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इफा ७५२-७५३]
स्त्रीधन क्या है
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धन शब्दसे स्थावर और जङ्गम जायदादका बोध होता है । स्त्रीके पास दो तरहका धन रहता है एक तो ऐसा धन जिसमें उसे पूरा अधिकार जैसे रेहन करने या बेंच देने आदिका प्राप्त रहता है वही स्त्रीधन कहलाता है। और दूसरा वह धन जिसमें स्त्रीका पूरा अधिकार नहीं रहता सिर्फ वह अपने जीवन भर उस जायदादकी मालिक रहती है और उसे रेहन या वय नहीं कर सकती जैसे पति से पाई हुई उत्तराधिकारके द्वारा जायदाद । इसलिये स्त्रीके पास जो जायदाद हो वह दो तरहपर तकसीम की जा सकती है
स्त्री की जायदाद
स्त्रीधन
जो स्त्रीधन नहीं है (जिसमें पूरा अधिकार हो) . (जिसमें पूरा अधिकार न हो)
दायभागमें जीमूतवाहनने इस शब्दका अर्थ यह किया है कि अपने पतिके अधिकारसे बाहर स्त्रीके पास जो धन हो और जिसमें स्त्री स्वतन्त्रता पूर्वक किसीको देदेने, या बेच देने या अपनी मरज़ीके अनुसार काममें लाने की अधिकारिणी हो वह स्त्रीधन है । देखो दायभाग अ४-१८.
'स्त्रीधनं यत्र भर्तृतःस्वातन्त्रेणदान विक्रय भोगान कर्तु मधिकारीति च स्त्रीणांस्वातन्त्रेण विनियोज्यं स्त्रीधनमित्यर्थः' दफा ७५३ स्त्रीधन क्या है
स्त्रीधन क्या है और वह कितने प्रकार का होता है इस विषय पर स्मृतियोंके बचन देखिये -
अध्यग्न्य ध्यावाहनिकं दत्तं च प्रीति कर्मणि भर्तृ मातृ पितृ प्राप्तं षड्विधं स्त्रीधनं स्मृतम् । मनु १-१६४
मनु ६ प्रकारका स्त्रीधन बताते हैं १ अध्यग्नि २ अध्यावाहनिक ३ प्रीति दत्त ४ भर्तृदत्त ५ मातृदत्त और ६ पितृदत्त । आगे दफा ७५५ में इनका विस्तारसे वर्णन किया गया है। विष्णु और नारदने भी माना है, देखो
पितु मातृ सुत भ्रातृ दत्तमध्यग्न्युपागतम् प्राधिवेदनिकं बन्धु दत्तं शुक्लान्वाध्येयकामिति । विष्णुः
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