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स्त्री-धन
[ तेरहवां प्रकरण
अध्यग्न्यध्यावाहनिकं भ्रातृ दायस्तथैव च तृमातृ पितृ प्राड्विधं स्त्रीधनं स्मृतम् । नारदः१३-८
कात्यायनने स्त्रीधन वैसाही माना है जैसाकि मनुने, याज्ञवल्क्यने कुछ फरकके साथ माना है, इसलिये भिन्न भिन्न स्कूलों में भिन्न भिन्न तरह का अर्थ करने से स्त्रीधन के रूप में फरक़ पड़गया - याज्ञवल्क्य के अनुसार स्त्रीधन वह है
पितृ मातृपतिभ्रातृ दत्तमध्यग्न्युपागतम् आधिवेदनिकाद्यं च स्त्रीधनं परिकीर्तितम् । बन्धुदत्तं तथा शुल्क मन्वाधेयकमेवच ।
( १ ) विवाहाग्नि के समय जो धन पिता, माता, पति और भाइयों से मिले ( २ ) आधिवेदनिक ( ३ ) बन्धुओंका दिया हुआ धन ( ४ ) शुल्क और ( ५ ) अन्वाधेय । इतने प्रकार के स्त्रीधन बताकर 'आद्यं च' का पद दिया है जिसका अर्थ है इत्यादि । मिताक्षरा में कहा है कि
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आद्य शब्देन रिक्थकय संविभाग परिग्रहाधिगम प्रातमेतत् स्त्रीधनं मन्वादिभिरुक्तम् । स्त्रीधन शब्दश्च योगिको न पारिभाषिकः ।
मिताक्षरामें कहा गया है कि जो कुछ भी धन जायज़ तौरसे स्त्रीके कब्जे में हो वह सब स्त्रीधन है, देखो - (1903)301. A. 202-205, 25 All. 468-472; 7 C. W. N. 831; 5 Bom. L. R. 828; 24 Bom. 192; 19 Mad. 110-118.
शुल्क और अन्य प्रकारके स्त्रीधनकी वरासतके नियमों में मिताक्षराने कुछ भेद रखा है परन्तु स्त्रीधन उन्होंने भिन्न भिन्न प्रकारका नहीं माना । जो जायदाद किसी पुरुष या स्त्री से उत्तराधिकारमें मिली हो उन दोनों प्रकारकी जायदाद में कुछ भेद नहीं माना है, देखो - गांधी मगनलाल बनाम जादव 24 Bom. 192-217; 1 Bom. L. R. 574.
चाहे स्त्री विवाहिता हो या क्वारी जो कुछ भी धन उसको जायज़ तसे प्राप्त हुआ हो वह उसका स्त्रीधन है; देखो - मिताक्षरा -
'पित्रादि दत्तं विवाहात्पूर्व परतो वा '