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विवाह
उद्वा हिताच याकन्या न संप्राप्ताचमैथुनम् भर्तारं पुनरभ्येति यथाकन्या तथैवसा । ४४
जिस कन्याका विवाह हो चुका हो मगर पतिका सहवास न हुआ हो वह पति के मर जाने पर दूसरा पति प्राप्त करे क्योंकि वह अविवाहिता कन्याके समान है । और देखो वसिष्ठ स्मृति श्र० १७ श्लोक ६४
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ટક
[ दूसरा प्रकरण
अद्भिर्वाचाच दत्तायां म्रियेतादौ वरो यदि नवमंत्रोपनीतास्यात्कुमारी पितुरेवसा ।
जल अथवा वाक्य द्वारा कन्यादान हो चुका हो किन्तु मन्त्रोंसे विवाह कार्य पूरा नहीं हुआ हो यदि उस समय वर मर जावे तो वह कन्या अपने पिताकी कुमारी कन्या समझी जावेगी । इन सब वचनोंका सारांश यही निकलता है कि जब पतिका सहवास हो जाय तो कदापि स्त्री दूसरा विवाह नहीं कर सकती। इस समय सुधारके पक्षपातीयोंने कुछ विधवा विवाह किये हैं मगर वह हिन्दूलॉ के सर्ब मान्य सिद्धांतपर असर नहीं रखते ।
पञ्जाबमें जहां कस्टमरी लॉ का प्रचार है, नाथू वनाम रामदास 4 Punjab. 1905 में माना गया कि एक खत्री और खतरानी के परस्पर विधवा विवाह जायज़ है ।
विधवा स्त्रीका विवाह - आज कल विधवा स्त्रीके विवाहपर सुधारकों का बड़ा ज़ोर लग रहा है । प्राचीन हिन्दू धर्मशास्त्र के मतानुसार विधवा विवाहकी स्पष्ट रूपसे आज्ञा नहीं दी गयी बक्लि किसी अवस्था में निन्द्य स्वीकार कर लिया गया है। क़ानून की दृष्टिसे विचार करनेपर इस विषय में निम्न लिखित प्रश्न उत्पन्न होते हैं:
१ सवर्ण विधवा के साथ विवाह संस्कार होनेपर उसके पुत्रोंमें पुत्रत्व रहता है ? वे औरस माने जायंगे ?
२ सवर्ण विधवा (अनुलोमज ) के साथ विवाह होनेपर उसके पुत्रों औरसत्व रहेगा ? एवं असवर्ण ( प्रतिलोमज ) विधवाके साथ विवाह होनेपर क्या परिस्थिति होगी ?
३ विधवाका दान कौन कर सकता है ?
४ विधवा विवाहकी विधि क्या है ?
५ विडो रिमेरेज एक्ट नं० १५ सन १८५६ ई० का असर क्या है ?
नीचे प्रत्येक प्रश्नका संक्षेपसे विचार किया गया है आप प्रत्येक प्रश्न के नम्बरके अनुसार देखें
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