्मल 19 Mad. 6; 17 Cal. 674–679; 15All. 382; 2 Mad. H. C. 337; 34 Bom. 278; 12 Bom. L. R. 196; 1 Bom. 559.
दफा ७३२ बारसुबूत
जब किसी जायदादपर विधवा के भरण पोषणके खर्चका बोझ हो और विधवा अलग रहकर खर्च मांगती हो तो इनकार करने वाले दूसरे फरीको यह साबित करना होगा कि हालत ऐसी है कि जिसमें विधवा अलग रहकर खर्च पानेका अधिकार नहीं रखती, देखो - साबूसद्दीक़ बनाम ऐशबाई 30 I. A. 127; 27 Bom. 485; 7 C. W. N. 666; मसलन दूसरा फरीक़ यह दिखला सकता है कि, विधवा व्यभिचारके उद्देशसे अपने पति के घरसे अलग रहना चाहती है, देखो -- 3 Bom. 372-381; या यह कि जायदाद बहुत
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दफा ७३२-७३३]
खर्च पानेका अधिकार आदि
पह
छोटी है इसलिये खलग खर्च नहीं दिया जा सकता या यह कि विधवाके पास भरणपोषणका दूसरा ज़रिया मौजूद है। देखो--14 Bom. 490. दका ७३३ बिठलाई हुई स्त्रीका भरण पोषण
किसी हिन्दू पुरुषके मरनेके समय तक उसकी बिठलाई हुई स्त्री (रखेली स्त्री) यदि उसके साथ रहे और सिर्फ उसीके लिये रही हो तो चाहे उसकी कोई सन्तान हो या न हो वह स्त्री उस हिन्दू पुरुषकी निजकी या मौरूसी जायदादमें से अपने भरण पोषणका खर्च लेने का अधिकार रखती है, देखोनिगनेधी बनाम लक्ष्माबा 27 Bom 163; 3 Bom. L. R. 647. रामानरसू बनाम बच्चामा 23 Mad 282, 291; 12 Bom. 26 खेमकर बनाम उमाशङ्कर 10 Bom. H. C. 381; 12 Bom. H.C. 229.
यदि बिठलाई हुई स्त्रीने व्यभिचार किया हो तो उसका हक़ मारा जायगा; देखो--यशवन्तराव बनाम काशीबाई 12 Bom. 26. वह स्त्रीकि जिससे किसी हिन्दूका कभी अकस्मात् संसर्ग और सम्भोग हुआ हो या वह स्त्री (जिसकापति जीवित हो) कि जिससे किसी हिन्दूका संसर्ग और सम्भोग कानून विरुद्ध हुआ हो, ऐसी स्त्रियां भरण पोषणके पानेका अधिकार नहीं रखती ( कानून विरुद्ध सम्भोग वह कहलाता है कि जिस स्त्रीका पति जीवित हो उसके साथ व्यभिचार ) देखो-सिकी बनाम वेकटसामी 8 Mad. H C. 144; 10Bom. H. C. 381. विठलाई हुई स्त्री जो त्याग करदी गईहो उसका कुछ हक़ नहीं है--22 Mal. 282. गैर कानूनी सन्तानके लिये देखो--A. I. R. 1926 Mad. 261.नारद कहते हैं:
अन्यत्रब्राह्मणात्तुि राजाधर्मपरायणाः तत्स्त्रीणां जीवनं दद्याद्देष दायविधिः स्मृतः। नारद
ब्राह्मणको छोड़कर, यदि किसी दूसरे जातिके पुरुषके पास कोई स्त्री उसके जीवन भर सिर्फ उसीके लिये रही हो तो राजा उसे भरण पोषण दे। अर्थात् उस हिन्दू पुरुषकी जायदादसे दिलावे । इस विषयमें और देखो-- दफा ७२२.५. - परवरिश मुस्तकिल रखेली औरतकी मुतवफ़ी हिन्दूकी मुसलमान रखेली दासी और उसकी अहिन्दू रखेली औरत एकमें शामिल है । हिन्दूला में हिन्दू धर्मके अतिरिक्त अन्य धर्मावलम्बियोंकी अवस्था-परवरिशका अधिकार भिन्न है हैदरी बनाम नरेन्द्र विक्रमजीतसिंह 30. W. N. 284; 93 1. C. 677; 13.0. L. J. 245; A. I. R. 1926 Oudh. 294. · रखेल--मुस्तकिल रखेलको, जो शुद्धाचरण हो, अपने मृत प्रेमीकी जायदादसे परवरिश पानेका अधिकार है। रखेलोंकी परवरिश पानेका नियम
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भरण-पोषण
[बारहवां प्रकरण
उन सूरतोंके लिये परिमित नहीं है, जिनमें कि उनके प्रेमीकी जायदादका कोई वारिस न हो और अन्यथा जायदाद सरकारमें ज़ब्त हो जानेको होरामराजा थेवार बनाम पायामल 22 L. W. 710; 90 I. C. 983; 48 Mad. 806; A. I. R. 1925 lad. 1230; 49 M. L J. 548. दफा ७३४ भरण पोषण मांगने वालेके पास जायदाद होना
जब स्त्री या विधवा, या दूसरा कोई आदभी जो भरण पोषणका खर्च पानेका अधिकारी है कोई अपनी एसी जायदाद रखता हो कि जिसकी आमदनीसे उसका भरण पोषण भली भांति हो सकता हो तो वह अपने भरण पोषणका खर्च पानेका हक़ काममें नहीं ला सकता, देखो--शिंद्धेश्वरी बनाम जनार्दन सरकार 29 Cal. 557-576; 6 C. W. N. 530-547; चन्द्रभागाबाई बनाम काशीनाथ विट्ठल 2 Bom. H. C. 323; 4 N. W. P 63; 2 Bom. 573; 33 Bom 50; 10 Bom. L. R. 770; 14 Bom. 490.
भरण-पोषणके खर्च की रकम निश्चित करते समय अदालत वैसा खर्च पानेवालेके पास अगर कोई जायदाद हो तो उसको भी हिसाबमें रखेगी-- महेश प्रतापसिंह बनाम दिगपालसिंह 21 All. 232. गहने, या दूसरी कोई ऐसी जायदाद कि जिससे कोई आमदनी नहीं होती अदालत हिसाबमें नहीं लेगी--शिवदेयी बनाम दुर्गाप्रसाद 4 N. W. P. 63, 10 Cal. 638. अगर पहिले कभी भरण पोषणका कुछ खर्च मिला हो तो चाहे वह सब खर्च हो चुका हो तो भी हिसाबमें लिया जायगा, देखो-जितेन्द्रमोहन टैगोर बनाम गणेन्द्रमोहन टैगोर ( 1872 ) I. A.Sup. Vol. 47 at P. 82; 9 B. L. R. 377-413; 18 W. R. C. R_359; सावित्री बाई बनाम लक्ष्मीबाई (1878)2 Bom. 573.
विधवा सिर्फ पतिके हिस्सेसे खर्च पायेगी--अगर पतिकी अपनी कमाई की अलग जायदाद उसकी विधवाके भरण-पोषणके खर्चके लिये काफ़ी हो तो विधवा अपने पति की उस जायदादमें से जो कोपार्सनरकी शिराकतमें हैं अपने भरण-पोषणका खर्च नहीं ले सकती यह राय इलाहाबाद हाईकोर्टने शिवदेयी बनाम दुर्गाप्रसाद ( 1872) 4 N. W. P. 6.3-72. के मुकदमे में प्रकटकी थी परन्तु अपनी इस रायका कोई कारण नहीं बताया। मुश्तरका जायदादमें पति का जितना हिस्सा हो उसीकी श्रामदनीले विधवाको खर्च दिया जायगा-- महादराब केशव तिलक बनाम गंगाबाई 2 Bom. 639; 11 Bom. 199; 27 Mad, 45-59; 4 N. W. P. 63-73. अगर वह आमदनी विधवाके खर्चके लिये काफ़ी न हो तो वह हिस्सा बेचकर उसके भरण पोषणका प्रबन्ध किया जायगा।
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खर्च पानेका अधिकार आदि
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दफा ७३४-७३६ ]
दफा ७०३५ विधवाकी अन्त्येष्ठोका ख़र्च
जिस जायदाद में से विधवाको भरण पोषणका खर्च दिया जाता हो उसी जायदादमें से विधवाकी अन्त्येष्ठी ( मरनेका और उसके पश्चात्का कर्म ) क्रियाका सब खर्च दिया जायगा, देखो - रतनचन्द बनाम जौहरचन्द 22Bom. 818 सदाशिव भास्कर जोशी बनाम धाकूबाई 5 Bom. 450. बैद्यनाथ ऐय्यर बनाम ऐय्यासामी ऐय्यर 32 Mad. 191.
दफा ७३६ ख़र्चकी रक्कममें अदालतका कर्तव्य
अगर दोनों पक्षकार भरण पोषणकी रकम निश्चित न कर सके तो अदा लत उस समय रक़म निश्चित करेगी। देखो - नवगोपालराय बनाम अमृतमयी दासी 24 W. R. C. R. 428 मीलू बनाम फूलचन्द 3 Ben. Sel. R. 223 ( New edition 298 ); 9 B. LR. 11-28. अचलतकी मुकर्ररकी हुई रक्रममें सिवाय किसी खास कारणके प्रिवी कौन्सिल भी दखल नहीं देगी, देखो - 12 M. I. A. 397; 1 BL. R. PC. 1; 10 W. R. P. C. 1725; 5 I. A. 55; 32 I. A. 261; 28 Mad. 508; 10 C. W. N. 95; 7 Bom. L. R. 907.
भरण पोषणके खर्च दिये जाने की आज्ञा देनेके लिये अदालतको उचित यही है कि वह उस खर्चका बोझ किसी खास जायदादपर डाले, देखो - मंशा देवी बनाम जीवनमल 6 All. 617; 6 Mad. 83; 12 Bom H, C. 229. या इतनी नक़द रक़म अलग करदे कि जिसके सूदसे वह खर्च दिया जा सके या अगर ज़रूरत हो तो जायदादका कोई हिस्सा बेचकर उतनी रक्रम जमा करावे, कुछ सूरतोंमें अगर मुनासिब हो तो उस खर्चके लिये वारिस का ज़मानत देनाही अदालत काफ़ी समझ लेगी। अदालत जो खर्च मुक़र्रर करे वह भरण पोषण और मकानका भाड़ा दोनोंके लिये होगा; देखो - 6All. 617-620. जायदादकी आमदनीका कोई हिस्सा खर्चके लिये अलहदा न करके कोई सालाना रक्कम मुकर्रर करना ही अच्छा होगा यह बात 2 All 777 में मानी गयी है ।
गोपिकाबाई बनाम दत्तात्रेय (1910) 24 Bom. 386-3893 2 Bom 1. R. 191. वाले मुक़दमे में अदालतने कहाकि "भरण पोषणके खर्च देनेकी डिकरीमें अदालतको कुछ ऐसे शब्द रखने चाहिये कि भविष्यमें जैसी ज़रूरत पड़े अदालत अपनी उस डिकरीमें फेर बदल कर सके ।" परन्तु इसपर मि० ट्रिवेलियनका कहना है कि ऐसी डिकरीमें बार बार मुक़द्दमेबाजी होनेका भय है । भरण पोषणके खर्चकी जो रक्रम डिकरीमें मुक़र्ररकी जाय भविष्य में अगर उसका बदलना ज़रूरी हो तो दूसरी डिकरीके द्वारा बदली जा सकती है ।
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[ बारहवां प्रकरण
महज़ परवरिशकी रकम निश्चित करनेके प्रश्नमें, कमिश्नरके हवाले की आवश्यकता नहीं है । यह साधारण रीतिपर, खान्दानी हालात के लिहाज़ से जो शहादत द्वारा प्रगट हो निश्चित की जानी चाहिये - भीखूबाई बनाम हरीबा 49 Bom. 459; 27 Bom. L. R. 13; A. I. R. 1925 Bom. 153.
४
भरण-पोषण
दफा ७३७ ख़र्च घटाया और बढ़ाया जा सकता है
पत्नी, या विधवा, व्यभिचारिणी हो जाय तो उसके भरण पोषण का खर्च बन्द किया जा सकता है । अगर भरण पोषणका खर्च लेने और देने वालोंकी हालत पहिलेकी अपेक्षा कम हो जाय तो खर्च की मुक़र्ररकी हुई रकम मैं कमी की जा सकती है । अगर डिकरीमें कोई खास व्यवस्था न हो तो कुक़ की कार्रवाई में भरण पोषणके खर्च की रक़म न तो बन्दकी जा सकती है और न कम की जा सकती है। अगर अन्न मंहगा होगया हो या खाने पीने के सामान महंगे हो गये हों, या पति धनवान होगया हो तो खर्चकी रक़म बढ़ाई जा सकती है, देखो - बंगरूअम्मल बनाम विजयमाची रेडीयर 22 Mad. 175; 9 W.R_CR. 152. जबकि गरीबी की हालत खर्च देने वालेके किसी क़सूर से नहीं बलि देवी कारण से उपस्थित होगयी हो तो खर्वकी मुक़र्रर रक्रम घटाई जा सकती है - राजेन्द्रनाथ राय बनाम पुतू सुन्दरी दासी 5 Cal. L. R. 18; W. R. P. C. 98. प्रत्येक वर्ष देते रहने के लिये भरण पोषणकी जो डिकरी हो उसका रुपया इजरा डिकरीकी कार्रवाईके द्वारा वसूल किया जा सकता है । जितने दिनों तक ऐसा खर्च दिया गया हो तमादीके यालसे उस डिकरीकी मियाद उतने दिनोंके बादसे गिनी जायगी, देखो - 19 Cal. 139; 38 Cal. 13; 12 Bom. 65.
कन्ना बनाम ऐतमा 12 Mad. 183; के मुक़दमेमें माना गया है कि जिस डिकरीमें केवल भरण पोषणका हक़ माना गया हो उस डिकरीका इजरा नहीं हो सकता । जिस डिकरीमें भरण-पोषणका हक़ किसी ऐसी जायदाद में माना गया हो कि जिस जायदादका इन्तक़ाल होगया हो और जिस आदमी के हक़में इन्तक़ाल हुआ हो उसके पाससे भी वह जायदाद निकल गयी हो तो फिर उस डिकरीका इजरा उस आदमी की ज़ात पर नहीं हो सकता जिसके मुक्काविलेमें डिकरी हुई थी, देखो --5 All 389.
दफा ७३८ हक़का इन्तक़ाल नहीं होसकता
( १ ) कोई स्त्री. या विधवा, अपने भरण पोषणके हक़का इन्तक़ाल नहीं करसकती -- अन्नपूर्णी नायिचर बनाम सामीनाथाचिट्टियर 34 Mad. 7, 9. में माना गया है कि आपसके इक़रार या डिकरीसे भरण पोषणका जो खर्च निश्चित हुआ हो उसका इन्तक़ाल होसकता है, परंतु ध्यान रहे कि
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दफा ७३७-७३६ ]
खर्च पाने का अधिकार आदि
कानून इन्तकाल जायदाद एक्ट नं०४ सन् १८८२ ई० की दफा ६ (डी) के अनुसार नहीं होसकता । हां, भरण पोषणका जो खर्चा बकायेमें पड़ा हो उसका इन्तकाल होना सम्भव है, 33 Mad. 80.
(२) कुकी नहीं होसकती-भरण पोषण पाने का हक या गैरमनकूला जायदादकी वह आमदनी जो भरण पोषणके लिये मुकर्रर कीगयी हो किसी अदालती डिकरीसे कुर्क नहीं होसकती, देखो-ज़ाचता दीवानी १६:८ ई० की दफा ६० इस दफामें कहा गया है कि भरण पोषणका हक़ आगेका कुर्क नहीं किया जासकता। इसका यह अर्थ भी होता है कि यदि ऐसे खर्च का रुपया जमा हो तो कुर्क हो सकता है जैसा कि 33 Mad. 80 में कहा गया है, देखो--11 Bom 228938 Cal 13.
किसी हिन्दू स्त्रीको परवरिशके लिये दी गई जायदाद, उसका स्त्रीधन नहीं होती और इस प्रकारकी जायदादके इन्तकालका प्रभाव केवल उसके जीवनकालमें ही होता है, जगमोहनसिंह बनाम प्रयागनारायण 3 Pat. L. R 251; 6 Pat L. J. 206; ( 1925) P. HC.C. 140; 87 I. O. 4734 A. I. R. 1925 Put. 523. दफा ७३९ जायदादके इन्तकालसे हकका मारा जाना
(१) कोई भी हिन्दू जो हक़ मारनेकी नीयत न रखता हो अपनी जायदादका इन्तकाल करे तो उस जायदादमें कानूनन् जो लोग भरण पोषणका हक रखते हैं उनका वह हक्न मारा जा सकता है, परन्तु वह हन यदि पहिले से किसी इकरार या डिकरीके द्वारा निश्चित हो चुका हो तोनहीं मारा जायगा: देखो--27 Cal. 194, 27 Mad 45; 15 Cal. 292, 22 All. 326; 17 Mad. 268 लेकिन अगर वह इन्तकाल केवल किसीके हक मारनेकी नीयत से ही किया गया हो और जायदादका खरीदार भी उस नीयतसे परिचित हो तो इन्तकाल हो जानेपर भी हक्क नहीं मारा जायगा, देखो--12 Mad. 3347 23 Bom. 342.
(२) दान या घसीयत-अपनी विधवा और उन लोगोंके भरण पोषण का खर्च जिनको वैसा खर्च देने के लिये वह कानूनन् पाबन्द है, उन खचों के योग्य उचित जायदाद अलग करके ही हर एक हिन्दू अपनी जायदाद दान या वसीयतके द्वारा किसीको दे सकता है, बिना उचित प्रबन्ध किये नहीं दे सकता, देखो-देवेन्द्रकुमार राय चौधरी बनाम ब्रजेन्द्रकुमार राय 17 Cal. 886; 15 Cal 292; 8 Bom. H. C. A. C. 98512Mad.490;10Cal.638.
कोई हिन्दू वसीयतके द्वारा अपनी स्त्रीको भरण पोषणके हकसे वंचित नहीं रख सकता, देखो-12 C. W. M. 808. और न अपनी सब जायदाद विधवाके भरण पोषणका खर्च दिये बिना वसीयत या दानके द्वारा किसीको
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भरण-पोषण
[बारहवां प्रकरण
दे सकता है-2 All. 315; 23 All. 863 5 Bom. 991 15 Cal. 2925 2 Bom. L. R. 1082.
किसी हिन्दू द्वारा वसीयतमें उस रकमका वर्णन जो उसकी पत्नीको परवरिशके लिये मिलना चाहिये, केवल उसके विचारका द्योतक है, जो उसकी समझमें परवरिशके लिये उचित है। अदालत परवरिशके मामले में उसके पालन के लिये बाध्य नहीं है -काकी नरसम्मा बनाम वेङ्कट राजू 93 I. C. 6869 23 L. W. 364; A. I.R. 1926 Mad. 534. दफा ७४० जायदादपर भरण पोषणके ख़र्चका बोझ
(१) का पहिले चुकाया जायगा-पति या खानदानके जिम्मे जो कर्ज हो उसके चुकानेके बादही स्त्री, या विधवाको भरण पोषणका खर्च दिया जा सकता है। किसी डिकीया इक़रारनामेसे भरण पोषणका जो खचे किसी जायदादपर डाला गया हो तो वह खर्च पहिले अदा करना या कर्ज पहिले मदा करना, इसका निश्चय अभी तक नहीं हुआ। इलाहाबाद हाईकोर्टने श्याम लाल बनाम बन्ना 4 All. 296, 300. और गुरदयाल बनाम कौशिल्या 5 All. 367. इन दो मुकद्दमों में यह माना कि कर्ज पहिले चुकाया जायगा। इस पर मि० दिवेलियन अपने हिन्दूलों के पंज ५० में कहते हैं कि डिकरीसे द्वारा भरण पोषणका जो खर्च किसी जायदादके ज़िम्मे डाला जाय उसका वही दर्जा है जो रेहनका है और वह उस जायदादपर पड़ने वाले पीछेके सब खर्ची और नजों से पहिले अदा किया जायगा, देखो-27 Cal. 194;2 Bom. 49 4.
इकरारनामेसे भरण पोषणका जो खर्च जायदादके जिम्मे पड़ा हो वह भी नगर करने वाले या उसके प्रतिनिधि के जिम्मे के क़र्जी के पहिले चुकाया जायगा, मगर शर्त यह है कि इकरारनामे में लेनदारों के हक़में कोई धोखा न दिया गया हो और यह कि वह इक़रारनामा कानून इन्तकाल जायदाद एक्ट नं०५सन्१८८२ई०की दफा ५८, ५६ की शौके अनुसार हो । वसीयतके द्वारा भरग पोषण का जो खर्च नायदादपर डाला गया हो वह खर्च वसीयत करने वालेके कर्जेसे पहिले अदा नहीं किया जा सकता।
हिन्दू वसीयत कर्ताका वसीयत करने का अधिकार उसकी विधवाकी परवरिशके काफी क़ब्जेके मातहत है। वह अपनी जायदाद का तसफ़ विधवाकी परवरिशसे स्वतन्त्र नहीं कर सकता--देवीवाई बनाम दादाभाई मोतीलाल 89 I C. 164.
एक स्त्रीको परवरिशके लिये दी हुई जायदादका इन्तनाल- स्नरीदार को शात था, कि जायदादपर परवरिशकी पाबन्दी है और यहकि उस अधिकारका इन्तकालसे खून हो जायगा--खरीदारके सम्बन्धमें, उस अधिकारके
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दफा ७४०-७४२]
खर्च पानेका अधिकार आदि
दबाने की कल्पनाकी जा सकेगी--मूलचन्द किशनदास बनाम ठाकुरबाई A. I. R. 1926 Sind. 18.
(२) जायदादपर भरणपोषणके खर्चका बोझ कब नहीं है ? -पति की जायदाद चाहे मौरूसी हो या खुद कमाई हुई हो, उसपर स्त्री, या विधवाके भरणपोषणके खर्चका बोझ एक प्रकार अवश्व ही है परन्तु पूर्ण रूपसे नहीं है, क्योंकि यह ज़रूरी नहीं है कि अगर वह जायदाद किसी ने खरीद ली हों तो उसका कोई हिस्सा उस खरीदारको स्त्री, या विधवाके खर्च के लिये छोड़ देना पड़े, देखो-हेमाङ्गिनीदासी बनाम केदारनाथ चौधरी 16 I. A. 116 16 Cal. 758; 5 Bom: 99; 12 Mad. 260; और देखो-24 All. 160; 15 Cal. 292, 4 All. 295; 22 All. 326; 12 Mad. 260; 27 Mad. 45; 6 Mad. 130.
यदि डिकरी या इकरारमें या वसीयतसे वैसा खर्च जायदादपर डाला गया हो तो वह जायदादको निश्चित रूपसे पाबन्द कर देता है, देखो-महालक्ष्याअम्मा बनाम वेङ्कटरत्नअम्मा 6 Mad. 83; 17 Mad. 268; 12 Bom. L. R. 1075; 12 Bom. H. 0.69-75; 20 W. R.C. R. 126; 23 Bom. 342; 6 I. A. 114; 5 Bom. 415. भरणपोषणका खर्च पानेवाले दूसरे अधिकारियोंके विषयमें भी यही सब बाते लागू होंगी। दफा ७४१ मुश्तरका ख़ानदानपर भरणपोषणकी डिकरी
जब किसी मुश्तरका खानदानपर भरणपोषणकी डिकरीकी जाय तो उस खानदानके सब शरीक मेम्बर उस डिकरीके पाबन्द होंगे चाहे वह उस मुकदमे में फरीक रहेहों, या न रहे हों, देखो--भीनाक्षी बनाम चिन्नअप्पा 24
Mad.689;30 Mad 324. परन्तु यदि बापके विरुद्ध या मुश्तरका खानदानके किसी मेम्बरकी ज़ात खासके विरुद्ध डिकरी हुई हो तो उस डिकरीका वही पाबन्द होगा दूसरा नहीं 10 Mad. 283. सिर्फ ज़ात खासपर डिकरी होनेसे जायदाद पर बोझ नहीं पड़ता है।
वारिस, उस जायदादसे जिसे कि उसने वरासतसे प्राप्त किया है उन व्यक्तियोंकी परवरिशका जिम्मेदार है जिनकी परवरिशकी पाबन्दी गत मालिक जायदादपर नैतिक तथा कानूनी रीतिपर थी। मु० भोलीबाई बनाम द्वारिकादास 84 I. C. 168A. I. R. 1925 Lah. 32. दफा ७४२ विधवाका बसीयतपर आपत्ति करना
विधवा अपने पति के वसीयत नामेपर सिर्फ उतनी ही दूरतक आपत्ति कर सकती है जहांतक कि उसका सम्बन्ध उसके भरणपोषणके हक़से हो, 11 Cal. 4929 12 C. W. N. 808. परन्तु अपने बेटेकी वसीयत नामेपर वैसी आपत्ति नहीं कर सकती 4 C. W. N. 602.
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भरण-पोषण
[बारहवां प्रकरण
दफा ७४३ जायदादका इन्तकाल
कोई खरीदार जब पूरा दाम देकर कोई जायदाद खरीदे तो वह उस जायदादके ज़िम्मे पड़े हुये भरणपोषणके खर्चका देनदार है या नहीं ? इस बात पर अदालतोंमें बड़ा विवाद होचुका है। इस विषयमें कानून इन्तकाल जायदाद एक्ट नं०४ सन् १८८२ई०की दफा ३६ का ध्यान रखना चाहिये । नजीरोंमें भी उसीका समर्थन किया जाचुका है 2 Bom. 494; 12 B. L. R. 1075.
उक्त ३६ वी दफा इस प्रकार है-"जब किसी गैरमनकूला जायदाद के मुनाफेसे कोई आदमी भरणपोषणका खर्च या विवाहका खर्च पानेका अधि. कारी हो और उसके ऐसे अधिकारके मारने की नीयतसे जायदादका इन्तकाल किया गयाहो और यह बात खरीदारको मालूम हो तो वह खरीदार उन खौँ के देने का पाबन्द होगा, परन्तु अगर खरीदारने पूरा दाम दिया हो और उस को किसीके खर्च पानेकी सूचना न हो, तो वह ज़िम्मेदार नहीं होगा।"
उदाहरण-जय नामके एक हिन्दने इन्द्रपुर नामका गांव अपनी विधवा भावज रत्नमयीको उसके भरणपोषणके लिये उसके नाम मुन्तकिल कर दिया, और यह इकरार किया कि अगर इन्द्रपुर रत्नमयीके क़ब्ज़ेसे जाता रहे तो जय दूसरे गांवमें, जो गांव रत्नमयीको पसन्द हो उतनी ही ज़मीन उसको दे देगा। परन्तु जयने वे दूसरे गांव गणेशके हाथ बेच दिये। गणेशने नेक नीयतसे उन्हें खरीद लिया और पूरा दाम देदिया। जय और रत्नमयीके बीच के उस इक़रार की खबर गणेश को कुछ न थी। रत्नमयी इन्द्रपुर से बेदखल हो गयी। ऐसी सूरत में गणेशके खरीदे हुये गावों पर उसका कुछ दावा नहीं चलसकता।
(१) जिस डिकरीके द्वारा भरणपोषणका खर्च किसी जायदाद पर डाला गया हो तो उसका पावन्द उस जायदादका खरीदार अवश्य होगा, देखो--कुलोदाप्रसाद बनाम जागेश्वर कुंवर 27 Cal. 194; 2 Bom. 494; परन्तु यदि उस जायदादपर कोई ऐसा क़र्ज़ा हो जिसका भरणपोषणके खर्चसे पहिले अदा किया जाना हिन्दूलॉके अनुसार ज़रूरीहो, या जिस कर्जेकी पाबंद विधवा हो, ऐसी डिकरीके नीलामका खरीदार भरणपोषणका खर्च देने के लिये पाबन्द नहीं है, देखो--श्यामलाल बनाम वाना 4 All. 296; 5 All. 367.
जिस जायदादपर किसीके भरणपोषणका खर्च स्पष्ट रूपसे डाला गया हो वह जायदाद उस खर्च की पाबन्द होगी। अगर भरणपोषणका खर्च देने योग्य वारिसोंके हाथमें दूलरी कोई जायदाद भी हो तो वही जायदाद कि जिसपर उसका बोझ डाला गया है खर्च देने की पाबन्द रहेगी दूसरी जायदाद नहीं होगी. देखो--4 All.296-300.
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दफा ७४३]
खर्च पानेका अधिकार आदि
(२) भरणपोषणके खर्च देनेका जो इकरार कानून इन्तकाल जायदाद एक्ट नं०४ सन् १८८२ ई० की दफा ५८-५६ में कही हुई रेहनकी शौके अनुसार किया गया हो उसका खरीदार पाबन्द होगा। अगर पैसे इकरारके बाद भरणपोषण पाने वालेका कब्ज़ा जायदादपर होगया हो, पीछे वह बेंच दी गयी हो तो भी खरीदार पाबन्द होगा। खरीदार अन्य प्रकारके इकरार नामों का पाबन्द हो सकता है अगर खरीदनेसे पहिले उसे उन इकरारों की बात मालूम रही हो।
(३) जब कि भरणपोषणका खर्च न तो किसी अदालती डिकरीसे और न किसी ऐसे इकरारनामेसे जो रेहनके समान असर रखता हो जायदाद पर डाला गया हो तो उस जायदादका खरीदार सिर्फ उस सूरत में पाबन्द होगा जब कि जायदादका इन्तकाल किसीके भरणपोषणके हलके मारनेकी नीयतसे कियागया हो और खरीदारको उस नीयतकी खबर हो, देखो--कानून इन्तकालकी दफा ३६ और देखो-2 Boun. 494; 10 C. W. N. 1074.
(४) परन्तु जब ऐसी नीयतसे इन्तकाल न किया गया हो, या अगर ऐसी नीयतसे किया भी गयाहो, मगर खरीदारको उस नीयतकी खबर न हो, या जायदादपर खर्चा डाला ही न गया हो तो ऐसी सूरतमें खरीदार भरणपोषणके खर्च देनेका ज़िम्मेदार नहीं है। ऐसे खरीदारकी नेक नीयतीका भी विचार अवश्य किया जायगा, उस जायदादपर किसीका भरणपोषणका दावा है या नहीं और उसकी सूचना खरीदारको मिली हो या न मिली हो दोनों सूरतोंमें इस तरहकी जायदादका खरीदार भरणपोषणाके खर्चका जिम्मेदार नहीं होगा, देखो--2 Bom. 494, 22 All. 326; 24 All. 160; 4 All. 2963 11 Cal. 1023 2 Mad. 126; 27 Cal. 55157C. W. N. 764.
पहिलेके कई मुकदमों में यह मानागया है कि अगर नेकनीयत रखनेवाले खरीदारको उस जायदादपर किसीके भरणपोषणका दावा रहनेकी खबर न हो तो वह बेशक उसका पाबन्द नहीं होगा, लेकिन साथही यह भी माना गया है कि अगर खरीदारको भरणपोषणके दावा होनेकी खबर हो या कमसे कम उसे यह मालूम हो कि ऐसा दावा होना सम्भव है और यहभी मालूम हो कि जो जायदाद मैं खरीद रहा हूं उसके मेरे हाथमें आजानेसे उस दावा पर बुरा असर पड़ेगा तो वह पाबन्द है, देखो-भगवतीदासी बनाम कनीलाल मित्र 8 B. L. R. 225, 17 W. R. C. R. 433; 18 Bom. 679; 12 Bom. H. C.69; 26 W. R.C. R 100; 2 Agra 42; 12 Mad. 260-272; 12 Mad. 384, 12 Bom. L. R. 1075; 2 Bom. 494-517. या वह यह जानता हो कि मेरी खरीदी हुई जायदादकी सहायता बिना यह दावा पूरा नहीं किया जासकता तो खरीदार उस दावेका पाबन्द हो जायगा, देखो-12 Mad. 260-269.
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भरण-पोषण
[बारहवां प्रकरण
ऐसा भी कहागया है कि जब विधवा अपने भरणपोषणके लिये वारिसों के विरुद्ध सब उपाय करके हार गयी हो, या यह बात अच्छी तरह से साबित करदे कि बेची हुई जायदादके सिवाय और दूसरी कोई जायदाद भरणपोषण का खर्च देने के लिये वारिसोंके हाथमें नहीं है तभी वह उस जायदादके खरी. दारसे भरणपोषणका खच पा सकती है, देखो--अमीरनी नारायण कुमारी बनाम शोनामाली 1 CA1.865; 2 Agra 134; 25 W. R.C. R. 100. परन्तु इस कार्रवाई में जो असुविधायें हैं उन्हें बम्बई हाईकोर्टने स्पष्ट कर दिया है 2 Bom. 494,
भरतपुर स्टेट बनाम गोपालदेयी 24 All. 160. में कहा गया है कि विधवाका भणपोषण पानेका हक़ जायदादपर उस समय तक अनिश्चित है जब तक कि उसके एसे खर्च पानेकी डिकरी जायदादपर न होजाय या उस जायदादके सम्बन्धमें कोई इक़रार न हो जाय पूर्वजोंके जिम्मेका क़र्ज, पुत्रोंके यज्ञोपवीत, कन्याओंके विवाह आदि ऐसे काम हैं जिनके खर्च अदा करनेके पाबन्द जायदादके वारिस हिन्दूलॉके अनुसार हुआ करते हैं, परन्तु कोई नेकनीयत खरीदार इनका पाबन्द नहीं होसकता 12 Bom. H. C. 69.
अपने जीवित पतिकी जायदादके खरीदारपर स्त्रीका अपने भरणपोषण के पाने का कोई हक़ नहीं है, परन्तु अपने मृतपतिकी जायदादके खरीदारपर विधवाका अपने भरण पोषणके पानेका हक़ उपरोक्त सूरतोंके अनुसार होता है 12 Bom H.C. 69-78. दफा ७४४ दौरान मुक़दमे में जायदादका इन्तकाल
भरण पोषणके दावेके मुक़द्दमेके दौरानमें अगर जायदादका इन्तकाल किया जाय तो भरण पोषणके हकपर ऐसे इन्इक़ालका कुछ असर नहीं पड़ता, देखो-जायदाद इन्तकालका क़ानून एक्ट नं०४ सन् १८८२ ई० की दफा ५२, और देखो-27 Cal.77; 4 C.W.N. 254; 27 Cal.551; 4 C.W.N 764.
हां अगर वह इन्तकाल किसी ऐसे क़र्जके अदा करनेके लिए कियागया हो जिसका अदा करना भरणपोषणका खर्च देनेसे पहिले ज़रूरी हो तो बेशक उस इन्तकालका पाबन्द वह फरीक़ भी होगा जिसने भरणपोषणके पानेका दावा किया हो देखो-थिमन्नाभट्ट बनाम कृष्णतन्त्री 29 Mad. 508, अगर भरणपोषणका खर्च किसी खास जायदादपर डालनेका दावा न किया गया हो तो सभी जायदादपर उसका असर रहेगा, देखो-19 Mad. 271
भरणपोषणके मुक़द्दमेके दौरानमें अगर सिर्फ दिखाने के लिये ज़रासी जायदाद छोड़कर बाकी सब इन्तकाल करदी गयी हो, और जो जायदाद छोड़ दी गयी हो उससे वह खच निकल ही न सकता हो तो ऐसी सुरतमें खरीदार जिम्मेदार समझा जासकता है।
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खर्च पानेका अधिकार आदि
६०१
दफा ७४४-७४७ ]
दफा ७४५ विधवा के क़ब्ज़े की जायदाद
जिस जायदादपर विधवाके भरण पोषण के खर्चका बोझ हो और वह विधवा के कब्जे में हो, और यह बात वारिस और खरीदारको मालूमहो तो वह उस विधवाके खर्चका उचित प्रबन्ध किए बिना उस जायदादको विधवाके नब्जेसे नहीं लेसकता, देखो - 18 Bom. 452; 8 Bom H. C. A. C. 98 विधवाका क़ब्ज़ा होना ही इस बातका प्रमाण है कि उस जायदादपर उसके भरण पोषणके खर्चका बोझ है ।
जब कोई हिन्दू विधवा, अपनी परवरिशके लिये मुश्तरका खान्दानकी जायदाद पर क़ाबिज़ होती है, तो उसका क़ब्ज़ा मुखालिफ़ाना नहीं होता और वह बवजह क़यामत अपना अधिकार नहीं प्राप्त कर सकती । भगवानी कुंवर नाम मोहनसिंह 23 AL. J. 589; ( 1925 ) M. W. N. 421; 41 C. L. J. 591; 22 L. W. 211; 88 I, C. 385; 29 . W. N. 1037; A. I. R. 1925 P. C. 132; 49 M. L J. 55 (P. C.)
दफा ७४६ जायदादकी बिक्री के समयपर विघबाका हक़
जो जायदाद विधवा के भरणपोषणके खर्च की ज़िम्मेदार हो उसकी बिक्री के रुपयेपर भी विधवाका वही हक़ बना रहता है, देखो - 6 Mad, 130; 2 Agra 134; 2 Bom. 494.
अगर अपने पास रेहन रखी हुई कोई जायदाद, कोई वारिस भरणपोषणके खर्चके लिये देदे और पीछे वह जायदाद रेहन करनेवाला छुटा ले जाय तो उससे मिले हुये रुपयेपर विधवाका हक़ होगा, देखो - गंभीरमल बनाम हमीरमल 21 Bom, 747.
कब पैदा होता है ?
दफा ७४७ भरणपोषण के दावाका हक ज्योंही भरण पोषणका उचित खर्च देना रोक दिया जाय उसी समय उस खर्च के पानेका दावा करनेका अधिकार प्राप्त होजाता है । 'खर्च देना रोक दिया गया है' यह बात इस तरह पर साबित की जा सकती है कि वारिसोंने खर्च देने से इनकार किया तथा अन्य प्रकारसे भी यह बात साबित की जा सकती है, देखो - मल्लिकार्जुनप्रसाद नैडू बनाम दुर्गाप्रसाद नैडू 17 Mad. 362; 21 I. A. 151; 24 Mad. 147, 5 C. W. N. 74; 2 Bom. L. R. 945; 18 Mad. 403; 17 Bom. 45; 36 Bom. 131; 13 Bom. L. R. 1023; 6 I. A. 114.
पीछेका खर्च वारिस के पास बाक़ी पड़ा है और वह हीला हवाला करता है या नहीं देता तो यह सूरतभी खर्च रोके जाने का प्रमाण है, देखो - 21 I. A. 151; ऊपरकी नज़ीरें देखो । भरणपोषणका खर्च पानेका हक़ रखने
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भरण-पोषण
[ बारहवां प्रकरण
वाला अगर पहले अपना भरणपोषण न मांगे और पीछे अपनी गरीबी के कारण उसको मांगना पड़े तो उसके खर्च पहिले न मांगनेका, और क़ानून मियाद का भी कोई विरुद्ध असर नहीं पड़ेगा, देखो -- सिद्धेश्वरीदासी बनाम जनार्दन सरकार 29 Cal 557, 6 C. W. N 530; 4 Mad. H. C. 137.
६०२
दफा ७४८ भरणपोषणका दावा
विधवा अपने भरणपोषणका खर्च पानेके लिये उन लोगोंपर दावा कर सकती है जो उस जायदादपर क़ाबिज़ हों कि जिससे विधवाको वह खर्च मिलना चाहिये, और वह यह भी दावा कर सकती है कि वे लोग उसके भरणपोषणका खर्च देने की ज़मानत दें, या उस जायदादपर उसके खर्चाका बोझ डाला जाय, और वह अदालत से इस हुक्मके भी दिलाये जाने की प्रार्थना कर सकती है कि वे लोग उस जायदादको न तो खराब करें और न इन्तक़ाल करें, देखो -- 12 Mad. 260; 11 Cal 492.
भरणपोषणका खर्च जो बाक़ी हो उसके दिला पानेके लिये भी वह दावा कर सकती है या वह पिछला खर्च पाने और आगे के लिये खर्चका बोझ जायदादपर डाले जाने दोनोंका एक साथ दावा कर सकती है, पृथ्वीसिंह राजा बनाम राजकुंवर ( 1873 ) I. A. Sup. 203; 12 BL. R. 238; 20 W. R. C. R. 21; 2 Mad. H. C. 36; 24 All 160.
भरणपोषणका पिछला खर्च अदालत दिला सकती है परंतु यह विधवा के इतके तौरपर नहीं, बल्कि अदालतकी मरजी पर निर्भर है, देखो - रघुवंशकुंवरि बनाम भगवन्त 21 All 183 अगर अदालत यह देखे कि पिछले खर्च का दावा करने के समयतक दावा करनेवालेको अपने भरणपोषण के लिये कुछ खर्च नहीं करना पड़ा तो अदालत पिछला खर्च दिलाने से इनकार कर सकती है । जिस जायदादपर विधवा के भरण पोषणके खर्चका बोझ हो उस जायदाद पर क़ब्ज़ा पाने का दावा विधवा नहीं कर सकती ।
जब कि हिन्दू विधवाने, जिसका पति २७ वर्ष पहिले मर गया था, परवरिश पाने तथा पिछली बाक़ी वसूल करनेके लिये दावा किया और उसने परवरिशका दावा नालिशके सिर्फ तीन वर्ष पूर्व किया था। तय हुआ कि अदालतको अपनी समझ के अनुसार उस मियादके नियत करने का अधिकार है जिसके लिये परवरिशकी बाक़ीकी डिकरी मिलनी चाहिये और इस मामले में यह पर्याप्त है कि ३ वर्षके लिये बाक़ी दिलायी जाय। मालीपेड्डी लक्ष्मन्ना बनाम मालीपेड्डी वेङ्कट सुबइय्या ( 1925 ) M. W. N. 213; 87 I. C. 2105 A. I. R. 1925 Mad. 795; 48 M. L. J. 266.
नोट - ऊपर जितनी बातें विधवा के अधिकार के सम्बन्धमें कही गयी हैं वही उस स्त्री से भी लागू होंगी जो अपने पतिसे अलग रहकर भरणपोषण के खर्च के पाने का हक रखती हो । और उन लोगों से भी लागू होगी जो भरणपोषण पाने के अधिकारी माने गये हैं ।
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दफा ७४८-७५१]
खर्च पानेका अधिकार आदि
दफा ७४९ फरीक मुकद्दमा
जो जायदाद विधवाके खर्चकी ज़िम्मेदार हो वह जितने वारिसोंके कब्जे में हो उन सबपर या उनमें से किसी एकपर विधवा भरणपोषणके खर्च पानेका दावा कर सकती है 4 Bom. H.C.A.C. 73; 9 B. L. R. 11-27.
जब कि विधवाके खर्चका बोझ किसी जायदादपर इक़रारनामे या अदालती डिकरीके द्वारा डाला गया हो तो उस जायदादके किसी भी हिस्से का कोई भी काबिज़ उस खर्चका देनदार होगा। यह ज़रूर है कि वह आदमी वह खर्च देकर दूसरे हिस्सेदारोंसे उनके हिस्सेके अनुसार वसूल कर ले। सारांश यह कि फरीक वे सब लोग बनाये जायँगे जो भरणपोषणके खर्च देने के ज़िम्मेदार हैं या ऐसे खर्चकी ज़िम्मेदार जायदाद जिनके कब्जे में है। दफा ७५० भरणपोषणके दावे में तमादी
कानून मियाद एक्ट नं० ६ सन् १९०८ ई० भाग १ दफा १२८ के अनुः सार, भरणपोषणके खर्वके बकायाका दावा बारह वर्षके अन्दर होना चाहिये। इससे स्पष्ट है कि भरणपोषणके खर्चकी रकम उतनी ही वसूलकी जासकती है जो बारह वर्षकी बाकी हो, ज्यादाकी नहीं, देखो--7 Mad. H. C. 226; 2 Mad. H. C. 36.
भरणपोषणका खर्च पहिले पहल मांगने के बारेमें कानून मियादके अनुसार कोई बाधा नहीं पड़ती, वह हर समय मांगा जासकता है । मगर जब एक दफा ऐसा खर्च मांगा गया हो और उसके देनेसे इन्कार कर दिया गया हो तो इनकार करनेकी तारीखसे बारह वर्षके अन्दर वह दावा.अवश्य अदालत में दाखिल कर देना ज़रूरी है, क्योंकि यदि ऐसा न किया गया तो फिर तमादी हो जायगी, देखो उक्त कानून मियाद Art. 129-132; 5 Bon 68. दफा ७५१ फौजदारी अदालतमें भरणपोषण का दावा
जावता फौजदारी एक्ट नं०५ सन् १८६८ ई० के चेष्टर ३६ के अनुसार अपने भरण पोषणका खर्च वसूल करनेके लिए हिन्दू स्त्री फौजदारी अदा. लतमें अपने पतिपर दावा कर सकती है। मजिस्ट्रेटका हुक्म दीवानी अदालत के अधिकारमें बाधा नहीं डालता देखो-30 Mad. 400..
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स्त्री-धन
तेरहवां प्रकरण
हिन्दूला में 'स्त्रीधन' का प्रकरण भी कुछ कठिन है । स्त्रीधन का वारिस कौन है ? इस वातके जाननेके लिये पहिले यह निश्चित करना होगा कि वह धन स्त्री को कब और किस समय मिला था, तथा स्कूल के प्रकरणमें कहे हुए स्कूलों में मान्य ग्रन्थोंकी उस धनके बारेमें क्या राय है, स्त्री संतान वाली है या संतान रहित, संतान रहित स्त्री के स्त्रीधनकी वरासत और भी मुशकिल है । जब तक पिछले प्रकरणों का ज्ञान प्राप्त न हो तब तक स्त्रीधन ठीक समझमें नहीं आ सकेगा, इसलिये पाठकों को चाहिये पिछले प्रकरण और स्कूलोंमें मान्य ग्रन्थोंके मत भेद को भली भांति जान लें फिर उन्हें स्त्रीधन के समझने में दिक्कत न होगी । यह प्रकरण दो भागोंमें विभक्त किया गया है । (१) स्त्रीधन, दफा ६५२ से दफा ७६१ तक और (२) स्त्रीधन की वरासत दफा ७६२ से दफा ७७३ तक ।
(१) स्त्री-धन
दफा ७५२ स्त्री धन शब्दका अर्थ
'स्त्रीधन' शब्दकी उत्पत्ति मिताक्षरामें यों है:'स्त्री धन शब्दश्व योगिको न पारिभाषिक: योगसम्बन्धे परिभाषाया अयुक्तत्वात्' ।
स्त्रीधन शब्द योगिक है। 'स्त्री' और 'धन' इन दो शब्दोंके योगसे स्त्रीधन शब्दकी उत्पत्ति है। शब्द कल्पद्रुम के पेज ४४० में स्त्रीधन शब्दका अर्थ स्पष्ट किया गया है । 'स्त्रीधन' नपुंसकलिङ्ग है। देखो शब्द कल्पद्रुम
'स्त्रिया-धनम्, स्त्रीधनम् स्त्रीस्वत्वास्पदभूतधनम्'
षष्ठीतत्पुरुष समास करनेसे 'स्त्रीधन' शब्दका अर्थ होगा स्त्रीका धन । जिस धनमें स्त्रीका पूरा अधिकार हो वह स्त्रीधन है यही अर्थ मिताक्षरा भी मानता है।
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इफा ७५२-७५३]
स्त्रीधन क्या है
१०५
धन शब्दसे स्थावर और जङ्गम जायदादका बोध होता है । स्त्रीके पास दो तरहका धन रहता है एक तो ऐसा धन जिसमें उसे पूरा अधिकार जैसे रेहन करने या बेंच देने आदिका प्राप्त रहता है वही स्त्रीधन कहलाता है। और दूसरा वह धन जिसमें स्त्रीका पूरा अधिकार नहीं रहता सिर्फ वह अपने जीवन भर उस जायदादकी मालिक रहती है और उसे रेहन या वय नहीं कर सकती जैसे पति से पाई हुई उत्तराधिकारके द्वारा जायदाद । इसलिये स्त्रीके पास जो जायदाद हो वह दो तरहपर तकसीम की जा सकती है
स्त्री की जायदाद
स्त्रीधन
जो स्त्रीधन नहीं है (जिसमें पूरा अधिकार हो) . (जिसमें पूरा अधिकार न हो)
दायभागमें जीमूतवाहनने इस शब्दका अर्थ यह किया है कि अपने पतिके अधिकारसे बाहर स्त्रीके पास जो धन हो और जिसमें स्त्री स्वतन्त्रता पूर्वक किसीको देदेने, या बेच देने या अपनी मरज़ीके अनुसार काममें लाने की अधिकारिणी हो वह स्त्रीधन है । देखो दायभाग अ४-१८.
'स्त्रीधनं यत्र भर्तृतःस्वातन्त्रेणदान विक्रय भोगान कर्तु मधिकारीति च स्त्रीणांस्वातन्त्रेण विनियोज्यं स्त्रीधनमित्यर्थः' दफा ७५३ स्त्रीधन क्या है
स्त्रीधन क्या है और वह कितने प्रकार का होता है इस विषय पर स्मृतियोंके बचन देखिये -
अध्यग्न्य ध्यावाहनिकं दत्तं च प्रीति कर्मणि भर्तृ मातृ पितृ प्राप्तं षड्विधं स्त्रीधनं स्मृतम् । मनु १-१६४
मनु ६ प्रकारका स्त्रीधन बताते हैं १ अध्यग्नि २ अध्यावाहनिक ३ प्रीति दत्त ४ भर्तृदत्त ५ मातृदत्त और ६ पितृदत्त । आगे दफा ७५५ में इनका विस्तारसे वर्णन किया गया है। विष्णु और नारदने भी माना है, देखो
पितु मातृ सुत भ्रातृ दत्तमध्यग्न्युपागतम् प्राधिवेदनिकं बन्धु दत्तं शुक्लान्वाध्येयकामिति । विष्णुः
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६०६
स्त्री-धन
[ तेरहवां प्रकरण
अध्यग्न्यध्यावाहनिकं भ्रातृ दायस्तथैव च तृमातृ पितृ प्राड्विधं स्त्रीधनं स्मृतम् । नारदः१३-८
कात्यायनने स्त्रीधन वैसाही माना है जैसाकि मनुने, याज्ञवल्क्यने कुछ फरकके साथ माना है, इसलिये भिन्न भिन्न स्कूलों में भिन्न भिन्न तरह का अर्थ करने से स्त्रीधन के रूप में फरक़ पड़गया - याज्ञवल्क्य के अनुसार स्त्रीधन वह है
पितृ मातृपतिभ्रातृ दत्तमध्यग्न्युपागतम् आधिवेदनिकाद्यं च स्त्रीधनं परिकीर्तितम् । बन्धुदत्तं तथा शुल्क मन्वाधेयकमेवच ।
( १ ) विवाहाग्नि के समय जो धन पिता, माता, पति और भाइयों से मिले ( २ ) आधिवेदनिक ( ३ ) बन्धुओंका दिया हुआ धन ( ४ ) शुल्क और ( ५ ) अन्वाधेय । इतने प्रकार के स्त्रीधन बताकर 'आद्यं च' का पद दिया है जिसका अर्थ है इत्यादि । मिताक्षरा में कहा है कि
-
आद्य शब्देन रिक्थकय संविभाग परिग्रहाधिगम प्रातमेतत् स्त्रीधनं मन्वादिभिरुक्तम् । स्त्रीधन शब्दश्च योगिको न पारिभाषिकः ।
मिताक्षरामें कहा गया है कि जो कुछ भी धन जायज़ तौरसे स्त्रीके कब्जे में हो वह सब स्त्रीधन है, देखो - (1903)301. A. 202-205, 25 All. 468-472; 7 C. W. N. 831; 5 Bom. L. R. 828; 24 Bom. 192; 19 Mad. 110-118.
शुल्क और अन्य प्रकारके स्त्रीधनकी वरासतके नियमों में मिताक्षराने कुछ भेद रखा है परन्तु स्त्रीधन उन्होंने भिन्न भिन्न प्रकारका नहीं माना । जो जायदाद किसी पुरुष या स्त्री से उत्तराधिकारमें मिली हो उन दोनों प्रकारकी जायदाद में कुछ भेद नहीं माना है, देखो - गांधी मगनलाल बनाम जादव 24 Bom. 192-217; 1 Bom. L. R. 574.
चाहे स्त्री विवाहिता हो या क्वारी जो कुछ भी धन उसको जायज़ तसे प्राप्त हुआ हो वह उसका स्त्रीधन है; देखो - मिताक्षरा -
'पित्रादि दत्तं विवाहात्पूर्व परतो वा '
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दफा ७५४-७५५]
स्त्रीधन क्या है
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मयूख-मयूख भी मिताक्षराकी भांति स्त्रीधनके भिन्न भिन्न प्रकारोंको नहीं मानता । पुरानी स्मृतियोंमें जितने प्रकारके स्त्रीधन बताये गये हैं उनके सिवाय मयखने केवल उत्तराधिकारके उद्देशसे और भी कई प्रकारके स्त्रीधन माने हैं। देखो-मनीलाल रेवादत्त बनाम रेवाबाई 17 Bom. 758-767; 8 Bom. H. C. O. C. 244-260.
प्राचीन धर्म शास्त्र-प्राचीन आचार्यों ने स्त्रीधन उस धनको माना है जो स्त्रीको विवाहके समय या विवाहके पश्चात् मिला हो। परन्तु स्त्रीधनके रूपका यह पूर्ण वर्णन नहीं हो सकता; क्यों कि वर्तमान समयमें लोगोंके आचार विचार और रसम रवाजमें बहुत परिवर्तन हो जानेसे स्त्रीको अपना पैदा किया हुआ धन प्राप्त करनेकी भी कुछ सूरतें निकल आयी हैं जैसे अपने उद्योगसे कोई काम करके या व्यापार आदिमें अपना रुपया लगाकर स्त्री कुछ धन प्राप्त कर सकती है और यह धन उसका स्त्रीधन हो सकता है। दफा ७५४ स्त्रीधनका बार सुबूत __अमुक जायदाद स्त्रीधन है या नहीं इस विषयमें बार सुबूत किसके ऊपर होगा इसका कोई खास नियम नहीं है। हां यदि कोई जायदाद जो स्त्री के कब्ज़ेमें न हो और स्त्री उसे अपना स्त्री धन बताये तो बार सुबूत अवश्य स्त्रीपर होगा देखो-रामविजय बहादुरसिंह बनाम इन्द्रपालसिंह 26 I. A. 226; 26 Cal. 871; 4 0. W. N. 1; 2 Bom. L. R. 1. नरायन बनाम कृष्णा 8 Mad. 214; 8 Cal. 545; 11 Cal. L. R. 41. और देखो मेन हिन्दूला 7 ed. P. 590.
विधवाकी जायदादका फायदा जायदादका इज़ाफ़ा समझा जाता है, जब तककि यह न साबित किया जायकि वह बतौर स्त्रीधनके काममें लाया गया है। विधवाको बानी लगानकी डिकरी मिलना इस प्रकारके स्त्रीधनका सुबूत नहीं है--पी० सुब्बम्मा वनाम एम वेंकटकृष्णा A. I. R. 1925 Mad.151. दफा ७५५ स्त्री धन कितने तरहका है
जिस जिस समय स्त्रीने धन प्राप्त किया हो उसीके अनुसार स्त्री धन के भिन्न मित्र प्रकार समझे जाते हैं । यौतक और अयोतक ऐसे दो प्रकारके स्त्री धन कहे गये हैं
(क) यौतक-वह धन है जो विवाहके समय मिला हो। (ख) अयौतक-वह धन है जो दूसरे किसी समय मिला हो-दाय
क्रम संग्रहः।
नीचे लिखी हुई रीतियोंसे स्त्रीको जोधन मिले उसीको शास्त्रों में स्त्रीधन कहा है।
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स्त्री-धन
[ तेरहवां प्रकरण
(१) विवाहके समय प्राप्त धन अर्थात् (यौतक ) इसमें निम्न लिखित दो प्रकार शामिल हैं। (क) अध्यग्निक- यह वह स्त्रीधन है जो ठीक विवाहाग्निके सन्मुख
मिले, देखोविवाहकाले यत् स्त्रीभ्यो दीयते ह्यग्निसन्निधौ तदभ्यग्नि कृतं सद्भिः स्त्रीधन परिकीर्तितम् । कात्यायनः विवाहकाले अग्नि सन्निधौयत् पित्रादिदत्तं तदध्यग्नि स्त्रीधनम् ।
मनु ६-१९४ कुल्लूकभट्टः और देखो-13 C. W. N. 994.
शादीके समय दान--शादीके समय पिता द्वारा प्रेमवश पुत्रीको दिया हुआ दान स्त्रीधन है--मु० जनका बनाम जेबू 93 I. C. 685. (ख) अध्यावाहनिक-यह वह स्त्रीधन है जो विवाहकी बारातके
समयमें स्त्रीको मिले या विवाह कृत्योंके अन्दर किसी समय मुख्य कृत्यके पहिले या पीछे लेकिन विवाहके उत्सवके अन्दर
मिले, देखोयत् पुनर्लभते नारी नीयमाता पितृगृहात् अध्यावाहनिक नाम स्त्रीधनं परिकीर्तितम् । कात्यायः
और देखो--16 W. R. C. R. 115. दहेज--जब कोई हिन्दू स्त्री दहेजकी जायदाद अपने पति और पुत्रियों को छोड़कर मरती है, तो पति उस जायदादका इन्तकाल वसीयत द्वारा नहीं कर सकता । जायदाद पुत्रियोंको मिलती है--घनश्यामदास नारायनदास बनाम सरस्वतीबाई 21 L. W. 415; ( 1925) M. W. N. 285; 87 1. C. 621; A. I. R. 1925 Mad. 861.
चढ़ायेके समयका जेवर-शादीके वक्तपर जो जेवर लड़कीके पिता को लड़कीके लिये दिया जाता है, स्त्रीधन नहीं है, और यदि शादीका मुआहिदा पूर्ण न हो तो उसकी वापिसीके लिये नालिशकी जासकती है-छेदीलाल बनाम जवाहिरलाल A. I. R. 1927 All. 160. .. जहांपर ऐसा प्रश्न उठे कि जो धन स्त्रीको अमुक रसममें दिया गया है यह रसम विधाहमें शामिलही नहीं है तो इस बातका फैसला उस जाति
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दफा ७५५]
स्त्रीधन क्या है
६०१
या ज़िलेकी रवाजके अनुसार होगा विस्टोप्रसाद बनाम राधासुन्दरनाथ 16 W. R.C. R. 115. .
दायभागके सिवाय और सबका यह मत है कि विवाहके समय रिश्ते. दारों या दूसरे आदमियोंसे जो धन मिला हो वह भी स्त्रीधनमें शामिल है, देखो-कोलक डाइजेस्ट Chap 3 P. 659-560
(२) शुल्क-अर्थात् वह द्रव्य जो लड़केवाला लड़कीवालेको लड़की के लिये देता है। पहिले यह द्रव्य लड़कीके मूल्यके तौरपर उसके पिताको दिया जाता था परन्तु जब यह पृथा बर्जित हुई तो पिता यह द्रव्य लड़कीके वास्ते लेता है और दहेजमें लड़कीको दे देता है इसलिये यह धन स्त्रीका स्त्रीधन हो जाता है; देखो
गृहोपस्करवात्यानां दोत्या भरण कर्मणाम् मूल्यं लब्धं तु यत् किंचिच्छुल्कं तत् परिकीर्तितम् । कात्यायन
और देखो घोष हिन्दुला 2 ed P. 314.
बीरमित्रोदयके अनुसार शुल्क वह है जो दुलहन या विवाहिता स्त्रीको उसके घरके असबाय, आभूषण, गाय बैल आदिके बदलेमें दिया जाता है।
मदनरत्नमें यह बतायागया है कि घरेलू सामान आदिके मूल्यके तौरपर वरपक्षसे जो धन लिया जाय और जिसके बदले में कन्याका विवाह किया जाय वह शुल्क है। मिताक्षराकार कहते हैं कि
'शुल्क यद्गृहीत्वाकन्यादीयते' शुल्क वह है जिसको लेकर कन्याका विवाह किया जाय परन्तु इन दोनों ग्रन्थों में जो कुछ कहा है उसका मतलब यही है कि पिता या ऐसा ही और कोई कुटुम्बी शुल्कके तौरपर जो द्रव्य लेता है वह इसलिये लेता है कि वह द्रव्य कन्याको दे दिया जाय, यदि ऐसा न होता तो शुल्कको स्त्रीधन माननेका कोई कारण न था।
ब्यास-कहते हैं कि वरके घर वधूके लाने के लिये जो धन दिया जाय वह शुल्क है। मनु शुल्ककी निन्दा करते हुये कहते हैं कि यदि ऐसा धन लिया जाय तो वह स्त्रीधन है।
श्राददीत न शूद्रोऽपि शुल्कं दुहितरं ददन् । शुल्कं हि गृह्णन्कुरुते छन्नं दुहितृविक्रयम् । मनुः ६.६८.
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[ तेरहवां प्रकरण
शास्त्रानभिज्ञा शूद्रोऽपि पुत्रीं ददच्छुल्कं न गृह्णीयात् किं पुनः शास्त्रविद् द्विजातिः यस्माच्छुल्कं गृह्णन्गुरुं दुहितृ विक्रयं कुरुते । कुल्लूकः
६१०
स्त्री-धन
शास्त्रका न जाननेवाला शूद्र भी लड़की देनेके लिये शुल्कको न ले और जो शास्त्र के जानने वाले द्विजाति तो ऐसा करी नहीं सकते। जिसने शुल्क लेकर कन्या दी उसने गुप्त रीति से मानो कन्याकी बिक्री की । मनु यह भी कहते हैं कि पहिले ज़माने में सभ्य समाजमें यह चाल नहीं थी और न इस ज़माने में है । शुल्ककी तौरपर जो धन पतिके पाससे लड़की का पिता या माता लेती है वह अपने पास रखनेके उद्देशसे नहीं लेती बक्लि उसे लड़की को लौटा देती है इसलिये वह धन स्त्रीधन है अगर लौटाया नहीं जाता तो स्त्रीधन नहीं होता ।
जी० सी० सरकारने अपने हिन्दूलॉके 3 ed. P. 365. में कहा है कि बङ्गाल और संयुक्त प्रान्तमें वरका मूल्य (ठहरौनी) की जो पृथा है उसमें मिला हुआ द्रव्य स्त्रीधन माना जाना चाहिये अर्थात् कन्या की तरफ से जो धन, लड़का व्याहने के बदले में ठहरौनी का जो धन है वह स्त्रीधन मानना चाहिये । मगर क़ानूनमें इसकी व्यवस्था नहीं की गयी है ।
(३) आधिवेदनिक - अर्थात् वह धन जो पति अपना दूसरा विवाह करनेके समय पहिली स्त्रीको हरजाने के तौरपर दे । देखो मिताक्षरा -
अधिवेदनिक अधिवेदन निमित्तम् अधिविन्न स्त्रियै दद्यादिति । तथा दायभागे - यच्च द्वितीय स्त्री विवाहार्थिना पूर्व स्त्रियै पारितोषिकं धनं दत्तं तदाधिवेदनिकन् अधिक स्त्रीलाभार्थत्वात्तस्य ।
( ४ ) अन्वाधेयक - अर्थात् वह धन जो किसी स्त्रीको विवाहके पश्चात् अपने या अपने पति के कुटुम्बियों से मिले, देखो मिताक्षरा
अन्वाधेयकं परिणय नादनुपश्चादाहितं दत्तम् उक्तंच कात्यायनेन विवाहात् परतोयच्च लब्धं भतृकुलात्स्त्रिया, अन्वाधेयं तद्रव्यं लब्ध पितृ कुलात्तथेति, स्त्रीधन परिकीर्तित मितिगतेन सम्बन्धः ।
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दफा ७५५]
स्त्रीधन क्या है
और देखो-वसन्त कुमारी देवी बनाम कामाक्षा कुमारी देवी 32 I. A. 181; 33 Cal. 25; 10 C. W. N. 1; 7 Bom. L. R. 904; रामगोपाल भट्टाचार्य बनाम नरायगबन्द्र बन्दोपाध्याय 33 Cal. 315; 10 C.W.N.510; 3 Bom. L. R.201; 28 Cal. 811; तथा मनुका वचन देखो ६ अ० १६५ श्लोक, व्यवहार मयूख और स्मृति चन्द्रिकाका मत है कि गहने स्त्रीकी केवल पहिनने के लिये दिये गये हों वह स्त्रीधन नहीं है।
(५) भरणपोषणके खर्चके लिये-या उसके बदले में जो जायदाद स्त्री को दी गयी हो वह स्त्रीधन है । देखो देवलका वचन--
वृत्तिराभरणं शुल्कं लाभश्च स्त्रीधनं भवेत् । बृत्तिः ग्रासाच्छादनावशिष्ठम् ।
देवल कहते हैं कि 'वृत्ति' भरणपोषणके लिये जोधन मिले वह स्त्रीधन है। दुर्गाकुंवर बनाम तेजोकुंवर 5 W. R. M. A. b31 Mad. 166; 28 Mad. 1.
परंतु यह माना गया है कि बटवारेके समय जो जायदाद स्त्री या विधवाको मिले वह स्त्रीधन नहीं है। किन्तु भरणपोषणके खर्चका मिलाहुआ रुपया या जायदादमें से जो दूसरी जायदाद खरीदी जाय वह भी स्त्रीधन है, देखो--सुब्रह्मण्यमन चट्टी बनाम अरुणनचेटम चट्ठी 28 Mad.15 16 W. R. C. R.76.
परवरिशसे बचतका धन स्त्रीधन है-स्त्री द्वारा उस परवरिशकी जायदादकी आमदनीसे, जो उसके पतिके हिस्सेदारसे प्राप्त हुई हो, उसकी बचत स्त्रीधन है। गिरिजाबाई बनाम बाबूलाल 93 I. C. 624.
(६) कारेपनका धन-विवाहके पहिले क्वारेपनमें जो जायदाद स्त्रीके कब्जेमें रहीहो चाहे वह किसीकी दानकी हुई हो या किसी तरहसे भी मिली हो स्त्रीधन है, देखो-जोधनाथ सरकार बनाम बसन्तकुमार राय चौधरी 11 B. L. R. 286; 19 W. R.C. R. 264.
(७) प्रीतिदत्त--अर्थात् पतिका दिया हुआ पुरस्कार चाहे वह स्था. वर हो या जंगम स्त्रीधन है । इस विषयमें नारद कहते हैं कि--
भर्ना पीतेन यदत्तं स्त्रियै तस्मिन् मृतेऽपितत् सा यथा काम मश्नीयात् दद्यादा स्थावरादृते । नारदः
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स्त्री-धन
हवां प्रकरण
भर्तृदत्त विशेषणात् भर्तृदत्तस्थावरादते अन्यत् स्थावरं देयमेव भवति अन्यथा यथेष्टं स्थावरेष्व पीति विरुध्येत्-दायभागे-अ० ४ ।।
नारदका कहना है कि स्थावर जायदादको छोड़कर पति सब कुछ दे सकता है । यही बात दायभागमें कही गयी है-श्रीकृष्णतर्कालङ्कारने दायभाग पर सुबोधिनी टीकामें स्पष्ट कह दिया है कि--
'स्थावर मात्रेदान निषेध इत्यर्थः'
मगर अब यह बात कानूनमें नहीं मानी जाती, देखो--2 Mad. 333; 8 Cal. LR. ४09; I Mad. 281; मु० वधा बनाम विश्वेश्वरदास 6 N. W. P. 279; जो गहने पतिने लेन देन (व्यापार ) के मतलबसे या इस उद्देश से कि उसकी स्त्री उन गहनोंको खास मौकोंपर पहिने तो वह स्त्रीधन नहीं है, देखो-सरकार हिन्दूला 3 ed. P. 365; 6 N. W. P. 279.
मिथिला स्कूल-पतिसे प्राप्तहुई भेट पतिकी रजामन्दी परभी काबिल वरासत है किन्तु क़ाबिले इन्तकाल नहीं, सिवाय आवश्यकताके । हितेन्द्रसिंह बनाम रामेश्वरसिंह 4 Pat. 510; 6 P. L. I. 634; 87 I. C. 849; 88 [. C. 142 (2); A. I. R. 1925 Pat. 625.
__ पत्नी और पुत्रीको आभूषणोंका दान । हरकिशनदास बनाम सुन्दरीबीबी A. I. R. 1926 Oudh 43.
स्त्रीधन प्राप्तिके अन्यमार्ग (८) वह धन जो भेंटोंके तौरपर कुटुम्बी या इष्टमित्र आदि विवाहके बाद स्त्रीको दे वह भी स्त्रीधन है । बीरमित्रोदय, दायभाग, और स्मृतिचन्द्रिका ने ऐसे धनको स्त्रीधन माना है परंतु उसपर पतिका अधिकार भी माना है, क्योंकि वह भेटे वास्तवमें पतिके लिये समझी गयी हैं। बनर्जीके हिन्दूला आफ मेरेज 2 ed. 275 में कहा है कि आम कायदा यही है कि स्त्रीको जो धन उसके कुटुम्बियोंसे मिले-और उसके गहने तथा कपड़े, और दूसरे लोगों से जो भेटे वैवाहिक अग्निके सामने मिले वही उसका स्त्रीधन है, दूसरे किसी समय जो कुछ भेटें आदि उसे दूसरे प्रादमियोंसे मिले या जो धन स्त्री अपनी मेहनत या बुद्धिसे कमाये वह स्त्रीधन नहीं है। ____ किसी हिन्दू द्वारा,अपनी स्त्री और पुत्रीको दिये हुये गहनों (आभूषणों) की भेंट स्त्रीधन है । हरकिशनदास बनाम सुन्दरीबीबी 89 I. C. 424.
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दफा ७५५]
स्त्रीधन क्या है
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(8) सरकारसे प्राप्तधन-सरकारी सनदसे जो जायदाद स्त्रीको मिले और उस पर उस स्त्रीका पूरा अधिकार हो वह स्त्रीधन है और वह जायदाद स्त्रीके वारिसोंको मिलेगी, देखो-ब्रजेन्द्र बहादुरसिंह बनाम जानकी कुंवर 5 I. A. 1; 1 C.L. R. 818.
बम्बई और मदरास प्रान्तमें इस तरहपर इनामकी जायदाद जो किसी विवाहिता स्त्रीको मिले वह भी स्त्रीधन है, देखो-सलेम्मा बनाम लछमना रेडी 21 Mad. 100.
(१०) खुद कमाया धन -जो धन स्त्रीने विवाहसे पहिले या पीछे अपनी दस्तकारी मेहनत और बुद्धिके द्वारा कमाया हो वह स्त्रीधन है, यह बात बनारस और महाराष्ट्र स्कूलमें मानी गयी है दूसरी जगह नहीं मानी जाती । मेकनाटन हिन्दूला 2 Vol. P. 241. में कहा है कि जो धन स्त्रीने दस्तकारी जैसे सीना, काढ़ना, चित्रकारी आदिसे पैदा कियाहो वह सब स्त्रीधन है । बनर्जी लॉ आफ मेरेज 2 ed. P. 309 भी देखो । बनारस और महाराष्ट स्कूल के सिवा दूसरे स्कूलों में कात्यायनकी बात मानी जाती है।
प्राझं शिल्पैस्तुयदित्तं प्रीत्याचैवयदन्यतः भर्नु स्वाम्यं भवेत्तत्र शेषं तु स्त्रीधनं स्मृतम् । कात्यायनः दायभाग कहता है कि
'अन्यत इति पितृ मातृ भर्तृ कुलव्यतिरिक्तात् यल्लब्धं शिल्पेन वा यदर्जितं तत्र भर्तुः स्वाम्यं स्वातन्त्र्यम् अनापद्यपि भर्ता गृहीतु मर्हति, तेन स्त्रियाअपिधनं न स्त्रीधन मस्वातन्त्र्यात्-दायभागः।
कात्यायन और दायभागका कहना है कि पति आपदकालमें स्त्रीसे वह सब धन ले जो उसने शिल्प आदिसे, या किसी दूसरे प्रकारसे प्राप्त किया हो लेसकता है, इससे वह स्त्रीधन नहीं है।
(११) उत्तराधिकार श्रादिका धन-मिताक्षर में 'श्राद्यच' इस पदके कहनेसे यह अर्थ है कि जो धन स्त्रीको वरासतमें या बटवारे में मिला हो या किसीका धन उसने ज़ब्त कर लिया हो या कहीं पड़ा मिला हो सब स्त्रीधन है। आगे कहा है कि यदि अन्य किसी तरहपर जो प्राप्त किया हो वह भी स्त्रीधन है, देखो-8 Bom H. C. O. C. 244-260. मगर यहां पर यह ध्यान रखना कि ऐसा धन स्त्रीधन नहीं माना जाता; इसमें सन्देह है।
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स्त्री-धन
[ तेरहवां प्रकरण
बीरमित्रोदय, स्त्रीधनकी व्याख्या इस प्रकार करते हैं कि जिस धन या जायदादकी मालिक स्त्री हो वही स्त्रीधन है परन्तु वरासतमें मिली हुई जायदाद स्त्रीधनमें शामिल नहीं मानी गयी। मगर बम्बई में वरासतसे मिली हुई जायदाद स्त्रीधन अवश्य मानी जायगी, देखो-भगवान द्विबे बनाम मीनाबाई 11 M. I. A. 487; 9 W. R. P C.23. ठाकुर देवी बनाम बालकराम 11 M. I. A. 139; 10 W. R. P. C. 4. ___ यद्यपि वरासत या बटवारासे मिली हुई जायदादपर बम्बई स्कूलके अलावा स्त्रीका पूरा अधिकार नहीं होता मगर उस जायदादकी आमदनीपर पूरा अधिकार होता है इसलिये सब स्कूलोंने यह माना है कि ऐसी जायदाद की आमदनी या उस आमदनीकी बचतसे दूसरी कोई खरीदी हुई अथवा रेहन रखी हुई जायदाद सब स्त्रीधन है। देखो-33 Cal. 315; 10 C.W.N.550.
(१२) अपने धनसे ली हुई जायदाद श्रादि--अपने रुपयासे जो जायदाद स्त्रीने खरीदी हो या अपने पूर्ण अधिकारमें आई हुई जायदादको बेचकर खरीदी हो या उसके बदले में दूसरी ली हो उसपर उस स्त्रीका पूर्ण अधिकार है और वह जायदाद चाहे स्थावर हो या जंगम, वसीयतनामाके द्वारा या दूसरी तरह जैसा उसका जी चाहे दे सकती है क्योंकि वह स्त्रीधन है देखो28 Mad. 1; 8 Cal. L. R. 304.
(१३) कब्ज़ा मुखालिफाना--यानी जो जायदाद बारह वर्षसे ज्यादा कब्जेमें रहने के कारण उस स्त्रीकी होगई हो उसपर उसका पूरा अधिकार है
और वह स्त्रीधन है। ऐसी जायदाद स्त्रीके वारिसोंको मिलेगी, देखो-श्याम कुंवर बनाम दाहकुंवर 29 I. A 132; 29 Cal. 664; 4 Bom. L. R. 547; 22 I. A.25%3 22 Cal. 445%; 25 All. 435% 23 All. 448;33 All. 312 10 Bom. L. R. 216; 23 Cal. 942; 2 C. W. N. 861.
(१४) सौदायिक-यह वह धन या जायदाद है जो स्त्रीको उसका पति या स्त्रीके कुटुम्बी या पतिके कुटुम्बी विवाहके पहिले या पीछे स्त्रीको दें या उसके नाम लिख जाये । इसमें यदि उसके पतिने कोई भूमि दी हो परंतु स्पष्ट यह न कहा हो कि उस भूमिपर उस स्त्रीका पूरा अधिकार है तो ऐसी भूमिके सिवाय और सब सौदायिक जायदाद या धन, स्त्रीधन है। सौदायिक जायदाद या उसके धनके बदले में जो जायदाद हासिलकी जाय वह भी स्त्रीधन है, देखो-वेंकट रामराव बनाम वेंकट सुरैय्याराव 2 Mad 333; 8 Cal. L. R 304.
हिन्दू स्त्री अपनी जिन्दगीमें जायदाद अलग करनेका जितना अधिकार रखती है; उसीके अनुसार अपने बाद भी वह अपने वस यतनामे के द्वारा काममें ला सकती है अर्थात् उसकी जिन्दगीमें जो सूरत थी मरने के बाद बदल नहीं जायगी। शास्त्रोंमें इसका वर्णन इस प्रकार है
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दफा ७५६]
स्त्रीधन क्या है
ऊढ़याकन्ययावापि पत्युः पितृगृहेथवा भर्तुः सकाशात् पित्रोर्वा लब्धं सौदायिकं स्मृतम् । सौदायिकं धनं प्राप्य स्त्रीणां स्वातन्त्र्य मिष्यते यस्यात्तदा नृश स्यार्थं तैर्दतं तत्पजीवनम् सौदायिक सदा स्त्रीणां स्वातन्त्र्य परिकीर्तितम् विक्रये चैव दानेच यथेष्टं स्थावरे ष्वपि । कात्ययनः सुदायसंबन्धिभ्यो लब्धं सौदायिकम् । दायभागे
विवाही हुई कन्याको पतिके घरपर या पिताके घरपर भाई या माता पितासे जो धन मिले वह सौदायिक है । इस धनपर स्त्रीका पूरा अधिकार होता है। वह चाहे ऐसे धनको बेच दे या दान करदे या जैसा जी में आवे करे। उसे कोई रोक नहीं सकता क्योंकि वह सब स्त्रीधन है। यही बात कानूनमें भी मानी गयी है, देखो-भाई या चाचाके पुत्रका दिया हुआ धन स्त्रीधन है-6 Beng. Sel. R. 77 (2 Ed. 90.). पुत्रका दिया हुआ धन स्त्रीधन है-दुर्गाकुंवर बनाम तेजकुंवर (1866) b W. R. M. B. 53. बाप का दिया हुआ धन स्त्रीधन है-मदवाराव्या बनाम तीर्थसामी 1 Mad.307. पतिका दिया हुआ धन स्त्रीधन है-जीवनपण्डा बनाम सोमा 1 N. W. P. "66; 10 W. R.C. R. 139; 2 Mad. 333; 8 Cal. L. R. 304, 6 N W. P. 279. भाईका दिया हुअाधन स्त्रीधन है-बसन्तकुमारीदेवी बनाम कामाक्षा देवी 32 I. A. 181; 33 Cal. 23; 10 C. W.N. 137 Bom L.R. 904. मुनिया बनाम पूरन 5 All. 310; i Cal. 275. इस कलकत्तेके केसमें पतिके बापकी बहनके लड़केने धन दिया था--30 Bom. 229; 7 Bom. L.R.936
जब पतिने हिवानामा या वसीयतके द्वारा धन दिया हो-दामोदर माधोजी बनाम परमानन्ददास जीवनदास 7 Bom. 165, 11 B.L.R. 286%; और जब बापने ऐसा धन दिया हो-19 W. R. O. R. 264.
जायदादका मौखिक दान-तहरीर द्वारा अधिकारकी प्राप्ति, देखोकानून मियाद आर्टिकल 144..3 0. W. N. 536. दफा ७५६ स्त्रीधनके खर्च करनेका अधिकार
क्वारेपनमें सिर्फ नाबालिगीके कारण जो अयोग्यता होती है उसके सिवाय और कोई रोक क्वारी स्त्रीके लिये अपना स्त्रीधन खर्च करने में नहीं है। अर्थात् क्वारेपनमें भी उसे स्त्रीधनपर पूरा अधिकार खर्च करनेका होता
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स्त्री-धन
[ तेरहवां प्रकरण
है। गार्डियनकी हैसियतसे उसके पिता श्रादि भलेही प्रबन्ध करें-मगर वे उसका अधिकार रोक नहीं सकते, देखो-बनर्जीका लॉ आफ मेरेज 2 ed. P. 314, 338. व्याहके बाद भी उसका ऐलाही अधिकार स्त्रीधनपर बना रहता है। दफा ७५७ स्थावर जायदादका दान
हिन्दू विल्स एक्ट जिन मामलोंसे लागू हो उनके सिवाय और सब मामलों में पति जो जायदाद गैर मनकूला अपनी स्त्रीको दानके तौरपर दे मगर स्पष्ट रूपसे यह न कहेकि उस जायदादपर स्त्रीको पूरा अधिकार दिया गया है तो उस जायदादमें स्त्रीका उतनाही अधिकार होता है जितनाकि विधवाका होता है; अर्थात् वह जायदाद स्त्रीधन नहीं समझी जायगी, देखो34 Bom 349; 12 Bom. L. R 157; 34 Bom. 2873 24 Cal. 6463 27 All. 364; 19 All. 133; I All. 734; 2 Agra 230; 27 Mad. 408, 30 All. 84; 10 All. 495; 30 Bom. 431; 4 Bom. L. R. 555.
। परन्तु अगर इसी तरहसे मनकूला जायदाद दीगयी हो तो यह शर्त लागू नहीं होगी; वह स्त्रीधन समझी जायगी, देखो-2 Mad. 333; 8 Cal. LR 304. और न उस जायदादसे लागू होगी जिसपर विधवाने अपने पति के कुटुम्बियोंसे समझौता करके जायदादपर पूरा अधिकार प्राप्त कर लिया हो; 31 Mad. 179. अगर अधिकार मिल गया हो तो उसमें इन्तकालका अधिकार भी समझा जायगा और विधवा उस जायदादको रेहन और बय और दान कर सकती है चाहे इन्तकालका अधिकार स्पष्ट न भी दिया गया हो, देखो-35 I. A. 17; 30 All. 84; 12 C. W. N. 231; 10 Bom. L. R. 59; 19 All. 133; 5 Cal. 684; 5 C. W. N. 300-303.
हिन्दू विल्स एक्ट के अनुसार गैर मनकूला जायदाद जो अपनी स्त्री की दीगयी हो वह स्त्रीधन समझी जायगी क्योंकि उसपर स्त्रीका पूरा अधिकार हो जाता है। दफा ७५८ अदालत क्या मानेगी
जब कोई हिन्दू पुरुष अपने कुटुम्बीकी किसी स्त्रीको कोई जायदाद घज़रिये वसीयत या दान पत्रके देता है तो उसमें यह ख्याल आमतौर से शामिल रहता है कि उस स्त्रीको उस जायदादके इन्तकालका अधिकार नहीं दिया गया है और अदालत हमेशा इस ख्यालको पहिले मानलेगी 19All.16; 31 Mad. 321; 11 All. 296; 11 Bom. 573; 24 Cal. 646. यह ध्यान रखना चाहिये कि हिन्दू विल्स एक्ट के ज़रियेसे गैर मनकूला जायदाद चाहे अपनी स्त्रीको भी दीजाय तो उससे यही समझा जायगा कि स्त्रीको पूराअधिकार दिया गया है, अदालत यह बात हमेशा मानेगी, परंतु यदि वसीयतनामे
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दफा ७५७-७६० ]
स्त्रीधन क्या है
में वह अधिकार सीमाबद्ध कर दिया गया हो तो दूसरी बात है, देखो-एक्ट नं० २१ सन् १८७० ई० की दफा २, और देखो इन्डियन सक्सेशन एक्ट ३६ सन् १९२५ ई०की दफा ६५; 24 Cal. 646; I C.W.N. 578; 83 Mad. 91. दफा ७५९ पतिके अधीन कौन जायदाद है। ____सौदायिक स्त्रीधन (दफा ७५५-१४ ) के सिवाय और सब स्त्रीधनके खर्च करने का अधिकार स्त्रीको अपने पतिकी मंजूरीके अधीन है। जब तक पतिकी रजामन्दी न हो स्त्री वसीयतके द्वारा भी उस जायदादको किसीको नहीं दे सकती, देखो-30 Bom.229; 7 Bom.L. R. 936, स्मतिचन्द्रिका का कहना है कि केवल सौदायिक स्त्रीधन परही स्त्रीका अधिकार स्वाधीन है और अन्य सब प्रकारकी जायदादपर चाहे वह स्त्रीधन भी हो उसे ऐसा अधिकार प्राप्त नहीं है। जो धन स्त्रीने अपनी दस्तकारी, या शारीरिक परि. श्रमसे या विद्याबुद्धिके द्वारा कमाया हो उसका खर्च करना पतिकी रजामन्दी के अधीन है, यानी पतिकी रजामन्दीके बिना स्त्री उस धन या जायदादका इन्तकाल नहीं करसकती और पति उसे अपने काममें लासकता है।
प्राप्तं शिल्पैस्तु यदित्तं प्रीत्याचैव यदन्यतः भर्तुः स्वाम्यं भवेत्तत्र शेषंतु स्त्रीधनं स्मृतम् । कात्यायनः
जो धन किसी दूसरे आदमीसे मिले या जो धन स्त्री शिल्पकारी या मौकरी आदिसे पैदा करे वह उसके पतिका होता है, इस लिये अगर पतिके जीतेजी स्त्री मरजाय तो वह धन पतिको मिलेगा और पतिके भरने के बाद उसके वारिसोंको। और अगर स्त्रीके जीतेजी पति मरजाय तो फिर वह स्त्री ऐसे धनकी पूरी मालिक हो जायगी और उस स्त्रीके मरनेपर उस धनके अधिकारी स्त्रीके वारिस होंगे, पति के वारिस नहीं। 36Cal.311; 36 I.A.1. दफा ७६० स्त्रीधनपर पतिका अधिकार
अत्यावश्यकता यानी आपत्तिकालमें ही पति स्त्रीकी रजामन्दीके बिना भी स्त्रीधनको अपने काममें लासकता है परन्तु और किसी समय नहीं, देखो महिमाचन्द्रराय बनाम दुर्गामनी 23 W. R.C. R. 184, तुकाराम बनाम गुनाजी 8 Bom. H. C A.C. 129; यही बात विवाद चिन्तामणि और व्यवहार मयूखमें मानी गयी है तथा स्मृतिचन्द्रिका ६-२-१४ देखो-6N W. P. 279; और 8 Bom. H. C. A. C. 129; में कहा गया है कि पतिके लेनदारोंको ऐसा अधिकार नहीं है।
आपत्तिकालमें पति जो स्त्रीधन लेले उसे वह पीछे अपनी दशा सुध. रनेपर अवश्य लौटादे -बनर्जीला आक मेरेज 2E3. P. 315-318; और देखो
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१८
[ तेरहवां प्रकरण
स्त्री-धन
दुर्भिक्षे धर्म कार्ये च व्याधौ संप्रतिरोधके
गृहीत स्त्रीधनं भर्ता न स्त्रियै दातुमर्हति । निताक्षरा २-१४७
दुर्भिक्षमें कुटुम्बके भरणपोषण के लिये, अत्यावश्यक धर्म कार्य के लिये, बीमारीके ख्रर्चके लिये और किसी ऐसे मुक़द्दमें के खर्च के लिये जिसमें क़ैद में जानेका भय हो पति बिना मरज़ी स्त्रीके, धन लेसकता है और फिर उसके लोटाने की ज़रूरत नहीं है । कात्यायन के कहने का मतलब यह है कि जब पति की दशा सुधर जावे तो वह ऐसे धनको स्त्रीको लौटा, बल्कि ब्याज सहित लौटा देना चाहिये । और देखो देवलका वचन -
पुत्रार्तिहरणो वापि स्त्रीधनं भोक्तुमर्हति ( परन्तु ) वृथा दाने च भागे च स्त्रियैदद्यात् स बृद्धिकम् । देवलः दफा ७६१ स्त्रीधनपर विधवाका अधिकार
विधवाको अपने स्त्रीधनपर जो वैसा धन यथार्थ में है सब तरहका पूर्ण अधिकार प्राप्त है बृजेन्द्र बहादुरसिंह बनाम जानकी कुंवर 5 I. A. 1; 1 Cal. L. R. 318; और उस जायदादपर जीवनभरका ही अधिकार रहेगा जो उसे उत्तराधिकारमें मिली हो या बटवारे में मिली हो । मगर बम्बई स्कूल में ऐसा नहीं होगा। वहां पूरा अधिकार ऐसी जायदाद में भी होगा । कुछ मुक़द्दमों में बम्बई स्कूल के अन्दर माना गया है कि स्थावर, जंगम दोनों क़िस्म की जायदाद विधवा स्त्रीधन होता है, देखो - रामकृष्ण हिन्दूलॉमें अच्छा विवेचन किया गया है ।
( २ ) स्त्री - धनकी वरासत
नोट - पुरुषकी वरासत के जो नियम हैं वह स्त्रीधनकी जायदाद की वरासत के नहीं हैं। स्त्रीधनका वारिस वही होगा जो स्त्रीके मरनेपर मौजूद हो । अर्थात स्त्रीके मरनेपरही उसकी जायदादका वारिस हो सकता है केवल पैदाइश से नहीं हो सकता, जब किसी पुरुष या स्त्रीको, स्त्रीधनमें हकु पैदा होता है तो वह हक़ पैद इशम़ प्राप्त नहीं होता जैसा कि हिन्दू मुश्तरका खानदान में मौरूसी जायदाद में पैदाइश से होता है | यदि किसी स्त्री के पास कुछ स्त्रीधनकी और कुछ वरासतसे पायी हुई जायदाद हो तो उसके मरनेपर स्त्रीधनकी जायदाद उस स्त्रीके वारिसको मिलेगी, वरासतकी जायदाद पिछले मर्द मालिक के वारिस को मिलेगी । यही फरक स्त्रीधन और वरासत के धनका है ।
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दफा ७६१-७६३]
स्त्री-धन की परासत
१३
दफा ७६२ स्त्रीधनकी वरासतका सिद्धान्त
___ स्त्रीको जायदाद या धन जिस जिस तरहसे प्राप्त हुआ हो उसीके अनुसार स्त्रीधनकी वरासत होती है। इस विषयमें भी कुछ शास्त्रोंके बचनोंका आधार लिया जाता है और रिश्तेदारीकी नज़दीकीका खयाल किया जाता है, कुछ हालतोंमें स्त्री वारिसोंको पहिले माना जाता है।
मिताक्षराने स्त्रीधनकी वरासतमें आत्मिक लाभका सिद्धान्त नहींमाना और बङ्गाल स्कूलमें भी दूरके रिश्तेदारों के लिये माना है, देखो-गंगाजती बनाम घसीटा 1 All. 46; 49, 50; दासी बनाम विनयकृष्णदेव 30 Cal. 521-527; स्त्रीधन चाहे किसी रूपमें बदल दिया गया हो उसकी वरासत स्त्रीधनके अनुसार होगी।
जब किसी स्त्रीका विवाह मान्य रीति पर होता है तो उसका स्त्रीधन उसके पति और सपिण्डोंको मिलता है और जब उसकी शादी अमान्य रीति पर होती है, तो स्त्रीधन स्त्रीके पिता और उसके सम्बन्धियों को मिलता है। किशनदेई बनाम शिवपल्टन L.R. 6 A.557; 90L.C. 358; 23 A.L.J.981.
बदचलनीसे वरासत नहीं रुकती-अगर कोई औरत स्त्रीधनकी वरा. सत पहुंबनेके वक्त बदचलन हो या फाइशा होगयीहो तो इस वजहसे उसको ऐसी वरासत की जायदाद मिलने में कोई रुकावट नहीं पड़ेगी, देखो-गंगा । बनाम घसीटा 1 All. 46; 30 Cal. 521; 26 Mad. 509 मुल्ला हिन्दला सन् १९२६ ई० पेज १३७ पैरा ११७.
बिन व्याही लड़कीके स्त्रीधनकी वरासतका क्रम ..
दफा ७६३ कारी स्त्रीका स्त्रीधन
कन्याके विषयमें बौधायनने कहा है किरिक्थं मृतायाः कान्यायाः गृह्णीयुः सोदरास्तदभावे मातुस्तदभावे पितुः।
कन्याके धनको भाई, माता पिता क्रमसे लेवें, 'रिक्थ' का यहां पर साधारण अर्थ जायदाद है। यह बात सर्व सम्मत है कि बिन व्याही स्त्रीको चाहे जिस तरहसे धन मिला हो सब स्त्रीधन है, सिवाय उत्तराधिकारकी या बटवारेकी जायदादके, मगर बम्बई प्रान्तमें ऐसी जायदादभी स्त्रीधन मानी गयी है, अन्यत्र नहीं ।
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स्त्री-धन
[तेरहवां प्रकरण
क़ानून में भी यही बात मानीगयी है और क्वारी स्त्री की जायदाद के विषय में भिन्न भिन्न स्कूलों में कुछ भेद नहीं है । इसकी वरासतका नियम निम्नलिखित है
१ - सगे भाई ।
२- माता ।
a-frar -2 Mad. L. J. 149; 19 Mad. 107-109. ४-कारी स्त्रीके बहुत नज़दीकी रिश्तेदार यानी बापके वारिस - देखो द्वारिकानाथराव बनाम शरदचन्द्रसिंह 15 C. W. M. 1036.
६२०
५- माता के नज़दीकी वारिस मुल्ला हिन्दूलॉ दफा 123 P. 113. arपके भाईके पुत्र होते चहन वारिस होती है । और नानी के होते बापकी माकी बहन वारिस होती देखो -- जंगलूवाई बनाम जेठा अप्पाजी मारवाड़ी 32 Bom. 409; 10 Bom 1. R. 522; गांधी मगनलाल बनाम जाधव 24 Bom. 192; दादीके विषयमें देखो 1 Bom. L. R. 574; 24 Bom. 192.
बम्बई -- मिताक्षरा और मयूखके अनुसार बम्बई स्कूलमें बापके सगोत्रज सपिण्डके होते बापकी बहन वारिस होती है, देखो --तुकाराम बनाम नरायन 14 Bom1. LR. 89.
बङ्गाल --बङ्गाल स्कूलमें मिताक्षराला जिस प्रकारसे माना जाता है उसके अनुसार चाचा के लड़के की मौजूदगी में बहन और बहनका लड़का वारिस होता है, देखो -- ( 1912 ) 39 Cal 319.
दफा ७६४ भावी वरकी दी हुई भेटें
सगाई के बाद और विवाह के पहिले यदि कारी स्त्री मरजाय तो वरको वह सब भेंटें वापिस दी जायेंगी जो उसकी तरफ से दी गयी हों और उन भेटों के सम्बन्धमें वरका या कुमारीके मा, बापका या वलीका जो कुछ खर्च पड़ा हो वह उन भेटोंमें से काट लिया जायगा । मिताक्षराकार कहते हैं कि
11
यच्चावाग्दान निमित्तं वरेण सम्बन्धिनां कन्यांसम्वन्धिनां वोपचारार्थं धनं व्ययीकृतं तत्सर्वं सोदयं सबृद्धिकं कन्यादाता बराय दद्यात् । मिताक्षरा
यदि वाग्दत्ता कन्या विवाह होनेसे पहिले मरजाय तो वरकी तरफसे जो धन दिया गया हो वह कन्या देनेवाला इस सम्बन्धमें जो खर्चा पड़ा हो उसे मुजरा लेकर बाक़ी धन पतिको लौटा दे। और जो धन इस बीच में कन्या
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दफा ७६४-७६५]
स्त्रीधन की घरासत
के मातापिता या दूसरे रिश्तेदारों के द्वारा उसे दिया गया हो वह कन्याके भाई माता, पिताको क्रमसे दिया जाय यानी उस धनकी वरासत कन्याकी जाय. दादकी तरहपर होगी । दायक्रमसंग्रह, स्मृतिचन्द्रिका, व्यवहार मयूखका भी यही मत है। और देखो--कोलककी डाइजेस्ट 3 P. 624; स्ट्रंज हिन्दूला 1 Vol. P. 38.
अगर वर न हो तो वह मेरे किसी दूसरेको नहीं दी जायेगी । बल्कि कन्याके वारिसोंको मिलेगी, देखो--व्यवस्थादर्पण २-७३३.
विवाहिता स्त्रीके स्त्रीधनकी वरासतका क्रम
सन्तानवाली स्त्रीकी जायदादकी वरासत
दफा ७६५ मिताक्षराके अनुसार स्त्रीधनकी वरासत
मिताक्षराला के अनुसार सन्तान वाली स्त्रीके स्त्रीधन या स्त्रीधनकी जायदादकी वरासत निम्न लिखित होगी-- . [१] शुल्क--ऐसा मालूम होता है कि शुल्कके वारिस पहिले सगे भाई और पीछे माता होती है,परन्तु अभी तक यह पूरे तौरसे निश्चय नहीं हुआ कि दोनों में से कौन पहिले वारिस होगा। इस विषयमें गौतमके एक श्लोकका अर्थ करने में मतभेद है, वह श्लोक यह है
मिताक्षरा और मयूख इस बचनका अर्थ इस प्रकार करते हैं-'वहनका शुल्क सगे भाइयोंको मिलेगा. उनकी मृत्युके पश्चात् मा को, वीरमित्रोदय, स्मृति चन्द्रिका, दायभाग और चिन्तामणि इसका अर्थ इस प्रकार करते हैं, 'बहनका शुल्क सगे भाइयोंको मिलेगा पश्चात् माके'। यहांपर 'ऊर्ध्व' पदमें झगड़ा है मिताक्षरा आदि पहिले कहे हुये आचार्यों का कहना है कि भाईके पश्चात् माताको, दूसरोका कहना है कि माताके पश्चात् भाइयोंको इसी विषय में सर गुरुदास बनर्जी कहते हैं कि मिताक्षराका भी यही अभिप्राय है क्योंकि वारिसोंमें सबसे पहिले भाइयोंका ही नाम लिया गया है। देखो हिन्दूला आफ मेरेज2 ed. P. 365. शास्त्री जी० सरकार और डाक्टर योगेन्द्रोनाथ भट्टाचार्यकी भी यही राय है, देखो-सरकारका हिन्दुला 2 ed. P.578. और देखो कनिंगका हिन्दूलॉ P. 119. कहा है कि यदि माता और भाई दोनोंही न हों तब शुल्कका वारिस कौन होगा इस प्रश्नपर शास्त्रोंमें कुछ नहीं कहा गया। ऐसी सूरत में वह धन अन्य स्त्रीधनके वादिलों को मिलेगा।
116
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३२२
स्त्री-धन
[ तेरहवां प्रकरण
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शुल्कका क्रम इस प्रकार है:- र (१) सगे भाई (२) मा (३) पिता (४) बापके वारिस यानी
बापके सपिण्ड, समामोदक, बन्धु । [२] यदि स्त्रीके सन्तान हो तो दूसरे प्रकारके स्त्रीधनकी वरासत निम्न लिखित होगी:
(१) कुमारी लड़की (२) विवाहिता लड़की जो गरीब हो या निः सन्तान हो (३) विवाहिता लड़की जो अमीर हो या सन्तान वाली हो । (४) बेटी की बेटी (५) लड़कीका लड़का (नेवासा दोहिता) (६) पुत्र (७) पौत्र (८) सौतेली स्त्री की बिन विवाहिता लड़कियां सिर्फ ऊंची जातोंमें।
नांचे प्रत्येककी व्याख्या देखोः(१) कुमारी लड़की-बनर्जी ने अपने लॉ आफ मेरेज 2 ed. P. 342 में कहा है कि-चाहे सगाई होगयी हो या नहीं, कुमारी लड़कियां हकदार होती हैं । ऐसी लड़कियों को बराबर हिस्सा मिलेगा।
(२) विवाहिता लड़की जो गरीब हो, देखो-दानू बनाम दखू 4All. 243. और जो निर्धन हो या निःसन्तान हो, देखो-मिताक्षरा और व्यवहार मयूख।
(३) विवाहिता लड़की जो खुशहाल हो चाहे उसके पुत्र हों या नहीं, देखो--विनोदकुमारी देवी बनाम प्रधान गोपालसाही 2 W. R. C. R. 176 177; 21 Mad. 58. और वीर मित्रोदय देखो।
निःसन्तान लड़की, खुशहाल लड़की, और गरीब लड़की इन तीनों के हकमें क्या मेद है इस विषयमं बनर्जी कहते हैं कि 'मेरे ख्यालमें विज्ञानेश्वर का अभिप्राय यह है कि गरीब लड़की चाहे उसके सन्तान हो या न हो खुशहाल लड़कीसे पहिला हक वरासत पानेका रखती है, चाहे उस खुशहाल लड़कीके कोई सन्तान हो या न हो। जब दोनों लड़कियां बराबरकी हालतमें हो तो निःसन्तान लड़कीका हक पहिले माना जायगा, और अगर दोनों लडकियां न्यूनाधिक गरीव हों तो उनके विषयमें कोई निश्चित नियम नहीं रखा जा सकता, अदालत दोनों की हालतोंपर विचार करके वरासतमें स्त्रीधन देगी देखो-बनर्जीका लॉ श्राफ मेरेज 2 ed. 342.
ऐसा माना गया है कि लड़कियों की गरीबीकी कमी या ज्यादतीके अनुसारही वरासतका फैसला होगा-पोली बनास नरोत्तम बापू 6 Bom. H. C. A.C. 183; 2 All.561.
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स्त्रीधन की बरासत
बम्बई हाईकोर्ट ने एक मुक़द्दमे में यह विचार्य्य विषय निकाला कि जब दो लड़कियोंमें एक विधवा हो, और दूसरी सधवा, तो क्या विधवाका हक़ केवल इसलिये अधिक माना जायगा कि वह विधवा होने की वजहसे गरीब है ? देखो - -2 Bom. H. C. 5; 6 Bom. H. C. A. C. 183.
दफा ७६५ ]
१२३
बनर्जी कहते हैं कि जब लड़कियों की दशा और सब तरहसे समान हो तो निःसन्तान और विधवा लड़कियोंका हक़ अधिक माना जायगा, देखोबनर्जीलॉ आफ मेरेज 2 ed. P. 343.
——
गरीब होने या न होनेका ख्याल केवल लड़कियोंकी वरासतके विषयमें ही किया जायगा । बहनों या दूसरी स्त्री वारिसोंके विषयमें ऐसा ख्याल विशेष कर बम्बई में नहीं किया जायगा -भागीरथीबाई बनाम बापा 6 Bom. 254. मदरासमें यह माना गया है कि स्त्रीधनकी वारिस होनेवाली कई लड़कियों में यदि एक मर जाय तो उसका हक़ दूसरी जीवित लड़कियोंमें माताकी वारिस की हैसियत से बट जाता है -3 Mad M. C. 312. इसपर बनर्जी आपत्ति करते हैं, देखो-लॉ आफ मेरेज 2 ed. P. 347.
जो लड़की वेश्या ( रण्डी ) होगयी हो उसका हक़ सब लड़कियोंके पीछे होगा; देखो - तारा बनाम कृष्णा 31 Bom. 495; 9 Bom. L. R.774. ( ४ ) बेटी की बेटी - सुब्रह्ममानियन चट्टी बनाम अरुणाचलमचट्टी 28 Mad. 1. और देखो मनु १-१६३ श्लोक -
यास्तासांस्युर्दुहितर स्तासमपियथार्हतः
मातामह्या धनात्किञ्चित्प्रदयं प्रीतिपूर्वकम् । मनुः
जब कई एक बेटीकी बेटियां हों तो वह सब आपसमें बराबर हिस्सा पावेंगी, यानी 'परस्टिरप्स' ( Per stirpes) देखो दफा ५५८.
( ५ ) लड़कीका लड़का - मिताक्षरा और व्यवहार - मयूखकी यही राय है, मगर बनर्जीके लॉ आफ मेरेज 2 ed. P. 356. में कहा गया है कि अगर लड़की ने कोई गोद लिया हो तो वह दत्तक पुत्र इसमें शामिल नहीं है ।
(६) पुत्र - करूपाई नाचियर बनाम शंकरनरायन चट्टी 27 Mad.300. बङ्गाल स्कूलमें लड़की के लड़केका हक़ पुत्रके पश्चात् माना गया है, देखो दफा ७७०. जहां पर कि पुत्र और दत्तक पुत्र दोनों हों वहांपर स्त्रीधन भी हफा २७० २७१, २८६. के क़ायदेके अनुसारही बटेगा । मिताक्षरामें कहा है कि
'दौहित्राणामभावे पुत्रा गृह्णाति'
यानी दौहित्र के अभावमें पुत्र स्त्रीधनके वारिस होंगे। मगर मिताक्षरामें 'पुत्राः' ऐसा शब्द कहा गया है इस शब्दसे पुत्रोंके पुत्र जिनका बाप मर गया
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१२४
स्त्री-धन
[ तेरहवां प्रकरण
हो यह अर्थ नहीं समझना। मदरास हाईकोर्ट ने यह माना कि स्त्रीधनके वारिसों में सरवाइवरशिपका हक़ नहीं होता, चाहे वह सुश्तरका सान्दानके भी मेम्बर हों 27 Mad. 300. मगर यह ध्यान रहे कि मदरासमें मिताक्षरा जिस तरह पर माना जाता है उसके अनुसार मुश्तरका खान्दान जो काबिज़ शरीक (Te:nant in Conymon ) हो जिसमें दूसरे दूरके आदमी भी शरीक हो सकते हैं उनके बीच में सरवाइवरशिपका हक रहता है, देखो-29 I A. 156; 25 Mad. 678; 7 C. W. N. 1-8; 4 130m. L. R. 657; 9M. I. A. 643.
(७) पुत्रका पुत्र ( पौत्र)-अर्थात् भिन्न भिन्न पुत्रोंके पुत्र-पर स्टिरिप्ल' ( Per stiryes ) हिस्सा लेंगे 'पर केपिटा' : Per Capita) नहीं ( देखो दफा ५५८) अगर किसी लड़केका दत्तक पुत्र हो, तो उसे उतनाही हिसला मिलेगा जितना कि उसके दत्तक पिताको मिलता अगर वह जीवत होता देखो--4 Cal. 425; 3 C. L. R. H34.
(८) ऊंची जातियों में सौतेली स्त्रीकी बिनविवाहिता लड़की-देखो घारपुरे हिन्दूलाँ 2 od P. 268 देखो मिताक्षरा २-१४५.
अनपत्य हीनजाति स्त्रीधनंतुभिन्नोदरा प्युत्तमजातीय सपत्नीदुहितागृह्णाति ।
संतान रहित हीन जातिके स्त्रीधनको भिन्नोदर और उत्तम जातिमें सौतेली स्त्रीकी लड़की ले।
[३] बिना संतान वाली स्त्रीके स्त्रीधनकी बरासतका क्रम निम्न लिखित होता हैः--
(१) पति (२) सौतेला पुत्र ( ३ ) सौतेला पौत्र ( ४ ) सौतेला परपोता (पौत्रका पुत्र ) (५) दूसरी स्त्री (६) सौतेली बेटी (७) सौतेली बेटीका पुत्र (८) पति की माता (६) पतिका बाए (१०) पतिके भाई. (११) पतिके भाई के पुत्र । (१२) पति के दूसरे गोत्रज सपिण्ड, पोछे समा. नोदक और बन्धु ।
जिस ढंग से स्त्रीका विवाह हुआ हो उसीपर उसकी जायदादकी वरासतका कायदा निर्भर है।
ब्राह्मविवाह --अगर स्त्रीका विवाह ब्राह्मरीतिसे हुआ हो तो स्त्रीकी जायदाद पतिको मिलती है, देखो --भाऊ बनाम रधुनाथ 30 Bom. 229; 7 Bom. L. R. 936; भीमाचार्य बनाम रामाचार्य 33 Bom. 452, 11 Bom. 654; उसके बाद मर्दो की वरासत के क्रमानुसार पतिके सपिण्ड आदिकोंको स्त्री धन मिलता है, देखो--25 Cal. 364; 8 All. 393.
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दफा ७६५ ]
स्त्रीधन की वरासत
अदालत पहिले ऐसा मान लेगी कि उस स्त्रीका विवाह ब्राह्मरीति से हुआ है और यही बात प्रतिष्ठित घरानेके शूद्रों के विषयमें भी मानेगी; देखो जगन्नाथप्रसाद गुप्त बनाम रनजीतसिंह 25 Cal. 354; 32 Mad. 512; यही कायदा मूसाहाजी बनाम अबदुल रहीम हाजी 30 Bum. 197 में लागू किया गया था । उत्तम घराने के विषय में, देखो - जगन्नाथ रघुनाथ बनाम नारायन 34 Bom. 553; 12 Bom. L. R. 545.
६२५
पति के पश्चात् वरासतके क्रमके विषय में कुछ मतभेद है- सर जी० डी० बनर्जी मिताक्षराका वह अर्थ मानते हैं जो कमलाकर भट्टने किया है। उसके अनुसार ( १ ) पतिके वाद ( २ ) सौतेला पुत्र वारिस होता है, देखो - 33 Mad. 138; और देखो मे नहिन्दूलॉ 7 El. P. 895. उसके बाद । (३) सौतेला पौत्र - ( ४ ) सौतेला प्रपौत्र, देखो - गोजाबाई बनाम शाहाजीराव मोलोजी राजे भोंसले 17 Bom 114; उसके पश्चात् ( ५ ) दूसरी स्त्री; देखो - केशरबाई बनाम हंसराज मुरारजी 33 I. A. 176; 30 Bam. 431; 10 C. W. N. 802; 8 B L. R. 446; पति के भाई के या पतिके भाईके पुत्र के होते दूसरी स्त्री वारिस मानी गयी कृष्णाबाई बनाम श्रीपति 30 Bom. 333; 8 Bom. LR. 12; ( ६ ) सौतेली बेटी - सर जी० डी० बनर्जी लॉ आफ मेरेज 2 Ed. 388. में कहते हैं कि सौतेली बेटी के पुत्र से पहिले सौतेली बेटीका हक़ है, पीछे ( ७ ) सौतेली बेटीका पुत्र - (८) पतिकी माता, ( ) पतिका बाप, ( १० ) पति के भाई क्रमसे वारिस होते हैं - यह माना गया है कि सगेके बाद सौतेले वारिस होते हैं, देखो - 30 Bom. 607; उसके बाद (११) पतिके भाई के पुत्र देखो - बच्चाझा बनाम जगमनझा 12 Cal. 348; यह केस मिथिला स्कूलका है । इसके बाद ( १२ ) पति के दूसरे गोत्रज सपिण्ड, पीछे समानोंउसके पीछे बन्धु स्त्रीधनके वारिस होते हैं ।
दक,
पतिकी बहनके पुत्रोंके होते, पति के प्रपितामहके प्रपौत्र और उस स्त्री की सगी बहन के पुत्र वारिस नहीं हो सकेंगे, देखो - 24 Cal. 344. ( मिथिला ) 28 All 345. पतिके भाईकी लड़की का लड़का, बहनकी लड़की के लड़केसे पहिले वारिस होगा 21 Mad. 263.
चम्पत बनाम शिब्बा 8 All 393 में पतिका दूरका सपिण्ड वारिस माना गया है। यहां तक ब्राह्म विवाहके अनुसार कहा गया । आगे असुर विवाह देखो ( दफा ४०-४१ )
आसुर विवाह - अगर विवाह आसुर रीतिसे या किसी स्थानिक या खास रीति से हुआ हो तो निःसन्तान स्त्रीका स्त्रीधन उसके मरनेके बाद निम्नलिखित क्रमसे मिलता है
( १ ) माता ( २ ) पिता ( ३ ) बापके वारिस (४) माताके वारिस |
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स्त्री-धन
[तेरहवां प्रकरण
यानी पहिले माताको, फिर पिताको, और पीछे पिताके बादके वारिसको मिलता है। यदि पिताके बादका वारिस न हो तो माताके बादके वारिसको मिलेगा, देखो.-8 Bom. H. C.O. C 244; माना गया है कि बापकी बहनके होते माका भाई पारिस नहीं होता।
नोट-मिताक्षराके अनुसार स्त्रीधनकी वरासतका क्रम ऊपर बताया गया है-'शुल्क' प्रायः सभी स्कूलों में मिताक्षराके अनुसार ही माना गया है मगर दूसरे किस्मके स्त्रीधनमें मतभेद है इस लिये हम भिन्न भिन्न स्कूलों के अनुसार धिनकी वरासतका वर्णन आगे करते हैं ।
स्कूलोंके अनुसार स्त्रीधनकी वरासत
दफा ७६६ बनारस स्कूल
बनारस स्कूलमें जैसा कि मिताक्षराका अर्थ स्पष्ट माना जाता है उसके अनुसार स्त्रीधनकी वरासत होती है, देखो-दफा ७६५. दफा ७६७ मिथिला स्कूल
मिथिला स्कूलके अनुसार संतानवाली विवाहिता स्त्रीके स्त्रीधनकी घरासत इस प्रकार होती है--
(१) शुल्क-शुल्ककी वरासत मिताक्षराके अनुसार होती है, देखोदफा ७६५.
(२) विवाहके समयकी भेटें--(परिनैय्या) जिसमें घरका असबाब, शीशा कंघी इत्यादि शामिल हैं, लड़कियोंको मिलता है। उनके न होने पर स्त्रीके पुत्रोंको जैसा कि मिताक्षरामें कहा गया है, देखो-दफा ७६५.
१-वारी लड़की। २--व्याही गरीब या संतानरहित लड़की। ३-व्याही खुशहाल या संतानवाली लड़की। ४--बेटीकी बेटी। ५--बेटीका बेटा इत्यादि।
ऐसा मालूम होता है कि यह नियम सब प्रकारसे 'यौतक' स्त्रीधन (दफा ७५५ ) से लागू होता है कमसे कम ब्राह्म विवाहकी रीतिसे व्याहीहुई स्त्रीके मामलोंसे अवश्य लागू होगा।
(३) दूसरे प्रकारके स्त्रीधन- दूसरी तरहके स्त्रीधनके वारिस पुत्र और कुमारी लड़कियां मिलकर समान भाग लेती हैं और गरीब लड़कियां भी
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दफा ७६६-७६८]
स्त्रीधन की बरासत
१२७
कुमारी लड़कियोंकी हैसियतसे वारिस होती है, यानी कुमारीके साथ स्नाथ वह भी भाग लेती हैं । लड़कियां न हों तो पुत्र वारिस होते हैं।
विवाद चिन्तामणिके अनुसार पुत्रोंके पहिले लड़कीकी लड़कियां और लड़कीके पुत्र वारिस होते हैं अर्थात् पुत्र, लड़कीके पीछे वारिस होगा।
(४) निःसंतान स्त्री-निःसंतान स्त्रीके स्त्रीधनकी वरासत मिताक्षराके अनुसार होती है देखो दफा ७६५ और देखो बच्चाझा बनाम जगमनझा 12 Cal. 343; केसरबाई बनाम हंसराज मुरारजी 33 I. A. 176, 30 Bom. 431; 10 C. W. N. 802; 21 Cal. 344; मदनपारिजातके अनुसार पतिकी दूसरी स्त्रीकी लड़की या दूसरी स्त्रीकी लड़कीका लड़का वारिस होता है। मिथिला स्कूलमें सौतेली बहनके लड़के वारिस होते हैं, देखो-2 Ben. Sel. R. 23-27.
(५) कृत्रिमदत्तक--यदि स्त्रीने कृत्रिमरीतिसे दत्तक लिया हो तो वह पुत्र उसके स्त्रीधनका वारिस होता है। कृत्रिमदत्तक देखो दफा ३०५से ३११. दफा ७६८ बम्बई स्कूल
बम्बई, द्वीप, गुजरात और उत्तरीय कोकनमें मयूख प्रधान रूपसे माना जाता है, देखो दफा २३-३ मगर बम्बई प्रान्तके दूसरे भागों में जैसे महाराष्ट्र देश, दक्षिणीय कोकन और उत्तरीय कनारा आदिमें मिताक्षराकी प्रधानता है। मतलब यह है कि जहांपर मयूख माना जाता है वहांपर उसके अनुसार और जहांहर मिताक्षरा माना जाता है वहांपर उसके अनुसार स्त्रीधनकी वरासत होगी। नीचे मयूखलॉके अनुसार स्त्रीधमकी वरासतका वर्णन किया गया है:
- पितासे वरासतमें प्राप्त हुई जायदाद-बरार, बम्बई और बरारमें, जहां कि स्त्री अपने पिताकी जायदाद वरासत से प्राप्त करती है, वहां उसका जायदादपर पूर्ण अधिकार होता है और उसकी मृत्युके पश्चात् वह जायदाद उसकी पुत्रीको बमुकाबिले उसके पुत्रके मिलती है। कृष्ण बनाम बायाजी 87 I. C. 1010; A. I. R. 1925 Nag. 342. मयूखके अनुसार स्त्रीधनकी वरासत इस प्रकार होती है
(१) शुल्क-शुल्ककी वरासत मिताक्षराके अनुसार होती है देखो दफा ७६५.
(२) अन्वाध्येयिक स्त्रीधन--अन्वाध्येयिक स्त्रीधन और प्रीतिदत्त स्त्रीधनके वारिस पुत्र और लड़कियां दोनों साथमें समान भाग लेते हैं । यदि कारी लड़कियां न हों तो पुत्र और विवाहिता लड़कियां उसी तरह पर लेती
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स्त्री-धन
[ तेरहवां प्रकरण
हैं, देखो--दयाल दास लाल दास बनाम सावित्री बाई 34 Bom. 385; 12 Bom. LL. R. 386; सीताबाई बनाम वसन्तराव 3 Bom. L. R. 201; 9 Bom. 115.
यदि पुत्र और लड़कियां न हों तो पहिले लड़कियों की संतान पीछे पुत्र की संतान होती है । अपना दूसरा विवाह करने के समय पति जो धन हरजानेके तौरपर पहिली स्त्रीको दे उसकी वरासतका कायदा भी यही है, अर्थात् लड़कियों के होते पुत्र वारिस नहीं होंगे।
(३) यौतक स्त्रीधन-यौतक स्त्रीधन सबले पहिले कुमारी लड़कियों को मिलता है इसके पश्चात् बराललका का संभवतः मिताक्षराका है परन्तु ऐसा कहा गया है कि आसुर विवाह के समय रिश्तेदार जो कुछ धन दें वह दूसरे रिश्तेदारोंके न रहने की सूरत में उसके घुमको मिलेगा।
(४) भर्तृदत्त स्त्रीधन-जो पतिने प्रसन्नतासे या दानमें दिया हो और अन्वाध्येयिक स्त्रीधन नीचेके क्रमके अनुसार मिलेगा।
१ -- लड़के और कारी लड़कियां दोनों साथ साथ आपसमें बराबर
हिस्सा पावेंगे, देखो--34 Bom. 385; अगर कारी न हों तो२-लड़के और ब्याही हुई लड़कियां दोनों आपसमें बराबर हिस्सा
पावेगी जब लड़के और लड़कियां न हों तो३ - लड़की की लड़की, और लड़की के लड़के साथ में बराबर
पावेंगे-पीछे ४-पौत्र ५-ऊपरके वारिसोंके न होनेपर(क) अगर ब्राह्मविवाह हुआ हो और कोई संतान न हो तो शुल्कके
सिवाय सव स्त्रीधन उसके पतिको मिलेगा उसके न होनेपर
पतिके वारिसोंको। (ख) अगर आसुर विवाह आदि कोई विवाह हुआ हो तो पहले
माता उसके बाद स्त्रीका बाप उसके बाद स्त्रीके बापके वारिस
पावेगे। (५) दूसरे प्रकारके स्त्रीधन-दूसरे प्रकारके स्त्रीधनकी बरासत इस
प्रकार होगी--(१) पुत्र ( २ ) पौत्र (३) प्रपौत्र (४) बेटियां (५) बेटीका बेटा (६) बेटी की बेटी (७) इनके न होनेपर
'भर्तृ दत्त स्त्रीधन' का क्रम माना जाता है। दूसरे प्रकारसे जो स्त्रीधन प्राप्त हुआ हो वह लड़कियोंके होते भी, पुत्र, पौत्र और प्रपौत्रको मिलेगा-देखोनीलाल रेवादत्त वनाम रेवाबाई
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दफा ७६८]
स्त्रीधन की बरासत
१२६
17 Bom. 759; 8 Bom. H. C. 0.C. 244, 260; उनके बाद लड़कियों और उनकी संतानको मिलेगा।
बम्बई प्रांतके अन्तर्गत गुजरात, उत्तरीय कोकन और बम्बई द्वीप में जहां मयूख का प्राधान्य है उत्तराधिकार में मिली हुई जिस किसी जायदाद पर स्त्री का पूर्ण, अधिकार हो उसकी वरासत का क्रम भी ऊपर लिखे अनुसार होगा, देखो-8 Bom. H. C. O. C. 244-260; 11 Bom. 285; गांधी मगनलाल बनाम मोतीचन्द 24 Bom. 192. 31 Bom. 45379 Bom. L. R. 834.
बम्बई प्रान्तके उन भागोंमें जहां मिताक्षराप्रधान है जैसे महाराष्ट्र देश दक्षिणीय कोकन और उत्तरीय कनारामें उत्तराधिकारसे मिले हुये जिस धन पर स्त्रीका पूरा अधिकार होता है वह धन उसके पुत्रोंको नहीं, बक्लि लड़कियों को मिलता हैं. देखो-जानकीबाई बनाम सुन्दर 14Bom.612; 81 Bom; 453; यानी इस प्रकार
(१)कारी लड़की (२) व्याही लड़की जो गरीब हो या संतानरहित हो (३) व्याही लड़की जो आसूदा हो या संतान वाली हो (४) बेटीकी बेटी और बेटीका बेटा (५) पुत्र (६) पौत्र (७) ऊपरके वारिस न होने पर 'भर्तृदत्त' धनकी तरह पावेंगे।
निःसन्तान स्त्रीके स्त्रीधनकी वरासत (६) निःसन्तान स्त्रीके स्त्रीधनकी वरासत--जिस रीतिसे स्त्रीका विवाह हुआ हो उसीपर उसके स्त्रीधनकी वरासत निर्भर है।
(क) ब्राह्म विवाह यदि ब्राह्म रीतिसे विवाह हुआ हो और स्त्रीके कोई सन्तान न हो तो उसके स्त्रीधनका पति वारिस होता है, देखो--जगन्नाथ रघुनाथ बनाम नारायण 34 Bom. b53; 12 Bom. L. R. 545. और यदि पति न हो तो पतिके सपिण्ड उत्तराधिकारके क्रमानुसार वारिस होंगे, देखो--केसरबाई बनाम हंसराज मुरारजी 33 I. A. 176. 197330 Bom. 431; 10 C. W. N.802;8 Bom L. R. 446; बच्चूझा बनाम जगमनझा 12Cal.348;12Bom. 505. यह राय मानी दत्त रेवादत्त बनाम रेवाबाई 17 Bom. 758 to 765 के अनुसार है जिसमें कहा गया कि अपने सन्तानके वारिल होने की बात छोड़ कर मयूखलॉके अनुसार भिन्न भिन्न प्रकारके स्त्रीधन की वरालतमें कुछ भेद नहीं है । स्त्रीको वरासतमें मिली हुई जायदादके विषयमें पहिलेके मुक
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स्त्री-धन
[ तेरहवां प्रकरण
हमें यह माना गया था कि विवाह चाहे किसी रीतिका हो स्त्रीके जायदाद की वरासत स्त्रीके मरने पर इस तरहपर होती है कि मानों वह स्त्री मर्द थी और अपने पिता के एक मात्र पुत्रके तौर पर भी, देखो -- 12 Bom. 505; 9 Bom. 301; 8 Bom H. C. O. C. 244.
अपने पति की दूसरी विधवा और अपने पति के भतीजे के होते पतिका पुत्र ( दूसरी स्त्रीसे) वारिस होगा, देखो - गोजाबाई बनाम सहाजीराव मलोजी बानी भोसले श्रीमंत 17 Bom. 114 और पति के भाईके पुत्रके पहिले पति का भाई वारिस होगा 7 Bom L. R. 622.
पतिके भाई या भाईके पुत्रके पहिले, पतिकी दूसरी विधवा वारिस होगी देखो - केसरबाई बनाम हंसराज 33 I. A. 176; और 30 Bom, 431; 10 C. W. N. 802.
त्रीकी मरी हुई लड़की की लड़कीके पहिले, पति के पुत्रकी स्त्री वारिस होती है- नर्बदा बनाम भगवन्तराय 12 Bom. 50; सौतेली लड़की का लड़का विधवाका वारिस होता है ।
मिताक्षराके अनुसार मयूखमें भी पति के सातवीं डिगरी तकके सर्पिण्ड वारिस होते हैं । इस बातका प्रमाण भी मौजूद है कि बेटीका पौत्र और पति की बहन भी वारिस होती है । समानोदक भी वारिस होते हैं, यह वात
निश्वत है; लेकिन सर जी० डी० बनर्जी की राय है कि वह होंगे, अगर पति के रिश्तेदार न हों तो उस स्त्रीके अपने रिश्तेदार वारिस होंगे। यह राय मि० बेस्ट और बुहलरकी भी हैं । बनर्जी इस रायसे सहमत हैं परन्तु यह स्पष्ट नहीं हुआ कि स्त्रीके रिश्तेदार पति के समानोदकों से पहिले वारिस होंगे या पीछे, देखो - बनर्जीलॉ आफ मेरेज P. 378.
माके भाई के होते बापकी बहन और वापकी बहन के पौत्रके होते बाप की बहनका पुत्र वारिस होगा, देखो 9 Bom. 301; ब्राह्म विवाह के अनुसार स्त्रीधनकी वरासत इस प्रकार है:
-
( १ ) पति, पतिके न होनेपर पतिके सपिण्ड ( २ ) पतिका पुत्र ( दूसरी स्त्री ) ( ३ ) पति की दूसरी विधवा ( ४ ) पतिका भाई ( ५ ) पति के भाई का पुत्र ( ६ ) पति पुत्रकी स्त्री ( ७ ) स्त्रीकी मरी हुई लड़की की लड़की (८) सौतेली लड़की का लड़का (६) सौतेली लड़की का पौत्र ( १० ) पति की बहन (११) स्त्री के बापकी बहन ( १२ ) स्त्रीकी माका भाई ( १३ ) स्त्रीके बापकी बहनका पुत्र । ( १४ ) स्त्रीके बापकी बहनका पौत्र ।
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दफा ७६६]
स्त्रीधन की वरासत
(ख) आसुर विवाह अगर स्त्रीका विवाह आसुर या किसी स्थानिक या खाज रीतिसे हुआ हो तो उसका स्त्रीधन पहिले उसकी माताको उसके बाद पतिको और यदि वे दोनों न हों तो उसके पिताके सपिण्डोंको मिलता है, देखो-केसरबाई बनाम हंसराज 33 I. A. 176; 30 Bom. 431, 10C. W. N. 8023 8 Bom. L. R. 446. दफा ७६९ मदरास स्कूल
मदरास स्कूल में स्मृतिचन्द्रिका सर्वोपरि माना जाता है, उसके साथ साथ पराशर माधव । इन ग्रन्थोंके अलावा सरस्वतीबिलास और व्यवहार निर्णय भी माना जाता है देखो दफा २३-४ । स्मृतिचन्द्रिकाने 'स्त्रीधम' शब्द को पारिभाषिक माना है। किसी रिश्तेदारने या किसी दूसरे आदमीने किसी भी समयमें जो कुछ धन स्त्रीको दियाहो और विवाहाग्निके समय तथा परात के उत्सवमें जो कुछ धन मिला हो सब स्त्रीधन है स्त्रीधन चार किस्मका माना गया है (१) शुल्क, (२) यौतक, (३) भर्तृदत्त और अन्वाधेय (४) दूसरे प्रकार के स्त्रीधन ।
स्मृति चन्द्रिकाके अनुसार विवाहित स्त्रीके स्त्रीधनकी बरामत इस प्रकार होती है:___(१) शुल्क-माके होते सगे भाइयों को मिलता है शेष मिताक्षराके अनुसार देखो दफा ७६५. . (२) यौतक-यौतक स्त्रीधन पहिले क्वारी लड़कियोंको मिलता है उसके पश्चात् मिताक्षराके अनुसार क्रम चलता है देखो दफा ७६५.
(३) भर्तदत्त और अन्वाध्येयिक-अन्वाध्येयिक और भर्तृवत्त स्त्रीधन की घरासत मयूखके अनुसार होती है मेद सिर्फ यह है कि विधवा लड़कियां ऐसे धनकी वारिस नहीं होती, और गोत्रज सपिण्डोंकी विधवाओंका भी वैसा कोई हक नहीं होता जैसाकि बम्बई में होता है, देखो-थाया अम्मल बनाम अन्नामालाई मुदाली 19 Mad. 35. बंडमसेठा बनाम बंडंमहालक्ष्मी 4 Mad. H. C. 180.
(४) दुसरे प्रकारके स्त्रीधन-दूसरी तरहके जो स्त्रीधन हैं वह पहिले क्वारी लड़कियोंको और उन लड़कियोंको जो गरीब हो साथमें बराबर मिलता है उसके पश्चात मिताक्षराके अनुसार वरासत होगी।
मदरासमें गोत्रज सपिण्डोंकी विधवायें वारिस नहीं होती इसलिये न तो भाईकी विधवा और न पुत्रकी स्त्री वारिस हो सकती है, देखो-19Mad. 35; 4 Mad. H. C. 180.
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૩૨
स्त्री-धन
[ तेरहवां प्रकरण
दूसरे प्रकारके स्त्रीधनकी वरासतका क्रम यह है:
(१) क्वारी लड़कियां और गरीब व्याही लड़कियां बराबर पायेंगी। (२) व्याही लड़कियां जो अमीर हों (३) बेटीकी बेटी (४) बेटीका बेटा (५) पुत्र (६) पौत्र इत्यादि । दफा ७७० बंगाल स्कूल
बङ्गाल स्कूलमें जीमूतवाहन कृत दायभागका प्रभुत्व सर्वोपरि माना जाता है। देखो दफा २३-५ इस स्कूलमें शुल्कके सिवाय सन्तानवाली वि. हिता स्त्रीके स्त्रीधनकी वरासत निम्नलिखित होती है(१) शुल्क-शुल्ककी वरासत मिताक्षराके अनुसार होगी, देखो
दफा ७६५. (२) यौतक स्त्रीधन-यौतक स्त्रीधनकी वरासतका क्रम यह है-- १-वह लड़कियां जिनकी सगाई न हुई हो। २-वह लड़कियां जिनकी सगाई हुई हो। ३-विवाहिता लड़कियां जिनके सन्तान हो या होनेकी आशा हो, 18 __Cal. 327. ४-निःसन्तान विधवा लड़कियां और बन्ध्या ती बराबर पायेंगी, दाय
क्रम संग्रह ५-७. -पुत्र। ६-लड़कीके लड़के मगर इस स्कूलमें बेटीका पौत्र, और बेटीकी बेटी
स्त्रीधनकी वारिस नहीं होतीं, देखो-10 W. R. C: R. 488. ७-पौत्र । ८-प्रपौत्र-(पुत्रके पुत्रका पुत्र) ९-सौतेला लड़का। १०-पतिकी दूसरी स्त्रीके लड़केका लड़का । ११-पतिकी दूसरी स्त्रीकी लड़केके लड़केका पुत्र । (३) विवाहके पश्चात स्त्रीको अपने पितासे किसी समय मिले हुये धन (प्रीतिदत्त और अयौतक स्त्रीधन ) के उत्तराधिकारका क्रम यह है
१-अविवाहिता लड़की, देखो-2 B. L. R. A. C. 144. २-पुत्र। ३-वह लड़की जिसके पुत्र हो या होने वाला हो। ४-बेटीका बेटा। ५-लड़केका लड़का (पौत्र)
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दफा ७७०] स्त्रीधन की वरासत
१३३
www.mmmmmmm ६ - लड़के लड़केका लड़का (प्रपौत्र) ७ -पतिकी दूसरी स्त्रीका लड़का । ८-पतिकी दूसरी स्त्रीका पौत्र । 1-पतिकी दूसरी स्त्रीका प्रपौत्र।। १० -बन्ध्या लड़की और पुत्रहीना लड़की।
डाक्टर योगेन्द्रनाथ भट्टाचार्य कहते हैं कि यौतक और अयौतक स्त्री. धनके नियम वैसाही हैं जैसाकि प्रीति-दत्तके। सिवाय इसके कि वह किसी खास सूरतमें बदल न दिया गया हो, देखो भट्टाचार्य हिन्दूलॉ P 594
(४) दूसरे प्रकार के स्त्रीधन--अन्य तरह के स्त्रीधन की बरासत इस प्रकार है
१-पुत्र और वह लड़की जो क्वारी हो यानी सगाई न हुई हो। २-व्याही हुई लड़की जिसके पुत्र हो या होने वाला हो। ३-पौष। ४-बेटीका बेटा । ५--प्रपौत्र। ६-पतिकी दूसरी स्त्रीका लड़का। ७-पतिकी दूसरी स्त्रीका पौत्र । ८-पतिकी दूसरी स्त्रीका प्रपौत्र । १-बन्ध्या लड़की या पुत्रहीना विधवा लड़की।
दायभागके अनुसार बेटीके बेटेके बाद बन्ध्या और विधवा लड़की पारिस होती है मगर पं० रघुनन्दन मिश्र और पं० श्रीकृष्ण तर्का लकारने घेटीके बेटेके बाद वेटेके पौत्रको रखा है और उन्होंने बेटेके पौत्र और बन्ध्या तथा विधवा लड़की इन दोनोंके बीचमें पतिकी दूसरी स्त्रीके पुत्र, पौत्र और प्रपौत्रको रखा है यही मत अधिक मान्य है।
निःसन्तान स्त्रीकी जायदादकी वरासत जब किसी स्त्रीके अपनी कोई सन्तान न हो और न सौतेले पुत्र और न सौतेले पुत्रकी कोई सन्तान हो तो उस स्त्रीका वारिस उसके माता पिता और उसके भाई तथा पति होता है।
कारेपनमें जो अपने माता पितासे किसी स्त्रीको धन मिला हो और फिर अपने पतिके परिवारसे और व्याहके बाद अपने पिताके कुटुम्बियोंसे से मिला हो उसकी वरासत इस प्रकार होती है
(१) भाई सगा। (२) मा । (३) बाप । (४) पति । (५) स्त्रीके चाहे सन्तान हो या न हो शुल्ककी वरासत ऊपर लिखे अनुसार होती है जैसाकि मिताक्षरामें कहा गया है, देखो दफा ७६५.
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१३४
स्त्री-धन
[ तेरहवां प्रकरण
(२) दूसरे प्रकारके स्त्रीधनकी वरासत इस प्रकार होती है(क) यदि ब्राह्म विवाह स्त्रीका हुआ हो तो-- १) पति, 16 W. B.
0. R. 115. (२) भाई (३) मा(४) बाप। (ख) यदि प्रासुर विवाह या कोई दूसरा विवाह स्त्रीका हुआ हो तो
(१)मा (२) बाप (३) भाई । ४) पति । (३) इन वारिसों के बाद सब प्रकारके स्त्रीधनकी वरासत, चाहे विवाह किसी रीतिसे हुआ हो निम्न लिखित होती है, बृहस्पति और जीमूतवाहनका यही मत है
१-पतिका छोटा भाई--पतिका छोटा भाई वारिस होगा, विधवा
के सौतेले भाईसे पहिले, देखो-37 Cal. 863; 15 C. W. N.
383; 4 C. W.N. 743. २-पतिके बड़े भाई या छोटे भाईका पुत्र । ३--बहनका बेटा। ४--पतिकी बहनका बेटा। ५-स्त्रीके भाईका बेटा। ६-लड़कीका पति ( दामाद)।
पतिकी दूसरी स्त्रीके लड़केकी मौजूदगीमें पितामहकी लड़कीका लड़का वारिस नहीं होगा, देखो-6 Ben. R.77.दायभागस्पष्ट रूपसे दूसरे लोगोंका हक स्त्रीधनकी वरासतमें नहीं मानता और ऊपर ६ नम्बर तक कहे हुये वारिसोंके सिवाय नीचे लिखे आदमी भी बंगाल स्कूल में स्त्रीधनके वारिस माने गये हैं
७--स्त्रीका ससुर। .८-पतिका बड़ा भाई।
8--स्त्रीके ससुरका प्रपौत्र ।। १०-पतिका पितामह और उसकी संतान । ११-पतिका प्रपितामह और उसकी संतान । १२-पतिके सकुल्य (दफा ५८७ ) और समानोदक (दफा ५८८)
उसी क्रमसे जैसा कि उत्तराधिकारका क्रम बताया गया है। . १३--दायक्रम संग्रह में इनके पश्चात् समान प्रवर रखे गये हैं।
जिसका अर्थ है कि उसके पतिके समान प्रवर 12Cal. 348. पंजगन्नाथ शास्त्रीने स्त्रीके पिताके कुटुम्बियोंको दस पीढ़ी तक वारिस माना है उनके पश्चात् पत्तिके समानोदकोंको और पीछे स्त्रीके माताके कुटु. म्बियोंको वारिस माना है मगर उन्होंने समानप्रवरका ज़िक्र नहीं किया, देखो-कोलबकडाइजेस्ट Vol. 3 P. 623, बनर्जीका लॉ आफ मेरेज P. 422, 433.
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दफा ७०१ ]
स्त्रीधन की वरासत
वृहस्पतिका मत -बम्बई हाईकोर्टके एक मामलेमें बृहस्पतिके आधार पर फैसला किया गया अगर वह फैसला बंगाल स्कूलसे लागू किया जाय तो स्त्रीका ब्राह्मविवाह हुआ हो तो उसके पति,पिता,माता और भाईके बाद उसके पतिके वारिस उत्तराधिकारी होंगे और यदि आसुर विवाह हुआ हो तो स्त्री के पिताके वारिस उत्तराधिकारी होंगे, देखो-331. A:176; 30 Bom. 431; 103. W. N. 803; 8 Bom. L. R. 446.
देवदासी, वेश्या, रण्डी और लावारिस स्त्रीधनकी वरासत
दफा ७७१ देवदासी और वेश्या तथा रण्डीका स्त्रीधन
___ मंदिरोंमें रहनेवाली देवदासी (दक्षिण हिन्दुस्थानमें जो कुमारियाँ नाचने गानेके लिये देव मन्दिरों में रहती हैं ) और वेश्या या रण्डी ( रण्डीसे मतलब हिन्दू रण्डीसे है) तथा वह स्त्री जो व्यभिचारके कारण पतित हो गयी हो इनकी जायदादके वरासतके विषयमें मतभेद है। परन्तु अदालतोंने यह माना है कि उनकी अनौरस संतानमें पुत्रोंसे सबसे पहिले पुत्रियां वारिस होंगी, देखो--कामाक्षी बनाम नागराथनम् : Mad. H. C. 161; नरासाना बनाम गंगू 13 Mad. 133, 21 Mad. 40..
स्ट्रेन्ज साहेबने एक यह नियम रखा है कि जिस देवदासीके संतान न हो तो उसकी जायदाद उसके मन्दिरको मिलेगी जिसमें वह नाचने गानेके लिये नियुक्त थी। परन्तु अगर ऐसा रवाज न हो तो इस नियमके माने जाने का कोई कारण नहीं है बनर्जीने भी यही राय दी है, देखो-बनर्जीका लॉ माफ मेरेज 2 Ed. P. 3977 394.
- वेश्या या रण्डीकी जायदादके विषयमें एक खास तौरकी मुश्किल है वह दूसरे वारिसोंकी वरासतके सम्बन्धमें नहीं होती। एक तरफ तो यह कहा गया है कि वेश्या या रण्डी हो जानेके बाद उसके कुटुंबियोंसे स्त्रीका सम्बन्ध टूट जाता है इस लिये उसके कोई भी कुटुम्बी वारिस नहीं हो सकते, देखोस्ट्रेन्जमेन्युएल P. 89 Para 363; 21 Cal. 697; तारामनी दोसिया बनाम मोटी बनियानी 7 Ben. Sel. R. 273; 18 Mad. 1.33; 12 Mad. 277,2 Mad. H. C. 196; त्रिपुराचरण बनर्जी बनाम हरीमतीदासी 38 Cal. 495%; 15 C. W.N. 807; परन्तु दूसरी तरफ यह कहा गया है कि वेश्या या रण्डी होनेके बाद स्त्रीका सम्बन्ध उसके कुटुम्बियोंसे टूट जाना कानून नहीं मानता अर्थात् वेश्या या रण्डी होनेके पहिले स्त्रीका जो सम्बन्ध उसके बाप या उसके पति के घरानेसे था वही वेश्या या रण्डी होने के बाद भी बना रहता
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स्त्री-धन
[ तेरहवां प्रकरण
है, देखो-सुवरिया पिलाई बनाम रामासामी पिलाई 23 Mad. 171; नरायनदास बनाम त्रिलोक तिवारी 29 All. 4, यह इलाहाबादका मुकदमा 21 Cai. 697; से भिन्न है।
सरामयी विवा बनाम सेक्रेटरी आफ स्टेट 25 Cal. 254; 2 C W. N. 97; 5 Mnd. P. C. 161; और कानङ्गहम् डाइजेस्ट P. 112 में माना गया है कि वेश्या या रण्डी होजाने पर वरासतके साधारण नियमही लागू होंगे।
नरायनदास बनाम त्रिलोक तिवारी 29 All. 4. के मामलेमें मानागया कि पतिका हक़ है और 23 Mad. 171 वाले मामले में सौतेले पुत्रका हक़ माना गया और 31 Bom. 495 वाले मामले में बेटीका हक माना गया। 25 Cal. 2043 20. W. N. 97 में कहा गया है कि ऐसा रवाज भी कहीं कहीं हैं कि वेश्या या रण्डीके वारिस उसके पतित कुटुम्बी होते हैं।
नाचने गानेका पेशा करनेवाली स्त्री और व्यभिचारका पेशा करनेवाली स्त्री जैसे वेश्या या रंडी ने यदि गोद लिया हो तो उसके विषयमें देखो इस किताबकी दफा ११६.
नोट वेश्या या रण्डी की जायदादकी वरासतमें सबसे पहिले उसकी लड़की वारिस होगी और अगर लड़की न हो तो उसको अनौरस नजदीकी संतान वारिस होना चाहिये । यदि संतान न हो तो नज़दीकी पतित कुटुम्बी, पीछे शुद्ध कुटुम्बीका वारिस होना योग्य होगा।
नट, बेड़िये आदि कौमों में प्रायः यह रवाज प्रचलित है कि इन लोगोंकी औरतें वेश्या या रण्डी का पेशाभी करती हैं इस लिये माना यही जा सकेगा कि उनकी स्त्रियोंके स्त्रीधनका उत्तराधिकार वेश्या या रण्डियों के अनुसार होना चाहिये । अगर कोई रवान इसके विरुद्ध साबित हो तो दूसरी बात है । दफा ७७२ अनौरस सन्तान
अनौरस संतानभी अपनी माकी जायदादकी वारिस होसकती है, देखो मैनाबाई बनाम उट्टाराम 2 Mad. H. C. 196-201; 21 Mad. 40; परन्तु यह नियम विवाहिता स्त्रीकी अनौरस संतानसे लागू नहीं होगा तिर्फ कुमारी की संतानसे लागू होगा, देखो-34 Bom. 553; 12 Bom. L. R. 545.
शूद्रका गैर कानूनी पुत्र अपने कल्पित पिताके नज़दीकी रिश्तेदारका वारिस नहीं माना जाता, अतएव वह अपने कल्पित पिताकी विवाहिता स्त्री के स्त्रीधनका वारिस नहीं हो सकता, आर्येश्वरानन्दजी साहव बनाम शिवा जी राना साहेब A. I. R. 1926 Mad. 84; 49 M. L J. 568. दफा ७७३ लावारिस स्त्रीधन
। दायक्रम संग्रह २-६ में कहा गया है कि ब्राह्मणीके स्त्रीधनका जब कोई वारिस न रहे तो भी राजा उसे न ले। परन्तु अब यह बात नहीं मानी जाती जब स्त्रीधन का कोई वारिस न हो तो सब तरह के स्त्रीधन की वारिस सरकार होगी।
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बेनामी का मामला
चौदहवां प्रकरण
नोट--बेनामी' मामले इस समय तककी नजीरोंके आधारपर नीचे समझांगा गया है । पहले जमानेमें बेनामी मामले अर्थात् फर्जी मामले बहुत होते थे मगर लोगोंने बेईमानी बहुत की इसलिये अब कम होते हैं मगर होते जरूर हैं। अपने रिश्तेदारों, मित्रों, वं विश्वासनीय आदमियों के नाम दस्तावेजें लिखा ली जाती हैं जिन दस्तावेजोंमें उनका नाम फर्जी होता है पीछे जिनके नाम वे दस्तावेजें होती है तरह तरह के अपने दूसरे काम दबाव से नाजायज तौरसे वे कराते रहते हैं। कभी कभी अगर असली मालिक ने कोई एतराज किया तो चट उसकी वह जायदाद हजम कर जाते हैं । असल में होता तो यह है कि ज्यों ही किसी के नाम फर्जी मामला हुआ, प्रायः उसके दिलमें उस जायदादकी लालसा उत्पन्न हो जाती है और वह युक्तियाँ निकालने लगता है अन्तमें मुकद्दमे बाज़ीकी नौबत आती है । कलकत्ता हाई कोर्ट के माननीय एक जज ने कहा कि अदालतोंके सामने जब ऐसा मामला पेश हो तो उन्हें बड़ी होशियारी के साथ असली मालिक का हर तरहसे पता लगा लेना चाहिये । शहादत और कानून दोनों पर गम्भीर विचार करते हुए पहले के सम्बन्धों, उस वक्तकी स्थिति, फरीकैन के व्यवहार व चाल चलन आदिपर निगाह रखना चाहिये । आज कल के जमानमें फर्जी नामसे कोई काम न किया जाना चाहिये क्योंकि आखिरी नतीजा अकसर अच्छा नहीं होता आपसका व्यवहार टूट जाता है और परस्पर बेर बढता है। दफा ७७४ बेनामी किसे कहते हैं
'बेनामी' यह शब्द फारसी भाषाका है तथा दो शब्दों के योगसे बना है पहला 'बे' जिसका अर्थ है बिना, दूसरा 'नामी' जिसका अर्थ है 'नाम, इस तरह पर बेनामी' का अर्थ हुआ 'बिना नाम'। बेनामी शब्दसे यह ज़ाहिर किया जाता है कि किसीने कोई मामला खुद किया मगर किया दूसरे के नामसे अर्थात् अपना नाम उसमें ज़ाहिर नहीं किया। जैसे किसीने कोई जायदाद अपने रुपयेसे अपने लिये खरीदी मगर दूसरेके नामसे खरीदी ऐसे मामलेको 'बेनामी' मामला कहते हैं।
बेनामी मामला दो तरहसे होता है एक तो अपने रुपयासे अपने लिये कोई जायदाद खरीदकी जाय मगर खरीदी जाय दूसरे किसीके नामसे, और दूसरा वह है कि पहले जायदाद खरीदी गयी अपने नामसे लेकिन पीछे वह फर्जी तौरसे दूसरे किसीके नाम इन्तकालकर दीगई। ये दोनों किस्मके मामले बेनामी मामले कहलाते हैं और वह शख्स जिसके नामसे जायदाद खरीदी गयी हो या
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बेनामीका मामला
[ चौदहवां प्रकरण
मामला हुआ हो 'बेनामीदार' कहलाता है । किसी जायदादको किसी फ़र्ज़ी नाम लेना अर्थात् जो आदमी जायदादका असली मालिक हैं उसके नामसे न खरीद करना इस देशमें बहुत प्रचलित है जितना कि हिन्दुओंमें इस बातका वाज है उतना ही मुसलमानों में है, देखो - मोलबी सैय्यद बनाम मुसम्मात बीबी 13M.I.A.232,346, 247, यह रवाज कुछ तो अन्धविश्वास के कारण चल पड़ा है कि किसीका नाम बरकतमन्द समझा जाता है और किसीका मनहूस और कुछ इस लिये चल पड़ा है कि लोग अपने घरेलू मामलोंको सब के सामने ज़ाहिर होने से छिपाते हैं । किन्तु इसके सम्बन्धमें बहुतसे लेन देन जालसाज़ी के मतलब से किये जाते हैं और बहुतसे लेन देन जो कि जालसाज़ी की ग़रज़से नहीं भी होते वे बादको जालसाज़ी की कार्रवाई करनेके लिये काममें लाये जाते हैं । विशेष कर क़र्ज़ से पीछा छुटानेके लिये ऐसी कार्रवाई की जाती है ताकि जिस समय लेनदार अपनी डिकरी जारी करावे तो यह जवान लगाया जा सके कि यह जायदाद दूसरेकी है इस लिये कुर्क़ नहीं हो सकती, देखो - मारकी का हिन्दू और मोहमदन लॉ P. 103.
१३८
बेनामीका मामला किसी आदमीके द्वारा दूसरेके नामसे जायदाद खरीद लेनेही तक सीमाबद्ध नहीं है, बल्कि अगर कोई आदमी दूसरेके नामसे किसी जायदादका पट्टा लिखा ले, या अपने नामसे किसी जायदादको खरीद कर अन्धविश्वासके कारण दूसरेकेनाम मुन्तक़िल करदे या रेहन रखदे, तो इसको भी बेनामीका मामला कहेंगे, मुसलमान भाई इस तरहके बेनामी मामलेको 'फर्जी' कहते हैं । हिन्दुओंमें यह रवाज प्रचलित न थी इस लिये ऐसे मामले का धर्मशास्त्रों में कहीं उल्लेख नहीं मिलता ।
दफा ७७५ असली मालिकके हक़पर विचार
जब कि एक मरतबा कोई मामला बेनामी ज़ाहिर कर दिया गया हो और अगर नीचे लिखे हुये नतीजे न निकलते हों तो जो कोई उस जायदादका असली मालिक होगा उसीके हक़की बात मानी जायगी यानी असली मालिक को उस जायदादपर पूरा हक़ प्राप्त हो जायगा । उपरोक्त नतीजे यह हैं
( १ ) अगर नीचे लिखी हुई दफा ७७७-१ का खण्डन न होता हो( २ ) अगर बेनामीदारने उस जायदादका इन्तक़ाल न किया हो देखो दफा ७७७-२.
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( ३ ) अगर बेनामीका मामला असली मालिकके लेनदारोंका रुपया मारने के लिये कियागयाहो और वह उद्देश पूरा होगया हो, देखो दफा ७७७ ३.
कोई क़ानून ऐसा नहीं है जो बेनामी मामलेको मना करताहो । दूसरी तरपर यों समझिये कि ऐसा मानो कि महेशने एक जायदाद गणेशके नाम
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बेनामी क्या है
दफा ७७५ ]
से खरीदी इसमें कोई अपराध या जुर्म महेशने नहीं किया इस लिये जहांपर कि ऐसा मामला पैदा हो, कि महेशने एक जायदाद गणेशके नामसे खरीदी और पीछे गणेश कहे कि मैं उस जायदादका असली मालिक हूं तो महेश सिवाय इसके कि वह अदालत में नालिश करे कि उस जायदादका असली मालिक मैं हूं और गणेशका नाम बेनामीदारकी हैसियतसे है तथा जायदाद मुझे दिला दीजाय, और कुछ नहीं करसकता । यदि यह साबित हो कि वह जायदाद महेशके रुपयेसे ली गयी थी तो अदालत डिकरी देगी और गणेश को हुक्म देगी कि जायदाद महेशको लौटा दें, देखो - ठकुराइन बनाम गवर्न मेण्ट 14M. I. A. 112.
६३६.
इसी तरहपर अगर जायदाद महेशने गणेशके नामसे खरीदी हो और पीछे महेशका लेनदार कुबेर नालिश करके महेशपर अपने क़ज़ैकी डिकरी हासिल करले तो ऐसी सूरत में कुबेरको अधिकार है कि वह यह साबित करें कि जो जायदाद गणेशके नामसे खरीदी गयी है उसका असली मालिक महेंश है, ऐसा साबित होनेपर कुबेर उस जायदादको कुर्क और नीलाम कराके अपनी डिकरी वसूल करसकता है, देखो - मुसद्दी मोहम्मद बनाम मिर्जा अली 6M. I. A. 27; गोपी वसुदेव बनाम मार्कण्डेय 3 Bom. 30; अब्दुल बनाम मीरमोहम्मद 10 Oal. 616, 11 I. A. 10.
विश्वासका परिणाम और बच्चोंकी उन्नति - बेनामी मामला 'हिन्दूलॉ' की शाखामें नहीं है, यह केवल विश्वासपर निर्भर है; ऐसे मामलों में मुख्य प्रश्न यह होता है कि असलमें रुपया किसका है जिससे जायदाद खरीदी गयी, देखो - देसिलवा बनाम देसिलवा 5 Bom. L. R 784, रामनरायन बनाम मोहम्मद 26 Cal. 227; 26 I. A. 38; इङ्गलैन्डमें जब कोई अपने रुपये से अपने किसी बच्चे के नामसे जायदाद खरीदता है तो वहांके क़ानून के अनुसार यह मान लिया जाता है कि उस बच्चे की उन्नति एवं लाभ पहुंचने के लिये ऐसा किया गया और यदि कोई बात विरुद्ध साबित न की जाय तो वह जायदाद उस बच्चेकी होगी और वही उसका असली मालिक होगा, 47I. A. 275; 48 Cal. 260; 57 I. C. 834; मगर हिन्दुस्थानमें ऐसा क़ानून नहीं है यहांपर जब कोई अपने रुपयेसे कोई जायदाद खरीदता है तो ज़ाहिरा तौर से यही माना जाता है कि उसने अपने लाभके लिये खरीद किया चाहे उसने अपने किसी बच्चे या अजनबी आदमीके नामसे खरीद किया हो, देखो - गोपी कृष्टो बनाम गंगाप्रसाद 6 M. I. A53-79 वाले मामलेमें प्रीवी कौंसिल के माननीय जजोंने कहा कि 'हिन्दुस्थान में अपने बच्चोंकी बिना किसी उन्नति के उद्देश से उनके नामसे अकसर जायदादें खरीद की जाती हैं और वे सब बेनामी मामले हैं, देखो - 13 MI. A. 232, 247; 5 Col. I. R. 477; 6 I. A. 233; 13 Cal. 181; 13 I. A. 70; 15 W. R. 357
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बेनामीका मामला
[चौदहयां प्रकरण
स्त्रीके नामकी रकम-अगरेजी कानूनमें स्त्री सम्बन्धी रक़र पेशगीकी कल्पना भारतीय कानूनके अन्दर नहीं है, बल्कि इसके विपरीत उस सूरतमें जब कि दस्तावेज़ किसी पुरुष और उसकी स्त्रीके नाम लिखा जाता है और पुरुष रकम अदा करता है, तो इस प्रकारका मामला जहांतक स्त्रीके नामका उससे सम्बन्ध होता है पुरुषके हक़में बेनामी समझा जाता है। अतएव केवल इस बिनापर कि रकम स्त्रीके नाम जमा कीगई थी, इस बातकी कल्पना करना कि वह उस रकमकी लाभ प्राप्त करने वाली अधिकारिणी थी न्याय संगत नहीं है। पारवती अम्मल बनाम एम० आर० शिवराम अय्यर A. I.R. 1925 P. C. 81; A. I. R. 1927 Mad. 90. दफा ७७६ बारसुबूत
जिस मामलेमें जायदाद दूसरे किसीके नामसे खरीदी गयी हो और वह (जिसके नामसे खरीदी गयी है ) अदालतमें दावा करे कि मैं उस जायदादका असली मालिक करार दिया जाऊं, ऐसी सूरतमें बहुत भारी बारसुबूत उसीपर होगा कि वह बड़ी मज़बूतीसे सावितकरे कि वह जायदादका असली मालिक है, बहुत भारी बारसुबूत होनेका कारण यह है कि ऐसा दावा करते ही यह बात ज़ाहिरा ख्यालमें आती है कि बादी असली मालिक नहीं है और जब कि विक्रीकी लिखतसे बादी उस जायदादका असली मालिक ज़ाहिर नहीं होता है अदालत संदेहके साथ ऐसे मामले की जांच करेगी और बादीसे ऐसा सुवत तलब करेगी कि प्रतिबादीका नाम बेनामीदार है तथा प्रति बादी उस जायदादका असली मालिक नहीं है । यद्यपि ऐसे मामले में अदालतको भारी संदेह होगा कि तु वह केवल अपने संदेहके ऊपर मुकदमेंका फैसला नहीं करेगी जैसी शहादत, हैसियत, रिश्ता, पक्षकारोंका होगा, और ऐसा करने का क्या हेतु था, एवं उस समयके और पश्चात्के कामोंसे क्या ज़ाहिर होता है, तथा पक्षकारोंका चलन व्यवहार कैला है इत्यादि बातोंपर विचार करके फैसला करेगी। शहादतके द्वारा जो कानूनी विषय पैदा होंगे उनके ऊपर फैसला करेगी, देखो-श्रीमन चन्द्र बनाम गोपालचन्द्र 11 M. I. A. 28; अजमत बनाम हरद्वारीमल 13 11. I A. 395; फैज़ वख्श बनाम फकीरुद्दीन 14 I. A. 234: उमाप्रसाद बनाम गंधर्व 15 Cal. 20; 14 I. A. 127; सुलेमान बनाम मेहदीवेगम 25 Cal. 473; 25 I. A. 15; निर्मलचन्द बनाम मोहम्मद 26 Cal. 11; 25 I. A. 225; 30 All 258335 1.A. 104.
जब किसीने ऐसा दावा किया हो कि अमुकका नाम बेनामी दार है तथा जायदाद उससे वापिस दिलादी जाय, तो बादीको साधारण यह साबित करना पड़ेगा कि प्रतिबादीके नामसे वह जायदाद क्यों खरीदी गयी या इन्त: काल की गयी तथा उस जायदादमें रुपया मेरा लगा है, प्रतिबादीका नाम केवल बेनामीदार है, और बदले में कुछ नहीं लिया गया।
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बेनामी क्या है
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दफा ७७६-७७७ ]
दफा ७०७ कितनी सूरतों में बेनामी मामला रद्द नहीं होगा
( १ ) नीलाम में खरीदने या बक़ाया मालगुज़ारी देने में- जब कोई जायदाद अदालतकी डिकरीके द्वारा नीलाम हुई और उसे किसीने दूसरे के नाम से खरीदा, या सरकारी बनाया मालगुज़ारीके अदा करने के लिये इसी तरहपर किसीने खरीदा और बेनामीदार ( जिसके नामसे जायदाद खरीदी गयी है ) को अदालतसे क़िवाला या सनद मिल जाय तो फिर असली खरीदार कभी अदालत में ऐसी नालिश नहीं कर सकता कि अमुकके नामसे जो जायदाद खरीदी गयी है बेनाभी है, और न उस जायदादको वह उससे वापिस ले सकता है ।
उदाहरण - 'क' ने ऐक डिकरी अदालतसे एक हज़ार रुपयेकी 'ख' के ऊपर प्राप्त की इस डिकरीकी इजरासे 'ख' की जायदाद नीलाम हो गयी, 'ग' ने उस जायदादको नीलाम में खरीदा मगर खरीदा 'घ' के नामसे । 'घ' को अदालत से खरीदने का सार्दीफिकेट ( क़िबाला ) मिला, अब 'ग' ऐसी नालिश 'घ' के ऊपर कभी नहीं कर सकता कि मैं नीलामका असली खरीदार हूं और 'घ' का नाम बेनामी है । ठीक इसी तरहपर यह क़ानून उस सूरत में लागू होता है जहांपर कि सरकारी बक़ाया मालगुज़ारीके अदा करनेके लिये जायदाद नीलाम की जाय यानी ऐसे नीलाम में भी यदि किसीने दूसरेके नामसे जायदाद खरीदी हो तो फिर असली खरीदार पीछे दावा नहीं कर सकता ।
इस विषय में क़ानून जाबता दीवानी एक्ट नं०५ सन् ११०८३० की दफा ६६ का मतलब इस प्रकार है- 'अदालत किसी ऐसे मुक़द्दमे का विचार नहीं करेगी जिसमें मुद्दई इस वयानसे कि मेरी तरफसे अमुक जायदाद, बाक्रायदा अदालत के नीलाम के द्वारा खरीदी गयी है किसी हक़का दावीदार हो, या ऐसे किसी आदमी की तरफ से खरीदी गयी थी कि जिसके ज़रिये से बह ऐसा हक़ रखता हो । 42 I. A. 177; 37 All. 546; 30 I. C. 265; मगर यह दफा ऐसे दावेको नहीं मना करती जिसमें कहा जाता हो कि खरीदारने दगाबाज़ी या असली मालिककी बिना रजामन्दी नीलामका सर्टिफिकट प्राप्त किया है, और न यह दफा किसी सालिसके इक़से लागू होगी जिसका उस जायदाद में कोई हक़ कार्रवाई करनेका प्राप्त हो और देखो एक्ट नं० 11 सन् 1859 ई० बंगालकी दफा ३६ एक्ट नं० 2 सन् 1864 ई० की दफा 38 मदरास, इसी विषयके कुछ फैसले भी देखो-कमीज़ाक बनाम मनोहर 12 Cal. 204, सुब्राबीबी बनाम हीरालाल 21 Cal. 519, 12 Beng. L. R. 317 (P. C) 12 Cal. 204; 21 Cal. 519; 12 Beng. L. R. 317 (P. C.).
(२) बेनामीदार के बेच देनेमें- अगर किसीने कोई जायदाद अपने लिये खरीदकी मगर खरीदी दूसरे के नामसे और जिसके नामसे खरीदी गयी
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बेनामीका मामला
[चौदहवां प्रकरण
है उसने उस जायदादको बिना इल्म असली मालिकके, कीमतके बदलेमें तीसरे अादमीके हाथ बेचदी या रेहन करदी या और किसी तरहपर इन्तकाल करदी तो फिर असली मालिक उस तीसरे आदमीसे जायदाद वापिस लेने का अधिकार नहीं रखता, और न वह ऐसा दावा कर सकता है कि इन्तकाल रद्द कर दिया जाय और जायदाद वापिस दिलायी जाय, मगर शर्त यह है कि अगर ऐला इन्तकाल करते समय उस तीसरे आदमीको वास्तवमें ऐसा नोटिस मिल चुका हो कि दूसरे आदमी (बेनामीदार ) का नाम जायदादपर बेनामीदार है, या ऐसा मालूम होजाना लाजिमी हो तो ऐसा दावा होसकता है, देखो · सरजूप्रसाद बनाम बीरभद्र 20 I.A. 108; 11 Beng. L_R.46; 22 Cal. 909; 22 1. A. 129.
___ खरीदारका फर्ज -जायदाद खरीद करते समय खरीदारका केवल यही कर्तव्य नहीं है कि वह यह देख ले कि जायदादपर नाम किसका चढ़ा है या किसके नामसे खरीदी गयी है, बल्कि उसका यह भी आवश्यक कर्तव्य है कि वह इस बातकी जांच करे कि जायदाद वास्तवमें किसके क़ब्ज़ा व दखलमें है, अगर खरीदार ऐसी जांच करके योग्य संतोष प्राप्त करले और यह देखकर कि बेंचने वालेका नाम भी उसपर दर्ज है खरीद करले, तो खयाल किया जायगा कि उसने अपना कर्तव्य पालन किया और अगर खरीदार सिर्फ यह देखकर कि बेचने वालेका नाम उसपर है खरीदले तो अदालत यह मानेगी कि उसने अपना कर्तव्य पालन नहीं किया ऐसी सुरतमें उस जायदादका असली मालिक दोनोंपर दावा करसकता है कि तीसरे आदमीके हकमें जो इन्तकाल किया गया है रद्द कर दिया जाय, देखो-मनचरजी बनाम कोंगसेऊ 6 Bom. I. O. O. C. 59; 35 Bom. 269; 14 Cal. 109; 13 I. A. 160, 165.
उदाहरण-'क' ने एक जायदाद 'ख' के नामसे खरीदी पीछे 'ख' ने उस जायदादको 'ग' के नाम बेच दिया, 'ग' अपने कर्तव्यका पालन ठीक तौर से न करके यानी यह कि जायदाद किसके कब्जे व दखलमें है इसकी जांच किये बिना खरीद करली, ऐसी सूरतमें 'क' दोनोंपर यानी 'ख' और 'ग' पर मालिश करसकता है कि जायदाद मुझे वापिस दिलाई जाय । यह ध्यान रहे कि जब ऐसे दावेसे अदालत जायदाद असली मालिकको पीछा दिलायेगी तो 'ग' को कोई हक नहीं होगा कि वह अपना रुपया जो 'ख' को दिया था 'क' से पा सके चाहे तो वह 'ख' पर दूसरी नालिश करे । और देखो इस सम्बन्ध में कानून जायदाद इन्तकाल सन् १८८२ ई० की दफा ४१ इस प्रकार है-जहां पर कि गैरमनकूला जायदादमें अनेक लोग शामिल हों और उनमें से किसीएकके इकरारसे यह बात ज़ाहिर करदी गयी हो या ज़ाहिर होती हो कि जो ज़ाहिरा मालिक था उसने जायदादको किसी चीज़के बदले इन्तकाल कर दिया, तो यह इन्तकाल महज़ इस वजहसे रह नहीं हो जायगा कि वह ज़ाहिरा मालिक
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दफा ७७७]
बेनामी क्या है
इन्तकाल करने का अधिकारी नहींथा, बशर्ते कि जिसके हकमें इन्तकाल किया गया है उसने काफ़ी और योग्य जांच इस बातकी करली हो कि इन्तकाल करनेवाला, इन्तकाल करनेका अधिकार रखता है, और नेक नीयतीसे खरीदा हो।
नोट- उपरोक्त दफा४१कानून इन्तकाल जायदादका विशेष भन्श मुश्तरका जायदादसे लागू है। बेनामीदारके इन्तकालमें खरीदारको इससे अधिक नांच करना चाहिये।
(३) लेनदारों से दगाबाज़ी करने में-जबकि लेनदारों से दगावाजी करनेकी नीयतसे जायदाद किसी झूठे मामपर रखदी गयी हो या इन्तकाल करदी गयी हो, और उस नीयत का वास्तवमें उपयोग किया गया हो तो असली मालिक को अधिकार नहीं है कि बेनामीदार से जायदाद वापिस ले सके । लेकिन अगर यह देखा जाय कि दगाबाज़ी की नीयतका उपयोग नहीं किया गया तो असलीमालिक अपनी जायदाद बेनामीदारसे वापिसले सकता है, देखो-35 I. A. 98; 23 Bom. 4067 222 Mad. 323, 33 Cal. 967...
उदाहरण- 'क' बहुत आदमियों का कर्जदार है लेनदारों का रुपया मारने और जायदाद बचानेके लिये उसने अपनी जायदाद पांच हज़ार रुपये पर 'ख' के नाम इन्तकाल करदी। 'ख' ने 'क' को रुपया कुछ नहीं दिया सिर्फ बेनामी तौरसे इन्तकाल हुआ । इस इन्तकाल की नीयत लेनदारों के साथ दगाबाज़ी करने की थी। कुछ दिनके बाद 'क' ने अपने सब लेनदारोंको रुपये में चार आने चुका कर पूरे कर्जेसे छुटकारा पा लिया । उसके बाद 'क' ने, नालिशकी कि 'ख'का नाम बेनामी करार दियाजाय और जायदाद उसके कब्जे व दखलसे मुझे दिला दी जाय । देखो यहांपर दगाबाज़ीकी नीयतका वास्तव में उपयोग किया गया क्योंकि जब 'क' के पास लेनदारों ने जायदाद नहीं देखीं इसलिये चार आने लेकर अपने कुल रुपयेसे दस्तबरदार हो गये, ऐसी सूरत में उपरोक्त सिद्धांत लागू होगा , यानी 'क' को जायदाद वापिस नहीं मिलेगी और न उसका दावा सुना जायगा । यह स्पष्ट है कि 'क' और 'ख' दोनों एक ही तरहके गुनहगार हैं। दोनोंने मिलकर लेनदारोंका रुपया मारा; परन्त 'ख' के कब्जे व दखलमें जो जायदाद इस तरह पर है उसमें अदालत कुछ दखर नहीं देगी लेकिन अगर 'क' दगाबाज़ी की नीयतका वास्तवमें उपयोग करने से पहले अर्थात् लेनदारों को रुपया चुकाये जानेसे पहले जबकि लेनदारोंके रुपयेमें कानून मियादका कोई झंझट न पड़ता हो 'ख'पर ऐसी नालिश करता तो वह उससे जायदाद वापिस लेनेका अधिकारी था, अदालत उस समय 'क' की दगाबाज़ी की नीयतके कसूर पर कोई दण्ड नहीं देगी कि जो उसने एक मरतबा लेनदारों के साथ केवल दगाबाज़ी करनेका ख्याल किरा था बक्लि अदालत 'ख' को हुक्म देगी कि कुल जायदाद 'क' को लौटा दो। मतलब यह
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बेनामीका मामला
[ चौदहवाँ प्रकरण
है कि जब तक दगाबाज़ी की नीयतका वास्तवमें उपयोग न किया जाय तब तक असली मालिकका हक़ जायदाद वापिस पानेका मारा नहीं जाता, देखो35 I. A. 98-103; 23 Bom. 406; 22 Mad. 323; 33 Cal. 967; 38 Bom. 10; 20I. C. 50.
૪૪
इस सम्बन्धमें इण्डियन ट्रस्ट एक्ट नं० २ सन १८८२ ई० की दफा ८४ भी देखो - इस दफाका मतलब यह है कि 'जहांपर जायदादका मालिक जायदाद को दूसरे के हक़में ऐसे गैर क़ानूनी मतलब के लिये इन्तक़ाल करदे जो काम न लाया जा सकता हो तो जिसके हक़में इन्तक़ाल किया गया है उसे चाहिये कि इन्तक़ाल करने वाले के लाभ के लिये जायदादको अपने पास रखे' ।
( ४ ) फरेबी डिकरीमें-जब किसी बेनामीदार ने असली मालिक के विरुद्ध अदालत में दावा करके साज़िशी डिकरी इसलिये प्राप्त की हो कि असली मालिकके लेनदारोंका रुपया मारा जाय तो उस डिकरीका पाबन्द असली मालिक होगा ।
उदाहरण -- 'क' ने एक मकान 'ख' के नामसे इस मतलब से खरीदा कि वह मकान मेरे लेनदारोंके दावासे रक्षित रहे और खुद उस मकान में 'ख' का किरायेदार बनकर रहने लगा, पीछे 'क' और 'ख' दोनों ने मिलकर अदालत से डिकरी प्राप्त की; अर्थात् 'ख' ने 'क' पर क़ब्ज़ा पानेका दावा किया और एक तरफा डिकरी प्राप्त कर ली; ऐसी सुरतमें 'क' उस डिकरीका पाबन्द है, अब वह डिकरीको रद्द नहीं करा सकता तथा 'ख' को अधिकार है कि 'क' को उस मकानसे निकलवादे और मालिकाना क़ब्ज़ा व दखलकर ले, देखो -- 11.Bom. 708; 10 Mad 17 ऐसी डिकरीमें भी 'क' के लेनदार दखल दे सकते हैं -- 3 Bom. 30.
दफा ७७८ असली मालिक पाबन्द रहेगा
यदि कोई बात विरुद्ध न हो तो बेनामीदारकी तरफसे नालिश करने में, अदालत यह ख़्याल करेगी कि उसने असली मालिकके पूरे अधिकारों सहित यह नालिश दायर की है और जो फैसला उस नालिशका होगा उसका पाबन्द असली मालिक भी उतनाही होगा अर्थात् ऐसा माना जायगा कि मानो वह नालिश असली मालिक ने की थी, देखो - गोपीनाथ बनाम भगवन्त 10 Cal. 697-705; 15 Mad. 267; 29 Cal. 682; 30 All. 30; 22 Bom. 672.
उदाहरण - 'क' ने एक मकान 'ख' के नामसे खरीद किया, खरीदने के समय वह मकान 'ग' के क़ब्ज़े व दखल में था । 'ख' ने 'ग' पर नालिश की कि उस मकानका क़ब्ज़ा व दखल मुझे दिला मिले ( मानलो कि ) मुक़द्दमा डिस्मिस् हो गया । पीछे 'क' ने इस बयानके साथ गं' पर नालिश की कि मकान का असली मालिक मैं हूँ 'ख' का नाम बेनामीदार है, और 'ख' ने अपने मुक
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दफा ७७८]
बेनामी क्या है
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हमेकी पैरवीमें बहुत बेपरवाही की तथा मिलकर डिस्मिस् करा लिया इस लिये मकानका क़ब्ज़ा व दखल मुझे दिलाया जाय, साबित हुआ कि 'ख' की नालिशका शान 'क' को था अदालत ऐसी नालिश को नहीं सुनेगी क्योंकि पहले तो 'ख' की नालिश के फैसले का पावन्द 'क' है, और दूसरे दावा में रेसजुडीकेटा लागू होता है । 'रेसजुडीकेटा' का मूल अर्थ यह है कि दीवानी मोहकमे में फैसल की हुई बातका दुबारा फैसला नहीं होगा। रेसजुडीकेटा' इसलिये लागू होता है कि ज़ाषता दीवानी सन् १६०८ई० की दफा ११ इससे सम्बन्ध रखती है यह दफा सारगर्भित तथा विस्तृत अर्थ की है साधारण समझने के लिये हम इस दफा का सारांश नीचे देते हैं इसीका नाम है 'रेसजुडीकेटा'
'कोई अदालत किसी ऐसे मुक़दमें या विचार्य विषयकी तजवीज़ नहीं करेगी जिसमें वह बात स्पष्ट और वास्तविक विचार्य विषय समझी गयी हो। जो बात कि किली 'पहले मुकदमें में फरीकैन हाल या ऐसे फरीकैन कि जिन के द्वारा हालके फरीकैन या उनमें से कोई एक दावा करते हैं या किसी हवं पर अपना स्वत्वाधिकार कायम करते हैं, स्पष्ट और वास्तविक विचार्य विषय समझकर फैसल की जा चुकी हो(१) 'पहला मुक़दमा' इससे यह मतलब है कि वह मुकदमा जो
वर्तमान मुकदमेसे पहले दायर हुआ हो या न हुआ हो(२) ऐसे प्रश्नके उठनेपर कि अमुक अदालत अमुक मुक़द्दमेकी तजवीज़
करनेका अधिकार रखती श्री या नहीं, इस प्रश्नकी निस्बत अदा.
लत अपीलसे फैसला होगा(३) आवश्यक है कि पहले मुकद्दमे में यह बात जो ऊपर कही गयी है
किसी एक फरीकने बयान की हो और दूसरे फरीकने स्पष्ट या
अर्थवशात् उससे इन्कार किया हो या स्वीकार किया हो(४) प्रत्येक बास जो उस पहले मुकदमे में जवाब देने या दावा करने
की बुनियाद मानी जा सकती थी या मानना चाहिये था तो ऐसा
समझा जायगा कि वह बात स्पष्ट और वास्तव में विवार्य विषय थी(५) जिस बातका दावा, अर्जी दावामें किया गया हो और वह डिकरी
में स्पष्ट रूपसे नामंजूर कर दी गयी हो तो यह बात इस दफाके
मतलबके लिये ऐसी समझी जायगी कि मंजूर नहीं हुई(६)जिस सूरतमें किसी आम हक़ या किसी जाती हक्क के बाबत लोग
दावा करते हों चाहे वह दावा वे अपने वास्ते या कुछ लोगोंकी शिरकतमें करते हों नेकनीयतीसे जब वे अदालतमें नालिश दायर
कर दें तो वे सब लोग जो उस हक़से सम्बन्ध रखते होंगे इस 119
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बेनामीका मामला
[चौदहवां प्रकरण
दफाके मतलबके लिये, नालिश दायर करने वालों के ज़रिये से,
दावीदार समझे जायँगे। दफा ७७९ बेनामीदारके दावा करनेका हल
बेनामीदरको अपने नामसे दावा करनेका हक़ दो तरहका होता है, एक तो वह दावा जो किसी कंट्राक्ट की बुनियाद पर हो और दूसरा वह दावा जो हक़के अनुसार ज़मीनके दिलापानेका हो
(१) कंट्राक्टके दावेके बिषयमें यह माना गया है कि बेनामीदारने जो कन्ट्राक्ट अपने ज़ाहिरा हक़की वजहसे किया हो उसके सम्बन्धमें वह अपने ही नामसे दावा दायर कर सकता है। कारण यह है कि कन्ट्राक्ट जिन लोगों के बीच में हुआ हो वे ही उस कन्ट्राक्टके पूरा करानेका दावा कर सकते हैं इसी सिद्धान्तके अनुसार उक्त बेनामीदारकोही दावा करनेका हक प्राप्त है
उदाहरण--'क' ने 'ख' की जायदाद रेहन करके उसको कर्जा दिया मगर रेहन कराया 'ग' के नामसे । 'ग' अपने ही नामसे 'ख' पर रेहन के सम्बन्धमें दावा कर सकता है। देखो 24 Cal. 34; सच्चिदानन्द बनाम बालराम 24 Cal. 644; 21 All. 380.
निगोशिएबल इन्स्टूमेन्टस् एक्ट नं० २६ सन् १८८१ ई० के अनुसार यह माना गया है कि अगर 'क' प्रामिसरी नोट लिखवाकर 'ख' को क़र्ज़ दे और वह प्रामिसरी नोट 'ग' के नामसे लिखवाया गया हो तो उस नोट के सम्बन्धमें दावा करनेका अधिकार 'ग' को होगा देखो रामानुज बनाम सदागोपा 38 Mad. 2057 28 Mad. 244, 253.
(२) हनके अनुसार ज़मीन दिलापानेके दावाके सम्बन्धमें बहुत मतमेद है। कलकत्ता और मदरास हाईकोर्टीकी तो यह राय है कि जो आदमी जिस जमीनका महज़ बेनामी दार है वह उसका कब्ज़ा दिलापानेका दावा नहीं कर सकता, देखो--हरीगोबिन्द बनाम अक्षयकुमार 16 Cal. 364 ईश्वरचन्द्र बनाम गोपालचन्द्र 25 Cal 98; वरोदासुन्दरी बनाम दीनबन्धू 25 Cal. 874; 30 Cal. 265; मदरासका केस देखो--30 Mad. 245; । लेकिन इलाहाबाद और बम्बई हाईकोटौंकी राय है कि वह ऐसा दावा कर सकता है देखो-इलाहाबादके फैसले-नन्दकिशोर बनाम अहमदअता 18 All 69, 21 All. 3803; 28 All. 44; बम्बईके फैसले-रावजी बनाम महादेव 22 Bom. 672; 22 Bom. 820.
उदाहरण-'क' ने एक मकान खरीदा 'ख' के नामसे, खरीदकी तारीख पर 'ग' उस मकान पर काबिज़ है, 'ख' ने उस मकानका क़ब्ज़ा पानेके लिये 'ग' पर दावा किया, अपने जवाबमें 'ग' ने कहा कि 'ख' उस मकानका असली मालिक नहीं है, सिर्फ बेनामीदार है, अब देखो इलाहा.
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दफा ७७१]
बेनामी क्या है
१४७
बाद और बम्बई हाईकोर्टीकी नज़ीरोंके अनुसार यद्यपि 'ख' बेनामीदार है तिसपर भी वह दावा करनेका अधिकारी है। लेकिन कलकत्ता और मदरास हाईकोर्टीकी मज़ीरों के अनुसार 'ख' ऐला दावा करनेका अधिकारी नहीं है, बल्कि 'क' है। लेकिन अगर 'ग' ऐसा उजुर पेश न करे तो जो डिकरी उस मुकदमे में होगी वह 'ग' और 'क' दोनोंको बराबर पाबन्द करेगी।
इलाहाबाद हाईकोर्ट धेमामीदारको अपने नामसे कब्जेका दावा करने का हकदार इस लिये मानती है कि उसकी रायमें बेनामीदार जाहिरा तौरसे कानूनी हक रखता है और मुहालेह 'ग' को कोई अधिकार नहीं है कि वह यह उजुर पेश करे कि मुद्दई 'ख' असली मालिक नहीं है, देखो-नन्दकिशोर बनाम अहमदअता ( 1895 ) 11 All. 69-76, लेकिन कलकत्सा हाईकोर्टकी राय इसके बिलकुल विरुद्ध है। उसका कहना है कि बेनामीदार बह आदमी है कि जायदाद सिर्फ जिसके नाम पर है। मगर उस जायदादमें उसका कोई कानूनी हक नहीं है देखो-महेन्द्रनाथ बमाम कालीप्रसाद 30 Cal. 265-272.
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दाम दुपटका क़ानून
पन्द्रहवां प्रकरण
दफा ७८० दामदुपट किसे कहते हैं ?
दामदुपका क़ानून हिन्दूलॉ के क़र्ज की एक शाखा है ' दामदुपट यह शब्द हिन्दी भाषा के दो शब्दोंके योगसे बना है, एक 'दाम' दूसरा 'दुपट ' दामसे मतलब मूलधनसे और दुपटसे मतलब दूनेसे है यानी मूलधनका दूना इस दामदुपटके क़ायदे के अनुसार किसी एक वक्तमें मूलधनसे अधिक ब्याज की रक़म नहीं ली जा सकती - देखो - ढूंढूं बनाम नरायन | Bom. H. C. 47. दामदुपटका क़ानून नया नहीं है बल्कि बहुत पुराना है, मनु, याज्ञवल्क्य आदिने, ब्याज कहां तक लिया जाय इस विषय में जो नियम बनाया था वह अब भी अंग्रेजी अदालतों में माना जाता है, भेद केवल इतना पड़ गया है कि प्राचीन कालमें सर्वत्र यह नियम माना जाता था अब सर्वत्र नहीं माना जाता । देखो मनु और याज्ञवल्क्यका मत-
3
कुसीदवृद्धिद्वैगुण्यं नात्येतिसकृदाहृता । मनु-- १५१ वस्त्र, धान्य, हिरण्यानां चतुस्त्रिद्विगुणापरा । याज्ञ २-३६
मनु -- कहते हैं कि मूलधनका ब्याज, एक समय में, मूलधनके दूने से अधिक नहीं मिल सकता तथा याज्ञवल्क्य कहते हैं कि वस्त्र, अन्न, और सुवर्ण ( धन ) इनका व्याज क्रमसे चौगुना, तिगुना और दूनेसे अधिक नहीं हो सकता । अर्थात् कपड़ेके क़र्जका ब्याज चौगुना, अन्तका तिगुना, और रुपये के क़र्जका ब्याज ज्यादासे ज्याज दूना हो सकता है ।
उदाहरण-क़ानूनके अनुसार दाम दुपटका उदाहरण ऐसा समझो कि महेशने १०००) रु० गणेशको दो रुपये सैकड़े माहवारीके सूदपर क़र्ज़ा दिया, जब सूदकी रक़म १५००) होगयी तब महेशने गणेशपर २५००) की नालिशकी ( मूलधन १०००) रु० और सूद १५००) रु० ) दामदुपटके क़ायदेसे महेशको कोई हक़ नहीं है कि वह व्याजकी रक़म मूलधनसे अधिक किसी एक वक्त में लेसके, महेशको २०००) रु० से ज्यादा डिकरी अदालत नहीं देगी किंतु यदि महेशने मूलधनका सूद चाहे क़िस्त बंदीसे या फुटकल तौर से ५००) नालिश करने से पहिले वसूल कर लिये हों तो ऐसा करनेका वह हक़दार है ।
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दाम दुपट क्या है
दफा ७८०-७८२ ]
यद्यपि यह ५००) रु० उसी सूदके पेटे मिला है मतलब यह है कि महेश एक वक्तमें मूलधन की रक्तमसे ज्यादा सूद नहीं पासकता; थोड़ा थोड़ा करके चाहे मूलधनसे ज्यादा भी वसूल कर लिया हो तो हर्ज नहीं है । नालिशमें मूलधनकी रक्क्रमसे ज्यादा सूद नहीं पासकता । यह भी ध्यान रहे कि महेशने एक वक्तमें यदि १००१) रु० बाबत सूदके वसूल किये हों तो ऐसा वह नहीं कर सकता, कारण यह है कि दामदुपटके क़ानूनका मुख्य मतलब यह है कि कोई एक वक्तमें मूलधन से अधिक ब्याज की रक़म न ले, अर्थात् भिन्न भिन्न समय में ले सकता है मगर हर समय में शर्त यही रहेगी कि सूद की रक़म मूलधन से ज्यादा न हो ।
४६
ब्याज के क़ानून को रद करने वाला एक्ट नं० २८ सन् १८५५ ई० में दाम दुपटका कायदा नहीं माना गया । इस एक्ट के अनुसार लेनदारको उस कुल सूदके पानेका हक़ है जो ठहर गया हो चाहे वह मूलधनसे कितना भी ज्यादा हो, लेकिन ऐसे मामलों में दाम दुपट का क्रायदा खास तौर से लागू होता है वहां पर लेनदार किसी एक वक्त में मूलधनकी रक्रमसे ज्यादा ब्याज नहीं ले सकता, देखो - खुशालचन्द बनाम इब्राहीम 3 Bom H. C. A. C. 23; 7 Bom. H. C. O. C. 19; 3 Bom. 312, 338; 5 Cal. 867.
दफा ७८१ कहांपुर दामदुपट माना जायगा
दामदुपटका क़ायदा समस्त बम्बई प्रान्त (प्रेसीडेन्सी) में माना जायगा देखो- - नरायण बनाम सतनाजी 9 Bom H. C. 83, 85; और सिर्फ कलकत्ता शहरमें माना जायगा, देखो - नवीनचन्द्र बनाम रमेशचन्द्र 14 Cal. 781; लेकिन बंगालके और किसी भागमें नहीं माना जायगा, देखो -- हितनरा
न बनाम रामधनी 9 Cal. 871; मदरास प्रान्त में यह क़ायदा नहीं माना जाता, देखो -- 6 Mad. H. C. 400; इसी तरहपर संयुक्त प्रान्त, मध्यप्रान्त, पंजाब आदि यानी बम्बई प्रान्त और कलकत्ता शहरको छोड़कर हिन्दुस्थानके किसी भागमें यह क़ायदा नहीं माना जाता ।
दफा ७८२ दामदुपटमें मियादका क़ानून
दामदुपटके क़ायदेपर क़ानूनं मियादका कुछ भी असर नहीं पड़ता, क़ानून मियादके अनुसार क़र्जा देनेके बादसे तीन वर्षकी मियाद मानी गयी है और इससे लेनदार तीन वर्षके ब्याजका दावा कर सकता है, रक्कम चाहे कुछ हो मगर जिन मामलोंसे दामदुपट लागू होता है उनमें कोई लेनदार एक वक्त में मूलधनकी रक्क्रमसे अधिक ब्याज नहीं सकता, देखो- - 3 Boma 312, 332; 9 Bom, 233,
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दाम दुपटका कानून
[पन्द्रहवां प्रकरण
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दफा ७८३ जहांपर मूलधनका कोई भाग अदा कियागया हो
जब कोई क़र्जा निस्तबन्दीकी शर्तसे लेने के लिये दिया गया हो और कुछ निस्ते उस शर्तके अनुसार अदा भी होचुकी हों, अथवा किस्तबन्दीसे लेनेके लिये न दिया गया हो एक मुश्त लेने की शर्तसे दिया गया हो और उसका कुछ हिस्सा अदा कर दिया जाय तो दामदुपटका मूलधन वह रकम समझी जायगी जिसपर ब्याज लगाकर नालिश की गयी हो, देखो-डगडूसा बनाम रामचन्द्र (1895 ) 20 Bom. 611; 30 Bom. 452.
उदाहरण-महेशने गणेशको ४००) रु० एक रुपया सैकड़े माहवारीके व्याजपर कर्ज दिया और शर्त यह थी कि यह रुपया १००) रुकी किस्तबन्दी से अदा किया जायगा इसके अनुसार गणेशने तीन किस्ते सूद सहित जो उस वक्त तकका था अदा करदी, पीछे महेशने गणेशपर १००) रु० आखिरी किस्त का और १२५) ब्याजका दोनों जोड़कर २२५) रु० की नालिश की । दामदुपट के कायदेके अनुसार महेश १००) रु० से ज्यादा सूद नहीं पा सकता यही सूरत उस कर्जेसे लागू होगी जो क़िस्तवन्दीसे न दिया गया हो-दोनोंमें यही देखा जायगा कि मूलधन वह है जिसपर ब्याज लगाया गया हो। दफा ७८४ पीछे के इकरारसे ब्याजका मूलधन होना
प्राचीन कायदा भी यही था देखिये मनु (८-१५४, १५५ ) में कहते हैं कि यदि ऋणी, कर्जा न चुका सके तो धनीको ब्याज देकर फिरसे लिखत लिखदे, यदि ब्याज भी न दे सके तो मूलधन और ब्याज मिलाकर धनी को लिखत करदे ऐसा करनेसे वह ब्याज भी मूलधन समझा जायगा। श्लोक देखो
ऋणंदातुमशक्तोयः कर्तुमिच्छेत्पुनःक्रियाम् सदत्वानिर्जितांबृद्धिं करणंपरिवर्तयेत् । ८-१५४ अदर्शयित्वातत्रैव हिरण्यं परिवर्तयेत् यावतीसम्भवेद् बृद्धिस्तावतींदातुमर्हति । ८-१५५
साकलाल बनाम बापू ( 1898 ) 24 Bom. 305 वाले मामले में यही बात मानी गयी है कि किसी पहलेके कर्जे के बारेमें नया दस्तावेज़ लिखा गया हो जिसमें पिछला मूलधन और उसका ब्याज दोनों मिलाकर मूलधन माना गयाहो और उसपर सूद चालू कियागयाहो तोदामदुपटके कायदेके लिये नयी दस्तावेज़में लिखी रकम मूलधन मानी जायगी।
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दफा ७८३-७८६ ]
दफा ७८५ मुक़द्दमा दायर करनेपर दामदुपट लागू नहीं होता
जब किसी क़र्जेकी नालिश अदालतमें दायर की गयी हो तो उस वक्त से दामदुपटका क़ायदा लागू नहीं होता अर्थात् यद्यपि कोर्ट इस बातकी पाबन्द है कि नालिश दाखिल करनेकी तारीखसे डिकरीकी तारीखतक दामदुपटका क़ायदा लागू रखे फिरभी उसे अधिकार है कि लेनदारके ठहरे हुये व्याजके हिसाब से, नालिशकी तारीख से डिकरीकी तारीख तक उसे मूलधन मानकर उसपर ब्याज दिलाने, देखो - 22 Bom. 86; 37 Bom. 226-3385 40I. A. 68; 33 Cal. 1269-1276.
दाम दुपट क्या है
५१
कानून जानता दीवानी सन् ११०८ ई० की दफा ३४ भी देखो, इसमें कहा गया है कि 'जब अदालतने रुपयाकी डिकरी दी हो तो अदालतको अधिकार है कि, उस सूदके अलावा जो नालिश दायर करने की तारीख तक मूलधनमें शामिल किया जा चुका है, जिस मूलधनकी डिकरी हो उसपर नालिश की तारीख से डिकरी तक तथा डिकरीले अदा होने तक सूद मजमूयी रक़म पर जो अदालतकी राय में मुनासिब मालूम हो दिलानेका हुक्म दे । यदि सूद के बारेमें अदालतने कोई हुक्म न दिया हो तो माना जायगा कि उसने सूद नहीं दिलाया ।
उदाहरण - महेशने गणेशको १०००) रु० २||) रु० सैकड़े माहवारी के हिसाबसे क़र्जा दिया, पीछे महेशने २५००) रु० की नालिश की जिसमें १००० ) रु० मूलधन और १५०० ) रु० ब्याजका था । दामदुपटके क़ायदे से अदालत २०००) रु० से अधिक डिकरी नहीं देगी लेकिन उसे यह अधिकार है कि जाबता दीवानी सन् १६०८ ई० की दफा ३४ के अनुसार २०००) रु० पर नालिशकी तारीख से डिकरीकी तारीख तक उसी सूदकी शरहसे सूद दिला दें जो पहले ठहरा हुआ था ( २ ॥ ) रु० ), और डिकरीकी कुल रक़मपर भी सूद दिलाये जो उसे मुनासिब मालूम हो । डिकरीके पीछे चाहे जितना ब्याज बढ़गया हो उसके वसूल करनेमें दामदुपट लागू नहीं होता क्योंकि डिकरीके पश्चात् यह क़ायदा बन्द हो जाता है, देखो -- ( 1875 ) 1 Bom. 73; लालबिहारीदत्त बनाम धाकूमनी ( 1896 ) 23 Cal. 899.
दफा ७८६ दाम दुपट इफिकाक रहनसे भी लागू होगा
दाम दुपटा कायदा न सिर्फ उन क़जौंकी नालिशसे लागू होगा जो बिना किसी लिखतके, या प्रामेसरी नोट, या तमस्सुक आदिके द्वारा दिये गये हों बल्कि जब कोई नालिश रेहन रखने वालेकी तरफसे 'इनफिकाक रेहन ( रेहन से छुटाना ) की कीजाय तो भी दाम दुपट लागू होगा।
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६५२
दाम दुपटका कानून
[पन्द्रहवां प्रकरणं
दफा ७८७ कौन आदमी दाम दुपटका हक़ रखते हैं
(१) कलकत्ता हाईकोर्ट के अनुसार, दाम दुपटका कायदा उस वक्त लागू किया जायगा कि जब क़र्जा देने वाला और लेने वाला दोनों हिन्दू हों देखो-उमा बनाम श्रीहरि 1 C. W. N. ( Short notes) 178; 14 Cal. 781; यानी अगर क़र्जा देने वाला मुसलमान है और लेने वाला हिन्दू, या ईसाई है लेनेवाला और देने वाला है हिन्दू उन सूरतोंमें यह कायदा नहीं माना जायगा।
(२) बम्बई हाईकोर्ट के अनुसार यह बात परमावश्यक है कि क़र्ज़ा लेने वाला हिन्दू हो तभी दाम दुपटका कायदा लागू पड़ेगा, इसका नतीजा थह होता है कि अगर कर्जा लेने वाला मुसलमान हो और देने वाला हिन्दू हो तो लागू नहीं पड़ेगा, देखो-3 Bom. 131; 18 Bom. 2:27. लेकिन उस वक्त लागू पड़ेगा जब कर्जा देने वाला मुसलमान या दूसरी कौमका हो और लेने वाला हिन्दू, देखो-अलीसाहेब बनाम शिवाजी 21 Bom. 85. अगर क़र्जा लेने के समय क़र्जदार हिन्दू हो और पीछे मुसलमान हो जाय तो यह कायदा लागू पड़ेगा मगर उस वक्त लागू नहीं पड़ेगा जबकि क़र्जा लेते समय मुसलमान हो और उसने पीछे उस कर्जेको किसी हिन्दूके हक़में इन्तकाल कर दिया हो, देखो-हरीलाल बनाम नागर 21 Bom. 38.
जबकि पहला क़र्जदार हिन्दू है और ब्याजकी रकम मूलधनसे ज्यादा बढ़ गयी है उसके बाद वह कर्ज किसी मुसलमानपर बदल कर चला गया, तो ऐसी सूरतमें दाम दुपटका कायदा उसी हद्द तक लागू समझा जायगा जहां तक कि वह क़र्जा हिन्दूके ऊपर था। जिस तारीखसे कर्ज मुसलमानपर मुन्तकिल होगया उसी वक्तसे दामदुपट टूट जायगा। मुसलमानके पास जिस तारीखसे वह कर्ज आया है मूलधनके दूने रुपये परसे आगेका ब्याज शुरू रहेगा यानी जब तक हिन्दू कर्जेका जिम्मेदार है तब तक मूलधनके दूने से अधिक लेनदार नहीं ले सकता था, देखो-अलीसाहेब बनाम शिवाजी 21 Bom. 85.
उदाहरण-एक मुसलमान नूरखांने १२२) रु० किसी ब्याजपर हमेश हिन्दूसे कर्ज लिया और अपनी जायदाद उसके बदलेमें रेहन करदी पीछे नूरखांने अपना हक़ इनफिकाक जायदादका एक हिन्दू गणेशके हाथ बेच दिया। महेश ने गणेशपर अपने ५४०)रु० मिलनेका दावा किया इस बयानसे कि १२२) रु० मूलधन और ४१८) रु० बाबत ब्याजके जो दावेमें शामिल हैं दिलाये जायें। गणेशने उजुर पेश किया कि वह और वादी दोनों हिन्दू हैं दाम दुपटका कायदा लागू होना चाहिये यानी वादी मूलधनसे दूनी ब्याज पानेका अधिकारी है ज्यादा नहीं । ऐसी सूरतमें यह कायदा लागू नहीं होगा क्योंकि प्रथमका क़र्जदार मुसलमान नूरखां था इससे महेश कुल दावेकी डिकरी पा सकता है।
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दफा ७८७-७८८ ]
दाम दुपट क्या है
गणेश एक हिन्दू है उसने ३००) रु० दो रुपये सैकड़े माहवारीके सूद पर नूरखां मुसलमान से क़र्जा लिया और अपनी जायदाद उसमें रेहन करदी पीछे गणेश अपना इनफिक़ाक्नका हक़ अल्लाहबख़्शके हाथ बेच दिया । नूरखांने अल्लाहबख़्श पर १५०० ) रु० की नालिश इस बयानके साथ दायरकी कि ३००) रु० मूलधन और १२००) रु० ब्याज जो रेहन करने की तारीखसे, दावा करने की तारीख तक होता है दिलाया जाय । ऐसी सूरतमें नूरखां सिर्फ ३००) रु० मूलधन और ३००) रु० व्याजके पानेका हक़दार है ज्यादा नहीं क्योंकि प्रथमका क़र्जदार हिन्दू था यह माना गया है कि अगर नूरखां मणेश पर नालिश करता तो उसे जितना हक़ दाम दुपटके क़ायदेके अनुसार उस समय होता उसी क़दर वह डिकरी पानेका उस वक्त भी हक़ रखता है जबकि उसने अपना हक़ अल्लाह बख्श के हाथ बेच दिया - 21 Bom. 85.
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दफा ७८८ कैसे क़जैंमें दाम दुपट लागू पड़ेगा
दाम दुपटका क़ायदा सिर्फ सादे क़र्जेमें ही लागू नहीं होगा बलि उस कर्जे में भी लागू होगा जिसमें कोई जायदाद मनकूला या गैरमनकूला (स्थावर, जंगम ) रेहन की गयी हो, देखो - नाथूभाई बनाम मूलचन्द 5 Bom. H. C. A. C. 196. नरायण बनाम सत्यवाजी 9 Bom H. C. 83; 24 Bom.114; 6 Bom. H. C. A. C. 90; 21 Bom. 85; 8 Bom. 312.
मगर जब कोई जायदाद क़र्जाके सूदके बदले में लेनदारके क़ब्जे व दखल में देदी गयी हो तो उसकी सूरत कुछ निराली है देखो
( १ ) जिस जायदाद का किराया या मुनाफा निश्चित है और दोनोंने यह मंजूर कर लिया हो कि लेनदारके व्याजकी ठीक रक़मके बदले या उसकी ब्याज़के किसी अंशके बदले जायदाद रेहन करने वाला ( धनी ) रेहनकी हुई जायदादसे वह किराया या मुनाफ़ा वसूल कर लिया करे तो ऐसी सूरत में दाम दुपट लागू होगा, देखो - 20 Bom. 721; 22 Bom. 86.
(२) जिस जायदादकी आमदनी अनिश्चित है और दोनोंके बीचमें कोई इक़रार नहीं हुआ, ऐसी सूरतमें जिसके पास वह जायदाद रेहन है, उस जायदाद की आमदनी का हिसाब राहिन को देनेके लिये वह पाबन्द है । नतीजा यह हुआ कि अगर जायदादकी आमदनी लेनेपर व्याज मूलधनसे अधिक होगया हो तो दाम दुपट लागू नहीं होगा, देखो - 5 Bom. H. C. A. C. 196-199.
उदाहरण - ( १ ) महेशने गणेशसे १०००) रु० बीस रुपये सैकड़ा सालाना सूदके हिसाब से क़र्ज लिया और इस क़र्जमें एक मकान अपना रेहन करकै क़ब्ज़ा व दखल गणेशको दे दिया। रेहनकी तारीखसे किरायेदार सब गणेश होगये दोनों में यह शर्त थी कि गणेश किरायेदारोंसे भाड़ा वसूल कर
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दाम दुपटका कानून
[पन्द्रहवां प्रकरण
लिया करे । भाडा १५०)रु० सालका था इसलिये यह भी शर्त थी कि ५०)रु० महेश हर साल ब्याजका अपने पाससे अदा करता रहेगा क्योंकि २००) रु० व्याजका होता था। पीछे गणेशने २२००)रु० की नालिश महेश पर इस बयान से की कि १०००) रु० मूलधन और १२००)रु० ब्याजका जो पिछल गया है दिलाया जाय । इस जगह पर प्रश्न यह है कि क्या गणेश १२००)रु० सूद पाने का हक़दार है ? उत्तर यह है कि हरगिज़ नहीं क्योंकि कोई हिसाब करना नहीं था इसलिये दाम दुपट लागू होगा और गणेश को मूलधन के दूने से ज्यादा डिकरी नहीं मिलेगी।
(२) अब ऐसा मानो कि गणेश और महेशके बीच में कोई इकरार नहीं हुआ कि गणेश ब्याजके बदलेमें भाड़े की आमदनी लेगा, और आमदनी भी अनिश्चित है, रेहनके बाद गणेश उसकी आमदनी लेता रहा। आखीरमें गणेश ने इस बयानसे नालिश की कि मूलधन १०००) रु० और ब्याज १२००) रु० कुल २२००) रु० दिलाया जाय । ऐसी सूरतमें दाम दुपट लागू नहीं होगा क्योंकि अगर हिसाबके वक्त यह मालूम हो कि आमदनी जो बादी को मिलती है उसके मुजरा देनेपर उसका रुपया मूलधन से ज्यादा बाकी रहता है तब वह २२००) रु० की डिकरी पानेका हकदार है । विस्तारसे देखो-35 Bom. 199821 Cal. 840.
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दान और मृत्युपत्र हिबा और वसीयत
अर्थात्
सोलहवां प्रकरण
दान दफा ७८९ दान शब्दकी उत्पत्ति और व्याख्या
'दान' यह शब्द संस्कृत भाषाका है। संस्कृतके व्याकरणके अनुसार 'बुदा-दाने' धातुसे भावमें 'लुद्' प्रत्यय होकर 'दान' शब्दकी सृष्टि हुई है। इसका मूल अर्थ है देना, और जब यह दान शब्द संक्षावाचक होता है तो इसका अर्थ दान-संग्रह ग्रन्थमें यों किया है--
"परस्वत्वोत्पत्त्यंतो द्रव्यत्यागो दानम्"
अर्थात् धन ( स्थावर या जंगम ) में अपने सब अधिकार छोड़देना और वे सब अधिकार दूसरेके पैदा होजाना,यह बात जिसमें हो वह काम 'दान' है। दानको उर्दू भाषामें 'हिबा' कहते हैं और अगरेजीमें 'गिफ्ट' । दान और वसीयतमें यह फरक्क है कि दानका काम पूरा होते ही दान दी हुई संपत्तिपर से दान देनेवालेका सब हक्क चला जाता है। किन्तु वसीयतमें नहीं चला जाता उसमें उसके जीवनतक बना रहता है, दान बदल नहीं सकता किन्तु वसीयत बदल सकती है इत्यादि । दानकी अधिक व्याख्याके लिये देखो-शब्दकल्पद्रुम, और चतुर्वर्ग चिन्तामणिका दान-प्रकरण तथा दानचन्द्रिका,दानमीमांसा, दानकौस्तुभ आदि । दफा ७९० धर्मशास्त्रमें चार प्रकारके दान
नारद कहते हैं किअथदेयमदेयंच दत्तंवादत्तमेवच व्यवहारेषु विज्ञेयो दानमार्गश्चतुर्विधः
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दान और मृत्युपत्र
[ सोलहवां प्रकरण
प्राचीन हिन्दूलॉमें चार प्रकारके दान माने गये हैं । वे यह हैं ( १ ) देय अर्थात् जो दिया जा सकता हो ( २ ) अदेय अर्थात् जो न दिया जा सकता हो ( ३ ) दत्त, अर्थात् जायज़ दान ( ४ ) अदत्त, अर्थात् नाजायज़ दान इस सम्बन्धमें याज्ञवल्क्यका वचन इस प्रकार है
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स्वकुटुम्बा विरोधेन देयंदारसुताद्रते नान्वयेसति सर्वस्वं यच्चान्यस्म्यैप्रतिश्रुतम् ।
अपने परिवार के भरणपोषणसे जो धन बचे वह दान करनेके योग्य है और स्त्री तथा पुत्रादिका दान नहीं हो सकता एवं परिवार वाले मनुष्यको उचित है कि सर्वस्व यानी मौरूसी और निजकी कमाई हुई स्थावर संपत्ति का सब दान न करे और जिसे दान देनेकी प्रतिज्ञा करे उसीको दे । आजकल क़ानूनमें यह बात स्पष्ट रूपसे मानली गयी है कि निजका कमायाहुआ स्थावर धन जिसका वह अकेला पूर्ण अधिकारों सहित मालिक है सबका सब दान कर सकता है । अदालत उसे जायज़ मानेगी, जंगम संपत्तिका दान तो जायज़ माना ही जाता है यदि कोई विशेष बात लागू न हो ।
हिबानामे पर प्रिवी कौन्सिलका मशहूर मुक़द्दमा - राव नरसिंहराव मुद्दई पीलाण्ट बनाम बेटी महालक्ष्मीबाई वगैरा मुद्दालेहुम रेस्पान्डेण्ट 26 All. L. J. 897 ( 1928 ) मामला यह था कि लखना स्टेट जिला इटावा के मालिक राजा यशवन्तराय थे उनका एकलौता लड़का बलवन्तसिंह था । बलवन्तसिंह बड़ा दुराचारी था और उसे क़तलके मुकद्दमे में देशनिष्कासनकी सज़ा मिल चुकी थी । राजा यशवन्तरावने ता० ४ सितम्बर सन् १८७५ ई० को एक हिबा - नामा लिखा (Gift ) जिसका खुलासा यह है कि राजा यशवन्तरावने अपने लड़के बलवन्तसिंहको वरासतसे वंचित किया और साफ़ लिख दिया कि मेरी जायदाद मेरे लड़के को न मिले साथही यह इच्छा प्रकटकी कि जब मेरे लड़के बलवन्तसिंह के लड़का ( पोता ) पैदा हो जाय तो उसकी १८ वर्षकी उमर समाप्त होने पर मेरी जायदाद उसे मिले। इस मतलब के लिये राजा यशवन्तरावने हिचनामे में यह लिखा कि मेरी जायदाद मेरी दूसरी विधवा रानी किशोरीको मिले और उसके बाद मेरी लड़की महालक्ष्मी बाईको मिले उसके पीछे मेरी लड़की के लड़के लाल रघुबन्शरावको मिले हिबा में अन्य अनेक शरायतें हैं कि किसके मरनेपर या किसके न होने पर कौन कैसा अधिकार रखेगा ।
राजा यशवन्तरावके मरनेपर लड़के बलवन्तसिंहने दावा किया कि मुश्तरका खान्दानकी जायदादमें वापको ऐसा हिवानामा करनेका अधिकार न था यह मुकद्दमा प्रिवी काउन्सिल तक गया और हर एक अदालतसे यही तय हुआ कि सब जायदाद राजा यशवन्तरावकी निजकी कमाई हुई थी इस
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दफा ७६.]
दानके नियम
लिये उन्हें पूरा अधिकार हि बानामा करनेका था, नतीजा यह हुआ कि बलवन्तसिंह हर जगह से हारा और नाकामयाब रहा।
बलवन्तसिंहकी दूसरी शादी हुन्नोजीके साथ हुई और कहा जाता है कि उससे एक लड़का नरसिंहराव पैदा हुआ। जब नरसिंहरावकी उमर १८ वर्ष समाप्त हुई तब उसने अपने दादा यशवन्तरावके हिबानामाके मुताबिक रानी किशोरीपर दादाकी जायदाद वापिस पानेका दावा दायर किया । जवाब दावामें कहा गया कि नरसिंहराव, बलवन्तसिंहका लड़काही नहीं है और हुन्नोजीके गर्भसे कभी पूरे महीनोंका कोई लड़का ही पैदा नहीं हुआ है। अदा. लत मातहत और हाईकोर्टके जज महोदयोंने बहुत ज़ोर इस बारेमें दिया कि हुन्नोजीकी डाक्टरी परीक्षा लेडी डाक्टरोंसे कराई जाय कि उनके कभी पूरे महीने का लड़का पैदा हुआ है या नहीं। हुन्नोजीने बराबर, डाक्टरी परीक्षा देनेसे इनकार किया और नहीं दी तब दोनों अदालतोंमे यानी अदालत मातहत और हाईकोर्टने फैसला दिया कि मुद्दई नरसिंहराव अपनी पैदाइशकी असलियत साबित नहीं कर सका इसलिये दावा खारिज किया जाता है। नरसिंहरावने प्रिवी कौन्सिलमें अपील की। इस बीचमें हुन्नोजी कुछ समय गायब रहीं और बादमें वह विलायत पहुंची विलायतमें अपीलाण्ट नरसिंहराव ने प्रिवी काउन्सिलमें एक दरख्वास्त दी कि मु० हुम्रोकुंवर अब लेडी डाक्टर परीक्षा करानेको तैय्यार होगई हैं। प्रिवी कौन्सिलके जजोंने यह दरख्वास्त मंजूर की और एक लेडी डाक्टर प्रिवी कौन्सिलके जजोंने व एक लेडी डाक्टर रेस्पान्डेण्टने व एक लेडी डाक्टर अपीलाण्टकी तरफसे नियुक्त कीगयीं। तीनों लेडी डाक्टरोंने हुन्नोजीकी परीक्षा नये ईजाद साइन्सकी रूसे की और रिपोर्ट यह दी कि हुन्नोजीके पूरे महीनेका लड़का पैदा हुआ है। इस रिपोर्ट के आनेपर प्रिवी कौन्सिलने मुकदमा मज़ीद फैसलेके लिये इलाहाबाद हाईकोर्टको वापिस किया। हाईकोर्टने सब बातोपर विचार करके नरसिंहरावका दावा डिकरी कर दिया अर्थात् यह माना कि मुद्दई बलवन्तसिंहका लड़का है और रानी किशोरीके पास जायदाद अमानतके तौरपर अभी तक थी वह जायदादकी संरक्षक थी अव असली वारिसको दी जावे। यह तजवीज लिख कर हाईकोर्ट इलाहाबादने प्रिवी कौन्सिलको भेज दी जब प्रिवी कौन्सिलमें क़तई फैसलेके लिये यह अपील पेश हुई तो रेस्पान्डेन्ट यानी रानी किशोरीकी तरफसे माननीय पं० मोतीलाल नेहरू और सरजाम साइमन (जो जनवरी सन १९२६ ई० ) में भारतकी नैतिक परिस्थितिकी जांचके लिये कमीशनके प्रमुख होकर आये थे और जो कमीशन 'साइमन कमीशन' के नामसे विख्यात हुआ ) ने बहस की । बहसके प्रधान प्रश्न यह थे कि जिस समय राजा यशवन्तरावने हिबानामा लिखा था उस समय किसी हिन्दूको यह अधिकार नहीं था कि आगे पैदा होने वाले व्यक्तिके हकमें हिबा कर सके यानी जो व्यक्ति
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दान और मृत्युपत्र
[सोलहवां प्रकरण
हिबा करने के समय जीविन नहीं है उसके हक़में हिबा कर सके । दूसरी बहस यह बड़े ज़ोरोंसे कीगयी कि हिवानामा रानी किशोरीके हक़में पूरे अधिकार देता है तो हिवाका असर रानी किशोरीको जायदाद पहुंचने पर खतम होगया अब मुदईको उसके ज़रिये कोई हक़ बाक़ी नहीं रह जाता। दोनों बहसे बड़े मार्केकी थी। उस समय तककी शायद कोई नज़ीर या कानून इस सम्बन्धमें नहीं बचा जो बहसमें न लाया गया हो। अन्तमें प्रियो कौन्सिलने तय किया कि:
(१) हिवानामाकी शर्तोसे साफ मालूम होता है कि जायदाद सीमाबद्ध अधिकारों के साथ रानी किशोरीको नहीं दी गयी थी, बल्कि पूरे अधि. कारों के साथ दी गयी थी, जब एक बार हिवानामेके ज़रियेसे जायदादमें पूरे अधिकार मिलजावे तो हिचानामे में लिखी हुई उसके आगेकी शरायत बेअसर हो जाती हैं। (२) ता० ४ सितम्बर सन् १८७५ ई० में भारतमें यह कानून जारी न था कि पैदा होनेवाले किसी शख्सके हकमें कोई हिन्द दान या वसीयत कर सके । (३) बाप निजी कमाई हुयी जायदादको लड़कोंकी बिना मंजूरी सिर्फ अपनी इच्छानुसार दान या वसीयत कर सकता है। (४) दान या वसीयत करने वाले की इच्छानुसार किसी स्त्रीका स्त्रीधन बन जाता है अर्थात् यदि जायदादका पूरा मालिक किसी स्त्रीको ऐसा दान या वतीयत कर दे कि वह जायदाद उस स्त्रीका स्त्रीधन मानी जाय तो स्त्रीधनकी जायदादमें वह जायदाद भी शामिल हो जायगी जो दान या वसीयतसे इस प्रकार मिली है। दफा ७९१ लिखित नहीं बल्कि क़ब्ज़ा ज़रूरी है
हिन्दूलॉके अनुसार जायज़ दानके लिये किसी प्रकारकी लिखतकी ज़रूरत नहीं है, देखो-26 W. R. 53; 3 I. A. 259; 6 M. I. A. 267; 18 W. R. 293; दानके जिन मामलोंसे कानून इन्तकाल जायदाद लागू नहीं होता वे दान चाहे ज़बानी या लिखतके द्वारा किये गये हों, जायज़ माने जावेंगे-4 B. H. C. A. C. 31; 5 B. H C. O.C, 83; दानके जायज़ बनाने के लिये हिन्दूलॉके अनुसार उस जायदादपर दान लेने वालेका क़ब्ज़ा करा देना ज़रूरी है, देखो-4 M. H.C. 460; 4 B. H. C A. C. 31; 18 Bom. 688; 17 Bom. 486; 20 Cal. 464; 28 Bom. 449; 7 Bom. L. R. 45%; 9 Cal. 854.
किसी हिन्दू के स्वयं उपार्जित धनके हिवः करने में, उसकी विधवा बहू की परवरिशके अधिकार हस्तक्षेप नहीं करते मु० भगवन्ती बनाम ठाकुरमल 91 I. C. 476 (1); A. I. R. 1926 Lah. 198.
शों के होनेसे पूरा हक़ न होगा-अगर हिबानामा ( दान पत्र) में कोई शर्ते लगा दी गयी हों जिन शौंका असर दानकी जायदादपर पड़ताहो
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दफा ७९१-७६२]
दानके नियम
तो माना जायगा कि दान लेने वालेको पूरे पूरे अधिकार उस जायदाद में नहीं प्राप्त हुये वह पूरा मालिक उस जायदादका महीं है, देखो - 1924 A. I. R. 191 Pri.
५
दफा ७९२ दान देनेका अधिकारी कौन हैं
( १ ) हिन्दू अपने अधिकारकी किसी भी जायदादका इन्तक़ाल दान के तौरपर कर सकता है, देखो -1 Mad. H. C. 393; या उस जायदा इपर किसी दानका बोझा डाल सकता है, देखो - 7 Mad. 23.
( २ ) किसी शारीरिक दोष के कारण कोई हिन्दू यदि अपने वरासत का अधिकार काममें लानेसे बंचित किया गया हो तो भी वह अपने हक़ की. जायदादको दानके तौरपर दे सकता है, देखो - श्यामाचरण बनाम रूपदास बैरागी 6 W. R. C. R. 68.
(३) बाप या भाई ज़मीनका दान लड़की या बहनको कर सकता हैएक बापने मौरूसी जायदादका दान अपनी लड़की को दिया जिसका विवाह हुये ४० वर्ष हो चुकेथे जायज़ माना गया, देखो - 10 Indian Cases 56; 9 M. L. T. 469; 21 M. L. J 695, इसी तरहसे भाईने भी अपनी विवाहिता बहन के हक्रमें दान किया वह भी जायज़ माना गया 17 M. L. J. 528.
( ४ ) बापकी जायदाद, लड़की दान कर सकती है-एक हिन्दू लड़की जो बापके मरनेपर उसकी छोड़ी हुई जायदादकी उत्तराधिकारिणी हुई थी, उस जायदादका कुछ थोड़ासा भाग उसने बापके श्राद्धके अवसरपर दान कर दिया लड़की के पश्चात् वाले वारिस उसे कोई रुकावट नहीं डाल सकते जब कि जायदादका थोडासा भाग ऐसे कामोंके लिये बेचा या दान दिया जाय, 6 Indian Cases 240-242; 8M. L. T. 74.
(५) विधवा अपनी लड़की के विवादमें जायदादका योग्य भाग दान दे सकती है, देखो - 22 Mad. 113, 8 M. L. J. 170.
(६) कुष्ठी या घृणित रोग से पीड़ित -6 W. R 68.
(७) मौरूसी पट्टेदार - पंजाबका एक मुक़द्दमा है जिसमें ज़मीन के एक मौरूसी पट्टेदारने अपने भतीजे और दत्तक पुत्रको वह ज़मीन दान कर दी, जायज़ माना गया। यहांपर दान देनेवाले हीके खानदानके वे दोनों थे, और ज़मीनके वारिस होते 18 P. R. 1868 Civil.
भतीजे को दान पंजाबमें - जिला गुजरात तहसील खरियान के किसी गूजरको अधिकार है कि वह अपने किसी एक भतीजेको अपने जायदादका हिबा, अन्य भतीजोंको छोड़कर करे, जब कि दान पानेवाला भतीजा लड़कपन से ही उसीके द्वारा पाला गया है और हिबानामा उसकी (भतीजेको) सेवाओं
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३६०
दान और मृत्युपत्र
[सोलहवां प्रकरण
के बदलामें किया गया हो । सरदार आलम बनाम मुहम्मद आलम A. I. R. 1927 Lah. 41.
(८) गैर आदमीको दान-एक हिन्दूके सिर्फ एक बिना विवाहिता लड़की थी, दूसरा नज़दीकी वारिस न था। उसने अपनी सब जायदाद एक गैर आदमीको दान करदी शर्त यह रखी कि वह श्रादमी लड़कीका भरणपोषण करता रहे और उसके विवाहका सब खर्च दे. यह दान जायज माना गया, यदि कोई रवाज इसके विरुद्ध हो तो दूसरी बात है, देखो-71 P. R. 1868.
(8) अन्धी औरत-एक बहुत दिनकी अन्धी औरतके न तो कोई रिश्तेदार थे और न मित्र उसने एक लिखतके द्वारा सब जायदाद एक गैर आदमीको देदी, जायज़ माना गया, देखो-5 C. P. L. R. 44.
(१०) विधवा अपना स्त्रीधन दान कर सकती है-एक विधवाने अपना स्त्रीधन अपने भाईको दान कर दिया दानकी सब शर्ते पूरी कर दी गयीं, यह ठहराव था कि भाई इसको जिन्दगी भर परवरिश करेगा, जायज़ माना गया, 1876 Sielect Cases Part 8 No. 22.
सास अपनी बेटीके विवाहमें दामादको मुश्तरका खान्दानकी जायदाद संकल्प कर सकती है और अगर दानपत्रमें सासके भरणपोषणकी बात कोई लिखी हो तो उसले दानपत्र नाजायज़ नहीं हो जायगा, देखो-A. I. R. 1922 All. 381. और हि० ला० ज० जि०१ पेज ८६. दफा ७९३ दान देनेका अधिकारी कौन नहीं है
(१) बम्बई में बाप मौरूसी जायदादका दान नहीं कर सकता-कोई हिन्दू बाप बम्बईप्रान्तमें मुश्तरका मौरूसी गैरमनकूला जायदादका दान नहीं कर सकता जिसमें कि उसके लड़कोंने अपनी पैदाइशसे हक प्राप्त कर लिया हो-12 Bom. L R. 910; 8 Indian Cases 625; 27 Mad. 228.
(२) विधवा-पतिकी अलहदा जायदादका दान विधवा नहीं कर सकती एक हिन्दू विधवा जो पतिकी अलहदा जायदादकी उत्तराधिकारिणी हुई थी, वह अपने पीछे होने वाले वारिसोंकी मन्जूरीसे भी दान नहीं कर सकती, देखो-32 All. 176; 7 All. L. J. 121.
(३) नाबालिग-जिसकी उमर १८ वर्षसे कम हो ऐसा नाबालिग जायदादका दान नहीं कर सकता-17 Indian Case 86. दफा ७९४ दान लेनेका अधिकारी कौन है
धर्मशास्त्रोंमें इस बातपर अधिक विचार किया गया है कि अमुक पुरुष दान लेनेका अधिकारी और अमुक नहीं। दान लेने वालेमें कैसे गुण होना चाहिये, और कब तथा कौमसा दान लेनेका अधिकारी कौन है इत्यादि सूक्ष्म
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दफा ७६३-७६५]
दानके नियम
१६१
~urvNAMAMV
बातोंपर बहुत कुछ कहा गया है किन्तु कानूनमें अब वह बातें सब नहीं मानी जातीं इसलिये हम केवल वही बात कहते हैं जो वर्तमान हिन्दूलॉ के सम्बन्ध में मानी जाती हैं।
दान देते समय, या यदि वसीयत द्वारा दान दिया जाय तो दान देने वालेकी मृत्युके समय जो आदमी जीवित हो वही दान ले सकता है। यानी दान देते समय जो सन्तान पैदा न हुई हो उसके नाम भावी दान नहीं दिया जा सकता। बच्चे या पागलको भी दान दिया जा सकता है, देखो-मेकनाटन हिन्दुला Vol. 2, P. 243-2447 और 27 Bom. 31; 4 Bom. L. R. 754. में माना गया कि बच्चे और पागलकी तरफसे उसके लिये उसका वली दान ले सकता है।
जब कोई नाबालिग्न दानमें कोई जायदाद पाये या उसका वली उसके लिये कोई जायदाद पाये और उस जायदादके दानके साथ किसी तरहकी शर्त लगी हो तो नाबालिग्न उस शर्तका पाबन्द नहीं होगा । किन्तु अगर बालिग होनेपर और उस शर्तको जानकर वह उस शर्तका विरोध न करे, और जायदाद अपने कब्जेमें रखे तो वह उस शर्तका पाबन्द होगा, देखो-कानून इन्तकाल जायदाद एक्ट नं0 4 of 1882. S. 127, 20 Mad. 147.
नोट - कोई स्त्री, केवल स्त्री होने की वजहसे, दान लेनेसे वंचित नहीं है। दफा ७९५ कब्ज़ा हो जाना अत्यावश्यक है
(१) कानूनकी दृष्टिमें पूरा दान वह है कि जो ज़बानी या लिखकर, और जायदादमें मालिकाना हक्क त्याग देनेकी नीयत रखकर किया जाय, और दान देने वालेकी जिन्दगीमें दान लेने वालेका कब्ज़ा उस दानकी जायदादपर पूरे तौरसे हो जाय, देखो-6 Mad. H. C. 270.
(२) हिन्दूला के अनुसार यह आवश्यक है कि दान लेने वालेका कब्ज़ा जहां तक मुमकिन हो दानसे मिली हुई चीज़पर जल्द हो जाय, देखो4 All. 40; 6 Mal. H. C 194.
(३) जब दान दी हुई भूमि असामियोंके कब्जे में हो तो उस भूमि सम्बन्धी हक़की लिखत और कागज़ात दे देनेसे या अप्लामियोंसे यह कह देनेसे कि वे मालगुज़ारी दान लेने वालेको दिया करें या असामियोंसे मालगुज़ारी लेकर रसीद देनेसे, दानकी जायदादपर दान लेनेवालेकाक़ब्ज़ा समझा जायगा, देखो-4 Bom. H.C31; 5 Bom. H.C. O.C. 83.
(४) सिर्फ दान पत्रकी रजिस्ट्री करा देनेसे दान लेने वालेका क़ब्ज़ा जायदादपर नहीं समझा जायगा--20 Cal. 464; 9 Cal. 854; 12 C. L.R. 530; 7 Bom. 18!. लेकिन वह माना गया कि, रजिस्ट्री कराने के बाद अगर
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१६२
दान और मृत्युपत्र
[सोलहवां प्रकरण
गयी हो।
दामपत्र दान लेने वालेको दे दिया जाय तो इस यातसे भी कब्ज़ा समझा मायगा-बालमुकुन्द बनाम भगवानदास 16 All. 185.
(५) दानको पूरा करनेके लिये दान देने वालेने अगर अपने करने योग्य जो काम हैं वे सब कर दिये हों तो वह दान महज़ इस युनियादपर रह नहीं हो सकता कि दान की हुई जायदाद दान देनेके समय दान देनेवाले के कब्ज़में नहीं थी देखो-कालीदास मल्लिक बनाम कन्हैयालाल पण्डित 11 I. A. 2181 Cal. 121; 16 All. 185.
(६) स्वाभाविक प्रेमके कारण अगर कोई चीज़ किसीको देनेका कंदाक्ट किया गया हो अर्थात् बचन दिया गया हो और उस कन्ट्राक्टकी रजिस्ट्री भी कराली गयी हो तो बचन देने वाला उस कन्ट्राक्टका पाबन्द होगा, देखोइन्डियन कन्ट्राक्ट ऐक्ट 9 of 1872. इस कानूनके अनुसार वास्तविक नियम यह है कि किसी चीज़ या मूल्यके बदले में जो चीज़ देनेका कन्ट्राक्ट किया जाय वह कन्ट्रक्ट अवश्य पूरा करना होगा परन्तु यहांपर उससे भिन्न केवल यह बात दिखायी गयी है कि केवल मूल्य के बदलेमें ही महीं, बल्कि आपसके प्रेमके कारण भी यदि किसीको कोई चीज़ देनेका बचन दिया जाय यानी कन्ट्राक्ट किया जाय तो वह अवश्य पूरा करना होगा मगर शर्त यह है कि उस कन्ट्राक्ट पत्रकी रजिस्ट्री ज़रूर होगयी हो।
(७) नाबालिगकी तरफसे उसका वली उसके लिये दान की हुई वस्तु पर कब्ज़ा कर सकता है, देखो-जैतराम बनाम रामकृष्ण 27 Bom. 31.
(८) अगर दान देने वालाही नाबालिग्रका वली हो और देनेके बाद भी जायदाद उसीके कब्जेमें रहे तो अदालत यह समझेगी कि उसका वह कब्ज़ा नाबालिगकी तरफ़से वलीकी हैसियतसे था-3 C. L. R. 247; और 4 Mad. H. C. 406.
(९) जबकि जायदाद पहिलेही से सन लेने बालेके कब्जे में हो तो दान देने वालेका सिर्फ इतनाही कह देना काफ़ी है कि वह जायदाद दान की गयी और दान लेने वाला उस दानको स्वीकार करले ऐसा दान जायज़ है7 Bom. 452.
(१०) इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा कि दानपत्रकी रजिस्ट्री कराके, दान लेने वालेको दे देनेसे दानका पूरा होना समझा जायगा परन्तु यह राय उस सूरतमें ठीक नहीं है जबकि दान दी हुई चीज़ दान देने वालेके ही कब्जे में हो ऐसी सूरतमें दान पत्रके साथ साथ वह चीज़ भी दान लेने वालेके हवाले करना होगी, तभी दान पूरा होना समझा जायगा -7 Bom. 31.
(११) जिस तरह क़र्जेकी नालिश करनेके अधिकारका इन्तकाल हो सकता है उसी तरह अपने नाम या कामके हकका भी इन्तकाल दानके द्वारा हो सकता है, देखो-7Mad. 237 12 Bom.. 573.
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दफा ७६६ ]
दानके नियम
( १२ ) ऊपर कहा है कि दानकी चीज़पर दान लेने वालेका क़ब्ज़ा हो जामे से ही दान पूरा समझा जाता है इस विषय में क़ानून इन्तक़ाल जायदाद सन् १८८२ ई० की दफा १२३ देखो, जिसका मतलब यह है - ( १ ) अगर गैर मनकूला जायदाद दान दी जाय तो उसके इन्तक़ालके लिये यह ज़रूरी है कि दानपत्र की रजिस्ट्री हो, उसपर दाम देने वालेका या उसकी तरफसे, हस्ताक्षर किया जाय और उसपर दो गवाहियां हों, केवल क़ब्ज़ा दे देना, दान पूरा करनेके लिये ज़रूरी नहीं है और न ऐसा करने से ही दान पूरा समझा जा सकता है । ( २ ) अगर मनकूला जायदाद दान दी जाय तो उसका इन्तकाल ऊपर लिखे अनुसार रजिस्ट्री और हस्ताक्षरसे या केवल क़ब्ज़ा दे देनेसे ही हो सकता है इससे वह दान पूरा माना जायगा ।
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नोट - कानून इन्तकालको उक्त दफा १२३ सब प्रकार के दानोंसे लागू होती है 14 Cal. 446; 23Bom. 234; 19 Mad. 433; किन्तु पंजाबमें इसका असर नहीं पड़ता ।
(१३) मिताक्षराके अनुसार दान वह है कि जब दान देनेवाला किसी चीज़ में अपना हक़ छोड़ दे और दान लेने वालेका हक़ पैदा करा दे उस चीज़ को दान लेनेवालेका हक़ तभी पूर्णरूपसे क़ायम होता है जब कि दान लेने वाला उस दामको स्वीकार कर ले नहीं तो नहीं होता । दानका स्वीकार करना तीन तरीक़ो से होता है मनसे, ज़बानसे और शरीर से । भूमिका दान तभी स्वीकृत समझा जायगा जब कि दान लेने वाला उसपर थोड़ासा क़ब्ज़ा करले, नहीं तो वह दान, बिक्री, या इन्तक़ाल पूरा नहीं माना जायगा ।
( १४ ) जायदाद के मालिककी जिन्दगीमें उसके दानका स्वीकृत हो जाना श्रावश्यक है ।
दानकी मंजूरी - हिबा ( दान ) दानकी पूर्ति के लिये यह आवश्यक है कि उसकी स्वीकृति प्रगट करदी जाय । हिबानामेकी मंजूरी दानकी शहादतकी मंजूरीकी बादुलनज़री शहादत है । दाताके जीवनकालमें किसी समय दानके ग्रहणकी स्वीकृति होनी चाहिये । जमुनाप्रसाद बनाम शिवरानीकुंवर A. I. R. 1925 Pat. 251.
दफा ७९६ पतिका दान अपनी पत्नीको
(१) सामान्य सिद्धान्त तो यह है कि जब पति अपनी पत्नीको जायदादमें बिना स्पष्ट अधिकार दिये कोई दान कर देता है तो वह जायदाद पत्नी को पूरे अधिकारों सहित नहीं मिलती, उस जायदादमें उसके वही अधिकार रहते हैं जो उत्तराधिकारके द्वारा पति की जायदादमें विधवाके होते हैं, देखो 95 Cal. 896; 38 1. A. 118; इसलिये जब कोई गैरमनकूला जायदाद पति अपनी पत्नीको दे तो उसे साफ साफ अधिकार इन्तकाल आदिका लिख
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दान और मृत्युपत्र
[सोलहवां प्रकरण
देना चाहिये न लिख देनेकी सूरतमें उसे पूरा अधिकार दानकी जायदादपर नहीं होगा।
स्त्रीको दान-डावसन मिलर चीफ़ जस्टिस ने कहा कि जब एक दान देने वाले ने ( हिन्दू मिथिला प्रणालीके आधीन ) अपनी स्त्रीके हकमें हिवा बिला एवज़ मुताल्लिक़ ताल्लुक्का लहरीमें अपने हिम्सेके, मय दरनतान, फल घाले व गैर फलवाले और आहर और पोखर और चश्मे और तालाब और कच्चे और पक्के कुंएं और सायर और नमक सायर और आवादीके मकानात और अपनी ज़मीदारीके तमाम अधिकार, जो अब तक उसके क़ब्ज़में बिना किसी साझीदारके थे, कर दिया, और फिर यह लिख दिया कि उसने मुसम्मातको उसपर काबिज़ कर दिया है और हुक्म दिया है कि वह उसपर कब्ज़ा पाकर उसकी पैदावार अपने पुत्रों और पीढ़ी दरपीढ़ीमें खर्च करे, और किसी दावेदार, उसके वारिस और प्रतिनिधिको यह अधिकार न होगा, कि वह मुसम्मात या उसके वारिस या प्रतिनिधिसे, उस हिवानामेमें लिखित बातोंका मावजेकी रक़मके सम्बन्ध में दावा करे । तय हुआ कि शब्द "मय पुत्रों और पीढ़ी दरपीढ़ी" से, जो हिबामें इस्तेमाल किये गये हैं वरासतका अर्थ पैदा होता है और 'ज़मीदारीका अधिकार' और 'कायम मुकामियात' से इन्तनालका अधिकार साबित होता है।
यह भी तय हुआ कि शब्द जिनके द्वारा दान लेने वालेको पैदावारके खर्च करनेका अधिकार दिया गया है इन्तकालके अधिकारमें बाधा नहीं डालते । ऐसे शब्द भारतमें इन्तकालके सम्बन्धमें साधारणतया इस्तेमाल किये जाते हैं जो कि वरासतके योग्य तथा इन्तकालके योग्य रियासतोंका इन्तकाल करते हैं । हितेन्द्रसिंह बनाम रामेश्वरसिंह 4 Pat. 510; 6 P. L. J. 634; 87 1. C. 849; 88 I. C. 141 (2); A. I. R. 1925 Pat. 625.
नोट--इस मुकद्दमे में हिबानामा नहीं माना गया बल्कि वह वरासतके क्रमका बताने वाला समझा गया।
(२) स्त्रीका सीमाबद्ध अधिकार-पतिने पत्नीको जायदादका दान किया किन्तु कोई अधिकार स्पष्ट न दिया, माना गया कि पत्नी जीवनभर उस जायदादसे लाभ उठाती रहे इन्तकाल करनेका अधिकार नहीं है। 122 M. L.J.387:35 Cal. 8963 38 I.A. 11839M.L.J. 157:5 Bom. L. R. 334; 27 Mad. 498; 5 Cal. 684.
स्त्री को दान देने में जजोंका मत-जस्टिस दासने कहा कि किसी हिन्दू द्वारा, अपनी स्त्रीके हकमें किये हुए हिवानामे के सम्बन्धमें अझलत इस बातके लिये बाध्य है कि वह यह मानकर कार्यवाही करे, कि प्रत्येक हिन्दू को यह ज्ञात है कि आम कायदेके अनुसार, स्त्रियां बरासत से प्राप्त होने वाली जाय
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दफा ७९६]
दानके नियम
१६५
दादको पूर्ण रीतिपर ग्रहण नहीं करती, जिसे मुन्तकिल करने के लिये उन्हें अधिकार दिया जाता है । इसका यह अर्थ नहीं है कि जहांपर हिचानामेकी इबारतमें, स्वामित्वके पूरे अधिकार मय इन्तकाल करने के अख्त्यिारके, काफ़ी विस्तृत रीतिपर वर्णन किये गये और दिये गये हों, तो भी अदालत हिबानामे को इस प्रकार नामंजूर कर देगी कि जिसका अर्थ दाताके इन्तकाल करनेके अधिकारका अस्वीकार करना हो। किन्तु अदालत ऐसे हिवानामे के अर्थके सम्बन्धमें, जिसे कि किसी हिन्दू पतिने अपनी पत्नीके हकमें लिखा हो, सही तरीकेपर उस ताबीरकी ओर झुकेगी, जो कि आम तौरपर एक हिन्दुके ख्याल और इच्छाके अनुसार होगी, जो कि बह जायदादके उत्तराधिकारके सम्बन्ध में रखता है और उस काननके अनुसार जिसके अधीन फरीक होते हैं। हिन्दुओंके आम झ्यालात और इच्छायें भली प्रकार प्रगट हैं और न्याय करने वाली कमेटी उन्हें भली प्रकार जानती है । जस्टिस फास्टर ने कहा कि अदालतको चाहिये कि दस्तावेज़ इन्तकाल की साधारण हिन्दू झुकावकी दृष्टि से जांच करे,वह आम तौरपर दस्तावेज़ इन्तकाल द्वारा स्नाको पूर्ण अधिकारी नहीं बनाता । इस नियम के सम्बन्धमें प्रिवी कौन्सिलके पूर्व स्पष्टीकरण के अनुसार, अदालतका विचार बहुत दूर तक इस प्रकार है कि दान पाने वाली को जायदादपर परिमित अधिकार ही प्राप्त हुआ है और तय हुआ कि यह
आवश्यक है कि कुछ न कुछ उस बातके दूर करनेके लिये, जो चुपचाप मान लिया जाता है स्पष्ट रीतिपर वर्णित हो- हितेन्द्रसिंह बनाम रामेश्वरसिंह 4 Pat. 510; 6 P. L. J. 634; 87I.C. 849; A. I. R. 1925 Patna. 625.
(३) स्त्रीके पूरे अधिकार-एक हिन्दूने अपनी स्त्रीको एक मकान दानमें दिया, दानपत्र इस प्रकार था "मेरा और मेरी संतान तथा रिश्तेदारों का कोई दावा मकानमें मेरी स्त्री या उसके वारिसोंके विरुद्ध नहीं होगा और अगर मेरा वारिस ऐसा करे तो वह दावा झठा समझा जावेगा" माना गया कि दान पूरे अधिकारों सहित है 10 Ali 495-497,
एक हिन्दूने अपनी नवयुवती पत्नीके नाम दानपत्र इस प्रकार लिखा"तुम मेरी नव युवती पत्नी हो, और तुम्हारे दो पुत्र नाबालिग़ हैं, तुम्हारे खैराती खर्च और दोनों नाबालिग पुत्रोंके भरणपोषणके खर्चके लिये मैं ऊपर लिखा तालुका तुमको दान करता हूं, तुम आजसे उसकी मालकिन हुयी, गवर्नमेण्टकी मालगुज़ारी देनेके पश्चात् जो मुनाफ़ा बचे उससे तुम अपने खैराती खर्च तथा दोनों लड़कोंके भरणपोषणका खर्च निर्बाह करो। इसलिये मैं यह दानपत्र लिखे देता हूं।" माना गया कि दान पूरे अधिकारों सहित है। 7 B. L. R. 697324 W. R. 397; 16 W. R. 300.
एक पतिने अपनी पत्नीके लिये दानपत्रमें इस प्रकार लिखा "वह सब अधिकार जो मुझे प्राप्त हैं सबके सब तुमको प्राप्त हों" आगे दानपत्रमें यह
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दान और मृत्युपत्र
[सोहवां प्रकरण
लिखा था कि मैंने अपनी जायदादपर अपनी स्त्रीका कब्जा करा दिया और में या मेरे वारिस किसी समय उस जायदादके बारेमें या उसके मुनाफे या क्रीमतके बारे में कोई दावा नहीं कर सकते, माना गया कि दान पत्र पूरे अधिकारों सहित है-9 Cal. 830; 13 C. W. R. 109.
स्त्रियौंको पूरै हक मिल सकते हैं-डावन मिलर चीफ़ जस्टिसने कहा हिन्दूलों में कोई ऐसी बात नहीं है जो किसी स्त्री को चाहे वह पत्नी हो या विधवा, जायदादपर पूर्ण अधिकार प्राप्त करने या इन्तकाल करनेका अख्ति. यार रखनेसे रोकती हो । यदि हिबानामेकी शर्तों में पूर्ण अधिकारका इन्तकाल किया गया हो, तो दान पाने वाली की जाति (स्त्री) का ख्याल किये बिना ही उनका अमल होना चाहिये । उस सूरतमें भी, जब हिबानामेकी इबारत या परिस्थिति से यह भी मालूम हो कि परिमित अधिकार दिया गया है तय भी उत्तराधिकारका हक्र प्राप्त होता है । जब दस्तावेजकी इबारत ही सन्देहात्मक हो या जब कि शब्द इतने विस्तृत न हों कि इन्तकालका अधिकार देते हों, तब यह समझना कानूनी है कि दाता हिन्दूलों की मामूली काबिलियतसे महरूम था जो स्त्रियों के सम्बन्धमें जायदादके विषयमें लागू है और उसकी इच्छापर विचार करने में यह झ्याल किया जा सकता है कि उस सूरतमें भी उत्तराधिकारका हक प्राप्त है। किन्तु जहाँपर शब्द इस प्रकार इस्तेमाल किये गये हों, जो स्वामित्वके पूरे अधिकारों को हस्तान्तर करने का अर्थ रखते हों, वहां स्पष्ठीकरणके अन्य सिद्धान्त बहुत कम महत्व पूर्ण होते हैं और उनके द्वारा शब्दोंके स्वाभाविक अर्थ में बाधा न पहुंचाई जानी चाहिये-हिन्तेन्द्रसिंह बनाम रामेश्वरसिंह 6 P. L. J. 634; 4 Pat. 510; 88 I. C. 141 (2) A. I. R. 1925 Patna. 625.
(४) स्त्रीका ज़िन्दगी भरके लिये अधिकार - एक हिन्दूने अपनी जाय. दाद अपनी स्त्रीको दानकी, माना गया कि दानके द्वारा स्त्रीको पूरे अधिकार नहीं मिले बल्कि उस स्त्रीके जिन्दगी भरके लिये जायदाद मिली और दानके करने वालेके वारिस आपत्ति कर सकते हैं 1 All. 734.
एक हिन्दूने कुछ मौजे अपनी स्त्रीको दानपत्रके द्वारा दे दिया, उसमें लिखा कि 'ऊपर मौजे जो मुझे इनाममें मिले थे दाम करता हूं।' माना गया कि यह दान स्त्रीके जीवनकाल तकके लिये है, देखो-5 C. L. R.29. दफा ७९७ दान मुश्तरका ख़ानदानके मेम्बरोंको
बम्बई हाईकोर्ट के अनुसार जिस मामले में मुश्तरका हिन्दू खानदानके दो भाइयोंको कोई दान दिया गया हो तो वे दोनों काबिज़ शरीक ( Tenant in Common-देखो दफा ५५८) के तरीकेसे लेते हैं और 26 Bom. 455% 4 Bom. L. R. 102. वाले मुक़द्दमे में यह सूरत थी कि दो भाइयोंको दान
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दफा ७६७ ]
दानके नियम
६६७
दिया गया उनमें से हर एक भाई दानकी जायदाद में अपने हिस्सेके अनुसार, खुद कमाई हुई जायदादकी तरह हक्क प्राप्त करता है और जब उन भाइयों में से एक मरेगा तो उसका हिस्सा उसके वारिसको मिलेगा, न कि दूसरे भाई को, क्योंकि सरवाइवरशिप ( देखो दफा ५५८ ) का हक़ लागू नहीं माना गया और देखो- -12 Bom. 122; 23 Cal. 670.
इलाहाबाद – इलाहाबाद हाईकोर्टने भी यही बात मानी कि - मुश्तरका खानदानके मेम्बरको दानकी जायदादमें खुद कमाई हुई जायदाद की तरह हक़ प्राप्त होता है । यानी सरवाइवरशिप नहीं होता 28 All 38. वाले मामलेमें दो भाइयोंको दान दिया गया, ऐसा मानो जय और विजयको दान दिया गया जय पहले मर गया । अब प्रश्न यह उठा कि दान किस ढङ्गका था यानी क़ाबिज़ शरीक ( Tenant in Common ) था अथवा क़ाबिज़ मुश्तरका (Joint Tenant ) माना गया कि क़ाबिज़ मुश्तरक ( Joint Tenant ) था, लेकिन 27 All. 310. बाले मुक़द्दमे में सरकारने मुश्तरका खानदानके तीन मेम्बरों को एक और आदमीकी शिरकतमें इनाम दिया, माना गया कि इनाम क़ाबिज़ शरीक ( Tenant in Common ) हैं | इलाहाबाद और बम्बई हाईकोर्ट बहुत करके ऐसे दानोंको क्राबिज़ शरीकही मानती हैं।
मदरास - 28 Mad. 383 का मामला देखो इसमें मदरास हाईकोर्टने क़ाबिज़ मुश्तरक (Joint Tenant ) माना है ।
कलकत्ता - बङ्गाल में कुछ झगड़ाही नहीं है वहां हर एक मेम्बर निश्चित इन रखता है इसलिये वहां क़ाबिज़ शरीक ( Tenant in Common ) माना जाता है ।
भाइयोंको दान- जब सीन हिन्दू भाइयोंको दान दिया गया हो तो वे उसे केवल जीवन कालके ही लिये नहीं ग्रहण करते -- मु० जीराबाई बनाम मु० रामदुलारी बाई 89 I. C 991.
दानकी जायदादपर दान पाने वालेका पूरा हक़ है--जबकि एक भाई ने दूसरे भाईको जायदाद दान कर दी थी दान लेने वालेने वह जायदाद बेच दी तब उसके लड़कोंने यह दावा किया कि बापने बिला क़ानूनी ज़रूरत के जायदाद बेच दी और उसके लड़कोंको कोई लाभ नहीं पहुँचा, माना गया कि जब बापको दानमें जायदाद मिली थी तो उसपर उसका पूराहक़ था लड़के दावा नहीं कर सकते, देखो -- 25 O. C. 80 हि० ला० ज० जि० १५० ३१.
मुश्तरका खानदानकी जायदाद-खानदानके एक मेम्बर द्वारा ऐसी दशामें दान की जा सकती है जब दूसरे मेम्बरोंकी रजामन्दी सीधे या प्रकारान्तर से प्राप्त कर ली गयी हो 72 I C, 470.
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दान और मृत्युपत्र
[ सोलहव प्रकरण
दफा ७९८ मृत्यु के समय दान
मरने के समय जो माल मनकूला दानके तौरपर दिया जाय उस दानसे क़ानून इन्तक़ाल जायदादकी दफा १२३ लागू नहीं होती अर्थात् ऐसे दानके लिये दान पत्र लिखना और उसकी रजिस्ट्री कराना ज़रूरी नहीं है । दानके पूरा होने की जो शर्तें ऊपर बतायी गयी हैं । यानी यह कि दान देने वाला दान दे और लेने वाला उसे स्वीकार करके उसपर अपना क़ब्ज़ा भी करले तो इन शर्तों के पूरा होने से हिन्दूलॉ मरनेके समयके दानको भी सर्वथा उचित मानता है, देखो - 6 Mad. H. C. 270; 3BL. R. OC. 1133 12 W. R. O. C. 4. किन्तु भास्कर पुरुषोत्तम बनाम सरस्वतीबाई ( 1892 ) 17 Bom. 482. के मामलेमें बापने मरते समय किसीको कुछ मनकूला जायदाद दानकी, परन्तु उसके जीवनकालमें दान लेने वालेका क़ब्ज़ा उसपर नहीं हुआ, बापके मरने के बाद उसके बेटेने उस जायदाद पर दान पाने वालेका क़ब्ज़ा करा दिया तो अदालतने माना कि दान पूरा होगया और जायज़ है ।
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2. B.L. R. O.C. 113; 12.W.R. O. C. 4 वाले मामले में एक मरने वाले हिन्दूने, गवर्नमेन्ट प्रामेसरी नोट अपने लड़केके देनेके लिये इस तरह कहा - "नोट बाहर निकाल लावो और मेरे लड़केको देदो ।" उसने उन नोटों पर न तो अपने दस्तखत किये और न उसको दस्तखत करनेके लिये सूचित किया गया था । पीछे जब उससे कहा गया कि नोटोंपर दस्तखत कर दो तब उसने कहा कि मैं बहुत कमज़ोर हूं मैं कैसे इतने नोटोंपर दस्तखत कर सकता हूं. जब मुझे थोड़ी ताक़त श्रजावेगी मैं उनपर दस्तखत कर दूंगा तुम किस वास्ते इतने उत्सुक हो रहे हो” हिन्दूलॉके अनुसार यह मृत्यु संनिकट दान जायज़ है। क्यों किजीवित पुरुषों के मध्य हिन्दूलॉके अनुसार दान जायज़ माना जाता है; इस कारण उन नोटों का मूलधन और सूद भी पुत्रको पहुच चुका न कि सिर्फ नोटों के क़ाराज । यहांपर एक बात सदैव ध्यान रखने योग्य है कि गवर्नमेन्ट प्रामेसरी नोट बिना इन्तकाल के दस्तखत किये भी दानके इस तरीक़े के अनुसार जबकि वह मृत्यु शय्यापर था और इतना अशक्त था कि दरख्वास्त न करसकता था सिर्फ ऐसीही सूरत में ऐसा दान जायज़ हो सकता है दूसरी सूरतों में नोटों के इन्तक़ालका तरीका यही है कि इन्तक़ाल के दस्तखत ज़रूर ही करना चाहिये, केवल उनके दे देनेसे इन्तक़ाल नहीं समझा जावेगा । इस मामले में बापने सिर्फ नोट तो दिये किन्तु दस्तखत नहीं किये। इसके विरुद्ध 5 Bom 277; 12 Bom. 573; में कहा गया कि बिना दस्तखत किये गवर्नमेण्ट प्रामेसरी नोटों का इन्तकाल पूरा नहीं माना जाता है। एक औरत जब कि मृत्युशय्या पर पड़ी थी उसने दानकी एक लिखत लिखी ऐसी लिखत aataकी तरह साबित करना चाहिये और यह भी सावित
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दफा ७६८-७EE ]
दानके नियम
करना आवश्यक होगा कि वह सब मामलेको जानती थी और उसकी जायदाद उस दानसे क्या हो जायगी यह बात भी उसके ज्ञानमें थी, देखो-11 M. I. A. 139; 10 W. R. P. C. 3.
धार्मिक दान-किसी मृत मनुष्यके अन्त्येष्ठि संस्कारमें संयुक्त परिवार की जायदादके किसी एक भागका दान देवमूर्तिके निमित किया जा सकता है । औदिधा बनाम मुथू लक्ष्मी अची 91 I.C. 610 (1); A. I. R. 1925 Mad. 1281.
दान बीमारीके समय-एक नालिशमें, जिसमें कि एक व्यक्तिने, अपनी बीमारीके समय हिबा किया था, यह दलील पेश कीगई, कि बीमारीके समय का हिवानामा हिन्दूलॉके अनुसार नाजायज़ है। तय हुआ कि पेश की हुई वजह एक अजीब सिद्धान्तपर है और मसलमानों के मरकलमौतका सिद्धांत हिन्दूलॉके अनुसार माननीय नहीं है। सतनारहु बनाम कृष्णदत्त 20 W. R: 143; 12 0. L. J. 275; 87 I. C. 900; A. I R. 1925 Oudh 383. दफा ७९९ दानमें कौन चीज़ नहीं दी जासकती
मिताक्षरा स्कूलके अविभक्त परिवारमें बिना बटा हुआ किसी कोपार्सनरका हिस्सा दानके दारा नहीं दिया जासकता। और मौरूसी जंगम संपत्ति किसी एक ही पुत्रको नहीं दी जासकती। किन्तु बापको यह अधिकार है कि प्रमके कारण किसी पुत्रको ऐसी जायदाद मेंसे कुछ थोड़ा सा भाग देदे। मौरूसी स्थावर संपत्ति, कानूनी ज़रूरतके या उसका कुछ थोड़ासा योग्य हिस्सा लड़कीको देनेके सिवाय दूसरे किसीको नहीं दी जा सकती। पति की निजकी कमाई हुई अलहदा जायदादको उसकी बिधवा दानमें नहीं दे सकती; देखो-6 Ind. Cases 541; 32 All. 582; 7 All. L. J. 645; 32 All. 176; 5 Ind. Cases 270; 7 All.L.J. 121; 5. W. R. P. C. 131 2 M. I. A. 331; 5 Ind. Cases 283; एक विधवा स्त्रीने अपने पतिकी जायदाद अपनी बहनके लड़केको (रिवर्जनर धारिस देखो दफा ५५८) की मंजूरीसे दान कर दी। इलाहाबाद हाईकोर्टने नाजायज़ माना 8 All. L. J. 1818.34 All. 129:12 Ind. Cases 6013; 16 Ind.Cases 337; 10 All L.J. 33; 5 Ind. Cases 27057 All L.J. 121; 32 All. 176; 16 Ind. Cases 187; 10 All. 407; 14 All. 377; 6 All. 288.
पंजाबमें जिला लुधियाना तहसील जगरांव मौज़ा बहमूपुरकी एक विधवाने मौजाको 'सुधी' सहित दान कर दिया। यह जायदाद उसके पति की मौरूसी गैर मनकूला थी, नाजायज़ माना गया 86 P. W. R. 1911. एक उमीदवार नारिसने ऐसी जायदादका दान किया कि जिसके बारेमें उसे
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दान और मृत्युपत्र
[सोलहवां प्रकरण
आशाथी कि उसके पश्चात् दत्तक पुत्रको वह मिलेगी. नाजायज़ और बेअसर माना, गया 12 Bom. L. R. 910; 8 Ind. Cuses 625. दफा ८०० दानका मंसूख होना
मरे हुएको दान देना नाजायज़ है-हिन्दुलॉके अनुसार ऐसे व्यक्तिको दान देना, जिसका अस्तित्त्व न हो, नाजायज़ है । दानको जायज़ करने के लिये कब्जेके देने की ज़रूरत है। भगवानसिंह बनाम किरपाराम 83 I. C. 226; A. I R. 1925 Lah. 648.
हिन्दूलॉके अनुसार जब दान देने वालेने वे सब काम कर डाले हो जो जायज़दान देने के लिये उसके अधिकारमें हों और दान का लाभ भी देदिया हो तो वह दान पूरा माना जायगा और पीछेके वसीयत लिखनेसे मंसूख नहीं होगा देखो-23 Bom. 1317 6 Mad. 319. और जबकि दानकी पूरी तकमील नेकनीयतीसे कर दी गयी हो तथा लेनदारोंका रुपया मारने या किसी जालसाज़ी आदिके इरादेसे वह दान न किया गया हो तो वह कभी मंसूख नहीं हो सकता हर हालतमें जायज़ है चाहे वह लेनदारों के विरुद्ध भी हो, देखो-6 All. 560; 11 I. A. 164; 23 Cal. 15; 21 I. A. 163.
___12. Bom. L. R. 910; 8. Ind. Cases 625. वाले मामलेमें माना गया कि हिन्दुलॉका यह बड़ा भारी सिद्धान्त है कि जब एक दफा दानदे दिया जाय तो फिर वह कभी मंसूख नहीं हो सकता (जब दान एक दफा दे दिया जाय तो फिर दान देने वाला या उसकी सतान या राजा, या कोईभी दुसरा आदमी मंसूख नहीं कर सकता यह बात चतवर्गचिन्तामणि ग्रन्थके दान प्रकरणमें विस्तारसे कही है ) यह सिद्धांत दान देने और लेने वालेके बीच में माना जाता है लेकिन इसका असर मुश्तरका खानदानकी मौरूसी जायदाद पर नहीं पड़ता इस लिये मुश्तरका खानदानका बाप बिना अपने पुत्रादिकी मंजूरी लिये खानदानकी मौरूसी जायदादको दानमें नहीं दे सकता। यहांपर यह ध्यान रखना चाहिये कि कलकत्ता और मदरास हाईकोर्टीके फैसलोंके अनुसार वह मुश्तरका खानदानकी स्थावर जायदाद का थोड़ा सा उचित भाग अपनी विवाहिता लड़कियों को दे सकता है यद्यपि यह बात स्पष्ट रूपसे बम्बई और इलाहाबाद हाईकोर्ट नहीं मानते।
मगर ऐसे दान जिनके सम्बन्धोंसे ज़ाहिर होताहो कि कन्ट्राक्ट नाजायज़ था मंसूख हो सकते हैं जैसे किसी ग़लती जालसाज़ी या ज़बरदस्ती आदि सावित होनेसे मंसूख हो जाते हैं। देखो-27 P. R. 1866%B | M. H. C. 393, जिस दानमें वास्तवमें दान देने वालेके साथ जालसाज़ीकी गई हो अथवा इसी तरहके कोई ऐसे काम किये गये हों जिन्हे दान देने वाला दान देनेके वक्त तक नहीं जानता था तो ऐसी सूरतमें दान ज़रूर मंसूखहो जायगा;
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दफा ८०० ]
दानके नियम
देखो - 15 Bom 543. अगर दान किसी औरतने दिया हो तो साबित करना पड़ेगा कि वह औरत दान देनेके समय अपने सत्र अधिकार और दानके सम्बन्धमें क्या करना चाहिये वे सब बातें जानती थी, देखो -- 17 Ail. 1; 21 IA. 148; जब जालसाज़ी के आधार पर कोई दान मंसूत्र करनेके योग्य हो और वह जालसाज़ी या ग़लतीले या अचानक पैदा हो गई थी तो अदालत विचार करेगी कि दान मंसूख करने योग है या नहीं; देखो - M. HC. 393
जब दान देने वालेने, दान लेने वाले पर यह विश्वास करके दान दिया हो कि दानके बदले में वह अमुक काम करेगा और फिर उसने वह काम न किया या बिना पूरा किये छोड़ दिया तो दान मंसूख हो जायगा N. W. P. 5; एक बात और ध्यान रखना चाहिये कि क़ानून इन्तक़ाल जायदाद एक्ट नं० ४ सन् १८८२ ई० की वह दफाएं जिनमें कि दानकी मंसूखी के विषयका वर्णन है हिन्दूला से लागू नहीं होतीं ।
नोट - - दान उस समय मंसूख हो जायगा जब कि स्पष्ट रूप से यह साबित हो, कि दानमें जालसाजा की गयी है या जबरदस्ती की गई है या दान देने वाला उस जायदाद का पूरा मालिक न था लेने वाला मौजूद न था या लेने वालेने दान मंजूर नहीं किया या दानकी हुई चीज परसे दान देने वालेने अपना कब्जा नहीं हयया या देने वाले की मंशा दूसरी थी या लेनदारोंका रुपया मारने की गरज से दान किया गया या यदि गैरमनकूला जायदाद का दान है तो उसकी रजिस्ट्री नहीं कराई गयी, या वे सब बात जो कानूनन् पूरा करना चाहिये था नहीं की गयीं, श्यादि कारणांसे अदालत दानको मंसूख कर देगी और अदालत इस बातपर ध्यान नहीं देगी कि जो पक्षकार यह साबित करता हो कि विधिपूर्वक दान नहीं दिया गया या वे सब धर्मकृत्य जो शास्त्रानुसार जरूरी थे नहीं किये या वर्ण भेदसे दान अनुचित है या स्त्री दान नहीं ले सकती या पंडितजी ने संकल्प पढने में गलती की थी या दानमें नीच ऊंच कुलका ख्याल नहीं किया गया, या वैसे दान देनेका पर्व अथवा मुहूर्त नहीं था इत्यादि ।
बम्बई हाईकोर्ट में एक दान का मामला यह था । प्रपितामहने एक ज़मीनका दान दिया था, दान लेने वालेकी ४ चार पुश्तें उस दानकी जमीनको भोग करते बीत गयीं। पांचवीं पुश्तका पुरुष लावारिम़ मर गया तब दान देने वालके प्रपौत्र ने दावा किया कि जमीन दान देने वालेके खानदान में वापस आना चाहिये जिसका हक़दार में हूं । इस मामले में कठिन प्रश्न यह उठा है कि क्या दानकी चीज दान देने वालेके खानदानमें कभी लौट सकती है ? और क्या दान देने बालेका उस चीज पर कोई स्व बना रहता है ? देखो – जब दाताका इरादा दानसे दान पाने वाले और उसकी सन्तानको लाभ पहुंचाना होता है, तब उसी सूरत में जब कि दान पाने वाले की वंश परम्परा नष्ट हो जाती है तभी वह दानदी हुई जायदाद दान देने वालके वंशजों को प्राप्त होती है। फीर बनाम रमजान 82 P. R . 1918 ; 68 P. R. 1911; 84 P. R. 1909; 12 P. R. 1872; 13 P. R. 1914; Relon. 4 P. R. 1916 Not foll; A. I. R. 1927 Lahore 67.
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दान और मृत्युपत्र
मृत्युपत्र - वसीयत
[ सोलहवां प्रकरण
दफा ८०१ वसीयतकी व्याख्या
कोई आदमी अपने मरनेके समय अपनी जायदाद के विषय में अपने जो इरादे प्रकट करे और यह कहे कि मेरे मरनेके बाद मेरे यह इरादे इस तरह पर पूरे किये जाये उसके इस कथनका नाम वसीयत है । इन्डियन् सक्सेशन एक्ट नं० ३६ सन् १६२५ ई० की दफा २ में वसीयत शब्दकी व्याख्या इस प्रकार कीगई है 'वसीयत वह है जिसमें वसीयत करने वालेका वह इरादा उचित रीति से जाहिर किया गया हो कि वह अपने मरनेके पश्चात् अपनी जायदाद के सम्बन्धमें क्या चाहता है, और देखो - रामकृष्ण हिन्दूलॉ Vol. 2 P. 239. तथा 36 Cal. 149; 1 Ind. Cas. 791; 13 C. W. N. 291. दीन तारिणी देवी बनाम कृष्णगोपाल वागची 18 W. B. 359-356 द्विवेलियन हिन्दूलॉ P. 500.
दान और वसीयत में बड़ा भेद है दानकी बाबत हम ऊपर कह चुके हैं देखो इस किताब की दफा ७८६. वसीयत में वसीयत करने वालेको हर समय अधिकार रहता है कि, जब उसने कोई वसीयतनामा लिख दिया हो चाहे उसकी रजिस्ट्री हुई हो या नहीं, या किसी सरकारी आफ़िस या अफ़सरके पास रख दिया हो, मंसूख करदे, रद्द कर दे, वापिस लेकर फाड़ डाले, नष्ट करदे, या जो जी में आये करे और दूसरा वसीयतनामा लिखे या पूर्वके लिखे हुये वसीयत में कोई इवारत घटा दे या बढ़ा दे या किसीका हक़ मिटा दे या बढ़ा दे और अपने मरने के समय तक जितने दफा चाहे लिखे । अकसर लोग वसीयतमें यह शर्त लिखते हैं कि 'मुझे इसके परिवर्तन या मंसूख करने आदिका अधिकार रहेगा' इस लिखने में कोई ज़ोर नहीं होता यदि न भी लिखा हो तो उसे ऐसा अधिकार क़ानूनन् प्राप्त रहता है। वसीयत करने वालेके चलन और उसके इर्द गिर्द के हालातका ख्याल करने से ही बाज़ दफे यह निश्चित करना पड़ता है कि कोई लिखत दानपत्र है या वसीयतनामा, देखो - 17Bom.482; क्योंकि दान और वसीयत में बहुत कम फ़रक है ।
वसीयतनामा और किसी जीवित व्यक्ति द्वारा किया हुआ इन्तक़ाल, दोनों एकही श्रेणी में नहीं आ सकते -प्रमथनाथ राय बनाम राजा विजयसिंह A. I, R. 1927 Cal. 234.
वसीयतका ज़िकर हिन्दू धर्म शास्त्रों में नहीं पाया जाता। प्राचीन समय में हिन्दुस्थान में और अन्य बहुत से देशोंमें दो जीवित मनुष्योंके परस्पर दान का देना और लेना हुआ करता था । परन्तु अब मरनेके बाद भी दान दिया जा
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६७३
दफा ८०१ - ८०२ ]
वसीयत के नियम
सकता है और उसीका नाम 'मृत्यु सन्निकटदान' या 'वसीयत' है। वसीयतका वर्तमान क़ानून हिन्दू धर्म शास्त्र के दानके नियमों के आधारपर ही बना है, दान के क़ानून और वसीयत के क़ानूनमें भेद है अङ्गरेजी राज्यकालके आरम्भ में वसीयत करने का अधिकार हिन्दुओंके लिये नहीं माना जाता था किन्तु सन १८३२ से माना जाने लगा -बीर प्रतापसाही बनाम राजेन्द्र प्रतापसाही महाराज ( 1867 ) 12 MI. A. 1-38 के मामले में प्रिवी कौन्सिलने हिन्दुओं के वसीयतके अधिकारको पूर्ण रूप से स्वीकार कर लिया है। वसीयत में स्टाम्प ज़रूरी नहीं है सादे कागज़पर भी वसीयत लिखी जा सकती है।
जवानी वसीयत अब जायज़ न मानी जायगी ? - पहले के क़ानून में ज़रूरी न था कि वसीयत करने वाला लिखित वसीयत ही करे वह ज़बानी भी वसीयत कर सकता था मगर अब नये क़ानून के अनुसार यह बात क़तई तौर से तय कर दी गयी है कि अब ज़वानी वसीयत न की जायगी । वसीयत करने वाले के लिये निहायत ज़रूरी है कि वह वसीयतपर दस्तखत करे, अगर पढ़ा हुआ नहीं है तो अपने बायें हाथ के अंगूठेका निशान बना दे और उसपर कमसे कम दो आदमियों की गवाहियां करा दे । यह ध्यान रहे कि पहले वसीयत करने वाला शख्स अपने दस्तखत या अपना निशान बनावे पीछे उसी समय या पीछे गवाहियां हों, गवाहों को लाज़िमी है कि पूरा इतमीनान करके गवाही करें। यह क़ानून सन् १६२६ ई० में पास हुआ है जिसमें कहा गया है कि - ता० पहिली जनवरी सन् १६२७ ई० को या इसके पश्चात कोई हिन्दू जब वसीयत करे तो उस वसीयत पर ज़रूरी ( Shall ) है कि वसीयत करने वाला दस्तखत करे और उसपर दो गवाहियां हों जैसा कि इंडियन सक्शेसन एक्ट सन् १९२५ ई० की दफा ६३ में बताया गया है, देखो एक्ट नं० ३७ सन् १६२६ ई०.
दफा ८०२ दान या वसीयत कौन कर सकता है और कौन नहीं
कोई भी हिन्दू जिसकी मानसिक शक्तियां दुरुस्त हों और जो नावालिग न हो दानके तौरपर सब जायदाद जिसमें वह पूरा अधिकार रखता हो दे सकता है और जो जायदाद वह अपने जीवनकालमें इस तरह दे सकता था उसको वसीयतके द्वारा मी दे सकता है । न बट सकने वाली जायदाद भी वसीयत के द्वारा दी जा सकती है मगर शर्त यह है कि कोई खास रिवाज ख़ान्दानकी इसके विरुद्ध न हो या जायदाद के इन्तक़ालकी मनाही न हो, देखो - 26 I . A. 88; 22Mad. 383; 3 C. W. N. 415; 1 Bom L. R.. 277; 15 I. A. 51; 10 All 272; 13 Mad. 197.
हिन्दू स्त्री अपना स्त्रीधन वसीयत के द्वारा दे सकती है मगर कुछ सूरतों में उसे अपने पतिकी मन्जूरी लेना होगी । जिस जायदाद में स्त्री सीमाव
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दान और मृत्युपत्र
[सोलहवां प्रकरण
अधिकार रखती हो उसकी आमदनी या उसकी बचतका रुपया वसीयतके द्वारा नहीं दे सकती मगर वह अपने जीवनकालमें उसको जैसे चाहे खर्व कर सकती है, दानके तोरपर उसे दे सकती है।
बाप मुश्तरका जायदाद वसीयत नहीं कर सकता-एक हिन्दू पिता एक वसीयत करने के पश्चात मर गया । वसीयतनामेमें उसने तीन आदमियों को अपनी जायदादके प्रवन्धक और अपने नाबालिग पुत्रका वली मुकर्रर किया। उस प्रकार नियत व्यक्तियों में से उसकी माता भी एक वली थी। उन प्रबन्धकोंने जायदादके एक हिस्से के पूर्ण अधिकार को नाबालिग की सौतेली माताके हकमें, उसकी परवरिशके लिये मुन्तक्रिल कर दिया। वह उस जाय. दादको अपने भाईके हकमें वसीयत द्वारा देकर जल्द ही मर गई। नाबालिगने बालिग होनेपर इन्तकालके मंसूरन करने और नाजायज़ कब्जेके वक्त के मुनाफे के लिये नालिश कियाः
तय हुआ (१) कि वसीयतनामा नाजायज़ था । किसी मुश्तरका खान्दानके हिन्दू पिताको मुश्तरका जायदाद के वसीयत करने और उसके द्वारा जायदादके प्रवन्धके लिये वली नियत करनेका अधिकार नहीं है । 43 Mad 8 24; 41 Mad. 561 और (२) नाबालिगके वलीको यह अधिकार न था कि वह नाबालिग की सौतेली मा के हक में, जो हिन्दूला के अनुसार केवल अपने जीवनकाल में ही परवरिश पानेकी अधिकारिणी है, जायदादका कोई हिस्सा लिख दे और उसको पूर्ण अधिकार मुन्तकिल कर दे । देइवचला आयंगर बनाम रघुपति वेंकट चारियर 22 L. W. 188 ( 1925) M. W. N. 556; 88 1. C. 967; A.I. R. 1926 Mad. 46; 49 M. L. J. 317.
जब कोई हिन्दू स्त्री ३०-४०वर्ष अपने पतिसे,मृत्युके समय तक अलाहिदा रही हो तो उसे अधिकार होता है कि वह अपने पितासे प्राप्त जायदाद को घसीयत द्वारा, अपने पतिकी रजामन्दीके बिना ही मुन्तक्रिल कर दे। भगवान लाल चुन्नीलाल बनाम बाई दिवाली 27 Bom L. R. 633; 88 I. C. 7503; A. I. R. 1925 Bom. 445. दफा ८०३ वसीयत लिखनेका क़ायदा
हिन्दू विल्स एक्ट नं०२१सन्१८७०ई० की दफार और इन्डियन सक्सेशन एक्ट नं०३६ सन् १९२५ ई० की दफा ६३ के अनुसार वसीयत लिखने घालेको चाहिये कि नीचे लिखे हुये कायदोंके अनुसार वसीयत लिखे । उक्त दफा ६३ इस प्रकार है-'फौजी सिपाही जो लाम या वास्तवमें युद्ध में शरीक हो या समुद्री मल्लाह जो समुद्र यात्रा कर रहा हो इनको छोड़कर हर एक वसीयत करने वालेको आवश्यक है कि वह अपनी वसीयत निम्न लिखित नियमोंके अनुसार लेखबद्ध करे
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वसीयतके नियम
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दफा ८०३ ]
(ए) वसीयत लिखने वाला वसीयतपर अपने हस्ताक्षर करे, देखो24 Cal. 784. या वसीयतपर बायें हाथ के अंगूठेका या क़लमसे कोई चिन्ह बनाये या उसके कद्दनेसे उसकी मौजूदगी में कोई दूसरा आदमी उसपर उसकी तरफ से हस्ताक्षर करे - निर्मलचन्द बंधोपाध्याय बनाम शरदमणिदेवी (1898) 25 Cal. 911; 2 C. W. N. 642 के मुक़द्दमे में माना गया कि वसीयतनामें पर वसीयत करने वालेकी मोहर होना भी काफी है ।
पढ़ा हुआ आदमीका निशान बनाना नाजायज़ हैने वसीयत की, कि मेरी जायदाद बेचकर मेरी अगर रुपया बचे तो मसजिद लगा दिया जाय बनाया था । साबित किया जाता था कि वह पढी पढ़ा लिखा आदमी भी निशान करके वसीयत कर सकता है और ऐसी वसीयतनामे के हाशिये के गवाहोंकी परीक्षा बड़ी सावधानी के साथ करना चाहिये, देखो -- गुलावखां बनाम अमीन मोहम्मद फ़क़ीर 22 B. L. R. 529395I C. 145, 1926 A. I. R. 355 Bʊm.
- एक मुसलमान स्त्री क्रिया कर्म में लगाई जाय वसीयत में उसने निशान थी। तय हुआ कि कोई
।
(बी) वसीयत करने वालेका हस्ताक्षर या चिन्ह या उसकी तरफसे हस्ताक्षर, वसीयतनामेमें ऐसी जगह होना चाहिये कि जिससे यह मालूम हो कि मरनेवालेका यह इरादा थाकि वह लिखत, वसीयतके तौरपर समझी जाय ।
(सी) वसीयतनामे पर दो या ज्यादा आदमियोंकी गवाही होना चाहिये परन्तु यह गवाह ऐसे हों कि जिन्होंने स्वयं वसीयत करने वालेको वसीयतनामे पर हस्ताक्षर करते या अपना चिन्ह बनाते या उसकी ओरसे उसकी मौजूदगी में और उसके कहने से किसी दूसरेको हस्ताक्षर करते देखा हो, या वसीयत करनेवालेने उनके सामने अपने हस्ताक्षर या चिन्ह या उस दूसरे आदमी के हस्ताक्षरको स्वीकार किया हो । प्रत्येक गवाह वसीयत करने वालेके सामने अपनी गवाही करे । यह ज़रूरी नहीं है कि सब गवाह एकही समय अपनी अपनी गवाहियां करें वसीयत में किसी प्रकारकी तस्दीक़की भी ज़रूरत नहीं है, देखो — 3 N. W. P. 32. इस मामलेमें एक परदानशीन औरत वसीयत की रजि. ट्री के समय बरांडेमें बैठी थी और अगर वह चाहती तो रजिस्ट्रारको देख सकती माना गया कि कार्रवाई काफ़ी है, 16 Cal 19.
गवाह अपने हस्ताक्षर गवाहके तौरपर करें । वसीयत करने वाले की तरफ से हस्ताक्षर करने वालेका हस्ताक्षर गवाही नहीं माना जायगा, देखो - 9 Cal. 224; 11 C. L. R. 359. गवाह अवश्य हस्ताक्षर करे, केवल अपना चिन्ह बना देना काफी नहीं है, देखो -11 Cal. 429, 3 Bom 382; 15 Mad. 261 गवाह यदि अपने पूरे हस्ताक्षर न करें सिर्फ संक्षिप्त हस्ताक्षर करदे तो काफी माना जायगा 15 Mad 261. यह ज़रूरी नहीं है कि गवाह
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दान और मृत्युपत्र
[सोलहवा प्रकरण
वसीयत करने वाले को हस्ताक्षर करते अपनी आंखसे देखे या यह देखे कि उस काग़ज़पर किसी और गवाहका हस्ताक्षर है या नहीं मगर शर्त यह है कि जिस वक्त गवाह अपने हस्ताक्षर करे उस समय वसीयत करने वालेका हस्ताक्षर वसीयतपर हो चुका हो और वसीयत करने वाला गवाहोंको यह समझा दे कि जिस काग़ज़पर वे हस्ताक्षर कर रहे हैं वह उसका वसीयत माना है, देखो-1 Bom. 547; 27Cal.169. वलीयत करनेवाला जब हस्ता. क्षर करले तो उसके बाद गवाह अपनी गवाही करें पहले न करें; देखो- 6 Cal. 17; 6 C. L. R. 303; 5 Cal. 738; 5 C. L. R 565; 3Bol. 382:
अगर वसीयतनामा लिखे २५ वर्ष हो गये हों और वसीयतके आधार पर काम किया गया हो, साधारणतः घसीयत ठीक मालूम होती हो, तो वह सच्ची मानी जायगी चाहे उस वसीपतपर उस स्थानके निवासी गवाही न हो जहांका निवासी वह वसीयत करने वाला है और चाहे उस वसीयतके आधारपर कोई प्रोवेट न लिया गया हो, देखो-1924 A. I. R 231 Pri.
अगर वसीयतनामेके हाशिये वाले गवाह कम दर्जे के आदमी हों तो महज इस बजे से इनकी गवाही वेवकत न मानी जायगी कि वे अच्छी हैसि. यत नहीं रखते, देखो-..1924 A. I. R. 106 Pri.
मुश्तरका खानदानका कोई मेम्बर अपनी स्वयं प्राप्त की हुई जायदाद वसीयत द्वारा मुन्तकिल कर सकता है, 1924 A. I. R 62 Nag.
अगर वसीयत नामेपर रजिस्ट्रारने यह लिख दिया हो कि मेरे मामने घसीयत करने वालेने उस बसीयतका लिखना स्वीकार किया तो यह भी उस वसीयतकी अच्छी तस्दीक है 16Cal.19;11 CA1.42 ;6Cal1 7वसीयतनामेपर गवाही करने वाले गवाहों में से ही अगर किसी गवाहके नाम कोई जायदाद दी गई हो तो वह जायदाद उसे मिलेगी और गवाही जायज़ मानी जायगी, देखो - सक्सेशन एक्ट नं० ३६ सन् १६२५ की दफा ६७ ।।
रजिस्ट्री शुदा वसीयतनामा गैर रजिस्ट्री किये हुये दस्तावेज़ द्वारा बदला जासकता है। श्यामभाई बनाम गोवधन A I. R. 1925 Mad. 195.
कोई वसीयत कर्ता अपनी मृत्यु के पश्चात् किली संयोगिक व्ययके लिये वसीयत नहीं कर सकता । यदि वह ए सी कोई वसीयत करता है तो वह नाजायज़ समझी जाती है। वैकटपाथी राजू बनाम सूर्य नरायन A. I. R. 1927 Mad. 206... दफा ८०४ कैसी लिखतें वसीयत मानी जायंगी
जिन मामलोंसे हिन्दुओं की वसीयतका कानून एक्ट नं०२१ सन् १८७० ई. जिसका संशोधन प्रोबेट एन्ड एड् मिनिस्ट्रेशन एक्ट नं०५ सन् १८८१ ई०
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दफा १०४]
वसीयत के नियम
की दफा १५४ से हो चुका है लागू न हो उसमें इस बातका कुछ खयाल में किया जायगा कि वसीयतनामा ठीक दंगसे लिखा गया है या नहीं मगर शर्त यह है कि उस लिखतमें वसीयतकी गयी हो, उसमें किसी प्रकारकी कानूनी बंदिशों की ज़रूरत नहीं है। देखो-20 Bom. 674, 6 Bom. H. C. A. C. 224.
(नीचे लिखी हुयी लिखतें वसीयतनामेके तौरपर मानी गई है) (१) जो वसीयत दो या ज्यादा गवाहोंके सामने ज़बानीकी जाय,
और वह पीछे लिखी जाय, जायज़ मानी गई है। देखो-25 All 313; 11 Bom. 89, 1 Bom. 64132 Mad. H. C. 37. इस के साथ देखो पेज १७३ (जवानी वसीयत अब जायज़ न मानी जायगी)? ) वह बयान जो मोहकमे मालके किसी कर्मचारीके सामने किया गया हो और वह बयान उसने लिख लिया हो कल्याणसिंह
बनाम सामौलसिंह 7 All. 163. (३) ऐसा घसीयतनामा जिसपर वसीयत करने वालेके हस्ताक्षर म
हुए हों देखो-ताराचन्द बोस बनाम नवीन चन्द्रमित्र 3 W. R.
C.B. 138. (४) वसीयत मामेका मसविदा-जानकी बनाम कल्लूमल31All.236. (५) मोहकमे मालके अधिकारियोंकी दी हुई दरख्वाते: देखो-21.A.
7314 B. L. R. 226, 22 W. B. C. R. 409, 24 W. R.
C. R. 395,31. A. 259,26 W. R.C. R. 55. (६) वाजिबुलार्जमें किया हुआ इन्दराज 19 All. 163 23 1. A.
97:28 All. 488, 10C. W. N. 7303 10 C. W. N. 249. (७) वैवाहिक दस्तावेज़-36 Cal. 1499 130. W.N. 991. (८) मुखतार नामा-24 W. R.C. R. 395; 2 Hay; 370 (8) दत्तक विधानके समयका दस्तावेज़ -देखो-12 Mad. 490 (१०) कोई जायदाद किसीको देनेका दस्तावेज़-11 I.A. 1353 10
Cal 7923 37 I. A. 46; 32 All 227; 14 C. W N. 641;
12 Bom. L. R. 409.
ऊपर लिखे दस्तावेज़ वसीयतके तौरपर हैं या नहीं इसकी पहचानके लिये यह देखना चाहिये कि लिखने वालेके मरनेके बाद उसमें से कोई लिखत मंसूखकी जासकती है या नहीं अगर नहींकी जासकती तो वह वसीयतनामा है और वसीयत मानी जायगी।
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दान और मृत्युपत्र
[सोलहवां प्रकरण
दफा ८०५ वसीयतनामेका अर्थ लगाना
हिन्द वसीयतनामेके अर्थ लगानेका कोई खास कायदा नहीं है वसीयतनामेंके अर्थ लगानेका सबसे उचित तरीका यह है कि सबसे पहिले वसीयतके सब अंशोपर चाहे वह कानूनके अनुसार हों या नहीं विचार किया जाय और यह देखा जाय कि वे वसीयत लिखने वालेका इरादा ज़ाहिर करते हैं या नहीं और सम्पूर्ण वसीयतनामा एक साथ पढ़कर यह मालूम किया जाय कि उस वसीयतनामेके आधारपर जो कोई आदमी या स्त्री जिस हकका दावा करती हो वह हक़ या दावा उस फ़्रीकको दिये जाने का इरादा वसीयत करने वालेका था या नहीं, देखो-10 I.A. 51; 9 Cal. 962; 9 B. L. R 377; 18 W. R. C. R. 359. वसीयतनामेके शब्दोंका वही अर्थ लगाया जायगा जो साधारणतः प्रचलित हो 2 I. A 256; 24 W. R. 168-169,16 I. A. 29; 16 Cal. 383.
वसीयतकी पाबन्दी सीही होगी जैसा लिखाहो-वसीयत करनेवाले ने यह वसीयतकी कि अमुक मकानका जितना किराया आवे वह ठाकुरद्वारा में लगा दिया जाया करे। उसके मरने के बाद उसकी विधवा वारिस हुई उसने सोचाकि मकानही दान कर दिया जावे अस्तु विधवाने कुल मकान ठाकुरद्वारे में लगा दिया, पीछे होने वाले वारिसोंने दावा किया तो यह तय हुआ कि विधवाको मकान लगानेका कोई अधिकार न था वह सिर्फ किरायाही ठाकुरद्वारेको दे सकती थी वसीयतके खिलाफ कोई काम करनेका अधिकार विधवा को नहीं था हिवानामा मकानका नाजायज़ क़रार पाया, देखो-1923 A. I. R. 252. Punj.
वसीयतनामेके शब्दों और वाक्योंका अर्थ उदारतापूर्वक लगाना चाहिये चाहे वसीयतनामा बिल्कुल अशुद्ध भाषामें लिखा हो, नाम आदि भी गलत हों या और किसी तरहसे अशुद्ध हो । यह अशुद्धियां कुछ भी नहीं देखना चाहिये बल्कि मालूम करना चाहिये केवल उस लिखतका स्पष्ट अर्थ। यदि वह लिखत उचित और कानूनसे जायज़ हो तो वह वसीयतनामेकी लिखत मानी जायगी और उसकी अवश्य तामील होगी देखो--9 B. L. R. 377; 18 W. R. C. R. 359.
वसीयतनामे का अर्थ लगाने में अदालत पहले उसके शब्दों पर विचार करेगी फिर इर्द गिर्द के हालातपर ध्यान देगी-6 M. I. A. 226; 4
W. R. P. C. 114; 25 Cal.112-3 24. फिर यह देखेगी कि जो चीज़ वसीयत द्वारा दीगयी है उसमें लागू होने वाला कानून क्या है, देखो-12 M. L A. 41; 9 W. R. P. C. 1; 11 BuIn. 63--14; 25 Boin 279; 13Bom. L. R 471. और जहांपर अर्थ स्पष्ट नहीं होता वहां अदालत यह देखेगीकि
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दफा ८०५]
. घसीयतके नियम
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वैसे मामलेमें आम हिन्दुओंकी क्या इच्छा रहा करती है या यहकि इस विषय में हिन्दुओंके क्या ख्यालात हैं, देखो-34 Bom. 278; 12 Bom.L.R.1963
351. A. 118335 Cal. 8963 12 C. W.N.7293 10 Bom. L.R.6043 .2 1. A.7; 14 B. L R. 226; 32 W. R. C. R. 409-410.
___ अदालत कब सन्देहके साथ शहादत सुनेगी?-जब किसी वसीयत. नामेके द्वारा किसीको एक बहुत बड़ी जायदाद मिल जाती हो तो वसीयत जायज़ होनेके बयान करने वालेकी तरफ वाले गवाहों की परीक्षा अदालतको बड़ी होशियारी व सन्देहके साथ करना चाहिये, देखो-102 L.C. 6367 1927 A. I. R. 264 Nag.
__ अदालत यह मान लेगी कि प्रत्येक हिन्दू अपनी मौरूसी जायदादका अपने खान्दानमेंही रहना पसन्द करता है। और यह भी मान लेगी कि साधारणतः हिन्दू यह जानता है कि स्त्री किसी जायदादपर वरासतसे पूरा अधिकार नहीं पाती और न उस सूरतमें वह उस जायदादका इन्तकाल कर सकती है, देखो-2 I. A. 7; 14 B. L. R. 226; 22 W. R. C. R. 409-410. इसी तरह अदालत यह भी मान लेगी कि हिन्दुओंके मुश्तरका खानदानमें कोपार्सनरी ( देखो दफा३६६) होती है, 23 I. A. 37; 23 Cal. 670-6797 32 All. 41.
जबकि वसीयतनामेकी भाषा बिल्कुल शुद्ध, सही और स्पष्ट हो तो जैसा उसमें लिखाहो ठीक उसीका अर्थ लिया जायगा हां यदि उस वसीयतनामे में ही कोई ऐसी बात हो कि जिसके ख्यालसे उसकी भाषाका कुछ और अर्थ समझना ज़रूरी हो तो वैसाही अर्थ लगाया जायगा-22 I. A. 119-1283; 18 Mad. 347-358; 20 Bom. 571. वसीयतनामेके स्पष्ट शब्दोंका अर्थ वसीयत करने वालेके इरादेके अनुमानसे तोड़ा मरोड़ा नहीं जा सकता 24 I. A. 763 24 Cal. 834, 1 C. W. N. 387-388.
वसीयतमें जब यह हिदायत थी कि यदि बसीयतकर्ताकी पुत्रीके पुत्र उत्पन्न हो तो वह उस जायदादका अधिकारी होगा, जो उसने अपनी स्त्रीको वसीयतमें दिया है। तय हुआ कि पुत्रीके पुत्रने उस जायदादको वसीयतके बिनापर प्राप्त किया न कि बिना वसीयतके-शिवराम अय्यर बनाम गोपाल कृष्ण चेटीयर A. I. R. 1925 Mad. 88; 47 M. L. J. 337.
कानूनी शब्दोंका जो कानूनी अर्थहै वही लगाया जायगा लेकिन अगर यह देखा जाय कि वसीयत करने वालेने उन शब्दोंका गलत व्यवहार किया है तो वसीयत करने वालेके इरादेके ख्यालसे उनका अर्थ लगाया जायगा। अब वसीयत नामेके शब्दोंसे कई तरहके अर्थ समझे जासकते हों और वसीयत करने वालेके चारो तरफ़के सम्बन्धों और इरादे आदिसे कोई एक बात
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[ सोहवां प्रकरण
निश्चित न हो सकती हो तथा भाषा सन्देह जनक हो तो ऐसे मामलेमें यही उचित समझा गया है कि ऐसे वसीयतका वह अर्थ माना जायगा जो उस भाषाका जानने वाला एक अजनबी समझदार आदमी वसीयतको पूरा पढ़कर जो अर्थ समझ सके ।
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दान
और मृत्युपत्र
जब वसीयतमें साफ साफ शर्तोंके साथ जायदाद न दी गयी हो तो क़ानून से ज्यादा हक़ नहीं मिलेगा-एक हिन्दूने अपनी दो लड़कियों के छक्रमें वसीयत की । यह लिखा कि मेरे मरने के बाद दोनों लड़कियां जायदाद पावें और उनके बाद उनके लड़के जायदाद पावें और दोनों यानी लड़कियां और उनके लड़के बालिग होनेपर जायदाद पावें । वसीयत करने के समय उनकी शादी न हुयी थी तय हुआ कि लड़कियोंको क़ानूनी हक़से ज्यादा जायदाद में कोई हक़ न मिलेगा । हिन्दूलॉ में जो इन लड़कियों को मिलता है उससे वादा न मिलेगा। देखो - 1929 A 1. R. 214 Pri.
बारसुबूत - वसीयतके सम्बन्धमें क़ानून इस विषयमें बिल्कुल साफ है कि बार सुबूत वसीयतका उस पक्षकारके ज़िम्मे होगा जो उसे बयान करता हो उसे अदालत को इस बातका पूरा इतमीनान करा देना चाहिये कि वह वसीयत, वसीयत करने वाले का श्राखिरी और वही वसीयत है तथा उसे वसीयत करने का अधिकार था और अगर अदालतको वसीयत के सम्बन्धमें कोई सन्देह पैदाहो तो उसे हटाना भी चाहिये एवं यह साबित करना चाहिये कि वसीयत करने वाला; वसीयत में लिखी कुल बातोंसे पूरी तौरपर जानकारी रखता था और वह उस समय उसके ज्ञानमें थीं। अगर यह सब बातें, वसीयत वयान करने वालेकी तरफसे साबित करदी गयी हों तो फिर इस बातका बार
सुबूत दूसरे पक्षकार पर आ जाता है कि वह साबित करे कि वसीयतमें कोई जालसाज़ी या धोखेबाज़ी या नाजायज़ दबाव की बात की गयी थी, या थी, लछू बीबी बनाम गोपीनरायन 23 Ail 472; श्यामाचरन बनाम क्षेत्रमनी दासी 27 Cal. 521; 27 1. A. 10; सुखदेई बनाम केदारनाथ 23 All. 4053 25 Cal. 825; 25 I. A. 109.
दफा ८०६ उत्तराधिकार से बंचित करना
वसीयतके द्वारा अपनी सब जायदाद किसी ग़ैर आदमीको देकर हिन्दू अपने वारिसोंके उत्तराधिकारका हक़ मार सकता है देखो - 10 BL. R. 267; 19 W. R C. R. 48; 2 M. I. A. 54; 10 W. R. C. R. 287; 1 Mad. H. C. 487; 10 Mal. 251; 3 Bom. H. C.A. C. 6; हिन्दू अपने दत्तक पुत्रको भी उत्तराधिकारसे बंचितकर सकता है और उस पुत्रको भी जो वसीयत के पश्चात् दत्तक लिया गया हो; देखो - 8. Bom. H. C. O. C. 196; 22 Mad. 490; 6. Bom H CA. C. 224 परन्तु वह अपनी स्त्री
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दफा ८०६ - ८०१ ]
वसीयतके नियम
या भरण पोषणका हक़ रखने वाले किसी दूसरे मनुष्य या औरतका हक़ वसीयत के द्वारा नहीं मार सकता; देखो - 12. C. W. N. 808 किन्तु वह ऐसी वसीयत कर सकता है कि उसके बाद जायदाद के बटबारेमें उसकी स्त्री को कुछ हिस्सा न मिले; देखो - 36. Cal. 75, 319.
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हिन्दू अपनी जायदाद जिसको चाहे दान या वसीयतके द्वारा देसकता है मगर शर्त यह है कि अपनी स्त्री और भरण पोषणका हक़ रखने वाले दूसरे लोगोंके भरण पोषणके खर्चका अलग काफी प्रबन्ध करके उसने अपनी उस जायदादको उन सबके भरण पोषणके खर्चसे मुक्त कर दिया हो । अर्थात् उनका काफ़ी और स्थिर प्रबन्ध करनेके पश्चात् दे सकता; देखो - 17 Cal. 886; 15 Cal. 292-306; 8 Bom. H. C. A. C. 98;12 Mad. 490-494 2. M. I. A. 54-57; 10 Cal. 638.
दफा ८०७ वसीयत और दानके सिद्धांतों पर टगोर केस
जतेन्द्र मोहन टगोर बनाम ज्ञानेन्द्र मोहन गोर ( 1872 ) I . A. Sup. Vol. 47; 9, B. L. R.377; 18 W. R. C. R. 359; यह सबसे बड़ी नज़ीर हिन्दू दान और वसीयतके विषयमें है। इसमें जो सिद्धांत निश्चित किये गये, प्रायः उन्हींके आधारपर हिन्दू दान और और वसीयत तथा जायदाद आदि किसीके नाम लिखे जानेके मामलोंका फैसला होता है इस नज़ीर में नीचे लिखे लिद्धांत निश्चित किये गये हैं
-
( १ ) मान लेनाकि वसीयत के द्वारा सारा हक़ दिया गया
यदि वसीयत में कोई बात इसके विरुद्ध न हों तो यह बात मान ली जायगी कि जो जायदाद किसी आदमीको वसीयत के द्वारा दी गई है उसमें उस आदमीका ठीक उतनाही अधिकार है जितना कि बसीयत करने बालेका था; देखो - 25 I. A. 1263 22 Bom. 833; 8 C. W. N. 417; अगर वसीयतनामे में कोई बात इसके विरुद्ध नहीं है तो जो जायदाद किसी श्रादमीको वसीयतसे दीगई हो और यह स्पष्ट ज़ाहिर न किया गया हो कि वह जायदाद उसको वरासतके तौरपर दी गई है तो मान लिया जायगा कि वह जायदाद उसको वरासतके तौरपर ही दी गई है; देखो - 24. 1. A. 76; 24 Cal. 834 33 Cal. 1306; 11 C. W. N. 12; 8 M. I A. 43, 33 Cal. 23.
किसी बसीयतनामे या दानपत्र के किसी अंशले चाहेयह प्रत्यक्ष मालूम हो कि किसी जायदादमें किसीको पूरा हक़ दिया गया है परन्तु सम्भव है कि उसी बसीयतनामे या दान पत्रके किसी दूसरे अन्शसे यह साबित हो कि उस जायदाद में उस आदमीको केवल उसकी जिन्दगी भर तकके लिये हक़ दिया गया है ऐसी सूरत में जिन्दगी भरका हलमाना जायगा; देखो - 28 Mad. 386.
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दान और मृत्युपत्र
[सोलहवां प्रकरण
वसीयतसे स्त्रीको पूरे हक़ोंका मिलना-एक शख्लने वसीयत के द्वारा अपनी जायदाद अपनी स्त्रीको पूरे हकोंके साथ देदी और गोद लेने के लिये भी हिदायत कर दी, स्त्रीने वह जायदाद 'आर्यावर्ती सार्वदेशिक सभा दिल्लीको दान कर दी पीछे एक लड़का वसीयतकी हिदायतके अनुसार गोद लिया। दत्तक पुत्रने जायदाद वापिस पानेका दावा किया तय हुआ कि स्त्रीको पूरे अधिकार प्राप्त थे अब दत्तक पुत्र जायदाद वापिस नहीं ले सकता, देखो1923 A. I. R. 398 Pun.
वसीयतसे पतिने अपनी स्त्री को यह अधिकार दिया कि वह ५ पुत्र तक गोद ले, गोदके लड़के और विधवाके परस्पर मेल न होनेपर दोनों आधी श्राधी जायदादके मालिक हों, गोद अगर विधवा न ले तो उसे जायदादमें पूरे अधिकार रहेंगे, यह भी लिखा कि अगर विधवा और दत्तक पुत्र जायदाद बेचना चाहें और हिस्सेदार पूरे दाम न दे तो दूसरे को बेच दी जाय । बहस यह थी कि विधवा को पूरे हक़ नहीं थे माना गया कि विधवा को पूरे हक़ घसीयतसे मिल गये, दूसरेके हाथ बेच देनेकी शर्त से मालिकाना हक़ों पर बाधा नहीं पड़ती देखो-1923 A. I. R. 65 Pri. (२) कोई आदमी कानुन नहीं बदल सकता
दान या वसीयत या किसी समझौतेसे वरासतके तौरपर जो हक़ किसीको दिया जाय, अगर वह वरासतके कानूनके विरुद्ध हो तो वह हक देना नाजायज़ होगा। कोई आदमी सपनी इच्छा या नीतिके पूरे करनेके उद्देशसे, वरासतके किसी नये ढंगके हक़की सृष्टि नहीं करसकता; देखो-10 I. A. 517 9 Cal. 952513 C. L R. 62; 16 Cal. 383; 15 C. W. N. 693, 13 Bom. L. R. 451; 14 Bom. 360; 38 I. A.112;38 Cal. 603. (३) अनुचित शर्त
जव दान या वसीयत द्वारा किली जायदादमें पूरा हक देदिया जाय तो उसके साथ कोई ऐसी शर्त नहीं लगाई जासकती जो अनुचित हो और उस जायदादके भोगनेके साथ भी कोई कैद नहीं लगाई जासकती । अगर लगाई जाय तो नाजायज़ होगी। बटवारे या इन्तकाल जायदाद या किसी दूसरे समझौतेसे भी यही नियम लागू होगा; देखो 4 Mad. H. C. 345; 4 All. 518; 7 All. 516; अगर किसी जायदादके साथ यह मनाही रखी जाय कि उसका इन्तकाल न किया जाय तो यह शर्त नाजायज़ मानी जायगी; देखो6 I. A. 182; 5 Cal. 438; b C. L. R. 296, 12 I. A. 103; 11 Cal. 684; 15I.A. 37; 15 Cal. 409%
B24 Cal 834.
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वसीयतके नियम
६-३
दफा ८०७ ]
ब्राह्मणको दान दी हुई जायदादमें यदि ऐसी मनाही रखी जाय कि वह इन्तक़ाल न करे, नाजायज़ होगी, देखो -- अनन्त तीर्थ बनाम नागा मूधू 4 Mad. 200; या यह आज्ञा दी जाय कि जायदाद पाने वाला अमुक जायदाद पर क़ब्ज़ा न करे नाजायज़ होगाः देखो - 8 Jal 3783 10 C. L. R. 207. 13 Bom. 463; या यह शर्त रखी जाय कि जायदाद पाने वाला जायदादका बटवारा न करे नाजायज़ होगा; देखो - 1 Cal. 104, 15 IA. 37; 15 Cal.409; 7_Mad. 315; या यह शर्त रखी जाय कि जायदाद पाने वाले के जिम्मेका क़र्ज उस जायदादसे वसूल न हो सके, नाजायज़ होगी, देखो -- 15 I. A. 37; 15 Cal. 409; या यह कहा जाय कि कुछ ट्रस्टी लोग खर्च की देख भाल रखें, नाजायज़ होगा - 19 Bom. 647; या यह कहा जाय कि जायदादकी आमदनी हमेशा जमा होती रहे नाजायज़ होगा, देखो -- 4 Mad 124; ऐसी सूरतों में जायदाद पाने वालेका अधिकार है कि ऊपर कही हुयी किसी शर्त को न माने क्योंकि दान या वसीयत द्वारा दी हुयी जायदाद के साथ उपरोक्त या ऐसी कोई शर्त या क़ैद या मनाही लगाना क़ानूनन् नाजायज़ है ।
दान या वसीयत के द्वारा दी हुई जायदाद के साथ अगर कोई ऐसी शर्त रखी जाय जो क़ानूनसे उचित होतो जायज़ होगी, देखो --23 W. R C. R. 236; 24 Cal. 646; 1 C W. N 578; 14 B. L. R. 60; 1 I. A. 387; किन्तु इंडियन् सक्सेशन एक्ट नं० ३१ सन् १९२५ ई० की दफा १२८६ के अनुसार जो शर्त क़ानूनन या सदाचार के विरुद्ध हो या जिसका पूरा किया जाना असम्भव हो तो नाजायज़ होगी ।
( ४ ) भावी सन्तानके लिये वसीयत
दान या वसीयतके द्वारा जिस आदमीको जायदाद दी जाय वह वसी यत करने वाले की मौतके समय वास्तवमें या क़ानून की दृष्टिमें जीवित हों, देखो - -31 Mad. 310; 28 I. A. 152; 28 Cal. 72; 5 C. W. N. 806; 3_Bom. L. R. 803; यह नियम सब हिन्दू वसीयतों से बराबर लागू होगा चाहें वे हिन्दूलों के किसी स्कूलके पाबन्द हों और चाहे हिन्दू वसीयत का क़ानून उससे लागू होता हो या न हो, देखो --8 Cal. 637, 10 C. L. R. 459; 8 Cal. 378; 10 C. L. R. 207; 9 Bom. 491; यही नियम उस वसीयतनामे से भी लागू होगा जिसमें लिखाहो कि छोड़ी हुयी जायदाद वसीयत करने वाले की मौत के बादही देदी जाय या बीच में किसी दूसरे आदमी की मिलकियत समाप्त हो जाने पर दे दी जाय या कोई खास घटना होनेकीं शर्त पर दे दी जाय, देखो - 101. A 51; 9 Cal. 952; 13 C. L. 625 15 I. A. 149; 16 Cal. 71; 30 Cal. 369; 20 Bom. 450; 16 Bom.
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है।
दान और मृत्युपत्र
[सोलहवां प्रकरण
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492; यही नियम उस आदमीसे भी लागू होगा जो वसीयत के द्वारा किसी जायदादका मालिक मुकर्रर किया जाय, देखो-24 I. A. 93; 21 Bom. 709; 25 Cal 405; 2 0. W. N. 295; 17 Bom. 600; 16 Bom. 4923 18 Bom.7; इसी तरह वसीयत द्वारा दी हुयी प्रायः सभी जायदादों से यह नियम लागू होता है।
एक आदमीने अपनी वसीयतमें लिखा कि यदि मेरा पुत्र मेरे मरनेसे १० वर्षके अन्दर ब्याह करले तो अमुक जायदाद उसकी स्त्रीको मिले, अदा. लतमे उसकी वलीयतको ठीक माना और कहा कि वसीयत करने वालेके मरने के समय वह स्त्री पैदा हो चुकी थी इसलिये उसके नामकी वसीयत जायज़ थी, देखो-नाफरचन्द कुंडू बनाम रतनमाला देवी 15 C. W. N. 663 39 Cal. 87.
कुटुम्बियों के समूहको दान-कुटुम्बियोंका कोई ऐसा समूह जिसमें कुछ लोग ऐसे हों कि जायदाद पानेके अयोग्य हों तो ऐसे समूहको दान देने के सम्बन्धमें जो नज़ीरे हैं उनसे कुछ कठिनाई पैदा होगई है। जब कुटुम्बियों के किसी एक समूहके हकमें कोई जायदाद वसीयत द्वारा दी जाय तो उस समूहके वे ही लोग वह जायदाद पावेंगे जो वसीयत करने वालेकी मौत के समय उसके पानेके अधिकारी थे। जब कुटुम्बियोंके किसी समूहको दान दिया जाय या वसीयत द्वारा कोई जायदाद दी जाय और उस समूहमें पीछे कुछ ऐसे लोग भी शामिल हो जाय जो वह दान या जायदाद पाने के अधि. कारी नहीं हैं तो वह दान या जायदाद उन्हीं लोगों को मिलेगी जो उसके लेनेके अधिकारी हैं, देखो-11 I. A. 164; 6 All. 360; 12 Cal. 663, 12 Mad. 393, 38 I. A. 64; 38 Cal. 468, 15 C. W. N. 395; 13 Bom. L.R. 3753 32 Cal.992 जब कुटुम्बियोंके किसी समूहके नाम वसी. यत द्वारा कोई जायदाद दी आय और वसीयत करने वालेकी मौतके कुछ समय बाद वह जायदाद उनको मिलने की शर्त हो तो उस समय वह जायदाद उन लोगोंको भी मिलेगी जो जायदाद पाने के अधिकारी हैं परन्तु वसी. यतके समय पैदा नहीं हुये थे, देखो-38 I. A. 54; 38 Cal. 468; 32Cal. 992, 38 Cal. 188,15 C. W. N. 113; 24 Cal. 646, 12 Cal. 663929 Mad. 41234 C. W. N. 671; 4 B. L. R. O. C. 231;28 Mad. 336.
जब किसी वसीयतनामेसे यह मालूम हो कि वसीयत करने वालेने कुटुम्चियोंके किसी समूहके नाम जापदाद तो छोड़ी परन्तु उसमें जो लोग उस जायदादके पानेके अधिकारी हैं उनको देनेका विचार उसका नहीं था तो ऐसी वसीयत रद्द हो जायगी 22 Bom. 533; 15 I. A. 149.
धर्मार्थ वसीयत--कोई भी हिन्दू वसीयत द्वारा किसी देवमूर्तिके लिये, मन्दिरके लिये, वा निजके या जन साधारणके लाभ के लिये, धार्मिक कृत्यों या
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वसीयतके नियम
पूजा पाठके लिये या खैरात के लिये या ऐसे सार्वजनिक कामोंके लिये कि जिनसे धर्म, विद्या, व्यापार, स्वास्थ्यरक्षा, या अन्य प्रकारसे जनताको लाभ पहुंचाने का उद्देश हो अपनी जायदाद दे सकता है। जब कोई जायदाद किसी आदमीको दानके तौरपर दी जाय तो यह दान वरासत के क़ानून नं० ३६ सम् १६२५ ई० की दफा ११४ की शर्तोंसे बरी नहीं होगा, देखो - 4 Mad. 200.
६८५
जब कोई जायदाद ऐसे दो आदमियों को शराकत में दी जाय कि जिनमें से एक उसके पानेका अधिकारी हो और दूसरा न हो, तो जो अधिकारी है: वही सब जायदाद पावेगा, देखो -- 16 I. A. 44; 16 Cal. 677.
हिन्दूलॉ के अनुसार कोई आदमी दूसरेको अपनी ओरसे वसीयत करने का अधिकार दे सकता है परन्तु शर्त यह है कि जो लोग पैदा न हुये हों, उनके नाम वह दूसरा आदमी मी वसीयत न करे 241. A.93; 21 Bom. 709; I. C. W. N. 366.
यद्यपि हिन्दूलों का यह नियम है कि दानके समय जो आदमी पैदा न हुआ हो, उसको दान नहीं दिया जा सकता, परन्तु बङ्गालमें एक्ट नं० 3 of 1904 और अवधमें सेटेल्ड्स्टेट्स एक्ट नं० २ सन् १६०० के द्वारा यह क़ैद कुछ ढीली करदी गई है वैसी आयदादोंमें कुछ सूरतों में तीन पुश्तों तक जायदाद दी जा सकती है ।
( ५ ) उचित उद्देशके लिएही ट्रस्ट जायज हैं
ट्रस्टके तौरपर जायदाद उतनेही सीमा तक, और उन्हीं उद्देशोंके लिये वसीयतसे दी जा सकती है जो क़ानूनके अनुसार हों । जायदाद मनकूला और गैरमनकूला दोनों ट्रस्टके तौरपर छोड़ी जा सकती हैं किसी एक आदमी या आदमियोंके हाथमें किसी दूसरे आदमी या श्रादमियोंके लाभके लिये जायदाद वसीयत से छोड़नाही 'ट्रस्ट' कहलाता है। जिन उद्देशोंके वास्ते जायदाद वसीयत द्वारा दीगयी हो उनके पूरा करनेके बाद जो जायदाद बच्चे वह उस आदमीको मिलेगी जो क़ानूनन् उसका अधिकारी होता अगर वह वसीयत न की गई होती; 9 B. L. R. 377.
ट्रस्ट माना जायगा ? - एक वसीयतनामे में यह साफ़ साफ़ बताया गया था कि जायदाद के समर्पण करनेका यह अभिप्राय है कि उसके द्वारा श्री भगवानकी पूजा की जाय, सामयिक उत्सव या रसम मनाये जायँ, और पूजाके निमित्त आये हुये मुसाफ़िरोंको निवास स्थान दिया जाय, तथा जो ठाकुरद्वारे की आमदनी हो वह पहिले पूजा और उत्सवों में खर्च की जाय और जो उस खर्चे से बच जाय, वह दोनों तामील कुनिन्दोंमें आपस में बराबर बराबर बांट ली जाय। इसके बाद यह भी बताया गया था, कि उसके तामील कुनिन्दा उस मकानके इन्तक़ाल करने या रेहन करने या बय करने के अधिकारी न होंगे,
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और यदि वे इस प्रकारका कोई इन्तकाल करेंगे तो वह इन्तकाल बिलकुलही नाजायज़ समझा जायगा । यह भी घोषणा कीगई थी, कि यदि कोई तामील कुनिन्दा या उसका वारिस किसी समय उसका इन्तक़ाल करे, तो उसके वंशजों या किसी व्यक्तिको यह अधिकार होगा कि वह अर्जी द्वारा उस इन्त. कालको नाजायज़ करार दिला देवे। तय हुआ कि वसीयतनामेसे एक ट्रस्ट पैदा होता है और तामील कुनिन्दोंको केवल उसकी बचतसे लाभ उठानेका ही अधिकार है। वे उसका इन्तकाल नहीं कर सकते और न उनके खिलाफ किसी डिकरीकी तामील उसपर हो सकती है-तेजो बीवी बनाम श्रीठाकुर मुर्लीधर राज राजेश्वरी A. I. R. 1927 All. 23. (६) सीमाबद्ध दान
हिन्दू ऐसी वसीयत कर सकता है कि उसके बाद उसकी जायदाद कोई आदमी अपनी जिन्दगी भर भोगे, या एक आदमीके बाद दूसरा, इस तरहपर कई आदमी उस जायदादको भोगे या सीमाबद्ध मुहत तक कोई आदमी उसे भोगे-10 I. A. 51;9 Cal. 952; 16 I. A. 29; 14 B. L. R. 226; 22 W. R.C. R. 409; 15 Bom. 943; 25 Cal. 112.
कोई खास घटना घटित होने की शर्त पर जो दान वसीयतके द्वारा दिया जाय तो वह जायज़ है, मगर शर्त यही है कि जिसके लिये वह दान दिया गया हो वह वसीयत करने वाले की मौत के समय अवश्य जीवित हो। परन्तु यदि वह घटना घटित न हो, तो दान पानेवालेका हक़ उस दानमें से जाता रहेगा। उदाहरणके लिये देखो-जैसे 'अ' ने वसीयत द्वारा 'ब' को दान दिया
और यह शर्त रखी कि अगर 'ब' निःसन्तान मर जाय तो वह दानकी जायदाद 'स' को मिले ऐसी सूरतमें यदि 'ब' कोई सन्तान छोड़कर मरे तो 'स' का हक्क दान परसे जाता रहेगा-34 Mad. 250; 6 M. I. A. 526; 9 M.I. A.123. दफा ८०८ जायदादकी आमदनी जमा होना
मरने के बाद जायदादकी आमदनी जमा होती रहे ऐसी वसीयत हिन्दू कहांतक कर सकता है यह अभी ठीक निश्चित नहीं हुश्रा इस बिषयमें मतभेद है; अमृतलाल दत्त बनाम स्वर्ण मयी दासी (1897) 24 Cal. 5897 और I. C. W. N. 345. के मुकदमे में कलकत्ता हाईकोर्ट के जज मि० जस्टिस जेन् किन्सने माना कि उचित सीमाके भीतर हिन्दू ऐसी वसीयत कर सकता है। इस मुक़द्दमे की अपीलमें यह प्रश्न उठाही नहीं ( 25 Cal 662; 27 I. A. 1287 27 Cal. 9967 ) 25 Cal 690; के मामले में एक जजने यह राय नहीं मानी। ऐसे ही वसीयतके एक दूसरे मुक़द्दमे में कलकत्ता हाईकोर्ट के जज
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दफा ८०८]
वसीयतके नियम
मि० जस्टिस उडरफकी राय हुई कि जिसको जायदाद दी गयी हो उसकी नाबालग्रीकी मुद्दत तक ही आमदनी जमा हो सकती है 9G. W.N. 1033. इस बिषयमें मिस्टर मेन अपने हिन्दूलाँ 7ed. P. 571-346 में कहते हैं कि आमदनी जमा होना जायज़ नहीं है किन्तु हालके एक मुकदमे में कलकत्ता हाईकोर्टने मिस्टर जस्टिस जेनकिन्सकी पूर्वोक्त रायका समर्थन किया देखो 34 Cal. 5; 11. C. W. N. 65.
नफरचन्द कुंडू बनाम रत्न मालादेबी (1910) 16 C. W. N. 66.के मुकदमे में पुत्रके विवाहके खर्चके लिये आमदनी जमा होनेका प्रश्न था अदालतने जायज़ माना इसी तरह बम्बईमें १६ बर्षतक जायदादकी आमदनी जमा होने की वसीयत जायज़ मानी गई देखो-4 Bom. L. R. 903.
यदि किसीने अपनी जायदाद सार्वजनिक लाभके लिये वसीयतके द्वारा दानकी हो तो वसीयत करने वाला ऐसी कोई शर्त उसके साथ वसीयतमें नहीं लगा सकता कि उस जायदादका मुनाफा हमेशा जमा होता रहे या किसी सीमा रहित मुहत तक जमा किया जाय: देखो-12 I. A. 103; 11 Cal. 684; 15 I.A.37; 15 Cal. 409; 14 Bom. 360; 70. W.N.688.
इस विषयमें इन्डियन सकसेशन एक्ट नं०३६ सन् १९२५की दफा ११७ देखो-इसका सारांश यह है-"किसी जायदाद मुनाफा जमा रखनेकी जो शर्त है वह नाजायज़ है और वह जायदाद जिसे दी गयी है वह इस तरहपर अपने काममें लायेगा कि मानो उसमें मुनाफा जमा करने की शर्त थीही नहीं मगर यह माना गया है कि यदि जायदाद गैरमनकूला हो तो वसीयत करने वालेकी मृत्युके समयसे सिर्फ एक वर्षतकका मुनाफा जमा किया जा सकता है। पीछे वह जायदाद और मुनाफा खर्च किया जायगा।"
उदाहरण-(१) एक आदमीने वसीयतकी कि २००००) के गवर्नमेन्ट प्रामेसरी नोट खरीदे जायें और उनका व्याज २० बर्ष तक जमा. किया जाय । पीछे महेश, शङ्कर और रमाशंकरको बराबर देदिया जाय । ऐसी सूरतमें वसीयत करने वालेकी मृत्युके समयसे एक वर्षके पश्चात् तीनों आदमी सब रुपया बांट सकते हैं।
(२) एक श्रादमीने २००००) रु० शङ्कर को इस शर्त के साथ वसीयत किया कि वह रुपया शङ्कर को उस समय दिया आय जब उसका विवाह हो जाय । ऐसी सूरतमें माना गया कि शङ्कर वह रुपया वसीयत करने वाले की मृत्युके एक वर्ष के बाद ले सकता है चाहे उसका विवाह न मी हुआ हो।
(३) एक आदमीने वसीयत की कि सनिगवां ग्रामका मुनाफा १० वर्ष तक जमा करके शङ्कर के बड़े बेटे गणेश को दे दिया जाय । वसीयत करने वालेकी मृत्युके समय गणेश मौजूद था। ऐसी सूरतमें वसीयत करने वालेकी
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दान और मृत्युपत्र
[सोलहवां प्रकरण
मृत्युके एक वर्ष बाद गणेश को सनिगवां ग्राम और उसका मुनाफा एकमुश्त पानेका हक़ हो जायगा; ६ वर्ष आगे की शर्त नाजायज़ होगी।
(४) एक आदमी ने वसीयत की कि सनिगवां ग्रामका मुनाफा १० वर्ष तक जमा करके शङ्कर के पुत्रको दिया जाय । वसीयत करने वालेके मरने के समय शक्करके पुत्र म था; इसलिये वसीयत नाजायज़ है।
(५) शङ्करने एक वसीयत इस शर्तपर की कि अठारह वर्ष की उमर होनेपर महेश को यह जायदाद मिले और उसका मुनाफा १८ वर्ष तक जमा रहे, वसीयतमें यह बात नहीं कही गयी थी कि महेशकी नाबालिशी सम्बन्धी जैसे पढ़ाई, भरण-पोषण आदि के खर्च देकर जो रुपया बचे वह जमा रहे । एसी सूरतमें शङ्कर के, मरते ही महेश मालिक हो जायगा और उसकी नाबालिशीमें जो पढ़ाई आदि का खर्च पड़ेगा उसे मुजरा करके जो मुनाफा बचेगा उसे अठारह वर्ष समाप्त होनेपर दे दिया जायगा । यहां १८ वर्ष की मुहत क्यों मानी गयी ? इसका जवाब यह है कि यह मुद्दत नाबालिग्री की है। इस लिये जायज़ होगी। अगर वसीयतनामेमें यह लिखा होता कि 'महेशको १८ वर्षके याद दिया जाय' तो नाजायज़ था; और अगर यह लिखा हो कि 'नायालिगी समाप्त होनेपर दिया जाय तो जायज़ होगा। मतलब यह है कि नाबालिशी मियादसे एक दिन भी यदि ज्यादा लिखा हो तो वह नाजायज़ होगा।
इन्डियन् सक्सेशन् एक्ट नं० ३६ सन् १६२५ की दफा ११४का सारांश यह है-'जब कोई जायदाद वसीयत द्वारा किसी एक या अधिक आदमियों को छोड़ी जाय और उसमें यह शर्त रहे कि उस आदमी या उन आदमियोंके मरनेके बाद वह जायदाद किसी दूसरे आदमीको अमुक मुद्दतमें दी जाय, और वह मुद्दत अगर उस दूसरे आदमीकी नाबालिग्रीकी मुद्दतसे ज्यादा हो, तो उसके सम्बन्धकी वसीयत नाजायज़ होगी।'
उदाहरण-(१) 'क' को कोई जायदाद वसीयत द्वारा दी गई और यह शर्त रखी गई कि 'क' के मरने के बाद वह जायदाद 'ख' को मिले और 'ख' के मरने के बाद वह 'ख' के ऐसे पुत्रको मिले जो सबसे पहले २५ बर्षकी उमरका हो, वसीयत करने वालेके मरनेके बाद 'क' और 'ख' दोनों जिन्दा थे अब ऐसा मानो कि 'ख' का वह लड़का जो सबसे पहिले २५ वर्षका होगा, वसीयत करने वालेके मरने के बाद पैदा हुआ और 'क' और 'ख' दोनोंमेंसे जो सबसे पीछे मरे उसकी मौतकी तारीखसे अट्ठारह वर्षकी मुद्दतके पश्चात् वह लड़का २५ वर्षका हुआ तो उसके सम्बन्धकी वसीयत नाजायज़ होगी लेकिन अगर वह लड़का अठारह वर्षकी मुद्दतके अन्दर २५ वर्षका होजाय तो वसीयत जायज़ होगी।
(२) एक जायदाद वसीयत द्वारा 'क' को दी गई, और 'क' के बाद 'ख' को मिलने की शर्त थी और हिदायत यह थी कि 'ख' के मरने के बाद वह
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दफा ८०६]
घसीयतके मियम
जायदाद 'ख' के उन पुत्रोंको बांट दी जाय जो उसके मरनेके समय १८ बर्ष के हों या इससे ज्यादा उमरके हों लेकिन अगर 'ख' की मौतके समय उसका कोई भी लड़का १८ वर्षका न हो तो वह जायदाद 'ग' को मिलेगी। मानागया कि अगर 'ख' के कोई पेसा पुत्र हो जो 'ख' के मरने की तारीखसे अठारह बर्षके अन्दर बालिग हो जाय तो भी वसीयत जायज़ रहेगी। यहांपर वसीयत करने वालेकी मौतके समय 'ख' का लड़का मौजूद न था।
(३) 'क' ने अपनी जायदाद अपनी नाबालिग लड़कियोंके लिये छोड़ कर वसीयतमें उस जायदादके ट्रस्टी नियत किये और यह हिदायतकी, कि अगर उसकी कोई लड़की नाबालिग्रीमें व्याही जाय तो उस लड़कीका जो लड़का १८ बर्षका हो उसको उस लड़कीके हिस्सेकी जायदाद मिले। इसमें यह आवश्यक है कि 'क' की वह लड़की 'क' के मरनेके समय मौजूद हो और उस लड़कीके मरनेसे १८ बर्षके अन्दर उसका लड़का १८ बर्षका हो जाय तभी उसको अपनी माके हिस्सेकी जायदाद मिलेगी। दफा ८०९ वसीयतके शब्द और वाक्योंपर विचार ...
अकसर वसीयतके मामलोंके शब्द और वाक्योंपर इसलिये ज्यादा गहरा विचार करना पड़ता है कि जिससे वसीयत करने वालेका मतलब और भाव स्पष्ट हो जाय । जिस किसी जगह कोई खास शब्द या वाक्य आ जाता है और वह शब्द या वाक्य ऐसा है, कि जिसका अर्थ दोनों पक्षकार मिन्न भिन्न रूपसे करते हैं, तो अदालतको स्वयं निर्णय करना पड़ता है कि वास्तवमें उसका अर्थ क्या है। यदि वास्तविक अर्थ समझने में उसे स्वयं सन्देह उत्पन्न हो तो फिर उस मुकद्दमेकी सब बातों और इर्दगिर्दके सब मामलोंको ध्यान में रखकर उन फैसलोंके असरके आधार पर निर्णय करना पड़ता है कि जो फैसले उस तरहके शब्दों या वाक्योंके निर्णय करनेके सम्बन्धमें पहले हो चुके हैं । यदि वैसे फैसले कोई महीं हैं तो फिर उसी मुकदमेकी सब बातोंके आधारपर निर्णय करना पड़ता है। जिन शब्दों या पाक्योंका उल्लेख जिस अर्थ या भावमें नीचे किया गया है प्रत्येक वैसे मामलेमें नहीं विचार करना चाहिये क्योंकि ऐसे शब्द और वाक्य एसी इबारतके साथ भी लिखे जा सकते हैं कि जिससे उनका अर्थ या भाव बिलकुल उलटा हो जायः इसलिये हर एक वसीयतनामेके शब्दों और वाक्यों तथा इर्दगिर्दके सब मामलों के साथ मतलब लगाना पड़ता है। नीचे कुछ उदाहरण देखो(१) 'मालिक'-इसका अर्थ यह माना गया कि वह आदमी या स्त्री
जिले इन्तकाल आदिके सब पूरे अधिकार जायदाद में प्राप्त हों; देखो-8C. L.J. 20; 1 S.L. R. 211; 2 I. A. 7; 14 B. L. R. 226; 11 Bom. 697 14 Bow. 19 Bom. 491; तथा
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त्युपत्र
[सोलहवां प्रकरण
Movie
24 Cal. 834; 24 I. A.76; 29 All. 217; 4 All. L. J. 637 14 C. W. N. 458.
किसी हिन्दूने अपनी विधवा बहूके हकमें वसीयत किया और उसे वसीयत द्वारा जायदादका मालिक बनाया तथा उसे पावश्यकतापर जायदाद के रेहन करने और आमदनी को इच्छानुकूल खर्च करने का अधिकार दिया। तय हुआ कि वसीयतनामे द्वारा सम्पूर्ण अधिकार न दिया गया था बक्लि जायदाद पर उसका बतौर विधवाके अधिकार था। शब्द 'मालिक' से सम्पूर्ण अधिकार न हो ऐसा विदित होता-मु० शिवदानी कुंवर बनाम राम
जी उपाध्या 90 1. C. 757. (२) 'मालिक वखुद अख्त्यार'-2 Ind. Case 474; 31 All. 308;
6 I. L. J. 420 में माना गया कि इस वाक्यसे सब पूरे अधि
कार प्राप्त हो जाते हैं। (३) 'मालिक जायज़ मिस्ल मेरेके'-12 0. C. 157; 2 Ind Case.
924 वाले केसमें एक आदमीने अपनी स्त्रीको वसीयतमें लिखा कि मेरे मरने के बाद वह 'मालिक जायज़ मिस्ल मेरेके' हो, माना
गया कि उसे पूरे अधिकार प्राप्त हो गये। (४) 'पुत्र पौत्रादिकमः'-माना गया कि पूरा मालिक और मर्द शाखा
में एकके बाद दूसरा उत्तराधिकारी होगा जहां औरतोंका सम्बन्ध हो वहां औरत की वारिस औरत ही समझी जायगी, देखो -7 Cal. 304, 8 I. A. 46; 10 C. L. R. 349; 5 Cal. 2283 4
C. L. R. 77; 24 Cal. 834; 24 I. A. 76. (५) पुत्र पुत्रादि'-एक वसीयतमें यह शब्द लिखा था माना गया कि
बिना किसी शर्तके पूरा मालिक है, देखो-29 Cal. 69990.
W. N. 721. (६) 'अगर मेरा लड़का मर जाय'-इस वाक्यका अर्थ यह माना गया
कि अगर मेरा लड़का नाबालिग्रीमें मर जाय-17 Cal. 122; 161
I. A. 166. (७) 'दखीलदार'-इसका अर्थ जायदाद को कब्जे में रखने वाला या
मेनेजर लगाया गया-17 Cal. 122; 16 I.A. 166. (८) 'धर्मार्थ'-यह वाक्य सीमा रहित मतलबोंके लिये समझा गया,
अनिश्चित, भाव सूचक माना गया-39 P. R. 19083 185 P. L. R. 1908.
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दफा ८०]
वसीयतके नियम
(8) 'परिवार या खानदान'-इसका अर्थ माना गया कि वसीयत
करने वाले या दान करने वालेकी सन्तान और उनकी पत्नियां
देखो-4 C. W. N. 671. (१०) 'नसलन् दर नसलन्'-माना गया कि पूरा मालिक है-1 M.
H.O. 400; 24 Mad. 299. (११) 'हिस्सा और हिस्सा अलिक'-इस वाक्यसे माना गया कि उसने
पोतेको एक तिहाई हिस्सा दिया, देखो-5B.H.C. O. C.128. (१२) 'मेरा मकान'-माना गया कि खानदानके रहने वाला घर-31
Cal. 166. (१३) 'बच्चे'-इसका अर्थ केवल 'पुत्र' नहीं हो सकता, इसमें लड़की
लड़के सब शामिल हैं, देखो-20 Bom. 571. (१४) 'औलाद या सन्तान'-इसका अर्थ है पुत्र पौत्रादि, न कि भाई या
विधवा-I. M. H. C. 400; लेकिन 114 P. R. 1900 में
कहा गया कि इससे मर्द और औरतकी नसलकी संतान मुराद है। (१५) 'पुत्रसे पौत्रको'-माना गया कि पूरे अधिकारों सहित मालिक
है। देखो-28 Mad. 3633 15 M. L. J. 299. (१६) 'सम्पूर्ण आदि'-किसी हिन्दूने जो अपनी जायदादपर मालि
काना हक्न रखता था अपनी स्त्रीके हकमें वसीयतनामा लिखा। घसीयतनामेमें वसीयतकर्ता की मृत्युके पश्चात् समस्त जायदाद सम्पूर्ण अधिकारोंके सहित स्त्रीको दीगई और यह शर्त रक्खी कि उसकी मृत्युके पश्चात् जायदादकर्ताके नज़दीकी वारिसको प्राप्त हो । तय हुआ कि स्त्रीको वसीयत द्वारा जायदाद सम्पूर्ण अधिकारोंके सहित प्राप्त हो, किन्तु उसके बादकी शर्तका कोई असर न होगा-रीधूराम बनाम तेजूमल 6 Lah. L. J. 600,
86 I.C. 331, A. I. R. 1925 Lah. 281 (2). (१७) 'विधवाके मुसलमान होनेपर वसीयत'-जबकोई हिन्दू स्त्री विधवा
होनेके पश्चात् मुसलमान हो जाय और किसी मुसलमानके साथ शादी करले और इसके बाद उसकी हिन्दू बहिन उसके हकमें जायदाद वसीयत करे, सो उसके इस अधिकारमें असर नहीं पड़ता। उसी प्रकार जबकि वसीयत पाने वाली मरनेके बाद अपनी बहन को छोड़ जाय, जिसने विधवा होनेके पश्चात् इस्लाम कबूल किया हो और किसी मुसलमानके साथ शादी किया हो, तो वह उस जायदादको वरासतसे प्राप्त करती है-घनश्यामदास नारा
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दान और मृत्युपत्र
[ सोलहवां प्रकरण
यनदास बनाम सरस्वतीबाई 21 L. W. 415; (1925) M. W. N. 285; 87 I. C. 621; A. I. R. 1925 Mad. 861. (१८) किसी हिन्दूने कुछ जायदादको संयुक्त वसीयत अपनी बड़ी पत्नी और पुत्री हक्रमें किया और छोटी पत्नीके हक़में अलाहिदा वसीयत किया, और मा तथा पुत्री के लिये मिलकर क़र्ज़ अदा करने की शर्त करदी । नीचेकी अदालत अपीलने तमाम परिस्थिति पर विचार कर यह निश्चित किया, कि वसीयतकर्ताका इरादा मा और पुत्री मध्य हीनहयाती मुश्तरका क़ब्ज़ा पैदा करनेका था तय हुआ कि इरादेका प्रश्न एक खास बात है और जब तक इसके विरोध में कोई शहादत न हो, तब तक इसमें हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता -- मुथुकरुप्पा मुधीरियन बनाम सिनभाग्यथमल 22 L. W. 511; 90 I. C. 880; A. I R. 1925 Mad. 33; 49 M. L. J. 358.
६६२
(१६) 'वसीयतका इबारत' - हिन्दू स्त्री, जिसके हक़में वसीयत हो, केवल ती अधिकारही नहीं रखती - सम्पूर्ण अधिकारों का प्राप्त होना साबित माना जायगा, जब तक कि उसके खिलाफ कोई सुबूत न हो--राज मानिक चेटीयर बनाम ए० मानिक चेटीयर (1925) M. W. N. 120; 84 I. C. 902; A. I. R. 1925 Mad. 254; 47 M. L. J. 723.
( २० ) 'अधिकारों की स्वीकृति' -- पत्नी के हक़में वसीयत होनेपर सम्पूर्ण अधिकारोंकी स्वीकृति होना पत्नीको जायदाद के इन्तक़ालके लिये काफ़ी है इस तात्पर्यके लिये और अधिक व्याख्याकी आवश्यकता नहीं है -- बाई सूरज बनाम जी जी भाई भाव सांग 86 I. C. 196; A. I. R. 1925 Bom. 38.
(२१) दो पुत्रियों के हक़में दान जो भिन्न परिवारोंमें व्याही हुई हैं जायज़ है और यह समझा जायगा कि वे दोनों संयुक्त क़ब्ज़ेदार नहीं हैं तसद्दुकहुसेन बनाम रामकिशुन A. I. R. 1925 Lah. 57.
(२२) एक हिन्दूने अपनी जायदादको अपनी विधवा स्त्री और अपनी विधवा बहूको वसीयत द्वारा दिया। तय हुआ कि प्रत्येक उस जायदादपर या पूर्ण अधिकार रखती है - उमरावकुंवर बनाम सर्वजीतसिंह 85 1. C. 618; A. I. R. 1925 Oudh 620.
( २३ ) पिता द्वारा वसीयत मुश्तरका जायदादकी पुत्रोंके हक़में -- हिन्दू पिताको यह अधिकार नहीं है कि वह पूर्वजों की जायदादको वसीयत द्वारा अपने पुत्रोंमें तकसीम करे । अतएव जब कभी किसी
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दफा ८१०]
वसीयत नियम
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हिन्दू पिताने वसीयत द्वारा पैतृक सम्पत्तिको अपने पुत्रोंके मध्य तक़सीम किया तो तय हुआ कि उसका अमल बतौर वसीयतनामेके नहीं हो सकता, बल्कि बतौर परिवारके प्रबन्धके हो सकता है-सदाशिव पिल्ले बनाम शानमुगम पिल्ले A. I. R.
1927 Mad. 126. (२४) 'दो व्यक्तियों के हकमें वसीयत या हिवा'-किसी हिन्दूको मृत्युके
पश्चात दी हुई जायदाद, बतौर वसीयत या हिबा के उसकी व्यक्ति गत और ऐसी जायदाद होती है कि गोया वह उसकी स्वये उपर्जित है। अतएव जब दो या दो से अधिक व्यक्तियोंके हकमें वसीयत या हिबा किया जाय, तो उनके अधिकार केवल जीवन तकही नहीं रहते यानी एकके मरने के पश्चात दुसरे जीवित को प्राप्त नहीं होते हैं बल्कि वे अधिकार वरासत से प्राप्त होने योग्य हैं, अतएव एकको मृत्युके पश्चात, उस वसीयत या हिबा की हई जायदादका उत्तराधिकारी मुतवफ़ी का कानूनी वारिस होता है-विश्नोमल ऊधवदास बनाम लाली बाई A. I. R. 1926
Sind. 121. नोट-पाठक ! आप ध्यान रखें कि जब वसीयत में बताई हुई लाइन के में सब आदमी मर गये हों जिन्हें पूरे अधिकार न प्राप्त हों और वसीयत में उसके बाद जायदादके मिलनेका कोई ढङ्ग ने बताया गया हो तो वसयित करने वालेका उस वक्त का कानूनी वारिस उस जायदाद को पावेगा। मानो वसीयत थी ही नहीं ।
दफा ८१० हिन्दू वसीयतका काननी सम्बन्ध
लेटिनेन्ट गवर्नर बंगालके इलाओंमें या मदरास और बम्बई हाईकोटौं के इलाक़में कोई हिन्दू, जैन, सिख या बौद्ध जो तस्दीक करे (Attestation) कोई लिखत मंसूख करे ( Revocation ) या किसीका फिरसे हक्क पैदा करे ( Revival ) या किसी लिखत का स्पष्टी करण करे ( Interpretation) या वसीयत और उसके परिशिष्ट (Cudicil) का प्रोवेट ले तो इन सबसे 'इंडियन् सक्सेशन एक्ट नं० ३६ सन् १९२५ ई०' की कई दफाएं हिन्दू बिल्स् एक्ट नं०२१ सन् १८७०ई०द्वारा लागू होती हैं, देखो-9 Bom. 241.
जो वसीयत और उसका परिशिष्ट उक्त इलाकोंके बाहर लिखा गया हो किन्तु उसका सम्बन्ध उन इलाकों के अन्दर वाली किसी गैरमनकूला जायदाद से भी हो तो ऐसे वसीयतनामों और परिशिष्टों से भी वे दफाएं लागू होती हैं, देखो-9 Bom. 491.
हिन्दू बिल्स् एक्ट की दफा ३ में कहा गया है कि "वसीयत करने वालेका विवाह हो जानेसे उसकी की हुई वसीयत या वसीयतका परिशिष्ट
125
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१६४
दान और मृत्युपत्र
[सोलहवां प्रकरण
रह नहीं होता" उस दफा के अनुसार किसी वसीयत करने वाले को यह अधिकार नहीं है कि वसीयत द्वारा किसी को कोई ऐसी जायदाद दे जिसका इन्तकाल वह अपनी ज़िन्दगीमें नहीं कर सकता था या किसी ऐसे आदमी को भरण-पोषणके हक़से बंचित करे जिसे वह वसीयत द्वारा बंचित नहीं कर सकता था। उस दफामें कही हुई कोई बात दत्तक विधानसे या लावा. रिसोंकी वरासतके कानूनसे लागू नहीं होगी और उस दफा की किसी बात से किसी हिन्दू, जैन, सिख या बौद्ध को यह अधिकार प्राप्त होगा कि वह किसी जायदादमें किसीका ऐसा हक़ पैदा करे जो वह तारीख १ सितम्बर सन् १८७० ई० अर्थात् हिन्दू बिल्स् एक्टके पास होनेसे पहले नहीं कर सकता था। दफा ८११ वसीयत मुश्तरका ख़ानदानके मेम्बरको
हिन्दू मुश्तरका खानदानमें सरवाइवर शिप् (देखो दफा ५५८ ) का हक होता है यदि ऐसे खानदानके किसी मेम्बरको वसीयतके द्वारा जायदाद दी जाय तो प्रश्न यह उठता है कि वे उसे क़ाबिज़ शरीक या क़ाबिज़ मुश्तरक ( Tenants in common of joint tenant देखो दफा ५५८) तरीकोंमें से कौन तरीकेसे लेते हैं । इस बातका वास्तव में निर्णय वसीयतकी लिखत और दूसरी बातोंसे होता है । नीचे इस किस्म के कुछ फैसले उदाहरणार्थ देखो
(१) एक हिन्दूने वसीयत किया कि मेरी जायदाद मेरी छोटी विधवा और उसके पुत्रको मिले और दोनोंको उस जायदादके बेचने, रेहन करने या इनाम आदिमें देने का अधिकार प्राप्त होगा । देखो यहांपर दोनों जायदादपर काविज़ शरीक (Tinants in common दफा ५५८) हैं । प्रत्येक अपने आधे हिस्सेका मालिक हो गया इसलिये उन दोनोंके मरनेपर उनका हिस्सा उनके वारिसोंको मिलेगा, यानी विधवा के मरने पर उसके वारिस को और पुत्र के मरनेपर उसके वारिस को, देखो-23 Cal. 670; 23 I. A. 44.
(२) एक हिन्दुने बिना हिस्सा बताये अपनी दो विवाहिता बेटियोंके नाम जायदाद वसीयत की ऐसे मामले में दोनों बेटियां काबिज़ मुश्तरक (Joint tenants दफा ५५८ ) सरवाईवर शिप् के हक़के अनुसार जायदाद लेंगी; देखो - गोपी बनाम जलधर 33 All. 41.
(३) एक हिन्दूने दान पत्र लिखा जिसके द्वारा मुश्तरका खानदानमें रहने वाले दो भाइयोंको अपनी जायदाद देदी दोनों भाई इस जायदाद पर क़ाबिज शरीक ( Tenants in common दफा ५५८) तरीकेसे काबिज होंगे तथा उनके मरने के बाद उनके पारिलोको जायदाद पहुंचेगी देखो -वाई दिवाली बनाम पटेलविवारदास 26130m.4455 33 Ail.665; इसके विरुद्ध भी देखो एक हिन्दू बापने अपने तीन पुत्रोंके नाम वसीयत किया कि अमुक मकान
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दफा ८११-८१२]
वसीयतके नियम
में वे और उनकी संतान हमेशा रहे तथा उसको इस्तेमाल करें मगर किसी को भी उस मकानके बेचने, रेहन करने या दान आदिमें देनेका अधिकार कभी प्राप्त नहीं होगा। और दूसरी जायदादके सम्बन्धमें बापने यह आशाकी कि उसकी आमदनी बराबर हिस्सेसे बांटकर वे लेते रहें और पुत्रोंके मर जानेके पश्चात् उनके पुत्रों के दरमियान उसका बटवारा हो सकेका उनके हिस्सों के अनुसार । अब उन तीन पुत्रोंमें से एक पुत्र मरगया उसने एक लड़का
और अपनी विधवा छोड़ी। विधवाने उक्त मकानका तीसरा हिस्सा पानेका दावा किया दावा इस बुनियाद पर किया कि तीनों पुत्र उस मकानमें काबिज़ शरीक ( Tenants in common दफा ५५८) रहते थे सरवाइवर शिप्का हक नहीं रखते थे इसलिये पतिका हिस्सा दिलाया जाय। यह मुकद्दमा मदरास हाईकोर्ट में जस्टिज सुब्रह्मण्य ऐय्यरके सामने पेश हुआ, माननीय जजने सब बातोंका बड़ी बारीकीसे विचार कर अन्तमें यह फैसला दिया कि वे क्राबिज़ मुश्तरक (Joint tenant दफा ५५८) थे, सहवाइवर शिपका हक लागू होगा। दावा खारिज किया देखो-28 Mad. 363.
मुश्तरका खानदानके दो मेम्बरोंके हकमें वसीयत होनेसे वे वसीयत पाने वाले संयुक्त हिस्सेदारों की भांति प्राप्त करते हैं। श्याम भाई बनाम पुरुषोत्तमदास 21 L.W. 551; 90 I. C. 124; A. I. R.1925 Mad. 645. दफा ८१२ वसीयतकी मंसूखी
जो वसीयतनामा हिन्दूबिल्स् एक्ट सन् १८७०ई० के अनुसार किया गया हो ( देखो दफा ८०३) वह नीचे लिखी सूरतोंके सिवाय अन्य किसी प्रकार मंसूरन नहीं हो सकता वह सूरते यह हैं(१) वसीयत करने वालेने पीछे एक दूसरा वसीयत नामा लिख
दिया हो, या (२) कोई ऐसी लिखत लिखी हो जिसके द्वारा पहलेकी वसीयतकी
मंसूखीकी घोषणाकी हो या किसी समाचार पत्र या नोटिस या
दूसरी तरह पर अपनी यह मंशा प्रकटकी हो, या '(३) वसीयतनामा जला दिया हो, फाड़ डाला हो, या दूसरी तरहसे
नाश कर दिया हो, या (४) वसीयत करने वालेकी आज्ञासे और उसीके सामने किसी दूसरे
के द्वारा वह वसीयतनामा जला दिया गया हो, या फाड़ डाला
गया हो या दूसरी तरहसे नाश कर दिया गया हो। उपरोक्त कामोंमें वसीयत करने वालेका घसीयत मंसूख कर देनेका इरादा शामिल रहा हो । देखो-इस विषयमें इन्डियन् सक्सेशन एक्ट ३६
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[ सोलहवां प्रकरण
सन् १६२५ की दफा ७० और हिन्दू विल्स एक्ट २१ सन् १८७० की दफा २३ और जिन वसीयतों से हिन्दू विल्स एक्ट २१ सन १८७० लागू नहीं होता वे ज़बानी मंसूत्र हो सकते हैं। वसीयत मंसूत्र करने के लिये यह ज़रूरी नहीं है कि वह किसी लिखतके द्वारा मंसूख की जाय। अगर वसीयत करने वालेने पहले के वसीयतको मंसूख कर देने के इरादेसे स्पष्ट आज्ञा दी हो कि वह वसीयतनामा नाश कर दिया जाय तो भी मंसूत्र हो जायगा; देखो - 3 Cal.626; 4 1. A. 228-245; 25 Mad. 678; 29 I. A. 158.
६६६
दान और मृत्युपत्र
नोट- यहांपर लिखी हुई और जबानी वसीयत मंसूख करने की बात कही गई है वसीयत के होनेसे जिन लोगोंका हक्क मारा गया हो और वे यह कहते हो कि उसे वसीयत करानेका अधिकार न था या ऐसी बात कहते हो कि जिससे वसीयत करने वाला वसीयत या वैसी वसीयत नहीं कर सकता था ते। दूसरी बात है । उन्हें अपने कथनका स्पष्ट प्रमाण अदालत के विश्वास करा देने योग्य देना होगा तब वसीयत मनसुख हो जायगी !
दफा ८१३ इन्डियन सक्सेशन एक्ट
इन्डियन् सक्सेशन एक्ट नं०३६ सन् १६२५ ई० की नीचे लिखी दफाएं हिन्दूबिल्स एक्ट नं० २१ सन् १८७० ई० ( जो कि प्रोबेट और एड मिनिस्ट्रेशन् एक्ट नं० ५ सन् १८८१ की दफा १५४ से संशोधित हुआ है ) की दफा २ के अनुसार हिन्दू वसीयतोंसे लागू की गई हैं, वे दफाएं यह हैं; ५६; ६१; ६२; ६३, ६४; ६८६ और ७० से ६० तक और ६५; ६६ ६८ तथा १०० से ११६ तक और ११६ से १६० तक तथा दफा २१३; इन दफाओंका विवरण ग्रन्थ विस्तार के भय से नहीं दिया है ।
अवधके ताल्लुकेदार - इन्डियन् सक्सेशन एक्ट नं० ३६ सन् १६२५ ई० की नीचे लिखी दफाएं अवधके ताल्लुकेदारोंकी वसीयत आदिसे लागू होती हैं; वे यह हैं - ६२, ६३ ६४ ६७; ६८; ७० से ६० तक और ६५; १६: ६८; और ९०१ से १११ तक ।
दफा ८१४ मालावार लॉ
मालावर विल्स् एक्ट नं० ५ सन् १८६८ ई० में उन लोगोंकी वसीयत 'मारूमकट्टपम्' या 'अलियासन्तान'
श्रादिकी व्यवस्था रखी गई है जिनसे नामक वरासतका क़ानून लागू होता है
―――
'अलिया संतान' - यह एक प्रकारका प्राचीन लॉ है जो दक्षिण कनारा प्रांत में प्रचलित है। कहते हैं कि इसे 'भूतलपण्ड्या' नामक एक राजाने सन् ७७ ई० में जारी किया था इसकी कथा इस प्रकार है, कि उक्त भूतलका मामा उस प्रांतका राजा था उससे कुण्डोदर नामके एक राक्षसने उसका पुत्र बलिके aौरपर मांगा परन्तु भूतलके मामाने इनकार किया । भूतलकी माताने भूतल
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दफा ८१३-८१५
घसीयतके नियम
की बलि देना स्वीकार किया राक्षसने प्रसन्न होकर भूतलको उस प्रांतका राजा बना दिया तबसे भूतलने यह नियम जारी किया कि प्रत्येक मनुष्यके उत्तराधिकारी बहन के पुत्र हुआ करें। दक्षिण कनाराके 'तुलू' जिमीदार, काश्तकार, मज़दूर और 'बांट' जातिके अधिकांश लोग तथा मुसलमान 'मोपले' भी इसी अलिया संतान लॉ के अनुसार विवाह और उत्तराधिकार मानते हैं इस लॉके अनुसार जो विवाह होता है उसे मलावार मेरेजलाँ कहते हैं कमीशन्के सामने उस प्रांतके सरकारी गवाहोंने नायर आदिकी पृथासे इसे अच्छा बताया है । सगाईके बाद विवाह होता है स्त्री पुरुष दोनोंको एक दूसरेसे तलाक़ (देखो दफा ६१ ) हासिल करनेका अधिकार है । एकही गोत्र वाले आपसमें विवाह नहीं कर सकते यदि करें तो ज़ाति च्युत हो जाते हैं।
प्रोवेट
दफा ८१५ प्रोवेट
हिन्दू विल्स एक्ट पास होनेसे पहिले किसी हिन्दूका उत्तराधिकार प्रोवेट मिल जानेपर भी जायदादका मालिक नहीं बल्कि मेनेजर माना जाता था किन्तु एक्ट नं०५ सन् १८८१ ई० की दफा ४ के अनुसार अब वह वसीयत करने वाले का प्रतिनिधि माना जाता है। नीचे हम, प्रोवेट एन्ड एडमिनिस्ट्रेशन एक्ट नं०५ सन् १८८१ ई० की कुछ आवश्यक दफाओंका उल्लेख करते हैं जो वसीयतके प्रोवेट प्राप्त करनेके लिये ज़रूरी हैं
__ दफा २४-जबकि वसीयतनासा खोगया हो, या वसीयत करनेवालेकी मृत्युके दिनसे न मिलता हो, या किसी आकस्मिक घटनासे अथवा अनुचित रूपसे नष्ट होगया हो,और वसीयत करने वालेके किसी कामसे नष्ट न हुआ हो, और उसकी एक नक़ल या मसविदा मौजूद हो तो उस नक्कल या मसविदेका प्रोवेट अदालत उस वक्त तकके लिये मंजूर करेगी जब तककि असली वसीयतनामा या उसकी ठीक बाज़ाबिता नकल पेश न की जाय ।
दफा २५-जवकि वसीयतनामा खोगया हो या नष्ट होगया हो और कोई नकल उसकी न हो और न मसविदा रखा गया हो तो अगर उसके अन्दरका मतलब शहादतसे साबित कर दिया जाय तो अदालत प्रोवेट
करेगी।
दफा २६-जबकि वसीयतनामा जिसके द्वारा प्रोवेट लेना है, ऐसे किसीके पास जो दूसरे प्रान्तका निवासी है और उसने देनेसे इन्कार कर दिया या देनेके लिये बेपरवाहीकी लेकिन उसकी नक़ल वसीयतकी तामील करने वालेके पास भेज दीगयी हो और असली वसीयतनामेकी प्रतीक्षा न
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दान और मृत्युपत्र
[ सोलहवां प्रकरण
करके, जायदाद के लिये प्रोवेट प्राप्त करना ज़रूरी हो तो इस प्रकार से भेजी हुई नक़लसे अदालत वसीयतका सुबूत उस वक्त तक के लिये मान लेगी जब तक कि असली वसीयतनामा या उसकी वाज़ाबिता नक़ल न पेशकी जाय । दफा ८१६ प्रोवेट मिलनेकी दरख्वास्त में क्या लिखना चाहिये
१६८
जब वसीयतका प्रोबेट अदालतसे मांगा जाय तो नीचे लिखी बातें प्रोबेट मिलने की अर्जी में लिखना आवश्यक होंगी, इस बारे में प्रोबेट एक्टकी दफा ६२ इस प्रकार है
दफा ६२ - जबकि प्रोवेट या लेटर्स आव एड मिनिस्ट्रेशन (दफा ५५८) अर्थात् जायदादपर अधिकार मिलने की दरख्वास्त की जाय तो अवश्य उसके साथ वसीयतनामा शामिल करना होगा और वह दरख्वास्त स्पष्ट रूपसे अङ्गरेजी या अदालतकी भाषा में लिखी जायगी तथा वसीयत या इस (प्रोवेट एक्ट) कानूनकी उपरोक्त दफा २४, २५ र २६ में कही हुई नक़ल, मसविदा या बयान जैसाकि उन दफाओं में बताया गया है शामिलकी जायगी । दरख्वास्त में नीचे लिखी बातें दर्ज की जायँगी
( १ ) वसीयत करने वालेकी मृत्युका समय ( तारीख व सन् )
(२) यह कि जो लिखत शामिल की गयी है वह उसकी आखिरी वसीयत है ।
( ३ ) यह कि वसीयत बाज़ाबिता लिखी गयी है ।
( ४ ) सम्पत्तिकी तादाद जो दरख्वास्त करने वालेको उस वसीयत के द्वारा मिलनेको है ।
(५) अगर दरख्वास्त प्रोवेट के लिये हो तो उसमें यह भी लिखना होगा कि दरख्वास्त करने वालाही वह आदमी है जिसका नाम वसीयत में लिखा है ।
( ६ ) अगर दरख्वास्त जिला जजकी अदालतमें की जाय तो पूर्वोक्त बातों के सिवाय यह भी लिखना होगा कि वसीयत करने वाला मरनेके समय उस जजके इलाक़े अखत्यारमें स्थायी निवास रखता था या उसकी कोई जायदाद थी। अगर दरख्वास्त जिला डलीगेटसे की जाय तो भी यह लिखना होगा कि मरने वाला उस डेलीगेटके इलामें रहता था ।
नोट - जिला डेलीगेटकी सृष्टि सम्भवतः कहीं पर सरकारने नहीं की ।
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धार्मिक और खैराती धर्मादे
सत्रहवां प्रकरण
- नोट -दफा ८१७ में कहे हुए उद्देशों के लिये जो संस्थायें स्थापित हैं उन्हींसे इस प्रकरण का सम्बन्ध है। जब कोई संस्था कायम करदे पीछे उसमें चन्देका धंन ममिल हो जाय, अथवा चन्देसे संस्था कायम की गयी हो पीछे कोई अपना धन लगादे, इन दोनों सूरतोंमें जिसके हाथमें वह संस्था होगी वह ट्रस्टी मेनेजर की हैसियत रखता है और उससे ट्रस्टी और मेनेजर के विषयमें कहे हुए सब नियम लागू होते हैं । चन्दा वसूल करके किसी संस्थाके स्थापकके अधिकार ट्रस्टी या मेनेजर से अधिक महीं होते । मगर अनेक मुकद्दमें इसके विरुद्धभी फैसल हुए हैं, यदि किसीने पहले अपने निजके धन से कोई संस्था कायम की पीछे कुछ धन उस संस्थाकी मददके लिये चन्दे आदिसे प्राप्तहो गया तो महज़ इस कारण से स्थापक का हक नहीं मारा जायगा हां वह सूरत भिन्न है कि जब संस्था पहले चन्दसे कायमकी गयी हो, क्योंकि उस संस्थाके जन्मसे ही धर्मादे का कानून एक्ट नं. २. सन १८६१ ई. लागू हो जाता है। मंदिरों के स्थापकों, प्रबंधकों, पुजारियों, शिवायतों तथा मठाधर्धाशों, महन्तों और सभी धार्मिक या खराती संस्थाओके स्थापकों ट्रस्टियों और मेनेजरोंको इस प्रकरणके पढ़नेसे उन्हें अपने कर्तव्य अधिकारों और कानूनी बातोंका अच्छा ज्ञान प्राप्त हो जायगा और वे उन भूलोंसे बच सकेंगे जो अन जानपने से हो जाया करती हैं। दफा ८१७ धर्मादोंका उद्देश
हिन्दुस्थानमें धार्मिक, खैराती और शिक्षा सम्बन्धी तथा सार्वजनिक मतलबोंके लिये बहुतसे धर्मादे हैं। उनके उद्देश भी अनेक होते हैं कहीं तो किसी मूर्ति या देव मूर्ति के लिये या किसी मन्दिरके लिये या निजके या सार्वजनिक धार्मिक कृत्यों या पूजाके लिये और कहीं खैराती कामों के लिये या किसी सम्प्रदायके या धर्म, शिक्षा, व्यापार, स्वास्थ्य, सार्वजनिक रक्षाकी उन्नतिके लिये या और किसी कामके लिये जो मनुष्य मात्रके लिये लाभकारी हों,या किसी पंथ या सम्प्रदाय या जमात या संघके लिये लाभकारी हों,देखोट्रन्सफर आव् प्रापर्टी एक्ट नं०४ सन् १८५२ ई० की दफा ११७. दफा ८१८ धर्मोदा किस तरह कायम करना चाहिये
धर्मादेकी सृष्टि दान या वसीयत या और किसी तरह जायदादका इन्तकाल करके की जा सकती है। धर्मादा कायम करने के लिये 'लिखत' कोई
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धार्मिक और खैराती धर्मादे
[ सत्रहवां प्रकरणं
बहुत ज़रूरी नहीं है ज़बानी भी धर्मादा क़ायम हो सकता है, देखो - मदनलाल बनाम कुनलबीबी 8 W. R. 42; 3 Mad. L. J. 364. जिस मामले में हिन्दू विल्स एक्ट सन् १८७० ई० लागू होता हो और वसीयतके द्वारा कोई धर्मादा क़ायम किया गया हो तो ज़रूर 'वसीयत' लिखतमें होना चाहिये और उसपर कमसे कम दो गवाहोंके हस्ताक्षर भी होना चाहिये। जो हिन्दू कोई धार्मिक या खैराती संस्था स्थापित करना चाहता है वह हिन्दूलों के अनुसार उस संस्थाके स्थापित करनेका हेतु और किस धनया जायदादसे स्थापित करना अभीष्ट है स्पष्ट ज़ाहिर करके स्थापित कर सकता है। इसमें ट्रस्ट लाज़िमी नहीं है किन्तु यह लाजिमी है कि उस धार्मिक या खैराती संस्थाका साफ़ साफ़ स्पष्टीकरण किया जाय और उस जायदादका भी जो उसमें लगाई जाय । गर किसी देवमूर्तिके अर्पण जायदाद की गयी हो तो वह जायदाद वास्तवमें चढ़ाई नहीं जा सकती इसलिये यह ज़रूरी और लाजिमी है कि एक ट्रस्ट नियत करके जायदाद उसके अधिकारमें देदी जाय, देखो - 12 Bom. 247-263; 25 Cal. 112-127; 9 Cal. W. N. 528.
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देवोत्तर दान करने वाला नियमोंमें परिवर्तन कर सकता है, उन सूरतों के अतिरिक्त जबकि उसने अपनेको स्पष्टतया बिलकुलही पृथक कर लिया हो या जबकि किसी तीसरे फ़रीक़के अधिकारोंका अहित होता हो या जबकि उस परिवर्तन से दान सम्बन्धी मूल सिद्धान्त पर असर पड़ता हो - श्रीपति चटरजी बनाम खुदीराम बनरजी 41 C. L. J. 22; 82 I. C. 840; A. I. R. 1925 Cal. 442.
जायदाद के समर्पण करनेमें दस्तावेज़की श्रावश्यकता नहीं है--फ़रीकों के वर्ताव से समर्पणका साबित होना हो सकता है देवोत्तर जायदादसे, व्यक्तिगत लाभ उठाने के उदाहरण द्वारा, देवोत्तर जायदाद की हैसियत में कोई तबदीली नहीं होती -- श्री श्रीगोपालजी ठाकुर बनाम राधाविनोद मोंडल 41 C. L. J. 396; 88 L. C. 616; A. I. R. 1925 Cal. 996.
किसी देवता की प्रतिष्ठा किसी मन्दिरमें तब तक नहीं हो सकती, जब तक कि मन्दिरका मालिक उससे अपना अधिकार न हटाले । फलतः ज्योंही किसी मंदिरमें देवताओंका प्रतिष्ठान हो जाता है त्योंही वह मन्दिर उस देवता को समर्पित समझा जाता है - श्री श्रीगोपालजी ठाकुर बनाम राधाविनोद 41 C. L. J. 396; 88 I. C. 616; A. I. R. 1925 Cal. 996.
ट्रस्टकी दस्तावेज़ के लिखने के समय यह ध्यान रखना चाहिये कि उसमें ऐसी मुहम या अनिश्चित इबारत न लिखी जायकि जिसका मतलब उस दस्तावेज़के समग्र पढ़नेके पश्चात् सरांश में सन्देहित निकलता हो । जो जायदाद देवमूर्तिके अर्पण की गयी है ऐसी स्पष्ट रीति से लिखी गयी हो कि साधारण
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बैंफा ८२८]
धर्मादेकी संस्थाके नियम
समझके अनुसार स्पष्ट रूपसे बिना अधिक विचार किये तुरन्त उसका अर्थ साफ़ हो जाता हो, ऐसी इबारत दूस्टकी दस्तावेज़में लिखना चाहिये । धर्मादे के जायज़ बनानेके लिये ऐसीही साफ़ इबारत की ज़रूरत पड़ती है क्योंकि हो सकता है कि, लेनदारोंका रुपया मारनेके लिये जालसाजी कीगयी हो। दूस्ट जायज़ माना जाय इस मतलबके लिये बेहद जरूरी बात यह है कि दान या वसीयतके द्वारा दान देने वाला दान करनेके पश्चात् उस जायदादपरसे वास्तवमें अपने सब मालिकाना अधिकार हटाले और पूरी तौरसे दूस्टके हवाले करदे । उसकी मन्शा दान करनेकी थी या नहीं इसका प्रमाण दान करने वालेके पीछके कामोसे जाहिर होगा और विचार किया जायगा। अगर यह साबित हो कि उसने दान की हुई जायदाद या उसके किसी हिस्सेको अपने निजक कामों में लाया और देवमर्तिके पूजन श्रादिके कामों में नहीं लाया या यह साबित हो कि वह धर्मादा नहीं चाहता था और उसकी मन्शा ऐसी महीं थी तो देवमूर्तिमें अर्पणकी हुई जायदादका दान बेअसर हो जायगा। परिणाम यह निकलेगा कि दान करने वालेके विरुद्ध ज़ात खासकी डिकरीमें वह जायदाद कुर्क और नीलाम हो सकेगी तथा उसपर उत्तराधिकारका हक प्राप्त रहेगा, देखो--वाटसन् एन्उको बनाम रामचन्द्र 18Cal.10. कुंवर दुर्गानाथ बनाम रामचन्द्र 2 Cal. 341-349; 4 I. A. 525 4 Cal. 56, 12 Mad. 387.
देवोत्तर दानके दस्तावेज़में जो नियम ठाकुरजी की पूजा, या धर्मादेके लिये नियत किये गये होंगे, उनकी पाबन्दी होगी-श्रीपति चटरजी बनाम खुदीराम बनरजी 41 C. L. J. 22; 82 I. C. 8401 A. I. R. 1925 Cal. 442.
धर्मकर्ताको यह अधिकार नहीं है कि मन्दिरकी जायदादके कब्जेका मुस्तकिल पट्टा किसी दूसरेको जारी करे, देखो-रामनाथ चारयालू बनाम मंगाराव 22 L. W. 485; A. I. R. 1925 Mad: 1279 (2).
ब्रजसुन्दरी बनाम लक्ष्मी 20 W. R. 95 (P.C.) वाले मामले में प्रिवी कौन्सिलने कहाकि-अगर हिन्दू अपनी निजकी देवमूर्तिके नामसे कोई जाया दाद खरीद करे और पूजनके लिये किसी पुजारीको नियुक्त करदे तो जायदाद उस देवमूर्तिकी नहीं हो जायगी बक्लि खरीद करने वालेकी निजकी जायदाद बनी रहेगी।
जायज़ धर्मादा कायम करने के लिये सिर्फ यह ज़रूरी है कि कोई खास जायदाद खास मतलचके लिये अलहदा करदी जाय और जब यह मतलब स्पष रूपसे और स्वाभाविक रीतिसे धार्मिक या खैराती हो तो वह दृस्ट सिर्फ इस वजहसे नाजायज़ नहीं हो जायगा कि वह उस कायदेके विरुद्ध है जो काया
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धार्मिक और खैराती धर्मादे
[सत्रहवां प्रकरण
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'परपेच्युएटी' ( Perpetuaty ) की सृष्टिको मना करता है, देखो-- 9 C. W. N. 528-535; 25 Cal. 112-126-127.
परपेच्युएटी-हिन्दूलॉ के अनुसार सिवाय धार्मिक और खैराती धर्मादों के दूसरे किसी काममें कोई जायदाद हमेशाके लिये नहीं लगाई जा सकती, देखो-11 Cal. 684; 12 I. A 103; 1 M. H. C. 400; 2 B. L. R. O. C. 11; 15 Cal. 409; 15 I. A 37; 14 Bom. 360. हमेशाके लिये नहीं लगाई जासकती यही परपंच्युएटीका कायदा है किन्तु धार्मिक और खैराती कामोंमें यह कायदा लागू नहीं होता इसीसे उनमें हमेशा के लिये जायदाद लगाई जा सकती है।
___ इङ्गलैन्डका वह कानून जो अमानुषी कामों के लिये दान करना मना करता है ऐसे धर्मादोंसे लागू नहीं हो सकता, देखो--11 Bom. H. C.214.
नियमों के निश्चित करने वालेकी मृत्युके पश्चात्, देवोत्तर सम्पत्तिके नियम, उसके किसो उत्तराधिकारी द्वारा नहीं बदले जा सकते-श्रीपति चटरजी बनाम खुदीराम बनरजी 41 0 L. J. 22; 82 I. O. 840;, A. I. R. 1925 Cal 442.
जैनियोंका प्रसिद्ध मुकद्दमा-जब देवालय या धर्मादामें कोई उन्नति करे तो सिर्फ उन्नतिसे उसे मालिकाना अधिकार नहीं प्राप्त होंगे। एक मशहूर मुक़दमे में प्रिवी कौन्सिलने यही फैसला हालमें दिया है -महारायबहादुरसिंह अपीलाण्ट बनाम सेठ हुक्मीचन्द वगैरा रेस्पान्डन्ट 24 A. L. J. 100; 1926
I. W. N. 199; 93 I. C. 219. वाकियात यइतिहास जैन सम्प्रदायका विस्तारसे बताया गया है वाकियात यह हैं
जस्टिस लार्ड फिलीमोरने कहा कि--जिन कारणों से पटना हाईकोर्टके फैसलोंके विरुद्ध कीगई ये अपीलें पैदा हुई हैं वे संक्षेपमें इस प्रकार हैं:___जैन धर्मावलम्बी बहुत कालसे दो विभागोंमें विभाजित हैं-श्वेताम्बर और दिगम्बर । यही दो सम्प्रदाय समस्त भारतमें बड़े माने जाते हैं
उनके ये विभाग इतने प्राचीन समयसे चले आते हैं कि इस सम्बन्धमें निश्चयके साथ नहीं कहा जासकता कि उनके ये विभाग ईस्वी सन्के आरम्भ होने के कुछ समय पहिले हुये थे या कुछ समय बाद । लार्ड महोदयों के सामने पेश किये गये कुछ कागजों में यह बतलाया गया है कि इन मतों में कुछ भिन्नता है, परन्तु इनमें यह विभाग मुख्यतः कार्य पद्धति और पूजन आदिके सम्बन्ध में ही हैं । मोटी मोटी बातें ये हैं कि 'श्वेताम्बर' अपनी पवित्र मूर्तियोंको स्नान करानेके पश्चात् पूजनके पहिले उनको वस्त्राभूषणं आदिसे आभूषित करते हैं और 'दिगम्बर' लोग पूजनके प्रथम उनके कुल कपड़े उतार लेते हैं और जिस कार्य पद्धति से उन मूर्तियों के सम्बन्ध में काम लिया जाता है वहीं कार्य-पद्धति कुछ पवित्र पद चिन्होंके सम्बन्ध में लागू होती हैं।
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दफा ८१८ ]
धर्माकी संस्थाके नियम
जैन मतावलम्बी २४ महा पुरुषों को मानते हैं-- जिन्हें मोक्ष या निर्वाण प्राप्त होगया है और जो तीर्थकर कहलाते हैं । ये २४ महापुरुष बहुतसी बात में हिन्दू देवालयोंके देवताओं या उनमेंके कुछ देवताओंसे श्रेष्ठ समझे जाते हैं । इनमें से बीसके सम्बन्ध में यह कहा जाता है कि उन्होंने इस संसार चक्र से अर्थात् आवागमनले पारसनाथ पर्वतके ऊपर जो कि बङ्गालमें जिला हज़ारीबाग़के अन्तर्गत है, मुक्ति अर्थात् निर्वाण प्राप्त किया है जिसके कारण जैनी लोग उस पर्वतको पूज्य और पवित्र मानते हैं। स्वयं इस पर्वतमें बहुत से प्राकृतिक गुण हैं और उसमें बहुतसी पर्वत श्रेणियां (चोटियां ) हैं । इन बीस स्थानोंके सम्बन्धमें, जो प्रकृति-जन्य सुन्दरता से सुशोभित हैं, यह समझा जाता है कि उन्हीं स्थानोंपर उन बीसों तीर्थकरोंने निर्माण प्राप्त किया थ और इनमें से प्रत्येक स्थानपर उस महात्मा के पदचिन्हकी पूजा होती है। वहां पर तोरण शृङ्गों ( कलशों) से आच्छादित एक कोट बना हुआ है जो इस समय सफेद संगमरमरका बना हुआ है । ये स्थान प्राचीन समय से अलग अलग हैं। शेष चार तीर्थकरोंने भारतवर्षके अन्य स्थानोंमें निर्वाण प्राप्त किया था । उनके सम्बन्धमें सन् १८६८ ई० से कल्पित स्थान अलग कर लिये गये. है और उनकी उसी प्रकार प्रतिष्ठाकी जाती है ।
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उसी पर्वतके ऊपर एक दूसरे महात्मा गौतम स्वामीका मन्दिर, जो उस पर्वत के सबसे ऊंचे शिखरके ऊपर एक बहुतही प्रसिद्ध मन्दिर है जिसका नाम डाल मण्डिर है कुछ चबूतरे ध्यान आदिके लिये बनाये गए हैं, तथा दो धर्म शालाएं भी हैं । इस पर्वत पर प्रायः यात्री लोग आया करते हैं जो इन चारो मन्दिरोंमें, क्रमसे जाते हैं और उनमें से प्रत्येककी पूजा करते हैं।
दिगम्बरों के मतानुस्वार यह पूजा, व्रत रखकर की जानी चाहिए, और वह समग्र पर्वत इतना है, जिस समयसे वे उसपर अपना पैर रखते हैं उस समयसे उनको कोई भी प्रकृति-जन्य काम करने, यहां तक कि थूकने आदि की मनाही हो जाती है । श्वेताम्बर लोग इन रूढ़ियोंके पाबन्द नहीं हैं।
बहुत वर्षो से पालगजके राजा साहब, जिनकी ज़मीन्दारीमें वह पर्वत है, उन मन्दिरोंका प्रवन्ध और जीणोद्धार करते हैं और यात्रियों द्वारा चढ़ाई हुई सामग्रीको लेते रहे हैं किन्तु सन् १८७२ ई० में श्वेताम्बरोंने राजा साहब:से वार्षिक रकम देनेके सम्बन्धमें इक़रार किया और स्वयं उन पवित्र स्थानों का प्रवन्ध और जीणोद्धार करने तथा उन पर चढ़ाई गई सामग्री को . लेने लगे ।
कुछ समय के पश्चात् भिन्न भिन्न प्रकारके पूजा पद्धति और भिन्न भिन्न रुचि के यात्रियों के अपने अपने धर्म ग्रन्थोंके अनुसार कार्य करने के सम्बन्ध में. इन दोनों सम्प्रदायों में झगड़ा होने लगा; और छोटा नागपुर टेनेन्सी ऐक्ट सन् १६०८ ई० के अनुसार "खेवट" क़ायम करने के लिये कार्रवाई की गई ।
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१००४
धार्मिक और खैराती धर्मादे
[सत्रहवां प्रकरण
मुनासिब अफ़सरने तैय्यारकी और एक नक़शा तैय्यार किया या जिसमें वह सारी पहाड़ी ( पर्वत ) “निजी गैर-मजरुआ आराज़ी' करार दे दीगई, और इसके बाद ४८ मदें गिनाई गई जैसे - एकान, मन्दिर, चबूतरा आदि और नीचे लिखी बातें भी लिख दी गई:
__ “मन्दिर और धर्मशाला जिनका जिक्र इस खातामें किया गया है और जिनमें सब जैनियोंको बिना किसी व्यक्तिकी ओरसे आशा प्राप्त किए या विरोध हुए ठहरने और पूजा करनेका अधिकार है।"
____ यह बात साफ साफ मालूम नहीं होती कि 'मन्दिर' और 'धर्म शाला' शब्दोंसे तात्पर्य केवल पहिले वाले दोनों पदोंसे था अथवा इसका मंशा यह था कि यह उन सभी ४८ मदों के सम्बन्धमें भी लागू समझा जाय । लेकिन चाहे कोई भी अर्थ ठीक हो, श्वेताम्बरों को यह पसन्द न पाया और इसलिए यह वर्तमान मुकद्दमा उनकी ओरसे दायर किया गया जिसमें उस 'खेवट' के ऊपर एतराज़ किया गया और यह दावा किया गयाः"(बी) कि यह एलान कर दिया जाय कि मुद्दाअलेहों तथा सम्पूर्ण दिग
म्बर सम्प्रदायको श्वेताम्बर-जैन-सम्प्रदाय की प्राज्ञा लिए बिना तथा पंसे ढङ्गसे, जिसको ये पसन्द न करें,गादी पालगंज, परगना गिरीडीह जिला हज़ारीबारा में पारसनाथ पर्वतके मन्दिर में पूजा करने का कोई अधिकार नहीं है, और यह कि विना एसी श्राज्ञा
प्राप्त किए वे उक्त पर्वतकी धर्म-शालाओंमें भी नहीं रह सकते। (सी ) यह कि एक ऐसा हुक्म, दिया जाय जिसमें खेवट नं०७ के खास
खतियानमें किए गए इन्दराज में यह संशोधन करने की इजाज़त दी जाय कि दिगम्बर-जैन-सम्प्रदाय पारसनाथ पर्वत पर बने हुए मन्दिरोंमें केवल श्वेताम्बरी जैनियों की आज्ञासे और एसे ढङ्गसे ही पूजा कर सकते हैं, जिसकी वे स्वीकृति दे देवें और धर्मशा
लाओंमें केवल उनकी आज्ञा से ही ठहर सकते हैं।" जिस समय मुक़द्दमा प्रारम्भिक अदालत में पेश हुआ, तो यह मालूम हुआ कि ३१ हवेलियों ( Edifices ) की निस्वत झगड़ा है। इनमें से ५ (२६ से ३० नम्बर तक ) के सम्बन्धमें, जो परमेश्वरका ध्यान करने के लिए बने हुए चबूतरे हैं, यह स्वीकार किया गया कि वे बिल्कुल श्वेताम्बरोंके लिए हैं । उन २० देवालयोंके सम्बन्धमें, जो उन २० तीर्थकरोंकी पुण्य-स्मृति में बनाए गए थे, जिन्हें उस पर्वतपर निर्वाण प्राप्त हुआ था तथा श्री गौतम स्वामी के. मन्दिर में सबजज साहबने यह तय किया कि दोनों जैन-सम्प्रदायों को इनकी पूजाके सम्बन्धमें समान अधिकार प्राप्त हैं तथा ४ देवालियों और जल मंडिल के सम्बन्धमें उन्होंने यह निर्णय किया कि दिगम्बरोंको उनकी पूजाका कोई
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दफा ८१८]
धर्मादेकी संस्थाके नियम
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अधिकार प्राप्त नहीं है और वे ऐसा उसी समय कर सकते हैं जब कि वे श्वेताम्बरों से इस सम्बन्धमें श्राज्ञा प्राप्त कर लें। धर्मशालाओं के सम्बन्धमें उन्होंने तय किया कि ये स्वेताम्बरों की सम्पत्ति है और यह कि बिना आशा प्राप्त किए दिगम्बर उनको काम में नहीं ला सकते।
__ उन्होंने अपने इस निर्णयके साथ 'आम रिवाज' के सम्बन्धमें भी अपना फैसला दे दिया, जिसके सम्बन्धमें लार्ड महोदय एक अलग उल्लेख करेंगे।
इस फैसलेके विरुद्ध अपील और मुखालिफ़-अपील ( Cross appeal) दायर की गई, लेकिन यह फैसला बहाल रहा और अब दोनों पक्ष वालों ने श्रीमान् सम्राट की कौंसिल में अपील की है।
___ मुक़द्दमे के बहुतसे अंश के सम्बन्ध में वाक्यात सम्बन्धी उन प्रश्नोंके ऊपर विचार है जिनके सम्बन्ध में झगड़ा है, और वाक्यात सम्बन्धी सभी आवश्यक प्रश्नों के ऊपर, सिवाय एक के, दोनों अदालतों का फैसला एक है, लेकिन लार्ड महोदयोंके सामने कोई भी ऐसीबात नहीं पेशकी गई है जिससे वे वाक़यात सम्बन्धी एकही प्रकारके फैसलोंको स्वीकार करनेसे रोकती हो।
इन २० देवालयों और श्री गौतम स्वामी के मन्दिर के सम्बन्ध में यह बिल्कुल साफ़ है कि वे बहुत प्राचीन हैं,और यह कि ये स्थान जैनियोंके श्वेताम्बरी और दिगम्वरों में विभाजितहो जानेके पहिलेसे पवित्र माने जाते आए हैं।
। इसमें कोई सन्देह नहीं कि धनी सम्प्रदाय होनेके कारण श्वेताम्बरोंने इन इमारतों को फिर से बनवाया है या उनमें कुछ उन्नति कराई है। लेकिन अगर वे पुरानी इमारतें इन दोनों सम्प्रदायों के इस्तेमाल के लिए पहिले से ही छोड़ दी जाती तो इनधर्म स्थानोंके सम्बन्धमें कोई अलग अधिन कार पैदा न होता। इस छोटीसी एक बिनाके ऊपर लाई महोदयोंकी रायमें वह फ़ैसला बहाल रहना चाहिए।
अब बात रही सिर्फ उन ४ देवालयोंकी जो उन तीर्थकरोंकी पुण्य स्मृतिमें बनाए गए हैं जिन्होंने भारत बर्षके भिन्न भिन्न स्थानोंमें निर्वाण प्राप्त किया है । इनके सम्बन्धमें यह कहा जा सकता है कि ये स्थान बहुत प्राचीन समयसे काममें नहीं आये हैं। उन्हें श्वेताम्बर-सम्प्रदायने सन् १८६८ में बनायाथा। निस्सन्देह दिगम्बरों और श्वेताम्बरोंने इनमें पूजाकी है। लेकिन लार्ड महोदय नीचेकी अदालतोंसे इस बातमें सहमत हैं कि इस बातका कोई सुबूत नहीं है कि वे उसमें अधिकारके साथ पूजा करते थे बहुत सम्भव है कि वैश्वेताम्बरोंकी श्राशासे ऐसा करते रहे हों और कागजातमें लिखी हुई किसी भी बातसे यह ज़ाहिर नहीं होता कि उन शौके साथ जो श्वेताम्बरोंके अधिकारसे दी जा सकती हैं, यह पूजा करनेकी आशा दी नहीं जा सकती।
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धार्मिक और खैगती धमादे
[सत्रहवां प्रकरण
लार्ड महोदयोंके सामने यह कहा गया था कि इन देवालयोंकी भूमि को कानूनके अनुसार अपने अधिकारमें नहीं किया गया था, लेकिन दिगम्बरियों के वकीलने, इस दलीलको पेश करते समय, लार्ड महोदयोंसे यह प्रार्थनाकी कि चूंकि हिन्दुस्तानमें एक मुकदमा चल रहा है जिसमें यह प्रश्न पेश है, इस लिये आप उस पहाड़ी (पर्वत) की मिल्कियतके सम्बन्धमें हकीयतके सवालको न तय करे ।
___इस लिए केवल उन्हीं बातों पर विचार करते हुए जो इस वर्तमान मुकद्दमेके कागजों में बतलाई गई हैं, लाई महोदय इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि असलमें दिगम्बरोंको ऐसी कोई हक़ीयत हासिल नहीं है जो उन चार देवालयों पर कानूनके अनुसार कब्ज़ा करनेसे स्वेताम्बरोंसे रोकती हो।
अगर यह हक़ीयतः राजाको हासिल है, तो इस बातके लिये काफ़ी शहादत है कि उसने इन स्थानोंको इस कामके लिये दे डाला था।
___ उस पहाड़ीका रकबा २५ वर्ग मील बतलाया जाता है और खेवटमें वह "गैर मजरुआ" दिखलाई गई है।
यदि यह मान लिया जायकि वह समस्त जैन-धर्मावलम्बियोंके धार्मिक कामोंके लिये दे डाली गई थी, तो भी श्वेताम्बरों के लिये इन ४ स्थानों को अपने अधिकारमें कर लेना सम्भव था, और यह बात, कि उन्होंने बिना किसी प्रकारके विरोधके उनपर इमारतें बनालीं, इस बातका काफी सुबूत है कि वह स्थान अपने अधिकारमें कर लिया गया था।
अब जल मण्डिलके मन्दिरके सम्बन्ध में विचार करता रह जाता है इसके सम्बन्ध में यह स्वीकार किया जाता है कि वीचके कमरेमें जो मूर्तियां या चित्र हैं वे श्वेताम्बरोंके हैं, और यह कि इधर-उधरके चार कमरोंमें उनके पूजन आदिकी कुछ सामग्री रखी हुई है। श्वेताम्बरोंका कहना है कि वाक़ी दो कमरे या तो खाली हैं या रद्दी चीज़ोंके भरनेके काममें लाये जाते हैं।
दिगम्बरों का कहना है कि उनकी मूर्तियां वहां थीं और घहींपर उनकी पूजा होती थी और श्वेताम्बरोंने उन्हें बेजा तौरसे हटा दिया है।
___ यह बात बिलकुल निश्चय जान पड़ती है कि जिस समय मोहतमिम बन्दोबस्तने 'खेवट' तैयार करनेके अभिमायसे जांच की थी उस समय वहां पर मूर्तियां नहीं थीं, और सब जज साहबका कहना था कि. वहांपर कोई भी देव मूर्तियां नहीं थीं।
हाईकोर्टका विचार था कि एक प्रतिष्ठित गवाह की शहादत, जिसने यह बयान किया कि उसने इनमेंके एक कमरेमें सन् १६०६ ई० में दिगम्बर मूर्तियों की पूनाकी, एतबार कर लेने के लिये काफ़ी है, और यह कि शायद यह मान लेनेपर कि वहांपर कुछ समयके लिये कुछ दिगम्बर मूर्तियां जमा कर दीगई. थीं; इस शहादतकी ताईद हो जाय ।
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दफा ८१८]
धर्मादेकी संस्थाके नियम
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यही एक मुख्य बात है जिसके ऊपर दोनों अदालतोंमें भेद था, लेकिन हाईकोर्ट के जजोंकी रायमें ऐसे इस्तेमालसे जिसके लिये बहुत सम्भव था आज्ञा देदी जाती, दिगम्बरोंको कोई हक़ीयत पैदा नहीं होती, और लार्ड महोदयोंके लिये यह कह देना काफी है कि वे इस रायसे सहमत हैं। . रहा धर्म-शालाओंके सम्बन्धमें, सो दिगम्बरोंकी अपने विशेष योगसिद्धान्तोंके कारण, उनके इस्तेमाल करनेकी न ज्यादा जरूरत पड़ी है नं पड़ेगी। जिस समय वें बनाये गये थे उस समय वें स्थान विशेष रूपसे देवापण नहीं किये गये थे और न वे किसीने अपने अधिकारमें किये थे। उन्हें स्वेताम्बरोंने बताया था और दोनों अदालतोंने तय किया है कि उन स्थानों का जो इस्तेमाल दिगम्बरोंने किया है वह श्वेताम्बरोंकी आमासे किया है। हक़ीयतके प्रश्नपर लार्ड महोदय सिर्फ उतनाही कहना चाहते हैं जितना कि उम्होंने उन ४ देवालयोंके सम्बन्धमें कहा है। इस सम्बन्धमें जैसाकि दूसरी बातों के सम्बन्धमें, मुखालिफ़ अपील (Cross appeal) नाकामयाब होती है।
___ अपील को खतम करने के पहिले लार्ड महोदय एक बात और भी कह देना चाहते हैं।
जिस समय विद्वान् सब-जज साहब मुकद्दमे के इतिहास पर विचारकर रहे थे, उन्होंने इस बातपर बड़ा ज़ोर दिया कि, सम्भवतः अपने तपश्चय्यों सम्बन्धी नियमों के कारण दिगम्बर यात्री प्रायः इन स्थानोंका दर्शन स्वेताम्बरोंकी अपेक्षा दिनमें सबेरे शुरू करते थे, जिससे स्वेताम्बरों द्वारा चढ़ाये गये वस्त्र और आभूषण दूसरे दिन तक जैसेके तैसे पडे रहते थे। और उन्होंने इन शब्दों के साथ अपने फैसलेका अन्त कियाः -
"जहां तक २० देवालयोंका सम्बन्ध है, मेरा निर्णय यह है कि एक समुः दाय ( सम्प्रदाय ) को उनकी पूजा आदिके सम्बन्धमें दूसरेके कामोंमें रुकावट डालनेका अधिकार नहीं है, बशर्ते कि ऊपर बतलाई हुई बिधि से काम लिया जाय।"
___ लार्ड महोदयोंके सामने दिगम्बर्गकी ओरसे इस बातपर ज्यादा जोर दिया गया कि या तो यह शर्त जोड़ दी जाय या कोई दूसरा नियम बना दिया जाय जिससे वे घन्टे नियत कर दिये जाय जिनमें दिगम्बर लोग पूजा आदि कर सक।
लार्ड महोदयोंके सामने जो बातें हैं, उनके ऊपर वे इस प्रार्थनाको स्त्री. कार करने में असमर्थ हैं और न वे. जैसा कि कहा गया था, उस मुक़द्दमेको, एंसे कुछ नियम बना देने की आशा के साथ, हाई कोर्ट को वापस कर दें।
अगर इस फैसले के देने के पश्चात् या इसके अनुसार कार्य करने में इन २० देवालयोंमें पूजा करने के सम्बन्धमें दोनों सम्प्रदायों में झगड़ा हो जाय या
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धार्मिक और खैराती धर्मादें
[सत्रहवीं प्रकरणे
दुर्भाग्य से नियम-पूर्वक पूजा करने में कोई कठिनाई उपस्थित हो जाय तो उचित स्थानीय अधिकारियों द्वारा इस सम्बन्ध में नियम बनाए जा सकेंगे।
लार्ड महोदय बड़ी नम्रता पूर्वक श्रीमान् संम्राट को यह परामर्श देंगे कि अपील और मुखालिफ़ अपील मय खर्चे के खारिज की जाय । दफा ८१९ मियाद नहीं हो सकती
- धर्मादा जायज़ होने के लिये यह ज़रूरी है कि वह धार्मिक या खैराती कामोंके लिये हमेशाके वास्ते कायम किया गया हो, धर्मादा कायम करनेके लिये कोई मियाद नहीं हो सकती। महारानी ब्रजलुन्दरी देवी बनाम लक्ष्मी कुंवर रानी 15 B. L. R. 176. में कलकत्ता हाईकोर्ट के जजोंने एक मूर्तिके सम्बन्धकी जायदादके विषयमें यही माना कि वह जायदाद हमेशाके वास्ते उस देव मूर्तिमें नहीं लगी थी इस लिये वह जायदाद धर्मादेमें शामिल नहीं है और धर्मादा नाजायज़ है। दफा ८२० धर्मादा कायम करने वाला
___ प्रत्येक हिन्दू जो अपने होश हवासमें ठीक हो और नाबालिग न हो अपनी मालिकी की जायदादको वसीयत या दानके द्वारा किसी धार्मिक या खैराती कामोंके लिये इन्तकाल कर सकता है अर्थात् किसी देव मन्दिर आदि बनाने के लिये इन्तकाल कर सकता है। देखो-भूपतिनाथ बनाम रामलाल 37 Cal. 128; 12 Bom. H. C. 214. ब्राह्मण भोजन या गरीवोंके भोजन के लिये इन्तकाल कर सकता है-द्वारिकानाथ बनाम वरोदा 3 Cal. 443; 84 Cal. 5; 31. Cal. 166. सार्वजनिक हिन्दू धर्म कृत्यों के लिये जैसे श्राद्ध दुर्गापूजा, लक्ष्मीपूजा इत्यादिके लिये-प्रफुल्ल बनाम योगेन्द्रनाथ 9 C. W. N. 528; 6 Bom. 24 विश्व विद्यालय, या किली विद्यालय पाठशाला या स्कूलके लिये-मनोरमा बनाम कालीचरण 3] Cal. 166; औषधालय या अस्पतालके लिये 6 C. W N. 321; इत्यादि।
द्वारिकानाथ बनाम बरोदा 4 Cal. 443; वाले मामले में कलकत्ता हाईकोर्ट ने कहा कि जब किसीने इस प्रकारका दान या खैरात किसी पण्डित को किया हो कि दुर्गापूजाके साथ प्रादेशिक जनोके सिखाने के लिये या महा. भारत या देवी भागवत या अन्य पुराण बांचनेके लिये या किसी विशेष मास में भगवानकी पूजाके लिये, उपकरण ( सामग्री) लेवे, तो ऐसा दान याखैरात यद्यपि जायज़ है किन्तु सन्देह जनक है।।
इङ्गलिश लॉ के अनुसार ऐसे काम जो कानूनन् जायज़ नहीं माने गये हिन्दू धार्मिक धर्मादों में जायज़ माने जाते हैं जैसे किसी हिन्दूने किसी देव मूर्तिके हक़में या सदावर्तके वास्ते दान किया तो यद्यपि एसा दान इङ्गलिश
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फा १६-१२२]
धर्मादेकी संस्था नियम
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लॉ के अनुसार विरुद्ध है तथापि हिन्दूलॉमें जायज़ माना गया है। देखो-14 M. I. A. 289-301-302; 12 Bom. H. C. 214.
भूपतिनाथ बनाम रामलाल 37 Cal. 128, 136, 137, 141. में कहा गया कि धार्मिक कामोंमें जो दान किया जाता है वह केवल कानूनन जायज़ ही नहीं माना जाता बल्कि हिन्दू सिद्धांतानुसार वह काम बड़ा सुन्दर और प्रशंसनीय भी है।
धर्मादेके लिये दी हुई जायदाद के मुनाफेसे धर्मादा कायम करने वाले को चाहिये कि अपनेको अवश्य सब तरह अलग कर ले। इस विषय पर मिस्टर मेन कहते हैं कि " अगर कोई आदमी अपनी जायदाद से कोई मंदिर बनाये या धर्मादा कायम करे और रस जायदाद का प्रवन्ध अपनेही हाथोंमें रखे तो धर्मादा का इस तरहका दूस्ट मुकम्मिल ट्रस्ट नहीं कहा जा सकता जब तक वह आदमी जीवित है तब तक इस प्रवन्धसे भलेही समाजका लाभ हो परन्तु फिर भी इस प्रवन्धका जारी रहना उस एक आदमी की खुशी पर निर्भर है। उस आदमी के मरनेके बाद भी झगड़ा है क्योंकि वह जायदाद वारिसोंके हाथमें या दिवालिया अदालतमें जा सकती है। इसके सिवाय यह भी हो सकता है कि वह आदमी स्वयं जब चाहे उस धर्मादेका खर्च कम कर दे या उसे बिल्कुल बन्द करदे" । सारांश यह है कि उस जायदादकी हैसियत में फरक पड़ेगा अर्थात् वह जायदाद धर्मादेकी नहीं बन जायगी बल्कि धर्मादे में लगाया जाना मालिककी खुशी पर रहेगा, देखो-मेन हिन्दुलॉ7 Ed. P. 583, नोट--15 B. L. R. 1763 20 W. R.C. R. 95.
दफा ८२१ सार्वजनिक आरामका हक
केवल सार्वजनिक आरामके हकके लिये भी धार्मिक या खैराती धर्मादा कायम किया जा सकता है, देखो-जगमनी दासी बनाम नीलमणि घोसलं 9 Cal. 75; 11 Cal. L. R. ii02 में कहा गया कि बहुतेरे लोग मरते हुए प्राणीको किसी दरिया या नदी के घाट पर जाकर रख देते हैं, ऐसे घाट का इस काम के लिये नियुक्त किया जाना या बनयाना भी सार्वजनिक आरामके हक्नका धर्मादा है। दफा ८२२ किसी मुदतके बाद धर्मादा कायम करना
अगर कोई ऐसा कहे कि मेरी जायदाद अमुक श्रादमीके जीवन समाप्त होनेके बाद अमुक धर्मदेमें लगादी जाय तो इसमें कानूनन् कुछ हर्ज़ नहीं पड़ता, देखो-30 All. 288.
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धार्मिक और खैराती धर्मादे
[ सत्रहवां प्रकरण
दफा ८२३ सार्वजनिक और निजके धर्मादेका भेद
धर्मादेके सम्बन्धमें पहले यह समझ लेना बहुत ज़रूरी है कि वह सार्वअनिक धर्मादा है अथवा निजका । इन दोनों में भेद यह है कि जो सार्वजनिक धर्मादा होता है वह किसी धार्मिक या खैराती कामों के लिये होता है और उसमें सम्पूर्ण जन समुदायका लाभ शामिल रहता है तथा वे सब उससे लाभ उठानेका अधिकार रखते हैं । निजके धर्मादेमें, धर्मादा स्थापन करने वालेका कुटुम्ब और उसके रिश्तेदार तथा मित्र केवल यही निश्चित संख्याके लोग लाभ उठा सकते हैं और इन्हींके लाभ उसमें शामिल रहते हैं। देखो-23 Bom. 659; 14 M. 1; 15 B. L. R. 167.
जब किसी आदमीने कुटुम्बकी देवमूर्तिके हकमें निजकाधर्मादा कायम किया हो तो वह कुटुम्बकी देवमूर्ति और उसमें लगा हुआ धर्मादा, देवमूर्ति का नित्य विधि पूर्वक पूजन होने के लिये दूसरे खानदानमें इन्तकाल कर सकता है। किन्तु ऐसा करने में शर्त यह है कि खानदानके सब मेम्बरोंकी सम्मति प्राप्त करली गयी हो और वह इन्तकाल उस देवमूर्तिके पूजन आदिके लाभके लिये ही किया गया हो, देखो-17 Cal. 557; 13 C. W.N. 242. निजके धर्मादेमें जो जायदाद लगादी जाती है चाहे वह किसी देवमूर्तिमें भी लगी हो खानदानके सब मेम्बरोंकी सम्मति होनेसे वह जायदाद फिर खानदानी जायदाद बनाली जा सकती है और फिर उसे सब लोग आपसमें बांट ले सकते *देखो-2 Cal.341;4 I. A.52; 11 Indian. Cases. 9473 9 Indian. Cases. 950; 15 C. W. N.126; 12 C. W. N. 983 16 0.W. N. 29.
"खानदानके सब लोग" इस कहनेसे यहांपर यह अर्थ है कि खानदान के सब परुष और वे सब स्त्रियां जिनके भरण पोषणका लाम धर्मादेमें शामिल है, देखो-सरकारका हिन्दूला 4 ed P. 491, 492. जिनके धर्मादेमें यदि पसी कोई बदइन्तजामी हो जाय तो वह क्षमाकी जा सकती है जैसीकि सार्वजनिक धर्मादेमें नहीं की जा सकती, देखो-20 M. 398. तथा यह भी ध्यान रहे कि धार्मिक धर्मादेका कानून ( Act No. 20 of 1863 ). निजके धर्मादे से लागू नहीं होता यही बात 19 Cal. 275. काले मामले में मानी गयी। निज के धर्मादेका सामान्य चिन्ह यह है कि खानदानकी देवमूर्तिके पूजनके लिये कोई खर्च खानदानकी जायदादपर डाला गया हो, ऐसी सूरतमें वह खानदानी जायदाद जिसमें देवमूर्तिके पूजनके खर्चका बोझा पड़ा है इन्तकालकी जा सकती है, देखो-5 Cal. 438; 1 A. 182. लेकिन अगर जायदाद देवमूर्ति के नाम सब तरह अलहदा कर दीगई हो तो दूसरी सूरत होगी।
लक्ष्मण गोंडन एक छोटेसे घरमें रहता था। पहले उसने अपने घरमें अम्मादेवीकी मूर्ति रखी और पूजा करता रहा। पीछे उसने पालनीके एक
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दफा ६२३-८२४]
धर्मादेकी संस्थाके नियम
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देव मन्दिरकी मूर्तिका स्वप्न देखा तब उसने वैसीही मूर्ति अपने घरमें रखी और पूजा करने लगा उसने दूसरी जातिके लोगों व ब्राह्मणोंको उस मूर्तिकी पूजा करने दी जिस तरह सार्वजनिक देवमूर्तिकी पूजाकी जाती है। वह देव मूर्तिके पुजारीकी तरह काम करता रहा, मूर्तिका चढ़ावा लिया करता था, अन्य मज़हबी रसमों में फीस लिया करता था,पूजा करने वालोंकी संख्या बढ़ती गयी। उसने मूर्ति के लिये आभूषण व जवाहरात खरीदे । मूर्ति जिस घरमें थी उस घरको बढ़ाया । जो लोग पूजाके लिये आते थे उनके ठहरनेके स्थान बनाये । मज़हबी जल्सों के लिये मूर्तिके लिये एक गाड़ी बनवाई, गांवमें धर्मशाला बनवाया, मन्दिरमें वह प्रत्येक सप्ताह जनताको बिमा फीस लिये माने देता था। हिसाब कोई रस्सा नहीं जाता था, हिसाब दाखिल नहीं किया गया। जो रु० बचता था वह उसे अपने खानदानके कामके लिये जायदाद खरीदता था। यह तय किया गया कि यदि कोई शप्त मन्दिर बनाकर जनताको उसमें पूजा करने दे और मूर्ति में चढ़ाई हुई वस्तुएं लेवे, अपने लिये घर बनावे, तो ऐसी दशामें वह मन्दिर जनताके लिये बनाया गया है यह माना जावेगा, इसमें मी कहा गया कि शूद्र भी पुजारी हो सकता है, देखो-1924 A. I. R. 44 Pri. दफा ८२४ जायदादपर बोझ - यह जरूरी नहीं है कि धर्मादेसे जिस जायदादका सम्बन्ध होउस जायदादपरसे कोई अपना पूरा मालिकाना हक मुन्तकिल करदे उस धर्मादेके खर्च का बोझ जायदादपर कायम किया जा सकता है या भामदनीका कोई हिस्सा उस धर्मादेके खर्च के लिये नियत किया जा सकता है। देखो-8 M. I. A. 66; 6 I. A. 18275 Cal. 438, 5 Cal. L. R. 296, 31 I. A. 2037 32 Cal. 129; 80. W. N. 809; 8 Bom. L. R. 765, 35 Bom. 153; 12 Bom. L. R. 584. ' जिस जायदादपर इस तरह किसी धर्मादेके खर्चका बोझ डाला गया हो, उसके साथ भी वह सब कार्रवाइयां हो सकती हैं जो साधारण जायदाद के सम्बन्धमें हो सकती हैं। देखो-13 W. R. C. R. 20; 10 W. R: C. R. 2999 2 Hay. 160. अर्थात् उस जायदादका बटवारा हो सकता है, देखो-4 Cal. 56, 12 Mad. 387-391. किन्तु वह जायदाद धर्मादेके खर्च के बोझको हमेशा लिये रहती है, वह जायदाद बेची, तथा कुर्क और नीलाम भी की जा सकती है-6 I. A. 1823 5 Cal. 438; b Cal. L. R. 296; 35 Bom. 153; 12 Bom. L. R. 584.
___ सत्यनाम भारती बनाम शरवनवागी अम्मल 18 Mad. 262. वाले मामले में यह सूरत थी कि जायदादके कुछ हिस्सेसे एक मठ सम्बन्धी धर्मादे
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धार्मिक और खैराती धर्मादे
[सत्रहयो प्रकरण
का खर्च चलाया जाता था और जायदादका बाकी हिस्सा जायदादके मालिक और उसके वारिसोंके गुज़ाराके लिये छोड़ा हुआ था अदालतने फैसला किया कि मालिककी जिन्दगी तक ही गुज़ारेका खर्च दिया जा सकता है मालिकके मरनेके पीछे उसके वारिस कुछ नहीं पायेंगे। दफा ८२५ धर्मादेका निश्चित होना अत्यावश्यक है
धर्मादा किस उद्देशसे है या किस उद्देशके लिये स्थापित किया गया है और ठीक ठीक कौनसी तथा कितनी जायदाद और किस किस्मकी जायदाद उसके लिये नियत कीगई है यह सब बाते निश्चित रूपसे धर्मादा कायम करने पालेको सरल और साफ़ साफ़ शब्दोंमें ज़रूरही बता देना चाहिये, देखोइन्डियन् सक्सेशन एक्ट 29 of 1925. S. 88. तथा हिन्दू विल्स एक्ट 21 of 1870. ठीक कितनी रकम उस धर्मादेमें खर्चकी जाय अगर यह बात न बताई गयी हो तो कोई हर्ज नहीं होगा, रकमके बारेमें अदालत यह बात स्वयं निश्चित करेगी कि छोड़ी हुई जायदादका कितना भाग धर्मादेमें लगाया जाय, तथा उसके लिये एक व्यवस्था बनायेगी, देखो--कृष्णरामानी दासी बनाम आनन्दकृष्ण बोस 4 B. L. R. O. C. 231.
यदि धर्मादेकी लिखत या सुबूतसे उपरोक्त बातें निश्चित नहीं होती होंगी तो अनिश्चित होनेके कारण अदालत उस धर्मादेको नाजायज़ कर देगी नीचे हम निश्चित और अनिश्चित दोनों बातोंके कुछ उदाहरण समझनेके लिये देते हैं। दफा ८२६ निम्न हालतों के दान 'निश्चित' होने से जायज
माने गये (१) खैरात एक आदमीने वसीयतकी कि ५००) रु० महीना हमारी धर्मशालामें 'खैरातके तौरपर' खर्च किया जाय अदालतने निश्चित उद्देश मान कर जायज़ करार दिया-गोबरधनदास बनाम चुन्नीलाल 30 All. 111;
(२) खैरातके कामके लिये दान मुश्तरका मेम्बरोंका-बम्बई में एक आदमीने अपने भतीजेकी मंजूरीसे मुश्तरका जायदाद खैरातके कामोंके लिये वसीयत कर दी तथा भतीजेको दृस्टी भी बनाया माना गया कि वसीयत जायज़ है। देखो-7 Bom. 19; 12 C. L. R. 9279 I. A. 86; 14 Cal. 222.
(३) शिक्षाकी संस्था-एक वलीयतमें यह शर्त थी कि 'मेरे मरने के बाद एक लाख रुपयेके गवर्नमेन्ट प्रामेसरी नोट लखनऊके कलक्टरको देदिये जायं, कलक्टर साहब उनका हमेशा सूद लेते रहें और एक विद्यालय
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दफा ८२५-८२६ ]
धर्मादेकी संस्थाके नियम
या स्कूल मेरे नामसे कायम करें, वसीयतमें जो खर्च बताये गये हैं करते रहें और अगर वह किसी खर्च के बदलने की ज़रूरत समझें तो उन्हें अधिकार होगा, जो शिक्षाकी संस्था वह क्रायम करेंगे उसका नाम अवश्य 'स्कूल' होना चाहिये और कलक्टर साहबको प्रबन्ध तथा स्कूल के सब काम करनेका पूर्ण अधिकार बना रहेगा स्कूलका भवन बनाने के लिये २५००) रु० और उन्हें दे दिये जावे" अदालतने मानाकि इस तरहकी शर्त अनिश्चित या मुबद्दम नहीं है तथा यह दान खास कामके लिये खास आदमीको किया गया है, यह भी मानाकि यह दान गवर्नमेन्टके हाथमें नहीं दिया गया बल्कि लखनऊ के कलक्टर को दिया गया है, 'कलक्टर' से डिपुटी कमिश्नर जिला लखनऊ समझा देखो- - 8 Indian Cases 695.
जायमा,
ग़रीब हिन्दुओं को भोजन- दक्षस्मृतिमें बचन है कि
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(
" दीनानाथ विशिष्टेभ्यो दातव्यं भूतिमिच्छता "
ऐश्वर्य के चाहने वालोंके लिये उचित है कि वे दीन, अनाथ सज्जन गरीब हिन्दुओं को दान दें एक आदमीने वसीयत की कि हमारे घरके दरवाज़े पर हमारी आमदनीके फंडमेंसे सदासे लिये गरीब हिन्दुओंको भोजन कराया जाय, जायज़ माना गया 34 Cal. 5.
(५) चिकित्सालय - अस्पताल - एक वसीयत नामेमें अस्पतालमें रहने वाले एक आदमीके नाम दान किया गया, माना गया कि यह दान अस्प तालका उत्तम प्रबन्ध रखने और उसके कामके लिये है इससे जायज़ है । सार्वजनिक चिकित्सालयके नाम जो जायदाद दानकी जाय और लिखितमें स्पष्ट लेख न लिखा गया हो तो माना जायगा कि वह नाजायज़ नहीं है; देखो - 6 C. W. N. 321.
(६) ग्ररीव रिस्तेदार - एक आदमीने वसीयत में लिखा कि मैं अपने ट्रस्टियोंको सूचित करता हूं कि वे अपने विचारसे जिसकी रक्रम २५०००) ६० से ज्यादा न हो मेरे ग्ररीव रिस्तेदारोंको बाट दें जिनमें मेरे नौकर भी शामिल रहेंगे माना गया कि यह खैरात है और जायज़ दान है; देखो - 31 Cal. 1663 इस विषय में 'दक्षस्मृति ' में कहा है
मातापित्रोर्गुरौमित्रे विनीतेचेोपकारिणि
दीनानाथ विशिष्टेभ्यो दत्तंचसफलं भवेत् । ३-१६
माता, पिता, गुरु, मित्र, शीलवान, उपकारी पुरुष, दीन, अनाथ, और सभ्य आदमियोंको दान देना सफल है ।
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धार्मिक और खैराती धर्मादे
[सत्रहर्वा प्रकरण
(७) सदावर्त-एक वसीयतसे यह मालूम होता था कि वसीयत करने वालेका यह इरादा था कि किसी निश्चित स्थानपर निश्चित सदावर्त स्थापित किया जाय और अमुक जायदादकी आमदनी 'सदावर्तके खर्च के लिये ' काम में लायी जाय, जायज़ माना गया; देखो-17 Bom. 351; 14 Bom. 1.
(८) शिवमन्दिर या विष्णुमन्दिर-एक आदमीने वसीयतकी कि हमारे बैठकखानेके हातेमें किसी उचित स्थान पर और उचित खर्चसे एक शिवमन्दिर उसकी दूसरी इमारतों और बारा सहित बनाया जाय, जायज़ माना गया; गोकुलनाथ गुह बनाम ईश्वर लोचनराय 14 Cal. 22. इसी तरहका एक मुकद्दमा और था जिसमें यह हिदायत थी कि मेरी छोड़ी हुई सम्पत्तिसे अमुक काम किया जाय अदालतने उसे नाजायज़ माना 4 Cal. 508 किन्तु यह फैसला इन मुकदमोंमें नहीं माना गया देखो-रामवरन उपाध्याय बनाम पार्वतीबाई 31 Cal. 895; 8 C. W. N. 653, 1 Bom. H. C. 73.
(१)मन्दिर-एक आदमीने वसीयतकी कि अमुक मन्दिर जो बनरहा था पूरा करा दिया जाय और उसमें देवमूर्तिकी प्रतिष्ठाकी जायः देखोमोहरसिंह बनाम हेदसिंह (1910) 32 All. 337. या ठाकुरजी ऐसे स्थान पर स्थापित किये जायं जहां पर वसीयतकी तामील करने वाले उचित समझें दोनों जायज़ माने गये देखो-29 Cal. 260; 6 C. W. N. 267.
(१०) कालीदेवीकी पूजा-एकादमीने वसीयतकी कि कालीजीकी मूर्ति स्थापनकी जाय और अमुक लोगोंके हाथमें जो जायदाद दी गई है उसकी आमदनीकी बचत कालीदेवीकी सेवा और पूजामें खर्च की जाय जायज़ माना गया; भूपतिनाथ स्मृतितीर्थ बनाम रामलाल मित्र 37 Cal. 128; 14 C. W. N. 18.
(११) श्राद्ध -एक श्रादमीने अपने वसीयतमें टूस्टियोंको यह हिदा. यतकी कि हरसाल मेरे बाप, मां, दादा, परदादा, और मेरे मरने के बाद मेरी श्राद्धके अवसर पर ब्राह्मण भोजनमें उचित खर्च किया जाय और हर साल ब्राह्मणोंको और पाठशालाओंके पण्डितोंको जो संस्कृतका प्रचार करते हों दुर्गापूजाके अवसरपर उचित मेटें और दान दिया जाय, एवं हरसाल कार्तिक मासमें महाभारत और अन्य पुराणकी कथा और ईश्वरप्रार्थनाके लिये उचित रकम खर्च की जाय, इन सब कामोंके करनेसे जो रकम बचे उससे मेरी जाति की और गरीब ब्राह्मणोंकी लड़कियों का विवाह कराया जाय और मेरी जाति के तथा गरीब ब्रह्माणोंके और अन्य ऊंची जातियोंके गरीबोके लड़कों की शिक्षाके लिये खर्च किया जाय जैसाकि टूस्टी उचित समझें, जायज़ माना गया देखो - द्वारिकानाथ वैसाख बनाम बरौदाप्रसाद वैसाख 4 Cal. 443,
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दफा ८२७]
धर्मादेकी संस्थाके नियम
1C. L. R. 566; 6 Bom. 24; इस बम्बई वाले मामले में वसीयत करने वालेने अपने दूस्टियों को यह हुक्म दिया था कि मेरी कुछ जायदाद बेच कर रुपया जमाकर लिया जाय और वह रुपया मेरी अन्त्येष्ठि क्रिया तथा मेरी जातिके रवाजके अनुसार ब्राह्मण भोजनमें खर्च कर दिया जाय, यह भी ज़ाहिर किया था कि वर्ष के किसी खास दिवसमें ब्राह्मण भोजन कराया जाय, जायज़ माना गया, देखो-12 C. W. N. 1083.
(१२) शिवरात्रि एक आदमीने वसीयतकी कि हरसाल शिवरात्रि की रातको शिवपूजाके लिये इतनी रकम खर्चकी जाय, जायज़ माना गया; देखो-12 C. W. N. 1083.
(१३) अन्नक्षेत्र-अन्नक्षेत्र चलाने के लिये दान जायज़ है; देखो-एडवो. केट जनरल बनाम स्ट्रांगमैन ( 1905 ) 6 Bom. L. R. 56; एक आदमीने वसीयतकी कि मेरी वसीयतके तामील करने वाले जिस धार्मिक या खैराती कामको उचित समझे उसमें खर्च करें, जायज़ माना गया, देखो-31 Cal. 895; 80. W. N. G53; 4 Cal. 5083 4 Bom. L. B. 893.
(१५) पूजा-एक आदमीने वसीयतकी कि मेरे अमुक मकान में देव मूर्तिकी पूजा होती रहे और उसमें मेरे बालबच्चे भी रहा करें-जायज़ माना गया, देखो-25 Cal. 112. दफा ८२७ निम्नलिखित हालतोंके दान 'अनिश्चित' होनेसे
नाजायज़ माने गये (१) धर्म-यदि कोई दान या वसीयत केवल 'धर्म' के लिये किया गया हो और उसमें निश्चित न किया गया हो कि किस मतलबमें वह जायदाद लगाई जायः नाजायज़ माना जायगा क्योंकि वह अनिश्चित और सन्देह जनक है ऐसा दान या वसीयत नहीं करना चाहिये कि 'अभुक धन या जायदाद मैने धर्मके लिये दी' कारण यह है कि 'धर्म' शब्दका अर्थ अदालती मतलब में बहुनही सन्देह जनक और अनिश्चित है इसी सबबसे अदालतको उसके इन्तज़ाममें असुविधा होती है। देखो-रनछोड़दास बनाम पार्वतीबाई 23 Bom. 725; 26 1. A. 71; 21 Bom. 646; 30 Mad. 340.
धर्मादे का दूस्ट अदालतकी निगरानीमें रहता है इसलिये जो जायदाद दान या वसीयत की जाय, और जिस कामके लिये की जाय वे सब बातें साफ साफ और निश्चित बता देना ज़रूरी है अगर ऐसा नहीं किया गया होगा तो वह धर्मादेका ट्रस्ट रद समझा जायगा और काम में नहीं लाया जा सकेगा। इसी तरहके फैसले प्रिवी कौन्सिलके हैं मगर एक मुकद्दमे में मदरास हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस, सर सुब्रह्मण्य ऐय्यर ने कहा कि 'धर्म शब्दका अर्थ सन्देह
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धार्मिक और खैराती धर्मादे
[सत्रहवां प्रकरण
जनक और अनिश्चित नहीं है यक्लि निश्चित है और हिन्दुओंमें बड़े पवित्र भावसे विख्यात है यह शब्द 'पवित्र दान' सूचक है, जस्टिस ऐय्यर ने प्रिवी कौंसिल की उपरोक्त राय नहीं मानी तथा उसके विरुद्ध यह राय जाहिर की कि जो दान या वसीयत सिर्फ धर्म के लिये किये गये हैं जायज़ हैं; देखो-30 Mad. 340, पीछे इसी हाईकोर्ट में जस्टिस व्हाइट, सी० ने फिर प्रिवी कौंसिल की रायका अनुसरण करके यही माना कि जो दान या वसीयत केवल 'धर्म' के लिये किये गये हों नाजायज़ हैं आजकल यही आखिरी बात मानी जाती है। इस सम्बन्ध में देखो-प्राणनाथ सरस्वती का हिन्दूलॉ, धर्मादा प्रकरण पेज १८और भी देखो-मोती बहुबाई बनाम मामूबाई 19 Bonm. 647;18 Bom. 136; 17 Bom. 351; 1 Bom. H. C. 71.
(२) सार्वजनिक या खैरातके लिये एक वसीयत में लिखा गया कि मेरी जायदाद किसी लौकिक सार्वजनिक लाभमें या किसी 'खैराती काम' में लगा दी जाय, माना गया कि 'अनिश्चित' होनेके कारण ऐसा वसीयतनामा नाजायज़ है क्योंकि सार्वजनिक लाभ और खैराती काम भिन्न भिन्न प्रकार के और अनेक होते हैं, देखो-31 Bom. 503; 9 Bom. L. R. 560.
(३) अच्छे काम या सराकम-मदरास प्रांत में 'सराकम' होता है ऐसा मालूम होता है कि इसका अर्थ है 'अच्छे काम' । जो जायदाद 'सराकम' या 'अच्छे काम' में लगा देने के निमित्त दान या वसीयत की गयी हो, नाजायज़ है-22 Bom. I. R. 774 में कहा गया कि 'अच्छे कामों' के करने को वसीयत द्वारा जो दान दिया जाय वह अनिश्चित होनेके सबबसे नाजायज़ है क्योंकि अच्छे काम अनेक प्रकार के होते हैं।
(४) धर्मादेके लिये-अगर किसी वसीयतमें जायदाद केवल 'धर्मादे' के लिये दान की गयी हो तो अनिश्चित होने के कारण नाजायज़ होगी18 Bom. 136.
(५) खास और उचित काम-एक आदमी ने यह वसीयत की कि 'यदि ऊपर बताये हुए सब कामों के समाप्त होनेपर कोई रुपया या कोई मनकला जायदाद अधिक तादाद में बाकी रहे तो, वसीयत की तामील करने घालों को आवश्यक होगा कि मेरे लाभ के लिये किसी खास और उचित कामोंमें खर्च करें' अदालत ने माना कि इस प्रकार की आशा देना अनिश्चित होने के कारण नाजायज़ है, देखो--14 Cal. 222.
(६) वसीयत करने वाले की पसन्द--एक आदमीने वसीयत की कि मेरे ट्रस्टी किसी खैरात और अच्छे कामों में जिसे वे पसन्द करें और जो वसीयत करने वाले की पसन्दके योग्य हो जायदाद लगा दें, माना गया कि नाजायज़ है, देखो--4 Bom. L. R. 893; 4 Cal. 508; 31 Cal. 895; 8 C. W. N. 653; 1 B. H. C. 73.
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दफा ८२८]
धर्मादेकी संस्थाके नियम
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(७) अपनी सन्तान के लाभके लिये-एक हिन्दू ने ऐसी वसीयत की कि मेरे कुटुम्बके रहने वाले घरमें निवास रखा जाय और ज़मीन आदि से भरण-पोषण होता रहे तथा खानदान की देवमूर्ति का पूजन होता रहे। उसने अपने लड़कों और उनकी मर्द सन्तानको देवमूर्तिका-'शिवायत' हमेशा के लिये नियत किया और यह शर्त की कि वे सब घरमें रहें तथा जायदादसे लाभ उठाते रहें । वसीयतसे यह भी मालूम होता था कि बटवारा, या घरेलू विभाग या कोई इन्तकाल किली जायदाद का न हो सके इसलिये जायदाद देवमूर्ति के अर्पण कर दी गयी थी, उस हिन्दूने ट्रस्टी भी नियत किये और पीछे उसने वसीयतनामेके परिशिष्टके द्वारा अपने खान्दानके मेम्बरोंको अपने मरनेके पश्चात् छोड़ी हुई जायदाद दे दी थी। उसके मरनेपर खान्दान के मेम्बरोंने एस्टियों पर दावा किया कि जायदाद हमें दिला दी जाय । अदालतने माना कि देव मूर्तिमें लगी हुई जायदाद नाजायज़ है और बेअसर है क्योंकि उसने अपनी सन्तानके लाभके लिये सब काम किये असल में उसने देवमर्तिके पजनके लिये कोई जायदाद अर्पण नहीं की देखो-1B.L. R. 175; 20 W. R. 95-96; 15 B. L. R. Note 176-178; 15 C. W. N. 126; 5 Ben. Sel. R. 268.
(८) हमारे ठाकुरद्वाराके ठाकुरजीके लिये-यदि कोई हिन्दू ऐसे देवताके अर्पण अपनी जायदाद करे जिस देवताका कोई नाम ही न रखागया हो जैसे किसीने यह वसीयतकी कि मैं इतनी जायदाद 'अपने ठाकुरद्वारेके ठाकुरजी' के पूजन आदिके लिये अर्पण करता हूं और जिस समय ऐसा वसीयतनामा लिखा गया था या वसीयत करने वालेके मरनेके समय ठाकुर द्वारा ही न था, और न ठाकुरजी विराजमान थे तो ऐसी सूरतमें अदालत इसे अनिश्चित मानेगी और वसीयत नाजायज़ करेगी; देखो-33 All. 793 8 I. LJ. 944; 11 Indian cases 260; और भी देखो-37 Cal. 128; 33 All. 253; लेकिन अगर किसीने वसीयतके द्वारा एक ट्रस्ट बना कर अपनी जायदाद ट्रस्टियोंके हवालेकी हो और उसमें यह आज्ञा दी हो कि मेरे मरने के बाद मेरी माता के नामपर अमुक नामक देवता की मूर्ति स्थापन की जाय, और मेरी जायदादकी आमदनीकी वचत उसके पूजन पाठ आदिके कामों में खर्च की जाय तो इस तरहका दान जायज़ माना गया है यद्यपि उस मूर्ति का अभिषेक उसके मरने के पश्चात् पहले पहल होगा, देखो-ऊपरकी दोनों आनीर नज़ीरें 37 Cal. 128; 33 All. 253. दफा ८२८ धर्मादा असली होना चाहिये
जो जायदाद धर्मादे के लिये दी जाय वह सचमुच दीजाय केवल दिखाने केलिये न हो, किसी खास घराने में उसके रखे जानेकी शर्त नहीं की जा
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१०१८
धार्मिक और खैराती धमादे
[सत्रहवां प्रकरण
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सकती और दान देनेके समय या दान देने वाले की मौतके समय, दान लेने वालेके जीवित रहनेकी जो शर्त है उसकी भी पाबन्दी करना होगी--14 B. L.B. 175; खैरात और धर्मादे के लिये वह दान ऐसा पूरा पूरा होना चाहिये कि जिससे धर्मादेमें दी हुई जायदाद नानाबिल इन्तकाल हो जाय-2 C. W.N. 154.
ठाकुर जी को समर्पितकी हुई जायदाद, फिर वापस नहीं हो सकीश्रीपति चटरजी चनाम खुदीराम बनरजी 41 C. L. J. 22; 82 I. C. 840; A. I. R. 1925 Cal. 442.
जो धर्मादा सिर्फ लेनदारोंसे बचने के लिये या दूसरोंका रुपया मारनेके लिये किया जाय उसका कुछ असर न होगा, सिर्फ 'देवोत्तर' शब्द या इसी अर्थका कोई दूसरा शब्द जोड़ देनेसे धर्मादा पूरा नहीं समझा जा सकता, देखो - श्यामचरणनन्दी बनाम अमिराम गोस्वामी 33 Cal. b11; 10 C.W. N. 738; धर्मादे का ट्रस्टनामा देखावटी और रद्दी समझा जायगा अगर उसमें कहा हुआ खैराती काम, या ट्रस्ट, कार्य में परिणत न किया जाय, या जब कि इस बातका कोई सुबूत न हो कि ट्रस्टनामे में कही हुई जायदाद धर्मादे में लगाई गयी है और पक्षकारोंके चाल चलनसे अदालतको इस बात का विश्वास हो जाय कि वह असली ट्रस्ट नहीं है, देखो--रूपलाल बनाम लक्ष्मीदास 29 Mad. 1; 12 Mad. 387; 15 C.W.N. 126.
यदि कोई व्यक्ति अपनी जायदाद किसी देवताके नाम इस अभिप्रायसे अर्पण करता है कि वह उसे उस कर्ज से बचा सके, जो कि उसपर अन्य महाजनोंका बाकी है। इस सूरतमें समर्पण नाजायज़ होता है और उसपर महाजनों द्वारा एतराज़ किया जा सकता है । इस बातके फैसल करने में कि आया समर्पण वास्तविक रीतिपर किया गया है या केवल जायदाद बचानेकी ग्ररज़ले नाम मात्रका समर्पण है, इस बातपर जांच करना अत्यन्त आवश्यक है कि जायदादका उपभोग किस प्रकार किया जाता है-श्री श्री काली माता देबी बनाम नागेन्द्रनाथ चक्रवर्ती A. I. R. 1927 Cal. 244
लेकिन अगर ट्रस्ट पूर्ण रूपसे ठीक ठीक कायम किया गया हो तो वह केवल इसलिये नाजायज़ नहीं हो जायगा कि उसकी शर्ते पक्षकारोंने पूरी नहीं की: देखो-12 Mad. 3879 30 All. 111; 14 ML. I. A. 289-306; 10 B. L. R 19-33-34; 17 W. R. 41-44; 15 C. W N. 126; और न वह जायदाद ट्रस्ट कायम करने वालेकी निजकी जायदाद बन सकेगी; देखो--18 W. R. C. R. 472, 23 W. RC R. 46; ऐसे मामलेमें सिर्फ यही किया जा सकता है कि दूस्टकी शर्ते पूरी कराई जायं, दूसरा उपाय
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दफा ८२६]
धर्मादेकी संस्थाके नियम
नहीं है। देखो-11 Cal. L. R. 370; 5 Cal. 700, 6 Cal. L. R.5813 Cai 563; 2 Cal. L. R. 121; 23 W. R. C. R. 76, 8 Cal. 788. दफा ८२९ धर्मादेका सुबूत
दुर्गानाथ बनाम रामचन्द्र सेन 2 I. A. 52. में कहा गया कि जायदाद का धर्मादेके लिये दिया जाना पूर्ण रूपसे साबित करना होगा। और जबकि मरने वालेने मृत्युके समय सिर्फ ज़बानसे कहकर कोई दूस्ट कायम किया हो और उसके सम्बन्धमें ऐसी बातें कहीं हों जिनसे यह ठीक मालूम न होता हो कि वह अपने परिवारको अपनी सारी जायदादसे बंचित रखनेका इरादा रखता था या नहीं तो ऐसे मामले में अदालत दूस्टका मज़बूत सुबूत मांगेगी, देखो-3 W. R. C. R. 16555 W. R. C. R. 82.
जब कोई ज़मीन हमेशाके वास्ते इस तरहपर धर्मादेमें दीगई हो कि न तो वह बेची जा सके और न उससे कभी अलगकी जा सके तो ऐसे मामले में धर्मादेका पूरा सुबूत देना होगा, देखो-27 Cal. 244; 4 C.W. N.405.
किसी देवताके नामसे ज़मीन खरीद लेना इससे धर्मादा कायम नहीं हो जाता और जब यह प्रश्न उठे कि धर्मादा सच्चा है या जाली? तो उसके सम्बन्धकी जायदादके साथ धर्मादा कायम करने वाला और उसके वारिस क्या कार्रवाई करें यह एक आवश्यक और बहुत विचारणीय प्रश्न है। जाव. दादकी सव आमदनी यदि धर्मादेमें लगाई जाती हो तो वह अवश्य धर्मादा का सुबूत है और उससे यह मालूम होगा कि धर्मादा नेक नीयतसे कायम किया गया है, देखो-3 W. R.C. R. 142; 8 W. R.C. B. 425 16 C. W. N. 126. लेकिन अगर जायदादकी आमदनीका कुछ हिस्सा किसी देवता की पूजाके लिये खर्च किया जाता हो तो यह धर्मादेका पूरा सुबूत नहीं है, देखो-18 W. R. C. R. 399; 2 I. A. 52; 2 Cal. 341. यह ध्यान रहे कि यदि धर्मादा कायम करने वालेका इरादा जो किसी प्राचीन लिखतसे स्पष्ट न मालूम होता हो तो इस इरादेके निश्चित करने में उपरोक्त बातोंका झ्याल किया जायगा-36 I. A. 148; 36 C. 1003.
धर्मादेकी शौका सुबूत-आमतौरसे धर्मादेकी शर्ते धर्मादेकी लिखत से मालूम होंगी या अगर ज़वानी कायम किया गया हो तो वाक्योंसे मालम होगी जो धर्मादा कायम करने वालेने कही थीं, परन्तु बहुत समय व्यतीत हो जानेके कारण या अन्य किसी कारणसे शर्ते न मालूम हो सकती हों तो वैसेही धर्मादों में आमतौरसे जो शतॆ हुआ करती हैं वेही उससे भी लागू समझी जायंगी, उस धर्मादेसे जो काम होते हों उन कामोंका तरीका ही धर्मादेवी शतका सुबूत है, देखो-1 W. R. C. R. 108...
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धार्मिक और खैराती धर्मादे
[सत्रहवां प्रकरण
दफा ८३० अदालत व्यवस्था निश्चित कर देगी
• वसीयत करने वालेने धर्मादेके लिये कोई ट्रस्ट कायम करनेका स्पष्ट विचार तो प्रकट किया हो परन्तु किस जायदादमें से वह ट्रस्ट चलाया जाय यह न बताया हो और जब अन्य कारणों से यह मालूम करना आवश्यक समझा जाय तो अदालत यह निश्चित करेगी कि उस धर्मादेका इन्तज़ाम कैसे किया जाय, देखो -9 C. W. N. 528; तथा 34 I. A. 78; 31 Mad 138; 11 C. W. N. 442; 9 Bom. L. R. 588; 28 Mad. 319.
धर्मादेका जो कुछ इन्तज़ाम अदालत करेगी उसमें इस बातका वह ज़रूर ख्याल रखेगीकि उसी तरहके दूसरे धर्मादेमें क्या रवाज प्रचलित है और उस धर्मादेसे सम्बन्ध रखने वाले लोगोंकी हैसियत क्या है। इन्तज़ाम करनेके पहले सर्व प्रथम उस ट्रस्टकी जायदादका हिसाबमालूम करना चाहिये और समझना चाहिये, उस हिसाबकी जांचके परिणामपर बहुतसी बातें निर्भर हैं, ट्रस्टमें कितना रुपया है जब तक यह बात मालूम न हो तब तक इन्तज़ाम का तरीका निश्चित करना असम्भव है, देखो-26 I. A. 199, 24 Bom. 50; 4 C. W. N. 23; 2 Bom. L. R. 410; 12 Bom. 247.
अदालतने जो तरीका इन्तज़ामका निश्चित किया हो, कोई योग्य कारण दिखानेसे उसमें फेर बदल हो सकता है। देखो-28 Mad 319, 34 I. A. 78; 31 Mad. 138; 11 C. W. N. 442; 5 Bom. L R. 588. दफा ८३१ धर्मादा कभी ख़ारिज नहीं हो सकता . जो धर्मादा जायज़ तौरसे कायम किया गया हो उसे उसका स्थापक या उसके वारिस फिर खारिज नहीं करा सकते, देखो-14 M. I. A. 289; 10 B. L. R. 19-31; 17. W. R. C. R. 41. धर्मादेका स्थापक सिर्फ इस कारणसे कि ठाकुरजीकी पूजा ठीक ठीक नहीं होती या धर्मादेकी शर्ते पूरी नहीं की जातीं, उस धर्मादेकी जायदादपर कब्ज़ा पाने या अपने काममें लाने का अधिकारी नहीं है. देखो-11 W. R. C. B. 443. अधिक देखना हो तो देखो चतुर्वर्ग चिन्तामणिका दान प्रकरण । दफा ८३२ मन्दिर और मठ
हिन्दुओंके धर्मादा स्थापित करने के उद्देशोंमें बहुधा मन्दिरकी पूजा या मठकी स्थापना आदि हुआ करते हैं। मन्दिर वह कहलाते हैं जिनमें किसी देवताकी पूजा होती है और मठ वह कहलाते हैं जिसमें साधु, सन्यासी परिव्राजक, महन्त, बाबा जी, गद्दीधर या कोई महात्मा रहते हैं, कथा वार्ता और धर्मोपदेश होता रहता है--27 M. 435.
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दफा ८३०-८३३]
धर्मादेकी संस्थाके नियम
हिन्दुस्थानमें धार्मिक बुनियादपर बेशुमार मन्दिर या देवस्थान हैं उनमें ज़मीन, गांव, नकदी, सोना, चांदी, जवाहरात आदि बहुत क्रिस्मकी जायदादे लगी हैं। आमतौरसे हिन्दूसमाजको पारमार्थिक लाभ पहुंचानेके लिये इनकी सृष्टि कीगई है । या किसी खास सम्प्रदाय या पंथके लिये स्थापित किये गये हैं इनके अलावा यति, संन्यासी, परिव्राजकोंके लिये खास तौरसे प्राचीन मठ या आश्रम निर्माण किये गये हैं । मन्दिर या मठोंके स्थापित करने से उद्देश यह है कि धार्मिक ज्ञानकी वृद्धि हो और उनके शिष्य तथा भक्तोंको उस धार्मिक ज्ञानका उपदेश प्राप्त होता रहे तथा वे धार्मिक लाभ उठाते रहें।
मठ-यदि मठमें किसी देवमूर्ति या मूर्तियों की स्थापना भी है तो उसका पूजन मठका मुख्य उद्देश नहीं बल्कि दूसरा है। मठमें दो किस्मकी संस्था होती हैं । मन्दिर और मठ ये दोनों हिन्दुओंके धर्मानुशासन विषयसे जुड़े हुये हैं मठका मुख्याधिष्ठाता महन्त या स्वामी या आचार्य आदि नामोंसे कहा जाता है उसका मुख्य कर्तव्य यह है कि संस्थाके अनुसार धर्मानुशासन करे वह स्वयं देवमूर्ति है क्योंकि विज्ञानी पुरुष सब देवमूर्ति माने जाते हैं दोनों क्रिस्मके मठोंमें पारमार्थिक ज्ञान दिया जाता है तथा भगवान्की स्तुति, पूजन पाठके लिये तथा जप, तप, यज्ञ आदिके लिये वे स्थान मुख्य माने जाते हैं।
___ मन्दिर-मन्दिर में देवमूर्ति अवश्य होती है यदि किसी संस्थाकी रवाज विरुद्ध हो तो दूसरी बात है। देवमूर्तिका पूजन मन्दिरका मुख्य उद्देश है और जो बाते ऊपर मठके सम्बन्धमें कही गयी हैं लागू होती हैं मूर्तिके पूजन करने वालेको शिवायत या पुजारी आदि नामोंसे कहते हैं, महन्त और शिवायतमें बड़ा भेद है, शिवायत यदि पागल हो जाय तो उसके हक छीन लिये जायंगे मगर महन्तके नहीं यह बात 27 Mad. 435; 2 Mad. 175; 10 Mad. 375 389. के मामलोंमें तय हुई है।
मठ, उसकी जायदाद और उसके आफिसका बटवारा नहीं होतागोविन्द रामानुजदास बनाम रामचरनदास 52 Cal. 7483 29 C. W. N. 931; 89 I. C. 804; A. I. R. 1925 Oal. 1107. दफा ८३३ देव पूजाका धर्मादा
किसी सार्वजनिक या निजकी देवमूर्तिके लिये धर्मादा कायम करना हिन्दूलॉ में मान्य है-9 Bom. 169; 9 C. W. N. 529; 13 M. I. A 270. ध्यान रहे कि धर्मादा उस देवताके लिये है न कि उसकी प्रतिमाके लिये अर्थात अगर वह प्रतिमा न रहे तो दूसरी प्रतिमा स्थापित की जा सकती है, किन्तु धर्मादा नहीं दूटता प्रतिमा न रहनेपर भी उस देवताकी शक्तिका बास उस स्थानपर रहता है।
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धार्मिक और खैराती धर्मादे
[ सत्रहवां प्रकरण
दफा ८३४ देवताका मालिकाना हक्क
मन्दिरकी जायदादपर मन्दिरके देवताका मालिकाना हक़ माना जाता है; देखो - 8 Bom. 432; 6 C. W. N. 178;5 Bom. L. R932; 13 M. I. A. 270, 13 W. R. P. C. 18-19; हिन्दुओंका प्राचीन सिद्धांत है कि जब मन्दिरमें कोई देवता शास्त्रोक्त विधिपूर्वक प्रतिष्ठित किया जाता है तो वह मन्दिर उस देवताका निवास स्थान बन जाता है ।
वह देवता केवल अपनी प्रतिमामें ही नहीं रहता बल्कि सम्पूर्ण मन्दिर में उसका निवास माना जाता है, उस देवताकी प्रतिष्ठा और मर्यादा रखने के लिये मन्दिर सम्बन्धी संपूर्ण इमारत में भक्ति और श्रद्धा के साथ सब धर्म कार्य किये जाते हैं मानों वह मन्दिर उस देवताके रहनेका घर है इसीलिये उसे 'देवालय' कहते हैं । देवालयमें थूकना, उसे अपवित्र करना, या उसे तोड़ना फोड़ना या ऐसे कोई काम करना जो उस स्थानमें न करना चाहिये इत्यादि कामशास्त्रों में वर्जित किये गये हैं और ऐसा करने वाले पापके भागी माने गए हैं इसीलिए जीर्णोद्धार कराने में बड़ा पुण्य माना गया है यह सब बातें इसी लक्ष्यपर हैं कि उसमें देवताका बास रहता है । देवता अव्यक्त शक्ति है इसीलिये वह किसी मुक़दमे में, मुद्दई या मुद्दालेह नहीं बनाया जासकता यह सब काम मन्दिरके प्रबन्धके नामसे होते हैं, देखो - 28 Mad. 319; 34I A. 78; 31 Mad. 138; 11 C. W. N. 442; 24 Bom. 45.
शिवायतको एक वसीयत लिखी गयी कि जबतक दूसरी ठाकुर बाड़ी का प्रवन्ध करके ऊपर बताए अनुसार यह अर्पण न कर दी जाय तब तक श्री ठाकुर जी उस स्थान से हटाये न जावेंगे और ऐसा होनेपर श्री ठाकुर जी की स्थापना उसमें कर दी जावेगी और फिर किसी तरह वह मूर्ति दूसरे स्थानको नहटाई जावेगी । तय हुआ कि यह प्रवन्ध उस देवमूर्ति की इच्छा समझा जावेगा जो इच्छा संरक्षक के द्वारा प्रकट हुई है और उसके अनुसार कार्रवाई की जावेगी । पूजा करने सम्बन्धी अधिकारों का बटवारा नहीं हो सकता, देखो- - अमरनाथ मलिक बनाम प्रद्युम्न कुमार मलिक 1924 AIR. Pri.
जायदाद इस प्रकार समर्पित की जा सकती है, कि उसका अधिकार मूर्तिके हक़में ही हो - इस सूरतमें किसी ट्रस्टीकी ज़रूरत नहीं होती - एडमिनिस्ट्रेटर जनरल आफ बङ्गाल बनाम बालकृष्ण मिश्रा 84 I. C. 91; A, I. R. 1925 Cal. 140.
मन्दिर बनाना ज़रूरी नहीं है- एक देवता के नामसे एक गांव खरीदश गया और उस गांव की आमदनी देवता की पूजा और धार्मिक कामों में लाई गयी । देवता की मूर्ति घर में रखी रही वह किसी मंदिर में स्थापित नहीं की गयी थी । मुक़द्दमा दायर होने की तारीखपर मालूम हुआ कि मंदिर बनाने
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दफा ६३४-८३५]
धर्मादेकी संस्थाके नियम
१०२२
का इरादा था, ऐसी दशामें यह माना गया कि जो गांव देवता के लिये खरीदा गया था वह ठीक है, मंदिर बनाना आवश्यक कार्य नहीं है, देवताका होना आवश्यक है, देखो-46 All. 130; 78 1. C. 1018. दफा ८३५ खण्डित या खोई हुई मूर्ति
___ अगर मूर्ति, फटजाय, टूटजाय, अङ्ग भङ्ग होजाय, बिगड़ जाय यां चोरी चली जाय तो उसकी जगहपर शास्त्रानुसार दूसरी मूर्ति स्थापितकी जा सकती है। यदि देवमूर्ति किसी अपवित्रतासे भृष्ट कर दी गई हो तो उचित बिधानके साथ दूसरी मूर्ति प्रतिष्ठितकी जासकती है, यदि ऐसी अपवित्रता हो जो किसी विशेष विधानसे वही मूर्ति शुद्धकी जा सकतीहो तो शुद्ध की जासकती है । शिवलिङ्ग देवमूर्तिका स्थानच्युत होना जैसे मन्दिरसे बाहर लेजाना कुछ मामलों में भृष्ट होना माना गया है। जब पहली मूर्ति ज्यों कीत्यों निर्दोष मौजूद हो तो नई मूर्ति कदादि नहीं बिठाई जासकती।
मूर्ति एक कानूनी व्यक्ति है और शिवामत (पुजारी) उसका प्रतिनिधि है देवमूर्ति नालिश कर सकती है और उसके खिलाफ नालिश की जा सकती है-यह जङ्गम सम्पत्ति नहीं है फलतः, शिवायत वसीयतनामे द्वारा उसका इन्तकाल नहीं कर सकता--मूर्ति, शिवायत द्वारा अपनी इच्छा प्रगट करती है-प्रमथनाथ बनाम प्रद्युम्न कुमार 52 Cal. 809; 30 C. W. N. 253 52 I. A. 245; 23 A. L.J. 537; 41 C. L. J. 551; 87 I.C. 3053 22 L. W. 4925 (1925) M. W. N. 431; 20. W. N. 557,27 Bom. L. R. 1064; A. I. R. 1925 P.C. 139; 49 M.L.J. 30 (P.C.) - यदि देवमूर्ति ऐसी प्राचीन हो कि जो ईश्वर या किसी महात्मा, या किसी सुर या असुर आदिकी स्थापितकी हुई कही जाती हो या घरानेके प्राचीन किसी पूर्वजकी स्थापनकी हुई वर्णनकी जाती हो या जब कि उस मूर्तिका प्राचीन स्थापनकाल अज्ञात हो तो उस मूर्तिके केवल फट जाने, टूट जाने, अङ्ग भङ्ग हो जाने, बिगड़ जानेसे उस प्राचीन मूर्तिके स्थान पर नयी मूर्ति नहीं बिठलाई जासकती। अगर प्राचीन देवमूर्ति मरम्मतसे ठीक हो सकती हो तो भी नयी मूर्ति नहीं स्थापितकी जासकती।
__ यदि पुरानी देवमूर्तिकी जगह नई मूर्ति बिठलाना सब तरह पर उचित हो किसी तरहपर भी काम न चल सकता हो तो विधिवत शीघ्र बिठलाई जाय क्योंकि शास्त्रका वचन है कि खंडित मूर्तिकी पूजा नहीं हो सकती देखो--जी, सी, सरकारका हिन्दूलॉ3 ed. P. 441; 7 C. L. R. 278-281.
जो मूर्ति अभी स्थापित नहीं है उसकी स्थापनाके लिये भी पहले एक दूस्ट बनाके उसे मूर्ति स्थापित करने की हिदायतकी जासकती है, दूस्ट ज़यानी या लिखित वसीयत द्वारा कायम हो सकता है, देखो-37Cal. 128 33 All. 253.
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' 'धार्मिक और नगती धर्मादे
[सत्रहवां प्रकरण
१ मूर्ति तोड़ डाली गयी--अघट पूजा जारी रही---नई मूर्तिकी स्थापना हुई-भिन्न भिन्न किस्मकी मूर्तियां स्थापित हुई--कालीकान्त चटरजी बनाम सुरेन्द्रनाथ चक्रवर्ती 41 C, L. J. 128; A. I. R. 1925 Cal. 648.
- किसी पुजारीको यह अधिकार नहीं है कि देव मूर्ति जो पुगनी हो उसे हटाकर नई देवमूर्ति स्थापित कर दे क्योंकि देवमूर्ति का हटाना पूजा का काम नहीं समझा जाता, देखो--1923 A I. R. 169 Mad. दफा ८३६ घरेलू धर्मादा
जब कोई जायदाद किसीको बतौर दान या पुरस्कारके दे दी गई हो और उस दान या पुरस्कारकी वास्तविकता घरेलू क्रिस्मकीहोतो वह धार्मिक धर्मादा नहीं कहा जा सकता, उदाहरण-जैसे महेशने धर्मके ख्यालसे कोई जायदाद उमाकान्त और उमादत्तको दी, दोनों ब्राह्मण हैं शर्त यहकी कि वे दोनों जायदादका इन्तकाल नहीं कर सकेंगे और उस जायदादसे स्वयं और उनकी संतान तथा उनके वारिस लाभ उठाते रहें । उमाकान्त और उमादत्त दोनों उस जायदादको बिना किसीकी शिरकतके प्राप्त करेंगे और उनको अधिकार होगा कि यदि वे चाहें तो जायदादका इन्तकाल कर दें या जो चाहें करें, देखो-अन्नाथा बनाम नागापथु 4 Mad. 200.
गोविंद बनाम गोमती 30 All. 288. वाले मामलेमें एक श्रादमीने वसीयतकी, वसीयतकी कुछ जायदादमें उसने अपना हक़ अपनी ज़िन्दगी भरके लिये रक्षित रखा और यह शर्त लिखी कि मेरे मरने के बाद इस जायदादकी आमदनी मेरी बेटीको उसके जीवन भर मिलती रहे और बेटीके भर जाने के बाद अमुक मन्दिरकी सेवामें लगा दी जाय, माना गया कि ऐसी शर्तका दान जायज़ है।
मठ
दफा ८३७ मठ
‘मठ' एक धार्मिक स्थान है जहां हिन्दू धर्मकी शिक्षा हुआ करती है उसका एक अध्यक्ष होता है जो यदि ब्राह्मण हो तो महन्त, स्वामी, गोस्वामी या संयाली आदि कहलाता है अगर शूद्र हो तो पगदसी या जीर कहलाता है कोई धर्मोपदेष्टा अपने शिष्यों को एकत्र कर धर्मोपदेश करता है और बहुतेरे धर्मात्मा धर्म प्रचारार्थ अपनी जायदाद अर्पण करदेते हैं यही 'मठ'की बुनियाद है मठकी जायदादके वारिस उस धर्मोपदेष्टा गुरुके शिष्य नहीं होते बल्कि
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दफा ६३६-८३८]
धर्मादेकी संस्थाके नियम
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कोई एक शिष्य जिसको वह अपनी गद्दीपर बिठा जाता है वही वारिस होता है मतलब यह है कि वह जायदाद उस गद्दीके साथ लगी रहती है जो गही पर बैठे वही जायदाद पावे; देखो--सनमन्था पण्डा बनाम सैलप्पाचट्टी 2 Mad 175-179; यदि मठोंकी उत्पत्तिके विषयमें अधिक देखना हो तो देखो कैलाशं पिल्ले बनाम नटराज तंबिरन (1909) 33 Mad. 265; सामंतपंडारों बनाम सिल्लप्पाचिट्टी 2 Mad. 175; 10 Mad. 375; 27 Mad. 435.
मठमें मूर्तियां भी होती हैं लेकिन उनकी पूजाका अलग मामला है मठका उद्देश यह होता है कि योग्य धर्मोपदेशक एकके बाद दूसरा उचित मान-मर्यादाके साथ अपना काम करते रहें। उनको मठकी कुल आमदनीका लाभ मिलता है मठमें अर्पणकी हुई जायदाद सम्बन्धी शौका मानना या न मानना उनकी इच्छापर निर्भर है इन सब बातोंसे यही सिद्ध होता है कि मठ का मुख्य मालिक वहांका प्राचार्य है वह केवल ट्रस्टी ही नहीं बल्कि असली मालिक होता है, देखो-विद्या पूर्ण तीर्थ स्वामी बनाम विद्या निधि तीर्थ स्वामी 27 Mad. 435; 442, 454, 455.
महन्तके पदका और कामका कानूनी निर्णय, रसम, रवाजसे तथा शहादत द्वारा साबित किया जायगा, देखो-11 M. I. A. 405; 8 W. R: P. C. 25-26 और देखो इस किताबकी दफा ८३२ 'मंदिर और मठ'। दफा ८३८ महन्तके अधिकार
महन्त, स्वामी, गोस्वामी या कोई मठाधीशका दर्जा और अंधिकार शिवायत, पुजारी या मन्दिर अथवा मूर्तिके धर्मादेके मेनेजरसे भिन्न होतें हैं। महन्तके सम्बन्तमें मदरास हाईकोर्ट ने यह राय ज़ाहिर की कि उसकी हैसियत केवल मेनेजर या दूस्टीकी नहीं है यद्यपि वह जायदादका इन्तकाल आम तौरसे नहीं कर सकता फिर भी वह उस सब आमदनीको जो मठ की जायदादसे प्राप्त हो और जो कुछ भी चढ़ावा या दक्षिणा श्रादि आये खर्च करनेका पूरी तौरसे अकेला अधिकार रखता है। उस धर्मादेमें बँधे हुए जो खर्च हैं उनको महन्त ज़रूर पूरा करेगा सब खर्चोंके होनेके पश्चात् जो रक्रम बचे उसे वह उस सम्प्रदाय और सदाचार, सद्व्यवहारानुसार सब खर्च कर देनेका पूरा अधिकार रखता है कानूनन् उससे कोई हिन्दू उस खर्च की रकमका हिसाब नहीं ले सकता, देखो-27 Mad. 435-455.
अगर महन्तको किसीसे इस मतलबके लिये कोई जायदाद मिली हो कि वह उसे किसी निश्चित समयमें निश्चित किये हुए खैरातके काममें लाये तो महन्त उस जायदादका दूस्टी है और अगर मठ या मंदिरका कोई रवाज हो कि अमुक क़िस्मकी रक़म अमुक खैरात या दूसरे काममें ही खर्च की जाती है तो भी वह इसके लिये ट्रस्टीकी हैसियत रखेगा। अदालत यह
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धार्मिक और खैराती धर्मादे
[सत्रहवां प्रकरण
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स्याल करेगी कि जो जायदाद किसी खास मतलबके लिये अर्पण कर दी गयी है तो महन्त उस जायदादकी आमदनी वसूल करके उस खास मतलबके पूरा करनेका दूस्टीकी हैसियतसे अधिकार रखता है, देखो 33 Mad. 265 F.B.
__ यह दावा स्वामी विवेकानन्दने देवमूर्ति की तरफसे जायदाद पानेके लिये किया था। महन्त अजोध्यापुरी के एक रिश्तेदारने यह जायदाद बेच दी थी यह जायदाद जब देवमूर्ति में लगाई गयी थी तो उसके वारेमें कोई नियम महीं किया गया था मुहालेहका कहना यह था कि जायदाद तो देवमूर्ति की अवश्य है पर देवमूर्तिकी तरफसे स्वामी जी दावा नहीं करसकते । यह दावा बहैसियत शिवायात या पुजारीके नहीं दायर किया गया था स्वामी विवेका नन्दने देवमूर्ति की तरफसे दायर किया था अदालतने माना कि ऐसा दावा दायर हो सकता है। स्वामी जी का लाभ जाती मूर्तिके विरुद्ध कुछ नहीं है, देखो-21 A. L. J. 148; 1923 A. I. R. 160 All.
महन्त भुवनगिरि, पाकरी खेमकरनकी गद्दीके महन्त थे उन्होंने मन्दिर की जायदाद मुन्तकिल कर दी। रामरूपगिरिने यह दावा किया कि भुवनगिरि मर गये हैं, जो जायदाद देवस्थानकी उन्होंने मुन्तकिलकी थी जायज़ ज़रूरत के लिये नहीं की थी मसूत्र की जाय । सुबूत यह हुआ कि भुवनगिरि ज़िन्दा हैं दावा खारिज हुआ और हाईकोर्टने तय किया कि मठका दृस्टी मठका महन्त नहीं माना जायगा, महन्तके अधिकार, ट्रस्टीसे ज्यादा होते हैं, मठ की जायदाद की वापिसीका दावा, मुन्तकिल होनेकी तारीखसे १२ सालके अन्दर होना चाहिये, देखो-3 P. L. T. 352. दफा ८३९ महन्तका आमदनी पर आधिकार
अगर कोई खास रवाज या कोई आशा बाधक न हो तो महन्त धर्मादेकी कुल आमदनीके खर्चका हिसाब किसीको देनेके लिये बाध्य नहीं है कोई हिन्दू उससे हिसाब नहीं मांग सकता अदालत उसे हिसाब देनेके लिये हुक्म न देगी लेकिन उसका यह कर्तव्य है कि उस आमदनीसे मठका उद्देश पूरा करे और फिर जो बचे उसे अपनी इच्छानुसार खर्च करे महन्त न तो लाइफ-टेनेन्ट (Life tenant) है और न ट्रस्टी ( Trustee ) देखो--33 Mad. 265, 10 Mad. 375; 27 Mad. 435; 12 Bom. H. C. 214, 20W. R.C. R. 471.
मूलधन-मठके मूलधन पर महन्तका अधिकार ठीक उतना ही है जितना कि मन्दिरके मेनेजरका मन्दिरकी जायदाद पर होता है-देखो इस किताबकी दफा ८५८. दफा ८४० महन्तका पागल होजाना
अगर कोई रवाज बाधक न हो तो पागल हो जानेकी सूरतमें भी मठाधीश या महन्त अपने अधिकारोंसे बंचित नहीं होता; देखो-27Mad. 435. किन्तु मन्दिरका शिवायत या पुजारी आदि हो जाते हैं।
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धर्मादेकी संस्थाके नियम
दफा ८३३-८४३ ]
दफा ८४१ मठका मेनेजर साधु होना जरूरी नहीं है
यह ज़रूरी नहीं है कि मठका मेनेजर मी साधु हो, उसका साधु होना या न होना ज़रूरी है या नहीं यह बात प्रत्येक मठके रवाज पर निर्भर है- 14 Mad. 1; इसमें यह भी माना गया है कि कई सूरतोंमें मठाधीश विवाहा हुआ आदमी भी हो सकता है, यह सिद्ध है कि धर्मपत्नी और संतान रखने वाला श्रादमी मठका महन्त या आचार्य हो सकता है ऐसी भी किसी किसी धार्मिक संस्थाकी रवाज है । परमहंस, परिब्राजकाचार्य रामानुज वैष्णव संप्रदायमें विवाहित और सन्तान वाले पुरुष, आचार्य होते हैं। दक्षिणके गोसाइयोंमें और अन्यकई स्थानोंमें महन्त व्याह कर लेनेके कारण अपने हक़ और अधिकारोंसे बंचित नहीं होता; देखो - रामभारती जगरूप भारती गोसाई बनाम सूरज भारती हरिभारती मन्हत 5 Bom. 683,
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दफा ८४२ निजकी जायदाद
मठका महन्त अपनी निजकी जायदाद भी रखसकता है और उसकी वह जायदाद मटकी जायदाद नहीं समझी जायगी - 26 Mad. 79; लेकिन बम्बई में ऐसा माना गया है कि मठाधीशके सम्बन्धमें यह समझा जाता है कि उसके कोई निजकी जायदाद नहीं है और जब वह मठके उद्देश पूरा करने के लिये क़र्ज़ लेता है तो मठकी ही जायदाद पर लेता है। देखो - शङ्कर भारती स्वामी बनाम बेकम्पा नायक 9 Bom. 422.
दफा ८४३ महन्त की नियुक्ति और वरासत
महन्त या मठाधीश या आचार्यकी नियुक्ति हर एक खास संस्था और संप्रदायके रसम रवाजके अनुसार होती है जो हर हालतमें साक्षियों से साबित की जायगी: देखो- -11 M. I.A. 405; 9. W. R. P. C. 25; 13. I. A. 100; 9 All. 1; 10Mad.490; 70. W. N.145; साधारणतः यह माना जाता है कि महन्त या मठाधीशके चेलोंमें से कोई एक चेला, जिस चेलेको मृत या वह महन्त या मठाधीश जिसनेगद्दी या मठ आदिके सब काम छोड़ दिये हों बता गया हो या वसीयत कर गया हो तो वही बेला उसके स्थानपर बैठेगा, देखो - गणेशगिरि बनाम उमरावगिरि 1 Ben. Sel. R. 218; 7. C. W. N. 145, 5 W. R. M. A. 57; 15 0. W. N. 1014; मगर शर्त यह है कि उस तरह की नियुक्ति आस पासके उसी तरहके मठ या गद्दीके महन्त या मठाधीश मंजूर करते हों; देखो - रामजीदास महंत बनाम लच्छूदास 7 C. W. N. 145, Ben. S. D. A. 1848. P. 253; 11 Mad. I. A. 405; 11 Bom. 514; 30 I. A. 150; 16. Mad. 490; 1 All. 519; 8 W. R. P. C. 25; 6 Ben Sel. R. 262.
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१०२८
धार्मिक और राती धर्माद
[सत्रहवां प्रकरण
अगर कोई महन्त या मठाधीश ज़बानी या वसीयतके द्वारा किसी चेले को अपनी गद्दी पर नियुक्त न कर गया हो तो उस सूरतमें साधारण नियम यह है कि आस पासके महन्तों या मठाधीशोंकी सम्मतिसे कोई व्यक्ति नियुक्त किया जायगा जो सब तरहसे योग्य और उचित हो, देखो गणेयगिरि बनाम उमरावगिरि 1. Ben. Sel. R. 2 ed. P. 291; 1 All. 539.
संन्यासियोंमें आमतौरसे मृतगुरुकी जायदाद चेलेको उत्तराधिकारमें पानेका हक़ नहीं माना जाता इसलिये गुरुको किसी चलेकी नियुक्ति स्पष्टकर देना चाहिये किन्तु वह नियुक्ति उसके संप्रदायके महन्तोंके विरुद्ध न हो। यदि गुरुने किसी चलेको नियुक्त न किया हो तो उसकी जायदादका वारिस, दूसरे महन्तों और सम्प्रदायके प्रधान प्रधान पुरुषों के द्वारा चुना जायगा किन्तु यह कायदा सर्व व्यापक नहीं है क्योंकि कुछ मुकद्दमोंमें रवाजके अनुसार गुरु संयासीका प्रधान चेला नुरुकी जायदादका अधिकारी हुआ जिसे मृत गुरुने नियुक्त नहीं किया था और न वह दूसरे महन्तोंके द्वारा चुना गया था मगर तो भी ज़ाहिरा तौरसे यह उचित है कि संप्रदायके लोगों के उचित मंतव्यके विरुद्ध न हो, देखो-रामधन पुरी गोसाई बनाम दलमरपुरी 14 C. W. N. 191; गोपालदास बनाम कृपाराम Ben. S. D. A. 1850. P. 250.
बड़े चेलेका हक़-मौरूसी मठके अन्तिम महन्त द्वारा किसी जायज़ नामज़दगीके न होनेपर बड़ा चेला वारिस होता है-गोबिन्द रामानुजदास बनाम रामचरनदास 52 Cal. 748; 29 C. W. N. 931; 89 I. C. 804; A. J. R. 1925 Cal 1107. . नीचे के मुकद्दमे देखो-साधारण कायदा यह माना गया है कि एक प्रदेशमें एक ही संप्रदायके अनेक और दूसरे संप्रदायोंके अनेक मठ होते हैं वे सब संप्रदायके मतभेदको छोड़कर, श्रापसमें मिले हुए रहते हैं इन भिन्न भिन्न किस्मके सम्प्रदायोंके प्रत्येक मटोंमें महन्त या मुख्याधिष्ठाता होता है
और जब उनमेंसे कोई एक महन्त या मुख्याधिष्ठाता मर जाता है तो दूसरे संप्रदायके महन्त या मुख्याधिष्ठाता मृत महन्त या मुख्याधिष्ठाताका उत्तरा धिकारी निर्वाचित करते हैं । जहांतक मुमकिन होगा वे मृतके किसी योग्य. चलेको निर्वाचित करेंगे और अगर इसका कोई भी चेला इस योग्य न हो तो दूसरे संप्रदायके किसी महन्तका कोई चेला निर्वाचित किया जायगा। मृतका स्थानापन्न नियुक्त करने के पश्चात् मृतके सम्प्रदायानुसार उस चेलेका अभिषेक (टीका) किया जायगा और दूसरी सब रसमेंकी जायगी जो उस सम्प्रदाय या पंथके लिये आवश्यक हैं। देखो-19. W. R. C. R. 215.
10 Mad. 375 वाले मुकद्दमे में माना गया कि मंहतके अधिकार अपने उत्तराधिकारी निर्वाचित करने में सीमाबद्ध हैं क्योंकि वह 'अधिनाम' या
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दफा ५४४]
धर्मादेकी संस्थाके नियम
१०२१
'उपाधि' धारकों के विरुद्ध नहीं कर सकता। योग्य रीतिसे महन्तके नियुक्त न करने की सूरतमें उस मठके चेलोंको अधिकार है कि उस महन्तके पश्चात् जब ऐसा फिर समय आवे तो वे योग्य नियुक्ति होनेके लिये बाध्य करें मगर ऐसा अधिकार नहीं है कि महन्तके नियुक्त किये जा चुकने पर ऐसा उजुर पेश करें कि उसकी नियुक्ति योग्य रीतिले नहीं हुई। देखो-22 Mad. 117.
धर्मादाके क़ायदों के अनुसार जिस महन्तकी नियुक्ति कीगयी हो उसे छोड़कर किसी महन्तको ऐसा अधिकार नहीं है कि सिर्फ अपनी नियुक्तिके कारण कोई विशेष लाभ प्राप्त कर सकनेके लिये कोई शर्त उसमें जोड़ दे। देखो -- 27 I. A. 69; 2 Mad. 271; 14 C. W. N. 329; 2 Bom. L...R. 597; 4 I. A. 763 1 Mad. 235; 34 Cal. 828; 11 C. W. N. 788 S C. 35 Cal. 226; 12 C. W. N. 323, 3 C. L. R. 11295 Mad.89%8 15 Mad. 389; 7 Mad. 337; 19 M. 211.
गुरु बन्धूने चेलेपर दावा किया कि मठका गुरू मैं नियत किया जाऊं। गुरू रामगिरि मरनेसे पहले काविलकरको अपना उत्तराधिकारी नियत कर गये थे इसलिये काविलकरका जवाब था कि मुद्दईको गुरू मियत होने का अधिकार नहीं है । गुरूने कोल्हापुर दरबारसे काविलकरको चेला बनानेके लिये श्राचा प्राप्तकी थी। चेला बनानेसे पहले गुरूने उसे कामकाज सीखने के लिये दूसरी जगह भेज दिया और अपने मरनेके समय गुरूने जब बुलाया तब वह अभाग्यवश न आ सका और गुरूका स्वर्गधाम होगया. इससे यह माना गयां कि गुरू अपना उत्तराधिकारी काविलकरको बनाना चाहते थे। तय हुआ कि मुद्दईका दावा खारिज हो,गद्दीधर साधुओंमें अगर महन्त यागुरू अपना उत्ता राधिकारी नियत करदे,चाहे वह उनके पंथ या सम्प्रदायका न भी हो तो जाय. दाद गद्दीकी उसे मिलेगी । गुरुबन्धुका हक चेलेसे पीछे है, देखो-24 B. L.R.707.
गुरू चेलेका सम्बन्ध, पिता-पुत्रके भांति माना जाता है । एक गुरूका चेला उस गुरूके, गुरूका पौत्र है। एक गुरूके दो चेले आपसमें भाई भाई माने जाते हैं। जैसे पिताके मरनेपर पुत्र जायदादका अधिकारी होता है वैसेही गुरूके मरनेपर उसका चेला जायदादका अधिकारी होता है, देखो-महन्त नन्दकिशोरदास बनाम कालाबाई 94 I. C. 703; 1926 A. I. R.351Nag. दफा ८४४ इन्तकाल
खास सूरतोंके पैदा होनेके कारण मठाधीश महन्त या मुख्याधिष्ठाता अपने धार्मिक कामों तथा पूजन आदिके अधिकारको अपने ऐसे उत्तराधि: कारीके नाम इन्तकाल कर सकता है जो सब तरहसे उन धार्मिक कामों और पूजन आदिके करने के योग्य हों, देखो-मंछाराम बनाम प्राणशंकर 6 Bom.
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धार्मिक और राती धर्मादे
[सत्रहवां प्रकरण
2983 6 Bom. H. C. 250; 13 C.W. N. 642, 36 Cal..975; 13C.W. N. 1084; 15 Mad. 183.
इस प्रकारका इन्तकाल ऐसा होता है कि मानो मठाधीश या मुख्याधिष्ठाताने अपने अधिकारको छोड़ दिया इससे ज्यादा इसका और कुछ मतलब नहीं है। यही राय मिस्टर मेनकी है, देखो - मेन हिन्दूला 7 ed. P.581.
महन्त दशरथ भारती अजोध्यामें परेला स्थानके महन्त थे उन्होंने एक मकान हरस्वरूपके पूर्वजोंके पास रेहन किया था। हरस्वरूपने रेहनकी डिकरी प्राप्तकी और मकान नीलाममें चढ़वाया तब विश्वनाथ भारतीने दावा किया कि मैं दुर्गाभारतीका चेला हूं और दुर्गाभारती दशरथ भारतीके चेले थे। मकान परेलाके मन्दिर में लगा है अदालत मातहतने फैसला किया कि यह मकान मन्दिरकी आमदनीसे खरीदा गया था, और रेहन किसी जायज़ ज़रूरतके लिये नहीं किया गया, भारती उन साधुओं में हैं जो विवाह नहीं करते वे नाबालिगोंको चेला बनाते हैं। तय हुआ कि जब कोई जायदाद जो सार्व. जनिक काममें लगी हो रेहन की जाय तो रेहन रखने वाले (मुरतहिन ) को साबित करना चाहिये कि रेहन जायज़ ज़रूरतके लिये किया गया था। दावा डिकरी हुआ यानी रेहन नाजायज़ करार पाया, देखो-66 I. C. 41b.
ठाकुर मुकुन्दसिंह वगैरा बनाम महन्त प्रेमदास 1922 A. I. R. 122 Nag. वाले मुकदमे में यह बात थी कि एक मौज़ा सन् १८४४ ई. में महन्त जानकीसेवकका था, सन् १८५५ ई० में महन्त जानकीसेवकके मरनेपर महन्त मोहनदास उसके मालिक हुए सन् १८६० ई० में वे मर गये और महन्त रघु. बरसरन मालिक हुये। सन् १८६१ ई० के बन्दोबस्तमें इस मौजेके मालिक महन्त रखुबरसरन लिखे गये । सन् १८६३ ई० में महन्त रघुबरसरनके मरने पर महन्त वृन्दाबनदास मालिक हुए, महन्त बृन्दावनदास ने ३६६६) रु० पर उस मौजेको रेहन कर दिया और मर गये उनके बाद महन्त प्रेमदास मालिक हुये उन्होंने दावा किया कि जायदाद मन्दिरकी है महन्त वृन्दावन दासको रेहन करनेका अधिकार न था। उस मौजकी आमदनी मन्दिरको दी जाती थी। तय हुआ कि किसी जायदादकी आमदनी अगर मन्दिरको दी जाती हो तो महज़ उस वजहसे यह नहीं माना जा सकता कि वह जायदाद मन्दिरकी है (2 Cal.341 ). किसी महन्तकी निजकी जायदाद हो सकती है और वह महन्त या साधू अपनी इच्छासे अपनी निजकी जायदादका मुनाफा जव मन्दिरको देता रहे तो वह मुनाफाका रुपया ऐसा माना जा सकता है कि मन्दिरको कर्जा दिया गया है।
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दफा ८४५]
धर्मादेकी संस्थाके नियम
१०३६
ट्रस्टी, मेनेजर, शिवायत या पुजारी और महन्त आदिके
कर्तव्य और अधिकार
दफा ८४५ ट्रस्ट
जायज़ धर्मादा कायम करने के लिये यह ज़रूरी नहीं है कि कोई दृस्टी या मेनेजर ज़रूरही मुकर्रर किया जाय यह बात 25 Cal. 112 और 12Bom. 247. वाले मामलोंमें तय होगयी है। लेकिन धर्मादेका जैसा वह काम है उसके लिये कोई दूस्टी या मेनेजर या दूसरा कोई प्रबन्धक मुकर्रर करनाही पड़ता है। देवमूर्तिके लिये धर्मादेके तौरपर दी हुई जायदादका दूस्ट मुकर्रर करना यद्यपि कानूनन् ज़रूरी नहीं है परन्तु फिर भी कोई आदमी उसकी जायदाद के प्रबन्ध करनेके लिये अवश्य होना चाहिये क्योंकि देवमूर्ति स्वतः जायदाद का प्रबन्ध नहीं कर सकती।
यदि किसीने कोई धर्मादा कायम किया तथा उस धर्मादेकी स्वाभा. विक स्थिति ऐसी है कि जिसमें ट्रस्टका होना अत्यावश्यक हैमगर वह ट्रस्ट बनानेसे पूर्व ऐसी अवस्थामें मर गया कि उसकी ऐसी इच्छा रहनेपर भी उसको कार्यमें परिणत करनेका अवसर न मिला या अधरा काम छोडकर मर गया तो ऐसी सरतमें धर्मादा कायम करने वालेके वारिस-या वारिसोंको दस्ट कायम कर देने और दूस्टका काम पूरा कर देनेका अधिकार है मृतके उहे. शानुसार ट्रस्ट बना सकते हैं। कोई आदभी उसके प्रबन्धके लिये ज़रूरही मुकर्रर करना पड़ता है, देखो-2 I. A 145; 14 B. L R. 450.
दूस्टकी वरासत-तय हुआ कि धार्मिक संस्थाओंमें दूस्टका उत्तराधिकार उन शीपर होता है जिनपर कि ट्रस्ट कायम किया गया था, किन्तु जब कोई खास ट्रस्ट नहीं होता, तो उस संस्थाके रिवाजके अनुसार होता है। जन्ती और दुबारा ग्रांटकी सूरतमें यह कानून है कि दुबारा ग्रांटमें कोई शर्त न होनेपर वह पुराने गैर बटवारेकी रीतिके अधीन होता है। केवल इस कारणसे कि दुबारा ग्रांट हुआ है, उस समय तक पालन किये हुये उत्तरधिकारका नाश नहीं होता । जब किसी प्रकारका कोई समान मार्ग न हो, उस समय सबसे प्रथम उस संस्थाके हितपर विचार किया जाना चाहिये। अय्येश्वर्य नन्दजी साहेब बनाम शिवाजी राजा साहेब A. 1. R. 1926Mad. 84; 49 M. LJ. 568. दफा ८४६ स्त्रियां मेनेजर हो सकती हैं
कोई स्त्री केवल स्त्री होनेके कारण धर्मादेकी जायदादका प्रबन्ध करने के अयोग्य नहीं है परन्तु वह उस धर्मादेके सम्बन्धके धार्मिक कृत्य शास्त्रा
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धार्मिक और खैराती धर्मादे
[ सत्रहवां प्रकरण
नुसार-सम्पादन नहीं कर सकती, देखो - आनकी देवी बनाम गोपाल आचार्य 10 I. A. 32; 9 Cal. 766; 13 C. L. R. 30; 16 W. R. C. R. 282; 19 I. A. 108; 19 Cal. 513; 3 Bom. H. C. A. C. 75.
१०३२
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दफा ८४७ धर्मादेके स्थापकका ट्रस्टी होना
जिसने धर्मादा क़ायम किया हो वह अपने धर्मादेका खुद भी ट्रस्टी हो सकता है लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि अगर धर्मादेका कोई ट्रस्टी न हो तो धर्मादा क़ायम करने वाला ज़रूर ही ट्रस्टी माना जाय; देखोरघुवरदयाल बनाम केशवरामानुजदास 11 All 18; 18 W. R. C. R. 39; यह बात तब होती हैं जब धर्मादा वसीयतके द्वारा क़ायम न किया गया हो ।
दफा ८४८ ख़ानदानी देवमूर्तिको खर्च न मिलेगा
अगर धर्मादेके साथ कोई जायदाद या स्ट्रट न हो तो खानदानकी देवमूर्ति के लिये खर्च देनेको खानदानका कोई भी मेम्बर वाध्य नहींहो सकता देखो - 5 W. R. C. R. 29
दफा ८४९ शिवायत
जो आदमी किसी धर्मादेके मन्दिर या मूर्ति की पूजा आदिका प्रबन्ध और देखरेख रखता है उसे शिवायत या पुजारी कहते हैं शिवायत अपने काम करने के गुणों से होता है और उस मन्दिरमें लगी हुई जायदादका प्रबंध करता है जिसका कि वह शिवायत है मन्दिरमें लगी हुई जायदाद के सम्बन्धमें वह ट्रस्टी की हैसियत रखता है और मन्दिरके पूजा पाठ आदिके सम्बन्ध में जो काम करता है वह उसका कर्तव्य कर्म है इस बात में उसकी हैसियत कुछ ज्यादा होती है ।
पुजारी केवल शिवायतका नौकर होता है । वह उसके अधिकारोंका दावा नहीं कर सकता । श्रीपति चटर जी बनाम खुदीराम बनरजी 41 C. L. J. 22; 82 I. C. 849; A. I. R. 1925 Cal. 442.
शिवसूरी बनाम मथुरानाथ 13M.I.A. 270 - 273 के मुक़द्दमे में जुडीशल कमेटीने कहा कि शिवायत के कब्जे में जो जायदाद रहती है वह उसका क़ानूनी क़ब्ज़ा नहीं है वह केवल धार्मिक धर्मादेके मेनेजरकी हैसियतसे क़ाबिज़ रहता है क्योंकि जायदादकी आमदनी देवमूर्ति की सेवाके लिये अर्पणकी गयी थी इसलिये देवमूर्तिमें लगी हुई जायदाद, आमदनी, चढ़ावा, सब उस देवमूर्तिका है शिवायतका नहीं है। शिवायत जो कुछ पाता है वह अपने काम करने के बदले में पाता है । धर्मादेकी जायदाद में शिवायतका कोई हक़
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दफा ८४७-८५०]
धर्मादेकी संस्थाके नियम
१०३३
नहीं है वह सिर्फ मेनेजरकी उपाधि मात्र रखता है। देखो-शिवेश्वरीदेवी बनाम मथुरानाथ 13 M. I. A. 270; 13 W. R. P. C. 18-1975 Bom. L. R. 932.
जायदाद उस देवताकी होती है, शिवायतको अधिकार है कि मूर्ति और उसकी जायदाद अपने अधिकारमें रखे । अधिकार सम्बन्धी दावेकी तमादी कब होती है ? इस बातके लिये देखो ( 1910) 15 C. W. N. 36.
इङ्गलिशलॉ के अनुसार शिवायतकी हैसियत ट्रॅस्टीकी तरह, जिसके हक्रमें जायदादके अधिकार दिये जाते हैं, नहीं होती। शिवायत केवल मेनेजर होता है और जायदाद देवताके नाम अर्पितकी जाती है। शिवायतके अधि. कारमें उसका कब्ज़ा और प्रबन्ध रहता है और उसे अदालतके अधिकार प्राप्त होते हैं यद्यपि जायदाद श्रीठाकुरजीपर समर्पितकी जाती है-श्री श्रीगोपाल जी ठाकुर बनाम राधा विनोद मण्डल 41 C. L. J. 396, 88 I. C. 616; A. I. R. 1925 Cal. 996.
शिवायत का उत्तराधिकार असली ग्रांट के अनुसार होता है किन्तु जब उसमें कोई खास हिदायत न हो, सो दावा का वारिस उत्तराधिकारी होता है-श्रीपति चटरजी बनाम खुदीराम बनरजी 41 C. L.J. 22782 I.C. 840; A.J. R. 1925 Cal. 442. दफा ८५० मूर्तिके चढ़ावेका हल
मूर्तिपर जो कुछ चढ़ावा चढ़ता है उसमें शिवायत या पुजारीकी क्या हक्क है यह बात चढ़ावा की किस्मपर निर्भर है अगर कोई जल्द नष्ट हो जाने घाली खाने पीने की चीज़ हो तो उसे अवश्य पुजारी या दूसरा ब्राह्मण लेगा। लेकिन अगर मूर्ति प्रसिद्ध एवं प्राचीन है और सार्वजनिक पूजनके लिये स्थापित है और उसपर रुपया या धातुकी चीजें या ऐसाही कोई स्थाई चढ़ावा चढ़े तो वह उस मंदिर और मंदिरके सम्बन्धके सब कृत्यों और खैरातके खर्च के लिये समझा जायगा यानी वह उस मंदिरकी सम्पत्ति माना जायगा। वह चढ़ावा पुजारी या शिवायतकी निजकी जायदाद नहीं बन सकता । लेकिन अगर धर्मादा स्थापित करने वालेने इसके विरुद्ध प्राज्ञादी हो तो दूसरी बात है। देखो--गिरिजानन्द दत्तझा बनाम शैलानन्द दत्तझा 23 Cal. 645.
प्रश्न यह था कि हिन्दूलॉ के अन्तर्गत धार्मिक दान लेने के लिये देवमूर्ति का क्या मुसलमान पुजारी हो सकता है ? तय हुआ कि अगर रवाजके अनुसार मुसलमान माली को देवमूर्तिके पूजा करनेका अधिकार प्राप्त है तो वह पूजा करने का अबभी अधिकारी है पूजा करना और चढ़ावा लेना दोनों काम एक दूसरेसे सम्बन्ध रखते हैं इसलिये यह दोनों अधिकार मुसलमान
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धार्मिक और खैराती धमादे
[सत्रहवां प्रकरण
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पुजारीको प्राप्त हो सकते हैं । मुराई, काछी और मालीमें बहुत कम फरक है। माली, काछीके बराबर माना जाता है-देखो-1923 A.I.R. 165All. दफा ८५१ क़ब्ज़ा और प्रबन्धका अधिकार
धर्मादेकी जायदादके कब्जे और प्रबन्धका अधिकार शिवायत या दूसरे मेनेजरको है; देखो-31 I. A. 203; 32 Cal. 129; 8 C. W. N. 809.
कानून जाबता फौजदारी एक्ट नं० ५ सन १८६८ ई० की दफा १४५ की कार्रवाई में अदालत सिर्फ इतना कह सकती है कि किसी मंदिरपर कब्ज़ा किसका है किन्तु वह अदालत मंदिर के चढ़ावे या पुजारीकी जगह काम करने के हकका निर्णय नहीं कर सकती, देखो--38 Cal. 387; 29 Mad. 2373 37 Cal. 578.
शिवायत सिर्फ मेनेजर है लेकिन धर्मादे सम्बन्धी अदालती सब कारीवाई और मुक़द्दमे आदि उसीके नामसे चलते हैं; देखो-15 B. L. 318; 27 Mad. 435; मूर्ति की जायदाद या धर्मादेके लाभ या रक्षाके लिये जो कुछ जरूरी है उसके करनेका शिवायत या पुजारी, या मेनेजर केवल अधिकार ही नहीं रखता बल्लि पाबन्द है-35 Cal. 691.
जैन सम्प्रदायका मशहूर मुक़द्दमाः
बारी बारीसे पूजा करने और अपने धर्मके अनुसार आचार करनेका हक़ हालमें प्रिवी कौन्सिलने हुनासा रामासा वगैरा बनाम कल्याणचन्द वगैरा 1929 A. I. R. 261 Pri. वाले जैनियोंके मशहूर मुक़दमे में माना।
- इस मुकद्दमे में धार्मिक अधिकारों का निर्णय किया गया है ज़िला अकोला (मध्यप्रदेश) में शीरपुर नामका एक स्थान है। यहां एक बहुत प्राचीन जैन मन्दिर है और इसका इन्तिज़ाम सदैवसे श्वेताम्बरियोंके हाथमें रहा है सन् १६०० ई० के लगभग अर्थात् २० वीं शताब्दीके प्रारम्भमें इस मन्दिरके नौकर चाकर खुद ही मन्दिर और मूर्ति के मालिक बन बैठे और असली मालिकोंको ताक़में रख दिया ये नौकर पूजा करने वालोंको तङ्ग करने लगे और उनके साथ बुरा व्यवहार करते थे। यही नहीं बल्कि मन्दिरकी सारी आमदनी खाजाते थे। श्वेताम्बरियोंके हाथमें सिर्फ नाम मात्रके लिये इन्तिज़ाम रह गया था नौकरोंने अपनी मज़बूती करनेकी गरज़से श्वेताम्बरी और दिगम्बरी दोनों फिरकों में लड़ाई कराने की चेष्टाकी मगर ये दोनों फिरके एक हो गये और नौकरोंसे मोर्चा लिया। दिगम्बरियोंने मन्दिरके नौकरों पर फौजदारीके मामले चलाये और उनको फिर नौकरका नौकर बना दिया। दोनों फिरकोंके बराबर बराबर मेम्बरोंकी एक कमेटी बनाई गई थी और उसीके द्वारा सब काम काज तथा इन्तिज़ाम होता था इस एकामें यह समझौता हो गया था कि दिगम्बरी व श्वेताम्बरी दोनों फिरके अपने अपने
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दफा ८५१-८५२]
धर्मादेकी संस्थाके नियम
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विचार व विश्वासके अनुसार पूजा रचा करेंगे। सन् १९०५ ई० में जैनियों की एक सभा हुई जिसमें सारी बातें तय हो गई और एक टाइम टेबिल बना दिया गया जिसके अनुसार दोनों फिरकोंको अपने अपने ढंगके मुताबिक अपने अपने निश्चित समय पर जो कि बराबर बराबर था, पूजा करनेका , इख़्तयार दे दिया गया। बादमें सन् १९०८ ई० के लगभग दिगम्बरियोंने मूर्ति को छील डाला और नग्न कर दिया उसके ऊपरसे पत्थरमें की खुदी हुई पोशाक हटा दी । यह पोशाक लगभग ६० वर्ष पहले श्वेताम्बरियोंने खुदवाई थी। पोशाकके हटाये जाने पर दोनों फिरकोंमें झगड़ा पड़ गया जो लगभग २३ बर्ष तक चलता रहा। यह मुकद्दमा पहले अकोलाके अडीशनल डिस्ट्रिक्ट जजके यहां बहुत अरसे तक चलता रहा। इस मुकदमे में श्वेताम्बरी मुहई थे और दिगम्बरी मुद्दालेह थे बादमें अडीशनल जज साहबके यहांसे फैसला हुआ कि दोनों फरीक मिलकर इन्तिज़ाम करनेके हकदार हैं और जिस तरह से दिगम्बरी चाहें अपने विश्वासके मुताबिक पूजा रवा करें और श्वेताम्बरियोंको उनके काममें हस्तक्षेप करनेका कोई अधिकार न होगा। ___इस फैसलेसे असन्तुष्ट होकर श्वेताम्बरियोंने मध्यप्रदेशके जुडीशल कमिश्नरकी अदालतमें अपीलकी,दिगम्बरी भी उपरोक्त फैसलेसे असन्तुष्ट तो थे ही उन्होंने भी अपने एतराज़ पेश किये अपीलमें जुडीशल कमिश्नरने यह तजवीज़की कि श्वेताम्बरियोंको मन्दिर और मूर्तिके इन्तिज़ाम करने का पूरा२ अधिकार है दिगम्चरियोंको नहीं। दिगम्बरियोंने इस्टापैलकी जो दलील श्वेताम्बरियोंके खिलाफ पेशकी है वह खारिजकी जाती है क्योंकि इस मामले से उसका कोई सम्बन्ध नहीं है पूजा करनेका पूरा अधिकार दिगम्बरियों को दिया जाता है जैसाकि टाइम टेबुलमें लिखा है। यही फैसला प्रिवी कौन्सिल की अदालतने भी ठीक माना है। दफा ८५२ मेनेजरका खर्च और हैसियत
मेनेजरने उचित कामों के लिये मेनेजरकी हैसियतसे जो खर्च किया हो या किसीने उसके पदके पाने के लिये दावा किया हो और उसकी पैरवीमें मेनेजरने जो कुछ खर्च किया हो वह खर्च मेनेजरको या मेनेजरके मरनेके बाद उसके वारिसोंको या अगर मेनेजर वसीयत कर गया हो तो उसकी वसीयतके तामील करने वालोंको, ट्रस्टकी जायदादसे अदा किया जायगा, देखो---37 I. A. 27; 37 Cal. 229; 14 C. W.N. 261.
ऐसे रुपयेके पानेके लिये मेनेजरके वारिस या उसकी वसीयतकी तामील करने वाले जो दावा करें उसकी मियाद ६ वर्षकी है, देखो-कानून मियाद Sch. 1 Art. 120.
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धार्मिक और खराती धर्मादे [ सत्रहवां प्रकरण
हैसियत - जायदाद के लिये मेनेजर ट्रस्टीकी हैसियतमें होता है लेकिन मंदिर की पूजा आदि के लिये उसकी पुजारी की हैसियत है चाहे और भी कोई आदमी पुजारीका काम करते हों; देखो -- 33 I. A. 139; 29 Mad. 283. दफा ८५३ प्राचीन रवाज क़ायम रहना जरूरी है
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मेनेजर या ट्रस्टी का कर्तव्य है कि धर्मादे की संस्थाके प्राचीन रवाज बराबर जारी रखे, अगर न रखे तो वह ट्रस्ट भङ्ग करनेका दोषी होगा और अगर वह जानबूझकर उस रवाजमें कोई खास फेर बदल करे और अदालत से डिकरी प्राप्त करके मन्दिरमें पूजा करने वालोंको वाध्य करे कि वे उस बदले हुये रवाजको माने तो वह और भी ज्यादा दोषी होगा; देखो - 35 I . A. 176; 12 C. W. N. 946; 37 Mad. 435 to 455; ऐसा करने से मेनेजर या ट्रस्टी आदि हाईकोर्टके हुक्म इमतनाईके द्वारा रोका जासकता है, देखो -- 80Mad. 168.
यदि कोई शिवायत मूर्तिको अपने घरमें प्रतिष्ठित करके पूजा करे और अदालतको यह आवश्यक मालूम हो तो अदालत उसे ऐसा करनेको आज्ञा देगी मगर शर्त यह है कि उस मूर्तिका स्थापक इसके विरुद्ध आज्ञा न दे गया हो -- 19 W. C. R. 28.
इन्तज़ाम सम्बन्धी कोई काम अगर किसी रवाज के अनुसार होता हो और वह रवाज उचित हो तो वह काम वैसाही होगा । उदाहरणके लिये जैसे कहीं ऐसी रवाज हो कि मरम्मतका खर्च किसी खास फण्डमें से दिया जाय तो वह वैसाही किया जायगा देखो - 17 Mad. 199,
दफा ८५४ बहुमत माना जायगा
ट्रस्टकी जायदाद के इन्तज़ामकी प्रत्येक बातका उचित विचार करने के पश्चात् अधिकांश ट्रस्टियोंकी जो रायहो वही मानी जायगी और उस रायके पावन्द न्यून पक्षके ट्रस्टी भी होंगे यानी वे कभी ऐसा उजुर नहीं कर सकते कि उस बातपर हमारी राय नहीं थी इसलिये हम पाबन्द नहीं हैं; देखो—–6 Mad. 270; 34 Mad. 406; लेकिन अगर वह बात ट्रस्टियों के अधिकारके बाहर हो या क़ानूनके विरुद्ध हो तो उसका पाबन्द कोई ट्रस्टी न होगा, देखो - 30 Mad. 103.
दफा ८५५ आमदनीका ख़र्च
मेनेजर, शिवायत, जायदादकी कुल आमदनी धर्मादे के उद्देशों केलिये.. खर्च कर सकता है, देखो - गिरजानन्द दत्तझा बनाम शैलजानन्द दत्तझा ( 1896 ) 23 Oal. 645 के मामले में दोनों फरीक़ एक मंदिर के ओझा या
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दफा ८५३-८५८]
धर्मादेकी संस्थाके नियम
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पुजारी होने का दावा करते थे किन्तु उनके परस्पर यह निश्चित हुआ कि मंदिरके चढ़ावेका एक भाग दूसरा पक्ष लिया करे अदालतने इस इन्तज़ामको स्वीकार कर लिया। दफा ८५६ हिसाब
शिवायत या मेनेजर या दृस्टीसे धर्मादे की जायदादका और मूर्तिके चढ़ावे या दान आदिका हिसाव लिया जा सकता है। देखो-8 Bom. 4323 21 Bom. 247; 28 I. A. 199; 4 I. W. N. 2332 Bom. L. R. 5163B 23 Bom. 669; 35 Cal. 226; 12 C. W. N. 323, दफा ८५७ मंदिरके सम्प्रदाय
हिन्दु मंदिरोंके साथ जो सम्प्रदाय या अखाड़े लगे होते हैं उनके नियम एकसे नहीं होते, कहां किस समाजके या सम्प्रदायके क्या नियम हैं? यह मालूम करके उन्हीं नियमोंके अनुसार अदालत सब तरहकी कार्रवाई करेगी. देखो-1 I. A. 209-228. दफा ८५८ मेनेजर, शिवायत और महन्त आदिके अधिकार
(१) शिवायत, महन्त, या धर्मादेके अन्य मेनेजरको अधिकार है कि-धर्मादेके लाभ और उसकी रक्षाके लिये और विशेषकर उन मुकद्दमोंसे बचानेके लिये जो उस धर्मादेके विरुद्ध दायर किए जायं उस धर्मादेकी जायदादको काममें लावें, देखो-हुसेन अलीखां बनाम भगवानदास महन्त 34 Cal. 249; 11 C. W. N. 261; 35 Cal. 691-6987 12 C. W.N. 550-557.
__ संयुक्त शिवायत देवोत्तर सम्पतिके लाभके लिये नियमों में इस प्रकार परिवर्तनकर सकता है कि उनसे धर्मकर्ताके असली मामलेके नियमोंमें कोई परिवर्तन न हो-श्रीपति चटरजी बनाम खुदीराम बनरजी 410. L.J. 22; 82 I. C. 840; A. 1. R. 1925 Cal. 442.
शिवायत जायदादका अधिकारी नहीं होता, बल्कि उसके अधिकार एक नाबालिग्रके वलीकी तरह होते हैं-श्रीपति चटरजी बनाम खुदीराम बनरजी 41 C. L.J. 22; 82 I. C. 840; A. I. R. 1925 Cal. 442..
(२) उनको अधिकार है कि मूर्तिकी सेवाके लिये जो कुछ भी आवश्यका हो पूरी करें और धर्मादेकी जायदादके लाभ और रक्षाके लिये वहां तक उद्योग करें जहांतक कि 'एक बच्चा नाबालिगकी जायदादका मेनेजर' करसकता है-प्रसन्न कुमारी देवी बनाम गुलाबचन्द बाबू 2 I.A. 145, 14 B.L. R. 450; 23 W. R. C. R. 253.
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धार्मिक और खैराती धर्मादे
[ सत्रहवां प्रकरण
(३) मेनेजरके जो साधारण अधिकार होते हैं वही धर्मादेके मेनेजर के होते हैं । मेनेजर धर्मादे की जायदादकी ज़मीन रवाजके अनुसार पट्टे पर उठा सकता है और उचित समयके लिये पट्टा दे सकता है, देखो--13 M. I. A. 270; 13 W. R. P.C. 18 अगर वह अनुचित मुद्दतके लिये पट्टा दे तो वह पट्टा उसी समय तक जारी रहेगा जबतक कि वह मेनेजर बना रहेगा, देखो-अहूं मिसर बनाम जगुरनाथ इन्द्र स्वामी 18 W. R. C. R. 439; 20 W. R.C. R. 471; 19 Bom. 271.
(४) स्थायी पट्टा--जिन सूरतोंमें कि धर्मादे की जायदाद का इन्तकाल जायज़ माना जा सकता है उन्हीं सूरतोंमें महन्त या शिवायत या मेनेजर, धर्मादेकी जमीनका स्थाई पट्टा दे सकता है. देखो--अभिराम गोस्वामी बनाम चरणनन्दी 36 I. A. 148; 36 Cal. 1003; 14 C. W. N. 1; 11 Bom. L. R. 1234; 13 C. W. N. 805; 4 Ben. Sel. R. 151; 12 W. R. C. R. 299; 7 B. L. R. 621; 15 W. R. C. R. 2289 22 Cal. 9893 28 Mad. 391; 34 Mad. 535; 19 Mad. 485. .
मंदिरके पुजारी, शिवायतका अधिकार हमेशा के लिये पट्टा देने का हैजब पट्टा देने और लेने वाले दोनों मर गये हों तो माना जायगा कि पट्टा हमेशाके लिये था। ज़मीनका किराया देते रहनेपर पट्टे की ज़मीन बेदखल नहीं होगी। मामला यह था कि अहमदाबादके दिल्ली फाटकके पास कुछ ज़मीन महाराजा सुलतानसिंहने, श्रीरनछोड़जी के वास्ते दी थी २२ फरवरी सन् १५२४ ई० को यह ज़मीन पट्टे पर उठा दी गयी शर्त यह थी कि जो अधिकार पट्टा लिखने वालेको प्राप्त है वही पट्टा लेने वालेको होगा । किराया, मंदिर में पूजा करने वाले महात्मा जी को देने की बात भी लिखी थी। पट्टा देने वालेके खानदान वालोंने बेदखल करना चाहा तब प्रिवी कौन्सिलने तय किया कि १०० वर्ष पट्टा दिये हो गये, देने व लेने वाले मर गये अब यही माना जायगा कि पट्टा हमेशाका था और जायज़ तरीकसे दिया गया था। उन्हें देने व लेने का अधिकार था, देखो-42 M. L. J. 501; 29 C. W. N 473; 20 A. L.J. 371; 24 B. L. R. 574; 66 I. C_162; 19 Mad. 485.
यदि अनुचित रीतिसे ऐसा पट्टा दिया गया हो तो ऐसे पट्टेके रद्द किये जानेके दावाकी तमादीके लिये, देखो-कानून मियाद एक्ट नं०६ सन् १६०८ दफा १-१३४. इसमें कहा गया है कि " ट्रस्ट या रेहनकी हुई गैरमनकूला जायदाद पर फिर कब्जा करने का दावा या वैसी जायदाद ट्रस्टीने या उस आदमीने जिसके पास रेहनकी हुई जायदाद हो, इन्तकाल कर दिया हो तो उसपर फिर कब्जा पानेका दावा, इन्तकाल करने की तादीखसे बारह १२ वर्ष के अन्दर होना चाहिये" इसी विषयमें और भी देखो-अभयराम गोस्वाभी बनाम श्यामाचरण नदी (1909) 36 I. A. 148; 36 Cal. 1003;
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दफा ८५८] धर्मादेकी संस्थाके नियेम
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www.mmmm..m-~(५) पहलेके कामको रद्द करना-कोई मेनेजर या दूसरा दूस्टी अपने अधिकारसे बाहर जो काम करे वह रद्द किया जासकता है और उस मेनेजर या दूस्टीफी जगह उसके पश्चात् श्राने वाला पदाधिकारी या कोई दूसरा आदमी जो उस टूस्ट में कुछ स्वार्थ रखता हो उस कामके रद किये जानेका दावा कर सकता है लेकिन यह दावा कानूम मियादका ख्याल रखते हुए किया जायगा: देखो-13 Mad. 277; 10 Bom. 34.
अगर मठाधीश अनधिकारसे मठका या मठकी जायदादका इन्तकाल करे लेकिन उससे मठ की कोई हानि न होती हो तो ऐसा इन्तकाल मठाधीशं की जिन्दगी तक या उसके मठाधीश बने रहने की मुद्दत तक कायम रहेगा देखो-36 I. A. 148; 36 Cal. 1003; 14. C. W. N. 1; 11 Bom. L. R. 1234; 10 Bom. 34:
(६) कोई श्रादमी जिसका स्वतंत्र कोई हक़ नहीं है और जो सिर्फ उस आदमीकी तरफसे काम करता है जिसे धर्मादा दिया गया था किसी तरहका पट्टा देनेका अधिकारी नहीं माना जायगा; देखो-रामदास बनाम महेश्वरदेव मिसिर 7 W. R. C. R. 446.
(७) अगर कोई विदेशी सरकार किसी धर्मादेसे मेनेजर आदिकों हटा दे तो इससे धर्मादे की जायदाद पर कोई असर नहीं पड़ेगा जो ब्रिटिश इन्डियामें होः देखो-17 Bom. 601; 17 Bom. 620..
(८) दावा दायर कर सकताहै-महन्त, शिवायत, या धर्मादेके अन्य मेनेजरको अधिकार है कि धर्मादेकी रक्षाके लिये या धर्मादे की जायदाद प्राप्त करने के लिये या उसके दूसरे लाभके लिये जब ज़रूरी हो अदालतमें दावा दायर करे और उसकी ठीक पैरवी करे; देखो -शंकमूर्ति मुदालियर बनाम चिदंबरा नादन 17 Mad. 143; 31 1. A 2037 3.2 Cal. 129; 8 C. W. N. 8097 6 Bom. L. R. 765. अगर मेनेजर नाबालिग हो तो उसे कानून मियाद सन् १९०८ की दफा ६ का लाभ प्राप्त होगा यानी बालिगीके बाद भी मियाद मिलेगी। किन्तु वे ऐसा दाका नहीं कर सकते कि धर्मादेकी अमुक जायदादमें सिर्फ हक निश्चित कर दिया जाय, मगर उसके पाने का दावा कर सकते हैं; 33M:d.55 कुछ लोग मन्दिरमें पूजा न करने पावें ऐसे दावे के लिये देखो-शङ्कर लिंगन्ना दान वनाम राजेश्वर दुराई राजा ( 1908) 5 I. A. 176; 31 Mad. 236; 12 C. V. 1.546.
शिवायत पहलेका रुपया वसूल कर सकता है-हिवानामेमें जो शर्ते शिवायत नियत होने की लिखी हों उन्हें कोई तोड़ नहीं सकता शिवायतका हक़ जिसे मिला हो वह अपना यह हक़ दूसरेको दे नहीं सकता । देवोत्तर ( देवमूर्ति ) की जायदादके सम्बन्धमें वही शख्स दावा कर सकता है जिसे
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धार्मिक और खैराती धर्मादे
[सत्रहवां प्रकरण
शिवायतके हक प्राप्त हों। मामला यह था कि उमाचरणदे ने हिग किया कि देवमूर्तिमें लगी जायदादका मैं शिवायत जीवन भर रहूंगा पीछे मेरी बड़ी स्त्री रमणकुमारी दासी हो और उसके मरनेपर मेरी दूसरी स्त्री गौरी कुमारी दासी हो इत्यादि । सरकारी लगान वसूलीका दावा उमाचरणदे के मरनेपर रमण. कमारी दासौदेने किया, उज्र यह था कि वह दावा नहीं कर सकती क्योंकि लगान उमाचरणदे के जीवमके समयका था। तय हुआ कि वह दावा कर सकती है। जो शिवायत होगा वह पहलेके रुपया वसूलीका दावा कर सकता है, देखो-1923 Ail. I. R. Cal. 30.
(8) कर्ज और इन्तकाल -धर्मादेके मेनेजरको अधिकार है कि धर्मादे की पूजा पाठ, मन्दिरकी मरम्मत,या मन्दिर सम्बन्धी दूसरे स्थानों की मरम्मत या मुकद्दमेकी पैरवीके लिये और ऐसे ही धर्मादेके अन्य उद्देशोंके लिये जो कि उचित और आवश्यक खर्च है रुपया कर्ज ले। अगर रुपया नहीं है तो जितनी ज़रूरत हो उसके अनुसार वह जायदाद बेच दे. रेहन कर दे या दूसरा इन्तकाल कर दे, इस विषयमें उसका अधिकार ठीक वैसा ही है जैसाकि
एक बच्चा वारिसके मेनेजर' का होता है; देखो-4 I. A. 527 2 Cal. 341-351; 36 I. A. 148; 36 Cal. 1003; 14 C. W. N. 1; 2 I. A. 145314 B. L. R. 4503 23. W. R. C. R. 2533 34 Cal. 249; 11 C. W. N. 261; 4 I. A. 52; 2 Cal. 341; 24 Cal. 77; 25 All. 296; 31 Mad. 47, 34 Mad. 535.
गहीधर या मठके महन्त द्वारा कर्ज-जब किली गद्दीधर या मठके महन्त के खिलाफ़ किसी ऐसी नालिशमें, जो उस महन्तके पूर्वाधिकारी द्वारा किये हुए कर्जके सम्बन्धमें हो, यदि उस क़ज़ की पाबन्दी उस मठकी जायदाद पर न होती हो, तो कोई डिकरी, उस गत मठके महन्तके उस सरमायेके ऊपर, जो मुद्दालेहके अधिकारमें हो, नहीं दी जा सकती, जब तक कि मुदई यह न साबित करे कि गत महन्त उस मठकी आमदनीकी बचतले, कुछ रक्कम अपने लिये रखता था, जोकि उसका व्यक्तिगत सरमाया है--सुन्दरप्पायर बनाम चोकालिङ्गाथम्बिरान 186 I. C. 291; A. I. B. 1925 Mad. 1059.
____12. W. R. C. R. 293. में कहा गया कि मेनेजरको उतनाही अधि. कार होता है जितना कि सीमावद्ध स्त्री मालिक का होता है। और जनरंजन बनर्जी बनाम अधूर मनीदासी 13. C. W. N. 805 वाले मामले में अदालतने यह माना कि किसी तालाबको पाट का कोई लाभ उठाना, काफ़ी ज़रूरत नहीं है इसलिये ऐसे मतलचसे यदि इन्तकाल किया गया हो नाजायज़ है। यदि असली मेनेजरने नेकनीयतीसे धर्मादे के उचित लाभ के लिये कोई क़र्ज़ लिया हो तो वह पहले पहल ज़ाहिरा तौरसे ऐसा माना जायगा कि जैसे
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दफा ८ ]
धर्मादेकी संस्थाके नियम
१०४५
मानो अनधिकारी मेनेजरने लिया था, मतलब यह है कि क़र्ज़ बहुत सोच समझकर और धर्मादेके उचित तथा आवश्यक लाभके लिये, जितनी ज़रूरत हो उतनाही नेकनीयतीसे लेना चाहिये ।
(१०) ज्ञात पाबन्द नहीं होगी - अगर मेनेजरने क़र्ज़ लेकर लिखत में अपनी जात पाबन्द न की हों तो धर्मादेके क़र्ज़के मामलोंमें उसकी ज्ञात पाबन्द नहीं होगी; देखो - प्यारेमोहन मुकरजी बनाम नरेन्द्र कृष्ण मुकरजी
5 C. W. N. 273.
(११) आमदनी का रेहन - मन्दिर या किसी दूसरे धर्मादेकी संस्थाके अत्यंत आवश्यक कामके लिये जब रुपया क़र्ज लेना हो तो कभी कभी धर्मानें की सालाना आमदनी रेहनकी जा सकती है। यहांपर धर्मादेकी आमदनी से वह आमदनी समझना चाहिये जो धर्मादेकी मूल जायदादकी आमदनी से भिन्न होती है । ऊपर कहे हुए 'अत्यंत आवश्यक' उद्देशके बिना था उसकी सीमा से अधिक कदापि रुपया क़र्ज नहीं लियाजायगा नरायन बनाम चिन्तामणि 5 Bom. 393.
सार्वजनिक कामोंके लिये सरकार जब धर्मादेकी ज़मीन लेकर उसका निःक्रय ( मुआवज़ा ) देती है तो उसकी कार्रवाई क्या होगी इसके लिये देखो - कामिनी देवी बनाम प्रमथनाथमुकरजी 39 Cal. 33. वह उसके मूलधनमें गिना जाता है ऊपर कहे हुए अत्यन्त आवश्यक उद्देशके अतिरिक्त और किसी सूरत में महन्त या मेनेजर या दूसरा ट्रस्टी धर्मादेकी जायदाद का इन्तक़ाल नहीं कर सकता और न उसे रेहन रख सकता है, देखो - 36 I. A. 148; 36 Cal. 1003; 27 I. A. 69; 29 Mad. 117; 39 Cal. 33.
(१२) बम्बई प्रांत की माफ़ी ज़मीन - बम्बई के एक्ट नं० २ सन् १८६३ की दफा ५ क्लाज़ ३ में लिखा है कि 'धार्मिक या खैराती संस्थाओंकी ज़मीन जो सम्पूर्ण रूपसे या कुछ हिस्सेसे माफी हो उसका इन्तक़ाल, नीलाम, या दान आदि किसी प्रकारसे नहीं हो सकता और ऐसी ज़मीन के लिये नज़राना देना होगा ' किसीको इन्तक़ालका अधिकार नहीं है 5 Bom. 393.
(१३) पहले के मेनेजरका क़र्ज़ - पहले के मेनेजरने जो क़र्ज़ क़ानूनी तौर से लिया हो और यह क़र्ज़ चाहे धर्मादेकी जायदाद पर न भी लिया गया हो, उसके लिये पीछे आने वाले मेनेजर पर दावा किया जासकता है, अदालत उस क़र्ज़ की जिम्मेदारी धर्मादेकी जायदाद पर डाल सकती है; देखो31 Mad. 47.
(१४) बिक्रीकी पाबन्दी - पहले के शिवायत या मठाधीश या मेनेजर पर किसी मुक़द्दमे में जो डिकरी हुई हो और उस डिकरीमें जाल फरेब कुछ भी न हो तो पीछे आने वाले शिवायत, मठाधीश और मेनेजर उस डिकरीका
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धार्मिक और खैराती धर्मादे
[सत्रहवां प्रकरण
पाबन्द होगा, प्रसन्न कुमारी देवी बनाम गुलाबचन्द बाबू 2 I. A. 1453 14.B. L. R. 450; 23 W. R. C. R. 253. 11 B. L. R. 3323 12 C. W. N. -739.
(१५) जायदादकी कुर्की-दृस्टी या मेनेजर पर उसके पदकी हैसियतसे उचित रीतिसे डिकरी हुई हो उसमें धर्मादेकी जायदाद कुळकी जा सकती है और नीलामकी जासकती है 35. Cal. 6915 12 C.W.N. 550. लेकिन जो डिकरी मेनेजर या दूस्टीकी ज़ात पर हुई हो उसके लिये उस जायदाद की कुर्की या नीलाम नहीं हो सकता, देखो-15 I. A. 1; 15 Cal. 3297 6 C. W.N. 663.
इस तरहपर कुर्की और नीलाम होनेपर मेनेजर धर्मादेकी तरफसे मंसूखीका उजुर या दावा कर सकता है, देखो-35 Cal. 364; 12 C. W. N. 310. दफा ८५९ मुकद्दमेके फरीक
29 Mad. 106 में माना गया कि जो लोग किसी सार्वजनिक धर्मादेमें पूजा करते हों वे भी उस मुक़द्दमे में फरीक यानी पक्षकार बनाये जायंगे जो कोई दूस्टी किसी धर्मादेकी तरफसे किसी तीसरे फरीकपर दावा दायर करे। किन्तु वे पूजा करने वाले तभी फरीक बनाये जायंगे जबकि अदालत उनका फरीक बनाया जाना दूस्टके लाभके लिये उचित समझे । यह खास करके उस मामलेमें अवश्य होना चाहिये जिसमें कि दृस्टीको पहली अदालतकी डिकरीके अनुसार अपना हक त्याग देना पड़ा हो, देखो--35 I. A. 176; 31Mad. 236. दफा ८६० कानूनी कामकी पाबन्दी
धर्मादेका शिवायत, महन्त और मेनेजर अपने पहलेके पदाधिकारीके कानूनी किये हुये कामोंका अवश्य पाबन्द होगा लेकिन जो काम जाल या फरेबसे किये गये हों उनके पाबन्द वे नहीं होंगे, देखो-1 B. L. R. 3373 17 W. R. C. R. 44.
किसी मूर्तिसे सम्बन्ध रखने वाली जायदादके विषयमें नालिश करने का अधिकार केवल शिवायत को है, किसी अन्य व्यक्ति को नहीं है यदि शिवायत इस प्रकारकी नालिशको दायर करना न स्वीकार करे, तो पुजारी
और स्वयं मूर्ति को यह अधिकार नहीं है कि वे उस जायदादके सम्बन्धमें नालिश दायर करसके-श्री श्रीकाली माता देवी बनाम नागेन्द्रनाथ चक्रवर्ती A. I. R. 1927 Cal. 244.
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धर्मादेकी संस्थाके नियम
दफा ८५-८६३ ]
दफा ८६१ दावाकी मुद्दत
धर्मादे की जिस जायदादका इन्तक़ाल बेक़ानूनी तौरसे किया गया हो उस जायदादपर फिर क़ब्ज़ा पानेके लिये पीछे आने वाला शिवायत, महन्त और मैनेजर दावा कर सकता है ऐसे दावाकी मियाद उस तारीख से शुरू होगी जिस तारीखको उस दूसरे मेनेजर आदिने अपने कामका चार्ज लिया; देखो -- 13 Mad. 277; 13 Mad. 402; 23 Mad. 271; 4 C. W.N. 3293 27 I. A. 69; 2 Bom. L. R. 597; 18 Mad, 266; 23 Cal. 536.
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दफा ८६२ हक़ मुखालिफाना
अगर किसीके क़ब्ज़े व दखल में बारह वर्षसे ज्यादा किसी मूर्ति या शिवायत या किसी धर्मादेकी जायदाद रही हो तो उसमें वह मुखालिफाना हक़ प्राप्त कर सकता है, देखो -- दामोदरदास बनाम लखनदास अधिकारी 37 I. A. 147; 37 Cal. 885; 14 C.W. N. 889; 12 Bom. L. R. 682; 36 Bom. 135; 13 Bom. L. R. 1169.
देवोत्तर जायदाद यदि किसीके क़ब्ज़ेमें हो और वह क़ब्ज़ा कुछ शिवा यतोंके मुक़ाबिलेसें मुखालिफाना हो गया हो तो सब शिवायतोंके मुक़ाबिलेमें मुखालिफाना माना जायगा, देखो - 13 C. W.N. 805. धर्मादेका कोई पदाधिकारी अपनेसे पहले पदाधिकारीके सयमके मुखालिफाना इक्रके विरुद्ध दावा दायर नहीं कर सकता; देखो - 31 Mad. 47 तथा दफा ४१०-१.
कब्ज़ा मुखालिफ़ाना - मियाद मूर्तिके खिलाफ़ वैसी ही लागू होती है जैसीकि शिवाय के खिलाफ़- शिवायतके न होनेपर क़ज़ेकी नालिश मूर्तिके नामपर होनी चाहिये - एडमिनिस्ट्रेटर जनरल आफु बङ्गाल बनाम बालकृष्ण frer 84 I. C. 91; A. I. R. 1925 Cal. 140.
संयुक्त शिवाय के हमें दिया हुआ दान नाजायज़ नहीं होता, यदि वह देवोत्तर सम्पतिके लिये हो - 141 C. I. J. 22; 82 I. C. 840; A. I. R. 1925 Cal. 442.
ट्रस्ट और धर्मादेकी जायदाद के प्रबन्ध आदिका उत्तराधिकार
दफा ८६३ शर्ते
धर्मादेकी स्थापनाकी शर्तोंमें अगर यह लिखा हो कि धर्मादेका ट्रस्ट या इन्तज़ामका अधिकार एकके बाद दूसरे पदाधिकारीको मिलता चला जाय
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धार्मिक और खराती धर्मादे
[ सत्रहवां प्रकरण
तो यह जायज़ माना जायगा देखो - सीताप्रसाद बनाम ठाकुरदास 5 CL R. 73; 27 All. 581; 9 C. W. N. 914; 12 W. R. C. R. 427.
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गोसाइयोंमें यह बात मानी गयी है कि, गोसाईके पश्चात् हमेशा के लिये उसके शिष्य उसके स्थानापन्न होते हैं, देखो - 12 Bom. H. C. 214; गोपालचन्द्र चक्रवर्ती बनाम राधारमणदास बाबाजी ( 1911 ) 16 C. W. N. 108 के मामलेमें धर्मादेकी एक शर्त में ऐसा लिखा था कि “शिष्य शिष्यानुक्रमे " इस वाक्य से यह अर्थ माना गया कि एक शिष्य अपने गुरु भाईका भी उत्तराधिकारी हो सकता है ।
रवाज - अगर धर्मादा क़ायम करने वालेने पदाधिकारियोंके उत्तराधिकारके विषयमें कुछ न लिखा हो और इस बातकी कोई शहादत न हो तो प्रत्येक मामलेमें उस खास संस्थाके रवाज के अनुसार उत्तराधिकारी चुना जायगा, देखो - जानकी देवी श्रीमती बनाम श्रीगोपाला चार्य 10 I. A. 321 9 Cal. 766; 13 C. L. R. 30; 11 M. I. A. 405; 8 W.R. P. C. 25; 13All.256. उत्तराधिकारके ऐसेही मामलेमें प्रिवी कौन्सिलने कहा कि "जब कि धर्मादे की शर्तों में इस तरहके उत्तराधिकारके विषय में कुछ न लिखा हो तो कौन आदमी महन्तकी हैसियतसे उत्तराधिकारी है, इसका निर्णय उस धर्मादेकी रसम और रवाजके अनुसार होगा, और यह रसम और रवाज, साक्षियोंसे साबित करना होगा तथा वादीको यह दिखाना होगा कि वह रवाज के अनुसार धर्मादेका उत्तराधिकारी होनेका हक़ रखता है" ऐसाही कई मामलोंमें प्रिवी कौन्सिलने यही राय ज़ाहिरकी है, देखो - 13 I. A 100-105, 9 All. 1; 7 C. W. N. 145. यही सिद्धान्त मन्दिर के मेनेजरसे भी लागू होगा तथा मदरासके 'देवस्थानं' आदिले लागू होगा, देखो - 20 I. A. 150; 16 Mad. 430; 7 Mad. 499.
एक मामले में घरेलू तौर से आपस में यह इन्तज़ाम किया गया था कि बारी बारीसे पदाधिकारीकाम करें और १६ वर्ष तक यह इन्तज़ाम जारी रहा अदालत ने इसे मानाकि ठीक है, देखो - 33 I. A. 139; 29 Mad. 283; 10 C. W. N. 825.
किसी धर्मादेकी क्या रवाज है यह बात उसी तरहके दूसरे धर्मादोंका रवाज देखने से मालूम हो सकता है । बल्लभाचार्य गोसाईके मन्दिरोंके लिये, देखो - मोहनलालजी बनाम मधुसूदनलालजी (1910) 32 All. 461. दफा ८६४ मेनेजर
अगर कोई अपने धर्मादेकी लिखतमें, मेनेजर होनेका पुश्तैनी हक़ क़ायम कर दिया हो तो मेनेजरका पद पुश्तैनी भी हो सकता है यदि लिखत न हो तो ऐसा हक़ साबित करना पड़ेगा; देखो - 7 Mad. 499. अगर ऐसी
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दफा ८६४]
धर्मादेकी संस्थाके नियम
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व्यवस्था धर्मादेकी शों में ही कीगई हो तो बिलकुल साफ़ मामला होगा। न करनेकी सूरतमें रवाजसे वह हक साबित करना पड़ता है, देखो-11 B.L. R. 86-116, 18 W. R. O. R. 226-228.
धर्मादेके मेनेजरके पदका उत्तराधिकार कायम करने में वह नियम लागू होंगे जो टगोरके मामलेमें कायम किये गये थे अर्थात् यहकि उत्तराधिकार के साधारण कानूनके विरुद्ध उत्तराधिकारका कोई हक कायम नहीं किया जा सकता, देखो-जितेन्द्रमोहन टगोर बनाम शानेन्द्रमोहन टगोर | A. Sup, Vol. 47 P. 65. तथा देखो दफा ८०७. . अगर किसी धर्मादेकी मेनेजरीका हक किसी हिन्दू मुश्तरका खान्दान को हो और वह खान्दान उस धर्मादेसे लाभ न उठाता हो तो उस परिवार का मर्द मुखिया अपने कुटुम्बके बटवारा होने तक उस हक्रका अधिकारी रहेगा, देखो-32 Mad. 167; 1 Mad. H. C. 415.
देवोत्तर जायदादकी मेनेजरीका हक जब किसी मिताक्षराला वाले खान्दानको होता है तो उस खान्दानका कोई भी आदमी पैदा होतेही शिवायतका अधिकारी हो जाता है, देखो-रामचन्द्र पन्डा बनाम रामकृष्ण महा. पात्र 33 Cal. 507.
स्त्रियां-पुजारीपनके पुश्तैनीपदका उत्तराधिकार मर्दके न होनेकी सूरत में स्त्रियोंको मिलता है, देखो-सीताराम भट्ट बनाम सीताराम गणेश 6Bom. H. C. A. C. 250. धर्मादेके पुश्तैनी स्त्री टूस्टियोंके लिये देखो-27 I. A. 69; 23 Mad. 1; 4 C. W. N. 329; 2 Bom. L. R. 597; 12Bom.3311 24 Mad. 219.
कोर्ट आव वार्डसू-इस विषयमें मदरास कोर्ट आव वार्डस एक्ट नं०१ सन् १९०२ की दफा ६३ इस प्रकार है-"अगर कोई कोर्ट प्रान् वार्डस्का नाबालिग किसी मन्दिर, मसजिद, धार्मिक संस्था या धर्मादेका पुश्तैनी दृस्टी या मेनेजर हो तो धर्मादेके क़ानून 'रिलिजस् एन्डोमेन्ट एक्ट नं० २० सन १८६३ की दफा २२ वीं' का कुछ ख्याल:न करके अदालत उस धर्मादे आदिके सम्बन्धमें नाबालिग्रके पदके कामको पूरा कराने के लिये जैसा प्रबन्ध उचित समझे करेगी मगर शर्त यह है कि उस धर्मादेके धार्मिक कामोंके लिये ऐसे लोगोंको नियत करेगी जो सरकारी कर्मचारी नहीं हैं और जहांतक सम्भव हो अदालतकी देखरेख केवल उसधर्मादेकी जायदादकी रक्षा तकही रहेगी।"
मेनेजरका कदीमी हक़-मेनेजरका हक अथवा मेनेजर नियुक्त करने का हक कदीमी हनकी हैसियतसे भी प्राप्त हो सकता है। यानी यदि कई पुश्तोंसे उसी वंशमें मेनेजरीका हक चला आता हो या ऐसा हो कि मेनेजर इसी वंशमें नियुक्त होता रहा हो तो यह भी एक प्रकारका हक़ प्राप्त हो जाता
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धार्मिक और खैराती धांदे
[सत्रहवां प्रकरण
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है । कानूनमें इसे “प्रक्रिप्टिव राइट " ( Prescriptive right ) कहते हैं देखो-- 24 Mad. 2197 27 Mad. 1927 33 I. A. 189; 37 Cal. 885.
मेनेजरको अधिकार नहीं है कोई महन्त या धर्मादेका दूसरा प्रधान पुरुष 'उत्तराधिकार' नहीं बदल सकता। और वह उस आदमीकी जगह जो वास्तवमें उत्तराधिकारी है दूसरा उत्तराधिकारी नहीं बना सकता वास्तव में उत्तराधिकारी वह हो जाता है जिसे वह एक दफा उत्तराधिकारी बना चुका हो; देखो-7. C. W. N. 145; 11 M. I. A. 405; 8 W. R. P. C. 25%; उदाहरणके लिये जैसे एक महन्तने अपने चेले रामानन्दको अपना उत्तराधिकारी बनाया अब दोनोंमें वैमनस्य हो गया तो महन्तजी उसे उत्तराधिकारी से च्युत नहीं कर सकते जब तक कि कोई रवाज़ विरुद्ध सिद्ध न हो। दफा ८६५ धर्मादाके स्थापकका हक
मेनेजर नियत करनेकी कोई बात अगर धर्मादेकी शोंमें न हो, और नरवाज हो, या वह आदमी जो मेनेजर नियुक्त करनेका हक रखता हो किन्तु उसने नियुक्त न किया हो तो मेनेजर नियुक्त करनेका हक फिर धर्मादेके स्थापक या उसके वारिसोंको प्राप्त होता है । देखो-16 I. A. 137, 17 Cal. 3; 18 All. 2277 28 All. 689; 32 All. 461;29 All.663; 32 Cal. 129 5 B. L. R. 181; 13 W. R. C. R. 3963 7 Cal. 304; 31 I. A. 203.
खाम्दानकी जो जायदाद खैरातके कामोंके लिये लगी हो उसके प्रबन्ध का हक आमतारै पर स्थापकके वारिसोंको मिलता है। लेकिन किसी खास सुरतमें सिर्फ एकही वारिसको मिलता है। देखो-34 Mad. 470.
जो आदमी शिवायत नियत किया गया हो अगर उसका खान्दान नष्ट हो जाय तो शिवायत नियत करनेका हक्क फिर स्थापकके खान्दानमें बला भाता है। 15 C. W. N. 126; 11 C. L. J. 2.
शिवायतपनका उत्तराधिकार-शिवायत शिप्का उत्तराधिकार प्रतिष्ठा करने वालेके खानदानमें होता है यदि कोई विरुद्ध शहादत न हो प्रमथनाथ बनाम प्रद्युम्नकुमार मलिक 3 Pat. L. R.315 A. I. R. 1925 P.C. 139 (P.C.).
इन्तकाल
दफा ८६६ देवोत्तर जायदादका इन्तकाल .. (१) हिन्दूलॉका साधारण नियम यह है कि जो जायदाद देवार्पण या धार्मिक कागके लिये दान कर दी गई हो वह जायदाद इन्तकाल करने योग्य
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दफा ८६५-८६६]
धर्मादेकी संस्थाके नियम
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नहीं है शिवायत या महन्तकी हैसियत जायदादके सम्बन्धमें मेनेजरकी है क्योंकि वे उस जायदादके अमानतदार हैं। वे किसी खास ज़रूरी कामोंके लिये जैसे धार्मिक पूजन पाठ जो परमावश्यक हों या मठ या मन्दिरकी मरम्मत या किसी झगड़ेलू मुकदमेबाज़ शत्रुके दायर किये हुये मुकद्दमेसे बचनेके लिये,
और इसी तरहके दूसरे कामोंके लिये रुपया कर्ज़ ले सकते हैं। इस प्रकारके क्रोंके लेनेका अधिकार, कर्जा लेने की ज़रूरतको देखकर विचार किया जायगा। शिवायत या महन्तको कर्जा लेनेका जो अधिकार दिया गया है वह उसी तरहका है जैसाकि नाबालिगके लाभके लिये उसका मेनेजर कर्जा ले देखोहनूमानप्रसाद बनाम बबुई मुसम्मात 6 Mad. I. A. 393.
(२) ज़रूरतमें कर्जा लेनेके अधिकारके अलावा शिवायत या महन्त देवोत्तर जायदादका इन्तकाल भी कर सकता है, उनके इन्तकाल करनेका अधिकार सीमाबद्ध है । जायज़ ज़रूरतोंके लिये केवल ऐसा हो सकता है, अगर एसी ज़रूरत न हो तो वे देवोत्तर जायदादको रेहन या वय नहीं कर सकते और इनाम या मुकर्ररी पट्टा भी नहीं दे सकते, देखो-36 Cal. 1003, 36 I. A. 148, 14 Ben. L. R. 450; 2 I. A. 145, 2 Cal. 341, 4 I. A. 52, 13 M. I. A. 270; 19 Bom. 271; 22 Cal. 989; 24 Cal. 77; 25 All. 296, 33 Cal. 507.
(३) नरायन बनाम चिन्तामणि (1881 ) 5 Bom. 393. कलक्टर आफ् थाना बनाम हरी (1882) 6 Bom. 546. इन दोनों मामलों में बम्बई हाईकोर्टने यह ज़रूरी राय जाहिरकी कि किसी भी ज़रूरतमें धर्मादेकी कुल जायदाद नहीं बेची जा सकती और न हमेशाके लिये इन्तकालकी जा सकती है, तथापि उस जायदादकी आमदनी ज़रूरत पड़नेपर रेहनकी जा सकती है देखो-16 Bom. 625-6353 19 Bom. 271. इलाहाबाद हाईकोर्टने इसके विरुद्ध राय जाहिरकी, कहाकि अगर जायज़ ज़रूरत हो तो कुल जायदादका इन्तकाल किया जा सकता है, देखो-परसोतम गिरि बनाम दत्तगिरि (1903) 25 All. 296. मदरास हाईकोर्टने 27Mad.465. वाले मुकदमे में बम्बई हाई कोर्टके अनुसार राय ज़ाहिरकी मगर उसने 34 Mad. 535. में इलाहाबाद हाईकोर्ट की रायके अनुसार अपनी राय बदल दी। अब प्रश्न यह रह जाता है कि देवोत्तर जायदाद कुल इन्तकालकी जा सकती है या नहीं? जुडीशल कमेटी बङ्गालने हालके मुकदमे में, अभिराम बनाम श्यामाचरण (1909) 36 Cal. 1003; 36 I. A. 148. में कहा कि देवोत्तर जायदादके इन्तकाल करने का अधिकार, शिवायत या महन्तका उस ज़रूरतके साथ विचार किया जायगा जिसके कारण इन्तकाल किया गया हो,जुडीशल कमेटीके सामने जो मुकदमा था उसमें महन्तने देवोत्तर जायदादका हमेशाके लिये मुक्कररी पट्टा देदिया था अदालतने अपनी राय जाहिर करते हुये कहा कि इस मुकदमे में दूसरा प्रश्न
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ન
धार्मिक और खैराती धर्मादे
[ स प्रकरणे
यह है कि - महन्तको मौज़ाका मुक़र्ररी पट्टा देनेका अधिकार था या नहीं ? कानूनने इतनी बात तय करदी है कि देवोत्तर जायदादका महन्त इन्तक़ाल कर सकता है, जिसतरह नाबालिग वारिसके लिये उसका मेनेजर जायज़ ज़रूरत ही में वारिसके लाभके लिये इन्तक़ाल कर सकता है यह अधिकार सीमाबद्ध है, देखो - 14 Ben. L. R. 450; 2 I . A. 145; 2 Cal. 341; 4 I . A. 52. जबकि दूसरा कोई ज़रिया या सरमाया न हो, मन्दिरकी मरम्मत या तकमीलके लिये देवोत्तर जायदाद मुक़र्ररी पट्टेमें दी जा सकती है लेकिन इसका आम क़ायदा शिवेश्वरीदेवी बनाम मथुरानाथ आचार्य 13M.I.A.270. मैं बताया गया है कि यदि वैसी ज़रूरत न हो तो देवोत्तर जायदाद इन्तकाल करने के अतिरिक्त, भिन्न भिन्न प्रकारकी दूसरी आमदनीसे उसे पूरा किया जाय ऐसा न करने से महन्त अपने कर्तव्यसे च्युत समझा जायगा उसका यह कहना मानने योग्य नहीं होगा कि ख़ास तौरके सम्बन्धोंसे ज़रूरत पैदा होगई थीं, इस मुक़द्दमे में पट्टा उचित साबित है इसलिये पट्टादेने वालेके जीवनकाल तक या उसके अधिकारी बने रहने तक वह जायज़ माना जायगा ।
दफा ८६७ बार सुबूत
जब देवोत्तर जायदादका इन्तक़ाल किया गया हो, तो जायदाद के खरीदार या जिसके नाम इन्तक़ाल किया गया है उसपर इस बात के साबित करनेका बोझ है कि वह अच्छी तरहसे साबित करे कि वास्तवमें क़ानूनी वैसी ज़रूरत थी, या उसने ठीक ठीक और नेकनीयतीसे वैसी ज़रूरत होने की योग्य तलाश कर ली थी और खुद उसे इतमीनान काफ़ी हो गया था कि दरअसल वैसी ज़रूरत है । यानी जिस तरहपर नाबालिग़ वारिसके मेनेजर के द्वारा इन्तक़ाल करनेमें खरीदारको साबित करना पड़ता है उसी तरह देवोत्तर जायदाद के खरीदारको साबित करना पड़ेगा, देखो - 2 Cal. 841-351; 4 I. A. 52 देखो इस किताबकी दफा ३४२.
दफा ८६८ इन्तक़ालके नियम
अगर कोई रवाज या धर्मादेकी कोई शर्त वाधक न हो तो साधारण नियम यह है कि जिसके क़ब्ज़े में धर्मादेकी जायदाद हो उसे ऐसा अधिकार नहीं है कि वह अपने प्रबन्ध, ट्रस्ट, ट्रस्टी या मेनेजरकी नियुक्ति और मंदिर के अन्य धर्मादे तथा कामके अधिकारको दूसरे किसीके हक़में इन्तक़ाल करदे, देखो - 27 I. A 69.
अगर ऐसा रवाज साबित किया जाता हो कि इन्तक़ाल करने वाले के आर्थिक लाभके लिये इन्तक़ाल किया जा सकता है तो ऐसा रवाज अदालत नहीं मानेगी, देखो - 4 I. A. 76; 1 Mad. 235; 4 Mad. 391; 6 Mad.
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दफा ८६७-६६६]
धर्मादेकी संस्थाके नियम
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76. और अगर ऐसा रवाज साबित किया गया हो कि पूजन विधि बदलने के लिये इन्तकाल किया जा सकता है तो भी नहीं मानेगी 7 Mad. H. C. 32.
नीचे के मुक़द्दमों में माना गया कि पूजन विधिका परिवर्तन आमतौरसे इन्तकालके योग्य नहीं है-34 Cal. 818; 11 C. W. N. 782, 3 W. R. C. R. 152; 5 All. 81; 16 C. W. N. 129.
देवसेवाके वास्तविक अभीष्टसे जो इन्तकालकी दस्तावेज़ लिखी गई हो जायज़ मानी जा सकती है, देखो-17 Cal. 557.
जिस मेनेजरको प्रबन्ध करते हुये अधिक ज़माना बीत जानेसे प्रन्बध का पूरा अधिकार कानूनन् प्राप्त हो गया हो जिसे 'प्रक्रिप्टिव् राइट' कहते हैं, ( देखो दफा ८६४ ) वह अपना अधिकार दूसरेको देदे, जिसे वैसा अधि. कार प्राप्त नहीं है तो ऐसा इन्तकाल जायज़ माना जायगा, देखो-24 Mad. 219.
नोट-इन्तकालके मंसूख करानेके दावेमें कानून मियाद लागू होता है यही बात 1 Madi 337 वाले मामलेमें मानी गई जबकि धर्मादेके प्रबन्ध या उसके सम्बन्धी कामोंके हक़का इन्तकाल किया जाय तो माना गया है कि सिर्फ उस हकका ही इन्तकाल ऐसे ढंगसे करना चाहिये कि जिससे टूस्टके उद्देशोंके सम्पादन करनेमें कोई बाधा उपस्थित न हो। दफा ८६९ खान्दानकी देवमूर्तिके धर्मादेका परिवर्तन
किसी खान्दानकी देवमूर्तिमें लगी हुई धर्मादेकी जायदाद उतनी चिरस्थायी नहीं होती जितनी कि सार्वजनिक धर्मादेकी होती है । खान्दानकी देवमूर्ति और उसमें लगी हुई धर्मादेकी जायदाद पूजन करनेकी हेतुसे दूसरे खान्दानमें तब्दीलकी जा सकती है मगर शर्त यह है कि जिस खान्दानकी वह देवमूर्ति है उसके सब मेम्बर राज़ी हो, देखो-17 Cal. 5678 13 C. W.N. 242.
खान्दानके सब मेम्बरों की रजामन्दीसे देवमूर्तिमें लगी हुई जायदाद किसी खास जायदादमें बदली जा सकती है और सब मेम्बरोंके निजी काममें लाई जा सकती है-4 I. A. 52; 2 Cal. 341; 16 C. W. N. 29, और देखो दफा ५२७, ८२३ ३६४.
देवोत्तर जायदाद कब बदली जासकती है-एक आदमीने देवमूर्ति में कुछ जायदाद लगादी नियम पत्रसे यह मतलब निकाला गया कि श्रीकृष्णजीके नाम वह जायदाद लगी है उन्हीके नाम कुछ जायदाद खरीदी गयी है। कुछ रुपया श्री शिवजी व अभ्य देवताओं के नाम लगाया गया था। तय हुआ कि जायदाद श्रीकृष्णजी के नाम लगी है । इसके पुजारियों और कुछ खान्दानके आदमियोंकी रायसे देवोत्तर जायदाद बदली गई तो फैसला यह हुआ कि
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धार्मिक और खैराती धर्मादे
[ सत्रहवां प्रकरण
खान्दानके सब भादमी मिलकर देवोत्तर जायदादको बदल सकते हैं मगर पुजारी या शिवायतकी मंजूरी बेअसर है । इस मुकद्दमेमें खान्दानके सब लोगोंकी रजामन्दी न थी इसलिये जायदादका बदलाव नाजायज़ करार दिया गया, देखो-27 C. W. N. 218. दफा ८७० कुकीं और नीलाम
निम्न लिखत धर्मादेके अधिकार और धर्मादेकी जायदाद, मठाधीश या मुख्याधिष्ठाताके विरुद्ध अदालतकी किसी डिकरीके द्वारा कुर्क और नीलाम नहीं हो सकती । इस विषयमें देखो-ज़ाबता दीवानी सन् १६०८ ई० की दफा ६० इस दफामें कहा गया है कि प्रत्येक हक ज़ाती खिदमतका कुर्क और नीलाम नहीं हो सकता। (१) धर्मादेके प्रबन्ध करनेका हक या दूस्टीपन-4 All. 81; 7 W.
R. C. R. 266. (२) मंदिरकी सेवा या उसमें लगे हुए दूसरे धर्मादे-राजाराम बनाम
गनेश 23 Bom. 131; 5 B. L. R. 617; 14 W. R. C. R.
409; 4 All. 81. (३) पूजनका हक-काळीचरणगिरि गोसाई बनाम रंगशी मोहनदास
6 B. L. R. 727; 15 W. R. 339. (४) देवमूर्तिका चढ़ावा-29 Cal. 470; 6.C. W. N. 728. (५) देवमूर्तिकी सेवासे यदि बहुत ज्यादा आमदनी होती हो मगर
वह आमदनी निश्चित न हो-जुगुरनाथराय चौधरी बनाम किशु.
नप्रसाद 7 W. R. C. R. 266. नोट-मंदिरके किसी नौकरने यदि अपने काम करने के बदलेमें कोई जायदाद मंदिरमें या मंदिरकी प्राप्तकी हो जो उसके कब्जेमें हो, उस जायदादकी कुकी और नीलाममें कोई बाधा नहीं पड़ती । दफा ८७१ मुश्तरका खान्दानमें बटवारा
धर्मादे और धार्मिक कृत्ये कुदरती तौरसे अविभाज्य होती हैं अगर कोई अर्वाचीन रवाज ऐसी हो कि पक्षकार देवमूर्तिका पूजन बारी बारीसे करनेके अधिकारी हैं और धर्मादे की पाबन्दियों के साथ उन्हे इन्तकाल करनेका भी अधिकार है, जायज़ माना जा सकता है, देखो-20 Bom. 495.
___ बटवारेमें हिस्सेका तरीका--किसी खान्दानकी देवमूर्ति या मंदिर या धार्मिक धर्मादेका प्रबन्ध जब मुश्तका खान्दानके लोगोंके अधिकारमें हो, इस सौरसे बटवारा किया जा सकता है कि हर एक हिस्सेदारके हिस्सेके अनुसार किसी निश्चित समय तक क्रमसे वे देवमूर्तिका पूजन करें और उसकी जाय
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दफा ८७०-८७१]
धर्मादेकी संस्थाके नियम
१०५१
दादपर काबिज़ रहें, मगर शर्त यह है कि इस क्रिस्मका बटवारा तभी हो सकेगा जब कि ऐसा बटवारा बिना किसी किस्मकी हानि और धर्मादेके वास्तविक स्वरूपके बिना बदले मुमकिन हो, देखो-34 Mad. 470; 34 Cal. 828; 11C. W. N. 782, 6 Bom. 298; 14 B. L. R.1663 22 W. R. C. R. 437; 8 W. R. C. R. 193; 4 Cal. 6833; 8 Cal. 807:10 C. L. R. 439; 6 B. L. R. 352, 15 W. R C. R. 29.
जब ऐसा मामला अदालतके सामने पेश होगा तो बहुत करके अदालत यह हुक्म देगी कि खान्दानके लोग बारी बारीसे देवमूर्ति या मंदिरके पूजनका क्रम आपसमें निश्चित करलें या किसी अन्य प्रकारके क्रमका फैसला करले या कोई अनुक्रम कायम करलें--राजा चित्रसेन की बड़ी विधवा बनाम राजा चित्रसेन की छोठी विधवा (1807) 1 Ben Sel.R. 180 नया संस्करण पेज २३६ वाले मुकद्दमे में मुश्तरका खान्दानकी दो देवमूर्तियां थीं और दोनों में अलग अलग जायदाद लगी थी । एक हिस्सेदारने एक देवमूर्तिपर और उसमें लगी हुई जायदादपर भी कब्ज़ा कर लिया इसी तरह दूसरे हिस्सेदारने दूसरी देवमूर्ति और उसमें लगी हुई जायदादपर कब्ज़ा कर लिया, अदालतने इसे उचित माना।
मुद्दइया नरेनीने दावा किया कि मंदिरमें पूजा करनेके लिये मेरी बारी नियत कर दी जाय । मंदिर खान्दानी देवमूर्तिका था मुंसिफ साहबने देवमूर्ति की पूजाका दावा खारिज किया और उसमें शामिल मकानके बटवारेका दावा डिकरी किया। जज साहबने दोनों दावे डिकरी किये हाईकोर्टमें यह तय किया गया कि मु० नरेनी को ऐसा दावा करनेका अधिकार है कि देवमूर्तिके पूजन के लिये बारी नियत की जाय, देखो-1923 A. I. R. 425 All.
दामोदरदास मानिकलाल बनाम उत्तमलाल मानिकलाल 17 Bom.271. 288. वाले बटवारे के मुकदमे में बम्बई हाईकोर्टने खान्दानकी देवमूर्तिका पूजन और उसमें लगी हुई जायदादका प्रबन्ध खान्दानके सबसे बड़े मेम्बरके आधीन कर दिया, यह राय ज़ाहिरकी कि जब वह मेम्बर मर जाय तो ज्यादा हक्क वाले दूसरे मेम्बरको उसका उत्तराधिकार प्राप्त होगा। यद्यपि बम्बई हाईकोर्ट ने ऐसा फैसला मुक़द्दमेके अन्य सम्बन्धोंके कारणसे किया किन्तु आम कायदा तो यह है कि खान्दानके सब मेम्बर बारी बारीसे देवमूर्तिका पूजन और उसकी जायदादका प्रबन्ध करते हैं, यह कायदा प्रायः सब जगहपर माना जाता है, देखो-14 B. L. R. 166; 22 W. R. C. R. 437. भट्टाचार्यका लॉ आफ् ज्वाइन्ट हिन्दू फैमिली P. 462; 4 Cal. 683, 8 Cal. 807; 10 C. L. R. 439.
नोट-पूजन, यज्ञ, बलिदानका स्थान, देवमूर्तिमें लगी हुई जायदाद, दूसरी धार्मिक रसमें या पूजन पाठका स्थान ये सब असली रूपको बिगाड़कर बटवारा नहीं की जा सकती, देखोइस किताबकी दफा ३९४, ५२७, ८२३.
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१०५२
धार्मिक और खैराती धर्मादे
[सत्रहवां प्रकरण
दावा दायर करनेका हक़ और ट्रस्ट तथा धर्मादे सम्बन्धी
जरूरी कानूनी बातें
दफा ८७२ अदालतोंका अधिकार
दीवानी अदालतोंको यह अधिकार है कि वे ऐसे धर्मादोंके इन्तज़ाम करनेका हक निश्चित करें और यह निश्चित करेंकि उन धर्मादोंमें काम करनेके अधिकारी कौन लोग हैं । उन्हें यह भी अधिकार है कि उन धर्मादोंकी जायदादकी रक्षाके लिये हस्तक्षेप करें, और उनके उद्देशोंका ठीक अर्थ लगावें तथा उन उद्देशोंको कायम रखें और साधारणतः उन सब प्रश्नों का फैसला करें जो उन धर्मादोंके उद्देशोंकी उचित पूर्तिके सम्बन्धमें पैदा हों। देखोजावता दीवानी सन् १६०८ ई० की दफा ६ इस दफाका सारांश यह है कि जिस नालिशमें किसी मिलकियत या किसी हनका झगड़ा हो चाहे वह हक़ किसी मज़हबी रसम, या रवाजपर निर्भर हो, ऐसी नालिशें दीवानी अदालतमें दायर होंगी।
__ पूजा-किसी खास मन्दिरमें कौन लोग या किस फिरनेके लोग पूजा करमेका हक रखते हैं, और कौन लोग पूजा करनेसे बंचित किये जा सकते हैं इसके सम्बन्धका दावा अदालतमें दायर हो सकता है, ऐसा दावा दीवानी अदालतमें होगा, देखो-35 I. A. 176; 31 Mad. 236, 12 C. W. N. 946 और जो मन्दिर ब्रिटिश हिन्दुस्थानके बाहर हैं (जैसे रजवाड़ोंमें अनेक मन्दिर हैं ) उनके सम्बन्धमें अगरेज़ी अदालतोंको कोई अधिकार प्राप्त नहीं है, देखो-त्र्यंबक बनाम लक्षिमण 20 Bom. 495.
पेनशन्-पेनशन्स एक्ट नं०२३ सन् १८७१ ई० की दफा ४ इस प्रकार है-'कोई पेनशन या रुपयाका दान, या मालगुज़ारीकी माफी जो अङ्गरेजी सरकारने या पहलेकी किसी सरकारने चाहे किसी ख्यालसे और चाहे कैसे ही दावे या हक़के ऊपरकी हो, उसके सम्बन्धका कोई मामला कोई दीवानी कोर्ट नहीं सुनेगी मदरासमें माना गयाकि धर्मादोंसे इस दफाका कोई सम्बन्ध नहीं है, देखो-31 Mad. 12; 2 Mad_294; 11 Mad. 283. लेकिन बम्बई हाईकोर्टने मानाकि अवश्य सम्बन्ध है, देखो-22 Bom. 4963 16 Bom. 537; 8 I. A. 77; 5 Bom. 408. दफा ८७३ टस्ट भंग करनेके कारण अदालतमें दावा
(१) किसी भी धर्मादेमें स्वार्थ या लाभ रखने वाले लोग जैसे पूजा करने वाले, या किसी देवमूर्तिके उपासक या भक्त या जिसने वह मूर्ति स्थापितकी हो उसके कुटुम्बका कोई भी आदमी हक रखता है कि यदि उस
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दफा ८७२-८७४]
धर्मादेकी संस्थाके नियम
१०५३
धर्मादेके धन या जायदादके सम्बन्धमें ट्रस्टका भङ्ग किया गया हो तो उसके लिये दावा दायर करे या इस बातपर ज़ोर कि पूजा ठीक ठीककी जाय या टूस्टका काम उचित रीतिसे किया जाय। दूस्टका भंग वह कहलाता है कि दूस्टकी शौका या उद्देशका पालन न करना । दावा दायर करनेके अधिकार के विषयमें नजीरे देखो
स्वार्थ रखने वाले या पूजा करने वाले-24 Cal. 418, 28 Bom. 657; 15 Bom.6123 12 Bom. 247; 26 I. A. 1995 24 Bom. 50.
___ उपासक, भक्त, या स्थापक-15Bom.612 कुटुम्बका आदमी 3Bom. 27, 14 Mad. 1.
(२) वे अदालतसे यह भी निर्णय करा सकते हैं कि महन्त या शिवायत या धर्मादेके किसी दूसरे मेनेजरने अपने कुप्रबन्धके कारण अपनेको उस पदके अयोग्य सिद्ध कर दिया है-6 Cal, 11 60. L. B.265 116 Bom. 612.
हिसाब-यदि ऊपर कहे हुये दावेमें मुदई उस धर्मादेके हिसाबकी जांच किये जानेका भी दावा करे तो उसे दूस्टके भंग किये जानेका स्पष्ट प्रमाण देना होगा, देखो-5 Cal. 700. दफा ८७४ सार्वजनिक धर्मादेके दावेमें जाबता दीवानीको दफा
९२ का असर (१) जब सार्वजनिक धर्मादेके सम्बन्धमें अदालतमें दावा दायर करना हो तो पहले ज़ाबता दीवानी सन् १६०८ ई० की दफा १२ को समझ लेना बहुत जरूरी है उक्त दफा ३२ इस प्रकार है
दफा १२-(१) जो दूस्ट (अमानत ) स्पष्ट रूपसे या उद्देशरूपसे सार्वजनिक खैरात या धार्मिक कामोंके लिये मुकर्रर किया गया हो, जब उसके नियमोंका भंग होना बयान किया जाय या उस दूस्टके प्रबन्धके लिये अदालत की हिदायत आवश्यक समझी जाय तो पडवोकेट जनरल यादोया कई आदमी जो उस दूस्टमें स्वार्थ रखते हों और एडवोकेट जनरलकी लिखित रज़ामन्दी प्राप्त कर चुके हों तो उस दीवानी अदालतमें कि जिसके इलाकेके अन्दर वह दूस्ट हो या किसी दूसरी अदालतमें जिसको प्रान्तीय सरकारने इस बारे में अधिकार दिया हो, जिसके इलाकेके अन्दर ट्रस्टका सब या कोई भी भाग हो नीचे लिखे विषयों में डिकरी प्राप्त करनेके लिये नालिश कर सकते हैं चाहे उस नालिशमें कोई भी चीज़ विरोधकी हो या न हो(क) दृस्टीकी मौकृती 24 Mad. 418; 24 Bom. 45; 33 Cal,
789, 20C. W. N. 581.
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धार्मिक और खैराती धर्मादे
[सत्रहवां प्रकरण
(ख) नये ट्रस्टीकी नियुक्ति-26 Mad. 450; 22 Mad. 117. (ग) हवाले किया जाना किसी जायदादका दृस्टीको(घ) हिसाब और तहकीकातकी तैयारीका हुक्म देना 33Bom.387. (च) करार दिया जाना कि ट्रस्टीकी जायदादका कितना भाग या
कितना हक ट्रस्टके किसी खास उद्देशके लिये अलग किया
जायगा। (छ) इस बातकी आज्ञा देनाकि जायदादका सब या कोई भाग किराये
या पट्टेपर दिया जाय या बेच दिया जाय या रेहन रखा जाय
या बदल लिया जाय। (ज) व्यवस्था (Scheme) निश्चित करना 23 Mad. 319. (झ) इससे अधिक या दूसरे प्रकारसे प्रार्थीके लिये सुभीता करना.
जैसा कि मामलेको देखते हुए आवश्यक जान पड़े 25 All. ___631; 33 Cal. 789.
(२) सिवाय इसके जैसा कि धर्मादेके कानून सन् १८६३ ई० एक्ट २० की दफा १४ में हुक्म है; कोई नालिश ऊपर लिखे किसी विषयके सम्बन्धमें उस वक्त तक दायर नहीं की जायगी जब तक कि उस दफाकी सब शर्ते न पालनकी जायं 8 All. 31; 11 Cal. 38.
दफा ६२ का उद्देश-पहलेके कानून जाबता दीवानीकी इसी तरहकी दफा ५३६ का हवाला देते हुए बंगाल हाईकोर्टने, सजेदुर राजा चौधरी बनाम गौर मोहनदास वैष्णव 24 Cal. 418-425 वाले मुक़द्दमे में कहा कि इस दफा ५३६.का असली उद्देश हमारी रायमें स्पष्ट है कि किसी टूस्टमें स्वार्थ रखने वाले अगर वह सब एक हो जाये तो उस ट्रस्टके भङ्ग करने के दोषमें किसी भी दूस्टीके हटाये जाने का दावा करनेका अधिकार वे लोग हर समय रखते हैं लेकिन जब वह सब आदमी एक न हो सके तो यह उचित समझा गया कि उनमेंसे कुछ लोगही यदि वे एडवोकेट जनरल या जिलेके कलक्टर की मंजूरी प्राप्त कर ले तो वे दावा दायर कर सकेंगे लेकिन ट्रस्टियोंपर कुछ लोग व्यर्थ ही दावे दायर न करने लगे इसलिये मंजूरी लेनेकी शर्त रखी गई है, जब यह शर्त पूरी कर ली गई और व्यर्थ दावा दायर होनेसे पूरी रक्षा हो गई तो कोई वजह नहीं है कि इस दफाके अनुसार दायर किये हुए दावों में दूसरी रोक टोक लगाई जाय।
पूर्वोच्छ विषयोंमेंसे किसी विषयका दावा हो और उसमें ऐसा दावा भी शामिल हो कि दूस्टकी कोई अनुचित रीतिसे इन्तकालकी हुई जायदाद का कब्ज़ा भी दिलाया जाय तो इस दफा ६२ के अनुसार ऐसा दावा समझा नायगा; देखो-24 Cal. 4187 28 A!. 112, 26 Mad. 450.
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दफा ८७४ ]
धर्मादेकी संस्थाके नियम
( ३ ) सरकारी सहायता के मन्दिर - जो मन्दिर पूजा पाठके लिये सरकारसे भी प्रार्थिक सहायता पाता हो उसकी प्रबन्धकारिणी कमेटीपर एडवोकेट जनरल सर्व साधारणकी ओरसे यह दावा कर सकते हैं कि वह अपने अमुक कर्तव्यों का उचित रीतिसे पालन करें; देखो - 33 Bom. 387; 4 M. I. 191; 3 A. 32.
(४) किन मामला से इस दफाका सम्बन्ध जा चुका है कि यह दफा ६२ नीचे लिखे मामलोंसे मामले यह हैं
१०५५
नहीं है ? - यह माना लागू नहीं होती । वे
(क) मुद्दईका यह दावा कि मैं ट्रस्टी माना जाऊँ 22 Bom. 496,
33 Cal. 789.
(ख) मुद्दई का यह दावा कि मैं प्रबन्ध करनेका अधिकारी हूं और वास्तवमें प्रबन्ध कर रहा हूं यह बात अदालत क़रार दे - 28 Bom. 20.
( ग ) इस बात के क़रार दिये जानेका दावा कि मुद्दईको मठमें मेनेजर की नियुक्तिका अधिकार प्राप्त है 10 Mad. 375.
(घ) दो फरीनोंके परस्पर यह दावा कि उनमें से हर एकको मेनेजरी के कुछ अधिकार प्राप्त हैं 32 Cal. 273.
(च) यह क़रार दिये जानेका दावा कि ट्रस्ट क़ायम हैं 25 Al1.631. (छ) किसी मन्दिरके पूजकोंकी ओरसे यह क़रार दिये जानेका दावा कि ' धर्मकर्ता ' ( मेनेजर ) के पद पर अमुक लोगोंकी नियुक्ति नाजायज़ है, 23 Mad. 28.
( ज ) वह दावे जो किसी सार्वजनिक अधिकार क़ायम करनेके लिये नहीं बल्कि इसलिये दायर किये गये हों कि किसी एक आदमी का हक़ जो भन किया गया हो बहाल किया जाय 33 Cal. 789; 10 C. W. N. 581; 7 All. 178; 8 Cal. 32, 11 Cal. 33; 5 All. 497.
दफा १२ के अनुसार मुकद्दमा दायर करने के जो उद्देश बताये गये हैं उन उद्देशोंके सिवाय जो दावे दायर किये जायँ उनके विषयमें यह मानां गया है कि वे इस दफाके अन्तर्गत नहीं हैं क्योंकि वे सिर्फ ऐसे ही मामले होंगे जो ट्रस्टियोंने ऐसे लोगोंके विरुद्ध दायर किये होगें जिनका उस ट्रस्ट से कुछ सम्बन्ध नहीं है और जो उसके विरोधी हो सकते हैं जैसे वे लोग जिनके पास ट्रस्टकी किसी जायदादका अनुचित इन्तक़ाल हुआ हो या अनधिकारसे उस ट्रस्टमें कोई क़ब्ज़ा पा गये हों; देखो - 33 Cal. 7899 10 C. W. N, 681; 21 All. 187.
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धार्मिक और खैराती धर्मादे
[ सत्रहवां प्रकरण
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(२) अपील-धर्मादेमें यह आम कायदा है कि जो आदमी फरीक़ मुकदमा नहीं है अपील नहीं कर सकता-जानमोहम्मद बनाम नूरुद्दीन 32 Bom. 155.
(६) व्यवस्था-दफा ६२ के अनुसार किसी धर्मादेके सम्बन्धमें जो व्यवस्था निश्चितकी गई हो उसको कार्यमें परिणत किये जानेकी दरख्वास्त हर ऐसा आदमी कर सकता है जो उस धर्मादेमें कुछ स्वार्थ रखता हो 28 Mad 319; 24 Bom. 45; 1 Bom. L. R. 509.
(७) कलक्टरके अधिकार-दफा के अनुसार जो अधिकार एडवोकेट जनरलको दिये हैं वे प्रेसीडेन्सी शहरों (कलकत्ता, बम्बई, मदरास). के बाहर प्रान्तीय सरकारकी मंजूरीसे कलक्टर या अन्य कोई आफिसर जिसे सरकार मुकर्रर करे काममें लायेगा; देखो-ज़ाबता दीवानी सन् १६०८ ई० की दफा १३.
(८) एडवोकेट जनरल या कलक्टरका कर्तव्य-एडवोकेट जनरल या कलक्टर जब किसी धर्मादेके दावेके दायर किये जाने की मंजूरी देने लगे तो उनको चाहिये कि मामला खूब समझकर मंजूरी दें वह सिर्फ यही म देखें कि दावा दायर करने वाले लोग दूस्टमें कुछ स्वार्थ रखते हैं बक्लि यह भी देख ले कि वह ट्रस्ट पैसाही सार्वजनिक ट्रस्ट है, जिसकी बात उपरोक्त दफा १२ में कही गई है और इसकी भी अच्छी तरह जांव करलें कि वास्तवमें ट्रस्टका भंग हुआ है ? लेकिन अगर किसी मामले में यह देखा जाय कि उहोंने खूध समझकर मंसूरी देने में कुछ कसरकी है तो यह त्रुटि सिर्फ बेकायदगी समग्री जायगी। स्टके सम्बन्धमें कोई ऐसा सार्वजनिक झगडा होना चाहिये कि उसमें एडवोकेट जनरल या कलक्टरका हस्तक्षेप यह निर्णय करने के लिये ज़रूरी हो कि सार्वजनिक हक्रके कायम किये जाने का दावा दायर किया जाय या नहीं और अगर किया जाय तो कौन करे ? देखो--32 Cal. 8, 273-27 , दफा ८७५ ट्रस्टी आदिके हटानेका अधिकार
जब कोई शिवायत महन्त ट्रस्टी या मेनेजर ट्रस्टको भंग करके या दूसरी तरह उस टूस्टके चलानेके अयोग्य सिद्ध हो तो अदालत उसे हटा देगी, देखो--एक्ट नं० 20 of 1863 S. 14.
जो दूस्टी ठीक ठीक हिलाव नहीं रखता और रुपया खा जाता है या दूस्टकी जावदादपर अपना झूठा दावा करता है वह हटा दिया जायगा, देखो 31 Mad. 212. . अगर मैनेजर नेकनीयतीले इस्टकी किसी जायदादपर दावा करता हो तो महज़ यह कारण उसके हटाये जानेका काफी नहीं माना जायगा, देखो
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दफा ८७५-८७६ ]
धर्मादेक संस्थाके नियम
હ
24 Mad. 243. लेकिन अगर वह उस जायदादको अपनी निजकी जायदाद बताकर काममें लावें तो वह अवश्य हटाया जा सकता है, देखो -- 15
Bom. 612.
किसी ट्रस्ट के साथ जो धार्मिक कृत्य करनेका रवाज है यदि उनके किये जाने का यथेष्ट खर्च मौजूद हो और फिर भी वे न किये जायं तो यह बात ट्रस्ट के भंग करने वाली समझी जायगी, देखो -- --23 Mad. 298 और जब कोई ज़मीन किसीके क़ब्ज़े में इस शर्तपर हो कि वह उस मूर्तिकी, कि जिसके साथ वह ज़मीन लगी है पूजा किया करे, यदि वह पूजा न करे तो वह पूजा करने के लिये बाध्य किया जा सकता है और इनकार करनेपर हटाया जा सकता है, देखो -- 11 W. R. C. R. 443.
दफा ८७६ हटाये जानेका कारण
दामोदर भट्ट जी बनाम भट्ट भोगीलाल किशुनदास ( 1896 ) 22 Bom. 493-495 के फैसलेमें कहा है कि "इङ्गलैन्डमें जब किसी सार्वजनिक खैराती ट्रस्ट के ट्रस्टी गलतीसे उस ट्रस्टका धन ऐसे कामोंमें लगा देते हैं कि जिनमें वह नहीं लगाना चाहिये था । तो इङ्गलैन्डका क़ानून एक सीमा तक उनके मामलों में कुछ रियायत अवश्य करता है हमारी रायमें वैसी ही रियायत हिन्दुस्थान में सार्वजनिक हिन्दू मन्दिरों आदि के मेनेजरों और पुजारियों और दूसरी तरह के धर्मादोंके मेनेजरों और पुजारियों के मामलों में भी होना चाहिये. क्योंकि उन्हें अपनेको उक्त मन्दिरों या धर्मादोंके मालिक समझने की आदत हो गई है हालांकि क़ानूनमें वे महज़ ट्रस्टी, मेनेजर, शिवायत और पुजारी हैं इसलिये अब पीछेका ख्याल नं करके भविष्य में ऐसी व्यवस्था करना चाहिये कि जिससे मन्दिरोंका शासन उचित रीति से हो । चिन्तामणि वजाजी देव बनाम ढुंढू गणेशदेव 15Bom. 612 के मुक़द्दमेमें जो फैसला हुआ उससे यह सिद्ध हो गया कि सार्वजनिक हिन्दू मन्दिरोंके मेनेजरों पर भी अदालतका पूरा अधिकार है और यदि ज़रूरत हो तो अदालत उन मेनेजरोंको धर्मादेके लाभ से हटा सकती है । किन्तु उस फैसलेका यह मतलब कभी नहीं हैं कि दर एक मेनेजर जो अपनेको किसी मन्दिर आदिका मालिक समझ बैठे हटा दिया जाय इस तरह के प्रत्येक मामलेका फैसला उन मामलोंके सम्बन्धों के अनुसार ही होना चाहिये, देखो - 22 Bom. 493.
जब तक कोई जालसाज़ी या बेईमानी न हो तो महज़ बदचलनी या गलती के कारण अदालत मेनेजरको बरखास्त नहीं कर देगी; देखो 21 Bom. 556; 13 Mad. 6. कुछ सूरतों में वह देखभालके लिये एक कमेटी स्थापित कर सकती है और उस ट्रस्टके प्रबन्धके लिये व्यवस्था निश्चित कर सकती है देखो - 21 Bum. 556.
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धार्मिक और खैराती धर्माद
[सत्रहवा प्रकरण
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दफा ८७७ हटाये हुए मेनेजरकी जगह पर दूसरा आदमी
मेनेजर आदिके हटाये जानेके बाद वह आदमी जो नियुक्त करनेका हक़ रखता है किसी आदमीको मनेजरके स्थान पर नियुक्त करेगा, अगर ऐसा कोई आदमी नियुक्त करनेका अधिकार रखने वाला न हो तो अदालत खुद नियुक्त करेगी और अगर ज़रूरत हो तो दूस्ट चलानेकी व्यवस्था भी बना देगी। दफा ८७८ खैराती और धार्मिक धर्मादोंकी देखरेख तथा व्यवस्था
(१) बङ्गाल-बङ्गाल रेगूलेशन नं. १६ सन १८१० ई० के अनुसार रेविन्यू बोर्ड और कमिश्नरोंको अधिकार है कि उन सब ज़मीनोंकी देखरेख करें, जो मसजिद, हिन्दू मंदिर, कालेज और अन्य धार्मिक या उपकारी उद्देशों में लगी हों, और सराय, कटरा, पुल और अन्य सार्वजनिक इमारतोंकी भी देखरेख करें और उनके देखरेखकी व्यवस्था करें।
मदरास-मदरास रेगूलेशन नं० ७ सन १८१७ ई० के अनुसार कोर्ट आव रेविन्यूको, कालेज़ और अन्य उपकारी उद्देशों में लगे हुए धर्मादा, और सराय, पुल, छत्र और दूसरी सार्वजनिक इमारतोंपर साधारणतः देखरेखका अधिकार प्राप्त है और लावारिस जायदादकी देखरेखका भी अधिकार है।
नोट-ध्यान रहे कि बंगालमें केवल जमीनपर और मदरासमें सबपर अधिकार प्राप्त हैं। धार्मिक धर्मादोंके विषयमें ऊपरके दोनों रेगूलेशन यद्यपि मंसूख हो चुके हैं तो भी इन रेगूलेशनों के बननेसे पहले जो धर्मादे नियत हुए और बनने के पीछे हुए उन दोनोंसे यह रेगुलशन लागू होते हैं 7 Mad. H. C. 117; 84 Mad. 375; 22 Mad. 223. ___ यह रेगूलेशन् बोर्ड श्राफ् रेविन्यूको और बंगालमें कमिश्नरों के बोर्ड को मी श्राक्षा देते हैं कि वे यह बराबर देखते रहें कि जिन धर्मादोंकी देखरेख के करते हैं उनकी आमदनी उसी उद्देशके पूरा करने में लगाई जा रही है जिस उद्देशसे सरकारने या धर्मादा नियत करने वालेने,धर्मादा स्थापित किया था।
(२) उद्देशके विरुद्ध उपयोग-धर्मादे की ज़मीन अगर निजके काममें लाई जाती हो या धर्मादा स्थापित करने वालेके उद्देशके विरुद्ध किसी और काममें लाई जाती हो तो रेविन्यू बोर्ड और कमिश्नरका कर्तव्य है कि इसको रोके । बोर्ड श्राफ रेविन्यू और कमिश्नर हर एक जिलेमें मानो एजेन्ट हैं, जिलेका कलक्टर भी एजेन्टके सदृश्य है । ऐसे एजेन्टोंका कर्तव्य है कि धर्मादोंका सब विवरण मालूम करके रिपोर्ट करें, उनके ट्रस्टियों और मेनेजरों का नाम, पता, परिचय मालूम करें, और धर्मादोंके पदाधिकारियोंके जो पदखाली हों उनके दावेदारों के दावोंका पूरा ज्ञान रखें और पदों के योग्य जो लोग हों उनके नियुक्त करने का अधिकार यदि सरकार या सरकारी आफिसरको
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हफा ८७७-८७६]
धर्मादेकी सस्थाके नियम
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प्राप्त हों तो उससे उन लोगोंके नियुक्त किये जाने की शिफारिश करें।
(३) ट्रस्टियोंकी नियुक्ति-जिन धर्मादोंके पदधिकारियोंके नियुक्त करनेका अधिकार वर्तमान या भूतपूर्व सरकार या किसी सरकारी आफिसर को प्राप्त हो । और यह अधिकार उस सूरतमें प्राप्त हो जब कि कोई आदमी निजके तौरसे उन पदाधिकारियोंको नियुक्त करनेके योग्य नहीं है तो ऐसी सूरतमें उक्त दोनों रेगूलेशनोंने धर्मादोंके दूस्टी और मेनेजर और सुपरिण्टेण्डेण्ट नियुक्त करने का अधिकार सरकारको दे रखा है, देखो-34 Mad. 375.
(४) निजी हक़की रक्षा-बङ्गाल रेगूलेशन् १६ सन १८१० ई. की दफा १५ और मदरास रेगूलेशन् ७ सन १८१७ ई० की दफा २ में निजी हक की रक्षाके लिये यह व्यवस्था रखी गई है कि उक्त रेगूलेशनोंकी आड़में जब किसीकी ज़मीन या इमारत धर्मादे में शामिल हो गई हो या उनको नुकसान पहुंचा हो तो उनका मालिक अदालतमें दावा करके उनपर फिर अपना कब्ज़ा और हर्जाना पा सके । रेविन्यू बोर्ड जो व्यवस्था पहले निश्चित कर चुकी हो उसको वह मनमाने ढङ्गसे नहीं बल्कि उचित और काफ़ी कारण होनेपर ही तोड़ सकती है । रेविन्यू बोर्ड अपने देखरेखके हकको भी छोड़ सकती है7 Mad. H.C. 77.
(५) रेगूलेशनोंका लगाव-आसाम और पश्चिमोत्तर प्रदेशके सिवाय उक्त दोनों रेगूलेशन अन्य प्रान्तोंमें खैराती धर्मादों से अबभी लागू होते हैं लेकिन धार्मिक धर्मादेके विषयमें ये रिलीजस् एन्डोमेन्ट एक्ट नं०२० सन १८६३ ई० द्वारा रद्द हो गये हैं । वक्त एक्ट नं० २० सन १८६३ ई० प्रेसीडेन्सी टाउन ( कलकत्ता, बम्बई, मदरास) के अतिरिक्त, और कनारा ज़िला तथा सारे बम्बई प्रान्तको छोड़कर भारतमें सर्वत्र जारी हैं।
(६) मदरासमें प्रबन्धकी व्यवस्था-मदरास प्रान्तमें जिन धर्मादोंसे मदरास रेगूलेशन एक्ट ७ सन १८१७ ई० लागू होता है उनकी देखरेख और प्रबन्धका अधिकार मदरास रेविन्यू बोर्ड, सकौन्सिल गवर्नर और ज़िला म्युनिसिपल कौन्सिलकी रजामन्दीसे, म्युनिसिपल कौन्सिलको दे सकती है ऐसा अधिकार दिये जाने के बाद उक्त कौन्सिलको धर्मादेके सम्बन्धमें वे ही सब अधिकार प्राप्त हो जाते हैं जो रेविन्यू बोर्ड को होते हैं, देखो-म्युनिसिपल एक्ट ४ सन १८८४ ई० की दफा २६. दफा ८७९ धार्मिक धर्मादेका कानून
एफ्ट नं० २० सन् १८६३ ई० के कानूनका उद्देश उसकी भूमिकाहीमें कहा गया है वह यह है कि पूर्वोक्त बङ्गाल और मदरास रेगूलेशनोंके द्वारा रेविन्यू वोडौँके ऊपर जो जिम्मेदारी है उसका बोझ नीचे लिखी सीमा तक बंगाल और मदरास प्रेसीडेम्सियोंमें हलका किया जाय । बोडोंसे नीचे काम ले लिये गये हैं--
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१०६०
धार्मिक और खैराती धमादे
[सत्रहवां प्रकरण
(१) मन्दिर, मसजिद, और दूसरे धार्मिक कामों के साथ लगी हुई जमीनकी देखरेख, (२) उन धार्मिक संस्थाओंके चलाने के लिये धर्मादेका कोई भाग अपने कब्ज़में लेना, (३) उन धार्मिक संस्थाओं की इमारतोंकी मरम्मत और रक्षा, (४) ट्रस्टियों और मेनेजरोंकी नियुक्ति और (५) ऐसे धार्मिक संस्थाओंके प्रबन्ध सम्बन्धी अन्य सब काम ।
__ यह कानून उन सब सार्वजनिक धार्मिक धर्मादोंसे लागू होता है जिनके चलानेके लिये ज़मीन भूतपूर्व भारत सरकारने या अन्य लोगोंने दी हो और जो रेविन्य बोर्डकी देखरेख में चाहे रहे हों या न रहे हों, और जो इस कानून के पास होनेके समय मौजूद हों या पीछे कायम हुये हों। यह कानून उन धार्मिक धर्मादोंसे भी लागू होता है जो पूर्वोक्त रेगूलेशनोंके जारी रहनेकी सूरतमें उनके अधीन माने जाते थे; देखो-26 Mad. 166.
22 Mad. 223, 34 Mad. 376. वाले मामलों में माना गया कि उक्त दोनों रेगूलेशनोंके रद्द होनेके समय जो धार्मिक धर्मादे कायम हों या न हों उनसे भी यह एन्डोमेन्ट एक्ट २० सन् १८६३ ई० लागू होता है। यह एक्ट भारतमें कहां तक लागू है इस विषयमें इस दफाके ऊपर वाली दफाएं 'रेगूलेशनोंका लगाव' शीर्षकके सम्बन्धमें कह चुके हैं।
चन्देसे स्थापित - यह कानून उन धर्मादोंसे भी लागू होता है जो धर्मादे श्रादि चन्देसे स्थापित किये गये हों, देखो-19 All. 104.
निजके दूस्टसे लागू नहीं होता-यह एन्डोमेन्ट एफ्ट २० सन १८६३ ई० सिर्फ सार्वजनिक ट्रस्टसे लागू होता है निजके ट्रस्टसे नहीं होता, देखो14 Mad. 1; 3 Cal. 325; 15 B. L. R. 167; 23 W. R. C. R. 4533; 19 Cal. 275. लेकिन उन धार्मिक धर्मादोंसे लागू होता है जो सरकारके प्रवन्धमें रहे हों या हों। दफा ७८० सार्वजनिक धर्मादा
धार्मिक कामों के लिये स्थापित किया हुआ सार्वजनिक धर्मादा वह है जिससे उस खास धर्मके मानने वाले सभी श्रेणियोंके लोग लाभ उठाते हों, ऐसाही खैराती धर्मादा होता है । जिस समाजका वह धर्मादा हो उस समाज के सव आदमी जो उस धर्मादेका लाभ उठाना चाहें उठा सकते हों। उनमेंसे हर एकको हर समय और हर मौसममें उससे लाभ उठानेका समान हक्क प्राप्त हो । धर्मादा कायम करने वालेको चाहिये कि किसी ट्रस्टको सार्वजनिक दूस्ट बनाते समय यह इरादा ज़रूर प्रकट करदे कि वह धर्मादा साधारणतः सब लोगोंके लाभके लिये है अथवा किसी एक सम्प्रदायके जनोंके लाभके लिये स्थापित किया गया है, देखो--14 Mad 1... ... .
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दफा ८८०-८८२]
धर्मादेकी संस्थाके नियम :
सार्वजनिक धर्मादोंके विषयमें धार्मिक धर्मादोंके कानून रिलिजस् एन्डोमेन्ट एक्ट नं० २० सन १८६३ ई०
की आवश्यक प्राज्ञायें
नोट-एक्ट नं० २० सन् १८६३ ई. कहां लागू होता है किन धर्मादासे सम्बन्ध रक्ता है इत्यादि बातें इसके पूर्व लिख चुके हैं नीचे इस कानूनकी जरूरी जरूरी कुछ दफार्य पाठकोंके ज्ञानके लिए लिखते हैं । आगे जहांपर केवल 'दफा' शब्द मिले उससे एक्ट नं० २० सन् १८६३ ई. कानूनकी दफा समझमा । दफा ८८१ धार्मिक ट्रस्टकी जायदादका इन्तकाल ___ "प्रत्येक मसजिद, मन्दिर, या धार्मिक संस्था जो पूर्वाक्त रेगूलेशनों (नं०१६ सन् १९९० ई० और नं०७ सन् १८१७ ई) के अधीन हों और जिसका प्रबन्ध ऐसे ट्रस्टी मेनेजर या सुपरिन्टेन्डेन्टके हाथमें हो जिसकी नियुक्ति या नियुक्तिकी मंजूरीका अधिकार न सरकारके हाथमें हो और न किसी सार्वजनिक अफसरके हाथमें हो तो सरकार आशा देगी कि उस मसजिद, मन्दिर या धार्मिक संस्थाकी जायदाद जो रेविन्य बोर्डकी देखरेख में हो उसका इन्तकाल ट्रस्टी, मेनेजर या सुपरिन्टेन्डेन्टको कर दिया जाय" ।। .. ट्रस्टी पदका उत्तराधिकार-जिस ट्रस्टी या मेनेजर या सुपरिन्टेन्डेन्ट को जायदादका इन्तनाल किया गया हो, उसके पदके उत्तराधिकारके विषय में अगर विवाद उपस्थित हो तो उस मसजिद, मन्दिर या धार्मिक संस्थामें स्वार्थ रखने वाले या उसके टूस्टमें स्वार्थ रखने वाले या उसमें पूजा या सेवा करने वाले किसी भी आदमीकी दरख्वास्तपर अदालत दीवानी उस वक्त तक के लिये किसीको मेनेजर मुकर्रर कर देगी जब तककि कोई दूसरा आदमी दावा दायर करके उस पदपर अपने उत्तराधिकारका हक्र साबित न करदे देखो-4 Mad. 295; इस व्यवस्थाके अनुसार कलक्टर ट्रस्टी मुकर्रर कर सकता है। देखो-19 Mad. 285. इस व्यवस्थाके अनुसार जो कुछ हुक्म दिया गया हो उसकी अपील नहीं हो सकती किन्तु हाईकोर्ट उस हुक्मकी नज़रसानी ( Revise ) सुनेगी 26 Mad. 85. दफा ८८२ ट्रस्ट आदिका हक, अधिकार और जिम्मेदारी......
जिस ट्रस्टी या मेनेजर या सुपरिन्टेन्डेन्टको धर्मादेकी आयदादका इन्तकाल किया गया हो उसके हक अधिकार और ज़िम्मेदारियां और उसकी नियुक्ति, चुनाव और बरखास्तगीकी शर्ते ठीक वही हैं जो एण्डोमेण्ट एक्द
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धार्मिक और खैराती धर्मादे
[ सत्रद्रवां प्रकरणं
नं० २० सन १८६३ ई० के पास होनेसे पहले थीं, मगर उस ट्रस्टी आदिके ज़िम्मे धर्मादेका जो पावना होगा उसके वसूल करनेके लिये दावा उक्त एण्डोमेण्ट एक्ट के अनुसार किया जायगा । धर्मादेकी इन्तक़ालकी हुई जायदाइकी मालगुजारी या किराया, आमदनी वग़ैरा वसूल करनेका जो हक़ रेवन्यू बोर्ड या एजेन्टको था वही ट्रस्टी, मेनेजर या सुपरिण्टेण्डेण्टको जिसे वह जायदाद इन्तक़ालकी गई हो होता है । दफा ८८३ कमेटीकी नियुक्ति
१०६२
एण्डोमेण्ट एक्ट २० सन १८६३ ई० के पास होने के समय जिस मसजिद, मंदिर या धार्मिक संस्थासे पूर्वोक्त रेगूलेशनों में से कोई भी रेगूलेशन लागू होता था और जिसके ट्रस्टी, मेनेजर या सुपरिटेण्डेण्ट की नियुक्ति या नियुक्त की मंजूरीका अधिकार सरकार या सार्वजनिक अफसरके हाथमें था तो ऐसे मसजिद, मंदिर या धार्मिक संस्था के लिये प्रान्तीय सरकार तीन या ज्यादा आदमियों की कमेटी मुकर्रर कर देगी और उस कमेटीको वही अधिकार होंगे जो पूर्वोक्त रेगूलेशनोंके अनुसार रेविन्यू बोर्ड और उसके लोकल एजेन्टोंको प्राप्त थे, देखो - 29 Mad. 166.
दफा ८८४ कमेटी के मेम्बर कैसे होना चाहिये
जिस धर्मके मतलबों के लिये वह मसजिद, मंदिर या दूसरे धार्मिक धर्मादे स्थापित किये गये हों, उसी धर्मके लोगों में से कमेटी के मेम्बर नियुक्त किये जायेंगे और उनकी नियुक्ति उन लोगोंकी इच्छा मालूम करके होगी जो उस मसजिद, मंदिर या धर्मादेमें स्वार्थ रखते हों । कमेटी की नियुक्ति की सूचना सरकारी गजटमें प्रकाशित की जायगी. उस मसजिद, मंदिर या धर्मादे में स्वार्थ रखने वालोंकी राय, मेम्बरोंकी नियुक्ति के विषय में, प्रान्तीय सरकार यदि चाहे तो चुनाव द्वारा मालूम करेगी, और यह चुनाव उसी सरकार के बनाये हुए नियमों के अनुसार होगा जो इस क़ानून के विरुद्ध न हों। दफा ८८५ मेम्बर स्थाई होगा
एक्ट नं० २० सन् १८६३ ई० की दफा ६ के अनुसार पूर्वोक्त कमेटी का हरएक मेम्बर उमर भरके लिये नियुक्त किया जाता है वह बदचलनी या अयोग्यता के कारण हटाया जासकता है लेकिन वह अदालत दीवानीके हुक्मके सिवाय और किसी तरह पर नहीं हटाया जासकता है किन्तु कोई भी मेम्बर अपनी इच्छा से हर समय अलग हो सकता है ।
दफा ८८६ मेम्बरके खाली स्थानकी पूर्ति
उपरोक्त एक्ट नं० २० सन् १८६३ई० की दफा १० इस प्रकार है - पूर्वोक कमेटी के किसी मेम्बरकी जगह जब खाली हो जाय तो मसजिद, मन्दिर या
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दफा ८८३-८८६]
धर्मादेकी संस्थाके नियम
दूसरे धर्मादेमें स्वार्थ रखने वाले लोगोंमें से एक नया मेम्बर चुनकर उस खाली स्थानकी पूर्तिकी जायगी, कमेटीके बाकी मेम्बर खाली जगह होनेकी सूचना जहांतक शीघ्र होसके सार्वजनिक तौरसे देंगे और मसजिद, मन्दिर या दूसरे धर्मादे में स्वार्थ रखने वाले लोगों में से एक नया मेम्बर चुनने के लिये एक ऐसा दिन मुकर्रर करेंगे जिसकी मियाद स्थान खाली होनेसे तीन महीनेके अन्दर हो । नये मेम्बरका चुनाव प्रान्तीय सरकारके बनाये हुए नियम के अनुसार होगा और उन नियमोंके अनुसार जो आदमी चुना जाय वही उस कमेटीकी खाली जगह भरने वाला मेम्बर होगा। अगर जगह खाली होनेसे तीन महीनेके अन्दर चुनावके द्वारा जगह न भरी जाय तो दीवानी अदालत किसी भी प्रादमीकी दरख्वास्त पर एक आदमीको उस जगहके भरने के लिये नियुक्त करेगी या आज्ञा देगी कि कमेटीके बाकी मेम्बर उस खाली जगहको शीघ्र भर लें, कमेटीके बाकी मेम्बरोंका कर्तव्य होगा कि इस माशाका वे पालन करें अगर न करें तो दीवानी अदालत स्वयं किसी मेम्बर को उस खाली जगहमें नियत कर देगी।
जब मेम्बरों की संख्या ३ से कम हो जाय तो वे कमेटीका काम नहीं कर सकते; देखो-साथलवा बनाम मंजनाशेटी 34Mad. 1; और जय कमेटी के सभी मेम्बरोंकी जगहें खाली हो जाय तो अदालत एकनई कमेटी स्थापित करेगी, देखो-4 C. W. N. 527; इस कानूनकी दफा १० के अनुसार जो अधिकार अदालतको दिये गये हैं उनकी अपील नहीं हो सकती देखो-14 I. A 160; 11 Mad. 26.
ट्रस्टीकी जगह खाली होना और समयपर नियुक्त न किया जाना तथा नोटिस देना-पेरूरके मन्दिरके ट्रस्टियोंकी एक जगह खाली हुई। दूस्टनामे की दफा ४ में लिखा थाकि “अगर ट्रस्टीकी जगह खाली होनेके बाद दो महीने के भीतर उसकी पूर्ति न हो जायगी तो अदालतको अधिकार होगा कि वह दो अथवा अधिक पुजारियों की प्रार्थनापर ट्रस्टी नियुक्त करदे अगर कमेटी को नोटिस दिये जाने के पश्चात् नोटिसकी तामीलकी तारीखसे एक महीनेके भीतर स्थानकी पूर्ति न करदी जायगी" भाषा ट्रस्टनामेकी बड़े गोलमालकी है साफ़ नहीं है कि कौन नोटिस देगा ? कौन तामील करायेगा ? कमेटीने दो महीने तक खाली जगहकी पूर्ति नहीं की और पुजारियोंने अदालतमें दरख्वास्त दी कि जगहकी पूर्तिकी जाय दरख्वास्त देने के समय जगह खाली थी मगर पीछे ट्रस्ट कमेटीने एक शरूसको चुना उसकी मंजूरीके लिये पत्र लिखा, जिसे चुना था उसने जवाबमें यह लिखाकि "अगर सब लोग मुझे चुनते हैं तो मुझं इनकार नहीं है" इसका मतलब साफ़ मंजूरी नहीं माना गया क्योंकि जवाबमें उसने 'सब लोगों' का जो वाक्य लिखा था ठीक न था बहुमतसे वे चुने गये थे। अदालतने ट्रस्टी नियत कर दिया था । तय हुआकि दूस्टके
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धार्मिक और खैराती धर्मादे
[ सत्रहवां प्रकरण
नियम भंग करने पर अदालतको ऐसा अधिकार था | नोटिसमें यह लिखना चाहिये था कि अगर नोटिसकी तामील न की जावेगी तो फलां काम किया जावेगा यह बहस जो की गयी है ठीक नहीं है। नोटिसका अर्थ सूचना देना है, देखो - 80 I. C. 615; 1925 I. A. J. 175. Mad.
दफा ८८७ कोई मेम्बर ट्रस्टी नहीं हो सकता
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जिस मसजिद, मन्दिर या दूसरे धर्मादेके लिये कमेटी स्थापितकी गई हो उसका कोई भी मेम्बर उस मसजिद, मन्दिर या धर्मादेका ट्रस्टी, मेनेजर, सुपरिन्टेन्डेन्ट नहीं हो सकता ।
दफा ८८८ कमेटी के अधिकार
जिल धर्मादेकी कमेटी हो उस धर्मादेकी जायदादका इन्तक़ाल कमेटी के नाम होगा जो जायदाद कि रेवन्यूबोर्ड के अधिकारमें हो, उस जायदादकी मालगुज़ारी या किराये की वसूली के विषय में रेवन्यूबोर्ड, या लोकल एजेन्ट को जो जो अधिकार थे वही सब कमेटीको भी प्राप्त होगें । धर्मादेकी कमेटी के अधिकारों औ कर्तव्यों की तफसील उक्त क़ानून में नहीं बताई गई किन्तु उन्हे धर्मादेकी देखरेख और शासन के साधारणतः संव अधिकार प्राप्त हैं, इन अधिकारोंको काममें लाते हुए कमेठीको सदैव यह देखना चाहिये कि मालगुज़ारी और किराया बराबर वसूल हो रहा हैं और उसके लिये सब कानूनी उपाय किये जा रहे हैं ? इस कर्तव्य पालनके लिये उन्हें यह देखना चाहिये कि मेनेजर वसूली आदिके सब काम नेकनीयती से कर रहे हैं ? धर्मादे की किसी जायदादका अपने नाम लिखा लेना यद्यपि किसी मेम्बरके लिये उचित नहीं है फिर भी यह क़ानूनके बिल्कुल विरुद्ध नहीं है। देखो- -19 Mad. 395.
देवस्थानं, कमेटीका प्रथम कर्तव्य यह है कि वह देखे कि किस उद्देशसे धर्मादे स्थापित किये गये हैं उन्हीं उद्देशोंके लिये श्रमदनी, खर्च की जाती है और व्यर्थ खर्च तो नहीं होता, ट्रस्टी लोग धर्मादेके जो धार्मिक कृत्य करते हों उनमें हस्तक्षेप करना कमेटीका काम नहीं है; देखो - 22 Mad. 361.
नया ट्रस्टी जोड़ना (एडीशनल ट्रस्टी) - मन्दिर के प्रबन्धकी जो प्रणाली बोर्डने संगठित कर दी हो उसको कमेटी बदल नहीं सकती और जब कि ट्रस्टियों में से सब या कोई पुश्तैनी हो (Hereditary Trustee ) तो उनमें कोई ट्रस्टी नया जोड़ नहीं सकती । स्वीकृत व्यवस्थाके अनुसार जितने ट्रस्टी मुकर्रर किये गये हों और वे ट्रस्टी चाहे पुश्तैनी न भी हों तो भी कमेटीको यह अधिकार नहीं है कि बिना किसी अच्छे और यथेष्ट कारणके उन ट्रस्टियोंकी संख्या बढ़ाये ।
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दफा ८८७-८१०]
धर्मादेकी संस्थाके नियम
१०६५
नये ट्रस्टी-कमेटी नया ट्रस्टी मुक़र्रर कर सकती है मगर सिर्फ उस सूरतमें जबकि कोई पुश्तैनी ट्रस्टी न हो, लेकिन कमेटीके अन्य अधिकारों की तरह यह अधिकार भी कमेटीको उचित रीतिसे और नेकनीयतीके साथ काममें लाना होगा। अदालत दीवानी इसकी देखरेख कर सकती है, देखोदाउद सेवा बनाम हुसेन साहेब 17 Mad. 212.
टूस्टियोंकी बरखास्तगी-सिर्फ उचितकारण होनेपर ही कमेटी या उसके अधिकांश मेम्बर, मन्दिरके दूस्टियों, सुपरिन्टेन्डेन्टोंको बरखास्त करने का या मुअत्तिल करने का अधिकार रखते हैं। ऐसी बरखास्तगी कमेटीमें विचारपूर्ण जांच होने के पश्चात्ही होगी; देखो-4 Mad. H. C. 443; 3 Mad. H. C. 334; 21 Mad. 179. कमेटीकी कार्य प्रणाली उन्हीं नियमानुसार होगी जैसाकि और बाकायदा सभाओंकी होती है।
दावा दायर करना-अपने अधिकागेका पालन कराने के लिये,कमेटी बिना किसी प्रकारकी मंजूरी लिये जब ज़रूरत पड़े दावा दायर कर सकती है, लेकिन जायदाद सम्बन्धी दावे ट्रस्टी या मेनेजर दायर करेंगे-17 Mad. 143
जायदादका कब्ज़ा-धर्मादेकी जायदादपर क़ब्ज़ा रखनेका हक कमेटी को नहीं है ( 12 Mad. 336 ). जिस धर्मादेके ट्रस्टियोंको सरकार मुकर्रर नहीं करती उस धर्मादेके ट्रस्टी कमेटीकी आमाके अधीन नहीं होते, देखो5 Mad. H. C. 48. दफा ८८९ आमदनी और ख़र्चका हिसाव
उपरोक्त एक्ट नं० २० सन् १८६३ ई० की दफा १३ इस प्रकार है-हर एक मसजिद, मन्दिर, या धार्मिक संस्था जिससे यह कानून लागू हो उसके हर एक ट्रस्टी या मेनेजर और सुपरिन्टेन्डेन्टका यह कर्तव्य होगा कि उस मसजिद, मन्दिर या दूसरी धार्मिक संस्थाके धर्मादेकी आमदनी और खर्चका हिसाब किताव बाकायदा रखे और हर एक प्रबन्धकारिणी कमेटी जो इस कानूनके अनुसार स्थापित कीगई हो या इस कानून द्वारा अधिकार दिये जाने से प्रबन्धका काम कर रही हो, उसका कर्तव्य होगा कि प्रत्येक मसजिद,मंदिर या दूसरी धार्मिक संस्थाके हर एक दूस्टी मेनेजर और सुपरिन्टेन्डेन्टको हुक्म दे कि वह उस आमदनी और खर्चका हिसाब किताब कमसे कम सालमें एक दफे बाकायदा पेश करे और ऐसी हर एक प्रवन्धकारिणी वैसा हिसाब किताब स्वयं भी रखेगी। कमेटीके सामने हिसाब न पेश करनेकी सूरतमें दृस्टी हटाया जा सकता है, देखो-22 Mad. 481. दफा ८९. प्रत्येक आदमी कब दावा कर सकता है
उपरोक्त एक्ट नं० २० सन् १८६३ ई० की दफा १४ इस प्रकार हैकोई भी आदमी या आदमियोंका समूह, जो किसी मसजिद, मन्दिर या धार्मिक
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धार्मिक और खैराती धर्मादे
[ सत्रहवां प्रकरण
संस्थामें या उसकी पूजा पाठके किये जाने में या उसके ट्रस्टमें स्वार्थ रखता हो, बिना उन दूसरे लोगोंसे मिले हुये जो वैसाही स्वार्थ रखते हों अदालत दीवानीमें मसजिद, मन्दिर या धार्मिक संस्थाके ट्रस्टियों, मेनेजर या सुपरिन्टेन्डेन्ट पर या इस क़ानूनके अनुसार स्थापितकी हुई कमेटीके मेम्बर पर, ट्रस्ट का भंग या कर्तव्यकी ग्रफलत जो ट्रस्टी मेनेजर सुपरिन्टेन्डेन्ट या मेम्बर कमेटीने उस ट्रस्टके सम्बन्धमें जो उन्हें सिपुर्द किया गया हो की हो, उसके लिये अलग केवल अपने अधिकारसे दावा दायर कर सकता है । अदालत दीवानी वैसे ट्रस्टी मेनेजर या सुपरिन्टेन्डेन्ट या मेम्बर कमेटीको नामाङ्कित काम पूरा करने ( Spesific performance ) की आज्ञा देगी और ट्रस्टी मेनेजर सुपरिन्टेन्डेन्ट या मेम्बर कमेटीपर हरजाने और खर्चा मुक़द्दमाकी डिकरी दे सकती है, और उस ट्रस्टी मेनेजर सुपरिन्टेन्डेन्ट या मेम्बर कमेटी के हटाये जानेका हुक्म दे सकती है ।
नोट- यदि कमेटी, किसी वैष्णव मंदिरके ट्रस्टी पदपर किसी शैवको नियुक्त करे तो यह कारण ट्रस्ट भंगका नहीं माना जायगा, देखो --7 Mad. 222 और इस दफा के अनुसार दावा करने वाला मुफलिसी में भी दावा दायर कर सकता है, देखो 24 Mad. 419.
१०६६
महज़ समझकी गलतीसे जो काम किया गयाछो उसके कारण देवस्थान कमेटीका मेम्बर हटाया नहीं जा सकता ऐसे पदाधिकारीके हटानेके कारण में यह दिखाना होगा कि क्या उस पदपर उसका बना रहना मन्दिरके स्वार्थ के विरुद्ध होगा ( 22 Mad. 361 ). ऊपरकी दफा १४ में जिन दावोंका ज़िकर किया गया है उनके सिवाय और किसी तरहके दावोंसे उक्त एक्ट लागू नहीं होता, देखो -- नीचे किखे हुये उदाहरण
( दावे जिनसे एक्ट नं० २० सन् १८६३ ई० लागू नहीं होता )
( क ) मन्दिर के प्रबन्धके हमें बटवारेका दावा (3M. H. C. 198). ( ख ) मन्दिर के धर्मकर्ता और उस मन्दिरके पूजकका दावा जो वह देवस्थानके मृत मेनेजरके वारिसपर इसलिये करेकि देवस्थान के धनमें उस मेनेजरके ट्रस्ट भंग करने और स्वयं रुपया खा जानेके कारण जो कमी हुई उसे पूरा करे (4 Mad.H. C. 2). (ग) किसीका यह दावाकि अमुक महन्त हटाया जाय और उसकी जगहपर मैं नियुक्त किया जाऊं ( 22 W. R. C.R. 364 ). (घ) मन्दिर के किसी पदाधिकारीका दावा जो कहता हो कि मैं अनुचित रीति से नौकरी परसे छुटाया गया हूं (4Mad H.C.112). (च) ट्रस्टकी जायदाद जिसको इन्तक़ाल कीगयी हो चाहे वह इन्त
नाल ट्रस्ट भंग करके किया गया हो उसे पुनः प्राप्त करनेका दावा, देखो -- (4 Mad. 157; 6 Mad. 54, 22Mad 223). (छ) ट्रस्टके द्वारा जो नामाङ्कित जायदाद किसीको दीगई हो उसकी प्राप्तिका दावा ( 4 N. W. P. 155 ).
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दफा ८६१-८१२]
धर्मादेकी संस्थाके नियम
१०६७
(ज) ट्रस्ट भंग किये जानेकी बिनापर जायदादके कजेका दावा (2
N. W. P. 420 ). दफा ८९१ कैसे लाभके लिये दावा किया जा सकता है .
उपरोक्त एक्ट नं० २० सन १८६३ ई०की दफा १५ इस प्रकार है-दफा १४ के अनुसार जिस स्वार्थ के लिये दावा किया जा सकता है यह जरूरी नहीं है कि वह स्वार्थ धनसे सम्बन्ध रखता हो या वह सीधा (डाइरेक्ट) हो या ऐसा हो कि किसके कारण दस्टकी देखरेख और प्रबन्धमें भाग लेनेका हक मुद्दईको हासिल हो। कोई भी आदमी जो किसी मसजिद, मंदिर या धार्मिक संस्थामें उपस्थित रहा करता हो या वहांसे मिलने वाली भिक्षा प्राप्त करता रहा हो वही ऐसा आदमी है कि जिसको दफ १४ के अनुसार दावा करनेका हक्क प्राप्त है इस कानूनके अनुसार जो दावे या कार्रवाइयांकी जाएं उनमें अदालतको अधिकार है कि मतभेदका निर्णय पंचायत ( Arbitration) से कराले-26 Mad, 361, 19 Mad. 498.
दावा दायर करने की इजाज़त-इस कानूनकी दफारजो सन्१८७०ई० के एक्ट नं०७ से संशोधित हुई है उसका मतलब यह है कि इस कानूनके अनुसार अदालतसे इजाज़त लिये बिना कोई दावा दायर नहीं किया जा सकता। इजाज़तकी दरख्वास्त देनेपर अदालत यह विचार करेगी कि प्रत्यक्ष में कोई ऐसी बातें मौजूद हैं जिनके ख्यालसे इजाज़तदीजाय अगर अदालतकी रायमें दूस्टके लाभके लिये दावा दायर किया गया है और किसी फरीका कुछ दोष नहीं है तो वह दूस्टीकी जायदादसे मुक़दमेका खर्चा जो उचित समझे दिलायेगी (22 W. R.C. R. 22 ) ध्यान रहे कि दावा दायर करने की इजाज़त वह स्वयं या उसका वकील मांग सकता है, तथा यदि अदालत उचित समझे तो दूसरे फ़रीक़के नाम नोटिस भी न देवे और जिस घातकी रजाजत मांगी गई हो ठीक उसीका दावा दायर हो सकता है दूसरेका नहीं। इजाज़तकी दरख्वास्तकी मंजूरी या नामंजूरीके हुक्मकी अपील नहीं हो सकती किन्तु जो दावे हाईकोर्ट में सीधे दायर हो सकते हैं उनमें इजाज़त मांगनेकी ज़रूरत नहीं है। दफा ८९२ अदालत ट्रस्टका हिसाब मांग सकती है
उपरोक्त एक्ट नं० २०सन् १८६३ ई०की दफा १६ इस प्रकार है-दावा दायर करनेकी इजाज़त देनेसे पहले, या अगर इजाज़त दी गई हो तो दावा दायर किये जानेसे पहले या किसी वक्त जब कि दावा चल रहा हो, अदालत ट्रस्टी मेनेजर सुपरिन्टेन्डेन्ट या मेम्बर कमेटीको हुक्म दे सकती है कि वह ट्रस्टका हिसाब या उसका कोई भी अंश जो अदालत मुनासिब समझे पेश करे।
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धार्मिक और खैराती धर्मादे
[सत्रहवां प्रकरण -
दफा ८९३ सामाजिक या धार्मिक उद्देशोंके धर्मादे
__ उपरोक्त एक्ट नं० २० सन् १८६३ ई० की दफा २१ इस प्रकार हैकिसी मामले में कि जिसमें कोई ज़मीन या दूसरी जायदाद किसी ऐसी संस्था के चलाने के लिये दी गई हो कि जिसका कुछ भाग धार्मिक और कुछ भाग समाजिक उद्देशका हो या उस संस्था सम्बन्धी कोई धर्मादा जिसका कुछ भाग धार्मिक और कुछ भाग सामाजिक उद्देशके लिये खर्च किया जाता हो एसे मामलों में रेविन्यूबोर्ड उस जायदादके दूस्टी, मेनेजर, सुपरिन्टेन्डेन्ट या इस कानूनके अनुसार मुकर्ररकी हुई प्रबन्ध कारिणी कमेटीको उस दृस्टकी जायदादका इन्तकाल करते समय यह निश्चय करेगी कि सामाजिक उद्देशके खर्चके लिये कितनी ज़मीन या दूसरी जायदाद बोर्डकी देखरेखमें रहे और कितनी टूस्टी, मेनेजर, सुपरिन्टेन्डेन्ट या कमेटीके देखरेखमें रहे और यह भी निश्चय करेगी कि ट्रस्टी मेनेजर सुपरिन्टेन्डेन्ट या कमेटीके देखरखमें दी हुई ज़मीन या दूसरी जायदादसे सालाना कितनी रकम बोर्डको या लोकल एजेन्टको सामाजिक उद्देशके खर्च के लिये दी जाया करेगी। ऐसे प्रत्येक मामलेमें जो ज़मीन या दूसरी जायदाद मुन्तकिलकी गई हो उसीसे इस क़ानूनकी आज्ञा लागू होगी। दफा ८९४ सरकार अपने हाथ में नहीं रखेगी
उपरोक्त एक्ट नं० २० सन् १८६३ ई. की दफा २२ इस प्रकार हैइस कानूनमें जो आज्ञा दी गई है उसके सिवाय और किसी सूरत में भारत सरकार या उसके किसी अफसरके लिये यह लाज़िम न होगा कि मसजिद, मन्दिर या दूसरी धार्मिक संस्थाकी असली जायदाद या उसके चलाने के लिये दी हुई ज़मीन या दूसरी जायदादकी देखरेख करनेका ज़िम्माले, या मसजिद मन्दिर या दूसरी धार्मिक संस्थाके लिये दी हुई जायदाद अपने कब्जेमें ले या उसके प्रइन्धमें भाग ले या ट्रस्टी मेनेजर सुपरिन्टेन्डेन्ट नियत करे या किसी तरह भी उससे सम्बन्ध रखे।
राती जायदाद-खैराती धर्मादेकी जायदाद, खैराती धर्मादेके सरकारी खजानचीके सिपुर्दकी जासकती है लेकिन वह महज़ खजानचीकी हैसियतसे उसका प्रबन्ध नहीं करेगा देखो-एक्ट नं०७ सन् १८६०ई०।
नोट-ऐसी कोई संस्था यदि कहाँपर कायम हो जिसका स्पष्ठ नाम इस प्रकरणमें न बताया गया है। मगर वह संस्था इस किताबकी दफा ८१७ में कहे हुए मतलबों या किसी एक मतलबके लिये कायम हो अथवा उक्त दफाके किसी मतलब और अन्य किसी मतलबके लिये भी कायम हो तो जहांतक उमम दफा ८१७ के उद्देशों का सम्बन्ध है वहांतक उस संस्था के साथ इस प्रकरणमें कहे हुए नियम लागू होंगे।
॥ इति ॥
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ॐ
बाल विवाह निषेधक एक्ट
नं० १९ सन् १९२९ ई०
THE
Child Marriage Restraint Act No. 19 of 1929,
सर्वाङ्गपूर्ण व्याख्या और नज़ीरों सहित
१ अप्रैल सन् १९३० ई० से प्रचलित
लेखक :
बाबू रूपकिशोर टण्डन,
एम० ए० एलएल० बी० एम० आर० ए० एस० एडवोकेट.
प्रकाशक :
पं• चन्द्रशेखर शुक्ल,
मुद्रित कानून प्रेस, कानपुर.
-TIBET
सन् १६२६ ई०
मिलने का पता :
( १ ) कानून प्रेस, कानपुर, (२) बम्बई
मूल्य
दो आना प्रति.
पुस्तकालय, चौक कानपुर.
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कानूनका संक्षिप्त इतिहास और जानने योग्य बातें
आज हम यह कानून हिन्दी पाठकोंकी सेवामें विस्तृत व्याख्या सहित उपस्थित कर रहे हैं। माननीय श्री हरिबिलास जी सारडाने दिल्लीकी भारतीय व्यवस्थापिका सभामें सन् १९२६ ई. में इस कानूनके बनाये जाने के लिये बिल पेश किया था। जैसे जैसे समय बीतता गया और इस बिल का रूपान्तर होता गया उसी तरह देशके कोने कोने में इसकी चर्चा बढ़ने लगी, समर्थन और विरोध में अनेकों सभायें हुयीं । भारतके प्रत्येक प्रांतके प्रत्येक बड़े शहर या नगरमें दोनों तरफकी सभाएं हुयीं और बड़े बड़े प्रस्ताव जोशके साथ पास किये गये । श्री सारडा जी के पेश किये हुए इस बिल का नाम 'सारडा बिल' पड़ गया । समाचार पत्रों, सभाओं, तथा प्रस्ताओं में यही नाम लिखा और कहा जाने लगा । प्रथमवार कौंसिलमें पेश होने पर यह बिल एक विशेष समिति ( सेलेक्ट कमेटी) के सिपुर्द विचार करने के लिये किया गया । विशेष समितिने जब इस 'सारडा बिल' पर विचार किया तो उस बिलको प्रायः रद्द करके उसने अपनी तरफसे एक नया बिल बनाकर कौंसिल के सामने पेश किया जिससे मूल सारड़ा बिलका बिल् कुल रूपान्तर होगया । सारड़ा बिल जिस रूपमें सर्वप्रथम पेश हुआ था वह प्रायः बहुत कुछ संशोधित होकर एक नये रूपमें फिर. कौंसिलके सामने सेलेक्ट कमेटी द्वारा पेश हुआ। कौंसिलने दूसरो विशेष समिति ( सेकेन्ड सेलेक्ट कमेटी ) बनायी और विचारार्थ यह बिल उसके सिपुर्द किया । जबसे यह बिल दूसरी विशेष समिति के सामने आया देशमें अधिक हलचल मची और दोनों पक्षों के अगुआओंने बड़े जोरोंका आन्दोलन शुरू किया। एक ओर भविष्यदर्शी विचारशील विद्वानों ने जोर पकड़ा दूसरी ओर धर्म शास्त्रियों द्वारा प्रभावित इतर विद्वान समुदाय विरोधमें खड़ा हुआ । प्रबल स्पर्धाक साथ दोनों पक्षोंने पूर्ण शक्तिसे मुकाबिला किया। इस बिलके समर्थन और विरोध दोनों पक्षोंके स्त्री और पुरुषोंने भाग लिया और दोनों दलोंके नेता श्रीमान् बड़े लाट साहब से मिले और अपने अपने पक्षकी बातें समझायीं।
__ यों तो सारे देश में इस विलके विरोध सभायें हुयीं पर इस बिलका सबसे ज्यादा विरोध मद्रासके द्रविड़ पंडिताने किया सभाओंके अलावा ३१ अगस्त १९२९ को मदरासका एक सभ्य दल बड़े लाट साहबसे मिला और १५ पेजोका एक प्रार्थना पत्र पेश किया जिसमें मख्य बात कि महरानी विक्टूरिया घोषित कर चुकी हैं कि धार्मिक विषयों पर दखल नहीं दिया जायगा, हिन्दू विवाह धार्मिक कृत्य है, बच्चों की मृत्यसे बाल विवाहकः सम्बन्ध नहीं है. एक बडे मजेदार बात
और कही गई श्रीमती लक्ष्मी अम्मल ( स्त्री ) ने कहा कि मेरा विवाह ३ वर्षकी उमरमें ११ वर्षकी उमरके पति के साथ हुआ था अब मेरी उमर ६० वर्षकी है मगर मैं अबतक तन्दुरुस्त हूं इससे प्रमाणित है कि बाल विवाह करनेसे शारीरिक बल नहीं घटता। इसी तरह पर अन्य दलोंके नेताओं ने भी बड़े लाट साहबसे मिलकर अपने अपने पक्ष की ओर से प्रार्थनायें की। अन्य प्रान्तीने वैसा कट्टर 'विरोध नहीं किया, आशंका यह थी कि मुसलमान भाई एक मतले घोर विरोध करेंगे परन्तु उनके न्यून दलने कुछ उछल कूद की समझदार दलने हृदयसे समर्थन किया। मुसलमानोंका विरोधी दल संप्रदायवादी था जिसका कहना था कि गैर मुसलमानोंको कानून न बनाना चाहिये, वे डेढ़ ईटकी मस्जिद अपनी अलग बनाना चाहते थे । हैदराबादकी उस्मानियां यूनिवर्सिटीके डाक्टरने इस हिलका समर्थन किया । मियां शाहनेवाज व मि० जिलाने समर्थन करते हुए कहा कि तु में रेखा कासून रहलेसे बना है, वहां पर १८ वर्षसे कम उमर की लड़की की शादी दण्डनीय है।
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बंगालमें महिला सभाकी नेत्री सुचारु देवी ने सर्मन किया, श्री मानसी देवी, श्री लावण्यलेखा, श्री स्नेहमयी, श्री सुरवाला, श्री नीलनी वाला, श्री सुनीला, श्री कुमुदिनी, श्री सरला और श्री रणुका देवीने अपने अपने भाषणोंमें बिलका समर्थन करते हुए कहा कि बालिकाओंके निर्मल आनन्दमय जीवनको कष्ट-मय बनानेका अधिकार किसीको नहीं है, विरोधियोंका कहना है कि कानून बनाकर हमें समाज सुधार न करना चाहिये पर बिना कानूनके सहारे स्त्रियोंको कब कौन अधिकार मिला है ? स्त्रियों पर तो युगोंसे अत्याचार होता चला आया है, वालिकाओंके क्रंददसे देश उद्विग्न हो उठा है, छोटी छोटी लड़कियां वधू जीवनके कर्तव्यको समझ नहीं सकतीं, उनमें दाम्पत्य प्रेमका संचार हो नहीं सकता, जिस तरह भूख न रहने पर भोजन करनेसे बदहज़मी होकर स्वास्थ्य बिगड़ जाता है उसी तरह प्रेमका संचार हुए बिना प्रेम करनेसे जीवन नष्ट हो जाता है, स्त्रियां बच्चे पैदा करनेकी मेशीन नहीं हैं, स्त्रियोंकी शारीरिक और मानसिक उन्नति पर समाजकी उन्नति निर्भर है, बिलमें लड़कियोंकी उमर कम रखी गई है उससे ज्यादा होना चाहिये ताकि उनको शिक्षाका समय मिले, १०-१२ वर्षकी लड़कियां ससुराल जाते समय भविष्यके भयसे जिस तरह रोती पीटती हैं लोग ज़बरदस्ती सवारी पर चढ़ा लेते हैं, यही कारण होता है कि वे भाग जाती हैं, विधर्मी ले जाते हैं, देशमें बीर सन्तान पैदा होने की आवश्यकता है और जब लड़कियोंके अङ्ग पुष्ट होने नहीं पाते कि उनके बच्चे पैदा हो जाते है तो वे बीर कैसे बन सकते हैं, ? और सबसे बड़ा प्रमाण सन् १९२१ ई० की मनुष्य गणना का लेखा है जिससे पता चलेगा कि समाजने बाल विवाह करके कितना ज्यादा अत्याचार बालिकाओं पर किया है सन् १९२१ ई. में विधवाओंकी संख्या ५ वर्ष की उम्रकी ५९७ व १-२ वर्षकी ४९४ व २-३ वर्षकी १२५७ व ३.४ वर्षकी २८३७ व ४-५ वर्षकी ६७०७ व ५-१० वर्षकी ८५०३७ व १०-१५ वर्षकी २३२१४६ तथा १५-२० वर्षकी ३९६१७२ विधवायें है।
इस प्रकार विधवाओं की बृद्धिका कारण सिवाय पतियोंके मर जानेके और नहीं हो सकता। प्रयोजन यह है कि समर्थन और विरोधमें जगह जगह पर सभाएं हुयीं। विरोधी दलका मूल विरोध यह था कि हिन्द धर्म शास्रों में कोई नियम बनाया नहीं जासकता, यह बिल हिन्दू धार्मिक विवाह कृत्य पर बाधा डालता है इसलिये पास नहीं होना चाहिये । मैं बहुमान पूर्वक नम्र निवेदन करता हूँ कि जब हिन्दू विधवा विवाह एक्ट नं० १५ सन् १८५६ ई० में पास हुआ तो वह कानून इस कानूनसे अधिक बाधा डाल चुका है, चाहे उस समय क्षणिक आन्दोलन किया गया हो पर अब एक प्रकारसे उस कानूनको स्वीकार कर लिया गया है अब कोई आन्दोलन इस बारेमें नहीं होता।
उत्तराधिकारमें महर्षि याज्ञवल्क्य, मिताक्षरा आदिके बनाये नियम हिन्दुओंमें प्रचलित थे किन्तु इस सम्बन्धमें कई कानून बन गये और उनके सम्बन्धमें शास्त्र विरुद्ध होनेकी बात पर कोई जोर नहीं दिया गया। जिन इलोका या बचनोंके आधार पर बाल विवाह किसी हद तक उचित बताया जासकता है उनके बारेमें दूसरे पक्षका यह कहना है कि मुसलमानों के राज्य कालमें आवश्यकता प्रतीत होने पर पूर्वजोंने दूरदर्शितासे अच्छा काम लिया था और उचित किया था। उस समय पर वे श्लोक और वचन क्षेपककी भांति जोड़ दिये गये थे। प्राचीन शास्त्रोंके वचन बाल विवाह के विरोध में बहुतायतसे पाये जाते हैं । सथानी लड़कियोंका विवाह भी उनके माता पिता ही करते हैं।
दूसरी विशेष समितिन देशमें बहुत दिनों तक इस बिलके सम्बन्धमें गवाहियां ली, प्रश्नोत्तर किये और अन्तमें ता० १३ सितम्बर सन् १९२८ ई० को संशोधित बिल अपनी रिपोर्टकं साथ बड़ी कौन्सिलके सामने उपस्थित कर दिया। समितिने रिपोर्ट में लड़कोंकी उमर १८ साल भौर
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लड़कियोंकी १४ साल रखने की शिफारस की। इस समितिने विलमें एक भारी परिवर्तन किया । मूल बिलमें सजा देने वाली दफाओंमें अंग्रेजी वाक्य शैल बी पनिश्ड' (Shall be punished) था उसकी जगह पर 'शैल बी पनिशेबुल' (Shall be punishable) वाक्य कर दिया । इन दोनों वाक्योंके असरमें आकाश पातालका अन्तर होगया अर्थात् अगर पहलेका वाक्य बना रहता तो इस कानूनका अपराध साबित होने पर अदालतको सजा देना लाज़िमी हो जाता वह किसी तरह पर भी छोड़ नहीं सकती थी, मगर उसकी जगह नया वाक्य जोड़ देनेसे अदालतको यह अधिकार हो गया कि अगर वह चाहे तो अपराधीको बिल्कुल छोड़ दे, कोई भी सज़ा न दे। भाखिरी वाक्यके साथ यह कानून पास हुआ है । इसका असर यह होगा कि अदालतमें अपराध प्रमाणित हो जाने पर भी चेतावनी देकर अदालत छोड़ सकेगी। अब यह कानून बहुतही मुलायम हो गया और मुझे विश्वास है कि अदालतें उस समय तक इस कानूनका सस्ताके साथ प्रयोग नहीं करेंगी जब तक उनकी रायमें जनता इससे पूर्ण रूपसे वाकिफ न हो जावे। रिपोर्ट में पूज्य महामना पं. मदनमोहन मालवीय जीका विरोध उल्लेखनीय है आपने कहा कि मैं अपने मित्र मेम्बरोंके बहुमतसे दो विशेष बातोंमें सहमत नहीं हूँ मैंने इस बात पर जोर दिया था कि १४ वर्षकी लड़कियोंकी आयु घटाकर ११ वर्ष कर दी जावे जिससे प्रत्येक जातिको पूर्ण सहयोगके साथ बाल विवाहके रोकनेका प्रस्ताव पास किया जासके परन्त मेरी बात नहीं मानी गई, हम लोगोंको ध्यानमें रखना चाहिये कि इङलिस्तान देशमें भी बाल विवाहकी आयु १२ साल रखी गई है इत्यादि । ता० २२ सितम्बर १९२८ ई० को सर्व साधारणके जाननेके लिये दूसरी विशेष समिति द्वारा संशोधित बिल गवर्नमेन्ट गज़टमें प्रकाशित किया गया । ठीक एक सालके बाद ता. २३ सितम्बर सन् १९२९ ई. को यह बिल बड़ी कौन्सिलके सामने पास होने के लिये आया और अच्छे संघर्षके साथ वाद विवाद उपस्थित हुआ। बिलके विरोधी पक्षने दांव पेंच खूब खेले, किन्तु उनके सभी प्रस्ताव रह होते गये और मत लिये मामे पर बहुमतानुसार जिस रूपमें विल पेश हुआ था उसी रूपमें पास हो गया ।
बड़ी कौन्सिलमें बिल पास हो जानेके बाद ता. २८ सितम्बर सन् १९२९ ई० को राज्यपरिषद ( Council of State ) में पेश हुआ। वहाँ भी सरगरमीके साथ बहस हुई, दोनों दलोंमें अच्छी भिडंत हुई। हिन्दू और मुसलमान दोनोंके दो दो दल थे। अन्तमें चोट लिये जाने पर बहुमतानुसार जिस रूपमें बड़ी कोन्सिलने बिल पास किया था उसी रूपमें यहां भी पास हो गया । अब कानून बनने के लिये सिर्फ श्रीमान् गवर्नर जनरल महोदयकी मंजूरी बाक़ी रही ।
__ता० । अक्टूबर सन् १९२९ ई० को श्रीमान गवर्नर जनरल महोदयने, बिना कुछ घटाये बढ़ाये और संशोधन किये जिस रूपमें दोनों कौन्सिलोंने बिल पास किया था उसी रूपमें मंजूरी मदान कर बिलको, कानून बना दिया। अब बिलका रूप नष्ट हो गया और वह कानूनके रूपमें देशवासियोंके सामने भाया । ता० १ अप्रेल सन् १९३० ई० से इस कानूनका प्रयोग किया अयगा।
इस कानूनके पास होनेसे अशिक्षित समाजके मनमें भय और चिन्ता उत्पन्न हो गई है वे सोचते हैं कि अब हमें अपनी लड़कियों और लड़कोंके विवाह सम्बन्धमें डाक्टरी परीक्षा कराना पड़ेगी तब विवाह होगा, डाक्टर साहबको फीस देना पड़ेगी, समय बहुत खराब पड़ता जाता है यह रकम कहाँसे आयेगी ? पुलिस योंही नाकोंदम किये है अब विवाहमें भी हमें खूब सतायेगी, पुलिसको एक अच्छा हथियार मिल गया, अगर विवाह किसी तरह हो गया तो दुश्मन पड़ोसियोंके द्वारा अदालतसे १०००) रु० जुर्माना व १ मासकी सज़ा भी हमें हो सकेगी। खानेका ठिकाना नहीं है
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( 8 )
और जुर्मानेका रुपया कहांले फायेगा ? घर बगीचा चिकने पर भी १०००) रु० की रकम पूरी न होगी उधर सजा तो काटनी ही पड़ेगी। कुछ लोगोंकी यह आदत होती है कि अपनी कानूनी पण्डित ई की लियाकत दिखाने और बड़े बुझक्कर बनने के लिये अनपढ़ अथच सीधे सादे भोले आदमियों को जीका सांप बनाकर बताया करते हैं, यही हालत देशब्यापी इस नये कानूनकी उन लोगोंने की है मीचे हम इस क़ानूनकी मोटी मोटी बातें बताते हैं, पाठक समझें इस कानूनमें वास्तव में क्या कोई भयंकरता है ? या इससे डरनेका क्या कोई वैसा कारण है ?
हमने इसे कई बार शुरुसे आखीर तक पढ़ा मगर कहीं पुलिसका नाम भी नहीं है, इस कानून से पुलिसका किसी प्रकार से सम्बन्ध नहीं है, बाल विवाह हो या न हों पुलिस इस मामले में हस्तक्षेप नहीं कर सकती । पहले यह भय था परन्तु दिलके पक्षपातियों को भी अपनी बेटियों और - अपनी इज्जतका ख्याल उतनाही था जितना कि विरोधी पक्ष वालों को था । इस कानून के द्वारा पुलिस किसी पर मुकद्दमा चला नहीं सकती । बिरादरी वाले, पड़ोसी, या गांव वाले अथवा वे लोग जो अपनी जिम्मेदारी पर मुकद्दमा चलाना चाहें चला सकते हैं । वे ही अदालत में भर्जी दे सकते हैं। पुलिस कदापि मुकद्दमा नहीं चला सकेगी और न मजिस्ट्रेट के यहां अर्जी दे सकेगी। अगर पुलिसको यह मालूम हो कि अमुक व्यक्तिने अपनी लड़की या लड़केकी शादी १४ या १८ सालसे कम उमर में की है तो भी पुलिस अर्जी नहीं दे सकती और न तहकीकात कर सकती है यहां तक कि इस मामले की बात भी नहीं पूछ सकती है । दूसरे लोगोंके अर्जी देने पर जब मजिस्ट्रेटको विश्वास हो जाय कि वास्तव में किसीने ऐसा अपराध किया है तो भी वह पुलिस द्वारा जांच नहीं करा सकेगा । मजिस्ट्रेटको खुद उस मामले की जांच करना होगी। दूसरे और तीसरे दर्जेके मजिस्ट्रेट ऐसा मामला सुन नहीं सकते । डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट की अदालत में ऐसी अर्जी दी जावेगी । कानूनमें अर्जी देने वालोंके लिये भी एक सख्त कैद लगा दी गई है ताकि कोई आदमी बृथा परेशान करनेकी गरज से या दुश्मनीका बदला इस प्रकार निकालने के मतलब किसी पर ऐसी अर्जी न दे । इस कानूनकी दफा ११ के अनुसार अर्जी देने वालेसे १००) रु० की ज़मानत पहिले ले ली जायगी और अगर उसने यह जमानत न दी तो अदालत अपराधी को तलब भी न करेगी और अर्जी खारिज कर देगी । हमें विश्वास है कि इस विचारसे लोगों के दिलसे पुलिसकी चिन्ता दूर हो जायगी जो पुलिसको यमराजकी तरह डरते हैं । डाक्टरी परीक्षाका भय भी कुछ नहीं है कानूमके अनुसार अगर मजिस्ट्रेट यह समझे कि वास्तव में जिस कन्याका या पुत्रका विवाह किया गया है १४ और १८ वर्षसे कम उमरके हैं तो उसकी उमरके सम्बन्धमें मोहले, गांव, अड़ोस पडोस के प्रतिष्ठित आदमियोंकी गवाही दिलानाही काफी होगा । जन्म-पत्र दाखिल करना, पैदाइशके रजिष्टर से साबित करना, मदरसे के इन्दराज आदि से साबित किया जासकता है । अगर दोनों पक्षोंकी शहादतका समान बल हो और मजिस्ट्रेट स्वयं या किसी फरीकृकी दरख्वास्त पर मुनासिब समझे कि डाक्टरी परीक्षा कराई जाय, तो ऐसी आखिरी परिस्थिति में हो भी सकेगी । वधूको दण्ड हो ही नहीं सकता, वर अगर नाबालिग हो तो उसे भी दण्ड नहीं हो सकता। जिसकी उमर १८ वर्षसे ऊपर और २१ वर्ष से कम हो तो जुरमाने की सजा होगी, जुरमाना न दे सकने पर भी क़ैद न होगी । २१ सालसे अधिक उमरका पुरुष अगर १४ सालसे कम उमरकी कन्यासे विवाह करेगा तो उसे जुरमाना और १ मासके क़ैद की सजा होगी, जेलकी सजा भी सादी कैद की सजा रखी गई है । वर-वधू नाबालिग हो तो उनके संरक्षकोंको सजा होगी । स्त्री हो तो सिर्फ जुरमानेकी पुरुष हो तो
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जुरमानेके साथ १ माह तककी सादी कैदकी सज़ा मिल सकती है। वधू बालिग हो भौर पर नाबालिग हो तो वरके संरक्षकों को उसी प्रकार सजा मिल सकती है। मगर हां विवाह कराने वाले पुरोहित जी का बेदब मसला है उनके लिये जुरमाना और जेल दोनों सजायें मिल सकती हैं मगर बचनेकी भी गुंजाइश उन्हें रखी गई है जब वे साबित कर देंगे कि वर-वधूके १८ और १४ सालसे कम उमर न समझनेका उनके पास पर्यास कारण था, या उन्हें धोखा दिया गया था, तो वे छूट जावेंगे। कुछ दिनों तक विवाह कराने वाले पुरोहित जी बड़ी मुश्किलसे मिलेंगे, मिलेंगे तो दक्षिणा पहले ठहरावेंगे उस समय १०००) जुरमाना और १ मास की सजाका भाव अन्तःकरणमें रहेगा। कितनेही शुख हृदय विचार शील पुरोहित बड़े प्रसन्न होगे और अपने यजमानके भविष्य वंश वृद्धि की आशा पर आह्लादित होंगें, पुराहित जी के न मिलने पर कुछ लोग स्वयं विवाह कृत्य कर लेंगे। कानूनका सारांश हमने बता दिया पाठक समझ देखें इसमें कौन बात भयप्रद है ?
कानून तो पास हो गया और पहिली अप्रेल सन् १९३०ई० से प्रचलित भी होगा मगर अभी माननीय पूज्य धर्माचार्योंके दलमें विक्षोभ उपस्थित है। उनके समुदायमें भी दो दल हैं, दोनों शास्त्रबचनों और संगतिके अनुसार अपना अपना पक्ष समर्थन करने में लगे हैं। इस कानूनके विरोधी बिल कौन्सिलमें पेश भी होने वाले हैं। मैं इस कानूनका स्वागत करता हूँ और आशा करता हूँ कि देशकी सामाजिक उन्नतिमें इसके द्वारा सहायता मिलेगी। साथही मुझे संस्कृत विद्वानों पर पूर्ण भक्ति और श्रद्धा है, उनके परस्पर विरोध दलोके शास्त्रार्थ देखकर दुःखी हो रहा हूँ इसलिये मैं हाथ जोड़ कर अपने पूज्य संस्कृत विद्वानोंसे सविनय प्रार्थना करता है कि देशकाल का देखकर अब इस विषयका आन्दोलन शांत करदें। बहुतसी बातें शास्त्रके विरुद्ध हो चुकी हैं और हो रही हैं कुछ ऐसी हैं जिनकी आवश्यकता सर्वोपरि है किन्तु कुछ तो विवशताके कारण और कुछ अपनी अस्थायी उत्तेजनाके कारण उनके प्रति कोई आन्दोलन नहीं हो रहा मानो वे अब नैमित्तिक हो गई हैं।
इस कानूनकी व्याख्या श्रीयुत बा० रूपकिशोर जी एम० ए० एलएल० बी० एम०आर० ए. एस. एडवोकेट ने सबके समझने योग्य सरल भाषामें लिखी है। आप अनुभवी और विचारशील वकील होते हुए हिन्दीके अच्छे लेखक हैं। आपने कई कानून हिन्दीमें लिखे हैं जिनसे आपकी योग्यताका परिचय जनताको भली प्रकार मिल गया होगा। सनके परिश्रमका यह फल हुआ कि हम अपने भाइयोंके सम्मुख यह आवश्यक कानून व्याख्या सहित छापकर उपस्थित करने में समर्थ हुए। आशा है कि हिन्दी जानने वाले भाइयोंको इससे मदद मिलेगी यदि किसी अंशमें ऐसा हुआ तो हम अपने परिश्रमको सफल समझेंगे । ता. १५ नवम्बर सन् १९२९ई.
विनीत:
चंद्रशेखर शुक्ला
भूल सुधार:-पेज ९ की तीसरी सतरमें "इस कानूनसे कन्या और वरके संरक्षकको सजा दी जावेगी” इस वाक्यके स्थान पर “ बाल विवाह करने वाले पक्षके संरक्षकोंको सजा दी जावेगी"ऐसा समझना चाहिये।
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( ६ ) बाल विवाह निषेधक एक्ट नं० १९सन् १९२९ ई० की
दफा वार सविवरण सूची
दफा १ नाम विस्तार और आरम्भ
-यह एक्ट क्यों सन् १९२८ ई० कहलाया ? और क्यों इसका नम्बर १९ पड़ा ? -ब्रिटिश भारतकी सीमा और कानूनका विस्तार -तारीख १ अप्रैल १९३० ई. किस समयसे शुरू मानी जायगी --हिन्दुओंमें विवाहकी रसम कब पूरी मानी जाती है,
-मुसलमानोंमें विवाहकी रसूम कब पूरी मानी जाती है दफा २ परिभाषाएं
-बच्चा, बाल विवाह, विवाह सम्बन्ध करने वाले व्यक्ति, और नावालिग शब्दोंका अर्थ -बाल विवाह कितनी उमर तक माना जायगा
-नावालिगा १८ सालकी उमर खतम होने तक मानी जायगी दफा ३ बञ्चसे विवाह करनेवाले उस पुरुषके लिये दण्ड जो२१ सालसे कम उमरका हो
-किस उमर तक जेलखानेकी सजा न दी जावेगी? -अदालतके अधिकार सजा देने व छोड़ देनेके वारेमें -उमर साबित करनेके लिये कैसी शहादत दी जासकती है -मदरसेके रजिस्टर और पुलिसके पैदाइशके रजिस्टरसे उमरमें जब फरक पड़े तो कौन माना जायगा १५
-जुरमाना न देने पर उसके बदले जेलखाना नहीं होगा दफा ४ बजेसे विवाह करनेवाले उस पुरुषके लिये दण्डजो२१ वर्षसे अधिक उमरका हो ।
-एक हजार रुपया जुरमाना व १ मासकी केद होगी मगर कैद सादी होगी
-अदालतके अधिकार जुरमाना, सजा या दोनोंके बारेमें वफा ५ बाल विवाह करनेके लिये दण्ड
-विवाह कृत्य करने वाले, या कराने वाले, या आज्ञा देने वालेको सजाका विधान -क्यों इतने लोंगोंको अपराधी माना गया? -बराती, पुरोहित, रिश्तेदार आदि पर कब, किस हालतमें अपराध लगाया जासकेगा ? -अपगधीको क्या सावित करना चाहिये तथा कैसे ?
-इस दफाके अपराधमें स्त्री और पुरुष दोनोंको जेलकी सजा हो सकती है दफा ६ बाल विवाहसे सम्बन्ध रखने वाले माता पिता संरक्षकको दण्ड
-किन लोगोंसे यह दफा लागू होती है ? और किस तरह पर होती है ? -संरक्षक या माता-पिता, के लापरवाही करने में वे कहां तक अपराधी होंगे -नावालिग़ और बाल विवाहका फरक तथा उदाहरण -स्त्रियोंको जेल की सजासे वरी होना और पुरुषोंको दोनो सजायें होना
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दफा ७ दफा ३ के जुर्मामें कैदकी सज़ा न दी जायगी
-ताजीरात हिन्दकी दफा ६४ व जरनल क्लाजेज एक्टकी दफा २५ का वर्णन जो इस कानूनमें
लागू नहीं होंगी जहां तक सजाका सम्बन्ध है दफा ८इस एक्टके अनुसार अख्त्यार समाश्रत
-कौन कौन अदालतें यह मुकद्दमें सुनेंगी और कौन नहीं सुनेगी ?
--जाबता फौजदारीकी दफा १९० का वर्णन और उसका लागू न होना दफा ६ जु के समाप्रसका तरीका
-एक सालके अन्दर दावा हो सकता है पीछे नहीं
-पुलिसकी दस्तन्दाजी नहीं हो सक्ती और न अदालत बिना मुकद्दमाके कोई तहकीकात करा सकती है ११ दफा १० इस एक्टके अनुसार किये हुए जुर्मोकी प्रारम्भिक जांच
-अव्वल दर्जे के मजिस्ट्रेटसे कम जांच न कराई जा सकेगी - अदालत स्वयं जांच कर सकती है मगर पुलिससे नहीं करा सकती
-जावता फौजदारीकी दफा २०२ और २०३ का वर्णन और इस कानूनका सम्बन्ध दफा ११ मुस्तगीससे ज़मानत लेनेका अधिकार
-दावा करने वालेसे १००) की जमानत व मुचलके पहिले लिये जासकेंगे -जमानत न देने पर दावाका खारिज होना और झूठा दावा साबित होने पर अपराधीको.
मावजा दिलाया जाना -जा० फौ० की दफा २५०, ५१३, ५१४, ५१५, ५१६ का वर्णन और सम्बन्ध १४-१५ -जुरमाना कैसे वसूल किया जायगा
1
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नीचे लिखे कानूनोंका हवाला इस कानूनमें दिया गया है :
(१) ज़ाबता फौजदारी एक्ट नं०५
सन् १८६८ ई० -दफा १९. -दफा २.२ -दफा २०३ -दफा २५० -दफा ३८६ से ३८९ -दफा ५१३ ... " -दफा ५१४
१४-१५ दफा ५१५ -दफा ५१६
(२) ताजीरात हिन्द एक्ट नं०४५
सन् १८६०६० की दफा ६४ १ (३) जनरल क्लाजेज़ एक्टनं०१० ।
सन् १८६७० -दफा ३(७) -फा २५
-पार्ट ३ (४) इण्डियन मेजारिटी एक्ट नं०६
सन् १८७५ ई. ... ४ गार्जियन एण्ड वार्डसू एक्ट नं०६ सन् १८६७ ई०... .
१५
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शब्दार्थ सूची
अवहेलना - नमानना, टाल दिया जाना पर्याप्त-काफी आरम्भ-शुरू
परिभाषा-तारीफ इन्दराज-लिखा होना, दर्ज होना
पैदाइश का रजिस्टर-जिसमें लड़का या इन्डियन-हिन्दुस्थानी
लड़कीके पैदा होने पर सरकारी तौरसे इस्तगासा-फौजदारीकी नालिश या दावा
लिखा जाता है उपदफा-दफाके भीतरका अङ्क
प्रसङ्ग-सम्बन्ध उल्लेख-जिकर, वर्णन
प्रदेश-सूबा एक्ट--कानून
प्रस्ताव-तजवीज कारावास--जेलखाना
प्रयोग-काममें लेना, इस्तेमाल कौन्सिल-कानून बनाने वाली सभा
बच्चा-१८ वर्षसे कम लड़का और १४ वर्षसे खारिज-रद्द करना, निकाल देना
कम लड़की गर्वनर जनरल~~भारतले बड़े लाट साहब बरी-छूट जाना, मुक्त होना गैरमनकूला जायदाद --स्थायी सम्पत्ति, स्थावर । बाल-बच्चपनकी उम्र चूंकि-गोकि
ब्रिटिश भारत-दिन्दुस्थानमें जहां जहां अंग्रेज़ी जमात-समुदाय
राज्य है रियासतोंको छोड़कर जन्मपत्र-जायचा, कुण्डली
भारतीय-हिन्दुस्थानी डिस्ट्रिक्ट-जिला, मण्डल
मनकूला जायदाद-अस्थावर सम्पत्ति, हट डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट-जिला मजिस्ट्ट
सकने वाली जायदाद तरीका-प्रकार, तरह
महत्व-श्रेष्ठत्व, बड़प्पन, दफा-अङ्क, धारा
मीटिंग-सभा, अंजुमन, जल्सा दण्ड-सजा
मुआविज़ा-बदलाव दस्तावेज-मुचलका, जमानतकी लिखित
मुल्जिम-अभियुक्त, जिसने अपराध किया हो नाबालिग-१८ वर्षसे कम उम्र का लड़का या
मुस्तगीस-फौजदारीमें दावा करने वाला लड़की
रिहा-छोड़ दिया जाना निगरानी--प्रायः हाईकोर्टमें उन मामलों में
लेजिस्लेटिव असेम्बली-बडी व्यवस्थापिकासभा होती है जिनसे अपील नहीं होता था
विवाह-शादी किसी वजहसे अपील न हो सकती हो
विशेष-खास निर्धारित-बनाया जाना
विस्तार-फैलाव निम्न-नीचे, जैलमें
व्यवस्थापिका सभा-लेजिस्लेटिव असेम्बली नियुक्त-मुर
व्यक्ति-स्त्री-पुरुष निषेध-मना करना, रोकना
व्याख्या-तशरीह परमावश्यकता-बहुत जरूरी
शहादत-गवाही, साक्षी
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शिक्षालय-मदरसा, स्कूल, पढ़नकी जगह । सावित-प्रमाणित शिड्यूल-सूची
सिद्धान्त-उद्देश्य, उसूल समात-सुना जाना
सीमा-हद समिति-सभा
स्वीकृति-मंजूरी सदस्य-मेम्बर
सेलेक्ट कमेटी-चुनी हुई समिति .. समर्थन-ताईद
संरक्षक-वली, जिसकी देखरेखमें नाबालिग हो सप्तपदी-वैवाहिक प्रधान कृत्य
साम्राज्य-सलतनते
अगरेजी नजीरोंकी सूची जिनका इस कानूनमें हवाला दिया गया है
अगरेज़ी किताबोंका हवाला पेज अङ्रेज़ी किताबोंका हवाला 1928 A. I. R. 135 Mad.
5 Cal. 692 1928 A. I. R. 88 Lahor. १२ 10 Cal. 138 1928 A. I. R. 290 Bom, १३ | 12 Cal. 140 1928 A. I. R. 1198 Mud. १३ | 20Cal. 478 1928 A. I. R.684 All.
22 Cal. 139 1928 A. I. R.95 All.
38 Cal. 700 1928 A. I. R. 169 Mad.
106 I.C. 464 26 A. L.J. 328.
110 I. C. 232 10 Bom. 301,311
111 I.C.878 (2) 22 Bom! 812
9 Mad. 466, 470 22 Bom. 277
20 Mad. 88 33 Bom. 433, 438
32 Mad. 512, 620 62 Bom. 448
51 Mad. 337
WWW.
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अंग्रेजीके संकेताक्षरॉकी सूची
A. या All. इन्डियन लॉ रिपोर्टर इलाहाबाद सीरीज A. I. R. आल इन्डिया रिपोर्टर नागपुर सीरीज़ A. L.J. इलाहाबाद लॉ जरनल B, a Bom. इन्डियन लॉ रिपोर्टर बम्बई सीरीज़ C. या Cal. इन्डियन लॉ रिपोर्टर कलकत्ता सीरीज़ I.C.
इन्डियन केसेज M. या Mad.. इन्डियन लॉ रिपोर्टर मद्रास सीरीज़
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कानून का बड़ा ग्रन्थ
हिन्दू-लॉ
हिन्दू-लॉ
दूसरी बार छपा हुआा पहलेसे चौगुना बड़ा
हिन्दीमें क़ानूनका सबसे बड़ा ग्रन्थ
>>K120m
आज तक कानूनका ऐसा सर्वाङ्ग पूर्ण ग्रन्थ हिन्दी में नहीं छपा। पढ़तेही चित्त खुश होगा और बिना प्रशंसा किये आप न रहेंगे । पहिले से चौगुना बड़ा, चौगुनी नजीरें व सत्र नये कानून, तथा चौगुना फायदेमंद है, तिस पर भी मूल्य नहीं बढ़ाया गया। अदालत में होने वाले न्याय को घरहीमें समझ लेने के लिये यह वृहद्ग्रन्थ छापा गया है । ९० संस्कृत ग्रन्थों, १०२
कानून प्रेस कानपुर
दूसरे कानूनों, हजारों नजीरों, उदाहरणों व सैकड़ों नकुशोंसे परिपूर्ण है। यानी शामिलशरीक या बटे हुए परिवार में मर्दों, स्त्रियों, लड़कों, गर्भमें बच्चोंका, जायदादमें कितना हक़ है; किसके मरने पर कौन वारिस कम होगा; विवाह कैसे वर-कन्या के साथ किस उमरमें, कब जायज है; कैसे विवाह के - लड़के वारिस होंगे; पति, पत्नीको कैसे, कब, किस तरह अपने पास रख सकते हैं; नाबालिग का वली कौन होगा, वलीके हक़, पावन्दियां, व जिम्मेदारियां, कौन हैं; कैसे वली निकाला जायगा, उस पर डिकरी होगी; गोदका पूरा क़ानून क्या है; ३२७ वारिसों को किसके बाद किसे व किस ढंगसे कब हक़ मिलता है; अंधे, व अङ्ग भङ्ग वारिसों का नया कानून क्या है; रंडियों व वश्याओं की जायदादका कानून क्या है, उनके वारिस कौन, कत्र व किस तरह होते हैं; ठिलाई औरतों का हक़ क्या है; कौन घन स्त्री धन है, उसके वारिस कौन, कब, किस तरह होते हैं; स्त्रियों के हड़का पूरा कानून क्या है; फर्ज़ी रेहन, वय वाली जायदाद के झगड़ोंका कानून क्या है; दान व वसीयत कैसे कब किस जायदाद की होगी कैसे हक़ देकर लिखी जायगी कैसे नाजायज़ होगी; मंदिर, पाठशाला, धर्मशाला आदि में जायदाद कैसे लगाई जाय, ट्रस्ट कैसे मुकर्रर हो, जरासी गलतीसे कैसे मंसूख होगा; साधु सन्यासी महन्त, गद्दीधरोंके हक़ क्या हैं, चेला, पुजारी, शिवायत के हक, अधिकार कन्व, किस तरह, किस जायदादमें कैसे होते हैं; देवस्थानका पूरा कानून क्या है; भावी वारिसोंके हक कब कैसे होंगे; इत्यादि हजारों शताका आपको पूर्ण ज्ञान होगा । सन् १९२९ ई० तक के सब नये कानून हजारों नजीरों व व्याख्या सहित दिये गये हैं । आप कानून के पण्डित हो सकेंगे। मूल्य १२ ) डा० १ | | )
मिलने का पता :- कानून प्रेस, कानपुर.
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बाल विवाह निषेधक एक्ट
नं० १९ सन् १९२९ ई.
भारतीय व्यवस्थापिका सभा द्वारा बनाये हुए निम्न लिखित एक्टको गवर्नर जनरल हिन्द महोदयकी स्वीकृति पहिली अक्टूबर सन् १९२९ ई. को प्राप्त हुई।
चूंकि बाल विवाहोंके रोकनेकी परमावश्यकता है इसलिये
नीचे दिया हुआ कानून बनाया जाता है :दफा १ नाम, विस्तार और आरम्भ
(१) यह एक्ट सन् १९२८ ई० का बाल विवाह निषेधक एक्ट ( The Child Marriage Restraint Act, 1928) कहलायेगा।
(२) इसका प्रयोग सारे ब्रिटिश भारतमें होगा जिसमें ब्रिटिश बिलोचिस्तान घ सन्थाल परगने भी शामिल हैं। (३) यह एक्ट पहिली अप्रेल सन् १९३० ई० से लागू होगा।
व्याख्याचूंकि इस एक्ट के लिये सन् १९२८ ई० में लेजिसलेटिव एसेम्बली द्वारा नियुक्त की हुई सिलेक्ट कमेटीने गवाहियां ली थीं तथा विचार किया था इस कारण उपदफा (१) के अनुसार यह एक्ट " सन् १९२८ ई. का बाल विवाह निषेधक एक्ट" कहलायेगा गो यह एक्ट लेजिसलेटिव एसेम्बली द्वारा ता० २३ सितम्बर
ई. को तथा काउन्सिल आफ स्टेट द्वारा ता. २० सितम्बर सन् १९२९ ई. को सिलेक्ट कमेटी की रिपोर्ट पर विचार करनेके बाद बहुमतसे पास किया गया है और गवर्नर जनरल हिन्द महोदयने भी पहिली अक्टूबर सन् १९२९ ई० को अपनी स्वीकृति इस एक्टके लिये प्रदान की है। इस बातका ध्यान रहना चाहिये कि इस एक्टका नाम उपदफा (१) के अनुसार चाहे जो कुछ हो परन्तु यह एक्ट नवम्बर १९ सन् १९२९ ई. है अर्थात् इस एक्ट के पास होनेसे पहिले सन् १९२९ ई० में १८ एक्ट और पास हो चुके हैं तथा १९२९ ई.
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बाल विवाह निषेधक एक्ट
मे पास होनेके कारण यह एक्ट १९२९ ई. का उन्नीसवां एक्ट है और इसी नामसे इसका उल्लेख कानूनी पुस्तकों व नजायरके संग्रह आदि में मिलेगा । इस एक्ट में बालकों तथा बालिकाओंके विवाह छोटी उम्रमें किये जानेकी मनाही की गई है इस कारण इसका नाम “ बाल विवाह निषेधक एक्ट" पड़ा है । यह एक्ट किसी जाति विशेषके लिये नहीं बनाया गया है किन्तु इसका प्रयोग सभी जातियों के लिये किया जावेगा अर्थात् ब्रिटिश भारतमें बसने वाली सभी जातियों के लिये यह एक्ट लागू होगा।
उपदफा (२) में इस एक्टके विस्तारका वर्णन है उसके अनुसार इस एक्टका प्रयोग सारे ब्रिटिश भारतमें किया जावेगा। ब्रिटिश भारतकी परिभाषा सन् १८९७ ई. के जनरल क्लाज़ेज़ एक्ट के तीसरी दफाकी सातवीं उपदफामें दी हुई है उसके अनुसार ब्रिटिश भारतका तात्पर्य उन प्रदेशों व स्थानोंसे हे जो श्री राजराजेश्वरी के साम्राज्यमें हैं तथा जिनका प्रबन्ध गवर्नर जनरल हिन्द द्वारा अथवा किसी गवर्नर या अन्य अफसर द्वारा जो गवर्नर जनरल हिन्दका मातहत हो किया जाता हो, देखो-Sec 3 (7) of The General Clauses Act 1897. इस उपदफामें ब्रिटिश बिलोचिस्तान तथा सन्थाल परगनोंका उल्लेख विशेष रूपसे कर दिया गया है। यों तो यह स्थान ब्रिटिश भारत के अन्य स्थानोंकी भांति भारत सरकारही के मातहत हैं और ब्रिटिश भारतका भाग समझे जाते हैं परन्तु सीमा पर स्थित होनेके कारण तथा पहाड़ी विभाग या जङ्गली लोगोंसे आबाद होनेके कारण बहुधा उन सुधारोंसे बंचित रखे जाते हैं जिनका प्रचार ब्रिटिश भारतके अन्य भागोंमें किया जाता है । इस उपदफाके अनुसार यह स्थान ब्रिटिश भारतके विभाग माने जावेंगे अर्थात् इस एक्टका प्रयोग ब्रिटिश विलोस्तिान व सन्थाल परगनोंमें भी होगा। ब्रिटिश विलोचिस्तान भारत के पश्चिम भागमें है व अफगानिस्तान के दक्षिण की ओर पड़ता है इसकी राजधानी केटा है और इसका प्रबन्ध अधिकतर फौजी अफसरों द्वारा किया जाता है । सन्थाल परगने १८९७ ई. के जनरल काजेज़ एक्ट के अनुसार शिड्यूल डिस्ट्रिक्टमें शामिल हैं tal-Part IjI (Scheduled Districts Bengal) of the General Clauses Act 1897.
उपदफा (३) में बतलाया गया है कि यह एक्ट पहिली अप्रेल सन् १९३० ई० से अमलमें आयेगा । इससे यह प्रकट है कि पहिली अप्रेल सन् १९३० ई० से पहिले इस एक्ट के अनुसार किसी व्यक्तिको कोई दण्ड नहीं दिया जावेगा और न किसी व्यक्तिको इस एक्टके नियमोंका पालन करनेकी आवश्यकता ही है परन्तु पहिली अप्रेल सन् १९३० ई० या उसके बाद जो व्यक्ति इस एक्ट के नियमोंकी अवहेलना करेगा उसको एक्ट में बतलाये हुए नियमों के अनुसार दण्ड दिया जावेगा।
यह कानून ता. पहली अप्रेल सन् १९३० ई० की गत १२ बजे रात्रिसे लागू होगा क्योंकि तारीख हमेशा १२ बजे रात्रिके बाद बदल जाती है। सम्भव है कि किसी रवाज या खास मुहूर्त के अनुसार या इस कानूनके डरसे कोई आदमी ३१ मार्च सन् १९३० ई. को रात्रिके १२ बजेसे पहिले बाल विवाह की कृत्य शुरू करे और उस विवाहकी कृत्य ३-४ घंटेके बाद खतम हो, तो यहां पर यह प्रश्न उठता है कि वह बाल विवाह इस कानूनके लागू होने पर किया गया माना जायगा या पहले का ? ऐसी दशामें हिन्दू-लॉका सिद्धांत माना जायगा अर्थात् यह देखा जायगा कि कौनमी कृत्य ऐसी है कि जिसके हो जानेसे विवाह होना माना जाता है ।
विवाहकी रसम कब पूरी मानी जाती है:. विवाहका कृत्य समाप्त होतेही पति-पत्नाका सम्बन्ध आरम्भ हो जाता है। और विवाहका कृत्य समाप्त तब समझा जाता है जब बर और कन्या " सप्तपदी" कृत्य करलें । “ सप्तपदी" का मतलब सात भांवरोंके
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बाल विवाह निषेधक एक्ट
बाद जो कृत्य किया जाता है उससे है देखो-लघु आश्वलायन स्मृति १५ विवाह प्रकरण तथा मानव गृह्यसूत्र पुरुष १ खण्ड ८ से १४ । एक बार पति-पत्नीका आपसमें ऐसा सम्बन्ध हो जाने पर कभी भंग नहीं हो सकता। मगर शर्त यह है कि विवाहमें कोई जालसाजी या जबरदस्ती न की गई हों इस विषयमें देखो-22 Bom.812.
द्विजों ( ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ) के विवाहमें दो रसमोंके पूरा कर चुकने पर विवाहकी कृत्य पूर्ण समझी जाती है एक हवन दूसरा सप्तपदी । 'सप्तपदी' शब्दका मूल अर्थ है 'सात पद वाला कर्म' विवाहमें अन्य कृत्यों के साथ सात भांवरोंके हो जाने पर वर और वधू ग्रन्थिबंधन सहित अग्निके सम्मुख विधि के अनुसार सात पद चलते हैं उसे ' सप्तपदी' कहते हैं । यह कृत्य समाप्त होतेही विवाह पूरा हो जाना माना जाता है देखो33 Bom. 433-438; 32 Mad. 512-520; 12 Cal. 140. अगर किसी द्विजके विवाहमें हवन और सप्तपदीकी कृत्य बाकी रह गई हों मगर गौना हो गया हो तो महज़ गौना हो जानेके सबबसे विवाहकी कृत्य पूरी नहीं समझी जायगी देखो-9 Mad. 466-470; 10 Bom. 301-311 और अगर किसी जातिमें कोई खास रस्मके पूरा करने पर विवाहकी कृत्य पूरी समझी जाती हो तो उस जातिके लिये उस रसमके हो चुकने पर उस विवाहकी कृत्य पूरी मानी जायगी देखो-5 Cal. 692, 10 Cal. 138. और जहां पर यह साबित हो कि विवाहकी सब कृत्ये हो चुकी थीं तो अदालत उसे विवाह पूरा होना मान लेगी देखो22 Bom. 277; 38 Cal. 700.
जब द्विजोंमें ता. ३१ मार्च सन् १९३० ई० की १२ बजे रात्रिसे पहले हवन और सप्तपदी दोनों कृत्ये समाप्त हो चुकी हों और बाकी कृत्ये १२ बजे रात्रिके बाद चाहे जितने समय तक होती रही हों तो माना जा सकेगा कि वह बाल विवाह इस कानूनके लागू होनेसे पहले हो गया है। यही बात उस विवाहके साथ भी लागू होगी कि जिस कोममें कोई खास रसमके पूरा हो चुकने पर विवाह पूरा होना माना जाता.हो और यह रसम १२ बजे रात्रिके पहिले हो चुकी हो । पञ्चाङ्गके देखनेसे पता चलता है कि विवाहकी लग्न अब तारीख १ अप्रैल सन् १९३० ई. तक है ही नहीं फिर भी यदि किसीने इस कानून के डरसे विवाह कर लिया तो यह प्रश्न अदालतमें नहीं पैदा होगा कि उसने बिना मुहूर्त के विवाह किया है इसलिये नाजायज है। .. : मुसलमानोंमें विवाह सम्बन्ध पूरा होनेके लिये यह आवश्यक है कि विवाह सम्बन्ध करने वाले व्यक्तियों में से एक पक्ष प्रस्ताव करे या उसकी ओरसे कोई अन्य व्यक्ति प्रस्ताव करे तथा वह प्रस्ताव दूसरे पक्ष द्वारा मंजूर किया जावे । यह प्रस्ताव दो पुरुषोंके सामने अथवा एक पुरुष व दो स्त्रियों के सामने किया जाना चाहिये और ये स्त्री व पुरुष मुसलमान होना चाहिये । प्रस्तावका किया जाना व उसका मंजूर होना एकही मीटिंगमें होना चाहिये । अगर प्रस्ताव एक मीटिंगमें किया गया हो व दूसरी मीटिंगमें वह मंजूर किया जावे तो वह उचित विवाह नहीं माना जावेगा जिन लोगोंके सामने विवाहका प्रस्ताव किया जाकर मंजूर हुआ हो वह बालिग होना चाहिये तथा उनके होश हवास भी दुरुस्त होना चाहिये । इसके अतिरिक्त और भी बहुतसी बातें हैं जिनकी पूर्ति न होने पर विवादका पूर्ण होना तथा ठीक होना नहीं माना जासकता है जैसे कि इद्दतमें निकाह का होना 'अथवा चार स्त्रियोंके होते हुए निकाहका किया जाना या उचित वली द्वारा निकाहका न होना या किसी अन्य प्रकारकी धोखादेहीका किया जाना इत्यादि । दफा २ परिभाषायें
___ यदि कोई बात विषय या प्रसंगके विपरीत न पड़ती हो तो इस एक्ट में प्रयोग किये हुए निम्न लिखित शब्दोंका अर्थ इस प्रकार होगा:
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( ४ )
बाल विवाह निषेधक एक्ट
(C) ‘बच्चा ' ( Child ) का अर्थ उस लड़के से है जो अठारह बरससे कम उम्र का हो और इसका अर्थ उस लड़की से भी है जो चौहद बरस से कम उम्र की होवे ।
(बी) ' बाल विवाह ' ( Child Marriage ) से उस विवाहका अभिप्राय है जिसमें विवाह करनेवाला लड़का या लड़की कोई भी बच्चा (Child ) होवे । (सी) 'विवाह सम्बन्ध करने वाले व्यक्ति' ( Contracting party ) से अभि प्राय उन दोनों व्यक्तियोंका है जिनका विवाह सम्बन्ध उस विवाहसे स्थापित होता हो ।
(डी) ' नाबालिग ' ( Minor ) से अभिप्राय उस व्यक्तिका है जिसकी उम्र अठारह सालसे कम हो चाहे वह लड़का होवे या लड़की होवे ।
व्याख्या
इस दफा उन शब्दों का वर्णन है जिनका प्रयोग इस एक्टमें किसी खास अभिप्रायको प्रकट करने के 'लिये किया गया है 'बच्चा ' ( Child ) शब्द लड़का व लड़की दोनों ही के लिये प्रयोग किया जाता है और इस एक्ट में भी वह दोनों ही के लिये प्रयोग किया गया है परन्तु विशेषता यह है कि इस एक्ट में 'बच्चा' शब्द उन लड़कों के सम्बन्धमें प्रयोग किया गया है जिनकी उम्र अठारह वर्ष से कमकी हो और उन लड़कियों के सम्बन्धमें प्रयोग किया गया है जो चौदह वर्ष से कम उम्रकी हों अर्थात् इस एक्टके अनुसार १८ वर्ष तक के लड़के व १४ वर्ष तक की लड़कियां बच्चा समझी जावेंगी ।
उपदफा (बी) में 'बाल विवाह' ( Child Marriage ) की परिभाषा दी हुई है उसके अनुसार वह सब विवाह बाल विवाह माने जावेंगे जिनमें वर या वधू कोई भी बच्चा (Child ) होवे अर्थात् यदि लड़के का विवाह सम्बन्ध १८ वर्षसे कम उमर में किया जावे या लड़की का विवाह १४ वर्ष से कम उम्र में किया जावे तो इस प्रकारका विवाह ' बाल विवाह ' होगा और इस क़ानून के अनुसार दण्डनीय होगा ।
उपदफा (सी) के अनुसार वह व्यक्ति जिनका विवाह सम्बन्ध हुआ हो " विवाह सम्बन्ध करने वाले व्यक्ति " ( Contracting Party ) समझे जावेंगे अर्थात् लड़का व लड़की जिनका विवाह सम्बन्ध उस विवाह द्वारा स्थापित हुआ हो दोनों विवाह सम्बन्ध करने वाले व्यक्ति माने जावेंगे | इस एक्टमै नायालिग ( Minor ) शब्द जिस अर्थमें प्रयोग किया गया है उसका वर्णन उपदफा ( डी ) में दिया हुआ है उसके अनुसार अठारह सालसे कम उम्र वाले व्यक्ति को चाहे वह पुरुष हो या स्त्री नाबालिग माना जावेगा । अन्य प्रचलित कानूनों के अनुसार भी अठारह सालसे कम उम्र वाले व्यक्तिको नाबालिग माना जाता है ।
इन्डियन मेजारिटी एक्ट नं० ९ सन् १८७५ ई० के अनुसार भी होने पर समाप्त हो जाती है और जिसका सार्टीफिकेट लिया गया हो या वह ३१ वर्ष समाप्त होने पर ख़तम हो जाती है मगर यहां पर जिस नाबालिग का वर्णन है वह १८ सालकी उमर समाप्त होने पर ख़तम होगी १८ वां साल उम्रका शुरू होने पर वह उस समय तक इस कानूनके मतलब के लिये
नाबालिग की उम्र १८ साल खतम कोर्टस् आफ् वार्डस्के त्ताने हो तो
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बाल विवाह निषेधक एक्ट
नाबालिग ही माना जायगा जब तक कि १८ सालकी उम्र पूरी न हो जाय अर्थात् १९ वें सालके शुरू होते ही नाबालिगी समाप्त हो जाती है। दफा ३ बच्चेसे विवाह करने वाले उस पुरुषके लिये दण्ड जो २१ सालसे
कम उम्रका हो
पुरुष जातिका १८ सालसे अधिक किन्तु २१ सालसे कम उम्रका जो व्यक्ति बाल विवाह करेगा उसको एक हज़ार रुपये तकके जुर्मानेका दण्ड दिया जासकेगा।
व्याख्याबाल विवाह करने वाले उन पुरुषोंके लिये जिनकी उम्र १८ सालसे ऊपर परन्तु २१ सालसे कम हो केवल १०००) एक हजार रुपये तकके जुर्माने का दण्ड रखा गया है अर्थात् उनको कारावासका दण्ड नहीं दिया जावेगा जैसा कि २१ सालसे अधिक उम्र वाले पुरुषों को दफा ४ के अनुसार दण्ड दिये जानेका विधान है। अदालत १०००) से कम कितना भी जुर्माना कर सकती है मगर इससे ज्यादा नहीं कर सकती अंग्रेजीमें शब्द 'पनिशेबुल' (Punishable) है जिसका तात्पर्य यह है कि अदालत चाहे तो अपराधीको छोड़ भी देवे । यदि मामला चालू होने पर कोई व्यक्ति अपनी उम्र २१ सालसे कम अथवा १८ सालसे कम होना जाहिर करे तो इसके साबित करनेका बार सुबूत उसी व्यक्ति पर होगा। उम्रके लिये इस सम्बन्धमें सनद प्राप्त किये हुए डाक्टरकी राय माननीय होगी अन्य योग्य डाक्टरोंकी गय मानी जासकती है इसी प्रकार लड़के लड़कीके माता पिता व अन्य सम्बन्धियों की शहादत भी उम्र सावित करनेमें मदद दे सकती है। म्यूनिसिपैलिटी या डिस्ट्रक्ट बोर्डके रजिस्ट्रोंमें किये हुए पैदाइशके इन्दराज तथा थानेमें किये हुए या अन्य किसी रजिस्टर में जो इसी कार्यके लिये रखा जाता हो किये हुए इन्दराज भी उम्र साबित करनेके सुबूत माने जासकते हैं। हिन्दुओंमें जन्म कुण्डली तथा पण्डितोंके पत्रे जिनमें पैदाइशके सम्बन्धके नोट किये गये हों शहादतमें पेश किये जासकते हैं। स्कूल व कालेज तथा अन्य शिक्षा विभागामें पढ़ने वाले लड़के व लड़कियों की उम्र शिक्षालयके सार्टीफिकेटके अनुसार मानी जासकती है। ऊपर बतलाये हुए सब या उनमेंसे कोई सुबूत आने पर उससे उम्र का साबित होना माना जासकता है जब तक कि उसके विरुद्ध उससे अधिक प्रमाणिक कोई सुबूत न पेश किया जावे उम्रका सवाल एक वाक्रियाती सवाल है जिसका निर्णय करना अदालत पर निर्भर है परन्तु अदालतका इस सम्बन्धमें कर्तव्य होगा कि वह शहादत पर पूर्ण रूपसे विचार करनेके बाद तथा अन्य वाकियातको देखते हुए ऐसे प्रश्नको तय करे।
स्कूलों में अपने लड़के को भरती करते समय अकसर लोग लड़केकी उम्र कम लिखाते हैं ताकि आये उस लड़केकी वृत्तिके सम्बन्धमें जहां पर उम्रकी कैद लगी है अड़चने न पैदा हो जावें इसलिये जहां पर पैदाइशके इन्दराज और स्कूलके इन्दराजमें फरक पड़ता हो तो सम्भव है कि अदालत स्कूलके रजिस्टरमें दर्ज उम्र पर ज्यादा महत्व नहीं देगी वल्कि पैदाइशके इन्दराजको महत्व देगी। जन्म पत्रोंके द्वारा उम्र साबित की जासकती है मगर यह बात सब जानते है कि जन्म पत्र नकली तैय्यार होना बहुत सहज काम है यदि दूसरे अन्य ढंग जन्मपत्रके उम्रको समर्थन करते हों तो जन्मपत्रका प्रमाण उतना ही अधिक बढ़ जायगा। जहां पर दोनों पक्षकारोंकी शहादत सिर्फ जबानी गवाहोंके आधार पर हो तो जन्म पत्रके द्वारा साबित करने वाले पक्षकारों का महत्व अधिक माना जा सकता है।
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बाल विवाह निषेधक एक्ट
दफा ४ बच्चे विवाह करने वाले उस पुरुषके लिये दण्ड जो २१ वर्षसे अधिक उमूका हो
( ६ )
२१ सालसे अधिक उम्रका जो पुरुष बाल विवाह करेगा उसको एक मास सकका साधारण कारावासका दण्ड दिया जा सकेगा या उसपर एक हज़ार रुपये तकका जुर्माना हो सकेगा अथवा कारावास व जुर्माना दोनों दंड एक साथ दिये जा सकेंगे ।
व्याख्या
बाल विवाह करने वाले उन पुरुषों के लिये जिनकी उम्र २१ सालसे अधिक हो कारावास व जुर्माना दोनों प्रकारके दण्ड दिये जासकेंगे कारावासका दण्ड एक मास तक के लिये दिया जासकता है तथा यह साधारण कारावासका दण्ड होगा अर्थात् इस दफ़ा के अनुसार कठोर कारावासका दण्ड नहीं दिया जावेगा और न एक माह से अधिक साधारण कारावास ही का दण्ड दिया जासकेगा । पिछली दफा की भांति इस दफाके अनुसार भी जुरमाना १००० ) एक हजार रुपये तकका किया जासकता है इस दफ़ा के अनुसार कारावासका दण्ड तथा जुर्माना एक साथ भी किये जासकते हैं अथवा यदि अदालत उचित समझे तो केवल कारावास ही का दण्ड देवे अथवा केवल जुर्माना करके ही छोड़ देवे या बिना सजाके छोड़ देवे क्योंकि अंग्रेजी कानून में शब्द ' पनिशेबुल' (Punishable) है । इस शब्दसे सजा देना अदालतकी इच्छा पर निर्भर होगया है ।
दफा ५ बाल विवाह करनेके लिये दण्ड
जो व्यक्ति बाल विवाह करेगा या करावेगा या करनेकी श्राज्ञा देगा उसको एक मास तककी सादी कैद या एक हजार रुपये तक जुर्माने की सज़ा दी जा सकेगी या tata सजायें एक साथ दी जा सकेंगी जब तक कि वह व्यक्ति यह साबित न कर देवे कि उसके पास इस बात के विश्वास करनेका कारण था कि जिस विवाह में वह भाग ले रहा है वह बाल विवाह नहीं है ।
व्याख्या
पिछली दो दफाओं में विवाह सम्बन्ध करने वाले पुरुषको दण्ड दिये जानेका विधान है परन्तु इस दफा के अनुसार उस व्यक्तिको सजा दी जासकेगी जो विवाह के कृत्यको करे या जो विवाह करवाये अथवा उसके किये जानेका आदेश देवे । व्यवस्थापिका सभा के सदस्योंने यह विचार किया कि यह कुपृथा जितनी जल्द भारतसे लोप होजाय उतना ही अच्छा होगा इस सबब से सजा पाने वाले व्यक्तियोंका दायरा ज्यादा बढ़ा दिया गया ताकि वे सब लोग अवश्य यह कोशिश करें कि बाल विवाह न होने पावे । जब तक लोगोंको कोई डर अपने लिये न होगा तब तक वे इस कुप्रथाके रोकने में उपेक्षा करेंगे । यद्यपि इस दफा के अन्दर बाल विवाह करने वाले, कराने वाले और करनेकी आज्ञा देने वाले व्यक्ति ही आते हैं विवाह में बराती लोग जाहिरा छूट जाते हैं, बरातियों में रिश्तेदार, इष्ट मित्र और उनके सम्बन्धके लोग होते हैं । प्रायः नेवता या बुलावा आने पर वे लोग विवाहमें शामिल होते हैं उनको यह पता नहीं रहता कि वर और कन्याकी उमर कितनी है, उनके पास प्रायः उमरके जांच करनेका साधन भी नहीं होता, इस दफा के शब्दों के भाव से उनपर कोई असर पड़ते तो साफतौर से नहीं
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देख पड़ता किन्तु सम्भव है कि वे भी किसी प्रकार विवाह कराने वाले या आज्ञा देने वालोंमें शामिल किये जासकें क्यों कि 'आज्ञा देने वाले से तात्पर्य मदद या अनुमति देने वाले, विवाहमें कोशिश करने वाले, या यह चाहने बाले कि वह बाल विवाह होजाय या सहायता करने वालोंसे भी हो सकता है ।
इस दफामें स्त्री व पुरुषका कोई भेद नहीं रक्खा गया है अर्थात् इस दफाके अनुसार स्त्री व पुरुष दोनों ही को दण्ड दिया जा सकता है इस दफ़ाके अनुसार एक मास तककी सादी सजा या १०००) रुपये तकका जुर्माना किया जासकेगा । कैद व जुर्माना दोनों साथ २ भी किये जासकते हैं । १०००) रु० जुरमाने और एक मासकी कैदसे अभिप्राय यह है कि अदालत इससे ज्यादा जुरमाना या सजा नहीं देसकती मगर इससे कम जुरमाना करना और सजा देना, हर मामले की सूरत पर निर्भर है । इस कानूनके प्रचलित होने के कुछ समय तक जनता बहुत कुछ अज्ञानताके सबबसे बाल विवाह कर सकती है यह बात अदालत, सुबूतके अनुसार उसे उचित सजा पहिले चेतावनीके रूपमें सम्भवतः बहुत कम देगी। सजाकी तादाद तब ज्यादा बढ़ेगी जब कोई इस कानूनको जानबूझ कर तोड़ेगा और अपमान करेगा । अंग्रेजीमें शब्द पनिशेबुल (Punishable) है जिसका तात्पर्य यह है कि सजा देना अदालतकी इच्छा पर है, अदालत छोड़ भी सकती है।
__ इस दफामें बतलाये हुए दण्डसे बचनेके लिये यह साबित करना आवश्यक होगा कि विवाह होते समय विवाहमें भाग लेने वाले व्यक्तिको यह विश्वास था कि वह बाल विवाह नहीं है जब तक कि वह व्यक्ति इस बार सुबूतको अदा नहीं करेगा वह दण्डका भागी समझा जावेगा। दफा ६ बाल विवाहसे सम्बन्ध रखने वाले माता पिता या संरक्षकको दंड
(१) उस दशामें जबकि कोई नाबालिग़ बाल विवाह करेगा तो उस व्यक्ति को, जो उस नाबालिग की निगरानी माता, पिता, संरक्षक या संरक्षिका की हैसियत से या और किसी हैसियतसे रखते हुए, चाहे यह निगरानी कानूनी हो या गैर कानूनी विवाह करानेके लिये कोई काम करेगा या उसके किये जानेकी इजाज़त देगा या उसके ( बाल विवाहके ) रोकने में अपनी असावधानीके कारण चूकेगा, एक मास तकके साधारण कारावास, या एक हज़ार रुपये तकके जुर्मानेका दंड या दोनों प्रकारक दंड एक साथ दिये जा सकेंगे। किन्तु शर्त यह है किसी स्त्री को कारावासका दंड न दिया जावेगा।
(२) उस दशा में जब कि कोई नाबालिग बाल विवाह कर लेगा तो इस दफाके लिये यह मान लिया जावेगा, जब तक कि इसके विपरीत साबित न कर दिया जावे, कि वह व्यक्ति जो ऐसे नाबालिग़की निगरानी रखता है बाल विवाहको रोकने में अपनी असावधानीके कारण ही असमर्थ हुआ है।
व्याख्या____ इस दफाके अनुसार किसी नाबालिगका विवाह होने पर उसके माता पिता व संरक्षक दोषी ठहराये जा सकेंगे तथा उनको एक मास तककी सादी कैद या उन पर एक हजार रुपये तकका जुरमाना या दोनों प्रकारकी
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(८).
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सजायें एक साथ दी जा सकेंगी उपदफा ( ए ) का अभिप्राय यह है कि यदि कोई नाबालिग चाहे वह लड़का हो या लड़की विवाह कर लेवे और ऐसे विवाहके करनेमें माता पिता या संरक्षक उसको किसी प्रकारसे प्रोत्साहन देखें या उसके करनेके लिये अपनी आज्ञा दे देवें या अपनी असावधानीके कारण ऐसे विवाहको हो जाने देवें अर्थात् अपनी लापरवाही की वजहसे ऐसे विवाह को न रोक सकें तो वह लोग दोषी निर्धारित किये जायेंगे इस दफाके अनुसार जुर्म साबित होने पर एक मास तक की सादी कैद व एक हजार रुपये तकका जुर्माना केवल पुरुषों ही पर किया जावेगा उनको दोनों प्रकारकी सजायें एक साथ भी दी जा सकेंगी. परन्तु स्त्रियोंको केवल जुर्माने ही का दण्ड दिया जा सकेगा । यह भी बात ध्यानमें रखने योग्य है कि जुर्माना न अदा करने पर उसके एवज़में भी स्त्रियोंको कैदकी सजा इस दफाके अनुसार नहीं दी जा सकेगी जैसा कि उपदफा (१) के अन्तमें दी हुई शर्तसे प्रकट है और जिसकी अवहेलना नहीं की जा सकती है। इस उपदफाके अनुसार केवल माता पिता व संरक्षक ही दण्डके पात्र नहीं होंगे किन्तु वह लोग भी दण्डनीय होंगे जिनकी देखरेख में नाबालिग रहता हो चाहे नाबालिग कानूनन ऐसे व्यक्तिकी देख रेखमें होवे जैसे कि गार्जियन एण्ड वार्डस एक्ट (Guardian & Wards Act) के अनुसार नियुक्त किये हुए वली की संरक्षता अथवा वह नाबालिग अपने आप ही या अन्य किसी प्रकारसे ऐसे व्यक्तिकी निगरानीमें आगया हो जैसे कि माता पिताकी अनुपस्थिति में किसी रिश्तेदार या किसी मित्र आदिके साथ रहना इत्यादि । विवाहके लिये प्रोत्साहन देना या उसके लिये आज्ञा देना ऐसी बातें हैं जो साधारणतया सपझमें आसकती हैं परन्तु असावधानीके कारण विवाहका न रोक सकना ऐसी बात है जिसके लिये कुछ प्रकाश डालनेकी आवश्यकता समझी गई और इसीलिये उपदफा (२) में इस बातको साफ कर दिया गया है कि यदि कोई नाबालिग बाल विवाह कर लेगा तो उसके माता पिता संरक्षक अथवा अन्य निगरानी रखने वाले व्यक्तिका कर्तव्य होगा कि वह साबित करे कि उसने बाल विवाहको रोकने का पूर्ण प्रयत्न किया था परन्तु वह पर्याप्त कारणों के होने की वजहसे उस विवाहको नहीं रोक सका या विवाह ऐसी दशामें हुआ था कि उसको इल्म ही नहीं हो सका अथवा कोई ऐसा ही अवसर आगया था जिससे वह ऐसे विवाहको रोकनेमें असमर्थ रहा अन्यथा यह मान लिया जावेगा कि वह लापरवाहीके कारण ऐसे विवाहको रोकनेमें असमर्थ रहा है। इस दफासे यह बात भली भांति प्रकट है कि केवल विवाह कराने का प्रोत्साहन देना या उसके लिये आज्ञा देना ही जुर्म नहीं है किन्तु उसको न रोकना भी वैसा ही जुर्म है और यह जुर्म उन सब लोगों पर लागू हो सकेगा जिनकी निगरानी में रहते हुए नाबालिग विवाह कर लेवे।
___इस दफामें नाबालिगसे तात्पर्य लड़का व लड़की दोनोंसे है और इस एक्ट के अनुसार १८ सालसे कम उम्र वाला लड़का या लड़की नाबालिग माना गयाहै परन्तु बाल विवाहसे तात्पर्य उस विवाहका है जिसमें लड़का १८ सालसे कम उम्र का हो या लड़की १४ सालसे कम उम्र की हो अर्थात् १० सालसे कम उम्रका लड़का व १४ सालसे कम उम्रकी लड़की होवे, इसलिये इस दफाके लिये अगर १८ सालसे कम उम्र वाला लड़का किसी उम्र बाली लड़कीसे विवाह करे तो उस लड़केका संरक्षक या माता पिता दण्डनीय होंगे इसी प्रकार यदि १८ सालसे कम उम्रकी लड़की (नाबालिगा ) किसी १८ सालसे कम उम्र वाले लड़केसे विवाह कर लेवे तो उस लड़कीके माता पिता या संरक्षक दण्डनीय होगे । यह आवश्यक नहीं है कि १४ सालसे कम उम्र वाली लड़की ही जब विवाह को तब उसके माता पिता या संरक्षक दण्डनीय होंगे क्योंकि १४ सालसे अधिक परन्त १८ सालसे कम उम्र वाली लड़की का विवाह १८ सालसे कम उम्र वाले लड़केके साथ होना भी बाल विवाह है। इसी प्रकार - यदि १४ सालसे कम उम्र वाली लड़की किसी उम्र वाले लड़के से विवाह कर लेवे तो उसके माता पिता या संरक्षक दण्डनीय समझे जावेंगे।
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(&)
ऐसा मानो कि कन्या की उमर १६ वर्ष और वर की १७ वर्ष, या कन्याकी उमर १३ वर्ष है और वरकी १९ वर्ष, अर्थात् दोनोंमेंसे एक नाबालिग हैं तो इस किस्म के सब विवाह 'बाल विवाह ' माने जावेंगे और इस क़ानून से कन्या और वरके संरक्षकों को सक्षा दी जासकेगी ।
दफा ७ दफा ३ के जुर्मो में क़ैदकी संज्ञा न दी जावेगी
इस एक्टकी दफ़ा ३ के अनुसार किसी अपराधीको दण्ड देते हुए अदालत को यह हुक्म देनेका अधिकार न होगा कि, जुर्माना न अदा किये जाने पर उसे किसी नियस समयके लिये क़ैद की सज़ा भोगनी पड़ेगी, बावजूद इसके कि सन् १८६७६० के जनरल क्लाज़ेज़ एक्टकी दफ़ा २५ तथा संग्रह ताज़ीरात हिन्द ( Indian Penel Code ) की दफा ६४ में इसके विपरीत लिखा हो ।
व्याख्या-
दफ़ा ३ में केवल जुर्मानेका ही दण्ड दिया जाना बतलाया गया है, परन्तु जुर्माना न अदा करने पर कैदको सजा भी देनेका अधिकार अदालतों को कानूनन प्राप्त था जैसा कि संग्रह ताजीरात हिन्दकी दफ़ा ६४ व जनरल क्लॉज एक्टकी दफा २५ से प्रकट हैं । चूंकि इस एक्टकी साफ़ तौरसे यह मंशा है कि दफा ३ के अनुसार जुर्म किये जाने पर कंदकी सजा न दी जावे इस कारण इस दफार्मे यह साफ कर दिया गया है कि जुर्माने के न
अदा होने पर भी उसके एवज़म कैदको सजा न दी जावेगी अर्थात् अदालतें अपने फैसले में इस प्रकारका हुक्म न देवेंगी कि जुर्माना न अदा किये जाने पर अपराधीको किसी नियत समय के लिये क़ैद की सजा भोगनी पड़ेगी। अंग्रेज़ी एक्ट में प्रयोग किये हुए ( Shall ) शब्द से प्रकट है कि इस दफा के नियमकी अवहेलना नहीं की जावेगी । पाठका के जानने के लिये हम दोनों दफायें नीच लिखते हैं:
संग्रह ताज़ीरात हिन्दकी दफा ६४ इस प्रकार है :
-:.
“ यदि किसी ऐसे मामलेमें जिसमें कि कैद व जुर्माना दोनों प्रकारकी सजाये दी जासकती हों अदालत ने केवल जुर्माने की अभवा जुर्माने व क़ैद की सजा दी हो, तथा यदि किसी ऐसे मामलेमें जिसमें कि क्रेंद या जुर्माने की सजा दी जा सकती हो या अकेले जुर्माने ही की सजा दी जा सकती हो अदालतने जुर्माने की सजा दी हो, अदालतको अधिकार है कि वह इस बातका भी हुक्म दे देवे कि जुर्माना न अदा किये जाने पर उसके एवज़में किसी नियत समय के लिये कैद की सजा भोगना पड़ेगी और इस प्रकार दी हुई दकी सता उसी जुर्म के लिये दी हुई कुंदकी सजा और सजा के अलावा होगी " । है :
सन् १८६७ ई० के जनरल क्लाज़ज़ एंक्टकी दफा २५ इस प्रकार
" जब तक कि कोई बात किसी एक्ट, रेगूलेशन, रूल या बाईला में इसके विपरीत न दी हुई होवे तब तक संग्रह ताज़ीरात हिन्दकी दफायें ६३ से लेकर ७० तक तथा सग्रह जानता फौजदारीके वह सब नियम जां जुर्माना वसूल करने के लिये वारण्ट जारी किये जाने तथा उनकी तामील के सम्बन्ध में दिये हुए हैं उन सब एक्ट, रेगूलेशन, रूल या बाई - लाके लिये लागू होंगे " ।
इस दफाको दफा ३ के साथ पढ़ने से यह तात्पर्य निकलता है कि यदि १८ बरससे अधिक उमरका परन्तु २१ बरस से कम उम्र का कोई पुरुष बाल विवाह करे तो उसे केवल १०००) रुपये तक के जुर्मानेका दण्ड दिया जा सकेगा और जुर्माना न वसूल होने पर भी उसके एवजंग कदकी सजा नहीं दी जासकेगी। इस दकासे
२
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(१०)
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यह प्रकट है कि इस एक्टने २१ सालसे कम उमर वाले ( जो १८ सालसे अधिक उम्र के होनें ) पुरुषों के साथ उससे अधिक उम्र वाले लोगोंके मुकाबिले बड़ी रियायतकी है ।
दफा ८ इस एक्ट के अनुसार अख्तियार समात
इस एक्ट के अनुसार किये हुए जुर्मों की समात या सुनवाई प्रेसीडेंसी मजिस्ट्रेट या डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट के अतिरिक्त अन्य कोई मजिस्ट्रेट नहीं करेगा वावजूद इसके कि सन् १८६८ ई० के संग्रह जाबता फौजदारीकी दफा १६० में कुछ और दिया हुआ होवे ।
व्याख्या
इस दफा में साफ तौर से बतलाया गया है कि इस एक्टके अनुसार किये हुए जुर्मों की समात केवळ प्रेसीडेंसी मजिस्ट्रेट तथा डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट करेंगे और कोई भी मजिस्ट्रेट नहीं कर सकेगा ।
जाबता फौजदारीकी दफा १६० इस प्रकार है:
“ १९०~~( १ ) आगे दी हुई बातों को छोड़कर कोई भी प्रेसीडेंसी मजिस्ट्रेट, डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट या सब डिवीजनल मजिस्ट्रेट या कोई अन्य मजिस्ट्रेट जिसे इस सम्बन्धमें अधिकार प्राप्त हों किसी जुर्म की समात नीचे दी हुई बातोंके होने पर कर सकता है:
(ए) उन वाक्रयात का इस्तगासा दायर होने पर जिनसे जुर्म साबित होता हो;
(बी) किसी पुलास आफिसर द्वारा ऐसे वाक्क्रियातकी रिपोर्ट लिखकर देने पर;
(सी) पुलीस अफ़सर के अतिरिक्त अन्य किसी व्यक्ति से अथवा अपने इल्म या शकसे यह मालूम होने पर कि कोई ऐसा जुर्म किया गया है ।
( २ ) प्रान्तिक सरकार या डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट उसके आम या खास हुक्मके आधार पर किसी भी मजिस्ट्रेटको उपदफा ( १ ) के क्लाज (ए) व (बी) के अनुसार उन जुमोंके समातका अधिकार दे सकता है। जिनको वह मजिस्ट्रेट सुन सकता हो या सुपुर्द कर सकता हो
( ३ ) प्रान्तिक सरकार अव्वल या दोयम दर्जेके किसी भी मजिस्ट्रेटको उपदफा ( १ ) के लाज ( सी ) के अनुसार ऐसे जुर्मों की समातका अधिकार दे सकती है जिनको वह मजिस्ट्रेट सुन सकता हो या सुपुर्द कर सकता हो । जाबता फाजदारी की इस दफा के अनुसार अन्य मजिस्ट्रेट भी इस एक्टके जुर्मोकी समात कर सकते हैं क्योंकि जुर्माना व सजा उनके अख्तियार समात के अन्दर आसकते हैं परन्तु इस दफा का मानना आवश्यक है इसलिये प्रेसीडेंसी मजिस्ट्रेट व डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट को छोड़ कर अन्य किसी मजिस्ट्रेटको इस एक्ट के जुमों की समात नहीं करना चाहिये; यह दफा १९० जानता फौजदारी इस कानूनमें लागू नहीं होगी ।
दफा ९ जुर्मो के समातका तरीक़ा
कीई अदालत इस एक्ट के अनुसार किये हुए जुर्म की समात उस समय तक नहीं करेगी जब तक कि उस विवाह के होनेसे एक सालके अन्दर इस्तगासा दायर न किया गया हो जिसके सम्बन्ध में जुर्म किया जाना बतलाया जाता हो ।
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व्याख्या-- यदि किसी विवाहके सम्बन्धमें इस एक्टके अनुसार किया हुआ कोई जुर्म बतलाया जाता हो तो इस विवाहके होनेसे एक सालके अन्दर इस्तगासा दायर किया जाना चाहिये वरना इस मियादके बाद कोई इस्तगासा नहीं लिया जावेगा। यह भी बात ध्यानमें रहना चाहिये कि बिला इस्तगासेके कोई भी कार्रवाई इस एकटके अनुसार किये हुए जुर्मक सम्बन्धमें नहीं की जावेगी अर्थात् किसी अदालतको बिला इस्तगासा आये हुए ऐसे जुर्मकी समात करनेका अख्तियार नहीं है । इस एक्टके नियमों की अवहलना नहीं की जासकती है जैसा कि अंग्रजी एक्टमें प्रयोग किये हुए(Shall ) शब्दका तात्पर्य है। दफा १० इस एक्टके अनुसार किये हुए जुर्मीकी प्रारम्भिक जांच
__ यदि वह अदालत जो इस एक्टके अनुसार किये हुए जुर्मकी समात कर रही हो इस्तगासेको सन् १८६८ ई० के संग्रह जाब्ता फौजदारीकी दफा २०३ के अनुसार खारिज न कर दवे तो वह या तो स्वयं जांच करेगी अथवा अपने मातहत किसी वर्जाअव्वलके मजिस्ट्रटसे उक संग्रह फौजदारीकी दफा २०२ के अनुसार जांच करायंगी।
व्याख्याइस दफाके अनुसार इस एक्ट के जुर्मों के समात करने वाली अदालत अर्थात् प्रेसीडेंसी मनिस्ट्रेट या डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेटको अधिकार प्राप्त है कि वह अपने मातहत अव्वल दर्जेके मजिस्ट्रेटसे इस एक्टके.जुमाको प्रारम्भिक जांच करा सके । अर्थत् इस दफाके अनुसार अब्बल दर्जे के मजिस्ट्रेट इस एक्टके जुमौकी प्रारम्भिक जांच कर सकते हैं जो उनको उन जुर्मोके समातका अधिकार दफा के अनुसार प्राप्त नहीं है । प्रेसीडेंसी मजिस्ट्रेट या डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट प्रारम्भिक जांच अपने मातहत मजिस्ट्रेट से करानेके लिये बाध्य नहीं है वह स्वयं भी जांच कर सकते हैं तथा मातहत मजिस्ट्रेटसे भी जांच करा सकते हैं। यह भी बात ध्यानमें रहना चाहिये कि केवळ अव्वल दर्जेके मातहत मजिस्ट्रेटों द्वारा ही जांच कराई जा सकती है अर्थात् सेकेंड या थर्ड कासके मजिस्ट्रेटोंके सुपुर्द इस प्रकारकी जांचका काम नहीं दिया जा सकता है। यह जांच अभियुक्तके लिये सम्मन या इत्तलानामा जारी किये जानेसे पहिलेकी जांच होगी जो जावता फौजदारीकी दफा २०२ के अनुसारकी जाती है ।
__ संग्रह जाबता फौजादारी की दफा २०२ इस प्रकार है:
"३०२-(१) कोई भी मजिस्ट्रेट जिसके यहां इस्तगासा किसी ऐसे जुर्मका दायर किया गया हो जिसे सुननेका उस अधिकार है अथवा यदि कोई ऐसा इस्तगासा उसके यहां दफा १९२ के अनुसार मुन्तकिल कर दिया गया हो, उचित प्रतीत होने पर तहरीरी वजूहात दिखलानेके बाद मुजिमके खिलाफ उसकी हाजिरीके लिये सम्मन जारी करनेकी कार्रवाईको मुलतवी कर सकता है और वह स्वयं उस मामले की तहकीकात कर सकता है अथवा यदि वह तीसर दर्जेका मजिस्ट्रेट नहीं है तो वह अपने किसी मातहित मजिस्ट्रेटसे उसकी तहकीकात करा सकता है या किसी पुलीस अफसर अथवा किसी अन्य व्यक्तिसे जो उसे उचित प्रतीत हो जांच करा सकता है जिसमें कि इस्तगासेकी सच्चाई व झुठाई मालूम हो सके परन्तु शर्त यह भी है कि इस प्रकारका आदेश उस समय तक न किया जावेगा:
(ए) जब तक कि मुस्तगीसका बयान दफा २०० के नियमोंके अनुसार न लिया गया हो, या ( मी) जब कि इस्तगासा किसी अदालत द्वारा इस एक्ट के नियमोंके अनुसार पेश किया गया हो।
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(१२)
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(२) यदि इस दफाके अनुसार कोई जांच या तहकीकात मजिस्ट्रेट या पुलीस अफसरके अतिरिक्त अन्य किसी व्यक्तिस कराई गई हो तो उस व्यक्तिको वह सब अधिकार प्राप्त होंगे जो किसी थानदार (पुलीस स्टेशन के इनचार्ज अफसर ) को इस एटकके अनुसार प्राप्त हो सकते हैं, केवल उसे बिला वारण्ट गिरफ्तार करने का अधिकार प्राप्त नहीं होगा। (ए) कोई भी मजिस्ट्रेट जो इस दफाके अनुसार तहकीकात कर रहा हो यदि उचित समझे तो गवाहों
के इलाफया बयान ले सकता है। (३) यह दफा कलकत्ता व वई शहरकी पुलीसके लिये भी लागू है । "
उक्त दफा २०२ के देखनसे यह प्रकट है कि प्रारम्भिक जांच किसी मजिस्ट्रेट, पुलीस अफसर अथवा अन्य व्यक्ति से मी कराई जासकती है परन्तु इस बाल विवाह निषेधक कानूनकी दफामें साफतौरसे बतला दिया गया है कि प्रारम्भिक जांच केवल मातहत मजिस्ट्रेटोंसे निनको दर्जाअन्चलके अख्तियार हों कराई जा सकती हैं अथवा स्वयं अदालतको ऐसी जांच करना चाहिये । उक्त दफा २०२ की उपदफा (१) के अन्तमें यह भी शर्त लगाई गई है कि मुस्तगीस का बयान दफा २०० संग्रह जाबता फौजदारीके अनुसार लिये जाने के बाद प्रारम्भिक जांचकी कार्रवाई की जाना चाहिये साथ २ यह भी उसी शर्तमें बतला दिया गया है कि यदि इस्तगासा किसी अदालत द्वारा दाखिल किया गया हो तो प्रारम्भिक जांचकी आवश्यकता नहीं है उपदफा २ (ए) के अनुसार प्रारम्भिक जांच करते समय मजिस्टेट गवाहोंके हलफिया बयान भी ले सकता है। यदि दफा २०२ के अनुसार मांच करते समय मजिस्ट्रॅट को मुस्तगीसके द्वारा लगाये हुए इलजामोंके विरुद्ध शहादत मिले तो मजिस्ट्रेटको चाहिये कि वह मुस्तगीसको ऐसी शहादत के काटने का मौका देवे देखो-मैक कार्थी बनाम शैनन 106I.C. 464; A. I. B. 1928 Mad. 135.
संग्रह जाबता फौजदारीकी दफा २.३ इस प्रकार है:-- "२०३-यदि मुस्तगीसका हलफिया बयान हआ हो तो उस पर विचार करने के बाद तथा दफा २०२ के अनुसार की हुई तहकीकात या जांच के नतीजेको देखकर यह उचित प्रतीत हो कि आगे कार्रवाई चालू करनेका पर्याप्त कारण नहीं है तो वह मजिस्ट्रेट जिसके यहां इस्तगासा दायर किया गया हो अथवा जिसके यहां मुन्तकिल किया गया हो उस इस्तगासको खारिज कर सकता है ऐसे मामलेमें मजिस्ट्रेट ऐसा करनेके कारण सूक्ष्ममें तहरीर करेगा।"
उक्त दफा २०३ के अनुसार मजिस्ट्रेट को इस्तगासा खारिज करने का अधिकार प्राप्त हैं और वह ऐसा उस समय कर सकता है जब कि मुस्तगीस के हलफिया वयान तथा दफा २०२ के अनुसारकी हुई तहकीकात में उसकी रायके मुवाफिक इस्तगासा कायम न रहना चाहिये इस बातका ध्यान रहना चाहिये कि जब तक जाहिरा तौर पर मुकदमा कायम न होता हो मुलजिमके बयान न लिये जाना चाहिये और अगर कोई मजिस्ट्रेट बिला काहिग तौर पर मुकदमा साचित होनेसे पहिले मलजिमके बयान लेवे तो वह दफा २०१ जावता फौजदारी की मंशाके विपरीत काम करेगा देखो-जोगिंदरसिंह बनाम आगा सफदरअली खां 111 I.C.878 (2), A.I.R. 1928. Lah. 88.दफा २०२ की अधिकतर मंशा यह कि मुस्तगीस तथा उसके गवाहों के अथवा उनमेंसे कुछ गवाहोंके प्रारम्भिक बयान लिये जावें जैसा कि अदालतको उचित समझ पड़े । यदि मजिस्ट्रेट को अपनी जांच के लिय यह उचित प्रतीत हो कि मुलजिम को एक मौका अपने सामने हाजिर होने तथा अपने विरुद्ध लगाये हुए इलजामों पर प्रकाश डालनेका दिया जावे और वह मुलाजिम द्वारा पेश हुई दस्तावनी शहादतको लेवे तथा उस पर विचार करे तो कानूनन उसे ऐसा करने की कोई मुमानियत नहीं है।
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और प्रारम्भिक जांच करनेके बाद जब अदालत कोई हुक्म देवे तो उसे साफ तौरसे कहना चाहिये कि वह या तो इस्तगासे को खारिज करता है अथवा उसकी रायमें आगेकी कार्रवाई की जाना चाहिये तथा वह सम्मन या वारण्ट जारी करनेका हुक्म देवे जैसा कि अवसर हो। बम्बईक मजिस्टेट बहधा यह लिखा करते हैं कि नोटिस रद्द किया गया ( Notice Discharged ; सो इस प्रकारकी कार्रवाई ठीक नहीं है। ठीक रास्ता यह है कि इस्तगासा खारिज कर दिया जात्र देखा-52 Bom. 4483; A. I. R. 1928 Bom. 290..
मद्रास हाई कोर्ट ने एक मामलेमें इस प्रकार तय किया है कि एक मजिस्ट्रेटने दफा २०३ के अनुसार इस्तगासा खारिज कर दिया था उसकी ग्विीज़न (निगगनी) सैशन्स जजके यहां की गई। सैशन्स जजने मुलजि. मानके नाम नोटिस जारी करने तथा उनके बयान सुनने के बाद आयन्दा तहकीकात का हुक्म दिया। हाईकोर्ट ने यह तय किया कि चैप्टर १६ के अनुसार होने वाली तहकीकातोंमें मुलजिमकी कोई स्थिति नहीं है और मुलजिमानके नाम सैशन्स जज द्वारा नोटिसका जारी किया जाना यदि गर कानूनी नहीं तो अनुचित अवश्य समझना चाहिये,
खे--A. I. R. 1928. Mad. 1198. इलाहाबाद हाईकोर्ट ने भी एक मामलेम इसी प्रकार तय किया है जब कि किसी मजिस्ट्रेटने दफा २०३ के अनुसार इस्तगासे को खारिज किया हो तो सैशन्स जज दफा ४३६ के अनुसार रिवीजनमें केवल और तहकीकातके किये जाने का हुक्म दे सकता है । वह इस बातका हुक्म नहीं दे सकता है कि मजिस्ट्रेट मुलजिमको जवाबदेहीके लिये तलब करे । इसी मामले में यह भी तय किया गया था कि यह कहना गलत है कि अगर मजिस्ट्रेटको शहादत ना काफी मालूम पड़े तथा इस्तगासा झूठा समझ पड़े तब भी उसे यदि इस्तगासे की त ईदमें कुछ शहादत दी गई हो मुलजिमको तलब करना चाहिये अर्थात् ऐसी दशामें वह मुलजिमको तलब करनेके लिये बाध्य नहीं है । ऊपर बतलाई हुई स्थिति के उपास्थत होने पर मजिस्ट्रेट इस्तगालेको जायज तौर पर खारिज कर सकता है, देखो--नयात हुसेन बनाम सरकार बहादुर A. I. R. 1928. All. 684. दफा ११ मुस्तगीससे जमानत लेनेके अधिकार
(१) मुस्तगीसके बयान लेने के बाद तथा मुलजिमकी हाज़िरीके लिये इत्तला. मामा जारी करनेस पहिले अदालत किसी समय भी मुस्तगीससे सौ रुपये तककी दस्तावेज़ (मुचलका ) बिला ज़मानती या मय ज़मानतक दाखिल करायगी परन्तु घह तहरीरी वजूहात बतलाने पर ऐसा नहीं भी कर सकती है । यह दस्तावेज उस मुआविज़की अदायगीके लियं होगी जो मुलजिमको सन् १८६८ ई० के संग्रह जाबता फौजदारीकी दफा २५० के मुवाफिक मुन्तगीससे दिलाया जा सकता है और यदि एसी ज़मानत अदालत द्वारा नियत किये हुए पर्याप्त समयकं अन्दर नहीं दाखिलकी जावेगी तो वह इस्तगासा खारिज कर दिया जावेगा।
(२) इस दफाके अनुसार जो दस्तावेज़ लिख.ई जावेगी वह सन् १८६८ ई० के संग्रह ज़ाबता फौजदारीके अनुसार लिखाई दस्तावेज़ समझी जावेगी और इसीलिये उक्त संग्रह जाबता फौजदारीका ४२ वां प्रकरण लागू होगा।
व्याख्याइस दफाके अनुसार मुस्तगासे सौ रुपये तकका मुचलका या जमानत ली जावेगी यह जमानत मुस्तगीस के बयान होने के पश्चात् तथा मुलजिमके नाम सम्मन जारी किये जानेसे पहिले ली जाना चाहिये । अदालतको
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यदि पत कारण समझ पड़े तो ऐमी जमानत नहीं भी ले सकती है परन्तु ऐसा करते समय अशलत को चाहिये कि वह लिख कर उन कारणोंको बतलीय जिनके आधार पर वह जमानत नहीं ले रही हो । सौ रूपये से अधिककी जमानत इस दफार्मे नहीं बतलाई गई है । मुचलका या जमानत इस लिये ली जावेगी कि जिसमें मामला खारिज होने पर यदि अदालत मुलजिमको दफा २५० संग्रह जानता फौजदारी के अनुसार कोई मुआवजा दिलवाये तो वह रुपया अवश्य उससे वसूल किया जा सके। इस प्रकारकी जमानत होनेके कारण लोग झूठा इस्तगासा आसानी से दायर करने की हिम्मत नहीं करेंगे तथा अदालतको भी सब प्रकारसे यकीन हो सकेगा कि इस्तगासा के किसी हद तक साबित किंग जानेका प्रयत्न किया जावेगा । इस दफाके अनुसार लिया हुआ मुचलका या ज़मानत संग्रह जानता फौजदारी के अनुसार समझा जावेगा । और उक्त संग्रहका ४२ व प्रकरण लागू होगा अर्थात् उक्त संग्रह जानता फौजदारीकी दफा ५१३ से लेकर दफा ५१६ तक के नियम लागू होंगे ।
उक्त संग्रह जाबता फौजदारी की उपरोक्त दफायें इस प्रकार हैं:--
" ५१३ - जब कि किसी अदालत या अफसरने किसी व्यक्ति से मुचलका या ज़मानत और मुचलका मांगा हो तो वह अदालत या अफ़सर उस जमानत या मुचलका के एवजम नकद रुपया या सरकारी प्रामिसरी नोट दाखिल करा सकती है, केवल नेकचलनी के लिये लिखवाई हुई दस्तावेज़ के लिये ऐसा नहीं किया जावेगा ।
५१४ - ( १ ) जब कि उस अदालतको जिसने इस प्रकरणके अनुसार दस्तावेज़ लिखवाई हो या प्रेसीडेन्सी मजिस्ट्रेट अथवा अव्वल दर्जेके माजस्ट्रेटको यह साबित हो जावे या जब कि दस्तावेज़ हाजिरीके लिय लिखवाई गई हो तो उस अदालतको जहां की हाजिरीका सवाल है यह साबित हो जावे कि दस्तावेज जब्त हो गई हैं तो अदालत ऐसे सुबूत की वजूहात तहरीर करेगी और उस दस्तावेज के पावन्द होने वाले व्यक्तिसे उसका मुआवजा मांगेगी या उससे वजह जाहिर करने को कहेगी कि मुआविजा क्यों न लिया जावे ?
( २ ) यदि पर्याप्त कारण न दिखलाया गया हो और मुआविज्ञा न अदा किया जावे तो अदालत उस व्यक्तिकी मनकूला ( Moveable) जायदादको कुर्क करने तथा उसके नीलाम किये जानेका वारण्ट जारी करके उसे वसूल कर सकती है अथवा यदि वह मर गया हो तो उसकी जायदादसे वसूल कर सकती है ।
( ३ ) इस प्रकारका वारण्ट उस अदालत के अधिकार सीमामें तामील किया जा सकता है जिसने उसे जारी किया हो और उसके अनुसार अधिकार सीमासे बाहर भी उस व्यक्तिकी मनकूला जायदाद कुर्क व नीलाम उस समय की जा सकेगी जब कि चीफ प्रेसीडेन्सी मजिस्ट्रेट या डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेटने, जिसके अधिकार सीमामें वह जायदाद होने, अपनी सही कर दी हो ।
( ४ ) यदि ऐसा मुआविजा न अदा किया गया हो और वह ऊपर बतलाई हुई कुर्की व नीलामसे न बसूल किया जा सके तो वारण्ट जारी करने वाली अदालत अपने हुक्म द्वारा उस व्यक्तिको ६ महीने तकके लिये दीवानी की जेल में बंद कर सकती है ।
( ५ ) अदालतको अधिकार है कि ऊपर बतलाये हुए मुआविजेके किसी हिस्सेको माफ़ कर देवे तथा उसके किसी हिस्सेकी अदायगी ही के लिये कोशिश करे ।
( ६ ) यदि किसी दस्तावेजके जब्त किये जानेसे पहिले जामिनदार मर जावे तो उसकी जायदाद उस दस्तावेज के सम्बन्ध में हर प्रकारसे बरी समझी जावेगी ।
( ७ ) जब किसी व्यक्तिने दफा १०६, ११८ अथवा ५६२ के अनुसार जमानत दाखिल की हो और वह कोई ऐसे जुर्म का मुजरिम करार दिया जावे जिससे उस जमानत की कोई शर्त टूटती हो या दफा ५१४ के
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अनुसार उसके एवजमें दस्तावेज लिखी गई हो तो जाबतासे ली हुई तजवीजकी नकल, जिसके मुवाफिक वह मुजरिम करार दिया गया हो, उसके जामिनदार या जामिनदारों के विरुद्ध काफी शहादत समझी जावेगी और यदि इस प्रकार कायदेसे ली हुई नकल पेश की जावेगी तो अदालत यह मान लेगी कि जुर्म किया गया है जब तक कि इसके विरुद्ध कोई बात साबित न की जावे।
__ ५१४ (ए)-जब कि इस संग्रहके अनुसार लिखाई हुई दस्तावेजका जामिनदार मर जावे या दिवालिया करार दे दिया जावे या दस्तावेज दफा ५१४ के अनुभार जन्त करली गई हो तो वह अदालत जिसने जमानत दाखिल करनेका हुक्म दिया हो या प्रेसीडेन्सी मजिस्टेट अथवा अव्वल दुर्जेका मजिस्ट्रेट उस व्यक्तिसे जिससे जमानत मांगी गई थी नई जमानत असली हुक्मके अनुसार मांग सकता है और अगर ऐसी .. जमानत दाखिल न की जावे तो वह अदालत या मजिस्ट्रेट उस प्रकार की कार्रवाई कर सकता है जैसे कि असली हुक्मकी तामील न की गई हो ।
___ ५१४ (बी)-जब कि वह व्यक्ति जिससे कि दस्तावेज लिखाई जानेको होवे, नाबालिग हो, तो - अदालत या अफसर उसके एवज़में जामिनदार या जामिनदारोंसे दस्तावेज लिखवा सकता है।
५१५-यदि डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट या प्रेसीडेन्सी मजिस्ट्रेट के अतिरिक्त किसी मजिस्ट्रेटने दफा ५१४ के अनुसार कोई हुक्म दिया हो तो उसकी अपील डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेटके यहां की जा सकेगी या अगर इस प्रकार अपील की गई हो तो उस हुक्मकी निगरानी (Revision) उसके द्वारा की जा सकेगी।
__ ५१६ - हाईकोर्ट या सेशन्स कोर्ट किसी भी मजिस्ट्रेटको उस दस्तावेजका रुपया वसूल करने का हुक्म दे सकते हैं जो हाईकोर्ट या सेशन्स कोर्ट में हाजिर होनेके सम्बन्धमें लिखी गई हो” ।
____ऊपर बतलाये हुए सब नियम जो दफा ५१३ से लेकर ५१६ तकमें दिखलाये गये हैं इस दफाके अनुसार लिखी हुई दस्तावेजों के सम्बन्धमें भी लागू होंगे । इस दफामें संग्रह जाबता फौजदारीकी दका २५० के अनुसार दिलाये जाने वाले मुआविजेका उल्लेव है। उक्त दफाके अनुसार मुस्तगीससे मुलजिमको झूठे व पं करने वाले मामलोंके सम्बन्धमें मुआविज्ञा दिलाया जा सकता है इस दफाके अनुसार जैसा मुआविजा फौजदारीके और जुगोंके सम्बन्धमें दिलाया जा सकता है वैसा ही मुआविजा इस एक्टके जुर्मों के लिये भी दिलाया जासकेगा।
संग्रह ज़ाबता फौजदारी की दफा २५० इस प्रकार है:२५०--( १ ) यदि किसी मामलेमें जो इस्तगासे पर अथवा किसी पुलास आफिसर या मजिस्ट्रेटको इत्तला देने पर चलाया गया हो और एक या एकसे अधिक व्यक्ति ऐसे जुर्मके मुजरिम करार दिये गये हो और उस मामले को सु ने वाला मजिस्ट्रेट सब या उनमेंसे किसी मुलजिमको बरी कर देवे ( Acquit ) या रिहा (Discharge) कर देवे और उसकी रायमें उन सबके या उनमेंसे किसीके खिलाफ लगाया हुआ जुर्म झूठा हो तथा वह बेजा और परेशान करने की गरजसे लगाया गया हो तो, मजिस्ट्रेटको रिहाई या बरी करनेका हुक्म देते समय अधिकार है, कि अगर वह व्यक्ति जिसके इस्तगास या इत्तला पर जुर्म लगाया गया हो वहां मौजूद होवे तो उससे उसी वक्त वजह जाहिर करनेको कहे कि उससे उन सब मुलज़िमों या उनमें किसीको मुआविज़ा क्यों न दिलाया जावे या यदि वह व्यक्ति हाजिर न होवे तो उसके नाम सम्मन हाजिर होने को जारी करे और ऊपर बतलाई हुई वजह जाहिर करने को कहे ।
(२) मजिस्ट्रेट, मुस्तगास या इत्तला देने वाले व्यक्ति द्वारा बतलाई हुई वजहको लिखेगा तथा उस पर पार करेगा और यदि उसे यकीन हो जावेगा कि मामला झूठा था और बजा तोरसे अथवा परेशान करने की गरजसे चलाया गया था तो वह तहरीरी सबब दिखला कर सौ रुपये तकका मुआविजा या अगर मजिस्ट्रेटको
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दर्जा सोयमके अधिकार हों तो पचास रुपये तकवा मुआविजा जैसा कि उसे मुनासिब मालूम हो मुस्तगीस या इत्तला कुनिन्दासे मुलजिम या हर एक मुलजिमको दिये जाने का हुक्म दे सकता है । (ए) मजिस्ट्रेटको अधिकार है कि वह उपदफा ( २ ) के अनुसार मुआविजा दिलानेका हुक्म देते
समय यह भी हुक्म द देवे कि अगर मुआविजा अदा न किया जावे तो उस व्यक्तिको जिससे
मुआविजा दिलाया गया हे तीस दिन तककी सादी केन्द भोगेगा। (बी) जब कि कोई व्यक्ति उपदफा (ए) के अनुसार कैद किया गया हो तो ताजीरात हिन्दकी दफा
६८ व ६९ के नियम जहां तक कि उनका सम्बन्ध होगा लागू होंगे। (सी) वह व्यक्ति जिससे कि इस दफाके अनुसार मुआवजा दिलाये जाने का हुक्म हुआ ही ऐसे
हुक्म के कारण किसी दीवानी या फौजदारी की जिम्मेदारीसे बरी नहीं होगा जिसके लिये कि वह अपने इस्तगासे या इत्तलाके कारण जिम्मेदार होत्र । परन्तु शर्त यह है कि यदि उसी मामलेके सम्बन्धमें दायर किये हुए दीवानीके मामले में इस हुक्मके बाद कोई मुआविज़ा दिलाया
जावे तो मुलजिमको इस हुक्मके अनुसार दिलाय हुए रुपयेका ध्यान उस समय रखा जावेगा। (३) मुस्तगीस या इत्तला कुनिन्दा निसे कि उपदफा ( २ ) के अनुसार किसी दर्जा दोयम या सोयमके मनिस्टेटने मुआविजा देने का हुक्म दिया हो अथवा किसी दारे मजिस्टेटने पचास रुपयेसे ऊपर : देनेका हुक्म दिया हो, ऐसे हुक्मकी अर्गल जहां तक कि उसका ताल्लुक मुआविजेसे हैं उसी प्रकार कर सकता है जैसे कि वह मुस्तगीस या इत्तला कुनिन्दा उस मजिस्ट्रट द्वारा सुने हुए किसा मामलमें दोषी निर्धारित किया गया हो ।
(४) जब कि किसी मुलजिमको मुआविजा दिलाये जाने का हुक्म किसी ऐसे मामलमें हुआ हो जिमकी अपील उपदफा ( ३ ) के अनुमार की जासकती है ता वह मुआविजा उसको अपीलकी मियाद खतम होने तक नहीं दिया जावेगा या यदि अपील दायर कर दी गई हो तो उस वक्त तक नहीं दिया जावेगा जबतक कि अपीलका फैसला न हो चुके | आर यदि ऐसा हुक्म किसा एस मामले में हुआ हो जिसकी अपील न की जासकती हो तो हुक्म होनेसे एक महीनके अन्दर मुआविजा नहीं दिया जावगा"।
ऊपर बतलाई हुई दफा २५० जाबता फौजदारीके नियमोंके अनुमार इस एक्ट के सम्बन्धमें दायर किये हुए झूठे व परेशान करने वाल मामलामें मुआविजा दिलाया जा सकता है। इलाहाबाद हाईकोर्टने यह तय किया है कि अगर कोई मामला रिवीजन (निगरानी ) में हाईकोर्ट के सामन आवे तो उसके लिये परेशान करने वाले मामलोंमें मुआविजा दिलवाना मशकूक है अर्थात् निगरानी मुआविजा दिलवानेका हुक्म देना सही नहीं मालूम होता है देखो-अमीनुला बनाम सरकार बहादुर 26 A.LJ.3283 A. I. R. 1928 All. 95. मुस्तगीस जिन गवाहोंको पेश करना चाहे उन सबका बयान होने के बाद अदालत यह राय कायम कर सकती है कि मामला झूठा है तथा वह बेजातौर पर या परेशान करनेकी सरजसे चलाया गया है । जब कि अदालतने थोड़से गवाहाको सुनने हा के बाद मामला समाप्त कर दिया हो तथा मुलजिमको मुआविजा दिलाया हो तो यह तय किया गया कि गो मजिस्ट्रेट मुलजिमको किसी समय भी रिहा (Discharge) कर सकता है परन्तु वह उस वक्त मुआविजा दिये जानेका हुक्म नहीं दे सकता था देखा-पी. नायकर बनाम कृष्णस्वामी अय्यर 51 Mad. 337; A. I. R. 1928 Mad. 169 (1) रिहाई के हुक्मके साथ यही हुक्म होना आवश्यक है कि वजह जाहिर करो कि मुआविजा क्यों न दिलाया जाव मुआविजा दिये जानेका हुक्म अदालत से भी दिया जा सकता है देखो - सादागरसिंह बनाम अरोरसिंह 110 I. C. 232.
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जुरमाना कैसे वसूल किया जायगा ।
इस क़ानून में जुरमाना वसूल कस्नेकी कोई विधि नहीं बताई गयी यह बताया गया है कि मजिस्ट्रेड इस कानून के जुरमोंकी समाअत करेगा और समाअत करनेमें उन्हीं नियमों का प्रयोग किया जायगा जिनका उल्लेख संग्रह जाबता फौजदारी ऐक्ट नं० ५सन् १८९८ ई० में हैं इस सबबसे जुरमाना वसूल करनेके सम्बन्धमें वही नियम लागू समझना चाहिये जो उक्त संग्रह- जाबता फौजदारीमें बताये गये हैं । उक्त कानूनकी नीचे लिखी दफाएं जुरमाना वसूल करनेके सम्बन्धनें लागू होती हैं :
जाबता फौजदारी की दफा ३८६, ३८७, ३८८ और ३८६ इस प्रकार हैं:
३८६ – १ जब किसी मुल्जिमको जुर्मानेकी सजा दी गई हो, तो सजा देने वाली अदालतको अधिकार है कि वह जुर्माना वसूल करनेके लिये नीचे लिखे एक या दोनों तरीकोंसे उसे वसूल करे, अर्थात्(ए) वह मुल्जिमकी मनकूला जायदादकी कुकीं और नीलाम के लिये हुक्म दे ।
(बी) वह जिले के कलक्टर के नाम यह अधिकार देते हुए वारण्ट जारी करे कि वह जुर्माना न पाटने वालकी मनकूला या गैर-मनकूला जायदादकी, दीवानी कार्रवाई के अनुसार कुर्की करके जुर्मान की रक्कम को वसूल करे ।
मगर शर्त यह है कि जब सजाके हुत्रममें यह बात दर्ज हो कि जुर्माना न पटाने की सूरत में मुल्जिमको क़ैद की सजा होगी और अगर वैसे मुल्जिमने जुर्माना न पटानेके एवज में क़ैद की सजा भुगती हो, तो कोई अदालत जब तक कि खास कारणोंसे, जिन्हें वह लिखेगी, ऐसा करना जरूरी न समझे, ऐसा वारण्ट जारी न करेगी । २ लोकल गवर्नमेण्ट को अधिकार है कि वह उपदफा (१) क्लाज (ए) के अनुसार जारी होने बाले वारण्टके जारी करनेके लिये और ऐसी जायदाद के सम्बन्धमें किसी व्यक्ति के द्वास लाये हुए दानेका सरसरी तौर पर तस्फीया करने के नियम बनावे |
(१७.)
है जब कि उपदफा (१) लाज (बी) के अनुसार अदालत वारण्ट जारी करे, तो वैसा वारण्ट जानता दीवानी सन् १९०८ ई० के अर्थमें डिकरीके समान समझा जावेगा और सबसे नजदीक की दीवानी अदालत को, जिसे उस जानते के अनुसार वैसी रकम की डिकरी इजरा करनेका अधिकार है, वही अधिकार प्राप्त होंगे मानो कि वह डिकरी उसी अदालतसे हुई है और उस जावत में दिये हुए डिकरीके इजरा करने के कुल हुक्म उसको लागू होंगे ।
मगर शर्त यह है कि ऐसा कोई वारण्ट मुल्जिमों को जेलमें रखकर या उसे गिरफ्तार करके तामील नहीं किया जावेगा |
३८७-
-- कोई वारण्ट, जो किसी अदालत के द्वारा दफा ३८६ उपदफा (१) क्लाज (ए) के अनुसार जारी किया गया हो, वैसी अदालतकी हुकूमत के इलाके की मुकामी हदके अन्दर तामल किया जासकता है और उसमें यह अधिकार दिया जायगा कि उस मुजरिमको जो कुछ जायदाद वैसी हद के बाहर हो, वह भी कुर्क और नीलाम की जाय जब कि उस वारण्टकी पीठ पर उस जिला मजिस्ट्रेट या उस चीफ प्रेसीडेन्सी मजिस्ट्रेट के दस्तखत हों जिसके इलाकेकी मुकामी हदके अन्दर वैसी जायदाद मिली हो ।
३८८--१ जब कि किसी मुजरिमको सिर्फ जुर्माने की सजा दी गई हो और यह हुक्म दिया गया हो कि जुर्माना न पटाने की सूरत में उसे जेलकी सजा दी जावेगी, और अगर जुर्माना उसी वक्त न पावा जावे, तो अदालतको अधिकार है-
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(ए) वह यह हुक्म देवे कि जुर्माना हुक्मकी तारीख से तीस दिन के अन्दर किसी तारीख को या उसके पहिले, एक मुश्त या दो या तीन किस्तों में, जिसमें पहिली क्रिस्त हुक्मकी तारीख से तीस दिन के अन्दर किसी तारीख को या उसके पहिले वाजिबुल अदा होगी और बाकी क्रिस्त या किस्तें एक एक महीने के अन्दर अदा की जावेंगी;
( १८ )
(बी) वह सजाके भुगतने को रोकने का हुक्म देवे और मुल्जिमको उसके इस शर्त पर मुचलका लिखने या जमानतदार पेश करने पर, जैसा कि अदालत ठीक समझे, कि वह उस तारीख या उन तारीखों पर अदालत में हाजिर किया जावेगा, जिस पर या जिसके पहिले जुर्माना या उसकी क्रिस्त अदा करनी है; और अगर लुर्माने की रक्रम या कोई क्रिस्त, जैसी कि दशा हो वाजिबुल् अदा की आखिरी तारीख पर अदा न की जावे, तो अदालत यह हुक्म दे सकती है कि सजा के भुगतनेका हुक्म फौरन शुरू किया जाये ।
२ उप दफा २ के हुक्म ऐसे मामलों में भी लागू होंगे, जिनमें ऐसे रुपयोंकी अदाई का हुक्म है, जिनके अदा न करने पर सजाका हुक्म दिया जासकता है और जिनमें रुपया उसी वक्त अदा न किया गया हो। अगर वह व्यक्ति, जिसके खिलाफ हुक्म दिया गया हो, जमानत देनेका हुक्म होने पर जमानत पेश न करें, जैसा कि उपदफा बतलाया गया है तो अदालत उसे एकदम जेलकी सत्ताका हुक्म दे सकती है।
३८९— हर एक वारण्ट किसी सत्ता के हुक्मकी तामीलके लिये उस जज या मजिस्ट्रेटके हुक्मसे, जिसने सजाका हुक्म दिया हो, या उसकी जगह पर आये हुए अफसर के हुक्मसे जारी किया जासकता है ।
नोट :- उपरोक्त दफा ३८६, क्रिमिनल प्रोसीजर कोड एमेन्ड मेन्ड एक्ट नं० १८ सन् १९२३ ई० की दफा १०२ के द्वारा इस प्रकार संशोधित हो चुकी है। जब तक कि दूसरे कानूनमें जुरमाना करनेका खास तरीका न बता दिया गया हो तब तक कुल फौजदारी सम्बन्धी कानूनों के अनुसार जुरमाना इस दफाके मुताबिक वसूल किया जावेगा देखो जनरल लाजेज एक्ट नं० १० सन् १८९७ ई० की दफा २५ और देखो - 22 Cal. 139. मजिट्रेटको इस दफा के (ए) के अनुसार उचित है कि अपराधीकी जायदाद मनकूला कुर्क व नीलाम करके जुरमाना वसूल करे खेतमें खड़ी फसल पर शामिल शरीक खानदान की जायदाद कुर्क a नीलाम नहींकी जायगी। मगर अंक (बी) के अनुसार गैर मनकूला जायदाद उसी तरह कुर्क व नीलाम होगी जैसे दीवानीकी डिकरी होने पर मदियूनकी गैर मनकूला जायदाद के कुर्के व नीलाम करानेका क्रायदा काममें खाया जाता है । अगर कुर्क किये हुए माल पर कोई तीसरा व्यक्ति अपना हक जाहिर करता हो तो ऐसे इक्र का निपटारा सरसरी तौर पर मजिस्ट्रेट करदेगा । इस दफामें यह बताया गया है कि जुरमाना बतौर डिकरीके समझा जायगा और उसकी वसूली कलक्टर के मारफत उसी तरह की जावेगी जिस तरह दीवानीकी डिकरियों का रुपया वसूल किया जाता है देखो - 20 Cal. 478. इस दफा के अनुसार कुर्की के हुक्मकी नजर सानी नहीं की जा सकती अगर किसी तसिरेका माल, गलती से अपराधीका माल समझ कर कुर्क किया गया हो उसे अदालत दीवानीमें खरीदार या सेक्रेटरी आफ स्टेटके खिलाफ दावा करना चाहिये देखो -- Mal. 44.
जानता फौजदारी की दफाएं ३८७, ३८८ और ३८९ बहुत साफ हैं । पाठक आप यह ध्यान राखेये कि इस कानून में जहां पर जुरमाना न अदा करनेकी सूरत में सजा देना साफ तौरसे मना कर दिया गया है वहां पर मजिस्ट्रेट इसके खिलाफ नहीं कर सकेगा और जुरमाना के बदले सजा नहीं दे सकेगा ।
॥ इति ॥
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From the Government Gazette 12 Oct. 1929.
The following Act of the Indian Legislature received the assent of the Governor. General on the 1st October, 1929, and is hereby promulgated for general information :Act No. XIX of 1929.
An Act to restrain the solemnsation of child marriages..
WHEREAS it is expedient to restrain the solemnisation. of child marriages; It is hereby enacted as follows:--
1. Short title, extent and commencement.
(1) This Act may be called the Child Marriage Restraint Act, 1928. (2) It extends to the whole of British India, including British Baluchistan and the Sonthal Parganas.
(3) It shall come into force on the 1st day of April,, 1930.
2. Definitions.
In this Act, unless there is anything repugnant in the subject or context,(a) "child" means a person who, if a male, is under eighteen years of age, and if a female, is under fourteen years of
age;
(b) "child marriage" means a marriage to which either of the contracting parties is a child;
(e) "contracting party" to a marriage means either of the parties whosemarriage is thereby solemnised, and
(d) "minor" means a person of either sex who is under eighteen years. of age.
3. Punishment for male adult below twenty-one years of age marrying a child.
Whoever, being a male above eighteen years of age and below twentyone, contracts a child marriage shall be punishable with fine which may extend to. one thousand rupees.
4. Punishment for male adult above twenty-one years of age marrying a child.
Whoever, being a male above twenty-one years of age, contracts a child marriage shall be punishable with simple imprisonment which may extend to one month, or with fine which may extend to one thousand rupees, or with both. 5. Punishment for solemnising a child marriage.
Whoever performs, conducts or directs any child marriage shall be punishable with simple imprisonment which may extend to one month, or with fine which may extend to one thousand rupees, or with both, unless he proves that he had reason to believe that the marriage was not a child marriage. 6. Punishment for parent or guardian concerned in a child marriage. (1) Where a minor contracts a child marriage, any person having charge of the minor, whether a parent or guardian or in any other capacity,
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lawful or unlawful, who does any act to promote the marriage or permits it to be solemnised, or negligently fails to prevent it from being solemnised, shall be punishable with simple imprisonment which may extend to one month, or with fine which may extend to one thousand rupees, or with both :
Provided that no woman shall be punishable with imprisonment.
(2) For the purposes of this section it shall be presumed, unless and until the contrary is proved, that, where a minor has contracted a child. marriage, the person having charge of such minor has negligently failed to prevent the marriage from being solemnised. 7. Imprisonment not to be awarded for offences under section 3.
Notwithstanding anything contained in section 25 of the General Clauses Act 10, 1897, or section 64 of the Indian Penal Code 45 of 1860,a Court sentencing an offender under section 3 shall not be competent to direst that, in default of payment of the fine imposed, he shall undergo any term of imprisonment. 8. Jurisdiction under this Act.
Notwithstanding anything contained in section 190 of the Code of Criminal Procedure 5, 1898, no Court other than that of a Presidenoy Magistrate or a District Magistrate shall take cognizance of, or try, any offence under this Act. 9. Mode of taking cognizance of offences.
No Court shall take cognizance of any offenpe under this Act save upon complaint made within one year of tbe solemnisation of the marriage in respect of which the offence is alleged to have been committed. 10. Prelimanary inquiries into offences under this Act.
The Court taking cognizanc of an offence under this Act shall, unless it dismisses the complaint under section 203 of the Code of Criminal Procedure 5, 1898, either itself make an inquiry under section 202 of that Code, or direct a Magistrate of the first class subordinate to it to make such inquiry 11. Power to take security from complainant.
(1) At any time after examining the complainant and before issuing process for compelling the attendance of the accused, the Court shall, except for reasons to be recorded in writing, require the complainant to execute a bond, with or without sureties, for a sum not exceeding one hundred rupees, as security for the payment of any compensation which the complainant may be directed to pay under section 250 of the Code of Criminal Procedure 5, 1998; and, if such security is not furnished within such reasonable time as the Court may fix, the complaint shall be dismissed.
(2) A bond taken under this section shall be deemed to be a bond taken under the Code of Criminal Proceduro 5, 1898, and Chapter XLII of that Code shall apply accordingly.
L. GRAHAM, Secy. to the Govt. of India.
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