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बंगालमें महिला सभाकी नेत्री सुचारु देवी ने सर्मन किया, श्री मानसी देवी, श्री लावण्यलेखा, श्री स्नेहमयी, श्री सुरवाला, श्री नीलनी वाला, श्री सुनीला, श्री कुमुदिनी, श्री सरला और श्री रणुका देवीने अपने अपने भाषणोंमें बिलका समर्थन करते हुए कहा कि बालिकाओंके निर्मल आनन्दमय जीवनको कष्ट-मय बनानेका अधिकार किसीको नहीं है, विरोधियोंका कहना है कि कानून बनाकर हमें समाज सुधार न करना चाहिये पर बिना कानूनके सहारे स्त्रियोंको कब कौन अधिकार मिला है ? स्त्रियों पर तो युगोंसे अत्याचार होता चला आया है, वालिकाओंके क्रंददसे देश उद्विग्न हो उठा है, छोटी छोटी लड़कियां वधू जीवनके कर्तव्यको समझ नहीं सकतीं, उनमें दाम्पत्य प्रेमका संचार हो नहीं सकता, जिस तरह भूख न रहने पर भोजन करनेसे बदहज़मी होकर स्वास्थ्य बिगड़ जाता है उसी तरह प्रेमका संचार हुए बिना प्रेम करनेसे जीवन नष्ट हो जाता है, स्त्रियां बच्चे पैदा करनेकी मेशीन नहीं हैं, स्त्रियोंकी शारीरिक और मानसिक उन्नति पर समाजकी उन्नति निर्भर है, बिलमें लड़कियोंकी उमर कम रखी गई है उससे ज्यादा होना चाहिये ताकि उनको शिक्षाका समय मिले, १०-१२ वर्षकी लड़कियां ससुराल जाते समय भविष्यके भयसे जिस तरह रोती पीटती हैं लोग ज़बरदस्ती सवारी पर चढ़ा लेते हैं, यही कारण होता है कि वे भाग जाती हैं, विधर्मी ले जाते हैं, देशमें बीर सन्तान पैदा होने की आवश्यकता है और जब लड़कियोंके अङ्ग पुष्ट होने नहीं पाते कि उनके बच्चे पैदा हो जाते है तो वे बीर कैसे बन सकते हैं, ? और सबसे बड़ा प्रमाण सन् १९२१ ई० की मनुष्य गणना का लेखा है जिससे पता चलेगा कि समाजने बाल विवाह करके कितना ज्यादा अत्याचार बालिकाओं पर किया है सन् १९२१ ई. में विधवाओंकी संख्या ५ वर्ष की उम्रकी ५९७ व १-२ वर्षकी ४९४ व २-३ वर्षकी १२५७ व ३.४ वर्षकी २८३७ व ४-५ वर्षकी ६७०७ व ५-१० वर्षकी ८५०३७ व १०-१५ वर्षकी २३२१४६ तथा १५-२० वर्षकी ३९६१७२ विधवायें है।
इस प्रकार विधवाओं की बृद्धिका कारण सिवाय पतियोंके मर जानेके और नहीं हो सकता। प्रयोजन यह है कि समर्थन और विरोधमें जगह जगह पर सभाएं हुयीं। विरोधी दलका मूल विरोध यह था कि हिन्द धर्म शास्रों में कोई नियम बनाया नहीं जासकता, यह बिल हिन्दू धार्मिक विवाह कृत्य पर बाधा डालता है इसलिये पास नहीं होना चाहिये । मैं बहुमान पूर्वक नम्र निवेदन करता हूँ कि जब हिन्दू विधवा विवाह एक्ट नं० १५ सन् १८५६ ई० में पास हुआ तो वह कानून इस कानूनसे अधिक बाधा डाल चुका है, चाहे उस समय क्षणिक आन्दोलन किया गया हो पर अब एक प्रकारसे उस कानूनको स्वीकार कर लिया गया है अब कोई आन्दोलन इस बारेमें नहीं होता।
उत्तराधिकारमें महर्षि याज्ञवल्क्य, मिताक्षरा आदिके बनाये नियम हिन्दुओंमें प्रचलित थे किन्तु इस सम्बन्धमें कई कानून बन गये और उनके सम्बन्धमें शास्त्र विरुद्ध होनेकी बात पर कोई जोर नहीं दिया गया। जिन इलोका या बचनोंके आधार पर बाल विवाह किसी हद तक उचित बताया जासकता है उनके बारेमें दूसरे पक्षका यह कहना है कि मुसलमानों के राज्य कालमें आवश्यकता प्रतीत होने पर पूर्वजोंने दूरदर्शितासे अच्छा काम लिया था और उचित किया था। उस समय पर वे श्लोक और वचन क्षेपककी भांति जोड़ दिये गये थे। प्राचीन शास्त्रोंके वचन बाल विवाह के विरोध में बहुतायतसे पाये जाते हैं । सथानी लड़कियोंका विवाह भी उनके माता पिता ही करते हैं।
दूसरी विशेष समितिन देशमें बहुत दिनों तक इस बिलके सम्बन्धमें गवाहियां ली, प्रश्नोत्तर किये और अन्तमें ता० १३ सितम्बर सन् १९२८ ई० को संशोधित बिल अपनी रिपोर्टकं साथ बड़ी कौन्सिलके सामने उपस्थित कर दिया। समितिने रिपोर्ट में लड़कोंकी उमर १८ साल भौर