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- उत्तराधिकार
[नवां प्रकरण
दफा ६३० तीनों सिद्धान्तोंका फरक - उत्तराधिकार तीन सिद्धान्तोंके अनुसार विभक्त किया गया है, (देखो ६२३ से ६२६ )। इनमें से पहिला सिद्धान्त प्रोफेसर सर्वाधिकारी डाक्टर जाली, मिस्टर मेनसाहेब और डाक्टर जोगेन्द्रनाथ भट्टाचार्यके अनुसार है, इस सिद्धान्तको जैसाकि इस किताबकी दफा ६२३, ६२४ में बताया गया है इसीको जस्टिस बनरजी और जस्टिस पिगटने मिस्टर हेरिङ्गटनकी स्कीमको 'पसन्द करते हुये प्रोफेसर सर्वाधिकारीके क्रमको माना है (देखो दफा ६२५). इस सिद्धान्तके अनुसार भाईका पोता चाचाके बेटेसे पहिले वारिस होगा और जायदाद पायेगा । अब प्रायः यही सिद्धान्त माना जाता है।
ऊपर कहे हुए जो तीनों सिद्धान्तों में फरक है वह मिताक्षरामें (पुत्र) के अर्थमें भेद पड़ जानेसे यानी एक जगहपर (पुत्र) के मतलबमें भेद होने पर और दूसरी जगह (पुत्र) और ( सन्तान) के मतलबमें भेद होनेसे पड़ गया है। मिताक्षरामें कहा गया है कि-- .. "भ्रातृणामप्यभावे तत्पुत्राः पितृक्रमेण धनभाजः” ।
भाइयोंके भी न होनेपर उनके पुत्र पिताके लिहाज़से जायदादमें भाग पावेंगे और आगे चलकर मिताक्षरामें यह भी कहा गया है कि
"तत्रच पितृसन्तानाभावे पितामही पितामह पितृव्यास्तत्पुत्राश्चक्रमेणधनभाजः पितामहसन्तानाभावे प्रपितामही प्रपितामहस्तत्पुत्रास्तत्सूनवश्वेत्येव मा सप्तमात्समानगोत्राणां सपिण्डानां धनग्रहणंवेदितव्यम्"
मतलब यह है कि पिताकी सन्तानके न होनेपर दादी (पिताकी मा) दादा ( पिताका बाप) चाचा और उसके लड़के क्रमसे जायदाद पाते हैं। इसी तरहसे दादाकी सन्तान न होनेपर पितामहकी मा, प्रपितामह, और उसके लड़के और उनके लड़के । इसी प्रकार सात पीढ़ी पर्यन्त सगोत्र सपिएडोंको जायदाद मिलेगी।
पहिले सिद्धान्तके अनुसार (पुत्र) का मतलब बेटे, पोतेसे लिया गया है और (सन्तान) का मतलब नीचेकी तीन पीढ़ी तक जैसाकि मृत पुरुषकी सन्तान के बारेमें अर्थ किया गया 'अपुत्रस्य' पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र रहितस्य पुरुषस्य।