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दफा ६३]
वैवाहिक सम्बन्ध
१-सवर्ण विधवा अर्थात् उसी वर्णकी विधवा जिसका पति है परस्पर विवाह हो जानेसे उसके पुत्रोंमें पुत्रत्व रहता है । पुत्रत्व (Sonship) दो तरहसे देखा जायगा । एकतो गोत्रके अनुसार दूसरा वरासत मिलनेके अनुसार । जब एकही वर्णका पति और विधवा है तो वे सवर्ण अवश्य हैं। सगोत्र सवर्ण विधवाका विवाह निषेध किया गया है। विधवाके विवाहमें भी गोत्रका वैसाही ध्यान रखा जायगा जैसाकि उसके विवाह न होनेकी दशा में होता है । भिन्न गोत्र सवर्ण विधवाके विवाहसे उत्पन्न पुत्रोंमें पुत्रत्व आता है। दोनों प्रकारका पुत्रत्व रहता है। गोत्रका और वरासतके मतलबका भी। अब प्रश्न यह रह जाता है कि विवाह कन्याका होता है, जिसका विवाह एक दफे हो चुका उसका विवाह कैसा ? अर्थात् विधवाकी हैसियतसे उस स्त्री का विवाह संस्कार नहीं होना चाहिये इस दोषको विडोरिमेरेज ऐक्ट नं०१५ सन १८५६ ई० दूर कर देता है। हां लन १८५६ ई० से, यानी इस कानून के पास होने से पहले यह दोष वरासतका दसरी तरह रफा नहीं हो सकता था। उस समय न तो विधवा विवाह ही होता था और न विधवाके पुत्रों को कोई हिस्सा जायदाद में अकेले अथवा औरस पुत्रोंके साथ मिलता था। जहां तक जायदाद या जायदादके बटवारेका सम्बन्ध है अब इस एक्टके असरसे विधवा के पुत्रोंको वैसाही हिस्सा मिलेगा जैसाकि उस पुरुषके अन्य औरस पुत्रोंको। यह काजून इसी प्रकरणके अन्तमें मुकम्मिल दिया गया है देखिये।
विधवाके विवाहसे उत्पन्न पुत्र, कुछ वचनोंके और रवाजके अनुसार जायदादमें हिस्सा नहीं पाते थे किन्तु उन पुत्रोंमें भिन्न गोत्र सवर्ण विधवासे उत्पन्न पुत्रोंमें पुत्रत्व रहता था। हिस्सा न पाने के सबब से विधवाओं का पुनर्विवाह नहीं होताथा। उक्त कानून पास होनेके समय इस विषयमें बड़ा वाद विवाद उत्पन्न हुआ। बारीक दृष्टिसे आर्ष वचनोंकी सङ्गति लगाई गयी कुछ समयपर भी विचार किया गया अस्तु कानून पास किया गया । आर्ष वचनों में दोनों पक्षोंके समर्थक वचन पाये जाते हैं या यों कहिये कि वचनोंका अर्थ दोनों पक्षों की ओर दरता है। स्पष्ट रूपसे चाहे विधवा विवाहके सम्बन्धमें कोई वचन नभी मिलता हो तो वह यदि किसी कारण हो जाय तो श्राचायौंने उसे मञ्जूर कर लिया है । विधवाके पुत्रों और उस पतिके अन्य औरस पुत्रोंके बीच उत्तराधिकार एवं बटवारामें समानता रहेगी।
२--अनुलोमज ( देखो दफा १) विवाही विधवासे उत्पन्न पुत्रोंमें घरासत सम्बन्धी पुत्रत्व नहीं प्राप्त होता। वे समानाधिकारी नहीं माने जा सकते । पहिले तो किसी ब्राह्मणका विवाह किसी शूद्रा या वैश्या या क्षत्रिया से होना ही जायज़ नहीं माना जाता। इसी तरह क्षत्रिय और वैश्य का उसके नीचेके वर्गों में मगर यह बात बाई गुलाब बनाम जीवनलाल हरीलाल 1922 Bom L. R.5 to 16 में तय हो गयी है कि शूद्रा स्त्रीके साथ वैश्य पुरुष
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